SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० ] [ मुहूर्तराज (५) अथ गृहप्रवेशापरपर्यायप्रतिष्ठाप्रकरणम् प्रतिष्ठाप्रकरण का ही दूसरा नाम गृहप्रवेश प्रकरण है, जो लग्नशुद्धि पञ्चाङ्ग शुद्धयादि विधिविधान गृहारम्भ और उसमें प्रवेशार्थ शास्त्रों में बतलाए गए हैं, वे ही देवालयारम्भ एवं प्रतिष्ठा के लिए भी जानने चाहिएँ जैसा कि व्यवहार में कथन है गृहेषु यो विधिः कार्यो निवेशनप्रवेशयोः । स एव विदुषा कार्यो देवतायतनेष्वपि ॥ अर्थात् - गृह के आरम्भ एवं प्रवेशकाल में जो विधि करने योग्य है, वही जैसी ही विधि देवालय के आरम्भ और प्रतिष्ठा में करनी चाहिए। गृह प्रवेश के चार प्रकार हैं नववधूप्रवेश, अपूर्वप्रवेश, सुपूर्वप्रवेश और द्वन्द्वाभयप्रवेश। इनमें से वधूप्रवेश के विषय में अन्य प्रकरण चर्चा है। अन्य तीन प्रवेशों के विषय में श्रीवसिष्ठ का कथन पढ़िए अपूर्वसंज्ञः प्रथमः प्रवेशः यात्रावसाने च सुपूर्वसंज्ञः द्वन्द्वाभयस्त्वग्निभयादि जानः एवं प्रवेशः त्रिविधः प्रदिष्ट ॥ अन्वय :- नवनिर्मित गृहे य: प्रथमः प्रवेश: स: अपूर्वसंज्ञ: राजादीनां यात्रावसाने स्वभवते य: प्रवेश: सः सुपूर्वसंज्ञ उच्यने अथ च अग्नि राजादिभयेन जानः अर्थात् अग्निदाहाद् विनष्टे राजकोपात् पातिते पुनश्च उत्थापिते गृह प्रवेशः क्रियते स: द्वन्द्वाभयप्रवेश: उक्तः। अर्थ :- स्वयं की खरीदी गई भूमि पर नवीन बनाए गये घर में जो प्रवेश किया जाता है उस प्रवेश को अपूर्वसंज्ञ कहते हैं। राजादि यात्रा के बाद जो अपने भवन में प्रवेश करते हैं, उसे सुपूर्वसंज्ञ कहा गया है और जो प्रवेश आग पानी की बाढ़ आदि से घर के जल जाने या बह जाने पर अथवा राजादि कोप से गिरा दिये जाने पर पुन: उसी भूमिखण्ड में उत्थापित जीर्णोद्धृत घर में किया जाता है उस प्रवेश कोप द्वन्द्वाभयप्रवेश कहते हैं। अपूर्वप्रवेश एवं सुपूर्वप्रवेशार्थ कालशुद्धि-(मु.चि.ग.प्र. श्लो. १) सौम्यायने ज्येष्ठतपोऽन्त्यमाधवे यात्रानिवृत्तौ नृपते नवे गृहे । स्याद्वेशनं द्वाःस्थमृदुधुवोडुभि जन्मङ्क्षलग्नोपचयोदये स्थिते ॥ अन्वय :- नृपतेर्यात्रानिवृत्तौ (नृपयात्रासमाप्तौ) स्वगृहेऽथवा नवे गृहे सौम्यायने (उत्तरायणे) अपि ज्येष्ठतपोऽन्त्यमाधवे (ज्येष्ठमाघफाल्गुनवैशाखमासेष) द्वा:स्थमृदुध्रुवोडुभिः (कृत्तिकादिभरणीपर्यन्तं नक्षत्राणां सप्तसु नक्षत्रेषु क्रमशः पूर्वादिदिस्थितेष्वपि मृदुध्रुवोडुभिरर्थात् उत्तरात्रय रोहिणी मृगरेवतीचित्रानुराधा नक्षत्रेषु सत्सु तथा च जन्मङ्क्षलग्नोपचयोदये स्थिते (जन्मराशिजन्मलग्नाभ्यां तृतीयषष्ठैकादशराशिषु अथवा अन्येषु स्थिराशिषु लग्नभूतेषु वेशनम् प्रवेश: स्यात् शुभो भवेत्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy