Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर क्या आप जीवन में महावीर क्या आए जीवन में हजारों-हजारों बहारें आ गईं भागः१ जिन-सूब For Private & Personal use on Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-दर्शन गणित, विज्ञान जैसा दर्शन है। काव्य की उसमें कोई जगह नहीं। वही उसकी विशिष्टता है। दो और दो जैसे चार होते हैं, ऐसे ही महावीर के वक्तव्य हैं। महावीर धर्म की परिभाषा करते हैं: जीवन के स्वभाव के सूत्र को समझ लेना धर्म है। जीवन के स्वभाव को पहचान लेना धर्म है। स्वभाव ही धर्म है। इसलिए महावीर के वचन जैसे महावीर नग्न हैं वैसे ही महावीर के वचन भी नग्न हैं। उनमें कोई सजावट नहीं है। जैसा है। वैसा कहा है। तो जब मैं महावीर के मार्ग पर बोल रहा हूं तो तुम खयाल रखना मैं चाहता हूं कि शुद्ध महावीर की बात तुम्हारी समझ में आ जाए; और जिसको वह यात्रा सुगम मालूम पड़े वह चल सके। वहां भक्ति को भूल ही जाना। वहां सूफियों से कुछ लेना-देना नहीं। वहां तो तुम शुद्ध निर्भाव होने की चेष्टा करना, क्योंकि वहां निर्भाव ही गाड़ी का चाक है। महावीर का मार्ग शुद्धतम मार्गों में से एक है। लेकिन उसे शुद्ध रखना। महावीर के मार्ग पर पूजा को मत ले आना, प्रार्थना को मत ले आना। शेष अगले कवर फ्लैप पर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो द्वारा भगवान महावीर के समण-सुत्तं पर दिए गए 62 प्रवचनों में से 31 प्रवचनों का प्रथम संकलन। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागः जिव- सूत्र १ ओ शो महावीर क्या आए जीवन में हजारों-हजारों बहारें आ गईं Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग संकलन - मा कृष्ण प्रिया, स्वामी कृष्ण वेदांत, मा प्रेम कल्पना संपादन - स्वामी चैतन्य कीर्ति, स्वामी आनंद सत्यार्थी संयोजन स्वामी योग अमित साज-सज्जा - • स्वामी प्रेम प्रभु डार्करूम स्वामी आनंद अगम टाइपिंग - - मा आनंद भगवती, स्वामी आनंद प्रभु, मा देव साम्या, मा कृष्ण लीला पेज मेकिंग स्वामी प्रेम राजेंद्र फोटोटाइपसेटिंग - मुद्रक - टाटा प्रेस लिमिटेड, बंबई प्रकाशक - - रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा. लि., ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना 50 कोरेगांव पार्क, पूना . ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन कापीराइट सर्वाधिकार सुरक्षित • इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व प्रकाशक की लिखित अनुमति अनिवार्य है। विशेष राजसंस्करण जुलाई 1993 प्रतियां - 3000 - - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R R निमन्त्रण ओशो के प्रवचनों की भूमिका लिखने का मैं अपने आपको की अंतिम कड़ी तक हमारे लिए पाथेय हैं। अधिकारी पात्र नहीं समझता हूं, क्योंकि केवल एक सबुद्ध ही | यशस्वी कवि श्री हरिवंशराय बच्चन की कुछ पंक्तियां दूसरे संबुद्ध के संबंध में कुछ कहने और लिखने का अधिकारी हैंहै; जैसा कि भगवान महावीर तथा उनके जिन-सूत्रों पर आज पोत अगणित इन तरंगों ने पुनः पच्चीस सौ वर्ष के उपरांत ओशो ने अपने प्रवचनों के डुबाए, मानता मैं माध्यम से उनके सत्य का उदघाटन किया है। वही सम्यक है। पार भी पहुंचे बहुत से भगवान महावीर के संबंध में ओशो कहते हैं: बात यह भी जानता मैं ___ "...महावीर से ज्यादा सुंदर, महिमामंडित परमात्मा की किंतु होता सत्य यदि यह कोई और छवि देखी है? महावीर से ज्यादा आलोकित, विभामय भी, सभी जलयान डूबे कोई और विभूति देखी है? कहीं और देखा है ऐसा ऐश्वर्य जैसा पार जाने की प्रतिज्ञा महावीर में प्रगट हुआ? जैसी मस्ती और जैसा आनंद, और जैसा आज बरबस ठानता मैं संगीत इस आदमी के पास बजा, कहीं और सुना है? कृष्ण को डूबता मैं, किंतु उतराता तो बांसुरी लेनी पड़ती है, तब बजता है संगीत; महावीर के पास सदा व्यक्तित्व मेरा बिना बांसुरी बजा है। मीरा को तो नाचना पड़ता है, तब बजता हों युवक डूबे भले ही है संगीत।...कोई सहारा न लिया-वीणा का भी नहीं, नृत्य का है कभी डूबा न यौवन भी नहीं, बांसुरी का भी नहीं। कृष्ण तो सुंदर लगते हैं- तीर पर कैसे रुकू मैं मोर-मुकुट बांधे हैं। महावीर के पास तो सौंदर्य के लिए कोई आज लहरों में निमंत्रण! सहारा नहीं-बेसहारे! निरालंब! लेकिन कहीं और देखा है परमात्मा का ऐसा आविष्कार? जीवन की ऐसी प्रगाढ़ता! ऐसा ओशो कहते हैं : “महावीर दूर अनंत के सागर की लहरों घना आनंद!" का निमंत्रण हैं। और निमंत्रण ही नहीं. उस दर के सागर तक ऐसे अनूठे महावीर के जिन-सूत्रों पर प्रवचनों के माध्यम पहुंचने का एक-एक कदम भी स्पष्ट कर गए हैं। महावीर ने से ओशो जिन-साधना के लिए हमें निमंत्रण दे रहे हैं। इस अध्यात्म के विज्ञान में कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ा है, खाली जगह साधना में अनंत उतार-चढ़ाव आएंगे, अनेक भटकाव भी आ | नहीं है। नक्शा पूरा है। एक-एक इंच भूमि को ठीक से माप गए सकते हैं। ओशो के ये अमृत-प्रवचन अंतिम घड़ी तक, यात्रा | हैं, और जगह-जगह मील के पत्थर खड़े कर गए हैं। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "महावीर के निमंत्रण को अनुभव करो! उनकी पुकार को सुनो! ऐसे खाली नाम मात्र को जैन हो कर बैठे रहने से कुछ भी न होगा। ऐसी नपुंसक स्थिति से कुछ लाभ नहीं। उठो। अपने को जगाओ। बहुत बड़ी संभावना तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। खतरा है। इसलिए महावीर कहते हैं : अभय। साहस चाहिए! "सनो इस निमंत्रण को! करो हिम्मत! चलो थोड़े कदम महावीर के साथ! थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे कि जीवन की रसधार बहने लगेगी। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे, संपदा करीब आने लगेगी। आने लगी शीतल हवाएं-शांति की, मुक्ति की! फिर तुम रुक न पाओगे। फिर तुम्हें कोई भी रोक न सकेगा। थोड़ा लेकिन स्वाद जरूरी है। दो कदम चलो, स्वाद मिल जाए; फिर तुम अपने स्वाद के बल ही चल पड़ोगे।" __ कहां ले जाना चाहते हैं महावीर हमें? ओशो कहते हैं: "महावीर तम्हें वहां ले जाना चाहते हैं जहां न कोई विचार रह जाता, न कोई भाव रह जाता, न कोई चाह रह जाती, न कोई परमात्मा रह जाता-जहां बस तुम एकांत, अकेले, अपनी परिपूर्ण शुद्धता में बच रहते हो। निर्धूम जलती है तुम्हारी चेतना। "महावीर ने आत्मा की जैसी महिमा का गुणगान किया है, किसी ने भी नहीं किया। महावीर ने सारे परमात्मा को आत्मा में उंडेल दिया है। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी है, और किसी ने भी नहीं दी। महावीर ने मनुष्य को सर्वोत्तम, सबसे ऊपर रखा है।" ओशो की यह विशेषता है कि जब वे किसी आध्यात्मिक श्री महेंद्र कुमार 'मानव' हिंदी भाषा के यशस्वी कवि एवं व्यक्ति के बारे में बोलते हैं तब वे शब्द के पार सीधे उस व्यक्ति । लेखक होने के साथ ही साथ संपादक, समाज-सेवी एवं की आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। यह कार्य कोई | स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी हैं। श्री मानव विंध्यप्रदेश के वित्त ऊर्ध्व-चेतना संपन्न व्यक्ति ही कर सकता है। और ओशो एवं समाज सेवा मंत्री तथा म.प्र. विधान सभा के सदस्य रहे हैं। जन्मों-जन्मों की साधना के बाद उस चेतना को उपलब्ध हुए हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मनुष्य की गंध मुझे आती ओशो ने वह कुंजी प्राप्त कर ली है जिससे महावीर, बुद्ध, कृष्ण, | है' काव्य-संग्रह तथा प. कन्हैयालाल मुंशी की गुजराती ईसा, मोहम्मद, जरथुस्त्र इत्यादि की महाचेतना के ताले खोले जा पुस्तक का हिंदी अनुवाद 'नवलिकाओं' विशेष उल्लेखनीय सकते हैं। है। संप्रति श्री मानव 'दि पंचायत राज' साप्ताहिक के प्रधान यह हमारे युग का सौभाग्य है कि हमें ओशो का सान्निध्य संपादक हैं तथा इंडो-जर्मन फ्रेंडशिप एसोसिएशन, इंडियन प्राप्त हुआ है। फेडरेशन आफ स्माल एंड मीडियम न्यूज पेपर्स, स्वामी प्रणवानंद सरस्वती लिटरेचर ट्रस्ट आफ इंडिया, आल इंडिया महेंद्र कुमार 'मानव' फ्रीडम फाइटर्स आर्गनाइजेशन आदि विभिन्न संस्थाओं के विशिष्ट पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम 65 111 135 157 1. जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प 2. प्यास ही प्रार्थना है 3. बोध-गहन बोध-मुक्ति है 4. धर्म ः निजी और वैयक्तिक 5. परम औषधि ः साक्षी-भाव 6. तुम मिटो तो मिलन हो 7. जीवन एक सुअवसर है 8. सम्यक ज्ञान मुक्ति है 9. अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान 10. जिंदगी नाम है रवानी का 11. अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की 12. संकल्प की अंतिम निष्पत्ति ः समर्पण 13. वासना ढपोरशंख है 14. प्रेम से मुझे प्रेम है 15. मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो 16. उठो, जागो-सुबह करीब है 181 203 225 249 271 295 319 341 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 363 389 409 429 449 469 491 17. आत्मा परम आधार है 18. धर्म आविष्कार है स्वयं का 19. धर्म की मूल भित्तिः अभय 20. पलकन पग पोंछे आज पिया के 21. जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति 22. परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम 23. जीवन की भव्यता : अभी और यहीं 24. मांग नहीं—अहोभाव, अहोगीत 25. दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष 26. तुम्हारी संपदा—तुम हो 27. साधु का सेवन : आत्मसेवन 28. जीवन का ऋतः भाव, प्रेम, भक्ति 29. मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि 30. प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति 31. सम्यक दर्शन के आठ अंग 533 553 575 599 619 641 659 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education www.ia Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रवचन जिन-शासन की आधारशिलाः संकल्प For Private Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BLOUDHARE An0A C.5 . 5 5 RESTHA BHERI NAL सूत्र जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं।।१।। अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइ न गच्छेजा।।२।। खणामित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।।३।। सुट्ठवि मग्गिज्जतो, कत्थवि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदिअविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुट्ठ वि गविट्ठ।।४।। जह कच्छुल्लो कच्छं, कंडयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं। मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं विंति।।५।। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ daws NRANIRUBHETANAKAMVARTA REET. ने द कहते हैं, परमात्मा अकेला था। एकाकीपन उसे साक्षात का सूत्रपात हुआ। वह ठीक वेद से उलटा है। 1 खला, अकेलेपन से ऊबा। सोचा उसने, बहुत हो | वेद कहते हैं, वह अकेला था, ऊबा, उसने बहुत को रचा। जाऊं। फिर उसने बहुत रूप धरे। ऐसे संसार | महावीर बहुत से ऊब गए, भीड़ से थक गए और उन्होंने चाहा, निर्मित हुआ। सृष्टि की यह कथा है। अकेला हो जाऊं। परमात्मा का उतरना संसार में, फैलना और स एकाकी न रेमे, एकोऽहं बहुस्याम्! महावीर का लौटना वापिस परमात्मा में! इसलिए अकेला वह ऊबने लगा। सोचा बहुत रूपों को सृजूं, बहुत श्रमण-संस्कृति के पास अवतार जैसा कोई शब्द नहीं है। रूपों में रमूं। तीर्थंकर! अवतार का अर्थ है: परमात्मा उतरे, अवतरित हो। ब्राह्मण-संस्कृति इसी सूत्र का विस्तार है-परमात्मा का तीर्थंकर का अर्थ है : उस पार जाए, इस पार को छोड़े। अवतार अवतरण, परमात्मा का फैलाव। ब्रह्म शब्द का यही अर्थ है : जो का अर्थ है: उस पार से इस पार आए। तीर्थंकर का अर्थ है : फैलता चला जाए, जो बहुत रूप धरे, जो बहुत लीला करे, जो घाट बनाए इस पार से उस पार जाने का। संसार कैसे तिरोहित अनेक-अनेक ढंगों से अभिव्यक्त हो, सागर जैसे अनंत-अनंत हो जाए, स्वप्न कैसे बंद हो, भीड़ कैसे विदा हो; फिर हम लहरों में विभाजित हो जाए। अकेले कैसे हो जाएं-वही श्रमण-संस्कृति का आधार है। एक अनेक बनता है, एक अनेक में उत्सव मनाता है। एक | वर्द्धमान कैसे महावीर बने, फैलाव कैसे रुके; क्योंकि जो अनेक में डूबता है, स्वप्न देखता है। माया सर्जित होती है। फैलता चला जा रहा है उसका कोई अंत नहीं है। वह पसारा बड़ा संसार परमात्मा का स्वप्न है। संसार परमात्मा के गहन में उठी है। वह कहीं समाप्त न होगा। स्वप्न फैलते ही चले जाएंगे, विचार की तरंगें हैं। फैलते ही चले जाएंगे और हम उनमें खोते ही चले जाएंगे। ब्राह्मण-संस्कृति ने परमात्मा के इस फैलाव के अनूठे गीत जागना होगा! गाए। उससे भक्ति-शास्त्र का जन्म हुआ। भक्ति-शास्त्र का | भक्ति-शास्त्र ने परमात्मा के इस संसार के अनेक-अनेक अर्थ है : परमात्मा का यह फैलता हुआ रूप, अहोभाग्य है। रूपों के गीत गाए, महावीर ने इस फैलती हुई ऊर्जा से संघर्ष परमात्मा का यह फैलता हुआ रूप परम आनंद है। इसलिए | किया-इसलिए 'महावीर' नाम-लड़े, धारा के उलटे बहे। भक्ति में रस है, फैलाव है। एक शब्द में कहें तो महावीर का जो गंगा बहती है गंगोत्री से गंगासागर तक-ऐसी बचपन का नाम है, वह ब्राह्मण-संस्कृति का सूचक है। महावीर | ब्राह्मण-संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति का सूत्र है: समर्पण; का बचपन का नाम था: वर्द्धमान—जो फैले, जो विकासमान छोड़ दो उसके हाथ में, जहां वह जा रहा है; चले चलो; भरोसा हो। फिर महावीर को दूसरी ऊर्जा का, दूसरे अनुभव का, दूसरे करो; शरणागति ! Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः pron महावीर की सारी चेष्टा ऐसी है जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ | मालूम होंगे। घबड़ाना मत। श्रवण और ब्राह्मण मिलकर ही पूर्ण बहे-मूलस्रोत की तरफ, उत्स की तरफ। लड़ो! दुस्साहस | संस्कृति का जन्म होता है। नहीं हो पाया ऐसा, होना चाहिए था। करो-संघर्ष, समर्पण नहीं। महान संघर्ष से गुजरना होगा, अब भी कुछ देर नहीं हुई, हो सकता है। जहां नारद और क्योंकि धारा को उलटा ले जाना है, विपरीत ले जाना है। वर्द्धमान महावीर राजी हो जाते हैं, वहां पूर्ण वर्तुल पैदा होता है। धारा का अर्थ है : जाए गंगोत्री से गंगा सागर की तरफ। धारा पर महावीर की भाषा संघर्ष की है। महावीर के पास को उलटा करना है-राधा बनाना है। गंगा चले, बहे उलटी, शरणागति जैसा कोई शब्द ही नहीं है। महावीर कहते हैं, ऊपर की तरफ, पानी पहाड़ चढ़े। मूल उदगम की खोज हो। अशरण-भावना। किसी की शरण मत जाना। अपनी ही शरण ब्राह्मण-संस्कृति आधी है। श्रमण-संस्कृति भी आधी है। लौटना है। घर जाना है। किसी का सहारा मत पकड़ना। सहारे दोनों से मिलकर पूरा वर्तुल निर्मित होता है। और इसलिए इस | से तो दूसरा हो जाएगा। सहारे में तो दूसरा महत्वपूर्ण हो देश में ब्राह्मण और श्रमणों के बीच जो संघर्ष चला, उसने दोनों जाएगा। नहीं, दूसरे को तो त्यागना है, छोड़ना है, भूलना है। को पंगु किया। तब ब्राह्मणों के पास फैलने के सूत्र रह गए, | बस एक ही याद रह जाए, जो अपना स्वभाव है, जो अपना श्रमणों के पास सिकुड़ने के सूत्र रह गए। दोनों ही अधूरे हो गए; | स्वरूप है-इसलिए कोई शरणागति नहीं। सत्य आधा-आधा कट गया। मेरे देखे, जहां ब्राह्मण और श्रमण महावीर गुरु नहीं हैं। महावीर कल्याणमित्र हैं। वे कहते हैं, मैं राजी होते हैं, सहमत होते हैं, मिल जाते हैं, वहीं परिपूर्ण धर्म का कुछ कहता हूं, उसे समझ लो; मेरे सहारे लेने की जरूरत नहीं आविर्भाव होता है। | है। मेरी शरण आने से तुम मुक्त न हो जाओगे। मेरी शरण आने निश्चित ही परमात्मा थक गया अकेलेपन से, बहुत रूप उसने से तो नया बंधन निर्मित होगा, क्योंकि दो बने रहेंगे। भक्त और धरे; लेकिन फिर बहुत रूप से भी तो थकेगा, फिर विश्राम भी तो भगवान बना रहेगा। शिष्य और गुरु बना रहेगा। नहीं, दो को तो मांगेगा। इसलिए महावीर के वचन वेद-विरोधी मालूम होंगे; मिटाना है। क्योंकि वेद बह रहा है गंगोत्री से गंगासागर की तरफ। इसलिए इसलिए महावीर ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। हिंदुओं ने समझा कि महावीर वेद-विरोधी हैं-प्रतीत होते हैं। कहा कि भक्त ही भगवान हो जाता है। | परमात्मा अपने घर वापिस लौटने लगा। ऊब गया बाजार से, इसे समझना। विपरीत दिखाई पड़ते हुए भी ये बातें विपरीत देख ली भीड़-भाड़, बहुत रूप धर लिये, थक गया उनसे भी। नहीं हैं। उसने फिर कहा, अब हो गया बहुत अनेक, अब एक होना। नारद कहते हैं, भक्त भगवान में लीन हो जाता है। भगवान ही चाहता हूं। इसलिए महावीर के पास एक शब्द है जो बड़ा बचता है, भक्त खो जाता है। महावीर कहते हैं, भक्त जाग जाता बहुमूल्य है। महावीर ने कहा, मनुष्य बहुचित्तवान है; है अपनी परिपूर्णता में, भगवान खो जाता है, भक्त में लीन हो बहुत-बहुत खंडों में विभाजित है—उसे एक होना है। बहुत जाता है। भक्त ने पहचान लिया अपना स्वरूप-भगवान हो रूपों में बंटा है-उसे संगृहीत होना है। इस संगृहीत चैतन्य का गया। स्वरूप को पहचान लेना भगवत्ता है। इसलिए महावीर के नाम ही महावीर की भाषा में परमात्मा है। वर्द्धमान को महावीर धर्म में भगवान नहीं है, शरणागति नहीं है। शरण जाने को ही होना है। फैलते को वापिस लौटना है, क्योंकि सब फैलाव | कोई नहीं है, जिसकी शरण चले जाओ। कोई प्रार्थना नहीं, कोई कामना का है। परमात्मा भी फैला संसार में कामना से। कामना | पूजा नहीं-हो नहीं सकती; क्योंकि पूजा में तो दूसरा जरूरी ही फैलती है। तो जिसे मुक्त होना है, उसे सिकुड़ना होगा। उसे | होगा। 'पर' चाहिए पूजा को। मूल स्वभाव में लौट आना होगा। महावीर की भाषा ध्यान की है, पूजा की नहीं। और ध्यान और परमात्मा उतरा है, हिंदु विचार में-अवतरण हआ। महावीर प्रार्थना में यही फर्क है। प्रार्थना में दूसरा चाहिए। ध्यान में दूसरे कहते हैं, ऊर्ध्वगमन, वापिस लौटना है घर; देख लिया संसार! को मिटाना है, भुलाना है। इस तरह भुला देना है कि बस अकेले इसलिए महावीर के सूत्र भक्ति-सूत्र से बिलकुल विपरीत तुम ही बचो, शुद्ध चैतन्य बचे; दूसरे की रेखा भी न रहे, छाया Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भी न पड़े। पर दोनों ही रास्तों से वहीं पहुंचना हो जाता है। जो समर्पण से बहते हैं, जो धारा बनते हैं, आखिर सागर से बादलों पर चढ़ कर गंगोत्री पहुंच ही जाते हैं। उन्होंने सुगम मार्ग चुना। नारद की यात्रा बड़ी सरल है। महावीर की यात्रा बड़ी कठिन | है | इसीलिए तो 'महावीर' ! वह योद्धा का मार्ग है, प्रेमी का नहीं; संघर्ष का । लेकिन कुछ हैं जिनके लिए वही स्वाभाविक है। इसलिए अपने भीतर देखना। इसकी फिक्र मत करना कि किस घर में पैदा हुए। वह तो सांयोगिक है। जैन घर में पैदा हुए कि हिंदू घर में कि मुसलमान घर में कि ईसाई घर में, वह तो सांयोगिक है। अपने जीवन की अंतर्दशा समझना । योद्धा बनने की रुझान है ? योद्धा बनने की तरफ सहज प्रवाह है ? योद्धा होने में लगता है स्वरूप खिलेगा ? तो योद्धा बनना ! तो फिर महावीर के पीछे चलना। और लगे कि लड़ना अपने से न होगा, वह अपनी भाषा नहीं है, लगे कि समर्पण ही उचित है, तो फिर नारद को चुन लेना । नारद एक छोर हैं, महावीर दूसरे छोर हैं। और कहीं न कहीं नारद और महावीर के बीच सारे महापुरुष हैं - बुद्ध हों, कृष्ण हों, राम हों, मुहम्मद हों, जरथुस्त्र हों, जीसस हों - महावीर और नारद के बीच कहीं न कहीं ! लेकिन महावीर और नारद परम छोर हैं। और इसलिए जैसा नारद ने भक्ति को उसकी परम प्रगाढ़ता में प्रगट किया है, शरणागति को आखिरी रूप दिया, आखिरी परिभाषा दे दी - उसके पार परिष्कार संभव नहीं है— वैसे महावीर ने संघर्ष को आखिरी रूप दिया है। अब उसको और ऊपर उठाने का कोई उपाय नहीं है। महावीर ने आखिरी बात कह दी है संघर्ष के रास्ते पर । चुनाव तुम्हें यह नहीं करना है कि कौन ठीक है। दोनों ठीक हैं। चुनाव तुम्हें यह करना है कि कौन हमें जंचता है। फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत । -इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कितने फूल खिले ! फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे ! चंपा है, चमेली है, जूही है, केतकी है, गुलाब है, कमल है। फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत ! जाए, तुम्हारे बेटे को गुलाब भा जाए, तो तुम्हें भा जाए, वही तुम्हारे लिए मार्ग है। जिन शासन की आधारशिला : संकल्प लोग अकसर उलटा करते हैं। लोग सोचते हैं, 'कौन ठीक ?' गलत प्रश्न उठा लिया। 'महावीर ठीक कि नारद ठीक ? ' - तुमने प्रश्न ही गलत पूछ लिया । यही पूछो, कौन जंचता है। ठीक गलत, तुम कैसे निर्णय करोगे ? उस परम की बातें, वे ही जानें जो परम को उपलब्ध हुए हैं। तुम तो इतना ही तय कर लो, कौन-सा तुमको जंचता है, कौन-सा तुम्हारे मन को भा जाता है। फिर तुम्हें जो भा जाए वही तुम्हारा फूल है। तुम्हें कमल भा ठगे रह जाओगे । झगड़ा मत करना। जो मैं, अगर मुझसे पूछो, तो कहूंगा, सभी ठीक। लेकिन सभी ठीक से तो हल न होगा। क्योंकि सभी रास्तों पर तो तुम चल न सकोगे। द्वार तो तुम्हें चुनना ही होगा। सभी द्वार उसी के मंदिर के हैं। लेकिन फिर भी तुम एक ही द्वार से गुजर सकोगे, सभी द्वारों से न गुजर सकोगे। सभी द्वारों से गुजरने में तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे । एक पैर एक द्वार में डाल दोगे, एक हाथ दूसरे द्वार में डाल दोगे - तुम अटक जाओगे। एक से ज्यादा द्वार चुन लिये तो द्वार पहुंचाएंगे न, अटकाएंगे। तुम अपना द्वार चुन लेना। तुम अपना फूल चुन लेना। तुम अपनी रुझान को पहचानो । तुम्हें जो भा जाए वही सत्य है । जो तुम्हारे आ जाए वही सत्य है। जो द्वार तुम्हें पहुंचा दे वही गुरुद्वारा है। पहुंचकर तो तुम भी पाओगे, अरे ! सभी द्वार यहीं आ गए। पहुंचकर तो तुम मिलोगे उनसे जो दूसरे द्वारों से आते थे और दुश्मन मालूम पड़ते थे। क्योंकि मैंने तो उस मंदिर में महावीर और नारद को आलिंगन करते देखा है। लेकिन तुम चुन लेना । तुम्हारा चुनाव यह न हो कि कौन ठीक है । वह तो बात ही अभद्र हो गई। तुम्हारा चुनाव तो बस इतना हो : फूल, गुल, शम्मोकमर सारे ही थे पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत ! जब देखिए कुछ और ही आलम है तुम्हारा हर बार अजब रंग है, हर बार अजब रूप ! बहुत रूपों में सत्य प्रगट हुआ है। बहुत रंगों में, बहुत ढंगों में प्रगट हुआ है। और हर बार जब प्रगट हुआ है तो अजब ही! तो बड़ा आश्चर्यचकित करनेवाला है, अवाक कर जानेवाला है। नारद को समझोगे, अवाक रह जाओगे। महावीर को समझोगे, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 1 - जब देखिए कुछ और ही आलम है तुम्हारा लौटने लगे तो वह कहने लगा, 'ऐसा आशीर्वाद दें कि एक दफा हर बार अजब रंग है, हर बार अजब रूप बंबई देखनी है!' मगर ये रूप सब एक के ही हैं। यह यात्रा एक ही है। 'तू बंबई देखकर क्या करेगा?' ईसाइयत कहती है, अदम को परमात्मा ने स्वर्ग से बहिष्कृत उसने कहा, 'यहां मन नहीं लगता। और बंबई बिना देखे मर किया। निकाला स्वर्ग के राज्य से; क्योंकि आज्ञा उसने न मानी | गए तो एक आस रह जाएगी।' । थी, अनाज्ञाकारी था। फिर जीसस ने आज्ञा मानी। जीसस जो मेरे साथ आए थे, वे बंबई के मित्र थे। वे चौंके। वे आए वापिस समारोहपूर्वक स्वर्ग में प्रविष्ट हुए। जिसे अदम में थे कश्मीर। वे आए थे हिमालय की शरण में। और जो हिमालय निकाला था, वही जीसस में लौटा। अदम पहला आदमी है, की शरण में पैदा हुआ था, वह बंबई आना चाह रहा था। जीसस आखिरी आदमी हैं। अदम संसार की तरफ यात्रा तुम अगर अपने मन को भी पहचानोगे तो यही पाओगे। है-धारा। जीसस संसार से विपरीत यात्रा है-राधा। परमात्मा की कथा वस्तुतः तुम्हारी ही कथा है। कोई परमात्मा यहूदियों की कथाएं थोड़ी कठोर हैं। पूरब में लोग ज्यादा | और तो नहीं। तुम कोई और तो नहीं। परमात्मा की कथा शुद्ध कोमल भाषा बोलते हैं। चेतना के स्वभाव की कथा है। ठीक ही कहते हैं वेद, 'ऊब यहदी कहते हैं, परमात्मा ने बहिष्कृत किया अदम को। हम गया, अकेला था। कहा, बहत को रचं । उसने बहत रचे।' ऐसा नहीं कहते। हम कहते हैं, स एकाकी न रेमे। वह अकेला | महावीर कहते हैं, अब हम बहुत से ऊब गए; अब घर वापिस था। एकोऽहं बहुस्याम। उसने कहा, बहुत को रचूं। बहिष्कृत | जाने की आकांक्षा पैदा होती है। नहीं हुआ, अवतरित हुआ। आया, मर्जी से आया। इसलिए महावीर के सूत्रों में लौटती यात्रा के सूत्र हैं। निश्चित और इसे भी समझ लेना जरूरी है। तुम जहां हो, अपनी मर्जी | ही वे भिन्न होंगे। रस की बात न होगी यहां। यहां विरसता की से हो। संसार में हो तो अपनी मर्जी से हो। तुम्हारे भीतर के | बात होगी। यहां कामना की, वासना की बात न होगी। यहां परमात्मा ने यही चुना। कुछ परेशान होने की बात नहीं। बेमर्जी | त्याग, वैराग्य की बात होगी। यहां राग नहीं, वीतरागता लक्ष्य से तुम नहीं हो। अपने ही कारण हो। अपनी ही आकांक्षा से हो। होगा। मगर ध्यान रखना, राग ही वीतरागता बनता है। वही है और यह बड़े सौभाग्य की बात है कि बेमर्जी से नहीं हो। क्योंकि ऊर्जा, जो सागर की तरफ जाती है। वही है ऊर्जा, जो गंगोत्री की जिस दिन चाहो, उसी दिन घर का द्वार खुला है, लौट आ सकते | तरफ जाती है। ऊर्जा वही है। पर महावीर का मार्ग थोड़ा कठिन हो। जब तक चाहो, जा सकते हो दूर। जिस दिन निर्णय करोगे, | है, क्योंकि धारा के विपरीत लड़ना होगा। उसी दिन लौटना शुरू हो जाएगा। किश्ती को भंवर में घिरने दे, मौजों के थपेड़े सहने दे ब्राह्मण-संस्कृति परमात्मा के फैलाव की कथा है। जिंदों में अगर जीना है तुझे, तूफान की हलचल रहने दे श्रमण-संस्कृति परमात्मा के घर लौटने की कथा है। तो निश्चित धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने-दस्तो-बाजू है ही, जो अकेले में थक गया था, वह भीड़ में भी थक ही जाएगा। परवर्द-ए-तूफां किश्ती को धारे के मुखालिफ बहने दे! तुमने अपने भीतर भी देखा! यही होता है। बाजार में थक जाते किश्ती को भंवर में घिरने दे! हो, मंदिर की आकांक्षा पैदा होती है। भीड़ में ऊब जाते हो, महावीर कहते हैं, संघर्ष न हो तो सत्य आविर्भूत न होगा। जैसे बस्ती से ऊब जाते हो, हिमालय जाने की आकांक्षा पैदा होती है। सागर के मंथन से अमृत निकला, ऐसे जीवन के मंथन से सत्य हिमालय पर जो बैठे हैं, एकांत में, उनके मन में बाजार आकर्षण निकलता है। सत्य कोई वस्तु थोड़े ही है कि कहीं रखी है, तुम निर्मित करता है। गए और उठा ली, कि खरीद ली, कि पूजा की, प्रार्थना की और मैं कुछ मित्रों को लेकर कश्मीर की यात्रा पर था। कश्मीर के मांग ली! सत्य तो तुम्हारे जीवन का परिष्कार है। सत्य तो तुम्हारे वे बडा आनंद अनभव कर रहे थे। डल | ही होने का शद्धतम ढंग है। सत्य कोई संज्ञा नहीं है, क्रिया है। झील पर उनके साथ मैं ठहरा था। हमारा जो माझी था, जब हम सत्य कोई वस्तु नहीं है, भाव है। तो तुम जितने संघर्ष में उतरोगे, Jan Education International Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितने मथे जाओगे, जितने जलोगे, जितने तूफानों की टक्कर लोगे, उतना ही तुम्हारे भीतर सत्य आविर्भूत होगा; उतनी ही तुम्हारी धूल झड़ेगी; गलत अलग होगा; निर्जरा होगी व्यर्थ से। झाड़-झंखाड़ ऊग गए हैं, घास-फूस ऊग आया है-आग लगानी होगी, ताकि वही बचे, जिसके मिटने का कोई उपाय नहीं । अमृत ही बचे; मृत्यु को तो खाक कर देना होगा। यह बैठे-बैठे न होगा। इसके लिए बड़े प्रबल आह्वान की, बड़ी प्रगाढ़ चुनौती की जरूरत है। किश्ती को भंवर में घिरने दे, मौजों के थपेड़े सहने दे ! भंवर दुश्मन नहीं है। महावीर के रास्ते पर भंवर मित्र है, | क्योंकि उसी से लड़कर तो तुम जगोगे; उसी से उलझकर तो तुम उठोगे । उसी की टक्कर को झेलकर, संघर्ष करके, विजय करके, तुम उसके पार हो सकोगे। इसलिए महावीर का मार्ग कहा जाता है, 'जिन का मार्ग', जिनों का मार्ग; उनने, जिन्होंने | जीता। जिन शब्द का अर्थ है : जिसने जीता। जैन शब्द उसी जिन से बना । जिन का अर्थ है : जिसने जीता । सभी शब्द बड़े अर्थपूर्ण होते हैं। बुद्ध का अर्थ है : जो जागा । जिन का अर्थ है : जो जीता। जिंदों में अगर जीना है तुझे, तूफान की हलचल रहने दे। — यह प्रार्थना मत कर कि तूफान को हटा लो ! फिर तू क्या करेगा ? धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने - दस्तो - बाजू है। - यह तो तेरे बाहुओं का अपमान हो जाएगा, अगर तू धारा साथ बहा । धारे के मुआफिक बहना क्या... —फिर तेरे हाथों का क्या होगा ? फिर तेरी बाजुओं का क्या होगा? फिर तेरे बल को चुनौती कहां मिलेगी ? यह तो अपमान होगा तेरी ऊर्जा का ! समर्पण नहीं ! परवर्द-ए-तूफां किश्ती को धारे के मुखालिफ बहने दे ! यह किश्ती तो तूफान से ही पैदा होती है। यह किश्ती तो तूफान में ही पलती है। यह किश्ती तो जन्मती ही तूफान में है। परवर्द-ए-तूफां किश्ती को... - इस तूफान में पैदा हुई जीवन की किश्ती को, धार के मुखालिफ बहने दे, उलटा चलने दे। चल गंगोत्री की यात्रा पर ! महावीर का मार्ग योद्धा का मार्ग है- क्षत्रिय थे, स्वाभाविक जिन - शासन की आधारशिला : संकल्प है! जैनों के चौबीस ही तीर्थंकर क्षत्रिय थे। लड़ाकों की बात है। लड़ना ही जानते थे । तूफान में ही किश्ती पली थी। तलवार ही उनकी भाषा थी । युद्ध ही उनका अनुभव था । यद्यपि सब युद्ध छोड़ दिया, अहिंसक हो गए; पर क्या होता है, इससे क्या फर्क पड़ता है? चींटी को भी नहीं मारते थे, लेकिन योद्धा होना तो जारी रहा। अपने स्वभाव से कोई भिन्न हो नहीं पाता। संसार भी छोड़ दिया, प्रतियोगिता के सारे स्थान भी छोड़ दिये, जहां-जहां संघर्ष, युद्ध की बात थी, हिंसा थी, सब छोड़ दिया - लेकिन फिर भी योद्धा तो नहीं मिट पाता। जैनों के सारे तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। यह आकस्मिक नहीं है। एक भी ब्राह्मण तीर्थंकर न हुआ । ब्राह्मण की भाषा लड़ने की भाषा नहीं है; समर्पण की भाषा है; शरणागति की भाषा है। बड़ी मधुर कहानी है। झूठ ही होगी, पर मधुर है। और माधुर्य इतना गहरा है उसमें कि झूठ की मैं फिक्र नहीं करता; मेरे लिए मधुर ही सत्य है । इतनी सुंदर है कि सत्य होनी ही चाहिए। वही कसौटी है सत्य की । कहानी है कि महावीर का जन्म तो हुआ था एक ब्राह्मणी के गर्भ में; पैदा तो हुए थे ब्राह्मणी के गर्भ में - लेकिन देवताओं ने कहा, 'ऐसा कभी हुआ है कि जैन तीर्थंकर और ब्राह्मण के घर पैदा हो ? ऐसा तो कभी सुना नहीं। और ब्राह्मण के घर पैदा होगा तो फिर जिन तीर्थंकर कैसे होगा? फिर तूफान में किश्ती पल ही न पाएगी। फिर संघर्ष की भाषा ही न होगी । फिर उसके जीवन में तलवार की धार और चमक न होगी । देवता बड़े बिबूचन में पड़े। और दुनिया का पहला आपरेशन हुआ। उन्होंने निकाल लिया ब्राह्मणी के गर्भ से महावीर को । तीन या चार महीने के थे, तब उन्होंने गर्भ निकाल लिया । बदल दिया गर्भ एक क्षत्राणी के गर्भ से। वहां एक लड़की पैदा होने को थी, उसे निकालकर ब्राह्मणी के गर्भ में रख दिया, महावीर को एक क्षत्रिय के गर्भ में रख दिया। यह भी बड़ी सूचक है बात । स्त्री स्वभावतः समर्पण की भाषा जानती है। इसलिए ठीक ही किया कि स्त्री को निकाल लिया क्षत्रिय के गर्भ से, ब्राह्मण के गर्भ में रख दिया । स्त्रैण भाषा समर्पण की है। जिनके मन कोमल हैं, फूल जैसे कोमल हैं, उनके लिए नारद का ही मार्ग है। पर जिनके हृदय में तलवार की चमक और कौंध 9 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जिन सूत्र भाग: 1 है, उनके लिए महावीर का मार्ग है । कहानी सुंदर है, अर्थपूर्ण है । इतना कहती है कहानी कि 'ब्राह्मण के घर कभी कोई योद्धा पैदा हुआ ? योद्धा पैदा होने के लिए रोएं रोएं में, खून-खून में, हड्डी-मांस-मज्जा में युद्ध का स्वर चाहिए। दूसरी मजे की बात है कि चौबीस ही जैनों के तीर्थंकर क्षत्रिय घर में पैदा हुए और चौबीस ही तीर्थंकर अहिंसक हो गए, उन्होंने हिंसा छोड़ दी । तलवार लेकर भी क्या लड़ना ! वह कमजोर के लड़ने का ढंग है; कमजोरी को तलवार से पूरा कर लेता है। इसलिए आदमी जितना कमजोर होता गया है, उतने ही उसके शस्त्र मजबूत होते चले गए हैं। अब आज तो लड़ने के लिए कमजोर और ताकत का कोई सवाल ही नहीं है; एटमबम गिराना हो, बच्चा भी गिरा दे सकता है। एक बटन दबा देगा हवाई जहाज में से, एटमबम गिर जाएंगे। जिस आदमी ने एटम गिराया हिरोशिमा, नागासाकी पर, वह कोई बलशाली आदमी थोड़े ही था; साधारण आदमी! और एक लाख आदमी क्षण में मार डाले! यह कमजोर की बात हो गई। महावीर कहते हैं, जो जितना ही योद्धा होता जाएगा उतने ही शस्त्र छोड़ देगा; उसका खुद होना ही पर्याप्त है। फिर वह मारेगा भी नहीं, क्योंकि मारने की भाषा भी कमजोर की भाषा है। तुम दूसरे को मिटाना चाहते हो, क्योंकि तुम दूसरे से डरते हो - कहीं उसे जीवित छोड़ दिया, हानि न करे; कहीं तुम्हें न मार डाले! तुम उसी को मारते हो जिससे तुम्हें डर है कि कहीं तुम्हारी मौत न आ जाए। महावीर ने कहा, वह भी कमजोर की भाषा है, हम किसी को मारेंगे नहीं। अगर कोई मारने भी आएगा तो हम मरने को राजी रहेंगे, भागेंगे नहीं, लड़ेंगे भी नहीं । साधारणतः दो उपाय हैं जब भी तुम पर कोई हमला करे तो या तो भागो या जूझो - दोनों ही कमजोर के हैं। जो बहुत कमजोर है, वह भाग जाता है; जो उतना कमजोर नहीं है, वह लड़ता है। लेकिन हैं दोनों ही कमजोर । महावीर कहते हैं, जो सच में कमजोरी के पार हो गया, अभय गया, वह न तो भागता है न लड़ता है। वह कहता है, 'खड़े हैं! हम यहीं खड़े हैं। तुम्हें मारना 'मार डालो।' वह मर जाता है, लेकिन उसके हृदय में हिंसा का भाव नहीं उठता। वह मर जाता है, लेकिन उसके हृदय में प्रतिहिंसा नहीं उठती। यहां एक बात और समझ लें, क्योंकि फिर सूत्रों को समझना आसान होता जाएगा। जब परमात्मा ने सोचा कि अकेला हूं, थक गया हूं, बहुत जाऊं, तो जीवन पैदा हुआ। निश्चित ही महावीर मृत्यु का करेंगे। उलटे लौटना है। तो जिस तरह परमात्मा ने जीवन के धागे फैलाए थे, उसी तरह उनको मृत्यु के धागे फैलाने हैं, या जीवन के धागे काटने हैं। वृक्ष खड़ा है, तो वासना की जड़ें फैलती हैं पृथ्वी में, तो ही खड़ा है। रस लेता है, आकाश में फैलाता है शाखाओं को, सूरज की किरणें पीता है। वृक्ष को मरना हो, वृक्ष को सिकुड़ना हो, बीज में डूबना हो, वापिस लौटना हो, तो फिर जड़ों को खींच लेगा, फिर शाखाओं को झुका लेगा, क्योंकि फिर सूर्य की ऊर्जा की कोई जरूरत न रही। फिर पृथ्वी के रस की कोई जरूरत न रही। महावीर के सारे सूत्र एक गहन अर्थ में आत्मघात के सूत्र हैं इसलिए तुम चकित होओगे कि महावीर अकेले जाग्रत पुरुष हैं जिन्होंने अपने संन्यासी को आत्मघात की भी आज्ञा दी है। दुनिया में किसी ने नहीं दी। आत्मघात की भी आज्ञा ! दुनिया का कोई कानून और दुनिया का कोई शास्त्र स्वीकार नहीं करता कि आदमी को हक है कि वह मरना चाहे तो मर जाए; महावीर स्वीकार करते हैं— करना ही पड़ेगा। यह तर्कयुक्त है, क्योंकि वे सिकुड़ने की तरफ जा रहे हैं, लौट रहे हैं वापिस, तो जीवन के सब तरफ से संबंध तोड़ देने हैं। अगर कोई यह भी चाहे कि मुझे पूरे संबंध अभी छोड़ देने हैं, तो कौन दूसरा उसे रोकने का हकदार है ! महावीर ने आखिरी स्वतंत्रता आदमी को दी है कि वह आत्मघात करना चाहे तो भी निर्णायक स्वयं । अगर वह मरना चाहे तो भी हक है उसका ! मृत्यु मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। लेकिन ये सब बातें संगत हैं उनके साथ। और उनके सारे सूत्र, कैसे जीवन से हमारे संबंध छिन्न-भिन्न हो जाएं, कैसे यह फैलाव बंद हो जाए, कैसे हम वापिस घर की तरफ लौट पड़ें, इसके ही सूत्र हैं। यह सारा शास्त्र मृत्यु का शास्त्र है । तबीबों से मैं क्या पूछू इलाजे-दर्दे-दिल । मरज जब जिंदगी खुद हो तो फिर उसकी दवा क्या है ! महावीर के लिए जीवन ही रोग है। और रोग तो गौण हैं। और रोग तो मूल रोग की छायाएं हैं। जीवन ही रोग है। जीवन ही बंधन है। उसी से मुक्त हो जाना है। तो महावीर का जो मोक्ष है, वह महामृत्यु है – जहां तुम Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANSAR शासन की आधारशिला : संकल्प। बिलकुल ही मिट गए हो; जहां कुछ भी नहीं बचा; जहां परम क्योंकि मजा ही इसमें था कि जो मेरे पास हो, मेरे पड़ोसियों के शून्य अवतरित होता है। . पास न हो। आशीर्वाद तो मिल गया। आशीर्वाद में कोई कमी न अब हम सूत्रों को लें: थी। देवता ने कहा, जो तू चाहेगा उसी क्षण पूरा होगा। इसमें महावीर ने कहा है, 'जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों | कुछ रुकावट न थी। लेकिन मन सुखी न हुआ, प्रसन्न न हुआ, के लिए भी चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह फूल खिले नहीं। बड़ा उदास हो गया। बड़े उदास मन से देखा दूसरों के लिए भी मत चाहो। यही जिन शासन है। तीर्थंकर का कि देखें, वरदान काम भी करता है या नहीं। यह कोई वरदान यही उपदेश है। हुआ! यह तो खाली, चली हुई कारतूस जैसा वरदान हुआ। समझें। साधारणतः तम जो अपने लिए चाहते हो, वह तम इसमें कुछ रस ही न रहा। दूसरों के लिए नहीं चाहते; क्योंकि फिर तो अपने लिए चाहने का फिर भी उसने कहा, देखें शायद...। कहा कि एक महल बन कोई अर्थ ही न रहा। तुम एक महल बनाना चाहते हो अपने जाए। एक महल बन गया। लेकिन जब बाहर आकर देखा तो लिए, तो बहुत गहरे में तुम पाओगे कि तुम चाहते हो कि दूसरा बड़ा मुश्किल में पड़ गया : दो-दो महल बन गए थे पड़ोसियों कोई ऐसा महल न बना ले, अन्यथा मजा ही गया। अगर सभी के। छाती पीट ली। यह कोई वरदान हुआ! यह तो अभिशाप के पास महल हों तो तुम्हारे पास महल होने का अर्थ ही क्या हो गया। इससे तो पहली ही भले थे। अपनी ही मेहनत से कर रहा! तुम एक सुंदर स्त्री चाहते हो कि सुंदर पुरुष चाहते हो, तो लेते। लेकिन उसने रास्ते खोज लिये। आदमी की हिंसा बड़ी तुम भीतर यह भी चाहते हो कि ऐसी सुंदर स्त्री किसी और को न | गहन है! उसने कहा, 'ठीक है! देवता धोखा दे गये, हम.भी | मिल जाए, अन्यथा कांटा चुभेगा। तुम ऐसी सुंदर स्त्री चाहते हो रास्ता खोज लेंगे!' मिला होगा वकीलों से, सलाह ली होगी। जो बस तुम्हारी हो, और वैसी सुंदर स्त्री किसी के पास न हो। किसी वकील ने सुझा दिया कि इसमें कुछ घबड़ाने की बात नहीं सुंदर स्त्री में भी तुम अपने अहंकार को ही भरना चाहते हो। है। जहां-जहां कानून हैं वहां-वहां निकलने का उपाय है। तू अपने महल में भी अहंकार को भरना चाहते हो। ऐसा कर, तू जाकर मांग कि मेरे घर के सामने दो कुएं खुद जाएं। तुम जो अपने लिए चाहते हो, वह तुम दूसरे के लिए कभी नहीं | उसने कहा, 'इससे क्या होगा?' उसने कहा, 'तू पहले चाहते। उससे विपरीत तुम दूसरे के लिए चाहते हो-अपने कोशिश तो कर।' दो कुएं उसके घर के सामने खुद गए, लिए सुख, दूसरे के लिए दुख। लाख तुम कुछ और कहो, लाख पड़ोसियों के सामने चार-चार कुएं खुद गए। वकील ने कहा, तुम ऊपर से कहो कि नहीं, ऐसा नहीं है, हम सब के लिए सुख | 'अब तू प्रार्थना कर कि मेरी एक आंख फूट जाए।' तब समझा चाहते हैं लेकिन जरा गौर से खोजना! सब के लिए सुख तो वह राज। उसने कहा, अरे! मुझे खयाल में ही न आया। एक तुम तभी चाह सकते हो जब तुमने जीवन से अपनी जड़ें तोड़नी आंख फोड़ने का वरदान मांग लिया, पड़ोसियों की दोनों आंखें शुरू कर दी, उसके पहले नहीं। क्योंकि जीवन प्रतिस्पर्धा है, फूट गईं। अब अंधे पड़ोसी और चार-चार कुएं घर के समाने; प्रतियोगिता है, महत्वाकांक्षा है, पागलपन है, छीन-झपट है, | जो हुआ, वह हम समझ सकते हैं। गलाघोंट संघर्ष है। लेकिन सुख हमारा दूसरे के दुख में है। और जीवन हमारा बड़ी पुरानी कहानी है कि एक आदमी ने बड़ी प्रार्थना-पूजा की दूसरे की मौत में है। और हमारी सारी प्रसन्नता किसी की उदासी और किसी देवता को प्रसन्न कर लिया। वर्षों की साधना के बाद पर खड़ी है। हमारा सारा धन दूसरे की निर्धनता में है। लाख तुम देवता बोला और देवता ने कहा, 'क्या चाहते हो?' उसने दूसरे के दुख में सहानुभूति प्रगट करो, जब भी दूसरा दुखी होता कहा, 'जो भी मैं मांगू वह मुझे मिल जाए।' देवता ने कहा, है, कहीं गहरे में तुम सुखी होते हो। और तुम्हारी सहानुभूति में 'निश्चित मिलेगा। लेकिन एक शर्त है : तुमसे दुगुना तुम्हारे भी तुम्हारे सुख की भनक होती है। पड़ोसियों को भी मिल जाएगा।' बस सब पूजा-प्रार्थना व्यर्थ हो तुमने कभी पकड़ा अपने को सहानुभूति प्रगट करते हुए? गई। वह आदमी उदास हो गया। यह भी क्या आशीर्वाद हआ! | किसी का दिवाला निकल गया, तुम सहानुभूति प्रकट करने जाते Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1.1 हो। कहते हो, बड़ा बुरा हुआ! लेकिन कभी अपना चेहरा आईने यानी लड़ना है दूसरे से। एक-एक इंच जमीन के लिए लड़ना में देखा, जब तुम कहते हो, बड़ा बुरा हुआ, तो कैसी रसधार | है। एक-एक इंच पद के लिए लड़ना है। एक-एक इंच धन के बहती है! तुम कभी गए, जब किसी को लाटरी मिल गई हो, तब | लिए लड़ना है। तुम कहने गए कि बहुत अच्छा हुआ? । महावीर इस पहले सूत्र में ही तुम्हें मौत का पहला पाठ देते हैं। जब कोई सुखी होता है तब तुम अपना सुख प्रगट करने नहीं वे कहते हैं, जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी जाते; तब तो ईर्ष्या पकड़ती है, जलन पकड़ती है। अंगारे छाती चाहो। चाह मरेगी ऐसे। फिर चाह जी न सकेगी। चाह की जड़ में बैठ जाते हैं। फफोले उठ आते हैं भीतर, घाव महसूस होते हैं, ही काट दी। जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए पीड़ा होती है कि फिर कोई आगे निकल गया। तब तो तुम दूसरी | भी चाहो। बातें करते हो। तुम तो कहते हो, धोखेबाज है, बेईमान है। तब जरा सोचो तुम चाहते थे कि एक महल बन जाए-दूसरों के तो तुम परमात्मा से कहते हो, 'यह क्या हो रहा है तेरे जगत में? | लिए भी! उस चाह में ही तुम पाओगे कि तुम्हारे महल बनाने की अन्याय हो रहा है। यहां पापी और व्यभिचारी जीत रहे हैं और चाह गिर गई। तुम चाहते थे, ऐसा हो वैसा हो, वही सबको भी पुण्यात्मा हार रहे हैं।' पुण्यात्मा यानी तुम! पापी यानी वे सब हो जाए–अचानक तुम पाओगे, पैरों के नीचे से किसी ने जमीन जो जीत रहे हैं! खींच ली। तुमने कभी खयाल किया, जब भी कोई जीत जाता है, तुम और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत अपने को समझाते हो, सांत्वना देते हो कि जरूर किसी गलत चाहो। लोगों ने अपने लिए तो स्वर्ग की कल्पनाएं की हैं, और ढंग से जीत गया होगा, कोई बेईमानी की होगी, रिश्वत दी होगी, | दूसरों के लिए नर्क का इंतजाम किया है। जब भी तुम सोचते हो चालबाजी की होगी, कोई रिश्तेदारी खोज ली होगी कहीं। अपने लिए तो स्वर्ग में सोचते हो, कल्पना करते हो। नहीं, अगर एक महिला मेरे पास आई। उसका बच्चा फेल हो गया। वह | तुम अपने लिए नर्क नहीं चाहते तो दूसरे के लिए भी मत चाहो। कहने लगी कि बड़ा अन्याय हो रहा है। ये सब शिक्षक और यह क्यों महावीर इस सूत्र को इतना मूल्य देते हैं? यह उनका सब शिक्षा की व्यवस्था, सब धोखेबाज, बेईमान हैं। जिन्होंने आधार-सूत्र है। यह बड़ा सीधा और सरल दिखता है ऊपर, शिक्षकों को रिश्वतें खिला दीं, वे तो सब उत्तीर्ण हो गए, मेरा लेकिन इसका जाल बहुत गहरा है और सूत्र बड़ी गहराई में तुम्हारे लड़का फेल हो गया। मैंने कहा, इसके पहले भी तेरा लड़का अचेतन को रूपांतरित करने वाला है। अगर तुम एक सूत्र को भी पास होता आया था, तब तू कभी भी न आई कहने कि मेरा पालन कर लो तो तुम्हें पूरा धर्म उपलब्ध हो जाएगा। अपने लिए लड़का पास हो गया, जरूर किसी न किसी ने रिश्वत खिलाई | वही चाहो जो तुम दूसरे के लिए भी चाहते हो और जो तुम अपने होगी। जब तेरा लड़का पास होता है, तब अपनी मेहनत से पास लिए नहीं चाहते वह दूसरे के लिए भी मत चाहो-अचानक तुम होता है; जब दूसरों के लड़के पास होते हैं, तब रिश्वत से पास | पाओगे, तुम्हारे जीवन की आपाधापी खो गई। अचानक तुम होते हैं! पाओगे, प्रतिस्पर्धा मिट गई, महत्वाकांक्षा को जगह न रही, बीज तुमने कभी देखे ये दोहरे मापदंड? जब तुम सफल होते हो तो सूखने लगे, जलने लगे। होना ही था, तुम प्रतिभाशाली हो। और जब दूसरा सफल होता यही जिन शासन है। है, बेईमान! कहीं कोई धोखे का रास्ता निकाल लिया। कोई | एतियगं जिणसासणं। यही तीर्थंकर का उपदेश है। जिन्होंने चालबाजी कर गया। जब तुम हारते हो तो अपने पुण्यात्मा होने | जीता है स्वयं को, उनका यह उपदेश है। की वजह से हारते हो। और जब दूसरा हारता है तो पापी है, 'अध्रुव, अशाश्वत और दुखबहुल संसार में ऐसा कौन-सा अपने कर्मों की वजह से हारता है। तुमने कभी ये दोहरे मापदंड | कर्म है जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं?' देखे? पर यह मापदंड ठीक हैं फैलाव के रास्ते पर, क्योंकि महावीर पूछते हैं, अध्रुव, अशाश्वत... । सभी चीजें प्रतिक्षण फैलाव यानी प्रतिस्पर्धा। फैलाव यानी गलाघोंट संघर्ष। फैलाव बदली जाती हैं। यहां कुछ भी तो शाश्वत नहीं। पानी पर खींची . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प लकीर जैसा है जीवन। यहां तुम खींच भी नहीं पाते लकीर कि वस्तुओं का भरोसा है, न देह का भरोसा है, न मन का भरोसा मिट जाती है। यहां तुम बना भी नहीं पाते महल कि विदा होने का | है...। क्षण आ जाता है। साज-सामान जुटा पाते हो, गीत गा भी नहीं मुझे दिल की धड़कनों का नहीं एतिबार 'माहिर' पाते कि विदाई उपस्थित हो जाती है। जीवन की तैयारी ही करने। | कभी हो गईं शिकवे, कभी बन गईं दुआएं। में जीवन बीत जाता है और मौत आ जाती है। यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं है। क्षणभर में प्रसन्न है, _ 'अध्रुव, अशाश्वत, दुखबहुल...।' और जहां दुख ज्यादा क्षणभर में रोता है। क्षणभर पहले दुआएं दे रहा था, क्षणभर बाद है और सुख तो केवल आशा है जहां; जहां सुख के केवल सपने शिकायतों से भर गया। क्षणभर पहले ऐसा प्रकाशोज्ज्वल हैं, सत्य तो जहां दुख है-यहां ऐसे इस जगत में कौन-सा ऐसा मालूम होता था और क्षणभर बाद गहन अंधकार से घिर गया। कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं? क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं, जो इतने करीब है! दिल व्यर्थ लकीरें खींचने में मैं अपने लिए दुर्गति बना रहा होऊं। हम यानी तुमसे जो करीब से करीब है। उसका भी भरोसा नहीं है। बना रहे हैं। व्यर्थ की आकांक्षा में हम अपने लिए ऐसा जाल बुन यहां किस और चीज का भरोसा करें! रहे हैं, जैसे कभी-कभी मकड़ा जाल बुनता है और खुद ही उसमें कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबानें सूखी हैं फंस जाता है। और जो हम बुन रहे हैं उससे कुछ मिलने का नहीं हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे। है। उससे कुछ खो जाता है। कहीं कुछ धोखा हो गया है। सभी लोग सुख चाहते हैं, धन पाने के लिए लोग कितना दौड़ते हैं! पाकर भी क्या पाते मिलता दुख है। सभी लोग फूल मांगते हैं, मिलते कांटे हैं। सभी हैं? क्या मिल पाता है? हाथ तो खाली के खाली रह जाते हैं। लोग आनंद के लिए आतुर और व्यथित हैं, पाते संताप हैं। मरते वक्त निर्धन के निर्धन ही रहते हैं। मगर सारा जीवन गंवा | कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबाने सूखी हैं देते हैं। वही जीवन ध्यान भी बन सकता था, जिसे तुमने धन हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे। बनाया। वही जीवन-ऊर्जा ध्यान भी बन सकती थी, जिसे तुमने कहीं कुछ भूल हो गई है। कहीं कोई बुनियादी चूक हो गई है। धन में गंवाया। वही जीवन-ऊर्जा तुम्हारे जीवन का आत्यंतिक हम शायद समझ नहीं पा रहे। हम शायद रेत से तेल निकालने समाधान बन सकती थी, समाधि बन सकती थी, और तुम व्यर्थ | की चेष्टा में संलग्न हैं, अन्यथा इतना दुख कैसे होता? सभी सामान जुटाने में लगे रहे। और सामान भी ऐसा जुटाया जो मौत सुख चाहते हों, इतना दुख कैसे होता? सभी लोग अमृत चाहते के क्षण में साथ न ले जा सकोगे, मौत जिसे छीन लेगी। और हों और मौत ही घटती है, अमृत तो घटता दिखाई नहीं पड़ता। सामान भी ऐसा जुटाया कि न मालूम कितनों को दुख दिया, न सभी लोग चाहते हैं कि नाचते, प्रसन्न होते; लेकिन रसधार मालूम कितनों की पीड़ा निर्मित की, न मालूम कितनों के लिए रोज-रोज सूखती चली जाती है। न नाच है जीवन में, न उमंग है, नर्क बनाया। इतना दुख देकर तुम सुखी हो कैसे सकोगे? इतना न कोई उत्सव है। दुख तुम पर लौट-लौट आएगा, अनंत गुना होकर बरसेगा। 'ऐसा कौन-सा कर्म करूं, जिससे इस दुर्गति से बचूं।' क्योंकि जगत तो एक प्रतिध्वनि है। तुम गीत गाओ, तुम्हारा ही क्या करूं? क्या करना मुझे इस उपद्रव के बाहर ले जाएगा? गीत प्रतिध्वनित होकर तुम पर बरस जाता है। तुम गालियां | ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले बको, तुम्हारी ही गालियां लौटकर तुम पर बरस जाती हैं, छिद | हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार-मुक्ति के जाती हैं। विरोधी, और अनर्थों की खान हैं।' यह जगत तो एक प्रतिध्वनि मात्र है। थोड़ा-सा सुख! ऐसे ही है जैसे कोई मछलियों को पकड़ने तो महावीर कहते हैं, मौलिक सवाल यह है कि मैं कौन-सा जाता है, कांटे पर आटा लगा देता है। मछलियां आटे के लिए ! इस दखबहल संसार में, इस अशाश्वत संसार में, आती हैं, कांटे के लिए नहीं मिलता कांटा है। ऐसा ही लगता है जहां सभी कुछ क्षण-क्षण में बदला जा रहा है, जहां न तो कि जैसे कोई मछुआ मजाक किए जा रहा है। सभी दौड़ते हैं सुख Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 जिन सूत्र भाग: 1 के लिए और आखिर में पाते हैं, कांटे छिद गए। तुमने भी कितनी बार सुख नहीं चाहा ! पाया है? महावीर कहते हैं, शायद थोड़ा-सा आभास मिला हो, प्रथम क्षण में, शायद उल्लास के क्षण में कि मिल गया, तुमने अपने को धोखा लिया हो; पर जल्दी ही झूठी पर्तें उघड़ जाती हैं। जल्दी ही पता चल जाता है। मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने दफ्तर में अपने मालिक से बोला कि शादी की है, हनीमून के लिए पहाड़ जाना चाहता हूं— दो सप्ताह, तीन सप्ताह की छुट्टी! मालिक ने कहा, हनीमून कितने दिन चलेगा - एक सप्ताह, दो सप्ताह, तीन सप्ताह ! उतनी छुट्टी ले लो। मुल्ला ने कहा, आप ही बता दें। | मालिक ने कहा, मैंने तुम्हारी पत्नी को अभी देखा ही नहीं, मैं बताऊं कैसे कितनी देर चलेगा ? देर - अबेर हो सकती है, पर जल्दी ही घड़ी आ जाती है, जब प्रेम राख हो जाता है। कोई थोड़ी देर तक अपने को भुलाए रखता है, कोई थोड़ी जल्दी जाग जाता है। पर देर-अबेर सभी जाग जाते हैं। इस संसार में जो भी प्रेम है, वह चाहे धन का हो, चाहे रूप का हो, चाहे पद का हो, वह देर-अबेर उखड़ ही जाता है। असलियत कब तक छिपाए छिपेगी ? असलियत दुख है। सुख तो ऊपर का रंग-रोगन है; जरा वर्षा पड़ी, बह गया रंग-रोगन । वह तो कागज के फूलों जैसा है; जरा वर्षा पड़ी, बिखर गये, गल गए । ‘ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार- मुक्ति के विरोधी...' संसार से मुक्त होने के विरोधी हैं, क्योंकि इन्हीं की आशा में तो लोग अटके रहते हैं, क्यू लगाए खड़े रहते हैं : अब मिला, अब मिला ! अब तक नहीं मिला, मिलता ही होगा ! लोग राह ही देखते रहते हैं, बिना यह सोचे कि जिस क्यू में खड़े हैं उसमें किसी को भी कभी मिला ? माना कि कुछ लोग क्यू में बिलकुल आगे पहुंच गए हैं— कोई सिकंदर — मगर सिकंदर से भी तो पूछो, मिला ? सिकंदर मर रहा था तो उसने अपने चिकित्सकों से कहा कि मैं अपनी मां को बिना देखे नहीं मरना चाहता हूं। लेकिन मां दूसरे गांव में थी । या तो वह आए या सिकंदर वहां तक पहुंचे। चौबीस घंटे की कम से कम जरूरत थी । और सिकंदर ने कहा कि मैं सब कुछ देने को तैयार हूं; जो भी तुम्हारी फीस हो ले लो, लेकिन चौबीस घंटे मुझे और जिला लो; जिससे मैं पैदा हुआ हूं उससे विदा तो ले लेने दो; मां को देखकर जाना चाहता हूं। चिकित्सकों ने कहा, असंभव है। सिकंदर ने कहा, अपना आधा साम्राज्य दे दूंगा। उदास खड़े चिकित्सक ! उसने कहा, पूरा ले लो। काश ! मुझे पहले पता होता कि पूरा साम्राज्य देकर भी एक सांस नहीं मिलती, तो अपने जीवनभर की सांसें इस साम्राज्य के लिए क्यों खराब करता ! लेकिन इसी आपा-धापी में, इसी दौड़-धूप में सब गया। एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है, तुम्हें पता नहीं। इसलिए महावीर कहते हैं, सोच लो, कहां लगा रहे हो अपनी श्वासों को! जो मिलेगा, वह पाने योग्य भी है ? कहीं ऐसा न हो कि गंवाने के बाद पता चले कि जो मूल्य दिया था, बहुत ज्यादा था, और जो पाया वह कुछ भी न था । असली हीरों के धोखे में नकली हीरे ले बैठे ! कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा! जिंदगी सिलसिला है : धोखे पर धोखा। 'बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' लगता है - लगता है, मूर्च्छा के कारण। कभी किसी कुत्ते को देखा, सूखी हड्डी को चबाते ! चबाता है कितने रस से ! तुम बैठे चकित भी होओगे कि सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा ! सूखी हड्डी में कोई रस तो है नहीं। सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा! लेकिन होता यह है कि जब सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है तो उसके ही जबड़ों, जीभ से, ता लहू - सूखी हड्डी की टकराहट से लहू बहने लगता है। उसी लहू को वह चूसता है। सोचता है, हड्डी से रस आ रहा है। हड्डी से कहीं रस आया है! अपना ही खून पीता है। अपने ही मुंह में घाव बनाता है। भ्रांति यह रखता है कि हड्डी से रस आता है। हड्डी से खून आ रहा है। जिन्होंने भी जागकर देखा है, थोड़ा अपना मुंह खोलकर देखा है, उन्होंने यही पाया है कि इंद्रिय सुख सूखी हड्डियों जैसे हैं, उनसे कुछ आता नहीं। अगर कुछ भी मालूम पड़ता है तो वह हमारी ही जीवन की रसधार है। और वह घाव हम व्यर्थ ही पैदा कर रहे हैं। जो खून हमारा ही है, उसी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन की आधारशिला : संक को हम घाव पैदा कर-कर के वापिस ले रहे हैं। फिर भटकोगे। काम-भोग में जो सुख मिलता है, वह सुख तुम्हारा ही है जो मनुष्य अनुभव से सीखता ही नहीं। जो सीख लेता है, वही तुम उसमें डालते हो। वह तुम्हारे काम-विषय से नहीं आता। जाग जाता है। मनुष्य अनुभव से निचोड़ता ही नहीं कुछ। तुम्हारे स्त्री को प्रेम करने में, पुरुष को प्रेम करने में तुम्हें जो सुख की अनुभव ऐसे हैं जैसे फूलों का ढेर लगा हो, तुमने उनकी माला झलक मिलती है, वह न तो स्त्री से आती है न पुरुष से आती है, नहीं बनाई। तुमने फूलों को किसी एक धागे में नहीं पिरोया कि तुम्हीं डालते हो। वह तुम्हारा ही खून है, जो तुम व्यर्थ उछालते तुम्हारे सभी अनुभव एक धागे में संगृहीत हो जाते और तुम्हारे हो। पर भ्रांति होती है कि सुख मिल रहा है। कुत्ते को कोई कैसे | जीवन में एक जीवन-सूत्र उपलब्ध हो जाता, एक जीवन-दृष्टि समझाए! कुत्ता मानेगा भी नहीं। कुत्ते को इतना होश नहीं। आ जाती। लेकिन तुम तो आदमी हो! तुम तो थोड़े होश के मालिक हो __ अनुभव तुम्हें भी वही हुए हैं जो महावीर को। अनुभव में कोई सकते हो! तुम तो थोड़े जाग सकते हो! भेद नहीं। तुमने भी दुख पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। तुमने 'बहत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं भी सुख में धोखा पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। फर्क कहां देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' | है? अनुभव तो एक से हुए हैं। महावीर ने अनुभवों की माला 'खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता बना ली। उन्होंने एक अनुभव को दूसरे अनुभव से जोड़ लिया। है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।' | उन्होंने सारे अनुभवों के सार को पकड़ लिया। उन्होंने उस सार खुजली हो जाती है। जानते हो, खुजलाने से और दुख होगा, का एक धागा बना लिया। उस सूत्र को हाथ में पकड़कर वे पार लहू बहेगा, घाव हो जाएंगे, खुजली बिगड़ेगी और, सुधरेगी न। हो गए। तुमने अभी धागा नहीं पिरोया। अनुभव का ढेर लगा सब जानते हुए, फिर भी खुजलाते हो। एक अदम्य वेग पकड़ है, माला नहीं बनाई। माला बना लेना ही साधना है। उसी की लेता है खुजलाने का। जानते हुए, समझते हुए, अतीत के तरफ ये इशारे हैं। अनुभव से परिचित होते हुए, पहले भी ऐसा हुआ है, बहुत बार 'खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता ऐसा हुआ है। फिर भी कोई तमस, कोई मोह-निद्रा, कोई अंधेरी है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।' रात, कोई मूर्छा मन को पकड़ लेती है, फिर भी तुम खुजलाए थोड़ा समझो। हमारी मान्यता से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारी चले जाते हो! मान्यता से, हमारी व्याख्या से बहुत फर्क पड़ता है। तुमने कभी खयाल किया, लोग जब खुजली को खुजलाते हैं तुमने कभी खयाल किया? एक स्त्री को तुम आलिंगन कर तो बड़ी तेजी से खुजलाते हैं। क्योंकि वे डरते हैं। उन्हें भी पता है लेते हो, सोचते हो, सुख मिला। सोचने का ही सुख है। ऐसा ही कि अगर धीरे-धीरे खुजलाया तो रुक जाएंगे। बड़े जल्दी तो सपने में भी तुम सोच लेते हो, तब भी सुख मिल जाता है। खुजला लेते हैं, अपने को ही धोखा दे रहे हैं। मांस निकल आता सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हीं होते हो। सपने में कोई स्त्री है, लहू बह जाता है। पीड़ा होती है, जलन होती है। फिर वही तो नहीं होती, तुम्हारी ही धारणा होती है। हो सकता है, अपनी अनुभव ! लेकिन दुबारा फिर खुजली होगी तो तुम भरोसा कर ही दुलाई को छाती से चिपटाए पड़े हो, सपना देख रहे हो। सकते हो कि तुम न खुजलाओगे? जागकर हंसते हो कि कैसा पागलपन है! कितनी बार तुमने क्रोध किया, कितनी बार क्रोध से तुम विषाद लेकिन सपने में भी उतना ही सुख मिल जाता है; शायद थोड़ा से भरे, कितनी बार तुम काम में गए, कितनी बार हताश वापिस ज्यादा ही मिल जाता है, जितना कि जागने की स्त्री से मिलता है। आए, कितनी बार आकांक्षा की और हर बार आकांक्षा टूटी और | क्योंकि जागते हुए स्त्री की मौजूदगी कुछ बाधा भी पैदा करती बिखरी, कितनी बार स्वप्न संजोए-हाथ क्या लगा? बस राख. है। सपने में तो कोई भी नहीं, तुम अकेले ही हो, तुम्हारा ही सारा ही राख हाथ लगी। फिर भी, दुबारा जब आकांक्षा पकड़ेगी, - भावनाओं का खेल है। दुबारा जब क्रोध आएगा, दुबारा जब काम का वेग उठेगा, तुम सपने में तुम सुख ले लेते हो स्त्री को आलिंगन करने का, तो 15 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सत्र भागः1 थोड़ा सोचो तो! सुख तुम्हारी ही धारणा का होगा। जागते में भी उसने कहा, 'मैं हंस रहा हूं इसलिए कि अब किसके लिए इतना सुख नहीं मिलता, क्योंकि जागते में एक जीवित स्त्री उस रोऊ! अभी सपने में बारह लड़के थे, बड़े सुंदर थे, यह कुछ भी तरफ खड़ी है। जीवित स्त्री में पसीने की बदबू भी है। जीवित नहीं। बड़े स्वस्थ, बलिष्ठ थे। जैसे उनकी मौत कभी आएगी ही स्त्री में कांटे भी हैं। जैसे तुममें हैं, ऐसे उसमें हैं। जीवित स्त्री की न, ऐसे थे। अमृत-पुत्र थे। और बड़ा महल था, यह महल मौजूदगी थोड़ी बाधा भी डालती है। दूसरे व्यक्ति की मौजूदगी झोपड़ा है! सोने का बना था। राह पर हीरे-जवाहरात लगे थे। परतंत्र भी करती है। परतंत्रता की पीड़ा भी होती है। स्त्री हो तेरी चीख ने सब गड़बड़ कर दिया। न तेरा मुझे पता था, न इस सकता है, अभी राजी न हो कि आलिंगन करो, हाथ से हटा दे। बेटे का मुझे पता था; सपने में तुम ऐसे ही खो गए थे, जैसे अब लेकिन सपने में तो कोई तुम्हें हाथ से न हटा सकेगा। सपना खो गया। अब मैं सोचता हूं, किसके लिए रोना! उन एक आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास गया और उसने कहा | बारह के लिए रोऊ पहले कि इस एक के लिए रोऊं? इसलिए कि मेरी बड़ी मुसीबत है, मेरी सहायता करें। मैं रात सपना | हंसी आती है। हंसी आती है कि रोना व्यर्थ है। हंसी आती है कि देखता हूं कि हजारों सुंदरियां नग्न मेरे चारों तरफ नाचती हैं। वह भी एक सपना था, यह भी एक सपना है। वह आंख-बंद मनोवैज्ञानिक अपनी कुर्सी से टिका बैठा था, सम्हलकर बैठ का सपना था, यह आंख-खुली का सपना है।' गया। उसने कहा, 'यह परेशानी है? अरे पागल! और क्या तुम जिसे सुख मान लेते हो, वह सुख मालूम पड़ता है। कई चाहता है ? इसमें परेशानी कहां है? तू अपना राज बता, कैसे तू दफा दुख को भी तुम सुख मान लेते हो; सुख मालूम पड़ता है। यह सपना पैदा करता है? क्या तेरी फीस है, बोल!' पहली दफा जब कोई सिगरेट पीता है तो सुख नहीं मिलता, दुख उस आदमी ने कहा, 'परेशानी यह है कि सपने में मैं भी ही मिलता है, खांसी आ जाती है, धुआं सिर में चढ़ जाता है, लड़की होता हूं। यही झंझट है। मुझे किसी तरह सपने में आदमी चक्कर मालूम होता है, घबड़ाहट लगती है। आखिर धुआं ही रहने दो। यही पूछने आया हूं।' है-गंदा धुआं है। उसको भीतर ले जाने से सुख कैसे हो सकता सपनों में सुख मिल जाता है। सपने में तुम कभी सम्राट हुए? | है? लेकिन फिर धीरे-धीरे अभ्यास करने से... जरूर हए होओगे। कोई कमी नहीं रह जाती। _ 'रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान।' फिर चीन में एक बड़ा सम्राट हुआ। उसका एक ही लड़का था। घिसते-घिसते रस्सी के, अभ्यास करते-करते...'करत-करत वह मरणासन्न पड़ा था। वह उसके पास तीन दिन से बैठा था, | अभ्यास के जड़मति होत सुजान।' पहले जड़मति थे, अकल न तीन रात से बैठा था। सारी आशा वही था। सारी महत्वाकांक्षा | थी, इसलिए धुआं पीया और मजा न आया। फिर बुद्धि आ वही था। फिर झपकी लग गई उसकी; तीन दिन का जागा हुआ | जाती है अभ्यास से। फिर मजे से पीने लगते हैं। फिर बिना पीए सम्राट, बैठे-बैठे सो गया। उसने एक सपना देखा कि उसके | कष्ट मिलने लगता है। शराब पहली दफे पीकर देखी, बेस्वाद बारह लड़के हैं—एक से एक सुंदर, बलिष्ठ, प्रतिभाशाली, है, तिक्त है। फिर धीरे-धीरे वही मधुर होने लगती है। शराब मेधावी। बड़ा उसका स्वर्ण से बना हुआ महल है। महल के | जैसी तिक्त वस्तु मधु जैसी मधुर मालूम होने लगती है। रास्ते पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं। बड़ा उसका साम्राज्य है। वह | अभ्यास...। चक्रवर्ती है। तभी बाहर जो बेटा बिस्तर पर पड़ा था, वह मर तुम अगर अपने जीवन के सुख-दुख की ठीक से छानबीन गया। पत्नी चीख मारकर चिल्लाई, सपना टूटा और सम्राट ने | करोगे तो तुम पाओगे जो तुमने सुख मान लिया, वह सुख; जो सामने मरे हुए लड़के को पड़ा देखा। पत्नी को चीखते देखा। तुमने दुख मान लिया, वह दुख। पत्नी जानती थी कि पति को बड़ा सदमा पहुंचेगा। घबड़ा गई, पूरब, सुदूर पूर्व में कुछ छोटे-छोटे कबीले हैं। वे चुंबन नहीं क्योंकि पति देखता ही रहा। न केवल रोया नहीं, हंसने लगा। करते। उन्हें पता ही न था जब तक वे सभ्यता के संपर्क में न आए पत्नी समझी कि पागल हो गया। उसने कहा, 'यह तुम्हें क्या कि लोग चुंबन भी करते हैं। और जब उन्होंने देखा कि हुआ? तुम हंस क्यों रहे हो?' स्त्री-पुरुष चुंबन करते हैं तो वे बहुत घबड़ाए, बड़ा वीभत्स उन्हें lain Education International Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प मालूम हुआ। यह भी कोई बात हुई! ओंठ, झूठे ओंठ, गंदे फिर से तो विचार करो! फिर से एक बार पुनर्विचार करो। ओंठ, लार और थूक से सने ओंठ, एक-दूसरे पर रगड़ रहे हैं तटस्थ भाव से, वैज्ञानिक दृष्टि से निरीक्षण करो। तुम बहुत और कहते हैं, मजा आ रहा है। उन्होंने कभी सदियों में चुंबन हैरान हो जाओगे, तुम्हारे सुख तुम्हारी मान्यताओं के सुख हैं। जो नहीं लिया। उन्हें पता ही न था। वे जो करते हैं, अगर तुम करोगे मान लिया, जो पकड़ लिया अचेतन में, वही सुख मालूम हो रहा तो बहुत हैरान होओगे। वे एक-दूसरे से नाक रगड़ते हैं। तुमने | है। जैसे ही जागोगे, वैसे ही तुम्हारे सुख विदा हो जाएंगे। तुम कभी रगड़ी नाक? रगड़ोगे तो पागल मालूम पड़ोगे, यह क्या | इस जीवन में दुख ही दुख पाओगे। कर रहे हो। कोई देख न ले! अपनी प्रेयसी से भी नाक न महावीर का सारा साधना-शास्त्र इस अनुभूति पर निर्भर है कि रगड़ोगे, क्योंकि वह भी सोचेगी कि तुम्हारा दिमाग खराब है, तुम्हें जीवन में परम दुख का अनुभव हो जाए। नाक रगड़ते हो! लेकिन वह कबीला सदियों से नाक रगड़ता रहा खुदा की देन है जिसको नसीब हो जाए है। वही उनका चुंबन है। ज्यादा हाइजिनिक! अगर हर एक दिल को गमे-जाविंदा नहीं मिलता चिकित्साशास्त्रियों से पूछो तो तुमसे बेहतर है। कम से कम नाक -यह जो परम दुख है, यह परमात्मा की अनुकंपा से मिलता ही रगड़ते हैं, कोई कीड़ों का और कीटाणुओं का आदान-प्रदान है। यह परम दुख, यह स्थायी दुख का बोध कि यहां सब दुख तो नहीं करते। अब चुंबन में तो कोई लाखों कीटाणुओं का है-'गमे-जाविंदा'-यह स्थायी गम... आदान-प्रदान हो जाता है। खुदा की देन है जिसको नसीब हो जाए मैंने सुना, एक आदमी अपने डाक्टर के पास गया। बड़ा हर एक दिल को गमे-जाविंदा नहीं मिलता घबड़ाया हुआ था। और उसने कहा कि यह चेचक की बीमारी महावीर को मिला। तुम्हें भी मिल सकता है। है तो, मिला तो बड़े जोर से फैल रही है। और मेरे लड़के को भी लग गई है। है। तुम देखते ही नहीं। तुम छिटकते हो। तुम देखने से बचना डाक्टर ने कहा, 'घबड़ाने की कोई बात नहीं है। फैली है। चाहते हो। महाकोप उसका है। सावधान रहो, संक्रामक है, पर घबड़ाने की लोग अपने जीवन के सत्य को देखने से बचना चाहते हैं, कोई बात नहीं। लड़का भी ठीक हो जाएगा।' उसने कहा, क्योंकि डरते हैं। और डर उनका स्वाभाविक है। डरते हैं कि 'ठीक हो जाएगा जब, बात अलग। लड़का मेरी नौकरानी को कहीं जीवन का सत्य देखा तो कहीं दुख ही दुख हाथ में न रह चूमता है, इससे मुझे घबड़ाहट हो गई है।' जाए। इसलिए पीठ किए रहते हैं। इसलिए आंख बचाए चले 'और तुम समझाये नहीं?' जाते हैं। इसलिए आंख बंद कर लेते हैं। मगर ऐसे तुम किसे उसने कहा कि अब समझाने का क्या है, मैं भी उसको चूम धोखा दे रहे हो? यह धोखा स्वयं को ही दिया गया धोखा है। लिया हूं। और इतना ही नहीं है...।' | एक कहानी मैंने सुनी है। एक शहर में एक नई दुकान खुली। फिर भी डाक्टर ने कहा, 'घबड़ाओ मत, ठीक हो जाएगा।' जहां कोई भी युवक जाकर अपने लिए एक योग्य पत्नी ढूंढ़ पर उसने कहा, 'इतना ही मामला नहीं है, मैंने पत्नी को भी सकता था। एक युवक उस दुकान पर पहुंचा। दुकान के अंदर चूम लिया है।' डाक्टर घबराया। उसने कहा कि 'रुको जी, उसे दो दरवाजे मिले। एक पर लिखा था, युवा पत्नी और दूसरे बकवास बंद करो! पत्नी को भी चूमा है? पहले मैं अपनी जांच पर लिखा था, अधिक उम्र वाली पत्नी! युवक ने पहले द्वार पर करवाऊं, क्योंकि तुम्हारी पत्नी को मैं भी चूम बैठा हूं!' धक्का लगाया और अंदर पहुंचा। फिर उसे दो दरवाजे मिले। अब तक शांत था। बीमारियां...लेन-देन हो रहा है! लोग पत्नी वगैरह कुछ भी न मिली। फिर दो दरवाजे! पहले पर कह रहे हैं, बड़ा सुख मिल रहा है। चुंबन जैसा सुख...! पर लिखा था, सुंदर; दूसरे पर लिखा था, साधारण। युवक ने पुनः कभी तुमने सोचा, कभी जागकर देखा? सुख क्या हो सकता | पहले द्वार में प्रवेश किया। न कोई सुंदर था न कोई साधारण, है? तुम भी चौंकोगे, क्योंकि तुमने कभी जागकर सोचा नहीं, वहां कोई था ही नहीं। सामरे फिर दो दरवाजे मिले, जिन पर ध्यान नहीं किया। तुमने जिन-जिन बातों में सुख माना है, उनमें लिखा था : अच्छा खाना बनानेवाली और खाना न बनानेवाली। www.jainelibrar corg Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H जन सूत्र भागः1. युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। स्वाभाविक, तुम भी यही तरह, निशाना चूक गया। यह देखकर कि लड़का बहुत ध्यान से करते। उसके समक्ष फिर दो दरवाजे आए, जिन पर लिखा था : | उड़ते पक्षी की ओर देख रहा है, मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, 'देख अच्छा गाने वाली और गाना न गाने वाली। युवक ने पुनः पहले बेटे, देख! आश्चर्य देख! मरकर भी पक्षी उड़ान भर रहा है!' द्वार का सहारा लिया और अब की उसके सामने दो दरवाजों पर मगर कोई मानने को राजी नहीं है कि निशाना अपना चूक गया लिखा था : दहेज लानेवाली और न दहेज लानेवाली। युवक ने है। बाप का निशाना चूक गया है, लेकिन बेटे से कह रहा है, फिर पहला दरवाजा चना। ठीक हिसाब से चला। गणित से 'देख, बेटे देख! निशाना तो लग गया, चमत्कार देख। फिर चला। समझदारी से चला। परंतु इस बार उसके सामने एक कभी मौका मिले न मिले। पक्षी मरकर भी उड़ रहा है।' दर्पण लगा था, और उस पर लिखा था, 'आप बहुत अधिक अगर तुम्हारा निशाना चूक गया हो तो किसी को भूलकर भी गुणों के इच्छुक हैं। समय आ गया है कि आप एक बार अपना यह आभास मत देना कि लग गया है। अपनी हार को स्वीकार चेहरा भी देख लें।' कर लेना। इससे तुम्हें भी लाभ होगा, औरों को भी लाभ होगा। ऐसी ही जिंदगी है : चाह, चाह, चाह! दरवाजों की टटोल। अपनी पराजय को मान लेना, क्योंकि तुम्हारी पराजय ही तुम्हारी भूल ही गए, अपना चेहरा देखना ही भूल गए। जिसने अपना विजय-यात्रा का पहला कदम बनेगी। धोखा मत दिये चले चेहरा देखा, उसकी चाह गिरी। जो चाह में चला, वह धीरे-धीरे जाना। यह अकड़ व्यर्थ है। इस अकड़ अपने चेहरे को ही भूल गया। जिसने चाह का सहारा पकड़ महावीर इस अकड़ को तोड़ने के लिए ही ये सूत्र कह रहे हैं। लिया, एक चाह दूसरे में ले गई, हर दरवाजे दो दरवाजों पर ले हम वही-वही मांगे चले जाते हैं। हर बार हारते हैं, फिर वही गए, कोई मिलता नहीं। जिंदगी बस खाली है। यहां कभी कोई मांगते है। कभी-कभी तो हमारी मांगें ऐसी असंगत और किसी को नहीं मिला। हां, हर दरवाजे पर आशा लगी है कि और | मूढ़तापूर्ण होती हैं, लेकिन चूंकि हमारी मांगें हैं, हम न तो उनकी दरवाजे हैं। हर दरवाजे पर तख्ती मिली कि जरा और चेष्टा मूढ़ता देखते, न असंगति देखते हैं। करो। आशा बंधाई। आशा बंधी। फिर सपना देखा। लेकिन एक भिखारी ने लाटरी का टिकट खरीदा और भगवान से खाली ही रहे। अब समय आ गया, आप भी दर्पण के सामने प्रार्थना की कि हे प्रभु! मझे लाटरी का पहला इनाम दे दो, खड़े होकर देखो। अपने को पहचानो! जिससे मैं कार खरीद सकें। पैदल भीख मांगते-मांगते तो मेरी जिसने अपने को पहचाना वह संसार से फिर कुछ भी नहीं टांगें टूटी जाती हैं। मांगता। क्योंकि यहां कछ मांगने जैसा है ही नहीं। जिसने अपने कार में भी भीख ही मांगेगा। जैसे हमें कोई होश ही नहीं है। को पहचाना, उसे वह सब मिल जाता है जो मांगा था, नहीं मांगा तुम क्या मांग रहे हो? तुम जो मांगते हो, उसमें फिर तुम वही था। और जो मांगता ही चलता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता है। मांग रहे हो, वही पुराना ढांचा जिसमें तुम जन्मों-जन्मों से जी रहे इस जिंदगी में तुम न केवल अपने को धोखा दे रहो हो; तुम्हारे, हो; और जिसमें सिवाय दुख, सिवाय पीड़ा और संताप के कुछ जिनको तुम अपने कहते हो, उनको भी धोखा दे रहे हो। घर में भी नहीं पाया है। एक बच्चा पैदा होता है। तुम तो धोखे में जीए ही, तुम यही एक छोटे शहर के चौधरी घूमने के खयाल से दिल्ली पहुंचे। धोखा उसको भी सिखाते हो। तुम तो दुख में जीए ही, तुम इसी तो एक मामूली से परिचित सज्जन के घर जा धमके और बातें दुख का शिक्षण उसे भी देते हो। ऐसे पागलपन हटता नहीं संसार करने लगे। बीमारियां दसरों को दिये चले जाते हैं। बहत देर तक, जब उसने वहां से जाने का नाम न लिया तो घर मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने लड़के पर रौब गांठने के लिए एक वाले सज्जन ने अपने नौकर को आवाज देकर बुलाया और कहा, दिन शिकार पर उसे साथ ले गया। वहां एक पक्षी पर निशाना 'भाई सामान बांधो और चलने की तैयारी करो।' साधते हुए लड़के से बोला, 'देख बेटे! मेरा निशाना कितना चौधरी और नौकर दोनों आश्चर्य में पड़ गए कि एकाएक कहां अचूक होता है।' यह कहकर उसने गोली दागी। हमेशा की जाने की तैयारी है। आखिर में चौधरी के पूछने पर कि इस वक्त 18 Jalin Education International - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प कहां जा रहे हैं, सज्जन ने कहा, 'भाई! मकान पर तो आपने जरा गौर से देखो, तुम्हारी सब तालियां व्यर्थ गई हैं। क्रोध अधिकार कर ही लिया है। कहीं सामान भी हाथ से न जाता रहे, करके देखा, लोभ करके देखा, मोह करके देखा, काम में डूबे, इसलिए यहां से भागना अच्छा है।' | धन कमाया, पद पाया, शास्त्र पढ़े, पूजा की, प्रार्थना की-कोई इससे उलटी हालत तुम्हारी है। मकान पर तो अधिकार हो ही ताली लगती है? गया है संसार का, सामान पर भी अधिकार हो गया है! तुम ही महावीर कहते हैं, संसार की कोई ताली लगती नहीं। और जब बचे हो, और तो सब खो दिया है। अब अपने को ही खो रहे हो। तुम सब तालियां फेंक देते हो, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं। भागो! महावीर की साधना-विधि जीवन में आग लगी है, ऐसा संसार से सब तरह से वीतराग हो जाने में ही ताली है, चाबी है। देखकर तुम्हें जगाने की और इस घर को छोड़ देने के लिए है। बाहर आओ! लोग तुमसे कहेंगे, 'पलायनवादी हो रहे हो?' आज इतना ही। महावीर कहते हैं, घर में जब आग लगी हो तो पलायन ही समझदारी है। जहां दुख हो, वहां से भाग जाना ही समझदारी और ध्यान रखना, अगर तुम दुख से बच सको तो सुख की संभावना का द्वार खलता है। लेकिन सख कहीं बाहर नहीं है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। संसार बाहर है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। जितने तुम बाहर जाओगे उतने सुख से दूर होते चले जाओगे। जितने तुम बाहर न जाओगे उतनी ही सुख की धुन बजने लगेगी। सुख का सितार बजने को तैयार रखा है, सिर्फ तुम घर आओ। ___ मुल्ला नसरुद्दीन एक धनपति के घर नौकरी करता था। एक दिन उसने कहा, 'सेठ जी, मैं आपके यहां से नौकरी छोड़ देना चाहता है। क्योंकि यहां मुझे काम करते हुए कई साल हो गए, पर अभी तक मुझ पर आप को भरोसा नहीं है।' सेठ ने कहा, 'अरे पागल! कैसी बात करता है! नसरुद्दीन होश में आ! तिजोरी की सभी चाबियां तो तुझे सौंप रखी हैं। और क्या चाहता है? और कैसा भरोसा?' नसरुद्दीन ने कहा, 'बुरा मत मानना, हुजूर! लेकिन उसमें से एक भी ताली तिजोरी में लगती कहां है।' जिस संसार में तुम अपने को मालिक समझ रहे हो, तालियों का गुच्छा लटकाए फिरते हो, बजाते फिरते हो, कभी उसमें से ताली कोई एकाध लगी, कोई ताला खुला? कि बस तालियों का गुच्छा लटकाए हो। और उसकी आवाज का ही मजा ले रहे हो। कई स्त्रियां लेती हैं, बड़ा गुच्छा लटकाए रहती हैं। इतने ताले भी मुझे उनके घर में नहीं दिखाई पड़ते जितनी तालियां लटकाई हैं। मगर आवाज, खनक सुख देती है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रवचन प्यास ही प्रार्थना है Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार क्या यह आरोप सही है कि महावीर और बुद्ध यह कह कर कि जीवन दुख ही दुख है, भारत और एशिया के जीवन को विपन्न बना गए ? प्रतिक्रमण इतना असहज-सा क्यों लगता है ? प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से, मालूम नहीं... और अयाचित और असमय । उसकी वर्षा हो रही है !... ? श्रवण और पठन-पाठन में क्या भेद है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 हला प्रश्न : क्या यह आरोप सही है कि महावीर व्याख्या में कहीं भूल हो गई। तुम्हारा भाष्य भ्रांत है। और बुद्ध, यह कहकर कि जीवन दुख ही दुख है, महावीर को तो देखो, विपन्न दिखाई पड़ते हैं? और संपन्नता भारत और एशिया के जीवन को सदियों-सदियों क्या होगी? महावीर से ज्यादा सुंदर महिमा-मंडित परमात्मा की के लिए विपन्न और दुखी बना गए? और क्या यह जीवन | कोई और छवि देखी है? महावीर से ज्यादा आलोकित, अस्वीकार की दृष्टि स्वस्थ अध्यात्म कही जा सकती है? विभामय और कोई विभूति देखी? कहीं और देखा है ऐसा ऐश्वर्य, जैसा महावीर में प्रगट हुआ? जैसी मस्ती और जैसा पहली बात, न तो कोई तुम्हें आनंदित कर सकता है, न कोई आनंद, और जैसा संगीत इस आदमी के पास बजा, कहीं और तुम्हें विपन्न कर सकता है। जो भी तुम होते हो, तुम्हारा ही निर्णय सुना है? कृष्ण को तो बांसुरी लेनी पड़ती है तब बजता है है। बहाने तुम कोई भी खोज लो।। संगीत; महावीर के पास बिना बांसुरी के बजा है। मीरा को तो ___ महावीर ने कहा, जीवन व्यर्थ है। कहा, ताकि तुम महाजीवन नाचना पड़ता है, तब बजता है संगीत; महावीर के पास बिना में जाग सको। तुमने अगर गलत पकड़ा और तुमने इस जीवन नाचे नचा है। कोई सहारा न लिया-वीणा का भी नहीं, नृत्य को भी छोड़ दिया-और नीचे गिर गए, महाजीवन में न उठे। का भी नहीं, बांसुरी का भी नहीं। कृष्ण तो सुंदर लगते एक जगह तुम खड़े थे सीढ़ी पर और महावीर ने कहा, छोड़ो इसे, हैं—मोर-मुकुट बांधे हैं। महावीर के पास तो सौंदर्य के लिए आगे बढ़ो। छोड़ा तो तुमने जरूर, लेकिन पीछे हट गए। कसूर कोई भी सहारा नहीं-बेसहारे, निरालंब! लेकिन कहीं और तुम्हारी समझ का है। | देखा है परमात्मा का ऐसा आविष्कार-जीवन की ऐसी जीवन में सदा ही उत्तरदायित्व हमारा है। दूसरों पर टालने की प्रगाढ़ता, ऐसा घना आनंद! तो महावीर जीवन के विपरीत तो आदत छोड़ो। महावीर ने कहा था, ताकि तुम महाजीवन की नहीं हो सकते। नहीं तो सूख जाते, जैसे जैन मुनि सुखे हैं। तरफ उठो। जीवन की निंदा की थी, किसी परम जीवन की जीवन के विपरीत तो नहीं हो सकते; नहीं तो कुरूप हो जाते, प्रशंसा के लिए। | जैसे जैन मुनि हो गए हैं। सिकुड़ जाते। जीवन को छोड़ा है, इस जीवन को जिसे तुम जीवन कहते हो, जीवन कहने जैसा लेकिन सिकुड़े नहीं हैं। मृत्यु को वरण किया है, महामृत्यु को क्या है? इसमें संपन्न होकर भी क्या मिलेगा? यह मिल भी वरण किया है लेकिन मरे नहीं हैं। मृत्यु उन्हें और निखार दे। जाए तो कुछ मिलता नहीं; खो भी जाए तो कुछ खोता नहीं। गई। मृत्यु को स्वीकार करके उनका जीवन और भी संपन्न हुआ स्वप्नवत है। स्वप्न से जागने को कहा था। तुम स्वप्न से जागे है, और भी गहन धन की वर्षा हुई है। तो नहीं, और महातंद्रा में खो गए। तुम्हारे दृष्टिकोण में, तुम्हारी तुम मृत्यु से डरे-डरे जीते हो। महावीर को वह डर भी न रहा, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः 11 उनका जीवन अभय हुआ है। तुम घबड़ाए हो, धन छिन न | है, वह कुछ और है। तुम्हारी समझ के संग्रह का नाम तुम्हारा जाए! तो धन भी हो, धन से ज्यादा तो घबड़ाहट आ जाती है कि शास्त्र, तुम्हारा धर्म, तुम्हारी सभ्यता, संस्कृति है। छिन न जाए! महावीर ने धन छोड़ा, इतना ही मत देखो; साथ ही निश्चित ही, कल ही मैं आपसे कहता था कि चौबीसों तीर्थंकर घबड़ाहट भी तिरोहित हो गई है। जब धन ही न रहा तो छिनने की | जैनों के क्षत्रिय हैं। युद्ध के मैदान से आए। युद्ध की पीड़ा और बात ही कहां उठती है! महावीर ने वह सब छोड़ दिया जिसके युद्ध की हिंसा और युद्ध की व्यर्थता देखकर आए। उनकी साथ भय आता हो; वह सब छोड़ दिया जिसके साथ चिंता अहिंसा भय की अहिंसा नहीं है, कायर की अहिंसा नहीं आती हो। है-महावीरों की अहिंसा है। देखकर कि हिंसा में तो कायरता लेकिन ध्यान रखना, छोड़ने पर जोर नहीं है। पाया! ही है, उन्होंने हिंसा का त्याग किया। लेकिन फिर क्या हुआ? चिंतामुक्त जीवन-दशा पायी। अपूर्व शांति पायी। अभय जैन धर्म बना तो वणिकों से, वैश्यों से। जैनियों में तुम्हें क्षत्रिय न पाया। सत्य प्रगट हुआ महावीर से। ऐसा बहुत कम हुआ है। मिलेगा। सब दुकानदार हैं। कैसी दुर्घटना घटी। जिनके सब महावीर को अगर गौर से समझो तो पहली बात तो यह तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, उनके सब अनुयायी दुकानदार हैं! नहीं, समझनी चाहिए कि महावीर के पास कोई भी कारण नहीं है। जिन्होंने पकड़ा है उन्होंने कुछ और अर्थ से पकड़ा है। उन्होंने जीसस का सम्मान है-सूली कारण है। जीसस अगर सूली पर कहा, न किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा; न झगड़ा-झांसा न चढ़े होते, न चढ़ाए गए होते, ईसाइयत पैदा न होती। इसलिए | करेंगे, न पिटेंगे। उन्होंने 'अहिंसा परमोधर्मः' का उदघोष क्रास प्रतीक बन गया। जीसस के दुख ने करोड़ों लोगों की | किया। उन्होंने कहा, यह बात बड़ी अच्छी है। यह तो ढाल की सहानुभूति को आकर्षित कर लिया। दुख सदा सहानुभूति | तरह है कि हम मरने-मारने में विश्वास ही नहीं रखते। आकर्षित करता है। मगर जरा जैनियों की तरफ देखो, इनकी अहिंसा में अभय है? कृष्ण की बांसुरी के स्वर हैं। पशु भी नाच उठे, पक्षी भी भय ही भय को तिलमिलाता पाओगे। ये भय के कारण आनंदित हुए, दौड़ पड़े स्त्री-पुरुष! महावीर के पास क्या है? न अहिंसक हैं। बांसुरी है, न सूली है। महावीर निपट खड़े हैं नग्न, वस्त्र भी ये डरे हैं कि कोई मारे न, कोई लूटे न, कोई खसोटे न, कोई नहीं। कुछ भी नहीं है, जिस कारण लोग महावीर के पास जाएं। झंझट न करे, तो स्वाभाविक है कि अहिंसा की चर्चा करो। फिर भी लोग गए। फिर भी उन चरणों में लोग झुके हैं। महावीर की अहिंसा मृत्यु के पार जो अनुभव है उससे आती कृष्ण ने तो कहा : 'सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। है। जैनों की जो अहिंसा है, जीवन का ही अनुभव नहीं, मृत्यु के सब छोड़, मेरी शरण आ!' तो भी अर्जुन झिझका-झिझका अनुभव की तो बात दूर! शरण आया। उसकी झिझक से ही तो गीता पैदा हुई। संदेह करता ही चला गया। एक जैन ने प्रश्न पूछा है कि 'आप कहते हैं कि वह परम महावीर ने कहा : 'किसी की शरण जाने की कोई भी जरूरत | अवस्था तो शून्य की है, तो ऐसे शून्य को पाकर क्या करेंगे? नहीं है। मेरी शरण मत आओ, अपनी शरण जाओ!' फिर भी इससे तो यही जीवन ठीक है। कम से कम सुख-दुख का लोग महावीर के चरणों में आए, जरूर कुछ महिमापूर्ण घटित | अनुभव तो होता है!' । हुआ है! कुछ अनूठा लोगों को दिखा है! जैन धर्म से खो गई वह अनूठी बात–वह दूसरी बात है। शून्य का डर! इससे वे स्वर्ग-नर्क, सुख-दुख, कुछ भी हो उससे महावीर को मत जोड़ो। जैन धर्म तुम्हारा है। जैन धर्म झेलने को तैयार हैं; मिटने को तैयार नहीं हैं। शून्य यानी तुम्हारी व्याख्या है महावीर के संबंध में। जैन धर्म वह नहीं है जो | मिटना! न तुम यहां मिटने को तैयार हो, न तुम वहां मिटने को महावीर ने दिया है। जैन धर्म वह है जो तुमने लिया है। महावीर तैयार हो। बचना चाहते हो। बचाव भय की अभिव्यक्ति है। ने जो कहा है, वह तो कुछ और है। तुमने जो पकड़ा है, समझा अब जिन मित्र ने पूछा है, दुख को भी पकड़ने को तैयार हैं, कम Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEET प्यास ही प्रार्थना है से कम रहेंगे तो! बचेंगे तो! दुख ही सही, नर्क ही सही-मगर अपनी शाश्वतता खोजते हो। तुम सोचते हो, चलो और तरह मिटने को तैयार नहीं हैं। का अमरत्व तो संभव नहीं है, इसी बहाने बच्चों में जीते रहेंगे; और जीवन का परम सत्य यही है कि जब तक तुम अपने को मेरा ही तो खून है; मेरे ही तो जीवाणु हैं! चलो यह देह न रहेगी, पकड़े हो तब तक मिटते रहोगे। और जिस दिन तुम अपने को बच्चों में जीएंगे। छोड़ दोगे और जिस दिन तुम शून्य होने को तैयार हो जाओगे, बाप बेटे में जीता है। मां बेटे में जीती है। ऐसी परंपरा बनती उसी क्षण पूर्ण घटित होता है-तत्क्षण घटित होता है। उस है। 'हम न रहेंगे, हमारा तो कोई रहेगा!' इसलिए तुम 'हमारे' क्रांति में फिर एक क्षण भी प्रतीक्षा नहीं करनी होती। तुम इधर | को पकड़ते हो। पर सारी पकड़ भीतर 'में' की है। जिसने शून्य होने को तैयार हुए कि तुम पूर्ण हुए। फिर कोई बाधा न समझने की कोशिश की, वह धन को नहीं छोड़ेगा। धन छोड़ने रही। कोई भय न रहा तो बाधा कैसी? तुम जब मिटने तक को से क्या लेना-देना है! क्योंकि धन तो गौण है; असली बात तो तत्पर हो गए तो तुम्हारी कोई पकड़ न रही। जो शून्य होने को 'मैं' की पकड़ छोड़ने की है। तुम्हें राजी होना है, ऐसी घड़ी के राजी है वह धन को थोड़े ही पकड़ेगा! जिसने अपने को ही न | लिए कि जहां मैं भी न रह जाऊं, तो भी क्या हर्ज है! क्या हर्ज पकड़ा वह धन को क्या पकड़ेगा! सारी पकड़ के भीतर पहली है? क्या मिटेगा? क्या खो जाएगा? तुम्हारे हाथ में क्या है? पकड़ तो अपनी पकड़ है। तुम धन को किसलिए पकड़ते हो? तुम मुट्ठी खोलने से डरते हो, क्योंकि मैं कहता हूं मुट्ठी खाली है। धन के लिए ही थोड़ी कोई धन को पकड़ता है-अपने को तुम कहते हो, इससे तो मुट्ठी बंधी ही रहे, चाहे तकलीफ होती है पकड़ता है, इसलिए धन को पकड़ता है। क्योंकि धन सुरक्षा देता बांधे रखने में, होती रहे-कम से कम बंधी तो है! लोग कहते है, भविष्य में व्यवस्था देता है। कल घबड़ाहट न होगी, तिजोरी हैं, बंधी लाख की! खाली है, मगर कहते हैं, बंधी लाख की! है, बैंक में बैलेंस है। बीमारी आए, बुढ़ापा आए, कुछ भी हो, । क्योंकि जो दिखाई ही नहीं पड़ता तो मान लो लाख हैं, करोड़ हैं, तो धन सुरक्षा का आश्वासन देता है। जो भी मानना है मान लो। खोलो, लाख गए! मुट्ठी खाली है! तुम अपने को पकड़ते हो, इसलिए धन को पकड़ते हो। तुम | लेकिन तुम बांधो कि खोलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, मुट्ठी अपने को पकड़ते हो, इसलिए पत्नी को, बच्चे को पकड़ते हो। खाली है। उपनिषद कहते हैं, कोई पत्नी को थोड़े ही प्रेम करता है; लोग तुम कहते हो, इससे तो दुख ही बेहतर; सुख का आभास ही अपने को प्रेम करते हैं, इसलिए पत्नी को प्रेम करते हैं। पत्नी तो बेहतर-कम से कम हैं तो! यह अनुयायी की आवाज है। बहाना है। जिसने पूछा है वह जैन है। यह महावीर की आवाज नहीं है। तुम कहते हो कि तुमसे मुझे प्रेम है। लेकिन तुम्हारे प्रेम का महावीर तो कहते ही यही हैं कि छोड़ो परिग्रह, छोड़ो संसार, अर्थ कितना है? क्या है अर्थ? इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे होने छोड़ो वासना; ताकि इस सब छोड़ने में, जो इन सब के पीछे के कारण मैं प्रफुल्लित होता है; तुम हो तो मैं सुख पाता छिपा है और अपने को बचा रहा है, वह तुम्हें प्रगट हो जाए कि हूं-लेकिन तुम साधन हो, साध्य तो मैं ही हूं। तुम अपने बच्चों मूल में तो तुम अहंकार को बचा रहे हो, अपने को बचा रहे हो। को प्रेम करते हो, उनको पकड़ते हो-किसलिए? बुढ़ापे के सब बहाने छोड़ो तो साफ दिखाई पड़ जाएगा कि अपने को सहारे हैं। तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के लिए कंधा देंगे। भविष्य में बचाने में लगे हो! लेकिन बचाने में सार क्या है? और तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करेंगे। तम तो पूरा न कर बचा-बचाकर तम बचाओगे कैसे? या तो तम बचोगे ही. अगर पाओगे, यह तुम्हें पता है। महत्वाकांक्षाएं अनंत हैं। वासनाएं वह तुम्हारा स्वभाव है और अगर स्वभाव में ही अमरत्व नहीं है दुष्पूर हैं-बहुत हैं। जीवन बड़ा छोटा है : गया-गया, हाथ से तो तुम लाख बचाओ, बच न सकोगे। बहा-बहा है! तुम तो पूरा न कर पाओगे, तुम्हारे बच्चे तुम्हारी इसलिए महावीर कहते हैं : छोड़ो यह आपा-धापी! छोड़ो यह याद पूरी करेंगे; परंपरा को जारी रखेंगे; बाप का नाम बचाएंगे। बचने की आकांक्षा! यह जीवेषणा छोड़ो। जीवेषणा सभी पापों तुम तो जा चुके होओगे, लेकिन बच्चों के सहारे किसी तरह तुम का आधार है। मैं जीना चाहता है. चाहे फिर दसरों को मारकर www.jainelibrar org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 जिन सत्र भाग: 1 भी जीना पड़े, तो भी जीऊंगा! मैं जीना चाहता हूं, मुझे क्या फिक्र उसका पता चल जाएगा जो सदा सुरक्षित है। है कि कौन मरता है ! तो महावीर की सारी अहिंसा का सूत्र यही है, कि तुम्हारे जैसे ही सभी जीना चाहते हैं । तुम वही करो उनके साथ जो तुम अपने साथ करना चाहते हो। तो तुम किसी को मारो मत! लेकिन जो किसीको न मारेगा, वह मरना शुरू हो जाएगा। यह जीवन तो बड़ा संघर्ष है। यहां तो तुम दूसरे की गर्दन न दबाओ तो कोई तुम्हारी गर्दन दबाएगा। यहां तो सुरक्षा का सबसे श्रेष्ठ उपाय आक्रमण है। मैक्यावली से पूछो ! महावीर से अहिंसा समझ लो, मैक्यावली से हिंसा समझ लो । मैक्यावली कहता है कि इसके पहले कि कोई हमला करे, हमला करो; इसके पहले कि कोई तुम पर हमला करे, हमला कर दो। मौका मत दो पहल का, अन्यथा तुम पिछड़ ही गए संघर्ष में मार लो, मार डालो, इसके पहले कि कोई तुम्हें मारे । यही सूत्र है— जीवन में संघर्ष का, अपने को बचाने का । बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। तुम शक्तिशाली बनो और दूसरों को पीते चले जाओ। उसी में तुम्हारा जीवन है। महावीर कहते हैं, ऐसे जीवन को क्या करोगे? इस जीवन का सार भी क्या है, अर्थ भी क्या है ? बच भी जाएगा तो क्या बचेगा, हाथ क्या लगेगा? हाथ-लाई क्या होगी ? महावीर कहते हैं, सब देखा ! सारा जीवन झूठा है, भ्रांत है। यह दूसरे को मारने योग्य तो है ही नहीं। अगर दूसरे को बचाने में अपने को मिटा भी देना पड़े तो मिटा दो - इसमें कुछ हर्जा नहीं है, कुछ जा नहीं रहा है । और महावीर इतने आश्वस्त होकर यह कहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं; जो तुम्हारे भीतर अंतर्तम में छिपा हैं उसकी कोई मृत्यु नहीं है। जिसे तुम बचा रहे हो, वह तुम्हारी झूठी प्रतिमा है; वह तुम्हारा स्वयं के प्रति झूठा भाव है। जिसे तुम बचा रहे हो, अहंकार, वह तो मरेगा। वह तो समाज का दिया हुआ है; मौत के साथ समाप्त हो जाएगा। तुम जैसे आए थे, कोरे, कुंआरे, जन्म के साथ, ऐसे ही कुंआरे-कुंआरे तुम मृत्यु के साथ जाओगे। तुम्हारा नाम-धाम, पता-ठिकाना, सब यहीं छूट जाएगा। और वह जो मृत्यु के पीछे भी चला जाता है तुम्हारे साथ और जन्म के पहले भी तुम्हारे पास था, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। तुम दौड़ छोड़ो बचने की, तो तुम्हें उसका पता चलेगा जो सदा ही बचा हुआ है। तुम अपनी सुरक्षा न करो, तो तुम्हें मैं कहता हूं शून्य होने की बात, तो उसका कुल इतना ही पूर्ण हो। इधर तुम शून्य होने को राजी हुए तो तुम्हारी दौड़-धूपमिटी । दौड़-धूप मिटी तो सारी चेतना मुक्त हुई दौड़-धूप से, चेतना घर लौटी। बाहर नहीं जाओगे तो कहां जाओगे? घर आओगे ! घर आने का कोई रास्ता थोड़े ही है - बस बाहर जाना छोड़ देना है कि घर आ गए। घर तो तुम हो ही, तुम्हारी वासना ही भटकती है दूर-दूर । यहां तुम बैठे मुझे सुन रहे हो : हो सकता है, तुम यहां सिर्फ बैठे हो शरीर की भांति, तुम्हारी वासना कहीं और भटकती है— कलकत्ते में होओ, दिल्ली में होओ, बंबई में होओ। तो जितना तुम्हारा मन बंबई में चला गया मुझे सुनते वक्त, उतने तुम यहां नहीं हो। अगर तुम्हारा पूरा मन ही बंबई में चला गया, तो तुम यहां बिलकुल नहीं हो। यहां तुम्हारा होना न होना बराबर है। तुम होते न होते कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ एक प्रतिमा बैठी है, जिसमें कोई प्राण नहीं है। क्योंकि प्राण तो वासना में भटक गए। तुम कहीं जाते थोड़े ही हो बाहर; वासना में मन उलझा कि तुम बाहर गए ! वासना बहिर्गमन का मार्ग है । वासना बाहर जाना है। क्षणभर को भी अगर तुम बाहर न जाओ तो तुम जाओगे कहां फिर ? जब बाहर जाने के सब सेतु टूट गए, सब द्वार - दरवाजे बंद हो गए, सब मार्ग व्यर्थ हो गए, न तुम धन में गए, न तुम पद में गए, न तुम प्रेम में गए, तुम कहीं बाहर गए ह नहीं, तो तुम अचानक अपने को घर में बैठा हुआ पाओगे-जहां तुम सदा से बैठे हुए हो; जहां से तुम क्षणभर को भी हटे नहीं, तिलभर को भी हटे नहीं; जहां से हटने का कोई उपाय नहीं। उसी को महावीर स्वभाव कहते हैं। उसी को महावीर धर्म कहते हैं, जिससे हटा न जा सके, जिसे खोकर भी खोया न जा सके, जिसे मिटाकर भी मिटाया न जा सके। जिसे तुम लाखों जन्मों में चेष्टा कर-कर के, भटक भटककर भी नहीं अपने से छुड़ा पाए हो, वही तुम्हारा स्वभाव है। जो छूट जाए, वह पर - भाव है । तुम्हारे वस्त्र छीने जा सकते हैं; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं । तुम्हारा शरीर छिन जाता है; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं । तुम्हारा मन भी छिन जाता है, वह भी तुम्हारा स्वभाव नहीं । देह और मन के पार कुछ है— अनिर्वचनीय, जिसे न कभी छीना जा सका है, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAREERIAL प्यास ही प्रार्थना है न छीना जा सकता है। उसका इतना ही अर्थ है : व्यर्थ से शून्य हो जाओ, ताकि सार्थक बादल घिरते हैं आकाश में, इससे कुछ आकाश नष्ट नहीं हो का आविर्भाव होने लगे। बाहर से शून्य हो जाओ, ताकि भीतर जाता। क्षणभर को दिखाई नहीं पड़ता। खो जाता है। ओझल हो की धुन बजने लगे। बाजार में खड़े हो। भीतर तो धुन बजती ही जाता है। पर मिटता थोड़े ही है! फिर बादल चले जाते हैं, वर्षा रहती है, सुनाई नहीं पड़ती; बाजार का शोरगुल भारी है। भीतर समाप्त हुई, बादल विदा हो गए—आकाश अपनी जगह खड़ा आओ! थोड़े आंख-कान बंद करो! छोड़ो बाजार को! भूलो है। ऐसी ही वासनाएं आती हैं तम्हारे अंतर-आकाश में, क्षणभर | बाजार को! तो भीतर की धुन सुनाई पड़ने लगे, अनाहत का नाद को घिरती हैं, शोरगुल मचता है, गड़गड़ाहट होती है, बिजलियां सुनाई पड़ने लगे। चमकती हैं—क्रोध है, लोभ है, मोह है, माया है-हजार तरह अहर्निश बज रही है वह वीणा। क्षणभर को भी उस के बादल घिरते हैं, गड़गड़ाहट होती है, वासना बरसती है। फिर कलकल-नाद में बाधा नहीं पड़ती। पर बड़ा सूक्ष्म है नाद! जब जिस दिन भी बोध सम्हलेगा-गए बादल! इससे तुम खराब तुम सुनने में सजग होओगे, जब तुम्हारा श्रवण सधेगा, जब थोड़े ही हो गए। तुम्हारा कुंआरापन कुछ ऐसा है कि खराब हो ही तुम्हारे कान भीतर की तरफ मुड़ेंगे और जब तुम धीरे-धीरे बारीक नहीं सकता। बादल सदा आएगा-जाएगा, आकाश तो कुंआरा को, बारीकतम को पकड़ने में कुशल हो जाओगे-तब, तब बना रहता है। आकाश व्यभिचारित थोड़े ही होता है। रेखा भी | तुम्हें उस वीणा का नाद सुनाई पड़ेगा, जिसको योगी अनाहत तो नहीं छुट जाती बादल की। छाया भी तो नहीं छट जाती बादल कहते हैं। की। पद-चिह्न खोजकर भी तो न खोज पाओगे। कोई हस्ताक्षर और सब नाद तो आहत हैं, दो चीजों की टक्कर से पैदा होते तो बादल कर नहीं जाता कि यहां मैं आया था। कोई हैं। मैं ताली बजाऊं तो दो हाथ टकराते हैं। एक हाथ से तो ताली नाम-ठिकाना भी नहीं छूट जाता। ऐसे ही तो तुम्हारी देह खो बजती नहीं। लेकिन एक नाद है तुम्हारे भीतर, जो अहर्निश चल जाती है। रहा है। वह आहत-नाद नहीं है। वह दो हाथ की ताली नहीं है, कितनी देहें इस पृथ्वी पर रही हैं तुमसे पहले! तुम कुछ नये एक हाथ की ताली है। वह किन्हीं दो चीजों की टकराहट से पैदा हो? वैज्ञानिक कहते हैं, जहां तुम बैठे हो वहां कम से कम दस नहीं हुआ, अन्यथा किसी न किसी दिन बंद हो जाएगा। जब दो लाशें गड़ी हैं। जितनी जगह तुम बैठने के लिए लेते हो, वहां कम चीजें न टकराएंगी तो बंद हो जाएगा। वह तुम्हरा स्वभाव है। से कम दस आदमी मर चुके, गड़ चुके, खो चके। वहीं तुम भी ओंकार! प्रणव! वह तुम्हारा स्वभाव है। खो जाओगे। यह तो आदमियों की बात हुई। अब जानवरों का यह तुमने कभी सोचा? हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, भारत में ये हिसाब करो, कीड़े-मकोड़ों का हिसाब करो, मक्खी-मच्छरों का तीन महाधर्म पैदा हुए। तीनों के विचारों में बड़ा भेद है, हिसाब करो, वृक्ष-पौधों का हिसाब करो, तो तुम जहां बैठे हो जमीन-आसमान का भेद है। तीनों की सैद्धांतिक धारणाएं भिन्न वहां अनंत जीवन हुए और खो गए। वहीं तुम भी खो जाओगे।। हैं। तीनों के ढांचे अलग हैं, मार्ग अलग हैं, पथ अलग हैं। कोई खोते ही चले जा रहे हो। प्रतिक्षण खिसकते जा रहे हो गड्ढे में। समर्पण का मार्ग है, कोई संकल्प का। कोई संघर्ष का मार्ग है, मौत पास आती चली जाती है। एक-एक क्षण जीवन रिक्त होता कोई शरणागति का कोई पूजा-प्रार्थना, भक्ति का, कोई चला जाता है। बूंद-बूंद कर के घड़ा खाली हो जाएगा। लेकिन ध्यान-समाधि का। लेकिन एक बात इन तीनों धर्मों ने स्वीकार फिर भी तुम हो-जो कभी खाली नहीं होगा। की है-वह है ओंकार। वह है ओऽम् का नाद। उसे इनकार जो संसार से मिला है, संसार वापिस ले लेता है। लेकिन कुछ करने का उपाय नहीं। क्योंकि जब भी कोई भीतर गया है, तो उस कसी से भी नहीं मिला-जो बस तुम्हारा नाद को सुना है। जब भी कोई भीतर गया है तो ऐसा कभी हुआ है! वही तुम्हारी संपदा है। वही तुम्हारी आत्मा है। ही नहीं, कोई अपवाद नहीं कि वह नाद न सुना हो। वह जब कहते हैं, शून्य हो जाओ तो उसका कुल इतना ही अर्थ है: जीवन-नाद है, ब्रह्म-नाद है। बादलों से शून्य हो जाओ, ताकि आकाश से पूर्ण हो जाओ। तो जब हम कहते हैं, शून्य हो जाओ, तो अर्थ इतना ही है कि 29 | Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 जिन सूत्र भाग: 1 बाहर के शोरगुल से शून्य हो जाओ। और अभी तो तुम जो भी जानते हो, सब बाहर का शोरगुल है। इसलिए कहते हैं, तुम जो हो उससे बिलकुल शून्य हो जाओ ! अभी तो तुमने व्यर्थ को ही जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी तो तुमने कागज-पत्तर को जोड़-जोड़कर अपनी प्रतिमा बनायी है। अभी तो शाश्वत का तुम्हारी प्रतिमा से कोई भी संबंध नहीं है। अभी तो तुम कहते हो, यह मेरा नाम है, यह मेरी जाति है, यह मेरा धर्म है, यह मेरा घर है; यह मेरा कुल है, यह मेरा देश है, यह मैं हिंदू हूं कि जैन हूं, कि मुसलमान हूं कि ईसाई हूं, कि मैं गरीब हूं कि अमीर हूं, कि शिक्षित कि अशिक्षित, कि गोरा कि काला, कि सम्मानित कि अपमानित, कि साधु कि असाधु - अभी तो तुमने जो भी जोड़ा है, बाहर से जोड़ा है। यह तो दूसरों ने जो कहा है, उसको ही तुमने इकट्ठा कर लिया है। इसलिए कहते हैं, तुम अपने से खाली हो जाओ। यह सब कूड़ा-कर्कट हटाओ। और घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं । तुम बेफिक्र कूड़ा-कर्कट हटाओ, क्योंकि जो कूड़ा-कर्कट नहीं है, उसे तुम हटाओ भी, तो भी हटा न सकोगे। इसलिए भय की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए डर-डरकर हटाने की जरूरत नहीं कि कहीं ऐसा न हो कि हीरे खो जाएं। वे हीरे कुछ ऐसे हैं कि खो ही नहीं सकते। इसलिए तुम आग भी लगा दो इस मकान में, तो भी कुछ बिगड़ेगा नहीं । तुम खालिस, साबित निकल आओगे; क्योंकि तुम्हारा स्वभाव जलता नहीं। I नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ! न आग उसे जलाती, न शस्त्र उसे छेदते हैं। अमरत्व तुम्हारा कहां मिटती है ? स्वभाव है। लेकिन अनुयायी की भाषा है, वह घबड़ाता है। वह कहता है, इससे तो संसार में बने ही रहे; चलो झूठे ही सही, कुछ तो हैं सुख! मान्यता ही सही, मिलते नहीं, आशा ही बंधाते हैं, कुछ तो हैं! दुख हैं, चलो कोई हर्जा नहीं, हम तो हैं ! कांटे भी चुभते हैं, चलो सह लेंगे, जूते पहन लेंगे, दवा खोज लेंगे, मलहम कर लेंगे, ऐसे रास्तों पर न जाएंगे जहां कांटे हैं - लेकिन कम से कम हम तो हैं! लेकिन इस 'हम' को करोगे क्या? इस अहं को करोगे क्या ? मुश्किल नहीं है मौत, आजमाओ तो सही मर जाने से पहले क्यों मरे जाते हो? महावीर का सारा शिक्षण मृत्यु का शिक्षण है— शून्य होने की कला है। पर शून्य होने की कला ही पूर्ण होने की कला है। चाहे दोनों में से कुछ भी शब्द चुन लो; लेकिन मैं कहूंगा, तुम शून्य ही चुनना । पूर्ण को चुना कि तुम चूके। क्योंकि पूर्ण के साथ लोभ आया । तुमने कहा, 'अरे! तो हम पूर्ण हो जाएंगे ! गजब ! ' पकड़ा अहंकार ने रस ! वही अहंकार जिसको छुड़ाना है, छूटना है जिससे, पूर्ण होने की आकांक्षा से भर गया ! फिर तुम्हारे गुब्बारे में और हवा भरने लगेगी। फिर अहंकार और बड़ा होने लगेगा। पूर्ण होने का नशा छा गया ! इसलिए ज्ञानियों ने शून्य की भाषा कही है - जानते हुए कि अंतिमतः पूर्ण घटता है लेकिन तुमसे कहना उचित नहीं । तुमसे कहना खतरनाक है 1 महावीर ने जो कहा, उसको तुमने वैसा ही नहीं सुना है जैसा उन्होंने कहा था। अन्यथा ये दुर्दिन, यह दुर्दशा, यह दारिद्र, यह दीनता न घटती। इसलिए जो लोग ऐसा लांछन लगाते हैं, ऐसा विवाद खड़ा करते हैं, उनके विवाद में तथ्य तो है; लेकिन तथ्य का इशारा तुम्हारी तरफ है, उन्हीं की तरफ है। तथ्य का इशारा महावीर की तरफ नहीं है। काश ! तुम महावीर को समझते तो इस देश में जैसा धन्यभाग फलता, इस देश में जैसे महिमावान फूलों का जमघट जुड़ जाता, वैसा कहीं भी नहीं हो पाता। अगर महावीर को समझे होते तो तुम्हारे भीतर जो अपरिसीम है, वह प्रगट होता । तुम्हारे चारों तरफ प्रकाश - मंडल निर्मित होता । न भी कुछ तुम्हारे पास होता तो भी तुम समृद्ध होते। और अभी तो हालत ऐसी है कि सब कुछ भी तुम्हारे पास हो, तो भी दरिद्रता तुमने धनी आदमियों की दरिद्रता नहीं देखी, तो फिर तुमने कुछ भी नहीं देखा ! तुमने शक्तिशालियों की शक्तिहीनता नहीं देखी ! तुमने पदधारियों की नपुंसकता नहीं देखी ! अकड़ के झंडों के पीछे कमजोरी के सिवाय और क्या है? जितने बड़े झंडे हाथ में हैं, जितने ऊंचे डंडे हाथ में हैं, उतनी ही हीनता भीतर छिपी है। हीनता न हो तो कौन डंडे और झंडे लेकर यात्राएं करता है! क्या जरूरत है ? किसको दिखाना है ? जिसको अपना स्वरूप दिख गया, उसको दिखाने को अब कुछ भी न बचा। फिर तुम जिसे जिंदगी कहते हो, और कहते हो जीवन का स्वीकार, उसमें जिंदगी जैसा क्या है ? था ख्वाब में खयाल को तुझसे मुआमला Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BREA प्यास ही प्रार्थना है जब आंख खुल गई न जियां था न सूद था। तुम ही धारा के बाहर हो जाओ। यह संसार तो चलता ही रहेगा, मेरा-तेरा संयोग सपने की कल्पना थी, क्योंकि जब आंख चलता ही रहा है। तुम्हीं छलांग लगा लो। तुम्ही किनारे खड़े हो खुल गई तो-बकौल तुलसीदास 'हानि-लाभ न कछु।' बड़ा | जाओ। बस इतना ही हो सकता है कि तुम अलग हो जाओ इस हिसाब था! बड़ा धंधा किया था सपने में। सुबह उठकर पाते हैं, | उपद्रव से, तुम सपने से जाग जाओ। 'हानि-लाभ न कछु।' जिंदगी किसे कहते हो तुम? जन्म और मृत्यु के बीच जो है, जिसे तुम जीवन कहते हो वह स्वप्न है। अच्छा हो, तुम उसे उसे तुम जिंदगी कहते हो? महावीर कहते हैं उसे जिंदगी, जो सपना कहो। जीवन को अभी तुमने जाना नहीं। और जिसे तुमने जन्म और मृत्यु के पार है। जन्म और मृत्यु के बीच जो है, वह जाना है वह जीवन नहीं है। | जिंदगी नहीं, एक लंबा सपना है। जन्म के समय तुम सो जाते कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो हो, मृत्यु के समय जागते हो-तब पता चलता है कि यह जिंदगी कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से! एक सपना थी। इस फिजूल की जिंदगी से मिलता क्या है! कोई मुझे सुझा दो खत्म न होगा जिंदगी का सफर कि इसमें क्या अर्थपूर्ण है। कोई मुझे राह बता दो कि कैसे इस मौत बस रास्ता बदलती है। व्यर्थ के कारागृह से मैं बाहर हो जाऊं! मौत रास्ता बदलती जाती है। मौत बस रास्ता बदलती है। एक कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो। जिंदगी खत्म हुई, दूसरी जिंदगी शुरू; दूसरी जिंदगी खत्म हुई, कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से! तीसरी जिंदगी शुरू। मौत सिर्फ रास्ता बदलती है। जब तक कि इस व्यर्थ की दौड़-धूप से क्या हासिल है? तुम जागकर अलग न हो जाओ इस धारा से, इस मूर्छा और तंद्रा कोई पुकारो कि उम्र होने आई है से...। फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए। | नहीं, महावीर ने इस देश को न तो दीनता दी है न दरिद्रता दी कोई पुकारो, कहो आकाश को कि रोक, अब यह काफिला है। हां, यह हो सकता है कि महावीर को सुनकर तुमने जो सबह और शाम का, समय के पार होने की यात्रा होने दे। समय समझा, उससे तुमने दीनता-दरिद्रता में अपने को आरोपित कर में बहुत जी लिये। लिया हो। महावीर ने तो तुम्हें महाजीवन का सूत्र दिया था। सुबह होती शाम होती, उम्र तमाम होती! महावीर का जो जीवन-अस्वीकार है, उसे इतना ही कहना फिर वही सुबह, फिर वही सांझ, फिर वही दोहरावा--कोल्हू चाहिए कि वह भ्रामक जीवन का अस्वीकार है। और भ्रामक के बैल की तरह घूमते हैं! आंख पर पट्टियां, अंधे की तरह! जीवन का अस्वीकार वास्तविक जीवन की बुनियाद है। भ्रामक लगता है, यात्रा हो रही है, पहुंचते कहीं भी नहीं। अगर यात्रा जीवन का अस्वीकार, अध्यात्म की शुरुआत है। और होती होती तो कहीं तो पहुंचते। कभी यह तो सोचो, पहुंचे सत्य-जीवन की उपलब्धि अध्यात्म की पूर्णता है। कहां? चलते बहुत हैं, थक गए हैं बहुत, पहुंचते कभी भी नहीं, । खड़े वहीं के वहीं हैं! कैसी पागल यह दौड़ है, जहां रत्तीभर यात्रा दुसरा प्रश्न ः प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना. हमें असहज. नहीं होती और जीवन पर जीवन चुकते चले जाते हैं! कठिन और असंभव सा क्यों लगता है? कोई पुकारो कि उम्र होने आई है .. फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए। स्वाभाविक है, क्योंकि अब तक घर से दूर आने को ही जीवन मगर यह सुबह और शाम का काफिला आकाश नहीं समझा। उसी की आदत बनी। उसी में रंगे, पगे, बड़े हुए। वही ठहराता-तुम्हीं को ठहराना पड़ेगा! यह किसी के पुकारने की हमारे मन का शिक्षण है। वही हमारा संस्कार है। वही हमारे बात नहीं। कोई दूसरा तुम्हारे सुबह-शाम के काफिले को नहीं कर्मों की थाती है। वही हमारे सारे जीवनों का निचोड़ ठहरा सकता। यह तो सुबह-शाम की धारा चलती ही रहेगी, है।...बाहर जाने को ही जाना है। कभी भीतर तो गए ही नहीं. