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________________ ६८ ] [ मुहूर्तराज अथ पंचशलाका चक्र निर्माण विधि-(मु.चि. मै नारदमत से) वि.प्र.श्लो. ५६ वे.धा. में तिर्यक् पंचोर्ध्वगः पंच रेखे द्वे द्वे च कोणयो । द्वितीय शम्भुकोणेऽग्निधिष्णयं चक्रे च विन्यसेत् ॥ भान्यतः साभिजित्येकरेखाकोणे ज विद्धभम् ॥ अथ पंचशलाका यन्त्रम् रो. मृ आ. पु. पु. अर्थ - आड़ी (तिरछी) तथा खड़ी ५-५ रेखाएँ तथा २-२ रेखाएँ चारों कोणों में खींचनी चाहिए। बाद में ईशान कोण की दूसरी रेखा पर कृत्तिका नक्षत्र को लिखकर दक्षिण क्रम | उत्तर से सभी नक्षत्र लिखने चाहिए। इनमें अभिजित् भी लिया गया है। फिर जिस दिन . श्र. को विवाहार्थ निश्चित करना हो, उस दिन जो-जो ग्रह जिस-जिस नक्षत्र पर हो लिखें। उस दिन के निकटवर्ती | पूर्णिमा को जो नक्षत्र हो है. दक्षिण उस पर चन्द्रमा लिखें | ततः यदि स्वा. | विवाह नक्षत्र • वि. की सीध में अनु.. कोई ग्रह हो | तो वह नक्षत्र विद्ध माना जाता है। अभि. उ.षा. पू.षा. मू. ज्ये. bekle पश्चिम व्यवहार समुच्चय में सप्तशलाका यन्त्र सप्त सप्त विनिपात्य रेखिकाः , तिर्युगूर्ध्वमथ कृत्तिकादिकम् ।। लेखयेदभिजिता समन्वितम् , चैकरेखखगमेन विध्यते ॥ अन्वय - सप्लशलाकायन्त्रलेखनार्थम् सप्त तिर्यक्रेखा: सप्त च ऊर्ध्वगा: रेखाः विनिपात्य अभिजिता समन्वितम् (नक्षत्रजातम् लेखयेत् एकरेखखगमेन विध्यते (वेधो भवति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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