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[ मुहूर्तराज अथ पंचशलाका चक्र निर्माण विधि-(मु.चि. मै नारदमत से) वि.प्र.श्लो. ५६ वे.धा. में
तिर्यक् पंचोर्ध्वगः पंच रेखे द्वे द्वे च कोणयो । द्वितीय शम्भुकोणेऽग्निधिष्णयं चक्रे च विन्यसेत् ॥ भान्यतः साभिजित्येकरेखाकोणे ज विद्धभम् ॥
अथ पंचशलाका यन्त्रम्
रो.
मृ
आ.
पु.
पु.
अर्थ - आड़ी (तिरछी) तथा खड़ी ५-५ रेखाएँ तथा २-२ रेखाएँ चारों कोणों में खींचनी चाहिए। बाद में ईशान कोण की दूसरी रेखा पर कृत्तिका नक्षत्र को लिखकर दक्षिण क्रम | उत्तर से सभी नक्षत्र लिखने चाहिए। इनमें अभिजित् भी लिया गया है।
फिर जिस दिन . श्र. को विवाहार्थ निश्चित करना हो,
उस दिन जो-जो ग्रह जिस-जिस नक्षत्र पर हो लिखें। उस दिन के निकटवर्ती | पूर्णिमा को
जो नक्षत्र हो है. दक्षिण उस पर
चन्द्रमा लिखें
| ततः यदि स्वा.
| विवाह नक्षत्र • वि. की सीध में अनु.. कोई ग्रह हो
| तो वह नक्षत्र विद्ध माना जाता है।
अभि.
उ.षा.
पू.षा.
मू.
ज्ये.
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पश्चिम
व्यवहार समुच्चय में सप्तशलाका यन्त्र
सप्त सप्त विनिपात्य रेखिकाः , तिर्युगूर्ध्वमथ कृत्तिकादिकम् ।। लेखयेदभिजिता समन्वितम् , चैकरेखखगमेन विध्यते ॥
अन्वय - सप्लशलाकायन्त्रलेखनार्थम् सप्त तिर्यक्रेखा: सप्त च ऊर्ध्वगा: रेखाः विनिपात्य अभिजिता समन्वितम् (नक्षत्रजातम् लेखयेत् एकरेखखगमेन विध्यते (वेधो भवति)
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