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 जिन सूत्र भाग: 1 एक कदम न उठाया । तो जहां कदम कभी न डाले हों, जिस तरफ कभी आंख न उठाई हो, उस तरफ जाने में मन अगर डरे, भयभीत हो — अपरिचित, अनजान रास्ता, पता नहीं कैसा हो कैसा न हो— स्वाभाविक है। इसलिए तो अध्यात्म की लोग बातें करते हैं, लेकिन जाते नहीं; चर्चा करके समझा लेते हैं, उतरते नहीं । चर्चा में कुछ हर्जा नहीं है; मन बहलाव है; मनोरंजन है। सुन लेते, समझ लेते, पढ़ लेते, शास्त्र को पकड़ लेते, मंदिर हो आते, मस्जिद हो आते - भीतर नहीं जाते । इसीलिए तो लोगों ने बाहर मंदिर और मस्जिद बनाए हैं कि अगर मंदिर-मस्जिद जाने की भी धुन पकड़ जाए तो बाहर ही जाएं; कहीं ऐसा न हो कि किसी धुन में भीतर की तरफ कदम उठा लें और मुश्किल में पड़ जाएं। रास्ता अपरिचित है, बीहड़ है । फिर, बाहर के रास्ते पर भीड़ है। तुम अकेले नहीं, और सब साथ हैं। भीतर के रास्ते पर तुम अकेले हो जाओगे, वह भी डर है। वहां कोई साथ न जा सकेगा-न मित्र, न संगी, न साथी, न पति, न पत्नी, न बेटे, न मां, न पिता – कोई साथ न जा सकेगा वहां। वहां तो तुम्हें निपट अकेले जाना होगा। जैसे मौत में तुम अकेले जाओगे, वैसे ही स्वयं में भी अकेले जाना होगा। न कोई दूसरा तुम्हारे लिए मर सकता और न कोई दूसरा तुम्हारे लिए भीतर जा सकता । तो जैसे लोग मौत से डरते हैं, वैसे ही लोग ध्यान से डरते हैं। हां, ध्यान की चर्चा वगैरह करनी हो, कर लेते हैं। इस देश में से जिससे पूछ लो, जिससे - जिससे पूछ लो, ध्यान क्या है— जवाब दे | देगा; प्रार्थना क्या है, पूजा क्या है— प्रवचन दे देगा। ऐसी कोई बात ही नहीं जिसको इस देश में लोग न जानते हों। ब्रह्म की बात उठाओ, हर कोई, राह चलता ब्रह्मज्ञान बघार देगा | आसान है, उसमें कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन भीतर जाने की बात मत करो। पांव डगमगाते हैं! घबड़ाहट होती है। पहली तो घबड़ाहट यह कि रास्ता नया ! दूसरी और गहरी घबड़ाहट यह कि अकेले हैं! अकेले तो कभी कहीं गए नहीं, जब भी गए किसी के साथ गए। कोई यात्रा अकेले न की, तो केले की आदत ही छूट गई है। इसीलिए तो संन्यासी अकेले अभ्यास के लिए एकांत में चला जाता है। वह सिर्फ बाहर से अकेलेपन का अभ्यास कर रहा है, ताकि धीरे-धीरे भीतर भी अकेले होने की हिम्मत आ जाए, कुशलता आ जाए। बाहर एकांत के अभ्यास का इतना ही प्रयोजन है कि थोड़ा अकेले होने की हिम्मत आ जाए। बैठता है अंधेरी गुफा में, कोई नहीं, अकेला, अंधकार घिरता है, रात आ जाती है, जंगली जानवर सब तरफ, अकेला ! धीरे-धीरे रमता है। धीरे-धीरे भूलने लगता है कि दूसरे की जरूरत है। धीरे-धीरे साहस आता, आत्म-विश्वास बढ़ता है कि नहीं, अकेला भी हो सकता हूं। ऐसे बाहर का एकांत फिर भीतर ले जाने में सीढ़ी बन जाता है। बाहर का एकांत अंत नहीं है— साधन है। इसलिए जिसने यह समझ लिया कि गुफा में बैठना आ गया तो अंतरज्ञान हो गया, वह भटक गया। गुफा में बैठे रहो लाखों वर्षों तक, कुछ भी न होगा। गुफा में बैठना तो सिर्फ एक कदम था। ऐसे ही जैसे कोई तैरना चाहता है, तैरना सीखना चाहता है, तो एकदम से गहरे में नहीं जाता; किनारे पर, जहां गहराई नहीं है, गले-गले पानी है, कमर कमर पानी है, वहीं तड़फड़ाता है, वहीं सीखता है। सीख ले एक दफा तो फिर गहरे में जाता है । पर सीखकर भी वहीं तड़फड़ाता रहे किनारे पर ही, तो तैरना सीखा न सीखा बराबर । उस किनारे पर तो बिना ही सीखे खड़े हो जाते; गले-गले पानी था, सुरक्षित थे। तो जो लोग गुफाओं में बैठकर बंद हो गए हैं और सोचते हैं, पा लिया है, वे भी भ्रांति में हैं। कुछ संसार में खोए हैं, कुछ संन्यास में खो गए हैं। संन्यास तो केवल साधन है, ताकि तुम्हें थोड़ा भीड़ से बाहर निकाल ले; थोड़ी झलक दे, और इस बात का भरोसा दे कि अकेले में भी मजा है, कि अकेले में और ज्यादा मजा है, कि अकेले की भी धुन है, कि अकेले का भी नशा है, कि मस्ती है, कि ऐसी मस्ती तो कभी न पायी थी जो अकेले में मिली ! थोड़ा गुफा में बैठकर, बाजार से दूर, भीड़ से दूर, अपनों से दूर, संसार की चिंताओं और फिक्रों से दूर, एक बार स्वाद आ जाए कि अरे! बाहर के अकेलेपन में इतना स्वाद है तो कितना न होगा भीतर के अकेलेपन में! फिर तो भीतर की भी पुकार उठने लगी है। निश्चित ही कोई गुफा इतनी अकेली नहीं है जितनी अकेली भीतर की गुफा है। क्योंकि गुफा में भी वृक्ष हिलते हैं बाहर, आवाज होती है, हवा गुजरती है, कोयल गीत गाती है, सिंह दहाड़ता है। कोई है ! आकाश में चांद-तारे हैं! हिमालय की Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यास ही प्रार्थना है गुफा में भी बैठे हो तो हवाई जहाज निकल जाता है। कोई है! बस लोग इरादे बांधते हैं। ध्यान-करेंगे। जिसने कहा, करेंगे, कोई इतने अकेले नहीं हो, कहीं भी इतने अकेले नहीं हो। संसार | चूका। करो! इस क्षण है क्षण। उतरो, योजना मत बनाओ। किसी न किसी रूप में अपनी खबर भेजता ही रहता है। एक योजना मन का धोखा है। मन बड़ा चालाक है। वह कहता है, चींटी काट जाती है, एक बिच्छ आ जाता है-उचककर खड़े हो | कल करेंगे। जाते हो! कोई है! एकदम अकेले नहीं हो! लोग मेरे पास आते हैं. वे कहते हैं. संन्यास में उतरना है। मैं भीतर की गुफा में कोई भी नहीं है। न कोई हवाई जहाज कहता हं, 'उतर जाओ, उतरना है तो! कौन रोक रहा है? मैं तो गुजरता, न कोई चींटी चढ़ती, न कोई बिच्छु आता, न कोई सिंह नहीं रोक रहा!' वे कहते हैं, 'नहीं, उतरेंगे।' फिर तुम्हारी दहाड़ता, न वृक्षों में हवा की सरसराहट होती, न पानी का मर्जी। कल पर तुम्हारा भरोसा है ? कल होगा? ऐसा आश्वस्त कलकल-नाद है-कोई भी नहीं है, कोई भी नहीं है! वहां बस हो? बीच में मौत आ जाएगी तो क्या करोगे? कहोगे कि विराट, विराट, निस्तब्ध, निबिड़ तुम हो! बड़ा गहन, परम गहन संन्यास लेना है, जरा ठहर? शून्य है वहां! वहां ऐसी शांति है जैसी तब थी जब परमात्मा ने संन्यासिनी है हमारी : गीता। उसके पिता संन्यास लेना चाहते सोचा भी न था, 'अकेला हूं, संसार को बनाऊं', वैसी शांति! | थे। कोई सालभर से मुझसे कहते थे। सुनते हैं मुझे कोई दस उस घड़ी में तुम फिर पहुंच जाते हो जहां परमात्मा रहा होगा, वर्षों से। अभी कोई दो महीने पहले आए थे। महीनेभर यहां संसार को बनाने के पहले। तुम प्रथम को छू लेते हो। तुम उस रहे। दो तीन बार मिलने आए। मैंने उनसे कहा, 'अब सूर्योदय के क्षण में पहुंच जाते हो, जहां संसार शुरू न हुआ था; किसलिए देर कर रहे हो?' वे कहते हैं, 'कुछ देर नहीं है। जहां अभी संसार प्रगट न हुआ था, बीज में छिपा था; जहां बस...! अब आप तो समझते हैं। लेना है, और लेकर ब्रह्मांड अभी अंड में खोया था; जहां अभी सपना परमात्मा का रहूंगा!' आखिरी बार मुझे मिलने आए थे, मैंने उनसे कहा कि फैलना शुरू न हुआ था। तुम सृष्टि के प्रथम चरण में पहुंच जाते 'पक्का है, कल होगा?' उन्होंने कहा, 'अभी तो कोई बढ़ा हो। वैसी गहन शांति है। अनंत शांति है। शाश्वत शांति है। नहीं हो गया हूं।' लेकिन गए। वह आखिरी मिलना हुआ। उस स्वाभाविक, घबड़ाहट होती है। वह शांति वैसी ही है, जैसी दिन यहां से उठकर गए, अस्पताल में ही गए सीधे। रात मृत्यु में है। सब खो जाता है, तो डर लगता है। इसलिए भीतर हार्ट-अटैक हो गया। फिर बचे नहीं। जाने की लोग बातें सुनते हैं, विचार भी करते हैं कि कभी जाएंगे। कल पर टालते हैं, कल कर लेंगे। जिसने कल पर टाला, वह दो व्यक्ति बात कर रहे थे। एक-दूसरे के ऊपर अपने-अपने असल में करना नहीं चाहता। अच्छा हो कि कहो, करना नहीं जीवन की छाप डालने की चेष्टा कर रहे थे। बड़ी हांक रहे थे। है। तो भी कम से कम ईमानदारी तो होगी, सत्य तो होगा, एक ने कहा कि मैं रोज सुबह पांच बजे उठता हूं। दूसरे ने कहा, | प्रामाणिकता तो होगी। लेकिन बेईमानी बड़ी है, तुम कहते हो, यह कुछ भी नहीं, मैं तीन बजे उठता हूं। ऋषि-मुनि सदा तीन करेंगे। इससे तुम छिपाते हो। करना भी नहीं चाहते और यह भी बजे ही उठते रहे। पांच बजे भी कोई उठना है! आलसी हो! मैं अपने को आश्वासन दिला लेते हो कि कोई बुरा आदमी थोड़े ही तीन बजे उठता हूं-स्नान, ध्यान, पूजा-पाठ, फिर घूमने जाता | हूं, धार्मिक आदमी हूं, करना तो है ही। हूं सूर्योदय के समय; फिर आकर शास्त्र अध्ययन, मनन; फिर लोग बहाने खोजते हैं-न मालूम कितने-कितने! पति कहता दफ्तर जाता हूं; फिर दफ्तर से लौटता हूं; फिर खेलने जाता हूं; है कि पत्नी रोकती है। कौन किसको रोक सका है: कौन फिर सांझ घर आता हूं-बच्चों के पास बैठना, चर्चा, संगीत; किसको रोक सका है, कब रोक सका है! मौत जब आएगी तो फिर ठीक समय पर, नौ बजे सो जाता हूं। पत्नी रोकेगी? और किसी चीज में पत्नी नहीं रोक पाती। पत्नी दूसरा सुनकर बड़ा चकित हुआ। उसने कहा, 'कब से ऐसा | जिंदगीभर से रोक रही है कि दूसरी औरतों को मत देखो, नहीं कर रहे हो?' वह व्यक्ति बोला, 'यह मत पूछो। कल से शुरू रोक पायी। तुम कहते हो, क्या करें, मजबूरी है! मगर जब करने का इरादा है।' कहती है, ध्यान मत करो-तत्क्षण राजी हो जाते हो, बिलकुल 33 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 ठीक है। पत्नी रोकती है, क्या करें! जाओ भी। कभी यात्रा पर भी निकलो। डर स्वाभाविक है। | तम जिसमें रुकना चाहते हो, किसी का भी बहाना खोज लेते डर के रहते भी जाना होगा। डर के रहते ही जाना होगा। अगर हो। जिसमें तुम रुकना नहीं चाहते, तुम कोई बहाना मानने को तुमने सोचा कि जब डर मिट जाएगा तब जाएंगे, तो तुम कभी राजी नहीं होते। तुम कहते हो, विवशता है। वासना पकड़ लेती | जाओगे न। है, क्या करें? चिकित्सक रोक रहा है कि ज्यादा खाना मत | कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब खाओ। पत्नी रोक रही है, बच्चे समझा रहे हैं, पड़ोसी मित्र | शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया। समझाते हैं। -बस परवाना शमा तक जाता हुआ दिखाई पड़ता है, फिर एक मेरे मित्र हैं, खाए चले जाते हैं। बहुत भारी हो गई देह, थोड़े ही दिखाई पड़ता है। फिर तो एक झपट और एक सम्हाले नहीं सम्हलती। चिकित्सक समझा-समझाकर परेशान लपट-और गया! हो गया है। अभी आखिरी बार चिकित्सक के पास गए थे तो कुछ न देखा फिर वजुज एक शोला-ए-पुर पेचोताब कहने लगे कि बड़ी अजीब-सी बात है! रात सोता हूं तो आंख शमा तक तो हमने भी देखा कि परवाना गया। खुली की खुली रह जाती है। चिकित्सक ने कहा कि रहेगी, बस परवाने को लोग शमा तक ही देख पाते हैं। जब शमा छू चमड़ी इतनी तन गई है कि जब मुंह बंद करते हो तो आंख खुल गई, एक लपट-और समाप्त! जब मंह खोले रहते हो तो थोडी चमडी शिथिल रहती लोगों ने ध्यान के पास जाते लोगों को देखा है। बस, फिर खो है, तो आंख बंद रहती है। होगा! सारी दुनिया रोक रही है। खुद जाते देखा है। इसलिए घबड़ाहट है। लोगों ने देखा वर्द्धमान को भी कहते हैं, रोकना चाहते हैं, मगर क्या करें, विवशता है! जाते हुए ध्यान की तरफ; फिर एक लपट-वर्द्धमान खो गया! ऐसी विवशता कभी ध्यान के लिए पकड़ती है? ऐसी जो आदमी लौटा, वह कोई और ही था। महावीर कुछ और ही विवशता कभी संन्यास के लिए पकड़ती है? ऐसी विवशता हैं, वर्द्धमान से क्या लेना-देना! वर्द्धमान तो राख हो गया, जल कभी आत्मखोज के लिए पकड़ती है? नहीं, तब तुम बहाने | गया ध्यान में! सिद्धार्थ को जाते देखा; जो लौटा-बुद्ध। वह खोज लेते हो। तुम कोई न कोई रास्ता खोज लेते हो-बच्चे | कोई और ही। छोटे हैं, विवाह करना है; जैसे कि बच्चे तुम्हें उठा-उठाकर बड़े इसलिए घबड़ाहट होती है कि तुम कहीं मिट गए। मिटोगे करने हैं। वे अपने से बड़े हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी बड़े | निश्चित! लेकिन यह भी तो देखो कि मिटकर जो लौटता है, वह हो जाएंगे। तुम न भी हुए तो भी विवाह कर लेंगे। तुम जरा कैसा शुभ है, कैसा सुंदर है! उनको विवाह से रोककर तो देखना! तब तुम्हें पता चल जाएगा परवाने को जाते देखा है तुमने, लपट के सौंदर्य को भी तो कि तुम्हारे रोके नहीं रुकते, करने का तो सवाल ही दूर है। तुम्हें देखो! परवाना, जब खो जाता है प्रकाश में, उस प्रकाश को भी कौन रोक सका? तुम बच्चों को कैसे रोक सकोगे? तो देखो! तो घबड़ाहट कम होगी। इसलिए सदगुरु का अर्थ है : कोई किसी को रोकता नहीं, लेकिन आदमी बेईमान है। किसी ऐसे व्यक्ति के पास होना, जो खो गया; ताकि तुम्हें भी आदमी रास्ते खोज लेता है। जो तुम नहीं करना चाहते उसके | थोड़ी हिम्मत बढ़े, खो जाने में थोड़ा रस आए। तुम कहो कि लिए तुम दूसरों पर बहाना डाल देते हो। जो तुम करना चाहते | चलो, देखें, चलो एक कदम हम भी उठाएं। हो। इसे ईमानदारी से समझना उचित है। मिटना तो होता है, लेकिन मिटने के पार कोई जागरण भी है। लोग ध्यान की बात करते हैं। लोग आत्मा की बात करते हैं, सूली तो लगती है, लेकिन सूली के पीछे कोई पुनरुज्जीवन भी परमात्मा की बात करते हैं। वे कहते हैं, किसी दिन यात्रा करनी है। शास्त्र ही पढ़ोगे तो अड़चन होगी। शास्त्र में कहानी ही वहां है, तैयारी कर लें! यात्रा कभी होती दिखाई नहीं पड़ती। वे तक है, जहां तक परवाना शमा तक जाता है। उसके आगे की टाइम-टेबल ही पढ़ते रहते हैं। कुछ लोग हैं जो टाइम-टेबल कहानी शास्त्र में हो नहीं सकती। कोई महावीर खोजो! कोई पढ़ते हैं। बुद्ध खोजो! किसी ऐसे आदमी को खोजो, जो वहां तक गया 34 '. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यास ही प्रार्थना है हो; परवाना मिट भी गया हो और फिर भी उस मिटे से उठती हो | समय में भी तुम्हारे जैसे बहुत अभागे थे, जो महावीर को न देख धूप, उठती हो गंध, उठती हो सुवास; कोई जो 'न' हो गया हो पाए। महावीर उनके गांव से गुजरे और उन्होंने न देखा। उन्होंने और फिर भी जिसमें होने की परम वर्षा हो रही हो! कोई ऐसा महावीर में कुछ और देखा। किसी ने देखा : 'यह आदमी नंगा व्यक्ति खोजो! खड़ा है, अनैतिक है। अश्लीलता है यह तो। परम साध हो चुके सदगुरु न मिले तो शास्त्र। जब तक सदगुरु मिले, तब तक हैं; मगर नग्न खड़ा होना, यह तो समाज के विपरीत व्यवहार सदगुरु। शास्त्र तो मजबूरी है। वह तो दुर्भाग्य है। वह तो अंधेरे | है।' खदेड़ा महावीर को गांव के बाहर, पत्थर मारे। जिसके में टटोलना है। शास्त्र पढ़-पढ़कर घबड़ाहट होगी। और | चरणों में मिट जाना था, उसका विरोध किया। और यह मत घबड़ाहट को आश्वासन शास्त्र से न मिलेगा; लाख शास्त्र कहे, | सोचना कि वे नासमझ लोग थे—वे तुम्ही हो। वे तुम जैसे ही मगर किताब का क्या भरोसा! जीवंत कोई चाहिए! लोग थे। इसमें कुछ फिर फर्क नहीं है, जरा भी फर्क नहीं है। इसलिए जगत में जब भी धर्म की लपट आती है, वह किसी | और जब उन्होंने ऐसे तर्क खोजे थे तो उनका भी कारण था, कि जीवंत व्यक्ति के कारण आती है। महावीर जब हुए, लाखों लोग यह आदमी वेद-विरोधी है और वेद तो परम ज्ञान है! अब संन्यस्त हुए! एक आग लग गई सारे जंगल में! वृक्ष-वृक्षों पर | शास्ता सदा ही शास्त्र-विरोधी होगा। उसका कारण है, विरोधी आग के फूल खिले! जिनने कभी सपने में भी न सोचा होगा, वे होने का; क्योंकि जब जीवंत घटना घट रही हो धर्म की तो तुम भी संन्यस्त हुए। बासी बातें मत उठाओ। बासी बातों से क्या लेना-देना? जब तुमने कभी जंगल देखा है, पलाश-वन देखा है? जब पलाश ताजा भोजन तैयार हो तो ताजा भोजन बासी भोजन के विपरीत के फूल खिलते हैं तो पूरा जंगल गैरिक हो उठता है, लपटों से भर होगा ही, क्योंकि तुम बासे को फेंक दोगे। तुम कहोगे, जब ताजा जाता है! ऐसा जब महावीर चले इस जमीन पर थोड़े दिन, वे मिल रहा है तो बासे को कौन खाए! बासे को तो तभी तक खाते दिन परम सौभाग्य के थे। वैसे चरण इस पृथ्वी पर बहुत कम हो जब ताजा नहीं मिलता; मजबूरी में खाते हो। पड़ते हैं। तो जिनको भी उनकी गंध लग गई, जिनको भी जब शास्ता पैदा होता है तो शास्त्रों को लोग हटा देते हैं। वे थोड़ी-सी उनकी हवा लग गई, उन्हीं को पर लग गए! वही कहते हैं, 'रखो भी, फिर पीछे देख लेंगे! यह घड़ी पता नहीं कब परवाने हो गए! फिर उन्होंने फिक्र न की। इस आदमी को विदा हो जाए! अभी तो जो सामने मौजूद हुआ है, अभी तो जो देखकर भरोसा आ गया। उन्होंने कहा कि ठीक है, तो हम भी प्रगट हुआ है, अवतरित हुआ है, अभी तो जो लपट जीवंत खड़ी छलांग लेते हैं! एक श्रद्धा जन्मी। श्रद्धा शास्त्र से कभी पैदा नहीं | है-इसके साथ थोड़ा रास रचा लें, थोड़ा खेल खेल लें; इसके होती; शास्त्र से ज्यादा से ज्यादा विश्वास पैदा होता है। श्रद्धा के साथ तो थोड़े पास हो लें। यह तो थोड़ा सत्संग का अवसर मिला लिए कोई जीवंत चाहिए, कोई प्रमाण चाहिए, कोई प्रत्यक्ष है, शास्त्र तो फिर देख लेंगे। कोई जल्दी नहीं है, जन्म पड़े हैं। चाहिए जिसमें वेद खड़े हों! कोई शास्ता चाहिए, जिसमें जीवन पड़े हैं।' शास्त्र जीवंत हों! फिर जब महावीर खो जाते हैं तो लोग शास्त्रों तो जब भी कोई शास्ता पैदा होता है, पुराने शास्त्रों को में उनकी वाणी इकट्ठी कर लेते हैं, फिर पूजा चलती है, पाठ | माननेवाले लोग उसके विपरीत हो जाते हैं, क्योंकि उस आदमी चलता है, पंडित इकट्ठे होते हैं, सब मुर्दा हो जाता है, फिर सब के कारण शास्त्रों को लोग हटाने लगते हैं। शास्त्रों को हटाते हैं मरघट है। महावीर जीवित थे तब जिन-धर्म जीवित था; फिर तो तो पंडितों को हटाते हैं, तो सारा व्यवसाय हटाते हैं। कठिन हो सब मरघट है। जाता है। पंडित दुश्मन हो जाते हैं। फिर जब यह शास्ता मर और ध्यान रखना, हताश मत होना; ऐसा कभी भी नहीं होता | जाता है, वही पंडित जो इसके दुश्मन थे, मरघट पर इकट्ठे हो कि पृथ्वी पर कोई चरण न हों जिनकी वजह से पृथ्वी धन्यभागी न | जाते हैं-श्रद्धांजलि चढ़ाने को। फिर वे ही शास्त्र बना लेते हैं। हो। ऐसा कभी नहीं होता। इसलिए यह मत सोचना कि क्या उनकी दुश्मनी जीवंत से थी, शास्त्र से थोड़े ही थी। फिर वे ही करें, अभागे हैं हम, महावीर के समय में न हुए! महावीर के शास्त्र बना लेते हैं। 135 www.jainelibrary org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 - na यह बड़े मजे की बात है। महावीर तो क्षत्रिय, लेकिन महावीर | दिन तुम जहां हो वहीं मंदिर है। अंतर्यात्रा ! तुम्हारी ही देह मंदिर के जितने गणधर, सब ब्राह्मण! तो बड़ी हैरानी की बात है। बन जाती है। क्या, मामला क्या है? महावीर के मरते ही ब्राह्मण झपटे, 'प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना, हमें असहज, कठिन, उन्होंने कहा, यह तो अच्छा अवसर मिला, फिर शास्त्र बना लो। | असंभव-सा क्यों लगता है ?' उन्होंने तत्क्षण शास्त्र खड़े कर दिए। जैन धर्म निर्मित हो गया। स्वाभाविक है। कभी गए नहीं उस द्वार, कभी चखा नहीं उसे, अब अगर कोई पुनः जीवंत धर्म को लाए, तो फिर शास्त्री, कोई संबंध न बना, अजनबी हो-इसलिए। थोड़ा-थोड़ा पंडित, शास्त्र का पूजक, फिर कठिनाई में पड़ जाता है, फिर अभ्यास करो। बैठो उन लोगों के पास जो पहले से पीये हों। मश्किल में पड़ जाता है। वह कहता है, यह फिर गड़बड़ हुई। थोड़ी उनकी मस्ती को संक्रामक होने दो। थोड़े उनके साथ फिर उसके व्यवसाय में व्याघात हुआ। डोलो, उठो, बैठो, परिक्रमा करो, सेवा करो। थोड़ा झुको उनके ध्यान रखना, भीतर अगर तुम जाना चाहते हो तो कोई न कोई पास, जो लबालब हैं और ऊपर से बहे जा रहे हैं। थोड़े न बहुत द्वार कहीं न कहीं पृथ्वी पर सदा खुला है। तुम जरा आंखें खुली छींटे तुम तक भी पहुंच ही जाएंगे। रखना, शास्त्रों से भरी मत रखना; तुम जरा मन ताजा रखना, बस इतनी ही चेष्टा है यहां कि थोड़े छींटे तुम तक पहुंच जाएं। शब्दों से बोझिल मत रखना; सिद्धांतों से दबे मत रहना, जरा | एक बार भी तुम्हें भीतर की धुन का जरा-सा नशा आ जाए, फिर सिद्धांतों के पत्तों को हटाकर तम जीवंत धारा को देखने की तम न रुकोगे, फिर तम्हें कोई भी न रोक पाएगा। फिर कोई कभी क्षमता बनाए रखना। तो कहीं न कहीं तुम्हें कोई सदगुरु मिल | किसी को रोक ही नहीं पाया। जाएगा। उसके पास ही तुम्हारा भय मिटेगा भीतर जाने का। अभी तो तम शास्त्र पढ़ते रहो, मंदिर में घंटियां बजाते रहो, पूजा तीसरा प्रश्न : मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या करते रहो, अर्चना के थाल सजाते रहो-सब धोखा है। समर्पण से, पर मिला, और मिल रहा है, और अकारण, और दिल को महवे-गमे-दिलदार किए बैठे हैं । अयाचित, और असमय, और भरपूर-वर्षा की भांति!? रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं। लोग बनते हैं कि मद्यप हैं, कि शराब पिए हैं, कि मस्ती में हैं। | अब इससे प्रश्न मत उठाओ। डूबो! अब चिंता मत करो: रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं! खयाल ही देते हैं कि बड़ी | कहां से मिल रहा है, क्यों मिल रहा है! परमात्मा जब मिलता है मस्ती में हैं; लेकिन गौर से भीतर देखो तो हृदय में सिवाय घावों तो ऐसे ही बेबूझ मिलता है। तुम्हारे हिसाब-किताब से थोड़े ही के और कुछ भी नहीं, जहर पिए बैठे हैं। मिलता है। तुमने कुछ किया, इसलिए थोड़े ही मिलता है। तुम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, जो तुम्हें लोग पूजा और ने चाहा...! प्रार्थना में डोलते हुए मालूम पड़ते हैं, धोखे में मत पड़ जाना, जरा ___ अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर उनके भीतर देखना; कुछ भी नहीं डोल रहा है! वे नाहक का अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे। व्यायाम कर रहे हैं। जब भीतर कोई डोलता है तो फिर क्या मंदिर बस प्यास पूरी हो, तो प्याले भर जाएंगे। और क्या मस्जिद! फिर पूजा के थाल क्या सजाना। फिर तो | अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर! जहां भी वे होते हैं, वहीं डोलते हैं। कबीर ने कहा है प्यास हो तो परमात्मा तुम्हें खोजता है। फिर गिड़गिड़ाना थोड़े 'जहां-जहां डोलं सो-सो परिक्रमा, खाऊ-पिऊ सो सेवा।' | ही पड़ता है! फिर भिखारी की तरह रोना थोड़े ही पड़ता है, झोली परमात्मा की सेवा हो गई, खा-पी लिया, मजे से खा-पी लिया, | थोड़ी फैलानी पड़ती है! चढ़ गया भोग। और कहां जाना है? - अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर! जिस दिन तुम्हारे जीवन में मधु का अवतरण होता है, जिस दिन कहीं भी बैठे होओ, अलग कि भीड़ में, क्या फर्क पड़ता है! तुम्हारे जीवन में अंतरात्मा की झलक भी मिलने लगती है, उस जहां प्यास है, वहां साकी की नजर पहुंच ही जाती है। प्यास ही 136 . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके लिए निमंत्रण है। प्यास ही प्रार्थना है। जो प्यास नहीं जानते, वे और शब्द दोहराते हैं। जिनको प्यास की समझ आ गई, वे सिर्फ प्यास ही प्यास में डूब जाते हैं। वे इतने प्यासे हो जाते हैं कि भीतर कोई प्यासा भी नहीं होता, बस प्यास ही प्यास | होती है - इस पार से उस पार, रोएं- रोएं में, धड़कन धड़कन में, श्वास - श्वास में ! अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे। अगर प्यास पूरी है तो तुमने प्याला तो तैयार कर दिया। अब, अब तुम फिक्र छोड़ो! अब शराब भी आ जाएगी। अब कोई भर भी देगा प्याले को, तुम प्याला तो बनाओ! सदा ही परमात्मा अकारण घटित होता है। इससे तुम गलत मत समझ लेना मुझे। तुम यह मत समझ लेना कि फिर क्या करना । जब मैं कहता हूं कि अकारण घटित होता है, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम जो भी करते हो, वह तो ना कुछ है । जब परमात्मा घटित होगा तो तुम जानोगे, अरे! मैंने कुछ भी तो नहीं किया था! यद्यपि तुमने बहुत किया था, लेकिन अब तुम जानोगे कि कुछ भी तो न किया था। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि जो किया था अब उसकी बात भी करनी फिजूल है। मिला है। खजाना अकूत, जो तुमने किया था वह कौड़ी-कौड़ी था । अब उसकी बात भी उठाने में शर्म लगेगी। फिर तुम यह थोड़े ही कहोगे परमात्मा से कि 'सुनो जी ! कितने उपवास किए, याद है? कि कितने ध्यान में बैठता था, भूल तो नहीं गए? कितना दान-पुण्य किया था!' प्यास ही प्रार्थना है होता है जो तुमने किया है। क्या किया है? कभी एक पैसा किसी भिखारी को दे दिया है। और उसी की जेब काटी थी पहले; नहीं तो भिखारी ही कैसे होता, यह भी तो सोचो। फिर उसी को समझाने लिए एक पैसा भी दे दिया है कि उपद्रव न कर, हड़ताल वगैरह पर मत जा, शांत रह। क्या किया है तुमने ? चार पैसे भिखारी को दिए थे! द्वारपाल चिंतित हो गया। उसने अपने सहयोगी से पूछा, बोल भाई, क्या करें ? उसने कहा, 'करना क्या है! चार पैसे वापस दो और कहो कि नर्क जा, नर्क जा, खत्म कर मामला, हिसाब साफ कर !' तुम्हारा किया कितना हो सकेगा ? चम्मच चम्मच से सागर के किनारे हम बैठे हैं। चम्मचें भर रहे हैं, इससे कहीं सागर उलिचता है ! इससे कहीं कुछ होता नहीं। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि चलो, झंझट मिटी, चार पैसे भी अब देने की कोई जरूरत नहीं । यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं, देना ! दिल खोलकर देना! लेकिन आखिर में याद रखना कि वे चार पैसे ही दिये। कितना ही दिया हो, सब दे दिया हो, सब लुटा दिया हो, तो भी चार पैसे ही तुम्हारे पास थे, ज्यादा तो तुम्हारे पास ही न था, ज्यादा तुम देते भी कैसे ! इसलिए जिन्होंने पाया है, उनको हमेशा लगा कुछ भी तो नहीं किया, प्रसाद स्वरूप है । यहीं भूल पैदा होती सुननेवाला समझ लेता है, चलो तब अब यह भी झंझट नहीं । अब कुछ करना ही नहीं; जब मिलना है प्रसाद रूप तो जब मिलेगा, मिलेगा। लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो अपनी समग्र चेष्टा करते हैं। मिलता प्रसाद रूप है लेकिन प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो समग्र चेष्टा करते हैं। सुना है मैंने, एक कंजूस मरा। स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। द्वारपाल ने पूछा कि 'कुछ पुण्य वगैरह किए हैं?' ध्यान रखना, ठीक से कहानी सुन लेना, पूछेगा, तुम भी जब जाओगे ! और वही गलती मत कर देना जो इस आदमी ने की। उसने कहा, 'हां किये हैं।' बस यही तो पापी का लक्षण है। अगर वह कह देता ‘कहां! क्या पुण्य! सामर्थ्य कहां! करने को मेरे पास क्या था!' द्वार खुल जाते, लेकिन चूक गया। उसने कहा, 'किए हैं।' तो द्वारपाल ने कहा, 'फिर ठहरो। फिर खाते-बही देखने पड़ेंगे। हिसाबी - किताबी आदमी हो।' खाते-बही देखे तो पता चला, एक भिखारी को चार पैसे उसने दान दिए थे। मैं इस पे हो लूं तक तो फिर उठा के पिऊं । अब तो जरा बलिहारी हो जाओ। कहो कि जरा रख जमीन तुम कहोगे 'बस इतना ?' लेकिन 'बस इतना ही सिद्ध पर, पहले मैं नाच लूं, थोड़ा बलिहारी हो जाऊं इस पर, फिर इसलिए चिंता मत करो। संकल्प से मिला या समर्पण से, यह भी छोड़ो। कैसे मिला, इसकी क्या फिक्र ! मिला ! अब तो थोड़ा नाचो ! अब विचार छोड़ो, अब तो थोड़ा समारोह करो! अब तो कुछ उत्सव करो ! जमीं पे जाम को रख दे, जरा ठहर साकी 37 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 उठाकर पीऊं। अब तो थोड़ा नाचो! जरूरत नहीं, एक तारीख को सौ डालर तले ही जाया कर। तो ध्यान रखना, प्रसाद जब क्षणभर को भी मिलता हो, कणभर | वह नियम से सौ डालर एक तारीख को ले आता था। ऐसा वर्षों को भी मिलता हो-तुम नाचना! तुम्हारे नाचने से प्रसाद चला। एक दिन एक तारीख को...वह एक तारीख को एक दिन बढ़ेगा। उत्सव में ही बढ़ता है। तुम्हारी प्रसन्नता में ही बढ़ता है। भी नहीं चूकता था...वह आकर एक तारीख को खड़ा हुआ तुम्हारे अनुग्रह के भाव में बढ़ता है। सिकुड़ मत जाना। सोचने | दफ्तर में और मैनेजर ने कहा कि भई सुनो, अब से पचास मत लगना कि कैसे मिला, कहां से मिला, क्यों मिला, मैंने क्या डालर! उसने कहा, 'क्या ? पचास डालर? क्या मतलब?' किया था, अब मैं क्या करूं कि और ज्यादा मिले। इसमें तो खो उसने कहा कि ऐसा है कि मालिक की लड़की की शादी हो रही जाएगा; जो मिला है वह भी खो जाएगा; जो द्वार खुला था | है, पैसे की उन्हें खुद ही तंगी है। धंधा भी घाटे में जा रहा है। क्षणभर को वह भी बंद हो जाएगा-तुम्हारे सोच-विचार में! | थोड़ी मुसीबत में हैं। इसलिए पचास! उसने कहा, 'हद्द हो सोच-विचार से तो पर्दे पड़ जाते हैं। नाचना! गाना! गई! मेरे रुपयों पर लड़की की शादी की जा रही है? और घाटा गुनगुनाना! जो मिला है, उस पर बलिहारी जाना। कहना : जमीं तुम्हें लगे, भोगू मैं ? समझा क्या है ? बुलाओ मालिक को!' पर जाम को रख दे, जरा ठहर साकी! परमात्मा से भी कहना, मन की वृत्ति है कि अगर तुम्हें मिलता चला जाए तो तुम सोचते 'जल्दी मत कर, रख! जरा मैं नाच तो लूँ! मैं इस पे हो लूं हो, तुम्हारी पात्रता है। जो तुम्हें मुफ्त मिलता है, तुम धीरे-धीरे तसद्दुक तो फिर उठाके पिऊं। पहले बलिहारी जाऊं, पहले सोचने लगते हो, यह भी मेरी पात्रता है। तुम न केवल यह नाचूं, पहले थोड़ा उत्सव मना लूं, तेरा स्वागत कर लूं! अकारण | सोचने लगते हो बल्कि तुम प्रतीक्षा करते हो कि मिलना ही मिला है! बिना मेरे कुछ किए मिला है। तो ऐसे ही उठाकर पी चाहिए। अगर न मिले तो शिकायत शुरू हो जाती है। लेना तो अशोभन होगा। शोभा न होगी। ऐसे ही उठाकर पी | सोचो! कहां धन्यवाद और कहां शिकायत! कहां आभार और लेना असंस्कृत होगा। थोड़ा नाचकर, गुनगुनाकर, थोड़ी गहन कहां शिकवे। लेकिन मन की यह आदत है। और इस आदत के कृतज्ञता में डूबकर! कारण बहुत-से लोग परमात्मा के द्वार से लौट जाते हैं। सत्य आ 'मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से!' | ही रहा था, करीब आ ही रहा था कि उनकी अकड़ आने लगी। भाड़ में जाने दो! मालूम करने की फिक्र ही मत करो। मिल अकड़ आई कि अरे, जब आ रहा है तो निश्चित ही हमने अर्जित गया! कैसे मिलती है कोई चीज, यह तो तब सोचना चाहिए जब किया होगा! जब आ रहा है तो कोई कारण होगा! कुछ हममें न मिली हो। तब आदमी साधन खोजता है। तब कहता है, कहां होगी खूबी, तभी आ रहा है! से जाऊ! चलो मंजिल ही तुम्हें खोजती आ गई, अब तुम फिक्र सदा याद रखना, तुम जब भी पात्रता के बोध से भर जाओगे, छोड़ो; कहीं ऐसा न हो कि तुम उधेड़-बुन में पड़ जाओ, और तभी अपात्र हो जाओगे। जब तक अपात्र होने का तुम्हें स्मरण मंजिल हट जाए! क्योंकि जो आ गई है अपने से तुम्हारे पास, रहेगा, तुम्हारी पात्रता बढ़ती रहेगी। इस विरोधाभास को महामंत्र अपने से हट भी जा सकती है। की तरह स्मरण रखना। '...पर मिला और मिल रहा है-और अकारण!' और, जिन्होंने भी उसको पीया है, उनमें से कोई भी नहीं बता सदा ही अकारण मिलता है। अकारण का बोध बनाए रखना! सका कि क्यों और क्या! पीने के पहले की सब बातें हैं। पीने के क्योंकि मन की वृत्ति है कि वह सोचने लगता है जल्दी कि जो पहले के लिए सब रास्ते और साधन हैं। पी लेने के बाद तो फिर मिल रहा है वह कारण से मिल रहा है। राज है, फिर तो रहस्य है। अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति हुआः मार्गन। वह क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा एक भिखारी को हर महीने सौ डालर देता था। भिखारी पर प्रसन्न ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे। था। कुछ भिखारी की आवाज में बड़ी जान थी। जब भिखारी क्या देखा है लोगों ने परमात्मा में छलकते हुए? उसे कहा नहीं गीत गाता तो...। तो उसने कहा कि अब तुझे बार-बार आने की | जा सकता। 38 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्यास ही प्रार्थना है ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे। आखिरी प्रश्नः जब आपको सुनता हूं तो आपका प्रत्येक क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा शब्द दिल की गहराई तक उतर जाता है और हलचल पैदा वहां जाकर लोग चुप हो गए हैं। करता है। लेकिन जब आपको पढ़ता है तो वह दिमागी खेल वाणी की एक सीमा है। बुद्धि की एक सीमा है। जहां तक बनकर रह जाता है। कृपया बताएं कि ऐसा क्यों होता है? साधन है वहां तक बुद्धि की सीमा है। जहां साध्य आया, बुद्धि की सीमा गई। क्योंकि बुद्धि स्वयं साधन है। बुद्धि खोज का साफ-साफ है। गणित बिलकुल सीधा है। जब तम पढ़ते हो उपाय है। जब पहुंच गए, तो बुद्धि की कोई जरूरत न रही। तब तुम्हीं होते हो, तब मैं नहीं होता। जो तुम पढ़ते हो, वह तुम तो इस सौभाग्य को बढ़ाना! और बढ़ाने की कला यह है कि ही तुम हो। दिमागी खेल बनकर रह जाता है। जब तुम मुझे उसे अकारण ही रहने देना। कोई कारण मत खोजना, समझ में न सनते हो तो कभी-कभी तुम्हारे जाने-अनजाने मैं भी तुम में प्रवेश आए, नासमझी में रस लेना। समझने की जरूरत कहां है! | कर जाता हूं। कम ही तुम ऐसा मौका देते हो। लेकिन समझ कहीं खराब न कर दे, कहीं विश्लेषण खंडित न कर दे! कभी-कभी चूक तुमसे हो जाती है। कभी-कभी बे-भान, तुम उसे राज ही रहने देना। और तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जो जरा दरवाजा खुला छोड़ देते हो, मैं भीतर आ जाता हूं। वह मिला ही नहीं, वह तुम्हारे भीतर आवास कर इसलिए तम जब मझे सन रहे हो तो बात और है। इसलिए लिया है। वह तुम्हारी आंखों में समा गया। वह तुम्हारी आंखों सत्य सदा कहा गया है, लिखा नहीं गया। लिखा जा नहीं का नूर हो गया। वह तुम्हारे हृदय की धड़कन बन गया। और | सकता। कहना भी बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी कहा जा ऐसा ही नहीं कि तुम्हें मिला है; अगर तुमने उसे ठीक से पीया तो सकता है, थोड़ा-सा कहा जा सकता है। ऐसी थोड़ी-सी खबर तुम्हारे द्वारा दूसरों पर भी छलकने लगेगा। दी जा सकती है। क्योंकि कहने में कई बातें सम्मिलित हैं, जो हम लिए फिरते हैं आंखों में चमन ऐ बागवां लिखने में खो जाती हैं। जिस तरफ उठी निगाहे-शौक गलशन हो गया। जब तम किताब पढ़ोगे तो किताब तो मर्दा होगी। किताब और जहां आंख उठ जाती है ऐसे आदमी की, वहीं बगीचे हो | तुम्हारे पास कोई वातावरण तो पैदा न कर सकेगी। किताब का जाते हैं, वहीं बगीचे खिल जाते हैं। कोई माहौल तो नहीं होता। किताब तुम्हारे पास कोई जीवंत जिस तरफ देख लोगे, वहीं परमात्मा का फैलाव हो जाएगा। वातावरण निर्मित नहीं कर सकती। वातावरण तुम्हारा होगा; जिस पर तुम्हारी नजर पड़ जाएगी, वह भी चौंक जाएगा। उसमें ही किताब प्रवेश करेगी। जिसके हृदय में तुम गौर से देख लोगे, वहां भी कोई बीज जब तुम मेरे पास हो, जब तुम मुझे सुन रहे हो, यदि सच में तड़फकर टूट पड़ेगा और अंकुर हो जाएगा। सुन रहे हो, तो तुम्हारा वातावरण यहां नहीं है, वातावरण मेरा है, पर सम्हालना, मन की आदतें बड़ी पुरानी हैं। मन कर्ता बनना हवा यहां मेरी है। तुम मेहमान की तरह उसमें हो। और जो चाहता है। वह कहता है, मैंने किया; मेरे कर्मों का फल है, समझदार हैं वे अपने को वहीं रख आते हैं जहां जूते उतारते हैं; देखो! बस वहीं चूक हो जाएगी। जल्दी ही तुम पाओगे, आई | ताकि तुम यहां गड़बड़ी न कर सको; ताकि तुम पूरे मुझ में डूब थी जो झलक, खो गई; दिखा था जो प्रकाश अब दिखाई नहीं जाओ; ताकि निर्वस्त्र, नग्न; ताकि पूरे के पूरे, बिना किसी पड़ता; खुला था जो द्वार, बंद हो गया! आवरण के, अनावृत्त होकर तुम मुझ में डूब जाओ; यह ऐसा न हो पाए। अपने को अपात्र, और भी अपात्र, अपने को थोड़ी-सी देर को जो लहरें मैं तुम्हारे आसपास पैदा करता हूं, ये ना-कुछ, कर्ता नहीं, सिर्फ भोक्ता जानना-परमात्मा का तुम्हें छू लें! बोलना तो बहाना है। बोलना तो बहाना है, ताकि भोक्ता! प्यासा जानना, अधिकारी नहीं। और, और-और वर्षा तुम उलझे रहो सुनने में। यह तो ऐसा है, जैसे छोटा बच्चा होगी, और-और घने मेघ घिरेंगे, और-और तुम तप्त होओगे, उपद्रव करता है, खिलौना दे दिया कि खेल, उलझ गया। बिना महातृप्त होओगे। बोले, तुम मुश्किल में पड़ोगे। मैं न बोलूं तो तुम्हारा मन 39 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 Maasik हजार-हजार जगह जाएगा। बोलता हूं, बोलने में तुम्हारा मन कुछ संपदा होती है अनुभव की, तो आवाज अपने-आप उस उलझ गया, सुनने में लग गया; पर यह तो ऊपर-ऊपर की बात | अंदाज को पा लेती है जो दिल में घर कर जाता है। नहीं कि है, भीतर कुछ और हो रहा है। इधर तुम उलझे कि उधर मैंने इसका कोई अभ्यास है; नहीं कि इसकी कोई वक्तृत्व शैली है; तुम्हारे हृदय को टटोला। एक हाथ से तुम्हें खिलौना देता हूं, नहीं कि इसका कोई विधि-विधान है-नहीं, कुछ भी नहीं है। दूसरे हाथ से तुम्हारे हृदय को टटोल रहा हूं। जब तुम पाते हो सत्य को, तो सत्य का पाना ही इतना विराट है कभी-कभी...तुम्हारी आदतें पुरानी हैं, मजबूत हैं। आदतें ऐसी कि तुम्हारे हर शब्द में उसकी धुन, हर शब्द में उसका रस, हर हो गई हैं जड़ कि तुम खिलौने में उलझे भी रहते हो और फिर भी | शब्द में उसका संगीत और सुवास फैलने लगती है। हृदय को बांधे रहते हो, बंद रखते हो। कभी-कभी खुल जाता दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं है। उस घड़ी, मैं तम्हारे भीतर पहंच जाता है। उस घड़ी, मेरा हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं! और तुम्हारा होना मिट जाता है। उस घड़ी हम एक ही वातावरण आ जाती है। पहले उसे ले आओ जिसे प्रगट करना है। फिर के हिस्से हो जाते हैं। एक सागर की तरंगें! इसलिए स्वाभाविक प्रगट करने की आवाज अपने से आ जाती है। यही तो कवि और है कि उस क्षण कुछ हो जाए, जो किताब से न हो सकेगा। ऋषि में फर्क है। कवि आवाज की फिक्र करता है। कवि फिक्र फिर, जब तुम मेरे पास हो तो बोलना तो मेरे पास होने का एक | करता है वाहन की। ऋषि फिक्र करता है वाहक की। ऋषि फिक्र अंश मात्र है। पास होना बड़ी घटना है। सान्निध्य बड़ी घटना करता है विषय-वस्तु की। जब बोलने को कुछ हो तो बोलना है। निकट होना...तो मेरी तरंगें और तुम्हारी तरंगें एक आ जाता है। ऐसे बोलना आ जाए तो जरूरी नहीं है कि बोलने रासलीला में लीन होती हैं। तुम मेरे आसपास नाचते हो, मैं को कुछ हो। बोलना तो सभी को आता है। बोलने मात्र से पता तुम्हारे आसपास नाचता हूँ। कुछ घटता है, जो खाली आंखों से नहीं चलता कि कुछ बोलने को तुम्हारे पास है। बोलते तो तुम नहीं देखा जा सकता। कुछ घटता है, चर्म-चक्षु उसे नहीं देख चौबीस घंटे हो-बिना कुछ हुए। कुछ भी नहीं देने को, फिर भी पाते! कुछ अदृश्य में घटता है! बोले जाते हो। उसी को तो हम बड़बड़ कहते हैं, बकबक कहते तुम दृश्य ही तो नहीं हो। मैं जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा हूं, उसी | हैं। बड़बड़ का इतना ही अर्थ है कि कुछ है नहीं बोलने को, पर तो सीमित नहीं हूं। तुम्हें अपने अदृश्य का पता नहीं है, मुझे लेकिन बोले चले जाते हो; क्या करें, चप होने की आदत नहीं मेरे अदृश्य का पता है। इसलिए मैं तुम्हारे अदृश्य को भी है! क्या करें, चुप होना भारी पड़ता है, बोले चले जाते हैं! पुकारता हूँ। तुम्हारा अदृश्य भी बाहर आ जाता है। एक नृत्य | लेकिन फिर एक और बोलना भी है, जब तुम्हारे पास कछ देने शुरू होता है। उस नृत्य में ही तुम्हारे हृदय में कुछ फूल खिलते को होता है। वाणी वाहन बनती है। वाणी घोड़ा बनती है। हैं, कमल खिलते हैं। __ तो जो शब्द मैं तुम्हारे पास पहुंचा रहा हूं, वे तो घोड़ों की भांति यह सवाल बोलने का ही नहीं है। और यह जो मैं बोल रहा हूं, हैं; उन पर बैठा सवार भी कभी-कभी तुम्हें दिखायी पड़ जाता ये कोरे शब्द नहीं हैं: ये किसी गहन अनुभव में डूबकर आए हैं; है। वही तम्हारे हृदय को पकड़ लेता है। वही तम्हें मंथन में डबा ये किसी गहन अनुभव से सिक्त हैं, किसी गहन अनुभव में पगे देता है। हैं। यह कोई शब्दों का काव्य नहीं है, जीवन का काव्य है। कवि किताब से यह न हो सकेगा; लेकिन किताब से भी हो सकता कहते हैं: है, अगर तुम धीरे-धीरे मुझे सुनने में समर्थ हो जाओ। इसलिए दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं | मैंने कहा है लोगों को कि मैं जैसा बोलता हं वैसी ही किताबें रहें. हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं! उनमें जरा भी फर्क न किया जाए। उनको बदला न जाए; क्योंकि ऋषि यह कहते नहीं। आवाज सहज आती है, जो दिल में घर लिखने का ढंग और होता है, बोलने को ढंग और होता है। बोला कर जाती है। हुआ शब्द अलग बात है, लिखा हुआ शब्द अलग बात है। तो दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं! जब तुम्हारे पास मैंने कहा है कि जैसा मैं बोलता हूं, वैसा ही लिखे में हो; ताकि Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hindi प्यास ही प्रार्थना है न अगर एक बार तुम्हारा मुझसे तारतम्य बंध जाए तो किताब को पढ़ते-पढ़ते भी तुम मुझे सुनने लगोगे। तो जिन्होंने मुझे ठीक से सुना है, वे किताब को पढ़ते वक्त भी किताब को नहीं पढ़ेंगे, मुझे सुनेंगे। किताब उनसे बोलने लगेगी। एक बार तुमने मुझे अपने हृदय में जगह दे दी, तो फिर किताब से भी मैं तुम्हारे पास आ सकूँगा। बिना किताब के भी आ सकूँगा। तुमने जरा मेरी याद की तो भी पास आ जाऊंगा। तम पर निर्भर है। और जब मैं कहता हूं 'अगर ठीक से सुना', तो मेरा अर्थ है: अगर प्रेम से सुना, सहानुभूति से सुना, सहयोग किया मुझसे, श्रद्धा से सुना, संदेह को हटाकर सुना, अपने मन को हटाकर सुना; कहा अपने मन को कि हट, थोड़ी जगह दे। तो, तो मेरा प्रेम तुम्हें बेहोश भी बनाएगा और मेरा प्रेम तुम्हें होश में भी लाएगा। यह बेहोशी कुछ ऐसी है कि इसमें होश बढ़ता चला जाता है। यह होश कुछ ऐसा है कि इसमें बेहोशी बढ़ती चली जाती है। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है। प्रेम में पागल हो जाना तो बहुत आसान है। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए हैं! मैं तम्हें जो प्रेम दे रहा है, वह एक दर्द है. वह एक पीडा है। उस पीड़ा से तुम निखरो! वह एक आग है जो तुम्हें जलाएगी। तुम घबड़ा मत जाना! तुम मेरे साथ चलना, सहयोग करना। हमें भी देख जो इस दर्द से कुछ होश में आए अरे दीवाना हो जाना मुहब्बत में तो आसां है। बहुत आसान है पागल हो जाना प्रेम में, लेकिन जागना बड़ा कठिन है। यह प्रेम तुम्हें जगाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें उठाए तो ही सार्थक हुआ। यह प्रेम तुम्हें तुम तक पहुंचा दे तो ही सार्थक हुआ। हो सकता है। मेरा हाथ बढ़ा है, तुम भी अपना हाथ बढ़ाओ और उसे पकड़ लो! आज इतना ही। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jam Education in oral WWW Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रवचन बोध - गहन बोध - मुक्ति है For Private Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O nly जाणिज्जह चिन्तिज्जइ, जन्मजरामरणंसंभवं दुक्खं। न य विसएसु, विरज्जइ, अहो सुबद्धो कवडगंठी।।६।। जन्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जतंवो।।७।। हा जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं। भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि।।८।। मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीयदंसणो होइ। न य धम्म रोचेदु हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो।।९।। मिच्छत्तपरिणदप्पा तिव्वकसाएण सुट्ठ आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं, मण्णतो होदि बहिरप्पा।।१०।। wwwjainelibrary org - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्रः फिर-फिर भोगेगा, क्योंकि जो पाठ लेना था लिया नहीं, जो जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जन्मजरामरणसंभवं दुक्खं।। सीखना था सीखा नहीं। उसे पुनः पुनः उसी विद्यालय में वापिस न य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी।। लौट आना पड़ेगा। 'जीव जरा, जन्म और मरण से होनेवाले दुख को जानता है, दुख को कोई जागकर भोगता है, तो अनुभव हाथ आता है। उसका विचार भी करता है; किंतु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता अनुभव हाथ आता है कि दुख को मैंने ही पैदा किया था, कैसे है। अहो, माया की गांठ कितनी सुदृढ़ है!' पैदा किया था, अब दुबारा वैसा न करूंगा। इसकी कोई कसम जीवन में गुजरते तो हम सभी एक ही राह से हैं। उसी राह से नहीं लेनी पड़ती, न कोई व्रत लेना पड़ता है; क्योंकि व्रत और महावीर भी गुजरते हैं। राह में कोई भेद नहीं है। जीवन का कसमें तो सब नासमझी के हिस्से हैं, वे तो सोनेवाले आदमी की ताना-बाना एक जैसा है। विस्तार में थोड़े फर्क होंगे। कोई इस तरकीबें हैं। जिसने एक बार देख लिया कि आग में हाथ डालने गांव में पैदा होता कोई उस गांव में, कोई इस देह में कोई उस देह से हाथ जल जाता है, वह किसी मंदिर में, किसी साधु के सत्संग की तरह कोई पुरुष की तरह, कोई गरीब कोई में प्रतिज्ञा नहीं लेता कि अब आग में हाथ दुबारा न डालूंगा। अमीर-ये विस्तार के भेद हैं, लेकिन जीवन का ताना-बाना समझ आ गयी। एक ही है। समझ काफी है। प्रतिज्ञा से समझ का कोई संबंध नहीं है। जन्म, जीवन, मृत्यु-और सब में अनुस्यूत दुख की धारा है। नासमझ प्रतिज्ञा लेते हैं। नासमझ व्रत लेते हैं। समझदार तो कहां जन्मे, इससे फर्क नहीं पड़ता। कहां मरे, इससे फर्क नहीं समझ से जीना शुरू कर देता है। वही उसका व्रत है, वही उसकी पड़ता। जन्म और मृत्यु का स्वाद तो एक ही है। प्रतिज्ञा है। सभी एक ही रास्ते से गुजरते हैं। फिर भी उसी रास्ते से सभी एक बार देखा कि हाथ जल गया, अब दुबारा जलना मुश्किल अलग-अलग अनुभव और निष्कर्ष लेते हैं। घटनाएं तो हो जाएगा, क्योंकि हाथ मैं ही डालूं तभी जलता है। एक-सी घटती हैं, लेकिन जीवन के निष्कर्ष बड़े अलग हो जाते आग का स्वभाव जलाना है। लेकिन आग तुम्हारे पीछे नहीं हैं। और जब तक कोई घटना अनुभव न बने, तब तक घटीन दौड़ती; तुम ही आग में हाथ डालो तो ही जलते हो। तो अपनी घटी बराबर। ही बात है, अपना ही निर्णय है, अपना ही दायित्व है। डालें तो दुख आता है-सभी को आता है। दुख भोगा जाता है। जलेंगे, न डालें तो नहीं जलेंगे। यद्यपि जीवन इतना सरल नहीं लेकिन दुख भोगना दो ढंग से हो सकता है : कोई जागकर भोगता है। आज हाथ डालते हो, हो सकता है कल पता चले, जला। है, कोई सोए-सोए भोगता है। जो सोए-सोए भोगता है वह खबर आते-आते देर लग जाए। बीज की तरह जो आज घटा है, www.jainelibrarorg. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 वृक्ष बनते-बनते समय लग जाए। यह हो सकता है कि तुम्हारे | हो जाएगी जितनी तुम्हारी वासना, उसी क्षण मुक्ति हो जाएगी। कृत्य में और तुम्हारे फल में थोड़ा समय का फासला हो। तो | जिस क्षण, आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, यह सत्य शायद तुम जोड़ भी न पाओ कि किस कारण से दुख मिला। उतना ही गहरा उतर जाएगा जितना आग में हाथ डालने की प्रबल जो समझ नहीं पाते, जाग नहीं पाते, दुख को जागकर भोगते | वासना गहरी है, उसी दिन वासना कट जाएगी। नहीं, वे चिंतन तो बहुत करते हैं, मनन तो बहुत करते हैं कि दुख | वृक्ष की शाखाओं को मत काटते रहो। उससे कुछ भी न न हो। ऐसा कौन होगा मनुष्य जो चाहता है दुख हो! दुख न हो, | होगा। जड़ें काटनी होंगी। जमीन में गहरे उतरना होगा। अपनी ऐसा तो सभी चाहते हैं। लेकिन चाह से थोड़े ही दुख रुकता है! | ही चेतना के अंधकार में दीये ले जाने होंगे। जो समझे हैं, उन्होंने तो पाया है कि चाह से ही दुख पैदा होता है। तो महावीर कहते हैं, सोचते हैं लोग, जानते-से भी लगते हैं, दुख न हो, इस चाह से भी दुख पैदा होता है। चाह मात्र दुख के किंतु विषयों से विरक्त नहीं हो पाते हैं। अहो, माया की गांठ बीज बोती है। फिर फसल काटनी होती है। चाह मात्र जहर है। । कितनी सुदृढ़ होती है! चिंतन, विचार तो बहुत लोग करते हैं। बड़े आश्चर्यचकित हो महावीर कहते हैं: अहो! कैसी __महावीर कहते हैं : जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ! लोग जानते भी हैं। आश्चर्यचकित करनेवाली है यह माया की गांठ! जानते. ऐसा भी नहीं कि नहीं जानते। लोग जानते हैं, कहां-कहां दुख | सोचते. सझते हए लोग भी अंधे हो जाते हैं। आंखवाले अंधे हो होता है, लेकिन फिर भी सो-सो जाते हैं। शायद जहां-जहां दुख जाते हैं! समझवाले भ्रांत हो जाते हैं! शांति के क्षणों में जो होता है, वहां-वहां मोह का बड़ा आवरण है। ऐसे ऊपर से सलाह तुम दूसरे को दे सकते हो, अशांति के क्षणों में खुद के ही लगता है कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, लेकिन भीतर काम नहीं आती। अपना ही दीया बुझा लेते हो। अपनी ही कोई प्रबल वासना है जो बार-बार आग के पास ले आती है; जो सलाह के विपरीत चले जाते हो। अपनी ही समझ को फिर-फिर कहती है आग में हाथ डालो, बड़ा सुख होगा। तो यह जानकारी खंडित कर देते हो। आश्चर्यचकित करनेवाली बात है। ऊपर-ऊपर रह जाती है। तो जब भीतर की वासना प्रबल नहीं महावीर का वचन, 'अहो! माया की गांठ कितनी सुदृढ़ होती, तब तो तुम बड़े समझदार होते हो। वासना के अभाव में | है'-बड़ा सोचने जैसा है, बड़ा ध्यान करने जैसा है। महावीर कौन समझदार नहीं होता! दुखित होते हैं तुम्हारे लिए, करुणा से भरे हैं। पर हंसते भी हैं कि जब तुम पर क्रोध का तूफान नहीं है, तब तुम भी समझदार होते मूढ़ता बड़ी गहरी है! हो; तुम भी समझा सकते हो, सलाह दे सकते हो कि क्रोध व्यर्थ | तुमने कभी किसी व्यक्ति को सम्मोहित दशा में देखा? किसी है, जहर है, अपने लिए दुख का निमंत्रण है। लेकिन जब क्रोध को सम्मोहित कर दिया जाता है, मूर्छित कर दिया जाता है। का आवेश उठता है, जब तुम आविष्ट होते हो, जब तुम तूफान | कठिन नहीं, बड़ा सरल है। कोई भी होने को राजी हो तो तुम भी में घिर जाते हो और क्रोध का बवंडर तुम्हारे चारों तरफ होता है, कर सकते हो। तब सब समझ खो जाती है। तो ऐसा लगता है, तुम्हारी समझ तो | कभी छोटा प्रयोग करके देखना। तुम्हारा छोटा बच्चा भी तुम्हें ऊपर-ऊपर है और क्रोध का उत्पात बहुत गहरा है; वहां तक | सम्मोहित कर सकता है, तुम भर राजी हो जाना। वह तुमसे तुम्हारा जानना नहीं है। दोहराए जाए कि तुम गहरी तंद्रा में जा रहे हो, मूर्छा में जा रहे हो, सोचते हो. विचारते हो, पर सब सतह पर है, लहरों-लहरों में बेहोश होते जा रहे हो तुम स्वीकार करते जाना। तुम इनकार है। सागर की गहराई में तुम्हारा उतरना नहीं हुआ। वह जागने से मत करना कि नहीं। तुम यह मत कहना कि अरे, छोड़! तेरे ही संभव होता है, क्योंकि तुम चैतन्य हो। जितने जागोगे, जितने कहने से कि हम सोये जा रहे हैं, कहीं हम सो जाएंगे? तुम चेतन बनोगे, उतने ही भीतर जाओगे। चैतन्य तुम्हारा स्वभाव प्रतिरोध मत करना। तुम सहयोग करना। तुम उसके सुझाव के है। चैतन्य तुम्हारी गहराई, तुम्हारी ऊंचाई है। तो जितने चेतोगे साथ बहे जाना। वह जो कहे, माने चले जाना। थोड़ी देर में तुम उतने ही गहरे उतरोगे। जिस दिन तुम्हारी चेतना उतनी ही गहरी पाओगे कि खो गये किसी बड़ी गहरी तंद्रा में। तब तुम्हारा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध-गहन बोध-मक्ति है छोटा-सा बच्चा भी अगर कहे कि यह लो, यह आम है मीठा, तुम्हारा सम्मोहन है। बहुत बार तुम स्त्री की कुरूपता के करीब और प्याज दे दे हाथ में, तो तुम चखोगे; होगी प्याज, लेकिन तुम भी आ जाते हो। बहुत बार पुरुष की कुरूपता के करीब आ जाते कहोगे, बड़ा स्वादिष्ट आम है! तुम्हारा सब स्वाद, प्याज की हो। बहुत बार जीवन में सिवाय व्यर्थता के कुछ भी नहीं दिखायी दुर्गंध, कुछ भी काम न आएगी। क्योंकि तंद्रा की गहराई में पड़ता है। लेकिन जन्मों-जन्मों का सम्मोहन है। तुमने ही अपने सुझाव उससे ज्यादा गहरे पहुंच गया जहां तक प्याज की गंध | को समझाया है, जीवन बड़ा बहुमूल्य है। तुमने ही अपने को पहुंचती। तुम शांत भाव से स्वीकार कर लिये। समझाया है कि जीने का बड़ा मूल्य है। किसी भी कीमत पर तो तुमने अगर सम्मोहन करनेवाले को, बाजार में मदारी को | जीना है, जीये चले जाना है। जीवेषणा! नर्क में भी पड़े हों तो भी देखा हो तो तुम चकित हो जाओगे; वह जो कह देता है, लोग | जीये चले जाना है; जीवन का जैसे अपने-आप में ही मूल्य है। वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं। खासा तगड़ा जवान है, चौड़ी | कुछ भी न घटता हो, हाथ-पैर गल गये हों कोढ़ में, सड़क पर छाती है, बलिष्ठ भुजाएं हैं, चलता है तो मंच हिलता घिसटते होओ, तो भी कोई आशा, कोई बड़ी गहन आकांक्षा है-उसको वह बेहोश कर देता है और कहता है, 'तुम एक पकड़े रहती है कि जीये चले जाओ, जीये चले जाओ। कोमल तन्वंगी, एक सुंदर युवती हो गये। इस किनारे से मंच के यह जो जीने की आकांक्षा है, इस पर पुनर्विचार, इस पर उस किनारे तक चलो।' तुम चकित हो जाओगे, वह ऐसे चलने पुनान तुम्हें जगायेगा और तुम्हें बतायेगा कि यह तुमने ही लगता है जैसे स्त्री चलती हो, जो कि अति कठिन है पुरुष को अपने मन में धारणा बना ली, धारणा बना ली तो मजबूत हो चलना। पुरुष के पास वैसे कूल्हे नहीं हैं। स्त्री के पेट में गर्भ के गयी। अलग-अलग जातियों में, अलग-अलग समयों में, लिए जगह है। उस जगह के कारण उसकी अस्थियों का ढांचा अलग-अलग धारणाएं महत्वपूर्ण हो गयी हैं। जो धारणा अलग है। इसलिए उसकी चाल अलग है। लेकिन वह पुरुष महत्वपूर्ण हो जाती है वही तुम्हारे जीवन का सत्य हो जाती है। चलने लगता है स्त्री की चाल से, जो कभी जीवन में न चला जैसे अफ्रीका में, मध्य अफ्रीका में, सदियों से स्त्रियां बाल घोट होगा। उसे कुर्सी के सामने बिठा देता है और कहता है, यह गाय लेती रही हैं। अब तुमने सिर-घुटी स्त्री में सौंदर्य कभी न देखा खड़ी है, दूध लगाओ। वह कुर्सी के पास उकडू बैठकर—उसी | होगा। कोई स्त्री राजी न होगी सिर घोंटने को। हमने मान रखा आसन में जिसमें महावीर ज्ञान को उपलब्ध हुए थे, | है, बाल सुंदर हैं। अफ्रीका में उन्होंने मान रखा है कि घुटा हुआ गो-दुग्ध-आसन में महावीर ज्ञान को उपलब्ध हुए थे, पता नहीं सिर सुंदर है। करोगे क्या? वहां जिस स्त्री के बाल हों, उसको क्या करते थे, बैठे थे उकडू-दूध खींचने लगता है। बिलकुल पति मिलना मुश्किल हो जाएगा; जैसे यहां घुटे-सिर स्त्री को वैसे ही कृत्य करेगा जैसे गाय सामने खड़ी हो। तुम सब हंसोगे पति मिलना मुश्किल हो जाए, लोग दूर से ही छिटकेंगे। घुटा कि कैसा पागल बन रहा है यह। लेकिन सम्मोहन ने इतने गहरे हुआ सिर तो हमें मुर्दे की याद दिलाता है। इसलिए तो संन्यासी डाल दिया है विचार कि इतने गहरे आंख का विचार भी नहीं सिर घोंटते रहे। वे यह कहते हैं कि हम मर गये संसार से, अब जाता। आंख से तो उसको भी कुर्सी दिखायी पड़ती है। लेकिन तुम हमें मुर्दा समझो। न केवल उतने से ही अफ्रीका में सौंदर्य का जहां तक कुर्सी दिखायी पड़ती है उससे भी गहरा सम्मोहन का बोध पूरा नहीं होता, तो आड़ी-तिरछी लकीरें, आग की सलाखों विचार पहुंच गया। तो अब कुर्सी के ऊपर गाय आरोपित हो से शरीर पर, मुंह पर, आंख पर, सिर पर लोग सजा लेते हैं। तुम जाती है। तो पाओगे, ये तो घाव बना लिये। लेकिन वह सौंदर्य है। उन्होंने सम्मोहन के सत्य को समझना जरूरी है, क्योंकि मनुष्य का सदियों तक इसी को सौंदर्य माना है, यही उनका सम्मोहन हो जीवन करीब-करीब सम्मोहित जीवन है। जन्मों-जन्मों में तुमने | गया है। अपने को ही आत्म सम्मोहित किया है। जन्मों-जन्मों में तुमने जो तुम मान लो वही सत्य हो जाता है। इस जीवन के सत्य कहा है, स्त्री सुंदर है-स्त्री सुंदर हो गयी है। जन्मों-जन्मों में माने हुए सत्य हैं। दस रुपये का नोट कागज का टुकड़ा है, तुमने दोहराया है, 'स्त्री सुंदर है'- स्त्री सुंदर हो गयी है। यह लेकिन मान्यता है कि दस का नोट है; सम्हालकर रख लेते हो। 491 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः1 HRITHIY छोटे बच्चे को दस रुपये का नोट और एक पैसा, दोनों बताओ, सम्हालकर रखते हैं। वह पैसा चुन लेगा। अभी पैसे तक ही उसकी मान्यता है, दस तुम्हारी भी मान्यताएं ऐसी ही हैं। लेकिन सदियों तक जो हम रुपये का नोट वह जानता ही नहीं। मानते हैं वह संस्कार हो जाता है। मैंने सुना है, अमरीका के एक समुद्र तट पर एक आदमी था, इसलिए महावीर कहते हैं, लोग जानते भी मालूम पड़ते हैं, बूढ़ा हो गया था और लोग उसके सामने रुपये लाते, पैसे लाते, फिर भी अनजाने की तरह व्यवहार करते हैं, क्योंकि जानना लेकिन वह हमेशा पैसे चुन लेता। कभी-कभी सौ-सौ डालर का ऊपर-ऊपर है। गहरे में वासना पड़ी है, विषय-भोग की नोट उसके सामने रखते, कहते, चुन लो जो भी चुन लो दो हाथों आकांक्षा पड़ी है, जीवेषणा पड़ी है। में से। वह पैसे चुन लेता। ऐसा वर्षों से हो रहा था। और जो भी विचार करता है, चिंतन करता है, जानता मालूम होता है, फिर आते समुद्र-तट पर, यह प्रयोग करते, और हंसते हुए जाते। एक भी विरक्त नहीं होता। ऐसे विचार का क्या अर्थ जो विराग न ले दिन एक आदमी ने उससे पूछा कि कोई बीस साल से मैं तुम्हें आए! विचार की यह कसौटी है महावीर के लिए कि जिससे देख रहा हूं, तुम्हें अब तक अकल नहीं आई? जब लोग तुम्हारे वैराग्य पैदा हो, वही विचार। यह उनका मापदंड है। इसी पर वे सामने सौ डालर का नोट करते हैं और पैसे करते हैं, तुम पैसे चुन कसते हैं। वे कहते हैं, जिससे वैराग्य आ जाए, वही विचार। लेते हो। उसने कहा, अकल तो मुझे भी है। लेकिन जिस दिन | जिससे वैराग्य न आए, उसे क्या विचार कहना! वही तो भी मैंने नोट चुना, खेल बंद हुआ! यह खेल चल रहा है। पैसे | अविचार है। पतंजलि भी यही कहते हैं, विवेक वही जिससे चुन-चुनकर मैंने हजारों डालर चुन लिये धीरे-धीरे। कोई मैं वैराग्य आ जाए। विचार वही जिससे वैराग्य आ जाए। फल से मूर्ख, कोई पागल नहीं हूं। लेकिन उनको मजा आता है समझकर ही तो वृक्ष जाना जाता है-आम लगे तो आम, नीम के कड़वे कि मैं पागल हूं, इसी बहाने वे पैसे मेरे सामने लाते हैं। फल लग जाएं तो नीम। वृक्ष से थोड़े ही वृक्ष जाना जाता है, फल छोटा बच्चा पैसा चुन लेगा। पैसे का उसके लिए मूल्य है। से जाना जाता है! वैराग्य फल है विचार का। यह आदमी भी पैसा चुन रहा है, क्योंकि जानता है, जिस दिन | तो तुम विचारवान हो या नहीं, तुम्हारे जीवन के वैराग्य से पता इसने नोट चुना उसी दिन खेल बंद हुआ, फिर कोई नहीं लाएगा। चलेगा। तुम लाख बैठकर ऊहापोह करते हो। तुम्हारे सिर में चुन तो यह भी नोट ही रहा है, लेकिन तुमसे ज्यादा चालाक है। बड़ी दौड़-धूप मचती है विचारों की। तुम बड़े शास्त्र लिख तुम समझे कि यह नासमझ, बुद्ध है। तुम मजा ले रहे हो इसके सकते हो। इससे कुछ हल न होगा। असली प्रमाण यह होगा बुद्धूपन में, यह तुम्हारे बुद्धपन में मजा ले रहा है। कि तुम्हारे जीवन में वैराग्य फला, वैराग्य के फल लगे, वैराग्य मान्यताएं हैं। जो हम मान लेते हैं सुंदर, वह सुंदर हो जाता है। के मीठे फल आए? तुमने वैराग्य की फसल काटी? चीजों की जो हम मान लेते हैं कुरूप, वह करूप हो जाता है। जो हम मान व्यर्थता तुम्हें दिखायी पड़ी? तुम्हारा ज्ञान वासना से गहरा लेते हैं मूल्यवान, वह मूल्यवान हो जाता है। गया? इतना गहरा गया कि वासना उठनी असंभव हो गयी? अफ्रीका में हड्डियों का आभूषण बनाते हैं, तो मूल्यवान है। नहीं कि तुम्हें नियंत्रण करना पड़ा। नियंत्रण तो सब थोथे हैं। एक युवक संन्यासी हिमालय से वापस लौटा और एक माला अनुशासन तो सब ऊपरी हैं। बोध, इतना गहरा बोध कि बोध ही ले आया, किसी तिब्बतन लामा ने उसे दे दी। उसने मेरे हाथ में | मुक्ति बन जाए, तो वैराग्य! रखी, मैंने कहा, 'पागल! तू यह कहां से उठा लाया?' वह तो तो अब तुम सोचना कि विचार करने का अर्थ, तार्किक विचार किसी जानवर के दांतों की बनी माला थी, बड़ी गंदी और बेहूदी करना नहीं है। विचार करने का अर्थ, सम्यक विचारणा है। थी। पर उसने कहा, एक तिब्बती लामा ने मुझे दी है और उसने विचार करने का अर्थ है, सत्य जैसा है वैसा ही जानने की कहा कि यह बड़ी बहुमूल्य है। तिब्बत में माना जाता है कि बड़ी क्षमता। बहुमूल्य है। हड्डी की माला, हड्डी के गुरिये बना लेते हैं, उनकी वासना और विचार के फर्क को समझो। वासना प्रक्षेपण है। माला। तुम्हें कोई हाथ में देगा तो तुम हाथ धोओगे, तिब्बती उसे तुम जो चाहते हो वही तुम प्रक्षेपण कर लेते हो। तुम वह नहीं 50 Main Education International . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखते, जो है – कृष्णमूर्ति जिसे कहते हैं, दैट व्हिच इज। जो है, उसे तुम नहीं देखते। तुम वही देख लेते हो, जो तुम देखना चाहते हो। तुम्हारी आंख केवल ग्राहक नहीं होती, प्रक्षेपक होती है। एक रुपया पड़ा है रास्ते पर या कि एक हीरा पड़ा है रास्ते पर । हीरा एक पत्थर है, जैसे और पत्थर हैं। अगर आदमी न हो जमीन पर तो हीरे और दूसरे पत्थरों में कोई फर्क मूल्य का न होगा। हीरे भी वहीं पड़े रहेंगे, साधारण कंकड़ भी वहीं पड़े रहेंगे। हीरा यह न कह सकेगा कि 'हटो कंकड़ो, मैं कोहिनूर हूं ! रास्ता दो! सिंहासन बनाओ!' कोहिनूर भी साधारण पत्थर है, आदमी न हो तो। आदमी आया कि झंझट आयी। आदमी आया कि वह कहता है, हटो कंकड़ो ! तुम तो शूद्र रहे, यह सम्राट है। यह है कोहिनूर ! इसे सिंहासन पर बिठाओ! आदमी मूल्य लाता है। कोहिनूर में कोई मूल्य नहीं है— हो नहीं सकता। सदियों तक पड़ा था जमीन में। न कंकड़-पत्थरों ने उसकी फिक्र की, न कीड़े-मकोड़ों ने फिक्र की, न सांप-बिच्छुओं ने कोई आदर दिया, न पशु-पक्षियों ने कोई चिंता ली- किसी ने कोई फिक्र न की । फिर आदमी के हाथ पड़ गया। जिस आदमी के हाथ पड़ा, वह भी सीधा-सादा आदमी था। वह उसे ले आया और उसने अपने बच्चों को खेलने को दे · दिया। करता भी क्या, पत्थर ही था ! बड़ी प्यारी कहानी है, उस घर में एक संन्यासी मेहमान हुआ। और उस गरीब किसान को देखकर उसे बड़ी दया आ गयी। और उसने कहा कि 'तू यहां कब तक इस गोलकुंडा की सूखी जमीन पर अपना श्रम गंवाता रहेगा? मैंने ऐसी जगहें देखी हैं कि जहां तू जरा-सी मेहनत कर कि हीरे-जवाहरात इकट्ठे कर ले | इतनी खोदा-खादी, इतनी मुश्किल - क्या पैदा कर पाता है ? पेट भी तो नहीं भरता। बच्चे तेरे सूख रहे हैं। ' संन्यासी तो दूसरे दिन सुबह चला गया अपनी यात्रा पर, लेकिन किसान के मन में वासना पकड़ गयी। सम्मोहित हो गया किसान | उसने अपना खेत-वेत सब बेच दिया। छोटी-सी नदी | के किनारे उसका खेत था । वह उसने बेच दिया, मकान बेच दिया । निकल पड़ा हीरों की खोज में। कहते हैं, वर्षों भटकता रहा, कहीं कोई हीरे न मिले, घर आ गया। लेकिन इस बरसों के भटकाव में, हीरे क्या होते हैं, यह समझ आ गयी, यह सम्मोहन आ गया। कई जौहरियों को मिला। हीरे जिनके पास थे उनको बोध गहन बोध - मुक्ति हैं मिला। हीरे देखे। जो था उसके पास पैसा, उसने इसी में गंवा दिया। घर लौटकर आया तो चकित हो गया, बच्चा उस हीरे से खेल रहा था जिसकी वह खोज में था। कोहिनूर ! और तब रोया, छाती पीटी, क्योंकि खेत उसने बेच दिया। वही खेत बाद में गोलकुंडा की सबसे बड़ी खदान बना । हैदराबाद निजाम के महलों में जो हीरे हैं, वे सब उसी गरीब आदमी के खेत से निकले हैं। वह बेच दिया उसने। लेकिन तब तक सम्मोहन न था, मन पर कोई परत न थी - सीधा-सादा आदमी था, प्राकृतिक आदमी था, सभ्य न हुआ था, जौहरी पैदा न हुआ था। हीरा भी कंकड़-पत्थर है। आदमी न हो तो हीरे का कोई विशेष सम्मान न होगा। जब तुम हीरे को विशेष सम्मान देते हो, राह पर पड़ा हीरा तुम्हें मिलता है, झपटकर उठा लेते हो, कंकड़ को तो नहीं उठाते - तब तुमने वह नहीं देखा जो था; तुमने वह देख लिया जो तुम देखना चाहते थे। तुमने अपनी वासना को आरोपित किया । तुम्हारी आंखें शुद्ध ग्राहक न रहीं । तुम्हारी आंखों ने हीरे के पर्दे पर कुछ फेंका, कोई वासना फेंकी । साधारण कंकड़-पत्थर भी वासना से अभिभूत हो जाए, महिमावान हो जाता है। जहां तुमने वासना रख दी, वहीं महिमा आ गयी। यह संसार इतना महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, क्योंकि तुमने जगह-जगह वासना को नियोजित कर दिया है। किसी ने धन में रख दी है वासना, तो धन बहुमूल्य हो गया है। तब वह अपने जीवन को गंवाये चला जाता है, लेकिन धन कमाये चला जाता है। वह मरेगा । तिजोड़ी यहीं रहेगी, भरकर छोड़ जाएगा। ठीक से भोजन भी न करेगा, कपड़े भी न पहनेगा। धन इकट्ठा है! वासना रख दी धन में तो जीवन से बहुमूल्य हो गया धन । तुमने अगर पद में वासना रख दी, पद बहुमूल्य हो गया। तुम्हें कभी-कभी हैरानी नहीं होती देखकर ! राजनीति के दीवाने हैं, पदों के पागल हैं, भीख मांगते फिरते हैं: सहारा दो, वोट दो, मत दो, साथ दो! हाथ जोड़ते फिरते हैं। कभी तुम चकित नहीं हुए, तुम सोचे नहीं कि क्या पागलपन चढ़ा है! और जो पद पर पहुंच जाते हैं उन्हें कुछ मिलता दिखायी नहीं पड़ता । गालियां मिलती हैं, निंदाएं मिलती हैं। सम्मान भी मिलता है, लेकिन सम्मान सब झूठा है; पद से उतरते ही खो जाता है । फिर कोई 51 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wa H जिन सूत्र भागः नहीं पूछता। फिर कोई विचार नहीं करता। फिर कोई नमस्कार कभी देखा, शतरंज के खिलाड़ी बैठे हैं। कुछ भी नहीं है, लकड़ी भी करने नहीं आता। लेकिन इतना क्या पागलपन है? पद में के, हड्डियों के या प्लास्टिक के हाथी-घोड़े, राजा-रानी वासना रख दी! तुमने नहीं रखी तो तुम्हें हंसी आएगी कि यह भी | हैं-और तलवारें चल गयी हैं शतरंज पर, लोग कट गये हैं। क्या पागलपन है! | जो नहीं है खेल में, वह हंसता है। वह हंसता हुआ निकल देखा तुमने! कोई फुटबाल के पागल हैं, कोई क्रिकेट के जाएगा कि पागल हो गये हो, कहां हाथी-घोड़े कुछ भी नहीं है! पागल हैं। एक सज्जन को मैं जानता हूं, जब क्रिकेट चल रही हो जिसकी समझ गहरी है उसे तो असली हाथी-घोड़े में भी तो वे रेडियो पर सारी दुनिया का सब काम छोड़कर बैठ जाते हैं। हाथी-घोड़े नहीं दिखायी पड़ते; असली राजा-रानी में भी एक बार उनकी जो टीम जीतनी चाहिए थी, हार गयी तो उन्होंने राजा-रानी नहीं दिखायी पड़ते। मगर जहां वासना हो...। रेडियो उठाकर पटक दिया। नाराजगी में! इतना क्रोध आ गया। मैंने सुना है, एक बिल्ली इंग्लैंड गयी। सांस्कृतिक मिशन पर दंगे हो जाते हैं। तुम्हारी टीम हार गयी, दंगे हो जाते हैं। गयी। तो इंग्लैंड की रानी ने मिलने के लिए बुलाया। फिर वह लूट-पाट हो जाती है। मारे जाते हैं लोग। जो नहीं हैं उस जगत लौटी, तो दिल्ली में बिल्लियों ने बड़ी सभा की। उन्होंने पछा कि में, वह हंसेंगे कि मामला क्या है! आखिर यह हो क्या रहा है? 'अरे, कहो। क्या-क्या हुआ? रानी को मिलने गयी थी कि फुटबाल है क्या? कुछ लोग गेंद को उधर ले जा रहे हैं, कुछ | नहीं?' लोग इधर ला रहे हैं, कुछ लोग उधर ले जा रहे हैं मगर है | उसने कहा, 'गयी थी।' क्या? मामला क्या है? ऐसा इतना...और लाखों लोग देखने 'क्या देखा?' क्या चले आये हैं? क्या देख रहे हैं! और बड़े उत्तेजित हैं! उसने कहा कि बड़ा गजब देखा! कुर्सी के नीचे चूहा बैठा था। पागल हुए जा रहे हैं। रानी से क्या लेना-देना बिल्ली को! जो दिखा वह चूहा था। हां, जो वासना के बाहर है उसे हंसी आएगी। जो वासना के जहां वासना है, वहीं दर्शन है। तुम्हें रानी दिखायी पड़ती, चूहा भीतर है, वह मूछित है। दिखायी न पड़ता, क्योंकि तुम्हारी वासना बिल्ली की वासना नहीं मुल्ला नसरुद्दीन एक रात घर लौटा, नशे में धुत्त। बड़ी उसने है। रानी भी तुम्हें तभी दिखायी पड़ती जब तुम्हारी पद की वासना चेष्टा की। चाबी तो हाथ में है, ताला न मिले। पत्नी ऊपर से हो, राज्य की वासना हो; नहीं तो रानी में देखने जैसा क्या है! देख रही है। उसने कहा, 'बहुत हो चुका। अगर चाबी खो गयी साधारण स्त्री है। चाहे कितना ही मोर-मुकुट बांधो, इससे क्या हो तो बोलो, दूसरी चाबी फेंक दूं।' उसने कहा, 'चाबी तो है, होता है! कितने ही बड़े सिंहासन पर बैठ जाओ, इससे क्या होता ताला खो गया है, दूसरा ताला फेंक दे।' | है! अगर महावीर जैसा व्यक्ति जाए तो न तो चूहा दिखायी पड़े लेकिन कभी तुम अगर बेहोश रहे हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि | न रानी दिखायी पड़े। तुमको रानी दिखायी पड़ती, बिल्ली को हंसने की बात नहीं है। ऐसी ही दशा हो जाती है। वह जो बेहोश चूहा दिखायी पड़ा। जो-जो वासना थी, वह दिखायी पड़ा। है, वह किसी और ही दुनिया में है-अविचार की दुनिया में। अगर कोई हीरों का पारखी हो, तो उसे रानी न दिखायी पड़ेगी, जो तुम्हारी वासना नहीं है, वहां तुम विचारवान मालूम पड़ोगे। उसके मुकुट में लगे हीरे दिखायी पड़ेंगे। अगर कोई चमार चला बूढ़े विचारवान हो जाते हैं, जवानों को समझाने लगते हैं कि यह जाए तो रानी के जूते दिखायी पड़ेंगे, और कुछ दिखायी न सब पागलपन है, यह जवानी दो दिन का नशा है। यही उनके पड़ेगा। चमार को जूते ही दिखायी पड़ते हैं; वह जूते ही देखता बूढ़ों ने भी उनसे कहा था, तब उन्होंने नहीं सुना था। कोई किसी रहा जिंदगीभर। वहीं उसकी वासना लिप्त है। राह पर देखता की सुनता ही नहीं। रहता है लोगों के जूते। जूते को ही देखकर वह आदमियों की जब तक नशा है तब तक विचार पैदा नहीं होता; या विचार परख करता है। जूते की कहानी पढ़ लेता है तो आदमी की कथा पैदा हो जाए तो नशा टने लगता है। समझने की बात यह है कि प्रगट हो जाती है। जूते में उसे सारी आदमी की आत्मकथा लिखी वासना में तुम वही देखते हो जो तुम देखना चाहते हो। तुमने | मालूम पड़ती है। जूते पर चमक है तो वह जानता है, जेब गर्म 152 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध-गहन बोध-मुक्ति हे है। जूता मुाया, पिटा-पिटाया है तो वह जानता है कि आगे था। वह युवक कहता था कि मुझे भी संन्यास की यात्रा करनी बढ़ो, यहां लाने की जरूरत नहीं है। है। मुझे भी सूफियों के रंग-ढंग मन को भाते हैं। लेकिन क्या वासना का अर्थ है: हम अपने सम्मोहन के अनुसार जगत को | करूं, पत्नी है और उसका बड़ा प्रेम है! क्या करूं बच्चे हैं, और देखते हैं। विचार का अर्थ है : सम्मोहन को हटाकर देखते हैं, जो | उनका मुझसे बड़ा लगाव है। मेरे बिना वे न जी सकेंगे। मैं सच है उसे वैसा ही देखते हैं जैसा है। आम को आम देखते हैं, नीम कहता हूं, वे मर जाएंगे। मैं पत्नी से संन्यास की बात भी करता है को नीम देखते हैं। जहर को जहर देखते हैं, अमृत को अमृत | तो वह कहती है, फांसी लगा लूंगी। देखते हैं; अपनी वासना डालकर, कुछ और नहीं देखते। उस फकीर ने कहा, 'तू ऐसा कर...। कल सुबह मैं आता तो महावीर कहते हैं, लगते हैं लोग सोच रहे, विचार रहे, फिर हूं। तू रातभर, एक छोटा-सा तुझे प्रयोग देता हूं, इसका अभ्यास भी विरक्त नहीं हो पाते। कहीं कुछ धोखा है। क्योंकि अगर कोई कर ले और सुबह उठकर एकदम गिर पड़ना।' प्रयोग उसने जीवन को ठीक से देख ले तो विरक्त होगा ही। यहां कुछ भी तो दिया सांस को साधने का कि इसका रातभर अभ्यास कर ले, नहीं है। यहां उलझाने योग्य कुछ भी तो नहीं है। जो तुम्हें अटका सुबह तू सांस साध कर पड़ जाना। लोग समझेंगे, मर गया। ले, ऐसा कुछ भी तो नहीं है। फिर बाकी मैं समझ लूंगा। दोरंगियां यह जमाने की जीते जी हैं सब उसने कहा, 'चलो। क्या हर्ज है...? देख लें करके। क्या कि मुर्दो को न बदलते हुए कफन देखा। होगा इससे?' ये सब रंगरेलियां, ये बदलाहटें, ये फैशनें...। उसने कहा कि तुझे दिखायी पड़ जाएगा, कौन-कौन तेरे साथ दोरंगियां यह जमाने की जीते जी हैं सब मरता है। पत्नी मरती है, बच्चे मरते, पिता मरते, मां मरती, भाई कि मुर्दो को न बदलते हुए कफन देखा। मरते, मित्र मरते-कौन-कौन मरता है, पता चल जाएगा। एक जो जीवन को बहुत गौर से देखेगा, दोरंगियों को हटाकर दस मिनट तक सांस साध कर पड़े रहना है, बस। सब जाहिर हो गहराई में देखेगा, वह पायेगा: यहां सब मरा ही हुआ है, समय जाएगा। तू मौजूद रहेगा, तू देख लेना, फिर दिल खोलकर सांस की बात है। | ले लेना, फिर तुझे जो करना हो कर लेना। ऋषियों ने कहा है, क्षरति इति शरीरम्। जो क्षीण होता जाता वह मर गया सबह। सांस साध ली। पत्नी छाती पीटने लगी. उसी का नाम शरीर। क्षरति इति शरीरम्। जो प्रतिपल क्षीण होता बच्चे रोने लगे, मां-बाप चिल्लाने-चीखने लगे, पड़ोसी इकट्ठ जाता है, जीर्ण होता जाता, वही शरीर है। यह घर नहीं है। जो हो गये। वह फकीर भी आ गया इसी भीड़ में भीतर। फकीर को खंडहर होता जाता है, वही शरीर है। इसीलिए शरीर नाम दिया देखकर परिवार के लोगों ने कहा कि आपकी बड़ी कृपा, इस उसे, क्योंकि वह क्षीण होता है, जीर्ण होता है, सड़ता है; मरा ही मौके पर आ गये। परमात्मा से प्रार्थना करो। हम तो सब मर है, समय की बात है; क्यू में खड़ा ही है, जब नंबर आ जाएगा | जाएंगे! बचा लो किसी तरह ! यही हम सबके सहारे थे। गिर जाएगा। फकीर ने कहा, घबड़ाओ मत! यह बच सकता है। लेकिन अगर शरीर को कोई गौर से देखे तो क्या पाएगा! मृत्यु को मौत जब आ गयी तो किसी को जाना पड़ेगा। तो तुम में से जो भी रूप धरते देखेगा वहां। मृत्यु को गर्भ में पाएगा वहां। रोएं-रोएं जाने को राजी हो, वह हाथ उठादे। वह चला जाएगा. यह बच में शरीर के मृत्यु को छिपा पाएगा। प्रगट होने की प्रतीक्षा चल जाएगा। इसमें देर नहीं है, जल्दी करो।। रही है। आज नहीं कल प्रगट हो जाएगी। जो शरीर को गौर से एक-एक से पूछा। पिता से पूछा। पिता ने कहा, अभी तो देखेगा, वह मृत्यु को देख लेगा। फिर तुम शरीर से बंधोगे कैसे, बहुत मुश्किल है। मेरे और भी बच्चे हैं। कोई यह एक ही मेरा आसक्त कैसे होओगे? मुर्दे से तो कोई बंधता नहीं। मुर्दे से तो बेटा नहीं है। उनमें कई अभी अविवाहित हैं। कोई अभी स्कूल कोई संबंध नहीं रखता। में पढ़ रहा है। मेरा होना तो बहुत जरूरी है, कैसे जा सकता हूं। मैंने सुना है, एक मुसलमान फकीर के पास एक युवक आता | मां ने भी कुछ बहाना बताया। बेटों ने भी कहा कि हमने तो www.jainelibrarorg Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 अभी जीवन देखा ही नहीं। पत्नी से पूछा, पत्नी के आंसू एकदम | में ले लो। दुख है तो तुम कारण हो। अंधेरा है तो तमने ही दीया रुक गये। उसने कहा, अब ये तो मर ही गये, और हम किसी | छिपाकर रखा है। अगर कांटों में चल रहे हो तो तमने ही कांटे तरह चला लेंगे। अब आप झंझट न करो और।। बोए हैं। फकीर ने कहा, अब उठ! तो वह आदमी आंख खोलकर उठ | महावीर ने मनुष्य को सीधा मनुष्य के ऊपर फेंक दिया; कोई आया। उसने कहा, 'अब तेरा क्या इरादा है?' उसने कहा, सहारा न दिया, कोई सांत्वना न दी; नहीं कहा कि भगवान है, अब क्या इरादा है, आपके साथ चलता हूं। ये तो मर ही गये। खेल खेल रहा है, उसका खेल है, घबड़ाओ मत, प्रार्थना करो, अब ये लोग चला लेंगे! देख लिया राज। समझ गये, सब बातों उसका सहारा मिलेगा। कोई सांत्वना न दी। की बात थी। कहने की बातें थीं। महावीर का धर्म सांत्वना-रहित है। अति कठोर मालूम पड़ता कौन किसके बिना रुकता है। कौन कब रुका है! कौन है। लेकिन उतनी कठोरता हो तो ही कोई घर वापिस लौटता है। किसको रोक सका है। कैदे-हस्ती की भी तारीक बदल दूं तो सही दृष्टि आ जाए तो वैराग्य उत्पन्न होता है। उस घड़ी उस युवक खेल समझे हो मेरा दाखिले-जिंदा होना। ने देखा। इसके पहले सोचा था बहुत। उस घड़ी दर्शन हुआ। कारागृह में आ गया हूं तो अगर कारागृह का ढंग ही न बदल दूं इसके पहले विचार बहुत किया था, लेकिन वे विचार विचार न तो मेरे आने का अर्थ ही नहीं है। थे, विवेक न था; क्योंकि उनसे वैराग्य न फलित होता था, कैदे-हस्ती की भी तारीक बदल दूं तो सही! यह जो जिंदगी उलटा राग फलित होता था। और जिंदगी का जाल है और जिंदगी के बंधन हैं, इनका भी तो कसौटी है: जिसमें राग लगे, वह विचार नहीं; वह | इतिहास बदल दूं तो सही। खेल समझे हो मेरा दाखिले-जिंदा भीड़-भाड़ है विचारों की। थोथा है सब, असार है, राख है। होना। एक बार कारागृह में आ गया, तो अब कारागृह को भी उसमें अंगार नहीं है। जिसमें वैराग्य की लपट उठे-अंगार है, स्वतंत्रता बनाकर छोडूंगा। जीवन है, विचार है, विवेक है। ऐसा महावीर का भाव है। और महावीर ने ऐसा किया। कोई जिंदगी एक हादिसा है और कैसा हादिसा सहारा न लिया, कोई भीख न मांगी। महावीर जैसा अकेला कोई मौत से भी खत्म जिसका सिलसिला होता नहीं। भी जीवन के पथ पर नहीं चला है। कोई न कोई सहारा आदमी यह जिसे हम जिंदगी कहते हैं, यह हमारी जीवेषणा है। जिसे | खोज लेता है। सहारे के सहारे संसार आ जाता है। सहारे के हम जिंदगी कहते हैं, यह हमारे जन्मों-जन्मों का संकलित | सहारे फिर सब उतर आता है। एक के बाद एक सिलसिला लग सम्मोहन है। जाता है। - जिंदगी एक हादिसा है और कैसा हादिसा फक्र को मेरे वैर है जज्बए-इकसार से मौत से भी खत्म जिसका सिलसिला होता नहीं। जिंसे-जुनूं भी हो तो मैं भीख नलं बहार से। मौत आती है, जाती है, लेकिन सम्मोहन चलता रहता है। स्वाभिमान के विपरीत है। अगर प्रेमियों का पागलपन भी जीवेषणा को मौत नहीं मार पाती। शरीर छुट जाता है, हम नया बहार से मिलता हो, अगर भक्तों का भी पागलपन बहार से शरीर ग्रहण कर लेते हैं। तुम शरीर में इसलिए नहीं हो कि शरीर | मिलता हो, तो भी मैं भीख न लं। स्वाभिमान के विपरीत है। ने तुम्हें चुना है; तुम शरीर में इसलिए हो कि तुमने शरीर को चुना | महावीर कहते हैं, भीख मत लेना। क्योंकि भीख में जो मिलेगा है। तुम दुख में इसलिए नहीं हो कि दुख तुम पर आया है; तुम वह भीख ही होगी, स्वामित्व न मिलेगा। दुख में इसलिए हो कि तुमने दुख को बुलाया है। __ इसलिए महावीर के विचार में प्रार्थना की कोई जगह नहीं है, महावीर का मौलिक सूत्र है कि तुम्हारा उत्तरदायित्व आत्यंतिक विचार काफी है। विचार का ही सम्यक रूप ध्यान बन जाता है। है। न कोई भाग्य, न कोई भगवान—तुम ही जिम्मेवार हो। ध्यान का सम्यक रूप समाधि बन जाता है। समाधि यानी सार-सूत्र महावीर का यह है कि तुम अपनी बागडोर अपने हाथ | समाधान! तुम जीवन को ठीक से देख लो, वहीं मुक्ति है। 154 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अहो ! माया की गांठ कितनी सुदृढ़ होती है !' सब लोग जानते हुए मालूम पड़ते हैं। सब लोग सोचते हुए मालूम पड़ते हैं। यहां बुद्धिहीन खोजना तो बहुत मुश्किल है, सभी बुद्धिमान हैं। फिर भी जब माया पकड़ती है तो सभी उसकी पकड़ में आ जाते हैं, गांठ बड़ी सुदृढ़ मालूम होती है। और गांठ कहीं इतने गहरे है ! तुम जहां हो अभी वहां से कहीं ज्यादा गहरी तुम्हारी गांठ है। जब तुम गांठ से ज्यादा गहरे हो जाओगे तभी गांठ खुल जाएगी। इसलिए असली सवाल भीतर यात्रा का है। अपनी गहराई से गहराई खोजनी है। तुम जिस चीज के ज्यादा गहरे उतर गये, उससे ही मुक्त हो गये। अहो ! संसार दुख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं।' ! शांति की तुमने कहीं कोई तैयारी होते देखी ? कोई शांति की कहीं तैयारी नहीं होती। शांति की लोग सिर्फ बात करते हैं, शांति चाहिए ! युद्ध की तैयारी करते हैं। ध्यान रखना, जिसकी तैयारी करते हैं वही चाहते हैं। अगर शांति चाहते होते तो कुछ शांति पर 'जन्म दुख है, बुढ़ापा दुख है, रोग दुख है, मृत्यु दुख है। भी खर्च करते, शांति की सेनाएं खड़ी करते, लोगों को शांति प्रशिक्षण देते। लेकिन वैसा तो कहीं कुछ नहीं होता । सब प्रशिक्षण युद्ध का है। सब प्रशिक्षण लड़ने, मरने मारने का है। और कौन कितना कुशल है मारने में, उसकी दौड़ है। अमरीका है, रूस है, चीन है— नीचे तो अणु-बम के ढेर लगाये चले जाते हैं, ऊपर से शांति - कांफ्रेंस करते चले जाते हैं। वह जो शांति-कांफ्रेंस है, वह उस ढेर को छुपाने की तरकीब है; वह तंबू है शांति का, जिसके अंदर बम छिप जाएंगे और पता भी न चलेगा। आदमी ऐसा धोखेबाज है ! और ऐसा राज्यों के संबंध में ही नहीं है, सभी के संबंध में यही है। तुमने कभी खयाल किया, तुम जो कहते हो उससे तुम्हारा जीवन बिलकुल विपरीत है! और अगर ऐसा ही चलते जाना है तो कृपा करो, कहना बंद करो। क्योंकि कहने से क्या सार है ? क्यों उतनी शक्ति व्यय करते हो? व्यर्थ कबूतर मत उड़ाओ । उतना पैसा और बम बनाने में लगा दो! कम से कम सफाई तो हो, सचाई तो हो, सीधी-सीधी बात तो हो । 'जन्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा या मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ की संति जंतवो ।।' आश्चर्य है, महावीर कहते हैं, सब दुख है, फिर भी लोग पकड़े हैं। दुख ही दुख है, फिर भी लोग छोड़ते नहीं । मूर्च्छा बड़ी गहरी होगी। इसलिए कहते हैं, आश्चर्य है। लोग अपने ही पैरों से कारागृह में चले आ हैं, आश्चर्य! लोग अपने ही हाथों से | अपनी जंजीरें ढाल रहे हैं, आश्चर्य ! और लोग रोते भी हैं, | चिल्लाते भी हैं कि मुक्त होना है, कि आनंदित होना है। और जो करते हैं, वह बिलकुल विपरीत है। जो करते हैं उससे बंधन निर्मित होता है। तो लोग जो कहते हैं, उस पर मत ध्यान देना; लोग जो करते हैं, उस पर ध्यान देना । लोग क्या कहते हैं, यह तो छोड़ ही | देना। अकसर तो ऐसा है, लोग उलटा ही कहते हैं। उसका भी कारण समझ लेना चाहिए। लोग उलटा कहते हैं, क्योंकि उस तरह से वे अपने को संतोष बंधाए रखते हैं। अपने हाथों से तो वे | बनाते जाते हैं कारागृह और अपनी वाणी से गीत गाते रहते हैं स्वतंत्रता का । यह स्वतंत्रता कारागृह के मिटाने के काम नहीं | आती। यह स्वतंत्रता की बातचीत कारागृह को बनाने में सुविधापूर्ण है। कारागृह भी बनता जाता है, स्वतंत्रता की बात भी चलती चली जाती है। तुम देखते हो, दुनिया में सब तरफ ऐसा होता है ! राजनीतिज्ञ शांति की बात करते हैं, युद्ध की तैयारी करते हैं। सारे राजनीतिज्ञ | कबूतर उड़ाते हैं शांति के - शांति - कपोत ! और हर राज्य अपनी बोध गहन बोध-मुक्ति है संपत्ति का साठ, सत्तर, अस्सी प्रतिशत युद्ध की तैयारी पर खर्च करता है। कबूतर भी उड़ाये चले जाते हैं, अणु-बम भी बनाये चले जाते हैं। किसको सच मानें? यह जो शांति की चर्चा है, यह युद्ध को करने में सहायता देती है। यह विपरीत नहीं है। अगर यह विपरीत होती और ये कबूतर सच्चे होते, तो कोई कारण न था, लोग क्यों युद्ध के लिए तैयारियां करें। अब तक जितने युद्ध हुए दुनिया में, थोड़े नहीं हुए, कोई तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध हुए हैं। जितने युद्ध हुए वे सभी युद्ध इसीलिए हुए कि दुनिया में शांति होनी चाहिए। इससे तो बेहतर है, शांति की बकवास बंद करो। अगर शांति के लिए पांच हजार युद्ध करने पड़े तीन हजार सालों में तो छोड़ो यह शांति काम की नहीं है, यह तो बड़ी खतरनाक है, बड़ी महंगी है। सारी दुनिया के राज्य अपने युद्ध के इंतजाम का नाम – देखा, 'सुरक्षा मंत्रालय', 'डिफेंस' कहते हैं ! सब अटैक करते हैं और सब डिफेंस कहते हैं । सब आक्रामक हैं, लेकिन किसी 55 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः नहाहा राज्य का...हिटलर का भी जो युद्ध-मंत्रालय था वह क्योंकि कोई गंदी फिल्म आयी थी, कोई अमरीकन। बेटे को सुरक्षा...। कहते हैं, हम अपनी रक्षा के लिए तैयारियां कर रहे मना किए थे, लेकिन बेटे को मना किया तो बेटा भी उत्सुक हैं। बड़े मजे की बात है, अगर सभी रक्षा के लिए तैयारियां कर हुआ। बेटा पहुंच गया। घर लौटकर बहुत नाराज हुए, नाराज रहे हैं तो हमला कौन कर रहा है? डर किसका है फिर? सभी हुए क्योंकि वे भी खुद वहां थे। बड़ा कष्ट जो हुआ वह यह हुआ सुरक्षा चाहते हैं तो फिर तो भय का कोई कारण नहीं है। कि बेटे ने उनको भी वहां पा लिया। उनके बेटे से मैंने पूछा, फिर लेकिन झूठी हैं ये बातें। सुरक्षा ऊपर-ऊपर है, बातचीत है, कहा क्या उन्होंने? बेटा हंसने लगा। कहने लगा, 'कहते दिखावा है। और इसलिए आज तक यह भी तय नहीं हो पाया क्या! कहने लगे, मैं यही देखने आया था कि तुम आये तो नहीं कि किसने कब आक्रमण किया। किसने किया? हिटलर कहता हो!' इसके लिए तीन घंटे फिल्म में बैठे रहे! है, हमने नहीं किया; दूसरों ने किया। दूसरे कहते हैं, हिटलर ने पर ऐसा ही चलता है। तुम अपने को देखना शुरू करो। या। जो जीत जाता है अंततः वह इतिहास लिखता है। जागना शुरू करो। लंबी और कठिन यात्रा है। सहारे और इसलिए वह इतिहास में लिख देता है कि दूसरे ने किया। जो हार | सांत्वनाओं से काम न चलेगा। पूजा-प्रार्थनाओं से काम न जाता है, वह तो इतिहास लिख नहीं सकता। इसलिए बड़ा मजा चलेगा। एक-एक इंच अपने जीवन को रूपांतरण करना होगा। चलता है। पक्का नहीं है कि जो हार गया है, हो सकता है सुरक्षा एक प्रामाणिकता चाहिए। ही कर रहा हो, जो जीत गया वही आक्रामक हो। आक्रामक बड़े 'जन्म दुख है, बुढ़ापा दुख है, रोग दख है, मृत्य दख है।' कुशल हैं, आक्रमण करने के पहले वे ऐसा इंतजाम करते हैं कि और है क्या जीवन में? यहां विफलता मिले तो दुख है, यहां ऐसा प्रतीत हो कि वे सुरक्षा कर रहे हैं। सफलता मिलती है तो भी दुख लाती है। यहां गरीब रह जाओ तो और ऐसा समाज, राष्ट्र और व्यक्ति, सभी के संबंध में सही दुख है, यहां अमीर हो जाओ तो भी सुख नहीं आता। यहां हार है। तुम अपनी तरफ सोचना। तुम जरा अपने दांव-पेंच जाओ तो, तो दुख है ही, यहां जीत जाओ तो भी हाथ में कुछ पहचानना। तुम जरा अपनी स्ट्रेटेजि, वह जो तुम्हारी कूटनीति है लगता नहीं। यहां हारे और जीते सब बराबर हैं: सफल और भीतर, उसको देखना। असफल सब बराबर हैं। तुम अपने बेटे को मारते हो, तुम कहते हो, 'तेरे ही लिए, तेरे | 'अहो! संसार दुख है, जिसमें जीव क्लेश पा रहा है। अहो ही हित के लिए...।' यही तो राजनीति है। दुक्खो हु संसारो।' महावीर कहते हैं, आश्चर्य। चकित होकर क्रोध आया था, बेटे ने घड़ी तोड़ दी; या तुमने चाहा था बेटा कहते हैं, आश्चर्य! इतना दुख है, फिर भी लोग उसमें डुबकी चुप बैठे और वह चुप नहीं बैठा; या तुमने चाहा था वह सिनेमा लगाये जा रहे हैं। इस दुख की धारा को गंगा समझा है! डुबकी न जाए और चला गया-चोट तुम्हारे अहंकार को लगती है। | लगा रहे हैं! लेकिन तुम कहते हो, तेरे सुधार के लिए। अब यह बड़े मजे की यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है बात है, हर बाप सुधार रहा है, लेकिन कोई बेटा सुधरता नहीं चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए। मालूम होता। तो जरूर कहीं सुधार में कुछ भूल है, नहीं तो कुछ | __यहां तो दरख्तों का जो साया है उसके पास भी धूप ही खड़ी है। तो सुधरते। इतना बड़ा आयोजन चलता है! यहां तो साये में भी धूप लगती है। यहां तो सुख के साथ भी दुख नहीं, कोई किसी को सुधारने में उत्सुक नहीं है; लोग अपनी ही खड़ा है। यहां तो शांति के आसपास भी अशांति ने ही घेरा चलाने में उत्सुक हैं। अपना अहंकार! बाप का भी अहंकार है। बांधा है। उसकी आज्ञा तुमने तोड़ी, यह बरदाश्त के बाहर है। सिनेमा यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है गये, यह बड़ा सवाल नहीं है; यह तो बहाना है, सिनेमा तो वे | चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए। खुद भी जाते हैं। जो जीवन को देखेंगे, जो जरा आंख खोलकर जीवन को एक सज्जन को मैं जानता हूं। अपने बेटे को मना किए थे, | देखेंगे, जो विचार करके जीवन को देखेंगे, जो विवेक से जीवन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध-गहन बोध-मुक्ति है - - को देखेंगे, वे कहेंगेः 'चलो। चलो यहां से चलें और उम्र भर के एक बार गया तो पत्नी को बाहर भेज दिया। पत्नी ने कहा कि लिए, सदा के लिए।' . 'आप किसलिए आते हो बार-बार?' मैंने कहा, 'तुमको भी यही वैराग्य है। पता होना चाहिए, तभी तुम नाराज मालूम होती हो। वह एक मुझे जिंदगी की दुआ देनेवाले दांव की बात है।' हंसी आ रही है तेरी सादगी पर। कहने लगी कि हमारे छोटे बच्चे हैं, क्यों फिजूल के...? लोग जिंदगी की दुआ देते हैं कि खूब जीयो, जुग-जुग जीयो! क्योंकि जब से तुमसे मिलना उनका हुआ है, वे बड़े चिंतित रहते जरा पूछो भी तो किसलिए दुआ दे रहे हो? क्या पाया तुमने हैं और उदास रहने लगे हैं। जुग-जुग जीकर? जुग-जुग जीयो यानी जुग-जुग दुख भोगो। मेरी मां ने मुझे कहा, तो मैंने कहा, 'तू ऐसा कर, पंद्रह दिन तू सीधी कहो न बात, काहे छिपाते हो? भी सोच ले। अगर तुझे तेरे जीवन में और तेरी शादी से और तेरे मैं विश्वविद्यालय से घर लौटा, तो मेरी मां, मेरे पिता, परिवार | बच्चों से कोई सुख मिला हो - ऐसा सुख जो तू चाहे कि तेरे बेटे के लोग बड़े चिंतित थेः शादी! शादी! शादी! डरते भी थे को भी मिलना चाहिए, अगर ऐसा कुछ तूने पाया हो, जो कि तेरे मुझसे पूछने में, क्योंकि वे जानते रहे सदा से कि मैं 'हां' कह दूं मन में दुख रहेगा कि तेरे बेटे को न मिला तो पंद्रह दिन बाद तो 'हां' और 'ना' कह दूं तो 'ना'-फिर 'हां' करना मुझे कह देना, मैं शादी कर लूंगा। और अगर ऐसा कुछ भी न मुश्किल है। तो पूछते नहीं थे सीधा; यहां-वहां से खबर | पाया हो, दुख ही पाया हो तो इतनी तो कृपा कर कि मुझे चेता दे, भेजते-कोई रिश्तेदार, कोई मित्र। तो मेरे पिता के एक मित्र थे, | मुझे बता दे कि दुख ही पाया है, तो किसी भूल-चूक से मैं न वकील थे। उन्होंने सोचा कि वकील आदमी है, यही ठीक उलझ जाऊं।' रहेगा। उनको कहा कि तुम ही कुछ समझाओ। वकील ने कहा, मेरी मां, सीधी-सादी! उसने पंद्रह दिन बाद कहा कि यह 'समझा लेंगे। बड़े मुकदमे जीते हैं, यह भी कोई बात है।' झंझट की बात है। तुम्हें करना हो करो, न करना हो न करो। वकील तैयार होकर आए। वे मुझसे विवाद करने लगे कि शादी और हमें सोचने को मत कहो, क्योंकि सोचने से और घबड़ाहट के क्या-क्या लाभ हैं। मैंने सब सुना। मैंने कहा, 'सुनो। अगर होती है, सच में पाया तो कुछ भी नहीं। मैं तुमसे न कह सकूँगी तुमने सिद्ध कर दिया कि शादी में लाभ हैं तो मैं शादी कर लूंगा; कि तुम शादी करो, क्योंकि ऐसा कुछ भी मुझे नहीं मिला है। अगर तुम सिद्ध न कर पाए तो तुम्हारी तरफ से दांव पर क्या है? | जीवन में हम अगर गौर से देखें तो हम बहुत चकित होंगे। तुम छोड़ोगे पत्नी-बच्चे, अगर सिद्ध हो गया कि शादी ठीक | दुख में लोग जी रहे हैं, हम दुख में और लोगों को भी धकेले चले नहीं...? एकतरफा तो मत करो।' जाते हैं। वे थोड़े चौंके। आदमी ईमानदार थे। उन्होंने कहा, यह मैंने मुझे जिंदगी की दुआ देनेवाले सोचा न था कि मेरा भी कुछ दांव पर लगेगा। तो फिर मुझे हंसी आ रही है तेरी सादगी पर! सोचने दो। मैंने कहा कि तुम सोच कर ही आना। अगर मैं हार जिंदगी की लंबाई का कोई मूल्य नहीं है। जिंदगी के विस्तार गया तो उसी वक्त तैयार हो जाऊंगा, फिर यह भी फिक्र न का कोई मूल्य नहीं है। जिंदगी की गहराई का कुछ मूल्य है। करूंगा, किससे शादी करते हो। कर देना किसी से भी। लेकिन वासना से जिंदगी लंबी होती है, विचार से जिंदगी गहरी होती है। अगर नहीं हरा पाए तो फिर घर लौटकर नहीं जाने दंगा। छट्टी लंबे होने से संसार मिलता है, गहरे होने से स्वयं की सत्ता मिलती लेकर ही आना। है, भगवत्ता मिलती है। वे कभी आए ही नहीं। रास्ते पर मुझे मिलते थे, इधर-उधर | 'हा! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति बचकर निकलते थे। दो-चार बार मैं उनके घर भी गया तो वे| भयानक तथा घोर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।' कहने लगे, 'क्यों मेरे पीछे पड़े हो?' मैंने कहा, 'मैं क्यों पीछे। जब भी कोई जागा है, जब भी कोई महावीर जैसी जिनावस्था पड़ा हूं। तुम ही मेरे पीछे पड़े थे।' में पहुंचा है, तो उसे यह लगा ही है कि हा! खेद! अब तक क्यों | Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 न जागा! इतना समय कैसे सोया रहा! कैसे-कैसे दुखस्वप्नों में बड़ा यथार्थ, बड़ा अनुभव-पूरित, अनुभव-गम्य मार्ग है। दबा रहा, फिर भी आंख न खोली! इसलिए महावीर के वचनों में रहस्यवाद नहीं है। वे कोई 'हा! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति | मिस्टिक नहीं हैं। वे किसी धुंधले लोक की, किसी आकाश की भयानक तथा घोर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।' बात नहीं कर रहे हैं, वे तुम्हारी बात कर रहे हैं। और जब वे यहीं श्रमण और ब्राह्मण-संस्कृति के बुनियादी भेद साफ होते तुमसे बात कर रहे हैं, तो उनके मन में ऐसा भाव नहीं है कि तुम हैं। ब्राह्मण-संस्कृति कहती है, राम अवतरित हुए, कृष्ण क्षुद्र...। वे जानते हैं कि वे भी यही थे। वे चकित होते हैं तुम अवतरित हुए। वे भगवान के अवतार हैं। ऊपर से नीचे आये। पर, लेकिन तुम पर क्रोधित नहीं हैं। यह समझने जैसी बात है। वे मनुष्य नहीं हैं, वे भगवान हैं। उनके मन में तुम्हारी निंदा नहीं है, करुणा है, गहन करुणा है। | महावीर ऊपर से नीचे नहीं आए, नीचे से ऊपर आए। वे उसी आश्चर्य से भरे हैं, लेकिन उस आश्चर्य में तुम पर ही आश्चर्य | जगह से गुजरे जहां से तुम गुजर रहे हो। उन्होंने वही दुख भोगे नहीं है, स्वयं पर भी आश्चर्य है। इसलिए तत्क्षण जैसे ही उन्होंने जो तुमने भोगे। उन्होंने वही पीड़ाएं जानी जो तुमने जानी हैं। तुम कहा कि अहो! संसार में दुख ही दुख है, फिर भी जीव क्लेश पा उनके लिए अपरिचित नहीं हो। तुम्हारा जो वर्तमान है वह उनका रहे हैं उसके बाद ही वे कहते हैं, 'हा! खेद है कि सुगति का अतीत था। और उनका जो वर्तमान है, वह तुम्हारा भविष्य है। मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव-वन उनकी कड़ी तुमसे जुड़ी है। में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।' वे यह नहीं कह रहे हैं कि इसलिए अगर जैन तीर्थंकरों की भाषा मनष्य के हृदय के बहत तमसे मैं कछ ऊपर हं. पवित्र हं. श्रेष्ठ हं_मैं तम में से हैं। मैं करीब है और जैन तीर्थंकरों और मनुष्यों के बीच कोई तुम्हारी ही भीड़ से आया हूं, मैं अपरिचित, अनजान नहीं। मैं खाई-खंदक नहीं है, तो कारण साफ है। जैन तीर्थंकर उसी जगह कोई परदेशी नहीं। मैं तुम्हारे ही देश का वासी हूं। और जो तुम से आए जहां से तुम गुजर रहे हो। तुम्हारे दुख उन्होंने जाने हैं। भोग रहे हो, वह मैंने भी भोगा है। तुम्हारी मूढ़ता मेरी भी मूढ़ता तुम्हारे कष्ट उन्होंने जाने हैं। तुम्हारा अनुभव उनका अनुभव भी है। तुम्हारा अज्ञान मेरा भी अज्ञान है। है। इसलिए जब कृष्ण कुछ कहते हैं तो अर्जुन और कृष्ण की 'सुगति का मार्ग न जानने के कारण...।' बातचीत में बड़ा अंतराल है। ऐसा लगता है, कृष्ण किसी और सुगति का मार्ग है : ध्यान, विवेक, विचार, जागरूकता, ही जगत की कह रहे हैं, अर्जुन किसी और ही जगत की कह रहा अमूर्छा, अप्रमाद। न जानने के कारणहै-जैसे संवाद हो ही नहीं पाता। राम का महिमापूर्ण चरित्र! रोती है शबनम कली दिलतंग है गुल सीनाचाक लेकिन उसमें महिमा कुछ भी नहीं है, क्योंकि वह ईश्वर का क्या इसी मजमूआ-ए-गम का गुलिस्तां नाम है। चरित्र है। रोती है शबनम-आंसू हैं शबनम में। आंसू ही शबनम है। लेकिन महावीर का चरित्र महिमापूर्ण है, क्योंकि वह मनुष्य का कली दिलतंग है-कली सिकुड़ी है अपने में, खुल नहीं पाती। चरित्र है। राम भगवान से मनुष्य हो रहे हैं। उन्हें मनुष्यों का क्या | कली दिलतंग है गुल सीनाचाक। फूल का हृदय टूट गया है। पता, कुछ भी पता नहीं है। महावीर मनुष्य से भगवान हुए हैं; पंखुड़ियां बिखरी जा रही हैं। क्या इसी मजमूआ-ए-गम का उन्हें मनुष्यों का रत्ती-रत्ती पता है; उसका दुख, उसकी पीड़ा, गुलिस्तां नाम है। क्या इसीको गुलिस्तां कहें। जहां जन्म भी दुख उसका संकट, उसकी मूढ़ता, अज्ञान, भ्रांतियां, माया-मोह, । है, जहां जीवन भी दुख है, जहां मृत्यु भी दुख है, जहां एक दुख उसका भटकना उन्हें पूरी तरह पता है। के बाद दूसरे दुख की शृंखला है-इसको जीवन कहें, गुलिस्तां इसलिए महावीर के वचनों की एक वैज्ञानिकता है। कृष्ण के कहें। नहीं, इसमें जीवन जैसा कुछ भी नहीं है। एक गहन स्वप्न वचनों में एक दार्शनिकता है। बड़ी ऊंची हवा ही बात है, है, स्वप्न भी मधुर नहीं। स्वप्न भी दुख-स्वप्न है, नाइटमेयर! आकाश की बात है। लेकिन महावीर के पैर जमीन में अड़े हैं। लेकिन महावीर कहते हैं, क्या करो? अनंत जन्म ऐसे गये, उनका सिर आकाश में उठा है, लेकिन पैर उनके जमीन पर हैं। | क्योंकि सुगति का कोई मार्ग पता न था। . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोड़ा सोचो! सुगति का मार्ग पता न था, क्या ऐसे लोग न थे जो सुगति का मार्ग बता रहे थे ? महावीर के पहले जैनों के भी तेईस तीर्थंकर हो गये। महिमावान पुरुष हुए। सुगति का मार्ग तो था, बतानेवाले थे - सुना नहीं महावीर ने। उसी लिए आज रोते | हैं। सुगति का मार्ग तो था, लेकिन उस पर चले नहीं। क्योंकि यह मार्ग कुछ ऐसा है कि चलने से ही बनता है । यह कोई बना-बनाया मार्ग नहीं है। कोई पी. डब्ल्यू. डी. नहीं है कहीं आकाश में कि रास्ते बनाती है कि तुम बस तैयार रास्ते हैं, चल पड़ो। जब मौज आ जाए, निकाल लो गैरेज से अपनी गाड़ी और चल पड़ो। नहीं, बने-बनाये रास्ते नहीं हैं। रास्ता चल चलकर | बनता है। पगडंडियों जैसा है, राजपथ नहीं। चलते हो, उतना ही बनता है। सुनो उनकी जिन्होंने पाया हो । गुनो उनकी जिन्होंने पाया हो । पीयो उनको जिन्होंने पाया हो। और फिर थोड़ा-सा जो तुम्हारे गले में घूंट उतर जाए, उसको सिर्फ ज्ञान बनाकर मत रह जाना। उसको पचाओ। पचाने का अर्थ है: चलो। जो तुमने सुना और समझा, थोड़ा उसका जीवन में प्रयोग करो। उतना रास्ता बनता है । और एक कदम उठता है तो दूसरे कदम के लिए सुविधा बनती है। दूसरा कदम उठता है तो तीसरे कदम की सुविधा बनती है। और एक-एक कदम से आदमी हजारों मील की यात्रा कर जाता है। 'हा, खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।' 'जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त हो गया है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता; जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता।' महावीर कहते हैं, नहीं कि मैंने नहीं सुना था; नहीं कि सदगुरु नहीं थे। लेकिन बुद्धि विपरीत थी । सुनता था कुछ, ना कुछ । जो कहा जाता था उससे विपरीत सुन लेता था। जो बताया जाता था, उससे उलटा चल पड़ता था । एक वकील के दफ्तर में ऐसा घटा। एक बहुत बड़े वकील अपने दफ्तर में कार्य करनेवाले लड़के को सुधारने की कोशिश कर रहे थे। एक दिन लड़का अपनी टोपी उछालते हुए कमरे में आया और बोला, 'मिश्रा जी, आज एक बहुत अच्छा नाटक हो रहा है और मैं वहां जाना चाहता हूं।' मिश्रा जी भी चाहते थे कि बोध गहन बोध-मुक्ति है लड़का नाटक देख ले, पर उसे कुछ तमीज सिखाने के खयाल से उन्होंने कहा, 'छोटे! पूछने का यह कोई तरीका है ? टोपी उछालते हुए चले आ रहे हो दफ्तर में । यह कोई ढंग है? तुम मेरी कुर्सी पर बैठो, मैं तुम्हें सही तरीका सिखाता हूं।' लड़का कुर्सी पर बैठ गया और वकील साहब कमरे के बाहर चले गये । फिर उन्होंने अंदर आने के लिये धीरे से दरवाजा खोला और कहा, 'साहब! आज दोपहर को एक बहुत अच्छा नाटक हो रहा है, यदि आप मुझे छुट्टी दे दें तो मैं उसे देख आऊं !' 'क्यों नहीं', कुर्सी पर बैठे लड़के ने कहा, 'और छोटे ! यह लो टिकट के पांच रुपये।' बड़ा मुश्किल है सिखाना! क्योंकि जिसे तुम सिखाने चले हो, वह पहले से ही सीखा बैठा हुआ है। इस संसार में शिष्य खोजना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि शिष्य पहले से ही गुरु बना बैठा है। लोग जानते ही हैं। उसी जानकारी के कारण अगर कोई जाननेवाला भी मिल जाए तो उससे चूक जाते हैं। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारे शास्त्र में तो ऐसा लिखा है और आपने ऐसा कहा । तो मैं उनसे कहता हूं, तुम्हें शास्त्र ठीक लगता हो तो उस पर चलो ! चलो ! तुम्हें मैं ठीक लगता हूं, मुझ पर चलो। कृपा करके इस झंझट में तो न पड़ो कि शास्त्र ठीक कि मैं ठीक। क्योंकि ठीक का पता सोच-विचार से न चलेगा, चलने से चलेगा। मैंने तुमसे कहा, पूर्व से जाओ तो नदी पहुंच जाओगे। कोई तुमसे कहता है, पश्चिम से जाओ तो नदी पहुंच जाओगे। तो मैं कहता हूं, कैसे तय करोगे यहीं खड़े-खड़े, कौन ठीक कहता है? चलो, जिस पर तुम्हें भरोसा हो । शास्त्र पर भरोसा हो, चलो। अगर नदी न मिले तो हिम्मत रखना स्वीकार करने की कि शास्त्र गलत । अगर मेरी बात मानकर चलो और नदी न मिले, तो हिम्मत रखना यह बात स्वीकार करने की कि जिसको गुरु समझा था वह गलत था । फिर ऐसा मत करना कि जब एक दफा मान लिया किसी की बात को कि पूरब में नदी है, तो अब चाहे पूरब में नदी मिले या न मिले, चाहे जन्म-जन्म भटक जाएं लेकिन हम पूरब में ही खोजेंगे, क्योंकि मान लिया सो मान लिया। ऐसी हठग्राहिता से कुछ अर्थ नहीं है। लोग माने बैठे हैं, चले भी नहीं, कभी प्रयोग करके भी नहीं देखा। सैद्धांतिक बकवास 59 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र Shi - SA लोगों के मन में गूंजती रहती है। उसके कारण अगर कोई कि हजारों ऊंट इकट्ठे ठहर सकें। फिर अचानक सब खो गया। जतानेवाला भी मिल जाए, कोई जगानेवाला भी मिल जाए, कोई आज मांडू में नौ सौ आदमी हैं। खंडहर पड़े हैं। विशाल खंडहर तुम्हारी ज्योति को थोड़ा सहारा भी देनेवाला मिल जाए, तो तुम हैं। बड़े महल हैं। मीलों तक विस्तार है। उसे सहारा नहीं देने देते। तुम कहते हो, 'ठहरो! हमारी मान्यता जिन मित्र के साथ मैं ठहरा था, वे इंदौर में एक बड़ा मकान के विपरीत तो नहीं है?' तुम मान्यताओं को क्या संपत्ति समझे बना रहे थे। वे इतनी धुन से भरे थे अपने बड़े मकान की कि हुए हो? तो फिर तुम न सीख पाओगे। सुबह उठे तो उसकी बात करें। नये-नये विचार, नयी-नयी तरंगें तो महावीर कहते हैं, जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है उसकी कि ऐसा कर लेंगे। तो स्विमिंगपूल कैसा बनाना...! कौन-सा दृष्टि विपरीत हो जाती है। नहीं कि सदपुरुष न थे। नहीं कि | पत्थर लगाना, रात सोते-सोते भी वे वही बात करते, सुबह ज्योतिर्मय पुरुष न थे। लेकिन कहते हैं, 'मैं मूढ़मति ! जो उन्होंने उठकर भी। दो-तीन दिन के बाद मैंने उनसे कहा कि तुम जरा कहा, उससे उलटा समझा। जो उन्होंने बताया वह तो सुना ही मांडू भी तो देखो! कहने लगे, क्या देखना मांडू में ? मैंने कहा, न, कुछ और सुन लिया। जो उन्होंने कहा, वह तो कभी किया न, जरा चारों तरफ नजर भी तो फैलाओ, कितने बड़े महल थे, सब उसे सैद्धांतिक बोझ बना लिया।' खंडहर हो गये। उन्होंने कहा, रहने दो बाबा! पहले मुझे मकान 'उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता।' और धर्म की बात | तो बना लेने दो। जब होगा खंडहर तब होगा! अभी मत छेड़ो रुचिकर नहीं लगती। क्योंकि धर्म की बात को अगर रुचि से | बीच में यह बात। सुनो भी, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति सुनिश्चित है। लेकिन क्रांति वे मुझसे उस दिन बोले कि कभी-कभी तुम्हारे साथ होकर डर से घबड़ाहट होती है। तुमने बहुत-से न्यस्त स्वार्थ बना रखे हैं। लगता है। हो तो जाने दो पहले मकान पूरा, तुम अभी से खंडहर तुम एक बड़ा मकान बना रहे हो, अब कोई कहता है कि ये सब की बात करने लगे! अपशगुन तो मत करो! कोई शुभ कार्य में खंडहर हो जाएंगे। तो तुम कहते हो, यह बातचीत सुनो ही मत, ऐसी बात तो नहीं कहनी चाहिए। अब यह बना तो लेने दो। अभी अगर यह बीच में बात सुन ली वे घबड़ा गये। स्वभावतः कोई महल बना रहा हो, उसको तुम तो यह बनाने का जो उपक्रम चल रहा है, बंद हो जाएगा। खंडहर की बात बताओ, नाराज होगा। समझ में भी आ मेरे एक मित्र के साथ, इंदौर के पास मांडू में मैं मेहमान था। | जाए...समझ में क्यों न आएगा? समझने की क्या अड़चन है मांडू की संख्या कभी नौ लाख थी—ज्यादा दिन नहीं, सात सौ इसमें? इतना फैलाव पड़ा है, इतने खंडहर हो गये साल पहले और आज नौ सौ भी नहीं है। बड़ी विराट नगरी थी मकान-तुम्हारा मकान भी खंडहर हो ही जाएगा। तुम मांडू। मांडवगढ़ उसका नाम था। जब बस्ती सिकुड़ गयी तो बना-बनाकर मर जाओगे, मिट जाओगे। तुम अपने को गंवा मांडवगढ़ 'मांडू' हो गया हो ही जाना चाहिए। मांडवगढ़ | दोगे ईंटें रखने में। फिर पछताओगे। अब कहने का कोई मतलब नहीं है! इतनी-इतनी बड़ी मस्जिदें लेकिन आदमी के न्यस्त स्वार्थ हैं। हैं, उनके खंडहर हैं, जहां दस-दस हजार लोग इकट्ठे नमाज पढ़ इसलिए महावीर कहते हैं : सकते थे। इतनी बड़ी धर्मशालाएं हैं कि जहां दस-दस हजार . 'मिच्छत्तं वेदन्तो जीवो विवरीयदंसणो होइ। लोग इकट्ठे उतर सकते थे। मांडव बड़ी नगरी थी। उन जमानों नय धम्म रोचेद ह, महरं पि रसं जह जरिदो।।' की बंबई थी। क्योंकि ऊंटों का सारा आवागमन था और मांडू जैसे ज्वरग्रस्त आदमी को मीठा रस भी मीठा नहीं मालूम मध्य में था। सारा मुल्क मांडू से गुजरता था। मुल्क के बाहर के पड़ता, ऐसे वासना के ज्वर से भरे व्यक्ति को धर्म की बात भी यात्री भी, चाहे अफगानिस्तान से आते हों, चाहे काबुल से आते | सुनायी नहीं पड़ती, उलटी सुनायी पड़ती है। हों, चाहे ईरान से आते हों, मांडू से ही गुजरते थे। तो हजारों एक छोटा बच्चा एक बगीचे में आम तोड़ता हुआ पकड़ा यात्री बने रहते थे। सैकड़ों मस्जिदें थीं, सैकड़ों मंदिर थे, सैकड़ों गया। माली ने उसे पकड़ा, पुलिस-थाने ले गया। लड़का धर्मशालाएं थीं। ऊंटों के ठहरने के लिए इतने-इतने बड़े स्थान थे भोला-भाला था। भोला-भालापन देखकर दरोगा ने कहा, 160 . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध--गहन बोध-मुक्ति है। ‘बेटे, तुम्हें बुरे लोगों से बचना चाहिए।' उस लड़के ने कहा, है। रस्सी में सांप दिख गया, क्योंकि तुम्हारे भीतर सांप का भय 'अजी मैंने तो माली से बचने की बहुत कोशिश की, पर उसने पड़ा हुआ है। मुझे पकड़ ही लिया। | तुम थोड़ा सोचो, ऐसा कोई आदमी जिसने सांप कभी देखा ही दरोगा कह रहा है, बुरे सत्संग से बचो, ताकि चोरी न सीखो। न हो, या सुना ही न हो, क्या वह आदमी भी इस रस्सी में सांप लड़का सुन रहा है कि यह माली बुरा आदमी है; मैं तो भागने की देख सकेगा? कैसे देखेगा? असंभव! कोशिश कर ही रहा था; इससे बचने की कोशिश कर ही रहा एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था। वह अपने विद्यार्थियों था, फिर भी इसने पकड़ लिया। को ले गया काशी के मंदिर में, विश्वनाथ के मंदिर में। शंकर जी तुम अपनी वासना के आधार से सुनते हो। इसलिए अपने सुने की पिंडी के पास वह अपना हैट रख आया और दरवाजे पर हुए पर बहुत भरोसा मत करना। बहुत गौर से सुनना। सुन भी उसने खड़े होकर शिष्यों को पूछा कि क्या है, शंकर जी की पिंडी लो तो भी पुनः पुनः विचार करना, यही कहा गया था। तुमने कहीं के पास क्या रखा है ? कुछ मिश्रित तो नहीं कर लिया है, तुमने कहीं कुछ जोड़ तो नहीं। उन सब ने गौर से देखा और सब ने कहा कि शंकर जी का लिया, तुमने कहीं कुछ घटा तो नहीं दिया है! एक शब्द भी घटा घंटा। क्योंकि हैट और शंकर जी का संबंध ही नहीं जुड़ता। तो देने से बड़ा फर्क पड़ जाता है। एक शब्द भी जोड़ लेने से बड़ा वह जो हैट था, घंटे जैसा दिखायी पड़ने लगा। फर्क पड़ जाता है। जरा-सा जोर एक शब्द पर ज्यादा दे दो, बड़ा तुमने कभी देखा, आकाश में बादल बनते हैं! तुम जो देखना फर्क पड़ जाता है। चाहते हो, देख लेते हो। कभी-कभी वर्षा की बूंदें दीवालों पर 'और मिथ्यात्व से भरा हुआ व्यक्ति, उसकी दृष्टि विपरीत हो चित्र अंकित कर जाती हैं, तुम जो देखना चाहते हो देख लेते हो। जाती है।' वहां कुछ भी नहीं है। कभी-कभी चेहरा दिखायी पड़ता है। 'मिथ्यात्व' महावीर का विशेष शब्द है। जैसे 'माया' शंकर दीवाल पर पानी की रेखाएं बह गयी हैं। वहां कुछ भी नहीं है। का, ऐसे 'मिथ्यात्व' महावीर का। मिथ्यात्व बड़ा बहुमूल्य लेकिन तुम आरोपित कर लेते हो। शब्द है। इसका अर्थ समझना चाहिए। मिथ्यात्व का अर्थ है: मिथ्यात्व का अर्थ है : जो नहीं है वह तुमने देख लिया; और जैसा है, उसको वैसा न देखना। जैसा है, उसको वैसा देख जो था उससे तुम चूक गये। जब तुम उसे देख लोगे जो नहीं है तो लेना-सम्यकत्व। जैसा है, उसको वैसा न उससे तुम चूक ही जाओगे जो है। देखना-मिथ्यात्व। कछ को कुछ देख लेना...। | दृष्टि को साधना है। दृष्टि को निर्मल करना है। और अंधेरे में चल रहे हो, दर से दिखता है कि कोई चोर खड़ा है। धीरे-धीरे दृष्टि के साथ जल्दी निष्कर्ष नहीं लेने हैं। निष्कर्ष करने पास आते हो तो पाते हो कि बिजली का खंभा है। तो वह जो चोर में थोड़ा धैर्य करो। सुनो, देखो, जल्दी निष्कर्ष मत लो। मेरे पास दिखायी पड़ गया था-'मिथ्यात्व'। नहीं कि चोर वहां था, तुम आए हो, सुनते हो। इधर तुम सुन रहे हो, साथ-साथ तुम तुम्हें दिखायी पड़ गया था। निष्कर्ष भी लेते जाते हो। रस्सी पड़ी है। अंधेरे में गुजर रहे हो, घबड़ाकर छलांग लगा | तुम में से कई हैं जो सिर हिलाते हैं। वे कहते हैं, बिलकुल जाते हो, लगता है सांप है। रोशनी लाते हो, देखते होः कोई ठीक। उनके भीतर मेल खा रही है बात। वे जो मानते रहे हैं सांप नहीं, रस्सी पड़ी है। रस्सी सांप जैसी दिखायी कैसे पड़ उससे मेल खा रही है। कोई सिर हिलाता है कि नहीं। वह उसे गयी? तुम्हारे भीतर के भय ने लगता है सांप निर्मित कर लिया। पता भी नहीं कि वह सिर हिला रहा है; मुझे दिखाई पड़ता है कि रस्सी मिलती-जुलती है सांप से थोड़ी: सांप जैसी लहरें लिये वह कह रहा है कि नहीं। यह बात जंचती नहीं। पड़ी है। उस मिलते-जुलतेपन के कारण तुम्हारे भीतर के भय का इतनी जल्दी मत करो, पहले मुझे सिर्फ सुन लो। सिर्फ शुद्ध तूफान उठ गया, आंधी उठ गयी। और तुम्हारे भय ने सांप देख सुनना काफी है। फिर सुनने के बाद, समझने के बाद फिर लिया। इतना ही समझो कि तुम्हारे भीतर सांप का भय पड़ा हुआ तालमेल बिठा लेना। अभी तुमने अगर साथ ही साथ दो 61 | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 जिन सूत्र भाग: 1 प्रक्रियाएं जारी रखीं कि तुम अपने भीतर विचार भी चलाते रहे, तर्क भी करते रहे, विवाद भी करते रहे, तालमेल भी बिठाते रहे, तो तुम मुझे न सुन पाओगे। तुम्हारा शोरगुल इतना ज्यादा होगा, तुम कैसे मुझे सुन पाओगे ? फिर तुम जो निष्कर्ष लोगे वह मिथ्यात्व होगा । 'मिथ्या - दृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर जीव और शरीर को एक मानता है। वह बहिरात्मा है ।' महावीर कहते हैं, आत्मा की तीन अवस्थाएं हैं: बहिरात्मा - जब तुम वासना से बाहर बहे जाते हो; | अंतरात्मा - जब तुम ध्यान से भीतर चले आते हो; और परमात्मा - जब बाहर - भीतर दोनों खो गये। हो तो तुम वही । हो तो तुम परमात्मा ही । लेकिन जब परमात्मा बाहर की तरफ बह रहा है तो बहिरात्मा । जब पदार्थ में रुचि है, वस्तु में रुचि है, दूसरे में रुचि है, विषय-वस्तु में रुचि है; जब तुम अपने को इतना भूल गये हो कि बस पदार्थ ही सब कुछ हो गया, धन के दीवाने हो, पद के दीवाने हो – तब तुम बहिरात्मा । बहिरात्मा यानी आत्मा बाहर की तरफ बहती हुई फिर विचार शुरू हुआ। बहुत जले, इतने जले कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगा ! विचार का जन्म हुआ, विवेक उठा, तब तुम भीतर लौटने लगे, अंतर्यात्रा शुरू हुई- - तब अंतरात्मा । । हो तो तुम वही — दिशा बदली, आयाम बदला, तुम्हारा गुणधर्म बदला; अभी तुम घर के बाहर जाते थे, अब तुम घर की तरफ आने लगे; अभी संसार की तरफ मुंह था, अब पीठ हो गयी; अभी सन्मुख संसार था, अब तुम आत्म-सन्मुख हुए; | फिर पहुंच गये घर; फिर तुम अपने में लीन हो गये; फिर स्वभाव उपलब्ध हो गया - तब परमात्मा । अब न कुछ बाहर है, अब न कुछ भीतर है। द्वंद्व गया, दुई मिटी । द्वंद्वात्मकता खोयी, निर्द्वद्व हुए। निर्ग्रथ हुए। इसको महावीर कहते हैं मोक्ष - अवस्था । हरात्मा को अंतरात्मा बनाना है, अंतरात्मा को परमात्मा बनाना है। परमात्मा तुम हो ही, सिर्फ यात्रा के रुख बदलने हैं, दिशा बदलनी है। जो तुम हो, वही हो सकते हो। जो तुम हो ही, वही होओगे। लेकिन अगर विपरीत चले जाओ, मिथ्यात्व में खो जाओ, तो तुम रहोगे भी परमात्मा, लेकिन अपने को कीड़ा-मकोड़ा समझने लगोगे; आदमी, स्त्री, हिंदू, मुसलमान, ब्राह्मण, शूद्र समझने लगोगे । रहोगे परमात्मा और किसी छोटी-सी चीज से अपना संबंध बना लोगे; कहोगे — यही मैं हूं, यही मैं हूं, यही मैं हूं ! लौटो भीतर की तरफ ! ध्यानस्थ होओ ! धीरे-धीरे तुम्हारी दृष्टि क्षुद्र से छूटेगी। जैसे अपनी तरफ लौटोगे, अचानक पाओगे : न तो मैं शरीर हूं न मैं मन हूं, न मैं हिंदू न मैं मुसलमान, न ब्राह्मण न शूद्र, न जैन न ईसाई, न स्त्री न पुरुष, न गरीब न अमीर, न सुखी न दुखी । जैसे-जैसे भीतर आने लगोगे, द्वंद्व छूटने लगे-दूर खोने लगे, आकाश में कहीं ! रह गए स्वप्नवत । स्मृति रह गयी। फिर एक दिन अचानक घर में प्रवेश हो जाएगा। तुम अपने स्वरूप में थिर हो जाओगे । स्वरूप में थिर हो जाना स्वस्थ हो जाना है। स्वस्थ यानी स्वयं में स्थित ! परमात्मा हुए, परमात्मा प्रगट हुआ। महावीर की विचार सरणी में परमात्मा प्रकृति के प्रारंभ में नहीं है। परमात्मा, जब प्रकृति का परिपूर्ण उन्मेष और विकास हो जाता है, तब है। और परमात्मा एक नहीं है; उतने ही परमात्मा हैं, जितने जीवन-बिंदु हैं। हर बिंदु सागर हो जाता है। उतने ही सागर हैं जितने बिंदु हैं। इसलिए परमात्मा, महावीर ही दृष्टि में, कोई तानाशाही की धारणा नहीं है; बड़ी लोकतांत्रिक धारणा है। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है । प्रत्येक व्यक्ति की नियति परमात्मा है, स्वभाव परमात्मा है । महावीर ने तुम्हारे भीतर के परमात्मा को पुकारा है - किसी परमात्मा की पूजा के लिए नहीं; किसी परमात्मा की अर्चना के लिए नहीं - अपने परमात्मा को पाने के लिए। और जब तक कोई परमात्मा की अवस्था को उपलब्ध न हो जाए... ध्यान रखना, परमात्मा अवस्था है, व्यक्ति नहीं... तब तक जीवन दुख से भरा रहता है; तब तक अंधेरी रात नहीं टूटती । उठो! चलें ! उस सूरज की खोज करें जो तुम्हारे भीतर छिपा है! जागो ! थोड़ा हलन चलन करो ! थोड़ी गति करो! उसकी खोज करो जो तुम्हारे भीतर पड़ा ही है; जिसे तुम सदा ही अप भीतर छिपाये रहे हो, लेकिन नजर नहीं दी, उस तरफ आंख नहीं फेरी। जैसे ही तुम भीतर की तरफ नजर को फेरते हो, मिथ्यात्व सरकने लगता है, खोने लगता है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध-गहन बोध मुक्ति है जैसे दीये के जलने पर अंधेरा विसर्जित होता है-सम्यकत्व का जन्म होता है। और जब तुम पहंच गये, तो वहां न मिथ्यात्व है न सम्यकत्व, दोनों द्वंद्व गये। फिर वहां तो केवल-ज्ञान, केवलत्व, कैवल्य है। आज इतना ही। 63 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रवचन धर्मः निजी और वैयक्तिक Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार कोई आठ वर्षों से आपको सुनती-पढ़ती हूं; लेकिन सिर्फ आप ही हैं सामने।...रोना ही रोना! यह क्या है? M शास्त्रीय परंपरा में संन्यासी काम-भोग से विमुख और प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता है; लेकिन आपके संन्यास में विरक्ति पर जोर क्यों नहीं?... ARE क्या भक्ति-मार्ग में बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है अथवा नहीं? R यदि इस पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है। ऐसा क्यों हुआ, कृपया समझाएं! wwwjainelibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्न: कोई आठ वर्षों से आपको सुनती हूं, पढ़ती हूं; लेकिन सब भूल जाता है, सिर्फ आप ही सामने होते हैं। और अब तो रोना ही रोना रहता है। घर पर आपके चित्र के सामने रोती हूं, यहां प्रवचन में रोती हूं। यह क्या है ? तेरी यारी में बिहारी सुख न पायो री ! प्रेम जलाता है। और प्रेम में जो जलने को राजी है वही प्रार्थना उपलब्ध भी होता है। प्रेम दुख देता है, क्योंकि प्रेम काटता है । जैसे मूर्तिकार पत्थर को तोड़ता है, छैनी-हथौड़ी से; लेकिन तभी प्रतिमा का आविर्भाव होता है। जो प्रेम के दुख से डर गया, वह अप्रेम के नर्क में जीयेगा सदा । जिसने प्रेम की पीड़ा को स्वीकार कर लिया, तो दुख जल्दी ही सुख में रूपांतरित होगा - और ऐसे सुख में जिसका कोई अंत नहीं । आंसुओं से भरा है रास्ता सत्य की खोज का, लेकिन एक-एक आंसू के बदले में करोड़ करोड़ फूल खिलते हैं। ये आंसू साधारण आंसू नहीं हैं। जिसने पूछा है उसे मैं जानता हूं। ये आंसू साधारण आंसू नहीं हैं। और इन आंसुओं का दुख साधारण दुख भी नहीं है। इन आंसुओं में एक रस है । इनको आंसू ही मत समझना, अन्यथा चूक हो जाएगी। दूसरे समझें तो समझने देना। खुद इन आंसुओं को अगर आंसू ही समझ लिया तो बड़ी चूक हो जाएगी। यह तो अनिवार्य चरण है। परमात्मा की खोज में दो ही उपाय हैं। या तो आंसू बिलकुल सूख जायें, आंख जरा भी गीली न रहे, गीलापन ही न रहे, लकड़ी सूखी हो जाये कि आग लगाओ तो धुआं न उठे, लपट ही लपट हो। वैसा महावीर का मार्ग है। वहां आंसू सुखाने हैं। वहां आंसुओं को बिलकुल वाष्पीभूत कर देना है। वहां प्रेम को बचाना नहीं; वहां प्रेम की सारी संभावनाओं को समाप्त कर देना है— ताकि तुम ही बचो, निपट अकेले; बाहर जाने का कोई द्वार भी न बचे। क्योंकि प्रेम बाहर ले जाता है। संसार में भी ले जाता है, परमात्मा में भी ले जा सकता है; लेकिन साधारणतः तो संसार में ही ले जाता है, निन्यान्नबे मौके पर तो संसार में ही ले जाता है महावीर का मार्ग कहता है, इन आंसुओं को सुखा डालो। न कोई भक्त न कोई भाव, न कोई पूजा न कोई प्रार्थना - बुझा दो ये सब दीप अर्चना के निपट अपने अकेलेपन में राजी हो जाओ। तो भी परमात्मा प्रगट होता है । इस अति पर भी परमात्मा प्रगट होता है ! फिर दूसरा मार्ग है नारद का, चैतन्य का, मीरा का । जिसने पूछा है उसका नाम भी मीरा है। वहां आंसू ही आंसू हो जाओ। वहां तुम न बचो। पिघलो और बह जाओ, कि पीछे कोई रोनेवाला न बचे, रुदन ही रह जाये। इस तरह गलो कि जरा-सी भी गांठ न रह जाये भीतर। सब आंखों के बहाने बह जाये। सब आंसुओं में ढल जाये। तो भी परमात्मा तक पहुंचना हो जाता है। क्योंकि जब सब बह जाता है, तुम बचते ही नहीं, तो परमात्मा ही बचता है। या तो तुम्हीं बचो और कुछ न बचे, तो परमात्मा मिलता है। या और सब बचे, तुम न बचो, तो परमात्मा मिलता है। तो तुम्हारा आत्मभाव इतना विराट हो जाये कि सब उसमें या 69 www.jainelibrary org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 समा जाये; या तुम्हारा आत्मभाव इतना शून्य हो जाये कि सबमें | हमने इस इश्क में क्या खोया है, क्या पाया है समा जाये। जुज तिरे और को समझाऊं तो समझान सकू। महावीर का मार्ग आत्मा को सुदृढ़ करने का मार्ग है। नारद का। | उस परम प्यारे के अतिरिक्त किसी और को समझा भी न मार्ग आत्मा को विसर्जित कर देने का मार्ग है। इसलिए घबड़ाओ सकोगे। कोई समझेगा भी नहीं, क्योंकि यह सौदा बड़े पागलपन मत। हंसकर रोओ, रोकर नाचो, नाचकर रोओ। नृत्य को | का है। भक्त का रास्ता दीवाने का रास्ता है। उत्सव समझो। महावीर का रास्ता अत्यंत विचार का रास्ता है, अत्यंत विवेक हम पे मुश्तरका हैं अहसान गमे-उलफत के का, गणित का। वहां चीजें साफ-सुथरी हैं। इसलिए इतने अहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकं . जैन-शास्त्रों में रस नहीं है। पढ़े जाओ, सुने जाओ, मरुस्थल ही हमने इस इश्क में क्या खोया है, क्या पाया है मरुस्थल है। जैन शास्त्रों में रस नहीं है—हो नहीं सकता। वह जुज तिरे और को समझाऊं तो समझा न सकूँ। मार्ग वैराग्य का है, विरसता का है। रस है तो भक्ति के शास्त्रों हम पे मुश्तरका हैं अहसान गमे-उलफत के! प्रेम की पीड़ा के | में। वहां तुम्हें कोई सूखी जमीन न मिलेगी। वहां सब कमलों से इतने अहसान हैं, प्रेम के दुख ने इतना दिया है-गमे-उलफत। ढंका है। लेकिन वे कमल मुफ्त नहीं मिलते। वे कमल यूं ही हम पे मुश्तरका हैं अहसान गमे-उलफत के नहीं खिलते; जब कोई सब गंवाता है, तब खिलते हैं। तो इतने अहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ।। घबड़ाना मत। अब रोने को ही साधना समझना। कंजसी से मत अनंत है उनका उपकार। एक-एक आंसू ने भक्त को निखारा | रोना। रोए और कंजूसी से रोए तो व्यर्थ रोए। दिल भरकर रोना। | है, स्वच्छ किया है, ताजगी दी है, निर्दोष बनाया है। समग्रता से रोना। और रोने को प्रार्थना समझना, अहोभाव एक-एक आंसू जहर को लेकर बाहर हो गया है, पीछे अमृत समझना। ये आंसू कम ही सौभाग्यशालियों की आंखों में आते ही छूट गया है। हैं। बहतों की आंखें तो पथरा गयी हैं, नकली हो गयी हैं। हम पे मुश्तरका हैं अहसान गमे-उलफत के मैंने सुना है, एक करोड़पति कंजूस की एक आंख नकली थी, इतने अहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकू पत्थर की थी। एक आदमी भीख मांगने आया था। कंजूस ने हमने इस इश्क में क्या खोया है, क्या पाया है . कभी किसी को भीख न दी थी। लेकिन उस दिन कुछ शुभ मुहूर्त जुज तिरे और को समझाऊं तो समझान सकू। में आ गया था भिखारी। कंजूस कुछ प्रसन्न था। कोई बड़ी और कोई समझ भी न सकेगा। संपदा हाथ लग गयी थी। अभी-अभी खबर मिली थी तो बड़ा बहुत कुछ खोया भी जाता है प्रेम में। बहुत कुछ पाया भी जाता | प्रफुल्लित था। तो रोज से उस दिन सदय था। कभी किसी है प्रेम में। खोना मार्ग है पाने का। खोने से डरे तो पाने से वंचित भिखारी को कुछ न दिया था। उस दिन भिखारी से कहा, रह जाओगे। पहले तो खोया ही जाता है; पाना तो बाद में घटता 'अच्छा दूंगा कुछ, लेकिन पहले एक शर्त है। क्या तू बता है। पहले तो खोना ही खोना है। सौदा पहले तो घाटे का है। सकता है कि मेरी कौन-सी आंख असली है, कौन-सी नकली जब सब खो जाता है, तब मिलन के क्षण आते हैं, तब वर्षा होती है?' उस भिखारी ने देखा और उसने कहा कि बायीं असली है। जैसे गर्मी में सब सूख जाता है, धरती तपती है, वृक्ष रूखे हो होनी चाहिए, दायीं नकली। चकित हुआ धनपति। उसने कहा, जाते, पत्ते गिर जाते, वृक्ष नग्न हो जाते, धरती प्यासी और 'कैसे तूने जाना?' तो उसने कहा, 'नकली आंख में थोड़ी-सी रोती-तब मेघ-मल्हार, तब मेघ घिरते हैं, तब आषाढ़ के करुणा मालूम पड़ती है, थोड़ी दया का भाव मालूम पड़ता है, दिवस आते और वर्षा होती है। इससे पहचाना। असली तो बिलकुल पथरा गयी है।' पहले तो खोना ही खोना है। खोना पाने की पात्रता है। पहले - बहुत हैं जिनकी आंखें पथरा गयी हैं, जिनके हृदय सूख गये हैं, तो खाली होना है, इसलिए खोना पड़ेगा। पात्र जब पूरा खाली रसधार नहीं बहती। गंगा खो गयी है, रूखे-सूखे रेत के पहाड़ होगा तो बरसेगा परमात्मा। खड़े रह गये हैं। कहीं कोई अंकुर नहीं फूटता, कोई पक्षी गीत 7o Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक नहीं गाता। सौभाग्यशाली हैं वे जिनकी आंखें अब भी तर हो वियोगी होगा पहला कवि! सकती हैं, भीग सकती हैं। उनकी आत्मा के भीगने का अभी -यह वियोग रोया है। उपाय है। तो अगर रोना आता हो तो आने देना, सहयोग करना, आह से उपजा होगा गान! साथ देना, संगी बनना। लड़-लड़कर मत रोना। -और जल्दी ही तुम्हारे आंसुओं से गीत उतरने लगेंगे। झिझक-झिझककर मत रोना। सकुचाना मत। शर्माना मत। मीरा खूब रोयी। इसलिए तो मीरा के गीतों में जो है, वह नहीं तो चूक हो जायेगी। महाकवियों के गीतों में भी नहीं। मीरा के गीत भाषा और अगर आंसुओं से तुम पूरे बह जाओ तो कुछ कहने को नहीं व्याकरण की दृष्टि से तुकबंदियां हैं। हृदय की दृष्टि से तो वैसे बचता। फिर कोई प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। फिर कोई गीत कभी-कभार पृथ्वी पर उतरे हैं, किसी दूसरे लोक से आये शास्त्र आवश्यक नहीं है। फिर तुम्हारे आंसू सब कह देंगे—जो हैं। बहुतों ने गीत लिखे हैं, लेकिन जैसे मीरा के गीत हृदय-हृदय नहीं कहा जा सकता वह भी; जो कहा जा सकता है वह तो | में उतरे हैं, वैसे किसी के गीत कभी नहीं उतरे। न तो भाषा, न निश्चित ही। फिर तो तुम्हारे आंसू सब गा देंगे—जो गेय है, छंद-शास्त्र, न काव्य की मात्राओं का कुछ हिसाब है, न संगीत अगेय है, सभी गा देंगे; जो नहीं गाया जा सकता है, अगेय है, का कोई गणित है-पर कुछ और है जो इन सब के पार है। यह वह भी गा देंगे। फिर तो तुम्हारे आंसुओं की धुन में सब प्रगट हो व्यथा मीरा की अपनी नहीं है अब! जैसे मीरा के कंठ से सारी जाएगा। तुमसे ज्यादा ढंग से कह देंगे वे, परमात्मा से क्या मनुष्यता, सारा अस्तित्व अपनी पीड़ा को प्रगट किया है। कहना है! जब आंसू तुम से मुक्त हो जाते हैं, और सबके हो जाते हैं, तो वियोगी होगा पहला कवि तुम समाप्त हुए। अब तुम कोई छोटी-मोटी धारा न रहे जो सूख आह से उपजा होगा गान जाती है। वर्षा, गर्मी में...भर जाती है वर्षा में, वर्षा में बाढ़ आ उमड़कर आंखों से चुपचाप जाती है, गर्मी में पता भी नहीं चलता कहां खो गई। जब तुम्हारी बही होगी कविता अनजान व्यथा सबकी व्यथा से जुड़ जाती है, तो तुम सागर हो गए। तब सारा काव्य आंसुओं का है। हंसी से कोई काव्य निर्मित होता तुम्हारे भीतर सिर्फ व्यथा ही नहीं रहती, व्यथा के गीत उठते हैं, है? सारा काव्य आंसुओं का है; क्योंकि हंसी बड़ी उथली है, विरह के गीत उठते हैं। ऊपर-ऊपर है, खोखली है। कोई हंसना आंसुओं की गहराई सारा भक्ति-शास्त्र विरह है, वियोग है। और भक्त ने विरह नहीं छू पाता। हंसना ऊपर-ऊपर लहर की तरह आता है, चला को दुर्भाग्य नहीं माना है, सौभाग्य जाना है। भक्त ने अपनी पीड़ा जाता है। आंसू कहीं गहरे में सघन हो जाते हैं। तो आंसू तो को भी स्वर्णिम माना है। है भी स्वर्णिम, क्योंकि जब सब खो गहराई में उतरने की सुविधा है, सौभाग्य है। जायेगा, जब कुछ भी न बचेगा, केवल एक प्यास बचेगी; एक और धीरे-धीरे, पहले तो आंसू अपने लिए बहते हैं, फिर आंसू उत्तप्त हृदय बचेगा-तभी उसी क्षण में, उसी परम सौभाग्य के औरों के लिए भी बहने लगते हैं। पहले-पहले तो कारण से क्षण में, उसी धन्यता की घड़ी में परमात्मा का अवतरण होता है। बहते हैं, फिर अकारण बहने लगते हैं। जब अकारण बहने | 'कोई आठ वर्षों से आपको सुनती हूं, पढ़ती हूं; लेकिन सब लगते हैं, तब उनका मजा ही और है। भूल जाता है, सिर्फ आप ही सामने होते हैं।' अश्रु अपनी ही व्यथा का निर्वसन तन शभ हो रहा है। मैं क्या कहता है. उसका हिसाब वे रखें जो गीत जग भर के दुखों की आत्मा है। मुझे नहीं समझ पाते। उनके हाथ कूड़ा-कर्कट पड़ेगा। वे पहले तो अपनी ही पीड़ा से बहते हैं, लेकिन जल्दी ही तुम उच्छिष्ट को इकट्ठा कर लेंगे। जैसे भोजन की टेबल के पाओगे कि तुम्हारी पीड़ा सारी मनुष्यता की पीड़ा है। जल्दी ही | आसपास थोड़े टुकड़े गिर जाते हैं, ऐसे ही शब्द हैं। टुकड़े तुम पाओगे: तुम्हारी पीड़ा सारे अस्तित्व की पीड़ा है। यह तुम | भोजन से गिर गये-रोटी के, साग-सब्जी के, मिष्ठान्न ही नहीं रोए हो, यह परमात्मा से बिछुड़ापन रोया है। के-ऐसे ही शब्द हैं। क्योंकि जो मैं हूं वह शब्दों में प्रगट नहीं Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सुत्र भागः हो सकता। शब्द बड़े छोटे हैं। तो शभ है कि शब्द भूल जायें दूर होता है। किनारे के पास कहीं तफान होते हैं। लेकिन प्रेम के और मैं याद रहूं। अशुभ होगा कि शब्द याद रहें और मैं भूल | नियम उलटे हैं। इस संसार के जो नियम हैं, प्रेम के नियम उससे जाऊं। बहुतों को यही होता है : शब्द याद रह जाते हैं, मैं भूल | बिलकुल उलटे हैं। यहां अगर नदी पार करनी हो तो डूबना मत। जाता हूं। कुछ मिला उन्हें, लेकिन जहां बहुत मिल सकता था, प्रेम की दुनिया में अगर नदी पार करनी हो तो डूबने का अवसर वहां अपने ही हाथ वे क्षुद्र को इकट्ठा करके आ गये। जहां हीरे | आ जाये तो चूकना मत। मिल सकते थे वहां से कंकड़-पत्थर बीन लाये। डूबा जो कोई आह, किनारे पै आ गया! अच्छा है! भूल ही जाओ। जो सुना है उसे याद रखने की डूबते ही किनारा मिल जाता है। डूबना ही किनारा है और जरूरत नहीं है। | कोई किनारा नहीं। इबना ही मंजिल है: और कोई मंजिल नहीं। अगर मुझ से मिलन हुआ है, अगर क्षणभर को भी मुझे देखा | क्योंकि डूबे कि तुम मिटे। तुम मिटे कि वही रह गया, जो है, जो है, मुझमें झांका है, तो क्या मैं कहता हूं, इसकी क्या फिक्र! सदा से है। तुम जरा ऊपर-ऊपर की धूल-धवांस हो, उस पर चाहें तो तुमको चाहें, देखें तो तुमको देखें छा गया जो सनातन है, शाश्वत है। डूबे कि धूल-धवांस बह ख्वाहिश दिलों की तुम हो, आंखों की आरजू तुम। गई; बचा वही जो सदा था—तुम्हारे होने के पहले था, तुम्हारे जिसे दर्शन हुआ, जिसे दिखाई पड़ने लगा, वह कानों की फिक्र होने के बाद होगा। बचा वही जो शाश्वत है, कालातीत है। छोड देता है। जब आंखें भरने लगीं तो कान की कौन फिक्र | डूबा जो कोई आह, किनारे पे आ गया! करता है! तुगयाने बहरे इश्क है साहिल के आसपास। सनने पर तो हम तब भरोसा करते हैं जब हम अंधे होते हैं और ये जो तफान हैं, प्रेम की आंधियां हैं, ये किनारे के बहत देखने का उपाय नहीं होता। सुनने को तो हम तब पकड़ते हैं, आसपास हैं, इनसे घबड़ाना मत। और जब आंधी तुम्हारे द्वार मजबूरी में, क्योंकि देख नहीं पाते, अंधेरे में टटोलते हैं। कान से पर दस्तक दे तो निकल आना, डूबने को राजी हो जाना, आंधी से ही जीना पड़ता है अंधे को। पर जिसके पास आंख है वह आंख लड़ना मत। से जीता है। फिर कौन फिक्र करता है कान की! 'सब भूल जाता है, सिर्फ आप ही सामने होते हैं।' आंख से ही जीयो! तो तुम डूबोगे। कान से जो जीते हैं, वे डूब तो वही हो रहा है जो होना चाहिए। नहीं पाते। ज्यादा से ज्यादा इतना हो सकता है कि मुझे सुनते | 'और अब तो रोना ही रोना रहता है। घर आपके चित्र के समय तुम पर थोड़ी-सी बूंदें बरस जायें, पर वे तुम्हें डुबा न सामने रोती हूं, यहां प्रवचन में रोती हूं। यह क्या है?' पायेंगी; घर जाते-जाते धूप में उड़ जायेंगी। लेकिन तुम अगर प्रश्न मत उठाओ, रोओ। प्रश्न उठाया कि रोना बंद हुआ। मुझ में डूबो, मुझे अगर देख पाओ...। इसलिए हमने इस देश क्योंकि प्रश्न जहां से आता है वहां से रोना नहीं आता। प्रश्न में तत्व-चिंतन की धारा को दर्शन कहा है-श्रवण नहीं, दर्शन आता है बुद्धि से, रोना आता है हृदय से। प्रश्न उठाया कि बुद्धि कहा है। कुछ बात देखने की है। कुछ आंख से जुड़ने की बात ने हृदय के बीच में बाधा दी। प्रश्न उठाया कि बुद्धि ने कहा, यह है। मेरी बात सुनकर तुम मुझ तक आ जाओ, काफी है इतना; | क्या हो रहा है? प्रश्न उठाया कि बुद्धि ने अड़चन शुरू की, कि फिर मुझे देखो, फिर सुनने में ही मत उलझे रह जाओ। बुद्धि ने पहरा बांधा, कि बुद्धि ने कहा, 'बंद करो यह पागलपन, डूबा जो कोई आह, किनारे पै आ गया यह दीवानगी! सम्हलो, होशियार बनो।' तुगयाने बहरे इश्क है साहिल के आसपास। । अब यहीं तुम्हें खयाल रखना है। अगर महावीर के मार्ग पर जो कोई डूबा वह किनारा पा गया। क्योंकि कुछ ऐसा मामला | चलते हो तो सम्हलो, होशियार बनो। वहां होश आखिरी गण है कि इश्क का जो तूफान है, प्रेम का जो तूफान है, वह ठीक है। अगर नारद के मार्ग पर चलते हो, मीरा के और चैतन्य के, किनारे के पास है। साधारण तूफान तो किनारे से दूर होते | तो वहां बेहोशी ही मार्ग है। वहां होशियार मत बनना। वहां हैं-बहुत दूर होते हैं। जितना बड़ा तूफान हो उतना ही किनारे से | होशियार बने कि गंवाया। और अपनी-अपनी चुन लेना राह। न 1721 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म: निजी और वैयक्तिक | महावीर से कुछ लेना है, न नारद से कुछ लेना है—देखना है कि जिसने पूछा है, मैं जानता हूं, रोना उसके लिए मार्ग है। भूल अपनी मौज कहां, हम कहां बहे जाते हैं सरलता से, जहां कोई जाओ महावीर को। गुण गाओ प्रभु के। नाचो मस्ती में! बेहोशी उपाय नहीं करना पड़ता, जहां हम छोड़ देते हैं और धारा ले में डूबो! और कुछ भी बचा न रखो। जरा भी कृपणता मत करना चलती है। अगर संकल्प तुम्हारी वृत्ति हो तो रोकना; तो हृदय क्योंकि परमात्मा तुम्हें पूरा का पूरा चाहता है। को तोड़ना और बुद्धि को जगाना; तो हृदय को पोंछ देना वहां त्याग है तो सर्वस्व का है। वहां कुछ-कुछ देने से, बिलकुल कि राग का शेष भी न रहे, न आंसू हों, न हंसी हो। | अंश-अंश देने से काम न चलेगा। वहां कुछ और देने से काम न तुमने देखा महावीर की प्रतिमा पर? थिर है। मध्य में है। न चलेगा, जब तक तुम स्वयं को ही न दे डालो-अशेष भाव से, | हंसती है न रोती है। मूर्तिवत। मूर्ति ही मूर्तिवत नहीं है, महावीर | बिना पीछे कुछ बचाये त थे। वे ठीक बीच में खड़े थे होश को सम्हालकर। रोओ! रोना शुभ है। अगर सरलता से आता है तो बड़ा शुभ वह भी मार्ग है। जिनको संकल्प में रस हो, उस मार्ग पर जायें। है। अगर न आता हो तो नाहक कोशिश मत करना। मिर्ची उससे भी लोग पहुंचे हैं। इत्यादि पीसकर आंखों में मत आंजना। लेकिन अगर तुम्हें संकल्प में अड़चन पड़ती हो तो घबड़ाना | वैसे भी लोग हैं। कोई जबर्दस्ती संकल्प की चेष्टा करने लगता मत, संकल्प ने कोई ठेका नहीं लिया। तुम जिस ढंग से हो, है, कोई जबर्दस्ती समर्पण की चेष्टा करने लगता है। जहां भी परमात्मा तुम्हें उस ढंग से भी स्वीकार करता है। इसलिए तो हिंदू तुम्हें लगे जबर्दस्ती करनी पड़ रही है, वहीं सचेत हो जाना कि कहते हैं, उसके हाथ अनेक हैं-सहस्रबाहु। एक ही हाथ होता | अपना मार्ग न रहा। जहां तुम्हें लगेः अरे खिलने लगे, सरलता तो बड़ी मुश्किल हो जाती; किसी एक को उठा लेता, बाकियों से पंखुड़ियां खिलने लगीं, मस्ती आने लगी, चित्त प्रसन्न और का क्या होता। दो हाथ होते, दो को उठा लेता। उसके उतने ही प्रफुल्लित होने लगा-तब तुम जानना कि ठीक-ठीक रास्ते पर हाथ हैं जितने तुम हो। एक-एक के लिए एक-एक हाथ है। हो। तुम्हारा अंतर-यंत्र प्रतिपल तुम्हें बता रहा है, कसौटी दे रहा | उसने तुम्हारे लिए जगह रखी है। तुम्हारा हाथ तुम्हारे लिए मौजूद है। जो भोजन तुम्हें रास आता है, उसे खाकर प्रसन्नता होती है। है। तुम जरा अपने को पहचानो। और इस भूल में कभी मत | जो भोजन तुम्हें रास नहीं आता, उसे खाने के बाद अप्रसन्नता पड़ना कि तुम दूसरे के मार्ग से पहुंच सकोगे। अगर तुमने होती है। जो बात तुम्हें रास आ जाये वही तुम्हारा धर्म है। विपरीत मार्ग चुन लिया जो तुम्हारी सहज वृत्ति के अनुकूल न धर्म की परिभाषा महावीर ने की है : बत्थु सहाओ धम्म। वस्तु आता था, तो तुम उलझन में पड़ोगे, तुम झंझट में उलझोगे। तुम का स्वभाव धर्म है। बड़ी प्यारी परिभाषा है। स्वभाव धर्म है। | अपने ऊपर व्यर्थ के अवसाद और संताप इकट्ठे कर लोगे। तुम तुम धर्म की फिक्र छोड़ो, स्वभाव की फिक्र कर लो। धर्म अपने को व्यर्थ की प्रवंचनाओं में, धोखों में, आत्म-वंचनाओं में पीछे-पीछे चला आयेगा। बहत नासमझ धर्म उलझा लोगे। तुम पाखंड में पड़ जाओगे। विमुक्ति तो बहुत दूर | और स्वभाव को पीछे घसीटते हैं। महावीर ने यह नहीं कहा कि रहा, तुम विाक्षप्त होने लगोगे। जो अपने से अनुकूल न गया, - धर्म स्वभाव है; महावीर ने कहा, स्वभाव धर्म है। बड़ा फर्क है वह विक्षिप्त होने लगता है। स्वयं के अनुकूल होना साधक की दोनों में। स्वभाव-जो अनुकूल आ जाये, जो प्रीतिकर लगे, पहली समझ है। जो प्रेयस है, जिसके पास आते ही तुम नाचने लगते हो, जिसके तो जो तुम्हें लगता हो, अनुकूल है; जो तुम्हें भाता हो, रुचता | पास होते ही गंध तुम्हें घेर लेती है-तुम्हारी ही सुगंध! हो; जो तुम्हारी रुझान में बैठ जाता हो-बस वही। न महावीर और पहले से ही ऐसे चलोगे, अपने स्वभाव के अनुकूल तो से कुछ लेना है, न नारद से कुछ लेना है-असली सवाल तो तुम्हें प्रयास न करना पड़ेगा। तुम्हें अपने घर लौटना है। झेन फकीर कहते हैं, अप्रयास से जो सध जाये वही सत्य है; अपनी राह पहचानना। और अपनी राह पहचानने का उत्तमतम | प्रयास से जो सधे, चेष्टा से जो सधे, उसमें कहीं कुछ गड़बड़ उपाय है : अपने थोड़े झुकाव को समझना। है। कली को फूल बनने में कोई अड़चन आती है? कली को 73 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 जिन सूत्र भाग : 1 खींच-खींचकर फूल बनाना पड़ता है? पौधों को जमीन से खींच-खींचकर बाहर निकालना पड़ता है? अपने से बढ़े चले आते हैं। कलियां लग जाती हैं। कलियां खिल जाती हैं, फूल बन जाते हैं। फूल बन जाते हैं, सुगंध बिखर जाती है - हवाओं में, आकाश की यात्रा पर निकल जाती है। सब चुपचाप होता चला जाता है। ऐसा ही आदमी भी है। पर आदमी की अड़चन यह है कि आदमी के पास सोच-विचार का यंत्र है, उससे अड़चन खड़ी होती है। जरा किसी गुलाब के पौधे को सोच-विचार का यंत्र दे दो, बस मुश्किल हो जायेगी। फिर गुलाब मुश्किल में पड़ा। फिर हजार अड़चनें खड़ी हो जायेंगी। क्योंकि वह सोचेगा, कितना बड़ा फूल चाहिए। पड़ोसी गुलाब से ईर्ष्या भी जगेगी। ईर्ष्या के साथ राजनीति पैदा होगी, महत्वाकांक्षा जगेगी कि मैं सबसे बड़ा गुलाब हो जाऊं । अब अगर वह बन गुलाब है तो बटन गुलाब है, सबसे बड़ा गुलाब हो नहीं सकता; लेकिन सबसे बड़े गुलाब होने की जद्दो जहद में बड़ी चिंता खड़ी होगी, रात तनाव रहेगा, नींद न आयेगी, दिनभर उदास रहेगा, गणित बिठायेगाः कैसे बड़ा हो जाऊं ! और डर यह है कि इस सब चिंता में जो ऊर्जा नष्ट होगी उससे वह वह भी न हो पायेगा जो हो सकता था। मनुष्य की तकलीफ यही है — होनी नहीं चाहिए थी । बुद्धि का अगर सदुपयोग हो तो तुम्हें सहयोग देगी, लेकिन दुरुपयोग हो रहा है। तुम जैन घर में पैदा हो गये अब तुम्हारी बुद्धि कहती है, तुम जैन हो। और तुम्हारी आंखें अगर आंसुओं से भरी हैं तो बड़ी कठिनाई होगी। महावीर के मंदिर में आंसुओं के लिए जगह नहीं है । उस मंदिर में आंसू पाप हैं, वर्जित हैं। तब तुम्हें कृष्ण का कोई मंदिर खोजना पड़े, जहां रोने की छुट्टी है; छुट्टी ही नहीं, जहां रोना साधन है। और शीत, यहां सब चीजें संतुलित हैं। दो पैर हैं, दो पंख हैं, ताकि संतुलन बना रहे। तो अगर तुम किसी भक्ति मार्गी के घर में पैदा हो गये और बचपन से ही तुमने नारद के सूत्र सुने कि भक्त भाव-विह्वल हो जाता है, रोमांचित हो जाता है, आंखें आंसुओं से भर जाती हैं, रोता है, उसके गीत गाता है, नाचता है, मदमस्त होता है, मतवाला हो जाता है अगर तुमने ये सुने और तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं आते, तुम क्या करोगे ? तुम जबर्दस्ती करोगे। तुमने बुद्धि का सदुपयोग न किया। अपने को देखो! तुम्हीं महत्वपूर्ण हो; न नारद न महावीर, न मैं न कोई और। तुम्हीं महत्वपूर्ण हो, क्योंकि तुम्हीं तुम्हारे गंतव्य हो । उपयोग कर लो जिसका उपयोग करना हो; लेकिन सदा ध्यान रखना, तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल उपयोग हो, तो तुम पहुंचोगे, नहीं तो भटक जाओगे। 'तेरी यारी में बिहारी सुख न पायो री !' बिहारी ने बड़े सुख में कहा है यह । तेरी यारी में बिहारी सुख न पायो री ! बड़े प्रेम में कहा है। यह उलाहना नहीं है, शिकायत नहीं है। यह प्रेमियों का खेल है, यह प्रेमियों की क्रीड़ा है। भक्त भगवान से कहता है कि तेरे प्रेम में कुछ सुख न मिला। भगवान ही भक्त के साथ थोड़े ही खेलता है, भक्त भी खेलता है! भगवान ही थोड़े ही मजाक करता है भक्त के साथ, भक्त भी करता है। जहां अपनापा वहां मजाक भी चलती है। बिहारी कोई शिकायत नहीं कर रहे हैं। एक पहेली दे रहे हैं परमात्मा को कि सुनो जी ! खूब उलझाया ! मगर तुम्हारे प्रेम में कुछ सुख न पाया ! लेकिन यह कोई दुख से निकली आवाज नहीं है । इस शब्द में पगे प्रेम को देखते हो ! तेरी यारी में बिहारी सुख न पायो री ! बड़े सुख में पगे शब्द हैं। | अब अगर तुम किसी भक्ति मार्गी के घर में पैदा हो गये, कृष्ण-मार्गी के घर में पैदा हो गये और तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं हैं— नहीं हैं तो तुम क्या करोगे ? परमात्मा ने तुम्हें वैसा नहीं चाहा। सभी रोनेवाले नहीं चाहिए, कुछ हंसनेवाले भी चाहिए। सभी समर्पणवाले नहीं चाहिए, कुछ संकल्पवाले भी चाहिए। | जीवन में विरोधों का संतुलन है। जितने यहां समर्पणवाले लोग हैं उतने ही यहां संकल्पवाले लोग हैं। जीवन संतुलन से चलता है। रात और दिन, अंधेरा और प्रकाश, . जीवन और मृत्यु, ग्रीष्म नहीं, उसकी याद में मिला दुख भी सुख है। उसकी राह पर मिले कांटे भी फूल हैं। उसके मार्ग पर मर भी जाना पड़े तो जीवन है। और उसके बिना जीवन भी मिले तो निरर्थक। उसके बिना फूल ही फूल मिलें और कांटे भी न हों तो उनसे मरण-शैय्या ही बनेगी। वे तुम्हारी कब्र पर चढ़ाये गये फूल सिद्ध होंगे। उसके मार्ग पर जो मिल जाये वही सुख है - दुख भी मिलें तो भी। उसके मार्ग पर जा रहे हैं ! तुमने कभी किसी प्रेमी को अपनी प्रेयसी की तरफ जाते देखा ! Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक रास्ते में गड़े कांटों की शिकायत करता है? पता भी नहीं तो विज्ञान की परंपरा बनती है, ट्रेडीशन होती है। धर्म की कोई चलता। गिर पड़े, चोट खा जाये, लहूलुहान हो जाये, तो भी परंपरा नहीं होती। महावीर को ज्ञान उपलब्ध हुआ, इससे तुम पता नहीं चलता। सोचते हो, तुम्हें खोजना न पड़ेगा? बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ, तुलसीदास, कथा कहती है, अपनी पत्नी के प्रेम में सांप को इससे क्या तुम सोचते हो बात खतम हो गई, अब तुम पढ़ लोगे पकड़कर चढ़ गये; समझे कि रस्सी है। मुर्दे की लाश का सहारा | धम्मपद ? जैसे आइंस्टीन की किताब को पढ़कर कोई सापेक्षता लेकर नदी पार उतर गये; समझे कि कोई बहती हुई लकड़ी है। का सिद्धांत समझ लेगा, क्या वैसे ही तुम कृष्ण की गीता पढ़कर उसकी दीवानगी में जो ड्बे हैं, उन्हें कुछ दुख, दुख मालूम नहीं कृष्ण के सिद्धांत को समझ लोगे, या महावार के वचन पढ़कर होता। दुख भी सुख है उसके मार्ग पर। संसार के मार्ग पर सुख महावीर को समझ लोगे? नहीं, तुम्हें फिर-फिर खोजना होगा। भी दुख हो जाते हैं। प्रभु के मार्ग पर दुख भी सुख हो जाते हैं। इसे जरा समझना। फिर-फिर खोजना होगा। जो चीज परंपरा यह आध्यात्मिक जीवन की कीमिया है. रसायन है। | बन जाती है उसको दुबारा नहीं खोजना होता; खोज ली गई, बात खतम हो गई। दूसरा प्रश्न: शास्त्रीय परंपरा से संन्यासी माया और धर्म परंपरा बनता ही नहीं। उसका प्रत्येक व्यक्ति को पुनः पुनः काम-भोग से विमुख होकर प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता आविष्कार करना होता है। जो बुद्ध ने खोजा वह बुद्ध का है: योग और भोग परस्पर विरोधी जाने जाते हैं। लेकिन अनुभव है। इतनी ही हमें मिल सकती है उनसे खबर कि आपके संन्यास में भोग से विरक्ति पर जोर नहीं है। अतः कृपा खोजनेवाले खोज लेते हैं-बस इतना आश्वासन। सत्य नहीं कर अपने संन्यास की धारणा को स्पष्ट करें! मिलता, सत्य का आश्वासन मिलता है। सत्य नहीं मिलता, सत्य भी संभव है, इसकी संभावना पर भरोसा मिलता है। धर्म का परंपरा से कोई संबंध नहीं है। महावीर ने खोजा, कृष्ण ने खोजा, क्राइस्ट ने खोजा, इससे हमें परंपरा यानी वह जो मर चुका। परंपरा यानी पिटी-पिटाई केवल इतनी खबर मिलती है कि हम यूं ही व्यर्थ खोज में नहीं लकीर। परंपरा यानी अतीत के चरण-चिह्न। अतीत जा चुका, लगे हैं, मिल सकता है। बस, इतनी श्रद्धा मिलती है। सत्य नहीं चरण-चिह्न रह गये हैं, राहों पर बने। मिलता, इतना आत्म-भरोसा मिलता है कि हम यूं ही अंधेरे में धर्म परंपरा नहीं है। धर्म तो नित-नूतन है—यद्यपि चिर | व्यर्थ नहीं टटोल रहे हैं, द्वार है; क्योंकि कुछ लोग निकल गये। पुरातन भी। मगर धर्म पुराना नहीं है, परंपरा नहीं है। इसलिए तो कुछ जो भीतर थे बाहर हो गये हैं, तो हम भी हो सकेंगे। लेकिन धर्म का शिक्षण नहीं हो सकता; परंपरा होती तो शिक्षण हो इससे यह मत सोचना कि उनकी किताब पढ़ ली और चल पड़े सकता था। गणित की परंपरा है। विज्ञान की परंपरा है। द्वार खोजकर और निकल पड़े बाहर। द्वार तुम्हें अपना पुनः इसलिए विज्ञान का शिक्षण हो सकता है। खोजना पड़ेगा। आइंस्टीन ने एक खोज कर ली, सापेक्षता के सिद्धांत की, तो इसलिए धर्म की कोई परंपरा नहीं बनती। और धर्म का कोई अब कोई हर आदमी को खोजने की जरूरत नहीं है: अब परंपरा शिक्षण नहीं हो सकता। धर्म क्रांति है, परंपरा बन गई। अब तो सिद्धांत एक दफा खोज लिया गया। अब ऐसा नहीं-रिवोल्यूशन! और जिस पर घटती है, बस उस पर ही थोड़े है कि हर विद्यार्थी जो पढ़ने जायेगा विश्वविद्यालय में घटती है। उसको आइंस्टीन के सिद्धांत को फिर-फिर खोजना होगा। बात जैसे समझो, तुम्हें अगर प्रेम नहीं हुआ किसी से, तो तुम क्या खतम हो गयी। खोज पूरी हो गयी। एक आदमी ने खोज दिया, | खाक जानोगे कि प्रेम क्या है! प्रेम-शास्त्र लिखे पड़े हैं, फिर परंपरा बन गयी। अब दूसरा तो सिर्फ पढ़ लेगा। आइंस्टीन पुस्तकालय अटे पड़े हैं। तुम जाकर पढ़ लो, मजनू को को जो खोजने में वर्षों लगे होंगे, वह अब किसी विद्यार्थी को क्या-क्या हुआ, लैला को क्या-क्या हुआ, शीरी-फरिहाद और पढ़ने में घंटे भी न लगेंगे। हीर-रांझा-लेकिन इससे कुछ होगा न! ख Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 पढ़ी-लिखी बात कहीं भी जायेगी न, हृदय में छिदेगी न, तीर कोई सुविधा नहीं है। जो हुआ है वह आंतरिक है; उसे बाहर लगेगा न। तुम वैसे के वैसे खाली लौट आओगे, पांडित्य से लाकर प्रगट करने का कोई उपाय नहीं है। जो हुआ है वह इतने भरकर। हां, प्रेम पर अगर कोई कहेगा, तो तुम प्रवचन दे गहन में हुआ है कि उसकी प्रदर्शनी नहीं सजाई जा सकती, कि सकोगे। हां, प्रेम पर कोई कहेगा, तुम पी एच. डी. कर सकोगे। जो भी आयें देख लें। लेकिन प्रेम तुम्हारे जीवन में कहीं भी न होगा। प्रेम तो तुम करोगे | इसीलिए तो दुनिया में इतने परम बुद्धपुरुष हुए, लेकिन फिर तो होगा। प्रेम की कोई परंपरा नहीं होती। प्रेम तो हर व्यक्ति को भी नास्तिकता नहीं मिटती। मिट नहीं सकती, क्योंकि नास्तिक अपना ही खोजना होता है-निजी, वैयक्तिक। यह कह रहा है कि हमें दिखला दो। नास्तिक यह कह रहा है, और अच्छा है कि प्रेम की परंपरा नहीं होती; नहीं तो सोचो, धर्म को परंपरा बना दो। अब यह बड़े मजे की बात है : जिनको कैसा दुर्भाग्य होता, कैसे दुर्दिन आते! लोग प्रेम की किताब पढ़ | तुम धार्मिक कहते हो वे कहते हैं, धर्म परंपरा है। मैं उनको लेते और समाप्त हो जाते! नास्तिक कहता हूं। नास्तिक भी तो यही कह रहा है कि धर्म को सोचो थोड़ा, परमात्मा ऐसे उधार मिलता होता, किसी को मिल परंपरा बना दो, जैसे विज्ञान परंपरा है; हम जायें प्रयोगशाला में गया था पच्चीस सौ साल पहले, महावीर को, बस खतम! और देख लें; टेस्ट-ट्यूब में पकड़ दो परमात्मा को; बिछा दो उन्होंने तुम्हारा सारा अभियान छीन लिया। तब तो महावीर ने टेबल पर सर्जन की तुम्हारी समाधि को; ताकि ठीक-ठीक तुम्हारे जीवन का सारा रस छीन लिया। तब तो वे मित्र न हुए, विश्लेषण हो सके और हम काट-पीट करके जान लें कि मामला दुश्मन हो गये। तब तो तुम्हें उन्होंने मौका ही न छोड़ा कुछ क्या है; ले आओ तुम्हारा अनुभव प्रकाश का, सत्य का, बाजार खोजने का, तुम्हें यात्रा पर जाने की जगह ही न छोड़ी। में, जहां हम सब देख लें; क्योंकि जो निज में घटा है, क्या पता नहीं, परमात्मा कुछ ऐसा है, सत्य कुछ ऐसा है, प्रेम कुछ ऐसा सपना हो। क्योंकि साधारण अनुभव में सपने ही निजी होते हैं, है कि जो खोजता है बस उसी को दर्शन होते हैं। हां, अपने दर्शन बाकी सब चीज तो निजी नहीं है। सिर्फ सपने निजी होते हैं, की बात दूसरे से कह सकता है। लेकिन उस बात से किसी को बाकी तुम जो सपना रात देखते हो, तुम अपनी पत्नी को भी तो दर्शन नहीं होता। उस बात से किसी की सोयी प्यास जग सकती उसमें नहीं बुला सकते कि आओ, आज निमंत्रण है। तुम अपनी है। उस बात से किसी के भीतर उन्मेष हो सकता है कि चलूं, मैं पत्नी को भी तो नहीं कह सकते कि आज, चलो दोनों साथ-साथ भी खोजू; किसी के भीतर चुनौती आ सकती है कि चलूं, मैं क्या एक ही सपना देखें। कर रहा हूं बैठा-बैठा, उठू! यह कहां गंवा रहा हूं जीवन बाजार | दो आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास इलाज करवा रहे थे। में और दुकान में, उलूं, उसे खोजूं! दोनों ने एक दिन सोचा, दफ्तर से बाहर निकलते हुए, एक इसलिए पहली बातः धर्म परंपरा नहीं है। धर्म चिर-पुरातन, | मजाक करने की बात सोची। एक अप्रैल आ रही थी, तो सोचा नित-नूतन है। यह विरोधाभास है। सदा से है, लेकिन फिर भी कि अप्रैल के दिन एक मजाक करें...मैं भी आऊंगा और एक हर बार नया-नया खोजना पड़ता है। जब धर्म का सूर्योदय होता सपना कहूंगा। और दोनों ने सपना तय कर लिया मनोवैज्ञानिक है तो वह निजी है, वैयक्तिक है, वह सामूहिक नहीं है। वह को सुनाने के लिए। फिर शाम को तुम आना और तुम भी वही समाज की संपत्ति और थाती नहीं बनता। अगर तुम भरोसा न सपना कहना। देखें, इस पर क्या गुजरती है। क्योंकि दो आदमी करो बुद्ध पर तो बुद्ध के पास कोई उपाय नहीं है तुम्हें भरोसा | एक ही सपना तो देख ही नहीं सकते। तो उन्होंने सपना तय कर दिलाने का। कभी तुमने इस पर सोचा? अगर तुम कहो कि हमें लिया विस्तार से; एक-एक बात कि क्या-क्या हुआ सपने में, शक है कि तुम झूठ बोल रहे हो, कि तुम्हें हुआ है परमात्मा का लिख लिया, कंठस्थ कर लिया। सुबह एक आया और उसने अनुभव, हम कैसे माने? तो बुद्ध भी कंधे बिचकाकर रह कहा कि रात एक सपना देखा, इसका अर्थ करें। मनोवैज्ञानिक ने जायेंगे; वे कहेंगे, अब क्या उपाय है! जो हुआ है वह निजी और उसका सपना सुना। दोपहर दूसरा आया। उसने भी वही सपना वैयक्तिक है। उसे तुम्हारे सामने टेबल पर फैलाकर रख देने की दोहराया। उसने कहा कि रात एक सपना देखा और विस्तार 76 .. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक में इंच-इंच वही! और वह देखता रहा बार-बार कि अरबों-खरबों हैं। इसलिए तो बुद्ध हों, महावीर हों, कृष्ण हों, मनोवैज्ञानिक पर क्या असर हो रहा है। लेकिन वह बड़ा हैरान क्राइस्ट हों-वे सभी कहते हैं, श्रद्धा से सुनोगे तो शायद कुछ हुआ कि कुछ खास असर नहीं हो रहा है। पूरा सपना सुनाने के हो सके; संदेह से सुनोगे तो द्वार तो पहले ही बंद हो गया। श्रद्धा बाद उसने पूछा, 'आप क्या सोचते हैं इस सपने के बाबत?' पर इतना जोर क्यों है? इसीलिए कि धर्म की परंपरा नहीं बन मनोवैज्ञानिक ने कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं, क्योंकि तीन आदमी | सकती। जिसको हुआ है, अगर तुम्हारे मन में उसके प्रति थोड़ी तो यह सपना मुझे दिन में सुना ही चुके हैं। तीन आदमी! वे दोनों सहानुभूति हो, लगाव हो, थोड़ी चाहत का रंग हो, तुम दोनों में बड़े हैरान हुए कि यह तीसरा कौन है! क्योंकि तीसरे को तो कुछ तालमेल हो, तुम उस आदमी को इतना प्रेम करते हो कि तुम उन्होंने बताया नहीं था। सोचते थे, मजाक मनोवैज्ञानिक से कर | जानते हो कि झूठ वह बोल न सकेगा-तभी। अगर तुम्हारे मन रहे हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिक ने मजाक उनके साथ कर दी। वे में जरा-सा भी संदेह है कि हो सकता है, यह आदमी झूठ बोल | बड़ी मुश्किल में पड़ गये कि अब यह तीसरे का कैसे पता चले! रहा हो; या यह भी हो सकता है कि झूठ न बोल रहा हो, खुद ही और हद्द हो गई, यह तो सपना हम दोनों ने भी देखा नहीं, सिर्फ धोखा खा गया हो; चाहकर झूठ न बोल रहा हो, लेकिन खुद ही तय किया था, तीसरा कौन है! दोनों दूसरे दिन आये। उन्होंने ने सपना इतना गहरा देख लिया हो कि इसे भरोसा आ गया हो; कहा, 'माफ करें! हम मजाक कर रहे थे। लेकिन तीसरा कौन या तो यह धोखा दे रहा है या खुद धोखा खा रहा है-इतना-सा है?' उन्होंने कहा, 'रातभर हम सो नहीं सके।' संदेह काफी है, कि सत्य तुम्हारे लिए बंद हो गया। मनोवैज्ञानिक ने कहा, 'तीसरा कोई नहीं, वह मैं मजाक कर बुद्धपुरुष तुम्हारे भीतर केवल प्यास को जगा सकते हैं; वह भी रहा था, क्योंकि दो आदमी तो देख ही नहीं सकते। वह तो मैं तुम्हारी श्रद्धा का सहारा हो तो।। जान ही गया कि जब दो ने एक सपना देखा तो दोनों तय करके तो पहली तो बात, धर्म कोई परंपरा नहीं है। संन्यास भी कोई आये हैं एक अप्रैल की वजह से। इसलिए मैंने कहा कि तीन तो परंपरा नहीं है। संन्यास एक-एक व्यक्ति का निजी उदघोषण है; कह ही चुके। हद्द हो गई। | एक-एक व्यक्ति की परमात्मा के द्वारा स्वीकार की गई चुनौती दो आदमी एक सपना देख ही नहीं सकते। सपना निजी है। है—अलग-अलग है। इसलिए हर व्यक्ति में जब संन्यास इसीलिए तो नास्तिक कहता है, भगवान सपना है। क्योंकि तुम घटित होगा तो भिन्न घटित होगा। संन्यास बड़ी निजी बात है। कहते हो, हमने देखा, लेकिन दिखाओ। सपने में और तुम्हारे | बड़ी संभावना है। भगवान के अनुभव में फर्क क्या हुआ? सिर्फ सपना ही ऐसी | क्राइस्ट हैं, संन्यस्त पुरुष हैं; पर इनका संन्यास महावीर जैसा चीज है जो दूसरे को नहीं दिखाया जा सकता। इसलिए भगवान नहीं है। क्राइस्ट को कोई अड़चन न थी, कोई मित्र बुलाये और तुम्हारा सपना है। यह कुंडलिनी-जागरण और प्रकाश के | शराब पीने को दे दे तो पी लेते थे। महावीर तो पानी भी न पीयेंगे अनुभव-ये सब तुम्हारे सपने हैं। नास्तिक कहता है, इसमें | ऐसा, शराब तो दूर की बात। महावीर तो कहते हैं, किसी के और सपने में फर्क कहां? फर्क तो एक ही होता है सपने में और बुलाये वे जायेंगे ही नहीं; क्योंकि किसी के बुलाये गये तो संबंध सचाई में कि सचाई सबकी होती है, सामूहिक होती है, | निर्मित होता है। शराब की तो छोड़ो, पानी पीने भी तुमने महावीर सार्वजनिक होती है। और सपना निजी होता है। इसलिए इतने को कहा कि आज मेरे घर आ जाना, भरी दुपहरी है, धूप है, तेज बुद्धपुरुष हुए और एक नास्तिक को सारे बुद्धपुरुष मिलकर भी | है, थोड़ा छाया में बैठ जाना, पानी पी लेनातो वे न आयेंगे। राजी नहीं कर सकते, क्योंकि जब तक तुम संदेह किये चले क्योंकि वे कहते हैं कि जिसका निमंत्रण तुमने स्वीकार किया जाओ, कोई उपाय नहीं है, कोई प्रमाण नहीं है। उससे संबंध बना लिया। परमात्मा अनुभव है और उसका कोई प्रमाण नहीं छूटता। तो महावीर भीख भी मांगते हैं तो बड़े अनूठे ढंग से मांगते थे। जिसको होता है, बस उसको होता है। और जिसको होता है, वह उनकी भीख मांगने का ढंग भी अनूठा है; ऐसा दुनिया में कभी अकेला पड़ जाता है। और जिनको नहीं हुआ है, वे किसी ने भीख नहीं मांगी है। इसलिए कहता हूं, संन्यास बड़ा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 अनूठा है और प्रत्येक के लिए अलग-अलग घटता है। . अस्वीकार में उन्हें हिंसा मालूम होती है। वे कहते हैं, 'नहीं' महावीर सुबह उठकर ध्यान में निर्णय करते कि आज अगर कहना किसी को दुख पहुंचाना है। किसी घर के सामने ऐसी घटना घटी हई मिलेगी तो वहां मैं हाथ अब बड़ी मुश्किल की बात है। पसार दूंगा। घटना-कि घर के सामने गाय खड़ी हो और उसके | महावीर नग्न खड़े हैं, कृष्ण सुंदर वस्त्रों से सजे हैं। क्योंकि | सींग में गड़ लगा हो। कोई ऐसा रोज नहीं घटता ऐसा। एक दफा कृष्ण कहते हैं, जब परमात्मा अवतरित होता है तो उसकी विभूति यह बात उन्होंने तय कर ली, क्योंकि वे कहते थे, अगर अस्तित्व अवतरित होती है, उसका सौंदर्य अवतरित होता है, उसके को मुझे भोजन देना है तो वह मेरी शर्त पूरी करेगा, नहीं तो नहीं | हजार-हजार रंग और रूप अवतरित होते हैं। परमात्मा एक देगा। इसका मतलब है कि मुझे भूखा रखना चाहता है तो मैं | इंद्रधनुष है। उसका बड़ा ऐश्वर्य है। उसकी बड़ी महिमा है। भखा रहंगा। अगर मेरे बचने की कोई भी जरूरत है अस्तित्व इसीलिए तो हम उसे ईश्वर कहते हैं। ईश्वर यानी जिसका को, तो मेरी शर्त पूरी करेगा; नहीं तो मैं समझ लूंगा कि ठीक है, ऐश्वर्य है। तो जब कृष्ण में परमात्मा उतरा है, तो वे उसका बात खतम हो गई, अस्तित्व नहीं चाहता कि मैं बचूं। तो मैं | स्वागत करते हैं, सब तरह से; जैसे तम्हारे घर कोई मेहमान आ अपनी कोई चेष्टा न करूंगा। अगर अस्तित्व ही चेष्टा करेगा तो जाये तो तुम घर को सजाते हो। तो कृष्ण कहते हैं, जब परमात्मा ठीक है। उतरा हो तो देह को सजाना होगा। यह घर है। इसमें वह उतरा। तो एक बार ऐसा हुआ कि तीन महीने तक उन्होंने यह ले लिया उसने अनुकंपा की। तो वे बांसुरी बजाते हैं। वे मोर-मुकुट व्रत और वे यह किसी को कहते नहीं थे। अब तो जैन मुनि, | लगाते हैं। दिगंबर, जो इसको अब भी मानते हैं, वे कहकर चलते हैं। महावीर नग्न खड़े हैं। सजाने की तो बात दूर, बाल बढ़ जाते हैं उन्होंने सब बता रखा है। और उनके सब बंधे हुए प्रतीक हैं, वे तो हाथ से उखाड़ते हैं। नाई के पास नहीं जाते, क्योंकि यह तो सबको मालूम हैं-उनके भक्तों को, कि घर के सामने दो केले नाई के पास जाना समाज में प्रवेश होगा। इसका अर्थ हुआ कि लटके हों, तो जितने घरों में दिगंबर जैन मुनि जाता है, वह सब तुम्हें नाई की जरूरत है। समाज का क्या अर्थ होता है? मुझे केले लटकाये रखता है। अब उनके बंधे हुए प्रतीक हैं-दो केले दूसरे की जरूरत है-यानी समाज। मैं अकेला नहीं रह सकता, लटके हों...इस तरह के कुछ। चार-छह चीजें एक मुनि रखता नाई की जरूरत पड़ती है तो भी इतना तो समाज हो ही गया है, वे उन्हीं-उन्हीं को...। तो वह सब कर देते हैं इंतजाम। एक मेरा। कभी नाई की जरूरत पड़ती है, कभी चमार की जरूरत ही घर में सभी चीजें लटका देते हैं। तो स्वीकार हो गया, यह पड़ती है, कभी दर्जी की जरूरत पड़ती है। तो यही तो समाज है। बेईमानी है। समाज का अर्थ क्या है? महावीर ने कहा कि गाय खड़ी हो, गुड़ सींग पर लगा हो। तीन इसलिए मैं कहता हूं, जैनियों का अब तक कोई समाज नहीं महीने तक भोजन न मिला। पर एक दिन मिला। बैलगाड़ी जाती है। क्योंकि कोई जैन न तो चमार है, न कोई जैन दर्जी है, न कोई थी गुड़ से भरी और पीछे से एक गाय ने आकर गुड़ खाने की जैन भंगी है। तो जैनियों का कोई समाज नहीं है। जैनी तो हिंदुओं चेष्टा की और उसके सींग में गुड़ लग गया। बस जिस घर के की छाती पर जीते हैं, उनका कोई समाज नहीं है। क्योंकि कोई सामने वह गाय खड़ी थी, वहां महावीर ने अपने हाथ फैला दिये | जैन चमार होने को राजी नहीं है। तो समाज तुम्हारा कैसा? भोजन के लिए। तीन महीने बाद अस्तित्व ने चाहा तो ठीक। जैनियों से मैं कहता हूं तुम एक बस्ती तो बसाकर बता दो, सिर्फ तो महावीर तो निमंत्रण भी स्वीकार न करेंगे। और जीसस हैं, | जैनियों की। तब हम कहेंगे कि तुम्हारा कोई समाज है। कोई कि न केवल निमंत्रण स्वीकार कर लेते हैं, अगर कोई शराब भी जैनी राजी न होगा भंगी बनने को। तो तुम समाज कैसे? तो तुम्हें पिलाये तो वह भी पी लेते हैं। वे कहते हैं, क्या अस्वीकार? | हिंदुओं की जरूरत है, मुसलमानों की जरूरत है, ईसाइयों की किस बात का अस्वीकार? क्योंकि सब अस्वीकार अहंकार जरूरत है। तो तुम परोपजीवी हो, तुम्हारा अपना कोई समाज केंद्रित है। चलो, मित्रों ने चाहा है, पी लो तो पी लेते हैं। नहीं है। . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक : जैन अब तक केवल संस्कृति है, समाज नहीं। वह केवल देखी! महावीर वहां भी धन्यवाद नहीं देते, अगर तुम उनको वायवीय बातें हैं। भीख देते हो। वे कहते हैं कि अस्तित्व ने चाहा। अगर तुम न भी इसलिए मैंने पीछे कहा भी कि ये पच्चीस सौ वर्ष महावीर के होओगे तो महावीर कहेंगे कि वृक्ष के नीचे खड़ा हो जाऊंगा, पूरे हुए, तुम कुछ भी न करो, एक जैनियों की बस्ती तो बना अगर फल टपक जाये अपने से तो ठीक, पांच मिनट राह देख दो-सिर्फ जैनियों की, जो पूरी तरह जैन हो, उससे कम से कम | | लूंगा, हट जाऊंगा। वे महीनों भूखे रहे। एक नमूना तो मिलेगा कि जैनियों का समाज कैसा होगा। वहां | बारह वर्ष की तपश्चर्या के काल में, कहते हैं केवल तीन सौ बड़ी कलह मच जायेगी, क्योंकि भंगी कौन बने, जूता कौन साठ दिन उन्होंने भोजन लिया। बारह वर्ष के लंबे काल में, सिये, खेती कौन करे! क्योंकि जैन को खेती करनी नहीं चाहिए, केवल एक वर्ष भोजन लिया, ग्यारह वर्ष भूखे रहे। कभी महीना हिंसा होती है। सर्जन कौन हो, चीरा-फाड़ी कौन करे। बड़ी भर भखे, फिर एक दिन भोजन: कभी पंद्रह दिन भखे. फिर एक कठिनाई खड़ी हो जायेगी। बड़ी मुश्किल हो जायेगी। | दिन भोजन; कभी आठ दिन भूखे, फिर एक दिन भोजन; ऐसा समाज का अर्थ होता है: संबंध, जरूरत। महावीर अकेले मिला-जुलाकर बारह साल में एक साल भोजन और ग्यारह जीये—इतने अकेले जीये कि अपने पीछे समाज का कोई सूत्र साल भूखे। औसत ग्यारह दिन के बाद उन्होंने भोजन लिया, नहीं छोड़ गये। उन्होंने तो अकेले जी लिया, लेकिन जो उनके बारहवें दिन। मगर यह भोजन के लिए वे धन्यवाद नहीं देते पीछे चले, वे बड़ी मश्किल में पड़े। क्योंकि यह बिलकल निजी. किसी को। वे कहते हैं, तुम्हारा कोई धन्यवाद नहीं है, तुम्हारा एकांत, अकेले होने का आग्रह है महावीर का। उन्होंने कोई | कोई अनुग्रह नहीं। मैंने तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। मैं समाज बनाया नहीं; लेकिन जो पीछे चलेंगे अनुयायी, वे तो तो अपने हिसाब से चल रहा हूं। अस्तित्व देना चाहता है, ले समाज के बिना नहीं जी सकते। उनको तो कपड़े भी चाहिए | लेता हूं; अस्तित्व नहीं देता तो मांग भी नहीं करता हूं। वे द्वार पर होंगे, तो कपड़ा कोई बुनेगा, कपास कोई उगायेगा। उन्हें तो आकर खड़े हो जाते हैं, वे मांग भी नहीं करते। वे यह भी नहीं भोजन भी चाहिए होगा, तो खेती कोई करेगा, वृक्षों को कोई | कहते कि दो; क्योंकि देने का मतलब तो होगा, कर्म की शुरुआत काटेगा। उन्हें तो दवा भी चाहिए होगी, ऐलोपेथी की दवा भी हो गई, लेना-देना शुरू हो गया। चाहिए होगी, जो पशुओं को मारकर बनाई जायेगी, किसी के | इधर कृष्ण हैं। परमात्मा के लिए जगह बनाते हैं तो शरीर खून से बनेगी, किसी की हड्डी से बनेगी–वह भी कोई करेगा। सजाते हैं। उन्हें जूते भी पहनने होंगे, तो चमार भी होगा, मरे हुए जानवरों की | उस बात में भी अर्थ मालूम पड़ता है कि जब प्रभु घर आये हों चमड़ी भी उधेड़ी जायेगी; मरे हुए काफी न होंगे तो जिंदा मारे भी | तो ऐसा क्या रूखा-सूखा स्वागत करना! बंदनवार बनाओ! जायेंगे। यह सब चलेगा। स्वागत द्वार बनाओ। जो भी हो फूल-पत्ती, लटकाओ! लेकिन तो इसमें तो महावीर खड़े हो जाते बाहर, क्योंकि न उनको जूते कुछ तो करो। साज-संगीत बजाओ। सुगंध फैलाओ। की जरूरत, न उनको कपड़े की जरूरत। धूप-दीप जलाओ। कुछ तो करो। प्रभु द्वार पर आये हैं! जरा सोचो तो, उनको समाज की जरूरत नहीं। वे यह कह रहे कृष्ण को बिलकुल न जंचेगा कि नंगे खड़े हो जाओ, प्रभु द्वार हैं कि यह हम खड़े हैं हमको कोई समाज की जरूरत नहीं। वे पर आये हैं। महावीर को जंचा; क्योंकि महावीर कहते हैं कि नाई के पास भी नहीं जाते। वे एक साथ में उस्तरा तो रख सकते प्रभु को किसी ऐश्वर्य की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह स्वयं थे। उस्तरा भी नहीं रखते। वे कहते हैं, उस्तरा रखा तो | ऐश्वर्यवान है। और हम जो भी करेंगे वह छोटा ही होगा, वह लोहार...। वे हाथ से उखाड़ते हैं बाल। काफी न होगा। इससे ज्यादा स्वतंत्र व्यक्ति पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ! समाज | दोनों के तर्क सही हैं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर तुमने मुक्त ! समाज-शून्य! निपट समाज-शून्य! एक का तर्क पकड़ लिया तो तुम अंधे हो जाओगे, दूसरे का तर्क तुम कहोगे कि भीख तो मांगते हैं। मगर महावीर की शर्त | न देख पाओगे। और इस जगत में जितने लोग संन्यास को Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 1 उपलब्ध हुए, उन सब का अपने संन्यस्त होने का ढंग है। उपनिषद कहते हैं, तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्होंने ही भोगा, इसलिए संन्यास की कोई परंपरा नहीं है। संन्यास व्यक्तिगत | जिन्होंने त्यागा। या उसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि उन्होंने क्रांति है। अब 'संन्यासी माया और काम-भोग से विमुख होकर ही त्यागा जिन्होंने भोगा। वह वचन बड़ा अपूर्व है। ऐसा भोगो, प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता है', यह बात भी सच नहीं है। ऐसा गहरा भोगो कि भोग में ही त्याग घटित हो जाये। जिसने पूछा है, उनको ठीक-ठीक पता नहीं है; उन्हें भक्ति मार्ग | अब इसे थोड़ा समझो। जब तुम अधूरा-अधूरा भोगते हो तो का पता नहीं है। क्योंकि भक्ति मार्ग का संन्यासी भोग से विमुख भोग सरकता है। जो भी जीवन में अधूरा अनुभव है, वह पीछा नहीं होता, परमात्मा का ही भोग शुरू करता है। जिन मित्र ने करता है। जब भी अनुभव पूरा हो जाता है, छुटकारा हो जाता पूछा है, उन्हें हिंद, शंकराचार्य, जैन, महावीर, गौतम सिद्धार्थ, | है। अगर तुमने स्त्री को ठीक से न भोगा. तो तम्हारे मन में स्त्री बुद्ध—इनकी परंपरा के संन्यासियों का बोध है। और ऐसा हुआ की कामना छाया डालती रहेगी। अगर तुमने ठीक से भोग है कि इनकी परंपरा इतनी प्रभावी हो गयी कि धीरे-धीरे ऐसा | लिया, एक स्त्री को भी एक संभोग में भी ठीक से अनुभव कर लगने लगा कि दूसरी कोई परंपरा नहीं है। रामानुज का भी लिया और जान लिया, क्या है, तुम मुक्त हो गये। उसी क्षण तुम संन्यासी है। निम्बार्क का भी संन्यासी है। चैतन्य महाप्रभु का भी भोग के बाहर हो गये। संन्यासी है। मगर वे ओझल हो गये। बुद्ध, महावीर, और गहरा भोग त्याग ले आता है। और गहरे त्यागी के भोग की शंकराचार्य इतने प्रभावी हो गये और प्रभावी हो जाने का चर्चा करनी मुश्किल है, क्योंकि वही भोगना जानता है। कारण है, क्योंकि तुम सब भोगी हो। इसे तुम्हें जरा अड़चन | तुम जरा सोचो! जब कृष्ण भोजन करते होंगे या महावीर भी होगी समझने में। चूंकि तुम सब भोगी हो, त्यागी की भाषा तुम्हें जब भोजन करते होंगे, तो तुमने ऐसा भोजन कभी भी नहीं किया समझ में आती है। क्योंकि त्यागी की भाषा तुमसे विपरीत है। जैसा महावीर करते होंगे। चाहे उन्हें रूखी-सूखी रोटी ही मिली जो तुम्हारे पास नहीं है, उसमें आकर्षण पैदा होता है। गरीब | हो, उस रूखी-सूखी में से भी ब्रह्म को निचोड़ लेते होंगे। उस अमीर होना चाहता है। तुम भोगी हो, तुम त्यागी होना चाहते रूखी-सूखी रोटी में से सिर्फ खून और मांस-मज्जा ही नहीं हो। तुम कहते हो, भोग में तो दुख ही दुख पाया; इसलिए आती थी उनको, ब्रह्म भी आता था। इसलिए तो उपनिषद कहते महावीर, शंकर और बुद्ध ठीक ही कहते होंगे कि त्याग में सुख हैं: अन्नं ब्रह्म! अन्न ब्रह्म है। जिन्होंने लिखा है, उन्होंने खूब है, क्योंकि एक तो हमें अनुभव हो गया कि भोग में दुख है। भोगकर लिखा होगा, खूब अन्न को परखकर लिखा होगा। रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, चैतन्य—इनकी भाषा तुमने नहीं | एक संन्यासी बीमार था। थोड़ा-थोड़ा भोजन लेता था। समझी; क्योंकि वे कहते हैं कि तुम्हारे भोग में दुख नहीं है, चिकित्सकों ने उससे कहा कि इतने थोड़े भोजन से काम न तुम्हारा भोग गलत चीजों का हो रहा है, इसलिए दुख है। भोग चलेगा, थोड़ा और भोजन लो। तो उस संन्यासी ने कहा, इतना भगवान का करो! तुमने अभी स्त्री को भोगा है; लेकिन कभी काफी है, क्योंकि इसमें से मैं वही नहीं ले रहा हूं जो दिखाई पड़ता स्त्री में भगवान को देखकर भोगो, फिर दुख समाप्त हुआ! तुमने है, वह भी ले रहा हूं जो दिखाई नहीं पड़ता। और जब मैं श्वास अभी भोजन को भोगा है, दुख है; लेकिन भोजन में भगवान को लेता हूं, तब भी मैं भोजन कर रहा हूं क्योंकि प्राण...। और देखकर भोगो, दुख समाप्त हुआ। जब मैं आकाश को देखता हूं, तब भी भोजन कर रहा उनकी बात में भी सार है। अब इधर मैं हूं। मैं कहता हूं कि हूं क्योंकि आकाश...। जब सूरज की किरणें मुझ पर पड़ती दोनों का संगीत पैदा हो जाये तो संन्यास है। मैं कहता हूं, तुम्हारा हैं, तब भी भोजन कर रहा हूं-क्योंकि किरणें प्रवेश करती हैं। त्याग ऐसा हो कि भोगी के भोग से ज्यादा गहरा और तुम्हारा भोग भोजन तो चौबीस घंटे चल रहा है। ब्रह्म चौबीस घंटे ऐसा हो कि त्यागी के त्याग से ज्यादा गहरा। तो मैं तुमसे यह कह | हजार-हजार मार्गों से तुम में उतर रहा है और नाच रहा है। रहा हूं कि एक परम समन्वय हो। तुम भोगो-त्यागते हुए, तुम जिसने ठीक से भोगा, वह हर भोग में ब्रह्म को खोज लेगा। त्यागो-भोगते हुए। और जिसने ठीक से त्यागा, उसकी आंख इतनी शुद्ध और निर्मल 180 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक हो जाती है कि उसे सिवाय ब्रह्म के फिर कुछ दिखाई पड़ता नहीं। बचाना हुआ? यह तो नाम का ही फर्क हुआ। ण और श्रमण संस्कृतियां विपरीत खड़ी रही हैं। हिंदु संस्कृति भोग का परम स्वीकार है। और भोग में ही श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति भोग की परमात्मा का आविष्कार है। श्रमण-संस्कृति त्याग का, संन्यास संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति परमात्मा के ऐश्वर्य की संस्कृति का, छोड़ने का, विरक्ति का, वैराग्य का मार्ग है। और उसी से है, परमात्मा के विस्तार की। श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति परमात्मा को पाना है। है, वीतराग की, परमात्मा के संकोच की, वापसी यात्रा है। मेरे देखे, त्याग और भोग दो पंखों की तरह हैं। इसीलिए रामानुज, वल्लभ और निम्बार्क; शंकर को हिंदू नहीं श्रमण-संस्कृति भी अधूरी है, ब्राह्मण-संस्कृति भी अधूरी है। मानते। वे कहते हैं, प्रच्छन्न बौद्ध, छिपा हुआ बौद्ध है यह मैं उसी आदमी को पूरा कहता हूं, उसी को मैं परमहंस कहता हूं, आदमी। निम्बार्क, शंकर के बीच; वल्लभ, शंकर के बीच; जिसके दोनों पंख सुदृढ़ हैं; जो न भोग की तरफ झुका है न त्याग रामानुज, शंकर के बीच बड़ा विवाद है। और मैं भी मानता हूं, की तरफ झुका है; जिसका कोई चुनाव ही नहीं है; जो सहज शंकर हिंदू नहीं हैं—हो नहीं सकते। शंकर ने बड़े छिपे रास्ते से शांत जो भी घट रहा है, उसे स्वीकार किया है; घर में है तो घर में श्रमण-संस्कृति को ब्राह्मण-संस्कृति की छाती पर हावी कर स्वीकार है, मंदिर में है तो मंदिर में; पत्नी है तो ठीक, पत्नी मर दिया। इसलिए शंकर के संन्यासी को तुम जानते हो, वही | गई तो ठीक; पत्नी होनी ही चाहिए, ऐसा भी नहीं है; पत्नी नहीं संन्यासी हो गया खास। वह संन्यासी बिलकुल हिंदू है ही नहीं। ही होनी चाहिए, ऐसा भी नहीं है जिसका कोई आग्रह नहीं है, तुमने उपनिषद के ऋषि-मुनियों को देखा है, सुनी है उनकी | निराग्रही! बात, उनकी खबर, उनकी कहानी सुनी? उपनिषद के संन्यास का मैं अर्थ करता हूं : सम्यक न्यास। जिसने अपने ऋषि-मुनि गृहस्थ थे। पत्नी थी उनकी, बच्चे थे उनके, घर-द्वार | जीवन को संतुलित कर लिया है; जिसने अपने जीवन को ऐसी था उनका, बाग-उपवन थे उनके, गऊएं थीं उनकी, धन-धान्य बुनियाद दी है जो अपंग नहीं है, जो अधूरी नहीं है, जो परिपूर्ण था; त्यागी नहीं थे। बुद्ध और जैन अर्थों में त्यागी नहीं थे। है। भोग और त्याग दोनों जिसमें समाविष्ट हैं, वही मेरे लिए भोगकर ही भगवान को उन्होंने जाना था। शंकर ने संन्यासी है।। श्रमण-संस्कृति की बात का प्रभाव देखकर...क्योंकि जब और मजा ही क्या, छोड़कर भाग गये तब छटा तो मजा क्या! श्रमण साधु खड़े हुए तो स्वभावतः हिंदू ब्राह्मण, ऋषि-मुनि फीके यहां रहे और छोड़ा, बाजार में खड़े रहे और भीतर हिमालय प्रगट पड़ने लगे। क्योंकि ये तेजस्वी मालूम पड़े। सब छोड़ दिया! ये हुआ...! चमत्कारी मालूम पड़े, क्योंकि बड़े उलटे मालूम पड़े। स्वभावतः यह हमीं हैं कि तेरा दर्द छुपाकर दिल में रास्ते पर सब लोग चलते हैं, कोई जरा शीर्षासन लगाकर खड़ा काम दुनिया के बदस्तूर किए जाते हैं। हो जाये, तो भीड़ इकट्ठी हो जायेगी। वही आदमी पैर के बल छोड़ देना आसान है, पकड़ रखना भी आसान है; पकड़े हुए खड़ा रहे, कोई न आयेगा; सिर के बल खड़ा हो जाये, सब आ छोड़ देना अति कठिन है। बड़ी कुशलता चाहिए। कृष्ण ने जायेंगे। वे कहेंगे, क्या मामला हो गया! कोई फूल चढ़ाने | जिसको कहा हैः योगः कर्मसु कौशलम्। बड़ी कुशलता लगेगा, कोई हाथ जोड़ने लगेगा कि कोई चमत्कार कर रहा है, | चाहिए! योग की कुशलता चाहिए! जैसे कि कोई नट सधी हुई यह आदमी बड़ा त्यागी है! उलटा आकर्षित करता है। रस्सी पर चलता है, दो खाइयों के बीच खिंची हुई रस्सी पर तो जैन और बौद्ध संन्यासियों ने बड़ा आकर्षण पैदा किया। चलता है। तो देखा, कैसा सम्हालता है, संतुलित करता है; शंकर ने बड़े छिपे द्वार से उनकी ही बात को हिंदु-छाती पर सवार | कभी बायें झुकता कभी दायें झुकता; जब दिखता है, बायें झुकना , करवा दिया। अगर कोई गौर से देखे तो हिंदू संस्कृति को ज्यादा हो गया, अब गिरूंगा, तो दायें झुकता है, ताकि बायें की 'बचानेवाले शंकर नहीं हैं, नष्ट करनेवाले हैं। हालांकि लोग | तरफ जो असंतुलन हो गया था, वह संतुलित हो जाये। फिर सोचते हैं, शंकर ने बचा लिया-बचाया नहीं। यह बचाना क्या देखता है, अब दायें तरफ ज्यादा झुकने लगा, तो बायें तरफ 181 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग झुकता है। बायें को दायें से सम्हालता है, दायें को बायें से शराबे-कुहन फिर पिला साकिया! सम्हालता है। ऐसे बीच में तनी रस्सी पर चलता है। -बड़ी प्यारी पंक्तियां हैं। पंक्तियां यह कह रही हैं, अगर और धर्म तो खड्ग की धार है। वह तो बड़ा बारीक रास्ता है, राख का ढेर हो गये हम, तो क्या सार! हे परमात्मा, फिर थोड़ी संकीर्ण रास्ता है-ठीक खिंची हुई रस्सी की तरह दो खाइयों के शराब बरसा! बीच में। इधर संसार है, उधर परमात्मा है, बीच में खिंची हुई शराबे-कुहन फिर पिला साकिया रस्सी है—उस पर चलनेवाले को बड़ा कुशल होना चाहिए। वही जाम गर्दिश में ला साकिया तो अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम बुझ जाये और फिर वैराग्य हो, | -फिर वही जाम गर्दिश में ला। अभी संसार को प्रेम किया तो कुछ खास न हुआ। था, अब तुझे प्रेम करेंगे लेकिन फिर वही जाम दोहरा। प्रेम तो प्रेम जलता रहे और वैराग्य हो तो कुछ हुआ। बचे; जो व्यर्थ के लिए था वह सार्थक के लिये हो जाये। दौड़ तो बुझी इश्क की राख अंधेर है बचे; अभी वस्तुओं के लिए दौड़े थे, अब परमात्मा के लिये दौड़ मुसलमां नहीं राख का ढेर है हो जाये। शराबे-कुहन फिर पिला साकिया शराबे-कुहन फिर पिला साकिया वही जाम गर्दिश में ला साकिया वही जाम गर्दिश में ला साकिया मुझे इश्क के पर लगा कर उड़ा मुझे इश्क के पर लगा कर उड़ा! मेरी खाक जुगनू बना कर उड़ा -अभी इश्क के पर तो थे, लेकिन खिसकते रहे जमीन पर, जिगर में वही तीर फिर पार कर रगड़ते रहे नाक जमीन पर। मुझे इश्क के पर लगाकर उड़ा! उड़ें तमन्ना को सीने में बेदार कर। परमात्मा की तरफ, लेकिन पर तो इश्क के हों, प्रेम के हों। बुझी इश्क की राख अंधेर है। मेरी खाक जुगनू बना कर उड़ा प्रेम का अंगारा बुझ जाये तो फिर जिसे तुम वैराग्य कहते हो, जिगर से वही तीर फिर पार कर। वह राख ही राख है। -वह जो संसार में घटा था, वह जो किसी युवती के लिए प्रेम का अंगारा भी जलता रहे और जलाये न, तो कुछ घटा था, किसी युवक के लिए घटा था, वह जो धन के लिए घटा कुशलता हुई, तो कुछ तुमने साधा, तो तुमने कुछ पाया। था, पद के लिए घटा था—वही तीर! बुझी इश्क की राख अंधेर है जिगर से वही तीर फिर पार कर मुसलमां नहीं राख का ढेर है। तमन्ना को सीने में बेदार कर! -फिर वह आदमी धार्मिक नहीं, मुसलमां नहीं-राख का -वह जो वासना थी, आकांक्षा थी, अभीप्सा थी, वस्तुओं के ढेर है। | लिए, संसार के लिए उसे फिर जगा, लेकिन अब तेरे लिए! तो एक तरफ जलते हुए, उभरते हुए अंगारे ज्वालामुखी हैं, बहुत लोग हैं, अधिक लोग ऐसे ही हैं—जीते हैं, भोगते हैं, और एक तरफ राख के ढेर हैं-बुझ गये, ठंडे पड़ गये, प्राण ही लेकिन भोग करना उन्हें आया नहीं। वासना की है, चाहत में खो गये, निष्प्राण हो गये। तो एक तरफ पागल लोग हैं, और अपने को डुबाया, लेकिन चाहत की कला न आयी। एक तरफ मरे हुए लोग हैं। कहीं बीच में...! | न आया हमें इश्क करना न आया पागलपन इतना न मिट जाये कि मौत हो जाये, और पागलपन मरे उम्र भर और मरना न आया। इतना भी न हो कि होश खो जाये। पागलपन जिंदा रहे और फिर जीवन एक कला है और धर्म सबसे बड़ी कीमिया है। इसलिए भी मौत घट जाये। अहंकार मरे, तुम न मरो। संसार का भोग | मेरे लिए संन्यासी का जो अर्थ है, वह है : संतुलन, सम्यक मरे, परमात्मा का भोग न मरे। त्याग हो, लेकिन जीवंत हो, संतुलन, सम्यक न्यास; कुछ छोड़ना नहीं और सब छूट जाये; रसधार न सूख जाये। कहीं भागना नहीं और सबसे मुक्ति हो जाये; पैर पड़ते रहें Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक जलधारों पर लेकिन गीले न हों; आग से गुजरना हो जाये, तुम्हें तो जुहद-ओ-रिया पर बहुत है अपने गरूर लेकिन कोई घाव न पड़े। और ऐसा संभव है। और ऐसा जिस खुदा है शेख जी! हमसे भी गुनहगारों का। दिन बहुत बड़ी मात्रा में संभव होगा, उस दिन जीवन की दो भक्त कहता है, 'शेख जी! तुम्हें तो बड़ा गरूर है अपने कर्मों धाराएं, श्रमण और ब्राह्मण, मिलेंगी; भक्त और ज्ञानी आलिंगन का, शुभ कर्मों का, उपासना, पूजा, प्रार्थना का, साधना, करेगा। और उस दिन जगत में पहली दफा धर्म की परिपूर्णता | तपश्चर्या का!' प्रगट होगी। अभी तक धर्म अधूरा-अधूरा प्रगट हुआ है, तुम्हें तो जुहद-ओ-रिया पर बहुत है अपने गरूर! खंड-खंड में प्रगट हआ है। लेकिन भक्त यह भी कहता है कि यह सब जो तुमने किया है, थोथा है; क्योंकि करने का भाव तो भीतर मौजूद ही है। इसलिए तीसरा प्रश्नः एक मार्ग भगवान महावीर का है-संघर्ष का, यह सब वंचना है। और हम तुम से कहते हैं : खुदा है शेख संकल्प का; दुसरा मार्ग शरणागति का, समर्पण का। और जी! हमसे भी गुनहगारों का। वह हमारी भी खबर लेगा। वह दोनों मुक्ति के लिए हैं। सिर्फ धार्मिकों का ही नहीं है, गनहगारों का भी है। कृपया बतायें कि भक्ति करने से आदमी को अपने बरे फरिश्ते हश्र में पूछेगे पाकबाजों से का फल भोगना पड़ेगा अथवा नहीं? गुनाह क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था? वे जो पुण्यात्मा हैं, भक्त कहता है, उनसे जरूर फरिश्ते पड़ेंगे कर्म की भाषा भक्त की भाषा नहीं है। यह तो ऐसे ही है, जैसे | स्वर्ग में। तुम पूछो कि बगीचे से गुजरने पर मरुस्थल बीच में पड़ेगा या फरिश्ते हश्र में पूछेगे पाकबाजों से। नहीं; या मरुस्थल से गुजरने पर फूल कमल के खिले हुए मिलेंगे | -पवित्र लोगों से, धर्मात्माओं से, पुण्यात्माओं से। या नहीं। तुम अलग-अलग धाराओं की बात कर रहे हो। गुनाह क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था? कर्म की भाषा समर्पण के मार्ग की भाषा नहीं है; संकल्प के क्या तुम्हें भरोसा न था कि उसकी करुणा अपरंपार है? तुम्हें मार्ग की भाषा है। संकल्प कहता है : तुमने जो किया है वही तुम कुछ संदेह था? कर लेते गुनाह! ऐसे क्या डरे-डरे जीये? पाओगे। इसलिए महावीर का तो पूरा शास्त्र कर्म के सिद्धांत पर नहीं, भक्त की भाषा अलग है। खड़ा है। भगवान तो हटा ही दिया है महावीर ने; कर्म ही ध्यान रखो, अगर कर्मों का हिसाब रखना हो तो भक्ति का भगवान हो गया है-तुम जो करते हो वही; कार्य-कारण; रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है। गणित और काव्य की भाषा सीधा विज्ञान है। अलग-अलग है। गणित में दो और दो चार ही होते हैं, काव्य में भक्त को कर्म की भाषा ही नहीं आती। भक्त कहता है, हमने कभी-कभी दो और दो पांच भी हो जाते हैं, कभी तीन भी रह कभी कुछ किया ही नहीं, वही करवा रहा है। भक्त कहता है, | जाते हैं। काव्य तो रहस्य है। हम कर्ता ही नहीं हैं, कर्ता वही है; और उसने जो करवाया हमने तो अगर तुम्हें गणित की भाषा समझ में आती हो तो तुम भक्ति किया; गुनहगार हो तो वही हो। भक्त के सामने भगवान को की भाषा ही छोड़ो, तो फिर कर्मों का हिसाब रखो। जो-जो बुरा मुश्किल पड़ेगी; क्योंकि भक्त कहेगा, 'तूने करवाया, हमने किया है, उसके ठीक-ठीक तुलना में गणित की तरह भला किया, हमको फंसाता है?' करो। एक-एक काटो। कठिन होगा मार्ग, लेकिन किसी की इसलिए भक्त कर्म की भाषा नहीं बोलता। भक्त कहता है, | करुणा पर तुम्हें निर्भर न रहना पड़ेगा। जटिल होगा, बड़ा दुर्धर्ष सब तुझ पर छोड़ा, कर्म भी छोड़े। अपने को ही छोड़ा तो अब संघर्ष होगा। क्योंकि अनंत-अनंत जन्मों के पाप हैं, उन्हें काटना कर्म का खाता कहां अलग रखें? जब सब छोड़ा तो बैंक-बैलेंस आसान नहीं है। इसलिए तो महावीर जन्मों-जन्मों यात्रा करते भी तुझे ही दिया। ऐसा थोड़े ही है कि अपना बैंक-बैलेंस बचा हैं। काटते-काटते, काटते-काटते, पच्चीस सौ वर्ष पहले वह लिया और कहा कि बाकी सब दिया। घड़ी आई, जब वह काट पाये। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों www.jainelibrar.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने, श्रमण संस्कृति के दोनों आधार हैं, अपने पिछले जन्मों की का समर्पण करता है। कथा कही है। वह कहता है, 'यह रहे। बुरे-भले जैसे भी हैं, त स्वीकार किसी भक्त ने फिक्र नहीं की : क्या करना, हिसाब क्या रखना कर! पत्र-पुष्पम्। यह जो कुछ हमारे पास है; पत्ते, फूल, फूल उसका! महावीर और बुद्ध ने कही है। दोनों ने जाति-स्मरण, की पंखुड़ी सही, यह तू सम्हाल! ज्यादा कुछ है नहीं!' पिछले जन्मों के स्मरण को एक खास विधि माना, खास विधि वह अपने अहंकार को सीधा रखता है। बनाया कि पीछे जन्मों में जाओ; क्योंकि हिसाब पूरा देखना ज्ञानी के मार्ग पर, संकल्प के मार्ग पर कर्म को काट-काटकर पड़ेगा, कहां-कहां भूल-चूक की है, वहां-वहां सुधार करना है; कर्ता मिटाया जाता है। भक्ति के मार्ग पर कर्ता को छोड़कर ही जहां-जहां गलत किया, उसके मुकाबले ठीक करना है; सारे कर्म मिट जाते हैं। जहां-जहां पाप हुआ वहां-वहां पुण्य रखना है। धीरे-धीरे-धीरे तराजू को बराबर करना है, दोनों पलड़े जब बराबर हो जायेंगे आखिरी सवाल : सुनता था कि इस जहां से आगे जहां और और कांटा जब बीच में सम्यकत्व पर खड़ा हो जायेगा तब तुम भी हैं, इस मकां से आगे मकां और भी हैं; लेकिन अब आप से मुक्त हो सकोगे। बड़ा हिसाबी-किताबी मामला है। मगर कुछ मिलने पर ऐसा प्रतीत होता है: हैं जिनको इस में रस है। जरूर वे वैसा करें। गर बर रूए जमीं बहिश्त अस्त लेकिन भक्तों ने कभी पिछले जन्मों का हिसाब नहीं किया। हमीं अस्त हमीं अस्त हमीं अस्त। उन्होंने कहा, 'हिसाब कौन रखे! तू ही रख! तू ही सम्हाल! तूने -यदि इस पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है, यहीं है, भेजा, हम आये। तूने चलाया, हम चले! तूने जैसा रखा, हम यहीं है। ऐसा क्यों हुआ, कृपापूर्वक समझायें! राजी रहे!' भक्त की तो पूरी बात ही इतनी है कि मैं नहीं हूँ, तू ही है। छोड़ो भी समझ को! समझ के पीछे क्यों इतना लट्ठ लेकर पड़े इसलिए भक्त को कोई सवाल नहीं है। हो? समझ से ऐसा क्या लेना-देना है? समझ को खाओगे कि । दोनों मार्ग पहंचा देते हैं। भक्त छलांग से पहंचता है. ज्ञानी पीयोगे कि ओढोगे? जो हआ है उसके बीच में समझ को मत इंच-इंच काटकर पहुंचता है। भक्त एकबारगी पहुंच जाता है। लाओ। समझ बाधा डालेगी। समझ ने सदा ही बाधा डाली है। एक साथ छोड़ देता है अपने 'मैं' को। वह पूरा का पूरा उसके | विश्लेषण तोड़ देता है उन चीजों को, फोड़ देता है उन चीजों चरणों में अपने सिर को रख देता है—एक साथ! ज्ञानी काटता | को-जो विश्लेषण के पार हैं। है, पाप को छोड़ता है, पुण्य को पकड़ता है—फिर एक ऐसी जैसे मैं एक सुंदर फूल तुम्हें दं, भोगो इसे! संघो इसे! पीयो घड़ी आती है, तब पुण्य को भी छोड़ता है। नहीं तो पुण्य ही इसके रस को आंखों से। नाच लो थोड़ी देर इसके साथ! जल्दी अहंकार बन जाता है। | ही यह फूल कुम्हला जायेगा। जल्दी ही फूल फिर जैसे अदृश्य वीर के मार्ग पर जो चलते हैं, पहले पाप को काटो से आया, अदृश्य में लीन हो जायेगा। विश्लेषण मत करो, पुण्य से, फिर एक घड़ी आयेगी तब पुण्य को भी काटो, क्योंकि अन्यथा तुम भागोगे, काटोगे-पीटोगे फूल को, सोचोगे कहां वह सोने की जंजीरें हैं। पहले पाप को मिटाओ पुण्य से, एक सौंदर्य है, कहां छिपा है! उस काट-पीट में फूल भी खो जायेगा, कांटे को दूसरे से निकालो; फिर दोनों कांटों को फेंक दो, फिर सौंदर्य भी खो जायेगा। पाप भी पुण्य भी दोनों चले जायें। जब सारे कर्म शून्य हो जायेंगे। विश्लेषण से सौंदर्य का पता नहीं चलता, न सत्य का पता तो कर्ता मिट जाता है। जब कर्म ही न बचे तो कर्ता कौन! यह चलता है; क्योंकि जो है, वह अखंड में है। इसलिए मैं कहता महावीर का मार्ग है। | हूं, छोड़ो समझ को! समझ खंडित करती है चीजों को। वह भक्त का मार्ग यह है, वह कहता है: हम कर्ता को ही रखे आते कहती है. काटो-पीटो. जांचो, तोड़ो। सारा विज्ञान तोड़-फोड हैं उसके चरणों में। कर्म से शुरू नहीं करता भक्त। भक्त कर्ता से चलता है। तुम दे दो वैज्ञानिक को फूल, वह फौरन भागेगा Jain education International Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE HARASH TRA धमः निजी आर वैयक्तिक प्रयोगशाला में। फूल को देखेगा भी नहीं। फूल को थोड़ा मौका अगर परमात्मा से थोड़ा दिल लग गया तो वही स्वर्ग है। भी न देगा कि फूल थोड़ा गुनगुना ले। भागेगा प्रयोगशाला में। और क्या देखने को बाकी है, जल्दी ही तुम पाओगे, पंखुड़ियां बिखर गईं। विच्छेद कर डाला आप से दिल लगा के देख लिया। उसने फूल का। जल्दी ही तुम पाओगे, लेबिल लगा दिये गये, पर अब बद्धि को मत दौड़ाओ। अब बुद्धि के जाल मत बनो। अलग-अलग बोतलों में उसने फूल से निकालकर रस संजो छोड़ो भी। बुद्धि विरस कर देगी। बुद्धिमान स्वर्ग भी चला दिये। बता देगा, कितना लवण है, कितनी मिट्टी है, कितनी जाये, नर्क को निर्मित कर लेगा; क्योंकि वह स्वीकार नहीं कर शक्कर है, कितना क्या है। सब बता देगा, लेकिन कोई भी ऐसी सकता है। घटना घट भी जाये तो भी पूछता है, 'क्यों!' बोतल न होगी जिसमें सौंदर्य होगा, और सब चीजें पकड़ में आ 'क्यों' का कोई उत्तर नहीं है। ऐसा है। जब भी तुम्हारा दिल जायेंगी। पार्थिव पकड़ में आ जायेगा, अपार्थिव छूट जायेगा। खुला होता है और प्यारे को तुम उपलब्ध होते हो, घट जाता है। तुम पूछोगे, ‘सौंदर्य कहां है? हमने फूल दिया था, एक सुंदर तुमने किसी को भी प्रेम किया, वहीं से परमात्मा की किरणें फूल दिया था—यह फूल का विश्लेषण हुआ, सौंदर्य कहां उतरनी शुरू हो जाती हैं, वही खिड़की हो जाता है, वही वातायन है?' वह कहेगा, ‘सौंदर्य था ही नहीं। मैंने बड़े गौर से हो जाता है। तुमने अगर मुझे प्रेम किया तो यहां स्वर्ग बन काटा-पीटा, कोई भी चीज बाहर नहीं जाने दी है। जितना वजन जायेगा। जिनका मझ से प्रेम नहीं है, वे तम्हें पागल समझेंगे। फूल का था-उतना ही इन चीजों का है, तुम तौल ले सकते हो।। उन्हें सोचने दो कि क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ! यह काम सौंदर्य कहीं गया नहीं। था ही नहीं। होगा ही नहीं। तुम किसी उन पर छोड़ दो, जिनको नहीं हुआ है। कुछ काम उनके लिए भी भ्रांति में पड़े होओगे। तुमने कोई सपना देखा होगा।' तो छोड़ो। समझ खंड-खंड करती है। समझ यानी विश्लेषण। और और क्या देखने को बाकी है, सत्य उपलब्ध होता है संश्लेषण से, जोड़ से, अखंड से। तो मैं | आप से दिल लगा के देख लिया। तुमसे कहता हूं, अगर लगता है कहीं, यहीं स्वर्ग है, तो अब समझने की फिक्र छोड़ो ! स्वर्ग में तो समझ मत लाओ! समझ आज इतना ही। से संसार चलता है। समझ से संसार बनता है। स्वर्ग में तो समझ मत लाओ! अगर काव्य उठा है, अगर हृदय अभिभूत हुआ है तो नाचो! अब स्वर्ग आ गया है, तुम पूछते हो कि ऐसा क्यों हुआ! जो हुआ, हुआ। 'क्यों' में जाने का अर्थ है : अतीत में जाओ। 'क्यों' में जाने का अर्थ है : कारण में जाओ। 'क्यों' में जाने का अर्थ है: विज्ञान में जाओ। विज्ञान पछता है, 'क्यों?' नहीं, धर्म स्वीकार करता है। धर्म पूछता ही नहीं। धर्म कोई प्रश्न नहीं है। धर्म एक आश्चर्यभाव है। धर्म कहता है, अहा! यही स्वर्ग है, तो नाच लें, तो गीत गा लें। सुनो इस कोयल को। स्वर्ग अगर आ गया तो आखिरी दरवाजा आ गया! तेरी उम्मीद छुट नहीं सकती तेरे दर के सिवाय दर ही नहीं। और क्या देखने को बाकी है, आप से दिल लगा के देख लिया। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education inational www Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां प्रवचन परम औषधिः साक्षी-भाव For Priwerte & Personal Use Only - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र रागो य दोसो वि य कम्मवीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाईमरणस्य मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति।।११।। न य संसारम्मि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स। जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मुक्खो उवादेओ।।१२।। तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स। तो तव संजमभंडं, सुविहिय गिण्हाहि तूरंतो।।१३।। जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्ज। मुच्चइ हु ससंवेगी, अणतंवो होइ असंवेगी।।१४।। एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, सजायई समयमुवट्ठियस्स। अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा।।१५।। ___ भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खो परंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।।१६।। www.ainelibrary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र में आग लगी हो तो बाहर जाने के दो ही उपाय हैं: सपना भी नहीं देख सकते हो। प्रकाश से तुम्हारी कोई पहचान या तो बाहर आग नहीं है, ऐसा दिखाई पड़े; या घर नहीं हुई। तो तुम सुनोगे, सुन लोगे-लेकिन इससे तुम्हारे की आग जीवन-घाती है, ऐसा दिखाई पड़े। जीवन में रूपांतरण न होगा। तुम कहोगे, 'क्या भरोसा, प्रकाश या तो बाहर सुख है, आनंद है, जीवन है, ऐसी प्रतीति हो, तो | होता भी है ?' व्यक्ति घर के बाहर भागे; और या घर की पीड़ा, घर के भीतर तुमसे मैं फूलों की बात करूं, फूलों की कथा कहूं; लेकिन लगी आग जलाने लगे, अनुभव में आये, जगाये, तो व्यक्ति फूल तुमने देखे ही न हों और तुम्हारे नासापुटों में कभी गंध ने बाहर भागे। आवास न किया हो, तो क्या उपाय है? तुम कैसे आकर्षित दुनिया में दो ही तरह के धर्म हैं। एक-जो परमात्मा के आनंद होओगे? तम सन लोगे बात, लेकिन तम्हारे हृदय को छ न का वर्णन करते हैं; उस परम दशा के सुख की महिमा गाते हैं; पायेगी; तुम्हारे प्राणों में इससे क्रांति का जन्म न होगा। शायद समाधि का सौरभ, उस सौरभ के गीत गुनगुनाते हैं। और दूसरे तुम पंडित हो जाओ, लेकिन प्रज्ञावान न हो सकोगे। शायद तुम धर्म हैं-जो तुम्हारी जीवन-दशा की अग्नि, दुख, पीड़ा, छाती | भी सुन-सुनकर यही बात औरों से करने लगो। शायद शब्द में चुभे कांटों का विचार करते हैं। तुम्हें कंठस्थ हो जायें, शास्त्र तुम्हारी स्मृति में प्रविष्ट हो जायें; महावीर का धर्म दूसरे प्रकार का धर्म है; इसलिए दुख की लेकिन तुम दौड़ोगे नहीं घर के बाहर। तुम कहोगे, हाथ की बार-बार चर्चा होगी। पतंजलि का धर्म पहले प्रकार का धर्म है; आधी को भी छोड़कर सपने की परी के लिए दौड़ना ठीक नहीं इसलिए परमात्मा के प्रसाद, समाधि के आनंद, ध्यान के है; ये बातें सपनीली हैं, अव्यवहारिक हैं, कल्पना-जाल हैं। हर्षोन्माद की बार-बार चर्चा होगी। लेकिन दोनों का लक्ष्य एक भीतर तो तुम यही जानते रहोगे। तुम्हारा शब्द-ज्ञान बढ़ता है कि तुम घर के बाहर आ जाओ। और यदि गौर से देखो तो जायेगा, अज्ञान मिटेगा नहीं। तुम धर्म के काव्य में डूब जाओगे; महावीर की पकड़ ज्यादा वैज्ञानिक, ज्यादा तर्क-युक्त, ज्यादा लेकिन धर्म तुम्हारे जीवन का तथ्य न बनेगा। तब तुम एक | व्यवहारिक है। क्योंकि जिस परमात्मा की हम चर्चा कर रहे हैं। दुविधा में भी पड़ोगे। क्योंकि जो सुख तुम्हारे शब्दों में छा उसे देखा नहीं। चर्चा में बहुत बल हो नहीं सकता। तुम कभी घर जायेगा और प्राणों को आंदोलित न करेगा, वह तुम्हें दो हिस्सों में के बाहर आये नहीं। तोड़ देगा : जीवन में तो दख होगा, जिह्वा पर सुख की बातें मैं तुमसे कहता हूं, 'घर के बाहर बड़ा प्रकाश है, क्यों अंधेरे में | होंगी; प्राणों में तो कांटे छिदे होंगे, स्मृति में कल्पना के फूल पड़े हो?' लेकिन तुमने अंधेरे के सिवा कभी कुछ जाना नहीं। तैरेंगे। तुम दो हिस्सों में खंडित हो जाओगे। प्रकाश की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो। प्रकाश का सारी मनुष्य जाति खंडित हो गई है। क्योंकि एक तरफ 91 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 जिन सूत्र भाग: परमात्मा खींचता है...और उसकी खींच में बहुत बल नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे जाना नहीं, चखा नहीं, जीया नहीं, उसकी पुकार सुनोगे कैसे? वह बहुत दूर की धुंधली - सी आवाज, बस एक गूंज रह जाती है, प्रतिध्वनि - मात्र, छाया - मात्र । और जीवन की वासनाएं हैं, वे प्रगाढ़ ; वे तुम्हें खींचेंगी। तो तुम बंधे तो रहोगे जीवन के ही पहिये से, घसिटते तो रहोगे जीवन के रथ के साथ ही, धूल-धवांस तो जीवन की ही खाते रहोगे । हां, सपने तुम मोक्ष के, बैकुंठ के देखने लगोगे । इससे तुम शांत न होओगे। इससे तुम्हारी अशांति शायद थोड़ी और बढ़ जायेगी। इससे तुम परमात्मा को पा सकोगे, ऐसा तो कम दिखायी पड़ता है; इससे तुम जीवन में उदास और खिन्न और विषाद - युक्त हो जाओगे । इसलिए महावीर ने दूसरा मार्ग चुना। वे परमात्मा की बात ही नहीं करते। उसे अलग ही कर दिया, बाद ही दे दी, हाशिये पर भी नहीं रखा है, शास्त्र की तो बात छोड़ो। उसे हटा ही दिया। समाधि के प्रसाद गुण की बात नहीं करते, न आनंद की बात करते — वे तो तुम्हारे जीवन की, जहां तुम हो, उसकी ही बात करते हैं, और कहते हैं, यहां दुख है। वे तुम्हें जीवन के दुख की प्रगाढ़ता से परिचित करा देना चाहते हैं। वे तुम्हारे हृदय में चुभे हुए शूलों से तुम्हारी पहचान करा देना चाहते हैं । उनका सारा आधार तुम्हारी वस्तुस्थिति से तुम्हें परिचित करा देना है । तुम्हें पता चल जाए कि घर में आग लग गई है। तुम जल रहे हो, लपटों से घिरे हो। तो महावीर मानते हैं कि तुम दौड़कर बाहर निकल जाओगे। निकलोगे बाहर तो बाहर को जानोगे । . फूल भी खिले हैं । नहीं कि फूल नहीं खिले हैं। परमात्मा भी है। नहीं कि परमात्मा नहीं है। समाधि के भी मेघ बरस रहे हैं, अमृत की धार बह रही है। सब है। लेकिन महवीर उसकी बात नहीं करते। वे तो सिर्फ तुम्हारे जीवन के दुख की बार-बार पुनरुक्ति करते हैं । तुम्हें जीवन का दुख दिखाई पड़ जाये तो तुम जीवन को छोड़ने लगोगे । उसी छोड़ने में मोक्ष उतरता है। इसलिए महावीर का मार्ग निषेध का है, नकार का है। महावीर का मार्ग चिकित्सक का है। तुम चिकित्सक के पास जाते हो तो वह स्वास्थ्य की चर्चा नहीं करता। नहीं कि स्वास्थ्य नहीं है, | लेकिन बीमार से स्वास्थ्य की क्या चर्चा करनी ! वह तुम्हारी बीमारी का निदान करता है; बीमारियों को उघाड़कर रखता है; एक-एक बीमारी की पकड़ करता है, जांच-परीक्षण करता है, डायगनोसिस करता है। बीमारी पकड़ में आ जाती है, बीमारी समझ में आ जाती है — औषधि बता देता है। स्वास्थ्य की कहीं कोई चिकित्सक बात करता है! बीमारी पकड़ में आ गई, चिकित्सा का पता चल गया – अब तुम्हारे ऊपर है। अगर तुम्हें बीमारी दिखाई पड़ती है, बीमारी की पीड़ा दिखाई पड़ती है, तो औषधि तुम वरण करोगे; चाहे औषधि कड़वी भी क्यों न हो। बीमारी से साक्षात्कार हुआ तो औषधि तुम अंगीकर कर लोगे। औषधि बीमारी को काट देगी। जो शेष रह जायेगा बीमारी के कट जाने के बाद, वह अनिर्वचनीय है; उसकी बात ही नहीं की जा सकती; वह अभिव्यक्ति के योग्य नहीं है; उसकी कोई अभिव्यंजना कभी नहीं कर पाया। कहो 'ईश्वर', तो भी कुछ पता नहीं चलता। कहो 'समाधि', तो भी शब्द ही हाथ में आता है। कहो 'कैवल्य', कुछ शब्द की गूंज होती है; हृदय में कोई अनुभूति का तालमेल नहीं बैठता। लेकिन जब तुम्हारी सारी बीमारी हट जाती है, तब अचानक जो घटता है— जीवंत, अस्तित्वगत - वही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य बताया नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है। तो इसलिए महावीर के वचनों में तुम्हें बार-बार दुख की चर्चा मिलेगी। इससे तुम्हें थोड़ी बेचैनी भी होगी। क्योंकि तुम सुख की चर्चा सुनना चाहते हो । तुम कहते हो, यह क्या दुख का राग है ! इसलिए पश्चिम में जब महावीर के वचन पहली दफा पहुंचने शुरू हुए तो लोगों ने समझा, दुखवादी हैं। महावीर दुखवादी नहीं हैं। इनसे परम सुखवादी कभी पैदा नहीं हुआ। क्या चिकित्सक तुम्हारी बीमारी की चर्चा करे, औषधि का निदान करे, तो तुम यह कहोगे कि यह बीमारी का पक्षपाती है ? वह चर्चा ही बीमारी की इसलिए कर रहा है कि तुम उससे छूट जाओ। वह स्वास्थ्य की चर्चा नहीं कर रहा है, क्योंकि चर्चा करने से कभी कोई स्वस्थ हुआ ! इसलिए महावीर दुख का ही विश्लेषण करते चले जाते हैं। हजार तरफ से एक ही इशारा है उनका दुख । तुम्हें यह दिखाई पड़ने लगे कि तुम्हारा सारा जीवन दुख है – सुबह से सांझ तक, जन्म से मृत्यु तक — दुख का ही अंबार है, राशि है । ऐसी तुम्हारी पहचान जिस दिन हो जायेगी... और यही हो Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है, क्योंकि इसमें तुम खड़े हो । परमात्मा तो दूर की बातचीत है; हो न हो, दुख है। तो महावीर इसकी भी चिंता नहीं करते, सृष्टि कब बनी; इसकी भी चिंता नहीं करते, किसने बनायी। इन दूर की बातों में जाने से फायदा क्या है ? ऐसा तो नहीं है कहीं कि तुम दूर की बातें कर के पास की असलियत को भुलाना चाहते हो? ऐसा तो नहीं है कि सृष्टि किसने बनायी, कौन है बनानेवाला, क्यों बनायी — इस तरह के बड़े-बड़े सवाल उठाकर जिंदगी के असली सवालों को तुम छिपा और ढांक लेना चाहते हो ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये सब सांत्वना के उपाय हैं, ताकि दुख दिखाई न पड़े; ताकि दुख चुभे न, छिदे न, ताकि दुख की पीड़ा न हो। कहीं तुम्हारे मंदिर-मस्जिद, पूजागृह तुम्हारी सांत्वनाओं का जाल तो नहीं ? महावीर ऐसा ही जानते हैं। यह सब तुम्हारी सांत्वना का जाल है । इसलिए महावीर मित्र भी मालूम नहीं होते। इसलिए तो महावीर बहुत अनुयायी इकट्ठे न कर पाये। सुख की चर्चा की होती, दुखी लोग आ गये होते। उन्होंने दुख की चर्चा की, दुखियों ने सोचा, 'हम वैसे ही दुखी हैं, बख्शो !' दुखियों ने कहा, 'हम वैसे ही दुखी हैं, तुम्हारे पास आकर और दुख की ही चर्चा, और दुख की ही चर्चा...! ऐसे ही क्या दुख कम हैं, जो अब तुम और चर्चा करके जोड़े जा रहे हो? हमें थोड़ी सांत्वना दो, भरोसा दो, आश्वासन दो, आशा दो। कहो हमें कि आज सब गलत है, कल सब ठीक हो जायेगा। कहो कि यह संसार तो माया है।' महावीर ने नहीं कहा कि यह संसार माया है; क्योंकि महावीर | ने कहा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम दुख को माया कहकर भुलाना चाहते हो ! जिस चीज को भी माया कह दो, उसे भुलाने में सुविधा हो जाती है। संसार माया है, तो दुख भी माया है, तो बीमारी भी माया है, तो झेल लो, भोग लो, कुछ असलियत तो इसमें है नहीं, असली चीज तो परमात्मा है। महावीर ने संसार को बड़ा सत्य माना है; परमात्मा की बात ही नहीं की। जो सत्यों का सत्य है, उसकी तो बात नहीं की; और इस भ्रामक संसार को बड़ा सत्य माना है। क्योंकि महावीर कहते हैं कि तुम्हारे मन को मैं पहचानता हूं। तुम्हारे परमात्मा, तुम्हारे मोक्ष, सब मलहम पट्टियां हैं; उनसे तुम घाव को छिपाते हो । और यह घाव कुछ ऐसा है, इसकी शल्य चिकित्सा होनी परम औषधि : साक्षी-भाव | चाहिए, सर्जरी होनी चाहिए। तो तुम सर्जन के पास जाओगे तो वह दबायेगा भी तुम्हारा घाव, तो तुम चीखोगे भी, मवाद भी निकालेगा तो तुम यह थोड़ी कहोगे कि दुश्मन हो, कि हम वैसे ही तो दुख में भरे थे, तुमने और मवाद निकाल दी; हम वैसे ही तो तड़फ रहे थे, तुमने यह और क्या किया; ऐसे ही क्या दुख कम था कि तुम छुरी- कांटे लेकर खड़े हो गये हो ! नहीं, तुम जानते हो, सर्जन मित्र है। वह उस गलत अंग को काटकर अलग कर देगा, जहां से विष तुम्हारे पूरे जीवन-संस्थान में फैला जा रहा है। महावीर एक सर्जन हैं; दार्शनिक कम, तत्वचिंतक कम, चिकित्सक ज्यादा हैं। इस शब्द को खयाल में रखो : चिकित्सक। नानक ने अपने को वैद्य कहा है। बुद्ध ने भी अपने को वैद्य कहा है। महावीर भी वैद्य हैं। ये तुम्हें लोरियां सुनाने में उत्सुक नहीं हैं, कि तुम्हें थोड़ी झपकी लग जाये; तुम रातभर जागे हो, जन्म-जन्म जागे हो, थोड़ा सो लो। नहीं, इनकी उत्सुकता तुम्हें सुलाने में नहीं है, क्योंकि सोने के कारण ही तो तुम्हारे जीवन की सारी पीड़ा और जाल और प्रवंचना का फैलाव है। इसलिए महावीर तुम्हारे दुख से भरी रग को छुएंगे, घबड़ाना मत। दुखवादी नहीं हैं वे । लेकिन तुम दुख में हो। और तुम धीरे-धीरे अपने को इस तरह की भ्रांतियों में डाल लिये हो कि तुम दुख को दुख नहीं मानते; तुम उसे सुख मानने लगे हो – तो तुम्हें बार-बार जगाना पड़ेगा कि दुख दुख है, सुख नहीं। जिस दिन तुम्हारा सारा जीवन लपटों से भर जायेगा - भरा तो है ही, दिखाई पड़ जायेगा जिस दिन; जिस दिन तुम देखोगे कि यहां कुछ भी तो नहीं है, कीड़े-मकोड़े हैं, घाव, मवाद, पीड़ा ही पीड़ा - उसी दिन छलांग लगाकर इस घर के बाहर हो जाओगे । हां, बाहर खुला आकाश है; सूरज का प्रकाश है; खिले' फूल हैं, पक्षियों के गीत हैं; बाहर बड़ी वातास है, बड़ी मधुरिमा है, बड़ा सौंदर्य है! लेकिन वह तो तुम बाहर आओगे, तो ही सुनाई पड़ेगा। वह तो तुम बाहर आओगे, तो ही दिखाई पड़ेगा। इसलिए बाहर की कोई बात नहीं। जहां तुम हो, उसकी बात है। बड़ी व्यवहारिक बात है। बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है...। और बुद्ध और महावीर इस संबंध में एक ही दृष्टिकोण के हैं। दोनों श्रमण-संस्कृति के आधार हैं।... कहते हैं बुद्ध को जब परमज्ञान हुआ, तो शैतान 93 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1:11 प्रगट हुआ। यह कथा बहुत धर्मों में आती है : जब परम ज्ञान मत। बचकर कुछ सार न पाओगे। इस सत्य से जूझना ही प्रगट होता है तो शैतान भी प्रगट होता है। इस कथा में जरूर | पड़ेगा। और यह सत्य बड़ा कष्टपूर्ण है। इसलिए मन करता है, कोई सार होगा। यह कथा केवल प्रतीक नहीं हो सकती, क्योंकि मान लो यह है ही नहीं। तुम भी जानते हो तुम्हारे मन की प्रक्रिया यही जीसस के जीवन में भी उल्लेख है, कि जीसस जब ज्ञान के को। जो चीज बहुत कष्ट देने लगती है, तुम मानने लगते हो यह करीब पहुंचे तो शैतान प्रगट हुआ और शैतान ने उन्हें उत्तेजित | है ही नहीं। किया, उकसाया। और शैतान ने बड़ी वासनाओं के प्रलोभन मेरे एक परिचित थे। उन्हें टी. बी. की बीमारी थी। उनकी दिये। और शैतान ने कहा कि सारे जगत का तुझे सम्राट बना दूं, पत्नी उन्हें मेरे पास लायीं और कहा, कि आप किसी तरह इनको सारी धन-राशि तेरी हो, सुंदरतम स्त्रियां तेरी हों, लंबा तेरा | समझायें कि डाक्टर से चलकर ठीक से निदान करवा लें। पति जीवन हो। क्या चाहिए? भड़क उठे। कहा कि 'क्या कहती है? जब मैं बीमार ही नहीं हूं वही बुद्ध से भी शैतान ने कहा। बुद्ध हंसते रहे। बुद्ध ने कहा, | तो मैं जाऊं क्यों? परीक्षण के लिए क्यों जाऊं? परीक्षण के 'मुझे कुछ चाहिए नहीं। मैं बचा नहीं। चाहनेवाला जा चुका, लिए वह जाये जो बीमार है। जब मैं बीमार ही नहीं हूं तो जाने की चाह भी जा चुकी। चाहा तो मैंने भी था, बड़े साम्राज्य बनाऊं; बात ही क्या उठाती है?' चाहा तो मैंने भी था, चक्रवर्ती बनूं। उसी चाह के कारण भिखारी | लेकिन उनकी मैंने घबड़ाहट देखी, उनका तमतमाया चेहरा चाह के कारण भटका जन्मों-जन्मों तक। चाह छोड़ी, देखा, उनके कंपते हाथ देखे। मैंने उनसे कहा कि आप बिलकुल तब शांति मिली। चाह जब पूरी गई, तो अब मैं परम आनंद से ठीक कहते हैं। आप बीमार ही नहीं हैं। चिकित्सक के पास जाने भरा हूं। अब तू गलत वक्त पर आया है। पहले आता तो शायद की कोई जरूरत ही नहीं है। तेरे चक्कर में भी पड़ जाता।' | वे बड़े प्रसन्न हुए। कहा कि जिसके पास ले जाती है यह मेरी | तो शैतान ने कहा कि तुम सोचते हो तुम्हें परमज्ञान हो गया है, पत्नी, वही कहता है कि जाइये, जब यह कहती है तो परीक्षा तुम्हारा गवाह कौन है? तुम्हारे कहने से ही मान लूंगा? तुम्हारी | करवा लीजिये। मैंने कहा कि नहीं आप बिलकुल ठीक कहते गवाही कौन दे सकता है? हैं। कोई बीमारी नहीं है, इसलिए चिकित्सक के पास जाने की __ तो बड़ी अनूठी बात है-तुमने शायद बुद्ध का चित्र या कोई जरूरत नहीं है। लेकिन यह पत्नी पागल हुई जा रही है, जरा प्रतिमा भी देखी होगी, जिसमें वे एक अंगुली जमीन पर रखे हुए इस पर दया करो! यह मर जायेगी इसी घुटन में; तुम इस पर दिखाये गये हैं। बुद्ध ने जमीन पर अंगुली लगाई और कहा, यह । कृपा करके चिकित्सक के पास चले जाओ! बीमारी तो है ही नहीं पृथ्वी मेरा प्रमाण है, यह मेरी गवाही है। बड़ी हैरानी की बात है : तो चिकित्सक भी कहेगा, बीमारी नहीं है। तुम घबड़ाते क्यों पृथ्वी को गवाही बता रहे हैं! आकाश में परमात्मा को बताया हो? मगर इसकी शंका, इसका शल्य दूर हो जायेगा। होता कि परमात्मा मेरा गवाह है तो समझ में आता। लेकिन बुद्ध वे बड़े उदास हो गये। और महावीर दोनों ही परमात्मा की बात नहीं करते। वे जीवन के कहने लगे, यह तो उलझा दिया आपने। सच यह है, उनकी यथार्थ की बात कहते हैं। वे कहते हैं, 'इस पृथ्वी से पूछ लो। आंख में आंसू आ गये कि मैं डरता हूं। मुझे भी डर है कि शायद इसी से मैं बना हूं। यही पृथ्वी मेरी देह है। इसी पृथ्वी ने मेरे बीमारी है। मैं किसी तरह अपने को समझा रहा हूं कि नहीं है। भीतर हजार-हजार वासनायें उठायी थीं। इसी पृथ्वी से पूछ लो। चिकित्सक के पास तो कैसे छिपा पाऊंगा कि नहीं है। पत्नी को बहुत दुख मैंने झेले हैं, और अब मैं दुखों के बाहर हो गया हूं। समझाने की कोशिश कर रहा हूं, बच्चों को समझाने की कोशिश और कौन गवाह हो सकता है?' | कर रहा हूं। मैं मौत से डरता हूं। टी. बी. शब्द ही मुझे घबड़ाता पृथ्वी से गवाही दिलवाते हैं बुद्ध। यह बड़ा प्रतीकात्मक है। है। अगर चिकित्सक ने कहा कि टी. बी. है तो मैं मर ही महावीर के लिए यह संसार बड़ा वास्तविक है। वे इसको माया | जाऊंगा। टी. बी. से मरूंगा या नहीं, यह सवाल नहीं है; बस नहीं कहते। वे कहते हैं, यह सत्य है। माया कहकर तुम बचो यह जानकर कि टी. बी. है, मैं मर जाऊंगा। 94 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SERIERRENT परम औषधि : साक्षी-भाव मैंने उनसे कहा, तुम पागल हुए हो। टी. बी. से आज कहीं जायेगा; यह राम-राम जप लेना, सब ठीक हो जायेगा; यह मंत्र कोई मरता है। तुम पुराने जमाने की बात कर रहे हो। की माला फेर लेना रोज, सब ठीक हो जायेगा। काश, इतना घबडाहट । डाक्टर के पास जाने से लोग डरते हैं। जब बीमारी आसान होता। बहुत ही पकड़ लेती है, कोई उपाय ही नहीं रह जाता है। तब | | थोड़ा सोचो भी, कैसी बचकानी आकांक्षाएं हैं! क्या तुम डाक्टर के पास जाते हैं। डाक्टर के पास जाने के पहले और तरह सोचते हो जीवन इतना आसान है कि राम-राम जपने से ठीक हो के लोगों के पास जाते हैं-कोई ओझा, कोई मंत्र पढ़नेवाला, | जायेगा? जरा जीवन की जटिलता तो देखो, उलझन तो देखो! कोई फकीर, कोई ताबीज बांध देनेवाला-और जगह जाते हैं, इतना आसान है कि एक माला के गुरिए सरका देने से ठीक हो जहां सांत्वना है; लेकिन डाक्टर के पास सीधा-सीधा नहीं जायेगा? तुम किन मंदिरों के सामने हाथ जोड़े खड़े हो? जाते। क्योंकि डाक्टर तो सीधा कहेगा, फला-फलां बीमारी है, प्रतिमाएं परमात्मा की तो नहीं हैं—तुम्हारी ही आकांक्षाओं की इलाज की बात उठेगी। तो पहले मंत्र पढ़ते हैं, ताबीज बांधते हैं, हैं; तुमने ही बनायी हैं; तुमने ही प्रतिष्ठा दी है; तुमने ही पूजा दी भभूत ले आते हैं। पहले साईंबाबा; फिर जब सब साईंबाबा हार | है! पहले तुम भगवान बनाते हो, फिर अपने ही बनाये भगवान जायें, तब मजबूरी में चिकित्सक के पास जाते हैं। के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हो! थोड़ा जाल तो देखो! ठीक वैसा ही धर्म के जगत में भी है। पहले तुम उनकी बात | थोड़ी अपनी चालाकी तो देखो! पहले तुम्हीं भगवान बनाते हो! सुनोगे जो कहते हैं, संसार माया है। महावीर के पास जाने में तुम्हारी मान्यता से ही कोई मूर्ति भगवान हो जाती है। कल तक डरोगे, पैर कंपेंगे; क्योंकि महावीर तुम्हारी किसी भ्रांत बाजार में खड़ी थी, बिकती थी, तब भगवान न थी-फिर तुम आकांक्षाओं को सहारा देने में उत्सुक नहीं हैं। महावीर तो ठीक ले आते हो, मंत्रोच्चार करते हो, पूजा-प्रार्थना करते हो, तुम्हारी उस रग पर हाथ रख देंगे, जहां पीड़ा है, जहां दुख है। पंडित-पुरोहित इकट्ठे होते हैं, क्रियाकांड होता है। फिर पत्थर जो ये सूत्र निदान-सूत्र हैं। ये चिकित्सक के वचन हैं। इन्हें तुम | बाजार में बिकता था, तुम्हीं खरीद लाये, तुम्हारे ही जैसे लोगों ने गौर से सुनना। चाहे ये कितना ही कष्ट देते मालूम पड़ें, इनसे ही बनाया, उसी मूर्ति के सामने तुम हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हो! मक्ति का मार्ग है। महावीर के पास जाकर अगर तुम कह तुम प्रार्थना करने लगते हो! तुम भी जानते हो गहरे में, प्रार्थना सको काम न आयेगी। क्योंकि परमात्मा ही तुम्हारा बनाया हुआ है। फिर मैं आया हूं तेरे पास ऐ अमीरे-कारवां परमात्मा बनाने के हमने ग्रामोद्योग खोले हुए हैं। बिना परमात्मा --हे पथ-प्रदर्शक ! मैं फिर तेरे पास आया हूं। के रहना मुश्किल है; क्योंकि भय है, और जीवन है, और कष्ट छोड़ आया था जिसे तू, वो मेरी मंजिल न थी। है और कांटे ही कांटे हैं। तो पृथ्वी से आंख चुराते हैं। आकाश -जहां तू मुझे छोड़ आया था, या जहां मैंने तुझे छोड़ दिया | की तरफ देखते हैं। इसलिए सभी का परमात्मा आकाश में है। था, वह मेरी मंजिल न थी। मैं गलत पथ-प्रदर्शकों के साथ बुद्ध ने ठीक किया कि पृथ्वी की तरफ हाथ लगाकर कहा कि भटका। यह मेरी गवाह है। किसी और से पूछा होता तो वह आकाश की दुनिया में जहां एक ठीक पथ-प्रदर्शक होता है, वहां निन्यानबे तरफ इशारा करता कि वहां मेरा परमात्मा है, वह मेरा गवाह है। गलत भी होते हैं। होंगे ही, क्योंकि जिंदगी में इतना दुख है, और आकाश की तरफ तुम आंख उठाते हो क्योंकि पृथ्वी से आंख दुख से बचने की इतनी आकांक्षा है, कि भ्रांत और धोखा देनेवाले चुराना चाहते हो। लेकिन तुम जानते हो कितना ही झुठलाओ लोग भी पैदा होंगे ही। जहां इतने लोग बीमारी से बचना चाहते क्या फर्क पड़ेगा? हैं-बीमारी की चिकित्सा तो बहुत कम लोग करना चाहते हैं; मैंने सना है: पहली तो कोशिश यही होती है कि कोई समझा दे कि बीमारी है एक ऐसे गांव में जहां बारिश नहीं हो रही थी, एक पुजारी ने ही नहीं-वहां ऐसे लोग भी जरूर पैदा हो जायेंगे जो समझा देंगे घोषणा की कि वह सब गांववालों के सामने भगवान से प्रार्थना कि बीमारी है ही नहीं; यह ताबीज बांध लेना, सब ठीक हो करेगा कि वर्षा हो। ठीक समय पर सब गांववाले उपस्थित हो 1951 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 जिन सूत्र भाग: 1 गये, तो पुजारी ने कहा, 'भाइयो और बहनो! इससे पूर्व कि मैं भगवान से प्रार्थना करूं, आपसे एक प्रश्न पूछता हूं कि आप लोगों के छाते कहां हैं?' भगवान से प्रार्थना करने इकट्ठे हुए हैं कि वर्षा हो — होगी वर्षा – छाते कहां हैं ? लेकिन जो लोग चले ये हैं प्रार्थना करने, वे भी जानते हैं कि कहीं ऐसे वर्षा होती है ! फिर भी चले आये हैं! छाते नहीं लाये हैं! छाता लाये होते तो पता चलता कि श्रद्धा है। तुम मंदिर तो चले जाते हो – छाता ले जाते हो ? मस्जिद तो कहा कि भरोसे न भरोसे का सवाल ही नहीं है। हो आते हो – छाता ले जाते हो ? आदमी बड़ा बेईमान है ! प्रार्थना भी कर लेता है, भीतर-भीतर तुम्हें पहले से पता है कि कहीं कुछ होना है! लेकिन कर लो, जानता भी रहता है कि कहीं कुछ होना है ! यह स्वाभाविक है; हर्ज भी क्या है, शायद हो ही जाये ! मुल्ला नसरुद्दीन के साथ मैं एक मकान में ठहरा हुआ था । किसी ने बता दिया उसको कि इस मकान में भूत-प्रेत का वास है। तो वह आया भागा हुआ, उसने जल्दी से सामान बांधा। उसने कहा, 'आप रुकना हो रुको, मैं चला ! मैं होटल ठहर जाऊंगा, धर्मशाला, कहीं भी, स्टेशन पर सो जाऊंगा।' 'मामला क्या है ?' क्योंकि जिसकी तुम प्रार्थना कर रहे हो, उससे परिचय ही नहीं है; प्रेम की बातें कर रहे हो, मुलाकात हुई ही नहीं। किसी अजानी स्त्री से कैसे प्रेम करोगे? अपरिचित पुरुष को कैसे प्रेम करोगे ? जिसका नाम नहीं सुना, गांव का पता नहीं, जिसकी कभी छवि नहीं देखी, जिसका कभी कोई पत्र भी नहीं मिला, जिसका तुम्हें पता ही नहीं है कि जो है भी या नहीं— उसे तुम प्रेम कैसे करोगे ? मैंने कहा, उसने कहा, 'किसी ने कहा है कि इस मकान में भूत-प्रेत का वास है।' लेकिन मैंने कहा, 'नसरुद्दीन! तुम तो सदा से कहते रहे कि तुम भूत-प्रेत में भरोसा नहीं करते!' उसने कहा कि निश्चित, 'मैं भूत-प्रेत में कभी भरोसा नहीं करता । ' तो फिर मैंने कहा, 'फिर क्यों डरे जा रहे हो ?' उसने कहा, 'पर क्या पता, मेरा भरोसा गलत हो ! मैं गलत भी तो हो सकता हूं! झंझट कौन ले! रात हम स्टेशन पर सो लेंगे।' ऐसे अंध-विश्वास में भरोसा करता होगा ! उसने कहा, यह तो साफ ही है कि मैं और अंध-विश्वास में भरोसा ! कभी नहीं। मेरा कोई भरोसा नहीं है। मैं यह नहीं मानता कि इस नाल से कुछ होनेवाला है। फिर क्यों लटकाये हो ? उसने कहा कि लेकिन जिसने मुझे यह दिया है, उसने कहा कि चाहे तुम भरोसा करो या न करो, फायदा तो होता ही है। उसने एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक जर्मनी में – अभी-अभी उसकी मृत्यु हुई वह अपनी टेबल के पीछे घोड़े के पैर में लगाए जानेवाला नाल लटकाये हुए था। जर्मनी में ऐसा खयाल है कि अगर घोड़े के पैर का नाल लटका दो तो परमात्मा से जो भी आशीर्वाद बरसते हैं, वे नाल में अटक जाते हैं, तुम उनके मालिक हो जाते हो। कोई चीज रोकने को चाहिए न ! तो नाल जो है, प्याली का काम करता है। एक अमरीकन उस वैज्ञानिक को मिलने गया था। वह बड़ा हैरान हुआ । उसने कहा कि तुम जैसा महावैज्ञानिक, नोबेल प्राइज़, पुरस्कार विजेता और तुम यह घोड़े का नाल लगाये हुए हो। तुम्हें शर्म नहीं आती? यह तो मैं भरोसा ही नहीं कर सकता कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और तो महावीर प्रार्थना की बात नहीं करते। वे कहते हैं, कोई ऐसे रास्ते मत खोजो । जीवन सीधा साफ है । और सचाई यह है कि जिंदगी में दुख है । इस दुख से ही जूझना है, भागना नहीं, पलायन नहीं। इस दुख की चुनौती स्वीकार करनी है। 'राग और द्वेष के बीज मूल कारण हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। यह जन्म-मरण का मूल है। और जन्म-मरण को दुख का मूल कहा गया है। ' एक-एक शब्द को समझने की कोशिश करें। यह पहला सूत्र: 'राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है । और मोह जन्म-मरण का मूल है। और जन्म-मरण को दुख का मूल कहा गया है।' यह निदान है। यह चिकित्सक की भाषा है। यहां कोशिश चल रही है कि मूल कारण को पकड़ लें। राग और द्वेष : कोई मेरा है, कोई मेरा नहीं है ! राग और द्वेष : चाहता हूं कोई बचे, और चाहता हूं कोई नष्ट हो जाये; कहता हूं यह अच्छा है, और कहता हूं यह बुरा है; चुनाव – जो अच्छा है वह हो, जो बुरा है वह न हो। महावीर कहते हैं, जब तक चुनाव है; जब तक तुम कहते हो, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम औषधि : साक्षी-भाव यह होना चाहिए और वह नहीं होना चाहिए; स्वास्थ्य होना शोषण जारी है। चाहिए, बीमारी नहीं होनी चाहिए; जवानी मिलनी चाहिए, इसके मन में ऐसे ही विचार उठता है कि यह बुढ़िया मर ही बुढ़ापा नहीं मिलना चाहिए; मित्र घर आये, शत्रु नष्ट हो जाये तो क्या हर्ज होनेवाला है! इसका न तो कोई आगा, न कोई जाये...। इसलिए तो महावीर वेदों को धर्म न कह सके पीछा; न इसके मरने से कोई रोनेवाला है, सारा गांव खुश होगा क्योंकि वेद की प्रार्थनाओं में भी राग-द्वेष भरा हुआ मालूम पड़ता उलटे, प्रसन्न होंगे लोग, उत्सव मनाया जायेगा। इसको भगवान है। ऐसी प्रार्थनाएं हैं वेद में कि कोई प्रार्थना करता है इंद्र से कि हे | उठा क्यों नहीं लेता! और यह किसलिए जी रही है? न इसके इंद्र! मेरे दुश्मनों को नष्ट कर दे। कोई प्रार्थना करता है वेद में कि जीवन में कोई सुख है, कमर झुक गयी है, आंखों से दिखाई नहीं हे भगवान! मेरी गउओं के थनों में दूध बढ़ जाये और दुश्मनों की पड़ता, लकड़ी टेककर चलती है। इसे उठा ही ले भगवान! गउओं के थनों से दूध सूख जाये! भोले-भाले किसानों की अब इसमें कुछ बरा नहीं हआ है, लेकिन यह विचार का बीज प्रार्थनायें मालूम पड़ती हैं, धर्म कुछ नहीं मालूम पड़ता। यही तो उसके मन में पड़ गया, पड़ गया, पड़ गया, यह बार-बार दोहरने हमारी आकांक्षायें हैं कि मुझे मिल जाये, दूसरे को न मिले, मेरा लगा। जब भी बुढ़िया को देखे, उसे यह भाव कि यह उठ ही सुख-दूसरे का दुख भी हो तो उस कीमत पर भी! जाये...। धीरे-धीरे पहले तो सोचता था, परमात्मा उठा ले; महावीर कहते हैं, राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। और जहां | फिर सोचने लगा कि यह गांव भी कैसा है, कोई इसको मार ही तुमने चुना, कर्म शुरू हुआ। तुमने कहा, यह मिलना चाहिए, क्यों नहीं डालता? सारा गांव चूसे जा रही है। फिर धीरे-धीरे कि तुम उसे पाने की यात्रा पर निकले। तुमने कहा, कि यह नहीं | उसे यह भी खयाल उठने लगा कि मैं यहां बैठा-बैठा क्या कर होना चाहिए, कि तुम उसे मिटाने के लिए चले। तुम्हारे मन में | रहा हूं! एक झटके में यह खतम हो जायेगी। तब वह बड़ा चौंका यह विचार भी उठा कि दुश्मन मर जाये तो, महावीर कहते हैं, भी, कि यह कैसा मेरा विचार उठता है! लेकिन ये विचार डोलते हिंसा हो गयी, कर्म शुरू हो गया। रहे, ये तरंगें घूमती रहीं, ये भाव उसके मन में सरकते रहे, विचार कर्म का पहला चरण है। सरकते रहे, सघनीभूत होते गये। परीक्षा उसकी करीब आती है फिर धीरे-धीरे विचार घना होगा, सघन होगा, कृत्य बनेगा, और उसे फीस जमा करनी है और पैसे नहीं हैं, तो वह अपनी और आज जो तुम्हारे मन में सिर्फ एक भाव की तरह आया था, घड़ी बुढ़िया के पास रेहन रखने जाता है। सोचा भी नहीं है कुछ वह कल-परसों घटना बन जाएगा। | उसने, कोई हत्या का आयोजन भी नहीं किया है-बस वह घड़ी दोस्तोवस्की का बड़ा प्रसिद्ध उपन्यास है : 'क्राइम एंड | रेहन रखने गया है। सांझ का वक्त है, धुंधला होता जा रहा है, पनिशमेंट', अपराध और दंड। उसमें रासकलोनिकोव नाम का धुंधलका उतर रहा है; अभी लोगों के दीये भी नहीं जले। वह एक पात्र है। वह एक युवक है विश्वविद्यालय का। और उसके बुढ़िया के हाथ में घड़ी देता है, बुढ़िया उसे खिड़की के पास ले सामने ही एक बूढ़ी महिला रहती है-बड़ी धनपति और जाकर रोशनी में देखने की कोशिश करती है, कितने दाम की महाकंजूस! और उसका कुल धंधा गरीबों को चूसना है। ब्याज होगी। वह पीछे खड़ा है। अचानक वह पाता है कि जैसे का काम करती है, और जितना ब्याज ले सकती है उतना लेती आविष्ट हो गया। एक झटके में वह कूदा और उसने बुढ़िया की है। जो एक बार उसके जाल में फंस जाता है, वह फिर कभी गर्दन पकड़कर दबा दी। वह तो मरने के करीब थी ही। उसने निकल नहीं पाता। ब्याज ही नहीं चुका पाता, मूल के वापिस का चीख-पुकार भी न की और मर गई। वह धड़ाम से नीचे गिर तो सवाल ही नहीं है। ब्याज ही बढ़ता चला जाता है। इतनी पड़ी। तब इसे होश आया कि यह मैंने क्या कर दिया! तब यह ज्यादा मात्रा में ब्याज लेती है कि यह जो रासकलोनिकोव है, यह घबड़ाया। तब यह भागा। लेकिन किसी को पता भी नहीं चला बैठा-बैठा अपनी किताब पढ़ता रहता है, खिड़की से देखता है। और कोई यह सोच भी नहीं सकता कि यह युवक जो रहता है उस बुढ़िया को। बुढ़िया अस्सी साल की हो गयी। मरने चुपचाप अपनी किताबों में उलझा रहता है, इसकी हत्या करेगा। के करीब है। कोई उसके आगे-पीछे नहीं है। लेकिन उसका पुलिस खोजबीन करती है, मगर कोई पता नहीं चलता। किसी 97 www.jainelibrar.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 ने देखा नहीं, कोई गवाह नहीं। लेकिन अब इसके मन के भीतर जो सोचते हो, वही तुम्हारा कृत्य बन जायेगा। एक भय समा गया है कि यह मैंने क्या किया, यह मैंने क्या इसलिए महावीर कहते हैं, कृत्य को बदलने के पहले विचार किया! अब वह दिन-रात न सो सकता है, न कुछ और कर पर जागना होगा। अगर विचार चल पड़ा तो ज्यादा देर नहीं है सकता है। वह खिड़कियां बंद किये बैठा रहता है। वह सोचता कृत्य के पूरे हो जाने में। है : अब पुलिस आई; अब यह जूते की आवाज आने लगी; महावीर कहते थेः सोचा, कि आधा हो गया। महावीर के बड़े अब यह गाड़ी आ रही है, पुलिस की ही होगी! कोई दरवाजे पर प्रख्यात सिद्धांतों में, बड़े उलझन-भरे सिद्धांतों में एक यह है कि दस्तक देता है, वह घबड़ा जाता है, पसीने-पसीने हो जाता है। सोचा कि आधा हो गया। इसको तर्क-रूप से सिद्ध करना बड़ा अब एक दूसरा विचार उसको पकड़ रहा है कि मैं पकड़ा मुश्किल है। महावीर के दामाद ने इसी बात को लेकर महावीर के जाऊंगा। जैसे पहला विचार एक दिन सघनीभूत होकर कृत्य बन | खिलाफ बगावत खड़ी कर दी थी और पांच सौ महावीर के गया, बिना सोचे हत्या हो गई, ऐसा ही अब दूसरा विचार मुनियों को लेकर अलग भी हो गया था। क्योंकि उसने कहा, घनीभूत होता चला जाता है। अब वह पत्तों से भी चौंकने लगता| यह बात तो गलत है; महावीर कहते हैं, सोचा और आधा हो है; कोई पत्ता खड़कता है और वह घबड़ा जाता है। आसपास के गया, यह तो बात गलत है। क्योंकि मैं सोचता हूं कि यह मकान लोग भी चितिंत हो गये हैं कि यह इतना घबड़ाया-घबड़ाया क्यों गिर जाये, आधा तो नहीं गिरता। सोचना सोचना है; होना होना है, रास्ते पर चलता है तो बच-बचकर चलता है, देखकर चलता है। सोचने से कैसे आधा हो जायेगा? हर आदमी सोचता है, मैं है : कौन आ रहा है, कौन जा रहा है। पुलिस दिखाई पड़ती है, धनी हो जाऊं, हो तो नहीं पाता! आधा भी नहीं हो पाता! गली में निकल जाता है, भाग खड़ा होता है। आखिर सारे गांव एक मालिक ने अपने नौकर को समझाया : देखो, यदि किसी में खबर हो जाती है कि मामला क्या है! लोग उससे पूछने लगते काम की योजना ठीक तरह से बन जाये तो समझना चाहिए कि हैं कि मामला क्या है। वह इनकार करता है कि 'मामला क्या है, | आधा काम हो गया। तत्पश्चात नौकर को कमरों की सफाई का कोई मामला नहीं है! तुमने पूछा क्यों? तुम हो कौन आदेश देकर वे कहीं चले गये। दो घंटे बाद जब वापिस आये तो पूछनेवाले? तुमने संदेह कैसे किया?' उन्होंने पूछा, 'कहो, काम हो गया?' । लोग बड़े हैरान होते हैं कि जरूर कोई बात है। अब घनी होने 'जी, आधा हो गया,'नौकर ने तपाक से कहा। लगती है बात। आखिर वह इतनी पीड़ा में पड़ जाता है कि सो भी 'अच्छा, कौन-कौन से कमरे साफ कर दिये?' मालिक ने नहीं सकता; रात-दिन एक ही सपना कि पुलिस पकड़ती है! पूछा। 'जी, सफाई तो अभी शुरू नहीं की परंतु योजना बना ली एक दिन वह पुलिस थाने पहुंच जाता है। वह जाकर वहां कहता है कि किस कमरे की किस क्रम से सफाई करनी है,' नौकर ने है: पकड़ ही लो, यह बकवास बंद करो! रात-दिन, सुबह शाम | उत्तर दिया। न मैं सो सकता, न मैं भोजन कर सकता। हां, मैंने ही हत्या की | महावीर के विरोध में जो लोग खड़े हो गये थे, उनकी बात है। पुलिस इंसपेक्टर भला आदमी है। वह कहता है, 'तू पागल तर्कयुक्त मालूम पड़ती है, क्योंकि सोच लेने से तो नहीं हो हो गया है? तू और हत्या क्यों करेगा? तुझ से बुढ़िया का जायेगा कुछ। लेकिन महावीर बड़ी गहरी बात कह रहे हैं। वे लेना-देना क्या है?' यह कह रहे हैं, जब पहली तरंग उठ गई, जब बीज भूमि में पड़ पुलिस उसे समझाती है कि तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया गया तो अब यह किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता कि वृक्ष हो है। वह कहता है, 'नहीं, दिमाग खराब नहीं हो गया है, मैंने गया। लेकिन बीज भूमि में पड़ गया-आधी बात हो गई हत्या की है।' अदालत में वह यही बयान देता है कि मैंने हत्या असली बात हो गई। अब तो समय की ही बात है। अब तो थोड़े की है, लेकिन पुलिस कोई गवाह नहीं जुटा पाती। समय की ही बात है और थोड़े ऋतु की बात है, वर्षा के बादल एक छोटे-से विचार की तरंग आज नहीं कल घटना में आयेंगे, वर्षा होगी, बीज फूटेगा, अंकुर बनेगा। अब यह सब रूपांतरित हो जाती है। तुम जो सोचते हो, वही हो जाते हो। तुम समय की बात है, लेकिन बीज जमीन में पड़ गया-आधी बात 98 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम औषधि ः साक्षी-भाव हो गई। असली बात तो हो गई। क्योंकि बिना बीज के पड़े वृक्ष कि यह आदमी पागल है, किसलिए धन इकट्ठा कर रहा है! कभी पैदा नहीं हो सकता। और बीज पड़ गया है, तो वृक्ष भी। लेकिन जो नशे में है, उसे भर दिखाई नहीं पड़ता। कोई आदमी पैदा हो जायेगा। पद के नशे में है। सबको दिखाई पड़ता है कि क्यों पागल हुए जा महावीर कहते हैं, अगर वृक्ष को पैदा होने से रोकना हो तो बीज रहे हो! बड़ी से बड़ी कुर्सी पर बैठकर भी क्या हो जायेगा? जो को ही भूमि में पड़ने से रोक लेना। इसलिए वे कहते हैं, राग और बैठे गये हैं, जरा उनको तो देखो कि क्या हुआ! बहुत धन के द्वेष कर्म के बीज, मूल कारण हैं। जिन्होंने अंबार लगा लिये हैं, उन्होंने क्या पाया? लोग कर्म से बचना चाहते हैं। लोग कहते हैं, कर्मों से कैसे | __ एंडरू कारनेगी, अमेरीका का करोड़पति, मर रहा था, तो उसने छुटकारा होगा? लोग कहते हैं, कर्मजाल से कैसे मुक्त हों? अपने सेक्रेटरी से पूछा कि एक बात पूछनी है। कई बार सोची, महावीर कहते हैं, कर्मजाल से मुक्त होना है तो बीज को पकड़ो; | फिर मैं संकोच कर कर रह गया; अब तो मरने का दिन भी आ शुरू से ही शुरू करो; प्रारंभ से ही प्रारंभ करो। मध्य से कुछ भी गया, अब पूछ ही लूं तुझसे। तू मेरे पास कोई तीस साल से काम नहीं हो सकता। करता है। करीब-करीब जिंदगीभर का साथ है। एक बात ईमान राग का अर्थ है : किसी चीज से लगाव। द्वेष का अर्थ है: से बता दे, अगर परमात्मा ने तुझ से पूछा होता पैदा होने के पहले किसी चीज से विरोध। राग का अर्थ है : मैत्री बनाना। द्वेष का कि तू एंडरू कारनेगी बनना चाहता है या एंडरू कारनेगी का अर्थ है : शत्रुता बनानी। तो न तुम्हारा कोई मित्र हो न कोई शत्रु। सेक्रेटरी बनना चाहता है, तो तूने क्या मांगा होता? न तुम कुछ चाहो और न तुम किसी चीज से विकर्षित होओ। जो | उसने कहा, 'मैं सेक्रेटरी ही बनना मांगता।' एंडरू कारनेगी हो रहा है, तुम उसे चुपचाप बिना किसी चुनाव के स्वीकार करते उठकर बैठ गया। उसने कहा, 'तेरा मतलब ?' उसने कहा कि चले जाओ। यह महावीर के ध्यान का सूत्र है। जो हो रहा मैं आपको तीस साल से देख रहा हूं, आपने कुछ भी नहीं पाया। है--सुबह आये सुबह, सांझ आये सांझ, सुख आये सुख, दुख | दौड़े बहुत, पहुंचे कहीं भी नहीं। इकट्ठा बहुत कर लिया, लेकिन आये दुख; न तो तुम सुख को कहो कि और-और आना, न तुम जितनी चिंता और संताप आपको है, उसे देख-देखकर मैं रोज दुख को कहो कि अब दुबारा मत आना, न तो तुम सुख के गले में भगवान को जब रात प्रार्थना करता हूं तो मैं कहता हूं, हे फूल मालायें पहनाओ और न तुम दुख का अपमान करो-जो भगवान! तेरी बड़ी कृपा! एंडरू कारनेगी तूने मुझे न बनाया। आ जाये द्वार पर, द्वार खुला हो! दुख आये दुख को बसा लेना, अच्छा किया। फंसा देता तो मुश्किल हो जाती। सुख आये सुख को बसा लेना; जाता हो जाने देना, क्षणभर को | एंडरू कारनेगी ने अपने सेक्रेटरी को कहा कि मैं तो मर रहा हूं, ना मत! न तो किसी को धकाना, न किसी को बुलाना। लेकिन इस बात को तू सारी दुनिया में प्रचारित कर देना। मैं तुझ जिसको कृष्णमूर्ति 'च्वायसलेस अवेयरनेस' कहते हैं। महावीर से राजी हूं। मैं व्यर्थ ही दौड़ा-धूपा।। उसी को 'निर्विकल्प ध्यान' कहते हैं। इतना धन ! दस अरब नगद रुपये एंडरू कारनेगी छोड़कर मरा तुम चुनाव मत करना, क्योंकि चुनाव से ही जकड़ शुरू होती और अरबों का और फैलाव! कहते हैं, उससे बड़ा धनी आदमी है। चुनाव से ही तुम बंध जाते हो। और एक दफा चुनाव की सिवाय निजाम हैदराबाद को छोड़कर और कोई न था। पर पाया तरंग उठ गई कि जल्दी ही समय पाकर कृत्य भी हो जायेगा। क्या? न तो सो सकता था ठीक से। अपने बच्चों को भी ठीक तो कहां जागना है? जागना है जहां से बीज शुरू होता है। से मिल नहीं सकता था। पत्नी भी अपनी अपरिचित जैसी हो गई 'कर्म मोह से उत्पन्न होता है।' मोह का अर्थ होता है : तंद्रा। थी; क्योंकि काम से फुर्सत कहां थी! कहते हैं कि चपरासी भी मोह का अर्थ होता है : मूर्छा, प्रमाद। हम सोए-सोए लोग हैं: दफ्तर में नौ बजे पहुंचता, एंडरू कारनेगी आठ बजे पहुंच जैसे हमने नशा किया हुआ है। नशे हमारे अलग-अलग हैं, जाता। चपरासी नौ बजे आता, क्लर्क दस बजे आते, मैनेजर शराबें हमारी अलग-अलग हैं; लेकिन हम सबने नशा किया ग्यारह बजे आते, डायरेक्टरर्स एक बजे आते; डायरेक्टर तीन हुआ है। कोई आदमी धन के नशे में है। सबको दिखाई पड़ता है | बजे गये, मैनेजर चार बजे गया, क्लर्क भी पांच बजे गये, 199 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA जिन सत्र में चपरासी भी साढ़े पांच बजे चला गया-एंडरू कारनेगी सुबह एक गांव में एक लफंगे आदमी की लोगों ने नाक काट दी। आठ से लेकर रात नौ और दस और ग्यारह बजे रात तक दफ्तर | उससे बहुत परेशान थे। हर किसी से छेड़-खान...। गांव की में बैठा है। यह तो चपरासी से भी गई-बीती हालत हो गई। फिर | बहू-बेटियों का जीना दूभर हो गया था। नाक कट गई तो वह रात सो न सके क्योंकि चिंताओं का भार, सारी दुनिया में फैला बड़ा परेशान हुआ, अब क्या करना! वह साधु हो गया और हआ धन का साम्राज्य! और मरते वक्त भी जब किसी ने उससे दूसरे गांव चला गया। दूसरे गांव में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया, पूछा कि 'तुम तृप्त मर रहे हो?' उसने कहा, 'तृप्ति कैसी! धूनी रमा कर। गांव के लोग...कुतूहल जगा, कौन है भाई! केवल दस अरब रुपये छोड़कर मर रहा हूं, सौ अरब की कुछ विचित्र भी है, नाक भी नहीं है, और बड़ी आंखें बंद किये आकांक्षा थी। पूरा न हो पाया, यात्रा अधूरी रह गई।' हुए, और ध्यानमग्न बैठा है! लोग आये। गांव के लोग इकट्ठे पर जो धन की दौड़ में है उसे नहीं दिखाई पड़ता; उसे एक नशा हो गये। किसी ने पूछा, 'महाराज! आप यहां क्या कर रहे है। अगर तुम इतना ही करो कि तुम अपने चारों तरफ दौड़ते हुए हैं?' उसने कहा कि परमात्मा का स्वाद ले रहे हैं; भोग कर रहे लोगों को गौर से देख लो, तो तुम्हारी दौड़ धीमी हो जाये। जो हैं प्रभु का। अहा! कैसा आनंद बरस रहा है। पहुंच गये हैं, जरा उनको तुम देख लो। जिन्होंने पा लिया है, जरा | लोगों ने भी आकाश की तरफ देखा। कहा कि हमें दिखाई नहीं उनको तुम देख लो, तो तुम्हारे सब सपने गिर जायें। पड़ता। उसने कहा, 'तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगा...! उसके लिए उनकी ऊपरी और झूठी शक्लों को मत देखना, उनकी भीतरी, | नाक कटवानी जरूरी है। और यह तो हिम्मतवरों का काम है। उनकी आंतरिक दशा को देखना। राष्ट्रपति है कोई, कोई यह तो कभी कोई...। तो धर्म तो खड्ग की धार है। प्रधानमंत्री है—उनकी भीतरी दशा को देखना, अखबारों में खानानिधार!' । छपती तस्वीर को मत देखना। वे तस्वीरें सब झूठी हैं। वे तस्वीरें एकाध हिम्मतवर खड़ा हो गया, क्योंकि यह तो चुनौती हो आयोजित हैं। गई। उसने कहा, 'क्या समझा है तमने? कोई नामों का गांव स्टेलिन और हिटलर कोई भी तस्वीर को ऐसे ही न छपने देते है! मैं तैयार हूं।' उसने कहा, 'तैयार हो तो बस ठीक।' वह थे। स्टेलिन और हिटलर की तस्वीरें पहले एक खुफिया विभाग उसे पास दूसरे खेत में ले गया, झाड़ की छाया के किनारे जाकर से गुजरती थीं, जहां उनकी जांच की जाती। वही तस्वीर छप उसने उसकी नाक काट दी। चीख पड़ा वह आदमी। उसने कहा पाती थी अखबार में, जो प्रसन्नता प्रगट करती हो, आनंद प्रगट | कि दिखाई तो कुछ पड़ता नहीं। उसने कहा, 'पागल! किसी से करती हो, खुशी प्रगट करती हो। स्टेलिन के चेहरे पर चेचक के कहना मत! क्या हमको दिखाई पड़ता है। मगर जब कट गई तो दाग थे; किसी फोटो में कभी नहीं छपे। वे चेचक के दाग कभी अपनी इज्जत तो बचानी है, अब तुम्हारी भी कट गई। अब अगर स्वीकार नहीं किये गये कि छपें। तुमने लोगों से जाकर कहा कि कुछ दिखाई नहीं पड़ता तो वह राजनेता बीमार पड़ जाते हैं, महीनों तक खबर नहीं दी जाती। लोग हंसेंगे, तुम बुद्ध समझे जाओगे। तुम्हारी मर्जी! अब तो राजनेता और बीमार कहीं पड़ता है? उससे प्रतिमा खंडित तुम हमारे साथ ही हो जाओ। अब तो तुम जाकर, नाचते हुए होती है। हाथ-पैर डगमगाने लगते हैं, तो भी इसकी खबर नहीं जाओ और कहना, अहा! जैसे हजारों सूरज एक साथ निकले दी जाती। हों, करोड़ों कमल खिले हों। हे प्रभु! कैसा आनंद दिखला रहा तस्वीर बनाई हुई है। भीतर से देखो उन्हें, तो बड़े चकित हो है, कभी भी दिखाई न पड़ा था। अब तो तुम यही कहो।' जाओगे। उनसे ज्यादा नर्क में कोई भी जीता नहीं। लेकिन 'वैसे तुम्हारी मर्जी', उसने कहा, 'तुमको मैं कहता नहीं कि कठिनाई उनकी तुम समझ सकते हो। इतनी मुश्किल से नर्क यही कहो। तुम्हें सचाई कहनी हो सचाई कह दो।' पाया है, अब यह स्वीकार भी कैसे करें कि यह नर्क है! इतनी उसने कहा, 'अब क्या खाक सचाई कहेंगे! अब नाक तो कट जद्दोजहद से पाया है, इतने संघर्ष से पाया है; अब यह कैसे | ही गई है, अब और कटवानी है क्या, सचाई कहकर?' स्वीकार करें कि यह नर्क है! उसने जाकर गांव में शोरगुल मचा दिया। वह नाचता हुआ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम ओषधि : साक्षी-भाव गया। गांव में कई लोग तैयार हो गये नाक कटवाने को। कहते याचना है, वह जो अधुरी वासना है, वह जो मांगने की और होने हैं, धीरे-धीरे उस पूरे गांव की नाक कट गई। खबर राजा तक की अतृप्त कामना है, वह फिर नया जन्म देगी। तुम जन्मते हो, पहुंची। राजा भी आया देखने, गांव में लोग नाच रहे हैं, चीख क्योंकि तुम्हारा जीवन अतृप्त है। और तुमने यह नहीं देखा कि रहे हैं, बड़े प्रसन्न हैं। राजा ने कहा, 'हद्द हो गई! ईश्वर को पाने जीवन का अतृप्त होना स्वभाव है। बहुत बार हम जन्मते की इतनी सरल तरकीब! न सुनी, न शास्त्रों में पढ़ी।' हैं-कोई हमें जन्माता नहीं। तने लोगों को हो गया है तो राजा तक तैयार हो महावीर परम वैज्ञानिक हैं। वे यह नहीं कहते कि परमात्मा गया। उसके वजीर ने कहा, 'ठहरो महाराज! इतनी जल्दी मत जन्माता है, कि वह लीला कर रहा है। क्योंकि यह 'लीला' जरा करो, क्योंकि इस आदमी को मैं...इसकी शक्ल मुझे पहचानी बेहदी मालूम पड़ती है। यह लीला तो बताती है कि परमात्मा मालूम पड़ती है। यह तो दूसरे गांव का आदमी है और वहां के कोई मेसोचिस्ट होगा, कोई पर-पीड़नकारी। और पाप की लोगों ने इसकी नाक काटी थी। तुम जरा रुको। नाक मत कटवा परिभाषा यही है : 'पापं पर-पीड़नम्!' लेना। तुम्हारे कटवाने पर तो बड़ा उपद्रव हो जायेगा। फिर तो पाप की परिभाषा यही है कि दूसरे को सताना पाप है। तो यह पूरा राज्य कटवा लेगा।' परमात्मा से बड़ा तो पापी कोई नहीं हो सकता, क्योंकि इतने जिसकी कट जाती है, वह फिर उसकी बचाने की भी चेष्टा लोगों को पैदा कर रहा है, और सता रहा है। तो महावीर कहते करता है। मैंने अब तक कोई धनपति नहीं देखा जिसकी नाक | हैं, ऐसे परमात्मा की बात ही मत उठाओ; ऐसा कोई परमात्मा कट न गई हो; न कोई राजनेता देखा जिसकी नाक कट न गई नहीं है। परमात्मा हो तो यह पीड़ा हो नहीं सकती, क्योंकि हो। लेकिन अब किससे कहें! अब यह दुख अपना किससे परमात्मा पर-पीड़न में थोड़े ही रस लेगा। कहें, किससे रोयें! अब जो हो गया, हो गया। और अपनी दूसरे को दुख देने में क्या लीला हो सकती है? लोग सड़ रहे इज्जत यही है, इसी में है कि कहे चले जाओ कि बड़े आनंदित हैं, हैं, गल रहे हैं, रो रहे हैं, संताप से भरे हैं-और परमात्मा मजा बड़े प्रसन्न हैं। ले रहा है! नहीं, यह बात सच नहीं हो सकती। यह मजा जरा तुम, जिन्होंने पा लिया है, उनकी तरफ जरा गौर से देखना। रुग्ण है, परवर्टिड। यह मजा विक्षिप्त का है। पागल होगा जिन्होंने बड़े महल बना लिये हैं, उनकी तरफ जरा गौर से परमात्मा, अगर यह उसकी लीला है। बच्चा पैदा नहीं हुआ और देखना। जिनके पास तिजोड़ियां भर गई हैं, उनको जरा गौर से मर जाता है, मां रो रही है, चीख रही है, बेटे रो रहे हैं, बेटियां रो देखना। कुछ मिला है? | रही हैं, पति रो रहा है, पत्नी रो रही है, सब तरफ रोना मचा है, उनको गौर से देखकर तुम्हारा राग-द्वेष क्षीण होगा। और तुमने हाहाकार है, युद्ध हैं, लाखों लोग मर रहे हैं, गल रहे हैं, सड़ रहे भी राग-द्वेष करके बहुत देख लिया है-थोड़ा और ज्यादा, हैं, सब तरफ संघर्ष है, सब तरफ खून-पात है, सब तरफ मात्रा में भेद होगा लेकिन तुमने पाया क्या? छीना-झपटी है और फिर भी पाता कोई कुछ नहीं, हाथ खाली राग से भी दुख मिलता है, द्वेष से भी दुख मिलता है। जो के खाली! यह लीला कैसी है ? यह तो दुख-स्वप्न है। अपने हैं वे भी दुख ही दे जाते हैं; जो पराये हैं वे तो दे ही जाते हैं। महावीर कहते हैं, नहीं, परमात्मा को बीच में मत लाओ। चीजें दुश्मन तो दुख देता ही है, मित्रों से तुम्हें कुछ सुख मिला? सीधी देखो। परमात्मा को बीच में लाने से अड़चन हो जाती है। 'राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। परमात्मा को बीच में लाने से ऐसा ही हो जाता है जैसे प्रिज्म में से वह जन्म-मरण का मूल है।' सूरज की किरण निकले, सात टुकड़ों में टूट जाती है, खंड-खंड और फिर जब इस जीवन में तुम अधूरे मरते हो, अतृप्त, तो | हो जाती है। हटाओ प्रिज्म को बीच से; सूरज की किरण को आकांक्षा रहती है मरते वक्त और नया जीवन पाने की। क्योंकि सीधा ही देखें; उसके स्वभाव को सीधा ही पहचानें। कुछ पूरा न हुआ; खाली के खाली, रिक्त के रिक्त आ गये; महावीर कहते हैं, तुम ही अपने जीवन के कारण हो। महावीर हाथ भिक्षा के पात्र ही बने रहे, कभी कुछ भरा नहीं। तो वह जो तुम्हारा उत्तरदायित्व तुम्हें परिपूर्णता से देते हैं। महावीर कहते हैं, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 कोई और नहीं है तुम्हारे ऊपर जो तुम्हें भटका रहा है। तुमने | सारी जुम्मेवारी परमात्मा की है और फिर मनुष्य परतंत्र है। भटकना चाहा है, इसलिए भटक रहे हो। मनुष्य की स्वतंत्रता की परिपूर्ण घोषणा महावीर ने की है। इससे उत्तरदायित्व गहन है, गंभीर है। लेकिन साथ ही इसी | बड़ी घोषणा मनुष्य की स्वतंत्रता की न पहले कभी हुई, न बाद में उत्तरदायित्व में छिपी हुई सूरज की किरण भी है, सुबह भी है। कभी हुई। कहा कि मनुष्य सब के ऊपर है। कहा, मनुष्य से इसी उत्तरदायित्व में स्वतंत्रता का बीज भी है। क्योंकि अगर मैं ऊपर कोई भी नहीं। बड़ी स्वतंत्रता, बड़ा दायित्व! एक-एक ही अपने दुखों का कारण हूं तो बात खतम हो गई। तो जिस दिन कदम सम्हालकर रखने की बात है फिर ! क्योंकि अगर परमात्मा मैं निर्णय करूंगा, उसी दिन दुख समाप्त हो जायेंगे। जिस दिन मैं | है तो हम चले जा सकते हैं, उसकी प्रार्थना करते हुए, वह हाथ पैदा न करूंगा और, उसी दिन विलुप्त हो जायेंगे। अगर मैंने ही पकड़े रहेगा; उसकी जुम्मेवारी है! इस जीवन-जन्म के फैलाव को स्वीकार किया है, अपने ही हाथों महावीर ने मनुष्य को एक अर्थ में अनाथ कर दिया, क्योंकि से निर्मित किया है, तो जिस दिन मेरा सहारा छुट जायेगा उसी कोई नाथ न रहा ऊपर। जैसे किसी बच्चे के मां-बाप छीन दिन यह धारा खंडित हो जायेगी। लिए। लेकिन तुमने देखा! जैसे ही तुम्हारे ऊपर से कल्पना के 'मोह जन्म-मरण का मूल है, और जन्म-मरण को दुख का। जाल हट जायें, कोई नहीं ऊपर, तुम अकेले हो-वैसे ही तुम मूल कहा है।' सम्हलकर चलने लगते हो। तुमने कभी बच्चे को मां के साथ सब कछ अदीब! इश्क ने जी से भला दिया चलते और अकेले चलते देखा? जाना कहां है और आये थे कहां से हम! मैं एक घर में मेहमान था। एक छोटा बच्चा खेल रहा था, वह मोह की तंद्रा में सब भूल जाता है : कहां से आये, कहां जा रहे | गिर पड़ा। उसने चारों तरफ उठकर देखा। मां उसकी पास न हैं, कौन हैं! थी, वह बाजार गई थी। उसने मेरी तरफ भी देखा, फिर सोचा हैं कुछ खराबियां मेरी तामीर में जरूर कि पता नहीं...। मैंने उसकी तरफ देखा ही नहीं; जैसे वह सौ मर्तबा बनाकर मिटाया गया हूं मैं। गिरा, फिर मैंने कहा, अब देखना ठीक नहीं। मैं दूसरी तरफ ही भक्ति-मार्ग के लोग कहेंगे, परमात्मा तुम्हें बनाता है, मिटाता देखता रहा। वह उठ आया। वह अपने खेल में फिर लग गया। है, क्योंकि कुछ खराबियां हैं तुम्हारी तामीर में। जैसे कोई आधा घंटे बाद जब उसकी मां आई, दरवाजे पर देखकर एकदम चित्रकार चित्र को बनाता है, फिर-फिर बनाता है; कोई मर्तिकार| चीखकर रोने लगा। मैंने उससे पछा कि देख, बेईमानी कर रहा है मूर्ति बनाता है, फिर-फिर बनाता है, क्योंकि मूर्ति बन नहीं पाती, तू! आधा घंटा पहले गिरा था। उसने कहा, उससे क्या होता पूरी नहीं बन पाती। है? कोई यहां था ही नहीं, तो रोने से फायदा क्या! और आप हैं कुछ खराबियां मेरी तामीर में जरूर! दूसरी तरफ देख रहे थे; आप देख ही नहीं रहे थे इस तरफ। -मेरे होने में ही कुछ खराबी है। फायदा क्या! सौ मर्तबा बनाकर मिटाया गया हूं मैं। पीड़ा के कारण नहीं रो रहा है; मां आ गई है इसलिए रो रहा -और इसीलिए तो इतने जन्म, इतनी मृत्युएं, इतनी बार | है! बनना, इतनी बार मिटना...। महावीर ने ऊपर से सारा छत्र हटा लिया। कहा, कोई परमात्मा लेकिन महावीर कहते हैं, कोई बना और मिटा नहीं रहा है। नहीं है। आदमी को अकेला छोड़ दिया। अब तो तुम्हें अपने पैर क्योंकि अगर परमात्मा तुम्हें बना रहा है और फिर भी तुम में अपने ही हाथ सम्हालने हैं। इससे बड़े होश की संभावना पैदा खराबी रह जाती है, तो खराबी परमात्मा में है, तुम में नहीं। एक हुई। इससे बड़ी जागरूकता की संभावना पैदा हुई। जैसे कि तुम मूर्तिकार मूर्ति बनाता है और मूर्ति नहीं बन पाती, तो खराबी मूर्ति कभी पहाड़ के कगार पर चलते हो, तो कितने सम्हलकर चलते में थोड़े ही है, मूर्तिकार में है। फिर बनाता है, फिर भी कमी रह हो। अंधेरी रात में चलते हो अकेले, कितने सम्हलकर चलते जाती है, तो फिर भी खराबी मूर्तिकार में है। अगर परमात्मा है तो हो! कितने चौकने कितने सावधान! कितने सावचेत! 302 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REPARAT परम औषधि : साक्षी-भाव AM महावीर ने परमात्मा को हटा लिया ताकि तुम सावधान हो अटके रहोगे। कारागृह या तो पूरा कारागृह है और या फिर पूरा सको। कोई सहारा न होगा तो तुम सावधान होओगे ही; क्योंकि घर है। इससे कम में काम न चलेगा। अगर तुमने कहा कि फिर सावधानी ही सहारा है। और कोई दूसरा तुम्हें जन्म नहीं दे | माना, पूरा कारागृह तो कारागृह है, लेकिन यह दीवाल कारागृह रहा है; तुम ही अपने राग-द्वेष से...। नहीं है। इसके पास बैठकर बड़ी शांति मिलती है। मगर यह रण के दख से ग्रस्त जीव को दीवाल भी कारागृह के भीतर है। तुमने कहा, 'और स कोई सुख नहीं है। अतः मोक्ष ही उपादेय है।' | है, लेकिन यह पहरेदार बड़ा भला है, मुस्कुराता है कभी-कभी, रत्तीभर भी सुख नहीं है। इस संबंध में महावीर अत्यंत कभी दो बात भी कर लेता है। और सब तो बरा है, लेकिन यह अतिवादी हैं। वे कहते हैं, रत्तीभर भी सुख नहीं है। और तुम्हें पहरेदार भी तो इसी कारागृह का हिस्सा है! अगर कभी-कभी सुख मालूम होता है तो तुम्हारी धारणा है, तो जिंदगी में कभी-कभी मुस्कुराहटें भी होंगी। खयाल तुम्हारी मान्यता है। इसलिए जल्दी ही तुम्हारी मान्यता टूट रखना, ये भी कारागृह के ही हिस्से हैं। और कभी-कभी जायेगी। तुम पाओगे: सुख गया। प्रसन्नतायें भी होंगी; लेकिन ये भी कारागृह के ही हिस्से हैं। दुनिया में कोई गम के अलावा खुशी नहीं कभी-कभी दीये जले हुए भी मालूम पड़ेंगे, क्योंकि अगर दीये वो भी हमें नसीब कभी है, कभी नहीं। बिलकुल न जलें तो तुम सभी अंधेरे को छोड़कर बाहर भाग दुख इतना गहन है कि दुख भी सदा नसीब नहीं होता। जाओगे। थोड़ी आशा का दीप जलता रहना चाहिए। तुम्ही कभी-कभी तुम ऐसी हालत में होते हो कि दुख भी नहीं जलाये रहते हो-अपनी ही वासना का तेल डाल-डालकर, होता-इतने खाली, इतने रिक्त ! इसलिए तो लोग दुख को ईंधन डाल-डालकर। तुम्हीं सोचते रहते हो। पकड़े रखते हैं : सुख न सही, दुख तो है, कुछ तो है! तुमने कारागृह में देखा! मैं कभी-कभी कारागृह जाया करता कभी-कभी ऐसी घड़ियां भी आती हैं : सुख तो है ही नहीं, दुख | था-कैदियों से मिलने। एक प्रांत के गवर्नर मेरे मित्र थे, तो भी नहीं है। तब महादुख की घड़ी आती है। तब तुम एकदम उन्होंने मुझे पास दिया हुआ था, उस प्रांत के सारे कारागृहों में मैं राख हो जाते हो। जीने में कुछ भी सार नहीं रह जाता—इतना भी जा सकता था। वहां मैं बड़ा चकित होता! लोग कारागृह में सार नहीं रह जाता कि दुख है, कम से कम इससे लड़ना है, इसे | अपनी कोठरी को भी सजा लेते हैं। कुछ न मिले, अखबार से मिटाना है। दुख भी नहीं है। एक बड़ी गहन ऊब, एक गहन फिल्म ऐक्टर-ऐक्ट्रेस की फोटो निकालकर चिपका लेते हैं। बोरडम, राख-राख सब हो जाता है! हृदय में कोई धड़कन सोचो थोड़ा! उसको भी घर बना लेते हैं। साफ-सुथरा रखते हैं नहीं। श्वासों में कोई कंपन नहीं। जीवन का कोई प्रवाह नहीं, | अपनी कोठरी को। कोई अपनी रामायण ले आता है अपने साथ, कोई ऊर्जा नहीं। उठ आते हो, एक धक्के में ! उठना पड़ता है, कोई अपनी बाइबिल रख लेता है-मगर यह सब कारागृह का सुबह हो गई। रात सो जाते हो, क्योंकि रात हो गई। जिंदा रहते हिस्सा है। हो, क्योंकि रहना ही पड़ेगा जब तक मौत न आये। करोगे | यह पूरा कारागृह ही छोड़ने योग्य है। पूरा छोड़ने योग्य है, तो क्या? ऐसे धक्के में चलते चले जाते हो। ही छोड़ने योग्य क्षमता पैदा होगी तुममें, अन्यथा नहीं पैदा होगी। महावीर कहते हैं. यहां कोई भी सख नहीं है। क्योंकि रत्तीभर इसलिए महावीर कहते हैं. 'इस संसार में जन्म. जरा और भी तम्हें आशा रहे कि थोड़ा भी है, एक प्रतिशत भी है, तो भी मरण के दुख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है। अतः मोक्ष ही तुम जकड़े रहोगे। उपादेय है।' वह एक प्रतिशत भी काफी रहेगा तुम्हें रोकने को। मोक्ष का अर्थ है: कारागृह से मुक्ति; राग-द्वेष के बंधन से ऐसा समझो कि तुम कारागृह में बंद हो। अगर तुम मानते हो | मुक्ति; मूर्छा, मोह से मुक्ति। कि कारागृह में थोड़ी-सी जमीन है जो कारागृह नहीं है, तो फिर 'यदि तू घोर भवसागर के पार जाना चाहता है तो हे सुविहित! तुम कारागह के बाहर न जा सकोगे; कम से कम उसी जमीन में | शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर।' 103 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 इस सूत्र में कुछ बातें समझने जैसी हैं। और दुख की थोड़े ही जरूरत है कि तुम दुख का आयोजन करो 'यदि तू भवसागर के पार जाना चाहता है...।' कि तुम भूखे खड़े रहो, कि धूप में खड़े रहो, कि शरीर को इस संसार को हमने भवसागर कहा है। भवसागर का अर्थ गलाओ, कि सड़ाओ, इस सब की कोई जरूरत नहीं है। यह तो होता है जहां होने की तरंगें उठती रहती हैं। भव यानी होना। फिर तुमने एक नया राग-द्वेष बो दिया। पहले तुम सुख मांगते जहां हम मिट-मिटकर होते रहते हैं। जहां लहर मिटती नहीं कि थे, अब तुम दुख मांगने लगे-मगर मांग जारी रही। पहले तुम फिर उठ आती है। जहां एक वृक्ष गिरा नहीं कि हजार बीज छोड़ कहते थे, महल चाहिए; अब अगर तुम्हें महल में ठहरना पड़े तो जाता है। जहां तुम जाने के पहले ही अपने आने का इंतजाम बना | तुम रुक नहीं सकते महल में, तुम कहते हो, अब तो सड़क जाते हो। जहां मरते-मरते तुम जीवन के बीज बो देते हो। जहां चाहिए-मगर चाहिए कुछ जरूर! पहले तुम कहते थे, सुस्वादु एक असफलता मिलती है, वहां तुम दस सफलताओं के सपने भोजन चाहिए; अब अगर सुस्वादु भोजन मिल जाये तो तुम लेने देखने लगते हो। जहां एक द्वार बंद होता है, तुम दूसरा खोलने को तैयार नहीं हो। तुम कहते हो, अब तो कंकड़-पत्थर, मिट्टी लगते हो। उसमें मिला ही होना चाहिए, तो ही हमें सुपाच्य होगा। भवसागर का अर्थ है : जहां होने की तरंगें उठती रहती हैं, दुख को चुनना नहीं है। आये दुख को स्वीकार कर लेना तप उठती रहती हैं-अंतहीन! है। आये दुख को ऐसे स्वीकार कर लेना कि दुख भी मालूम न 'यदि तू इस घोर भवसागर के पार जाना चाहता है'...यदि | पड़े, तप है। अगर तुमने मांगा तो मांग तो जारी रही। कल तुम तुझे दिखाई पड़ने लगा है कि जीवन दुख है, पीड़ा है, संताप है; सुख मांगते थे, अब दुख मांगने लगे; कल तुम कहते थे धन अगर तूने इससे मुक्त होना चाहा है...'तो हे सुविहित। शीघ्र ही मिले, अब तुम कहते हो कि त्याग; कल तुम कहते थे संसार, तप-संयमरूपी नौका को ग्रहण कर।' शीघ्र ही...। अब तुम कहते हो, नहीं संसार नहीं: हिमालय भाग रहे तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स। हो-लेकिन कहीं जाना रहा, कोई दिशा रही। तो तव संजमभंडं, सुविहिय गिण्हाहि तूरंतो।। महावीर के तप का अर्थ है : जो अपने से होता हो उसे तुम तुरंत ! शीघ्र। एक क्षण भी खोये बिना! क्योंकि जितनी देर भी स्वीकार कर लेना। दुख तो हो ही रहा है–दख ही हो रहा है. त क्षण खोता है निर्णय करने में, उतनी ही देर में भवसागर नयी और कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम स्वीकार भर कर लेना। उसी तरंगें उठाये जाता है। जितना तू स्थगित करता है उतनी देर खाली | स्वीकार में तुम्हारा याचक रूप तिरोहित हो जायेगा, तुम्हारा नहीं जाता संसार; नयी इच्छायें, नयी वासनायें, तेरे घर में भिखमंगा मिट जायेगा, तुम सम्राट हो जाओगे। घोंसला बना लेती हैं, तेरे वृक्ष पर डेरा बना लेती हैं। शीघ्र ही! जिसने दुख स्वीकार कर लिया, उसके भीतर एक महाक्रांति तत्क्षण! जिस क्षण यह समझ में आ जाये कि जीवन दुख है, घटित होती है। उसकी सुख की मांग तो रही नहीं; नहीं तो दुख उसी क्षण तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर। | स्वीकार न कर सकता था। और जिसने दुख स्वीकार कर लिया, तप का अर्थ महावीर की भाषा में क्या है? दुख को स्वीकार | उसे दुख दुख न रहा। कर लेना तप है। दुख को अस्वीकार करना भोगी की मनोदशा इसे तुम थोड़ा प्रयोग करना। सिर में दर्द हो तो तुम उसे है। भोगी कहता है, दुख को मैं स्वीकार न कर सकूँगा, मुझे सुख स्वीकार करके किसी दिन देखना। बैठ जाना शांत, लेट जाना, चाहिए! तपस्वी कहता है, दुख है तो दुख को स्वीकार करूंगा, स्वीकार कर लेना कि सिर में दर्द है, उससे भीतर कोई संघर्ष मत मुझे अन्यथा नहीं चाहिए! जो है वह मुझे स्वीकार है। करना, भीतर यह भी मत कहना कि न हो। है तो है। जो है वह इसे थोड़ा समझना, क्योंकि महावीर की परंपरा, महावीर के है। उसे स्वीकार कर लेना। उसे साक्षी-भाव से देखते रहना। अनुयायी इसे बड़ा गलत समझे। महावीर के अनुयायी समझे कि तुम चकित होओगे: कभी-कभी साक्षी-भाव सधेगा, उसी क्षण जैसे दुख पैदा करना है। दुख पैदा करने की जरूरत नहीं में तुम पाओगे सिरदर्द खो गया। जब साक्षी-भाव छूट जायेगा, है-दुख काफी है, काफी से ज्यादा है। होना ही दुख है; अब तुम पाओगे, फिर सिरदर्द आ गया! एक बड़ा क्रांतिकारी Jalm Education International | Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम आषाधः साक्ष NROENIMAL व अनुभव होगा कि जब तुम बिलकुल स्वीकार कर लेते हो सिरदर्द | महावीर ने यह नहीं कहा था कि तुम विराग करो-और दूसरे | को, तभी वह खो जाता है। और जैसे ही फिर इच्छा उठती है कि आदर करें। नहीं, यह सिरदर्द नहीं होना चाहिए, कितनी तकलीफ हो रही महावीर कहते हैं, तुम आदरपूर्वक विराग करना। जब तुम | है वैसे ही सिरदर्द फिर घना हो जाता है। उपवास करो तो परम आदर से करना। यह बड़ी घड़ी है। यह - इसे तुम छोटे-छोटे प्रयोग करके देखो। कोई भी दुख | बड़ी महिमा की घड़ी है; क्योंकि साधारणतः मनुष्य की आए और दुख तो रोज आ रहे हैं और सभी को आ रहे हैं। जीवन-आकांक्षा भोजन की है, तुम उपवास कर रहे हो। तुम यह तो भवसागर है, यहां तो दुख पैदा हो ही रहे हैं, तरंगें उठ ही बड़ी पवित्र भूमि पर यात्रा कर रहे हो। यह तीर्थयात्रा है। उन दस रही हैं। और नयी तरंगें पैदा करने की जरूरत नहीं है, जो अपने दिनों में तुम जितने सम्मानपूर्वक, जितने अहोभाव से, जितने से आ रहा है, जो तुम्हारे अतीत में किये कर्मों से आ रहा | कृतज्ञता-भाव से उपवास कर सको, उतनी ही उपवास की है-उसके ही तुम साक्षी हो जाओ। तो तुमने तप-संयम-रूपी महिमा होगी। नौका को ग्रहण कर लिया। और इस तपसंयमरूपी नौका में | दूसरों को तो पता भी मत चलने देना; क्योंकि दूसरों से आदर चारों तरफ भवसागर के तूफान उठेंगे और हर तूफान तुम्हें सुदृढ़ पाने की आकांक्षा उपवास का अनादर है। यह तो तुमने उपवास कर जायेगा, और हर तूफान तुम्हें भीतर एकजुट, इकट्ठा कर को भी बाजार में बेच दिया। यह तो तुमने उपवास से भी कुछ जायेगा। और हर तूफान, और हर तूफान की चुनौती तुम्हारे और खरीद लिया-समाज का सम्मान, रिस्पेक्टेबिलिटी। यह भीतर आत्मा को जन्म देनेवाली बनेगी। तो तुमने उपवास को भी बाजार की चीज बना दिया। इसको भी तूफां से खेलना अगर इंसान सीख ले बेच दिया, इसको तो कम से कम चुपचाप करते। मौजों से आप उभरें किनारे नये-नये। मुहम्मद ने कहा है : जब तुम प्रार्थना करो तो तुम्हारी पत्नी को एक बार तूफान से जूझना, एक बार तूफान से खेलना, एक भी पता न चले। जीसस ने कहा है: एक हाथ से दान दो, दूसरे बार तूफान के साक्षी बन जाना—फिर लहरों में ही नये-नये हाथ को खबर न हो। तो सम्मान है। किनारे उठने लगते हैं। सुख खोजकर किसी ने कभी कुछ नहीं सम्मान का अर्थ है : तुम जो कर रहे हो, वही साध्य है; उसका पाया; लेकिन जिसने दुख का साक्षी बनना सीख लिया, उसने तुम साधन की तरह उपयोग न करोगे। अगर तुमने उपवास और महासुख पाया है। तप का भी साधन की तरह उपयोग कर लिया कि अखबार में _ 'जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण फोटो छपेगी, चलो किसी तरह दस दिन गुजार दो-तो तुम करना चाहिए। विरक्त व्यक्ति संसार बंधन से छूट जाता है और उपवास से वंचित रह गये। तुमने अनशन किया, उपवास नहीं। आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता चला जाता है।' तुम भूखे मरे, लेकिन तुम उपवास के आनंद से वंचित रह गये। 'जिससे विराग उत्पन्न हो उसका आदरपूर्वक आचरण करना | यह तो किसी को कानों-कान खबर न हो। चाहिए!' महत्व है 'आदरपूर्वक' पर। तुम जबर्दस्ती भी विराग | तुम्हारी तपश्चर्या साध्य बने, साधन नहीं। तुम्हारी कर सकते हो। तुम बेमन से भी विराग कर सकते हो। तुम पूजा-प्रार्थना, अर्चना, तुम्हारा ध्यान, सामायिक; साध्य बने। दिखावे के लिए भी विराग कर सकते हो। जैसे समझो, उपवास | रात के अंधेरे में जब सारा जगत सोया हो, चुपचाप उठकर कर कर लेते हो तुम–पर्युषण आए, आठ या दस दिन के उपवास लेना अपनी सामायिक। लेकिन तुमने देखा, लोग मंदिर में कर लिये। अब कैसी चीजें विकृत हो जाती हैं! तुम उपवास जाकर करेंगे! लोगों को तुमने सामायिक और ध्यान करते देखा! करते हो, फिर तुम्हारा आदर किया जाता है, शोभा-यात्रा करते भी जायेंगे, माला भी फेरते जायेंगे—चारों तरफ देखते निकलती है, बैंड-बाजे बजते हैं, लोग प्रशंसा करने आते हैं कि जायेंगे, कोई देख रहा है कि नहीं। अगर कोई न देख रहा हो तो बड़ा काम किया, समाज में बड़ा सम्मान मिलता है। यह तो बड़ी जल्दी माला फिर जाती है, दो-दो गुरिए एक साथ चले जाते हैं। चूक हो गई। कोई अगर देख रहा हो तो आहिस्ता-आहिस्ता चलती है। यह 105 www.jainelibrary org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 बगुला-भगति है। वह बगुले को देखा, खड़ा एक पैर पर, कैसा हत्या कर दी थी, उसी ने अपने को भी धक्का दे दिया वैराग्य में। भगत, शुभ्र-वेश में, हिलता भी नहीं, लेकिन नजर मछली पर | वे मुनि हो गये। लगी है! | दिगंबर जैनों में पांच सीढ़ियां हैं, वे एक साथ छलांग लगा तुम्हारी नजर अगर अभी आदर और सम्मान दूसरों से पाने पर गये। एक-एक कदम महावीर ने बड़े आहिस्ता बढ़ने को कहा लगी है, तो यह तो अहंकार की ही पूजा हुई, इससे धर्म का कोई है। क्योंकि महावीर कहते हैं, जीवन एक क्रम है। जैसे वृक्ष संबंध नहीं है। धीरे-धीरे बढ़ता है, ऐसे ही धीरे-धीरे बढ़ने की जरूरत है। महावीर कहते हैं, आदरपूर्वक...। जिससे विराग उत्पन्न होता | क्योंकि धीरे-धीरे शाखायें ऊपर उठती हैं। उसी आधार से है उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए। एक-एक कृत्य धीरे-धीरे जड़ें भी नीचे गहरी जाती हैं। वृक्ष अगर एकदम ऊपर विराग का इतने सम्मान और अहोभाव से करना कि उसके करने चला जाये और जड़ें गहरी भीतर न जा पायें, तो गिरेगा, मरेगा। में ही तुम्हारे भीतर फूल बरस जायें, तुम्हारे भीतर सुगंध फैल | यह बढ़ना न हुआ, यह तो मौत हो जायेगी। पांच सीढ़ियां बनाई जाये। साधन की तरह नहीं, साध्य की तरह। वही अपने आप में हैं। एक-एक कदम बढ़ना है। मुनि होने की सीढ़ी पांचवीं सीढ़ी गंतव्य है। उससे कुछ और नहीं पाना है। है, जब वस्त्र भी छूट जायेंगे, सब छूट जायेगा। उपवास करके स्वर्ग नहीं पाना है। उपवास स्वर्ग है-यह वह एकदम से मुनि हो गया। उसने जाकर मंदिर में वस्त्र फेंक | आदर हुआ। ध्यान करके पुण्य नहीं पाना है। ध्यान पुण्य दिये। क्रोधी आदमी था, जिद्दी आदमी था। जिन मुनि ने दीक्षा है—यह आदर हुआ। तो जो भी तुम आदरपूर्वक करोगे, वही दी, वे बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कहा, 'व्याख्यान देते-देते जन्म तुम्हें धर्म की दिशा में गतिमान करेगा। हो गया मेरा, अनेक लोग मिले; मगर लोग कहते हैं, सोचेंगे। तू 'विरक्त व्यक्ति संसार-बंधन से छूट जाता है।' एक करनेवाला है। तू बड़ा धार्मिक है।' लेकिन वह आदमी विरक्त का अर्थ है : जिसने विराग को आदर दिया। विरक्ति धार्मिक नहीं था। उनको नाम मिला : शांतिनाथ। वह आदमी ओढ़ी, ऐसा नहीं-विराग को आदर दिया। विरक्ति ओढ़नी क्रोधी था। बड़ी आसान है। तुम नग्न खड़े हो जाओ, छोड़ दो वस्त्र, एक | राजधानी उनका आगमन हुआ, तो पुराने बचपन का एक मित्र | दफा भोजन करने लगो-लेकिन अगर तुम्हारी आंखों में प्रसाद भी राजधानी आया था, तो उनसे मिलने गया। देखा कि वह न आये, तुम्हारी वाणी में माधुर्य न आये, तुम्हारे उठने-बैठने में | महाक्रोधी, क्रोधनाथ शांतिनाथ हो गये हैं। देखें। जाकर देखा तो प्रतिपल धन्यता न बरसे-तो तुम कर लो यह सब, इससे कुछ कुछ कहीं शांति तो दिखाई न पड़ी, वही तमतमाया चेहरा था, हल न होगा, कुछ लाभ न होगा। वही जलती हुई आंखें थीं, वही क्रोध और अहंकार था। उसने एक मुनि के संबंध में मैंने सुना है। क्रोधी थे वे, जब मुनि नहीं| परीक्षा लेनी चाही। वह पास गया। उसने कहा कि थे। महाक्रोधी थे। इतने क्रोधी थे कि अपने बेटे को क्रोध में | महाराज...! मुनि पहचान तो गये क्योंकि वे बचपन से परिचित आकर कुएं में फेंक दिया था। उसकी मौत हो गई थी। उसी से थे उससे; लेकिन जब कोई आदमी पद पर पहुंच जाता है-मुनि पश्चात्ताप हुआ। गांव में कोई मुनि ठहरे थे, वे गये। मुनि ने | पद-तो फिर पहचान कैसी! ऐरे-गैरे नत्थू-खैरों से पहचान कहा कि पश्चात्ताप अगर सच में हुआ है तो छोड़ दो संसार। कैसी! पहचान तो गये और वह आदमी भी पहचान गया कि क्रोधी आदमी थे, छोड़ दिया। लेकिन ध्यान रखना, छोड़ा भी पहचान गये हैं। आंखें सब कह देती हैं। मगर ऊपर से ऐसे ही क्रोध में। जिद्द पकड़ गई। 'अरे, तुमने कहा और हम न छोड़ें! रूप रखा कि नहीं पहचाने हैं। उसने पूछा, 'महाराज! क्या तुमने समझा क्या है?' और लोगों ने समझाया कि कभी तुमने आपका नाम पूछ सकता हूं?' उसने कहा, 'हां-हां! अखबार त्याग साधा नहीं है, कभी ध्यान किया नहीं है, एक दम से छलांग | नहीं पढ़ते? रोज तो अखबार में छपता है। कौन ऐसा है जो मुझे मत लो, आहिस्ता चलो। जिद्द पकड़ गई। हठी थे। वही हठ नहीं जानता? और तू मुझ से नाम पूछता है ? मुनि शांतिनाथ पुराना। जिस आदमी ने कुएं में धक्का दे दिया था बेटे को और मेरा नाम है।' 106 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस आदमी ने कहा कि यह कुछ बदला नहीं है। वह थोड़ी देर चला जाता चुप रहा। उसने फिर पूछा कि 'महाराज ! मैं भूल गया। आपका नाम क्या है ?' उन्होंने डंडा उठा लिया। कहा, 'तू होश में है ? कह दिया एक दफे कि मेरा नाम शांतिनाथ है।' वह आदमी थोड़ी देर फिर चुप रहा। उसने कहा, 'महाराज !' वह महाराज ही कह पाया था कि उन्होंने डंडा उस के सिर पर लगा दिया! उन्होंने कहा कि कह तो चुका इतनी बार! बुद्धि है कि मूढ़ है बिलकुल ? 'शांतिनाथ' मेरा नाम है। उसने कहा कि महाराज ! लेकिन शांति कहीं पता नहीं चलती। मैं तो वही रूप देख रहा हूं, जिससे बचपन से परिचित हूं, कहीं कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता । ऊपर के आवरण बदल गये, भीतर की अंतरात्मा वही है। विरक्ति ओढ़ना मत ! विरक्ति कोई वस्त्र नहीं है, आवरण नहीं | है कि तुम ओढ़ लो; भीतर तुम वही रहो और ऊपर से वस्त्र बदल लो। विरक्ति तो भीतर की भाव- दशा है। धीरे-धीरे | सम्मान करना। एक-एक उस घड़ी का जिससे विराग आता हो, उसका सम्मान करना। एक-एक इंच विराग की भूमि पर अपने को जमाना, चलाना। धीरे-धीरे संसार का बंधन छूट जाता है। क्योंकि बंधन राग के कारण है। जब विरक्ति आती है, छूट जाता है । गांठ जैसे बंधी है, जब उससे उलटा करने लगते हो, गांठ खुल जाती है। ' और आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता चला जाता है।' आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता चला जाता है, | क्योंकि एक वासना दस वासनाओं को जन्म देती है । वासना संतति-नियमन में भरोसा नहीं रखती। वासना की बड़ी संतान होती है। एक वासना दस को जन्मा देती है। दस वासनायें सौ को जन्मा देती हैं - ऐसा ही गणित फैलता चला जाता है। I तुमने कभी एक कंकड़ फेंककर देखा पानी में ! एक कंकड़ फेंकते हो जरा-सा, कितनी लहरें उठती हैं! एक लहर उठती है, एक दूसरी को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठती है। दूर कूल - किनारों तक सारा लहरों से भर जाता है सरोवर । एक जरा-सा कंकड़ फेंका था। एक जरा-सा कंकड़ वासना का और तुम्हारा सारा जीवन लहरों से विक्षुब्ध हो जाता है। परम औषधि: साक्षी भाव अनासक्त व्यक्ति का संसार इसी क्षण टूटने लगता है, बिखरने लगता है; जैसे किसी ने भूमि ही खींच ली, बुनियाद अलग कर ली। महावीर चले गये छोड़कर राजपाट। लेकिन बड़ी मीठी कथा है। महावीर छोड़ना चाहते थे, मां ने कहा, 'अभी मैं न छोड़ने दूंगी। जब तक मैं जिंदा हूं, मत छोड़ो !' महावीर ने फिर बात ही न उठाई। यह बड़ी हैरानी की बात है । बुद्ध तो भाग गये एक रात, बिना किसी को कहे, पत्नी को भी न कहा कि मैं जा रहा हूं। बारह वर्ष बाद जब आये थे तो पत्नी ने यही शिकायत की थी कि तुम्हें जाना ही था, तो मैं कैसे रोक पाती ? जानेवाले को कौन तो महावीर कहते हैं, आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता रोक पाया है! तुम जाना ही चाहते थे तो तुम गये ही होते, लेकिन 'अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल हैं।' जो इस प्रकार के चिंतन में उद्यत होता है तथा इंद्रिय विषय दोषों के मूल नहीं हैं, इस प्रकार का संकल्प करता है— उसके मन में समता उत्पन्न होती है। और उससे उसकी काम - गुणों में होनेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है।' एक और महत्वपूर्ण बात महावीर इस सूत्र में कहते हैं । वे कहते हैं, कामवासना के विषय कारण नहीं हैं। धन कारण नहीं है धनासक्ति का धन पड़ा रहे तुम्हारे चारों तरफ, आसक्ति न हो तो धन मिट्टी है। मिट्टी में भी आसक्ति लग जाये, तो मिट्टी धन तुम्हारी आसक्ति से निर्मित होता है। तुम महल में रहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महल किसी को नहीं बांधता है। तुम झोपड़े में रहो और तुम्हारी आसक्ति गहन हो झोपड़े में तो झोपड़ा ही बांध लेगा। एक छोटी-सी लंगोटी बांध ले सकती है, और एक बड़ा साम्राज्य भी न बांधे। सूत्र है : 'अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल हैं।' तुम्हारे भीतर ही हैं सारे मूल विषय भोगों के मूल नहीं हैं। इंद्रिय विषय-भोग दोषों के मूल नहीं हैं। जो इस प्रकार का संकल्प करता है, उसके मन में समता उत्पन्न होती है।' जैसे-जैसे तुम जानोगे और इस धारणा में गहरे जमोगे, जड़ें फैलाओगे कि वस्तुएं नहीं हैं, बाहर कुछ भी नहीं है जो मुझे बांधता है— मैंने ही बंधना चाहा है; मेरे बंधने की चाह ही बांधती है, मेरे भीतर ही मूल है। फिर बाहर के संसार को छोड़कर भाग जाने का बड़ा सवाल नहीं है। अगर कोई भाग भी जाये तो वह केवल प्रशिक्षण है। 107 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम से कम मुझे कहा तो होता! तुमने मुझे इस योग्य भी न लेकिन वे ऐसे रहने लगे उस महल में जैसे न हों। चलते जैसे समझा ! इसी बात का मुझे दुख रहा है। छाया चलती हो, धूल भी न हिलती। उठते-बैठते, लेकिन किसी यशोधरा ने बारह वर्ष बाद कहा कि तुमने मुझ पर इतना भी के बीच में न आते। घर के, परिवार के, लोगों को पता ही न भरोसा न किया। इतना तो सम्मान दिया होता मुझे भी! मुझ से चलता कि वे हैं या नहीं हैं! ऐसे चुप हो गये। ऐसे गुमसुम हो पूछ तो लिया होता! मैं रोकती, फिर भी तुम्हें जाना होता तो तुम | गये। ऐसे 'ना' हो गये। शून्यवत घूमने लगे उस घर में। गये होते! लेकिन तुमने यह कैसे मान लिया कि मैं रोकती ही? | आखिर घर के लोगों ने भाई से कहा, बड़े भाई से, कि अब व्यर्थ क्या जरूरी था कि रोकती ही? मेरे मन में यह घाव की तरह रहा है रोकना। यह तो जा ही चुका। रोककर भी हम क्या रोकें? हम है कि तुमने मुझसे पूछा भी नहीं, रात तुम चोर की तरह भाग | सोचते हैं कि यह है, मगर है नहीं। महीनों बीत जाते हैं, किसी गये! जिसके साथ संबंध जोड़ा था, जिसके साथ प्रेम के नाते को पता ही नहीं चलता, न किसी बात में भाग लेता, न किसी बनाये थे, उससे कम से कम पूछ तो लेते, विदा तो ले लेते! चर्चा में भाग लेता, न अपना कोई मंतव्य देता, न किसी को बाधा महावीर ने ऐसा न किया। महावीर जाना चाहते थे और मां से डालता। तो अब 'न होने' का और क्या अर्थ होता है? होने से पूछा। स्वाभाविक, जिसने जीवन दिया, अब जीवन को छोड़ते | सार क्या है? हम इसे व्यर्थ रोक रहे हैं और हम व्यर्थ ही पाप के हैं, कम से कम उससे तो पूछ लें! भागी हो रहे हैं। और मां ने कहा कि नहीं, मेरे सामने यह बात ही मत उठाना। तो भाई और परिवार के लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने महावीर से मैं मर जाऊंगी दुख से। उसका पाप तुम्हीं को लगेगा। फिर | कहा, तुम जा ही चुके हो, अब हम तुम्हें न रोकेंगे। ऐसे उन्होंने तुम्हारी अहिंसा कहां रहेगी? घर छोड़ा। घर छोड़ने के बहुत पहले महावीर ने घर छोड़ दिया तो महावीर, कहते हैं, चुप हो गये। यह बड़ी अनूठी घटना है था। घर से निकलने के बहुत पहले, घर से निकल गये थे। और मनुष्य के इतिहास की, कि महावीर ने फिर विवाद भी न किया, मैं जानता हूं कि अगर भाई ने न कहा होता तो वे सदा घर में रहे तर्क भी न किया, दुबारा आग्रह भी न किया। जब मां मर गई, आते। क्या फर्क पड़ता था? इसलिए महावीर का वैराग्य बड़ा मरघट से लौटते वक्त अपने बड़े भाई को कहा कि अब क्या गहन है। वह भगोड़ापन नहीं है। वह क्रांति है, रूपांतरण है। खयाल है? अब तो जा सकता हूं? फिर जंगल भी चले गये। बारह वर्ष एक गहरा प्रशिक्षण था। घर भी न आ पाये थे। जंगल में बहुत साधा। बहुत निखारा अपने को। सब तरह से बड़े भाई ने कहा कि तुम थोड़ा सोचो तो! मां को दफनाकर शन्य किया। शब्द गंवाये। मौन में उतरे। शब्द छोड़ ही दिये। लौट रहे हैं, अभी घर भी नहीं पहुंचे हैं, छाती पर पत्थर पड़ा है, वाणी खो ही गई। तब फिर वापिस लौटे। क्योंकि जंगल में पाया तुम्हें त्याग की पड़ी है। यह कोई मौका है? । जा सकता है, लेकिन बांटना तो बस्ती में ही होगा। वृक्षों, महावीर ने कहा, 'इससे और अच्छा मौका कहां होगा?' पशुओं के पास पाया जा सकता है, देना तो मनुष्य को ही होगा। इसको वे कहते हैं, वैराग्य की जहां भी संभावना हो उसको और जब मिलता है तो देना होगा। महावीर ने धन ही नहीं छोड़ा; सम्मान देना। मृत्यु से बड़ी वैराग्य की संभावना क्या होगी। मां | जब उन्होंने परम धन पाया, उसको भी लुटाया। एक बार छोड़ने मर गई, इससे बड़ी और क्या जगानेवाली घटना हो सकती है? | का मजा आ जाये तो परम धन पाकर भी आदमी लुटाता है। जब मां मर गई, मुझे जन्म देनेवाली मर गई, तो मैं भी मरूंगा। 'अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल हैं, जो इस मुझे जन्म देनेवाली न बच सकी तो मेरे बचने का क्या उपाय है? | प्रकार के चिंतन में उद्यत होता है तथा इंद्रिय-विषय दोषों के मूल उसी शृंखला की कड़ी हूं। जाने दो मुझे! भाई ने कहा कि नहीं, नहीं हैं, इस प्रकार का संकल्प करता है, उसके मन में समता तुम न जा सकोगे। जब तक मैं तुम्हें आज्ञा न दूं, न जा सकोगे। उत्पन्न होती है।' बड़े भाई की आज्ञा का खयाल रखना। तत्क्षण भी समता का स्वाद आ जायेगा। तुम जरा घर में कहते हैं, महावीर फिर चुप हो गये। दो-चार वर्ष बीत गये, बैठे-बैठे ऐसे सोचो कि घर के बाहर हो। तुम पत्नी के पास 108 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैठे-बैठे जरा ऐसे सोचो, कौन किसका है! तुम बाजार में बैठे-बैठे जरा ऐसा सोचो, सब सन्नाटा है। बाजार में भी समता आ जाती है। घर में भी समता आ जाती है । सब काम-धाम करते हुए भी भीतर तुम थिर होने लगते हो। भीतर बुद्धि स्थिर होने लगती है। भीतर की ज्योति डगमगाना छोड़ने लगती है। श्रावक का अर्थ है : जिसने सत्य को सुना, सुनते ही जाग गया। बुद्ध कहते थे, घोड़े कई तरह के होते हैं। एक घोड़ा होता है जब तक उसको मारो-पीटो न, तब तक चले न । एक घोड़ा होता है कि मारने पीटने की धमकी दो, गाली-गलौज दो, उतने से ही चल जाता है, मारने-पीटने की जरूरत नहीं पड़ती। एक घोड़ा समता का अर्थ है : अकंप चैतन्य का हो जाना । 'और उससे उसकी काम-गुणों में होनेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो होता है, गाली-गलौज की भी जरूरत नहीं पड़ती; हाथ में कोड़ा जाती है।' हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो 'असद' आलम तमाम हल्कए-दामे खयाल है। हो, इतना घोड़ा देख लेता है, बस काफी है। और बुद्ध कहते हैं, एक ऐसा भी घोड़ा होता है कि कोड़े की छाया भी काफी होती है। श्रावक का अर्थ है : जिसे कोड़े की छाया भी काफी है। चीजों के चक्कर में बहुत मत पड़ जाना। लेकिन चीजें उलझाती नहीं हैं। कल्पना ही उलझाती है। तुम यहां मुझे सुन रहे हो। सुनने से तुम्हारे लिए पहला तीर्थ खुलता है। अगर तुम ठीक से सुन लो, हृदयपूर्वक सुन लो, निमज्जित हो जाओ सुनने में, तो करने को कुछ बचता नहीं, आलम तमाम हल्कए-दामे खयाल है। यह जो सारा चारों तरफ फैलाव दिखाई पड़ रहा है, यह तुम्हें सुनने में ही गांठें खुल जाती हैं; सुनकर ही बात साफ हो जाती है, गांठ खुल जाती है। कुछ अंधेरा था, छंट जाता है। कुछ उलझन थी, गिर जाती है। द्वार खुल गया, नाव तैयार है : तुम इसी तीर्थ से पार हो सकते हो ! नहीं फांसता- तुम्हारी कल्पना का जाल फांस लेता है। 'भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त हो जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुखों की परंपरा से लिप्त नहीं होता है । ' महावीर संसार छोड़ने को नहीं कह रहे हैं। यह सूत्र प्रमाण है। कहते कमलिनी के पत्र जैसे हो जाओ! भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खो परंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं । । जैसे पोखर में, तालाब में, खिला हुआ कमलिनी का फूल ! उसके पत्ते जल में ही होते हैं, जल की बूंदें भी उन पर पड़ी होती हैं, लेकिन जल स्पर्श भी नहीं कर पाता - ऐसी ही चैतन्य की एक दशा है, विराग की एक दशा है। ठीक संसार में खड़े हुए भी, ठीक गृहस्थी में रुके हुए भी, कुछ छू नहीं पाता । महावीर ने चार तीर्थ कहे हैं : श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी । किसी अनजानी दुर्घटना के कारण साधु-साध्वी महत्वपूर्ण हो गये। लेकिन महावीर का पहला जोर श्रावक-श्राविका पर है। श्रावक का अर्थ है : ऐसी सम्यक स्थिति का व्यक्ति जो सुनकर ही सत्य को उपलब्ध हो जाता है; सुनने मात्र से ही जो जाग जाता है । साधु का अर्थ है : सुनना मात्र जिसे काफी नहीं; सुनने के बाद जो साधना भी करेगा, प्रयत्न की भी जरूरत रहेगी – तब मुक्त हो पाता है। श्रावक की गरिमा बड़ी महिमापूर्ण है। परम औषधि : साक्षी-भाव कुछ हैं जो सुनने से ही पार न हो सकेंगे; उन्हें कोड़े की छाया काफी न होगी, उनके लिए कोड़े काफी होंगे, कोड़े मारने पड़ेंगे। साधु का अर्थ है जो सुनने से न पार हो सका, सत्य की समझ काफी न हुई, सत्य के लिए प्रयास भी करना पड़ा। वस्तुतः श्रावक की महिमा साधु से ज्यादा है। लेकिन साधुओं को यह बरदाश्त न हुआ। साधुओं के अहंकार को यह भला न लगा । तो कोई जैन साधु जैन श्रावक को नमस्कार नहीं करता। साधु और श्रावक को कैसे नमस्कार कर सकता है! साधु ऊपर है, श्रावक नीचे है! साधु को, श्रावक को नमस्कार करनी चाहिए ! हां, यह बात जरूर है कि श्रावक कहां हैं? पर दूसरी बात भी तो है, साधु कहां हैं? सुनकर पहुंचनेवाले बहुत मुश्किल हैं, कोड़े की छाया से चलनेवाले बहुत मुश्किल हैं। कोड़ों से भी अपने को मार-पीट करके कहां कौन चल पाता है ! उनकी भी आदत हो जाती है। ' भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त हो जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुखों की परंपरा से लिप्त नहीं होता है।' 109 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 1 भाव से मुक्त होते ही-राग और द्वेष के भाव से मुक्त होते ही; चुनाव से मुक्त होते ही; संकल्प-विकल्प से मुक्त होते ही यह सत्य पहचानकर कि सारा खेल मेरे भीतर है, अपने को सिकोड़ लेता है; जैसे कछुआ अपने को सिकोड़ लेता है! दूर जा पहुंचा गुबारे-कारवां मेरी मुश्ते-खाक तनहा रह गयी, सब तमन्नाएं हमारी मर चुकी एक मरने की तमन्ना रह गयी। अपने को सिकोड़ता जाता है। जीवन-जीवेषणा से अपने को हटा लेता है। अब जीने की कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। जीता है, क्योंकि जब तक पुराने कर्मों का जाल है, हिसाब-किताब है, चुकतारा है, निपटाता है। नया जाल खड़ा नहीं करता; पुराना लेन-देन तो चुकाना ही पड़ेगा। जीता है, लेकिन अब जीने पर जोर नहीं है। अब उसने एक राज सीखा है-और वह यह : परम मृत्यु! कैसे पूरी तरह मर जाये, ताकि दुबारा पैदा न होना पड़े! और जिसके भीतर ऐसी भाव-दशा आ जाती है, उसकी सुबह ज्यादा दूर नहीं है। हो चली सुबह फसाना है करीबे-तकमील घुल चली शमा बस अब है उसे ठंडा होना। जिसके भीतर जीवेषणा ठंडी हो गई, वह खोने लगा। हो चली सुबह फसाना है करीबे-तकमील कहानी पूरी होने के करीब आ गई, सुबह होने लगी। घुल चली शमा-दीया बुझने लगा; बस अब है उसे ठंडा होना। वह ठंडक, वह शीतलता जो जीवेषणा के बुखार के बुझ जाने पर पायी जाती है, उसी का नाम मोक्ष है। दुख पर ध्यान करना! दुख को सब तरफ से पहचानना, निदान करना। दुख दिख जाये तो औषधि पानी बड़ी कठिन नहीं है। दुख दिख जाये तो छूटने की परम आकांक्षा पैदा होती है, अभीप्सा पैदा होती है। साक्षी-भाव औषधि है। दुख है निदान-साक्षी-भाव औषधि है-मोक्ष स्वास्थ्य है। आज इतना ही। 1100 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवां प्रवचन तुम मिटो तो मिलन हो Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना! नककटे साधु की कहानी...क्या आपके संन्यासियों की यही स्थिति नहीं है? भीतर विचारों की भीड़ है और अहंकार से विक्षुब्ध हूं...? बेमुरौअत बेवफा बेगाना-ए-दिल आप हैं।...? बहुत शुक्रिया बहुत मेहेरबानी मेरी जिंदगी में हुजूर आप आए Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. हला प्रश्न : प शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई। आया नहीं शाम मेरा, ओसनूं मिलायो जी।। 'श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना।' आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न जाऊं ! परमात्मा को पाना मात्र रटन की बात नहीं है। रटने से ही होता होता तो बड़ा आसान होता । रट तो तोते भी लेते हैं। बोध चाहिए! अकेली रटन काम न देगी। रटन ठीक है, उपयोगी है, बहुमूल्य है - लेकिन बोध से संयुक्त हो तभी; अन्यथा रटन यांत्रिक हो जाती है। कोई रटता रहता है श्याम श्याम श्याम, लेकिन इस रटन के पीछे और हजार विचार चलते रहते हैं। यह | रटन धीरे-धीरे अभ्यास हो जाती है। इसे करने के लिए, रटने के लिए, किसी बोध की जरूरत ही नहीं रह जाती; यंत्रवत सरकती रहती है। तुम न भी चाहो तो होती रहती है । और भीतर गहरे तलों पर हजार-हजार विचार चलते रहते हैं, हजार वासनाएं चलती रहती हैं। जब तक वे भीतर के तल पर विचार और | वासनाएं खो न जायें, जब तक रटन अकेली न रह जाये, श्याम | के लिए पुकार उठे तो बस पुकार हो, भीतर कुछ और न हो— तब तो पुकारने की भी जरूरत न पड़ेगी, बिन पुकारे परमात्मा पास आ जाता है। है - बाहर भी वही, भीतर भी वही । जिसे तुम रट रहे हो, वह तो परमात्मा है ही; जो रट रहा है, वह भी परमात्मा है। तो रटन में ज्यादा मत उलझ जाना । पुनरुक्ति कहीं मन को बहुत ज्यादा ग्रसित न कर ले ! रटन पर बहुत ज्यादा भरोसा मत कर लेना । उपयोगी है, लेकिन कुछ और भी चाहिए। वह है बोध । वह है ध्यान । 'श्याम श्याम रटते ही जीवन की सांझ हो गई। अभी तक मेरा श्याम नहीं आया।' नहीं, पहचान तुम्हारे पास नहीं, श्याम तो बहुत बार आया । श्याम तो आता ही रहा । श्याम तो आता ही रहता है। उसके सिवाय और कोई है ही नहीं जो आये । जो भी आया है उसमें श्याम ही आया है। कोई और तो आयेगा कैसे ? सभी उसके रूप हैं। सभी उसके ढंग हैं। सभी उसके रंग हैं। फूल में भी वही । पत्तों में भी वही । पहाड़ों- पत्थरों में भी वही । पशु-पक्षियों में वही । स्त्री-पुरुषों में वही ! जहां 'कुछ' है, वही है; और जहां कुछ भी नहीं है, वहां भी वही है। इसलिए आने-जाने की भाषा तो हमारे मन की भाषा है। परमात्मा है : न आता न जाता । जो 'है' उसका ही नाम परमात्मा है - जो सदा है, जिसमें कोई गति नहीं है, जिसमें कोई प्रक्रिया - क्रिया नहीं है, जो 'मात्र होना' है! इस क्षण भी तुम्हें उसी ने घेरा है। तुम राह किसकी देखते हो ? कहीं राह देखने में ही तो नहीं चूक रहे हो ? क्योंकि जब आंखें किसी की राह देखती हैं, तो और सब चूक जाता है। तुम अगर अपनी प्रेयसी की राह देख रहे हो द्वार पर बैठकर, तो फिर और कोई नहीं दिखायी परमात्मा कभी दूर गया नहीं । जो दूर चला जाये वह परमात्मा नहीं। वह सदा तुम्हारे पास है। सब तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा | 115 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 जिन सूत्र भाग: 1 पड़ता। राह चलती रहती है। लोग गुजरते रहते हैं। तुम और | सबके प्रति अंधे हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारा मन एकाग्र है—किसी वासना में, किसी कामना में, किसी आकांक्षा में, अभीप्सा में, तुम एकजुट एकाग्र हो। तुम राह देखते हो किसी चेहरे की । तो श्याम तो तुमने पुकारा होगा, लेकिन तुम किसी चेहरे की राह देख रहे हो – बांसुरी धरे हुए आयेगा, मोर मुकुट लगाकर आयेगा। तो तुम चूके! तुम्हारी इस आकांक्षा में ही, तुम्हारी इस धारणा में ही पर्दा है। तुम्हारी कोई निश्चित मनोदशा है, जिसमें तुम मांग कर रहे हो, ऐसा होना चाहिए। कहते हैं, तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले गये, तो वे झुके नहीं । तुलसीदास जैसा समझदार आदमी भी नासमझी कर गया। झुके नहीं, क्योंकि वे राम के भक्त थे, कृष्ण की मूर्ति के सामने झुकें कैसे! खड़े रहे, अड़े रहे। वे तो एक को ही पहचानते थे- धनुर्धारी राम को । यह मुरली - मुरारि को, यह मुरलीधारी को, वे पहचानते न थे, मानते भी न थे। कैसे झुकें ! कहानी बड़ी मधुर है। कहानी यह है कि उन्होंने कहा कि तुम जब धनुष-बाण हाथ लोगे, तभी मैं झुकूंगा, नहीं तो मैं न झुकूंगा। मैं तो एक का ही भक्त हूं । कहानी कहती है कि तुलसीदास के लिए कृष्ण ने हाथ में धनुष-बाण लिया, मूर्ति बदली । मुरली खो गई, मोर मुकुट खो गया, धुर्धारी राम प्रगट हुए - तब, तब तुलसीदास झुके । मैं नहीं मानता हूं कि मूर्ति बदली होगी । तुलसीदास ने ही कोई सपना देखा होगा। कहीं परमात्मा तुम्हारे पक्षपातों के अनुसार ढलता है? तुम परमात्मा को आज्ञा दे रहे हो ? तुम परमात्मा को कह रहे हो कि अगर मेरी स्तुति चाहिए हो तो इस ढंग से आ जाओ! ऐसे पीत वस्त्र पहनकर, पीतांबर होकर खड़े होना; ऐसा नील वर्ण हो तुम्हारा, ऐसी तुम्हारी आंखें हों, इस तरह से खड़े होना । तुम मुद्रा, ढंग, रूप-रंग, सब तय किये बैठे हो, इसलिए परमात्मा से चूक रहे हो। लोग धार्मिक होने के कारण धर्म से चूक रहे हैं। क्योंकि धार्मिक होने में वे सांप्रदायिक हो गये हैं और उन्होंने एक रुख पकड़ लिया है। मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि तुम्हारे पक्षपात विसर्जित हो जायें। तुम मांग न करो। तुम कहो, तू जिस रूप में आयेगा, हम पहचानेंगे। तू हमें धोखा न दे पायेगा ! तू धनुष-बाण लेकर आयेगा, कोई हर्ज नहीं, तो भी पहचानेंगे। तू मुरली हाथ में लेकर आयेगा तो भी पहचानेंगे। तू महावीर की तरह नग्न खड़ा हो जायेगा, न धनुष-बाण होंगे न मुरली होगी, तो भी हम पहचानेंगे। तू जीसस की तरह सूली पर लटक जायेगा, तो भी हमें धोखा न दे पायेगा ! धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं, जिसने परमात्मा को चुनौती दे दी कि अब तू हमें धोखा न दे पायेगा, हम पहचान ही लेंगे! तू जिस रूप में आये, आ जाना; क्योंकि हमने अब एक बात समझ ली है कि सभी रूप तेरे हैं। फिर तुम कैसे चूकोगे? फिर जिंदगी की शाम कभी न होगी। फिर जिंदगी सदा सुबह ही बनी रहेगी। शंकराचार्य के जीवन में एक उल्लेख है। कल ही मैं सांझ उनकी कहानी कह रहा था। शिष्यों को समझा रहे हैं। कुछ ऐसा उलझा हुआ प्रश्न खड़ा हो गया है। तो उन्होंने दीवाल पर कलम उठाकर एक चित्र बनाया—समझाने के लिए । चित्र में बनाया एक वृक्ष - बोधिवृक्ष । उसके नीचे बैठाया एक युवा संन्यासी को — गुरु की तरह । और फिर उस चित्र के आसपास, युवा संन्यासी के आसपास, बिठाये बड़े बूढ़े शिष्य, जीर्ण-जर्जर, बड़े प्राचीन! एक शिष्य ने खड़े होकर कहा, 'यह आप क्या कर रहे हैं ? शायद आप चूक गये। इस युवक संन्यासी को गुरु और इन बूढ़े वृद्ध ऋषि-मुनियों को शिष्य ! आपसे कुछ गलती हो गई है।' शंकर ने कहा, गलती नहीं हुई, जानकर बना रहा हूं। क्योंकि शिष्य सदा बूढ़ा है। क्योंकि शिष्य का अर्थ है: मन। मन बड़ा प्राचीन है। मन बड़ा पुराना है । मन यानी पुराना । मन यानी अतीत। मन यानी जो हो चुका, उसकी धूल-धवांस; जो जा चुका उसके रेखा-चिह्न; जो बीत चुका उसके पद चिह्न । मन का अर्थ ही है : जो बीत चुका, उसकी लकीरें। बड़ा पुराना मन ! शिष्य के पास मन है। गुरु का मन खो गया है, तो अतीत खो गया। तो शंकर ने कहा, 'गुरु तो सदा नित- नवीन है, युवा है, किशोर है।' इसलिए तुमने देखा ! राम की तुमने कोई बूढ़ी प्रतिमा देखी ? बूढ़े कभी तो हुए होंगे ! कोई जगत नियम तो नहीं बदलता - किसी के लिए नहीं बदलता । कृष्ण की तुमने बूढ़ी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो प्रतिमा देखी? निश्चित बूढ़े हुए थे, अस्सी वर्ष के हो गये थे, रटन में इतने लीन हो कि तुम्हें फुर्सत कहां कि तुम जरा आंख तब तीर लगा और मरे। बुद्ध की तुमने बूढ़ी प्रतिमा देखी? खोलो और देखो कि कौन आया है! रटन जब वस्तुतः हार्दिक महावीर की तुमने बूढ़ी प्रतिमा देखी? नहीं, हमने कोई बूढ़ी होती है तो रटन होती ही नहीं। आवाज कहां उठती है। बोल उनकी प्रतिमा नहीं बनायी। इसलिए नहीं कि वे बूढ़े नहीं हुए थे; कहां उठते हैं! सब खो जाता है, सन्नाटा हो जाता है। बूढ़े तो हुए थे, लेकिन हम पहचान गये कि उनके भीतर जो घटा परमात्मा की खोज में निकले खोजी, परमात्मा को पाने के था वह नित नवीन था। सद्यःस्नात! अभी-अभी नहाया हआ। पहले खद खो जाते हैं। इसी क्षण जन्मा! वे ही उसे पाते हैं जो अपने को खो देते हैं। मन तो पुराना है। मन की धारणाएं पुरानी हैं। परमात्मा रटन का हिसाब छोड़ो। माला कितनी जपी, यह फिक्र छोड़ो। प्रतिपल नया है-नयी फटती कोंपल की भांति! नयी खिलती कितनी बार उसका नाम लिया, यह फिक्र छोड़ो। कली की भांति! मैं एक घर में मेहमान था। तो पूरा घर शास्त्रों से भरा पड़ा था। छोड़ो धारणाएं मन की, तो तुम उसे सब तरफ से आते तो मैंने कहा, 'बड़े शास्त्र हैं, क्या मामला है? कौन-कौन से पाओगे। हर पगध्वनि में उसी की पगध्वनि सुनायी पड़ेगी। शास्त्र हैं।' उन्होंने कहा, 'कुछ नहीं, सब शास्त्रों में राम-राम कोयल के मधुर कंठ में ही नहीं, कौवे की कांव-कांव में भी वही | लिखा है।' वे जिनके घर मैं ठहरा था, वे राम-भक्त थे। तो है। और जब तक तुम कौवे में न पहचान पाओगे, तब तक तुम | उनका काम ही है यह चौबीस घंटे, वे और कोई काम नहीं करते, जानना, पहचान पक्की न हुई। राम में ही नहीं, रावण में भी वही वे किताब लिये बैठे रहते हैं : राम-राम-राम-राम....। हजारों है। और जब तक तुमने कहा कि रावण में नहीं है, तब तक तुम किताबें उन्होंने खराब कर दी हैं। मैंने उनसे कहा, बच्चों को दे राम में भी न पहचान पाओगे।। | देते, पढ़ने के काम आ जातीं, स्कूल में बांट देते-ये तुमने तुलसीदास ने तो हद्द कर दी नासमझी की! कृष्ण में भी न | खराब क्यों कर दीं? अपना भी समय खराब किया। और मैंने पहचान पाये राम को, तो रावण में तो कैसे पहचान पायेंगे! उनसे कहा, देखो तुम ऐसे लिखते रहते हो चश्मा चढ़ाये, क्योंकि महाकवि रहे होंगे, जाग्रत पुरुष नहीं। काव्य की महिमा है आंखें धुंधली हो गई हैं, बूढ़े हो गये-राम कई दफे आता है, उनकी। बड़े सुंदर उनके वचन हैं। लेकिन कहीं कुछ चूका-चूका लौट जाता है। तुम्हें कभी फुर्सत में नहीं पाता। तुम्हें राम-राम है, कहीं कुछ खोया हुआ है-अनुभव खोया हुआ है। लिखने से फुर्सत मिले, तब न! राम हटे तो राम मिले! श्याम फिर जीवन की कभी शाम न होगी, अगर परमात्मा से पहचान | हटे तो श्याम मिले! तुम मिटो तो मिलन हो! हो गयी। जीवन की सांझ होती है, सुबह होती है, परिवर्तन होता थक थक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये है, जन्म और मौत होती है; क्योंकि उससे हमारी पहचान नहीं हो तेरा पता न पाएं तो नाचार क्या करें! पाती, जो सनातन है, शाश्वत है। यह तसव्वुफ की भाषा है, प्रेम की, सूफियों की! 'शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई। थक थक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये। आया नहीं शाम मेरा, ओस नूं मिलायो जी।।' परमात्मा की खोज में जो निकलता है, एक घड़ी आती है थक श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी, अब तो जागो! जाता है, खो जाता है। रटन से कुछ भी न होगा। देखो! दर्शन चाहिए! आंख चाहिए! थकथक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये। तुम्हारी रटन के कारण ही श्याम बहुत बार आया और लौट | तेरा पता न पाएं तो नाचार क्या करें। गया। उसने कहा, अरे! यह तो अभी भी रट रही है। अभी भी हम असहाय करें भी क्या, तेरा पता तो मिलता नहीं। खाली नहीं है! अभी भी मन इसका मुक्त नहीं है, शांत नहीं है! खोजते-खोजते खुद ही खो जाते हैं, अपना ही पता खो जाता है। अभी भी किसी श्याम-श्याम, को रट रही है! लेकिन जिस क्षण अपना पता खो जाता है, उसी क्षण सब तुम्हारी रटन के कारण ही तो पर्दा खड़ा हो गया है। तुम अपनी | | दिशाओं से उसकी मंगल वर्षा होने लगती है। मंगल वर्षा तो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 RTER पहले भी हो रही थी, लेकिन हम भरे थे, हम किन्हीं खयालों से खोने की तैयारी करो! मिटने की तैयारी करो! एक-एक इंच दबे थे। अपने को गलाओ। ईश्वर की सभी धारणाएं छोड़ दो अगर ईश्वर को चाहते हो। | खोजनेवाला खो जाये, यही शर्त है उसे पाने की। अगर सत्य को पहचानना है तो शास्त्र को हटाओ। अगर उसे और फिर से तुम्हें दोहरा दूं, परमात्मा आता-जाता नहीं। देखना है जो अभी खड़ा है तुम्हारे सामने; जो हवा के झोंके में आने-जाने की क्रिया संसार है। सदा होने की स्थिति परमात्मा तुम्हें सहला गया हैजो पक्षियों के कलरव में तुम्हें बुला रहा है; है। जो आता है जाता है, उसी को तो हम मन कहते हैं। जो न सूरज की किरण में जिसने अपना हाथ फैलाया है और तुम्हारा | आता न जाता, जो सदा है, वही तो चैतन्य है। बादल आते हैं, स्पर्श किया है-अगर उसे देखना है, उस सहस्रबाहु को, उस घिरते हैं, घुमड़ते हैं, नाचते हैं, बिजलियां चमकती हैं, फिर विदा अनंत को, तो तुम सारी धारणाओं को हटाओ। तुम नग्न हो | हो जाते हैं! अब आषाढ़ आता है जल्दी; घिरेंगे बादल, घुमड़ेंगे, जाओ, निर्वस्त्र धारणाओं से बिलकुल निर्वस्त्र। यही तो घड़ी भर को बड़ा रौरव मचायेंगे, बड़ा शोरगुल करेंगे-फिर जा महावीर होने का अर्थ है-निग्रंथ, नग्न, दिगंबर! | चुके होंगे। जो बचा रहता है वही आकाश है। कितनी बार जैनों ने बड़ी उलटी बात पकड़ ली। वे समझे कि बस वस्त्र बादल घिरे और कितनी बार गये। आये और गये-वही संसार छोड़कर नग्न खड़े हो जाने पर महावीर की नग्नता पूरी हो जाती है। जो बचा रहा है पीछे, अछूता, अस्पर्शित, पोखर के कमल है। महावीर की नग्नता तब पूरी होती है जब चित्त के सारे वस्त्र के पत्तों जैसा, जिस पर कोई बादल की छाया भी न छटी और उतर जाते हैं। जिसे बादल मलिन भी न कर पाये, जिस पर बादलों की स्मृति तुमने कृष्ण की कहानी पढ़ी है? गोपियां स्नान कर रही हैं, वे भी नहीं है...! उनके वस्त्र चुराकर वृक्ष पर बैठ गये हैं। अश्लील मालूम होती आज आकाश को देखो, तो क्या तुम सोचोगे इस पर है। आज करें तो पुलिस पकड़ेगी। चल गई उन दिनों, अब न अरबों-खरबों वर्षों से बादल घिरते रहे हैं? निष्कलुष! निर्मल! चलेगी। और स्त्रियां ही मुश्किल में डाल देंगी। लेकिन कहानी कुंआरा! कुंआरा का कुंआरा! इसका कुंआरापन कभी भी का अर्थ बड़ा गहरा है। कृष्ण यह कह रहे हैं, जो मेरे प्रेम में खंडित नहीं हुआ। बादल आये और गये, इसके पास उनकी पड़ेगा उसके मैं वस्त्र छीन लूंगा। गोपी यानी जो उनके प्रेम में है। कोई स्मृति भी नहीं है। कृष्ण कह रहे हैं कि तुम्हारे वस्त्र छीन लूंगा, तुम्हें निर्वस्त्र ऐसा ही है परमात्मा। हम आते हैं जाते हैं परमात्मा है। करूंगा। कृष्ण कह रहे हैं कि जब तक तुम्हारे पास कुछ भी है। हम बहुत बार आये हैं, बहुत बार गये हैं-आषाढ़ के तुम्हारा, जिसमें तुम अपने को छिपा लो, तब तक मझसे मिलन बादल-कभी बहुत शोरगुल मचाया-नेपोलियन, चंगेज, न हो सकेगा। तैमूर! कभी चुपचाप भी आकर चले गये-कपसीले वस्त्र का अर्थ होता हैजिसमें तुम अपने को छिपा लो, ढांक बादल-कोई शोरगुल भी न मचाया, वर्षा भी न की, साधारण! लो। निर्वस्त्र होने का अर्थ है छिपाने को कुछ भी न रहा, ढांकने कभी बिजलियां कौंधी, बड़ा रौरव किया, बड़ा रौद्र रूप को कुछ भी न रहा; हमने खोला अपना हृदय, सारे शब्द, सारे दिखाया; कभी चुपचाप सपनों जैसे तैर गये, न कोई रौरव नाद सिद्धांत हटा डाले। तुम जब कहते हो, मैं हिंदू हूं, तो तुम मन पर किया, न कोई शोरगुल मचाया, किसी को पता भी न चला! कुछ वस्त्र पहने हुए हो। तुम्हारा मन नग्न नहीं। तुम्हारी चेतना कभी इतिहास बनाया उपद्रव का, कभी चुपचाप गुजर गये, का कुछ आवरण है। जब तुम कहते हो, मैं जैन हूं, तब तुम सत्य कानों-कान किसी को खबर भी न मिली आने-जाने की। पर हर के लिए खुले नहीं। तुम कहते हो, सत्य के प्रति मेरी कुछ धारणा | हालत में हम आये और गये। है; जब सत्य उस धारणा को पूरा करेगा तो ही मैं मानूंगा कि सत्य उसे जानना है, जो न आया और न गया। है: तुम भटकोगे फिर। एक सांझ नहीं, हजारों सांझ होंगी झेन फकीर हुआ ः तोझान ओसो! वह बड़ा बहुमूल्य फकीर रटते-रटते, पहुंचना न होगा। था! कहते हैं जब तोझान ओसो समाधि को उपलब्ध हुआ, 1118 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो परमज्ञान को उपलब्ध हुआ, निर्वाण पा लिया उसने, खो गया यह कोई कंजूसी नहीं है। अर्थशास्त्र से इसका कोई लेना-देना सब भांति, बचा वही जो सदा है तो कहते हैं, देवलोक में नहीं है। इसका संबंध तो बड़े अध्यात्म से है। प्रत्येक चीज का देवता आतुर हुए तोझान को देखने को—होना ही चाहिए। सम्मान! तो भोजन करते वक्त भोजन को भी नमस्कार कर के ही क्योंकि देवता कितने ही सुंदर हों, अभी बादल ही हैं; कितने ही भोजन शुरू करना है। भोजन करते वक्त पहले परमात्मा को स्वर्णमंडित हों, अभी बादल ही हैं; कितने ही सुखमय हों, अभी भोग लगा देना है, तब भोजन शुरू करना है। आज फिर उसने सपने में ही हैं। उत्सुक हुए तोझान का चेहरा देखने को। जब भी अवसर दिया! आज फिर घड़ी आई भोजन की! एक दिन और कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो देवता उत्सुक होते हैं। मिला ! उसकी अनुकंपा अपार है-ऐसे भाव से।। उनको भी आकांक्षा जगती है। क्योंकि यह परम घटना घटी। तो तो किसने फेंके ये चावल के दाने? आश्रम में ऐसा कभी भी न देवता आये तोझान के आश्रम में। उन्होंने सब तरफ से चेष्टा की हुआ था। तो तोझान के मन में विचार उठा देखकर, किसने फेंके तोझान को देखने की, पहचानने की; लेकिन कोई चेहरा दिखायी ये चावल के दाने, किसने फेंके ये गेहूं। कहते हैं, उसी वक्त न पड़े। आकाश का कहीं कोई चेहरा है! बादल हो तो रूप-रंग, देवताओं ने उसके दर्शन कर लिये। क्योंकि जब विचार उठा तो रेखा, आकृति...। आकाश तो निराकार है। तोझान तो बादल घिरा। जब बादल घिरा तो आकृति आ गई। उस वक्त आकाश हो गया। उन्होंने सब तरफ से...उसके भीतर गये, पकड़ लिया देवताओं ने तोझान को। एक क्षण को ही उठी लहर, बाहर गये, सब तरफ से खोजा, कुछ भी न पाया। सन्नाटा है, | पर उठ गई। एक क्षण को कुछ सघन हो गया, भीतर एक तनाव अनंत सन्नाटा है, शून्य है! वे बड़े चिंतित हुए कि क्या हमें दर्शन आ गया : किसने, क्यों फेंके ये? यह कैसी गैर-सावधानी है? न होंगे। उसी में से गुजरते थे और उसके दर्शन न हो रहे थे। उसी| यह कौन है जो असावधानी से जी रहा है? एक प्रश्न उठ गया। के आसपास परिक्रमा कर रहे थे और उससे पहचान न हो रही एक समस्या आ गई। एक चिंता आ गई। बादल घिरे। क्षणभर थी! भीतर-बाहर आ जा रहे थे, लेकिन सब सूना सन्नाटा था। को सब अंधेरा हो गया। उस क्षण में देवताओं ने दर्शन कर मंदिर ही बचा था, प्रतिमा तो खो गई थी–दर्शन किसके हों! लिये। फिर खुल गये बादल। राम बचा था, धनुष-बाण खो गये थे, प्रतिमा खो गई थी। कृष्ण तोझान हंसा। उसने कहा, 'तो अच्छा, यह शरारत है।' बचा था, बांसुरी न बची थी, गीता न बची थी। गीता पर रखी उसने देवताओं से कहा, 'अच्छा तो यह शरारत है!' क्योंकि बांसुरी खो गई थी। जब तोझान का चेहरा आया और देवताओं ने तोझान को देखा, आखिर देवताओं में जो सब से ज्यादा कुशल था, उसने कहा, । तो तोझान ने भी देवताओं को देख लिया। उसने कहा, 'अच्छा, 'ठहरो! कुछ उपाय करना पड़ेगा। ऐसे तो दर्शन न होंगे।' तो यह तुम्हारी शरारत है!' तोझान घूमने निकला था। सुबह की बेला! नया-नया ऊगा जरा-सा विचार, और तनाव पैदा हो जाता है। निर्विचार, कि सूरज! पक्षियों के गीत! तोझान लौट रहा था आश्रम की तरफ। आकाश पैदा हो जाता है। उस चालाक देवता ने आश्रम के चौके से कुछ चावल मुट्ठियों में तो श्याम-श्याम रटने से कुछ भी न होगा। रटन ही तनाव भर लिये, कुछ गेहूं मुट्ठी में भर लिये और आकर तोझान के रास्ते बनेगी, बादल बनेगी। राम चदरिया ओढ़ लेने से कुछ भी न पर उन्हें फेंक दिया। होगा। सब चादर उतार देनी है। __ अब...झेन आश्रम में बड़ी सावधानी बरती जाती है। क्योंकि जिस क्षण तुम्हें पता भी न रहेगा कि परमात्मा की प्रतिमा कैसी, प्रत्येक चीज का अपरिसीम सम्मान है। अन्न तो ब्रह्म है। नाम भी याद न रहेगा कि उसका नाम क्या है, उसका धाम क्या इसलिए कोई झेन साधु, कोई झेन साधक ऐसे चावल और गेहं है, पता-ठिकाना क्या है; जिस क्षण तुम अबझ, को फेंक नहीं सकता रास्ते पर। इसमें कोई अर्थशास्त्र का सवाल आश्चर्यचकित, अवाक, मौन, निराकार में खड़े हो नहीं है। यह कोई गांधीवादी बचायत और किफायत नहीं है। यह जाओगे-फिर कोई सांझ न होगी; फिर सुबह ही सुबह है। सवाल नहीं है। सवाल यह है कि प्रत्येक चीज का समादर है। परमात्मा के जगत में सुबह ही सुबह है; आदमी के जगत में 119 www.jainelibra y.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग सांझ ही सांझ है। आदमी के जगत में सुबह होती है सिर्फ सांझ उजाड़ रेगिस्तान जैसा था। एक उसे पाने के बाद का दुख। को लाने के लिए। आदमी के जगत में जन्म होता है केवल मृत्यु | क्योंकि पाने के बाद, और पाने की अदम्य लालसा जगती है। की तरफ जाने के लिए। यहां जन्म भी मौत की तरफ एक कदम यह कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि पूरी हो जाती है कभी। है। यहां सुख भी केवल दुख को पाने की व्यवस्था है। परमात्मा परमात्मा कुछ ऐसा थोड़े ही है कि पा लिया, पा लिया। इधर तो के जगत में फिर कोई सांझ नहीं है, वह तो सदा ही मौजूद है। पाया कि और भी पाने की आकांक्षा जगती है। यह तो सागर उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पड़े अंतहीन है। इसका कोई कूल-किनारा नहीं है। आंखों को बंद जलवए-दीदार ने किया। जाहिरा दुनिया जिसे महसूस कर सकती नहीं तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उसका ही जलवा है। उसके | हो गई है मुझमें इक ऐसी कमी तेरे बगैर।। ही दर्शन की रोशनी है सब तरफ। तुम किसे खोजते हो? कहीं। मगर यह तो जानने के बाद की बात है। जानने के पहले तो हमें उसकी रोशनी के कारण तुम आंखें बंद किये तो नहीं बैठे? पता ही नहीं कि हम क्या खो रहे हैं। जानने के पहले तो हमें पता उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पड़े। ही नहीं है कि हम सम्राट हैं और भिखारी की तरह भटक रहे हैं। परमात्मा जैसे ही अपना घूघट उठाता है, तुम्हारी आंखें बंद हो जानने के बादजाती हैं। जाहिरा दुनिया जिसे महसूस कर सकती नहीं उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पडे हो गई है मुझमें इक ऐसी कमी तेरे बगैर आंखों को बंद जलवए-दीदार ने किया। तुझसे छुटकर कितना फीका पड़ गया है रंगेगुल उसकी रोशनी तुम झेल नहीं पाते, आंख बंद कर लेते हो। हो गई बेले की कलियां सांवली तेरे बगैर जिस दिन तुम उसकी रोशनी झेल पाओगे, कंकड़-पत्थर में भी कल जहां जर्रा-जर्रा तूरदर आगोश था उसे छिपा पाओगे। कंकड़-पत्थर मानकर तुमने अपनी आंखें आज इस घर में नहीं है रोशनी तेरे बगैर बंद कर ली हैं। फिर से खोलो। आंख खोलो! दर्शन को दिल नहीं झुकता है पहले की तरह सजदों के साथ उपलब्ध होओ! नामुकम्मिल है मजाके-बंदगी तेरे बगैर। जिन्होंने उसे पाया है, वे कहते हैं : दो दुख हैं जीवन में। एक, और तो और, प्रार्थना में भी मन नहीं लगता अब। जिसने उसे पाने के पहले; एक, उसे पाने के बाद। पाने के पहले का | परमात्मा की एक झलक पा ली, फिर प्रार्थना में भी मन नहीं दुख नकारात्मक है। पाने के बाद का दुख बड़ा विधायक है। लगता; क्योंकि प्रार्थना में भी उसकी कमी ही खलती है। पाने के बाद के दुख में बड़ा रस है। उस पीड़ा में बड़ी मधुरता है, दिल नहीं झुकता है पहले की तरह सजदों के साथ मधुरिमा है। इसलिए तो नारद कहते हैं, भक्त भगवान से प्रार्थना नामुकम्मिल है मजाके-बंदगी तेरे बगैर। करता है : 'मेरे विरह को मत मिटा देना।' यह पाने के बाद की किसी को दिखाई भी न पड़ेगा बाहर से। परमात्मा को पाना, पीड़ा है। तब एक खेल शुरू होता है। वह खो-खोकर | संसार में कुछ पा लेने जैसी बात नहीं है। एक मकान बना लिया, फिर-फिर पाता है; आंख बंद-बंद करके फिर खोलता है। बना लिया–बात खतम हो गई। एक पत्नी से विवाह करना तुमने कभी खयाल किया! कोई बहुत चमत्कारी अनुभव होता था, रचा लिया–बात खतम हो गई। परमात्मा से तो सिर्फ बात हो, बड़ी गहन सुबह हुई हो, सूरज निकला हो, बड़ा प्रीतिकर हो शुरू होती है, खतम कभी नहीं होती। इसलिए तो कहता हूं: वातावरण तम देखते हो, फिर तम आंख बंद करके, फिर सुबह ही सबह है, सांझ नहीं आती। यात्रा का प्रारंभ तो है, फिर खोलकर देखते हो। एक क्षण को आंख बंद कर लेते हो ताकि अंत नहीं है। सागर में उतरते तो हैं, लेकिन फिर किनारा नहीं खो जाये, ताकि आंख ताजी हो जाये। फिर देखते हो। मिलता। लेकिन तब एक तरफ तो पीड़ा भी सालती है कि और परमात्मा को जिन्होंने पाया है, वे कहते हैं : दो दुख हैं। एक तो मिल जाये, गहन अतृप्ति जगती है, एक दिव्य असंतोष पैदा होता उसे पाने के पहले का दुख। वह कुछ भी नहीं है। वह तो सिर्फ है; और दूसरी तरफ हर तरफ से उसकी झलक भी आने लगती 1201 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो है। रह-रहकर उसके झोंके आ जाते हैं हवा के। रह रहकर चूकने का उपाय नहीं है। हां, तुम मानना चाहो तो माने रह उसकी गंध तैर जाती है। सकते हो कि चूके हो। चूकना तुम्हारी भ्रांति है। जिस दिन बहार जब भी चमन में दीये जलाती है जानोगे उस दिन हंसोगे-हंसोगे इस मूढ़ता पर कि अब तक हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है। कैसे मैंने माने रखा कि चूक गये थे, परमात्मा को चूक गये थे, बहार जब भी चमन में दीये जलाती है-जब बसंत आ जाता भूल गये थे! यह कैसे संभव हुआ था कि अब तक मैं समझ न है और बगीचों में दीये जलते हैं, फूलों के दीये जलते पाया था कि वह हमेशा मौजूद है, सब तरफ मौजूद है! हैं...हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है। तब फूलों के गुच्छों| कबीर कहते हैं कि मुझे देख-देखकर बड़ी हंसी आती है कि से मुझे तेरी आंच आती है। हर तरफ जीवन उसी की आंच देने मछली सागर में प्यासी है। मछली सागर में प्यासी है। और लगता है। हर श्वास उसी की श्वास है। हृदय में दौड़ते हुए सागर को मछली खोज रही है, कहां है। रक्त-कण उसी के हैं। तो एक तरफ तो सब तरफ से उसकी ईश्वर की सारी खोज ऐसे ही है जैसे मछली सागर को खोजती खबर मिलने लगती है; और दूसरी तरफ, और चाहिए, और हो, कहां है। इतने निकट है कि खोजने का अवकाश भी कहां चाहिए, और चाहिए, क्योंकि दूसरा किनारा नहीं मिलता। है! मछली सागर से ही बनती है, सागर में ही पैदा होती है। भक्त भगवान को पाकर और भी विरह में पड़ जाता है। यह सागर ही मछली के भीतर भी लहरें लेता है, बाहर भी लहरें लेता भक्ति का विरोधाभास है। जिन्होंने नहीं पाया है, वे तो | है। फिर सागर में ही लीन हो जाती है एक दिन, खो जाती है। कभी-कभी रोते हैं उसके लिए, कभी-कभी श्याम-श्याम की सागर की ही एक लहर है मछली-थोड़ी ज्यादा ठोस, थोड़ी रटन करते हैं, जिन्होंने पाया है, उनके रोने का तुम्हें कुछ पता ही ज्यादा देर टिक जानेवाली-थोड़े ज्यादा दिन उछल-कूद कर नहीं। वे रोते ही रहते हैं। कभी रोते हैं, कभी नहीं रोते-ऐसा लेती है और लहरों की बजाय; लेकिन लहर सागर की है। नहीं; रोते ही रहते हैं। रटन करते हैं, ऐसा भी नहीं है; लेकिन | इसलिए घबड़ाओ मत। चूकने का उपाय नहीं है। मैं तुम्हें जो फिर भी रटन होती रहती है। दूर गहन गहरे हृदय में पुकार समझा रहा हूं, वह पाने का उपाय नहीं बता रहा हूं; तुम्हें सिर्फ चलती ही रहती है। यह समझा रहा हूं कि तुमने चूकने के लिए जो उपाय बना रखे हैं, परमात्मा एक अनंत यात्रा है; ऐसा तीर्थ है जिसकी तरफ हम वे छोड़ दो। साधारणतः लोग कहते हैं कि हमें विधि बताओ कि चलते तो हैं, लेकिन कभी पहुंच नहीं पाते। परमात्मा गंतव्य नहीं | कैसे हम परमात्मा को पा लें। मैं तुमसे कहता हूं, मैं तुम्हें जो है। हम उसकी तरफ गति करते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता विधि बतला रहा हूं, वह परमात्मा को पाने की नहीं है; क्योंकि कि हम कह दें, बस अब आगे और नहीं। अगर ऐसा होता तो उसको तो कभी खोया नहीं, वह तो बात ही छोड़ दो, वह परमात्मा को अनंत कहने का कोई भी अर्थ न था। अगर आगे बकवास तो मेरे सामने उठाओ ही मत। कोई मछली मुझसे पूछे और नहीं तो परमात्मा भी शांत है, पूरा हो गया। नहीं, सदा शेष | सागर कहां है, मैं जवाब देनेवाला नहीं हूं क्योंकि मैं क्यों है। यही दुविधा भी है, यही सौभाग्य भी। नहीं तो सोचो, जिसने फिजूल पंचायत में पडूं। वह तो नासमझ है ही और मुझको भी पा लिया वह क्या करता? ऊबकर, थककर बैठ जाता : 'अब नासमझ बनाने की तैयारी है। तो मैं तो यही समझने की कोशिश क्या करूं? अब कहां जाऊं? अब क्या बनूं? अब क्या हो करूंगा कि यह मछली कैसे भूल गई है, यह मछली कैसे जाऊं? अब किसको खोजं?' | अपरिचित रह गई है। इसके अपरिचय को तोड़ देना है। अनंत है। रोज-रोज नये-नये शिखर उसके पुकारते हैं। रोज परमात्मा से परिचय थोड़े ही बनाना है; अपने अपरिचय के जो नयी चुनौती आ जाती है। वह बुलाता ही चला जाता है। तुम ढंग हैं, वे तोड़ देने हैं। पर्दे उठा लेने हैं, जो हमने डाले पास भी आते चले जाते हो और फिर भी उसे छू नहीं पाते। हैं-परमात्मा तो सामने ही है। उसके चेहरे पर कोई घूघट नहीं _ 'आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न है, हमारी ही आंखों पर पर्दा है। फिर पर्दा डाले तुम कहीं भी जाऊं...!' घूमते रहो, काशी कि काबा, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी आंख 11211 www.jainelibrart.org Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 पर पर्दा है, तुम जहां जाओगे-तुम्हारी आंख का पर्दा... | तो कोई बैंक-बैलेंस है, न कोई जान-पहचान है, अपरिचित तुम्हारी आंख का पर्दा जन्मों-जन्मों तक तुम्हें घेरे रहेगा। दुनिया में जाते हैं, भाषा भी पता नहीं कि क्या भाषा बोलनी इसलिए यह तो पूछो ही मत कि कहीं चूक न जाऊं। कोई पड़ेगी! किस तरह के लोगों से मिलना होगा, कुछ पता नहीं है। उपाय नहीं चूकने का। अब तक कोई चूक ही नहीं पाया है। हां, तो बच्चा भी अगर समझदार हो जाये, जैसा कि कुछ लोग लेकिन तुम अगर मानना चाहो कि चूक गये हैं तो क्या करे, समझदार हैं, तो रुक जाये वहीं कि जाना नहीं। यहां सब मजे से सागर भी क्या करे? मछली को कैसे समझाये कि मैं यहां हूं? | चल रही है, ठीक से चल रही है, कहां की झंझट उठानी! भूख मछली की अगर यही मौज है कि चूकना चाहती है, चूकती रहे। लगेगी तो कौन दूध देगा! प्यास लगेगी तो कौन पानी देगा! और कहा है, आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो। मां के पेट में तो श्वास भी मां ही लेती है, उसी से बच्चे को अस्वीकार कर सकता होता तो स्वीकार करता। मुझसे लोग आक्सीजन मिलती है। श्वास भी वह खुद नहीं लेता। मां के ही पूछते हैं कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं! करूं क्या? भोजन पर पलता है। अस्वीकार करने का उपाय नहीं है। किसको अस्वीकार करूं? | लेकिन उसे पता नहीं कि जिसने उसे बनाया है, उसने इंतजाम मैं तो उनको भी देना चाहता हूं, जो लेने नहीं आये हैं, मगर क्या कर रखा है। वह आये, उसके पहले दूध तैयार है। करूं! जो आ जाता है उसको इनकार करने का तो सवाल कैसे __मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुषों को इतनी ज्यादा रस की, उठे? तुम्हारे आने के पहले भी तुम्हें स्वीकार किया हुआ है। आकर्षण की बात स्त्री के स्तन में क्यों है? पुरुष के मन में स्त्री ऐसा नहीं है कि तुम्हारे बाबत सोचता था कि तुम्हें स्वीकार करना के स्तन का बड़ा आकर्षण है! काव्य-शास्त्र भरे पड़े हैं। है। स्वीकार मेरी भाव-दशा है। ऐसे एक-एक आदमी के बाबत कविताएं उरोजों के, स्तनों के आसपास घूमती हैं। तो सोचूंगा भी कैसे कि किस-किसको स्वीकार करूं? स्वीकार कहानियां...! क्या कारण है? वह भी परमात्मा की व्यवस्था मेरी भाव-दशा है। अस्वीकार करने का मेरे पास उपाय नहीं है। है। क्योंकि जो पिता बनने जा रहा है, इसके पहले कि पिता बने, निर्णय तुम्हारा है, इकतरफा है। मुझे स्वीकार कर लो या मुझे वह अपने बेटे के लिए ठीक उरोज, भरे उरोजों का इंतजाम कर ले अस्वीकार कर दो, यह तुम्हारी बात है। मेरी तरफ से तुम रहा है। वह भी परमात्मा का आयोजन है। पुरुष के मन में स्त्री स्वीकृत हो, स्वीकार करो तो, अस्वीकार करो तो। के स्तन का इतना आकर्षण है-वह आकर्षण इसीलिए है। वह और घबड़ाओ मत। प्यास आ गयी है तो पानी भी आयेगा। प्रकृति की व्यवस्था है, क्योंकि अगर स्त्री के स्तन ठीक न हों, जाननेवाले तो कहते हैं, पानी पहले आ गया होगा, तभी प्यास सुडौल न हों, भरे न हों, भरे-पूरे न हों, तो बच्चा भूखा मरेगा। आयी है। क्योंकि जाननेवाले कहते हैं, परमात्मा बच्चे को पैदा तो पुरुष उस स्त्री को खोजेगा, जिसके स्तन भरे-पूरे हैं। वह उसे करता है, उसके पहले मां के स्तन में दूध भर देता है। देखा है सुंदर मालूम होगी। सुंदर वगैरह मालूम होना तो ठीक है, मगर चमत्कार! रोज घटता है, लेकिन देखते नहीं! इधर मां गर्भवती पीछे प्रकृति बड़ा आयोजन कर रही है। वह यह कह रही है कि हुई, उधर बच्चा बढ़ने लगा। अभी बच्चा आया भी नहीं है यह स्त्री है जो तेरे बच्चे की मां बन सकेगी। यह बच्चे को बचाने बाहर, अभी दूध पीनेवाला तैयार ही हो रहा है, अभी रास्ते पर | का आयोजन चल रहा है, तुम धोखे में पड़ रहे हो-तुम समझ है लेकिन दूध तैयार हो गया! मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। रहे हो, तुम सौंदर्य का इंतजाम कर रहे हो। बच्चा जब आयेगा तब आयेगा, लेकिन परमात्मा तैयारी पहले से इसलिए जिन स्त्रियों के स्तन ठीक नहीं हैं, वे धीरे-धीरे खो कर लेता है। | जायेंगी, उनको पति न मिलेंगे, उनकी संतान न होगी। वे ऐसा ही सारे जीवन में है। तुम नाहक ही दौड़-धूप करते हो। धीरे-धीरे खो जायेंगी। यह बात अलग है, तुम नाहक शोरगुल मचाते हो। वह तो बच्चे जीवन के रहस्य को अगर तुम समझो तो यहां प्यास के पहले को भी थोड़ी बुद्धि हो तो वह भी बड़ी चिंता करेगा गर्भ में | पानी तैयार है; श्वास के पहले हवा तैयार है। और इसकी समझ पड़ा-पड़ा कि पता नहीं, अब जन्म के बाद क्या होता है, देखें! न जिसको आ गई, उसी के जीवन में श्रद्धा का आविर्भाव होता है। 122 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARSINPUTERVARANAS * तुम मिटो तो मिलन हो हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए | है और जिसे बड़ी बेचैनी हो रही है। मय भी आएगी 'अदम' जब आबगीना आ गया। और या फिर किसी ऐसे आदमी का होना चाहिए, जिसका -जब प्यालियां आ गईं, जब मधुपात्र आ गये, तो शराब भी अहंकार उसकी नाक पर बैठा है। आती ही होगी। अहंकारी की नाक देखी! अहंकारी नाक की भाषा में बोलता हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए है। उसका सारा अहंकार नाक पर होता है। अगर नाक पर मय भी आएगी 'अदम' जब आबगीना आ गया। अहंकार बैठा हो, इससे बेचैनी मालूम हो रही है, तो कटा ही -जब प्यालियों की खनक आने लगी, तो शराब भी आती ही लो। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसरी! नाक ही न रहेगी तो होगी। तो जिसके जीवन में परमात्मा को खोजने की आकांक्षा अहंकार को बैठने की जगह न रह जाएगी। कटा ही लो प्यारे! आ गई, प्यास आ गई-अब घबड़ाओ मत, राह पर हो। ठीक कहीं कोई गहरी अड़चन होगी प्रश्नकर्ता को। मैं जानता हूं, दिशा में उन्मुख हो गये हो। अब डरो मत, अब प्यास को अड़चन होती है। यहां इतने लोग गैरिक वस्त्रों में हैं। यहां इतने पकड़ने दो कि तुम्हें पकड़ ले झंझावात की तरह, आंधी-अंधड़ लोग संन्यासी के वेश में हैं-तुम जब गैर-संन्यासी की तरह की तरह। अब उड़ाने दो प्यास को कि बन जाये तुम्हारे पंख। आते हो, तुम हीन-भाव अनुभव करते हो। लक्ष्मी कल ही मुझे अब मथने दो प्यास को कि बन जाये आग और जला दे तुम्हारे कहती थी कि दफ्तर में लोग उससे आकर कहते हैं कि सफेद अहंकार को। कपड़ों में हम यहां ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे अजनबी हैं, पराये हैं, हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए बाहर-बाहर हैं। स्वाभाविक है। यह एक परिवार है। यह मेरा मय भी आएगी 'अदम' जब आबगीना आ गया। परिवार है। वस्त्रों का ही थोड़े ही सवाल है; वस्त्र तो केवल इंगित हैं, इशारे हैं। जिन्होंने गैरिक वस्त्र स्वीकार किये हैं, उन्होंने दूसरा प्रश्नः कल के प्रवचन में आपने नककटे साधु की तो केवल इतना कहा है कि इस इशारे से हम कहते हैं कि अब हम कहानी सुनायी, जिसके चक्कर में पड़कर पूरा गांव नाक गंवा | तुमसे राजी हैं। यह तो सिर्फ एक भाव-भंगिमा है। उन्होंने यह बैठा था। क्या करीब-करीब यही स्थिति आपके संन्यासियों कहा है कि अब हम हमारा तर्क छोड़ते, विवाद छोड़ते-अब की नहीं है? तुम जहां ले चलोगे, चलेंगे; चलो, गड्ढे में ले चलोगे तो गड्ढे में चलेंगे; भटकाओगे तो भटकेंगे, लेकिन तुम्हारे साथ भटकेंगे। देखो, मेरी नाक तुम्हें साबित दिखाई पड़ती है या नहीं। क्योंकि जिन्होंने मुझे चुना है उन्होंने यह मानकर चुना है—इसलिए नहीं कहानी के होने के लिए पहले तो मैं नककटा होना चाहिए। न तो कि मैं उन्हें ठीक जगह ही पहुंचा दूंगा। इसका तो पता कैसे होगा गेरुआ वस्त्र पहने हूं, न माला लटकाई है। अपनी ही नाक नहीं जब तक पहुंचोगे न! इसका तो कोई उपाय नहीं है, पहले से जान कटी, तुम्हारी क्यों काढूंगा? लेने का। जिन्होंने मुझे चुना है उन्होंने यह मानकर चुना है कि इसलिए कहानी यहां लागू हो नहीं सकती। चलो, अब ठीक जगह भी पहुंचना अगर इस आदमी के बिना हां, जिन मित्र ने पूछा है, उनको जरा अपनी नाक टटोलकर होता हो तो भी इस आदमी के बिना नहीं चलना है। अगर यह देख लेनी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं है कि है ही नहीं अब कटाने गड्ढे में ले जायेगा तो इसके साथ गड्ढे में सही। उन्होंने अपने को! कहीं पहले कटा तो नहीं बैठे! क्योंकि मैं मुश्किल से ऐसे विचार करने की, अपना निजी विचार करने की, जो अस्मिता आदमी के करीब आता हूं जो नककटा न हो। अगर तुम हिंदू हो थी, वह छोड़ी है। कपड़े तो गौण हैं। कपड़ों में क्या रखा था? तो नाक कटा चुके ! हिंदुओं के हाथ कटा ली। अगर मुसलमान कपड़ों से कहीं कोई संन्यासी हुआ है! लेकिन वह तो इंगित है हो तो कटा चुके-तो मस्जिद में कटायी, मंदिर में न कटायी। और इंगित समझने चाहिए। अगर जैन हो तो कटा बैठे। | ऐसा हुआ कि रामकृष्ण की एक रात बैठक चलती थी। कुछ यह प्रश्न किसी नककटे का होना चाहिए, जो कहीं कटा बैठा बैठे थे लोग। कोई इसी तरह के सज्जन, जिन्होंने यह प्रश्न पूछा 123 www.jainelibrary org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 जिन सूत्र भाग: 1 है, वहां पहुंच गये। सभी जगह पहुंच जाते हैं। इस तरह के लोग क्यों भटकते रहते हैं, यह भी बड़े आश्चर्य की बात है! अपने घर ही रहें! अपनी नाक बचानी है, अपने घर ही रहो; यहां-वहां जाने में कहीं कट ही जाये ! कोई रौ आ जाये, कोई सनक चढ़ जाये, किसी भावावेश में कटवा बैठो, फिर पछताओगे ! रामकृष्ण की बैठक में कोई पहुंच गये ज्ञानी । पंडित थे, जानकार थे शास्त्रों के। रामकृष्ण कह रहे थे कि ओंकार के नाद से बड़ी उपलब्धि होती है। ज्ञानी को अड़चन पड़ी। उसने कहा, ठहरें ! .. क्योंकि ज्ञानी जानता है कि रामकृष्ण गैर पढ़े-लिखे हैं, शास्त्र का तो कुछ पता नहीं है, हांक रहे हैं; संस्कृत तो आती नहीं, कुछ भी कहे चल जा रहे हैं ! वह अपना ज्ञान दिखाना चाहता था। उसने कहा कि शब्दों में क्या रखा है ! ओंकार तो केवल एक शब्द है, इसमें रखा क्या है ? इससे कैसे आत्मज्ञान हो जायेगा ? तो पते की ही कह रहा था, लेकिन खुद आदमी पते का नहीं था । रामकृष्ण ने उसकी तरफ देखा, चुप बैठे रहे। वह और जोर-जोर से शास्त्रों के उल्लेख करने लगा और उद्धरण देने लगा। कोई आधा घंटा बीत गया, तब रामकृष्ण एकदम से | चिल्लाये : 'चुप, उल्लू के पट्ठे ! बिलकुल चुप ! अगर एक शब्द बोला आगे तो ठीक नहीं होगा।' 'उल्लू के पट्ठे' तो मैं कह रहा हूं, रामकृष्ण ने ज्यादा वजनी गाली दी । तो रामकृष्ण कोई छोटी-मोटी बकवास नहीं मानते थे; वे जब गाली देते थे तो बिलकुल नगद ! वह आदमी घबड़ा गया, तमतमा गया एकदम ! क्रोध भर गया आंख में जोश आ गया। सांझ थी ठंडी, शीत के दिन थे, पसीना-पसीना हो गया। पर हिम्मत भी न पड़ी, क्योंकि अब रामकृष्ण ने इतने जोर से कहा है, और अगर कुछ गड़बड़ की तो मारपीट हो जायेगी; वहां सब रामकृष्ण के भक्त थे। फिर, रामकृष्ण फिर अपना समझाने लगे कि ओंकार...। कोई पांच-सात मिनट बाद उस आदमी की तरफ देखा और कहा, महानुभाव! माफ करना। वह तो मैंने सिर्फ इसलिए कहा था कि देखें शब्द का असर होता है कि नहीं! तुम तो बिलकुल तमतमा... । 'उल्लू के पट्ठे' का इतना असर, तो जरा सोचो तो ओंकार का ! पसीना-पसीना हुए जा रहे हो, मरने-मारने पर उतारू हो । वह तो यह कहो कि लोग मौजूद हैं, नहीं तो तुम मेरी गर्दन पर सवार हो जाते। हाथ-पैर तुम्हारे कंप रहे हैं। जरा-सा शब्द 'उल्लू के पट्ठे' मंत्र का काम कर गया। जरा सोचो तो ! शास्त्र काम न आये। इतना तो याद रखते कि 'शब्दों में क्या रखा है !' वस्त्रों में क्या रखा है, पूछते हो ? माला में क्या रखा है, पूछते हो ? उल्लू के पट्ठे ! थोड़ा सोचना, थोड़ा विचार करना ! आदमी जैसा है, छोटी-छोटी बातों से जीता है। क्षुद्र-क्षुद्र बातों से बनकर, मिलकर तुम्हारा व्यक्तित्व बना है। वह जिसने गैरिक वस्त्र स्वीकार किये हैं, वह भी जानता है, तुमसे ज्यादा भलीभांति जानता है कि वस्त्रों से कुछ भी होनेवाला नहीं है; लेकिन उसने एक कदम उठाया है; होने की दिशा में थोड़ी हिम्मत की है; पागल होने की हिम्मत की है। मेरे साथ चलने की हिम्मत पागल होने की हिम्मत है। क्योंकि मेरे साथ चलने का मतलब है समाज में अड़चन होगी, परिवार में अड़चन होगी। अगर पति हो तो पत्नी झंझट देगी। अगर पत्नी हो तो पति झंझट देगा | अगर बाप हो तो बच्चे झंझट देंगे । संन्यासी मेरे पास आकर कहते हैं कि बेटे कहते हैं, 'पिता जी ! आप घर में ही पहनो ये वस्त्र तो ठीक है, क्योंकि स्कूल में दूसरे बच्चे हम पर हंसते हैं कि तुम्हारे पिताजी को क्या हो गया ! भले-चंगे थे, यह क्या इनको धुन सवार हुई !' पलियां मेरे पास आती हैं। कहती हैं कि जरा समाज में जीना है, कम से कम इतना तो कर दो कि विवाह इत्यादि के अवसर पर पतिदेव गेरुआ पहनकर न पहुंचें, नहीं तो दूल्हा तो एक तरफ रह जाता है, ये दूल्हा मालूम पड़ते हैं। और स्त्रियां देखकर हंसती हैं कि इनको क्या हो गया ! कोई मेरे साथ खड़े होकर तुम्हें कुछ राहत थोड़े ही मिल जायेगी! अड़चन में डालूंगा। यह तो अड़चन में डालने की शुरुआत है। जैसे-जैसे पाऊंगा कि तुम्हारी अंगुली हाथ में आ गई, पहुंचा पकडूंगा। यह तो शुरुआत है। आगे-आगे देखिए होता है क्या ! तीसरा प्रश्न : भीतर विचारों की ऐसी भीड़ है कि भगवान का भी... भगवान जैसा गुरु पाकर भी इस जन्म में पहुंचने की आशा नहीं बंधती । बिना कारण आंसू बहाता हूं, रोता हूं, चीखता-चिल्लाता हूं, फिर भी मौका आने पर न अहंकार से बच पाता हूं और न भीतर की बड़बड़ाहट से । प्रभु श्री, यदि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जन्म में भी नहीं पहुंच पाया, तो फिर क्या अगला पथ वैसा ही कोरा रह जायेगा? आप भी सहायता न कर पायेंगे क्या ? | नहीं, चिंता का कोई भी कारण नहीं है। विचारों की भीड़ है। छुटकारा आसान भी नहीं। लेकिन छुटकारा आसान नहीं है, | इससे यह मत समझना कि विचारों की भीड़ बड़ी बलशाली है। | नहीं ! छुटकारा इसीलिए कठिन मालूम पड़ रहा है कि तुमने विचारों की भीड़ से लड़ना शुरू कर दिया है, वहां भूल हो गई है। ताकत विचारों की नहीं है— तुम्हारे गलत आयोजन की है। जैसे अंधेरा कमरे में भरा हो और तुम धक्के देकर उसे बाहर निकालना चाहो और अंधेरा तो नहीं निकलेगा ऐसे, तो तुम्हारे मन में लगेगा, अंधेरा बड़ा प्रबल है, बड़ा बलशाली है। जन्म-जन्म भी धक्के मारो अंधेरे को तो न निकलेगा, यह सच है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अंधेरा बलशाली है। इससे | केवल इतना ही पता चलता है कि धक्का मारना सम्यक उपाय नहीं है। जितनी ताकत धक्का मारने में लगा रहे हो उतनी ताकत दीये को जलाने में लगाओ। दीया खोजो जरा-सा छोटा-सा दीया, जरा-सी दीये की बाती, और अंधेरा बाहर हो जायेगा । धक्के मारने से अंधेरा बाहर नहीं होता, क्योंकि अंधेरा है ही नहीं, धक्का मारोगे कैसे उसे ? जो नहीं है उसे धकाया नहीं जा सकता। उसकी ताकत नहीं है कुछ भी । उसका बल इसी में है कि वह नहीं है। कुर्सी होती, फर्नीचर होता, निकाल बाहर कर देते। पति-पत्नी होते, उन्हें भी धक्का देकर बाहर कर देते! अंधेरे को कैसे करोगे ? दीया जलाओ ! सम्यक आयोजन करो ! ठीक साधन खोजो ! विचार अंधेरे की भांति हैं। तुम उन्हें धक्के देकर बाहर न कर पाओगे। जितना धक्का दोगे उतना ही पाओगे कि वे बलशाली होते जा रहे हैं। उतने ही तुम कमजोर मालूम पड़ोगे । हर बार हारोगे, हर बार हारोगे; आत्मविश्वास खो जायेगा। फिर रोओगे, चीखोगे, चिल्लाओगे। उससे भी क्या होगा? कुछ भी न होगा। क्योंकि न तो अंधेरा सुनेगा रोने को, न चीखने को, न चिल्लाने को । अंधेरा तो मानता है एक ही भाषा - वह है प्रकाश की भाषा । और विचार भी मानते हैं एक ही भाषा - वह है साक्षी भाव की भाषा। | मित्र से ही संबंध नहीं बनते, शत्रु से भी बन जाते हैं। जिसके तुम पक्ष में हो उससे भी संबंध बनता है। जिसके तुम विपक्ष में हो उससे भी संबंध बनता है— विपक्ष का सही । संबंध मत बनाओ। साक्षी का इतना ही अर्थ है : असंबंध, असंग । दूर खड़े देखते रहो। जैसे तुम किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हो और नीचे घाटियों में काफिले गुजर रहे हैं लोगों के; गुजरने दो, तुम्हारा क्या लेना-देना है ! बाहर कोयल बोल रही है, कभी कोई कुत्ता भौंकेगा, कभी कोई कौवा कांव-कांव करेगा – इससे तुम अड़चन में नहीं पड़ते। तुम सिर नहीं धुन लेते कि अब क्या करें, यह कुत्ता भौंक रहा है! तुम सिर नहीं धुन लेते कि यह कौवा कांव-कांव कर रहा है! यह तुम्हारा मन भी कांव-कांव कर रहा है, भौंक रहा है-भौंकने दो ! तुम इससे भी थोड़े दूर हट जाओ। तुम इससे भी थोड़े पीछे हट जाओ। और हटने में अड़चन नहीं है, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव मन के पार है। तो इसी क्षण पहुंचना हो सकता है, पूरे जन्म की बातें क्या करनी, आगे जन्म की चिंता क्या करनी ! और ध्यान रखो, मेरी सहायता तुम्हें पूरी उपलब्ध है, उसमें रंचमात्र कमी नहीं है। लेकिन अकेली मेरी सहायता से क्या होगा? मैं इशारा कर सकता हूं, चलना तो तुम्हें ही पड़ेगा। मैं औषधि बता सकता हूं, लेकिन पीना तो तुम्हें ही पड़ेगी। मैं निदान कर सकता हूं, लेकिन मेरे निदान से ही तो कुछ न होगा। औषधि भी दे सकता हूं, उससे भी तो कुछ न होगा। औषधि का तुम्हें उपयोग करना पड़ेगा, तो साक्षी बनो! जितनी बार कहा जाये उतना ही थोड़ा है : साक्षी ही बीमारी कटेगी। साक्षी की बात कर रहा हूं; वह औषधि है। तुम मिटो तो मिलन हो बनो! इसमें अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। साक्षी एकमात्र सूत्र है। विचारों से लड़ो मत देखो ! चलने दो, क्या बिगाड़ते हैं! चलने दो जैसे राह चलती है, कारें गुजरती हैं, बसें गुजरती हैं, बैलगाड़ियां गुजरती हैं, अच्छे-बुरे-भले लोग गुजरते हैं, शैतान - साधु गुजरते हैं- राह चलती है, तुम राह के किनारे बैठे रहो; देखते रहो चलती राह को । जैसे राह बाहर चल रही है, ऐसे ही विचारों का कारवां भी भीतर चल रहा है; लेकिन वह भी तुमसे बाहर है। शरीर के भीतर है, तुमसे बाहर है। तुम तो वह चैतन्य हो जो देखता है कि ये विचार चल रहे हैं। तादात्म्य छोड़ो! दूर खड़े होकर देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो – इतना भी रस मत लो कि इन्हें अलग करना है। इतना भी रस लिया कि अड़चन शुरू हुई, संबंध बने । 125 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 उसका उपयोग करो। | जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसका उपयोग न हो। पाप का और ध्यान रखना भी उपयोग है, क्योंकि उसी से पुण्य की सुवास उठती है। विचार हर प्रदीप की पृष्ठभूमि में का भी उपयोग है, अन्यथा निर्विचार कैसे हो पाओगे? संसार अंधकार अनिवार्य है। की जरूरत है, अन्यथा सत्य को कैसे खोजोगे? भटकना भी बिना सघनता क्षुद्र विरलता जरूरी है, अन्यथा पहुंचोगे कैसे? एक बार तुम्हारे जीवन में कर सकती विस्तार नहीं सृजनात्मक भाव आ जाये और हर चीज का सृजनात्मक मूल्य मिले बिना परिवेश शून्य का आ जाये, तो तुम पाओगे, संब चीज का तुमने उपयोग करना सज पाता आकार नहीं। शुरू कर दिया। हर प्रदीप की पृष्ठभूमि में कड़ा-कर्कट भी फेंकने जैसा नहीं है: उसका भी उपयोग हो अंधकार अनिवार्य है। सकता है। लेकिन तुम्हें सदियों से इस तरह की बातें सिखायी गई अंधकार तुम्हारा दुश्मन भी नहीं है। जरा प्रदीप जला लो, फिर | हैं—यह गलत, यह गलत, यह गलत; गलत और सही को तो अंधकार भी सुख देगा। अंधकार की मखमली चादर प्रकाश विपरीत, दुश्मन की तरह खड़ा किया गया है; राम और रावण को और हजार गुना प्रज्वलित कर देती है। इसलिये तो दिन में | को लड़ाया गया है; भगवान और शैतान को खंडित करके तारे नहीं दिखाई पड़ते हैं तो अपनी ही जगह; कहीं चले नहीं अलग कर दिया गया है; पाप और पुण्य, दिन और रात गये हैं; दिन में कुछ सो नहीं गये हैं, कहीं खो नहीं गये हैं, अपनी दुश्मन—इस दुश्मनी के भाव से तुम्हारी परेशानी हो रही है। जगह हैं। पूरा आकाश तारों से भरा है, वैसा ही जैसा रात में, मैं तुमसे कहता हूं, दिन और रात दुश्मन नहीं हैं, एक ही खेल लेकिन तारे दिखाई नहीं पड़ते, उनको पृष्ठभूमि चाहिए अंधकार | के हिस्से हैं। राम और रावण दुश्मन नहीं हैं; अन्यथा राम-कथा की। जब अंधकार घेर लेता है, तब तारे चमक आते हैं। न बनेगी। अमावस की रात जैसे चमकते हैं वैसे कभी नहीं चमकते। । तुमने रामलीला में देखा! पर्दे पर धनुष-बाण लिये खड़े हैं, तो जीवन को सृजनात्मक दृष्टि से देखो। यहां कुछ बुरा है, लड़ रहे हैं, और पर्दे के पीछे राम और रावण बैठकर गपशप कर ऐसा कहकर लडो मत। जो बरा है उसे पष्ठभमि बना लो और रहे हैं, चाय पी रहे हैं। जिंदगी के पर्दे के पीछे भी मैंने ऐसा ही जो शुभ है उसका दीया जलाओ और तब तुम पाओगे, अशुभ देखा है। वहां जो सामने नाटक करते दिखायी पड़ रहे थे दुश्मनी ने भी शुभ को साथ दिया, अंधेरे ने भी दीये को ज्योतिर्मय किया। का, पीछे गले लगकर बैठे हैं। होना भी ऐसा ही चाहिए; नहीं तो तब विचार भी ध्यान की पृष्ठभूमि बन जाते हैं। तब पाप भी जीवन खंड-खंड होकर छितर जाता। पुण्य की पृष्ठभूमि बन जाते हैं। और तब संसार भी परमात्मा की किसने सम्हाला है? ये जिंदगी की सारी ईंटें किस सीमेंट से | खोज का उपाय हो जाता है। तब शरीर भी आत्मा का मंदिर हो | जुड़ी हैं? ये शुभ और अशुभ साथ-साथ कैसे खड़े हैं? साधु जाता है। | और असाधु कैसे साथ-साथ जुड़े हैं? संयुक्त हैं। और एक मेरा पूरा दृष्टिकोण अनिंदा का है। किसी भी चीज की निंदा का | बार तुम्हें यह समझ में आ जाये तो तनाव कम हो जायेगा। तब ही अर्थ होता है कि तुम उसका उपयोग करना न जान पाये; | तुम पाओगे कि अगर कुछ अड़चन हो रही है, तो मेरै तुम समझ न पाये कि इसका क्या करें। तुमने जिसे मार्ग का समझ-बूझ में कुछ कमी है। पत्थर समझा, वह प्रतिमा भी बन सकती थी। तुमने जिसे मार्ग| मैंने सुना है, एक महिला को सितार सीखने की धुन सवार का पत्थर समझा, वह मार्ग की सीढ़ी भी बन सकती थी। तुम हुई। तो पहले ही दिन चाहती थी कि मेघ-मल्हार हो जाये। पत्थर मानकर बैठ गये और रोने लगे। मैं कहता हं, सीढ़ी | पहले दिन चाहती थी कि पशु-पक्षी आ जायें। बार-बार जाकर समझो, चढ़ो! मैं कहता हूं, अनगढ़ पत्थर देखकर नाराज मत | खिड़की पर देख आती थी, अभी तक नहीं आये। न कोई भीड़ होओ, जरा छैनी उठाओ, गढ़ो! जड़ी। उलटे पति जो घर में बैठा था वह निकलकर बाहर चला 126 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। बच्चे जो ऊधम कर रहे थे घर में, वह भी सन्नाटा हो गया, वे भी कहीं निकल गये। पास-पड़ोसियों ने द्वार - दरवाजे बंद कर लिये। तो उसने समझा कि निश्चित ही सितार में कुछ भूल है। जिस दुकान से सितार खरीद लाई थी, फोन किया कि आदमी भेजो, सितार में कुछ गड़बड़ है। आदमी आया, ठोक-पीटकर सब उसने कहा, बिलकुल ठीक है। आदमी वापस पहुंचा भी नहीं था कि फिर फोन... उसने कहा, 'भई इतनी जल्दी कैसे बिगड़ गया ?' उसने कहा कि न बजाओ तो सब ठीक रहता है, लेकिन बजाओ कि सब गड़बड़ ! तब उस आदमी को समझ में आया । उसने कहा कि 'देवी! बजाना भी आता है ?' | सितार की भूल नहीं है - बजाना आता है कि नहीं ! कहते हैं, परम संगीतज्ञ, जिनको बजाने की कला आ जाती है, अगर बर्तनों को भी बजा दें तो सितार बज उठते हैं; कंकड़-पत्थरों को टकरा दें तो स्वरों का आरोह-अवरोह हो जाता है । सितार की भूल नहीं है। जीवन की कहीं कोई भूल नहीं है । बजाना न आया। थोड़ा बजाने की फिक्र करो और बजाने का पहला सूत्र है : स्वीकृति । सब, जो परमात्मा ने दिया है, उसका कुछ न कुछ उपयोग है, निरुपयोगी तो हो ही नहीं सकता अस्तित्व में । होगा ही क्यों ? फिर तो अस्तित्व न होगा, अराजकता होगी। सब उपयोगी है। और जल्दी मत करना काटने-पीटने की कि यह गलत है, इसे अलग कर दो; यह गलत है, इसे अलग कर दो जैसे क्रोध है : अगर तुम क्रोध को काट डालो ... अब वैज्ञानिकों के पास उपाय हैं कि शरीर की कुछ ग्रंथियां काट डाली जायें तो आदमी का क्रोध समाप्त हो जाता है। कुछ ग्रंथियां काट डाली जायें तो कामवासना समाप्त हो जाती है। तुम देखते ही हो, सांड कैसे बैल हो जाता है! ग्रंथि काट दी तो बड़ी सरल बात है यह तो । फिर ब्रह्मचर्य के लिए इतना उपद्रव क्यों मचाना। यह इतना सीधा हो जाता है कि सांड देखते-देखते बैल हो जाता है। तो जरा-सी ग्रंथियां काट डालो। क्रोध की भी ग्रंथियां हैं, उसके भी हारमोन हैं— काट डालो ! आज नहीं कल, खतरा है कि दुनिया की सरकारें आदमी से क्रोध की, बगावत की ग्रंथियों को काट देंगी। तो फिर कोई शोरगुल न होगा। फिर कोई हड़ताल न होगी । फिर कोई बगावत, विद्रोह न होगा, कोई क्रांति न होगी । लेकिन तुम जरा सोचो, जिस आदमी के जीवन से क्रोध की तुम मिटो तो मिलन हो ग्रंथि कट जाती है, उसके जीवन में करुणा पैदा नहीं होती, सिर्फ क्रोध का अभाव हो जाता है। उस आदमी का जीवन पहले से बदतर हो जाता है। अब क्रोध भी न रहा । रूखा - रूखा, सूखा-सूखा अब कोई चीज उसे उद्वेलित नहीं करती, लेकिन करुणा का जन्म नहीं होता। क्योंकि करुणा तो तब पैदा होती है जब तुम क्रोध की वीणा को बजाना सीख जाते हो। वीणा तोड़ दी तुमने क्रोध की, तो क्रोध तो न होगा। जैसे कि अगर तुम वीणा फेंक आये बाहर, तो विसंगीत पैदा न होगा, लेकिन संगीत भी पैदा न होगा। क्रोध अगर तोड़ दो तो क्रोध तो पैदा न होगा, लेकिन करुणा भी पैदा न होगी, क्योंकि करुणा उसी वीणा का संगीत है। सजे हुए हाथ, सधे हुए हाथ उसी वीणा पर करुणा को बजाते हैं - बुद्ध, महावीर- र - जिस वीणा पर तुम क्रोध बजाते हो । सधे हुए हाथ उसी जीवन ऊर्जा से निर्विचार बजाते हैं, जिसमें तुम केवल विचारों की उलझन में पड़ जाते हो। सधे हुए हाथ इसी शरीर में अशरीरी को खोज लेते हैं, जिसमें तुम केवल हड्डी-मांस-मज्जा पाते हो । भूल वीणा की नहीं है, इतना स्मरण रखना । चूकने का कोई कारण नहीं है, जरा साज को सम्हालना है। 'बेदार' वह तो हरदम सौ-सौ करे है जलवे इस पर भी गर न देखे तो है कसूर तेरा। परमात्मा तो कितने-कितने ढंग से नाचता है तुम्हारे चारों तरफ ! 'बेदार' वह तो हरदम सौ-सौ करे है जलवे । इस पर भी गर न देखे तो है कसूर तेरा। और जैसा मैं देखता हूं, यह किसी एक ही व्यक्ति का प्रश्न नहीं है - 'ईश्वर बाबू' ने पूछा है - सबका है। जैसा मैं देखता हूं, हर आदमी मंजिल के सामने ही बैठा रो रहा है कि मंजिल कहां, कि किस मार्ग से जायें ! हसरत पे उस मुसाफिरे - बेकस के रोइये जोक के बैठ जाता हो मंजिल के सामने। तुम्हें देखकर हंसी भी आती है, रोना भी आता है। रोना आता है कि तुम बड़े परेशान हो रहे हो। हंसी आती है कि व्यर्थ परेशान हो रहे हो। सामने ही द्वार है। मंजिल के सामने ही थककर बैठे हो। कहीं चलकर जाना नहीं है। कहीं उठकर भी नहीं जाना है। क्योंकि मंजिल तुम्हारे बाहर नहीं है, तुम्हारे भीतर है, तुम्हारा 127 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 स्वभाव है, तुम्हारा स्वरूप है। थोड़े साक्षी को साधो! वीणा हैं कि हम जब तक राजी हो पाते हैं एक बात करने को, तब तक सुमधुर होने लगेगी। तार तालमेल में आने लगेंगे। थोड़े साक्षी | आप जा चुके, आप कुछ और कहने लगे! को साधो, संगीत उठेगा। जैसे-जैसे साधते जाओगे वैसे-वैसे | मुझे रोज ही ऐसा करना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हें वहां ले जाना संगीत मधुर, सूक्ष्म होता जायेगा। और ऐसी भी घड़ी आती है-उस ला-मंजिल-उस जगह जिसके आगे फिर कोई और है-तब शून्य का भी संगीत उठता है। आ जायेगी घड़ी, | मंजिल नहीं है। और अंत समय में भी तुम्हारे बीच से मुझे हट क्योंकि मैं देखता हं मंजिल के सामने ही तुम बैठे हो। जाना पड़ेगा, क्योंकि मैं तुम्हारा द्वार हूं, दरवाजा हूं; तुम्हारी मंजिल नहीं। चौथा प्रश्नः गुरु यानी गुरुद्वारा। गुरु का केवल इतना ही अर्थ है कि वह बेमुरौअत बेवफा बेगाना-ए-दिल आप हैं, तुम्हें इशारा कर दे परमात्मा की तरफ और हट जाए। आखिरी आप माने या न मानें मेरे कातिल आप हैं। घड़ी में मैं भी हट जाऊंगा। जब तुम पहुंचने-पहुंचने के करीब सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे, होओगे, तब मुझे हट ही जाना पड़ेगा। अन्यथा मैं तुम्हारे लिए जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं। दीवाल हो जाऊंगा, दरवाजा नहीं। फिर मैं तुम्हें रोषंगा परमात्मा गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े से। तो मुझे बेवफा होना ही पड़ेगा। मैं हं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं। 'आप माने या न मानें मेरे कातिल आप हैं'–मानता हूं। यह धंधा ही कातिल होने का धंधा है। तरु ने पूछा है। बिलकुल ठीक है : बेमुरौअत, बेवफा! ठहरा गया है ला के जो मंज़िल में इश्क की मुरौअत की नहीं जा सकती। करूं तो तुम्हें रास्ते पर न ला क्या जाने रहनुमा था कि रहजन था, कौन था! गा। कई बार सख्त होना पड़ता है। कई बार तम्हें गहरी चोट प्रेम की मंजिल पर जो तुम्हें ले आता है, तय करना मुश्किल भी करनी पड़ती है। होता है कि वह पथ-प्रदर्शक था कि लुटेरा था। झेन फकीर डंडा लिये रहते हैं। वे अपने शिष्यों के सिर पर डंडे | ठहरा गया है ला के जो मंज़िल में इश्क की मारते हैं। क्या जाने रहनुमा था कि रहजन था, कौन था! स भी है—सक्षम है. उतना स्थल नहीं है। जब तय करना बहत मश्किल है। क्योंकि प्रेम की मंजिल पर वही लगता है, जरूरत है कि तुम नींद में खोये जा रहे हो, तो डंडा भी ला सकता है जो तुम्हें लूटता भी हो। वहां मार्गदर्शक और लुटेरे मारना पड़ता है। तो बेमुरौअत बिलकुल ठीक है, क्योंकि प्रेम है। एक ही हैं, रहनुमा और रहजन एक ही हैं। तुमसे, इसलिए बेमुरौअत होना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रेम है, पूरा प्रयास यही तो है कि तुम्हें मिटा दूं, ताकि तुम 'हो' सको! इसलिए तुम्हें जगाना ही पड़ेगा। और माना कि कई बार जब तुम्हें तुम्हारे अहंकार को तोड़ दूं, ताकि तुम्हारा निरहंकार मुक्त हो जगा रहा हूं, तब तुम कोई मीठा सपना देख रहे हो, तो तुम नाराज सके, उठ सके! तुम्हारे अहंकार की जंजीर टूटे, तो ही तुम्हारे भी होते हो। निरहंकार की स्वतंत्रता का आविर्भाव हो। लेकिन अगर तुम 'बेवफा बेगाना-ए-दिल'–ठीक है। तुम जितने मेरे करीब जन्मों-जन्मों तक जंजीरों में रहे हो, तो जंजीरों को तुमने आभूषण आओगे, उतना मैं पीछे दूर हटता जाऊंगा, क्योंकि तुम्हें और मान लिया है। तो जब मैं तुम्हारे आभूषण तोडूंगा-मैं समझता आगे ले जाना है। इसलिए बहुत बार बेवफा मालूम पडूंगा। हूं जंजीरें, तुम समझते हो आभूषण-तो तुम्हें लगेगा कि यह बुलाऊंगा पास और खुद दूर हट जाऊंगा। पुकारूंगा और जब तो...आए थे गुरु के पास, यह आदमी कातिल सिद्ध हुआ। हम तुम चल पड़ोगे तो तुम पाओगे कि मैं वहां नहीं खड़ा हूं जहां से खोजते थे, कोई जो सांत्वना देगा, इसने और सारी सांत्वनाएं पुकारा था। छीन लीं। हम खोजते थे, कोई जो हमारे शृंगार को और थोड़ा इसलिए बहुत-से मित्र मेरे साथ परेशानी में रहते हैं। वे कहते बढ़ावा देगा, जो हमारे आभूषणों को और थोड़ी सजावट देगा। 128 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो लेकिन तुम जिसे आभूषण कहते हो, वह आभूषण नहीं। और | कब तक जानती रहोगी 'तरु'? रखो! तुमने जिसे अभी समझा है तुम हो, वह तुम नहीं-उसकी तो जानने-जानने में कब तक समय गंवाओगी? कहीं ऐसा न हो हत्या ही करनी पड़ेगी-बेमुरौअत! उस पर कोई दया नहीं की कि जानने की बात जानने की ही रह जाए! होने की बनाओ! जब जा सकती! उसे तो मिटाना होगा। वही तो तुम्हारे पावों को कोई बात ऐसी लगती हो कि दिल में रख लेने की है, तो सोचो जकड़े है। मत। सोचने में क्षण न खोओ, रख ही लो! 'सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे, एक बारी धक से होकर दिल की फिर निकली न सांस जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं। किस शिकार अन्दाज का यह तीरे-बेआवाज है! गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े फिर जब कोई चीज हृदय में जाती हो, तो जाने दो तीर की मैं हूं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं।' तरह। सोचो मत! सोचने में ही तीर इधर-उधर हो जाएगा। और तूफान से टकराने में गम कैसा? क्योंकि तूफान से टकराकर | हर बात के पकने का क्षण होता है, ऋतु होती है। जो अभी हो ही कोई किनारे को उपलब्ध होता है। किनारे के आसपास ही सकता है, अभी हो सकता है; कल न हो पाए। और जो अभी न तूफान है, तूफानों के आसपास ही किनारा है। और अगर ठीक हो सका, ताजा-ताजा न हो सका, वह कल कैसे हो पाएगा? से कहें तो तूफान में ही छिपा किनारा है। बासा हो जाएगा। तो जो दिल में रख लेने जैसा लगे उसे रखो! मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो अगर जगह न हो तो दिल को बाहर करो! जगह बनाओ! किनारे से टकरा गया था सफीना। मेरे पास होने का एक ही अर्थ है, कि तुम मिटने की कला नाव किनारे से टकराकर डूब गई, यह कारण है डूब जाने का! | सीखो। नहीं कि तुम्हारे दिल में रहने का मेरा कोई इरादा है; यह मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो! तो केवल बीच का उपाय है। यह तो केवल बहाना है। यह तो मैं किनारे से टकरा गया था सफीना! तुम्हें फुसला रहा हूं। यह तो मैं यह कह रहा हूं कि चलो इस वह किनारा ही क्या जो तम्हारी नाव को न तोड दे। वह किनारा | बहाने से सही. इस निमित्त सही. तम अपना दिल तो छोडो. ही क्या जो तुम्हें तुम्हारी नाव से मुक्त न कर दे! नाव नदी के अपना दिल तो तोड़ो! मेरे लिए ही सही, जगह तो बनाओ! लिए है। किनारा तो तुम्हें नाव से छुड़ा ही देगा, नाव को तोड़ ही जगह बनते ही मैं वहां नहीं बैलूंगा। जगह हो जाए तो उसी जगह देगा। वह मंजिल ही क्या जिसको पाकर रास्ता खो न जाए, मिट | में तो परमात्मा विराजमान होता है। कबीर ने कहा है : न जाए! जिससे चल चुके वह मिट जाना चाहिए, अन्यथा उस गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागूं पांव। पर लौट जाने की संभावना बनी रहती है। | किसके पैर पकडूं! दोनों साथ ही खड़े हैं, किसके पहले चरण तो जितना-जितना तुम बढ़ते जाओगे उतना-उतना मैं तुम्हारी छुऊं। कहीं कोई अपमान न हो जाए, कोई अनादर न हो जाए। नाव को तोड़ता जाऊंगा। जब देखूगा किनारा करीब है तो नाव कहीं शिष्टाचार का कोई भंग न हो जाए। बिलकुल तोड़ देनी चाहिए। नहीं तो डर है कि तुम फिर | गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागू पांव। वासनाओं की नाव में सवार हो जाओ। बड़ी मुश्किल में पड़ गए होंगे। ऐसा होता नहीं। जब गुरु होता और ध्यान रखना, जो नाव उस किनारे से इस किनारे तक ले है तो गोविंद नहीं होता; जब गोविंद होता है तो गुरु नहीं होता। आयी है, वही नाव इस किनारे से उस किनारे ले जा सकती है। कभी ऐसा भी होता है, जब दोनों साथ खड़े होते हैं। एक बार नाव तो वही होगी, सिर्फ दिशा बदलती है। जो सीढ़ी तुम्हें ऊपर होता है ऐसा। पहले गुरु को जगह देते हैं। धीरे-धीरे गुरु हृदय ले जाती है, वही सीढ़ी तुम्हें नीचे भी ले जा सकती है। इसलिए में बैठता जाता है, बैठता जाता है, फिर एक दिन गुरु हट जाता समझदार ऊपर पहुंचकर सीढ़ी तोड़ देते हैं। है-उस दिन गोविंद। इधर गुरु जाने को होता है, उधर गोविंद 'सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे आने को होता है। एक घड़ी में ऐसी बात होती है जब गुरु जा रहा जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं। होता है, गोविंद आ रहा होता है तब दोनों साथ खड़े होते हैं। 1129 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागू पांव। अस्तित्व में लीन हो रहा है और एक गहन चुप्पी घेरती जा रही फिर कबीर कहते हैं, गुरु के ही पैर लगे। है। बस अब तो एक कोने में बैठकर अस्तित्व की लीला 'बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए।' निहारती रहूं और वक्त आए तो उसमें लीन हो जाऊं। पास में इसके दो अर्थ हो सकते हैं, दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक अर्थ तो क्या बचा है! यह हो सकता है कि जब कबीर बिगूचन में पड़ गए तो गुरु ने बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी गोविंद की तरफ इशारा कर दिया कि गोविंद के ही पैर लगो।। मेरी जिंदगी में हुजूर आप आए, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताये...वह मुक्त कर दिया कदम चूम लूं या आंखें बिछा दूं चिंता से। कहा कि फिक्र न कर मेरी, गोविंद के पैर लग। करूं क्या, यह मेरी समझ में न आए। एक अर्थ तो यह हो सकता है, जो कि सीधा-साधा है। इससे भी महत्वपूर्ण अर्थ है दूसरा, वह यह है कि...बलिहारी गुरु ___ मैं कहता हूं, जो हो बांटो। नाच हो तो नाच। गीत हो तो गीत। आपकी गोविंद दियो बताये...कबीर कहते हैं, पैर तुम्हारे ही | मस्ती हो तो मस्ती। अगर चुप्पी घनी हो रही है तो चुप्पी बांटो! लगूंगा, क्योंकि तुम्हारी ही बलिहारी है कि तुमने गोविंद को | मौन भी बांटो। बताया। फिर गोविंद के तो पैर अब लगते ही रहेंगे, लगते ही बड़ी संपदा है मौन की। मस्ती से भी बड़ी मस्ती है मौन की! रहेंगे, अब तो पैरों में ही पड़े रहेंगे। लेकिन तुम्हारे पैर अब दोबारा नाच से भी गहन नाच है मौन का। गीत से भी गीत, गीत से भी न मिलेंगे। गहन गीत है गीत मौन का-बांटो उसे! गुरु जा रहा है, गोविंद आ रहा है। गुरु विदा हो रहा है। चुप्पी का अर्थ यह थोड़े ही है कि उसे सम्हालकर बैठो। तो सदगुरु वही है जो तुम्हें मिटाए, तुम्हारे हृदय के सिंहासन पर | चुप्पी की कंजूसी हो गई। बैठ जाए-बस उस क्षण तक जब तक तुम तैयार नहीं हो, ध्यान रखना, जीवन में शुभ भी हम इस ढंग से कर सकते हैं सिंहासन तैयार नहीं है, फिर हट जाए। असदगुरु वही है जो तुम्हें कि अशुभ हो जाये और अशुभ भी इस ढंग से कर सकते हैं कि हटाए, तुम्हारे सिंहासन पर बैठ जाए और फिर हटेन। फिर कहे, | शुभ हो जाये-सारी कला यही है। इसी कला को जिसने जान छोड़ो भी अब परमात्मा-अरमात्मा की बातचीत! तो यह तो एक | लिया उसने धर्म को जान लिया। झट से छटे. दसरी में पड़ गए। यह तो अपनी झंझट से छटे तो अब एक तो मौन है जो कंजसी का मौन है। एक तो मौन है कि दूसरे की झंझट में पड़ गए। इससे तो पहली ही झंझट ठीक थी, | जो अपने-आप को बंद कर लेने का मौन है कि हट जाओ दूर कम से कम अपनी तो थी। सबसे-सबसे तोड़ लेनेवाला मौन है। अपने में बंद हो जाओ 'गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े मोनोड बन जाओ, लीबनेस के। सब द्वार-दरवाजे बंद कर दो, मैं हूं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं।' खिड़कियां बंद कर दो। कोई हवा न आये, कोई रोशनी न आये। एक ही तूफान है और वह तूफान है मूर्छा का! एक ही न अपनी आवाज किसी तक जाये, न किसी की आवाज अपने अंधड़ है, आंधी है और वह अंधड़, आंधी है मूर्छा का, तक आये। तो यह मौन तो मरघट का मौन होगा। इसका गुण प्रमाद का, सोए-सोए होने का। उससे ठीक से टकराओ! निद्रा अलग होगा। यह गुण शुभ नहीं है। यह मौन तो मौत जैसा मौन से टकराकर ही जागरण पैदा होता है। निद्रा से टकराकर होगा। इससे सड़ी लाश की बदबू आयेगी। ही-उसी टकराहट में, उसी घर्षण में-जागरण पैदा होता है। __ इसलिए तुम बहुत-से त्यागी, तपस्वी, मौनियों के पास जाकर, वही जागरण किनारा है। मुनियों के पास सिर्फ लाश की सड़न पाओगे। मौन वहां खिल न पाया, फूल न बना। मौन वहां केवल अभाव रहा। मौन का अर्थ आखिरी प्रश्न: आप कहते हैं कि तुम्हारे पास जो है उसे वहां इतना ही रहा कि बोलते नहीं हैं। यह भी कोई मौन हुआ जो बांटो। मगर ऐसा हो रहा है कि संगीत, नृत्य, मस्ती सब | बोल न सके। मौन तो बोलता है—मौन से भी बोलता है। 1300 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ध्यान रखना, मौन सिर्फ न बोलना भर न हो; नहीं तो वही होगा: क्रोध काट डाला, काम की ग्रंथि काट डाली। काम की ग्रंथि गई तो ब्रह्मचर्य पैदा होने का उपाय भी गया। क्रोध की ग्रंथि गई तो करुणा भी न आई। ऐसा मौन मत कर लेना कि सिर्फ न बोलने पर आग्रह हो कि बोलते नहीं हैं। तो फिर तुम्हारे भीतर जिंदगी सड़ने लगेगी, प्रवाह बंद हो जाएगा। तुम एक पोखर हो जाओगे, सरिता न रहोगे। जल्दी ही कीचड़ मच जायेगी। जल्दी ही तुम अपनी कुंठा में सड़ोगे। क्योंकि जीवन संबंधों में है। कोई फिक्र नहीं, हजार ढंग हैं बोलने के बोलना ही थोड़े ही सब कुछ है! किसी का हाथ ही हाथ में ले लो तो क्या तुम बोले नहीं? किसी की तरफ भरी हुई आंखों से देखा तो क्या तुम बोले | नहीं ? किसी के पास चुपचाप बैठे रहे, लेकिन बंद नहीं; खुले, बहते तो क्या तुम बोले नहीं ? सच तो यह है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, ऐसे ही बोला जाता है। जब दो प्रेमी गहन प्रेम में होते हैं तो चुप बैठ जाते हैं। जब प्रेमी बातचीत करने लगें तो समझना कि पति-पत्नी हो गये। पति-पत्नी चुप नहीं बैठ सकते, | क्योंकि चुप बैठें तो दोनों बंद हो जाते हैं; दोनों बंद हो जाते हैं तो बोझिल हो जाते हैं । तो पत्नी कहने लगती है, 'चुप क्यों बैठे हो ? क्या मतलब?' तो कुछ भी बोलो! बोल जारी रखो, ताकि कहीं ऐसा न हो कि एक-दूसरे की मुर्दानगी और एक-दूसरे की ऊब प्रगट हो जाये। तो बोलते हैं, चेष्टा करके बोलते हैं। नहीं बोलना हो, बोलते हैं। कुछ भी बात ले आते हैं- खबर, समाचार — उसकी चर्चा चलाने लगते हैं। न पत्नी को उस में रस है, न पति को रस है; न पत्नी सुन रही है, न पति बोल रहा है लेकिन वाणी चल रही है। दोनों आसपास शब्दों का जाल बुनते हैं, ताकि कहीं धोखा न टूट जाये, कहीं भ्रम न मिट जाये, कहीं ऐसा न हो जाये कि पता चले कि हम टूट गये, अलग-अलग हो गये ! मेरे एक मित्र हैं। हिमालय की यात्रा को जाते थे। तो मुझसे | कहा, आप चलें। मैंने कहा कि हिमालय की यात्रा पर जाते हो, अच्छा है। तुम पति-पत्नी जा रहे हो, मुझे क्यों और बीच में लेते हो ? मेरे होने से बाधा पड़ेगी। उन्होंने कहा, आप भी क्या बात करते हैं! तीस साल हो गये शादी हुए, अब क्या बाधा खाक पड़ेगी? अब तो हालत ऐसी है कि अगर तीसरा आदमी मौजूद न हो तो हमारी समझ में नहीं आता, क्या करें! इसलिए तो तुम मिटो तो मिलन हो आपसे प्रार्थना कर रहे हैं कि आप चलो, तो थोड़ा रस रहेगा। किसी न किसी को तो ले जाना ही पड़ेगा। पति-पत्नी सदा किसी एक को और साथ ले लेते हैं। दोनों के बीच जरा बातचीत चलाने को सेतु बन जाता है। यह बोलना कोई बोलना है ? लेकिन दो प्रेमी चुपचाप बैठ जाते हैं। देखते हैं चांद को आकाश में। या सुनते हैं हवा की सरसराहट! या देखते हैं चुपचाप तारों को। कुछ बोलते नहीं। लेकिन खुले हैं। बहते हैं एक-दूसरे में, ऊर्जा मिलती है। मिलन होता है। एक गहन तल पर गहन संभोग होता है। पर चुप! शब्द बाधा डालते हैं। जब कोई प्रेमी किसी प्रेयसी से बहुत कहने लगे, बार-बार कहने लगे कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तब समझना कि प्रेम जा चुका, अब बातचीत है। अब प्रेम नहीं है, इसलिए बातचीत से परिपूर्ति करनी पड़ती है। नहीं तो प्रेम काफी है, कहने की जरूरत नहीं है। तो मैं तुमसे कहता हूं, मौन तो आये, लेकिन जीवंत आये, बहता हुआ आये । तुम्हारा प्रवाह न मिटे । तुम बंद न होओ। तुम खुलो । तो फिर मौन भी बंटे। यह मैं तुमसे जो बोल रहा हूं, क्या तुम सोचते हो, बोल रहा हूं? अपना मौन बांट रहा हूं। क्योंकि तुम मेरे मौन को सीधा न समझ सकोगे, शब्दों की सवारी से बांट रहा हूं। शब्दों के ऊपर सवार होकर जो आ रहा है, वह मौन है। घुड़सवार को देखना, घोड़े को ही मत देखते रहना । शब्दों पर जो सवारी करके आ रहा है, जरा उसे देखो! तुम्हें जो मैं देना चाहता हूं, वह शब्द नहीं है। तुम्हें जो देना चाहता हूं, वह मेरा मौन है। तो मौन ही बांटो। कहीं छुपता है कुछ ! अगर जीवंत मौन हो तो मौन ही दिखाई पड़ने लगता है, सघन हो जाता है। जहां से गुजरोगे, दूसरा आदमी चौंककर सुनने लगेगा मौन को जरा पा से ! 'बेदार'! छुपाए से छुपते हैं कहीं तेरे चेहरे से नुमायां हैं आसार मुहब्बत के । कहीं प्रेम छुपा ! कितना छिपाओ, आंख की झलक, चेहरे का रंग-ढंग, ओंठों की मुस्कुराहट; कितना छिपाओ, चाल की गति, उठने-बैठने का प्रसाद, सब तरफ जैसे प्रेमी के आसपास कुछ सूक्ष्म घुंघरू बजते हैं ! 'बेदार'! छुपाए से छुपते हैं कहीं तेरे 131 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 चेहरे से नुमायां हैं आसार मुहब्बत के बड़ा शोर मचता है, फिर तूफान जा चुका, फिर शांति कैसी घनी मौन भी नहीं छुपता। परमात्मा भी नहीं छुपता। तुम चुप भी हो जाती है! जब बुद्ध जैसा व्यक्ति शांत होगा, सदियों-सदियों बैठे रहो तो भी प्रगट होता चला जाता है। का एक तूफान, जन्मों-जन्मों का एक तूफान, एक अंधड़ जो हम तो चुप थे मगर अब मौजे सबा के हाथों चलता ही रहा और चलता ही रहा, अचानक आज बंद हो फैली जाती हैं तेरे हुस्न की खुशबू हर सू गया-देवताओं को खबर न मिलेगी! चुप होने से ही खबर जब कोई प्रभु को उपलब्ध होता है, उस परम शांति को, परम | मिल गई। निर्विकार को, तो चुप भी बैठा रहे तो भी क्या फर्क पड़ता है! जो है वही बांटो। अगर चुप्पी बन रही है, शुभ है। बंद मत हम तो चुप थे मगर अब मौजे सबा के हाथों होना, चुप्पी को भी संबंध बनाये रखना। मित्रों को कभी निमंत्रित -हम तो चुप ही बैठे थे, लेकिन सुबह की ठंडी हवायें आ कर देना कि आओ, चुपचाप बैठेंगे। जिसको चुपचाप बैठना गईं, हम क्या करें! | होगा, आ जायेगा। हाथ में हाथ ले लेना: साथ-साथ रो लेना, फैली जाती है तेरे हुस्न की खुशबू हर सू या हंस लेना। बोलना मत। और तब तुम पाओगे कि एक नया -और तेरे सौंदर्य की खुशबू ये हवायें ले चलीं, और ये ही द्वार खुला संबंधों का। तुमने किसी और ढंग से दूसरे मनुष्य फैलाने लगीं। की चेतना को छुआ और तुमने मौका दिया, दूसरे को भी कि एक बुद्ध को परम अनुभव हुआ। कहते हैं, सात दिन वे चुप बैठे | नये ढंग से, शब्दों के अलावा संबंध निर्मित करे। रहे। पर देवता भागे चले आये स्वर्ग से। पहंच गई भनकः कुछ 'गहन चुप्पी घेरती जाती है। एक कोने में बैठकर अस्तित्व की घटा है पृथ्वी पर! अस्तित्व ने कोई नया रंग लिया है! अस्तित्व लीला निहारती हूं।' ने कोई नया नाच नाचा है! कोई शिखर बना है अस्तित्व का! निहारने को बांटो। जिस ढंग से तुम निहारती हो, उसी ढंग से कोई गौरीशकर उठा है! भागे देवता। वे चुप ही बैठे रहे। किसी और को निमंत्रित करो कि आओ, मेरी दृष्टि में सहभागी देवताओं ने नमस्कार किया, चरणों में सिर रखा, और कहा, कुछ बनो। इसलिए तो मैंने तुम्हें यहां बुला भेजा है। बुलाये चला बोलें! बुद्ध ने कहा, 'लेकिन तुम्हें पता कैसे चला? मैं तो जाता हूं: दूर-दूर देशों से, पृथ्वी का कोई कोना नहीं जहां से लोग बिलकुल चुप हूं। सात दिन से तो मैं बोला ही नहीं। और मैंने तो चले नहीं आते! अपनी दृष्टि में मैं तुम्हें सहभागी बनाना चाहता यही तय किया है कि बोलूंगा नहीं। क्या सार बोलने से? | हूं। चाहता हूं कि तुम भी जरा मेरी आंख से झांककर देखो। जो जिनको समझना है, बिना बोले समझ लेंगे। और जिनको नहीं | मैंने देखा है, थोड़ा-सा तुम भी देखो। फिर तुम अपनी आंख समझना है, वे कहीं बोलकर भी समझ पायेंगे! मगर यह तो खोज लेना। एक दफा स्वाद तो आ जाये। बताओ, तुम्हें खबर कैसे मिली?' 'और वक्त आये तो उसी में लीन हो जाऊं।' तो देवताओं ने कहा, आप भी कैसी बात करते हैं। यह घटना आ ही जायेगा वक्त। आ ही गया है। बांटो! बांटना भी लीन कुछ ऐसी है, जब घटती है तब खबर मिल ही जाती है। तुम बैठे होने की प्रक्रिया है।। रहो चुप, जल्दी ही तुम पाओगे कि रास्ते बनने लगे, तुम्हारी तरफ 'पास में क्या बचा है?' जब कुछ नहीं बचता, तभी जो बचा लोग आने लगे। वे तुम्हें बुलवा कर रहेंगे। तुम्हें बोलना ही है वही संपदा है। एक झेन फकीर एक रास्ते से गुजर रहा था। पड़ेगा, तुम्हारी करुणा को बोलना ही पड़ेगा। तुम इतने कठोर वह बड़ा बलिष्ठ आदमी था। बड़ा बलशाली था। दो डाकुओं कैसे हो सकोगे? हम ही आ गये, कितनी दूर से-स्वर्ग से! ने उस पर हमला कर दिया। दुबले-पतले दीन-हीन डाकू थे; कोई चुप हो गया है! कुछ घटा है! | नहीं तो डाकू ही क्या होते-दीन-हीन ही डाक् बनते हैं। उसने तुमने कभी चुप्पी को अनुभव किया है ? चुप्पी भी एक घना दोनों की गर्दन पकड़कर उनको उठा लिया और दोनों का सिर अस्तित्व है। रेलगाड़ी शोरगुल करती निकल जाती है। उसके टकराने जा रहा था, तो उसे खयाल आया : अरे बेचारे! इनके बाद तुमने देखा है, चुप्पी कैसी घनी हो जाती है! तूफान आता है, पास कुछ भी तो नहीं है। दोनों को छोड़ दिया। वे तो बड़े [132 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौंके-से, चौकन्ने-से खड़े रह गये कि अब क्या करना। और जो कुछ उसके पास था उसने दे दिया। वे दोनों भागे लेकर। और वह फकीर जोर-जोर से हंसने लगा, तो वे लौटकर आये । उन्होंने कहा कि महाराज! आप हंस क्यों रहे हैं? आप अजीब आदमी हैं! हम तो समझे कि मरे ! आपने जब दोनों के सिर पास | लाये, तो हम समझे कि गये ! फिर क्या हुआ, आपने दोनों को छोड़ भी दिया ? हमने मांगा भी नहीं, हम तो भागने की तैयारी कर रहे थे कि आपके पास जो था आपने दे दिया। अब आप हंस किसलिए रहे हैं ? तो उस फकीर ने कहा कि आज मुझे पहली दफे पता चला उसका जो मेरे पास है, और जिसे कोई भी ले नहीं सकता। जो लेने योग्य था, देने योग्य था वह मैंने तुम्हें दे दिया - आज मैं नग्न खड़ा हूं। आज मेरे पास बस वही बचा है, जिसको न कोई ले सकता है, न कोई दे सकता है। आज शुद्ध अस्तित्व बचा है। उसी शुद्ध अस्तित्व का नाम महावीर ने आत्मा दिया है। खोओ ! जो खो ही जायेगा उसे अपने हाथ से ही खो दो । जो मौत छीन लेगी तुम उसे स्वयं ही दे दो, ताकि मौत जब आये तो छीनने को उसके पास कुछ भी न हो। तुम्हारे पास कुछ भी न हो जिसे वह छीन सके। मौत के पहले जो छीना जा सकता है, उसे बांट I पकड़ो मत! पकड़ छोड़ो ! और तब तुम पाओगे : मौत आयेगी, लेकिन तुम्हें मार न पायेगी। क्योंकि मौत घटती है। इसीलिए कि तुम उसे पकड़े हो जो छीना जा सकता है। जब मौत छीनती है, तुम समझे कि मरे। जिसने उसे पहले ही छोड़ दिया - मौत आती है, खाली हाथ चली जाती है। कुछ है ही नहीं छीनने को। वही बचा है जिसे छीना नहीं जा सकता - स्वभाव, धर्म, तुम्हारे भीतर का परमात्मा ! आज इतना ही । तुम मिटो तो मिलन हो 133 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education inte WWWAL Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां प्रवचन जीवन एक सुअवसर है *For Primate & Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चाम्मि वसदि तवो, सच्चाम्मि संजमो तह वसे तेसा वि गुणा। सच्चं णिबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं ।।१७।। सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।।१८।। जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलितं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं ।।१९।। जीवो बंभ जीवम्मि, चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। तं जाण बंभचेरं, विमुक्क परदेहनित्तिस्स।।२०।। तेल्लों काडविडहनो, कामग्गी विसयरूक्खपज्जलिओ। जोव्वणतणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हदइ घण्णो।। जा जा वज्जई रयणी, ण सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।२१।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला सूत्र : 'सच्चाम्मि वसदि तवो' – सत्य में तप का वास है । 'सच्चामि संजमो तह वसे तेसा वि गुणा ।' 'सत्य में संयम और समस्त शेष गुणों का भी वास है । जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय है, वैसे ही समस्त गुणों का सत्य आश्रय है।' सत्य का अर्थ समझ लेना अत्यंत अनिवार्य है। साधारणतः हम सोचते हैं, सत्य कोई वस्तु है, जिसे खोजना है; जैसे सत्य कहीं रखा है, तैयार है; किसी दूर के मंदिर में सुरक्षित है प्रतिमा की भांति - हमें यात्रा करनी है, मंदिर के द्वार खोलने हैं, और सत्य को उपलब्ध कर लेना है। ऐसा सोचा तो भूल हो गई शुरू से ही । । सत्य कोई वस्तु नहीं है। सत्य तो एक प्रतीति है, अनुभूति है कहीं तैयार रखा नहीं है। जीयोगे तो तैयार होगा। कहीं मौजूद नहीं है कि उघाड़ लेना है। ऐसा नहीं है कि चाबी मिल जायेगी, ताला खोल लोगे, तिजोड़ी तक पहुंच जाओगे — और धन तो तिजोड़ी में रखा ही था; जब चाभी न मिली थी तब भी रखा था; जब ताला न खोला था तब भी रखा था; न खोलते सदा के लिए तो भी रखा रहता - ऐसा नहीं है। सत्य तो जीवंत अनुभूति है। संज्ञा नहीं, क्रिया है । सत्य का अर्थ हैः ऐसे जीना, जिस जीवन में कोई वंचना न हो; ऐसे जीना कि बाहर और भीतर का तालमेल हो । सत्य एक संगीत है— बाहर और भीतर का तालमेल है। तो कदम-कदम सम्हालना होगा, क्योंकि सत्य आचरण है। गुणों का वास है ।' क्योंकि सत्य आचरण है। जिसने सत्य को साध लिया, सब सध जायेगा। फिर अलग से कुछ साधने को बचता नहीं। क्योंकि जिसने बाहर और भीतर का एक ही जीवन शुरू कर दिया, उसके जीवन में हिंसा नहीं हो सकती; उसके जीवन में झूठ नहीं हो सकता; उसके जीवन में क्रोध नहीं हो सकता; उसके जीवन में प्रतिस्पर्धा नहीं हो सकती। असंभव है। सत्य आया तो जैसे प्रकाश आया; अब अंधेरा नहीं हो सकता। लेकिन सत्य न तो कोई वस्तु है— वस्तु होती तो उधार भी जाती । सत्य उधार नहीं मिलता। मेरे पास हो तो भी तुम्हें देने का कोई उपाय नहीं। सत्य कोई सिद्धांत भी नहीं है; नहीं तो एक बार कोई खोज लेता, सबके लिए, सदा के लिए मिल जाता । सत्य कोई तर्क की निष्पत्ति भी नहीं है, कि केवल विचार करने से मिल जायेगा, कि ठीक से सोचा तो मिल जायेगा। नहीं, जो ठीक से जीएगा, उसे मिलेगा। सोचना काफी नहीं है— जीना पड़ेगा। दो ढंग से जीने के उपाय हैं। एक, जिसे हम असत्य का जीवन कहें। तुम कुछ हो, कुछ होना चाहते हो - बस असत्य शुरू हो गया। तुम कुछ हो, कुछ और दिखाना चाहते हो -असत्य हो गया। तुम कुछ हो, और तुमने कुछ मुखौटे ओढ़ लिए; होना तो कुछ था, प्रदर्शन कुछ और हो गया -असत्य हो गया । इसे समझोगे तो पाओगे कि तुम्हारे तथाकथित धर्मों ने तुम्हें सत्य की तरफ ले जाने में सहायता नहीं दी बाधा डाल दी। क्योंकि उन सबने तुम्हें पाखंड सिखाया। उन सबने कहा, कुछ इसलिए महावीर कहते हैं : 'सत्य में तप है, संयम है, समस्त हो जाओ । 139 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 जिन सूत्र भाग: 1 । महावीर कहते हैं, तुम जो हो उसमें ही रह जाओ; कुछ और होने की कोशिश मत करना, अन्यथा असत्य शुरू हो जाएगा। कमल कमल हो, गुलाब गुलाब हो; कमल गुलाब होने की कोशिश न करे, अन्यथा असत्य शुरू हो जाएगा। तुम तुम हो तुम महावीर होने की कोशिश भी करोगे तो असत्य हो जाएगा। तुम बुद्ध होने की कोशिश करोगे तो असत्य हो जायेगा। कभी कोई दूसरा महावीर हो पाया? कितने लोगों ने तो कोशिश की है! कितने लोगों ने कोशिश नहीं की है। पच्चीस सौ वर्षों में हजारों लोग महावीर होने की चेष्टा में रत रहे हैं- कोई दूसरा महावीर हो पाया? इतिहास के ज्वलंत तथ्यों को भी हम देखते नहीं, आंखें चुराते हैं। कोई दूसरा कभी बुद्ध हो पाया ? कभी कोई दूसरा राम मिला इस जीवन के पथ पर ? कभी फिर कृष्ण की बांसुरी दुबारा सुनी गई? पुनरुक्ति यहां होती नहीं । अनुकरण यहां संभव नहीं । यहां प्रत्येक बस स्वयं होने को पैदा हुआ है। और जिसने भी दूसरे होने की कोशिश की वह पाखंडी हो जाता है। आदर्शों ने तुम्हें असत्य कर दिया। यह बात बड़ी कठिन मालूम होगी; क्योंकि तुम तो सोचते हो, आदर्शवादी जीवन बड़ा महान जीवन है। आदर्शवादी जीवन असत्य का जीवन है । आदर्शवादी का अर्थ है कि मैं कुछ हूं, कुछ होने में लगा हूं। सत्यवादी के जीवन का अर्थ है : जो है, मैंने उसे स्वीकार किया; अब मैं उसको सरलता से जी रहा हूं; जो है— बुरा भला, शुभ-अशुभ; ; जैसा हूं, जैसा इस अनंत ने मुझे चाहा है, जैसा इस अनंत ने मुझे सरजा है, जैसा इस अनंत ने मुझे गढ़ा है - मैं उससे राजी हूं। सत्य है परम स्वीकार स्वयं का, और तब शेष गुण अपने-आप चले आते हैं, छाया की तरह चले आते हैं। शेष गुणों को खोजना भी नहीं पड़ता। आदर्शवादी खोजता है; सत्यवादी के पास अपने से चले आते हैं। आदर्शवादी खोजता रहता है और कभी नहीं पाता। सत्यवादी खोजता नहीं, और पा लेता है। लेकिन सत्य, समझ में आ जाए तो पहला तो सत्य का अर्थ है: तुम जैसे हो, निंदा मत करना। तुम जैसे हो, दूसरे से तुलना मत करना। क्योंकि तुलना में ही स्पर्धा शुरू हो गई। तुम जैसे हो, वैसे को परिपूर्णता से स्वीकार कर लेना । रत्तीभर भी ना-नुच न करना, यहां-वहां न डोलना । तुम जो हो सकते हो, तुम हो । तुम्हें जैसा अस्तित्व ने चाहा है, वैसे तुम हो। इसमें कुछ सुधार की जरूरत नहीं है। दौड़-धूप बंद करनी है। और इस होने में थिर हो जाना है। नहीं तो तुम डोलते रहोगे - कभी राम होना चाहोगे, धनुष उठा लोगे; कभी कृष्ण होना चाहोगे, बांसुरी बजाने लगोगे, न बांसुरी बजेगी न धनुष उठेगा। कभी महावीर होना चाहोगे, नग्न खड़े हो जाओगे - प्रदर्शन हो जाएगा । नग्न खड़े हो जाओगे लेकिन महावीर का निर्दोष भाव कहां से लाओगे ? तुम्हारी नग्नता तो आरोपित होगी। जो भी आरोपित है, वह निर्दोष नहीं होता । तुम्हारी नग्नता तो चेष्टित होगी, प्रयास से होगी। जो भी प्रयास से होता है, वह निर्दोष नहीं होता । जो भी चेष्टा से होता है, वह तो जबर्दस्ती होता है। महावीर नग्न कभी हुए नहीं — उन्होंने पाया । नग्न होने का कोई अभ्यास नहीं किया, जैसा जैन मुनि करते हैं। नग्न होने के लिए कोई आयोजन, व्यवस्था नहीं जुटाई – अचानक नग्न हो गए हैं। कथा है: महावीर घर से निकले तो एक चादर लेकर निकले थे। सोचा जितना कम होगा परिग्रह, उतनी कम असुविधा होगी। सोचा था, जितना कम होगा पास में, उतनी चिंता कम होगी। एक चादर लेकर निकले थे। वही ओढ़नी थी, वही बिछौना था। वही दिन में वस्त्र का काम दे देगी। वर्षा होगी तो सिर पर ढांककर छाता बना लेंगे। राह पर चल रहे थे कि एक नंगे भिखारी ने, भिखमंगे ने कहा, कुछ दे जाएं। सब लुटा चुके थे। यह एक चादर बची थी, तो आधी फाड़कर उसे दे दी। सोचा एक से चलता है, आधे से भी चल जाएगा। | जिनको समझ आ जाए कम से कम में भी चल जाता है और जिनको समझ न हो तो ज्यादा से ज्यादा में भी नहीं चलता । सवाल वस्तुओं का नहीं है, सवाल समझ का है। महावीर ने कहा, इतनी लंबी की जरूरत भी क्या है, थोड़े पैर सिकोड़कर सो जाएंगे। तन पूरा न ढंकेगा, थोड़ा कम ढंकेगा, हर्ज क्या है! हवा आती-जाती रहेगी, थोड़ी सूरज की किरणें शरीर को मिलेंगी। लेकिन आगे बढ़े, भागे जा रहे हैं जंगल की तरफ, एक गुलाब की झाड़ी से आधी चादर उलझ गई कांटों में। हंसने लगे। तो कहा, मर्जी नहीं है अस्तित्व की, कि चादर को ले जाऊं। राह में . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई मिल गया, आधा बोझ उसने ले लिया। अब यह झाड़ी मिल गई; अब यह मांगती है, आधी मुझे दे दो। तो आधी चादर झाड़ी को दे दी। सोचा कि आधी से चल जाएगा, बिना भी चल जाएगा। आखिर सारे पशु-पक्षी बिना चादर के चला रहे हैं। तो मैं आदमी हूं; जो पशु-पक्षी कर लेते हैं वह मुझसे न हो | सकेगा? और अब झाड़ी से छुड़ाना शोभा नहीं देता। जिसने देना ही जाना हो, छुड़ाने का उसका मन नहीं करता । जिसने देने का ही रस पाया हो, वह झाड़ी से भी न छीनना चाहेगा। वह चादर झाड़ी को भेंट कर दी, वे नग्न हो गए। ऐसे महावीर नग्न हुए। यह कोई चेष्टा न थी - यह घटना थी । इसके पीछे कोई आयोजन न था, न कोई शास्त्र थे, न कोई सिद्धांत था । नग्न होने के लिए कोई विचार न था । यह कोई अनुशासन नहीं था, जो उन्होंने थोपा अपने ऊपर। ऐसा जीवन के सहज प्रवाह में पाया कि जो लेकर आए थे वह भी जा चुका। फिर वे नग्न हो गए। फिर नग्न होने में जो मस्ती पायी तो फिर उन्होंने दुबारा चादर पाने का कोई आग्रह न रखा। क्योंकि जो नग्न होकर मिला... क्या मिला नग्न होकर ? होगा ? हिसाब लगाकर होगा ? अपने जीवन का सत्य । हम नग्न होने से डरते क्यों हैं? शरीर को भी हम छिपा-छिपाकर दिखाते हैं। उतना ही दिखाते हैं जितना हमें लगता है, दिखाने योग्य है। उतना ही दिखाते हैं जितना लगता है कि दूसरों को भी रुचेगा, भाएगा। उसको छिपाते हैं जो हमें लगता है कहीं दूसरों को न रुचे, न भाए। कपड़े तुम अपने लिए थोड़े ही पहनते हो, दूसरों के लिए पहनते हो। इसलिए तो जिस दिन घर में बैठे हो, छुट्टी के दिन बैठे हो तो कैसे ही कपड़े पहने बैठे रहते हो । बाजार चले कि सजे, कि तैयार हुए। विवाह में जा रहे हैं, महोत्सव में जा रहे हैं, तो और सजे, और भी तैयार हुए। दूसरे के लिए कपड़े पहनते हैं हम । शरीर के उन हिस्सों को छिपाते हैं जो हम चाहते हैं कोई दूसरा जान न ले। ये कपड़े हम कोई धूप, सर्दी, वर्षा से बचाने को थोड़े ही पहने हुए हैं; इनके पीछे बड़ा मन जुड़ा है, बड़ा आयोजन जुड़ा है। जिस दिन किसी स्त्री को तुम चाहते हो लुभाना, उस दिन तुम ज्यादा देर रुक जाते हो दर्पण के सामने। उस दिन ज्यादा ढंग से दाढ़ी बनाते हो, कपड़े सजाते हो, इत्र छिड़क लेते हो। दूसरे के जीवन एक सअवसर है लिए है यह आयोजन । : हम दिखाते हैं केवल अपने हाथ, अपना चेहरा; शेष शरीर को हम ढांके हैं। ढांकने के दो अर्थ हैं। एक तो हम सोचते हैं, दिखाने योग्य नहीं। दूसरा ढांकने से जो ढंका है उसमें आकर्षण बढ़ता है। दूसरे उसे उघाड़ना चाहते हैं। स्त्रियां अगर नग्न हों तो कोई गौर से देखे भी न । आदि समाजों में, आदिवासियों में स्त्रियां नग्न हैं, कोई चिंता नहीं करता । स्त्री खूब ढांककर शरीर को चलती है। जो-जो ढंका है, उसे उसे उघाड़ने का सहज मन होता है। तो एक तो हम छिपाते भी हैं; हम आकर्षित भी करते हैं, लुभाते भी हैं। इसके पीछे आयोजन है। हमारे वस्त्रों के पीछे भी आयोजन है। किसी दिन हम थक जाते हैं इन वस्त्रों से, इस प्रदर्शन से, इस दिखावे से, इस नाटक से, तो फिर हम दूसरा आयोजन करते हैं- नग्न कैसे हो जाएं! लेकिन वह भी आयोजन है। सरलता से तुम कुछ भी न होने दोगे ? सहजता से तुम कुछ भी न होने दोगे ? तुम्हारे जीवन में क्या कोई भी निर्दोष ज्योति न जगेगी ? सभी प्रयोजन से होगा ? सोच-सोचकर अब जैन मुनि हैं, नग्न खड़े हैं। मगर नग्न खड़ा होना उनका वैसे ही है, जैसे तुमने दांव लगाया हो जुए पर। वे कहते हैं, नग्न हुए बिना मोक्ष न मिलेगा। इसलिए दिगंबर जैन कहते हैं कि स्त्रियों का मोक्ष नहीं है; क्योंकि स्त्रियों को नग्न करना कठिन होगा, समाज डांवांडोल होगा, अड़चन खड़ी होगी । तो स्त्री को पहले पुरुष - योनि में जन्म लेना पड़ेगा। क्योंकि बिना पुरुष - योनि में जन्म लिये वह नग्न न हो सकेगी। नग्न न हो सकेगी, तो मोक्ष कैसे ? अब तुम थोड़ा सोचो! नग्न होने में भी दांव है, हिसाब है, गणित है। यह नग्न होना भी शुद्ध सरल नहीं है। महावीर नग्न हुए थे, मोक्ष का कोई सवाल न था - एक भिखारी ने चादर मांग ली थी। महावीर नग्न हुए थे, मोक्ष का कोई सवाल न था - एक फूलों की झाड़ी ने चादर छीन ली थी। महावीर नग्न हुए थे, इसके पीछे कभी सोचा भी न था । लेकिन तुम जब नग्न होओगे, तो मोक्ष... । तुम्हारी नग्नता भी सौदा है कपड़ों में ढांका है हमने अपने शरीर को । और ऐसे ही हमने I 141 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 TIMEIN बहुत-बहुत पर्ते अपने मन में ढांकी हैं। हम वही कहते हैं, जो होने को नहीं है वहां भी असत्य निकलता है। वहां भी सत्य नहीं हम सोचते हैं रुचिकर लगेगा। हम वही कहते हैं, चुन-चुनकर, निकलता, वहां भी असत्य निकलता है। छांट-छांटकर, जो दूसरे को मोहित करेगा और हमारी एक सुंदर कभी तुमने पकड़ा अपने को? ऐसे मौकों पर भी, जब कि प्रतिमा निर्मित होगी। हम वही नहीं कहते जो हमारे भीतर उठता | कोई लाभ भी नहीं दिखाई पड़ता झूठ बोलने में, लेकिन झूठ है। भीतर गालियां भी उठती हों तो भी हम बाहर स्वागत के गीत बोलने की आदत हो गई है! इस आदत को तोड़ना पड़े! कितनी गाए चले जाते हैं। भीतर क्रोध भी उठता है तो भी ओंठों पर ही मजबूत हो, कितने ही हथौड़े मारने पड़ें, पर तोड़ना पड़े। और मुस्कुराहट को फैलाए चले जाते हैं। मुस्कुराहट झूठी होती है। धीरे-धीरे तुम जो हो उसके लिए राजी होना पड़े! हो सकता है, जो भी थोड़ा आंखवाला है, वह देख लेगा, झूठी है; जबर्दस्ती | प्रतिष्ठा खो जाए; क्योंकि हो सकता है, प्रतिष्ठा तुम्हारे असत्य ओंठों को ताना गया है, खींचा गया है-बही नहीं है। | पर ही खड़ी हो। हो सकता है, तुम्हारा सम्मान खो जाए; क्योंकि मुस्कुराहट भीतर से उठी नहीं है। मुस्कुराहट कहीं से आयी नहीं अकसर इस बात की संभावना है कि तुम्हारा सम्मान तुम्हारे उन्हीं है, बस ऊपर से लीपी-पोती गयी है। लेकिन हमारी मुस्कुराहट झूठों पर खड़ा हो, जो तुमने समाज के सामने बोले हैं। तुम्हारा झूठी है। हमारे आंसू झूठे हैं। हमारी सहानुभूति झूठी है, उदासी दिखावा, तुम्हारे प्रदर्शन, तुम्हारे नाटक ही बुनियाद में हों, तो झूठी है। हमारा सारा जीवन एक झूठ का व्यापार है। सम्मान भी गिर जाएगा। गिर जाने दो! इसे ही मैं संन्यास कहता जब महावीर कहते हैं सत्य, तो उनका अर्थ यह नहीं है, जैसा है, जिसको महावीर सत्य कह रहे हैं। गणित में होता है—दो और दो चार, यह सत्य हुआ गणित तुम जैसे हो, तुम बेशर्त उसे स्वीकार कर लो। कठिन होगा। का-ऐसे सत्य की बात महावीर नहीं कर रहे हैं। जब महावीर आग से गुजरना होगा। मगर आग निखारेगी। कचरा जल कहते हैं सत्य, तो वे यह कह रहे हैं कि तुम जो हो, जैसे हो, जाएगा, कुंदन बाहर आएगा। साफ शुद्ध सोना होकर तुम निपट और नग्न, खोल दो अपने को वैसा ही। तुम चिंता न करो निकलोगे। जो सोना आग से निकलने से डर गया वह कभी कि कौन क्या सोचेगा। तुम अपने में कोई भी आयोजन न करो। शुद्ध नहीं हो पाता। जो मनुष्य सत्य की आग से निकलने से जैसे वृक्ष खड़े हैं नग्न और सहज, ऐसे ही तुम भी नग्न और डरता है, वह कभी मनुष्य नहीं हो पाता। सहज हो जाओ। 'सत्य में तप, संयम, शेष समस्त गुणों का वास है।' महावीर का सत्य बड़ा कठिन है। पर महावीर का सत्य बड़ा तो पहला सत्य तो जो मैं हूं, वैसा ही अपने को स्वीकार कर गहरा भी है। और महावीर का सत्य ही सत्य है, दार्शनिकों के | लूं। जो मैं हूं, उससे अन्यथा होने की चेष्टा भी न करूं; क्योंकि सत्य में कुछ भी नहीं रखा है। वह तो बातचीत है, शब्दों का उस सब चेष्टा में ही झूठ प्रवेश करता है। जाल है। वह भी शायद कुछ छिपाने की चेष्टा है। ___ तुम क्रोधी हो, तो तुम क्या करते हो? तुम अक्रोध की साधना तुम अपने को पकड़ो। तुम अपना पीछा करो और | करते हो। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, 'मन बड़ा अशांत जगह-जगह देखो, चौबीस घंटे में कितना असत्य कर रहे हो! है, शांति की कोई तरकीब बता दें।' क्या करोगे शांति की अनजाने ही! ऐसा भी नहीं कि तुम सभी असत्य जान-जानकर तरकीब का? ऊपर-ऊपर लीपा-पोती कर लोगे, भीतर अशांति बोलते हो, सोच-सोचकर बोलते हो-आदत इतनी प्रगाढ़ हो उबलती रहेगी ज्वालामुखी की तरह। ऊपर-ऊपर तुम शांति के गई है, ऐसे रग-रोएं में समा गई है, ऐसे खून-खून की बूंद में बैठ भवन बना लोगे, ज्वालामुखियों पर बैठे होंगे भवन। भूकंप आते गई है, कि अब तो तुम किए चले जाते हो, कोई हिसाब भी नहीं ही रहेंगे। शांत तुम हो न पाओगे। रखना पड़ता। तुमसे असत्य ऐसे ही निकलता है जैसे वृक्षों से | शांत होने की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी अशांति को पत्ते निकलते हैं। अब कुछ करना भी नहीं पड़ता, कुशलता इतनी समझने की जरूरत है। पहले तो अशांति को स्वीकार करने की गहन हो गई है। कभी तो तुम चौंकोगे कि जहां जरूरत भी नहीं जरूरत है कि मैं अशांत हूं। फिर अशांति को पहचानने की होती, वहां भी असत्य निकलता है। जहां उससे कुछ लाभ भी जरूरत है कि यह अशांति क्या है—बिना किसी निंदा के। पहले 142 Main Education International Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन एक सुअवसर है से ही अगर तुमने तय कर लिया कि अशांति बुरी है तो तुम जान जो तुम्हारे पास है उसको ही कैसे रूपांतरित करें, कैसे उसमें से कैसे पाओगे, देख कैसे पाओगे? जो आंखें पहले ही पक्षपात से ही सार को खोजें, असार को त्यागें, कैसे उसको निचोड़ें, इत्र भर गईं और जिन्होंने तय कर लिया कि अशांति बुरी है और बनाएं-तो तुम सत्य हो सकोगे। अशांति से छूटना है, वे आंखें अशांति का अवलोकन न कर | महंगा है यह सौदा। इसलिए महावीर कहते हैं, तप है यह पाएंगी। अवलोकन शुद्ध न होगा, अवलोकन प्रामाणिक न सत्य। इसमें तपना पड़ेगा। यह तपना सस्ता तपना नहीं है कि होगा। तुम पहले से ही तैयार हो। तुम जूझने को तैयार हो, लड़ने धूप में खड़े हो गए और तप लिए। वह तो बच्चे भी कर लेते हैं। को तैयार हो। दुश्मन को कभी कोई भर आंख देख पाता है! वह तो बुद्धू भी कर लेते हैं। उसके लिए तो कोई बुद्धिमत्ता की दश्मन से तो हम आंखें बचा लेते हैं। मित्र को देख पाते हैं। प्रेमी जरूरत नहीं है। जड़ भी कर लेते हैं। वस्तुतः जो जड़बुद्धि हैं, वे को देख पाते हैं। जिससे हमारा प्रेम हो, उसकी आंखों में आंखें ज्यादा आसानी से कर लेते हैं। क्योंकि जितनी जड़बुद्धि होती है डाल पाते हैं। उतनी जिद्दी होती है। और जितनी जड़बुद्धि होती है, उतनी तो अपने को प्रेम करो, अगर सत्य होना है। और जैसे भी हो संवेदनहीन होती है। धूप में भी खड़े हो जाते हैं, थोड़े दिन में बुरे-भले, यही हो, इसके अतिरिक्त कुछ और हो नहीं सकता | उसका भी अभ्यास हो जाता है। उपवास भी कर लेते हैं. उसका था। जो तुम हुए हो, इसको पहचानो, परखो, जांचो, खोलो भी अभ्यास हो जाता है। कुछ लोग हैं जो खड़े हैं वर्षों से, बैठे एक-एक गांठ। अशांति है तो अशांति सही, क्या करोगे? नहीं, लेटे नहीं-उसका भी अभ्यास हो गया। लेकिन तुमने अशांति तुम्हारा तथ्य है। जैसे आग जलाती है, वह उसका | कभी इन लोगों की आंखों में गौर से देखा! वहां तुम्हें प्रतिभा की गुणधर्म है। अशांति तुम्हारे आज का तथ्य है। आज तुम जैसे हो दमक न मिलेगी। वहां तुम्हें आनंद और शांति के स्वर सुनाई न उसमें अशांति के फूल लगते हैं, अशांति के कांटे लगते हैं। पड़ेंगे। इनकी छाती के पास, हृदय के पास कान लगाकर लेकिन देखो, पहचानो, समझो, स्वीकार करो। भागो मत। डरो | सुनना; वहां कोई अनाहत का नाद न मिलेगा। वहां तुम मत। विपरीत की चेष्टा मत करो। अशांति है तो शांति को लाने पाओगे : जड़ता, राख, मरे हुए लोग। के प्रयास में संलग्न मत हो जाओ। वह प्रयास अशांति से बचने अकसर हठी जड़ होता है। और जिसको तुम तप कहते हो, का प्रयास है। बचकर कोई कभी बच नहीं पाया। अगर वह हठ से ज्यादा नहीं है, जिद्द है, क्रोध है, अहंकार है लेकिन कामवासना है तो उतरो। उस गहरे कुएं में उतरो जिसका नाम सत्य नहीं। कामवासना है। उसकी सीढ़ी दर सीढ़ी नीचे जाओ। उसकी | सत्य का तप क्या है? सत्य का तप है : अपने को जैसा है आखिरी तलहटी को खोजो। वहीं से उठेगा ब्रह्मचर्य। जागरण वैसा स्वीकार किया, वैसा ही प्रगट किया; अपने और अपनी से उठेगा ब्रह्मचर्य। कामवासना की पहचान में से ही ब्रह्मचर्य अभिव्यक्ति में कोई भेद न किया। फिर जो हो, समाज अच्छा पैदा होता है। कामवासना में ही छिपा है ब्रह्मचर्य; जैसे | कहे बुरा कहे, लोग चाहें न चाहें, सम्मान दें अपमान दें, फिर जो कामवासना बीज का खोल है और उसके भीतर छिपा है कोमल हो–यह है असली तप। लोग निंदा करें, वह भी स्वीकार है। तंत, कोमल पौधा ब्रह्मचर्य का। तुम समझो, बीज को कैसे लोग प्रशंसा करें, वह भी स्वीकार है। लोग भूल जाएं, उपेक्षा जमीन में बोएं. फिर कैसे सम्हालें-उसी से निकलेगा। कीचड़ करें, वह भी स्वीकार है। यह है तप। सत्य होने को महावीर से जैसे कमल निकलता है, ऐसे ही कामवासना से ब्रह्मचर्य कहते हैं तप। निकलता है। 'सच्चामि वसदि तवो'–सत्य में बसता है तप। संयम भी अशांति का ही सार है शांति। उसी के भीतर से निचोड़ना है। वहीं है। जैसे फलों से इत्र निचोड़ते हैं, ऐसे ही क्रोध से निचुड़कर करुणा इन दो शब्दों को समझ लेना चाहिए, क्योंकि महावीर ने इन दो आती है। शब्दों का साथ-साथ उपयोग किया। तो जो तुम्हारे पास है उसके विपरीत होने में मत लग जाओ। तप का अर्थ है : तुम्हारे भीतर ऐसी बहुत-सी सचाइयां हैं 437 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग जिनके कारण तुम्हें अड़चन होगी। उस अड़चन को झेलने के | है।' उस अंधे ने कहा, 'मालिक! अब और क्या प्रमाण | लिए तैयार होना तप है। तुम्हारे भीतर ऐसी बहुत-सी सचाइयां चाहिए! मारवाड़ी से भीख मांग रहा हूं, इससे बड़ा प्रमाण अंधे हैं; जिनके कारण बहुत-से काम तुम जो अभी कर रहे हो, कल होने का और क्या होगा?' न कर पाओगे। वह जो न करने की अवस्था है, वही संयम है। भिखमंगा भी सोच-समझकर पकड़ता है। भिखमंगा भी समझो! अब तक तुम दान दे रहे थे। लेकिन सच्चा आदमी | जानता है, दान तो कोई देना नहीं चाहता। लेकिन लोग इतने सोचेगा : 'दान का भाव उठा है या नहीं?' दान के लिए ही तो ईमानदार भी नहीं हैं कि कह दें कि हम दान नहीं देना चाहते। सभी दान नहीं देते, और दूसरे कारणों से देते हैं। राह पर लोग दिखाना चाहते हैं कि हम हैं तो दानी। उसी का भिखमंगा भिखमंगा पकड़ लेता है, इज्जत दांव पर लगा देता है। भिखमंगा शोषण कर रहा है। तुम भी लज्जा से भर जाते हो कि अब कैसे भी अकेले में तुमसे भीख नहीं मांगता, क्योंकि अकेले में जानता निकलें! चलो, छुटकारा पाने के लिए देते हो। लेकिन अगर तुम है कि तुम धुतकारोगे। बीच बाजार में पकड़ लेता है। वहां ईमानदार हुए तो तुम कहोगे कि बाबा, मेरे मन में देने की कोई इज्जत सवाल है : 'लोग क्या कहेंगे, दो पैसे भी न देते बने! इच्छा नहीं है। चाहे बाजार में सारी इज्जत प्रतिष्ठा पर लग जाए, लोग हंसेंगे।' वहां तुम दो पैसा देकर दानी बन जाना चाहते हो। चाहे कल दुकान बंद क्यों न हो जाए, चाहे लोग तुम्हें कृपण क्योंकि उस दो पैसे में इज्जत मिल रही है, वह इज्जत तुम दुकान | समझें, बेईमान समझें, धोखेबाज समझें, धन का आग्रही | पर काम में ले आओगे। दो पैसे से तुम दो रुपये निकालोगे। समझें-लेकिन तुम कहोगे कि क्या करूं, मेरे मन में देने का जिसने आज तुम्हें दानी की तरह देख लिया है, कल वही ग्राहक कोई स्वर नहीं है। की तरह दुकान पर होगा, तो तुम जो भी दाम बताओगे, मान | तप पैदा होगा। संयम भी पैदा होगा। क्योंकि बहत-से काम लेगा-आदमी दानी है! बाजार में अगर भिखमंगे ने पकड़ | तुम कर रहे हो इसलिए, क्योंकि करने चाहिए। अगर सब खरीद लिया तो तुम्हें देना ही पड़ता है। | रहे हैं कोई सामान, नया फर्नीचर, नई कार, तो तुम भी खरीद रहे एक मारवाड़ी को एक भिखमंगे ने पकड़ लिया बाजार में। हो—बिना इसकी फिक्र किए कि तुम्हें जरूरत है। तुमने कभी तख्ती लगाए था भिखमंगा कि मैं अंधा हूं। और उसने कहा, सोचा कि तुम जो चीजें खरीद लाते हो, उनकी जरूरत थी? 'सेठ कुछ मिल जाए! बड़े दिन से सिनेमा नहीं गया हूं।' लेकिन अगर पड़ोसी खरीद लाए थे तो तुम भी खरीद लाते हो। मारवाड़ी तो तैयार ही था कि कैसे छूटे! उसने देखा, तुमने कभी सोचा है कि तुम जो कर रहे हो, जो दिखावा कर रहे 'सिनेमा-और तख्ती लगाए हो कि मैं अंधा हूं! सिनेमा जाकर हो, उसकी कोई जरूरत है? लेकिन और दिखावा कर रहे हैं तो करोगे क्या? धोखा देने की कोशिश कर रहे हो?' उस अंधे ने | तुम कैसे रह सकते हो! अगर व्यक्ति सचाई से अपने भीतर कहा, 'दाता! गाने ही सुन लूंगा! अब देने से न बचो।' देखने लगे, तो पाएगा: अचानक बहुत-से काम तो बंद हो गए, 'भीड़ लग गई थी। सेठ ने देखा, बचने का उपाय नहीं है, तो क्योंकि निष्प्रयोजन थे; दूसरे कर रहे थे, दूसरों के दिखावे के पांच पैसे का सिक्का निकालकर उसको देने लगा। अंधे ने कहा लिए तुम भी कर रहे थे। कि सेठ, बैंक में जमा करवा देना। मेरा मार्केट तो मत बिगाड़ लड़की की शादी करनी है, लोग हजारों रुपये लुटाते बाबा! पांच पैसे? हैं-उनके पास नहीं हैं, कर्ज लेकर लुटाते हैं। क्यों? और भिखमंगा भी बाजार में है। उसका भी मार्केट है। सेठ भी दूसरों ने, दुश्मनों ने, पड़ोसियों ने पड़ोसी यानी बाजार में है; उसका भी मार्केट है। न दे तो उसका मार्केट दुश्मन-उन्होंने अपनी लड़की की शादी में इतना लगाया...। बिगड़ता है। ये लोग देख रहे हैं चारों तरफ, वे कहेंगे, अरे अब तुम्हारी इज्जत दांव पर लगी है। तुम्हारे अहंकार का सवाल कृपण! अरे कंजूस! है। तुम्हें भी लगाना होगा। तुम्हें लड़की से कोई मतलब नहीं है। उस सेठ ने कहा कि 'तू पहचाना कैसे कि पांच पैसे का सिक्का न तुमने जो दिया है, वह प्रेम से दिया है। न तुमने लड़की को है, अगर तू अंधा है? अभी मैंने दिया भी नहीं, हाथ में ही लिया दिया है। तुमने अहंकार को दिया है। तुम अपने झंडे को ऊंचा s | Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन एक सुअवसर है करके दिखाना चाहते थे कि देख लो! तुम अगर गौर से अपनी बिलकुल जरूरी थीं। सचाई को पहचानने लगो तो तुम पाओगेः तप भी आता, संयम संयम पैदा होता है, जो व्यक्ति सच्चा होने लगता है। उसे भी आता। दिखाई पड़ता है, जो मेरे लिए जरूरी है वह करूंगा; जो नहीं सौ में निन्यानबे आकांक्षाएं तुम्हारी बिलकुल व्यर्थ हैं। वे तुमने | जरूरी है वह नहीं करूंगा। और ऐसा व्यक्ति धीरे-धीरे भीड़ के न मालूम कैसे उधार ले ली हैं। संक्रामक रोग की तरह तुम्हें लग | बाहर हो जाता है। इस अकेले हो जाने का नाम ही संन्यास है। गई हैं। दुख आएगा तो तुम स्वीकार करोगे। और बहुत-से सुख भीड़ में ही होता है, लेकिन अकेला हो जाता है। अपने ढंग से जो सुख नहीं हैं, तुम दूसरों के कारण ही भोगे चले जाते हो। । जीता है। और अपने ढंग को किसी हालत में भी समझौता नहीं मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन जा रहा था। पूछा, 'कहां जा रहे करता। कुछ भी हो जाए, सत्य की आकांक्षा करनेवाला हो?' उसने कहा, 'शास्त्रीय संगीत सुनने जा रहा हूं।' मैंने समझौतावादी नहीं होता। वह आगे-पीछे नहीं देखता, वह यह कहा, 'लेकिन तुम जानते नहीं।' उसने कहा, 'अब क्या करें! हिसाब नहीं लगाता कि इसके क्या परिणाम होंगे। वह कहता है, सभी जा रहे हैं, न जाओ तो ऐसा लगता है कि शास्त्रीय संगीत जो भी परिणाम होंगे उसका तप झेल लूंगा; जो भी खोना पड़ेगा, नहीं आता। हालांकि कुछ समझ में नहीं आता मेरे। अभी से डरा | उसका संयम हो जाएगा। लेकिन जो मैं हूं, उससे अन्यथा मैं नहीं हुआ हूं कि वहां करूंगा क्या। मुझे तो उलटी घबड़ाहट होती है। होना चाहता। जब आऽऽऽऽ करने लगते हैं, मुझे ऐसा लगता है कि अब पता एक बड़ी क्रांति घटती है, जब तुम अपने से राजी होते हो। जब नहीं कब यहां से निकलना हो पाएगा।' उसने बताया मुझे कि तुम अपने से राजी होते हो तो तुम अपने भीतर उतरने लगते हो। पहले भी एक दफा ऐसा हो चुका है: मैं गया था शास्त्रीय संगीत जब तुम अपने से राजी होते हो और यहां-वहां नहीं दौड़ते और सुनने और जब संगीतज्ञ बहुत आऽऽऽऽ करने लगा तो मैं रोने दूसरों का अनुगमन नहीं करते तो तुम अपने में डूबने लगते हो, लगा। तो मेरे पड़ोस के लोगों ने पछा कि अरे मुल्ला! हमने तो एक डुबकी लगती है। उस डुबकी के माध्यम से तुम अपनी कभी सोचा भी न था कि तुम इतने संगीत के पारखी हो! सतह से ही परिचित नहीं होते, अपने भीतर की गहराइयों से ' उसने कहा, 'पारखी-वारखी कुछ नहीं; यही हालत मेरे बकरे परिचित होने लगते हो। की हुई थी। उसी रात मर गया था। यह आदमी बचेगा नहीं। और एक दिन ऐसी भी घड़ी आती है कि तुम अपने केंद्र पर यह बिलकुल मरने के करीब है। इसलिए मुझे याद आ रही है आरोपित हो जाते हो। वही है धर्म, आत्मज्ञान कहो। बकरे की, कि बेचारा बकरा, इसी तरह शास्त्रीय संगीत 'सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों का वास होता है। करते-करते..!' | जैसे समुद्र मछलियों का आश्रय है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का ___ मगर जाना पड़ रहा है, क्योंकि सारा मोहल्ला-पड़ोस जा रहा | आश्रय है।' है। इज्जत का सवाल है। सत्य जैसे सागर है, सभी नदियां उसी में गिर जाती हैं, ऐसे ही तुमने कभी गौर किया अपने को! तुम बहुत-सी चीजों में सत्य जीवन का परम आचरण है; धर्म का पर्यायवाची है; और सम्मिलित हुए हो, जहां तुम कभी जाना न चाहते थे, लेकिन क्या सभी गुण उसी में गिर जाते हैं। करते! तुम भीड़ के हिस्से हो! तुमने कभी-कभी अपनी जरूरतों लेकिन लोग उलटा कर रहे हैं। लोग कहते हैं, तप साध रहे हैं, को भी कुर्बान किया है-उन बातों के लिए जो तुम्हारी जरूरतें न संयम साध रहे हैं क्योंकि सत्य पाना है। महावीर कहते हैं, थीं। तुमने गहने खरीद लिए हैं, पेट को भूखा रखा है। तुमने सत्य साधो, तो संयम और तप अपने से आ जाते हैं। अब इतनी बड़ा मकान बना लिया है, बच्चों के लिए औषधि नहीं जुटा सीधी-सी बात भी कैसे चूक जाती है! ऐसा लगता है, लोग पाए। तुमने कार खरीद ली, बच्चों को शिक्षा नहीं दे पाए। चूकना ही चाहते हैं। अब इतना साफ-सा वचन है। 'सच्चाम्मि तुमने कभी गौर किया है कि तुम वे चीजें कर गुजरे, जो न करते वसदि तवो'...लेकिन किसी जैन मुनि से पूछो, तो वह कहेगा, तो चल जाता; और उन चीजों को न कर पाए जो कि करनी | 'तप करोगे तो ही सत्य मिलेगा। तपश्चर्या के बिना कहीं सत्य 145 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 जिन सूत्र भाग: 1 मिला है!' महावीर ठीक उलटी बात कह रहे हैं कि सत्य के बिना कहीं तपश्चर्या हुई है। दोनों दुश्मन मालूम पड़ते हैं। यह जैन मुनि महावीर के पीछे चलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। यह तो उलटा ही काम कर रहा है। यह तो कारण को पकड़कर कार्य को लाना चाहता है, जो कि संभव नहीं है। कार्य से कारण आता है। तुम चलते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चलती है। महावीर कहते हैं, तुम चलोगे, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चलेगी। जैन मुनि कहता है, छाया का पीछा करो, कहीं ऐसा न हो कि छाया यहां-वहां चली जाए ! अब तुम अड़चन में पड़ जाओगे, अगर तुमने छाया का पीछा किया तो तुम तो उलटी यात्रा पर लग गए। यह तो छाया तुम्हारी आत्मा हो गई, तुम छाया हो गए। महावीर कहते हैं, सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों का वास हो जाता है। वे नाम भी नहीं गिनाते । गिनाने की कोई जरूरत नहीं है । कह दिया सागर, तो सभी नदियां आ गईं। आ ही जाती हैं देर- अबेर । नदी-नदी का कहां-कहां पीछा करोगे ? सागर को ही पकड़ लो। जब सागर ही मिलता हो तो नदियों के पीछे क्यों भटकते हो ? लेकिन अगर जैन मुनि ऐसी बात कहे, तो उसका खुद का क्या हो ! क्योंकि वह भी नदियों के पीछे भटक रहा है। इसे समझो। भागे । दिन-रातें ऐसे गुजर जाती हैं जैसे आईं और गईं, पता ही न चला । तो जरा सोचो, जिस दिन भीतर का प्यारा, भीतर का प्रियतम मिल जाए, जब उसके पास सरकने लगोगे तो कहां याद आएगी भूख की, कहां याद आएगी प्यास की ! महावीर कहते उपवास के कारण अनशन हो जाता है। जैन मुनि कहता है, अनशन करो तो आत्मा के पास जाओगे। अब बड़ा मुश्किल है मामला। अनशन करनेवाला और भी शरीर के पास हो जाता है। भूखे मरोगे तो शरीर की ही याद आएगी। नहीं तो करके देख लो । उपवास करके देख लो। जिसको जैन मुनि उपवास कहते हैं, मैं तो अनशन कहता हूं। अनशन करके देख लो | जिस दिन खाना न खाओगे, उस दिन खानेही खाने की याद आएगी। उस दिन रास्ते पर गुजरोगे तो न तो कपड़े की दुकानें दिखाई पड़ेंगी, न जूतों की दुकानें; बस रेस्तरां, होटल, उन्हीं - उन्हीं के बोर्ड एकदम पढ़ोगे और दिल में बड़ी तरंगें उठेंगी। रसगुल्ले उठेंगे! रसमलाई फैलेगी ! संदेशों के संदेश आएंगे। भूखा आदमी भोजन का ही सोच सकता है। इसलिए जैन जब उपवास करते हैं पर्युषण के दिनों में, तो मंदिर ज्यादा समय, क्योंकि घर तो बहुत ज्यादा याद आती है । मंदिर में किसी तरह भुलाए रखते हैं; शोरगुल मचाए रखते हैं ! और फिर वहां और भी उन्हीं जैसे भूखे बैठे हैं, उनको देखकर भी ऐसा लगता है : 'कोई अकेले ही थोड़े ही हैं ! अपन ही थोड़े ही परेशान हो रहे हैं, और भी सब हो रहे हैं!' जैनों का शब्द है: 'उपवास'। बड़ा प्यारा शब्द है! उपवास शब्द का अर्थ होता है : अपने अंतर्तम में वास । उप+वास : अपने पास होना; अपने निकट होना। इसका खाने न खाने से कुछ भी संबंध नहीं । तुम जिसे उपवास कहते हो, वह अनशन है, उपवास नहीं। फर्क क्या है ? महावीर कहते हैं, जब तुम अपने पास हो जाओगे तो उन घड़ियों में भोजन भूल जाता है, क्योंकि शरीर भूल जाता है। जब कोई अपने पास होता है, आत्मा के पास होता है। जब आत्मा का सत्संग चलता है, जब उस रस में कोई डूबता है— कहां याद रहती है भूख-प्यास की ! तुमने कभी खयाल नहीं किया ! कोई मित्र घर आ जाए वर्षों का बिछड़ा हुआ, भूख याद पड़ती है? प्यास पता चलती है ? घंटों बीत जाते हैं, बैठे हैं, चर्चा कर रहे हैं, न भूख है न प्यास है। तुम्हारा प्रेमी मिल जाए, तुम्हारी प्रेयसी मिल जाए – भूख, प्यास भूल जाती है। घड़ियां ऐसे बीतने लगती हैं जैसे पल और एक-दूसरे की हिम्मत बंधाए रखते हैं। बैंड-बाजा बजाए रखते हैं। घर आए तो भोजन की याद आती है। वहां भी भोजन की ही याद आती है। तुम जिस चीज के साथ जबर्दस्ती करोगे, उसका कांटा चुभेगा । महावीर कहते हैं, उपवास हो जाए–अनशन अपने से हो जाता है। जैन मुनि कहते हैं, अनशन करो तो उपवास होगा। यही पूरी की पूरी उलट- बांसी चल रही है, उलटी धारा बह रही है। 'समुद्र जैसे सभी नदियों का आश्रय है, ऐसे ही सत्य सभी धर्मों का आश्रय है। कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी नहीं होता, तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है । ' लोभ की तोंद बड़ी है। जो पास है वह तो दिखाई ही नहीं पड़ता। जो दूर है वही दिखाई पड़ता है। लेकिन जो दूर है वह तभी तक दिखाई पड़ता है जब तक दूर है। जैसे-जैसे तुम पास आए, तुम्हारी तोंद भी गई। जब तुम पास पहुंचे वह तोंद के नीचे फिर ढंक गया। अब फिर दूर रखो। तुम्हारे पास दस हजार हैं तो | नहीं दिखाई पड़ते, लाख दिखाई पड़ते हैं। लाख हो गए, वे नहीं दिखाई पड़ते, वे तोंद के नीचे पड़ गए - दस लाख दिखाई पड़ते | हैं। अगर यह गणित समझ में आ गया, तो एक हिमालय हो कि | हजार हिमालय हो जाएं सोने से भरे हुए तुम्हारे पास, क्या फर्क पड़ता है! जो तुम्हारे पास है, वह लोभ को दिखाई नहीं पड़ेगा; जो दूर है, जो नहीं है, वही दिखाई पड़ता है। सोने और चांदी के कैलाश, हिमालय के हिमालय सोने और चांदी के, अनंत हिमालय, असंख्य पर्वत तुम्हें उपलब्ध हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता। क्योंकि लोभ का इससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ का जो तुम्हारे पास है | उससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ की दौड़ तो उसके लिए है जो तुम्हारे पास नहीं है । यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि जैनों के चौबीस ही तीर्थंकर लोभ के गणित को समझो। जो तुम्हारे पास है, लोभ उसको राजपुत्र थे। यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि बुद्ध भी राजपुत्र देखता ही नहीं; जो तुमसे दूर है, उसी को देखता है। और कृष्ण और राम और हिंदुओं के सारे अवतार शाही घरों से आए थे। अगर उनको यह दिखाई पड़ गया, तो इसके दिखाई पड़ने के पीछे एक कारण है। उन्होंने दौड़ को देखा। कितना धन था, कुछ सार नहीं मिलता, लोभ तो पकड़े ही रहता है ! एक बहुत मोटा आदमी था। डाक्टर ने उसको सलाह दी कि अब तुम कुछ और नहीं करते तो मरोगे। तुम गोल्फ खेलना शुरू कर दो। तो वह सात दिन बाद आया। उसने कहा, बड़ी मुश्किल है। अगर गेंद को बहुत पास रखता हूं तो दिखाई नहीं पड़ती ! तोंद बड़ी है। अगर बहुत दूर रखता हूं तो चोट नहीं मार सकता। अब करूं क्या ? तो जो इस बात को समझ लेगा, वह एक बात समझ लेगा कि | लोभ के तृप्त होने का कोई उपाय नहीं है। चोट लग ही नहीं सकती। पास रखो, दिखाई नहीं पड़ता; दूर रखो, दिखाई पड़ता है - लेकिन दूर को चोट कैसे मारो! चोट तो पास को लग |सकती थी । इसलिए लोभ कभी तृप्त नहीं होता। तुम यह मत सोचना कि गरीब आदमी का तृप्त नहीं होता, अमीर का तो हो जाता होगा। किसी का तृप्त नहीं होता । अमीर गरीब से भी जीवन एक सुअवसर ज्यादा गरीब हो जाता है । जितना होता जाता है उतनी ही मुश्किल होती जाती है। इतना हो गया, कुछ भी नहीं हुआ— और बेचैनी बढ़ती है। गरीब को तो कम से कम एक चैन रहता है, एक आशा रहती है कि जब हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा; अमीर की वह आशा भी छिन जाती है। क्योंकि उसे एक बात... कब तक झुठलाएगा वह कि इतना तो हो गया, भी नहीं हुआ ! और कुछ है तो एक बात तय है कि लोभ का जिसने साथ रखा, अतृप्ति की छाया बनती रहेगी। लोभ से जिसने तृप्ति चाही, वह असंभव चाह रहा है— जो न हुआ है, न होता है, न हो सकता है। तृप्ति अगर चाहनी हो तो लोभ से जागो । 'कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं. ।' 'सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया...' असंख्य हो जाएं कैलास; 'नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि...' फिर भी लोभी को कोई तृप्ति नहीं । 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया । ' इच्छा आकाश की तरह अनंत है। बढ़ो, दिखाई पड़ता है, आकाश छू रहा है पृथ्वी को, यही कोई दस-पांच मील दूर, क्षितिज पास ही दिखाई पड़ता है— पहुंचो, कभी मिलता नहीं। तुम जितने बढ़ते हो, क्षितिज भी उतना ही तुम्हारे साथ बढ़ता जाता है। तुम्हारे और क्षितिज के बीच का जो फासला है, वह सदा उतना ही रहता है। उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता । तुम्हारे पास क्या है, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता । तुम्हारे और तुम्हारे लोभ का अंतर सदा समान रहता है। गरीब और उसकी उपलब्धि में, अमीर और उसकी उपलब्धि में उतना ही अंतर है। अंतर बराबर है। ऐ शेख ! अगर खुल्द की तारीफ यही है मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं सकता। 147 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः कवि ने कहा है कि अगर तुम्हारे स्वर्ग की यही प्रशंसा है कि जो जानते हैं, वे कहते हैं 'प्रभु! तुम्हारा मुकाबला चाहते हैं।' वहां सोने के वृक्ष हैं और हीरे-जवाहरातों, मणि-माणिक्य के यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को! यह तुम्हारे तथाकथित फूल हैं, और वहां सुंदर स्त्रियां हैं जिनका रूप कभी ढलता नहीं, | त्यागी, विरक्तों को मुबारिक! जिन्होंने यहां बेचारों ने छोड़ा है और वहां शराब के चश्मे हैं तो कवि ने कहा है: ऐ शेख। | इस आकांक्षा में कि वहां पा लेंगे, उनको दे देना जन्नत। यहां अगर खुल्द की तारीफ यही है-अगर तेरे स्वर्ग की यही तारीफ स्त्रियां छोड़ दी हैं, बैठे हैं आसन लगाए, आशा कर रहे हैं है, यही प्रशंसा है, मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं अप्सराओं की। उर्वशी से कम में उनका काम न चलेगा। सकता तो फिर मैं इसकी आकांक्षा नहीं कर सकता। क्योंकि चौंक-चौंककर देखते हैं, मेनका अभी तक आई नहीं! सुना तो यह तो फिर वही मूढ़ता है जो संसार की है। इसमें तो कुछ भेद न | था कि आती है। जब ऋषि-मुनि पहुंच जाते हैं समाधि की हुआ। यहां थोड़े-थोड़े ढेर थे सोने-चांदी के, वहां कैलाश जैसे | अवस्था को, समाधि में भी आंख खोल-खोलकर देख लेते हैं, पर्वत होंगे। यहां सुंदर स्त्रियां थीं, लेकिन उनका रूप ढल जाता | मेनका अभी तक आई नहीं। इंद्र का आसन नहीं डोला! लेकिन था; वहां सुंदर स्त्रियां होंगी जिनका रूप न ढलेगा। अंतर जो आंख खोल-खोलकर मेनका को देख रहा है, उसकी समाधि परिमाणात्मक है, गुणात्मक नहीं-क्वांटिटी का है, क्वालिटी | कहां लगी? उसकी समाधि कैसे लगेगी? का नहीं। समाधि का अर्थ है: लोभ व्यर्थ हो गया। ऐसे समाधान का मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं सकता! नाम समाधि है। लोभ व्यर्थ हो गया-यहां का नहीं, वहां का जिसने जीवन की लोभ की प्रक्रिया को समझ लिया, वह स्वर्ग नहीं, लोभ मात्र व्यर्थ हो गया। न अब यहां, न अब वहां-अब की मांग न करेगा। और अगर तुम अभी भी स्वर्ग की मांग कर | लोभ की कोई आकांक्षा न रही। जान लिया, पहचान लिया, रहे हो तो तुम समझना कि तुम संसार को ही बार-बार मांगे जा | लोभ का सार पकड़ लिया कि लोभ कभी तृप्त नहीं हो सकता, रहे हो। तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे संसार का ही फैलाव है, इसका ही | इसलिए अब लोभ छोड़ दिया। संसार का लोभ नहीं-लोभ विस्तार है। को ही छोड़ दिया। क्योंकि जब तक लोभ है, लोभ नए संसार तुम जरा स्वर्ग की तारीफ तो देखो! तुम जरा शास्त्रों में स्वर्ग बनाए चले जाता है। लोभ संसार का सूत्र है। का वर्णन तो देखो। जिनने ये शास्त्र लिखे हैं, वे बुद्धिमान नहीं __ तो लोग कहते हैं, 'हम कोई संसारी थोड़े ही हैं। हमने तो सकते। और जिन्होंने स्वर्ग की ये प्रशंसाएं की हैं, वे लोभ से | संसार छोड़ दिया है। हम तो उस सुख की तलाश कर रहे हैं जो मुक्त नहीं हो सकते। वस्तुतः स्वर्ग की इन आकांक्षाओं में लोभ | शाश्वत है।' लेकिन सुख की ही तलाश जारी है। ये लोग, ही सघनीभूत होकर प्रगट हुआ है। जो यहां पूरा नहीं होता, जो | जिनको तुम संन्यासी कहते हो, ऋषि-मुनि कहते हो, ये संसारी क्षितिज यहां नहीं मिलते, उनको पूरा कर लेने की आकांक्षा है। हैं; ये तुमसे भी गहन संसारी हैं। तुम तो छोटे-मोटे से राजी हो, लोभ, स्वर्ग में कह रहा है, घबड़ाओ मत, वहां तुम जहां खड़े हो | छोटा-मोटा टीला सोने का काफी है; ये कहते हैं, सुमेरु पर्वत, वहीं जमीन आसमान को छुएगा। कल्पवृक्ष! आकांक्षा हुई नहीं कैलाश, हिमालय! इनका लोभ तुमसे बड़ा है। 'नरस्स कि पूरी हुई। तुमने चाहा नहीं कि पा लूं क्षितिज को और क्षितिज लुद्धस्स न तेहि किंचि!' इनका लोभ इन्हें गिद्ध बना रहा है। ये खुद चला आएगा। तुम्हें जाना न पड़ेगा। बैठे व्यर्थ की आकांक्षा लगाए। ये जो आकांक्षाएं हैं, ये धार्मिक नहीं हैं ये अधार्मिक आदमी गिद्धों को देखा है। जहां लाश पड़ी है, वहीं मंडराते हैं। ऐसा की आकांक्षाएं हैं। संसार में आकांक्षा हार गई तो वह कहता है, ही लोभ भी गिद्ध की भांति व्यर्थ पर, असार पर, मुर्दे पर मंडराता कोई हर्ज नहीं, स्वर्ग में पूरी कर लेंगे; जो यहां नहीं हुआ उसे वहां | है। और जीवन चूका जाता है। पूरा कर लेंगे। यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को यह जन्नत मुबारिक रहे जाहिदों को कि मैं आपका सामना चाहता हूं। कि मैं आपका सामना चाहता हूं। जिसने समझा लोभ के सत्य को, वह लोभ से मुक्त हुआ। 1481 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन एक सुअवसर है ऐसा नहीं कि वह चेष्टा करता है मुक्त होने की; क्योंकि चेष्टा तो मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, अभी तो हम जवान हैं। तभी होती है जब नया लोभ पैदा हो। समझना! तुम तो चेष्टा कब तक रहोगे जवान? टालो! चलो जवानी के नाम पर टालो कर ही नहीं सकते बिना लोभ के। कि जब बूढ़े होंगे तब। बूढ़ा आदमी कहता है, अभी तो मैं जिंदा मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, 'ध्यान तो करें, लेकिन हूं। टालो! जब मर जाओगे तब? कोई न कोई बहाना लाभ क्या? कोई लाभ बताएं।' तो मैं उनसे कहता हूं, तुम आदमी खोजे जाता है। लेकिन असली बहाना यह है कि तुम्हें महर्षि महेश योगी के पास जाओ। वे लाभ बताते हैं। वे कहते वस्तुतः धर्म में कुछ लाभ नहीं दिखाई पड़ रहा। सुनते हो बातें हैं, धन भी बढ़ेगा ध्यान करने से। तब तो अमरीका में इतना महावीरों की, बुद्धों की-चमत्कृत हो जाते हो। सुनते हो प्रभाव है। ध्यान में किसकी चिंता है! धन बढ़ाना है! धन भी गुणगान उस परम दशा का, तुम्हारे भीतर लोभ जगता है कि अरे, बढ़ेगा ध्यान करने से! कभी सोचा नहीं था किसी ने कि ध्यान | हमें यह भी मिल जाए! लेकिन जो तुम्हें मिल रहा है, मिला हुआ करने से धन बढ़ता है। लेकिन अगर लोगों को ध्यान में लगाना है, या मिलने की आशा में है, उसके साथ-साथ मिल जाए! यह हो तो धन बढ़ाने का प्रलोभन देना जरूरी है। धन में ही लोग भी तुम्हारा लोभ ही बनता है। उत्सुक हैं, ध्यान में उत्सुक नहीं। उन्हें ध्यान का पता ही नहीं। और ध्यान?-तुलसी ने कहा है: स्वांतः सुखाय तुलसी ध्यान का अर्थ है : ऐसी मनोदशा जिसके पार कोई लोभ की रघुनाथ गाथा! अपनी प्रसन्नता के लिए, आनंद के लिए! कोई आकांक्षा नहीं है। पूछता है कि क्यों गाए जाते हो राम के गीत! स्वांतः सुखाय अब तुम पूछते हो, 'ध्यान से लाभ क्या?' कुछ भी लाभ तुलसी रघुनाथ गाथा-अपने सुख के लिए। कहीं कोई भविष्य नहीं है। कमल खिलते हैं-लाभ क्या? सरज निकलता में लाभ नहीं है। अभी. यहीं मजा आ रहा है। मैं ही तमसे है-लाभ क्या? परमात्मा है-लाभ क्या? बुद्ध और बोल रहा हूं-स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। बोल रहा | महावीर सिद्धशिलाओं पर बैठे हैं-लाभ क्या? हूं-न कोई लाभ है, न कोई लोभ है। बोल रहा हूं, ऐसे ही जैसे तुम सोचते हो कि पच्चीस सौ साल में खूब धन इकट्ठा कर पक्षी कलरव कर रहे हैं वृक्षों में। काश, तुम भी ऐसे ही सुन सको लिया होगा महावीर ने सिद्ध शिला पर बैठे-बैठे, खूब दुकान | जैसे मैं बोल रहा हूं! तो ध्यान हो गया। चलाई होगी? लाभ क्या? ध्यान के लिए कुछ करने का थोड़े ही सवाल है। ध्यान तो एक बड रसेल ने लिखा है कि यह पूरब के लोगों का मोक्ष मुझे | समझ की दशा है, एक प्रज्ञा की स्थिति है। जहां लोभ गिर गया घबड़ाता है-सीधा साफ गणित वाला आदमी है-मुझे वहां ध्यान। जहां तुमने लोभ की असारता संपूर्णता से जान ली घबड़ाता है। अनंत काल तक वहां बैठे-बैठे करेंगे क्या? एक और पहचान ली, कि यह असंभव आकांक्षा है, पूरी नहीं होगी। दफा मुक्त हो गए, हो गए; फिर लौटने का तो उपाय भी नहीं है। इसमें तम्हारी कमजोरी का सवाल नहीं है। तम कितने ही संसार से बाहर जाने की व्यवस्था है, भीतर आने की व्यवस्था | बलशाली होओ तो भी पूरी न होगी। नेपोलियन भी पूरी नहीं नहीं है। सोच-समझकर बाहर जाना—गए कि गए; फिर लाख करता, सिकंदर भी पूरी नहीं करता, चंगेज और नादिर और तैमूर सिर मारो, दरवाजा नहीं खुलता। अब तक जो भी मोक्ष गया, कोई पूरी नहीं करते। इसमें कमजोरी या ताकत का सवाल नहीं लौटकर नहीं आ पाया। इसीलिए जो समझदार हैं, वे कहते हैं, है। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश जल्दी क्या है? वे कहते हैं, पहले इसको तो भोग लें! कर रहा है। इसमें ताकत और कमजोरी का थोड़े ही सवाल है। देख ले इस चश्मे-दहर को दिल भरकर 'नज़ीर' | रेत में तेल है ही नहीं. तो निचडेगा कैसे? फिर तेरा काहे को इस बाग में आना होगा। लोभ से जो आनंद को निचोड़ने की कोशिश कर रहा है, बस खूब देख लो दिल भरकर! लौटकर आना...कोई आया उलझ गया। कोशिश जारी रहेगी, हाथ कभी कुछ भी न लगेगा। नहीं। इसलिए लोग कहते हैं, थोड़ा टालो मोक्ष को, इतनी जल्दी 'कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत कहां है! हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता।' 1149 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः । तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है। का ही खेल है। जो है वह तो सदा वर्तमान है। जिस दिन तुम्हारे लोभ की दौड़ में तम कछ गंवा रहे हो, मिलता तो | मन में कोई लोभ न होगा, उसी दिन तम पाओगे, भविष्य भी खो कुछ भी नहीं। एक बात तय है कि मिलता कुछ भी नहीं। लेकिन | गया। लोभ भविष्य है। भय अतीत है। भय के कारण तुम गंवा तुम बहुत कुछ रहे हो। कमा तो कुछ भी नहीं पाते, गंवाते अतीत को पकड़े रहते हो। क्योंकि कुछ तो सहारा चाहिए, नहीं बहुत हो। अपने को गंवा रहे हो। धन के ठीकरे इकट्ठे करोगे, तो गिर पड़ेंगे अखंड खड्ड में। पकड़े रहते हो कि मैं कौन आत्मा को बेचते जाओगे टुकड़ा-टुकड़ा करके; क्योंकि बिना | हूं-जाति, कुल, धर्म, परिवार, वंश, प्रतिष्ठा, पद, उपाधि, अपने को बेचे यह धन इकट्ठा न होगा। बिना अपने को बेचे तुम जो-जो किया उस सबका सार संग्रह-तुम पकड़े रहते हो। लोभ की दौड़ में न लग पाओगे। हर कदम, लोभ की दिशा में अतीत को पकड़े रहते हो, क्योंकि वही लगता है कि उसी को उठाया गया, आत्मघात है। यह जिस दिन जीवन का दीया बुझने पकड़कर लटके रहें, अन्यथा शून्य है विराट। अगर कोई सहारा लगेगा उस दिन पछताओगे, उस दिन रोओगे; लेकिन तब बहुत | न रहा पीछे, शून्य में गिर जाएंगे। देर हो चुकी होगी। अतीत को पकड़े हो-भय के कारण। और भविष्य को तूफाने-दो-गम में न गुल हो सकी मगर जिलाए रखते हो, जगाए रखते हो-लोभ के कारण। लोभ शम-ए-हयात सांस के झोंके से बझ गई। और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए लोभी कभी बड़े-बड़े तूफान और दुख और दर्द भी जिसे नहीं बुझा पाते, भय से मुक्त नहीं हो सकता और भयभीत कभी लोभ से मुक्त वह जिंदगी बस जरा से सांस के झोंके से बुझ जाती है। नहीं हो सकता। तूफाने-दर्दो-गम में न गुल हो सकी मगर तुमने देखा! जितना तुम्हारे पास धन इकट्ठा होता जाता है, शम-ए-हयात सांस के झोंके से बुझ गई। उतना ही भय भी बढ़ता जाता है। यह बड़ा अजीब मामला है। पर जिस दिन वह जीवन की शमा, वह जीवन की ज्योति सांस लोग धन इकट्ठा करते हैं ताकि भय न रहे जीवन में; लेकिन के जरा-से झोंके में बुझने लगेगी, उस दिन पछताओगे, छाती | जैसे-जैसे धन इकट्ठा होता है, वैसे-वैसे भय बढ़ता है, घटता पीटोगे, रोओगे। मेरे देखे मरते वक्त आदमी का जो रुदन है, नहीं। अब और एक नया भय लगता है कि कोई धन न छीन ले। मरते वक्त आदमी की जो पीड़ा है, वह मृत्यु के कारण नहीं | अब एक नया भय लगता है कि कहीं जो मिला है वह खो न है—वह व्यर्थ गए जीवन के कारण है। सारा जीवन असार | जाए! मिला कुछ भी नहीं है; लेकिन खो न जाए, यह भय गया, हाथ यह मौत आई अब। क्या-क्या चाहा था! | तुम्हारे जीवन को घेर लेता है। तब तुम और ज्यादा दौड़ में लगते कैसी-कैसी चाहत न की थी! कैसे-कैसे इंद्रधनुष फैलाए थे हो कि और कमाओ, और इकट्ठा करो। इसलिए तो देने में डरते वासनाओं के! वह तो कुछ भी हाथ न आया। हाथ यह मौत हो कि कहीं दे दिया तो फिर भय में खड़े हो जाओगे। इकट्ठा होता आई है। जिसको कभी न चाहा था वह हाथ आई। जिसको कभी जाता है, कृपणता बढ़ती चली जाती है। जितना धनी, उतना न मांगा था वह मिली। जिसकी कभी आरजू न की थी, मिन्नत न | ज्यादा कृपण हो जाता है। गरीब तो शायद कुछ दे भी दे, क्योंकि की थी, प्रार्थना न की थी, जिसके लिए परमात्मा के द्वार पर कभी वह कहता है, दे भी दिया, तो क्या हर्ज है, वैसे ही कुछ नहीं है; दस्तक न दी थी, वह मिली। और जो-जो चाहा था वह तो मिला | होता तो बचाते, जब है ही नहीं तो बचाना क्या! अमीर तो कुछ ही नहीं। उसको पाने की कोशिश में जो जीवन मिला था वह भी भी नहीं दे पाता। एक-एक पैसे का हिसाब रखता है। अब गंवा दिया। डरता है कि एक भी पैसा खिसका तो कम हुआ। अब यह बड़े इसलिए धार्मिक व्यक्ति कल का भरोसा नहीं करता। वह कल मजे की बात है, मिला कुछ भी नहीं है। लेकिन कम होने का डर पर नहीं टालता। कल पर टालना ही लोभ है। लोभ का अर्थ है: | पकड़ता है। कोई छीन न ले! धन की आकांक्षा भय से होती कल मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति कहता है, अभी जिएंगे, यहीं है-धन पाकर भय और दुगना हो जाता है। जिएंगे। कल होता कहां? भविष्य है कहां? भविष्य तुम्हारे मन तुमने भय के कदम देखे! लोभ के पीछे-पीछे ही चलते हैं। 1500 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन धार्मिक व्यक्ति अभी जीता है। मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। आज काफी है। यह क्षण काफी है। इस क्षण में जो जीता है, वही ध्यान में है। जिसने पूछा, ध्यान का लाभ क्या, वह कल पर सरक गया। उसने पूछा, लाभ क्या ? मिलेगा क्या ? कृष्ण की पूरी गीता बस इतनी-सी ही बात कहती है: मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा - रहित होकर तू कर्म में जुट जा—यही ध्यान है, यही धर्म है । फलाकांक्षा यानी लोभ । तू यह मत पूछ कि क्या मिलेगा। जैसे ही कोई व्यक्ति लोभ को हटाकर जीना शुरू कर देता है, उसके जीवन में ध्यान की वर्षा हो जाती है, उसका कण-कण ध्यान से भर जाता है। लोभ के बादल को हटाओ, ध्यान का आकाश उपलब्ध हो जाता है। 'जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।' महावीर की ब्राह्मण की परिभाषा: 'जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलितं कामेहिं तं वयं बूम माहणं ।।' उसे कहते हैं हम ब्राह्मण, जो कामवासना में पैदा हुआ, कामवासना में ही जन्मा और बड़ा हुआ, कामवासना के ही जगत में जीता है - लेकिन कमल के फूल की भांति, अलिप्त, जगत उसे छू नहीं पाता । इसे समझें । हिंदू - शास्त्र भी कहते हैं कि जन्म से तो सभी शूद्र हैं। जन्म से तो सभी शूद्र हैं ही; क्योंकि जन्म ही कीचड़ में होता है, जन्म ही कामवासना में होता है। जन्म ही असंभव है कामवासना के बिना। तो जन्म से तो सभी कीचड़ हैं, शूद्र हैं। फिर इनमें से ब्राह्मण कोई बन सकता है, बनना चाहे । सभी बन सकते हैं, बनना चाहें। लेकिन ब्राह्मण कोई तभी बनता है, जब कमल की भांति कीचड़ से दूर होता जाता है— इतना दूर, इतना पार और जीवन एक सुअवसर है इतना अलिप्त कि जल उसे छू भी नहीं पाता; ऐसा निर्दोष कि कुछ भी उसे दोषी नहीं कर पाता; ऐसा पुण्य का फूल कि पाप उसे छू भी नहीं पाता। पाप में ही खड़ा रहेगा, क्योंकि जाओगे कहां? संसार से भागोगे कहां ? जहां जाओगे वहां भी संसार है। जहां भी जाना-आना हो सकता है वहां संसार है । इसलिए तो हम संसार को आवागमन कहते हैं - आना-जाना । तो कहां जाओगे ? कहां आओगे ? जहां भी जाओगे, जहां भी आओगे, वहीं संसार है। ठहर जाओ! आना-जाना छोड़ो ! जहां हो वहीं ठहर जाओ! भीतर उतरो ! इतने भीतर उतर जाओ कि बाहर की धुन भी न पहुंचे ! इतने भीतर उतर जाओ कि बाजार चलता रहे और चलता रहे और तुम्हें पता भी न चले। इतने भीतर उतर जाओ कि पत्नी पास हो, बच्चे पास हों, मकान हो, घर-गृहस्थी हो, सब हो - लेकिन तुम भीतर अकेले हो जाओ। सबके बीच जो अकेला हो गया, वही संन्यासी है। भीड़ के बीच जो भीड़ का हिस्सा न रहा, वही संन्यासी है। जल में कमलवत - महावीर कहते हैं—यही मेरी व्याख्या है। ब्राह्मण की ! इसलिए ब्राह्मण कोई जाति से नहीं होता, न जन्म से होता है। जन्म और जाति से तो सभी शूद्र हैं। ब्राह्मण तो कोई उपलब्धि से होता है। इसलिए महावीर ने वर्ण-व्यवस्था नहीं मानी। महावीर ने कहा, यह कैसे हो सकता है कि कोई कहे, कि मैं ब्राह्मण हूं जन्म से ! जन्म से तो कोई ब्राह्मण नहीं होता – जागरण से कोई ब्राह्मण होता है। होश से कोई ब्राह्मण होता है। 'जीव ही ब्रह्म है। देहासक्ति से मुक्त होकर मुनि की ब्रह्म के लिए जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्य है।' बड़ी प्यारी परिभाषा है ! ब्राह्मण की जो चर्या है, वह ब्रह्मचर्य । और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ब्रह्म है। 'जीव ही ब्रह्म है। देहासक्ति से मुक्त व्यक्ति की जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्या है, वही ब्रह्मचर्य है।' जैसे ही तुम शरीर के द्वारा नहीं जीते, शरीर का उपयोग करते हो, लेकिन शरीर के मालिक होकर जीते हो; शरीर सेवक हो जाता तुम स्वामी हो जाते - उसी क्षण तुम्हारे भीतर के ब्रह्म का आविष्कार हुआ; तुमने जाना, तुम कौन हो। और उस जानने के बाद जो आचरण है, वही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का इतना छोटा-सा अर्थ जो लोग ले लेते हैं - वीर्य - नियमन – काफी 151 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 जिन सूत्र भाग: 1 नहीं है। एक हिस्सा है, लेकिन पूरा नहीं है। पूरा अर्थ तो ब्रह्मचर्य शब्द में छिपा हुआ है – ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्वर जैसा आचरण । तुम्हारे भीतर जो ईश्वर छिपा है उससे जब तुम जीने लगोगे तो ब्रह्मचर्य। स्वभावतः वीर्य नियमन अपने से आ जाएगा, उसे लाना भी न पड़ेगा। वह उसके साथ आया हुआ अनुषंग है। अभी तो हम ऐसे जीते हैं जैसे शरीर हैं। शरीर में हैं, ऐसे भी नहीं - शरीर ही हैं, ऐसे जीते हैं। अभी तो कोई तुम्हारा शरीर काट दे तो तुम समझोगे कि तुम कट गए। अभी तो कोई शरीर को मार डाले तो तुम समझोगे कि तुम मर गए। अभी तो शरीर से तुमने अपने पृथक 'होने' को जरा भी नहीं जाना, रत्तीभर फासला नहीं कर पाए। काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो कि हे जल्लाद ! पंख काटकर तू निश्चित मत बैठ! रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का । पंखों से क्या लेना-देना है, आत्मा उड़ने का इरादा रखती है आकाश में। पंखों को काटकर तू निश्चित मत हो जा । जिस दिन ऐसी घड़ी आती है कि तुम मौत से कह सकोगे कि काट डाल शरीर को, लेकिन इससे निश्चित होकर मत बैठना, क्योंकि मैं अनकटा पीछे हूं। शरीर से थोड़े ही चलता था - शरीर मेरे कारण चलता था। मैं चलता रहूंगा। शरीर से थोड़े ही उड़ता था - शरीर मेरे कारण उड़ता था। मैं उड़ता रहूंगा। काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का । लेकिन जब तुम अपनी रूह को पहचान सको, आत्मा को अलग शरीर से, तब तुम मौत से भी हंसकर दो बातें कर सकोगे। धीरे-धीरे उतरो भीतर। शरीर को देखो और पहचानो - मेरी खोल है, मेरे घर की दीवाल है । और भीतर उतरो - विचार को पकड़ो और पहचानो । विचार तुम नहीं हो, क्योंकि तुम उसे भी देख सकते हो। और थोड़े भीतर उतरो - वासना, भावना को पकड़ो, पहचानो। यह भी तुम नहीं हो, क्योंकि तुम काट कर पर मुतमईन सैयाद बेपरवा न हो रूह बुलबुल की इरादा रखती है परवाज का। ऐसी घड़ी अभी तुम्हारे पास नहीं आई कि तुम मौत से कह पहचाननेवाले हो, देखनेवाले हो, द्रष्टा हो। ऐसे चलते चलो, सकोचलते चलो-उस घड़ी तक, जब केवल द्रष्टा रह जाए, और देखने को कुछ भी न बचे, शुद्ध दर्शन हो ! जिसके पीछे तुम न जा सको - वही तुम हो। जिसके और पीछे तुम न जा सको― वही तुम हो। ऐसे पीछे उतरते-उतरते-उतरते साक्षी पकड़ में आता है। बस उसके पार फिर कोई नहीं जा सकता। साक्षी के साक्षी तुम नहीं हो सकते हो । आखिरी घड़ी आ गई। बुनियाद आ गई अस्तित्व की । भूमि आ गई, जिस पर सब खड़ा है, सारा महल खड़ा है। जिसने इस अस्तित्व की बुनियाद को पकड़ लिया, आत्मा को पकड़ लिया, वही ब्राह्मण है। और उसके जीवन की चर्या ब्रह्मचर्य है। 'जीव ही ब्रह्म है।' जो अपने भीतर उतरेगा, पाएगा। लेकिन जिनको तुमने धर्म जाना है, वे तुम्हें भीतर तो उतरने की तरफ नहीं ले जाते, वे तुम्हें बाहर के मंदिरों-मस्जिदों में भटकाते हैं। वे तुम्हारे हाथ में कुछ झूठे धर्म पकड़ा देते हैं। इन्हीं धर्मों के कारण दुनिया में इतना अधर्म है। हम तो 'ताबां' हुए हैं लामजहब मजहला देख सब के मजहब का । — यह सब उपद्रव और अज्ञान देखकर, मजहब के नाम पर जो चलता है, बहुत-से धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक हो जाते हैं। तुम्हें पहुंचाना है तुम्हारे भीतर; कहीं और मंदिर नहीं है। तुम्हें लगाना है तुम्हारी पूजा और अर्चना में; कहीं और देवता नहीं है। तुम्हें जगाना है वहां, जहां तुम्हारी चैतन्य की धारा उठती है— उसी गंगोत्री में। 'विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी अटवी को जला देती है, किंतु यौवनरूपी तृण पर संचरण करने में कुशल जिस महात्मा को वह नहीं जलाती या विचलित नहीं करती, वह धन्य है । ' 'जो रात बीत रही है वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करनेवाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।' विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी अटवी को जला रही है। तीनों लोक जल रहे हैं एक ही कामना में। नर्क तो जल ही रहा है। तुमने नर्क की कथाएं सुनी हैं- अग्नि की Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन एक सुअवसर है लपटें, और लोग जलाए जा रहे हैं। लेकिन तुमने जरा गौर से विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों. लोकरूपी अपने आसपास देखा, यहां क्या हो रहा है। लपटें यहां भी हैं | अटवी को जला रही है।' और लोग जल रहे हैं! लपटें जरा सूक्ष्म हैं-वासना की हैं, नर्क तो जल ही रहा है; साफ-साफ लपटें हैं उसकी। पृथ्वी काम की हैं, दिखाई नहीं पड़तीं। शायद नर्क की लपटें ज्यादा भी जल रही है। लपटें उतनी साफ नहीं हैं। स्वर्ग भी जल रहा स्थूल होंगी। लेकिन स्थूल लपटों के साथ तो कुछ उपाय भी है; लपटें और भी सूक्ष्म हैं स्वर्ग में। पृथ्वी पर तो लपटें पाप की किया जा सकता है, क्योंकि दिखाई पड़ती हैं। | हैं। स्वर्ग में लपटें पुण्य की हैं-और भी सूक्ष्म हैं। देवता भी मैंने सुना है, एक धनपति मरा। कंजूस था बहुत। तो मरते जल रहे हैं। देवताओं की भी भाग-दौड़ मची है—वही वासना, वक्त उसने अपनी पत्नी से कहा कि मेरे कपड़े पहनाने की लाश | वही उपद्रव, वही नाच-गान। और वहां भी घबड़ाहट है। वहां को कोई जरूरत नहीं है। सम्हालकर रखना, बच्चों के काम आ भी तृप्ति मालूम नहीं होती। जाएंगे। पत्नी ने कहा, 'क्या बात करते हो! नंगे जाने का सोचते कथा है उर्वशी की। पृथ्वी पर विचरण करने आई थी, पुरुरवा हो?' धनपति ने कहा, 'मुझे पता है, कहां जाना है। वहां काफी | के प्रेम में पड़ गई—एक मृत्य के प्रेम में, एक पृथ्वीवासी के प्रेम गर्मी है। तू फिक्र मत कर।' मर गया, लेकिन दूसरे ही दिन रात में। देवताओं से तृप्ति न मिली। देवता नहीं तृप्त कर पाए। जो आकर दरवाजे पर उसने खटखट की। पत्नी घबड़ाई। उसने | भी मिल जाए उससे तृप्ति नहीं होती। अप्सराएं तड़पती हैं पृथ्वी कहा कि सुन, मेरा कोट कमीज सब निकालकर दे। पत्नी ने कहा के पुरुषों के लिए। यह कथा है उर्वशी की। पृथ्वी के लोग तड़फ कि तुम तो कहते थे ऐसी जगह जाना है, जहां काफी गर्मी है। रहे हैं अप्सराओं के लिए। कुछ मामला ऐसा है कि जो जहां है उसने कहा, 'वहीं गया; लेकिन सभी धनी वहां गए हैं, उन्होंने वहां अतृप्त है। कहीं और, कहीं और होते तो तृप्ति हो जाती! सब एयरकंडीशन्ड कर डाला। मरा जा रहा हूं ठंड में, सिकुड़ा 'किंतु यौवनरूपी तृण पर संचरण करने में कुशल जिस जा रहा हूं। कपड़े दे। शीत सर्दी के सब कपड़े दे दे।' महात्मा को वह नहीं जलाती या विचलित नहीं करती, वह धन्य भूत लेने आया है कपड़े। तो नर्क में तो संभव भी है कि एयरकंडीशनिंग हो सके; क्योंकि तीनों लोक जल रहे हैं। जो इस विराट दावानल में अलिप्त लपटें बाहर हैं। यहां इस पृथ्वी पर लपटें बहुत अदृश्य हैं। बाहर खड़ा है, अनजला खड़ा है, जिसे कोई लपट भीतर से नहीं इतनी नहीं हैं जितनी भीतर हैं। रोएं-रोएं में हैं। तुम्हें कोई आग में | पकड़ती, जिसके भीतर कामवासना की लपट नहीं उठती-वह फेंक नहीं रहा है, तुम आग में ही खड़े हो।। धन्य है। कामवासना जलाती है, इसे देखा नहीं! कितना जलाती है। एक ही धन्यता को महावीर जानते हैं और वह धन्यता है किस बुरी तरह जलाती है! तृप्त होती ही नहीं। और तुम जो भी वासना की दौड़ से छूट जाना। क्योंकि वासना की दौड़ से छूटते कामवासना की तृप्ति के लिए आयोजन करते हो, वह सब अग्नि ही तुम आत्मा में थिर हो जाते हो। वासना ऐसे है जैसे हवा के में डाले गए घी की तरह सिद्ध होता है। और बढ़ती है, और थपेड़े, और लौ को डगमागाते हैं तुम्हारी ज्योति की, तुम्हारे दीये लपटें लेती है। एक स्त्री से तृप्त नहीं, दो स्त्री से तृप्त नहीं, तीन को। और वासना से छूट जाना ऐसे है जैसे हवाएं बंद हो गईं और स्त्री से तृप्त नहीं-किससे कौन तृप्त है! | ज्योति निष्कंप हो गई। वासना यानी आत्मा का डगमगाना। पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक मार्शल ने लिखा है कि आत्मा यानी वासना से मुक्त हो जाना। डगमगाहट गई, अकंप जीवन भर के अनुभव के बाद मैं यह कहता हूं कि मुझे सारी हुए! धन्य है वह व्यक्ति! स्त्रियां भी संसार की मिल जाएं, तो भी मैं तृप्त न हो सकूँगा। 'जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। अधर्म तप्त कोई हो ही नहीं सकता, क्योंकि तप्ति के लिए हम जो करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।' करते हैं वह घी सिद्ध होता है। अभ्यास और बढ़ता है। और जड़ें बहादुरशाह जफर ने मरने के पहले कुछ वचन कहे: मजबूत होती हैं मूढ़ता की। न किसी की आंख का नूर हूं 153 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 न किसी के दिल का करार हूं लाओत्सु। कुछ हैं थोड़े-से धन्यभागी, जिन्होंने जीवन इस तरह जो किसी के काम न आ सके से साधा कि मौत से बचकर निकल गये। मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूं। उनकी साधना की कला क्या है? -एक मुट्ठी भर धूल! उनकी कला का सूत्र महावीर कह रहे हैं: न किसी की आंख का नूर हूं! 'यौवनरूपी तृण पर संचरण करने में कुशल जिस महात्मा को -अब किसी के आंख की रोशनी नहीं हं मैं। वह नहीं जलाती या विचलित नहीं करती, वह धन्यभागी है।' न किसी के दिल का करार हूं! जो जीवन में रहते-रहते जीवन की वासना के पार हो जाता है, -न किसी के प्रेम, लागत, चाहत का विषय हूं, विषयवस्तु उसे मौत के आगे रास्ता मिल जाता है। क्योंकि मौत सिर्फ वासना की है, तुम्हारी नहीं है। जो किसी के काम न आ सके। अगर तुमने वासना को जीते-जी त्याग दिया, तो फिर तुम्हारी -अब तो बस हालत ऐसी है कि एक मुट्ठी भर धूल हूं जो कोई मौत नहीं है। अन्यथा, जिसको तुम जिंदगी कहते हो वह किसी के भी काम की नहीं है। बस नाममात्र को जिंदगी है—कहने को। जिंदगी जैसा क्या है आदमी की देखी हालत! जानवर मर जाते हैं तो कुछ काम भी वहां? कहां हैं अंगार? राख ही राख है। आ जाते हैं। हाथी मर जाए तो हजारों में बिकता है। जिंदा हाथी मुझसे जो पूछिए तो बहरहाल शक्र है की कीमत कम है, मरे की ज्यादा है। जिंदा को पाले कौन! न यूं भी गुजर गई मेरी यूं भी गुजर गई। राजा-महाराजा रहे, न महंत-अधिपति रहे-हाथी को पाले | बस ऐसी ही गुजरी जाती है। कौन! मर जाता है तो भी कीमत है लेकिन, हड्डियां बिक जाती लोग कहते हैं, सब ठीक है। पर कभी गौर से देखा, जब लोग हैं। आदमी अकेला प्राणी है संसार में जिसका मरने पर कुछ भी, कहते हैं सब ठीक है; तब उनके चेहरे पर कैसी उदासी होती है! कुछ काम नहीं आता; सब जलाने-योग्य सिद्ध होता है; सब | जब वे कहते हैं, सब ठीक है, तो जैसे कहते हैं, कुछ भी ठीक व्यर्थ सिद्ध होता है! कहां! मगर अब कहने से भी क्या सार है! सब ठीक है! जो किसी के काम न आ सके किसी से पूछो, कहो, क्या हालचाल हैं?— कहता है, सब मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूं। ठीक है, सब मजे में चल रही है! दिन रात बीते चले जाते हैं.... मुझसे जो पूछिए तो बहरहाल शुक्र है। बजुज गोरेगरीबां नक्शे-पा थे फिर नहीं आगे यूं भी गुजर गई मेरी यूं भी गुजर गई। यहीं तक हर मुसाफिर ने पता पाया है मंजिल का। बस किसी तरह ले-देकर गुजर जाती है। ऐसे-वैसे गुजर जाती लोगों को देखो! बस उनके पैर उनके मरघट तक जाते हैं। है। इसको तुम जिंदगी कहते हो जो ऐसे गजर जाती है? और वहां सब खो जाता है। अगर इसको जिंदगी कहते हो, तो किसी दिन रोओगे, तड़फोगे बजुज गोरेगरीबां नक्शे-पा थे फिर नहीं आगे-बस मौत तक और कहोगेः लोगों के पैरों के चिह्न दिखाई पड़ते हैं। यहीं तक हर मसाफिर ने मैं वो एक मश्तेगबार हं पता पाया है मंजिल का। जो किसी के काम न आ सके...! पर मौत मंजिल है कि कब्र गंतव्य है?...कि चले और गिरे गुजारो मत-जीयो! काटो मत-जीयो! गंवाओ कब्र में, तो जीवन का अर्थ क्या हआ, सार्थकता क्या हुई? नहीं, मत-जीयो। कुछ और भी लोग हुए हैं, थोड़े-से धन्यभागी लोग, जिन्होंने | 'जा जा वज्जई रयणी, ण सा पडिनियत्तई। मौत के आगे का भी पता पाया है। उन्हीं की हम यहां चर्चा कर अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।' रहे हैं—महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद, जरथुस्त्र, जो-जो रात बीत रही, लौटकर नहीं आएगी, नहीं आती है। 154 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं।' निष्फल मत जाने दो! ये दिवस-रात महंगे हैं। ये दिवस-रात बड़ी मुश्किल से मिले हैं। मनुष्य का जन्म दुर्लभ है। कोटि-कोटि योनियों के बाद मनुष्य हो पाता है। कितनी आकांक्षाओं, कितनी अभीप्साओं को लेकर तुम मनुष्य हुए हो ! अब इसे ऐसे ही मत गुजर जाने देना ! कितनी चेष्टाओं और कितने जन्मों के यात्रा - पथों के बाद, कितनी देहें, कितनी योनियों में भटकने के बाद, सौभाग्य का क्षण आया है कि तुम मनुष्य हुए हो? इसे ऐसे ही मत गंवा देना! ये दिन फिर लौटकर नहीं आते ! ये रातें गईं तो गईं। इनमें एक-एक क्षण को इस ढंग से जीना कि क्षण तो जाए, लेकिन अमृत की तुम्हें खबर दे जाए। क्षण तो जाएगा ही, लेकिन इस ढंग से निचोड़ लेना कि क्षण तो चला जाए, लेकिन सार तुम्हारे साथ रह जाए। क्षण तो जाए, लेकिन अमृत का द्वार खोलता जाए। यह जीवन तो जाएगा ही, लेकिन जाते-जाते तुम जीवन का ऐसा उपयोग कर लेना कि तुम इसके कंधों पर चढ़ जाओ और इसके पार देख लो। इसके पार जो है वही असली जीवन है। मनुष्य संक्रमण है, एक सेतु है। पीछे अतीत है---जानवरों का, पशु-पक्षियों का, पत्थरों का, पहाड़ों का। आगे परमात्मा है। तुम बीच के सेतु हो । यह मनुष्य कुछ घर नहीं है, जहां बस जाना है - यह धर्मशाला है, जहां रात टिके, सुबह जाना है। याद रखना, यात्रा अभी होने को है— हो नहीं गई ! अभी कुछ घटने को है, घट नहीं गया। तुम सिर्फ एक अवसर हो । अवसर को ही सत्य मत मान लेना । तुम सिर्फ एक संभावना हो, अनंत संभावना, जिसमें अगर ठीक से तैयारी चली, अगर तुम अपने को मंदिर बना पाए, तो किसी दिन, सत्य कहो, ब्रह्म कहो, या जो नाम तुम्हें पसंद हो, जीवन का वह भगवत रूप, भगवत्ता तुममें उतरेगी । तो इस जीवन को तुम भोग ही मत समझना - यह जीवन योग भी है । भोग का अर्थ है : गुजार दो; यह कर लो, वह कर लो; यह भोग लो, वह भोग लो। योग का अर्थ है : गुजारो ही मत, सुधारो भी। योग का अर्थ है; सजाओ, कोई मेहमान आने को है ! अतिथि आ रहा पास। ऐसा न हो कि वह आए और तुम्हें तैयार न पाए। तुम तैयार रहना, द्वार खोले ! सिंहासन सजाकर रखना! धूप-दीप, अर्चा, फूल, वंदनवार ! तुम्हारे क्षण अमृत जीवन एक सुअवसर है की तैयारी में लगें ! तुम्हारे दिवस और रात्रि ध्यान बन जाएं। धीरे-धीरे समाधि का संगीत तुम्हारे भीतर उठे, बजे! तो ही, तुम किसी दिन जान पाओगे —उसे, जो तुम हो ! जान पाओगे उसे, जो जीवन का अर्थ है, प्रयोजन है! जान पाओगे उसे, जो जीवन का गंतव्य है। उसे जाने बिना जो जीते हैं, वे नाममात्र को जीते हैं। उसे जानकर जो जीते, वही जीते हैं। उसे बिना जाने जो जीते, वे तो सिर्फ मरते। उसे जानकर जो मरते भी हैं, तो भी अमृत को उपलब्ध होते हैं। आज इतना ही। 155 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रवचन सम्यक ज्ञान मुक्ति है Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार आपने कहा कि सत्य संज्ञा नहीं है, क्रिया है। क्या प्रेम, आनंद, ध्यान, समाधि भी क्रिया ही हैं? क्या क्रिया का समझ से कोई संबंध नहीं? तीर्थंकर चौबीस ही क्यों, ज्यादा क्यों नहीं? क्या परंपरा की जरूरत नहीं है? क्या परंपरा से हानि ही हानि हुई है? क्या कारण है कि 'जिन' जैन बन कर रह गया? किसी सुंदर युवती को देख कर मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। क्या यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता की स्तुति? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग हला प्रश्न : आपने कल कहा कि सत्य संज्ञा नहीं कहते हैं, वृक्ष है। ऐसा कहना नहीं चाहिए। यह सत्य के है, क्रिया है। क्या इसी भांति प्रेम, आनंद, ध्यान, अनुकूल नहीं है। यह अस्तित्व का सूचक नहीं है। कहना समाधि जो भी स्वभावगत है, वह भी संज्ञा नहीं, चाहिए, वृक्ष हो रहा है। जब हम कहते हैं वृक्ष है, तब ऐसा वरन क्रिया है? और क्या क्रिया का समझ से कोई संबंध नहीं लगता है कि होना बंद हो चुका, कोई चीज है। जब हम कहते हैं है? कृपा कर समझाएं। | वृक्ष है, जितनी देर हमने कहने में लगाई कि वृक्ष है, उतनी देर में वृक्ष कुछ और हो चुका। कुछ पुराने पत्ते गिर गये। कुछ नई क्रिया है : जीवंतता। संज्ञा है : लाश। संज्ञा का अर्थ है : जो कोंपलें सरककर बाहर आ गयीं। कोई कली फूल बन गई। कोई चीज हो चुकी। क्रिया का अर्थ है : जो अभी हो रही, हो रही, हो फूल बिखर गया। वृक्ष उतनी देर में बूढ़ा हो रहा है। हम कहते रही। जैसे नदी बह रही है, नदी क्रिया है; तालाब नहीं बह रहा, | हैं, मकान है, लेकिन मकान भी जराजीर्ण हो रहा है; आज है तालाब संज्ञा है। बहाव जीवन है, ठहराव मृत्य है। कल नहीं हो जायेगा, अन्यथा महलों के खंडहर कैसे होते! हम जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, सभी क्रिया जैसा है। प्रेम भी कहते हैं, यह आदमी जवान है; अगर हम गौर से देखें तो कहना कोई वस्तु नहीं है। प्रेम भी प्रक्रिया है। करो तो है, न करो तो पडेगा, यह आदमी जवान हो रहा है या यह आदमी बढा हो रहा गया। जो तुमसे कहता है, मैं तुम्हें प्रेम करता है, उसका प्रेम भी है। 'है' की कोई अवस्था नहीं है। उन्हीं क्षणों में होता है जब वह करता है; जब नहीं करता तब प्रेम यूनान के बहुत बड़े मनीषी हैराक्लतु ने कहा है, तुम एक ही खो जाता है। नदी में दुबारा नहीं उतर संकते। दुबारा उतरने को वही नदी प्रेम को बनाये रखना हो तो क्रिया को जारी रखना पड़े। ध्यान पाओगे कहां? पानी बहा जा रहा है। भी तभी होता है जब तुम करते हो; जब तुम नहीं करते, खो जाता | फिर हैराक्लतु के एक शिष्य ने कहा कि अगर हैराक्लतु सही है है। जो तुम करते हो वही होता है। श्वास भी तुम जब तक ले रहे तो एक ही नदी में एक बार भी कैसे उतरा जा सकता है? जब हो, तभी तक है; जब न लोगे, तब कैसी श्वास? तुम्हारे पैर ने नदी की ऊपर की सतह छई, तब नदी और थी; जरा जीवन का बड़ा गहनतम सत्य है कि यहां सभी प्रक्रियाएं हैं। पैर नीचे गया, तब नदी और हो गई; और तलहटी तक पहुंचा, विज्ञान ने भी इस सत्य को उदघोषित किया है। तब तक नदी और हो गई। गंगा बही जाती है। बहाव में गंगा बड़े वैज्ञानिक एडिंगटन ने लिखा है कि 'ठहराव' झूठा शब्द है। इसलिए सब हो रहा है। है, क्योंकि कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। सब हो रहा है। इसलिए | तुम हो, ऐसा नहीं-तुम हो रहे हो। ठहराव को प्रदर्शित करनेवाले सभी शब्द अज्ञान-सूचक हैं। हम जीवन एक घटना है, वस्तु नहीं। और जिसने जीवन का यह 1611 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 घटनामय रूप देखा, उसके भीतर जीवन बड़ी प्रज्वलता से अब नहीं है। न मैं वही हूं, न तुम वही हो। छोड़ो भी! जाने भी जलेगा। तब तुम यह नहीं कहोगे कि प्रेम कोई स्थायी निधि है, दो! उन बातों में पड़ने की जरूरत कहां है? एक तो तुमने कि रखी है हृदय में! प्रेम भी श्वास जैसा है; लो तो है, न लो तो थूककर गलती की, फिर रातभर व्यर्थ की चिंता की। अब नहीं है। | पश्चात्ताप कर रहे हो। अब छोड़ो! मेरी तरफ देखो। मैं वह नहीं तुम जो करते हो, उस कृत्य में ही चीजें होती हैं। तुम जो हो | हूं, जिस पर तुम थूक गये थे। तुम भी वह नहीं हो। उससे तुम्हारी कोई स्थिति का पता नहीं चलता, सिर्फ तुम्हारी आनंद, बुद्ध का शिष्य, पास बैठा था। उसने कहा कि ठहरें, क्रिया का पता चलता है। तुम कहते हो, यह आदमी साधु है। यह बात दर्शनशास्त्र की नहीं है। यह आदमी थूक गया था और इसका केवल इतना ही अर्थ हुआ, यह आदमी साधु होने में लगा | वही आदमी है। बुद्ध ने कहा, 'तुम थोड़ा देखो आनंद! कल है। यह आदमी साधुता को सम्हाल रहा है। तुम कहते हो, यह | यह थूक गया था, आज यह क्षमा मांगने आया है-वही आदमी आदमी ध्यानी है। इसका इतना ही अर्थ होता है कि यह ध्यान की हो कैसे सकता है? जो थूक गया था और जो क्षमा मांगने आया श्वासें ले रहा है। | है, इसमें तुम्हें भेद नहीं दिखायी पड़ता? तुम चेहरे से धोखे में यहां सब चीज चल रही है, कोई चीज ठहरी नहीं है। सब आ रहे हो। जरा भीतर देखो। यह आदमी वही नहीं है, नहीं तो रूपांतरित हो रहा है, प्रतिपल रूपांतरित हो रहा है। प्रतिपल नया थूकता। यह तो क्षमा मांगता है। यह कोई और है। यह किसी घट रहा है, पुराना जा रहा है। इसलिए तो कहते हैं, पुराने से मोह | नये का आविर्भाव हुआ है। तुम इस नये के दर्शन करो।' मत रखो; क्योंकि तुम्हारा मोह तुम्हें अटकायेगा। और जीवन | लेकिन आनंद मानने को राजी नहीं है, क्योंकि आनंद तो कल और तुम्हारा छंद टूट जायेगा। इसलिए तो कहते हैं, भविष्य की को ही पकड़े बैठा है। जो तुम्हें कल गाली दे गया था, वह आज चाह मत करो; क्योंकि भविष्य अभी नहीं है। अतीत न हो जब तुम्हें दुबारा मिले तो तुम कल को पकड़कर मत बैठना; चुका, भविष्य अभी नहीं है। जो न हो चुका उसे पकड़ोगे तो अन्यथा तुम जो आज आया है, उसे न देख पाओगे। हो सकता मुश्किल में पड़ोगे, अड़चन पैदा होगी; जो अभी नहीं है उसे तो है, क्षमा मांगने आया हो। कल जो मित्र था, आज शत्रु हो पकड़ोगे कैसे? सिर्फ कल्पना करोगे। जो है, उसे देखो। और सकता है। जो आज शत्र है, कल मित्र हो सकता है। जो है, वह प्रतिपल बहा जा रहा है। इस बहती गंगा का ध्यानी अपने को सतत खाली रखता है, निर्मल रखता है, साक्षात्कार करो। आंख खुली रखता है। बादल नहीं इकट्ठे करता। तथ्य को बुद्ध के ऊपर कोई एक व्यक्ति आया और थूक गया। नाराज देखता है, जैसा अभी है। न तो कल से तौलता है, न आनेवाले था बहुत। बड़े क्रोध में था। बुद्ध जैसे व्यक्तियों का होना भी कल से तौलता है। जैसा अभी है, उस तथ्य को देखता है। कुछ लोगों को बड़े क्रोध से भर देता है। क्योंकि बद्ध जैसे | लेकिन इस तथ्य को देखने के लिए तुम्हें भी सत्य होना पड़े। व्यक्तियों के होने से कुछ लोगों के होने की असंभावना पैदा हो इसलिए महावीर ने सत्य को समस्त धर्म का सार कहा। तप और जाती है। बुद्ध की मौजूदगी अहंकार को तोड़ती है। बुद्ध की | संयम, और शेष सब गुण उसमें समाविष्ट हैं। मौजूदगी कहती है कि तुम भी ऐसे हो सकते थे, न हो पाये। बुद्ध सत्य का अर्थ हआ : भीतर तुम जो हो, वही रहो। तो बाहर भी की मौजूदगी तुम्हें तुम्हारे सत्य से परिचित कराती है। बुद्ध का तुम उसी को देख पाओगे, जो है। हम बाहर वही देखते रहते हैं, फूल तुम्हें तुम्हारे कांटे की तरफ इशारा करवाता है। नाराजगी जो नहीं हैं। अतीत बड़ा बोझिल है। भविष्य भी बड़ा बोझिल पैदा होती है। है। और इन दोनों की कशमकश में, इन दो चक्कियों के पाट के ...थूका बुद्ध के ऊपर। बुद्ध ने पोंछ लिया अपनी चादर से। बीच वर्तमान का छोटा-सा क्षण पिस जाता है। तुम या तो दूसरे दिन वह आदमी क्षमा मांगने आया। रात भर सो न सका। कल्पना करते हो, या याददाश्तों में खोये रहते हो। तुम देखते ही बुद्ध ने कहा, 'नहीं, क्षमा की कोई बात नहीं; क्योंकि जो थूक | नहीं, जो तुम्हारे पास से गुजर रहा है। गया था, वह अब है ही कहां! जिस पर थूक गया था, वह भी जीवन को तथ्य में देखो। लेकिन उस देखने के लिए तुम्हें 162 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक ज्ञान मुक्ति है सत्यमय होना पड़ेगा। जो सत्य है, वह सत्य को देखेगा। और | कि उसे हंसी आ रही है, लेकिन समाज नियमन करेगा कि सब तब तुम्हें संज्ञाएं न दिखायी पड़ेंगी, क्रियाएं दिखायी पड़ेंगी। स्थान सब समय हंसने के योग्य नहीं हैं। कोई मर गया हो और आत्मा कोई वस्तु थोड़े ही है कि तुम उसे मुट्ठी में बांध ले सकते तुम हंसने लगो...। हो-आत्मा तो तुम्हारे भीतर चैतन्य की सतत प्रक्रिया है। वह मेरे एक शिक्षक मर गये थे। बड़े सीधे-साधे शिक्षक थे। जो चैतन्य का आविर्भाव हो रहा है पल-पल, वह जो साक्षी जन्म रहने-सहने का ढंग भी उनका बड़ा सीधा-साधा था। एक बड़ी रहा है शून्य से निरंतर-वही है आत्मा। पगड़ी बांधते थे। अकेले ही थे उस पूरे गांव में, जो उतना बड़ा मनस्विद कहते हैं कि आदमी जब पैदा होता है तो शून्य की पग्गड़ बांधते थे। चलते भी ऐसे ढीले-ढाले थे। संस्कृत के तरह पैदा होता है। बच्चा पैदा हुआ, शून्य की तरह पैदा होता| शिक्षक थे। तो उनको लोग पोंगा-पंडित ही समझते थे। स्कूल है। अभी उसे कुछ भी पता नहीं है। वह है, ऐसा भी पता नहीं में उनका नाम बच्चों ने 'भोलेनाथ' रख लिया था। जैसे ही वे है। इसे होने के लिए भी थोड़ी देर लगेगी। लेकिन पैदा हुआ है, | आते, बच्चे कहने लगते : 'जय भोले बाबा!' उनकी कमीज तो शून्य की तरह—यह उसकी पहली जीवन-घटना है। लेकिन पर पीछे लिख देते : 'जय भोले बाबा!' बोर्ड पर लिख देते: जैसे ही बच्चा पैदा हुआ, मिटने का भय समाने लगता है। जब भोलानाथ। वे नाराज भी होते थे, लेकिन उनकी नाराजगी भी हुए, तो मिटने का भय भी आता है। भूख लगती है, प्यास बड़ी प्रीतिकर थी। वे बड़ी नाच-कूद भी मचाते थे, बड़े गुस्से में लगती है-मिटने का भय पकड़ने लगता है। तो पहली जो भी आ जाते थे। मरने-मारने की जैसी हालत होती, लेकिन तुम्हारे भीतर गहनतम स्थिति है, वह तो शून्य की है। उसे मारते-करते किसी को न थे। सीधे-साधे आदमी थे। शोरगुल महावीर आत्मा कहते हैं। बुद्ध उसे अनात्मा कहते हैं। दोनों कहे मचाकर चुप हो जाते थे। जा सकते हैं-आत्मा, क्योंकि वह तुम्हारा स्वरूप वे मरे तो मैं अपने पिता के साथ उनके घर गया। उनकी लाश है-अनात्मा, क्योंकि वहां 'मैं' जैसा कोई भाव नहीं, शुद्ध | पड़ी थी। और उनकी पत्नी आयी और उनकी छाती पर गिर पड़ी स्वरूप है। 'मैं' भी नहीं है वहां। लेकिन जैसे ही बच्चा पैदा | और कहा, 'हाय, मेरे भोलेनाथ!' भोलेनाथ कहकर हम उन्हें हुआ कि डर पैदा हुआ कि अब मैं हूं, तो कहीं मिट न जाऊं। चिढ़ाते थे। यह तो किसी और को पता न था, मुझको ही पता जहां 'हूं' आया, वहां न होने का भय भी आया। जहां प्रकाश था। वहां तो सब बड़े-बूढ़े थे। तो वे तो चुप रहे, लेकिन मुझे आया, पीछे-पीछे अंधेरा भी आया। तो एक भय की पर्त खड़ी | बड़ी जोर की हंसी आई कि यह तो हद्द मजाक हो गयी! जिंदगी होती है। शून्य है भीतर, उसके आसपास भय की पर्त है। अमृत में भी 'भोलेनाथ', मरकर अब कोई और कहने को नहीं तो खुद है भीतर, उसके आसपास मृत्यु की पर्त है। पत्नी कह रही है, 'हाय मेरे, भोलेनाथ।' जितना मैंने रोकने की फिर समाज बच्चे को ढालना शुरू करता है। बच्चे को वैसा कोशिश की, उतनी मुश्किल हो गयी। आखिर हंसी निकल ही ही नहीं छोड़ देता, जैसा वह आया है। संस्कार देने हैं। शिक्षा | पड़ी। पिता नाराज हुए। कहा, दुबारा अब कभी ऐसी जगह न ले देनी है। सभ्यता देनी है। बहुत कुछ काटना है, बहुत कुछ | जायेंगे। और शिष्टाचार सीखो। यह कोई ढंग हुआ? वहां कोई बनाना है। बहुत कुछ नया उगाना है, बहुत कुछ हटाना है। मरा पड़ा है, लोग रो रहे हैं और तुम हंस रहे हो! समाज कांट-छांट शुरू करता है। छैनी उठा लेता है। तो बच्चे मैंने उनसे कहा, मेरी भी तो सुनो। वहां किसी को पता ही नहीं के भीतर एक तीसरी पर्त पैदा होती है-नीति की, समाज की, था, जो राज मुझे पता है। जिस वजह से मुझे हंसी आयी-वह संस्कार की, संस्कृति की। लेकिन स्वभावतः यह जो संस्कृति, | हंसी यह थी कि जिंदगीभर इस आदमी को हम भोलानाथ कहकर समाज की पर्त है, यह उसके स्वभाव के प्रतिकूल पड़ती है। नहीं | चिढ़ाते रहे, मरकर भी मजाक तो देखो! कोई और नहीं तो खुद तो इसकी जरूरत ही न होती। इसकी जरूरत ही इसलिए होती है पत्नी कह रही है, 'हाय मेरे भोलेनाथ!' यह आदमी, इसकी कि जैसा बच्चा स्वभाव के अनुसार है, वैसा समाज को अंगीकार आत्मा वहां भी उछलने-कूदने लगी होगी, नाराज हो गई होगी नहीं है। बच्चा बेवक्त हंसने लगे, उसके स्वभाव के अनुकूल है कि हद्द हो गई। आखिरी विदा के क्षण में भी! 163 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 लेकिन तब से उन्होंने मुझे ले जाना बंद कर दिया। कहीं कोई से शुरू तो करना होगा। मर जाये, कुछ हो तो वे मुझे न ले जाते। तो पांचवीं पर्त है उपचार की। ये तुम्हारी पर्ते हैं। पहली जो संस्कार देना जरूरी है। परिवार की अपनी अड़चन है। समाज घटना थी शून्य की, वह तुम्हारा सत्य है। अब इन चार पर्तों के की अपनी असुविधा है। बच्चे को वैसे ही नहीं छोड़ा जा सकता, नीचे दबा है सत्य। इन पर्तों को धीरे-धीरे छांटना होगा। इन पर्तों कुछ न कुछ काट-छांट करनी पड़ेगी। वह जो काट-छांट है, | को धीरे-धीरे हटाना होगा। जैसे कि नदी पर पत्ते छा जाते हैं, उसमें बच्चे के स्वभाव के प्रतिकूल उस पर कुछ थोपा जाता है। सैवाल फैल जाता है, तो हम हटाकर देखते हैं, नीचे जलधार बह जहां रोना चाहता है, रो नहीं सकता है। जहां हंसना चाहता है, रही है-इन चार पर्तों के नीचे तुम्हारा स्वभाव बह रहा है, हंस नहीं सकता। जहां क्रोध करना चाहता है, क्रोध नहीं कर | तुम्हारी गंगा बह रही है। इनको हटाने का नाम ही साधना है। ये सकता। जहां प्रेम नहीं करना है, वहां प्रेम दिखलाना पड़ता है। चारों पर्ते जड़ हैं। ये चारों पर्ते संज्ञा की हैं। और तुम्हारा स्वभाव जिनके पैर नहीं छुने, उनके पैर छुने पड़ते हैं। जो नहीं खाना है, | क्रिया का है। इन चारों पर्तों के साथ समाज राजी है, तुम्हारे वह खाना पड़ता है। जो खाना है, वह खाने को मिलता नहीं है। स्वभाव से राजी नहीं है; क्योंकि ये चारों पर्ते तुम्हें नियंत्रण में ला तो तीसरी पर्त खड़ी होती है—संस्कार की, समाज की, नियंत्रण | देती हैं। तुम्हारा स्वभाव तो बड़ी विस्फोटक घटना है। की। कारागृह बनता है। इसलिए तो महावीर जब जिंदा होते हैं तो स्वीकार नहीं होते। फिर जैसे ही बच्चा बड़ा होता है, धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसके बड़े विस्फोटक आदमी हैं। अपने रंग में जीते हैं। कोई समझौता स ताकत आती है, वह पीछे के दरवाजों से अपने स्वभाव की नहीं करते। अपने स्वभाव में जीते हैं. चाहे कोई भी कीमत पूर्ति के रास्ते खोजता है। कमजोर है बच्चा, छोटा है, तब तक तो चुकानी पड़े। अगर नग्न होने में मजा आया तो नग्न जीते हैं। स्वीकार कर लेता है; लेकिन जैसे-जैसे समझ आने लगती है, चाहे दुनिया कुछ भी कहे। भला कहे, बुरा कहे-कोई चिंता ताकत आने लगती है, वह कोई रास्ते निकालने लगता है, नहीं लेते। छिप-छिपकर करने लगता है काम, जो उसे करने हैं। धोखा पैदा तो महावीर तो एक बगावती हैं, एक क्रांतिकारी हैं। धर्म होता है। तो चौथी पर्त पैदा होती है जो समझौते की पर्त है। वह बगावत है, क्रांति है। हां, जब महावीर मर जाते हैं तो उनके पीछे समाज जो मानता है, चाहता है, वैसा दिखाता है; और जो उसे | जो इकट्ठे होते हैं, वे कोई बगावती नहीं हैं। या हो सकता है, करना है, वैसा करता है। तो दोहरा व्यक्तित्व बनता है। यह पहली जो संख्या, पहले लोग जो महावीर के पास आये थे, वे चौथी पर्त है। बगावती रहे हों; लेकिन उनके बेटे तो बगावती नहीं होंगे। उनके फिर पांचवीं एक पर्त है, जो सबसे ऊपर-ऊपर है-लोकाचार बेटे तो पैदाइश से जैन होंगे। जिन्होंने महावीर को चुना था अपनी की, शिष्टाचार की। किसी को तुम मिलते हो तो कहते हो, स्वेच्छा से, उन्होंने तो बड़ी हिम्मत की थी, बड़ा साहस किया 'कहिए, कैसे हैं? बड़ी खुशी हई मिलकर। बड़े दिनों बाद था। क्योंकि महावीर बदनाम थे। गांव-गांव से खदेड़े जाते थे। दर्शन हुए। बड़े दिन से आंखें तरसती थीं।' पत्थर मारे गये। कान में खीलें ठोंक दिये किसी ने। कहीं ये सब बातें हैं। यह औपचारिक पर्त है। इससे थोड़ा संबंधों में स्वीकार न थे। जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया था. वे तो बड़े सुगमता बनी रहती है। जयराम जी, हैलो-इससे थोड़ा दो | हिम्मतवर लोग रहे होंगे, बड़े साहसी। व्यक्तियों के बीच में स्निग्धता बनी रहती है-लुब्रिकेशन। नहीं तो शिष्यों का जो पहला समूह होता है, वह तो हिम्मतवर होता तो कोई मिला और सीधे खड़े हो गये। वह भी खड़ा है, तुम भी है। लेकिन जो दूसरी पीढ़ी आती है, वह तो फिर वैसी ही होती खड़े हो–कहां से चलें, क्या कहें, क्या न कहें! तो अड़चन | है। इसलिए तो सभी धर्म खो जाते हैं। जब सदगुरु जीवित होता खड़ी होगी, तो कहा जयराम जी! बातचीत शुरू हुई। 'मौसम | है तो धर्म भी जीवित होता है। जब सदगुरु विदा हो जाता है तो कैसा है?' 'अच्छा है।' 'पति-पत्नी, बच्चे, घर, सब कुशल धीरे-धीरे सदधर्म की ध्वनि भी, प्रतिध्वनि बनती जाती है—दूर, हैं ?' सिलसिला चल पड़ा। अब आगे बात चल सकेगी। कहीं दूर, दूर-फिर खो जाती है। फिर महावीर पूज्य हो जाते हैं। 164 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक ज्ञान मुक्ति है फिर कोई अड़चन नहीं रह जाती है। फिर तुम उनकी मूर्ति बनाकर उसे संन्यास दे दें।' उनका भाव मैं समझता हूं। उनका प्रेम मैं पूजो। फिर तुम्हें जो करना हो महावीर के साथ, बेशक करो। समझता हूं। मगर उनके भाव और प्रेम से थोड़े ही संसार चलता दिगंबर हैं, नग्न मूर्ति की पूजा करते हैं। उनकी मौज! श्वेतांबर है। उनकी भाव की बात बड़ी शुद्ध है। उनका भाव यह है कि हैं, नग्न मूर्ति की पूजा नहीं करते। उनकी मौज! दिगंबर उनका बच्चा पैदा होते से ही संन्यासी हो। ठीक है, शुभ है। आंख-बंद महावीर की पूजा करते हैं-उनकी मौज। अब लेकिन बेटे से तो पूछो! वह जो अभी पैदा ही नहीं हुआ है, उसे वीर कुछ कह नहीं सकते कि जरा ठहरो, मुझे आंख खोलनी जुआरी बनना है कि शराबी बनना है, कि संन्यासी बनना है, कि है। वे फौरन रोक देंगे कि बंद करो बकवास, आंख बंद रखो! हिंदू बनना है कि मुसलमान बनना है-उससे तो पूछो! लेकिन नियम से चलो! दिगंबर बंद आंख की पूजा करते हैं; श्वेतांबर उससे अभी पूछने का कोई उपाय नहीं है। खुली आंख की पूजा करते हैं। कुछ मंदिर हैं, जो दोनों के हैं। तो तो जैसे जैन घर में पैदा होने से कोई जैन हो जाता है. मेरे आधा दिन दिगंबर पूजा करते हैं, आधा दिन श्वेतांबर पूजा करते संन्यासी के घर में पैदा होने से कोई संन्यासी हो जायेगा। लेकिन हैं। अब बड़ी मुश्किल है, पत्थर की मूर्तियां हैं। वैसा कुछ दूसरी पीढ़ी मुर्दा होगी। शायद दूसरी पीढ़ी में भी थोड़ा आसान भी नहीं है कि आंख खोल दो, लगा दो। तो झूठी आंख घिसटता-लंगड़ता हुआ धर्म रह जाये, क्योंकि उसने पहली पीढ़ी चिपका देते हैं। जब सुबह दिगंबर पूजा करेंगे, तो वे खाली मूर्ति के दर्शन किये होंगे; कम से कम पहली पीढ़ी के पास रही होगी; की पूजा कर जाते हैं। जब श्वेतांबरों की घड़ी आती है बारह बजे उस हवा में पली होगी। लेकिन तीसरी पीढ़ी? वह तो और दूर के बाद, तो वे आकर नकली आंख, खुली आंख चिपका देते हैं; हो जायेगी। चौथी पीढ़ी और...। कपड़े पहना देते हैं। पूजा शुरू हो जाती है। महावीर न तो कह फिर पच्चीस सौ साल हो गये महावीर को हुए, अब तो सब सकते कि ये कपड़े मुझे पसंद नहीं, न कह सकते कि मझे नग्न | मुर्दे हैं। अब तो जैन के नाम से जो है वह मुर्दा है। वह उतना ही रहना है, न कह सकते हैं कि मुझे ठंडी लग रही है, अभी नग्न मत मुर्दा है जैसे मुहम्मद का मुसलमान मुर्दा है और ईसा का ईसाई करो, कि अभी बहुत गर्मी है, कुछ कह नहीं सकते। अब तुम्हारे मुर्दा है। यह स्वाभाविक है। इसे टाला नहीं जा सकता। जैसे हाथ के खिलौने हैं। तुम्हारे महावीर, तुम्हारे बुद्ध, तुम्हारे कृष्ण, | व्यक्ति पैदा होते हैं, जवान होते हैं, मर जाते हैं ऐसे ही धर्म तुम्हारे हाथ के खिलौने हैं। असली महावीर, असली कृष्ण और पैदा होते हैं, जवान होते हैं, बढ़े होते हैं और मर जाते हैं। इस बुद्ध जलते हुए अंगारे थे। उनको हाथ में रखने के लिए बड़ी संसार में जो भी चीज जन्मती है, वह मरती भी है। वह जो हिम्मत चाहिए थी। जो दग्ध होने को राजी थे वे उनके पास आये परमधर्म है, जो कभी पैदा नहीं होता, कभी नहीं मरता, उसका तो थे। कमजोर तो उनसे दूर भागे थे। कमजोर तो उनके दुश्मन थे। कोई नाम नहीं है—न हिंदू, न जैन, न मुसलमान, न ईसाई। लेकिन पीछे...। उसकी हम बात नहीं कर रहे। लेकिन जैन, हिंदू, मुसलमान, मेरे पास संन्यासी आते हैं। कोई पिता आता है, कोई मां आती ईसाई जिस धर्म का नाम है, यह कभी पैदा हुआ, कभी मरेगा। है। वह कहते हैं, हमारे बेटे को भी संन्यास दे दें। उनका भाव मैं | ये जो चार पर्ते हैं तुम्हारे ऊपर, ये सब संज्ञा की तरह हैं। तुमने समझता हूं। उन्हें जो सुख मिला है, उन्हें जो शांति मिली है, वे जिसे जैन धर्म कहा है, वह संज्ञा है। मैं जिसे जैन धर्म कह रहा चाहते हैं उनके बेटे को भी मिल जाये। लेकिन उन्होंने तो मुझे हूं, वह क्रिया है। तुम जिसे जैन धर्म कह रहे हो, वह तुम्हारी चुना है, बेटे को वे ले आये हैं। बेटे ने मुझे नहीं चुना है। बेटे ने पैदाइश, तुम्हारे जन्म, तुम्हारे संयोग की घटना है। मैं जिसे जैन स्वेच्छा से मुझे नहीं चुना है, बाप के साथ चला आया है। बाप | धर्म कह रहा हूं, वह तुम्हारा आविष्कार है, तुम्हारी खोज है। कहता है, संन्यास तेरा भी करवाना है, तो वह कहता है, ठीक फिर-फिर तुम्हें खोजना होगा। मेरा जो जैन धर्म है, वह हिंदू धर्म है। लेकिन यह संन्यासी और ढंग का संन्यासी होगा। यह तो के विपरीत नहीं है। मेरा जो जैन धर्म है, वह इस्लाम के विपरीत मजबूरी का संन्यासी होगा। नहीं है। मेरा जो जैन धर्म है, वह सभी धर्मों का सार है। वहां ऐसी स्त्रियां मेरे पास आती हैं, वे कहती हैं, 'गर्भ में बच्चा है, | बाइबिल और कुरान और गीता और धम्मपद और जिन-सूत्र, 165 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 जिन सूत्र भाग: 1 सब एक हो जाते हैं । तुम्हारा जो जैन धर्म है, वह राजनीति है। वह हिंदू के खिलाफ है, वह मुसलमान के खिलाफ है। तुम्हारा जो जैन धर्म है, वह एक संप्रदाय है, धर्म नहीं। वह एक जड़, मरी हुई वस्तु है । निश्चित ही, जैसे सत्य एक जीवंत आग है, लपटें जल रही हैं — ऐसे ही प्रेम भी, आनंद भी, ध्यान भी, समाधि भी, जो भी जीवंत है, वह लपट की तरह बहता हुआ है, गंगा की तरह प्रवाहमान है। जो भी मर गया, वह राख की तरह है। फिर उसमें कोई गति नहीं । तुम मुर्दा से जरा सावधान रहना ! और मुर्दे तलों को बहुत मत पकड़ना, अन्यथा तुम उन्हीं के नीचे दबोगे और मर जाओगे। कब्रों में तो लोग बहुत बाद में प्रवेश होते हैं, उनके बहुत पहले मर जाते हैं। मरने के बहुत पहले मर जाते हैं, क्योंकि मुर्दे से साथ जोड़ लेते हैं। बहुत सजग होना; क्योंकि मुर्दे का बड़ा आकर्षण है; क्योंकि मुर्दा प्राचीन है, उसकी परंपरा है। अगर मैं कुछ कहता हूं तो नयी बात होगी। मुझ पर भरोसा करने में खतरा भी हो सकता है; यह आदमी कुछ जाना-माना तो नहीं है। महावीर की बात में भरोसा करना आसान होता है; पच्चीस सौ साल से जानी-मानी बात है। अगर गलत होता तो पच्चीस सौ साल तक हजारों-लाखों लोग इसे मानते क्यों ? जब इतने लोग मानते हैं, तो ठीक ही मानते होंगे। फिर शास्त्र गवाह होंगे कि ठीक है; परंपरा गवाह होगी कि ठीक है; लंबी धारा जो लोगों ने अनुकरण की पैदा की है, वह गवाह होगी कि ठीक है । मेरी बात तो तुम्हें सीधी-सीधी स्वीकार करनी होगी, बिना किसी परंपरा के । बड़ी हिम्मत चाहिए! हां, पच्चीस सौ साल बाद मेरी बात भी इतनी ही आसान हो जायेगी। तब मेरे माननेवाले फिर धर्म के विपरीत खड़े हो जायेंगे। जो अतीत को पकड़ता है, वह हमेशा धर्म का दुश्मन है। क्योंकि धर्म तो सदा नित नूतन है, नया है, अभी है, ताजा है— अभी खिलते फूल की भांति ! धर्म तो सदा खिलता हुआ फूल है ! जिसको तुम धर्म कहते हो, वह तो मुर्दा फूलों का निचोड़ा हुआ इत्र है। फूल तो कभी के खो गये। उनका खिलना तो कभी का बंद हो गया। फूल तो बचे भी नहीं, लेकिन तुमने मुर्दा फूलों का लहू निचोड़ लिया है। उसको पकड़कर तुम बैठे हो। और तुमने निश्चित ही अपने मतलब से निचोड़ लिया है। एक आदमी जुआरी है, बड़ा जुआरी है! सब गंवा दिया है। एक रात घर लौटा देर से। जुआ खेलकर ही लौटा था। पत्नी नाराज थी। उसने कहा, 'तुम फिर पहुंच गये जुआ घर ! अब बचा क्या है?' उसने कहा, 'जुआ घर नहीं गया था, महाभारत हो रही थी रास्ते में, वहां बैठकर सुन रहा था। रास्ते से निकला, वहां महाभारत हो रही थी, वह देखता आया था।' कुछ और बहाना न मिला तो यही उसने कह दिया। पत्नी ने कहा, 'मैं मान नहीं सकती, तुम और महाभारत सुनने गये ! तुम्हारे कपड़े से, तुम्हारे चेहरे से जुए घर की बास आती है।' उसने कहा, 'सुन देवी! और वहां मैंने यह भी सुना महाभारत में कि युधिष्ठिर खुद जुआ खेलते थे। धर्मराज ! और जुआ खेलते थे । तू मेरे पीछे नाहक पड़ी है। इससे साफ सिद्ध होता है कि जुआ एक धार्मिक कृत्य है— युधिष्ठिर खेलते थे और धर्मराज थे । ' पत्नी ने कहा, 'तो फिर ठीक है। तो सोच राखिओ, कि द्रौपदी के पांच पति थे।' लोग अपने मतलब की बातें निकाल रहे हैं। तुम जो धर्म खड़ा कर लेते हो, वह तुम्हारा मतलब है। तुम बड़े चालाक हो, होशियार हो, बड़े कुशल हो- अपने को धोखा देने में। जब कोई जीवित गुरु होता है, महावीर जब जिंदा होते हैं, तब तो तुम धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि महावीर जगह-जगह कहेंगे, 'गलत ! यह मैंने कहा नहीं। यह तुमने सुन लिया होगा।' जब महावीर जा चुके, फिर कोई कहने वाला न रहा; फिर तुम्हें जो कहना है, तुम्हें जो मानना है, उसे तुम बनाये चले जाओ, माने चले जाओ। 'पूछा है कि क्या जैन धर्म में चौबीस ही तीर्थंकर हो सकते हैं, ज्यादा नहीं ? एक मित्र ने सभी धर्म अपने दरवाजे बंद कर लेते हैं देर-अबेर । क्योंकि अगर दरवाजा खुला रहे तो धर्म पुराना कभी भी न हो पायेगा । और अगर दरवाजा खुला रहे तो धर्म संज्ञा कभी न बन पायेगा, क्रिया ही बना रहेगा। तो इतने तूफान और उथल-पुथल होते रहेंगे कि तुम कभी आश्वस्त न हो पाओगे। तो सभी धर्म अपने दरवाजे बंद कर लेते हैं; कोई देर, कोई अबेर । और जब दरवाजे . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंद करते हैं, तब याद रखना, ऐसी घड़ी में करते हैं जब उनका सबसे ऊंचा शिखर आ जाता है। महावीर पर जैन दृष्टि ने सबसे ऊंचे शिखर को छू लिया। बस, फिर पीछे चलनेवालों को लगा कि अब दरवाजे बंद कर दो। अब बहुत हो चुका। सबसे ऊंचा शिखर छू लिया - अब दरवाजे बंद ! अब कोई तीर्थंकर न होगा। क्योंकि तीर्थंकर और होते रहेंगे, इसका अर्थ है कि नित- नूतन धर्म होता रहेगा। कोई नया तीर्थंकर नयी बात कहेगा। महावीर ने भी बहुत-सी नयी बातें कहीं, जो पार्श्वनाथ ने न कही थीं। महावीर ने बहुत-सी बातें नयी कहीं, जो आदिनाथ ने न कही थीं। और अब तो मजा यह है कि जो महावीर ने कहा, उसी के आधार पर हम सोचते हैं कि ऋषभ ने, आदि ने, नेमी ने क्या कहा होगा। अब तो महावीर प्रमाण हो गये। अंतिम प्रमाण हो जाता है, वह सबको रंग देता है। लेकिन महावीर ने कुछ बातें कही हैं, जो निश्चित ही ऋषभ ने नहीं कही होंगी। कारण भी साफ है। | हिंदुओं के ग्रंथ हैं। ऋषभ का बड़े सम्मान से उल्लेख करते हैं। लेकिन महावीर का किसी हिंदू-ग्रंथ ने उल्लेख नहीं किया। ऋषभ में अड़चन मालूम न हुई होगी; कोई बहुत क्रांतिकारी व्यक्ति न रहे होंगे । तो वेद भी उनका उल्लेख करता है— सम्मान से, बड़े सम्मान से। लेकिन महावीर की बात भी नहीं उठाता । महावीर की बात भी कोई हिंदू - शास्त्र में नहीं है। महावीर के अगर माननेवाले न हों, तो महावीर का कोई प्रमाण भी नहीं रह जायेगा। क्योंकि हिंदू-धर्म के ग्रंथों ने कोई उल्लेख नहीं किया। महावीर निश्चित ही बड़े खतरनाक रहे होंगे। इस आदमी की बात भी उठानी खतरनाक थी । बुद्ध से ज्यादा खतरनाक रहे होंगे, क्योंकि बुद्ध को तो हिंदुओं ने बाद में धीरे-धीरे अपना एक अवतार स्वीकार कर लिया। लेकिन महावीर का तो नाम भी उल्लेख न किया। इस आदमी का नाम भी खतरनाक रहा होगा। यह आदमी खतरनाक था ! तुम जरा थोड़ा सोचो! जैन धर्म ने अपनी आखिरी क्रांति छू ली। फिर पीछे चलनेवाला अनुयायी घबड़ा गया कि अब बहुत हो चुका; अब द्वार- दरवाजा बंद करो; अब कहो कि अब और कोई तीर्थंकर न होगा। अन्यथा तीर्थंकर आते रहेंगे। अन्यथा नये-नये उन्मेष, नयी-नयी क्रांतियां - तो हम ठहरेंगे कहां? रोज कोई आयेगा और पुराने भवन को गिरायेगा और नये बनाने सम्यक ज्ञान मुक्ति है। की योजना रखेगा, तो भवन बनेगा कब ? मुहम्मद के साथ मुसलमानों ने अपने दरवाजे बंद कर लिये । मुहम्मद के साथ ही इस्लाम ने अपनी आखिरी ऊंचाई छू ली। मुहम्मद पहले और आखिरी तीर्थंकर हैं इस्लाम के पहले और आखिरी पैगंबर। फिर इस्लाम ने इतनी भी हिम्मत न की, जितनी हिम्मत जैनियों ने की थी, कम से कम चौबीस को तो बरदाश्त किया ! मुसलमानों ने इतनी भी हिम्मत न की; बड़ा कमजोर धर्म साबित हुआ। दरवाजे बंद कर लिये । ईसाइयों ने भी यही किया, दरवाजे बंद कर लिये। अब कोई नहीं होगा। आखिरी पैगाम आ गया परमात्मा का, अब इसमें कोई तरमीम न होगी, कोई सुधार न होगा, कोई संशोधन न होगा। जिंदगी रोज चली जाती है, तुम्हारे धर्म कहीं न कहीं रुक जाते हैं। जो धर्म जिंदगी के साथ नहीं चलता, वह अधर्म हो जाता है। तो मैं तो तुमसे कहता हूं, प्रतिपल तीर्थंकर होंगे, प्रतिपल पैगंबर होंगे। और तुम्हें अब जब भी कभी मौका मिले और तुम्हें दो पैगंबरों के बीच में चुनना तो नये को चुनना, पुराने को मत चुनना । क्योंकि पुराने को चुनने में तुम अपने को चुनोगे। नये को चुनने में तुम अपने को छोड़ोगे तो ही चुन सकोगे। जब तुम पुराने को चुनते हो तो तुम अपने को ही चुनते हो, क्योंकि पुराने के साथ तो तुम आत्मसात हो गये हो। तुमने पुराने को तो पिघला लिया है। तुमने पुराने को तो अपने ही ढंग का बना लिया है। तुमने तो पुराने में काफी तरमीम और कांट-छांट कर ली है। पुराने से तुम्हें कोई खतरा नहीं रहा है; नया फिर तुम्हें डगमगाता है, फिर तुम्हारी जड़ें उखाड़ता है, फिर तुम्हें जलाता है, फिर अग्नि में फेंकता है। जब भी चुनना हो तो नये को चुनना । एक और मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं, धर्म परंपरा नहीं है; लेकिन क्या परंपरा की जरूरत नहीं है? क्या परंपरा से हानि ही हानि हुई कि कुछ लाभ भी... ? यह मैंने कहा नहीं कि परंपरा की जरूरत नहीं है। अगर तुम्हें जड़ रहना हो, परंपरा की बड़ी जरूरत है। अगर तुम्हें मुर्दा रहना हो, तो परंपरा औषधि है। अगर तुम्हें रूपांतरित न होना हो तो परंपरा बड़ी सुरक्षा है। कायरों के लिए, कमजोरों के लिए, परंपरा शरण स्थल है। बड़ी जरूरत है, क्योंकि कायर हैं दुनिया 167 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 में। आखिर उनके लिए भी तो कोई जगह होनी चाहिए। थोड़ा-सा रहस्य, थोड़ा-सा राज इकट्ठा कर पाओगे। सस्ता आत्महीन लोग हैं दुनिया में आखिर उनके लिए भी तो कोई | उपाय है, तुम मार्गदर्शक को साथ ले लेते हो, वह बताये चला सहारा होना चाहिए। आत्मवंचक हैं दुनिया में आखिर उनको जाता है कि यह मूर्ति कितनी पुरानी है, किसने बनाई, कब बनाई भी तो कोई उपाय होना चाहिए कि अपने को धोखा दे लें! परंपरा इसका क्या इतिहास है। तुम भी बहरे की भांति सुनते चले जाते की बड़ी जरूरत है। हो, अंधे की भांति देखे चले जाते हो। घंटे दो घंटे में सब मंदिर मैंने नहीं कहा कि जरूरत नहीं है! जरूरत न होती तो परंपरा | देख डाले-चले आये। जिन मंदिरों को बनने में सदियां लगीं, होती ही न। है, जरूरत होगी कहीं! कहीं बड़ी जरूरत होगी, जिन मूर्तियों पर हजारों लोगों के जीवन निछावर हुए तब बनीं, क्योंकि इतने महापुरुष हुए, जिन्होंने परंपरा को तोड़ने की तुम उनको घड़ी भर में निपटाकर घर आ जाते हो, कहते हो, हजार-हजार कोशिशें की, परंपरा नहीं टूटती। महावीर कोशिश 'खजुराहो हो आये हैं। अजंता देख डाला। ऐलोरा घूम आये।' करते, बुद्ध कोशिश करते, कृष्ण कोशिश करते, क्राइस्ट | सारी पृथ्वी का चक्कर लगा लेते हो।। कोशिश करते-परंपरा तोड़ने की; कुछ नहीं होता, परंपरा नहीं | अगर तुम अपने ही हिसाब से चलो तो बड़ी मुश्किल होगी। टती। लोग इन्हीं को छोड़ देते हैं, परंपरा को नहीं छोड़ते। या और यह कोई जिंदगी मूर्तियों का, मंदिरों का हिसाब नहीं है। यहां इन्हीं को परंपरा में आत्मसात कर लेते हैं, लेकिन परंपरा को नहीं एक-एक पल तुम्हें अपना निर्णय लेना पड़ेगा, अगर तुम्हारे पास छोड़ते। वे इन्हीं को परंपरा में रंग देते हैं। वे कहते हैं, हम तुम्हारी | कोई परंपरा न हो। किसी ने गाली दी, अब क्या करना? तुम्हें भी पूजा करेंगे, लेकिन हमें बख्शो। हमें परेशान मत करो! तुम खुद ही जागकर प्रतिध्वनि करनी होगी। कोई परंपरा नहीं है। तुम भी परंपरा के हिस्से बन जाओ। और तुम्हारे लिए भी हमारे मंदिर परंपरा में मानते नहीं हो। न तुम किसी और की बनाई परंपरा में में जगह है। तुम्हारी प्रतिमा भी रख देंगे। तुम ज्यादा शोरगुल न | मानते हो, न अपनी बनाई हुई लीक को मानते हो-क्योंकि कल मचाओ। तुम भी स्वीकार! किसी ने गाली दी थी, तुमने क्रोध किया था; परसों भी किसी ने परंपरा की जरूरत जरूर होगी, अन्यथा टूट गयी होती | गाली दी थी, तुमने क्रोध किया था—क्रोध तुम्हारी परंपरा है। परंपरा। बहुत थोड़े-से लोग, बड़े हिम्मतवर, जिंदादिल लोग, आज फिर कोई गाली देता है, तुम परंपरा की सुनोगे या आज तुम बिना परंपरा के जीते हैं। क्योंकि बिना परंपरा के जीने का अर्थ जागकर इस गाली को समझोगे और तय करोगे, क्या करूं? होता है: जागरण से जीना। तब तुम्हें प्रतिपल अपना | परंपरा के आधार पर नहीं-होश के आधार पर। बीते कल के जीवन-निर्णय करना होगा। परंपरा बड़ी सुविधापूर्ण है, बड़ी आधार पर नहीं-आज के, इस क्षण के आघात के आधार पर। सुरक्षापूर्ण है। तुम्हें कुछ तय नहीं करना होता। परंपरा ने तय कर यह जो प्रत्याघात अभी हुआ है, इसको तुम सीधा-सीधा दर्पण दिया है, तुम चुपचाप अंधे की तरह अनुसरण किये चले जाते की तरह लोगे? इसका उत्तर दोगे? कठिन होगा। तब तो हो। सब लिखा है किताब में, नक्शे हाथ में हैं-तुम उनका प्रतिपल तुम्हारी जिंदगी लहरों में होगी, तूफानों में होगी, आंधियों अनुसरण कर लेते हो। परंपरा मार्गदर्शक जैसी है। वह तुम्हें में होगी। कुछ तय न हो पायेगा। कुछ बंधी लकीरें न होंगी। बताये चली जाती है। तम कभी गये? कुछ पिटी लकीरें न होंगी। राज-पथ न होगा, पगडंडियां होंगी। कल एक मित्र ने संन्यास लिया। वे खजुराहो में मार्गदर्शक तुम्हीं को बनाना पड़ेंगी। हैं। खजुराहो के मंदिर-मूर्तियों को, आए यात्रियों को, अतिथियों | लोग सस्ता रास्ता चुनते हैं। परंपरा को मान लेते हैं। ठीक है, को समझाते हैं, दिखाते हैं। अगर तुम खजुराहो के मंदिर में बिना परंपरा की जरूरत है; क्योंकि दुनिया में कायर हैं। दुनिया में बड़े किसी मार्गदर्शक के जाओ तो बड़ी अड़चन होगी। वर्षों लग कमजोर दीन-हीन लोग हैं। दुनिया में ऐसे लोग हैं जो अपनी जायेंगे। क्योंकि तुम्हें एक-एक चीज की खुद ही खोजबान करना होगी। तुम्हें एक-एक मूर्ति को भर आंख स्वयं देखना होगा। श्रद्धा जीवन में नहीं है, मृत्यु में है; जो मर जाओ, तभी भरोसा तुम्हें एक-एक मूर्ति पर स्वयं ध्यान करना होगा। तभी शायद तम | करते हैं। 168 Jair Education International Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक ज्ञान मक्ति है P तुमने कभी खयाल किया! गांव में कोई मर जाता है, फिर जैसे देखा, रामलीला होती है, कोई आदमी राम बन जाता है, उसके खिलाफ कोई भी नहीं बोलता। सभी कहते हैं : 'स्वर्गीय | तो लोग उसके पैर छूते हैं। क्या अंधापन है! जानते हैं हो गये।' पूरा गांव उनके खिलाफ रहा हो भला, और सभी भलीभांति, गांव का छोकरा है। लेकिन उसके पैर छूते हैं। जानते हैं कि अगर नर्क कहीं है तो वे निश्चित पहुंच गये; या | राम-नाम की ऐसी ग्रंथि बंध गई है। नाटक में राम बना है, तो भी अगर कहीं स्वर्ग है और ये पहुंच गये तो नर्क बनाकर पैर छूते हैं, फूल चढ़ाते हैं, शोभा यात्रा निकलती है। अंधापन छोडेंगे—मगर कहते हैं. स्वर्गीय हो गये। कैसा गहरा है! मुर्दा जब कोई हो जाता है, तो तुम देखते हो, कैसी लोग स्तुति | मेरे पास लोग आते हैं। अब जैसे कि मैं जिन-सूत्र पर बोल करते हैं, उसके गुणगान करते हैं कि बड़े महापुरुष थे, अंधेरा छा रहा हूं, तो जैन आ गये हैं। मैं जो बोल रहा हूं वही बोल रहा हूं; गया, दीया बुझ गया; यह पूर्ति अब कभी हो न सकेगी जो जगह | न मुझे जिन-सूत्र से कुछ लेना है, न शिव-सूत्र से कुछ लेना है। खाली हुई! मैं शिव-सूत्र में भी यही बोलता हूं, मगर तब जैन नहीं आते: मुल्ला नसरुद्दीन ने एक मित्र को फोन किया। पत्नी फोन पर 'शिव-सूत्र है, अपने को क्या लेना-देना है!' हिंदू आते हैं, वे आयी। मुल्ला ने घबड़ाकर पूछा कि 'कहां हैं, पति कहां हैं?' कहते हैं, 'महाराज! गीता पर फिर कब बोलेंगे?' गीता ही उसने कहा, 'ऐसे क्या घबड़ा रहे हो? क्या मामला है? | बोल रहा हूं। उसी के गीत गा रहा हूं। मगर नहीं, शब्द की पकड़ स्नानगृह में स्नान करते हैं।' मुल्ला ने कहा, 'फिर ठीक। है। बस शब्द की पकड़ है। लकीरों की पकड़ है। तुम्हें अगर मैं क्योंकि गांव में कई लोगों से मैंने उनकी प्रशंसा सुनी है, मैंने हीरा भी दूं और कहूं कंकड़-पत्थर है, तो तुम कहते हो, क्या समझा कि मर गये।' करेंगे। और मैं तुम्हें कंकड़-पत्थर भी दूं और कहूं हीरा है, तो तुम क्योंकि बिना मरे तो कोई किसी की प्रशंसा करता ही नहीं है। कहते हो, लायें सम्हालकर रख लें। जिंदा की निंदा है, मुर्दे की प्रशंसा है। क्योंकि मुर्दे के साथ तुम तुम शब्दों से जीते हो? शब्द सत्य हैं? शब्दों से थोड़ा अपना समझौता कर लेते हो। जागो। शब्दों की परंपरा होती है, सत्यों की कोई परंपरा नहीं। जिंदा के साथ समझौता नहीं कर पाते। और पूछते हो, 'क्या हानि ही हानि हुई, या लाभ भी हुआ?' तुम यह मत सोचना कि महावीर और बुद्ध की तुम जो इतनी दुकानदारी कब मिटेगी तुम्हारी? तुम हानि-लाभ का ही प्रशंसा करते हो, वह कोई धर्म की प्रशंसा है—वह मुर्दा, मृत्यु | हिसाब करते रहोगे? धर्म का कोई संबंध हानि-लाभ से नहीं की प्रशंसा है। जब जीवित थे तो तुम्हीं ने इन पर पत्थर फेंके। है। धर्म का संबंध दोनों के त्याग से है। हानि भी नहीं, लाभ भी तुम जब कहानी पढ़ते हो कि किसी ने महावीर के कानों में खीले नहीं। क्योंकि लाभ के पीछे हानि छिपी है, हानि के पीछे लाभ ठोक दिये, तमने कभी सोचा कि यह तम भी हो सकते हो जिसने छिपा है-वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। खीले ठोके हों? तुमने कभी फिर से सोचा कि अगर महावीर धर्म का संबंध उस परम जागरण से है, जहां तुम कहते हो, आज आ जायें और बाजार में तुम्हें मिल जायें, तो तुम क्या अब न हानि की कोई चिंता है, न लाभ की कोई आकांक्षा है। धर्म व्यवहार करोगे? अगर नंग-धडंग 'ब्लू डायमंड होटल' के | से कोई हानि-लाभ थोड़े ही होता है। धर्म से तो तम हानि-लाभ सामने खड़े हुए मिल जायें, तो तुम क्या व्यवहार करोगे और कोई से मुक्त होते हो। वह चिंताधारा ही गलत है। अगर उस बतानेवाला न हो कि ये महावीर हैं? तो पहला तो काम, तुम | चिंताधारा से चले, तो जो तुम्हारी मर्जी, वही तुम खोज लोगे। पुलिस में इत्तला करोगे। तुम सम्मान करोगे? तुम झुककर पैर अगर तुम्हें हानि खोजनी है तो परंपरा की हानि खोज लोगे। छुओगे? हां, अगर कोई कह दे कि महावीर हैं, भगवान महावीर | अगर तुम्हें लाभ खोजने हैं, तुम लाभ खोज लोगे। आ गये, तो शायद झुक भी जाओ, क्योंकि भगवान महावीर एक आदमी ने एक किताब लिखी है। पश्चिम के मुल्कों में शब्द के साथ तुम्हारा बड़ा लगाव बन गया है। वह तो कोई और तेरह का आंकड़ा बुरा समझा जाता है। तो बड़ी होटलों में तेरहवीं भी खड़ा हो जाये...। मंजिल ही नहीं होती, क्योंकि वहां कोई ठहरता नहीं तेरहवीं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 Timmymasti मंजिल पर। बारहवीं मंजिल के बाद सीधी चौदहवीं होती है। धर्म के जगत में जिसे जाना हो उसे महावीर जैसा दिगंबर होना चौदहवीं कहने से हल हो जाता है, है वह तेरहवीं; मगर चौदहवीं चाहिए-परिपूर्ण नग्न, सारे आवरणों से मुक्त। कह दी तो उतरनेवाले को क्या फिक्र है! लेकिन तेरहवीं कहो तो लेकिन बुद्धिमान आदमी हानि-लाभ की सोचता है। बुद्धि का कोई उतरने को राजी नहीं। तेरह नंबर का कमरा नहीं होता। तेरह ही धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। तारीख को लोग यात्रा करने नहीं जाते। तो एक आदमी ने बड़ी तेरे सीने में दम है, दिल नहीं है किताब लिखी है। उसने सारे आंकड़े इकट्ठे किये हैं कि तेरह | तेरा दिल गर्मि-ए-महफिल नहीं है निश्चित ही खतरनाक आंकड़ा है। तेरह तारीख को कितने युद्ध गुजर जा अक्ल से आगे कि यह नूर शुरू हुए, उसने सब हिसाब बनाया है। तेरह तारीख को कितनी चिरागे-राह है, मंजिल नहीं है। कार-दुर्घटनाएं होती हैं; तेरह तारीख को कितने लोग कैंसर से यह जो बुद्धि का छोटा-सा टिमटिमाता दीया है, 'चिरागे-राह मरते हैं; तेरह तारीख को कितने तलाक होते हैं-तेरह तारीख, है', राह पर इसका थोड़ा उपयोग कर लो। चिरागे-राह है, तेरहवीं मंजिल, तेरह का जहां-जहां संबंध है, उसने बड़े हजारों मंजिल नहीं है। इस बुद्धि के दीये को आखिरी मंजिल मत समझ आंकड़े इकट्ठे किये हैं। लेना। यह टिमटिमाता दीया, इस पर ही उलझ मत जाना। यह कोई मित्र मुझे दिखाने लाया था, वह भी बड़ा प्रभावित था। | हानि-लाभ का विचार, शुभ-अशुभ का विचार, स्वर्ग-नर्क का उसने कहा कि देखो, अब तो तथ्य सामने हैं। मैंने उससे कहा, त हिसाब, यह गणित बिठाना-अगर इसमें ही लगे रहे तो तम चौदह तारीख की खोज कर, इतने ही तथ्य, चौदह तारीख में भी धीरे-धीरे पाओगे कि खोपड़ी तो तुम्हारी बड़ी होती जाती है, मिल जायेंगें। चौदह को भी लोग मरते हैं। चौदह को भी | हृदय सिकुड़ता जाता है। धर्म का संबंध हृदय से है, बुद्धि से कार-दुर्घटनाएं होती हैं। और चौदहवीं मंजिल से भी लोग गिरते नहीं, सोच-विचार से नहीं। गहन भाव की दशा है धर्म। हैं। तू कोई भी तारीख के पीछे पड़ जा। जिंदगी इतनी बड़ी है, तेरे सीने में दम है, दिल नहीं है तुम कोई भी पक्ष तय कर लो, तुम्हें प्रमाण मिल जायेंगे। तेरे सीने में दम है, दिल नहीं है इसलिए सत्य की खोज पर जो निकलता है, उसे पहले से पक्ष | तेरा दिल गर्मि-ए-महफिल नहीं है लेकर नहीं चलना चाहिए। नहीं तो वह जो खोज रहा है, खोज | गुजर जा अक्ल से आगे कि यह नूर लेगा। यही तो बड़े से बड़ा खतरा है जगत में कि तुम जो खोजना चिरागे-राह है, महफिल नहीं है। चाहते हो खोज ही लोगे। तुम अपनी मान्यता को सिद्ध कर ध्यान हम कहते ही उसे हैं जहां तुम इस चिरागे-राह को लोगे। सत्य के खोजी को कोई मान्यता नहीं होनी चाहिए। उसे फूंककर आगे निकल जाते हो। इसलिए तो बुद्ध और महावीर ने तो खुली आंख रखनी चाहिए-निष्पक्ष, निर्दोष-तो तथ्य का उसे 'निर्वाण' कहा है। निर्वाण शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है: दर्शन होता है। दीये को बुझा देना। जब सारे दीये बुझा देते हैं तो निर्वाण है। परंपरा के लाभ भी हैं, हानियां भी हैं। लेकिन धर्म परंपरा नहीं | अब बड़े मजे की बात है, जैन दीवाली मनाते हैं; क्योंकि उस है। और हानि-लाभ से धर्म का कोई संबंध नहीं है। रात महावीर का निर्वाण हुआ। और दीये जलाते हैं। उस रात तो | तुम्हें हानि-लाभ में रहना हो, धर्म से बचना, सावधान रहना। | सब दीये बझा दो, पागलो। निर्वाण का अर्थ होता है : दीये बझा तुम्हें हानि-लाभ से ऊपर उठना हो, तो धर्म के द्वार पर दस्तक | दो। जैन दीवाली पर दीये जलाते हैं-खुशी में कि महावीर का देना। और धर्म के द्वार पर दस्तक देनी हो, परंपरा को वहीं छोड़ | निर्वाण हुआ। लेकिन निर्वाण शब्द का अर्थ होता है : दीये बुझा आना जहां जूते उतार आते हो। दो। ये बुद्धि के, हिसाब के, किताब के दीये बुझा दो। ये तर्क अगर परंपरा को लेकर धर्म के मंदिर में आये तो तुम धर्म के के, विचार के दीये बुझा दो। उस गहन मौन और शून्य और शांत मंदिर में कभी आओगे ही नहीं; तुम्हारी परंपरा तुम्हें घेरे रहेगी। | अंधेरे में खो जाओ, जो तुम्हारा स्वभाव है। तुम आओगे भी और नहीं भी आ पाओगे। महावीर ने भी खूब रात चुनी-अमावस की रात-मुक्त होने 170 . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक ज्ञान मक्ति है - को। पूर्णिमा चुनते तो कुछ हिसाब-किताब समझ में आता। | होते हो कि तुम्हारे भीतर केवल गत्यात्मकता होती है, कोई और अमावस की रात! लेकिन ठीक चुनी। ऐसा ही गहन स्वभाव नहीं होता, कोई थिर, जड़ वस्तु नहीं होती, सब प्रवाह होता है, है। गहन अंधकार, शांत, असीम! प्रकाश में तो थोड़ी उत्तेजना | जब तुम गंगा होते हो—तब मंजिल वहीं मिल गई। है। इसलिए तो प्रकाश जलता हो कमरे में तो सोना मुश्किल हो तुम्हारा होना, अहंकार, एक जड़ वस्तु है, पत्थर की तरह है। जाता है। आंखें उत्तेजित रहती हैं। इसलिए तो दिन में नींद | इसे पिघला लो। इसे जिंदगी की गर्मी में पिघल जाने दो। तुम मुश्किल होती है। रात नींद के लिए है। दीये भी बुझा देते हैं। मिटो तो ही तुम्हारा शून्य प्रगट हो सकेगा। महावीर उस शून्य को सब उत्तेजना खो जाती है। आत्मा कहते हैं, क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। कभी तुमने खयाल किया, प्रकाश को जलाओ तो है, बुझाओ ध्यान रखना, दृष्टि की सारी बात है। तो मिट जाता है। अंधेरा सदा है, शाश्वत है। अंधेरा सत्य के साहिल भी एक लय है अगर कोई सुन सके संबंध में बड़ी गहरी खबर देता है। और अंधेरे में बड़ी गहन उमड़े हुए सकूत से तूफान बन सके। शांति है। तुम्हें डर लगता है, यह दूसरी बात है। ध्यान में सभी दृष्टि की बात है। तूफान शांति बन सकता है, शांति तूफान लगता है, समाधि में सभी को डर लगता है। तुम्हें डर बन सकती है। तुम्हारी दृष्टि की बात है। तुम अगर शांति से लगता है, इस कारण तुम दीये को पकड़ लो, यह दूसरी बात है। तूफान को देखो तो तूफान भी एक अदभुत लयबद्धता है। और लेकिन महावीर तो कहते हैं, जो अभय को उपलब्ध हुआ, वही अगर तुम अशांति से शांति को भी देखो, तो शांति भी खो जाती उस गहन आत्मभाव में प्रवेश करता है। वह जो भीतर का शून्य | है और केवल एक बेचैनी और एक उन्माद रह जाता है। है, वहां तो सब ये चिराग, ये दीये, ये हिसाब-किताब, ये तर्क, यह जो जिंदगी का प्रवाह है, इसे तुम दुश्मन की तरह मत ये प्रमाण, ये शास्त्र, ये परंपराएं, सब छोड़कर जाना पड़ता है। देखो, और इससे लड़ो मत। लड़ने से तुम्हारा अहंकार और जिसकी हिम्मत हो अंधेरे में जाने की. वही आये। जिसकी मजबत होता चला जायेगा। इसके साथ बहो। इसे होने दो। इसे हिम्मत हो जीते-जी मृत्यु में प्रवेश की, वही आये। क्योंकि स्वीकार करो। इसके सत्य को स्वीकार करो और अपने सत्य को समाधि जीते-जी मृत्यु का स्वेच्छा से वरण है। इसीलिए तो हम स्वीकार करो। और जब दोनों सत्य मिलते हैं-तुम्हारे भीतर का साधु की कब्र को भी समाधि कहते हैं। सभी की कब्र को समाधि | सत्य, प्रवाहमान; और तुम्हारे बाहर का सत्य, प्रवाहमान—जब नहीं कहते, लेकिन जिसने अपने भीतर समाधि अनुभव कर ली इन दोनों प्रवाहों का मिलन होता है, उस मिलन का नाम ही हो, उसकी मृत्यु को भी हम समाधि कहते हैं। दोनों एक हैं। समाधि है। उस आलिंगन का नाम ही समाधि है। ये जो चार पर्ते मैंने तुम्हें बताईं, जब ये मर जाती हैं, तब तुम और इस प्रश्न का दूसरा हिस्सा है : 'और क्या क्रिया का शून्य में प्रवेश करते हो। तुम वहीं पहुंच जाते हो जहां तुम जन्म समय से कोई संबंध नहीं है?' के पहले थे। जब तुम परिपूर्ण क्रिया में होते हो, समय मिट जाता है। जब और यह पहुंचना प्रक्रिया है। यह पहुंचना संज्ञा नहीं है। तुम किसी भी क्रिया में पूरे लीन होते हो, समय मिट जाता है। जिंदगानी है फकत गर्मि-ए-रफ्तार का नाम एक चित्रकार चित्र बना रहा है; जब वह पूरा-पूरा डूबा होता है मंजिलें साथ लिये राह पे चलते रहना। तो समय मिट जाता है। नहीं कि घड़ी ठहर जाती है, घड़ी चलती मंजिल कहीं ऐसी दूर नहीं है कि तुम उस तरफ जा रहे हो। रहेगी; घड़ी का समय कोई असली समय थोड़े ही है। लेकिन जिंदगानी है फकत गर्मि-ए-रफ्तार का नाम उस चित्रकार के लिए सब ठहर गया। जब कोई गीतकार गीत मंजिलें साथ लिए राह पे चलते रहना। गाता है, और सिर्फ प्रदर्शन नहीं करता, वस्तुतः गाता है, और मंजिल तम्हारे साथ ही है, तुम्हारे चलने में है, तुम्हारी गति में ऐसे ओंठ ही नहीं हिलाता, हृदय से प्रवेश हो जाता है, तो समय है। मंजिल गंतव्य नहीं है, तुम्हारी गति की प्रखरता का नाम है । ठहर जाता है। जब कोई नर्तक नाचता है और नाच ही हो जाता तुम्हारी गति की तीव्रता, त्वरा का नाम है। जब तुम इतने गतिमान है, तो समय ठहर जाता है। जहां भी क्रिया परिपूर्ण है, वहीं समय 171 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 ठहर जाता है। जहां भी क्रिया अपूर्ण है, वहीं समय चलने लगता जिसके लिए तुम नाचना चाहते हो-समय मिट जायेगा। समय है। जहां क्रिया बहुत अपूर्ण है, झटके ले लेकर चलती है, तुम तनाव है। जहां तनाव नहीं वहां समय नहीं। जहां तुम बे-तनाव चलना भी नहीं चाहते और चलते हो, मजबूरी होती है-वहां हो, वहां समय नहीं; तुम समयातीत हो गये, कालातीत हो गये। समय लंबा होने लगता है। | और यही बात जो समय के संबंध में सच है वही बात क्षेत्र के तुमने कभी खयाल किया! कोई प्रेमी घर आ जाये, घंटा बीत संबंध में भी सच है। टाइम-स्पेस, समय और क्षेत्र यह दोनों जाता है, क्षणभर मालूम पड़ता है। और कोई उबानेवाले सज्जन एक साथ खो जाते हैं, जब तुम्हारी लीनता परिपूर्ण होती है। घर आ जायें और बकवास करें, दो-चार-पांच मिनट भी ऐसे भक्त अपनी भक्ति में भूल जाता है-सब भूल जाता है। लगते हैं जैसे कि घंटों लगाये दे रहे हैं। क्या हो जाता है ? समय भगवान को भी भूल जाता है। धुन रह जाती है। मस्ती रह जाती में इतना अंतर क्यों हो जाता है? । है। ध्यानी अपने ध्यान में भूल जाता है-ध्यान को भी भूल समय बड़ा लोचपूर्ण है। जब तुम सुख अनुभव करते हो, जाता है। फिर बस एक सुवास रह जाती है। वह सुवास इस समय छोटा हो जाता है। तब तुम मित्र की बातें सुन रहे हो, पृथ्वी की नहीं है। उस सुवास को न तो समय घेरता है, न स्थान साधारण-सी बातें हैं, बड़ी मधुसिक्त हो जाती हैं। जब कोई आ घेरता है। वह सुवास समय-क्षेत्र अतीत है। जाता है उबानेवाला, चाहे बातें वह बड़ी मधुर कर रहा हो, लेकन दिल की बस्ती अजीब बस्ती है तुम्हें रास नहीं आता। तो एक भेद पड़ गया। तुम उस चर्चा में | लूटनेवाले को तरसती है डूब नहीं पाते। चर्चा की क्रिया गतिमान नहीं हो पाती, हिम्मत चाहिए लुटने की। जहां भी लुट जाओ, वहीं से धर्म ठहर-ठहर जाती है, लंगड़ाती है। तुम जबर्दस्ती बार-बार घड़ी का द्वार खुल जायेगा। वहीं गुरुद्वारा है। देखते हो, जम्हाई लेते हो, कोई तरह इशारा करते हो कि भाई इसलिए इसकी बहुत फिक्र मत करो कि कैसे। जो तुम्हें रास देखो, अब जाओ भी! आ जाये, जो तुम्हें जम जाये-भक्ति तो भक्ति, ज्ञान तो ज्ञान, अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन में उल्लेख है कि एक मित्र के घर कर्म तो कर्म–लेकिन कहीं से भी ऐसी घड़ी बना लो, जहां गया था। भुलक्कड़ आदमी था। बात चलती रही, भोजन हो समय मिट जाये; जहां तुम इतने डूब सको, इतने डूब सको कि गया। फिर बात चलती रही। मित्र बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई कोई रेखा तनाव की न रह जाये-समग्र मन से, समग्र तन से। ले। आइंस्टीन भी बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई ले; लेकिन उठे नहीं तो जिंदगी में दुख ही दुख होगा, पीड़ा ही पीड़ा होगी। न। आखिर मित्र ने कहा, 'दो बज रहे हैं, पत्नी राह देखती पीड़ा का अर्थ है : तनाव की पत। दुख का अर्थ है : परमात्मा होगी...।' आइंस्टीन ने कहा, 'मतलब?' | से चूकते जाना। दुख का अर्थ है : सत्य से चूकते जाना। दुख .. मित्र ने कहा, 'मेरा मतलब यह है कि पत्नी राह देखती का अपने-आप में कोई अस्तित्व नहीं है। सत्य से तुम्हारी होगी...। वैसे कोई हर्जा नहीं है, आप बैठे और।' आइंस्टीन जितनी दूरी है उतना ही दुख है। घबड़ाकर खड़ा हो गया। उसने कहा, 'हद्द हो गई, मैं तो सोचता नारद उसे ईश्वर कहते हैं। महावीर उसे सत्य कहते हैं। पर था कि कब आप जायें तो मैं सोऊं। मैं तो यही सोच रहा था कि | इशारे उनके एक ही की तरफ हैं। मैं अपने घर में हूं।' हर तरफ छा रही है तारीकी दोनों घड़ी देख रहे हैं, दोनों जम्हाई ले रहे हैं। समय बड़ा लंबा | आओ मिल जुल के जिक्र-यार करें। मालूम पड़ता है। जिनको उस परमात्मा का प्रेम की भाषा में स्मरण करना जब तुम किसी क्रिया के साथ लीन नहीं हो पाते, वही क्रिया, हो-आओ मिल जुल के जिक्रे-यार करें! चलो उस परमात्मा ठीक वही क्रिया...। | की बात करें, उसका गीत गायें, उसके लिए नाचें। तुम नाच रहे हो-किसी और के लिए, नाचना नहीं चाहते, तो जिन्हें यह रास न आता हो, जिन्हें यह बात कुछ स्त्रैण लगती समय रहेगा। तुम नाच रहे हो अपने लिए, या किसी के लिए हो, जिन्हें यह बात जमती न हो, जिनके संकल्प को यह बात 172 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | बाधा डालती हो - तो महावीर कहते हैं, छोड़ो यह फिक्र, तुम्हारे लिए भी मार्ग है। जिस दिन तुम बने उसी दिन तुम्हारा मार्ग भी तुम्हारे साथ निर्मित हो गया है। तुम अपना मार्ग अपने साथ लाये हो। ऐसा कोई भी नहीं है जो परमात्मा से चूके। हां, अगर तुम्हारी मर्जी ही चूकने की हो तो परमात्मा बाधा नहीं डाल सकता। जो चूकना चाहता है वही चूकता है। जिसको पहुंचना है वह पहुंच जाता है मैंने सुना है, . एक शराबी बैठा था राह के किनारे और एक | आदमी ने कार रोकी और उसने कहा कि मुझे स्टेशन जाना है, कहां से जाऊं। रास्ता भूल गया हूं। अजनबी हूं यहां । शराबी ने झकझोर कर अपने को जरा सजग किया। और उसने कहा, ऐसा करो, पहले बायें जाओ –दो फर्लांग । फिर चौरस्ता पड़ेगा। फिर तुम उससे दायें मुड़ जाना-दो फर्लांग। फिर उसने कहा कि नहीं-नहीं, यह तो गलत हो गया। तुम यहां से | दायें जाओ । चार फर्लांग के बाद मस्जिद पड़ेगी। बस मस्जिद के पास से तुम बायें मुड़ जाना। उसने कहा कि नहीं-नहीं, यह फिर गलत हो गया। अब तो वह अजनबी भी थोड़ा मुश्किल में पड़ा कि यह मामला क्या है। उसने फिर कहा कि तुम ऐसा करो कि जहां से तुम आये हो उसी तरफ लौट जाओ। आठ फर्लांग के बाद नदी पड़ेगी, पुल आयेगा । उसने कहा, कि नहीं- नहीं फिर गलत हो गया। मेरे एक मित्र हैं, बड़े धनी हैं; लेकिन चलते हमेशा पैसेंजर गाड़ी से एक दफा मुझे उनके साथ चलना पड़ा। तीन दिन लग गये पहुंचने में जहां एक घंटे में पहुंच सकते थे। मैंने कहा कि मामला क्या है। वे कहने लगे कि मुझे पसंद ही नहीं कुछ और। उनके साथ चला तो मुझे भी समझ में आया बात तो वे भी ठीक कहते हैं। पैसेंजर गाड़ी का चलना, हर स्टेशन पर ठहरना । और उनको, वे काफी यात्रा करते रहे हैं तो हर स्टेशन पर उनकी पहचान है । कहां के भजिये अच्छे हैं, कहां की गुजिया अच्छी है, कहां का दूध, कहां की चाय, कहां की चाय केसर मिली है - वह सारा हिंदुस्तान का उनको हिसाब है। वे कहते यह भी कोई चलना कि बैठे हवाई जहाज में, यह कोई यात्रा है। इधर बैठे, उधर उतर गये! यह कोई बात हुई ? चलने का मजा ही न रहा। अपनी-अपनी मौज है। बैलगाड़ी का भी मजा है। हवाई जहाज का भी मजा है। संकल्प से भी पहुंचते हैं लोग, समर्पण से भी पहुंचते हैं लोग। जैसा उस शराबी ने कहा था, यहां से पहुंचने का कोई उपाय नहीं है— मैं भी एक शराबी हूं, मैं तुमसे कहता हूं, यहां से पहुंचने के सब उपाय हैं। और जो भी रास्ते हैं सब उसी की तरफ जाते हैं। तुम बायें चलना चाहते हो तो बायें से पहुंचने का उपाय है। तुम दायें चलना चाहते हो तो दायें से पहुंचने का उपाय है। उस ड्राइवर ने कहा, 'महानुभाव ! मैं किसी और से पूछ तुम लौटना चाहते हो पीछे तो लौटकर पहुंचने का उपाय है। न चलना चाहो तो खड़े-खड़े पहुंच जाने का उपाय है। लूंगा।' उसने कहा कि तुम किसी और से ही पूछ लो तो अच्छा, क्योंकि जहां तक मैं समझता हूं, यहां से स्टेशन पहुंचने का कोई उपाय ही नहीं है। जो जैसा है वहीं से उपाय है। जो जहां है वहीं से उपाय है। निराश मत होना । संकल्प सधे, संकल्प; न सधे, चिंता मत करना । साधनों की बहुत फिक्र मत करना, साध्य को स्मरण रखना। राह की कौन चिंता करता है, वाहन की कौन फिक्र करता है, बैलगाड़ी से पहुंचे कि हवाई जहाज से पहुंचे - पहुंच गये। हवाई जहाज के भी मजे हैं, बैलगाड़ी के भी मजे हैं। हवाई जहाज में समय बच जाता है, लेकिन बैलगाड़ी में जो सौंदर्य का, दोनों तरफ के रास्तों का अनुभव होता है, वह नहीं हो पाता। बैलगाड़ी में थोड़ा समय लगता है, लेकिन दोनों तरफ पृथ्वी के सुहावने दृश्य उभरते हैं। सम्यक ज्ञान मुक्ति है तीसरा प्रश्न: क्या कारण है कि महावीर का 'जिन' मात्र जैन बनकर रह गया ? सदा ही ऐसा होता है। महावीर के ही अनुयायी के साथ ऐसा हुआ, नहीं; सभी के साथ ऐसा होता है। ऐसा ही होगा। प्रकृति का नियम है। जब महावीर जीवित होते हैं तब जिनत्व होता है; जब वे जा चुके होते हैं तब 'जैन' का प्रादुर्भाव होता है। : जैन का अर्थ है जो जिन तो नहीं हुआ, जो जिन होना भी नहीं चाहता; लेकिन परंपरा से, संस्कार से, जैन घर में पैदा हुआ है। यह संस्कार उधार हैं; स्वेच्छा से वरण नहीं किये गये। और जो धर्म स्वेच्छा से वरण नहीं किया गया है, वह केवल बौद्धिक है, 173 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 आत्मिक नहीं है। यह सभी के साथ होगा। यह स्वाभाविक है। तो मैंने कहा, तुम एक काम करो। तुम एक तीन दिन नियम एक डाक्टर ने नौकर को आदेश दे रखा था कि कोई काम उनसे रखो कि नमस्कार न करोगे हनुमान जी को। बोले कि 'अगर पूछे बगैर न करे। एक दिन वे दवाइयों की डोज़ देख रहे थे कि नाराज हो गये...तो?' नौकर आकर बोला, 'सर! चाय में कितनी चीनी दूं?' "वह मेरा जुम्मा। मैं निपट लंगा। तीन दिन में कर लूंगा 'दो या तीन चम्मच भर', डाक्टर ने कहा। | तुम्हारी तरफ से नमस्कार। लेकिन तुम तीन दिन...।' नौकर थोड़ी देर बाद फिर आया और बोला, 'सर! सब्जी में उन्होंने कहा कि बड़ा मुश्किल होगा। मैंने कहा, तुम कोशिश नमक कितना देना है?' तो करो। तीन दिन संभव न हो पाया। वे शाम को उसी दिन 'दो या तीन चम्मच भर', थोड़ा नाराज होते डाक्टर बोला। आये। उन्होंने कहा, मुश्किल है। वह तो याद ही नहीं रहती, फिर थोड़ी देर में लौटकर नौकर आया और उसने कहा कि एकदम से हाथ झुक जाता है। सर, चावल कितना बनेगा? 'कितनी बार कहा', डाक्टर | अब यह पूजा हुई? यह प्रार्थना हुई? यह तो एक मजबूरी हो चीखा, 'दो या तीन चम्मच भर।' गई, एक बेहोशी हो गई। यह तो एक आदत हो गई; जैसे चावल दो या तीन चम्मच भर! लेकिन धीरे-धीरे लकीरें बन सिगरेट पीनेवाले को सिगरेट की तलफ लगती है, हाथ खीसे में जाती हैं। उत्तर निर्णीत हो जाते हैं। बहुत बार जो बात तुमने कही | | चला जाता है, पैकेट बाहर निकल आता है, सिगरेट ठोंकने | है, तम उसे कहने के लिए धीरे-धीरे अवश हो जाते हो। बहुत | लगता है पेकेट पर। एक यांत्रिक प्रक्रिया हो गई। बार जिस मंदिर के सामने तुम झुके हो, तुम झुक जाते हो मूर्छा जब तुम धर्म को बिना स्वेच्छा के स्वीकार कर लेते हो, में, झुकना सच नहीं होता। तुम्हें पक्का भी नहीं होता। | आदतवश, संस्कारवश, परंपरावश, तब तुम एक खतरे में पड़ मेरे एक मित्र हैं। मेरे साथ घूमने जाते थे। हनुमान के भक्त रहे हो, क्योंकि धर्म तो तभी धर्म होता है जब तुम स्वेच्छा से, | हैं। अब हनुमान के भक्त की बड़ी दिक्कत है, क्योंकि जितने सावचेत, सावधानी से स्वीकार करो। धर्म तो तभी धर्म होता है हनुमान के मंदिर, मूर्ति इधर-उधर सब जगह हैं...। जहां जाएं, जब तुम्हें जगाये, सुलाये न।। वहीं उनको...। तो उनको जगह-जगह नमस्कार...। तो तुम दोहरा सकते हो। जैन दोहरा रहा है। 'जिन' होना हो और हनुमान के साथ खतरा है कि नाराज न हो जायें। एक तो जीना पड़ेगा; दोहराने से काम न होगा। महावीर के वचन और झंझट! तो मैंने उनसे कहा कि यह तुम क्या करते हो। | याद कर लेने से कुछ भी न होगा। जीना पड़ेगा। उन्हें फिर से दिनभर ? तुमको कोई काम दूसरा नहीं सूझता? चलो तो | खोजना पड़ेगा कि जीवन की सचाई उनमें है या नहीं। तुम्हें मुसीबत। रिक्शा रोककर उतरते हैं, पहले नमस्कार। हनुमान प्रमाण बनना पड़ेगा शास्त्र का। तुम्हें खबर देनी पड़ेगी अपने जी नाराज न हो जायें! खुद के अन्वेषण से कि ठीक है, मेरा अन्वेषण भी मुझे वहीं ले मैंने कहा, 'और जहां तक मैं देखता हूं, न तो तुम्हारे नमस्कार आता है जहां महावीर का अन्वेषण ले गया; मैं भी तालमेल में कोई रस है। मैं देखता हूं, एक तरह की फजीहत, एक तरह की पाता हूं; उन्होंने जो कहा, ठीक कहा है; यह मेरा अनुभव भी परेशानी! तुम झिझियाये से, खिझियाये से नमस्कार करते हो।' कहता है-तब तो तुम 'जिन' हो पाओगे। बोले, 'बात तो ठीक है क्योंकि बचपन से यह आदत मेरे। लेकिन अगर तुम दोहराते रहे, तो दोहराते रह सकते हो। तुम पिताजी ने डाल दी है। वे भी यही करते थे। वे भी खिझियाए जैन बने-बने सड़ जाओगे। रहते थे। क्योंकि गांव क्या है, जहां देखो वहीं हनुमान जी बैठे तुम कहीं पहुंच न पाओगे। हैं। इस झाड़ के नीचे बैठे हैं, उस झाड़ के नीचे बैठे हैं। फिर शास्त्रों से हम जो अर्थ लेते हैं, उस अर्थ के लिए भी बड़ी हनुमानजी के बैठने में दिक्कत नहीं लगती। कहीं भी पत्थर रख साक्षी भाव-दशा चाहिए, तो ही अर्थ का फूल तुम्हारे भीतर दो, लाल रंग से रंग दो। झंझट खड़ी हो गई। अब ये हनुमान जी खिलेगा। शब्द तो मिल जाते हैं शास्त्र से, अर्थ कहां से हैं, अब अगर न इनको नमस्कार करो तो नाराज हो जायेंगे। लाओगे? अर्थ तो तुम्हें डालना होगा। 174 ain Education International Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक ज्ञान मुक्ति है एक रोगी ने अपने डाक्टर से आकर कहा कि बड़ी कठिनाई है; अमरीका का बना है?' पर उसने कहा, 'इस पर लिखा हुआ जो आपने कहा था, हो नहीं पाता। डाक्टर ने कहा कि मैंने ऐसी है: मेड इन यू. एस. ए.। तो वह सिंधी नाराज हुआ। उसने कोई कठिन बात तुमसे कही न थी। इतना ही तो कहा था कि जो कहा, 'कोई यू. एस. ए. ने यू. एस. ए. लिखने का ठेका ले तुम्हारा बच्चा खाता है, वही भोजन तुम लो। इसमें क्या अड़चन | रखा है? अरे, यू. एस. ए. का मतलब होता है: उल्हासनगर है? कुछ दिन तक जो तुम्हारा बच्चा लेता है, वही भोजन तुम | सिंधी एसोसिएशन।' लो, तो तुम्हारा शरीर ठीक रास्ते पर आ जायेगा। __ अपने-अपने हिसाब हैं, अपने-अपने मतलब हैं। यू. एस. उसने कहा कि मैंने प्रयत्न तो किया, पर सफल न हो सका। ए. की चीज खरीदते वक्त उल्हासनगर के सिंधियों को याद डाक्टर ने कहा, 'क्या बेवकूफी है? इतनी-सी बात तुमसे न हो रखना। तुम ही तो अर्थ डाल लोगे। शब्द तो बेचारा क्या सकी कि तुम्हारा बच्चा जो खाता है वही तुम खाओ? दूध पीता | करेगा! अर्थ तो तुम जोड़ोगे! अर्थ तो तुम निकालोगे! है तो दूध पीओ। खिचड़ी खाता है तो खिचड़ी खाओ। और | महावीर की नग्नता हुई-सहज, स्वाभाविक, सहजस्फूर्त। जितनी थोड़ी मात्रा में खाता है उतनी ही मात्रा में खाओ। यह भी मेरे एक मित्र हैं जैन-संन्यासी। उनके गांव के पास से गुजरता तुमसे न हो सका?' | था तो मैंने गाड़ी रुकवाई। मैंने कहा कि उनको मिलता चलूं, वर्षों उसने कहा कि महाराज, मेरा बच्चा मोमबत्ती, कोयला, मिट्टी से मिला नहीं। देखा खिडकी से तो वे अपनी छोटी-सी कोठरी जूते के फीते, ऐसी कौन-सी चीज है जो नहीं खाता! वही तो मैं में दूर जंगल में रहते हैं-नग्न टहल रहे थे। जब मैं दरवाजे मरा जा रहा हूं खा-खाकर। मेरी हालत और खराब हो गई है। पर गया और मैंने दस्तक दी तो वे आए तो चादर लपेटे थे। मैंने थोड़ी सावधानी चाहिए। अर्थ तो तुम डालोगे! पूछा, 'मामला क्या है? अभी तो मैंने खिड़की से देखा, तुम महावीर कहते हैं, उपवास; तुम पढ़ोगे, अनशन। महावीर नग्न थे; चादर क्यों लपेट ली?' वे हंसने लगे। उन्होंने कहा कहते हैं, सत्य में संयम छिपा है; तुम पढ़ोगे, संयम में सत्य कि जरा अभ्यास कर रहा हूं। छिपा है। ऐसे चूकते चले जाओगे। फिर तुम अपनी मतलब की 'काहे का अभ्यास कर रहे हो?' बात सदा निकाल लोगे। आदमी अपनी मतलब की बात वे अभी ब्रह्मचारी हैं, जैनियों की पहली सीढ़ी पर हैं संन्यास निकाल लेता है। की। मुनि जब नग्न होते हैं, तो वे पांचवीं सीढ़ी हैं। तो उन्होंने मैं जबलपुर बहुत वर्षों तक रहा। एक बूढ़े सिंधी की दुकान कहा, थोड़ा अभ्यास कर रहा हूं। मैंने कहा, कैसे अभ्यास थी। पुरानी किताबें, पुराना कागज, खरीदता और बेचता। मैं भी करोगे? उन्होंने कहा, 'पहले अकेले में करता हूं। नग्न होने की उसकी दुकान पर पुरानी किताबों की तलाश में जाता था। थोड़ी आदत हो जाये। फिर मित्र, परिचितों के बीच रहूंगा। फिर कभी-कभी बड़े महत्वपूर्ण शास्त्र उसकी किताब की दुकान पर । | धीरे-धीरे गांव में जाऊंगा। फिर शहर में भी। ऐसे हिम्मत बढ़ से मिल गये। उस सिंधी को....सिंधियों में ऐसी मान्यता थी कि जायेगी। अभी तो बड़ा संकोच लगता है।' वह कुछ धार्मिक है, वे उसको साईं कहते थे। मैं भी किताबें मैंने उनसे पूछा, 'तुमने कभी सुना कि महावीर ने ऐसा पुरानी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते, सुनता रहता था उसकी बातें; उसके कुछ अभ्यास किया था। नग्नता अभ्यास से आये तो निर्दोष कहां शिष्य-शागिर्द भी कभी-कभी बैठे रहते थे। एक दिन एक रही? अभ्यास तो हर चीज को दोषी बना देता है। अभ्यास का आदमी आया जो फाउन्टेनपेन खरीदकर ले गया था। पुरानी और तो मतलब हुआ—परफार्मेन्स। अभ्यास का तो अर्थ चीजें भी वह खरीदता-बेचता था। वह आदमी बड़ा नाराज था। हुआ—नाटक। यह तुम रिहर्सल कर रहे हो मुनित्व का, मुनि उसने कहा कि यह तुमने धोखा दिया। यह तो फाउन्टेनपेन चार होने का? तैयारी कर रहे हो? यह कोई नाटक है या जीवंत आने का भी नहीं है और लिखा है इस पर 'मेड इन यू. एस. घटना है? माना कि तुम संकोच छोड़ दोगे अभ्यास करने से; ए.।' यह है नहीं 'अमरीका का बना।' अभ्यास से जो संकोच छूट जायेगा उससे क्या निर्दोषता वह सिंधी नाराज हुआ। उसने कहा, 'कहा किसने कि यह आयेगी? निर्दोषता तो तब आती है जब समझ से संकोच गिरता 175 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 जिन सूत्र भाग: 1 . अभ्यास से नहीं ।' आदमियों से थोड़े ही बंधना है - सत्य की खोज करनी है ! समझ अभ्यास बन गई। फिर चूक हो गई। तो 'जिन' तो खो जहां से जितना इशारा मिल जाये, जीवंत, उतना ले लेना और गये, जैन हैं। आगे बढ़ते जाना। एक दिन ऐसी घड़ी भी आ जायेगी कि तुम अपना भी प्रकाश पैदा कर लोगे। तब फिर किसी गुरु की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और ऐसा ही सभी धर्मों के साथ हुआ है। ऐसा ही मैं जो तुमसे कह रहा हूं, मेरे साथ होगा। यह प्रकृति का नियम है। इसलिए इस पर नाराज मत होना। जब तुम्हें समझ में आ जाये तो तुम खिसक जाना इसके घेरे के बाहर, बस। इस पर नाराज होने जैसा कुछ नहीं है। ऐसा सदा होगा। आखिर मैं अपने शब्दों का अर्थ करने कितनी देर बैठा रहूंगा ? एक न एक दिन तुम मेरे शब्दों का अर्थ करने के मालिक हो जाओगे। फिर मैं कुछ न कर सकूंगा। तुम जो अर्थ निकालोगे, तुम्हारी मौज । इसलिए तो इतने धर्मों के संप्रदाय पैदा होते हैं। अब महावीर के भी संप्रदाय हो गये। छोटी-सी संख्या है जैनों की; उसमें भी दिगंबर हैं, श्वेतांबर हैं; फिर श्वेतांबरों में भी स्थानकवासी हैं, और तेरापंथी हैं; और एक गच्छ, दूसरा गच्छ । फिर दिगंबरों में भी तारणपंथी हैं। और छोटे-छोटे पंथ! और उनके झगड़े क्या हैं—बड़े छोटे-छोटे ! हंसने जैसे कुछ मुद्दा नहीं है उनमें। लेकिन सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि जब सदगुरु जा चुका तो अनुयायी अपने-अपने तरह से अर्थ करेंगे । अर्थों में भेद हो जायेंगे। भेदों के माननेवाले अलग-अलग हो जायेंगे, संप्रदायों में टूट जायेंगे। यह भेद कुछ महावीर के वचनों में नहीं है । यह भेद अर्थ करनेवालों की व्याख्या में है । सब व्याख्याएं तुम्हारी होंगी। तो क्या उपाय है ? . इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि अगर तुम्हें कोई जीवित गुरु मिल सके, तो खोज लेना; अगर न मिल सके तो मजबूरी में शास्त्र में उतरना । क्योंकि शास्त्र में तुम अकेले छूट जाओगे। तुम्हीं अर्थ करोगे, तुम्हीं पढ़ोगे। कौन निर्णय देगा कि तुमने जो पढ़ा, ठीक पढ़ा? कि तुमने जो अर्थ किया वह ठीक किया ? बहुत बेईमानी की संभावना पैदा हो जाती है, जब तुम अकेले छूट जाते हो। तुम बेईमान हो ! अपनी इस बेईमानी के प्रति सावचेत रहना । कहीं ऐसे व्यक्ति को खोजो, जो तुमसे चार कदम भी आगे हो तो भी चलेगा। कम से कम चार कदम तो तुम सुरक्षा से प्रकाश में चल सकोगे ! फिर चार कदम के बाद वह काम का न रह जाये, किसी और को खोज लेना । आखिरी प्रश्नः किसी सुंदर युवती को देखकर जाने क्यों मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता है, आंखें उसे निहारने लगती हैं ! मेरी उम्र पचास हो गई है, फिर भी ऐसा क्यों होता है? क्या यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता की स्तुति ? कृपया मेरा मार्ग-निर्देश करें। ऐसा होता है निरंतर; क्योंकि जब दिन थे तब दबा लिया। तो रोग बार-बार उभरेगा। जब जवान थे, तब ऐसी किताबें पढ़ते रहे जिनमें लिखा है : ब्रह्मचर्य ही जीवन है। तब दबा लिया। जवानी के साथ एक खूबी है कि जवानी के पास ताकत है— दबाने की भी ताकत है। वही ताकत भोग बनती है, वही ताकत दमन बन जाती है। लेकिन जवान दबा सकता है। मेरे • अनुभव में अकसर ऐसी घटना घटती रही है, लोग आते रहे हैं, कि चालीस और पैंतालीस साल के बाद बड़ी मुश्किल खड़ी होती है, जिन्होंने भी दबाया। क्योंकि चालीस - पैंतालीस साल के बाद, वह ऊर्जा जो दबाने की थी वह भी क्षीण हो जाती है। तो वह जो दबाई गई वासनाएं थीं, वे उभरकर आती हैं। और जब बे-समय आती हैं तो और भी बेहूदी हो जाती हैं। जवान स्त्रियों के पीछे भागता फिरे, कुछ भी गलत नहीं है; स्वाभाविक है; होना था, वही हो रहा है। बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते फिरें, ठीक है। बूढ़े दौड़ने लगें - तो फिर जरा रोग मालूम होता है। लेकिन रोग तुम्हारे कारण नहीं है, तुम्हारे तथाकथित साधुओं के कारण है— जिनने तुम्हें जीवन को सरलता से जीने की सुविधा नहीं दी है। बचपन से ही जहर डाला गया है: कामवासना पाप है। तो कामवासना को कभी प्रफुल्ल मन से स्वीकार नहीं किया। भोगा भी, तो भी अपने को खींचे रखा। भोगा भी, तो कलुषित मन से, अपराधी भाव से; यह मन में बना ही रहा कि पाप कर रहे हैं। संभोग में भी उतरे तो जानकर कि नर्क का इंतजाम कर रहे हैं। . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक ज्ञान मुक्ति है अब तुम सोचो, जब तुम संभोग में उतरोगे और नर्क का भाव एक सिनेमा-गृह में ऐसा घटा। एक महिला पास में बैठे एक बना रहेगा, क्या खाक उतरोगे? संभोग की सुरभि तुम्हें क्या बदतमीज बूढ़े से तंग आ गई थी, जो आधे घंटे से सिनेमा देखने घेरेगी? वह नृत्य पैदा न हो पायेगा। तो तुम बिना उतरे वापिस की बजाय उसे ही घरे जा रहा था। लौट आओगे। शरीर के तल पर संभोग हो जायेगा; मन के तल आखिर उसने फुसफुसाकर उस आदमी से कहा, 'सुनिए, पर वासना अधूरी अतृप्त रह जायेगी। मन के तल पर दौड़ जारी आप अपना एक फोटो मुझे देंगे?' होने लगोगे और शरीर कमजोर होने लगेगा आदमी बाग-बाग हो गया : 'जरूर जरूर। एक तो मेरी जेब और शरीर की दबाने की पुरानी शक्ति क्षीण होने लगेगी और में ही है। लीजिए! हां, क्या कीजिएगा मेरे फोटो का?' मौत दस्तक देने लगेगी दरवाजे पर और लगेगा कि अब गये, उसने कहा, 'अपने बच्चों को डराऊंगी।' अब गये—तब ऐसा लगेगा, यह तो बड़ा गड़बड़ हुआ; भोग सावधान रहना। वही जो एक समय में शुभ है, दूसरे समय में भी न पाये और चले! डोली तो उठी नहीं, अर्थी सज गई! तो अशुभ हो जाता है। वही जो एक समय में ठीक था, सम्यक था, मन बड़े वेग से स्त्रियों की तरफ दौड़ेगा, पुरुषों की तरफ दौड़ेगा। स्वभाव के अनुकूल था, वही दूसरे समय में अरुचिपूर्ण हो जाता यह तथाकथित समाज के द्वारा पैदा की गई रुग्ण अवस्था है। है, बेहूदा हो जाता है।। बच्चे को उसके बचपन को पूरा जीने दो, ताकि जब वह जवान हो जिन मित्र ने पूछा है, उनको थोड़ा जागकर अपने मन में पड़ी जाये तो बचपन की रेखा भी न रह जाये; ताकि वह पूरा-पूरा हुई, दबी हुई वासनाओं का अंतर्दर्शन करना होगा। अब मत जवान हो सके। जवान को पूरा जीने दो, उसे अपने अनुभव से दबाओ! कम से कम अब मत दबाओ! अभी तक दबाया और, ही जागने दो; ताकि जवानी के जाते-जाते वह जो जवानी की उसका यह दुष्फल है। अब इस पर ध्यान करो। क्योंकि अब उम्र दौड़-धूप थी, आपाधापी थी, मन का जो रोग था, वह भी चला भी नहीं रही कि तुम स्त्रियों के पीछे दौड़ो या मैं तुमसे कहूं कि जाये; ताकि बूढ़ा शुद्ध बूढ़ा हो सके। और जब कोई बूढ़ा शुद्ध उनके पीछे दौड़ो। वह बात जंचेगी नहीं। वे तुमसे फोटो मांगने बूढ़ा होता है तो उससे सुंदर कोई अवस्था नहीं है। लेकिन जब लगेंगी। अब जो जीवन में नहीं हो सका, उसे ध्यान में घटाओ। बूढ़े में जवान घुसा होता है, तब एक भूत तुम्हारा पीछा कर रहा अब एक घंटा रोज आंख बंद करके, कल्पना को खुली छूट है। तब तुम एक प्रेतात्मा के वश में हो। तब तुम्हें बड़ा | दो। कल्पना को पूरी खुली छूट दो। वह किन्हीं पापों में ले जाये, भटकायेगा। तब तुम्हें बड़ा बेचैन करेगा। और जैसे-जैसे शरीर जाने दो। तुम रोको मत। तुम साक्षी-भाव से उसे देखो कि यह अशक्त होता जायेगा वैसे-वैसे तम पाओगे, वेग वासना का मन जो-जो कर रहा है, मैं देखं । जो शरीर के द्वारा नहीं कर पाये, बढ़ने लगा। वह मन के द्वारा पूरा हो जाने दो। तुम जल्दी ही पाओगे कुछ दिन एक स्त्री के संबंध में मैंने सुना है। वह चालीस से ऊपर की हो के...एक घंटा नियम से कामवासना पर अभ्यास करो, चुकी थी। मोटी हो गई थी, बेहूदी हो गई थी, कुरूप हो गई थी। कामवासना के लिए एक घंटा ध्यान में लगा दो, आंख बंद कर फिर भी बनती बहुत थी। दावत में पास बैठा युवक उसकी बातों | लो और जो-जो तुम्हारे मन में कल्पनाएं उठती हैं, सपने उठते हैं, से उकता गया था और भाग निकलने के लिए बोला, 'क्या जिनको तुम दबाते होओगे निश्चित ही-उनको प्रगट होने दो। आपको वह बच्चा याद है जो स्कूल में आपको बहुत तंग करता घबड़ाओ मत, क्योंकि तुम अकेले हो। किसी के साथ कोई तुम था...?' उसका हाथ पकड़कर स्त्री ने कहा, 'अच्छा, तो वह | पाप कर भी नहीं रहे। किसी को तुम कोई चोट पहुंचा भी नहीं तुम थे?' | रहे। किसी के साथ तुम कोई अभद्र व्यवहार भी नहीं कर रहे कि उसने कहा, 'नहीं, जी नहीं, मैं नहीं। वे मेरे पिताजी थे। किसी स्त्री को घूरकर देख रहे हो। तुम अपनी कल्पना को ही घूर एक उम्र है तब चीजें शुभ मालूम होती हैं। एक उम्र है तब | रहे हो। लेकिन पूरी तरह घूरो। और उसमें कंजूसी मत करना। चीजों को जीना जरूरी है। उसे अगर न जी पाये तो पीछा चीजें मन बहुत बार कहेगा कि 'अरे, इस उम्र में यह क्या कर रहे करेंगी। और तब चीजें बड़ी वीभत्स हो जाती हैं। हो!' मन बहुत बार कहेगा कि यह तो पाप है। मन बहुत बार Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल जिन सत्र भाग : 1 imes Gree aaja कहेगा कि शांत हो जाओ, कहां के विचारों में पड़े हो! कुछ कहना है।' मैं कहता हूं, सभी के सामने कह दो; एकांत मगर इस मन की मत सुनना। कहना कि एक घंटा तो दिया है | की क्या जरूरत है? वे कहते हैं कि नहीं, एकांत में। अब तो मैंने इसी ध्यान के लिए, इस पर ही ध्यान करेंगे। और एक घंटा एकांत में मिलना बंद कर दिया है। क्योंकि एकांत में...जब भी जितनी स्त्रियों को, जितनी सुंदर स्त्रियों को, जितना सुंदर बना साधु-संन्यासी आयें तो वे एकांत ही मांगते हैं। और एकांत में सको बना लेना। इस एक घंटा जितना इस कल्पना-भोग में डूब एक ही प्रश्न है उनका कि यह कामवासना से कैसे छुटकारा हो! सको, डूब जाना। और साथ-साथ पीछे खड़े देखते रहना कि | कोई सत्तर साल का हो गया है, कोई चालीस साल से मुनि मन क्या-क्या कर रहा है। बिना रोके, बिना निर्णय किये कि पाप है-तो तुम क्या करते रहे चालीस साल? कहते हैं, क्या है कि अपराध है। कुछ फिक्र मत करना। तो जल्दी ही तीन-चार बतायें, जो-जो शास्त्र में कहा है, जो-जो सुना है-वह करते रहे महीने के निरंतर प्रयोग के बाद हलके हो जाओगे। वह मन से हैं। उससे तो हालत और बिगड़ती चली गई है। धुआं निकल जायेगा। । मवाद को दबाया है, निकालना था। घाव पर तुमने ऊपर से तब तुम अचानक पाओगे: बाहर स्त्रियां हैं, लेकिन तुम्हारे मन मलहम-पट्टी की है; आपरेशन की जरूरत थी। तो जिस मवाद में देखने की कोई आकांक्षा नहीं रह गई। और जब तुम्हारे मन में को तुमने भीतर छिपा लिया है, वह अब तुम्हारी रग-रग में फैल | किसी को देखने की आकांक्षा नहीं रह जाती, तब लोगों का गई है; अब तुम्हारा पूरा शरीर मवाद से भर गया है। सौंदर्य प्रगट होता है। वासना तो अंधा कर देती है, सौंदर्य को तो थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। आपरेशन से गुजरना देखने कहां देती है ! वासना ने कभी सौंदर्य जाना? वासना ने तो होगा। और तुम्हीं कर सकते हो वह आपरेशन; कोई और कर अपने ही सपने फैलाये। नहीं सकता। तुम्हारा ध्यान ही तुम्हारी शल्यक्रिया होगी। तब और वासना दुष्पूर है; उसका कोई अंत नहीं है। वह बढ़ती ही एक घंटा रोज...। तुम चकित होओगे, अगर तुमने एक-दो चली जाती है। महीने भी इस प्रक्रिया को बिना किसी विरोध के भीतर उठाये, एक बहुत मोटा आदमी दर्जी की दुकान पर पहुंचा। दर्जी ने बिना अपराध भाव के निश्चित मन से किया, तो तुम अचानक अचकन के लिए बड़ी कठिनाई से उसका नाप लिया। फिर एक पाओगे: धुएं की तरह कुछ बातें खो गईं! महीने दो महीने के सौ रुपये की सिलाई मांगी। वे महाशय बोले, 'टेलीफोन पर तो बाद तुम पाओगे: तुम बैठे रहते हो, घड़ी बीत जाती है, कोई तमने पच्चीस रुपये सिलाई कही थी, अब सौ रुपये? हद्द हो | कल्पना नहीं आती, कोई वासना नहीं उठती। तब तुम अचानक गई! बेईमानी की भी कोई सीमा है!' पाओगे: अब तुम चलते हो बाहर, तुम्हारी आंखों का रंग और! दर्जी ने कहा, 'महाराज! वह अचकन की सिलाई थी, यह अब तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ेगा! क्योंकि सब सौंदर्य परमात्मा का शामियाने की है।' सौंदर्य है। स्त्री का, पुरुष का कोई सौंदर्य होता है? फूल का, अचकनें शामियाने बन जाती हैं। वासना फैलती ही चली | पत्ती का, कोई सौंदर्य होता है? सौंदर्य कहीं से भी प्रगट हो; जाती है। तंबू बड़े से बड़ा होता चला जाता है। अचकन तक सौंदर्य परमात्मा का है, सौंदर्य सत्य का है। लेकिन सौंदर्य को ठीक था, लेकिन जब शामियाना ढोना पड़े चारों तरफ तो देख ही वही पाता है, जिसने वासना को अपनी आंख से हटाया। कठिनाई होती है। वासना का पर्दा आंख पर पड़ा रहे, तुम सौंदर्य थोड़े ही देखते मैं अड़चन समझता हूं। लेकिन अड़चन का तुम मूल कारण | हो! सौंदर्य तुम देख ही नहीं सकते। खयाल में ले लेना : तुमने दबाया है। तुमने दमन किया है। तुम वासना कुरूप कर जाती है सभी चीजों को। इसलिए तमने गलत शिक्षा और गलत संस्कारों के द्वारा अभिशापित हुए हो। जिसको भी वासना से देखा, वही तुम पर नाराज हो जाता है। तुमने जिन्हें साधु-महात्मा समझा है, तुमने जिनकी बातों को कभी तुमने खयाल किया? किसी स्त्री को तुम वासना से देखो, पकड़ा है—न वे जानते हैं, न उन्होंने तुम्हें जानने दिया है। वही बेचैन हो जाती है। किसी पुरुष को वासना से देखो, वही मेरे पास साधु संन्यासी आते हैं तो कहते हैं, 'एकांत में आपसे थोड़ा उद्विग्न हो जाता है। क्योंकि जिसको भी तुम वासना से Main Education International . Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक ज्ञान मुक्ति है देखते हो, उसका अर्थ ही क्या हुआ? उसका अर्थ हुआ कि कहता हूं, वासना को जानो, तो मैं यही कह रहा हूं कि वासना से तुमने उस आदमी या उस स्त्री को कुरूप करना चाहा। जब भी मुक्त होने का एक ही उपाय है : उसे जान लो। जिसे हम जान तुम किसी को वासना से देखते हो, उसका अर्थ हआ कि तुमने लेते हैं, उसी से मुक्ति हो जाती है। किसी का साधन की तरह उपयोग करना चाहा; तुम किसी को सत्य बड़ा क्रांतिकारी है। जान लेने के अतिरिक्त और कोई भोगना चाहते हो। और प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं है। रूपांतरण नहीं है। तुम किसी को चूसना चाहते हो? तुम किसी को अपने हित में उपयोग करना चाहते हो? तुम किसी के व्यक्तित्व को वस्तु की आज इतना ही। तरह पद-दलित करना चाहते हो? वस्तुओं का उपयोग होता है, व्यक्तियों का नहीं। लेकिन जब तुम वासना से किसी को देखते हो, व्यक्ति खो जाता है, वस्तु हो जाती है। इसलिए वासना की आंख को कोई पसंद नहीं करता। जब वासना खो जाती है तो सौंदर्य का अनुभव होता है। और जब सौंदर्य का अनुभव होता है, तो तम्हारे भीतर प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम उस घड़ी का नाम है, जब तुम्हें सब जगह परमात्मा और उसका सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। तब तुम्हारे भीतर जो ऊर्जा उठती है, जो अहर्निश गीत उठता है-वही प्रेम है। अभी तो तुमने जिसे प्रेम कहा है, उसका प्रेम से कोई दर का भी संबंध नहीं है। वह प्रेम की प्रतिध्वनि भी नहीं है। वह प्रेम की प्रतिछाया भी नहीं है। वह प्रेम का विकृत रूप भी नहीं है। वह प्रेम से बिलकुल उलटा है। इसलिए तो तुम्हारे प्रेम को घणा बनने में देर कहां लगती है। अभी प्रेम था, अभी घृणा हो गई। एक क्षण पहले जो मित्र था, क्षणभर बाद दुश्मन हो गया। क्षणभर पहले जिसके लिए मरते थे, क्षणभर बाद उसको मारने को तैयार हो गये। तुम्हारा प्रेम प्रेम है? घृणा का ही बदला हुआ रूप मालूम पड़ता है। प्रेम सिर्फ तुम्हारी बातचीत है। प्रेम तो उनका अनुभव है जिनकी आंख से वासना गिर गई; जिन्हें सौंदर्य दिखाई पड़ा; जिसे सब तरफ उसके नृत्य का अनुभव हुआ; जिसे सब तरफ परमात्मा की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी। फिर प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम यानी प्रार्थना। प्रेम यानी पूजा। प्रेम यानी अहोभाव, धन्यता, कृतज्ञता। नहीं, अभी तुम्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ। अभी तो तुमने वासना को भी नहीं जाना, प्रार्थना को तुम जानोगे कैसे? वासना को जानो, ताकि वासना से मुक्त हो जाओ। जब मैं निरंतर तुमसे 179 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int r e WWW. br Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रवचन अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान For Private Personal Use Only www.Jainelibrary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।।२२।। ___ एगप्पा सजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी।।२३।। एगओ विरइं कुञ्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।।२४।। रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे। जे भिक्खू रूंभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले।।२५।। wwwjainelibrary.org Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्र : रत्तीभर भेद नहीं है। तो जो मझे प्रीतिकर है वही दूसरे को अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। प्रीतिकर है। जो दूसरे को प्रीतिकर है वही मुझे प्रीतिकर है। मैं अप्पा मित्तममित्तं च, दप्पट्टिय सप्पट्टिओ।। और दसरा दो अलग-अलग आयाम नहीं एक ही चैतन्य के 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता है। और आत्मा ही सुख-दुख दो रूप हैं; एक ही स्वभाव के दो संघट हैं। कर्ता है। सत्प्रवत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र पर महावीर की शिक्षा परम स्वार्थ की है। परार्थ की तो वे बात और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपात्तम स्थित आत्मा अपना ही शत्र है। ही नहीं करते। परार्थ की वे बात ही कैसे करेंगे। 'पर' को तो वे महावीर के चिंतन का सारा विश्व आत्मा है। महावीर के उड़ने कहते हैं, खयाल ही छोड़ दो। परार्थ के लिए भी पर का खयाल का सारा आकाश आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी | रखा तो पर से उलझे रह जाओगे। पर ही तो संसार है। दूसरे पर नहीं है। आत्मा से अन्यथा को कोई भी स्थान महावीर की धारणा | ध्यान रखना ही तो संसार है। दूसरे से अपने ध्यान को मुक्त कर में नहीं है। न संसार का कोई मूल्य है, न परमात्मा का कोई मूल्य लेना समाधि है। अपने पर लौट आए, अपने घर आ गए। है-दूसरे का कोई मूल्य ही नहीं है। मूल्य है तो अपना। अपना ध्यान अपने में ही लीन कर लिया। अपने से पार अब अगर ठीक से कहें और गलत न समझें तो महावीर से बड़ा | कुछ भी न बचा, जिसका कोई मूल्य है। स्वार्थी आदमी कभी हुआ नहीं। लेकिन गलत मत समझ लेना। इसलिए तो महावीर ने परमात्मा को स्वीकार न किया। क्योंकि स्वार्थ का अर्थ होता है : अपना अर्थ, अपना प्रयोजन। स्वार्थ परमात्मा को स्वीकार करने का तो अर्थ ही होता है, दूसरा का अर्थ होता है : अपना हित, अपना कल्याण, अपना मंगल। | महत्वपूर्ण बना ही रहेगा। वस्तुओं से छूटेंगे, दुकान से छूटेंगे तो जो स्वार्थ को पूरा साध लेते हैं उनसे परार्थ अपने आप सध जाता मंदिर महत्वपूर्ण हो जाएगा। धन से छटेंगे तो धर्म महत्वपूर्ण हो है। क्योंकि जो अपने हित में करता है वह दूसरे के अहित में जाएगा। पद से छूटेंगे तो परमात्मा का पद, परमपद, उसकी कभी कुछ कर ही नहीं पाता। क्योंकि जिसने अपने हित को आकांक्षा पैदा हो जाएगी। लेकिन हर हालत में दूसरा महत्वपूर्ण पहचानना शुरू किया, वह धीरे-धीरे जानने लगता है : जो अपने बना रहेगा। और महावीर का गहरा विश्लेषण यह है कि जब हित में है वह दूसरे के हित में भी है; और जो अपने हित में नहीं तक दसरा है तब तक संसार है। है, वह दूसरे के हित में भी नहीं है। इससे विपरीत भी, कि जो | जब तुम अकेले हो—इतने अकेले कि तुम्हें अकेलेपन का पता दूसरे के हित में नहीं है, वह अपने हित में नहीं हो सकता; और भी नहीं चलता; अगर अकेलेपन का पता चलता हो तो दूसरा जो दूसरे के हित में है वही अपने हित में हो सकता है। क्योंकि. अभी मौजूद है। अकेलेपन का पता तभी चलता है जब दूसरे की जैसा ही आत्मा है। मेरे और दूसरे के स्वभाव में याद आती है, जब दूसरे की आकांक्षा जगती है। दूसरे की कमी 185 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 जिन सूत्र भाग: 1 मालूम होती है तो अकेलेपन का पता चला है। अगर दूसरा बिलकुल ही खो गया है, तुम्हें दूसरे की याद भी नहीं आती तो अकेलेपन का पता कैसे चलेगा? अकेलापन तब परम हो जाता है, पूर्ण हो जाता है। उसको महावीर ने 'कैवल्य' कहा है । वह अकेलेपन की परिपूर्णता है। तुम इतने अकेले हो कि अकेलेपन का भी पता नहीं चलता। पता चलाने को तो दूसरे की थोड़ी-सी मौजूदगी चाहिए - छाया सही, स्मृति सही। अपने घर की तुम्हें दीवाल बनानी होती है, तो पड़ोसी चाहिए; पड़ोसी के बिना कहां तुम सीमा रेखा खींचोगे? पड़ोसी न भी प्रवेश कर सके तुम्हारी भूमि में तो भी पड़ोसी के बिना तुम अपनी भूमि किस भूमि को कहोगे? तो जहां तक अकेलेपन का पता चले वहां तक अकेलापन शुद्ध नहीं हुआ - दूसरा मौजूद है; किसी अंधेरे कोने में खड़ा है; दूर सही पर मौजूद है। उसकी भनक पड़ेगी, उसकी छाया होगी; प्रतिध्वनि होगी। इसे समझना। आत्मवान तुम तभी हो सकोगे, जब दूसरे की छाया की भी जरूरत तुम्हारी परिभाषा के लिए न रह जाए। तभी तुम आत्मा हो जब तुम दूसरे से मुक्त हो। अगर तुम्हें अपनी आत्मा की अनुभूति के लिए भी दूसरे का सहारा लेना पड़ता है तो वह अनुभूति भी निर्भर हो गई, वह अनुभूति भी सांसारिक हो गई। इसलिए आत्मा की गहनतम स्थिति में 'मैं' का भी पता न चलेगा, क्योंकि 'मैं' के लिए तो 'तू' का होना जरूरी है । 'तू' के बिना 'मैं' का क्या अर्थ ? कैसे कहोगे 'मैं ?' जब भी कहोगे 'मैं', 'तू' आ जाएगा; 'तू' पीछे के दरवाजे से प्रवेश कर जाएगा। इसलिए आत्मा का अर्थ अहंकार मत समझना, अस्मिता मत समझना । आत्मा तो तभी परिपूर्ण होती है जब 'मैं' का भी भाव विलीन हो जाता है। न कोई 'मैं' बचता, क्योंकि बच ही नहीं सकता - 'तू' ही नहीं बचा। कोई पर नहीं बचता, तभी तुम शुद्ध होते हो; इतने अकेले होते हो कि तुम्हीं पूरा आकाश – असीम होते हो । — महावीर परम स्वार्थी हैं । सभी धर्म अपनी पराकाष्ठा में स्वार्थी होते हैं; क्योंकि धर्म का बुनियादी आधार व्यक्ति है, समाज नहीं। यहीं तो राजनीति और धर्म का फर्क है । यहीं तो मार्क्स और महावीर का फर्क है। दूसरा महत्वपूर्ण है, तो समाज । मैं अकेला भर महत्वपूर्ण हूं, तो व्यक्ति । इससे तुम यह मत समझ लेना कि महावीर समाज विरोधी हैं। महावीर समाज से मुक्त हैं, विरोधी नहीं। और तुम इससे यह भी मत समझ लेना कि मार्क्स समाज का पक्षपाती है। समाज में है, लेकिन समाज का पक्षपाती नहीं है। यह जरा जटिल है । विरोधाभास मालूम होगा। इसे फिर से मैं दोहरा दूं । महावीर अपने स्वार्थ को इतनी गहनता से साधते हैं कि उनके स्वार्थ में सबका स्वार्थ सध ही जाता है; उसको अलग से साधने कि जरूरत नहीं रह जाती। जहां महावीर विचरण करते हैं, वहां भी सुख की किरणें छिटकने लगती हैं। जहां वे मौजूद होते हैं, वहां भी आनंद की लहरें बिखरने लगती हैं। जो आनंदित है, वह आनंद की लहरें अपने चारों तरफ पैदा करता है। जो दुखी है, वह दुख की लहरें पैदा करता है। तुम दुखी हो, तो तुम लाख चाहो कि दूसरे को सुख दे दूं, दोगे कहां से ? लाओगे कहां से? अपने लिए न जुटा पाए, दूसरे को कहां दोगे? दूसरे को तो देने की संभावना तभी है, जब इतना हो तुम्हारे पास कि तुम्हारी समझ में न आता हो कि क्या करें; जब इतना हो तुम्हारे पास, बाढ़ की तरह कि कूल-किनारों को तोड़कर बहा जाता हो; तुम इतने भरे हो आनंद से कि न लुटाओगे तो करोगे क्या ? बादल जब भर जाता है जल से, तो बरसता है। फूल जब भर जाता है गंध से, तो गंध को लुटाता है। दीया जब रोशनी से जगमगाता है, भरा होता है, तो रोशनी लुटाता है। करोगे क्या ? जो व्यक्ति आनंद को उपलब्ध हुआ, वह एक आनंदित समाज का आधार बनता है - लेकिन चेष्टा से नहीं— अनायास । सहज ही । सोचकर नहीं, विचारकर नहीं। वह कोई समाजवादी थोड़े ही होता है। ऐसा घटता है। जब भीतर के केंद्र पर अहर्निश वर्षा होती है, तो बाढ़ आती है। अमृत बरसता है तो बाढ़ आती है। फिर बाढ़ आती है तो लुटना भी शुरू हो जाता है। दूसरे को सुखी करने की चेष्टा में लगा है, उस पर जरा गौर करना । तुमने भी दूसरे को सुखी करने की चेष्टा की है— कर पाए ? कर इतना ही पाए कि उसे और दुखी कर दिया। पति Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी को सुखी करने की चेष्टा कर रहा है। पत्नी से पूछो। पत्नी पति को सुखी करने की चेष्टा कर रही है। पति से पूछो । मां-बाप बेटे-बच्चों को सुखी करने की चेष्टा कर रहे हैं। बच्चों से पूछो। तुम चकित होओगे ! राजनेता समाज को सुखी करने की कोशिश कर रहे हैं। समाज से पूछो। राजनेताओं से मत पूछो। लोगों से पूछो। कौन किसको सुखी कर पा रहा है ? सभी सभी को सुखी कर रहे हैं और संसार में सिवाय दुख के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता ! सभी, सभी को आनंद देने की चेष्टा में संलग्न हैं; मिलता है जो, उस पर तो खयाल करो! तुम्हारी अभिलाषा से थोड़े ही आनंद बंटेगा — होगा तो बंटेगा । और होने की यात्रा तो निजी है - आत्मा की है। तुम वही दे सकोगे जो तुम हो जाओगे। इसके पहले कि तुम दो हो जाओ। क्योंकि हम अपने को ही बांट सकते हैं, और तो कुछ बांटने को नहीं है। और अपने को भी हम तभी बांट सकते हैं, जब अनंत हो जाएं, नहीं तो कंजूसी होगी, डर लगेगा कि बांटा तो कुछ कमी हो जाएगी, छोटे हो जाएंगे। तो जब तक तुम इतने आत्मवान न हो जाओ कि तुम्हारी आत्मा का कोई किनारा न हो, तुम तटहीन सागर न हो जाओ, तब तक तुम बांट न सकोगे, तब तक कृपणता जारी रहेगी । तो यह विरोधाभास खयाल रखना। दूसरों की चिंता करते ही नहीं, क्योंकि चिंता करना ही भूल गए हैं जो दूसरे को सुख देना ही नहीं चाहते, न देने का विचार करते हैं, क्योंकि एक सत्य उनकी समझ में आ गया है कि अपने | पास जो नहीं है वह हम दे न सकेंगे; जो अपने ही सुख को जन्माने की सतत साधना में लगे हैं, क्योंकि उन्हें पता चल गया है, जो अपने भीतर होगा, बढ़ेगा, बहेगा भी, बिखरेगा भी, | फैलेगा भी, बंटेगा भी, वह अपने से हो जाता है, उसका कोई हिसाब नहीं रखना होता – ऐसे सभी व्यक्तियों ने परम स्वार्थ की बात कही है। मजहब यानी मतलब। धर्म यानी स्वार्थ । लेकिन स्वार्थ इतना महिमापूर्ण है कि परार्थ उसमें अपने-आप सध जाता है। इसलिए तुम एक अनूठी बात देखोगे, महावीर के धर्म में सेवा का कोई स्थान नहीं है। और अगर जैनियों के पास सेवा शब्द भी है, तो उसका अर्थ उनका बड़ा अनूठा है। जब वे जैन मुनि के अनुकरण नहीं आत्म-अनुसंधान दर्शन को जाते हैं तो वे कहते हैं, सेवा को जा रहे हैं। यह सेवा का बड़ा अनूठा अर्थ है । जिसको तुम्हारी सेवा की कोई भी जरूरत नहीं है, उसकी सेवा को जा रहे हैं। कोढ़ी को जरूरत है, बीमार को जरूरत है, दुखी को जरूरत है। इसलिए ईसाइयत का दावा ठीक मालूम पड़ता है कि पूरब में पैदा हुए सभी धर्म स्वार्थी हैं; इनमें सेवा की कोई जगह नहीं है। न अस्पताल खोलने की उत्सुकता है, न स्कूल चलाने की उत्सुकता है। लोग आंखें बंद करके ध्यान कर रहे हैं - यह कैसा धर्म है ! ईसाइयत की बात में सचाई है। पर बात बुनियादी रूप से भ्रांत है। ईसाइयत धर्म न बन पायी, राजनीति रही, समाजशास्त्र रहा । सेवा तो ईसाइयत ने की, लेकिन जो सेवा करने गए उनके पास कुछ देने को न था । बांटने को तो गए, बड़ी शुभ-शुभ आकांक्षा थी । लेकिन कहते हैं, नर्क का रास्ता शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है । गए तो सेवा करने, गर्दनें काट दीं। ईसाइयत ने तलवारें उठा लीं। ईसाइयत ने जितने लोग मारे, किसी ने नहीं मारे। जीसस ने तो कहा था, कोई चांटा मारे तो दूसरा गाल कर देना; लेकिन सेवा की धुन ऐसी चढ़ी कि अगर दूसरा सेवा करवाने को राजी न हो तो खतम करो उसे, सेवा करके ही रहेंगे। सेवा सीढ़ी बन गई स्वर्ग चढ़ने की। दूसरे से प्रयोजन न रहा। कभी-कभी मुझे डर लगता है। कभी ऐसी दुनिया होगी, न कोढ़ी होगा, न अंधा होगा, फिर ईसाइयत क्या करेगी ? धर्म खतम ! नहीं, खतम न होगा। वे अंधे को पैदा करेंगे, कोढ़ी को पैदा करेंगे – सेवा तो करनी ही पड़ेगी, नहीं तो मोक्ष कैसे जाएंगे ! स्वर्ग कैसे जाएंगे ! महावीर, बुद्ध, कृष्ण, किसी के धर्म में सेवा की कोई जगह नहीं है। कारण ? क्या इनके हृदय में प्रेम पैदा न हुआ ? क्या इनके भाव करुणा के न थे ? थे। लेकिन उन्होंने एक बड़ा गहरा सत्य जाना था कि तुम दूसरे को सुख देने की चेष्टा से सुख नहीं दे सकते – दुख ही दोगे । ईसाइयत युद्ध लायी, दुख लायी। कौन सुखी हुआ ! कपड़े दिए होंगे लोगों को, दवा भी दी होगी; लेकिन आत्माएं खंडित कर डालीं। रोटी के सहारे, दवा के सहारे, लोगों के प्राण तोड़ डाले, उनके जीवन की दिशा भटका दी । महावीर का धर्म कहता है : तुम हो जाओ परिपूर्ण! तुम खिलो दीये की भांति ! तुम बिखरो ! फिर तुम्हारे जीवन में होता रहेगा 187 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 जिन सूत्र भाग: 1 सब जिससे दूसरे को लाभ होगा। मगर वह लाभ प्रयोजन नहीं है। वह लाभ लक्ष्य नहीं है। वह लाभ परिणाम है। वह सहज परिणाम है। अपने से होता है। सूरज निकलता है तो सोचता थोड़े ही है, रात हिसाब थोड़े लगाता है कि कितने फूल खिलाने हैं, कि कितने पौधों को प्राण देने हैं, कि कितने पक्षियों के कंठ में गीत बनाना है, कि कितने मोर नाचेंगे, कि कितनी आंखें प्रकाश से भरेंगी! यह कोई हिसाब लगाता है ! सूरज से पूछो तो शायद उसे पता भी न हो कि फूल भी खिलते हैं मेरे कारण, कि सोए हुए लोग जगते हैं मेरे कारण, कि पक्षी गीत गाने लगते हैं, कि भोर होती है मेरे कारण ! उसे पता भी न होगा। यह स्वाभाविक, सहज परिणाम है। सूरज करता है, ऐसा नहीं; ऐसा सूरज की मौजूदगी में होता है। सूरज तो केटालिटिक है। उसकी | मौजूदगी काफी है। जब भी कोई व्यक्ति महावीर जैसा स्वार्थ को उपलब्ध होता है - स्वार्थ यानी आत्मा को; जिस दिन कोई अपने में रम जाता है— उसके आसपास बहुत पक्षी गीत गाते हैं। उसके आपपास | बे-मौसम फूल खिल जाते हैं। उसके आसपास सोए हुओं की आंखें खुल जाती हैं। उसके आसपास जन्मों-जन्मों से भटके हुए लोग मार्ग पर आ जाते हैं। कोई अनजाना तार खींचने लगता है। लेकिन महावीर जैसा व्यक्ति कुछ करता नहीं; करने की भाषा ही भूल जाता है । होने की भाषा । होता है, करता नहीं । सेवा करता नहीं, सेवा होती है। यह कोई कृत्य नहीं है, यह उसकी भाव - दशा है। दूसरी दशा, महावीर कहते हैं, समझो लौटो घर - अंतरात्मा । जिसने दूसरे की तरफ पीठ कर ली, नजर अपनी तरफ कर ली। अभी जहां हम खड़े हैं वहां दूसरे की तरफ नजर है, पीठ अपनी तरफ। हम अपनी ही तरफ पीठ किए हुए हैं - यह सांसारिक की दशा है। धार्मिक की — उसने पीठ संसार की तरफ की, सन्मुख हुआ अपने, अपनी तरफ चला, अब ध्यान अपने पर है। इसी को महावीर 'सामायिक' कहते हैं। इसी को योग 'ध्यान' कहता है। अब अपनी तरफ लौटने लगे। फिर एक दिन जब पहुंच गए, अपने में पहुंच गए, जिसके आगे जाने की कोई जगह न रही, ठहर गए उस बिंदु पर जहां से चले थे, जो स्रोत था जीवन का, वर्तुल वहीं आकर पूरा हो गया - तो फिर अब अंतरात्मा भी कहना ठीक नहीं। क्योंकि अंतरात्मा तो वह जो अपनी तरफ नजर किए है। लेकिन अपने से अभी फासला है । मुड़ा है घर की तरफ, लेकिन घर अभी दूर है, रास्ता बीच में है। फिर घर ही पहुंच गया, तो अब तो अपने में और अपनी नजर में कोई फासला न रहा। अब तो स्वयं का होना और स्वयं को देखना एक ही हो गए। अब दो न रहे। अब तो डुबकी लग गई। इस अवस्था को महावीर कहते हैं: परमात्मा । | इसलिए इस बात को याद रखना कि महावीर के लिए आत्मा से पार कुछ भी नहीं है। जो भी आत्मा के पार है, वह भटकानेवाला है। अपने से बाहर जिसने देखने की कोशिश की वह संसार में गया; अपने से भीतर जिसने देखने की कोशिश की, वह मोक्ष में । तो महावीर कहते हैं: आत्मा की तीन दशाएं हैं। एक बहिरात्मा, जिसको दूसरा दिखाई पड़ता है, जिसकी नजर दूसरे पर लगी है। फिर वह दूसरा कोई भी हो। धन हो कि पद हो, कि स्त्री हो कि पुरुष हो, कि परमात्मा हो, वह दूसरा कोई भी हो, बेशर्त, दूसरे पर आंख लगी है, वह आदमी बहिरात्मा । इसलिए तुम जब मंदिर जाते हो पूजा करने, तब महावीर तुमको बहिरात्मा कहेंगे। पूजा करने और मंदिर गए ! नजर बाहर रखी! फूल - थाल सजाए ! पूजा करने बाहर गए ! मंत्रोच्चार किए। उच्चार बाहर हुआ ! तुम बहिरात्मा ! कहीं सिर झुकाया, किन्हीं चरणों में सिर रखा, लेकिन चरण बाहर थे, तो तुम बहिरात्मा । अभी तुम्हें भीतर आना होगा। अभी तुम आत्मा की सब से दीन दशा में हो । आत्मा की दरिद्रतम अवस्था जो है, 'सर्वहारा', वह है बहिरात्मा - बाहर जाता हुआ व्यक्ति । जितना बाहर जाता है, उतना ही भीतर के स्वर दूर होते जाते हैं, भीतर का संगीत खोता चला जाता है। जितना बाहर जाता है, उतनी ही स्वभाव से जड़ें उखड़ जाती हैं, उतना ही दुख, उतनी ही क्लांति, उतनी ही थकावट, उतनी ही ऊब, उतना ही जीवन भार, बोझिल हो जाता है । परमात्मा महावीर के लिए अवस्था है- तुम्हारे अंतर्तम की। दूसरों के लिए परमात्मा बाहर, कहीं स्वर्ग, कहीं आकाश में बैठा है; महावीर के लिए अंतर-आकाश में। महावीर ने बड़ी से बड़ी क्रांतिकारी उदघोषणा की है कि तुम परमात्मा हो । जब तुम नहीं जानते हो तब भी हो। इससे क्या फर्क पड़ता है! जब तुम्हें पता नहीं है, तब भी हो। भेद सिर्फ पता Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TERRIBE MEERUARDAN अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान LABERDER का है। महावीर ने मनुष्य को अंतिम इकाई माना। मनुष्य की | जगी नहीं, बल्कि आत्मा ने स्वच्छंदता का मार्ग लिया। आत्मा ने महिमा ऐसी किसी व्यक्ति ने कभी न गायी थी। मनुष्य के ऊपर | कहा, फिर ठीक है, अब कोई मालिक नहीं है; तो अब जो मौज कुछ न कुछ था। हो करें; तो अब तक जो-जो बंधन थे, निषेध थे, तोड़े तो अब चंडीदास का बड़ा प्रसिद्ध वचन है : तक जो-जो प्रतिबंध थे, उन्हें उखाड़ें: तो अब तक जो-जो करने साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाईं। से रोके गए थे, अब कर ही लें। चंडीदास ने जरूर महावीर से लिया होगा। या चंडीदास के जैसे घर में बाप मर जाए तो बेटे में दो घटनाएं घट सकती भीतर भी वैसी ही भाव-ऊर्मि उठी होगी, जैसी महावीर के हैं-या तो वह नीत्से के रास्ते पर जा सकता है, या महावीर के। भीतर। चंडीदास कहते हैं : साबार ऊपर मानुस सत्य, सब सत्यों बाप मर जाए, तो निषेधात्मक तो यह होगा कि बाप ने जो-जो के ऊपर मनुष्य का सत्य है; ताहार ऊपर नाईं, उसके ऊपर कुछ करने से रोका था—कि मत जाना शराबघर, मत जाना वेश्या के भी नहीं। पास-अब कर लो। अब कोई रोकनेवाला न रहा। दूसरी इससे बड़ी और महिमा, इससे बड़ा गुणगान न हो सकता था। घटना भी घट सकती है कि अब तक तो बाप रोकनेवाला था, महावीर ने परमात्मा को इनकार किया, ताकि आत्मा को परम अब वह भी न रहा, अब मुझे जागना पड़ेगा ! अब जो काम बाप पद दिया जा सके। क्योंकि परमात्मा रहेगा तो आत्मा दोयम कर देता था, वह मुझे खुद ही करना पड़ेगा। तो अब तक तो डर रहेगी, नंबर दो रहेगी। परमात्मा रहेगा तो नजर दूसरे पर ही था कि किसी दिन बाप की आज्ञा तोड़कर पहुंच भी जाता रहेगी। लाख उपाय करो, नजर अपने पर न आ पाएगी। शराबघर, अब तो पहुंचने का कोई उपाय न रहा; अब तो मेरी ही यहीं परब और पश्चिम की मनीषा का फर्क स्पष्ट होता है। आज्ञा है; मैं ही जानेवाला हूँ। तो अनुशासन पैदा होगा। जब भी नीत्से भी इसी तर्क के करीब पहुंच गया था जहां महावीर पहुंचे। बाप मरता है तो दोनों घटनाएं सामने आती हैं। क्या तुम चुनोगे, सौ वर्ष पहले नीत्से भी करीब-करीब इसी घटना के आ गया, | तुम्हारा निर्णय है। जहां उसे एक बात समझ में आने लगी कि ईश्वर के रहते मनुष्य महावीर ने भी कहा कि कोई ईश्वर नहीं है। महावीर ने तो और परिपूर्ण स्वतंत्र न हो सकेगा। कोई ऊपर रहेगा। कोई नजर भी गहरी बात कही है। कौंधती ही रहेगी। कोई जांचता ही रहेगा। कोई मालकियत नीत्से ने तो कहा, मर चुका है। महावीर ने कहा, कभी था ही जतलाता ही रहेगा। ठीक वहीं उसी बिंदु पर जहां महावीर पहुंचे, नहीं, मरने का कोई सवाल नहीं। कल्पना थी। नीत्से भी पहुंचा; लेकिन तब रास्ते अलग हो गए। महावीर तो लेकिन वहीं से उन्होंने सूत्र अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने विमुक्त हुए, नीत्से विक्षिप्त हुआ। क्या फर्क पड़ गया? नीत्से कहा, कोई परमात्मा नहीं है, इसलिए अब प्रत्येक को परमात्मा ने यह बात तो समझ ली कि परमात्मा नहीं होना चाहिए, लेकिन | होना पड़ेगा। परमात्मा तो होना ही चाहिए, और कोई परमात्मा बात दूसरी न समझ पाया। यह तो निषेधात्मक अंग हुआ कि नहीं है। बिना परमात्मा के तो न चलेगा। तो अब जुम्मेवारी बड़ी परमात्मा न होना चाहिए। दूसरी बात न समझा कि अगर है, गहन है, असीम है। परमात्मा नहीं है तो अब आदमी को परमात्मा होना पड़ेगा। यह स्वतंत्रता उत्तरदायित्व बनी। कोई स्वतंत्रता ही नहीं है, जुम्मेवारी भी है। यह स्वच्छंदता बन इसलिए महावीर जैसा साधक खोजना बहुत मुश्किल है। गई नीत्से के लिए। तो नीत्से ने कहा, 'गाड इज़ डैड। एंड नाउ क्योंकि कोई सहारा भी नहीं है, जिसके चरणों में बैठकर रो लेते; मैन इज़ फ्री टू ड व्हाट सो एवर ही वांटस ट डा'. जिससे शिकायत-शिकवा कर लेते; जिससे कह देते कि तू क्यों _ 'ईश्वर मर गया और अब आदमी स्वतंत्र है, जो भी करना | नहीं उठा रहा है हमें, हम तो उठने को तैयार हैं, जिससे कह देते चाहे करे।' कि हम असहाय हैं, अब तू कुछ कर; हमारे किए कुछ भी नहीं यह स्वच्छंदता बनी। ईश्वर की मृत्यु, आत्मा का पुनर्जन्म न होता, अब तू सम्हाल, अब कोई भी न रहा, अब बिलकुल बनी। इधर ईश्वर तो मरा, लेकिन उसकी मृत्यु के कारण आत्मा अकेले हैं, अब नितांत एकांत है! इस एकांत में अपने को ही 189 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 जिन सूत्र भाग: 1 उठाना है। इस एकांत में अपने को ही चलाना है। अपनी दिशा खोजनी है। नीत्से अनाथ हुआ, विक्षिप्त हुआ । महावीर अनाथ होकर स्वयं नाथ हो गये, स्वयं भगवान हो गए। जैनों का 'भगवान' शब्द हिंदुओं के 'भगवान' शब्द से अलग अर्थ रखता है। ध्यान रखना, शब्द हम एक ही उपयोग करते हैं, लेकिन जब हमारी भाव- दशाएं अलग होती हैं तो उनके अर्थ बदल जाते हैं। हिंदुओं के भगवान का अर्थ होता है, जिसने सृष्टि की, जिसने सब बनाया। जैनों के भगवान का अर्थ होता है, जिसने अपने को जाना। जो जानकर परम महिमा से भर गया : भगवान । भाग्यवान हो गया जो जिस पर भाग्य की अतुल वर्षा हुई। जिसने अपने भाग्य को खोज लिया। जिसने अपनी नियति को खोज लिया। नहीं कि सृष्टि उसने बनाई, बल्कि जो अपना स्रष्टा हो गया। बड़ा फर्क है। इसलिए हिंदू सदा पूछेगा कि भगवान क्यों कहते हो महावीर को, क्या इन्होंने दुनिया बनाई ? वह बात ही नहीं समझ रहा है। वह अपनी धारणा बीच में ला रहा है। महावीर कहते हैं, दुनिया तो कभी बनायी नहीं गयी, कोई बनानेवाला नहीं है। क्योंकि बनाने की बात ही बचकानी है। भगवान बनाएगा तो फिर सवाल उठेगा, किसने उसे बनाया ? यह तो बकवास कहीं रोकनी ही पड़ेगी। इसमें जाने में कुछ सार नहीं है। है— अस्तित्व है— कोई स्रष्टा नहीं है। लेकिन अस्तित्व कोई अराजकता नहीं है; जैसा कि नीत्से ने कहा। कोई परमात्मा नहीं है, तो अस्तित्व अराजक है। कोई व्यवस्था नहीं है इसमें, तो फिर कर लो जो करना है। यह तो पागलपन है, कर लो जो करना है। यहां व्यर्थ समय मत गंवाओ, भोग लो जो भोगना है। दौड़ जाओ इच्छाओं में स्वछंद होकर ! देखो, एक ही घटना को दो अलग व्यक्ति कैसे अलग लेते हैं! महावीर ने कहा, वहां कोई व्यवस्थापक नहीं है, इसलिए सम्हलो, नहीं तो पागल हो जाओगे ! जागो ! यहां कोई सूत्रधार नहीं है, तुम्हीं अकेले हो ! अगर न जागे तो खो जाओगे, भटक जाओगे, यह अटल अंधेरा है! ये गहन खाइयां हैं। यहां कोई मार्गदर्शक नहीं है, कोई मार्ग द्रष्टा नहीं है। कोई आगे चल नहीं रहा है, तुम अकेले हो ! किन्हीं झूठे सहारों पर भरोसा मत रखो ! जिम्मेवारी अपने हाथ में लो ! तुम ही अपने मालिक हो ! 'अप्पा कत्ता विकत्ता य' - तुम ही हो कर्ता, तुम ही हो भोक्ता । न कोई करनेवाला है, न कोई तुम्हें भुगा रहा है। परमात्मा कोई लीला नहीं कर रहा है, तुम ही कर रहे हो। यह खेल सब तुम्हारा है। अगर तुम दुखी हो तो तुम ही जुम्मेवार हो । अगर सुखी होना है तो तुम्हें सुख की नींवें रखनी पड़ेंगी। और अगर सुख-दुख दोनों के पार जाना है, तो तुम्हें ही जाना पड़ेगा। यहां कोई नाव नहीं है, जिसमें बैठकर तुम उतर जाओ । तैरना होगा ! प्रत्येक को अलग-अलग तैरना होगा। यहां कोई किसी को कंधे पर बिठाकर नहीं ले जा सकता है। महावीर ने जो द्वार खोला, वह विमुक्ति का द्वार बना। नसे ने जो द्वार खोला, उसमें वह खुद ही पागल हो गया । द्वार एक ही था। ध्यान रखना, जो भी मैं तुमसे कह रहा हूं, अगर तुम ठीक से न समझे तो बड़ी चूक हो जाएगी। सत्य के साथ संबंध बनाना आग के साथ खेलना है। अगर जरा भी चूके, कुछ और का कुछ और समझ लिये, तो विक्षिप्त हाथ आती है । विमुक्ति तो दूर, जो थोड़ी-बहुत समझ-बूझ थी, वह भी खो जाती है। अभी इंसानों को मानूसे-जमीं होना है महरो महताब के ऐवान नहीं दरकार अभी । महावीर ने कहा, पृथ्वी से तो परिचित हो लो! जीवन के सत्य से तो परिचित हो लो ! चांद-तारों के सपने छोड़ो ! यहां से परिचित हो लो। अपने तथ्य से परिचित हो लो। आकाशों की आकांक्षाएं छोड़ो ! स्वर्ग-नर्कों के जाल छोड़ो ! अभी इंसानों को मानूसे- जमीं होना है - - पृथ्वी से परिचित होना है। महरो महताब के ऐवान नहीं दरकार अभी। - अभी इस उलझन में मत उलझो कि चांद-तारों में कौन निवास कर रहा है। महावीर बड़े यथार्थवादी हैं, प्रैगमेटिक, व्यवहारवादी हैं। ठोस जमीन पर पैर रखने की उनकी आदत है। सपनों को हटा देते हैं, काट देते हैं। तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारा सपना है । तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारा परिपूरक सपना है। जिंदगी में जो तुम नहीं कर पाते, वह तुम परमात्मा के बहाने सपने में करते हो। यहां तुम्हें जो नहीं . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HC अनुकरण नहीं- आत्म-अनुसंधान । मिलता, वह स्वर्ग में मांग लेते हो। लेकिन तुम्हारा मालूम होता है। कौन दुखी होना चाहता है! साफ है कि कोई परमात्मा-तुम्हारा परमात्मा है। तुम गलत हो-तुम्हारा | और शरारत कर रहा है। परमात्मा गलत होगा। जब तुम्हें प्रत्यक्ष कोई कारण न मिल पाए तो तुम अप्रत्यक्ष सोचो, विक्षिप्त आदमी का परमात्मा भी विक्षिप्त होगा! अंधे | कारण खोजते हो-समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति। अगर आदमी का परमात्मा भी अंधा होगा। क्योंकि जिसने खुद प्रकाश वहां भी कोई निमित्त न मिल पाए, तो भाग्य विडंबना, विधि, नहीं देखा, वह कल्पना भी नहीं कर सकता कि प्रकाश क्या है भगवान। मगर कोई, तुम नहीं। यह मन का जाल है। मन तुम्हें और प्रकाश को देखना क्या है और आंखें क्या हैं! एक सत्य देखने से अपरिचित रख रहा है कि तुम ही हो अपने बहरे आदमी का परमात्मा भी बहरा होगा। जिसने खुद ध्वनि दुख के कारण। नहीं सुनी कभी, वह कल्पना भी कैसे करेगा कि परमात्मा ध्वनि कोई मर गया-ऐसा उदाहरण लें जिसमें साफ ही दूसरा सुनता है, ध्वनि है क्या? दुख का कारण मालूम होता हो। पत्नी मर गई। अब तो साफ है तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी प्रतिछवि है। मंदिरों में तुमने मूर्तियां | कि पत्नी न मरती तो पति दुखी न होता! इसलिए पत्नी मरकर नहीं बनाई हैं, दर्पण लगाए हैं। उन दर्पणों में तुम अपने को ही दुखी कर गई। यह भी कैसा वक्त चुना! यह कोई समय था, देखकर अपने ही चरणों में झुक जाते हो, घुटने टेककर अपने से अभी तो जवान थी! अभी तो विवाह करके, अभी तो फेरे ही बातचीत कर लेते हो। यह एकालाप है। यहां कोई उत्तर रचाकर लाये थे! तो पति रो रहा है। देनेवाला भी नहीं है। तुम जो चाहते हो, वहीं अपने को मना लेते | इसको कैसे समझाओ कि दुख के कारण तुम ही हो? वह तो हो, वही उत्तर अपने को समझा लेते हो। और इस तरह जीवन के कहेगा, यह तो बात साफ ही है कि पत्नी न मस्ती तो मैं सुखी था; क्षण व्यर्थ जाते हैं। पत्नी मर गई, इसलिए दुखी हूं। महावीर कहते हैं, हाथ में लो बागडोर अपनी। बहुत भटक | महावीर कहते हैं, पत्नी का मरना तो निमित्त है। तुम मृत्यु को चुके दूसरों के द्वारों पर। बहुत हाथ फैलाए भिक्षा के, अब स्वीकार नहीं कर पाते, वहां से दुख आ रहा है। जीवन में मृत्यु मालिक बनो! उत्तरदायित्व लो! यह बचकानापन छोड़ो। इस तो होगी ही। जन्म है तो मौत है। जन्म के साथ ही मौत हो गई बचपन के बाहर आओ, प्रौढ़ बनो! है। थोड़े समय की बात है। जन्म के साथ ही घटना घटनी शुरू 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता है।' हो गई। थोड़ा समय लगेगा और घटना पूरी हो जाएगी। मरना इससे मन में बड़ी पीड़ा होती है। इसलिए तो महावीर को बहुत जन्म के साथ ही शुरू हो गया। तुम जन्म के साथ मृत्यु को अनुयायी न मिले। मन हमारा मानता है कि सुख के तो हो भी स्वीकार नहीं कर पाते हो; वहां तुम्हारे अस्वीकार में दुख है। सकते हैं कि हमने निर्माण किया हो; लेकिन दुख, वह तो दूसरों. फिर, महावीर कहेंगे, यह स्त्री तुम्हारी पत्नी न होती, और मर ने किया है। जब भी तुम दुखी होते हो, तुम तत्क्षण आसपास जाती, तो तुम दुखी होते? तुम कहोगे, फिर मैं क्यों दुखी होता? कारण खोजने लगते होः कौन दुखी कर रहा है? पति दुखी होता इतनी स्त्रियां मरती रहती हैं। ऐसे अगर हर स्त्री के लिए दुखी है तो सोचता है, पत्नी दुखी कर रही है। बाप दुखी होता है तो होने बैलूं तो फिर सुखी होने का मौका ही न आएगा; फिर तो कोई सोचता है, बेटे दुखी कर रहे हैं, तुम जरूर कोई न कोई बहाना न कोई मरेगा, और रो रहे हैं; कोई न कोई मरेगा, रो रहे हैं। अर्थी खोजने लगते होः कौन दुखी कर रहा है ? क्योंकि दुख जब आ तो रोज ही उठती है। कितनी स्त्रियां दुनिया में मरती हैं रोज! अब रहा है तो कोई न कोई दुखी कर रहा होगा। और यह तो तुम मान | इसका कहां हिसाब रखेंगे, नहीं तो मर गए। ही नहीं सकते कि मैं अपने को दुखी कर रहा हूं; क्योंकि यह बात । नहीं, तो महावीर कहते हैं, यह तुम्हारी पत्नी, यह 'मेरी' है, तो बड़ी मूढ़ता की होगी। जब तुम दुखी नहीं होना चाहते तो क्यों उस 'मेरे' में से दुख आ रहा है। यही पत्नी किसी और की कर रहे हो? जरूर कोई और कर रहा है, मैं तो कभी दुखी होना होती, मर जाती, तुम्हें कुछ भी न होता, कोई रेखा भी न खिंचती। ही नहीं चाहता! इसलिए मैं क्यों करूंगा! यह तो सीधा तर्क तो पत्नी 'मेरी' है, इस 'मेरे' में से दुख आ रहा है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 फिर, तुम्हारा खयाल है कि यह पत्नी तुम्हारे सुख का आधार अपने उत्तरदायित्व को टालने की बातें हैं। थी। यह भी तुम्हारा खयाल है। क्योंकि सुखी आदमी को कोई | महावीर, पतंजलि, बुद्ध इस प्रौढ़ता को उपलब्ध हुए कि उन्होंने सुख का आधार नहीं चाहिए। सुख भीतर से उमगता है। और कहा कि छोड़ो बकवास, तुम जुम्मेवार हो! और ये बहाने तुम जो दुखी आदमी कितने ही आधार खोज ले, सुखी नहीं हो पाता। तो खोजते हो दूसरों पर टालने के, इनसे कुछ राहत नहीं मिलती, पत्नी तो तुम्हारे सुख का आधार न थी। तुम्हारी कल्पना का, इनसे सिर्फ धोखा पैदा होता है। इनसे ऐसा लगता है, अब हम तुम्हारी भावना का, तुम्हारी वासना का-भला पर्दे की तरह करें क्या; दूसरों ने किया है, हमारे किए क्या होगा! निराशा पैदा काम किया हो पत्नी ने तुम्हारी अपनी वासना को फैलने के लिए; | होती है। गुलामी पैदा होती है। और एक गहन हताशा पैदा होती पत्नी ने तुम्हें मौका दिया हो कि फैला लो अपनी वासना को मेरे है। अब करेंगे क्या? अब इतिहास को बदलने का तो कोई ऊपर, लेकिन तुम्हारे सुख और दुख, तुम्हारे भीतर से उमगते हैं। उपाय नहीं। अब अर्थव्यवस्था तो आज बदलेगी नहीं, बदलने आदमी को कठिनाई है यह बात मानने में। आदमी चाहता है, में बदलनेवाले तो मर ही जाएंगे। जिन्होंने रूस में क्रांति लायी, कोई और जुम्मेवार हो। कोई भी हो जुम्मेवार, कोई और जुम्मेवार वे तो मर चुके; और जो आज जिंदा हैं, वे तड़फ रहे हैं। वे हो। इतिहास हो जुम्मेवार चलेगा। परतंत्रता से दबे हैं। लेनिन सोचकर मरा होगा कि हम बड़ा भारी पश्चिम में जितने विचार पैदा हुए, उन सब में कोई और काम करके जा रहे हैं। लेकिन जो आज उनके बच्चे हैं, वे आज जुम्मेवार है। परतंत्रता से दबे हैं; वे स्वतंत्र होने के लिए छटपटाते हैं। ईसाइयत कहती है, अदम और ईव को शैतान ने भड़काया और सोल्जेनित्सिन से पूछो। कारागृहों में पड़े हैं। शैतान ने कहा कि खा लो यह ज्ञान के वृक्ष का फल। उसने | लेनिन ने तो सोचा था कि बड़ा सुंदर समाज निर्मित होगा, उकसाया। भोले-भाले अदम और ईव उसकी बातों में आ गए। लेकिन वह हुआ नहीं। वह कभी होनेवाला नहीं, क्योंकि शैतान जुम्मेवार है। लेकिन कोई शैतान से पूछो। शैतान तो अब बुनियादी बात गलत है। दूसरा जम्मेवार है, जिस शास्त्र का यह तक कुछ भी बोला नहीं है। नहीं तो शैतान भी कुछ जुम्मेवारी | आधार है, वह शास्त्र गलत है। बताएगा, किसी और पर टालेगा। फ्रायड ज्यादा ईमानदार है इस हिसाब से। फ्रायड ने अपने अदम कहता है, ईव ने फुसलाया मुझे। अब पत्नी है, इसकी जीवन के अंतिम दिनों में लिखा कि आदमी कभी सुखी नहीं हो बातों में कौन नहीं आ जाए, आ ही गए! ईव कहती है, मैं क्या | सकता। हो ही नहीं सकता। यह असंभव है। क्योंकि इतने करूं, शैतान सांप की शकल में आया और मुझे फुसलाया। कारण हैं आदमी के दुखी होने के, उन कारणों को कब बदला जा सांप बेचारा मौन है; उसके पास जबान नहीं, नहीं तो वह भी | सकेगा, कौन बदलेगा, कैसे बदलेगा? असंभव है। जाल बहुत कहता कि किसने मुझे फुसलाया, शैतान ने मुझे फुसलाया। बड़ा है, आदमी बहुत छोटा है। लेकिन कहीं न कहीं बात सरकती जाती। और यह कहानी | फ्रायड की हताशा देखते हो-जीवन भर की चेष्टा, खोज के कहानी नहीं रही है, यह पूरे पश्चिम के इतिहास पर फैली है। बाद जब कोई आदमी कहता है कि आदमी कभी सुखी न हो हीगल कहता है, इतिहास जुम्मेवार है, जो भी दुख हो रहा है सकेगा, सुख सिर्फ कल्पना है, भुलावा है, आदमी दुखी ही उसके लिए। मार्क्स कहता है, अर्थव्यवस्था जुम्मेवार है। | रहेगा...! फ्रायड कहता है, गलत संस्कार जुम्मेवार हैं। मां-बाप ने जो लेकिन महावीर, बुद्ध, पतंजलि कहते हैं : आदमी परम आनंद व्यवहार किया है बच्चों के साथ, वह जुम्मेवार है। लेकिन कोई | को उपलब्ध हो सकता है। पर उसके पहले एक बहुत जरूरी न कोई जुम्मेवार है! बात समझ लेनी जरूरी है-वह यह कि मैं जम्मेवार है। टालो अभी पश्चिम का मनोविज्ञान इतना प्रौढ़ नहीं हुआ कि कह मत, हटाओ मत! तथ्य को स्वीकार करो। क्योंकि अगर मैं सके कि तुम जुम्मेवार हो। इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए, बड़ी जुम्मेवार हूं अपने दुख का, तो मेरे हाथ में बागडोर आ गई; अब प्रौढ़ता चाहिए। ये बचकानी बातें कि कोई और जुम्मेवार है, मैं वे काम बंद कर दूं जिनसे दुख पैदा होता है; वे बीज बोना बंद 192 Jair Education International | Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान कर दूं जिनसे कड़वे फल आते हैं; उस फसल को जला डालूं, | तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए। लेकिन अकसर, लोग इतनी झंझट निर्जरा करूं उन कर्मों की जिनके कारण मैं दुखी हो रहा हूं। नहीं लेते, क्योंकि घोड़े को सिखाना पड़ेगा। 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता है और विकर्ता, भोक्ता। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर बैठकर कहीं जा सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र है।' रहा था। बड़े जोर से भागा जा रहा था। किसी ने पूछा, कहां जा महावीर कहते हैं, न तो तुम्हारा मित्र तुम्हारे बाहर है, न तुम्हारा रहे हो? उसने कहा, गधे से पूछो। क्योंकि मैंने तो यह आशा ही शत्र। जब तुम सत्प्रवृत्ति में हो...क्या है सत्प्रवृत्ति?...जब तुम छोड़ दी कि इसको चलाना संभव है। झंझट खड़ी होती है। बीच जागे हुए, शांत, आनंद-मग्न, निर्दोष भाव से ध्यानस्थ हो, बाजार में फजीहत होती है। कई दफे इसको चलाने की कोशिश सम्यक हो, संतुलित हो, तब तुम सत्प्रवृत्ति में हो। तब तुम मित्र | कर चुका-गधा है। मैं कहता हूं, बाएं चल, वह दाएं जा रहा हो। दुष्प्रवृत्ति में तुम ही अपने शत्रु हो। कोई तुम्हारा शत्रु नहीं। है। बीच बाजार में भीड़ लग जाती है; आखिर में मुझे हारना इसलिए किसी और से मत लड़ना। लड़ना है तो अपने से। पड़ता है। इससे मैंने फिर एक तरकीब निकाल ली : यह जहां जीतना है तो अपने को। बदलना है तो अपने को। होना है तो जाता है वहीं हम जाते हैं। अब कम से कम फजीहत तो नहीं स्वयं में। सारा खेल तुम्हारे भीतर है। होती। कोई यह तो नहीं कह सकता कि गधा मेरी मानता नहीं। 'अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है।' हालांकि मैं जानता हूं कि वह मानता नहीं है, वह अपनी तरफ से अविजित, जो जीता नहीं गया, ऐसा अपना आत्मा ही शत्रु है। | जाता है। एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य। गधे की अपनी यात्रा है। ते जिणित्तु जहानाय, विहरामि अहं मुणी।। बहुत लोग ऐसी ही दशा में हैं-अधिक लोग। जहां इंद्रियां 'अविजित कसाय और इंद्रियां ही शत्रु हैं। हे मुने। मैं उन्हें जाती हैं, तुम चले जाते हो; क्योंकि कौन फजीहत करे, कौन जीतकर यथान्याय, धर्मानुसार विचरण करता हूं।' | झगड़ा-झांसा करे! अगर इंद्रियों को वहां ले जाना है जहां तुम्हें महावीर कहते हैं, जब तक तुम्हारी इंद्रियां तुम्हारे बस में नहीं, | जाना है, तो बड़ा संयम चाहिए पड़ेगा, बड़ा अनुशासन, बड़ा तुम्हें चलाती हैं और तुम उनके पीछे चलते हो, तब तक दुख | प्रशिक्षण। इंच-इंच इंद्रियां लड़ेंगी। क्योंकि कौन अपनी होगा। होगा ही। अंधे का सहारा लेकर जो चलेगा, वह गड्ढे में | मालकियत इतनी आसानी से खोता है ! इंद्रियां जन्मों-जन्मों तक गिरेगा। इंद्रियों के पास कोई आंख थोड़े ही है। इंद्रियों के पास मालिक रहीं। गधे ने जन्मों-जन्मों तक तुम्हारी यात्रा तय की है। कोई बोध थोड़े ही है। तुम्हारी जीभ कहती है, खाए जाओ। जीभ आज अचानक तुम कहने लगे कि मेरी मानकर चलो! गधा के पास बोध थोड़े ही है, सिर्फ स्वाद है। कब रुकना है, कितना कहेगा, सोचो भी, क्या कह रहे हो? किससे कह रहे हो? होश खाना है, कब नहीं खाना है, कब बिना खाए गुजार देना है, कब है कुछ? जो सदा से होता आया है, वही होगा। जद्दोजहद पेट भर गया, कब पेट खाली है। कब जरूरत है, कब जरूरत होगी। गधा संघर्ष देगा। इंद्रियां लड़ेंगी। लेकिन अगर तुम नहीं है--जीभ कैसे कहेगी? जीभ के पास कोई बोध थोड़े ही इंद्रियों की मानकर चलने लगे, इसलिए कि कौन संघर्ष करे, तो है। वह बोध तो तुम्हारे पास है। बोध को तो तुमने रख दिया है तुम्हारी आत्मा कभी पैदा न हो पाएगी। बांधकर एक तरफ। जीभ की मानकर चलते हो, उलझन होगी, | इसलिए मैं कहता हूं, महावीर का मार्ग संघर्ष का, संकल्प का, अड़चन होगी। योद्धा का। इसीलिए तो उनको हमने महावीर कहा। साधारण जननेंद्रिय के पास कोई बोध थोड़े ही है। जननेंद्रिय की उत्तेजना | वीर भी नहीं कहा, महावीर कहा। यह उनका नाम नहीं है: यह अगर तुम्हें वासना में ले जाती है, तो तुम अंधे का हाथ पकड़कर | तो लोगों ने उनके संघर्ष को देखा। उनके दुर्धर्ष संघर्ष को देखा। चल रहे हो। अंधों का हाथ पकड़कर चलनेवाले गड्डों में गिरेंगे। | उनके योद्धा के भाव को देखा। देखा कि उन्होंने किसी चीज की सोचो! बोध तुम्हारे पास है। तो तुम घोड़े की मानकर मत कभी चिंता न की, संघर्ष कितना ही लंबा हो; लेकिन जब तक | चलो। लगाम हाथ में रखो। घोड़ा बुरा नहीं है, शुभ है-लगाम | विजय निश्चित न होगी, तब तक वे रुके नहीं, तब तक वे लड़ते 193 www.jainelibrary org Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 जिन सूत्र भाग: 1 ही रहे। और एक बार जब इंद्रियां तुम्हारे वश में आ जाती हैं, तो तुम्हारे जीवन में एक प्रसाद पैदा होता है, एक सौंदर्य पैदा होता है— मालिक का सौंदर्य, सम्राट का सौंदर्य । तभी तो हमने फकीरों को पूजा और सम्राटों की फिक्र छोड़ दी। कौन जानता है आज, महावीर के समय में कौन-कौन सम्राट थे ? प्रसेनजित को कौन जानता है? बिंबिसार को कौन जानता है? अगर हम उनका नाम भी जानते हैं तो इसीलिए कि महावीर के जीवन में कहीं-कहीं उनका उल्लेख है। कौन फिक्र करता है उनकी ? चूंकि बिंबिसार महावीर से मिलने आया था, इसलिए उसकी भी याद है; कि प्रसेनजित नमस्कार करने आया था, इसलिए उसकी भी याद है । जो नहीं आए, उनके तो नाम भी खो गए। क्या हुआ ? फकीर इतने मूल्यवान कैसे हो गए? यह नंगा आदमी, जिसके पास कुछ भी न था — जरूर इसके पास कुछ रहा होगा कि सम्राट फीके हो गए। एक दुर्धर्ष बल था । इसने चुनौती स्वीकार की थी। यह हारा नहीं, इसने अपने पुरुषत्व को सिद्ध किया था। इसने अपनी मालकियत की घोषणा कर दी थी। कुछ भी हो जाए, इसने एक बात जारी रखी कि मालिक मैं हूं। होश मालिक है। और होश के अनुसार सब चलना चाहिए। यह बिलकुल ठीक गणित है जीवन का। अमीरे- दो जहां बन जा, असीरे-खारो- खस कब तक ? नई सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां कर ले। - दो दुनियाओं के तुम मालिक बन सकते हो। अमीरे-दो जहां बन जा, असीरे-खारो-खस कब तक ? .- यह कांटों में, झाड़ियों में कब तक उलझे रहना ? नई सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां कर ले। लेकिन फिर तुम्हें एक नई दृष्टि और एक नई शैली खोजनी होगी- अपने घर को बनाने की। नई सूरत से तरतीबे - बिनाए - आशियां कर ले- फिर तुम्हें अपना नीड़ कुछ और ढंग से बनाना होगा। अभी तुमने जो बनाया है, वह गलत है। इसमें गुलाम मालिक हो गया है, मालिक गुलाम हो गया है। इसमें नौकर सिंहासन पर बैठ गए हैं, सम्राट सोया है। उसे पता ही नहीं कि क्या हो रहा है। सम्राट को जगाना होगा। सम्राट यानी तुम्हारा विवेक। जैसे ही विवेक जगता है उसके साथ-साथ वैराग्य की व्यवस्था आती है। विवेक सो जाता है, उसके साथ ही साथ राग का अंधापन आता है। राग से मत लड़ो विवेक को जगाओ। जैसे-जैसे विवेक जगेगा - असली लड़ाई वही है, विवेक को जगाने की। मुल्ला नसरुद्दीन चोरों से डरता है। नए मकान, नए पड़ोस में रहने गया, तो एक कुत्ता खरीद लाया – उसने कहा बड़े से बड़ा कुत्ता जो मिल सकता था, मजबूत से मजबूत। दुकानदार से पूछा कि 'यह काम आएगा ?' उसने कहा, 'काम से ज्यादा... देखते हो इसको! सम्हालकर रहना । यह खतरनाक है ।' लेकिन जिस दिन कुत्ता खरीदकर लाया, उसी रात चोरी हो गई। बड़ा परेशान हुआ। वापिस भागा हुआ दुकानदार के पास पहुंचा कि यह क्या मामला है। उसने कहा कि इसमें क्या मामला है। यह कुत्ता इतना बड़ा है, इसको जगाने के लिए एक छोटा कुत्ता भी चाहिए। यह सोया रहा, इसको चोर - वोर... यह कोई छोटा-मोटा कुत्ता है! एक छोटा कुत्ता और खरीदो ! वह घबड़ाहट में चीखेगा, चिल्लाएगा तो यह उठेगा; नहीं तो यह उठनेवाला भी नहीं है। वह तुम्हारे भीतर का जो मालिक है, कितने जन्मों से घर्राटे ले रहा है, सो रहा है! साधना कुछ भी नहीं है, छोटे-छोटे उपाय हैं जिनसे वह सोया हुआ मालिक जगने लगे। इस भांति अगर तुम साधना को देखोगे तो बड़े नए अर्थ खुलेंगे। महावीर ने महीनों तक उपवास किए हैं। वह कुछ भी नहीं, वह छोटा कुत्ता खरीदना है। उपवास में जब तुम्हें भूख लगेगी, और तुम शरीर की न सुनोगे और शरीर कहेगा, भूख लगी, भूख लगी, भूख लगी और तुम शरीर की न सुनोगे, तो भूख धीरे-धीरे शरीर से उतरकर मन पर आएगी। फिर भी तुम न सुनोगे। मन चीखेगा, चिल्लाएगा, रोएगा, गिड़गिड़ाएगा, हजार उपाय करेगा; समझाएगा कि मर जाओगे; ऐसे भूखे रहे तो क्या होगा तुम्हारा, यह शरीर जीर्ण-शीर्ण हुआ जाता है— तब भी तुम न सुनोगे तो भूख आत्मा तक पहुंच जाएगी। और जब भूख आत्मा तक पहुंचती है तो आत्मा जगती है। तुम शरीर को ही तृप्त कर देते हो, भूख मन तक ही नहीं पहुंच पाती; आत्मा तक पहुंचने का क्या सवाल है ? यह तो चुभाना है तीर का — उस सीमा तक जहां तुम्हारा असली मालिक सोया है। तो महावीर खड़े ही खड़े साधना करते थे, बैठते नहीं थे, लेटते नहीं थे। क्योंकि वैसे ही नींद गहरी है और अब बैठकर और . Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरण नहीं-आत्म-अनसंधान लेटकर, क्या उसे और गहरी करनी है ? तो महावीर खड़े ही खड़े है, जैसे देखता ही नहीं है। सुनता भी नहीं। हिलाया-डुलाया साधना किये हैं, ताकि जागरण बना रहे। शरीर थक जाता है। भी, लेकिन ओंठ न हिले। उसने यह भी न कहा कि मैं बहरा हूं। एक घड़ी आती है, शरीर कहता है, अब बैठो, अब विश्राम | वह भागा। खोज-खोजकर जंगल में भटकता रहा, सांझ करो! और महावीर कहते, 'छोड़ बकवास! हो गया बहुत होते-होते लौटा तो देखा कि गायें आकर महावीर के पास बैठी विश्राम। अब नहीं करना विश्राम।' खड़े ही रहते, खड़े ही हैं। अरे! उसने कहा, यह तो बड़ा चालबाज है। होशियार है। रहते, तब थकान मन में उतरती। मन कहता, अब यह बहुत हो | कहीं छिपा रखा था, अब भागने की तैयारी कर रहा था। देखता गया, अब तो गिर जाओगे। महावीर कहते कि सुनना नहीं है। था कि सूरज ढले, अंधेरा हो जाए ले भागे। उसने कहा कि जब तक कि भीतर की चेतना खड़ी न हो जाए, वे नहीं सुनते। इसने तो बड़ी चालबाजी की। इसलिए बना हुआ खड़ा है। वह धीरे-धीरे थकान वहां तक पहुंच जाती है—उस गहरे तल तक क्रोध में आ गया। उसने कहा, मैं देखता हूँ, तेरा यह बहरापन कि आत्मा भी झिझककर खड़ी हो जाती है। क्योंकि यह तो घड़ी नकली है। अब मैं तुझे असली बहरा बनाए देता हूं। मरने की आ गई। उसने दो लकड़ी की खूटियां दोनों कानों में ठोंक दी। महावीर महावीर ने हजार तरह से मौत की घड़ी को अपने पास लाए, खड़े रहे, तब भी कुछ न बोले। क्योंकि मौत की घड़ी ही जगा सकती है। जीवन तो जगा न पाया, कहानी बड़ी प्रीतिकर है। अब इतनी प्रीतिकर कहानियां घटती जीवन ने तो खूब सुला दिया। नहीं, क्योंकि लोग काव्य की भाषा भूल गए हैं; गणित का गंदा मौत का भी इलाज हो शायद, हिसाब सीख गए हैं। जिंदगी का कोई इलाज नहीं। कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। इंद्र घबड़ा गया। देवता घबड़ा यह जिंदगी तो बहुत सुला गई। यह जिंदगी तो बहुत जिंदगी गए। क्योंकि ऐसा देवपुरुष मुश्किल से होता है। वे भागे हुए सिद्ध न हुई; साथी-संगी सिद्ध न हुई। यह तो मूर्छित कर गई, आए और उन्होंने कहा, 'आप हमें आज्ञा दें। आप बड़े बेहोश कर गई। तो महावीर ने मौत का उपयोग किया-जगाने असुरक्षित हैं। ऐसे तो कोई भी मार डालेगा। हम साथ रहेंगे। के लिए। भूखे, प्यासे-खड़े रहे। हम सुरक्षा रखेंगे। यह दुबारा नहीं होना चाहिए।' एक गांव में...खड़े थे गांव के बाहर। मौन लिये हुए थे। एक महावीर बोलते तो नहीं थे, लेकिन यह तो अंतर की बात है; गडरिया कह गया कि ये जरा मेरी गायों को देखते रहना, मैं अभी बाहर से तो कुछ कहा नहीं था, न बाहर से कुछ सुना गया था। आया। वे तो कछ बोलते न थे, इसलिए कछ बोले नहीं। और महावीर ने भीतर से कहा कि जो हआ है, ठीक हआ है। यह ते वह जल्दी में था, इसलिए उसने कुछ फिक्र भी न की। उसने | देखो कि मुझे कितनी जाग मिली है। तुम यही देख रहे हो कि समझा : मौनं सम्मति लक्षणम्। खड़ा है फकीर, देख लेगा। वह | कान में खीले ठोंक दिए। कान तो जाते ही, आज नहीं कल अर्थी लौटकर आया, गायें तो सरक गईं, इधर-उधर हो गईं, जंगल में | पर चढ़ते ही, जल ही जाते, टूट ही जाते, इनका क्या लेना-देना चली गईं। वह बड़ा नाराज हुआ। वह चिल्लाया कि क्या हुआ, है! मिट्टी मिट्टी में मिलती। तुम यह तो देखो, कितनी जाग दे मेरी गायें कहां गईं? तुम खड़े-खड़े यहां क्या कर रहे हो? जरा गया वह आदमी! जब वह खीले ठोंक रहा था, तब शरीर ने पूरी रोक लेते, तुम्हारा क्या बिगड़ जाता? लेकिन उसने देखा, यह चेष्टा की थी कि बोल, रोक, लेकिन उस समय मैं संयम साधे आदमी तो खड़ा ही है; यह तो बोलता ही नहीं; आंख भी नहीं रहा। मैंने कहा, 'क्या बोलना है? क्या रोकना है? जो मिटेगा झपकता। जैसे इसने सुना ही नहीं। उसने कहा, क्या बहरे हो? वह मिट रहा है। जो कल मिटेगा, वह आज मिट रहा है। जो मगर वह तब भी कुछ न बोला। तो यह सोचकर कि बहरा ही है, जलेगा अग्नि में उसको बचाना क्या है? कौन बचा पाया है? वह बेचारा भागा कि इससे फिजल समय खराब करने में कोई | इधर कान में खीले ठुकते गए, वहां भीतर कोई जागने लगा। मैं सार नहीं है। पागल है, या बहरा है, या क्या मामला है! आंख शरीर से अलग हो गया। उसकी कृपा बड़ी है। वह बड़ी दया भी नहीं झपकता। देखता ही चला जाता है। और देखता भी ऐसे कर गया है। सहायता करनी हो, उसकी करो, क्योंकि वह मुझे 194 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 जिन सूत्र भाग: 1 जगा गया है— जो मुझसे नहीं हो पाता था, वह कर गया है।' बड़ा दुर्धर्ष योद्धा का रूप है महावीर का । संघर्ष उनका सूत्र है । 'अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कसाय और इंद्रियां ही शत्रु हैं । हे मुने! मैं उन्हें जीतकर यथान्याय विचरण करता हूं।' यह वचन बड़ा बहुमूल्य है। गप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ।। उन्हें जीतकर मैं उस परम धर्म के अनुसार आचरण करता हूं। इससे बड़ी गलती होती है। क्योंकि अनुवाद या मूल भी गलत समझा जा सकता है।...‘यथान्याय' धर्मानुसार विचरण करता हूं...तो अनुयायियों ने समझा कि धर्म के अनुसार विचरण करने से, यथान्याय आदमी विजेता हो जाता है। लेकिन महावीर बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, 'हे मुने! मैं उन्हें जीतकर ...।' जीतना पहले है। जागना पहले है । '... यथान्याय धर्मानुसार आचरण करता हूं।' जाग गया हूं, अब धर्मानुसार आचरण हो रहा है। धर्म यानी स्वभाव । धर्म यानी विवेक जाग्रत, सुप्रतिष्ठित; तुम्हारी भीतर की ज्योति जलती हुई; तुम्हारा दीया बुझा हुआ नहीं, जलता हुआ; तुम्हारे प्राण चमकते हुए। फिर स्वभावतः आचरण धर्म का होता है। फिर तुम जो भी करते हो वही नीति है। फिर तुम जो भी करते हो ही न्याय है । फिर तुम जो भी करते हो वही शुभ है। ध्यान रखना, शुभ को साधने की चेष्टा नहीं की जा सकती। जागरण के साथ शुभ के फूल खिलते हैं। एक ट्रेन में एक आदमी ने पूछा कि क्या मैं यहां सिगरेट पी सकता हूं। जिस रेलवे कर्मचारी से पूछा था, उसने कहा, 'जी नहीं। यहां सिगरेट पीना सख्त मना है।' 'तो फिर यह सिगरेट के टुकड़े किसके पड़े हैं ?' उस आदमी ने कहा । 'यह उन लोगों के हैं जो इजाजत नहीं मांगते ।' यहां जो जिंदगी है, इसमें मैं अकसर देखता हूं, लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, 'हम ईमानदार हैं, फिर भी जीवन में कोई सुख नहीं; और बेईमान फल-फूल रहे हैं। ये भी बेईमान हैं। मगर ये इजाजत मांगकर फंस गए हैं। पीना तो ये भी चाहते थे। लेकिन इजाजत मांगने में उलझ गए। फिर जब 'नहीं' कह दिया गया तो ये हिम्मत न जुटा सके करने की । इन्होंने शास्त्रों के आदेश सुन लिये, शास्ताओं की आवाज सुन ली। इन्होंने मुनियों के वचन सुन लिये, सदगुरुओं की बात सुन ली। पूछ बैठे। अब तोड़ें तो अपराध लगता है मन में; न तोड़ें तो पीड़ा होती है। और ये देखते हैं, दूसरे पीए जा रहे हैं। उन्होंने पूछने की ही फिक्र न की । अगर तुम धार्मिक जीवन जी रहे हो, तो तुम्हारे मन में यह सवाल कभी भी न उठेगा कि अधार्मिक मजे में हैं और मैं दुख में हूं। अगर यह सवाल उठता है तो इसका अर्थ है कि तुम्हारा धार्मिक जीवन झूठा झूठा, उच्छिष्ट, उधार, बासा। तुमने नियम पकड़े हैं, बोध नहीं पकड़ा; अन्यथा यह असंभव है कि धार्मि आदमी और आनंद में न हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी को महल मिल जाएंगे। मिल भी सकते हैं, न भी मिलें । मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो जाएगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उसके आसपास सोने-चांदी की वर्षा हो जाएगी। पर मैं यह कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी के पास कुछ भी न हो तो भी जिनके पास सोने-चांदी की वर्षा हो रही है, उनसे वह ज्यादा आनंदित होगा । जो पदों पर हैं, उनसे वह ज्यादा प्रतिष्ठित होगा। जिनके पास सब है, उनसे ज्यादा होगा उसके पास, चाहे कुछ भी न हो। यह होना कुछ भीतरी है। अगर तुम ईमानदार हो तो ईमानदारी काफी है आनंद । ईमानदार होने का मजा इतना है कि फिर कौन फिक्र करता है, ईमानदारी से कुछ और मिला कि नहीं। कुछ और की फिक्र तो वही करता है जो ईमानदार नहीं है। यहां बेईमान भी अपने को ईमानदार समझते हैं । तुमने कभी कोई आदमी देखा जो तुमसे कहता हो कि मैं बेईमान हूं? कोई नहीं कहता । एक अदालत में मजिस्ट्रेट ने एक चोर से पूछा कि तूने इस दुकान में रात में पांच बार प्रवेश किया, पूरी रात ? उसने कहा, 'क्या करूं मालिक ! ईमानदार संगी-साथी मिलते ही नहीं। अकेले... जमाना ऐसा खराब हो गया है!' खटपट की आवाज से मुल्ला नसरुद्दीन की नींद उचट गई। सीढ़ियां उतरकर उसने देखा कि चोर रसोई घर का सामान बोरे में समेट रहा है। दरवाजा मेढ़कर उसने पीछे से ललकारा, 'सारा . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान सामान यहीं रख दो, नहीं तो तुम्हारी खैरियत नहीं!' बोरे में चाय और चाहिए नहीं। की छननी डालकर चोर बोला, 'अब इतने बेईमान मत बनो तो जब महावीर कहते हैं, 'हे मुने। मैं उन्हें जीतकर...' सरकार ! इसमें आधा माल तो आपके पड़ोसी का है।' इंद्रियों के ऊपर विवेक जाग गया है। इंद्रियों की अंधेरी रात पर चोर भी...'इतने बेईमान मत बनो सरकार!' यहां सभी विवेक का सूरज उग आया है, सूर्यास्त समाप्त हुआ है, सूर्योदय बेईमानों को ईमानदार होने का खयाल है। कसौटी यह है कि हुआ है। अगर तुम्हारी ईमानदारी सुख न लाए, जब मैं कहता हूं, तुम्हारी 'मैं उन्हें जीतकर, धर्मानुसार यथान्याय आचरण करता हूं।' ईमानदारी सुख न लाए, तो मेरा मतलब है: जब तुम्हारी इससे ऐसा मत समझना कि महावीर सोच-सोचकर आचरण ईमानदारी ही सुख न हो जाए। भाषा में तो हमें आगे-पीछे शब्द करते हैं। हमें ऐसा ही लगता है। इससे सारा धर्म उलटा हो जाता रखने पड़ते हैं, क्योंकि एक साथ सभी शब्द नहीं बोले जा है हमारी समझ में। एक अंधा आदमी टटोल-टटोलकर दरवाजा सकते; लेकिन जीवन में ईमानदारी और सुख साथ-साथ घटता खोजता है, कहां से बाहर जाऊं। आंखवाला आदमी निकल है। कहने में तो कहना पड़ेगा, ईमानदारी सुख लाती है। क्योंकि जाता है, सोचता थोड़े ही है! इतना भी नहीं सोचता कि दरवाजा भाषा लाइन में जमानी पड़ती है, पंक्तिबद्ध, रेल के डब्बों की कहां है। आंख है तो बस दरवाजा दिखाई पड़ता है। सोचता भांति, एक डब्बे के पीछे दूसरा डब्बा रखना पड़ता है। जीवन तो | कौन है! पूछता भी नहीं दरवाजा कहां है। निकल जाता है। युगपत है, साइमल्टेनियस है। टटोलता भी नहीं। । इधर मैं बोल रहा है, उधर पक्षी गीत गा रहे हैं, इधर तम सुन रहे ते जिणित्त जहानाय, विहरामि अहं मणी। हो, हवाएं वृक्षों से घूम रही हैं—यह सब एक साथ हो रहा है। -अब मैं बिहार कर रहा हूं, परम आनंद में! हे मुने! लेकिन अगर इसको भाषा में रखना हो तो एक के पीछे दूसरे को | जीतकर इंद्रियों को, अब सुख ही सुख है। बिहार! अब आनंद रखना पड़ेगा, नहीं तो बड़ी गडमड हो जाएगी। फिर कुछ समझ | ही आनंद है। में न आएगा। इसलिए कहते हैं कि ईमानदारी सख लाती है।। मौजे-सहबा निगाह थी अपनी लेकिन वह कहने की बात है। ईमानदारी सुख है। ईमानदारी रक्से-मस्ती कलाम था अपना। सुख है, इसमें भी तो सुख को पीछे रखना पड़ रहा है। ईमानदारी अगर सूफियों की भाषा में इसको कहें, तो शराब की लहरें अब के इतना भी पीछे नहीं है। ईमानदारी में ही सुख है। अपनी आंखों में हैं। ईमानदारी का सुख उसके बाहर नहीं है। बेईमान का सुख मौजे-सहबा निगाह थी अपनी! उसके बाहर है। इसे समझ लो। कोई बेईमानी के लिए ही थोड़ी | -शराब की लहरें आंखें हो गयी हैं; या आंखें शराब की | बेईमानी करता है; कुछ और पाने के लिए करता है। बेईमानी में लहरें हो गई हैं। खुद थोड़ी साध्य है, साधन है। आदमी चोरी भी करता है तो चोर रक्से-मस्ती कलाम था अपना। | होने के लिए थोड़े ही; हत्या भी करता है तो हत्यारा होने के लिए -और अब नृत्य की मस्ती ही हमारे भीतर का गीत है, थोड़े ही कुछ और आकांक्षा है। बेईमान की आकांक्षा बेईमानी कलाम है, कविता है। के बाहर है। जिसका भी विवेक जागा, उसकी मस्ती जागी। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम्हारे जीवन की साधना में जिसका विवेक जागा, उसका आनंद जागा। आनंद और तुम्हारे जीवन का सुख समाविष्ट न हो तो तुम बेईमान हो, मस्ती विवेक के अनुषंग हैं। ध्यान के साथ मस्ती वैसे ही आती अधार्मिक हो। अगर तुम कहो कि ध्यान करने से क्या मिलेगा तो है, जैसे तम्हारे साथ तम्हारी छाया आती है। मस्ती गौण है, जैसे तुम बेईमान हो, अधार्मिक हो। अगर तुम कहो, प्रेम करने से छाया गौण है। तुम आ गए तो छाया भी आ गई। अगर मैं तुम्हें क्या मिलेगा, तो तुम दुकानदार हो, बेईमान हो। निमंत्रण देने जाऊं और कहूं कि आना, तो तुम्हारी छाया के लिए प्रेम 'मिलना' है-आगे-पीछे क्या? प्रेम पर्याप्त है, कछ अलग से निमत्रंण नहीं देता। तुम्हारी छाया अपने से आती है। 197 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 N ANORT PIN जो अपने से आती है, तम्हारे आने के कारण आती है. वही छाया। जिनके लिए कोई नाम नहीं, जिनकी कोई अभिव्यक्ति नहीं हो है। मस्ती छाया है। | सकती। बस इशारे, बस इशारे, इंगित। “एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए। तो महावीर कहते हैं, 'एक ओर से निवृत्ति, दूसरी ओर से असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति।' छाया को बहुत लोगों | प्रवृत्ति करना चाहिए।' यह बड़ा अनूठा सूत्र है। लोग हैं, जो ने धर्म समझ लिया है। वे छाया को लाने की कोशिश में लगे हैं। कहते हैं, प्रवृत्ति करनी चाहिए। चार्वाक हैं, कहते हैं, प्रवृत्ति मूल की फिक्र ही भूल गई है। कोई उपवास कर रहा है और करो, प्रवृत्ति ही सब कुछ है, निवृत्ति की बकवास में मत पड़ना। खयाल ही भूल गया है कि उपवास छाया है, विवेक मूल है। मौत आएगी, सब खो जाएगा, कुछ भी न बचेगा। भोग लो। अगर विवेक को साधा तो उपवास घटेगा। घटता है। आज जो है उसे भोग लो। कुछ भी छोड़ो मत; क्योंकि जिसने सधते-सधते विवेक के एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि शरीर की | छोड़ा वह व्यर्थ गया, उसने व्यर्थ समय गंवाया, तो चार्वाक याद ही भूल जाती है। ऐसी महाघड़ी आती है, इतना आनंद कहते हैं कि घी भी पीना पड़े उधार लेकर तो पी लो। ऋणं भीतर होता है कि कौन शरीर की याद करता है! घृत्वा...! कोई फिक्र नहीं, ले लो ऋण से, क्योंकि कौन चुकाता तुमने कभी खयाल किया, शरीर की याद दुख में ही आती है! है! कौन चुकाने के लिए बच जाता है। मौत सबको मिटा देती दुख के कारण ही आती है। पैर में कांटा गड़े तो पैर का पता है; न कोई लेनेवाला है, न कोई देनेवाला है-सब चलता है। सिर में दर्द हो तो सिर का पता चलता है। सिरदर्द | हिसाब-किताब खतम हो जाता है। सब हिसाब-किताब यहीं गया तो सिर भी गया। जब शरीर पूरा स्वस्थ होता है तो पता ही की बातचीत है। न कोई कभी लौटता; इसलिए न कोई पुण्य है, नहीं चलता। और जब भीतर महाआनंद की घटना घटती है, न कोई पाप। वे कहते हैं, प्रवृत्ति। जब आत्मा स्वस्थ होती है-जरा उसकी कल्पना तो करो! उसे फिर दूसरी तरफ उनके विपरीत लोग हैं। वे कहते हैं, त्याग! कहना ही मुश्किल है। तो शरीर की याद भूल जाती है। न भूख त्याग करो। भोगो मत। फंस जाओगे। नर्क जाओगे। छोड़ो, का पता चलता है, न प्यास का पता चलता है-ऐसा रम जाता क्योंकि छोड़ने का मूल्य है परमात्मा की नजरों में। वे प्रवृत्ति के है चित्त, ऐसा ठहर जाता है। समय रुक जाता है। क्षेत्र भूल | दुश्मन हैं। तो भोगी हैं चार्वाक, फिर त्यागी हैं। जाता है। अब यह बड़े मजे की बात है कि अगर जैन मुनियों को आज मयाने-कल्ब-ओ-नजर एक मकाम है उसका समझा जाए तो वे महावीर के अनुयायी सिद्ध न होंगे। वे चार्वाक मुकाम? मरहला? जो भी कुछ है नाम उसका के दुश्मन सिद्ध होते हैं, लेकिन महावीर के अनुयायी सिद्ध नहीं जमाले ताबिशेरू गर्मिए-खिराम नहीं होते। वे चार्वाक के विपरीत हैं, यह सच है; लेकिन महावीर के हज़ार ऐसी अदाएं हैं जिनका नाम नहीं। साथ नहीं है, यह भी सच है। वे कहते हैं, छोड़ो, छोड़ो, छोड़ना -वह एक ऐसी अदा है जिसका कोई नाम नहीं। ही... । एक कहता है, भोगो, भोगो, भोगना ही...। ध्यान भी एक पड़ाव है, वह भी अंत नहीं। महावीर बड़े संतुलित हैं। वे कहते हैं, 'एक ओर से निवृत्ति, मयाने-कल्ब-ओ-नजर एक मुकाम है उसका दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए।' असंयम से निवृत्ति और - इन दोनों आंखों के बीच में एक पड़ाव है ध्यान का। संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए, वे कहते हैं, भोगो-संयम को मुकाम ? मरहला? जो भी कुछ है नाम उसका भोगो! छोड़ो-असंयम को छोड़ो! भोगो प्रकाश को, छोड़ो -कोई भी नाम दो, पड़ाव कहो, मुकाम कहो। अंधकार को। भोगो आत्मा को, छोड़ो शरीर को। भोगो विवेक जमाले ताबिशेरू गर्मिए-खिराम नहीं को, वैराग्य को, बोध को, बुद्धत्व को! त्यागो मूर्छा को, मिथ्या -लेकिन उसे प्रगट करने का उपाय नहीं है। दृष्टि को, असम्यकत्व को। छोड़ो। हज़ार ऐसी अदाएं हैं, जिनका नाम नहीं। लेकिन ध्यान रहे, महावीर कहते हैं, निवृत्ति-प्रवृत्ति दोनों दो जिंदगी में ऐसी हजार अदाएं हैं, जिनके लिए कोई शब्द नहीं, पंख की भांति हैं। पक्षी उड़ न पाएगा एक पंख से। 198 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरण नहीं—आत्म-अनुसंधान भोगी भी गिर जाता है, त्यागी भी गिर जाता है। ऐसे भोगो कि अधिक लोग इस कोशिश में रहते हैं कि संसार बदल जाए। त्याग भी बना रहे। ऐसे त्यागो कि भोग भी बना रहे। यह जीवन मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि 'इतना दुख है संसार में, आप की परम कला है। क्यों नहीं कुछ करते?' दुख संसार में है। लोग दुख चाहते हैं। एगओ विरई कुंजा, एगओ य पवत्तणं। मैं क्या करूं? और अगर वे दुख चाहते हैं, तो यही उनका सुख असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।। होगा। उनके सुख में बाधा देनेवाला मैं कौन हूं? यह गाड़ी पर जीवन में जो भी तुम्हारे पास है, कुछ भी छोड़ने योग्य नहीं। जो लोग बैठे हैं, यह चाक जो लोग चला रहे हैं, वे चलाना चाहते उसका उपयोग करना है। पत्थर है, सीढ़ी बना लो। अनगढ़ हैं इसलिए चला रहे हैं। उन्हें उनके दुख से जबर्दस्ती थोड़े ही पत्थर है, छैनी उठा लो, प्रतिमा बना लो। | छुड़ाया जा सकता है। हां, जिनकी समझ में आ जाए वे गाड़ी से इसलिए तो मैं कहता हूं, कामवासना को ब्रह्मचर्य बना लो। नीचे उतर जाएं। क्रोध को करुणा बना लो। काटो मत। काटने की कोई जरूरत रुकता नहीं किसी के लिए कारवाने-वक्त नहीं है, क्योंकि जो तुमने काटा, तो तुम कभी पूरे न हो पाओगे। मंजिल है जुस्तजू की न कोई मुकाम है। वह जो अंश तुमने काट दिया है, उतनी जगह सदा-सदा खाली इस संसार की न तो कोई मंजिल है, न कोई मुकाम है। और रह जाएगी। वह छेद की तरह तुम्हारे व्यक्तित्व में रहेगी। तुम यह जो कारवां है समय का, यह किसी के लिए रुकता नहीं। हां परिपूर्ण पुरुष न हो सकोगे। - तुम चाहो तो उतर सकते हो। तुम चाहो तो रुक सकते हो। तुम्हें कुछ भी मत छोड़ो। सबका उपयोग कर लो। बुद्धिमान वही है यह रोकता भी नहीं। इस बात को खूब गहरे हृदय में बैठ जाने जो जीवन में जो मिला है, उन सभी उपकरणों का ठीक संयोजन देना कि तुम संसार में तभी तक रुके हो जब तक तुम रुकना कर लेता है। अभी सब असंबंधित पड़ा है। तार है, वीणा है, चाहते हो। एक क्षण को भी, क्षण के अंशमात्र को भी, संसार फूटा पड़ा है। ठीक से जोड़ो। इसी टूटे-फूटे तार, तुम्हें रोक नहीं सकता। तुम उतरने को राजी हो, तुम्हें कोई रोक इसी टूटी-फूटी वीणा से महासंगीत पैदा हो सकता है। कुछ भी नहीं सकता। और अगर तुम सोचते हो कोई और तुम्हें रोक रहा छोड़ना नहीं है। तुम जैसे हो, इसका आयोजन बदलना है। चीजें है, तो तुम अपने को धोखा दे रहे हो। गलत स्थानों पर रखी हैं; जहां होनी चाहिए वहां नहीं हैं। जो महावीर के समय की कथा है। एक युवक महावीर को सुनकर जहां होना चाहिए वहां नहीं है। कुछ कहीं रखा है, कुछ कहीं घर लौटा। नया-नया उसका विवाह हुआ था। स्नान करने रखा है। लेकिन इसमें से कछ भी छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि बैठा। परानी कथा है, अब तो ऐसी बात होती नहीं। पत्नी उसके जो भी है, अकारण नहीं है। उसका कोई कारण है। तुम्हारी | शरीर पर उबटन लगा रही थी। अब तो कौन पत्नी लगाती है! समझ में न आए तो जल्दी मत करना। तोड़ने, काटने, हटाने की किसी तरह शरीर ही बचाकर घर से निकल गए तो बहुत है। वह भाषा गलत है। संयोजन की, साधन की भाषा सही है। उबटन लगा रही थी, स्नान करवा रही थी! स्नान-गृह में वह _ 'पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष, ये दो भाव हैं। जो भिक्षु बैठा था चौकी पर, पत्नी उबटन लगा रही थी, और पत्नी ने इनका सदा निषेध करता है, वह मंडल में नहीं रुकता, मुक्त हो कहा, 'सुनो! तुम भी महावीर को सुनने गए। मेरा भाई भी कई जाता है।' वर्षों से सुनता है। और वह सोच रहा है संन्यास ले लेने की।' संसार तो नहीं रुकेगा। संसार तो चलता ही रहेगा। संसार तो वह युवक हंसने लगा। उसने कहा, 'सोच रहा है? सोचने का चक्र है। महावीर उसे मंडल कहते हैं। वह तो घूमता रहेगा। संन्यास से क्या संबंध? लेना हो ले ले, न लेना हो न ले। गाड़ी का चाक घूमता रहेगा। जब तक गाड़ी में बैठी हुई सोचने से क्या मतलब? न लेना हो तो साफ समझे कि नहीं वासनाओं भरे लोग हैं, गाड़ी चलती रहेगी। तुम इसे रोकने की लेना है, लेना हो तो ले ले। कौन रोक रहा है?' उसकी पत्नी ने कोशिश मत करो। तुम चाहो तो गाड़ी से नीचे उतर सकते हो। कहा कि 'क्या तुम सोचते हो, संन्यास इतनी आसान चीज है? तुम्हें कोई रोकनेवाला नहीं है। आदमी को सोचना पड़ता है, विचार करना पड़ता है। तुम भी तो 199 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 जिन सूत्र भाग: 1 लगता है अपना है, प्यारा है; कोई लगता है पराया है, दुश्मन है। कोई लगता है आज अपना नहीं, तो कल अपना हो जाए, ऐसी आकांक्षा जगती है। कोई दूर है तो आकांक्षा होती है, पास आ जाए, गले लग जाए। और कोई पास भी खड़ा हो तो होता है, दूर हटे, विकर्षण पैदा होता है। तुम सारे संसार को राग-द्वेष में बांटते चलते हो। जाने-अनजाने । इसे जरा होश से देखना, 'संन्यास तो', उसने कहा, 'मजाक में भी ले लिया जाए तो तो तुम पाओगे प्रतिपलः अजनबी आदमी रास्ते पर आता है, तत्क्षण तुम निर्णय कर लेते हो भीतर, राग या द्वेष का; मित्र कि चाहत के योग्य कि नहीं; प्यारा लगता है कि दुश्मन; भला लगता है, पास आने योग्य कि दूर जाने योग्य। झलक भी मिली आदमी की राह पर और चाहे तुम्हें पता भी न चलता हो, तुमने भीतर निर्णय कर लिया - बड़ा सूक्ष्म राग का या द्वेष का । यह निर्णय ही तुम्हें संसार से बांधे रखता है। शत्रु एक कार गुजरी, गुजरते से ही एक झलक आंख पर पड़ी, तुमने तय कर लिया ऐसी कार खरीदनी है कि नहीं खरीदनी है। लुभा गई मन को कि नहीं लुभा गई। कोई स्त्री पास से गुजरी। कोई बड़ा मकान दिखाई पड़ा। सुंदर वस्त्र टंगे दिखाई पड़े, वस्त्र के भंडार में। राग-द्वेष पूरे वक्त, तुम निर्णय करते चलते हो । यह राग-द्वेष की सतत चलती प्रक्रिया ही तुम्हारे चाक को चलाए रखती है। तुम मंडल में फंसे रहते हो। फिर क्या उपाय है ? एक तीसरा सूत्र है । बुद्ध ने उसे उपेक्षा कहा है। वह बिलकुल ठीक शब्द है। महावीर इसको विवेक कहते हैं, बिलकुल ठीक शब्द है । वे कहते हैं, न राग न द्वेष, उपेक्षा का भाव । न कोई मेरा है, न कोई पराया है। न कोई अपना है, न कोई दूसरा है। न कोई सुख देता है, न कोई दुख देता है। चौबीस घंटे भी एक दफा तुम उपेक्षा का प्रयोग करके देखो, चौबीस घंटे में कुछ हर्जा न हो जाएगा। चौबीस घंटे एक धारा भीतर बनाकर देखो कि कुछ भी सामने आएगा, तुम उपेक्षा का भाव रखोगे, न इस तरफ न उस तरफ, न पक्ष न विपक्ष, न शत्रु न मित्र - तुम बांटोगे न, देखते रहोगे खाली नजरों से। चौबीस घंटे में ही तुम पाओगे : एक अपूर्व शांति ! क्योंकि वह जो सतत क्रिया चाक को चला रही थी, वह चौबीस घंटे के लिए भी रुक गई तो चाक ठहर जाता है। ऐसा ही समझो कि तुम साइकल चलाते हो, तो पैडल मारते ही रहते हो। दोनों तरफ पैडल लगे हैं। दोनों पैडल एक-दूसरे के सुनने गए थे, क्या तुम संन्यास तत्क्षण ले सकते हो ?' वह युवक उठकर खड़ा हो गया। पत्नी ने कहा, 'कहां जाते हो ? यह तो बातचीत ही थी।' मगर वह तो दरवाजा खोलकर बाहर हो गया। पत्नी ने कहा, 'नग्न हो, कहां जाते हो ?' उसने कहा, 'खतम हो गई बात । लेना है – ले लिया ।' पत्नी ने कहा, 'अंदर आओ! यह मजाक की बात थी । ' - बात खतम।' वह नग्न ही महावीर के पास पहुंचा। सारे गांव की भीड़ लग गई। महावीर से उसने कहा कि ऐसा- ऐसा हुआ। उस क्षण में मुझे लगा कि ठीक यह मैं क्या कह रहा हूं। दूसरे के लिए कह रहा हूं कि सोचे न, सोच तो मैं भी रहा था। मगर तत्क्षण मुझे बोध हुआ कि अगर लेना है तो ले लूं। कौन रोक रहा है ? कौन रोक सकता है ? जब मरते वक्त तुम्हें कोई न रोक सकेगा, तो संन्यास के वक्त कोई तुम्हें कैसे रोक सकता है? जो उतरना चाहता है, उतर जाता है । लेकिन हम बड़े बेईमान हैं। हम हजार बहाने करते हैं। हमारी बेईमानी यह है कि हम यह भी नहीं मान सकते कि हम संन्यास नहीं लेना चाहते, कि वैराग्य नहीं चाहते। हम यह भी दिखावा करना चाहते हैं कि चाहते हैं, लेकिन क्या करें किंतु-परंतु बहुत हैं। ! 'पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो भाव हैं। जो भिक्षु इनका निषेध करता है, वह मंडल संसार में नहीं रुकता, मुक्त हो जाता है। ' रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे । भिक्खू भई निच्च, से न अच्छइ मंडले ।। बस दो बातें हैं- राग और द्वेष, इन दो के सहारे चक्र चलता है। राग, कि कुछ मेरा है। राग, कि कोई अपना है। राग, कि किसी से सुख मिलता है। इसे सम्हालूं, बचाऊं, सुरक्षा करूं। द्वेष, कि कोई पराया है । द्वेष, कि कोई शत्रु है । द्वेष, कि किसी के कारण दुख मिलता है । द्वेष, कि इसे नष्ट करूं, मिटाऊं, समाप्त करूं। बाहर देखनेवाली नजर हर चीज को राग और द्वेष में बदलती है। तुमने कभी खयाल किया। राह से तुम गुजरते हो, किसी की तरफ राग से देखते हो, किसी कि तरफ द्वेष से देखते हो। कोई Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOM अनुकरण नहा-आत्म-अनुसंधान विपरीत लगते हैं, मगर एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं; दोनों | तुम्हारे भीतर समंदर बंद है। एक-दूसरे के सहयोगी हैं। एक पैडल ऊपर होता है तो दूसरा समंदर है एक बूंद पानी में बंद! लेकिन भीतर नजर ही नहीं नीचे होता है। एक बाएं तरफ है तो दूसरा दाएं तरफ है। दोनों | जाती तो समंदर का दर्शन नहीं होता। तुम नाहक छोटे बने हो। दुश्मन मालूम पड़ते हैं, लेकिन दोनों गहरे संयोग में हैं, और दोनों तुम व्यर्थ ही अपने को क्षुद्र समझे हो। तुम अकारण ही हीन माने के कारण ही चाक चल रहा है, गाड़ी चल रही है, साइकिल चल बैठे हो। और हीन मान लिया, इसलिए श्रेष्ठ बनने की कोशिश रही हैं। तुम पैडल रोक दो, तो हो सकता है, थोड़ी-बहुत में लगे हो। थोड़ी आंख भीतर आए, थोड़ी उपेक्षा में दृष्टि दो-चार-दस कदम पुरानी गति के कारण साइकिल चल जाए, सम्हले, थोड़ी तुम्हारी ज्योति यहां-वहां न कंपे, राग-द्वेष के लेकिन सदा न चल पाएगी। पैडल रोकते ही गति क्षीण होने | झोंके न आएं, तो तुम अचानक पाओगेः समंदर है एक बूंद पानी लगेगी, साइकिल लड़खड़ाने लगेगी। दो-चार-दस कदम के में बंद। तब तुम विराट हो जाओगे, विशाल हो जाओगे। यही बाद तुम्हें साइकिल से नीचे उतरना पड़ेगा, नहीं तो साइकल तुम्हें तुम्हारा परमात्म-भाव है। नीचे उतार देगी। किरण चांद में है शरर संग में राग और द्वेष पैडल की भांति हैं। विपरीत दिखाई पड़ते हैं, . यह बेरंग है डूब कर रंग में लेकिन उन दोनों के ही पैडल मारकर तुम जीवन के चके को खुद ही का नशेमन तिरे दिल में है सम्हाले हुए हो। उपेक्षा को साधो! उपेक्षा का अर्थ है : पैडल फलक जिस तरह आंख के तिल में है। मत मारो, बैठे रहो साइकिल पर, कोई हर्जा नहीं। कितनी देर जैसे आंख के छोटे-से तिल में सारा आकाश समाया हुआ बैठोगे? इसलिए तो मैं कहता हूं अपने संन्यासियों को, भागने है...आंख खोलते हो आकाश को देखते हो, कितना विराट की कोई जरूरत नहीं, बैठे रहो जहां हो। साइकिल पर ही बैठना आकाश आंख के छोटे से तिल में समाया हुआ है। है, बैठे रहो। घर में रहना है, घर में रहो। दुकान पर रहना है, खुदी का नशेमन तेरे दिल में है। दुकान पर रहो। थोड़ा ध्यान सधने दो, साइकिल खुद ही फलक जिस तरह आंख के तिल में है। गिराएगी तुम्हें, तुम्हें थोड़े ही छोड़ना पड़ेगा। साइकल खुद ही वह परमात्मा का घर भीतर है। वह तुम छोटे मालूम पड़ते छोड़ देगी। साइकिल कहेगी, अब बहुत हो गया, उतरो! हो...आंख का तिल कितना छोटा है, सारे आकाश को समा जरा उपेक्षा सधे, जरा विवेक सधे, जरा ध्यान सधे, जरा | लेता है! अमूर्छा थोड़ी उठे, कि जीवन में अपने-आप क्रांति घटित होनी | तुम छोटे मालूम पड़ते हो, हो नहीं। जिस दिन तुम्हारा भीतर शुरू हो जाती है। चौबीस घंटे शायद तुम्हें लगे, बहुत मुश्किल | का विस्फोट होगा, उस दिन तुम जानोगे कि तुम सदा-सदा से है, शायद डर भी लगे कि कहीं ऐसा न हो कि साइकिल से गिर अनंत को, निराकार को, निर्गुण को अपने भीतर लिये चलते थे। ही जाएं, हाथ-पैर न टूट जाएं; कहीं ऐसा न हो जाए कि फिर | समंदर है एक बूंद पानी में बंद! साइकिल पर दुबारा चढ़ ही न सकें तो ऐसा करो कि दिन में लेकिन इसकी खोज नियम, मर्यादा, अनुशासन, नीति, एक घंटा ही उपेक्षा साधो। लेकिन फिर एक घंटा परिपूर्ण उपेक्षा सदाचार, इतने से ही न होगी। इतने से तुम अच्छे आदमी बन साधो। वह एक घंटा भी तुम्हें जीवन का दर्शन करा जाएगा। जाओगे-सभ्य। सभ्य शब्द बड़ा अच्छा है। इसका मतलब : क्षणभर को भी अगर राग-द्वेष की बदलियां आंखों में न घिरी हों, सभा में बैठने योग्य। और कुछ खास मतलब नहीं है। जहां चार तो जीवन का सत्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। तब न कोई जन बैठे हों, वहां तुम बैठने योग्य हो जाओगे, सभ्य हो मित्र है, न कोई शत्रु है। तब तुम्हीं अपने मित्र हो, तुम्हीं अपने जाओगे। कोई तुम्हें दुतकारेगा नहीं कि हटो यहां से! शत्रु हो। सत्प्रवृत्ति में मित्र हो, दुष्प्रवृत्ति में शत्रु। नीति-नियम सीख जाओगे, शिष्टाचार। लेकिन उस परमात्मा खुदी क्या है राजे-दुरूने-हयात के जगत में इतने से काफी नहीं है। सभा में बैठने योग्य हो जाने समंदर है एक बूंद पानी में बंद। से, तुम अपने में बैठने योग्य न बनोगे। जो तुम्हें सभा में बैठने 201 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1 योग्य बना दे, वह सभ्यता। जो तुम्हें अपने में बैठने योग्य बना आत्मा का नियम खिला नहीं; आत्मा के नियम में बिहार न दे, वही संस्कृति। हुआ। ऊपर-ऊपर की व्यवस्था सीख गए-कैसे उठना, कैसे शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां बैठना, कैसे मंदिर जाना, कैसे पूजा करना, क्रियाकांड, वह सब किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग। सीख गए तो जैन हो गए, हिंदू हो गए, मुसलमान हो गए, ईसाई शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां-यह | हो गए। लेकिन जो होना था उससे बच गए। उठने-बैठने के निमय और व्यवस्थाएं और आचरण की और झूठे सिक्के बड़े खतरनाक होते हैं। क्योंकि झूठे सिक्कों पद्धतियां, मकतब के तरीके, इनसे दिल का विकास नहीं होता, का बोझ और उनकी खनन-खनन तुम्हें धोखा दे सकती है और इनसे आत्मा नहीं बढ़ती, इनसे आत्मा नहीं फलती-फूलती। ऐसा लग सकता है, असली सिक्के अपने पास हैं। असली किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग! यह तो सिक्का तो जिनत्व का है। जिन होना। अगर होना ही हो तो जिन ऐसे ही है, जैसे कोई तेल से या गंधक से बिजली के बल्ब को होना। कुछ और होने से राजी मत होना। सस्ते में अपने को मत जलाने की कोशिश करे। कोई संबंध नहीं है। तेल भरना पड़ता बेच डालना। परमात्मा ही खरीदा जा सकता है इस जीवन से; है दीये में। गंधक के भी दीये बन सकते हैं। लेकिन बिजली की इससे कम की आकांक्षा मत करना। रोशनी को गंधक और तेल की कोई भी जरूरत नहीं है। यह हो सकता है, क्योंकि यह हुआ है। यह हो सकता है, | किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग! मकतब | क्योंकि यह तुम जैसे ही मनुष्यों में हुआ है। तुम इसके मालिक के तरीकों से, जीवन के साधारण शिष्टाचार के नियमों को जिसने हो। यह तुम्हारा स्वभाव-सिद्ध अधिकार है। धर्म समझ लिया, वह ऐसे ही है जैसे एक बिजली के बल्ब को तेल भरकर जलाने की कोशिश कर रहा हो। वह व्यर्थ है। आज इतना ही। जैसे ही थोड़ी-सी समझ को तुम उकसाओगे, वैसे ही तुम पाओगे: तुम्हारे भीतर की रोशनी न तो तेल चाहती है न गंधक; तुम्हारे भीतर की रोशनी ईंधन पर निर्भर नहीं है। तुम्हारे भीतर की रोशनी तुम्हारा स्वभाव है। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।। 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता, विकर्ता, सत्प्रवृत्ति में स्थित मित्र, दुष्प्रवृत्ति में स्थित अपना ही शत्रु है।' इस सत्य को तुम हृदयंगम करो। इस सत्य को भीतर ले जाओ। इस सत्य का साक्षात्कार करो। इस सत्य को खोजो अपने जीवन में, क्या ऐसा ही नहीं है? अगर तुम्हें भी ऐसा दिखाई पड़ने लगे—मेरे कहने से नहीं, महावीर के वक्तव्य से नहीं; ऐसा तुम्हें भी दिखाई पड़ने लगे, ऐसी तुम्हारी दृष्टि हो जाए–तो तुम 'जिन' होने की यात्रा पर निकल जाओगे। और जैन कभी होना मत चाहना। होना ही है तो जिन होना। होना ही है तो महावीर होना। अनुयायी होने से क्या होगा? अनुकरण नहीं, आत्म-अनुसंधान। जैन बनकर धोखा मत देना। जैन बनने का मतलब है : सीख गए ऊपर के मकतब के तरीके 2021 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रवचन जिंदगी नाम है रवानी का ' Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार लोग आपको धर्म-भ्रष्ट करनेवाला कहते हैं, विरोध करते हैं। उनके साथ कैसे जीया जाए? जो कुछ मुझे मिला है, वह कम नहींफिर भी आखिर क्या पाकर मुझे संतोष होगा? ENTS Ma कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस। दो नैना नहिं खाइयो, पिया मिलन की आस।। आप न जानो गुरुदेव मेरे, मैं तुम्हें पुकारा करती हूं। एक बार हृदय में छेद करो, वह क्षण मैं निहारा करती हूं।। Ban www.jamelibrary.org: Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रश्न : मेरे घरवाले तथा दूसरे भी आपको स्वयं से आता है। धर्म को भ्रष्ट करने वाला कहते हैं। लेकिन मेरा निश्चित ही, शास्त्र भी कभी स्वयं से आये थे। लेकिन वह मन कहता है: घटना घटे बहुत देर हो गई। उस घटना पर बहुत राख जम गई परवरदिगार आलम तेरा ही है सहारा समय की। उस घटना पर बहुत व्याख्याओं की पर्ते जम गईं। तेरे बिना जहां में कोई नहीं हमारा। जब कृष्ण ने बोला था तो उन्होंने तो अंतस्थल से बोला था। किंतु यह तो मेरा मत हुआ। रहना तो उन लोगों के साथ है जो लेकिन गीता पर तो बहुत धूल जम गई। गीता के तो बहुत अर्थ आपके विरोध में हैं। अतः कृपापूर्वक बताएं कि कैसे अपने हो गए। इतने अर्थ हो गए कि अनर्थ हो गया। सत्य की रक्षा करूं? इसलिए जिन्होंने शास्त्र में धर्म को जाना है, उन्हें तो लगेगा, मैं नष्ट करता हूं। क्योंकि मैं कहता हं, शास्त्र से मुक्त हो जाओ। पहली बात, घरवाले ठीक ही कहते हैं। उनसे नाराज मत मेरी गीता में उत्सुकता नहीं, कृष्ण के चैतन्य में उत्सुकता है। होना। जिसे वे धर्म कहते हैं, उसे निश्चित ही मैं भ्रष्ट करता हूं। गीता तो उस चैतन्य से निकला हुआ उच्छिष्ठ है। अगर होना ही उनकी बात में कुछ भूल नहीं है। उनकी बात सीधी-साफ है। है कुछ तो कृष्ण ही हो जाओ। लेकिन कृष्ण होने के लिए तो मेरे और उनके धर्म की परिभाषा अलग है। अगर तुम्हारी भी भीतर जाना पड़े। कृष्ण होने के लिए तो जीवन दांव पर लगाना परिभाषा उनके धर्म की परिभाषा से अलग हो जाये, तो तुम पड़े। कृष्ण होने के लिए तो मरना पड़े, तो ही पुनर्जन्म हो, तो ही नाराज न होओगे, तुम परेशान भी न होओगे। तुम्हारी परेशानी नया जीवन हो। वह तो सौदा महंगा है। यह है कि तुम्हारी भी धर्म की परिभाषा वही है जो उनकी परिभाषा लोग सस्ता धर्म चाहते हैं। वे चाहते हैं, बिना कुछ किए मिल है। इसलिए उनकी बात चोट करती है, उनकी बात से पीड़ा होती जाए; बिना कुछ किए धार्मिक होने का सुख मिलने लगे; बिना है। तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं धर्म को नष्ट नहीं करता। कुछ किए अहंकार पर धर्म भी आभूषण की तरह सजावट दे, तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं तो धर्म को, धर्म-चक्र को शंगार दे। प्रवर्तित करता है। लेकिन धर्म के संबंध में तुम्हारी भूल है। मैं जो धर्म की बात कर रहा हूं, वह तुम्हें जलाएगा, गलाएगा उन्होंने जो धर्म जाना है, वह है परंपरा का धर्म। मैं परंपरा के | मिटाएगा। यह सिर्फ थोड़े से लोगों के लिए हो सकता है। विपरीत हूं। क्योंकि मैंने जो धर्म जाना है, वह है नितनूतन, भीड़ सदा ही शास्त्र को मानेगी। क्योंकि भीड़ इतनी हिम्मतवर प्रतिक्षण नया, शाश्वत, लेकिन फिर भी नितनूतन। उन्होंने जो भी नहीं है कि कह दे कि हम अधार्मिक हैं, कह दे कि हम धर्म जाना है, वह शास्त्र से आता है। मैंने जो धर्म जाना है, वह नास्तिक हैं। और इतनी हिम्मतवर भी नहीं है कि सत्य को स्वयं 207 www.jainelibrar.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग खोजने की यात्रा पर निकले। भीड़ समझौतावादी है। भीड़ जब लोग विरोध करते हैं तो विरोध में उनका रस नहीं है, कहती है, हम धार्मिक हैं। लेकिन धर्म ऐसा मरा लाश की तरह | आत्मरक्षा कर रहे हैं वे। तुम उन पर दया करना। उनका कि उससे दुर्गंध उठती है, कोई सुगंध नहीं उठती। आक्रमण, उनकी आत्मरक्षा का उपाय है। वे कहेंगे यह व्यक्ति निश्चित ही मैं कहता हूं, इस लाश को फेंको। क्योंकि इस धर्म भ्रष्ट करता है। ऐसा कहेंगे, ऐसा मानेंगे, तो मेरे पास आने लाश के कारण तुम मरे जा रहे हो। लाश के साथ रहोगे तो से बच सकेंगे। ऐसा न कहेंगे, न मानेंगे तो फिर किसी दिन मेरे मरोगे। जो जिसके साथ रहेगा, वैसा हो जाता है। अगर तुम पास आना पड़े। वह सौदा करने की अभी उनकी तैयारी नहीं है। शास्त्र के साथ रहोगे तो धीरे-धीरे शब्द ही शब्द रह जायेंगे, सत्य | तो पहली तो बात, वे ठीक ही कहते हैं। मैंने तुम्हें धर्म की नई खो जाएगा। अगर तुम अतीत की परंपरा के पीछे ही चलते परिभाषा देनी शुरू की है। तुम उसे समझो। मैं तुम्हें हिंदू नहीं रहोगे, तुम्हारी आंखें धीरे-धीरे अंधी हो जाएंगी; उनके उपयोग बना रहा हूं, मुसलमान नहीं बना रहा हूं, ईसाई नहीं बना रहा की जरूरत ही न होगी। तुम सदा किसी के पीछे चलोगे। हूं-मैं तुम्हें सिर्फ धार्मिक बना रहा हूं। मैं तुम्हें कोई मंदिर, जो अपने पैरों से चलता है, जो खुद खोजता है, जो खुद खोजने मस्जिद नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें आत्म-रूपांतरण की प्रक्रिया दे | का खतरा लेता है, उसकी आंखें सजग होती हैं। वह जागने | रहा हूं। मैं तुम्हें परमात्मा से सीधा जोड़ना चाहता हूं। बीच में लगता है। प्रतिपल चुनौती होती है। उसी चुनौती में आविष्कार कोई मध्यस्थ नहीं दे रहा हूं। क्योंकि मैं देखता हूं कि मध्यस्थ होता है। पहुंचानेवाले तो सिद्ध नहीं होते, रोकनेवाले सिद्ध हो जाते हैं। जो परिवार के लोग, पास-पड़ोस के लोग, तुम्हारे मित्र, | जिनको तुम बीच में ले लेते हो, वे ही दीवारें बन जाते हैं। प्रियजन, जिसे धर्म कहते हैं, वह संप्रदाय है— हिंदू, मुसलमान, | मैं तुम्हें ज्ञानी नहीं बना रहा हूं, क्योंकि सब ज्ञान अहंकार को ईसाई, जैन। मैं जिस धर्म की बात कर रहा हूं, वह न तो हिंदू है, भर देते हैं। मैं तुम्हें त्यागी नहीं बना रहा हूं, क्योंकि त्याग भी बड़े न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है। मैं उस धर्म की बात कर सूक्ष्म अहंकार को जन्माता है। मैं तुम्हें सरल, सीधा, साफ रहा हूं, उस अंगारे की, जो बुझकर कभी ईसाई हो गया, बुझकर प्रामाणिक बना रहा हूं। मैं तुम से कह रहा हूं, आदमी हो जाना कभी हिंदू हो गया, बुझकर कभी जैन हो गया। लेकिन ये बुझे काफी है। अगर तुम आदमी ही हो जाओ तो परमात्मा आ जाए। हुए अंगारे हैं, राख के ढेर हैं। इतना काफी है कि तुम सरल हो जाओ, सीधे-साफ हो जाओ। मैं उस धर्म की बात कर रहा हूं, जो जीवंत है। लेकिन जीते हुए | तुम जीवन जैसा तुम्हें मिला है, उसे अंगीकार कर लो। और अंगारे को हाथ पर लेना, जीते हुए अंगारे को हृदय पर लेना तो जीवन तुम्हें जो अनुभव देने के लिए द्वार खोला है, उन अनुभवों थोड़े से दुस्साहसियों का काम है। भीड़ वैसा न कर सकेगी। तुम से गुजर जाओ, क्योंकि उससे बड़ा कोई और विश्वविद्यालय भीड़ से वैसी अपेक्षा भी न करना। नहीं है। वे ठीक ही कहते हैं। जब वे ऐसा कहते हैं तो वे अपनी रक्षा सबसे बड़ा विश्वविद्यालय अनुभव है कर रहे हैं। तुम्हारे कारण खतरा पैदा हो गया। तुम्हारे कारण | पर इसकी देनी पड़ती है फीस बड़ी। उनके जीवन में पहली दफा खलल पड़ा। तम्हारे कारण तरंगें लोग सस्ता अनुभव चाहते हैं, उधार चाहते हैं, कोई दे दे, खुद पैदा हुई हैं, उन्हें सोचने को मजबूर होना पड़ा है। | न लेना पड़े, खुद न गुजरना पड़े आग से। लेकिन न तो तुम्हारे वे सब तरह से झंझट करेंगे। वे सब तरह से तुम्हें गलत सिद्ध लिए कोई जी सकता है, न तुम्हारे लिए कोई प्रेम कर सकता है, न करने की कोशिश करेंगे। तुम्हें गलत सिद्ध करने में उनकी तुम्हारी जगह कोई मर सकता है तो तुम्हारी जगह कोई सत्य उत्सुकता नहीं है; उनकी उत्सुकता यह है कि हमारी सुरक्षा तो का अनुभव कैसे ले सकता है? मत छीनो। हम तो अब तक सोचते थे कि शास्त्र में धर्म है, तुम निजी है जीवन में जो भी श्रेष्ठ है। संप्रदाय का अर्थ होता है: कहते हो नहीं है, तो तुम हमारे पैर के नीचे की भूमि खींचे ले रहे भीड़। संप्रदाय का अर्थ होता है : संगठन। परमात्मा से भीड़ का हो। हमारा क्या होगा?' और संगठन का कुछ लेना-देना नहीं। परमात्मा से संबंध हमारा 208 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजी है, वैयक्तिक है। एक-एक जाता है उसकी तरफ, अकेला-अकेला जाता है। और जब भी कोई जाता है तो भीड़ को छोड़कर जाना पड़ता है; क्योंकि भीड़ चलती है राजपथ पर, चौड़े सीमेंट-पटे पथ पर, सुरक्षित और परमात्मा बड़ा जंगली है। परमात्मा अभी भी सभ्य नहीं हुआ, सौभाग्य है कि सभ्य नहीं हुआ। परमात्मा अभी भी सरल और प्राकृतिक है। तो जिसे परमात्मा को खोजना है उसे सरल और प्राकृतिक होना पड़ता है। उसे उतरना पड़ता है राजपथ से, अपनी पगडंडी खोजनी पड़ती है झाड़-झंखाड़ में, कांटों भरे रास्ते पर । न कोई मार्गदर्शक, न कोई हाथ में नक्शा, न कोई किताब - अकेले, सिर्फ जीवन पर भरोसा ! मैं तुम्हें जीवन पर भरोसा दे रहा हूं और सारे भरोसे छीन रहा हूं। तुम्हारे और सारे भरोसों ने तुम्हें नपुंसक बना दिया है। तुम्हारा आत्मविश्वास खो गया है। जीवन पर तुम्हारी श्रद्धा खो गई है। मैं कहता हूं, एक ही श्रद्धा करने योग्य है और वह जीवन की श्रद्धा है। तुम यह मानकर चलो कि जिसने तुम्हें जन्माया है, जो | तुम्हारे भीतर जन्मा है, वह तुम्हें मंजिल की तरफ भी ले जाएगा। तुम सुनो उसकी, गुनो उसकी। डरो मत। भीड़ को मत पकड़ो। जो तुम्हें यहां तक ले आया है, वह वहां भी पहुंचा देगा। लेकिन डर के कारण हम भीड़ से चिपटते हैं। 'अगर तुम हिंदू नहीं हो, जैन नहीं हो, मुसलमान नहीं हो तो तुम्हें डर लगेगा, तुम हो कौन ! कोई सहारा चाहिए, कोई नाम-पट चाहिए, कोई व्याख्या- परिभाषा चाहिए। हिंदू होने से लगता है, मैं कुछ हूं। मुसलमान होने से लगता है, मैं कुछ हूं। शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय होने से लगता है, मैं कुछ हूं । त्याग किया, मंदिर गए, पूजा की - लगता है, मैं कुछ हूं। मैं तुम्हें यहां सिखा रहा हूं कि तुम कुछ भी नहीं हो, परमात्मा है। तुम हो ही नहीं, तुम जगह दो। तुम जगह खाली करो। तुम सिंहासन पर बहुत बैठ चुके हो, उतरो । तो मेरी पुकार तो केवल उनके लिए है, जो अतिदुस्साहसी होंगे। धर्म आत्यंतिक साहस है — कमजोरों का रास्ता नहीं। इसलिए कमजोर धर्म के नाम पर भी राजनीति चलाते हैं। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, ईसाई हैं, ये सब राजनीतियां हैं। नाम धर्म के पताकाएं धर्म की हैं—भीतर राजनीति है। चर्च हैं, मंदिर हैं, पुजारी हैं, जिंदगी नाम है रवानी का पंडे-पुरोहित हैं - बातें धर्म की हैं; भीतर अगर थोड़ा गहरे उतरोगे, राजनीति पाओगे। संसार की दौड़ है, पद की, प्रतिष्ठा की, संपदा की, साम्राज्य की । ईसाइयत चाहती है, सारे संसार पर छा जाए। परमात्मा पाने में उतना रस नहीं है, जितना संसार पर छाने में रस है । इस्लाम चाहता है, सारी दुनिया को मुसलमान बना ले। तलवार के बल तो तलवार के बल सही। चाहे काटने पड़ें लोग, लेकिन उनके हित में उन्हें काटना ही पड़ेगा ! जलाने पड़ें गांव, बस्तियां उजाड़नी पड़ें; लेकिन आदमी को मुसलमान बनाना ही पड़ेगा ! यह क्या पागलपन है ? आदमी आदमी होने से पर्याप्त है। उसे हिंदू और मुसलमान और ईसाई बनाने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन सब राजनीतियां हैं। इधर हिंदू परेशान रहते हैं। मेरे पास आ जाते हैं लोग। वे कहते हैं, 'आप कुछ करिए! ईसाई मिशनरी हिंदुओं को ईसाई बना रहे हैं।' मैं उनसे कहता हूं, अगर वे जितने अच्छे आदमी पहले थे उससे अच्छे आदमी ईसाई होकर हो रहे हैं, तो क्या हर्जा है ? हां, अगर जैसे पहले थे, उससे बुरे हो रहे हैं तो कुछ करें। अगर वे वैसे के वैसे ही रह रहे हैं, जैसे हिंदू थे वैसे ईसाई होकर रहेंगे, तो क्या चिंता है? होने दो! इससे क्या फर्क पड़ता है ? नहीं, लेकिन वे कहते हैं, फर्क पड़ता है, हमारी संख्या कम होती जाती है। संख्या कम होती है तो राजनीति में बल कम होत चला जाता है। संख्या कम होती है तो मत कम हो जाते हैं। अगर ऐसा ही होता रहा तो ईसाइयों का राज्य हो जाएगा। गौर से देखो तो धर्म के भीतर तुम राजनीति छुपी पाओगे। हिंदू कहता है, हिंदू धर्म को बचाना है। धर्म से कुछ लेना देना नहीं-हिंदू राजनीति को बचाना है! ईसाई कहता है, ईसाइयत को फैलाना है । ईसाइयत से क्या लेना देना है? ईसा से क्या ईसाइयत का संबंध रहा है ! वह यह कह रहा है, अपनी राजनीति को फैलाना है, अपने साम्राज्य को, शक्ति को फैलाना है । कोई भी बहाना हो, आदमी राजनीति में डूबा है। ध्यान रखना, जहां तुम्हारा भीड़ में रस हुआ, वहां राजनीति आई । तुम अपने में रस लो । धर्म नितांत वैयक्तिक घटना है। परमात्मा घटेगा तुम्हारे अंतर्तम में, तुम्हारे एकांत में। किसी को कानों कान खबर भी न होगी। तुम्हारी पत्नी भी पास होगी, उसे भी पता न चलेगा। तुम्हारे बेटे को पता न चलेगा, जो तुम्हारा ही 209 . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 जिन सूत्र भाग: 1 खून, हड्डी, मांस का हिस्सा है। धर्म जब घटता है तो नितांत वैयक्तिक है। राजनीति सामूहिक है। जहां धर्म समूह बनता है, वहां राजनीति हो जाती है । मेरी राजनीति में कोई उत्सुकता नहीं । मेरी उत्सुकता व्यक्तियों में है, समूहों में नहीं । यहां भी तुम बैठे हो, तो मैं एक-एक से बात कर रहा हूं, समूह से नहीं। मेरी नजर तुम पर है – एक - एक पर। तुम्हारी भीड़ से मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। 1 एक मित्र ने पूछा है कि ‘सत्य साईंबाबा की सभा में हजारों लोग होते हैं। पांडूरंग महाराज की सभा में हजारों लोग होते हैं। डोंगरे जी महाराज की सभा में हजारों लोग होते हैं। आपकी सभा में थोड़े-से लोग क्यों होते हैं ?' मैं आश्चर्यचकित होता हूं कि इतने भी क्यों हैं ! इतने भी होने | नहीं चाहिए हिसाब से । जो मैं कह रहा हूं वह इतनों को भी पट जाता है, यह भी आश्चर्य की बात है । और ऐसा नहीं है कि भीड़ मेरे पास नहीं थी। भीड़ मेरे पास भी थी। मैंने सारे रास्ते उसके लिए बंद कर दिए। वे हजारों लोग मेरे पास भी थे। लेकिन मैंने पाया, वह हजारों लोगों का मनोरंजन होगा। उनके जीवन में कोई क्रांति की आकांक्षा न थी । जलसा था, तमाशा था । क्रांति की आकांक्षा भीड़ में नहीं है। भीड़ को मैंने छोड़ा। अब तो हर तरह मैंने उपाय किए हैं कि भीड़ का आदमी पहुंच ही न पाए। सब तरह के द्वार-दरवाजे बिठा दिए कि भीड़ को आने ही न दिया । वे ही थोड़े-से लोग जो सच में रूपांतरित होना चाहते हैं, मेरे पास तक पहुंच पाएं। अन्यों में मेरा रस नहीं है। भीड़ को इकट्ठा कर लेने से सस्ता कोई काम दुनिया में और है ? भीड़ की मूढ़ता को समझो। जहां भीड़ है वहां एक बात पक्की हो जाती है कि कुछ गलत चल रहा होगा। ठीक के साथ तो भीड़ हो ही नहीं पाती। इतने लोग कहां कि जहां ठीक चलता हो वहां भीड़ हो जाए? इतने आदमी कहां ? नाममात्र के आदमी हैं। रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। एक-दूसरे को गाली-गुफ्ता कर रहे हों तो भीड़ इकट्ठी हो जाती | है | हजार जरूरी काम छोड़कर वहां खड़े हो जाते हैं। इस भीड़ को इकट्ठा करके भी क्या होगा ? लेकिन राजनीतिज्ञ इसी भीड़ में उत्सुक हैं। और जिन्हें तुम धर्मगुरु कहते हो, वे भी इसी भीड़ में उत्सुक हैं; क्योंकि भीड़ में बल है । जितनी बड़ी भीड़ तुम्हारे पास इकट्ठी होती है, उतने तुम बलशाली हो जाते हो । लेकिन बलशाली होने की आकांक्षा तो अहंकार की ही यात्रा है। ain Education International निर्बल के बल राम । मैं तो तुम्हें सिखाता हूं: निर्बल हो जाओ। कोई ताकत तुम्हारे पास न हो, न पद की, न धन की, न की। कोई सहारा तुम्हारे पास न हो, तुम बिलकुल बे-सहारे हो जाओ । जब तुम बिलकुल बे-सहारे हो तब तुम्हें परमात्मा का सहारा मिलता है। जब तक तुम्हारा अपना कोई सहारा है, परमात्मा को सहारा देने की जरूरत भी नहीं है। सुना है मैंने, कृष्ण भोजन को बैठे हैं बैकुंठ में। अचानक बीच थाली से उठ पड़े। भागे द्वार की तरफ। रुकमणि ने कहा, 'कहां जाते हैं ?' लेकिन इतनी जल्दी में थे, जैसे घर में आग लग गई हो, कि उत्तर भी न दिया; लेकिन फिर द्वार पर रुक गए, वापिस लौट आए। कुछ उदास मालूम पड़े। रुकमणि ने पूछा, 'क्या हुआ ? कुछ समझ में न पड़ा। अचानक भागे। कौर भी जो हाथ में लिया था, पूरा न लिया, उसे भी छोड़ दिया। मैंने पूछा तो जवाब न दिया। फिर लौट क्यों आए ?' इसलिए इतने तुम हो यहां, यह चमत्कार है। तुम गणित के नहीं देता ! पत्थर भी नहीं उठाता । वीणा भी बजे जा रही है। वह सब नियमों को तोड़कर यहां हो। गीत भी गुनगुनाए जा रहा है, खून भी बहा जा रहा है। जिसने इतना मुझ पर छोड़ा, मैं बैठकर भोजन करूं ? तो भागा ।' रुकमणि ने कहा, 'ठीक! यह समझ में आता है। यह गणित साफ है । फिर लौट क्यों आए ?' कृष्ण ने कहा, 'जाने की जरूरत न रही। जब तक मैं द्वार तक पहुंचा, उसने एकतारा तो फेंक दिया है, पत्थर उठा लिया। अब वह खुद ही उत्तर दे रहा है; अब मुझे कुछ उत्तर देने की जरूरत न रही।' धार्मिक व्यक्ति अपने को असहाय करता जाता है। असहाय हो जाने में ही उसकी पूजा, उसकी प्रार्थना है। वह धीरे-धीरे अपने सब सहारे तोड़ता जाता है। वह अपने को एक ऐसे सागर कृष्ण ने कहा, 'मेरा एक प्यारा एक राजधानी से गुजर रहा है। मेरा एक फकीर एकतारा बजाता, गीत गाता। लोग उस पर पत्थर फेंक रहे हैं। लहूलुहान, खून उसके माथे से बह रहा है। लेकिन उसका गीत बंद नहीं होता। वह कृष्ण और कृष्ण: की धुन लगाए जाता है। जाना जरूरी हो गया। इतना असहाय, उत्तर भी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D NAREENAMMARHI जिंदगी नाम है रवानी का में छोड़ देता है एक दिन, न नाव, न कोई कूल, न कोई किनारा! जाएंगे। लोग बीच फिल्म में झगड़ा-फसाद करने को खड़े हो उस घड़ी में ही परम आलंबन मिलता है। उस घड़ी में ही प्रभु का जाएंगे, कि न मार-काट, न कोई हत्या, न कोई सनसनीखेज हाथ तुम्हारी तरफ आता है। उसका अर्थ यह हुआ...जब तुमने बात—यह मामला क्या है? सब अपने सहारे छोड़ दिए, उसका अर्थ यह हुआ कि अब तुम्हें ऐसा हुआ है। सेमुअल बेकेट ने एक फिल्म बनाई। अनूठा भरोसा आया, अब तुम्हें श्रद्धा हुई। इसके पहले तुम्हारी श्रद्धा आदमी था। छोटी-छोटी किताबें उसने लिखी हैं, बड़ी-बड़ी अपनी चीजों पर थी। धन पर थी, पद पर थी, मत पर थी, भीड़ गहन-गंभीर! उसने एक फिल्म भी बनाई। उस फिल्म में कुछ पर थी, राज पर थी। तुम्हारी कोई श्रद्धा और थी। लेकिन जिस भी नहीं है। एक आदमी घर लौटता है-कई वर्षों के बाद। घर दिन तुमने अपनी और सारी श्रद्धाएं छोड़ दी, उसी दिन उस भी खंडहर जैसा हो गया है। पत्नी कहां गई, पता नहीं। बच्चे परमशून्य में, उस श्रद्धा का जन्म होता है जिसको धर्म कहें। उस कहां गए, पता नहीं। उसका आना, घर में उसका प्रवेश, अतीत दिन परमात्मा के सिवाय तुम्हारा कोई सहारा न रहा। उस दिन को खोजती उसकी आंखें! द्वार पर, दीवार पर, चित्र पर, केलेंडर उसी घड़ी में, वह महाक्रांति घटती है। उसी घड़ी में तुम उठा लिए पर, फर्नीचर पर-सारा अतीत उसका छाया है। वह खोया है, जाते हो। उसी घड़ी में तुम्हारे भीतर जो कूड़ा-कर्कट है, जल स्तब्ध खड़ा है। वह एक-एक चीज को उठाकर देखने लगता जाता है; जो सोना है निखर जाता है। है। एक शब्द नहीं बोला जाता, सिर्फ उसकी श्वास बढ़ने लगती इसलिए भीड़ में मेरी उत्सुकता नहीं है। धर्म मेरे लिए है। वह घबड़ा गया है। यह सारा अतीत है उसका। और सब अभिजात्य है, अरिस्टोक्रेटिक है। भीड़ का उससे कुछ सूत्र खो गए हैं। कहां है बेटा, कहां पत्नी-कुछ भी पता नहीं लेना-देना नहीं है। कभी-कभी कोई आदमी इतने अभिजात्य को है। यह भी कुछ कहा नहीं जाता; यह भी देखनेवाले को समझना उपलब्ध होता है, ऐसी अंतर्तम की अरिस्टोक्रेसी को...। | है। अभी तक एक शब्द बोला ही नहीं गया है सिर्फ उसकी तुम समझो इसे। कोई कवि है। जितना श्रेष्ठतर कवि होगा, बढ़ती हुई सांस की आवाज है। वह एक-एक चीज को उठाता उतने ही कम लोग उसे सुनने जाएंगे। क्योंकि ज्यादा लोग सुनने है, आंख से आंसू बहने लगते हैं। सिसकियां आ जाती हैं। तभी आ सकते हैं जब वह निकृष्ट हो, जब वह नीचा हो; जब | उसके रोने की आवाज और गहन अंधकार हो जाता है। फिल्म वह उन्हीं की भाषा में बोल रहा हो जिस भाषा में लोग समझ खतम हो जाती है। सकते हैं; जब वह उन्हीं मनोवेगों को छेड़ रहा हो जिनको लोग जहां चली, वहीं झगड़े हो गए। वहीं लोगों ने कुर्सियां तोड़ समझ सकते हैं; जब वह कामवासना के गीत गा रहा हो। जहां डाली, पर्दे तोड़ डाले। लोगों ने कहा, 'यह धोखा है। यह कोई लोग हैं, जब उसकी कविता भी वहीं हो, तभी लोग उसे समझ फिल्म है?' पाएंगे; तभी लोग आंदोलित होंगे। बड़ा सूक्ष्म चित्रण है। कुछ ऐसे भावों को उसकी आंखों से उपन्यास वही बिकेगा जो अत्यंत सस्ता से सस्ता हो; दाम में प्रगट किया है जो शब्दों में नहीं कहे जा सकते। उसके उठने में, ही नहीं, जिसकी आत्मा ही सस्ती हो, जिसमें कुछ भी न हो बैठने में, उसकी श्वास की बढ़ती हुई आवाज में, उसकी आंखों विशेष। गीत वही गुनगुनाया जायेगा जो जितना क्षुद्र, निम्न हो, से टपकते हुए टप-टप आंसुओं में, फिर अंधेरे में खो गई उसकी जितने नीचे तल पर पुकार हो। संगीत भी वही सुना जाएगा सिसकियों में-आदमी की पूरी जिंदगी है। यही तो जिंदगी है। जिसमें आदमी की क्षुद्र वासनाओं की संतुष्टि हो। फिल्म भी एक दिन तुम भी तो यही पाओगे कि जहां सब बसाया था वहां वही चलेगी। फिल्म भी वही चलेगी जो लोगों की कामवासना सिर्फ खंडहर है। बेटे भी खो गए, पत्नी भी खो गई, पति भी खो को थिरकाती हो। हिंसा हो, कामवासना हो, हत्या हो, तो फिल्म गये-सब खो गये। अकेला रह जाता है आदमी। सांस की चलेगी, तो लोग खिचे हुए चले जाएंगे। अब किसी फिल्म में आवाज बढ़ती जाती है और टूट जाती है। अंधेरा! मौत! समाधि का दर्शन हो, कौन जाएगा? बुद्ध बैठे रहें, बैठे रहें वृक्ष सिसकियां! हाथ खाली के खाली! और है क्या जिंदगी में? के तले, समाधि के फल खिलें-कौन जाएगा? लोग ऊब सारी जिंदगी को उसमें रख दिया हैलेकिन कहीं भी फिल्म चल Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जिन सूत्र भाग: 1 ARTHRUM न सकी। और जहां भी चली वहीं उपद्रव हुआ। जनता ने कहा, का काम है। जो मिटने को राजी हों, उनके लिए मेरा निमंत्रण है। पैसे वापस! जिनको अभी जीवेषणा है, वे कहीं और जाएं। और ठीक है कि नहीं, भीड़ को एकत्रित करना हो तो निकृष्ट होना जरूरी है। वे यहां न आएं, क्योंकि यहां वे व्यर्थ का उपद्रव करते हैं। सत्य साईंबाबा के पास भीड़ इकट्ठी होगी; क्योंकि तम्हारी जो | मेरे पास भी कभी-कभी इतने बंधनों के बाद भी लोग आ जाते क्षुद्रतम आकांक्षाएं हैं उनकी तृप्ति का भरोसा है। भरोसा दिया हैं, इतने इंतजाम के बाद भी आ जाते हैं। कहते हैं कि ध्यान के जा रहा है, आश्वासन दिया जा रहा है। किसी को मुकदमा संबंध में समझना है। लेकिन जब पूछने मेरे पास पहुंच जाते हैं, जीतना है। किसी को सुंदर पत्नी पानी है। किसी को धन कमाना | तो मैं उनसे कहता हूं, 'सच में ही ध्यान के संबंध में समझना है। किसी को बीमारी मिटानी है। आदमी की जो सामान्य जीवन है?' अब वे कहते हैं, 'अब आप से क्या छिपाना...सब तरह की चिंताएं हैं...तो सत्य साईंबाबा के पास लगता है कि पूरी की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन दीनता नहीं मिटती, दारिद्र नहीं होंगी। चमत्कार घटते हैं। स्विस घड़ियां हाथ में आ जाती हैं। मिटता। कुछ आशीर्वाद दे दें!' सूने आकाश से राख आ जाती है। वस्तुएं निकल आती हैं। तो आते हैं ध्यान को पूछने। शायद उन्हें भी साफ नहीं है कि जो आदमी ऐसा चमत्कारी है उससे आशा बंधती है कि जो शून्य उनकी जो अशांति है, वह अशांति ध्यान के लिए नहीं है, वह से घड़ियां निकाल देता है, उसे क्या असंभव है! अगर उसकी | अशांति धन के लिए है। धन नहीं है, इसलिए अशांत हैं। कृपा हो जाए तो तुम्हारे ऊपर धन भी बरस सकता है। अगर पूछते हैं मुझसे लोग कि 'ध्यान करेंगे तो सफलता मिलेगी उसकी कृपा हो जाए तो तुम मुकदमा भी जीत सकते हो। अगर जीवन में?' जीवन की सफलता के लिए ध्यान को साधन उसकी कृपा हो जाए तो तुम्हारी बीमारी भी दूर हो सकती है। यह बनाना चाहते हैं। ध्यान तो उनके लिए है जिन्होंने यह जान लिया आश्वासन जगता है। यह मदारीगिरी है; तुम्हारे भीतर वह जो कि जीवन का स्वभाव असफलता है-हारे को हरिनाम! छुपी हुई वासनाएं हैं, उनको सुगबुगाती है। | जिन्होंने जान लिया है कि जीवन में तो हार ही हार है, यहां जीत स्वभावतः भीड़ इकट्ठी हो जाती है। क्योंकि भीड़ बीमारों की होती ही नहीं! है। भीड़ अदालतबाजों की है। भीड़ धन के पागल प्रेमियों की मैं तुम्हें किसी तरह के धोखे देने में उत्सुक नहीं हूं। कोई कारण है। भीड़ पद के आकांक्षियों की है। तो राजनेता भी पहुंच जाता भी नहीं है कि तुम्हें धोखा दूं, क्योंकि भीड़ में मेरी कोई उत्सुकता है चरण छूने, क्योंकि मुकदमा उसको भी लड़ना है, चुनाव नहीं है। मैं इधर अकेला हूं, तुम भी अगर अकेले होने के लिए उसको भी जीतना है। कोई आशीर्वाद, ईश्वर का भी सहारा मिल | राजी हो गए हो तो मेरे पास आओ। जाए उसे। वह भी ताबीज ले आता है। वह भी भभूत ले आता | तो ठीक ही है, लोग कहेंगे कि मैं धर्म को भ्रष्ट कर रहा हूं। है, संभालकर रख लेता है। और निश्चित ही मैं ऐसी बातें कह रहा हूं, कि जो धर्म समझा दिल्ली में ऐसा एक भी राजनीतिज्ञ नहीं है, जिसका गुरु न हो। जाता रहा है वह भ्रष्ट होगा। वह होना चाहिए। वह धर्म नहीं और जब कोई राजनीतिज्ञ जीत जाता है, तब तो भूल भी जाए; ! है। जो बातें मैं कह रहा हूं, वे अजनबी हैं। लेकिन जब हार जाता है तो गुरुओं के चरणों में जाने लगता है। शरहे-फिराक मदहे-लबे-मुश्कबू करें कहीं से कोई आशा की किरण...। गुरबतकदे में किससे तेरी गफ्तग करें। स्वभावतः मेरे पास तुम किसलिए आओगे? जैसे कोई परदेस में खो गया, जहां न कोई अपनी भाषा न मैं तुम्हारी बीमारी दूर करूंगा, न मैं तुम्हें मुकदमे जिताऊंगा, समझता है, न अपनी कोई शैली समझता है-वहां अगर तुम न तुम्हारे लिए सुंदर पत्नियों की तलाश करूंगा, न तुम्हारे लिए अपने प्रेमी की चर्चा करने लगो और अपने प्रेमी की जुदाई की धन का आयोजन करनेवाला हूं-उलटे तुम्हारे पास जो होगा | बात करने लगो, कौन समझेगा? और वहां अगर तुम अपने वह भी ले लूंगा। प्रेयसी और प्रेमी के सुगंधित ओंठों का वर्णन करने लगो, महिमा यहां तो तुम्हें कुछ छोड़ना होगा। यहां तो थोड़े-से हिम्मतवरों का गान करने लगो, कौन समझेगा? 212 Main Education International . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिंदगी नाम है रवानी का शरहे-फिराक मदहे-लबे-मुश्कबू करें जाएगा। तुम्हारे पास कुछ है; या उतर रहा है। तुम्हारी एक-एक -किससे कहें अपने प्रेमी के सुगंधित ओंठों की बात! इस घड़ी बहुमूल्य है। तुम बाजार में खड़े होकर दुकानों पर चर्चा बिछुड़न में कैसे कहें! करने में मत समय व्यतीत करना। तुम्हारे पास ध्यान की गुरबतकदे में किससे तेरी गुफ्तगू करें! संभावना है। तुम तो उनसे कह देना, आप ठीक कहते हैं, लेकिन - इस परदेस में किससे तेरी चर्चा करें! कुछ हो गया, मैं पागल हो गया। वे तुम्हें पागल भी समझ लें तो तो मैं तो दीवानों की तलाश में हूं, जो इस चर्चा को समझ | कुछ हर्ज नहीं। सकें। तुम्हारे कारण मैं नीचे उतरने को राजी नहीं है। हां, मेरे तुम मेरी आंखों की तरफ देखो! मैं तुम्हें क्या समझता है, कारण तुम ऊपर चढ़ने को राजी हो तो मेरे द्वार खुले हैं। यह मेरा इसकी फिक्र करो! और लोग तुम्हें क्या समझते हैं, इसकी चिंता संगीत नीचे न उतरेगा, ताकि तुम जहां हो वहां तुम समझ सको। छोड़ो! अगर तुम्हें मुझ पर थोड़ा भी भरोसा है तो मैं तुमसे कहता तुम्हें अगर मेरे संगीत को समझना है तो तुम्हें ही सीढ़ियां चढ़नी हूं कि तुम उस राह पर हो, जहां पागल हो जाना भी बुद्धिमानी है। पड़ेंगी और वहां आना होगा जहां मैं हूं। | और दूसरे लोग, जो तुमसे कह रहे हैं कि तुम गलत राह पर गए दो ही उपाय हैं मेरे और तुम्हारे मिलने के। एक तो यह है कि मैं हो, समझदार रहकर भी सिर्फ बुद्धिहीनता कर रहे हैं। और उन्हें नीचे उतरूं, जो कि असंभव है; क्योंकि कोई कभी ऊपर जाकर समझाने का एक ही उपाय है कि तुम बदलो। तुम्हारी क्रांति उन्हें नीचे नहीं उतर सकता। जो नीचे उतरा हुआ मालूम पड़े, वह | छुएगी। तुम्हारे जीवन में उठी नई ऊर्जा उन्हें प्रभावित करेगी। नीचे होगा ही, ऊपर गया नहीं है। तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा आनंद। तुम्हारा तर्क नहीं। तुम्हारे शब्द दूसरा उपाय है कि तुम मेरी तरफ चढ़ो, मेरी बात तुम्हें पकड़ नहीं। तुम्हारा अस्तित्व। तुम कुछ ऐसे हो जाओ, जो मैं कह रहा ले, मेरे शब्द तुम्हारे प्राणों को जकड़ लें, मेरी पुकार तुम्हें सुनाई हूं वैसे हो जाओ। फिर तुम देखना, वे खुद ही तुमसे पूछने पड़ जाये, तुम्हारी निद्रा में, तुम्हारे स्वप्न में थोड़ी खलल पड़ लगेंगे, 'कहां से यह तृप्ति आई?' अंधे थोड़े ही हैं वे लोग! वे जाए, एक धागा भी तुम मेरे शब्दों का पकड़कर उठने लगो-तो भी आंखवाले हैं। हीरे दिखाई पड़ने लगें तो वे भी समझेंगे, धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम ऊपर उठोगे वैसे-वैसे मेरी बात साफ कितनी देर न समझेंगे! तुम हीरा बनो! तुम्हारे भीतर चमक होगी। जैसे-जैसे तुम ऊपर उठोगे वैसे-वैसे तुम्हें लगेगा कि धर्म आए। वही तुम्हारा तर्क होगा। क्या है। अनुभव तुम्हारा गहरा होगा तो तुम पाओगे कि मैं धर्म | मैं तुमसे शाब्दिक विवाद में पड़ने को नहीं कहता हूं। और तुम के खिलाफ बोल रहा था, क्योंकि मैं धर्म के पक्ष में हूं; चूंकि मैं इसकी बिलकुल फिक्र मत करना कि तुम्हें मेरी रक्षा करनी है। शास्त्र के खिलाफ बोल रहा था, क्योंकि मैं शास्त्र के पक्ष में हूं। मेरी रक्षा की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरा होना न होना, लोग लेकिन मैं जीवंत अनुभव तुम्हें देना चाहता था। राख पर मेरा क्या कहते हैं, इस पर निर्भर नहीं है। मैं हूं। वे पक्ष में हों कि भरोसा नहीं है। अंगारे मैं अपनी झोली में लिये बैठा हूं, जो भी विपक्ष में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे होने पर कोई रेखा जलने को राजी हों। | नहीं पड़ती इससे। इसलिए तुम इसकी फिक्र ही मत करना। तो घर के लोग ठीक ही कहते हैं। उनसे बेचैन मत होना। मेरे शिष्यों को मुझे बचाने की चिंता ही नहीं करनी चाहिए। उनसे विवाद मत करना। उनसे नाहक माथा-पच्ची मत करना। क्योंकि जिस गुरु को बचाने के लिए शिष्यों को चेष्टा करनी क्योंकि माथा-पच्ची में तुम व्यर्थ ही अपना समय गंवाओगे। पड़ती हो, वह गुरु ही नहीं। जो शिष्यों के आधार पर बचता हो, कह देना कि हां ठीक कहते हैं आप; अब मैं क्या करूं, मैं पागल वह बचाने योग्य भी नहीं। तुम इसकी फिक्र छोड़ दो। हो गया हूं। तुम पागल होकर अपने को बचा लेना। व्यर्थ के तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है, वह मैं जानता हूं। जब विवाद, व्यर्थ की चर्चा, व्यर्थ के सिद्धांतों के विश्लेषण-और तुम्हारे गुरु को कोई गाली देता है, तो तुम्हीं को गाली देता है इस सब में समय मत खोना। क्योंकि उनका तो कुछ न परोक्ष से। जब कोई कहता है कि तुम्हारा गुरु धर्म भ्रष्ट करने खोएगा-उनके पास कुछ भी नहीं है तुम्हारा कुछ खो वाला है, तो वह तुमसे यह कह रहा है कि तुम धर्म भ्रष्ट हो रहे 213 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 हो। जब कोई कहता है, तुम्हारा गुरु गलत है, तो वह कहता है उन्हें यह भी पता नहीं कि घर में कोई नहीं है, घर खाली है। और तम गलत हो। तुम्हारे मन को चोट लगती है। शिष्य का मन | त्रिकालज्ञ हैं, तीनों काल के ज्ञाता हैं और इतना भी पता नहीं है कि होता है कि सारी दुनिया कहे कि तुम्हारा गुरु सबसे बड़ा गुरु! जिस घर के सामने भिक्षापात्र लिये खड़े हैं, वहां भीतर कोई भी क्योंकि तुम सबसे बड़े गुरु के शिष्य हो, तो सबसे बड़े शिष्य हो नहीं। बाद में पता चलता है, घर खाली है। राह से गुजरते हैं, गये! तुम्हारा अहंकार तृप्त होगा। लोग मेरी पूजा में थाल सुबह का अंधेरा है। राह पर सोए कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ जाता सजाएं, लोग मेरा गुणगान करें, तो तुम्हारा भी गुणगान उसमें है। जब कुत्ता भौंकता है तब पता चलता है। त्रिकालज्ञ हैं! छिपा होगा। तुम भी मेरे हो। मेरी पूजा अनजाने तुम्हारी भी पूजा | बौद्ध मजाक उड़ा रहे हैं। होगी। यह अहंकार छोड़ो! यह बकवास बंद करो। यही तो शिष्यों को हमेशा बड़ी तकलीफ होती है। शिष्यों की तकलीफ चलता रहा है। यह है कि हमारा गुरु श्रेष्ठतम होना ही चाहिए। नहीं तो हम जैनों से पूछो तो महावीर सबसे ऊपर; किसी को महावीर के चुनते? हम जैसे बुद्धिमान ने जिसे चुना, वह श्रेष्ठतम से कम हो ऊपर नहीं रख सकते। ऊपर रखने की तो बात छोड़ो, महावीर के सकता है, असंभव! साथ भी नहीं रख सकते। कृष्ण को तो नर्क में डाल दिया है। तुम जरा ध्यान रखना, जब कोई मुझे गाली दे, कोई मेरा खंडन राम संसारी हैं। बुद्ध से जरा अड़चन है, क्योंकि न तो बुद्ध करे, तब अपने अहंकार का खयाल रखना, वह भी सहयोग कर संसारी हैं, न कृष्ण जैसे किसी युद्ध में खड़े हैं, न युद्ध करवाने रहा है। वह भी तुम्हारे अहंकार को काट रहा है। उससे कहना, वाले हैं लेकिन फिर भी महावीर की ऊंचाई पर तो नहीं रख 'काट! ठीक से काट।' वह मेरे खिलाफ कुछ कह रहा है या सकते! तो महावीर को 'भगवान' कहते हैं, बुद्ध को 'महात्मा' नहीं कह रहा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? मुझे क्या फर्क कहते हैं। पड़ता है? तुम्हें फर्क पड़ता है। तुम्हें अड़चन होती है। तुम एक जैन विचारक मेरे पास आते थे। कहते हैं अपने आपको, | लड़ने-मारने को, झगड़ने को उतारू हो जाते हो। तुम्हारे गुरु को सहिष्णु हूं, सभी धर्मों में समभाव रखता हूं। जैन हैं। उन्होंने एक कुछ कह दिया तो यह जीवन-मरण का सवाल हो गया। किताब लिखी है। भगवान बुद्ध तो नहीं लिखा : महात्मा बुद्ध देखना, यह सब अहंकार का सवाल है; जीवन-मरण का और महावीर को 'भगवान' लिखा। 'भगवान महावीर और इससे कुछ लेना-देना नहीं। और यहां मेरी पूरी शिक्षा है कि महात्मा बद्ध।' किताब मेरे पास लाए, कहा कि 'देखें, जैन हं: अहंकार तोड़ देना है, गिरा देना है। तो ये भी तम्हारे मित्र हैं। ये लेकिन मेरा सदभाव सब की तरफ है।' तो मैंने कहा कि भी तुम्हारे अहंकार को तोड़ने के लिए साथ दे रहे हैं। इनको भी 'सदभाव ही था, इतनी कंजूसी क्यों कर गए? इधर थोड़ी | धन्यवाद देना। हिम्मत और बढ़ा लेते।' __ तो जैसे-जैसे तुम शांत भाव से लोगों की बात सुनने लगोगे, महात्मा का अर्थ होता है जो भगवान होने की तरफ जा रहा उनकी बातें इतनी महत्वपूर्ण न मालूम पड़ेंगी-सोये हुए लोगों है, अभी पहुंचा नहीं । महात्मा का अर्थ होता है : जो अंतरमुखी की बकवास है। नींद में बड़बड़ा रहे हैं। अपना उन्हें पता नहीं है, है, अंतरात्मा की तरफ जा रहा है। भगवान का अर्थ होता है : जो तुम्हारा क्या पता होगा, मेरा क्या पता होगा? उनकी बात को पहुंच गया। तो उन्होंने कहा कि 'वह तो ठीक है, लेकिन बुद्ध ज्यादा मूल्य मत देना। अभी महात्मा ही हैं, तो मैं क्या करूं?' जिंदगी नाम है रवानी का बौद्धों से पूछो, तो बौद्धों ने जो मिथ्या दृष्टियां गिनाई हैं, उनमें क्या थमेगा बहाव पानी का एक महावीर की दृष्टि भी है। बौद्धों ने बड़ा मजाक उड़ाया | जिंदगी है कि बेताल्लुक-सा महावीर का। क्योंकि महावीर के शिष्य कहते थे कि महावीर एक टुकड़ा किसी कहानी का। सर्वज्ञ हैं, तीनों काल के ज्ञाता हैं। तो बौद्ध शास्त्रों में बड़ा मजाक -अप्रासांगिक, जैसे किसी कहानी का एक टुकड़ा उड़ता उड़ाया है कि महावीर एक घर के सामने भीख मांग रहे हैं, और हुआ हवा में, कागज का एक टुकड़ा तुम्हारे हाथ लग जाये, उसे 214 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम पढ़ो, न कुछ प्रारंभ का पता चले, न कुछ अंत का पता चले। जिंदगी है कि बेताल्लुक - सा एक टुकड़ा किसी कहानी का । -अप्रासांगिक, लोग कहे जा रहे हैं। लोग बोले जा रहे हैं। लोग होश में नहीं हैं। तुम समय मत गंवाना। तुम हर घड़ी को अपना होश साधने में लगाना । एक और मित्र ने पूछा है कि जब भी आपके पास आते हैं तो कुछ लोग हैं, वे कहते हैं, 'वहां जाने से क्या फायदा? क्या मिलेगा वहां ? वहां कुछ भी नहीं है। सत्य साईंबाबा के पास जाओ, अगर महिमा देखनी है।' वे भी ठीक कहते हैं। यहां कुछ भी नहीं है। यहां मेरा सारा शिक्षण ही ना कुछ होने के लिए है। वे बिलकुल ठीक कहते हैं। यहां तुम्हें देने का कोई सवाल ही नहीं है; तुम्हारे पास जो-जो होने की भ्रांति है, उसे भी खंडित करना है, तोड़ना है, मिटाना है; तुम्हें भी शून्य की तरफ ले आना है। इतना शून्य हो जाए तुम्हारे भीतर कि कहनेवाला भी कोई न बचे, देखनेवाला भी कोई न बचे तो ही समाधि फलित होगी। वे बिलकुल ठीक कहते हैं। महिमा देखनी हो तो कहीं और जाना चाहिए। मैं कोई मदारी नहीं हूं। और तुम्हारी किन्हीं वासनाओं को तृप्त करने में मेरी कोई उत्सुकता नहीं है। तुम मुझे महिमावान समझो, ऐसी भी मेरी कोई आकांक्षा नहीं है। तुम्हारी आंखों को मैं दर्पण नहीं बनाना चाहता, जिसमें मैं अपनी तस्वीर देखूं । मैंने अपने को देख लिया है, अब किसी दर्पण की मुझे कोई जरूरत नहीं है। तो तुम जब मेरे पास आते हो तो यह जानकर ही आना कि खतरे में जा रहे हो। मरने जा रहे हो। क्योंकि जीवन का गहनतम राज मरने की कला में छिपा है। : प्राचीन शास्त्र कहते हैं : गुरु मृत्यु है । वे बिलकुल ठीक कहते हैं। कठोपनिषद में पिता ने अपने बेटे को यम के पास भेज |दिया - वह गुरु के पास भेजा है। मृत्यु के पास भेजा। क्योंकि जब तक तुम मिटोगे न, तब तक तुम वह न हो सकोगे जो तुम्हें होना चाहिए। यह तुम जो अभी हो गए हो, यह जो गलत ढांचा तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठा हो गया है, यह जो तुम समझते हो अभी मैं हूं - यह तुम्हारा वास्तविक होना नहीं है, यह तुम्हारा स्वभाव नहीं, यह तुम्हारा स्वरूप नहीं । जिंदगी नाम है रवानी का तो लोग ठीक कहते हैं। अगर महिमा देखनी हो, कहीं और जाना चाहिए। अगर महिमा वगैरह देखने से ऊब चुके हो, वैराग्य जगा है, देख ली कि जिंदगी बेकार है, अब और खेल-तमाशा देखने की आकांक्षा नहीं रही है, अब सब खिलौनों से ऊब गए हो, तो मेरे पास आना। उस आखिरी घड़ी में ही मेरे पास आने का कुछ सार है। तो पहले तो तुम भटक लो। तुम सब के पास हो आओ। तुम सब जगह देख लो। अगर कहीं सत्य मिल जाए तो बहुत अच्छा। अगर न मिले तो फिर मेरे पास आना । लोग ठीक ही कहते हैं। लोगों से नाराज होने की कोई जरूरत नहीं है। क्या मैकदों में है कि मदारिस में वो नहीं अलबत्ता एक वां दिले- बेमुद्दआ न था । बड़ा मधुर वचन है। तथाकथित ज्ञानियों के स्कूलों में कौन-सी चीज की कमी है ? कुछ ऐसी चीज की कमी है जो कि मधुशाला में भी है, लेकिन ज्ञानियों के स्कूलों में नहीं है। क्या मैकदों में है कि मदारिस में वो नहीं ! — मदरसे में जो नहीं है, वह मधुशाला में है। वह क्या है ? अलबत्ता एक वां दिले- बेमुद्दआ न था । - निष्काम हृदय, आकांक्षा से रहित हृदय, वासना से शून्य हृदय, तत्वज्ञानियों के मदरसों में भी नहीं है। वहां भी लोग वासना से ही जाते हैं। ईश्वर को भी खोजने जाते हैं ऐश्वर्य की तलाश में। स्वर्ग को भी मांगते हैं सुख की आकांक्षा में। भगवान कभी भजते हैं भय के कारण। बेमुद्दआ न था ! अभी उनके मन की फलाकांक्षा समाप्त नहीं हुई । फलाकांक्षा समाप्त हो, तो ही धर्म से तुम्हारा संबंध जुड़ता है। फलाकांक्षा समाप्त हो, कुछ पाने जैसा न लगे, तो ही परमात्मा पाया जाता है। परमात्मा भी पाने जैसा न लगे, तो ही परमात्मा पाया जाता है। जब तुम परमात्मा को भी चाहने की उत्सुकता में नहीं हो; तुम कहते हो, सब चाह व्यर्थ हो गई; देख लीं सब चाहतें और सभी चाहतें व्यर्थ पायीं; चाह मात्र व्यर्थ हो गयी, अचाह पैदा हुई - बस उसी अचाह में परमात्मा उपलब्ध होता है। यहां जो महिमा है वह शून्य की है। यहां जो महिमा है वह मृत्यु की है, महामृत्यु की है। और जो मैं तुम्हें सिखा रहा हूं वह बहुत गहरे अर्थों में आत्मघात है- तुम कैसे अपने को मिटा लो, पोंछ 215 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 SAR डालो...! में ठीक-ठीक न बैठ पाये, जो समाज की व्यवस्था में ठीक-ठीक समझा था न समझा है, न समझेगा 'रजा' कुछ न बैठ पाये। कि मैं पाबंदे-आदाबे-गुलिस्तां हो नहीं दीवाना था, दीवाना है, दीवाना रहेगा। सकता---कि जो बगीचे की व्यवस्था और क्यारियों में, बंटाव यहां तो मैं पागलों को बुलाया हूं। क्योंकि जो बुद्धिमान नहीं पा में, आयोजन में, शिष्टाचार में ठीक न बैठ पाये-जो जंगली सकते, वह पागल पा लेते हैं। जो ज्ञानी नहीं पा सकते, वह प्रेमी पौधे हैं, जो माली के काटने को बर्दाश्त नहीं करते, जिन्होंने पा लेते हैं। जो ज्ञानियों के मदरसे में न मिलेगा, वह मस्तों के अपने होने की परिपूर्ण स्वतंत्रता को स्वीकार किया है, जो वही मैकदे में मिल जाता है। होना चाहते हैं जो परमात्मा ने उन्हें होने के लिये भेजा है। यह तो एक मधुशाला है। यहां तो जो मेरे साथ उस आत्यंतिक | अन्यथा नहीं। जो किसी और नीति-नियम, और किसी मर्यादा गहराई पर नाचने को उत्सुक हैं...। वे गहराइयां दिखाई भी नहीं को नहीं मानते, जो जीवन पर परम श्रद्धालु हैं-उन्हीं के लिए पड़तीं, उन गहराइयों के लिए शब्द भी नहीं हैं। वे निराकार की निमंत्रण है। और वे ही आयेंगे तो आ पायेंगे। दूसरे आ भी हैं। तो तुम जैसे-जैसे मेरे सरगम में बैठोगे, जैसे-जैसे पास जायेंगे भूले-भटके तो मुझसे उनका कोई संबंध न बन सकेगा। आओगे, जैसे-जैसे मेरे और तुम्हारे बीच उपनिषद का संबंध वे आयेंगे, परदेशी रहेंगे। वे मेरे अंग न हो पायेंगे। न मैं उनका बनेगा-उपनिषद यानी पास बैठने का! उपनिषद के वचन उन अंग हो पाऊंगा। वे आयेंगे और मुझसे बिना परिचित हए लौट गुरुओं के वचन हैं, जिनके पास कुछ शिष्य बैठ गए। ये गुरुओं जाएंगे। बहुत आते हैं, लौट जाते हैं। सभी आते हैं, सभी का ने कहे कम हैं, शिष्यों ने पकड़े ज्यादा हैं। परिचय थोड़े ही हो पाता है! हजार आते हैं तो दस रुक पाते हैं। जब मेरे और तुम्हारे बीच उपनिषद का संबंध बनेगा, जब तुम दस रुकते हैं तो एक का परिचय हो पाता है। पास आते-आते इतने पास आ जाओगे कि मेरे अंतरराग से 'किंतु यह तो मेरा मत हुआ। रहना तो उन लोगों के साथ है, तुम्हारा राग मिल जायेगा, मेरी वीणा और तुम्हारी वीणा जो आपके विरोध में हैं। अतः कृपापूर्वक बताएं कि कैसे अपने साथ-साथ कंपित होने लगेगी, स्पंदन सहयोग में होने लगेगा; सत्य की रक्षा करूं!' मेरी श्वासें और तुम्हारी श्वासें एक साथ चलने लगेंगी, मेरा __ सत्य अपनी रक्षा स्वयं करता है। तुम डरे हो। तुमने अभी मेरे हृदय और तुम्हारा हृदय एक साथ धड़कने लगेगा, मेरा होना | सत्य को जाना नहीं है। माना होगा, इसलिए डर है। इसलिए और तुम्हारा होना दो अलग सीमाओं में बंटा हुआ न होगा, तुम्हें रक्षा करने का खयाल पैदा होता है। इसलिए तुम सोचते हो, एक-दूसरे में डूबने लगेगा—ऐसे मिलन में उपनिषद का संबंध कहीं वे खंडन न कर दें। सत्य का कभी कोई खंडन कर पाया? बनता है। उस क्षण तुम्हें महिमा पता चलेगी, जो यहां हो रहा है। मजनू प्रेम में पड़ गया है लैला के। गांव के राजा ने उसे बुलाया उसकी। यहां हाथ से भभूत नहीं गिरायी जा रही है, न स्विस मेड | और कहा, 'तू बिलकुल पागल है! यह लैला साधारण-सी घड़ियां प्रगट की जा रही हैं। यहां कुछ और हो रहा है, जो उन्हीं | बदशकल औरत है। तेरी दीवानगी और तेरा पागलपन देखकर को दिखाई पड़ेगा जिन्हें आंख बंद करने की कला आ गई। यहां मुझे भी दया आती है।' उसने अपने महल से बारह सुंदरियां कुछ और घट रहा है जो उन्हीं को दिखाई पड़ेगा, जिन्होंने संसार | बुलवाई और कहा, तू कोई भी चन ले। परम संदरियां को खूब देख लिया, खूब देख लिया और कुछ भी न पाया। थीं—राजा के महल की सुंदरियां थीं। मजनू ने गौर से देखा और अगर देखने की कुछ और महिमा की आकांक्षा रह गई हो तो उसने कहा, 'लेकिन लैला इनमें कोई भी नहीं।' राजा ने कहा, भटक लेना, उसे पूरा कर लेना। हार जाओ सब भांति, तब मेरे 'पागल हुआ है? लैला इनके पैर की धूल भी नहीं है।' पास आ जाना। हारे को हरिनाम! मजनू हंसने लगा और उसने कहा, 'हो सकता है। लैला को मैं दीवाना भला, मुझको मेरे सहरा में पहुंचा दो आपने कभी देखा?' कि मैं पाबंदे-आदाबे-गुलिस्तां हो नहीं सकता राजा ने कहा, 'बिना देखे नहीं कह रहा हूं। तेरी दीवानगी मेरे पास आने का उनके लिये निमंत्रण है जो बगीचे के नियमों देखकर मैं भी उत्सुक हो गया था कि कुछ होगा। तो मैंने भी 216 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिंदगी नाम है रवानी का लैला को देखा, कुछ भी नहीं है। पागल! अपने को होश में हो-बस खतम हो गई बात! और मनुष्य का यही तो सारा ला...।' मजन ने कहा कि फिर आपने देखा ही नहीं। असल | भव-जाल है कि वह श्रेष्ठतर की कल्पना कर सकता है। में लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए—मुझसे सुंदरतम स्त्री पा ली, लेकिन क्या ऐसी स्त्री तुम पा सकते हो आंखें उधार लेते तो ही देख सकते थे-तुम्हारी आंखों से यह न जिसमें तुम भूल-चूक न खोज पाओगे? क्या तुम ऐसी स्त्री पा हो सकेगा। | सकते हो जिससे सुंदर की कल्पना न कर पाओगे? क्या तुम तो अगर तुमने मेरे प्रेम को पहचाना है, मेरे सत्य को पहचाना | ऐसी स्त्री पा सकते हो जिससे सुंदर का सपना न देख पाओगे? है, तो फिर रक्षा की फिक्र नहीं है। सत्य अपनी रक्षा स्वयं कर | फिर कैसे संतुष्ट होओगे? लेता है। सत्य कितनी ही असुरक्षा में हो, सुरक्षित है। तुम बस तुमने एक बड़ा मकान बना लिया, क्या तुम सोचते हो मकान उसे जीने में लग जाओ। मैं जो तुमसे कह रहा हूँ, उसको तुम ऐसा हो सकेगा जिसमें कोई तरमीम और सुधार न हो सके, केवल शब्दों का विलास मत बनाओ-जीवन की तरंगें बनने जिससे बेहतर न हो सके? अगर बेहतर हो सकता है, असंतोष दो। तुम जीने में लग जाओ। तुम उनकी मत सुनो, वे क्या कहते शुरू हो गया। हैं। मैंने जो कहा है, उसे गुनो और उसे जीवन में उतारने लग | कल्पना श्रेष्ठ की तो कभी भी मौजूद रहेगी। संतोष कैसे जाओ। तुम जैसे-जैसे सत्यतर होने लगोगे, वैसे-वैसे ही तुम होगा? तुम कुछ भी हो जाओ, तुम कुछ भी पा लो—इससे पाओगे, सत्य के लिए किसी सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं। सत्य तुम्हारे संतोष होने का कोई संबंध नहीं है। फिर संतोष का किस सली पर भी लटका हो तो भी सिंहासन पर ही होता है। बात से संबंध है? संबंध है इस बात से कि तुम यह असंतोष की प्रक्रिया समझ लो। इसे जान लो। इसे देख लो। इसके देखने दूसरा प्रश्न : आखिर मैं क्या चाहता हूं? जो कुछ भी मुझे और जानने में ही यह पूरा जाल गिर जाता है : अचानक तुम पाते मिला है और मिल रहा है, वह कम नहीं। लेकिन मन में एक | हो कि असंतुष्ट होने का कोई कारण ही नहीं है। बेचैनी बनी ही रहती है आखिर मैं क्या पाकर संतुष्ट होऊंगा? संतोष अभी और यहीं होने का ढंग है। असंतोष, कल बेहतर हो सकता है, उस आकांक्षा के पीछे दौड़ है। संतोष जो है, इससे पाकर कभी कोई संतुष्ट हुआ? बात ही गलत पूछ रहे हो। बेहतर हो ही नहीं सकता, इस भावदशा का नाम है। इस क्षण जो दिशा ही गलत पकड़ी है। जिसने ऐसा सोचा कि कुछ पाकर है इससे बेहतर हो ही नहीं सकता। जो बेहतर से बेहतर हो संतुष्ट होऊंगा वह तो कभी संतुष्ट नहीं हुआ। संतुष्ट तो वही सकता था वह हो गया है। होता है, जो यह समझ लेता है कि पाने से संतोष का कोई संबंध इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, इस संसार से बेहतर संसार हो ही नहीं है। पाने में ही तो असंतोष छिपा है। दस हजार हैं तो लाख नहीं सकता। होने चाहिए : लाख हैं तो दस लाख होने चाहिए। दस लाख हैं | उमरखैयाम का एक गीत है कि हे परमात्मा! अगर तू हमें एक तो करोड़ होने चाहिए। वह दस गुने का फासला बना ही रहता मौका दे तो हम दुनिया को फिर से मिटाकर अपने हृदय के है। जितना पाते चले जाते हो, उतनी ही पाने की आकांक्षा आगे | अनुकूल बना लें। हटती जाती है। कभी ऐसी घड़ी नहीं आती, जब तम कह सको | लेकिन क्या तुम अपने हृदय के अनुकूल दुनिया को कभी भी कि पा लिया। बना पाओगे? यह मौका भी दिया जा सकता है। यह मौका ही हां, ऐसा नहीं है कि लोग संतुष्ट नहीं हुए हैं। लेकिन संतुष्ट वे | तो दिया गया है। संसार और क्या है? यह मौका ही है कि तम हुए हैं जिन्होंने यह असंतोष का पागलपन ठीक से पहचाना, कि अपने हृदय के अनुकूल बना लो। अपना घर, अपना बगीचा, यह तो पूरा होनेवाला नहीं है। तुम कितना ही पा लो, तुम्हारी पाने धन-दौलत, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, अपनी प्रतिमा, की आकांक्षा और जो तुमने पाया है, उसमें कभी मेल नहीं होगा। पत्नी-बच्चे-तुम बना लो अपने हिसाब से। तुम जो भी पाओगे, उससे श्रेष्ठतर की कल्पना कर सकते | लेकिन कौन कब तृप्त हो पाया है। सिकंदर भी खाली हाथ 217 www.jainelibrar.org Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जिन सूत्र भागः 1 Y विदा होते हैं। मैंने मासूम बहारों में तुझे देखा है खाली हाथ हम आते हैं, खाली हाथ हम विदा होते हैं। मैंने मौहम सितारों में तुझे देखा है लेकिन अगर तुम महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट के वचन मेरे महबूब तेरी पर्दानशीनी की कसम समझो, तो वे कहते हैं, भरे प्राण हम आते हैं, भरे प्राण हम रहते | मैंने अश्कों की कतारों में तुझे देखा है। हैं, भरे प्राण हम जाते हैं। खाली हाथ पर नजर ही गलत है। फूलों की तो बात और, आंसुओं में भी उसी के दर्शन होंगे। हृदय पर ले जाओ नजर; हृदय भरा ही हुआ है। इसी क्षण जो मैंने अश्कों की कतारों में तुझे देखा है। होना था हुआ है। एक बार देखने की कला आ जाये, आंख आ जाये, नजर आ इसी को मैं आस्तिकता कहता हूं कि इस क्षण जो हुआ है, परम जाये, तो कंकड़-पत्थर हीरे हो जाते हैं। साधारण-सा भोजन है, आत्यंतिक है। इससे श्रेष्ठ का कोई उपाय नहीं। फिर परम प्रसाद हो जाता है। साधारण-सा घर महलों को मात करने अचानक तुम संतुष्ट हो। फिर सब दौड़ खो गई। अभी और लगता है। हवा का जरा-सा झोंका, अपरिसीम कृपा की वर्षा हो यहां हो जाना ही संतोष है। जाता है। नजर की बात है। नजर न हो तो हीरे-जवाहरात भी किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम' कंकड़-पत्थर; महल भी झोपड़े; जीवन की परमधन्यता का कोई मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू? पता ही नहीं चलता। सब बासा-बासा लगता है। नजर की ही वसंत आया हुआ है। फूल खिले हुए हैं। पक्षी गीत गुनगुना बात है। नजर को बदलो। रहे हैं। सूरज निकला है। सब तरफ किरणों का जाल फैला है। अगर लगता है असंतोष है, तो किसी गलत नजर को पकड़े मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू। लेकिन मामला क्या | बैठे हो। है? वसंत चारों तरफ बरस रहा है। और तुम क्यों उजड़े-उजड़े। पूछा है, 'आखिर मैं क्या चाहता हूं?' खड़े हो? चाहने को कुछ है ही नहीं, मिला ही हुआ है। इसीलिए तो किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम' | कितना ही चाहो, मुश्किल में पड़ोगे। जो मिला ही हआ है, उसे मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू? तुम खोज-खोजकर थोड़े ही पा सकोगे! खोज छोड़ो, ताकि -तू किन सपनों में खोया हुआ है ? किन सपनों की बहारों में चैतन्य घर पर लौट आये! खोज छोड़ो! क्योंकि खोज के कारण खोया हुआ है ? दुनिया को विजित कर लेने की, दुनिया को जीत ही तुम अपने बाहर गए हो और उसे नहीं देख पा रहे हो जो तुम लेने की. किन कल्पनाओं में त तल्लीन है कि वसंत को देख नहीं हो। रुको। परमात्मा को खोजना थोडे ही है। सब खोज छ पा रहा है जो चारों तरफ मौजूद है। देनेवाला व्यक्ति अचानक पाता है, परमात्मा है। तुम्हारी हालत .किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम' ऐसी है कि हीरा सामने पड़ा है, लेकिन तुम कहीं दूर आंखें लगाए मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू? बैठे हो, चांद-तारों पर, कहीं दूर तुम्हारा सपना तुम्हें भटका रहा वसंत तो है। परमात्मा है। अब और क्या होना है? जीयो! है। यहां तुम देखते ही नहीं, यहां तुम अंधे हो जाते हो। जीने की योजना मत बनाओ! गाओ! वसंत तो आ गया, द्वार मेरे देखे, लोगों की एक ही बीमारी है-वह सब दूरदृष्टि हैं। पर दस्तक दे रहा है। जागो! नाचो! उत्सव मनाओ! पाने को दूर का तो देख पाते हैं, पास का नहीं देख पाते। निकट-दृष्टि यहां कुछ भी नहीं है; जो पाने को है वह तुम्हें मिला ही हुआ है। नष्ट हो गई है। ऐसा होता है न कभी-कभी आंखों में, किसी की उसे तुम लेकर ही जन्मे हो। वह तुम्हारा स्वभाव है। स्वभाव को | आंख पर चश्मा होता है, जिसमें वह पास का देख पाता है। देखते ही व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है। संतोष स्वभाव के अनुभव क्योंकि पास का बिना चश्मे के नहीं देख पाता, किताब नहीं पढ़ की छाया है। स्वभाव के प्रतिकूल, स्वभाव से अन्य की योजना, सकता है; हालांकि चांद-तारे देख सकता है। दूर का दिखाई कल्पना में, भटकता हुआ आदमी असंतुष्ट हो जाता है। पड़ता है, लेकिन पास का नहीं दिखाई पड़ता। कुछ होते हैं जिन्हें असंतोष, स्वभाव से अन्य होने की चेष्टा की छाया है। पास का दिखाई पड़ता है, दूर का नहीं दिखाई पड़ता। तो दो तरह 218 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के चश्मे होते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जीवन में एक ही तरह की म है। भीतर की आंख की एक ही बीमारी है। वह बीमारी है कि पास जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई पड़ता है, इसलिए दूर की आकांक्षा होती है। दूर के ढोल सुहावने ! तो मन भटकता है। किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम' मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू ? पास देखने की दृष्टि का नाम धर्म है। जो मिला हुआ है, उससे पहचान बनाने का नाम धर्म है। जिसे कभी खोया ही नहीं है। उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका ही नाम धर्म है। लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। कम न होगा। कम नहीं है। लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। क्योंकि मन कहे जाता है और मिल सकता है, और मिल सकता है, और मिल सकता है।' परसों रात एक संन्यासिनी मुझसे चप्पल मांगने लगी कि आपकी चप्पल दें। वह पहले भी आयी थी, तब भी उसने चप्पल मांगी थी। मैंने उसे कुछ दिया था; क्योंकि सवाल, क्या | देता हूं, यह थोड़े ही है। मैंने दिया । उसे कुछ दिया था, मैंने | कहा, यह ले जा । क्योंकि चप्पल मांगने का रोग बढ़ जाये तो मैं | मुसीबत में पड़ जाता हूं! कितनी चप्पलें दूं? और एक के पास दिखती है तो दूसरा मांगने आ जाता है, तीसरा मांगने आ जाता है । फिर किसको मना करो। तो मैंने उसे काष्ठ की एक छोटी डब्बी दी थी। इस बार वह फिर आई, उसने फिर मांगा कि चप्पल। तो मैंने उससे कहा, पहले मैंने तुझे कुछ दिया था ? उसने कहा, कुछ नहीं, एक छोटी-सी डिब्बी दी थी। अब अगर इसे मैं चप्पल भी दूं तो अगले साल यह आकर कहेगी, 'क्या दिया था - चप्पल !' क्योंकि सवाल... मैं तुम्हारे हाथ में खाली हाथ दूं, तो भी कुछ दे रहा हूं। देखने | की आंख चाहिए। और ऐसे मैं उठकर तुम्हारे घर भी चला आऊं, तो भी तुम कहोगे, 'यह और एक मुसीबत कहां से घर आ गई! अब इनकी कौन साज-सम्हाल करे !' लोग मुझसे पूछते हैं कि परमात्मा दिखाई क्यों नहीं पड़ता। वह दिखाई इसीलिए नहीं पड़ता कि वह इतना ज्यादा है, इतना घना 'आखिर मैं क्या चाहता हूं ? जो कुछ भी मुझे मिला है और है, सब ओर से है, बाहर-भीतर है; देखनेवाला भी वही है, मिल रहा है, वह कम नहीं है।' दिखाई पड़नेवाला भी वही है - इसीलिए चूके जा रहे हैं । इसलिए थोड़े ही कि वह कहीं दूर है, बहुत दूर अगर बहुत दूर होता, हम पा ही लेते उसे । चांद पर पहुंच गए, कितनी दूर होगा ! दृष्टि की बात है। बहुत मिल रहा है, मगर तुम्हारे पास जो मन है, वह उसे देख ही नहीं पाता, जो है। मन की आदत अभाव को | देखने की है। जिंदगी नाम है रवानी का कभी पता है, दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है ! जब तक था, कभी न गई। जब टूट जाता है तो वहीं वहीं जाती हैं। खाली जगह । अभाव ! तुम लाख सरकाते हो वहां से कि क्या सार है; पता तो चल गया एक दफे कि दांत टूट गया है - लेकिन फिर, भूले-चूके फिर तुम पाओगे, जीभ वहीं टटोल रही है। जैसे जीभ अभाव को टटोलती है, ऐसे ही मन जो नहीं है उसको टटोलता है। जो है, उसे देखने की मन की आदत ही नहीं है। जब पहला रूसी अंतरिक्ष यात्री वापिस लौटा, तो कहते हैं खुश्चेव ने उससे पहली बात पूछी, 'ईश्वर मिला?' तो उसने कहा कि नहीं, कोई ईश्वर नहीं मिला, चांद बिलकुल खाली है। तो रूस में लेनिनग्राड में उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा के लिए एक अनुसंधानशाला बनाई है। उसके द्वार पर ये वचन लिख दिए गए हैं कि 'हमारे अंतरिक्ष यात्री चांद पर पहुंच गए और उन्होंने वहां पाया कि ईश्वर नहीं है।' जिनको जमीन पर नहीं मिलता उनको चांद पर कैसे मिलेगा, यह भी तो थोड़ा सोचो! तुम तो तुम ही हो ! देखने की नजर तुम्हारी ही है। मिलता होता तो यहां मिल जाता । रवींद्रनाथ ने बुद्ध के संबंध में एक कविता लिखी है। कविता बड़ी मधुर है। बुद्ध वापिस लौटे हैं, बारह वर्षों के बाद । यशोधरा ने उनसे पूछा है कि मैं तुमसे एक ही प्रश्न पूछती हूं, इस एक प्रश्न पूछने के लिए जीती रही हूं, कि तुम्हें जो वहां मिला, वह यहां नहीं मिल सकता था ? जो तुम्हें जंगल में जाकर मिला, वह घर में नहीं मिल सकता था? बस एक ही प्रश्न मुझे पूछना है। बुद्ध को कभी किसी प्रश्न के उत्तर में ऐसा स्तब्ध नहीं रहते देखा गया, जैसे बुद्ध स्तब्ध खड़े रह गए। यह तो वे भी न कह सकेंगे कि यहां नहीं मिल सकता था। नजर की बात थी । अब 219 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M जिन सत्र भाग । POST Scood | तो यहां भी है। एक दफा आंख खुल गई, तो घर में भी वही है, खड़े हो जाओ! बाहर भी वही है। दुकान पर भी वही है, मंदिर में भी वही है। खड़े होते ही तुम्हारे संबंध शाश्वत से जुड़ जाते हैं। इसलिए असली सवाल आंख का है। | तो मैं तुम से यह नहीं कह सकता कि क्या पाकर तुम संतुष्ट तुम यह मत पूछो कि क्या चाहता हूं। और यह भी मत पूछो | होओगे; मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि पाने से संतोष का कि मैं क्या पाकर संतुष्ट होऊंगा। कुछ भी पाकर संतुष्ट न कोई संबंध नहीं है। तुम पाने की व्यर्थता देखो। उस व्यर्थता के होओगे। पानेवाला कभी संतुष्ट हुआ? पानेवाले का असंतोष दर्शन में ही पाने की दौड़ गिर जायेगी। तुम अचानक अपने को आगे सरकता जाता है, बड़ा होता चला जाता है, फैलता चला खड़ा हुआ पाओगे, दौड़ते हुए नहीं। अचानक तुम पाओगे, जाता है-गुब्बारे की तरह। इसलिए तो अमीर भी गरीब बना तुम्हारे भीतर की प्रज्ञा थिर हो गई, कंपित नहीं हो रही। उस एक रहता है और सम्राट भी भिखारी बने रहते हैं। अकंपन के क्षण में ही तुम तृप्त हो जाओगे। फरीद अकबर के पास गया था। गांव के लोगों ने भेज दिया। और एक बार तृप्ति की झलक मिल जाये तो राज हाथ आ कहा कि गांव में एक मदरसा चाहिए। कह दो अकबर को। तुम्हें गया, तो आंख हाथ आ गई, तो देखने का ढंग आ गया। इतना मानता है। फरीद गया। अकबर प्रार्थना कर रहा था, परमात्मा तो है, देखने का ढंग चाहिए। सुबह की नमाज पढ़ रहा था। फरीद पीछे खड़ा रहा। अकबर ने हुस्न की दुनिया को आंखों से न देख अपने दोनों हाथ फैलाये, नमाज की पूर्णता पर और कहा, 'हे अपनी एक तर्जे-नज़र ईजाद कर। परमात्मा! और धन दे, और दौलत दे! तेरी कृपा की दृष्टि हो।' यह जो परमात्मा के सौंदर्य का जगत है, यह जो परम सौंदर्य फरीद लौट पड़ा। अकबर उठा, देखा, फरीद सीढ़ियों से नीचे का जगत है, इसको साधारण आंखों से देखने की कोशिश मत जा रहा है ! कहा, कैसे आए? क्योंकि फरीद कभी आया भी न | करो, अन्यथा असंतुष्ट रहोगे, अभाव में जीयोगे। भिखारी था। जब भी जाता था, अकबर ही उसके पास जाता था। रहोगे। कैसे आए और कैसे चले? फरीद ने कहा, 'मैंने सोचा था कि हस्न की दुनिया को आंखों से न देख तुम सम्राट हो। यहां भी भिखारी को देखा, इसलिए लौट चला। अपनी एक तर्जे-नज़र ईजाद कर। और फिर मैंने सोचा कि तुम जिससे मांग रहे हो उसी से मैं मांग एक नया ढंग, एक नई शैली देखने की खोजो। संतुष्ट हो कर लूंगा। बीच में और यह एक...एक दलाल बीच में और क्यों! देखो। अभी तुमने असंतुष्ट होकर देखा है। असंतुष्ट हो कर गांव के लोगों ने भेजा था कि एक मदरसा खोल दो, यह मांगने देखा है तो असंतोष बढ़ता चला गया है। तुम्हारी आंख में है तो आया था; लेकिन अब नहीं। इससे तुम्हारी दौलत में थोड़ी कमी फैलता चला गया है। संतुष्ट होकर देखो, संतोष आंख में होगा, हो जाएगी। मैं तुम्हें दरिद्र हुआ न देखना चाहूंगा। मेरी तो एक ही | तुम पाओगे संतोष फैलता जाता है। आकांक्षा है, सभी समृद्ध हों। लेकिन तुम भिखारी हो।' तुम्हारे जीवन की दृष्टि ही तुम्हारे जीवन का सत्य हो जाती है। तुम्हारा सम्राट भी तो मांग ही रहा है। और मांग रहा है। और जो तुम विचारते हो वही वास्तविकता हो जाती है। अभी तक मांग रहा है। जिनके पास है वे भी मांग रहे हैं। तुमने असंतोष, असंतोष, असंतोष, इसको ही साजा-संवारा, तो एक बात तय है कि मिलने से मांगना नहीं मिटता-त्यागने इसके ही बीज बोए, इससे ही देखा-निश्चित ही, असंतोष से मांगना मिटता है। बढ़ता चला गया। जो बीज बोओगे, उसकी ही फसल तो । इसलिए तो एक अनूठी घटना इस पूरब में घटी कि सम्राट तो काटोगे। यह छोटे-से गणित को पहचानो। थोड़ा संतोष से हमने पाए कि भिखारी हैं और कभी-कभी हमने कुछ भिखारी देखो। थोड़ा ऐसे देखो कि कोई असंतोष नहीं है, सब है। भरी पाए जो सम्राट... । महावीर, बुद्ध भिखारी होकर खड़े हो गए, आंख, प्रफुल्ल चित्त, कृतज्ञता से भरे, कृतज्ञता में डूबे, कुछ भी उनके पास न था। क्योंकि उन्हें एक बात दिखाई पड़ गई | पगे-ऐसा देखो। अचानक तुम पाओगे, कहीं तो कुछ कमी कि दौड़े जाओ, दौड़े जाओ, दौड़े जाओ, पहुंचोगे न। ठहरो, नहीं है! सब तो पूरा-पूरा है! सब तो भरा-भरा है! कहीं तो 2201 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गी नाम है रवानी का कुछ खाली नहीं है। क्या है मांगने को और? तीसरी आंख— इन दोनों आंखों से बहती हुई ऊर्जा, एक तीसरी ऐसी झलकें धीरे-धीरे आएंगी, बढ़ती जाएंगी। पहले थोड़े आंख में संघट हो जाये। दोनों भू-मध्यों के बीच, इन दोनों बीज खिलेंगे, फिर और बीज खिलेंगे, फिर और बीजों में से फूल आंखों की ऊर्जा संगृहीत होती है, इकट्ठी होती है और एक नई लगेंगे; फूलों में और और नए बीज लगेंगे। एक दिन तुम ही आंख पैदा होती है, जो भीतर देखती है। पाओगे, वसंत तुम्हारे चारों तरफ लहराने लगा। उस परम ठीक है, आकांक्षा बिलकुल ठीक है; ठीक दिशा में है। और सौंदर्य, उस वसंत का नाम ही परमात्मा है। वही संतुष्टि है। वही जलना होगा। राख होना होगा। यह भी सच है। परम तृप्ति है। जिंदगी यूं भी गजर ही जाती क्यों तेरा राहगुजर याद आया? तीसरा प्रश्न : तेरी दिव्य आग में जल-जलकर राख हुआ जा जो उस प्रेमी के द्वारा पुकारे गए हैं, उनको ऐसा ही लगा है : रहा हूं। अब तो सारे शब्द बंद हो चुके–एक आस लिए जी जिंदगी ऐसे ही गुजर जाती है; और एक मुसीबत आ गई कि तूने रहा हूं। पुकारा है। ऐसे ही दुख कुछ कम थे? अब तेरे विरह की आग कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस। जलाती है। दो नैना नहीं खाइयो, पिया मिलन की आस।। जिंदगी यूं भी गुजर ही जाती क्यों तेरा राहगुजर याद आया? नहीं, इन दो आंखों से कोई उस प्यारे को मिलता नहीं। दो के तेरी याद आ गई, फिर तेरी राह भी मिल गई; अब यह एक कारण ही तो मिल नहीं पाता। उसको पाने के लिए तो एक आंख नयी पीड़ा का सूत्रपात हुआ। चाहिए। इसलिए तो हम तीसरी आंख की बात करते हैं। संसार में जो पीड़ा तुमने जानी है, वह विध्वंसक पीड़ा है। कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस। | उसमें सिर्फ तुम गलते हो, मिटते हो, पाते कुछ भी नहीं। दो नैना नहीं खाइयो, पिया मिलन की आस।। परमात्मा के मार्ग पर भी पीड़ा है, जलन है; पर बड़ी वचन प्यारा है; लेकिन कवि का है, ऋषि का नहीं। आकांक्षी सृजनात्मक है। तुम गलते भी हो, मिटते भी हो, कुछ नया का है, जाननेवाले का नहीं। इन दो आंखों से तो जो प्यारा आविर्भूत होता है। मृत्यु अकेली नहीं है वहां। प्रत्येक मृत्यु के मिलता है, वह बाहर का है। प्रेयसी मिलती है, प्रियतम मिलता | साथ नया जन्म है। है, पति मिलता है, पत्नी मिलती है। इन दो आंखों से तो जो हजारों बार मर-मरकर भी न मर पाया प्रेमी कभी। मिलता है, वह बाहर का है। ये दो आंखें तो बाहर से जोड़ने के मरण हर बार आ-आकर नये ही प्राण देता है।। द्वार हैं। नहीं, उससे मिलना हो तो एक तीसरी आंख चाहिए। उस रास्ते पर बहुत बार मरना होता है, प्रतिपल मरना होता है। परम प्यारे से मिलना हो जो तुम्हारे भीतर ही घर बसाए बैठा है, क्योंकि जैसे ही तुम थोड़ी देर के लिए न मरे अहंकार इकट्ठा हो तुम्हारी प्रतीक्षा करता है कि कब आओ, कब वापिस लौटो, जाता है। इसे पल-पल जलाना होता है। इसे मिटाते ही जाना कितने जन्म हो गये तुम्हें गए, कब घर आओगे; परदेश में कैसे होता है। नहीं तो जरा ही तुम चूके कि धूल फिर जमी, फिर 'मैं' लुभा गए—उसे पाने के लिए तो एक आंख...। खड़ा हुआ। यह 'मैं' इतना सूक्ष्म है, धन से खड़ा होता है, पद क्योंकि दो आंख से जो मिलता है, वह द्वैत; और एक से जो से खड़ा होता है, त्याग से खड़ा होता है-यहां तक कि विनम्रता मिलेगा, वही अद्वैत। | के भाव से खड़ा हो जाता है कि मैं तो ना-कुछ हूं। उसमें भी दो आंखें ही तो दो में तोड़ देती हैं सारे संसार को। फिर ये दो खड़ा हो जाता है। आंखें तो बाहर देखती हैं, भीतर नहीं देख सकतीं। इसलिए तो हजारों बार मर-मरकर भी न मर पाया प्रेमी कभी। समस्त ध्यान की प्रक्रियाओं में आंख बंद कर लेनी पड़ती है, मरण हर बार आ-आकर नये ही प्राण देता है।। ताकि यह दो आंखों का संसार तो खो जाये, मिट जाये। एक यह सतत मरण की प्रक्रिया ही ध्यान है, प्रार्थना है, पूजा है, 221 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 अर्चना है। इलाही सारी दुनिया को मैं कैसे राजदां कर लूं! 'तेरी दिव्य आग में जल-जलकर राख हुआ जा रहा हूं।' कैसे सभी को इस राज में भागीदार बना लूं! सभी पूछते हैं, घबड़ाना मत। धन्यवाद देना उसे। सौभाग्य कि तुम्हें उसने 'क्यों रो रहे हो? क्यों गा रहे हो, क्यों नाच रहे हो?' 'क्यों' इस योग्य समझा कि तुम्हें जलाये! धन्यभाग कि तुम पर उसकी तो खड़ा ही है। जरा भी तुमने अन्यथा किया, लोगों से भिन्न नजर गई कि तुम्हें जलाए! क्योंकि इस जलन में ही, इस मिटने में किया कि लोगों ने पूछा, 'क्यों?' लोग चाहते हैं, तुम ठीक वैसे ही नये का सूत्रपात है। सूर्योदय होगा। घबड़ाना मत। पीड़ा भी ही रहो जैसे वे हैं, रत्ती भर भेद न हो; तुम मूर्तिवत, यंत्रवत चलते हो तो रो लेना, आंसू बहा लेना; पर यह आकांक्षा मत करना कि रहो भीड़ के साथ। जब तुम रोओगे, गाओगे, कभी मस्ती में बंद कर, रोक! हंसोगे—यह सब होगा, क्योंकि भीतर की यात्रा तुम्हें सभी भावों जीसस तक को ऐसी घड़ी आ गई थी। सूली पर लटके हुए, | में से गुजारेगी। हर भाव का तीर्थ मिलेगा। कभी-कभी ऐसा भी आखिरी क्षण में, ऊपर की तरफ आंख उठाकर उन्होंने कहा कि होगा कि तुम बिलकुल पागल मालूम पड़ोगे-हंसोगे भी, 'हे परमात्मा, यह क्या दिखला रहा है? बंद कर!' सूली पर रोओगे भी, साथ-साथ। किसको न लगेगा ऐसा! लेकिन फिर उनको होश आ गया, सबब हर एक मुझसे पूछता है मेरे रोने का सम्हल गए, तत्क्षण बात बदल दी। वक्त पर बदल दी, ठीक इलाही सारी दुनिया को मैं कैसे राजदा कर लूं! क्षण में बदल दी, अन्यथा चूक जाते। तत्क्षण फिर आंखें ऊपर मैंने पूछा कि है मंजिले-मकसूद कहां उठाईं और कहा, 'हे परमात्मा, क्षमा कर! तेरी मर्जी पूरी हो! | खिज्र ने राह बतलाई मुझे मयखाने की। अगर तू जलाना चाहता है तो यही शुभ होगा! अगर तू मिटाना | -पूछा मैंने कि वह आखिरी मंजिल कहां है, तो सदगुरु ने चाहता है, सूली देना चाहता है, तो जरूर यही मेरे हित में होगा! मुझे राह बताई मधुशाला की। मेरे कल्याण को तू मुझसे बेहतर जानता है! तेरी मर्जी पूरी हो!' । मैंने पूछा कि है मंजिले-मकसूद कहां थक गई है जुबां तो चुप होकर खिज्र ने राह बतलाई मुझे मयखाने की। काम में आंसुओं को लाए हैं। -मस्ती की, बेहोशी की, प्रेम की, प्रार्थना की। रो लेना। कहते न बने, कहना मुश्किल हो जाये, आंसुओं से | खोओ अपने को! जब मैं कहता हूं, जलोगे, उसका इतना ही कह देना। मगर विपरीत की प्रार्थना मत करना। पीड़ा को भोग अर्थ है कि मिटोगे, डूबोगे। धीरे-धीरे तुम पाओगे, पुराने से लेना। जलन को स्वीकार कर लेना। संबंध टूट गया और एक नई ही चेतना का जन्म हुआ है। इस लोग समझाएंगे। लोग कहेंगे, लौट आओ, भले-चंगे थे। चेतना में मस्ती भी होगी, होश भी होगा। इस चेतना में ऐसी यह क्या झंझट मोल ले ली? | मस्ती होगी कि जिसमें होश है। इस चेतना में बेहोशी भी होगी: मीरा को समझाया लोगों ने। चैतन्य को समझाया लोगों ने। जैसा महावीर कहते हैं, निवृत्ति संसार से, प्रवृत्ति स्वयं से। इस बुद्ध को समझाया लोगों ने, 'लौट आओ! यह क्या पागलपन बेहोशी में संसार के प्रति बेहोशी होगी, परमात्मा के प्रति होश सवार हुआ है? अपनी बुद्धि को सम्हालो!' सारी दुनिया होगा। 'पर' के प्रति बेहोशी होगी, 'स्व' के प्रति होश होगा। बद्धिमान है। बाहर से तो तुम देखोगे, लुट गए; और भीतर से अनंत धन तुम्हें तो तुम जब विरह में रोओगे और जब उसकी आग तुम्हें | उपलब्ध हो जाएगा, खजाने उपलब्ध हो जाएंगे। जलाएगी, और जब तुम्हारा हृदय कटेगा इंच-इंच, हर कोई फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएं जलीं तुमसे पूछेगा, 'क्या हुआ है?' तुम न तो लोगों की सुनकर फिर तसव्वुर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम। लौटना, न लोगों को समझाने लग जाना। क्योंकि कुछ बातें हैं, परवाने को देखा है? जलता है। फिर शमा जलती है, फिर जो समझने-समझाने की नहीं हैं। दीया जलता है, फिर परवाना आया! कितनी बार जल चुका है, सबब हर एक मुझसे पूछता है मेरे रोने का लेकिन फिर-फिर आ जाता है, फिर शमा में खो जाता है। 2221 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिंदगी नाम है रवानी का निश्चित ही परवानों में तर्क, चिंतन, विचारवाले लोग नहीं; नित तुम्हें पुकारा करती हूं अन्यथा कहते, पागल है, दीवाना है। आदमी तो कहते ही हैं। एक बार हृदय में छेद करो यह धर्म का प्रेमी भी परवाने की तरह है। हमें लगता है कि वह क्षण मैं निहारा करती हूं जलने चला, लेकिन परवाने से तो कोई पूछे, उसके भीतर हृदय कृपा करो, बचाओ! जल जाऊं, ऐसी भीख दो! से तो कोई पूछे! फिर नजर में फूल महके दिल में फिर शमएं जलीं 'आप न जानो'-ऐसा कैसे होगा? जिन्होंने मुझसे संबंध फिर तसव्वुर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम। | जोड़ा है, कुछ भी उन्हें घटेगा, उसे मैं जानूंगा। संबंध न जोड़ा हो उसे तो याद आते ही अपने प्रेमी की, उसकी बैठक की धुन | तो बात अलग। जिन्होंने मुझसे संबंध जोड़ा है, जिन्होंने इतनी | पड़ते ही चारों तरफ फूल खिल जाते हैं, चारों तरफ दीये जल हिम्मत की है मेरे साथ चलने की—क्योंकि मेरे साथ चलकर जाते हैं। | मिलेगा क्या? न धन, न प्रतिष्ठा, न पद। होगी पद-प्रतिष्ठा, परमात्मा प्रेम की खोज है। इसमें तुम हिसाब मत लाना। इसमें खो जायेगी। लोक-लाज खोनी पड़ेगी। गंवाओगे ही मेरे साथ, तुम पूरे के पूरे जाना। तुम यह भी मत कहना किः दो नैना नहिं कमाओगे क्या? खाइयो, पिया मिलन की आस! तुम इतना भी मत कहना। तुम तो जिसने मेरे साथ चलने की हिम्मत की है और साहस किया तो कहना, सब तरह डुबा दो! यह पिया मिलन की आस इतनी है, उसके भीतर कुछ भी घटे, मुझे पता चलेगा। तंतु जुड़ गए! गहन हो जाए कि आस जैसी भी मालूम न पड़े। आस करनेवाला | उसी को तो मैं संन्यास कहता हूं-मुझ से जुड़ जाने का नाम। कोई न बचे भीतर। वहां तुम्हारे हृदय में कुछ खटका होगा तो मुझे पता चलेगा। तुम्हें जैसे कोई मरुस्थल में भटक गया हो कई दिनों से और जल न भी पता चलेगा, शायद उसके भी पहले पता चल जाए। मिला हो, तो पहले प्यास लगती है। प्यास के साथ भीतर यह 'आप न जानो'- ऐसा होगा नहीं। बस एक शर्त तुम पूरी भाव भी होता है कि मैं प्यासा हूं। फिर प्यास बढ़ती जाती है, कर देना-जुड़ने की—उसके बाद शेष मैं सम्हाल लूंगा। जल नहीं मिलता। फिर धीरे-धीरे प्यास इतनी सघन होने लगती पहली ही शर्त पूरी न हुई तो फिर शेष नहीं सम्हाला जा सकता। है कि भीतर कभी-कभी ऐसा खयाल आता है कि मैं प्यासा हूं, और घबड़ाओ मत। अन्यथा प्यास ही प्यास मालूम पड़ती है। फिर और एक ऐसी सबा ने फिर दरे-जिंदा पे आ के दी दस्तक घड़ी आती है, आखिरी घड़ी, जब सिर्फ प्यास ही रह जाती है, सहर करीब है दिल से कहो न घबराये। यासा भी नहीं रहता। इतनी भी अब शक्ति नहीं बचती कि सुबह की हवा आ गई, कारागृह पर उसने फिर से दस्तक दी! अपने को अलग कर ले और कहे कि मैं प्यास का देखनेवाला हूं, सबा ने फिर दरे-जिंदा पे आ के दी दस्तक कि मैं प्यास का जाननेवाला हूं। प्यास ही हो जाती है। सारा सहर करीब है दिल से कहो न घबराए। प्यासा प्यास में रूपांतरित हो जाता है। पूरे प्राण प्यास में जल इधर मैं आया हूं, तुम्हारे हृदय पर दस्तक दी है। अगर तुम्हें उठते हैं। उसी घड़ी में मिलन होता है, जब तुम पूरे के पूरे डूब सुनाई पड़ गई है-सहर करीब है, दिल से कहो न घबराए। जाओगे! बचाने की आकांक्षा अपने को करना ही मत। दो आंख ये जो पीड़ा के क्षण होंगे, किसी दिन तुम इनके लिए अपने को भी बचाने की आकांक्षा मत करना। क्योंकि सब बचाने की धन्यभागी समझोगे। आज तो पीड़ा होगी ही। राह पर पीड़ा होती आकांक्षा में तुम अपने को ही बचा लोगे। अपने को गंवाना है, है। मंजिल पर पहुंचकर यात्री को पता चलता है कि जो पीड़ा थी खोना है। वह तो कुछ भी न थी; जो पाया है वह अनंत गुना है। खुशबुओं के सफर में गुजरी है आखिरी प्रश्न : चांदनी के नगर में गजरी है। आप न जानो गुरुदेव मेरे! भीख है, बाकी जिंदगी है वही Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 जिन सूत्र भाग: 1 जो तेरी रहगुजर में गुजरी है। एक दफा पहुंचकर पता चलता है कि और सब बस इतना ही तुम खयाल रखना, तुम्हारी तरफ से पूरा हो, प्रामाणिक हो, तुम्हारी तरफ से हार्दिक हो - फिर यह न होगा कि मैं जानूं | जो भी हो रहा है, मैं जानता रहूंगा। खुशबुओं के सफर में गुजरी है चांदनी के नगर में गुजरी है। तुम्हारी प्रार्थना जरूरी नहीं कि पूरी करूं, क्योंकि तुम तो जल्दी भीख है — और सब भीख है— चाहे खुशबुओं का रास्ता हो, ही घबड़ा जाते हो। तुम कहते हो, अब मत रुलाओ, अब बहुत चाहे चांद की नगरी हो । हो गया! तुम तो कहते हो, अब मत जलाओ, अब बहुत हो गया! तुम तो जल्दी ही उकता जाते हो, जल्दी ही घबड़ा जाते हो । मेरा उपयोग ही यही है तुम्हारे साथ कि तुम्हें हिम्मत बंधाऊं, . बाकी जिंदगी है वही । तेरी रहगुजर में गुजरी है। जो परमात्मा को खोजने में गुजरी है, वही जिंदगी है। बाकी कि बस थोड़ी दूर और ज्यादा नहीं चलना है। जिंदगी का नाममात्र है। तो एक तरफ से तो तुमसे कहता हूं, सब गंवाना होगा। लेकिन धन्यभागी हैं वे जो गंवाने को राजी हैं। क्योंकि वे ही सभी कुछ पाने के अधिकारी हो जाते हैं। एक तरफ से तो लगेगा, तुम खोने लगे; दूसरी तरफ से तुम पाओगे, पाने लगे। खोया हुआ-सा रहता हूं अक्सर मैं इश्क में या यूं कहो कि होश में आने लगा हूं मैं । संसार छूटने लगेगा - सत्य मिलने लगेगा। जुआरी चाहिए ! अपने को दांव पर लगानेवाले चाहिए। अगर तुमने अपने को दांव पर लगा दिया तो तुम फिक्र मत करो। तुमने अगर संबंध बनाने की हिम्मत कर ली है तो कुछ उत्तरदायित्व मेरा भी है। जब तुम मुझसे जुड़ते हो, तुम अकेले ही थोड़े ही जुड़ रहे हो ; मैं भी तुमसे जुड़ रहा हूं। इतना ही खयाल रखना कि 'तुम मुझसे जुड़े हो ?' कहीं ऊपर-ऊपर तो नहीं है बात ? कहीं कहने भर की तो नहीं है बात? क्योंकि बहुत लोग आ जाते हैं। कोई आता है, मुझसे कहता है, बस अब आपके चरणों में सब समर्पण है । तो मैं कहता हूं, ठीक, तो अब संन्यास ले लो ! वह कहता है, यह मुश्किल है। सब समर्पण है ! यह जरा कठिन है। क्या कह रहे थे अभी क्षणभर पहले ? सब समर्पण है ! सब समर्पण का तो अर्थ यह था कि संन्यास की तो छोड़ो, अगर मैं कहता कि जाओ, डूब मरो नदी में, तो भी चले गए होते। अगर बचाना होता तो मैं भागा हुआ आता । तुम्हें चिंता की जरूरत न थी। लेकिन लोग शब्दों का उपयोग करते हैं, शायद अर्थ का भी उन्हें बोध नहीं । औपचारिक बातें लोग सीख गए हैं। उपचार निभाते हैं । सब समर्पण है! सब में संन्यास समाविष्ट न था ? सब में तो मौत भी समाविष्ट थी । बुद्ध एक बार एक गांव के पास से गुजरे, दूसरे गांव जा रहे थे। गांव में लोगों से पूछा, कितनी दूर है ? गांव के लोगों ने कहा, यही कोई दो कोस । फिर कोई दो कोस चल चुके जंगल में। लकड़हारा आता था, उससे पूछा कि भई दूसरा गांव कितनी दूर? उसने कहा, बस यही कोई दो कोस । बुद्ध मुस्कुराए । आनंद जरा क्रोध में आ गया। उसने कहा, गांव के बदतमीज बेईमान लोग! दो को हम चल भी चुके और अभी भी दो कोस है, यह कहता है ! फिर कोई दो कोस चल चुके, अब तो सांझ भी होने लगी, सूरज भी ढलने लगा और एक आदमी से पूछा, तो उसने कहा, यही कोई दो कोस, बस अब पहुंचते ही हैं। आनंद ने कहा कि इस तरह के झूठ बोलनेवाले लोग मैंने कभी नहीं देखे। यात्रा करते जिंदगी हो गई ! बुद्ध ने कहा, ये झूठ बोलनेवाले लोग नहीं हैं; ये मेरे जैसे लोग हैं। ये बड़े अच्छे लोग हैं। ये हिम्मत बंधाते हैं। ये कहते हैं, बस, जरा 'कोस! ये तुम्हें चलाए जा रहे हैं। देखो, छह कोस तो चला ही चुके ! अब मैं भी तुमसे कहता हूं, दो ही कोस है । तुम कई बार थक जाते हो, बैठ जाना चाहते हो, तुमसे कहना पड़ता है, बस होने को ही है। सबा ने फिर दरे- जिंदा पे आ के दी दस्तक सहर करीब है दिल से कहो न घबराए। आज इतना ही। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Into www Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रवचन अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की For Private & Rersonal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ।।२६।। कोहो पीइं पणसोइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो।।२७।। उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।।२८।। जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे।।२९।। से जाणमजाणं वा, कट्टं आहम्मिअं पयं। संवरे खिप्पंमप्पाणं, वीयं तं न समायरे।।३०।। सव्वंगंथविमुक्तो, सीईभूओ पसंतचित्तो अ। जं पावइ मुत्ति सुहं, न चक्कवट्टी वि तं लहई।।३१।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ मिटे-से नक्से-पा भी हैं जनं की राह में है, तो अब ठीक की खोज कैसे करोगे? मान ही लिया हो कि हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए। सत्य कहां है, तो आविष्कार का उपाय कहां रहा? तुमने जल्दी शास्त्र का सम्यक उपयोग भी है, असम्यक उपयोग स्वीकार कर लिया, खोजे बिना स्वीकार कर लिया, तो तुम खोज भी। शास्त्र को जो अंधे की तरह स्वीकार कर ले, शास्त्र उसके से वंचित रह जाओगे। लिए बोझ हो जाता है। शास्त्र को जो समझे, शास्त्र को जो ये महापुरुषों के चरण-चिह्न तुम्हें बांध लेने को नहीं हैं, तुम्हें निष्पक्ष होकर विचार करे, शास्त्र को जो जागरूक होकर ध्यान मुक्त करने को हैं। और ये चरण-चिह्न बड़े मिटे-मिटे से हैं। करे, तो शास्त्र से बड़ी सुगंध उठती है, बड़ी मुक्तिदायी सुगंध काफी समय बीत गया, इन राहों पर और लोग भी गुजर चुके हैं। उठती है। इन चरण-चिह्नों को अंधे की तरह मत मानकर चलना, अन्यथा शास्त्र को पकड़ना मत–सोचना। शास्त्र को अंधे की तरह | भटकोगे। जागना, खोजना। इन चरण-चिह्नों में अपने चरणों स्वीकार मत करना। अंधे की तरह स्वीकार करने में शास्त्र का की गति को खोजना है, अपनी चरणों की शक्ति को खोजना है। अपमान है। आंख खोलकर, शास्त्र में उतरना, शास्त्र को स्वयं कुछ मिटे-से नक्से-पा भी हैं जुनूं की राह में में उतरने देना-तो शास्त्र का सम्मान है। हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए। कोई भी सदगुरु तुम्हें अंधा नहीं बनाना चाहता है। क्योंकि और सौभाग्यशाली हैं हम कि हमसे पहले लोग यहां गुजरे हैं। वस्तुतः तो, तुम्हारी आंख में ही तुम्हारा गुरु छिपा है। तो सभी वे जो कह गये हैं, उनके जीवन का अनुभव जो बिखेर गये हैं, सदगुरु तुम्हारी आंख खोलना चाहते हैं। उतनी ही देर तुम्हारे उससे तुम बहुत कुछ पा सकते हो। लेकिन पाने के लिए बड़ी साथ होना चाहते हैं कि तुम्हारी आंख खुल जाये, कि तुम्हें अपने समझदारी चाहिए। भीतर का गुरु मिल जाये। समझो। जीवन से बहुत कुछ पाया जा सकता है। लेकिन तुम महावीर के ये वचन जैन पढ़ते हैं, अंधे की तरह। और अ-जैन | तो जीवन से भी नहीं पाते हो। शास्त्र तो जीवन की छाया मात्र हैं, तो पढ़ेंगे क्यों! गीता हिंदू पढ़ते हैं, अंधे की तरह। गैर-हिंदू तो प्रतिफलन हैं। शास्त्र जीवन से निकलते हैं, जीवन शास्त्र से नहीं फिक्र क्यों करेंगे! कुरान मुसलमान पढ़ते हैं, दोहराते हैं तोते की निकलता। तुम्हें जीवन मिला है, उससे तुम कुछ नहीं पाते, तो तरह। गैर-मुसलमान तो फिक्र ही क्यों करेगा! बहुत कठिन है कि तुम शास्त्र से कुछ पा सकोगे। क्योंकि मूल से मेरे जाने, तुम शास्त्र को तभी समझ सकोगे जब तुम न हिंदू नहीं मिलता कुछ, छाया से क्या मिलेगा? हो, न मुसलमान हो, न जैन हो। क्योंकि अगर पक्षपात पहले से जो जानते हैं, जो जागकर जीते हैं, जो हिम्मत और साहस से ही तय है, अगर तुमने जन्म से ही तय कर रखा है कि क्या ठीक जीते हैं, जिनके जीवन का आधार सुरक्षा, सुविधा नहीं है, साहस Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 जिन सूत्र भाग: 1 है - वे जीवन से भी निचोड़ लेते हैं सत्य को । वे शास्त्र से भी निचोड़ लेते हैं सत्य को । जो जागकर जीते हैं वे तो छाया से भी मूल को खोज लेते हैं क्योंकि छाया में भी कुछ मिटे से नक्से - पा' कुछ धुंधले हो गये पैरों के चिह्न हैं। अभागे हैं वे, जो जीवन से भी वंचित रह जाते हैं। सौभाग्यशाली हैं वे, जो कि शास्त्रों से भी खोज लेते हैं। इधर महावीर के वचनों पर हम चर्चा कर रहे हैं इसलिए नहीं कि तुम उन्हें मान लो । मानने से कभी कुछ हुआ नहीं। मानना तो कमजोर की आदत है । वह कहता है, 'कौन चले, कौन झंझट करे! ठीक ही कहते होंगे। हम पूजा करने को तैयार हैं। हम शास्त्र को फूल चढ़ा देंगे। कहो, शोभा - यात्रा निकाल देंगे। लेकिन हमसे जीवन बदलने को मत कहो। वह जरा ज्यादा हो गया।' पूजा हमारी तरकीब है शास्त्र से बचने की। मंदिर तुम्हारे धर्म के प्रतीक नहीं; धर्म के साथ तुमने जो चालाकी की है, उसके प्रतीक हैं। मन बड़ा चालाक है । मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने नौकर से कहा था कि मेरे जूतों पर पालिश कर दे। 'अरे फजलू, इतनी देर हो गई और अभी तक मेरे जूतों पर पालिश भी नहीं हो पायी ?' 'सरकार ! यह दूसरा बूट हाथों में है।' 'और पहला... ?' नौकर ने कहा, 'उसे इसके बाद हाथ में लूंगा सरकार ।' पहला ! दूसरे के बाद ! मन बहुत चालाक है! बड़ी तरकीबें खोजता है । ऐसी तरकीबें खोजता है कि दूसरे तो धोखा खाते ही हैं, खुद भी धोखा खा 'जाता है। इस मन से थोड़े जागना । मन ही तुम्हें मनन नहीं करने देता है। मन ही तुम्हें उतरने नहीं देता। जहां भी जाते हो, तुम्हारी गंदी छाया पड़ जाती है। शास्त्र पढ़ते हो, तुम्हारी छाया में शास्त्र दब जाता है। शब्द सुनते हो, तुम्हारे पास तक पहुंचते-पहुंचते उनका अर्थ रूपांतरित हो जाता है। ये महावीर के वचन बड़े बहुमूल्य हैं। आज के सूत्र तुम्हारे जीवन को बदल देनेवाले हो सकते हैं। ये तथ्यगत हैं। महावीर का कोई रस सिद्धांतों में नहीं है। महावीर कोई दार्शनिक नहीं हैं। महावीर तो सीधे पथ के वैज्ञानिक खोजी हैं। इन शब्दों को समझना, मनन करना। बन सके, थोड़ा-थोड़ा उतारना । क्योंकि उतारोगे, तभी इनका अर्थ खुलेगा। इनका अर्थ इनके पढ़ने और इनके सुन लेने में नहीं है। इनका अर्थ इनके साथ थोड़ी देर जीने में है। क्षणभर को भी अगर तुम इनके साथ जीये, तो तुम पाओगे इनकी सचाई, इनकी गहनता, इनकी गंभीरता और क्षणभर भी तुम जीये तो ये सत्य तुम्हारी धरोहर हो जायेंगे; ये तुम्हारा हिस्सा हो जायेंगे। ये तुम्हारे खून, हड्डी, मांस-मज्जा में समा जायेंगे। इन्हें समाने देना । पहला सूत्र : ‘ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कसाय को अल्प मानकर मत बैठ जाना। क्योंकि ये थोड़े बढ़कर बड़े हो जाते हैं।' ' ऋण को थोड़ा ... ।' जो भी आदमी ऋण लेता है, पहले थोड़ा ही मानकर लेता है और सोचता है: 'चुका देंगे। इतना सा तो ऋण है। ब्याज भी कुछ ज्यादा नहीं है, चुका देंगे।' जो भी ऋण लेते हैं, इसी आशा में लेते हैं कि चुका देंगे। ऋण चुकता नहीं मालूम होता फिर, बढ़ता जाता है। ब्याज घना होता जाता है। ब्याज ही नहीं चुकता, मूल का चुकाना तो बहुत दूर | और यह साधरण जीवन के ऋण की बात तो छोड़ दो, जो जीवन का बहुत गहरा ऋण है, वह तो कभी चुकता नहीं मालूम पड़ता । ले सभी लेते हैं, फंस जाते हैं। महावीर कहते हैं, सभी ले लेते हैं तो जरूर मन में कोई कारण होगा ले लेने का। सभी सोचते हैं, थोड़ा है। थोड़ा श्रम कर लेंगे, चुक जायेगा । ' ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा...।' कितना ही छोटा घाव हो, यह सोच के कि छोटा है, क्या फिक्र करनी है, बैठत जाना, आश्वस्त मत हो जाना, क्योंकि घाव प्रतिपल बड़ा हो रहा है; जैसे छोटा-सा बीज बड़ा वृक्ष हो जाता है। बीज को मिटा देना बड़ा आसान था, वृक्ष को काटना बहुत मुश्किल हो जायेगा। तो जो जानकार हैं, वे ऋण लेते ही नहीं। वे कहते हैं, गरीबी में जी लेंगे; लेकिन ऋण लेकर अमीर होने में कुछ सार नहीं, क्योंकि वह अमीरी ऊपर होगी, धोखे की होगी, भीतर जलन होगी और भीतर दरिद्रता होगी। रूखी रोटी खाकर सो लेंगे, एक बार खा लेंगे, पर ऋण न लेंगे; क्योंकि ऋण बढ़ेगा। शायद पेट में तो रोटी पड़ जायेगी, लेकिन प्राणों की शांति खो . Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायेगी। शायद ऊपर-ऊपर से तो सब रौनक हो जायेगी, आयेंगे, पूजा कर लेंगे, दान कर देंगे — कुछ कर लेंगे; लेकिन भीतर-भीतर अंधेरा हो जायेगा। अभी तो कर लो। 'घाव को छोटा, आग को तनिक...।' छोटी-सी चिनगारी महलों को जला देती है। ' और कसाय को अल्प मान...।' क्रोध है, लोभ है, माया-मोह है— कसाय है। 'कसाय' शब्द महावीर का बड़ा बहुमूल्य है - जिससे तुम कसे हो, जिससे तुम बंधे हो, जो तुम्हारा बंधन है। जैसे हिंदू-शास्त्र में 'पशु' शब्द है। जो पशु का अर्थ है वही जैन - शास्त्रों में कसाय का अर्थ है। पशु का अर्थ होता है : जो पाश में बंधा है। पशु यानी पाश में बंधा बंधन में पड़ा । पशु का अर्थ सिर्फ जानवर नहीं है। पशु का अर्थ है : जो बंधा है, चारों तरफ जिसके जंजीरें हैं। जो बंधा है, वह पशु । जो मुक्त हुआ, वही मनुष्य है। तो सभी मनुष्य दिखाई पड़नेवाले लोग मनुष्य नहीं हैं। काश ! मनुष्यता इतनी सस्ती होती दिखाई पड़ने से मिल जाती। महावीर साधारण ऋण की बात नहीं कर रहे हैं; वे तो उदाहरण हैं। लेकिन जीवन में हम ऐसे बहुत ऋण लिये हैं। हमारा सारा जीवन ऋण से भरा है। महावीर तो कहते हैं, परमात्मा से भी मत लेना । लेने की आदत ही मत डालना। क्योंकि आदत बढ़ती है। बीज वृक्ष होता है। आज थोड़ा लोगे, कल और थोड़ा ज्यादा लोगे, परसों और थोड़ा ज्यादा लोगे - भिखमंगे हो जाओगे। यहां तो सम्राट भी भिखमंगे हैं; लेते चले जाते हैं। महावीर कहते हैं, ऋण लेना ही मत। और जब बीज की तरह छोटा अंकुर उठे, भीतर भाव उठे, पहली लहर उठे, तभी रोक | देना | घाव को छोटा मत मानना, क्योंकि छोटे-छोटे घाव बड़े होकर नासूर हो जाते हैं। जो उन्हें प्रथम चरण में रोक देता है, वही रोक पाता है। महावीर कहते हैं, घाव बड़ा हो जाये, फिर चिकित्सा करने की चिंता में पड़ोगे; बड़ी आसानी से घाव को रोका जा सकता है, जब वह बहुत छोटा है, या जब अभी पैदा ही नहीं हुआ । पैदा होने के पहले ही मार देना । क्रोध की लहर उठती है— एक घाव उठा आत्मा में। तुम कहते हो, आज तो कर लें, कल से न करेंगे। अब आज तो जो हो गया, हो जाने दो! क्रोध करके तुम पछताते हो; निर्णय भी लेते हो, कल न करेंगे। लेकिन जब क्रोध उठता है, तब तो तुम कर ही लेते हो। और फिर तुम कहते हो, यह तो छोटा-सा क्रोध है, कोई युद्ध तो खड़ा नहीं किया, किसी की जान तो ली नहीं। दो कड़े शब्द कह दिये तो क्या बिगड़ गया ? और फिर, बिना कड़े शब्द कहे कहीं काम चला है! कहीं संसार चला है! यहां अगर बुद्ध बनकर बैठ गये तो लोग बुद्ध समझेंगे। यहां जोर-जबर्दस्ती की 'दुनिया है। यहां अगर हमला न किया तो दूसरे लोग हमला कर देंगे। यहां अगर किसी ने आंख दमकाई और उसको जवाब न दिया, तो सभी लोग आंख दमकाने लगेंगे। फिर तो जीना मुश्किल हो जायेगा। तुम बहाने खोज लेते हो। तुम तरकीबें खोज लेते हो। फिर तुम कहते हो, इतना सा तो है, इसमें क्या बिगड़ जायेगा ? कौन महानर्क हुआ जा रहा है, कौन सा महापाप हुआ जा रहा है ! छोटा है, क्षमा मांग लेंगे, प्रार्थना कर लेंगे, गंगा स्नान कर अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की नहीं, जिनके बंधन गिर गये, जिन्होंने अपनी पशुता काट दी, पाश काट डाले, जो मुक्त हुए — वही मनुष्य हैं। जो मन को उपलब्ध हुए, वही मनुष्य हैं। जो मनु बने, वही मनुष्य हैं। जैनों का शब्द 'कसाय' वही अर्थ रखता है— जो बांध ले, कस दे, जो बांधती चली जाये और तुम सिकुड़ते जाओ और छोटे होते जाओ, और बंधन बोझिल होते चले जायें। 'कसाय' को अल्प मान, विश्वस्त होकर मत बैठ जाना । अल्पता तो धोखा है। यह तो तरकीब है ‘कसाय' की तुम्हारे भीतर प्रवेश की। यह तो बीमारी का उपाय है तुम्हारे भीतर घर बनाने का । यह तो बीज का ढंग है पृथ्वी के गर्भ में प्रवेश करने का । थोड़ा सोचो कि बीज बहुत बड़ा होता, असंभव था वृक्षों का होना ! उतना बड़ा बीज पृथ्वी में प्रवेश कैसे करता ? बीज बड़ा छोटा है, यह वृक्षों की तरकीब है। बड़ा छोटा बीज बनाते हैं। बड़े से बड़ा वृक्ष भी बड़ा छोटा-सा बीज बनाता है। कोई भी रंध्र, कोई भी जरा-सा छेद पाकर घुस जायेगा पृथ्वी में । पृथ्वी को पता भी न चलेगा। लेकिन अगर जितने बड़े वृक्ष हैं, इतने ही बड़े उनके बीज होते, तो वृक्ष खो जाते। कहां से पृथ्वी में प्रवेश होता? इतनी बड़ी रंध्रे, इतने बड़े छिद्र कहां खोजते ? बीज, वृक्ष कितना ही बड़ा हो, छोटे ही बनाता है। छोटे में 231 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 तरकीब है। वृक्ष अपने को पुनः पुनः जन्माना चाहता है। कई छोटा मिलते ही इतना छोटा हो जायेगा कि तुम्हारी वासना उसमें तरकीबें करता है वृक्ष। फूल उगाता है सुंदर, तितलियों को समा न सकेगी। फिर तुम कहोगे, 'और...।' फिर तुम लुभाने के लिए। क्योंकि तितलियों के पैरों में लगकर, बीज के कहोगे, 'और...।' बीज की तरह जो प्रवेश हुआ था, वह छोटे-छोटे कण-पराग, नर पौधे तक पहुंच जायेंगे, नारी पौधे जल्दी ही वृक्ष की तरह पनपने लगेगा। और बीज की तरह जिसे तक पहुंच जायेंगे। मिलन हो जायेगा नर और मादा का। तो फूल मिटाना अति सुगम था, फिर वृक्ष को काटना मुश्किल हो जो है विज्ञापन है वृक्ष का; बुलावा है तितली को, कि आओ। जायेगा; क्योंकि इस वृक्ष की शाखायें तुम्हारी आत्मा में फैल तितली से प्रयोजन नहीं है, तितली के पैरों में पराग लग जाये तो | जायेंगी। फिर इस वृक्ष को उखाड़ने में तुम्हें लगेगा, तुम्हारे प्राण नर मादा को खोज ले, मादा नर को खोज ले, तो बीज-निर्माण उखड़े। तुम जराजीर्ण होने लगोगे। हो, तो संतति आगे बढ़े। ___ कभी खयाल किया, जो आदमी जिंदगी भर क्रोध करता रहा सेमर के फूल देखे! बीज के पास रुई को पैदा करते हैं। है, वह कितना सोचता है क्रोध छोड़ दे! कौन नहीं सोचता! क्योंकि सेमर बड़ा वृक्ष है। अगर बीज नीचे ही गिरें तो वृक्ष की क्योंकि क्रोध जलाता है, व्यर्थ की आग में गिराता है, जहर से छाया के कारण बड़े न हो पायेंगे। वृक्ष बड़ी होशियारी कर रहा | भरता है, जीवन से सारा सुख-चैन खो जाता है। कौन नही है। वह साथ में रुई पैदा कर रहा है। तुम्हारे तकियों के लिए चाहता। लेकिन क्रोधी क्रोध छोड़ नहीं पाता। लाख सोचता है, नहीं, अपने बीज को हवा की यात्रा पर भेजने को, ताकि बीज दूर | | छोड़ दे; छोड़ नहीं पाता। क्योंकि अब उसे समझ में ही नहीं चला जाये, नीचे न गिरे। ठीक वृक्ष के नीचे गिर जायेगा तो मर आता कि जड़ें उखाड़े कहां से! अब तो उसे ऐसा भी डर लगने जायेगा। इतने बड़े वृक्ष की छाया में कैसे पनपेगा, कैसे बड़ा | लगता है कि मैंने सदा ही क्रोध ही तो किया है, क्रोध ही तो मेरा होगा? धूप न मिलेगी। पानी न मिलेगा। क्योंकि बड़ा वृक्ष सब होना है। अगर क्रोध ही गया तो मैं कहां बचूंगा, मैं क्या बचूंगा। पी जायेगा। पूरी भूमि को निचोड़ लेगा। ये छोटे-छोटे बीज तो | उसको अपनी प्रतिमा ही खोती मालम पड़ती है। क्रोध के बिना मर जायेंगे। इन बेटे-बेटियों के लिए वह थोड़ी-सी रुई पैदा वह अत्यंत दीन मालूम पड़ेगा। क्रोध ही उसका बल था। क्रोध करता है। वे रुई के बहाने हवा पर तिर जाते हैं, हवा के झोंके में में ही उसकी महिमा थी। क्रोध में ही वह दूसरों की छाती पर चढ़ दूर निकल जाते हैं। कहीं दूर जाकर जमीन खोज लेंगे। फिर वहां गया था। क्रोध में ही उसने किसी को पराजित किया था। क्रोध वे भी बड़े होकर खड़े हो जायेंगे। | में ही बाजार में प्रतियोगिता की थी, प्रतिस्पर्धा की थी। क्रोध में काम, क्रोध, लोभ, मोह भी बीज की तरह तम्हारे मन की भूमि ही उसने बड़ा मकान बना लिया था। क्रोध की ही तरंगों पर में आते हैं। इसलिए महावीर का सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। वे यह चढ़कर उसने जीवन को जाना है। आज अचानक क्रोध छोड़ देने कहते हैं, छोटे मानकर मत सोच लेना कि क्या, क्या बिगड़ता की बात उठती है; उठती है, उसी के मन में उठती है, कोई न कहे है। जरा-सा बच्चे पर क्रोध कर लिया, क्या हर्ज। अपना ही तो भी उठती है क्योंकि क्रोध दुख देता है। लेकिन, क्रोध बच्चा है। उसके ही सुधार के लिए क्रोध कर रहे हैं। और फिर उसकी प्रतिमा में इतना प्रविष्ट हो गया है रग-रेशे में, जड़ें फैल क्रोध जरा-सा है। एक चांटा भी मार दिया तो क्या, अपना ही तो गई हैं छोटे-छोटे स्नायुओं में, तंतु-जाल हो गया है! है! ऐसे छोटे-छोटे बहाने खोजकर क्रोध प्रवेश करता है, माया कभी किसी बड़े वृक्ष को पृथ्वी से उखाड़कर देखा! कितने प्रवेश करती है, मोह प्रवेश करता है, लोभ प्रवेश करता है। दूर-दूर तक जड़ें फैल जाती हैं। दूसरे वृक्षों की जड़ों को भी अपने आदमी कहता है, कोई ज्यादा तो मैं मांग नहीं रहा, थोड़ा-सा ही में अटका लेती हैं। तुम्हारे मकान की भूमि में चली जाती हैं। मांग रहा हूं। इस संसार में तो इतनी-इतनी वासनाओं भरे लोग मकान की नींव में प्रवेश कर जाती हैं। मकान की ईंटों को जकड़ हैं; मैं तो कुछ मांगता नहीं। परमात्मा, एक छोटा-सा मकान | लेती हैं। | मांगता हूं, छोटी-सी घर-गृहस्थी हो, सुख-शांति हो!... बैंकाक के पास बुद्ध की एक प्रतिमा है, बड़ी मूल्यवान प्रतिमा छोटा मिल जायेगा तब तुम बड़ा मांगना शुरू करोगे। क्योंकि है! एक वृक्ष उस प्रतिमा में समाकर बैठ गया है। प्रतिमा 232 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REER अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की अध्यात्म प्रक्रिया खंड-खंड हो गई है। वृक्ष ने प्रतिमा के कोने-कोने में जड़ें पहुंचा है। फिर तुम्हारा पूरा शरीर उसी से निर्मित हुआ है। दी हैं। तुम कहोगे, वृक्ष को अलग क्यों नहीं कर देते? लेकिन कोई सात अरब जीवाणु तुम्हारे शरीर में हैं। एक से शुरू हुए, अब वृक्ष को अलग किया कि प्रतिमा गिरेगी। वृक्ष तोड़ रहा है सात अरब तक पहुंच गए हैं। और बहुत जल्दी पहुंच जाते हैं। प्रतिमा को, लेकिन वृक्ष ही जोड़े भी हुए है। उसकी ही जड़ों में दिन दूने, रात चौगुने होते चले जाते हैं। जो आंख से नहीं दिखाई प्रतिमा अटकी है, खंड-खंड हो गई है, टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। पड़ता था, वही आज तुम्हारा मित्र होगा, तुम्हारा भाई होगा, नाक अलग है, लेकिन जड़ों में अटकी है। हाथ टूट गया है, तुम्हारा बेटा होगा, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी प्रेयसी। जो अदृश्य लेकिन जड़ों में फंसा है। था, जिसको देखने के लिए खुर्दबीन चाहिए थी, इतना छोटा जब भी मैं इस प्रतिमा को चित्रों में देखा हूं, तभी मुझे आदमी इतना बड़ा हो जाता है! की याद आई। अब भक्त चाहते हैं कि इससे छुटकारा हो जाये। फैलाव प्रकृति का नियम है। यहां किसी भी चीज को जगह यह तो मिटाये डाल रही है। इतनी बहुमूल्य प्रतिमा को नष्ट कर दी, वह फैलेगी। फैलना स्वभाव है। इसलिए तो हिंदू विश्व को डाला इस वृक्ष ने। लेकिन इस वृक्ष को पानी देते हैं, दुश्मन को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म यानी जो फैलता चला जाता है; जो जानता पानी देते हैं। क्योंकि जिस दिन इस वृक्ष को हटाया, उसी दिन ही नहीं कैसे रुके, जो फैलता ही चला जाता है; अनंत जिसका प्रतिमा खंड-खंड होकर गिर जायेगी। तोड़ा भी इसी ने है, जोड़े विस्तार है; जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं। यहां छोटी-सी भी यही है। यही अड़चन है। चीज पकड़ो, जल्दी ही बड़ी होने लगती है। इन छोटी-छोटी क्रोध ही तुम्हें तोड़ रहा है, क्रोध ही तुम्हें जोड़े भी है। लोभ ही बातों के कारण तुम भटकते चले जाते हो। तुम्हें तोड़ रहा है, लेकिन लोभ ही तुम्हें सम्हाले भी है। लोभ ही कभी-कभी तुम्हें खयाल भी नहीं होता। तुम जरूरी काम से तुम्हें नर्क की तरफ ले जा रहा है, लेकिन लोभ ही तुम्हारी नाव भी जा रहे थे, मां बीमार पड़ी थी और तुम उसके लिए दवा लेने जा है। अब तुम मुश्किल में पड़ोगे। नाव छोड़ो तो डूबे। नाव में रहे थे और किसी आदमी ने रास्ते में गाली दे दी-भूल गए मां, बैठे तो नाव सरक रही है नर्क की तरफ। छोड़ना भी तुम चाहते | भूल गए दवा, भूल गए इलाज-चिकित्सा, उससे झगड़ने खड़े हो, एक पैर उठा भी लेते हो; लेकिन छोड़ा तो डूबे। हो गए, पहले इससे निपटारा कर लेना है! चाहे इसमें मां मर इसलिए महावीर कहते हैं, सचेत हो जाना! सावधान हो जाए, लौटकर घर आओ और पाओ कि मां जा चुकी, फिर चाहे जाना! पछताओ-लेकिन क्षुद्र भी, अति क्षुद्र भी, अति व्यर्थ भी, जब 'ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कसाय आता है तुम्हारी आंखों में, तो तुम्हें परिपूर्ण घेर लेता है। इसी को अल्प मानकर विश्वस्त मत हो जाना।' ये छोटे जो आज हैं, | तरह तो मंजिल खोती चली गई है। तुम बिलकुल हवा की तरंगों कल बड़े हो जायेंगे; क्योंकि ये थोड़े ही बढ़कर बहुत हो जाते हैं। में भटकते लकड़ी के टुकड़े हो; जहां हवा आ जाती है, जहां मा के गर्भ में जब पिता का बीज पड़ता है, तो क्या होता है? पानी की तरंग ले जाती है, वहीं चल पड़ते हो। तुम सांयोगिक हो इतना छोटा होता है कि खाली आंख से देखा भी नहीं जा गये हो-ऐक्सीडेंटल। तुम्हारे जीवन में कोई दिशा नहीं है, कोई सकता। इतना छोटा होता है कि दूरबीन चाहिए. खुर्दबीन बढ़ाव, कोई विकास, कोई गंतव्य, कोई मंजिल! कहां तुम जा चाहिए। एक संभोग में कोई एक करोड़ जीवाणु पिता के वीर्य से रहे हो, क्यों तुम जा रहे हो-कुछ भी नहीं है। आकस्मिक मां में प्रवेश करते हैं। एक करोड़! वीर्य की एक बूंद में लाखों घटनाएं, दुर्घटनाएं, तुम्हारे जीवन की निर्णायक हो गई हैं। कुछ होते हैं। इतने छोटे! फिर वही गर्भाधान में बड़ा होने लगता है। भी उठ आता है, जिससे तुम्हारी कोई संगति नहीं है, तुम वह वही बीज एक से दो होता है, दो से चार होता है, चार से आठ करने में लग जाते हो। होता है—इस तरह बढ़ता है। अपने को ही तोड़ता है। एक होता | मैं विश्वविद्यालय में भर्ती होने गया, तो मैं अपना फार्म भर रहा है, बड़ा होता है, पोषण मिलता है, दो हो जाता है। टूटकर दो था। मेरे पास ही एक लड़का खड़ा था, वह भी भर्ती होने आया टुकड़े हो जाते हैं, चार हो जाते हैं, आठ हो जाते हैं, फैलता जाता था। उसने मेरे फार्म में देखा। उसने कहा, 'तो आप दर्शनशास्त्र www.jainelibrary org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 ले रहे हैं? तो मैं भी लूंगा।' लेकिन लोग सांयोगिक हैं। लोग एक्सीडेंटल हैं। रंग उन्हें पहले मैंने कहा, 'तू रुक। तुझे इससे क्या प्रयोजन? यह भी खींचता है। डब्बा खाली हो तो भी चलेगा, लेकिन रंग, रंग बिलकुल सांयोगिक है कि मैं यहां खड़ा अपनी दर्खास्त भर रहा | आंख को खींच लेता है। कितनी ऊंचाई पर दुकान पर डब्बा ह, तू भी भर रहा है; मेरी दर्खास्त को एक तो देखने की कोई होना चाहिए, तब आंख जल्दी पकड़ में आती है। पांच फीट, तो जरूरत नहीं; देख भी ली तो तुझे कोई विषय इसलिए लेने की ठीक आंख की सीध में होता है। लोग ऐसे अलाल हैं कि आंख जरूरत नहीं...। न तू मुझे जानता।' उसने कहा, 'यह भी आप | भी ऊपर उठाकर कौन देखता है। अगर जरा डब्बा ऊपर रखा ठीक कहते हैं। मैंने यह सोचा ही नहीं।' हो, या डब्बा बहुत नीचे रखा हो...तो अब तो विशेषज्ञ हैं इस तुमने कभी जिंदगी में देखा! इस तरह रोज हो रहा है। दुकान संबंध में, जो बताते हैं कि तुम जब कोई चीज बनाकर बाजार में पर तुम गये थे; कुछ खरीदने गये थे, कुछ खरीद लाये। क्योंकि | बेचो तो डब्बे का रंग क्या हो, कितने बड़े अक्षरों में नाम हो, दुकानदार बड़ा कुशल था। उसने बेच दिया कुछ। दुकान पर कितनी ऊंचाई पर दुकान में रखा जाये, कितनी दूरी पर ग्राहक गये थे, दुकानदार ने कुशलता भी न की हो, लेकिन दुकान की खड़ा हो, तो काउंटर कितने फासले पर बनाया जाये, बेचनेवाला खिड़की में सजी हुई चीजों में कुछ चीज जंच गई, जिसकी तुम्हें क्या कहे, कैसे शब्दों का उपयोग करे, क्योंकि जरा-जरा-सी क्षणभर पहले तक कोई भी जरूरत न थी, क्षणभर पहले तक तुम्हें बातें हैं...। सपना भी न आया था उसका; लेकिन बस आंख में पड़ गई, एक भिखमंगा एक घर में भीख मांगने गया। सुंदर है, स्वस्थ सरक गये तुम। शायद जरूरी काम छोड़कर, जो तुम लेने गये है, जवान है। महिला बाहर निकली और उसने कहा कि जवान थे, कुछ और लेकर आ जाओ। तुम जो लेने जाते हो, वही लेकर हो, स्वस्थ सुंदर हो, कोई काम क्यों नहीं करते? जिंदगी में लौटते हो? सफल हो सकते हो, भीख मांगने की जरूरत क्या है? पश्चिम में मनोविज्ञान इस पर बड़ी खोज करता है कि लोग उस आदमी ने कहा, 'अब तुमसे क्या कहें! दुनिया में बहुत क्या खरीदते हैं। और उन्होंने बड़ी तरकीबें खोजी हैं। और बड़े स्त्रियां देखीं, तुम जैसी सुंदर स्त्री नहीं देखी। फिल्म अभिनेत्रियां हैरानी के निष्कर्ष हाथ लगे हैं। | हैं, लेकिन तुम्हारे मुकाबले कुछ भी नहीं। तुम इस घर में क्या एक उपन्यास बिकता नहीं था; छप गया और बिका नहीं। कर रही हो? तुम तो फिल्म अभिनेत्री हो सकती थीं।' उस स्त्री विशेषज्ञों से सलाह ली तो उन्होंने कहा, इस किताब का नाम ने कह, 'रुक, रुक। मैं अभी तेरे लिए भोजन लाती हूं।' बदल दो, नाम ठीक नहीं है, नाम खींचता नहीं है। नाम बदल | भिखमंगे को भी समझना पड़ता है, क्या कहे, किन शब्दों का दिया, किताब बिकी। ऐसी बिकी, लाखों की प्रतियों में बिकी। उपयोग करे! क्योंकि लोग अंधे हैं। लोगों को पता नहीं, वे क्या सालभर से छपी पड़ी थी, कोई खरीदनेवाला न था। किताब वही कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं। तुम से लोग करवा रहे हैं। तुमने की वही, सिर्फ नाम बदलने से कुछ भी नहीं बदला, एक शब्द सैंकड़ों चीजें खरीद ली हैं जो बेचनेवालों को बेचनी थीं, तुम्हें भीतर नहीं बदला है, सिर्फ कवर, खोल बदल गई—और खरीदनी नहीं थीं। किताब बिकने लगी! पुराने अर्थशास्त्र का नियम था कि ः जहां-जहां मांग होती है, मनोवैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि चीजें बेचते हैं तो डब्बे वहां-वहां पूर्ति होती है। नये अर्थशास्त्र का नियम है : जहां-जहां का रंग क्या होना चाहिए। क्योंकि उन्होंने सब रंगों के डब्बे पूर्ति होती है वहां-वहां मांग पैदा हो जाती है। तुम चीज तो रखकर देखे। स्त्रियां खरीदने आती हैं, तो वे हिसाब लगाते हैं बनाओ! इसकी तुम फिक्र ही मत करो कि इसकी कोई मांग है या कि कौन-से रंग से ज्यादा आकर्षित होती हैं। कुछ रंग हैं जिनकी नहीं। मांग पैदा कर ली जायेगी। लोग पागल हैं। तरफ कोई ध्यान ही नहीं देता। अगर उस रंग का डब्बा तुमने | बर्नार्ड शा ने जब पहली दफा अपनी किताबें लिखीं तो बिकी अपनी चीज को बेचने के लिए बना लिया है तो तुम्हारा दिवाला नहीं। क्योंकि नाम बिकता है। कोई नाम तो था नहीं। कोई निकलेगा। अब रंग से भीतर की चीज का कोई भी संबंध नहीं है, | जानता तो था नहीं बर्नार्ड शा को। तो क्या किया उसने? वह 234 | Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुद ही चक्कर लगाकर किताबों की दुकानों पर जाता था पूछने – 'जार्ज बर्नार्ड शा की किताब है ?' दुकानदार पूछता 'कौन जार्ज बर्नार्ड शा ?' '... अरे ! तुम्हें जार्ज बर्नार्ड शा का पता नहीं ? क्या खाक किताबों का धंधा करते हो? इस इस नाम की किताब छपी है ।' ऐसा वह खुद ही दुकानों पर चक्कर लगाता । पता बता आता उनको । तरकीब से समझा आता। और जब उसने अपने मित्रों को भी कह दिया कि तुम जब निकलो कहीं से, कोई विशेष रूप से जाने की जरूरत नहीं, लेकिन रास्ते में अगर किताब की दुकान पड़ जाये, इतनी कृपा मुझ पर करना, पूछ लेना — जार्ज बर्नार्ड शा की फलां-फलां किताब है? कई ग्राहक आने लगे, रोज आने लगे कि ' है कौन जार्ज बर्नार्ड शा ?' दुकानदारों ने पता लगाया, किताबें खरीदकर लाये। जार्ज बर्नार्ड शा ने कहा, ऐसे मेरी किताबों का बिकना शुरू हुआ। चीज होनी चाहिए, फिर चीज के आसपास कांटा, कांटे के आसपास आटा होना चाहिए । फिर कोई न कोई फंस जायेगा । संसार बड़ा मूढ़ है। तुम जरा जागो ! महावीर का इतना ही प्रयोजन है कि तुम जरा जागो, अन्यथा ऐसे तो यह रास्ता बड़ा ही होता चला जायेगा। इसका कोई अंत न होगा। अजल से गर्मे-सफर हूं, मगर मुझे अब तक बिछुड़ गया था मैं जिससे वोह कारवां न मिला। तुम अपने स्वभाव से छूट गये हो । संयोग में उलझ गये हो । बिछड़ गया था मैं जिससे वोह कारवां न मिला! अजल से गर्मे-सफर हूं, मगर मुझे अब तक - शुरू से, जगत के प्रारंभ से खोज रहा हूं अपने को — और | मिल नहीं पाता हूं। क्योंकि और दूसरी चीजें बीच में मिल जाती अटकाती हैं। कभी धन, कभी पद, कभी प्रतिष्ठा, कभी यश, कभी रूप, कभी रंग, कभी शब्द, कभी गंध - इंद्रियों के हजार जाल हैं! कोई न कोई मिल जाता है। अपने घर तक पहुंच ही नहीं पाते। कोई न कोई अटका लेता है। ध्यान रखना, कोई तुम्हें अटकाता नहीं। तुम अटकने को तैयार ही बैठे हो। कोई न भी अटकाये, तो भी अटकने की कोई तरकीब खोज लोगे । छोटे को छोटा मत मानना । सब चीजें बड़ी हैं। सत्य का अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की खोजी जीवन की रत्ती - रत्ती का होश रखता है । सब चीजें बड़ी हैं। वही करता है जो करना जरूरी है। उसी तरफ जाता है जहां जाना जरूरी है । व्यर्थ को काटता है, ताकि सार्थक ही बचे। जो नहीं करना है, उसे नहीं ही करता है। खिलवाड़ नहीं करता जिंदगी के साथ। जिंदगी उसकी एक साधना है, एक उपक्रम है, एक सोपान है। उसकी जिंदगी में एक दिशा है। वह कहीं जा रहा है। अगर ऐसे तुम सब दिशाओं में भागते रहे, तो तुम कहीं भी न पहुंचोगे। अगर तुम कहीं नहीं पहुंचे हो तो कारण तो खोजो ! कारण यही है कि दो कदम चलते हो बायें तरफ, फिर दिल बदल गया; फिर दो कदम चलते हो दायें तरफ, तब तक फिर दिल बदल गया । तुम्हारा दिल है कि पारा है ? छितर छितर जाता है । जितना पकड़ो उतना ही छितरता जाता है । सब दिशाओं में बिखर जाता है। ऐसे तुम बिखर गये हो। इस बिखरेपन के कारण ही आत्मा का तुम्हें कोई अनुभव नहीं होता। महावीर कहते हैं, छोटे को छोटा मत जानना । छोटा बड़ा हो जाता है। इसलिए जिससे बचना हो, उसके बीजारोपण के पहले ही जागना । 'क्रोध प्रीति को नष्ट करता है। मान विनय को नष्ट करता है। माया मैत्री को नष्ट करती है। लोभ सब कुछ नष्ट करता है।' कोहो पीइं पणासेइ, माणो वियनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो ।। 'क्रोध प्रीति को नष्ट करता है... ।' अब लोग हैं, प्रेम चाहते हैं। कौन है जो नहीं चाहता! ऐसा आदमी खोजा, ऐसे प्राण तुमने कभी पाये जो प्रेम न मांगते हों ? सभी तो प्रेम के भूखे हैं । निरपवाद रूप से सभी प्रेम के लिए प्यासे हैं। फिर प्रेम खो कहां गया है? जहां सभी लोग प्रेम चाहते हैं और जहां सभी लोग सोचते हैं कि प्रेम दें, वहां प्रेम के फूल खिलते दिखायी नहीं पड़ते । प्रेम खो कहां गया है ? तो महावीर कहते हैं, प्रेम प्रेम की बात करने से क्या होगा ? क्रोध, प्रीति को नष्ट करता है। तुम क्रोध के बीजों को तो जगह देते जाते हो और प्रेम की पुकार और गुहार मचाये रखते हो। चिल्लाते रहते हो, प्रेम, प्रेम, प्रेम और क्रोध के बीज पनपाये जाते हो! बोते हो जहर, अमृत की मांग करते रहते हो ! फिर अगर जहर का झाड़-झंखाड़ तुम्हारे जीवन को भर देता है और अमृत की 235 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 जिन सूत्र भाग: 1 कोई वर्षा नहीं होती - तो कसूर किसका है, उत्तरदायित्व सबको मरना भी पड़े तो भी उचित है। मेरे सुख के लिए अगर किसका है ? 'क्रोध, प्रीति को नष्ट करता है. I' सबको दुखी भी होना पड़े तो भी ठीक है। क्योंकि मैं साध्य हूं, और सब साधन हैं। सबके कंधों पर मेरे पैर रखने पड़ें मुझे और सबके सिरों से मुझे सीढ़ियां बनाकर चढ़ना पड़े राजमहलों तक, चढूंगा। क्योंकि और सब सीढ़ियां होने को ही बने हैं। | अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं है तो जानना कि क्रोध होगा - चाहे बहुत - बहुत करने की वजह से तुम्हें याद भी न आती हो अब, ऐसे रग-पग गये होओ क्रोध में कि अब तुम्हें पहचान भी नहीं पड़ता कि क्रोध है। किसी क्रोधी को कहो। वह फौरन कहता है, 'कौन कहता है, मैं क्रोध में हूं? मैं क्रोध में नहीं हूं।' क्रोधी भी यही कहे चला जाता है, मैं क्रोध में नहीं हूं। तुम भी जब क्रोध में पकड़े जाते हो तो तुम स्वीकार नहीं करते कि मैं क्रोध में हूं। क्रोध को कोई स्वीकार ही नहीं करता और प्रेम की लोग मांग किये जाते हैं। अगर क्रोध है तो स्वीकार करो, क्योंकि स्वीकार निदान बनेगा। क्रोध है तो स्वीकार करो कि है, तो मिटाने का कोई उपाय हो सकता है। जिसे तुम स्वीकार ही न करोगे, उसे मिटाओगे कैसे? और अगर प्रेम न हो तो महावीर का सूत्र यह कह रहा है : अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम न हो तो निश्चित जानना कि क्रोध है, चाहे तुम्हें पता चलता हो न पता चलता हो, पुरानी आदत हो, मजबूत आदत हो, खून में घुल-मिल गई हो, क्रोध तुम्हारा स्वभाव जैसा हो गया हो कि अब तुम्हें याद भी ना हो कि अक्रोध क्या है, तो भेद करना मुश्किल हो गया हो — लेकिन अगर जीवन में प्रेम न हो तो क्रोध है। 'क्रोध, प्रीति को नष्ट करता है। मान, विनय को नष्ट करता है ... ।' . अहंकार, तुम्हारी विनम्रता को नष्ट कर देता है । और विनम्रता नष्ट होती है, बड़ा बहुमूल्य कुछ तुम्हारे भीतर समाप्त हो जाता है। सीखने की क्षमता खो जाती है। विनम्र सीखने में सक्षम होता है । विनम्र खुला होता है । विनम्र तत्पर होता है। कुछ भी नया आये, उसके द्वार बंद नहीं होते। और विनम्र जीवन के सत्य को पहचानता है कि मैं एक खंड मात्र हूं इस विराट का । अहंकारी एक बड़ी भ्रांति में जीता है। अहंकारी की भ्रांति यह है कि जैसे मैं केंद्र हूं सारे विश्व का, जैसे सब मेरे लिए हैं और मैं किसी के लिए नहीं; जैसे सब मेरे साधन हैं और मैं साध्य हूं। अहंकार को अगर हम ठीक से समझें तो उसका अर्थ होता है: सारा जगत साधन है और मैं साध्य हूं। मेरे जीवन के लिए अगर अहंकारी अपने को अस्तित्व का केंद्र मान रहा है। विनम्र का क्या अर्थ है ? विनम्र कहता है : मैं कैसे केंद्र हो सकता हूं? मैं नहीं था, तब भी अस्तित्व था । मैं नहीं हो जाऊंगा, तब भी अस्तित्व होगा। मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता है? एक तरंग हूं माना, मैं भी एक लहर हूं इस विराट की, पर बस एक लहर हूं। विराट सत्य है । मेरा होना तो एक सपना है; रात देखा, सुबह खो जायेगा। यह मेरा होना कोई ठोस पत्थर की तरह नहीं है, पानी की लकीर है। तो विनम्र सीख पाता है जीवन के सत्यों को। और अंततः परमात्मा को भी सीख पाता है, क्योंकि उसने पहली शर्त पूरी कर दी। उसने झूठ को अंगीकार न किया। उसने सत्य से ही शुरुआत की। सत्य से शुरुआत हो तो सत्य पर अंत होता है। असत्य से ही शुरुआत हो जाये, तो फिर सत्य कहां मिलेगा ? फिर तो असत्य बढ़ता चला जायेगा। अहंकारी धीरे-धीरे मद में चूर होता जाता है। आंखें देखने की क्षमता खो देती हैं। बोध विलुप्त हो जाता है। एक तंद्रा और निद्रा में जीता है। 'मान, विनय को नष्ट करता है. ...।' और अगर तुम्हारे जीवन में विनम्रता न हो तो तुम जान लेना कि कहीं अहंकार का शत्रु घात लगाये छिपा बैठा है। 'माया, मैत्री को नष्ट करती है. ।' कपट, छल छिद्र मैत्री को नष्ट करता है। मैत्री का अर्थ ही होता है कि तुम किसी के साथ ऐसे हो जैसे अपने साथ | मैत्री का अर्थ होता है : तुम्हारे और मित्र के बीच कोई रहस्य नहीं, कोई छुपाव नहीं, कोई दुराव नहीं | मैत्री का अर्थ होता है: तुम अपने को अपने मित्र के सामने बिलकुल नग्न करने में समर्थ हो। तुम जानते हो, तुम्हें भरोसा है प्रेम का । तुम जानते हो कि तुम जैसे हो, तुम्हारा मित्र तुम्हें स्वीकार करेगा । उसका प्रेम बेशर्त है। अगर मित्र से भी तुम्हें कुछ छिपाना पड़ता हो, तो तुम मित्र को भी शत्रु मान रहे हो । मैक्यावली ने लिखा है...। ठीक महावीर से उलटा है . Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की मैक्यावली। इसलिए महावीर को समझना हो तो मैक्यावली को | सकते हैं। मित्र के सामने तो हम अपना कलुष, अपना पाप, भी समझना उपयोगी होता है। मैक्यावली ने लिखा है : मित्र से अपना अपराध, सभी प्रगट कर सकते हैं। क्योंकि हम जानते हैं, भी ऐसी बात मत कहना जो तुम शत्रु से न कहना चाहते होओ; प्रेम का भरोसा है। उस प्रेम की छाया में सब स्वीकार है। क्योंकि कौन जाने, जो आज मित्र है कल शत्रु हो जाये। फिर तुम क्योंकि मित्र ने हमें चाहा है किन्हीं कारणों से नहीं; अकारण पछताओगे कि अच्छा होता, इससे यह बात न कही होती। चाहा है। तो किन्हीं कारणों से टूटेगी नहीं मैत्री। ऐसा नहीं है कि मैक्यावली यह कह रहा है कि तुम मित्र के साथ भी ऐसा ही मित्र देख लेगा कि अरे, तुमने और ऐसा पाप किया। दोस्ती व्यवहार करना, जैसा तुम शत्रु के साथ करते हो; क्योंकि मित्र खतम! नहीं, मित्र तुम्हारे पाप के प्रति भी करुणा का भाव यहां शत्रु भी हो जाते हैं। महावीर से पूछो तो महावीर कहेंगेः रखेगा। वह कहेगा, सभी से होता है, मनुष्य मात्र से होता है। मित्र की तो बात ही छोड़ो, तुम शत्रु के साथ भी ऐसा व्यवहार | मित्र तुम्हें समझने की कोशिश करेगा। मित्र तुम्हारी निंदा नहीं करना जैसा मित्र के साथ करते हो; क्योंकि कौन जाने जो आज करेगा। जरूरत होगी तो आलोचना करेगा, निंदा नहीं। लेकिन शत्रु है, कल मित्र हो जाये। तो ऐसी कुछ बातें मत कह देना जो आलोचना भी इस खयाल से करेगा कि श्रेष्ठतर का आगमन हो कल फिर लौटाना बड़ी मुश्किल हो जाये। फिर थूके को चाटने सके। आलोचना भी इस खयाल से करेगा कि तुम और बड़े होने जैसा होगा। जिससे दुश्मनी है, उसको हम ऐसी बातें कहने को हो, तुम अभी और खुलने को हो; यह कली इतने ही होने को लगते हैं जो बिलकुल अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। कहते हैं, राक्षस है। नहीं, तुम्हारी नियति और बड़ी है। कल तक नर में छिपा नारायण था, आज राक्षस! लेकिन कल मित्र अगर तुम्हारी आलोचना भी करेगा तो उसमें गहन प्रेम अगर यह मैत्री फिर बनी, तो फिर कहां मुंह छुपाओगे? फिर होगा। और शत्रु अगर तुम्हारी प्रशंसा भी करता है तो उसमें भी कैसे लौटाओगे? फिर कैसे कहोगे कि यह नर में नारायण, फिर | व्यंग्य होता है; उसमें भी कहीं गहरी निंदा का स्वर होता है, कहीं राक्षस नहीं है। कटाक्ष होता है। महावीर कहते हैं: मैत्री को तुम आधार मानकर चलना। जो मैत्री तो संभव है तभी, जब माया बीच में न हो। इसलिए आज मित्र है, वह तो मित्र है ही; जो आज नहीं है, वह भी हो दुनिया में मैत्री धीरे-धीरे खोती गई है। लोग नाममात्र को मैत्री सकता है कल मित्र हो जाये। जो आज शत्रु है वह भी मित्र हो कहते हैं; उसे परिचय कहो, बस ठीक है; इससे ज्यादा नहीं। सकता है। और महावीर की बात मानकर जो चलेगा, धीरे-धीरे दुनिया से मैत्री का फूल तो करीब-करीब खो गया है। क्योंकि पायेगाः उसके शत्रु मित्र हो गये। और मैक्यावली की जो मैत्री के फूल के लिए सरलता चाहिए, निष्कपटता चाहिए। मानकर चलेगा, वह पायेगा : उसके मित्र धीरे-धीरे शत्रु हो गये; कपट, माया अगर बीच में आई तो मैत्री समाप्त हो जाती है। क्योंकि तुमने कभी उनसे मित्र जैसा व्यवहार ही नहीं किया। अगर गणित बीच में आया तो मैत्री समाप्त हो जाती है। मैत्री तो अगर मित्र से भी छिपाना पड़े, इसी को महावीर माया कहते हैं। एक काव्य है-गणित नहीं, तर्क नहीं। मित्र के सामने हम 'माया, मैत्री को नष्ट करती है...।' | अपने को वैसा ही प्रगट कर देते हैं जैसे हम हैं। इसलिए तो मित्र माया का अर्थ है: सच न होना। माया का अर्थ है: धोखे के पास राहत मिलती है। कम से कम कोई तो है जिसके पास देना। माया का अर्थ है : जो तम नहीं हो, वैसे दिखाना। माया जाकर हमें झूठ नहीं होना पड़ता; नहीं तो चौबीस घंटे झूठ। का अर्थ है : प्रामाणिक न होना। माया का अर्थ है : प्रवंचना। पत्नी है तो उसके सामने झूठ। दफ्तर है, मालिक है, तो उसके माया का अर्थ है: दिखावा, धोखा; आंख में आंसू भरे थे, सामने झूठ। बाजार में संगी-साथी हैं, उनके साथ झूठ। सब लेकिन मुस्कुराने लगे, तो यह मैत्री न हुई। मित्र के सामने तो हम तरफ झूठ है। तो तुम कहीं खुलोगे कहां? तुम बंद ही बंद मर रो भी सकते हैं। और किसके सामने रोओगे? अगर मित्र के | जाओगे। हवा का झोंका, सूरज की किरणें तुममें कहां से प्रवेश सामने भी नहीं रो सकते तो फिर और कहां रोओगे? मित्र के करेंगी? तुम कब्र बन गये। कहीं कोई तो हो कहीं, जहां तुम सामने तो हम अपना दुख, पीड़ा, दैन्य, सभी कुछ प्रगट कर शिथिल होकर लेट जाओ; जहां तुम जैसे हो वैसे ही होने को Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 स्वतंत्र होओ; जहां कोई मांग नहीं है; जहां मित्र की आंख यह तो सीमा होगी। बस प्रेम। प्रेम, तुम्हारे होने का ढंग। प्रेम, नहीं कह रही है कि ऐसे नहीं, ऐसे होओ। तुम्हारे होने की सुगंध, सुरभि। प्रेम, तुम्हारे होने की व्यवस्था। मैत्री बड़ी अनूठी घटना है। शब्द ही बचा है संसार में। मैत्री कोई न भी हो, तुम अकेले कमरे में बैठे हो तो भी प्रेम से भरे बैठे के फूल बहुत कम खिलते हैं। क्योंकि मैत्री के फूल के खिलने के | हो। उस शून्य में ही प्रेम उंडेल रहे हो। वक्षों के पास बैठे हो तो लिए दो ऐसे व्यक्ति चाहिए जो निष्कपट हों, जिनके बीच माया वृक्षों से प्रेम-वार्ता चल रही है। चांद-तारों को देखा है तो वहीं न हो। प्रेम का आलिंगन होने लगा। सरिता-सागर के पास गये हो तो 'माया, मैत्री को नष्ट करती है। और लोभ, सब कुछ नष्ट वहीं मैत्री का सुर बजने लगा। अकेले कि भीड़ में, अकेले कि कर देता है।' अगर तुम्हारी जिंदगी में खंडहर ही खंडहर मालूम साथ में, सुख में कि दुख में लेकिन प्रेम की वीणा बजती ही पड़ता हो, मरूद्यान का कहीं कोई पता न चलता हो, मरुस्थल ही रहे; वह तुम्हारे भीतर श्वास हो जाये अहर्निश! पता हो न पता मरुस्थल, तो एक बात जान लेना कि तुमने लोभ के ढंग से ही हो, श्वास जैसे चलती रहती है, ऐसा प्रेम भी डोलता रहे! जीना सीखा है, तुम और कुछ नहीं जान पाये। लोभ, सब कुछ इस प्रेम की परम घटना के लिए महावीर ने अहिंसा नाम दिया नष्ट कर देता है। है। इस प्रेम को जीसस ने ईश्वर कहा है। प्रेम ईश्वर है। यह महावीर निदान कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, अगर तुम्हारी लोभ, सब कुछ नष्ट कर देता है। 'लोहो सव्वविणासणो!' जिंदगी में कोई रस-वर्षा न होती हो, तो दोष मत देना किसी लोभ और प्रेम विपरीत हैं। इसे समझो। लोभी व्यक्ति प्रेम को—इतना ही जानना कि तुम लोभ में बड़े गहरे उतर गये हो। नहीं कर पाता-कर ही नहीं सकता। क्योंकि प्रेम में बांटना तुमने लोभ की बड़ी गहरी सीढ़ियां पार कर ली हैं। तुम लोभ के पड़ता है, देना पड़ता है। लोभी कृपण होगा, बांटेगा कैसे? कुएं में डूब गये हो। तो ही ऐसा होता है कि सब नष्ट हो जाये। लोभ तो इकट्ठा करता है। लोभ तो जो इकट्ठा कर लेता है, उसकी उसने मंशाए-इलाही को मकम्मिल कर दिया रक्षा में लग जाता है उसमें से कोई एक पैसा खींच न ले! अपनी आंखों पर जिसने लिये मुहब्बत के कदम। इसलिए तो इस देश में कहावत है कि जब कोई लोभी मरता है, जिसने मैत्री सीखी, जिसने प्रेम सीखा, जिसने मैत्री के लिए | मरकर सांप हो जाता है; मंडली मारकर, कुंडली मारकर, बैठ माया छोड़ी, जिसने प्रेम के लिए क्रोध छोड़ा, जिसने विनय के | जाता है अपने खजाने पर। अब सांप कोई सोने को भोग नहीं लिए मान छोड़ा, और जिसने जीवन को सृजनात्मक गति देने के सकता–भोगने का सवाल भी नहीं है। लिए लोभ से विदा ली-उसने मंशाए-इलाही को मुकम्मिल लोभी बड़ा अदभुत आदमी है। जरा उसको समझो। क्योंकि कर दिया; उसने परमात्मा की आकांक्षा पूरी कर दी। वह सबके भीतर छिपा है, उसे समझना जरूरी है। लोभी बड़ा ..अपनी आंखों पर जिसने लिए मुहब्बत के कदम। अनूठा आदमी है। साधारण घटना नहीं है लोभी। लोभी उतनी -फिर उसकी आंखों पर मुहब्बत की छाया पड़ने लगी। फिर ही बड़ी असाधारण घटना है जितनी बड़ी असाधारण घटना प्रेमी उसके हृदय में मुहब्बत के कमल खिलने लगे। है। दोनों छोर हैं, अतियां हैं। लोभी भोगता नहीं, सिर्फ भोग की प्रेम परम घटना है। अब इसे हम समझें। आशा को भोगता है। धन इकट्ठा कर लेता है, उसे खर्च नहीं महावीर कहते हैं, लोभ से सब नष्ट हो जाता है और प्रेम से करता। खर्च में तो कम होगा। धन इकट्ठा कर लेने में ही उसका सब उपलब्ध हो जाता है। महावीर कहते हैं, 'मित्ति मे भोग है। धन तो सिर्फ संभावना है। तुम सोने की ईंट रखकर बैठे सव्वभुएषु।' सबसे मैत्री, सबसे प्रेम, सर्वभूतों से। क्योंकि रहो कि मिट्टी की ईंट रखकर बैठ लो, कुछ फर्क न पड़ेगा। फर्क महावीर कहते हैं, एक से ही प्रेम करने में इतने कमल खिलते हैं, | तो तब पड़ेगा जब तुम भोगने जाओगे; बिना भोगे तो मिट्टी की जरा सोचो, सबसे प्रेम! प्रेम तुम्हारा स्वभाव बन जाये। प्रेम ईंट और सोने की ईंट बराबर है। तुम्हारे खीसे में रुपया है या संबंध न रहे। ऐसा नहीं कि किसी से प्रेम और किसी से नहीं; | नहीं, इसका पता तो तभी चलेगा जब तुम भोगने जाओगे। जब क्योंकि ऐसे प्रेम में तो कुछ न कुछ कमी रह जायेगी। ऐसे प्रेम में बाजार में कुछ खरीदने जाओगे, तब पता चलेगा कि रुपया है या 2381 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMA अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की - नहीं। अगर खरीदने कभी गये ही नहीं तो खीसे में रुपया था या नहीं; क्योंकि हो कैसे सकती थी? चीज तो प्रगट तब होती है नहीं, बराबर है। जब तुम देते हो। आदान-प्रदान में धन प्रगट होता है। मुट्ठी में लोभी बड़ा अदभुत आदमी है। वह रुपया तो इकट्ठा करता है, बंद, तो मर जाता है, होता ही नहीं। क्या फर्क पड़ता है कि तुम्हारे लेकिन भोगता नहीं। तो लोभी के पास धन होकर भी लोभी पास एक लाख रुपया तिजोड़ी में था या नहीं था? तिजोड़ी बंद निर्धन ही होता है; क्योंकि धन का तो पता ही तब चलता है...। रही, तुम जीये तिजोड़ी के बाहर, मरे तिजोड़ी के बाहर। लाख रुपया धन थोड़े ही है। जिस क्षण तुम रुपये को खर्च करते हो, रुपया बंद था कि नहीं था बंद, क्या फर्क पड़ता है? कोई भी तो उस क्षण धन बनता है। फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ सकता था, अगर तुम बांटते। लोभी इसे थोड़ा समझना। तुम्हारे खीसे में एक रुपया पड़ा है। इसमें | | बांटता नहीं। बाहर के धन को ही नहीं, जब बाहर के धन को ही कई चीजें छिपी हैं: चाहो तो एक आदमी रातभर मालिश नहीं बांटता तो भीतर के धन को क्या खाक बांटेगा? जब क्षुद्र करे-इस एक रुपये में छिपा पड़ा है। अब एक आदमी को रुपये नहीं बांट सकता, तो जीवन की महिमा क्या बांटेगा? खीसे में रखकर चलो, बहुत वजन हो जायेगा, भारी पड़ेगा। ठीकरे नहीं बांट सकता, तो हृदय कैसे लुटायेगा? और प्रेम के चाहो तो गिलासभर दूध पी लो, इस रुपये में वह छिपा पड़ा है। लिए तो चाहिए हृदय लुटानेवाला, बांटनेवाला, देनेवाला। चाहो तो जाकर तीन घंटे फिल्म में बैठ जाओ। चाहो तो होटल में प्रेम है बांटने की कला। लोभ है इकट्ठा करने की कला। मगर भोजन कर लो। चाहो तो किसी को दान दे दो, किसी भूखे का | तुम जो इकट्ठा करते हो, वह व्यर्थ है। इसलिए लोभी से ज्यादा पेट भर जाये। हजार संभावनाएं हैं एक रुपये में। यही तो रुपये | दरिद्र कोई भी आदमी नहीं है। देखना, कभी देते वक्त उस पुलक की खूबी है। | को, उस उमंग को! उस घड़ी को गौर से देखना, जब तुम कुछ रुपया बड़ा अदभुत साधन है! क्योंकि अगर तुम्हें एक ही चीज देते हो! एक पैसा हो कि लाख रुपया हो, इससे कुछ फर्क नहीं पकड़नी हो....तो तुम्हें एक आदमी से अगर मालिश करवानी है पड़ता। वह रुपया न भी हो, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। तो आदमी रख लो, लेकिन फिर उस आदमी का तुम दूसरा | तुमने किसी का हाथ ही प्रेम से हाथ में ले लिया हो, तुम किसी के उपयोग न कर सकोगे। नाश्ता करना चाहो तो क्या करोगे? | पास ही दो क्षण गहरी सहानुभूति से बैठ गये हो। तुम एक फूल, सिनेमा देखने जाना चाहा तो क्या करोगे? रुपया बड़ी अनूठी जंगली फूल रास्ते के किनारे से तोड़कर किसी को दे दिये चीज है! मनुष्य की बड़ी गहरी ईजादों में एक ईजाद है रुपया। हो–उस घड़ी जरा जागकर देखना, क्या घटता है! जब तुम | इसमें सब चीजें समाई हैं। लेकिन अभी कोई भी चीज प्रत्यक्ष कछ देते हो, तब तम्हारे भीतर कैसा आविर्भाव होता है। कैसा नहीं है, सब अप्रत्यक्ष है। अभी कोई भी चीज वास्तविक नहीं है, प्रसाद ! कैसा बरसाव हो जाता है! सिर्फ संभावना है। इसलिए तो अनंत संभावनाएं रुपये में छिपी इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, जब तुमसे कोई कुछ लेने को राजी हैं। इसलिए तो लोग रुपये के लिए इतने पागल हैं; क्योंकि हो जाये तो उसका धन्यवाद भी करना। उसे देना तो, साथ में रुपया तिजोड़ी में है तो अनंत संभावनाएं हाथ में हैं। दक्षिणा भी देना। दक्षिणा यानी धन्यवाद में भी कुछ देना। लेकिन रुपया बिलकुल खाली है, जब तक उसका उपयोग न क्योंकि अगर वह इनकार कर देता तो तुम्हारा धन, धन न हो करो-है ही नहीं रुपया। उसका कोई मतलब नहीं है। तिजोड़ी | पाता। तुमने एक पैसा जाकर किसी गरीब को दे दिया, उस में बंद है तो व्यर्थ है। रुपये की सार्थकता तभी है, जब वह तुम्हारे गरीब ने लेकर तुम्हारे पैसे को पैसा बनाया; उसके पहले वह हाथ से दूसरे हाथ में जाता है। बीच में रुपया धन होता है। देने में पैसा नहीं था। उस गरीब ने उसको धन बनाया। धन्यवाद कौन धन है। भोगने में धन है। रोकने में तो धन मिट्टी हो जाता है। किसका करे? और यह सारे जीवन के धन के संबंध में सही है। वही चीज पुराने शास्त्र कहते हैं कि तुम उसे धन्यवाद में भी अब कुछ तुम्हारे पास है जो तुम दे देते हो। यह बड़ा विरोधाभास लगेगा। देना, कि तेरी बड़ी कृपा, तू इनकार भी कर सकता था; तू कहता, जो तुम्हारे पास है और तुमने कभी भी न दी वह तुम्हारे पास थी ही नहीं लेते-फिर? 239 www.jainelibrary org Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग Pos प्रेम की दुनिया में, जो लेनेवाला है वह भी कुछ दे रहा है। यही है, खूब दिया है। उनके पास खूब था, खूब है। हर रिश्तेदार को तो प्रेम का मजा है! जो लेनेवाला है वह भी कुछ दे रहा है। उन्होंने लखपति बना दिया है। हर मित्र को लखपति बना दिया देनेवाला ही नहीं दे रहा है, लेनेवाला भी दे रहा है। दोनों दे रहे है। जिसके साथ भी उनका संबंध रहा है, वह जल्दी ही लखपति हैं। और कोई घाटे में नहीं है। किसी ने धन दिया, किसी ने हो गया। लेकिन जिनने भी उनसे लिया, वे सब उनसे नाराज हैं। लिया: लेकर उसने उस धन की हंडी को स्वीकारा। अभी तक तो वे मुझसे कहने लगे, कि क्या हो गया। मेरा दुर्भाग्य कैसा हुंडी थी, अब धन हुई। उसने तुम्हें धनी बना दिया। तुम्हारी दया है? मैंने क्या कमी की, मेरा कसर क्या है? को स्वीकार करके तुम्हें दयालु बना दिया। तुम्हारे प्रेम को मैंने कहा, कसर तुम्हारा यह है, कि तुमने सिर्फ दिया और स्वीकार करके तुम्हें प्रेमी बना दिया। तुम्हारे हाथ से जब देने की उनको तुमने देने का कभी मौका नहीं दिया। तुम थोड़ा उनको भी घटना घटी, उस क्षण तुम्हारे हृदय में कोई फूल खिल गया। मौका देते। लेन-देन होता तो ठीक था। तुमने दिया ही दिया। देकर आदमी धन्यभागी होता है। और तुम अहंकारी हो। और तुम लेने पर राजी नहीं हो। तुम दाता लोभी प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम की यात्रा तो बिलकुल बने रहना चाहते हो।। उलटी है; वह बांटने की है और देने की है। लोभी सिर्फ रोकता तो अगर तुम दाता ही रहोगे तो जिसको तुमने दीन बना दिया है। लोभ एक तरह की कब्जियत है, बीमारी है। देकर, वह अगर नाराज हो तो आश्चर्य क्या? वह अगर तुम्हें लो भी, दो भी-जीवन लेना-देना है। क्षमा न कर सके तो आश्चर्य क्या? वह तुमसे बदला लेगा। अब एक और बात तुमसे कह देना चाहता हूं: कुछ लोगों को | तुमने उसके अहंकार को बड़ी चोट पहुंचा दी। ऐसी भ्रांति पकड़ जाती है या तो वे कहते हैं कि हम देंगे नहीं; मैंने कहा, कभी उनको भी मौका दो। धन की तुम्हें जरूरत या वे कहते हैं, हम लेंगे नहीं। लोभी हैं: पहले धन को पकड़ते नहीं; लेकिन हजार और चीजों की जरूरत है। जिस मित्र को थे; वे कहते थे कि हम देंगे नहीं। फिर समझ में आया कि यह तुमने लाखों दिये हैं, कभी उससे इतना ही कह दिये कि आज मुझे धन तो सब मिट्टी हुआ जा रहा है, यह तो पकड़ से ही मिट्टी हुआ | जरा कार की जरूरत है, भेज दो। वह कार तुम्हारी ही दी हुई है, जा रहा है, तो वे कहते हैं, हम देंगे, अब लेंगे नहीं। तुम ऐसे लेकिन उसे भी तो थोड़ा मौका दो कि तुम्हारे लिए कुछ कर सके। आदमी को धार्मिक कहते हो। यह आदमी धार्मिक नहीं है। यह पर वे कहने लगे, मुझे जरूरत ही नहीं है। मेरे पास ऐसे ही अधार्मिक आदमी है; क्योंकि यह किसी दूसरे को मौका नहीं देता काफी है। कि उसकी मिट्टी धन हो जाये। यह कैसी बात हुई ? परम 'कभी तुम बीमार पड़ते हो, किसी मित्र को फोन करके कहो धार्मिक तो वह है जो लेने-देने में कुशल है, दोनों में कुशल है। कि आओ, मेरे पास बैठ जाओ; तुम्हारा होना मुझे सुख देगा। यह तो धार्मिक न हुआ, अहंकारी हुआ। यह कहता है, हम तो यह भी तुमने कभी नहीं किया। तुम कुछ तो करो। तुम्हारे बेटे सिर्फ देंगे, हम ले नहीं सकते—मैं और लूं! की शादी हो तो अपने मित्रों को कहो कि आओ, तुम्हारे बिना एक बहुत बड़े धनी व्यक्ति हैं, मेरे मित्र हैं। एक दफा मेरे साथ शादी न हो सकेगी। कुछ तो करो। तुम बिलकुल पत्थर की तरह यात्रा पर गये तो अपने दिल की बातें खोलने लगे। काफी समय हो। तुम देते तो हो, लेकिन देना भी तुम्हारा अहंकार से भरा है; तक साथ था, तो छिपा न सके; कुछ-कुछ बातें करने लगे। एक क्योंकि लेने के लिए तुम्हारा हाथ कभी नहीं फैलता। इसलिए उन्होंने अपने बड़े दिल की, दुख की बात कही कि 'मैंने अपनी जिसको तुम देते हो, वही तुम पर नाराज है। जिसको तुम देते हो, जिंदगी में अपने सब रिश्तेदारों को खूब दिया, मित्रों को दिया। वही अनुभव कर रहा है कि तुमने उसे नीचे गिराया। तुमने हाथ और यह सच है, मैं जानता हूं, उन्होंने दिया। लेकिन कैसा मेरा सदा ऊपर रखा; दूसरों के हाथ सदा नीचे रखे।' अभाग्य है कि जिनको भी मैं देता हूं, वे कोई भी मुझसे प्रसन्न मेरे लिए धार्मिक आदमी वह है जो तुम्हें देता भी है और तुमसे नहीं!' और यह भी मैं जानता हूं कि जिनको भी उन्होंने दिया है, | लेता भी है-और लेन-देन बराबर रखता है। कोई क्षुद्र-सी वे सब उनसे नाराज हैं। और वे झूठ नहीं कह रहे हैं; उन्होंने दिया चीज तुमसे ले लेता है। मगर तुम्हें मौका देता है देने का भी। 240 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म प्रक्रिया हे जागरण की क्योंकि तुम भी तो खिलो! अगर देने से ही लोग खिलते हैं तो | मोतियों का हार मुझे पहनाकर वे अति प्रसन्न हो लिया। वह तुम भी तो खिलो! कोई छोटी-मोटी चीज। चीजों के मूल्यों का बार-बार मुझे धन्यवाद देने लगा कि मैं डरा हुआ था कि कहीं कोई सवाल नहीं है। कोई तुमसे इतना ही कह दे कि वह जो आप भी मना न कर दें। मैंने कहा, मैं किसी भी तरफ से कंजूस पत्थर पड़ा है, मेरे लिए उठाकर ला दो, और तुम्हें धन्यवाद दे दे, नहीं हूं। जो मेरे पास है, तुम्हें देता हूँ; जो तुम्हारे पास है, लेने को तो भी तुम भर जाओगे। क्योंकि जब भी तुम कुछ दे पाते हो, हमेशा तैयार हूं। यह बात तो जरा गलत है और अहंकार की है तभी तुम्हारी आत्मा भरती है और खिलती है। कि मैं सिर्फ दंगा, लंगा नहीं। मैं और लं। मैं और इतना छोटा हो तो मैं तुम्हारी एक भ्रांति को स्पष्ट कर देना चाहता हूं। प्रेम जाऊं कि तुमसे लूं! क्षुद्र सांसारिक पुरुषों से कुछ लूं! सिर्फ देना ही देना नहीं है। नहीं तो वह तो अहंकार हो जायेगा, मैंने कहा, तुम फिक्र छोड़ो; क्योंकि मेरे लिए कोई क्षद्र नहीं वह प्रेम नहीं होगा। प्रेम तो लेने-देने की छूट है। प्रेम तो देता भी है। परमात्मा ही दोनों तरफ बैठा है। अगर तुम्हें कुछ लगा है कि खूब है, लेता भी खूब है। प्रेम न तो इस तरफ कंजूस है, न उस मुझसे तुम्हें मिला है और तुम बेचैनी अनुभव करते हो बिना कुछ तरफ कंजूस है। प्रेम अकड़ा हुआ नहीं है। प्रेम विनम्र है। वह दिए-और ठीक है बेचैनी, अनुभव होनी चाहिए; जिसके कभी हाथ नीचे भी कर लेता है। वह कभी हाथ ऊपर भी कर देता भीतर भी धड़कता हुआ दिल है, अनुभव होगी तो तुम ले है। प्रेम लेने और देने को खेल मानता है। इस आवागमन में आना, तुम्हारे पास जो हो ले आना। मैं न तो भोगी ऊर्जा के आने-जाने में, जीवन ताजा रहता है। और खेल बड़ा हूं। मैं कृपण हूं ही नहीं। भोगी भी कृपण है, त्यागी भी कृपण महिमावान है, क्योंकि दोनों इस लेने-देने में निखरते हैं; दोनों है। एक ने भोग को पकड़ा है, एक ने त्याग को पकड़ा है। मैं बड़े होते हैं; दोनों खिलते हैं, विकसित होते हैं। सिर्फ जीवंत हूं। आओ, जाओ। तुमने मेरे लिए हृदय खोला है, सुनो! इसे गुनो! तुम त्यागियों जैसे अहंकारी मत बना जाना, | तो मेरा हृदय भी तुम्हारे लिए खुला है। और मैं तुम्हारे आंसू जो कहते हैं, हमने सब त्याग किया। ये लोभी हैं-शीर्षासन समझ सकता हूं। तुम कुछ और बड़ा लाना चाहते थे; तुम जानते करते हुए-जो कहते हैं, हम कुछ न लेंगे। | हो, कंकड़-पत्थर लाये हो। लेकिन क्या करो, तुम्हारी मजबूरी एक बड़ा अदभुत आदमी है बंबई में: रमणीक जौहरी। वह है! जो तुम्हारे पास था वही तुम लाये हो। लाने के भाव का मूल्य मेरे पास आया। वह एक मोतियों का हार बना लाया था। है; क्या तुम ले आये हो, यह थोड़े ही सवाल है! उसकी आंखों में आंसू थे। उसने मुझे हार पहनाया। उसने कहा खयाल रखना, मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि प्रेम का अर्थ कि आप मना मत करना। पर मैंने कहा, तुम रो क्यों रहे हो? होता है। बस दो। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, प्रेम का अर्थ होता वह कहने लगे, मैं खुशी से रो रहा हूं। मैंने कहा, 'तुम मुझे पूरी है: तुम भी बड़े होओ, दूसरे को भी बड़ा होने दो; तुम भी फैलो बात कहो।' दूसरे को भी फैलने दो। दो भी, लो भी। और तुम्हारे बीच वे जैन हैं, तेरापंथी जैन हैं। तो उसने कहा, मैं आचार्य तुलसी लेने-देने में एक संतुलन हो। ये दोनों पंख तुम्हें उड़ायें खुले का भक्त हूं। उसी घर में, उसी परंपरा में पैदा हुआ। उनको मैं | आकाश में। कुछ देना चाहता हूं, लेकिन वे तो कुछ ले नहीं सकते। इसलिए और जल्दी करो। लेन-देन कर लो। क्योंकि बाजार जल्दी ही मेरा कोई संबंध ही नहीं बन पाता। संबंध तो तब बनता है जब उठ जायेगा। दुकानें बंद होने का वक्त भी आ गया। सांझ होने दोनों तरफ से कुछ आदान-प्रदान हो। वे मुझसे कुछ ले ही नहीं लगी। लोग अपने-अपने पसारे इकट्ठा करने में लगे हैं। ऐसा न सकते; क्योंकि वे कहते हैं, वे त्यागी हैं। इसलिए आपसे मैंने हो कि पीछे तुम पछताओ-जब जा चुके बाजार, न कोई लेने प्रार्थना की। मैं किसी को, जो मुझसे बड़ा हो, कुछ देना चाहता को हो, न कोई देने को हो। हूं। क्योंकि उस देने में मैं भी बड़ा हो जाऊंगा, मैं भी कुछ शराबे-जीस्त अभी सेर हो के पी भी नहीं खिलूंगा। आप मना मत करना! कि सुन रहा हूं सदाए शिकस्त सागर की उस दिन जो आंसू उसकी आंखों से बहे, वे बड़े बहुमूल्य थे। | -अभी जीवन की मदिरा को तम पी भी तो नहीं पाये; लेकिन 241 . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 देखो, मदिरा-पात्र के टूटने की आवाज आने लगी! के साथ एक युवक चल रहा था। उसने कहा, 'यह माजरा क्या शराबे-जीस्त अभी सेर हो के पी भी नहीं है? इस आदमी ने तुम्हें चोट पहुंचाई; तुम उलटे उसकी लकड़ी -अभी मन भरकर पी भी नहीं पाये जीवन के मधु को, | उसको उठाकर दे रहे हो? तुम कुछ कहे ही नहीं?' कि सुन रहा हूं सदाए शिकस्त सागर की। उसने कहा, 'अब कहना क्या है ? रास्ते से गुजर रहा हूं, और -और यह तो मधु-पात्र के टूटने की आवाज आने लगी। एक वृक्ष से शाखा गिर पड़े और मेरा सिर तोड़ दे, तो क्या जन्म के साथ ही तो मधु-पात्र के टूटने की आवाज आने लगती कहूंगा? कुछ भी नहीं कहूंगा। यह क्या कहने की बात है? है। इसके पहले कि मधु-पात्र टूट जाये, पीयो, पिलाओ। लो, संयोग की बात है कि वृक्ष की शाखा ट्टने को थी और हम दो। मिलो-जुलो। फैलो, दूसरों को फैलने दो। गतिमान, | गुजरते थे। हो गया मिलन आकस्मिक, अब कहना क्या है? गत्यात्मक हो तुम्हारा जीवन! कहीं भी जकड़ा न हो; न इस इस आदमी को मारना था किसी को, हम मिल गये। वृक्ष की किनारे न उस किनारे। उठने दो लहरें इस किनारे से उस किनारे शाखा टूटी, समय पर सिर पर पड़ गई। इससे कहना क्या है? तक! आने दो लहरें उस किनारे से इस किनारे तक! तुम दोनों | और यह जो कर सकता था, वही इसने किया है; न कर सकता किनारों के बीच का फैलाव बनो! तब तुम्हारे जीवन में सम्यक होता तो करता ही क्यों? जो इसके भीतर हो सकता था, हुआ धर्म का उदय होता है। है। मैं कौन हं?' 'क्षमा से क्रोध को हरें, क्षमा से क्रोध का हनन करें, नम्रता से यह संसार मेरी अपेक्षा से चले, इससे ही तो क्रोध पैदा होता मान को जीतें, ऋजुता से माया को, और संतोष से लोभ को।' है। जिस-जिस को तुमने अपनी अपेक्षा से चलाना चाहा, उसी 'क्षमा से क्रोध को...।' जब तुम क्रोध करते हो तो क्या कर पर क्रोध होता है। इसलिए जिनसे तुम्हारी जितनी ज्यादा अपेक्षा रहे हो? क्रोध तुम्हारा एक दृष्टिकोण है। क्रोध तुम्हारा ऐसा | होती है, उनसे तम्हारा उतना ही क्रोध होता है। पत्नी पति पर दृष्टिकोण है जो तुमसे कहता है : जो नहीं होना चाहिए था वह | आग-बबला हो जाती है: हर किसी पर नहीं होती हुआ है। किसी ने कुछ कहा, क्रोध का अर्थ है : तुम यह कहते हो | पर होने का सवाल ही कहां है? अपेक्षा ही नहीं है। जिससे कि नहीं यह कहना चाहिए था। तुम्हारी कुछ और अपेक्षा थी। अपेक्षा है...। बाप बेटे पर क्रोधित हो उठता है अपेक्षा है। क्रोध के पीछे अपेक्षा छिपी है। अगर एक कुत्ता आकर भौंक बड़ी आशाएं बांधी हैं इस बेटे से और यह सब तोड़े दे रहा है। जाये तो तुम नाराज नहीं होते; क्योंकि तुम जानते हो कुत्ता है, | सोचा था, यह बनेगा, वह बनेगा, बड़े सपने देखे थे और यह भौंकेगा। लेकिन आदमी आकर भौंक जाये तो तुम नाराज हो सब उलटा ही हुआ जा रहा है। जाते हो। आदमी है तो तुम्हारी बड़ी अपेक्षा थी। __ जिससे तुम्हारी अपेक्षा है, ध्यान रखना वहीं-वहीं क्रोध पैदा क्षमा का अर्थ है : तुम्हारी कोई अपेक्षा नहीं; जो दूसरा कर रहा | होता है। जिनसे तुम्हारे कोई संबंध नहीं हैं, कोई क्रोध पैदा नहीं है, वही कर सकता था, इसलिए कर रहा है। जो गाली दे सकता होता। पड़ोसी का लड़का भी बर्बाद हो रहा है, वह भी शराब था, गाली दे रहा है। जो गीत गा सकता था, गीत गा रहा है। पीने लगा है-मगर इससे तुम्हें चिंता नहीं होती। क्षमा एक दृष्टिकोण है। क्षमा का यह अर्थ है कि हमारी कोई सुना है मैंने एक यहूदी अपने धर्मगुरु के पास गया और उसने अपेक्षा नहीं; हम हैं कौन, जो तुमसे अपेक्षा करें। मैं हूं कौन, जो | कहा, 'मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। मेरा लड़का अमरीका गया तुमसे अपेक्षा करूं कि तुम ऐसा व्यवहार करो तो ठीक, ऐसा न था, लौटकर आया तो वह ईसाई हो गया। मेरा लड़का और करोगे तो मैं क्रोधित हो जाऊंगा! ईसाई! और हम परंपरा से बड़े रूढ़िवादी यहदी हैं। यह बर्दाश्त एक झेन फकीर राह से गुजर रहा था, एक आदमी आकर नहीं हो रहा। आत्महत्या करने का मन होता है।' उसको लट्ठ मार दिया। घबड़ाहट में वह आदमी भागने को था, धर्मगुरु ने कहा, 'बहुत चिंता न करो। मेरी तो सुनो। तुम्हारा उसकी लकड़ी भी हाथ से छूट गई, तो उस फकीर ने लकड़ी तो एक लड़का है। हो गया, कोई बात नहीं है। फिर तुम कोई उठाकर उसको दे दी और कहा, भाई लकड़ी तो ले जा। फकीर धर्मगुरु नहीं हो, मैं धर्मगुरु हूं। मेरे लड़के के साथ भी यही 242 ain Education International Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JRAILER अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की - LEARNER हुआ। वह भी अमरीका गया, वहां से बिगड़कर आ गया। वह अलग है। महावीर जब कहते हैं, क्षमा करो, तो वे इतना ही कह भी ईसाई हो गया। और मैं धर्मगुरु हैं। कम से कम मेरा लड़का | रहे हैं: समझो कि तुम हो कौन गलती और सही का निर्णय तो होना ही नहीं चाहिए।' करनेवाले? अपेक्षा मत करो और क्षमा आ जायेगी। तो उन दोनों ने कहा, अब क्या करें? उन्होंने कहा, हम क्षमा क्रोध के विपरीत नहीं है क्षमा क्रोध का अभाव है। परमात्मा से प्रार्थना करें, और क्या कर सकते हैं। उन दोनों ने इसलिए क्षमा करनी नहीं पड़ती; अपेक्षा के गिरते ही हो जाती प्रार्थना की जाकर सिनागाग में, कि हे प्रभु! यह क्या दिखला रहे है। हो? मेरा लड़का...मैं प्राचीन परंपरा से यहूदी हूं, मेरा लड़का | 'क्षमा से क्रोध का हनन करें, नम्रता से मान को जीतें...।' ईसाई हो गया। दूसरे ने कहा, मैं धर्मगुरु हूं। तुम्हारा प्रतिनिधि हूँ | नम्रता का क्या अर्थ है?-अपनी स्थिति को जानना। यह इस पृथ्वी पर। कम से कम मेरा तो कुछ खयाल रखते! मेरा कोई साधना नहीं है, सिर्फ अपने तथ्य को पहचानना ः क्या है लड़का भी ईसाई हो गया। मेरी स्थिति? सांसों में अटका हूं। सांस बंद हो गई, समाप्त हो और कहते हैं, ऊपर से आवाज आई कि 'तुम बकवास क्या जाऊंगा। स्थिति क्या है? आज हूं, कल नहीं हो जाऊंगा। कर रहे हो? मेरी तो सोचो। मेरा लड़का ईसा मसीह मैंने भेजा अभी जमीन पर चल रहा हूं, कल जमीन मेरे ऊपर होगी। अभी था, वह भी...।' सबके सिर पर बैठने की कोशिश की है, कल इन्हीं के चरण मेरे अपनी-अपनी अपेक्षाएं हैं। ‘और मैं ईश्वर हूं। तुम तो ऊपर पड़ेंगे। धर्मगुरु ही हो।' नम्रता का अर्थ है: अपनी वास्तविक स्थिति को जानना कि जहां अपेक्षा है, वहां क्रोध है। क्षमा का अर्थ है : तुमने अपेक्षा | हमारा होना ही क्या है? अहंकार किस बलबूते पर? अपने को छोड़ दी। तुम हो कौन? माना, बेटा तुमसे पैदा हुआ है, लेकिन | 'मैं' कहना भी किस बलबूते पर? एक तरंग है, आई-गई! तुम हो कौन? तुम एक रास्ते थे जिससे बेटा आया। तुमने जगह | 'नम्रता से मान को जीतें, ऋजुता से माया को...।' दी आने की। तुमने बेटा बनाया थोड़े ही है, बनानेवाला कोई __ ऋजुता का अर्थ है : सरलता, प्रामाणिकता, सीधा-सादापन। और है। तुम तो केवल माध्यम थे, निमित्त थे। तुम निर्णायक तुम्हारे साधु भी तिरछे हैं, वे भी ऋजु नहीं हैं। ऋजुता का तो अर्थ थोड़े ही हो। है : बच्चे जैसा भोला-भालापन। साधु तो तुम्हारे बहुत अऋजु जो हो जाये, अपेक्षा-शून्य व्यक्ति स्वीकार कर लेता है। उसी हैं, बहुत उलटे हैं। ऋजु नहीं हैं, इरछे-तिरछे हैं, बड़े जटिल हैं। स्वीकार में क्षमा है। एक-एक बात को गणित से कर रहे हैं। अगर उपवास रखा है तो अब इसे समझना। हिसाब भी रखा है साथ में कि उपवास किया है। इस साल साधारणतः धर्मगुरु तुम्हें समझाते हैं कुछ ऐसी बात समझाते कितने उपवास किये, वह भी हिसाब है। यह परमात्मा के सामने हैं जिससे लगता है क्षमा क्रोध के उलटी है। वे ऐसा समझाते हैं | पूरे खाते-बही लेकर मौजूद होंगे। इनकी जिंदगी में सरलता नहीं कि तुम क्रोध मत करो, क्षमा कर दो इस आदमी को; इसने पाप है। इनकी जिंदगी में बड़ा गणित है। अगर क्रोध छोड़ा है, किया, क्रोध मत करो, क्षमा कर दो! लेकिन मानते वे भी हैं कि माया-मोह छोड़ा है, तो स्वर्ग पाने की आकांक्षा में छोड़ा है; इसने पाप किया; नहीं तो क्षमा क्या खाक करोगे? जब इसने | लेकिन कुछ पाने की आकांक्षा है। यह छोड़ना सीधा, साफ, कुछ गलती ही नहीं की तो क्षमा क्या करना है? क्षमा तो गलत सरल नहीं है। हो गया, तभी की जाती है। तो फिर क्रोध और क्षमा में एक बात ऋजुता बड़ा बहुमूल्य शब्द है-सीधी लकीर की तरह। दो तो समान रही कि इसने गलती की है। कोई क्रोध करता है गलती | बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, निकटतम दूरी है वह पर, कोई क्षमा करता है गलती पर; लेकिन गलती दोनों स्वीकार लकीर है। निकटतम! अगर जरा लंबा किया तो इरछा-तिरछा कर लेते हैं। | हो जायेगा। दो व्यक्तियों के बीच जो निकटतम दूरी है, वह मेरी क्षमा का अर्थ और महावीर की क्षमा का अर्थ बिलकुल ऋजुता है। दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, वह लकीर 243 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 जिन सूत्र भाग: 1 है, पंक्ति है, रेखा है। जब कोई व्यक्ति तुमसे कुछ पूछता है, तब तुम दो तरह का व्यवहार कर सकते हो या तो इरछे-तिरछे जाओ, गली-कूचों से घूमो, सीधे न जाओ, सीधी बात न करो, चालबाजी चलो; कुछ कहना चाहते हो, कुछ कहो; कुछ बताना चाहते हो, कुछ बताओ । । कहते हैं, मुल्ला नसरुद्दीन बचपन से ही उलटी खोपड़ी था उलटी खोपड़ी यानी उससे जो भी कहो, वह उससे उलटा करेगा | तो मां-बाप समझ गये थे। क्या करोगे, अब उलटी खोपड़ी है...। तो उसको वे वही कहते जो वे चाहते थे कि वह न करे । और जो वे चाहते कि वह करे, उससे उलटा कहते। जैसे अगर उनको चाहिए कि वह चुप बैठे तो वे कहते, 'बेटा! जरा शोरगुल कर ।' तो वह चुप बैठ जाता। समझ गये एक दफे गणित, तो वे वैसे ही चलते। एक दिन बाप बेटे के साथ लौट रहा था, नदी पार कर रहे थे । गधे पर शक्कर के बोरे लादे हुए थे। बीच नदी में बाप ने देखा कि बोरे बाईं तरफ झुके जा रहे हैं। नसरुद्दीन के गधे पर जो बोरे बाईं तरफ झुके जा रहे हैं। तब वह चाहता था कि बेटा उन्हें दाईं तरफ थोड़ा सरकाये। लेकिन वैसा कहो कि दाईं तरफ सरकाओ तो तो वह कभी सरकायेगा नहीं। तो उसने कहा, 'बेटा, बोरों को जरा बाईं तरफ सरका।' बाईं तरफ वे खुद ही सरक रहे थे। मगर उस दिन चकित होकर बाप को देखना पड़ा कि बेटे ने उनको बाईं तरफ ही सरका दिया । सब बोरे नदी में गिर गये। बाप ने कहा, 'यह तेरा व्यवहार आज कुछ संगत नहीं!' उसने कहा, 'अट्ठारह साल का हो गया; अब मैं भी समझने लगा तरकीब । अब तो तुम जो कहोगे, उसके उलटा न करूंगा; अब तो तुम जो चाहते हो, उसके उलटा करूंगा।' दो बिंदुओं के बीच जो सीधी रेखा है, वही ऋजुता है । जो कहना है, जो करना है, जो चाहना है - वही कहो। जो कहते हो वही हो जाओ : ऋजुता का अर्थ है । नहीं तो उलटा होता है। तुम जाते हो किसी के पास, तुम कहते हो...। तुम हंस रहे हो इस बात पर, लेकिन अगर खोजोगे तो इस उलटी खोपड़ी को हर खोपड़ी में छिपा हुआ पाओगे। तुम किसी के पास जाते हो, तुम कहते हो कि आप के चरण की धूल हूं, मैं तो कुछ भी नहीं! तुम चाहते यह हो कि वह कहे, 'अरे आप और चरण की धूल ! आप बड़े महापुरुष हैं।' अब समझो कि वह दूसरा आदमी कहे कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, चरण की धूल तो हैं ही, इसमें कहने का क्या है ! तो आप नाराज हो जायेंगे कि हद्द हो गई; इस आदमी को शिष्टाचार भी नहीं आता ! तुम जरा खयाल करना, तुम्हारी जिंदगी में यह उलटी खोपड़ी काफी समायी हुई है। तुम चाहते कुछ और हो, कहते कुछ और हो । यह धोखा फैला चला जाता है महावीर कहते हैं, 'ऋजुता से माया को. ।' वह जो कपट है, तिरछापन है, उसको ऋजुता से जीत लो। क्योंकि जितने तुम कपट से भरते जाओगे, उतनी जीवन में उलझन होगी; उतना तुम्हारा जीवन पांखों में कट जायेगा । सरल व्यक्ति शांत होता है। देखा तुमने ! जब भी तुम झूठ बोलते हो, तभी अशांति होती है। क्योंकि फिर याद रखना पड़ता है झूठ को कि किससे क्या बोले । जो आदमी झूठ ही बोलता रहता है सबसे, उसका जरा हिसाब तो समझो। एक बात तो माननी पड़ेगी, उसकी स्मृति की दाद देनी पड़ेगी। याददाश्त तो देखो! याद रखना पड़ता है। सत्य को याद रखने की कोई भी जरूरत नहीं है । जो व्यक्ति सचाई से जीता है, उसे याददाश्त की जरूरत ही नहीं है; क्योंकि सच हमेशा वही का वही है। लेकिन लेकिन बाप भी आखिर नसरुद्दीन का बाप ! उसने भी तरकीब तुमने एक से कुछ कहा, दूसरे से कुछ कहा, तीसरे से कुछ निकाल ली। अब बात और भी तिरछी हो गई। कहा— फिर हिसाब रखना पड़ता है, पहले से क्या कहा, दूसरे से क्या कहा, तीसरे से क्या कहा । अगर बाप को चाहिए कि बोरे दाएं तरफ सरकाये जाएं, तो पहले तो वह कहता था कि बाएं तरफ सरकाओ; अब अगर दाएं तरफ ही सरकवाना हो तो कहना पड़ता है कि दाएं तरफ सरकाओ। क्योंकि बेटा सोचेगा, यह बाएं तरफ सरकवाना चाहता है, इसलिए दाएं तरफ सरकवायेगा। अब और तिरछी हो गई बात। गणित और उलझ गया। मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था । बहुत कम लोग हैं जो एक स्त्री के प्रेम में हों । द्वैत हमारा सभी जगह होता है। तो एक स्त्री से कहता है कि तुझसे सुंदर इस जगत में कोई भी नहीं; दूसरी से भी यही कहता है कि तुझसे सुंदर इस जगत में कोई नहीं। दोनों बातें झूठ थीं। कम से कम एक तो झूठ थी ही। एक Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की दिन संयोग की बात, दोनों स्त्रियां साथ मिल गईं और दोनों को सार क्या! अगर जंगल में जाकर राजा हो गये, जहां कोई आदमी शक तो था ही। उन्होंने नसरुद्दीन से पूछा, 'अब कहो कि कौन नहीं, तो जंगली जानवरों के बीच राजा होने का सार क्या! इससे स्त्री दुनिया में सबसे ज्यादा सुंदर है?' तो डिप्टी कलेक्टर होना अच्छा, पुलिस इंसपेक्टर होना अच्छा, नसरुद्दीन थोड़ा झिझका। उसने कहा कि तुम एक-दूसरे से | पटवारी होना अच्छा लेकिन कम से कम अपने गांव में! जहां ज्यादा सुंदर हो! कोई जानता है, पहचानता है, वहीं अकड़ का मजा होता है। एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर! आदमी तरकीब निकाल ही लेता उन्हीं के सामने तो हम सदा सिद्ध करना चाहते हैं कि देखो, तुम है। लेकिन हम झूठ बोलते चले जाते हैं। जाल उलझता चला वहीं के वहीं रह गये, हम कहां पहुंच गये, जिनके साथ हमने जाता है। धीरे-धीरे तो बहुत बार झूठ बोलकर ऐसी हालत आ | यात्रा शुरू की थी! अब अर्जुन इन्हीं के साथ बड़ा हुआ, यही जाती है कि हमें भी लगता है कि शायद यही सच होगा; क्योंकि भाई-बंधु, इन्हीं के साथ जिंदगी का दांव था, इन्हीं के साथ सारी इतने दिन से बोल रहे हैं, याद भी नहीं आती कि कब शुरू किया स्पर्धा थी बचपन से लेकर अब तक, यही सब खतम हो था। बहुत बार बोलने से, बहुत बार पुनरुक्त होने से झूठ स्वयं जायेंगे-फिर सिंहासन पर भी बैठ जाओगे, तो आसपास गिद्ध को भी सच जैसा मालूम पड़ने लगता है। तब तुम अऋजु हो बैठे होंगे, सियार आवाज कर रहे होंगे और अजनबी साधरण-से गये। तब तुम अर्जुन हो गये-अऋजु! लोग होंगे जिनसे तुम्हारी कोई झंझट ही न थी, कोई प्रतिस्पर्धा न कृष्ण की पूरी चेष्टा गीता में, इरछे-तिरछे अर्जुन को सीधा थी, जिनका होना न होना बराबर होगा। तो अर्जुन के मन में उठी करने की है। नाम 'अर्जुन' का बड़ा सार्थक है। कृष्ण की पूरी तो है असल में अहंकार की बड़ी गहरी पकड़, बड़ा मोह। इन्हीं चेष्टा यही है कि तू सीधा-साफ हो; क्षत्रिय है, क्षत्रिय की बात के सामने तो सिद्ध करने का मजा है। दुर्योधन रहे, और हम बोल। अचानक, यह अर्जुन कभी भी अहिंसा की बात नहीं जीतें। भीष्म पितामह रहें, और देखें कि अर्जुन सिंहासन पर है। बोला था, आज अचानक अहिंसा बोलने लगा। और अहिंसा और ये सारे कर्ण, और ये सारे संबंधी पराजित खड़े हों, तो ही इसकी सच्ची नहीं है। क्योंकि अगर ये इसके प्रियजन न होते, मजा है। नहीं तो मजा क्या है? उठा तो यह था, लेकिन बात संबंधी न होते, भाई-भतीजे, गुरु, पितामह, चचेरे, सब तरह के, | उसने दसरी की। उसने कहा कि मैं मारना नहीं चाहता, हिंसा तं मौसी, मामा के रिश्तेदार, सब इकट्ठे थे—अगर ये इसके अपने बड़ा पाप है! आज तक हिंसा ही करता रहा, मांसाहारी; आज न होते, अपनों को देखकर यह जरा डरा। इसने कहा कि यह तो अचानक अहिंसक हो गया! कृष्ण को धोखा देना संभव न था। सब अपनों को ही मार डालूंगा। | वे अर्जन को खींच-खींचकर सीधा करने लगे। अब यह थोड़ा सोचने जैसा है। अर्जन को सवाल उठा कि | गीता पूरी की पूरी अर्जुन को ऋजु बनाने की चेष्टा है। वे आदमी धन भी कमाता है, पद भी कमाता है, सिंहासन पर भी| उसको पकड़-पकड़कर सीधा कर रहे हैं कि जरा अकल ला, बैठता है, तो मजा तो तभी आता है जब अपने देखने को मौजद वापिस लौट, कहां की बातें कर रहा है? संन्यास तुझे सोहता हों। तुम अगर दूसरे किसी गांव में जहां तुम्हें कोई भी नहीं नहीं। यह तेरे भीतर की बात नहीं। अन्यथा इतने दिन तक कौन जानता, सम्मानित भी हो जाओ तो तुम्हें वह मजा न आएगा जो तुझे रोकता था संन्यास लेने से? आज अचानक युद्ध के मैदान अपने गांव में सम्मानित होकर आयेगा। दूसरे गांव में जहां कोई | पर संन्यास की भाषा उठने लगी है। इस संन्यास में कहीं कुछ जानता ही नहीं, वहां सम्मानित भी हो गये तो क्या खाक | और छिपा है। सम्मान! तुम्हारी इच्छा उस दूसरे गांव में यह होगी कि अपने तुम अपने भीतर ऋजुता को खोजना। जब भी तुम कुछ कहो नाये कि कैसा सम्मान मिल रहा है, कैसी तो जरा गौर से देखना, तुम यही कहना चाहते हो? यही तुम्हारी प्रतिष्ठा मिल रही है! अगर तुम्हें ऐसा कुछ हो कि तुम दुनिया के गहनतम आकांक्षा है या इससे विपरीत? तो जो सीधा-साफ हो, सम्राट हो जाओगे, लेकिन तुम्हें जाननेवाले सब मर जायेंगे, तो उसी को धीरे-धीरे साधना। तुम भी अर्जुन की हालत में खड़े हो जाओगे। तुम भी सोचोगे, | ऋजुता से जटिलता कट जाती है, माया हार जाती है। संतोष 245 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 जिन सूत्र भाग: 1 से लोभ जीत लिया जाता है। जो तुम्हारे पास हो, उसमें आनंदित, उसमें मग्न होना। संतोष का अर्थ है: इतना मिला है, थोड़ा धन्यवाद तो दो! इतना मिला है, अनुग्रह तो मानो ! आंखें हैं कि तुम रोशनी देख सके, कि सूरज में खिले फूल देख सके, कि वृक्षों की यह हरियाली देख सके ! जरा सोचो तो, अंधे भी हैं दुनिया में, जिन्हें रंग नहीं दिखाई पड़े ! और जिन्होंने रंग न जाना, उन्होंने क्या खाक दुनिया जानी! जिन्हें रूप न दिखाई पड़ा, जिन्हें चेहरा और आंखों में जो परमात्मा प्रगट होता है उसकी कोई झलक न मिली...! तुम्हारे पास कान हैं, तुम गहनतम संगीत को सुनने में समर्थ हो, पक्षियों का नाद, नदी की कलकल, सागर में उठे तूफानों की दहाड़, बादलों की गड़गड़ाहट ! जरा सोचो तो कि जिनके पास कान नहीं हैं, उनका जीवन कैसा खाली-खाली, सूना-सूना होगा ! जहां कोई ध्वनि नहीं गूंजी, कैसा मरुस्थल जैसा होगा ! कितना तुम्हें मिला है! इन पांचों इंद्रियों से कितनी वर्षा तुम पर हुई है ! इस भीतर के बोध से कितने आनंद के द्वार खुले हैं, खुलते रहे हैं! एक बंद हुआ है तो दूसरा खुला है ! लेकिन नहीं, लोभी कहता है, इसमें क्या धरा है ? तिजोड़ी! धन! जो मिला है उसकी तो फिक्र नहीं करता; जो नहीं मिला है उसकी दौड़ में, आपाधापी में नष्ट होता है। दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक – जिनकी नजर उसको ही देखती है, जो नहीं मिला है। वे लोभी हैं। दूसरे - जिनकी नजर वही देखती है, जो मिला है। वे संतोषी हैं। और संतोषी को बहुत मिलता है। क्योंकि मिलने पर उसकी नजर होती है, तो और मिलता है। और लोभी को कुछ भी नहीं मिलता, क्योंकि न मिलने पर उसकी नजर होती है । न मिलना ही बढ़ता जाता है। लोभ से और लोभ बढ़ता है। संतोष से और संतोष बढ़ता है। जो थोड़ा संतोष में डूबेगा वह पायेगा तब एक परम तृप्ति, एक अहर्निश शांति की वर्षा होने लगती है ! तब तुम पहली दफा पाते हो : जीवन क्या है ! और कितने अहोभागी हैं कि हम हैं ! तब होना मात्र ही इतनी बड़ी संपदा है कि और कुछ चाहने की बात ही नादानी है। 'जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।' अध्यात्म यानी जागरण की प्रक्रिया; आत्मवान होने का शास्त्र। जैसे कछुआ सिकोड़ लेता है अपनी इंद्रियों को; जहां-जहां पाता है भय है, जहां-जहां पाता है चिंता है, वहीं भीतर सिकुड़ जाता है, अपनी गहरी सुरक्षा में डूब जाता है - ऐसे ही जहां-जहां तुम्हें लगे भय है, दुख है, पीड़ा है, असंतोष है, महावीर कहते हैं, संतोष से लोभ को जीत लो। जरा देखो जो अभाव है, चिंता है, संताप है, वहां-वहां से अपने चैतन्य को मिला है। उस पर नजर लाओ जो मिला है। हटा लेना। और अंतरात्मा की गहनता में सब है जो तुम पाना चाहते हो । यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब का तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर। होश को सम्हालो ! यहां भरोसा मत करो। यहां बड़े धोखे भरे पड़े हैं। यहां अब तक तुम जिन चीजों में डोले हो, सभी में धोखा है। यहां जिंदगी की तो बात छोड़ो, मौत भी धोखा दे जाती है। क्योंकि मौत भी कहां मौत सिद्ध होती है, फिर पैदा हो जाते हो! यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब काफिले या मिट गए या बढ़ गए अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। वे जो वासनाओं के, असंतोष के, अतृप्तियों के, लोभ के, कामनाओं के काफिले थे— काफिले या मिट गए या बढ़ गए- या तो मिट गये, या कहीं और हट गये । अब गुबारे-राह भी उठता नहीं। - अब तो रास्ते पर गुबार भी नहीं है। काफिलों के बीत जाने के बाद जो थोड़ी गुबार उठती रहती है, वह भी नहीं है। ध्यान रखना, भोग जब बीत जाता है तो त्याग की गुबार रह जाती है। भोग का काफिला तो निकल जाता है, तब त्याग की धूल रह जाती है। लेकिन परम शांति तभी मिलती है, जब भोग भी गया, त्याग भी गया। काफिले या मिट गए या बढ़ गए अब गुबारे - राह भी उठता नहीं । का तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर। यह सब फरेब है नजरे - इम्तियाज का दुनिया में वरना कोई भी अच्छा-बुरा नहीं। न यहां कुछ अच्छा है, न बुरा है। अच्छा तुमने समझा कुछ — मोह पैदा हुआ, राग पैदा हुआ। बुरा समझा कुछ --- द्वेष पैदा हुआ, विराग पैदा हुआ। यहां न कुछ अच्छा है, न बुरा है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की सब दृष्टि की बात है। तुम दृष्टि को भीतर मोड़ लो, एक गहन याद रखोगे; रखोगे, रखोगे, धीरे-धीरे याद पकेगी, मजबूत संतुलन पैदा होता है, जहां बुरा और अच्छा सब मिट जाता है, न होगी। फिर बीज से ही वह जो गलत है, तुम्हारे भीतर प्रवेश न कोई मित्र न कोई शत्रु। कर पायेगा। 'जान या अजान में कोई अधर्मकार्य हो जाये तो अपनी आत्मा उसके चक्कर में दुबारा तो मैं आने का नहीं को तुरंत उससे हटा लेना चाहिए। फिर दूसरी बार वह कर्म न ढूंढती फिरती है क्यों गर्दिशे-दौरां मुझको। किया जाये।' -अब संसार के चक्कर में दुबारा आने का नहीं है। एक बार जान या अजान में अधर्मकार्य हो जाये तो तुरंत, उसे पूरा भी | होश सम्हला, फिर कितना ही ढूंढे संसार की विपत्तियां तुम्हें, मत करना! अगर क्रोध करने के क्षण में आधा वचन बोले थे फिर कितना ही लोभ के विषय तुम्हारे चारों तरफ खड़े रहें, और गाली का और याद आ जाये तो आधा ही बोलना और क्षमा मांग कामवासना के लिए कितनी ही अप्सराएं तुम्हें निमंत्रण देती लेना; उसे पूरा भी मत करना। रहें-नहीं, फिर तुम न जा सकोगे। जो जागने लगता है, होश अगर वासना में एक कदम उठ गया था और दूसरा उठने को करने लगता है, अपने जीवन की स्थिति को जांचने-परखने था और याद आ जाये तो जो नहीं उठा है, उसे मत उठाना; जो लगता है, स्वाभाविक है कि जहां आग है वहां से हाथ खींच ले। उठ गया है, उसे वापिस मोड़ लेना। इश्क बाबस्तए-जंजीरे-जुनूं कब है 'रविश' बहुत सम्हलकर चलोगे तो ही पहुंच पाओगे। रास्ता बड़ा _हस्ने-खुदबी की तमन्ना है तो खद होश में आ। कंटकाकीर्ण है, चढ़ाव भारी है और तुम्हारी आदत उतरने की, । तुम्हारी अंतरात्मा, तुम्हारा गहन हृदय किसी जंजीर में बंधा फिसलने की है। तुम तो धर्म से भी फिसलने का उपाय खोज | हुआ नहीं है। तुम्हारा प्रेम कारागृह में बंद नहीं है। सिर्फ तुम लेते हो। बेहोश हो। अगर वास्तविक सौंदर्य का अनुभव करना है तो बस एक व्यक्ति ने डाक्टर से पूछा, 'आखिर मझे हआ क्या है?' । एक काम कर लो'आप बहुत अधिक खाते हैं', कहा डाक्टर ने, 'बहुत शराब हुस्ने-खुदबी की तमन्ना है तो खुद होश में आ। पीते हैं, और सुस्त हैं, महाकाहिल, महासुस्त हैं। यही आपकी | -बस होश में आ जाओ। बेहोशी ही तुम्हारा कारागृह है। बीमारी है।' वही तुम्हारी जंजीरें हैं। उस आदमी ने कहा, 'डाक्टर साहिब! कृपा करके इसे अपनी महावीर का सर्वाधिक जोर होश पर है। बेहोशी पाप है, होश डाक्टरी भाषा में लिख देंगे, जिससे मैं दफ्तर से एक महीने की पुण्य है। छुट्टी प्राप्त कर सकू!' 'संपूर्ण परिग्रह से मुक्त, शांतिभूत, शीतिभूत, प्रसन्नचित्त सुस्त है, शराब पीता है, अतिशय खाता है उसमें से भी एक श्रमण जैसा मुक्ति-सुख पाता है, वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नहीं महीने की छुट्टी निकालने की आशा रखता है, तो और सुस्ती मिलता।' बढ़ेगी, और खायेगा, और पीकर पड़ा रहेगा। लेकिन डाक्टरी अगर तम सम्राट भी हो जाओ सारे संसार के, छहों द्वीप के भाषा में लिख दें, क्योंकि सुस्ती से तो बात चलेगी नहीं। चक्रवर्ती हो जाओ, तो भी तुम उस सुख को न पा सकोगे जो उस शास्त्र तुम्हारे लिए डाक्टरी भाषा सिद्ध होते हैं। तम उनमें से भिक्ष को मिलता है, उस श्रमण को, या उस ब्राह्मण को जो अपना मतलब निकाल लेते हो। उनसे भी फिसल जाते हो। परिग्रह से मुक्त, लोभ से मुक्त, शीतिभूत, भीतर शांत हुआ, जान या अजान में कोई अधर्मकार्य हो जाये तो अपनी आत्मा | न मकाइ अधमकाय हो जाये तो अपनी आत्मा | शीतल हुआ, प्रसन्नचित्त! को तुरंत उससे हटा लेना चाहिए। फिर दूसरी बार वह कार्य न ये सारे सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं। जीवन में तुमने अभी गर्मी जानी किया जाये। और एक बार जहां भल दिखाई पड़ गई हो, आधे में | है, शीत नहीं जानी। जीवन का तमने एक ही काल जाना दिखाई पड़ी हो, तो वहीं से लौट आना चाहिए। और फिर दुबारा | है-ऊष्ण; अभी शीतल क्षण नहीं जाने। अभी तुम उबले हो, स्मरण रखना चाहिए कि इस यात्रा पर दुबारा कदम न उठे। ऐसा | जले हो, शांत नहीं हुए, ठंडे नहीं हुए। धीरे-धीरे अपने को 247 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः शीतल करो, शांत करो। जो-जो चीज तुम्हें उबालती हो, ईंधन कहते हैं। तो उन्होंने जितनी जिंदगी के खिलाफ बातें कही हैं, बनती हो तुम्हारी वासना में, तुम्हें जलाती हो, उससे धीरे-धीरे हमेशा याद रखना, तुम्हारी जिंदगी के खिलाफ कही हैं। जिंदगी जागो और दूर हटो। तो तुम उस शांति को, उस मुक्ति-सुख को | जो कहीं गलत हो गई, जहर हो गई; जिंदगी जो कहीं रोग हो पाने में समर्थ हो जाओगे, जो सारे संसार का मालिक भी कोई हो गई; जिंदगी जो कहीं विक्षिप्त हो गई उसके खिलाफ कही हैं। जाये तो नहीं पाता। अपने मालिक होकर ही पाया जाता है वह। | और इसीलिए खिलाफ कही हैं, ताकि असली जिंदगी की तलाश कहीं से ढूंढ़ कर ला दे हमें भी ऐ गुलेतर! | में तुम निकल सको। इसीलिए कही हैं, ताकि तुम्हें अगर तुम्हारी वोह जिंदगी, जो गुजर जाए मुस्कुराने में। जिंदगी दुख मालूम पड़े, तो तुम जागो। लेकिन किसी से मांगने से वह जिंदगी न मिलेगी। वह जिंदगी दुख जगाता है। दुख की याद आने लगे, समझ आने लगे, तो तो तुम खोजोगे तो ही, बनाओगे तो ही। तुम वही पाओगे, जो फिर सुख की दिशा की खोज पैदा होती है। महावीर बना लोगे। आत्मा तुम्हारा निर्माण है, तुम्हारा सृजन है। जीवन-विपरीत नहीं, विरोध में नहीं। महावीर महाजीवन के कौन कहता है ख्वाबे-रायगां है जिंदगी पक्षपाती हैं। खोटे सिक्कों के विरोध में हैं, क्योंकि असली ऐ अमीने होश! कैफे-जाविदां है जिंदगी सिक्के मौजूद हैं और तुम खोटे सिक्कों से अपने को भरमाये चले जादा पैमा, कारवां-दर-कारवां है जिंदगी जाते हो। जागो! जिंदगी मौजे-रवां, जए-रवां, बहरे-रवां -किसने कहा कि जीवन व्यर्थ है। आज इतना ही। कौन कहता है ख्वाबे-रायगां है जिंदगी। किसने कहा कि जिंदगी सपना है! होशवाले! थोड़ा होश को सम्हाल! ऐ अमीने होश! कैफे-जाविदा है जिंदगी। जिंदगी तो परम आनंद है, स्थायी आनंद है। जादा पैमां, कारवां-दर-कारवां है जिंदगी! यह तो एक यात्री-दल है जीवन-यात्रा पर निकला, प्रतिक्षण गतिमान। जिंदगी मौजे-रवां, जूए-रवां, बहरे-रवां। जीवन आनंद की लहर है! आनंद की सरिता है! आनंद का सागर है। लेकिन उनके लिए ही, जिन्होंने अपने को कछए की भांति सिकोड़ लिया; उनके लिए ही, जिन्होंने अपने को जगा लिया। और जिनको जीने का यह ढंग नहीं आता, वे जीवन के विपरीत बातें करने लगते हैं; उनसे सावधान रहना! महावीर जीवन के विपरीत नहीं हैं। महावीर तुम्हारे तथाकथित जीवन के विपरीत हैं, ताकि तुम असली जीवन को पा सको। न आया जिसे शेवए-जिंदगी वही जिंदगी से खफा हो गया। और जिसको भी जिंदगी जीने का ढंग न आया, वही नाराज हो गया। नाराजगी धर्म नहीं है-समझ, होश। महावीर महासुख के पक्षपाती हैं। उस महासुख को ही वे मोक्ष 248 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रवचन संकल्प की अंतिम निष्पत्तिः समर्पण Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on 2 C.Sc.SC. GON प्रश्न-सार मुझसे न समर्पण होता है और न मुझमें संकल्प की शक्ति है। और आपसे दूरी भी बरदाश्त नहीं होती। क्या करूं? आपका कहना है कि प्यास है तो जल भी होगा ही, और प्यासा ही जल को नहीं खोजता, जल भी प्यासे को खोजता है...? मेरा मार्ग-निर्देश करें। आश्चर्य है कि मैं आपके प्रति अनाप-शनाप बकता हूं, कभी-कभी गाली भी देता हूं। यह क्या है? मेरी विचित्र धारणाओं के कारण आप मुझे भगवान जैसे नहीं लगते...? मेरी दिनचर्या आनंदचर्या बन गयी है। अब पिघलूं और बहू-बस यही कह दें! Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न : मुझ से न समर्पण होता है और न मुझ | कर-करके नर्क ही बनाया, और कुछ न बनाया-जब यह पीड़ा । में संकल्प की शक्ति ही है; बीच में उलझा हूं। सघन होगी, जब तुम पूरे असहाय मालूम पड़ोगे, उस असहाय -आपने तो मेरे लिए बड़ी झंझट खड़ी कर दी है। क्षण में ही समर्पण घटित होता है। वह तुम्हारा कृत्य नहीं है। वह हाल यह है कि आपसे दूरी भी बरदाश्त नहीं होती, क्या करूं? | तुम्हारे कृत्य की पराजय है। हारे को हरिनाम! जब तुम्हारी हार बेइख्तियार मांग ली तेरे सितम की खैर इतनी प्रगाढ़ हो गई कि अब जीत की कोई आशा भी न बची; उठते नहीं हैं हाथ अब दस्ते-दुआ के बाद। जब तुम्हारी हार अमावस की अंधेरी रात हो गई कि अब एक किरण भी अहंकार की शेष नहीं रही, अब तुम्हें लगता नहीं है कि संकल्प तो किया जाता है-समर्पण होता है। इसलिए ऐसा तुम कुछ कर पाओगे-पराजय की परिपूर्णता में समर्पण घटित प्रश्न तुम उठा ही न सकोगे कि समर्पण नहीं होता। समर्पण | होता है। तुम्हारी शक्ति की बात नहीं है। इसलिए ऐसा प्रश्न तो बुनियाद पूछा है कि 'मुझसे न समर्पण होता है, न संकल्प की शक्ति ही से ही गलत है कि समर्पण की मझमें शक्ति नहीं है। मुझमें है।' दूसरी बात तो ठीक हो सकती है कि संकल्प की इसे ठीक से समझना। शक्ति न हो; पहली बात ठीक नहीं हो सकती। और अगर समर्पण कोई कृत्य नहीं है, जो तुम कर सको। समर्पण तो ऐसी पहली बात ठीक नहीं है तो दूसरी भी पूरी ठीक नहीं हो सकती। चित्त की दशा है, जहां तुम पाते हो कि अब मुझसे तो कुछ भी तुम कहते हो, संकल्प की मुझमें शक्ति नहीं यह भी तुम कहते नहीं होता। जरा भी आशा बनी रही कि मुझसे कुछ हो सकता है हो, मानते नहीं। ऐसा तुम जानते नहीं। कहीं भीतर अभी भी तो समर्पण न होगा; तो तुम्हारा अहंकार बचा है। तुम सोचते हो, | आशा बची है। कोई किरण तुम सम्हाले हुए हो। तुम सोचते हो, अभी संभव है कि मैं कुछ कर लूं। लेकिन जब तुम्हारा अहंकार | इस बार नहीं हुआ, अगली बार होगा; आज नहीं हुआ, कल हो सभी तरफ से जराजीर्ण होकर बिखर जाता है; जैसे कोई पुराना जायेगा। आज हार गया, वह अपनी शक्ति की कमी के कारण भवन गिर गया हो; जैसे कोई पुराना वृक्ष, जड़ टूट गई, उखड़ नहीं; परिस्थिति अनकल न थी। आज हार गया, क्योंकि भा गया हो—जिस दिन तुम्हारा अहंकार परिपूर्ण रूप से गिर जाता | ने साथ न दिया। आज हार गया, क्योंकि मैंने चेष्टा ही पूरी न है और तम्हें लगता है: मेरे किये कछ भी न होगा, क्योंकि मेरे की। यदि मैं चेष्टा परी करता, ठीक सम्यक महर्त चनता. तो किये अब तक कुछ न हुआ। जब तुम्हारे करने ने बार-बार हार | बराबर जीतता। खायी; जब तुमने किया और हर बार असफलता हाथ लगी; | सभी हारे हुए हार को समझा लेते हैं। हार को स्वीकार कौन जब कर-करके तुमने सिर्फ दुख ही पाया, और कुछ न पाया; | करता हूं! हारा हुआ समझा लेता है कि लोग विरोध में थे। हारा 253 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र हुआ समझा लेता है कि चेष्टा पूरी न हो सकी। कि कर सकते थे। अगर वह भाव रहा तो समर्पण न हो पायेगा। एक हाथी खड़ा था। और हाथी के पास, पैरों के पास, सुबह ऐसा ही दिखता हैकी धूप थी। सूरज निकला था। सर्दी के दिन थे। एक चूहा बैठा क्या शै है मुहब्बत भी कुहसार को ढाए है था, वह भी धूप ले रहा था। ऐसे साधारणतः हाथियों को चूहे | तिरतों को डुबोये है, डूबों को तिराए है। दिखायी नहीं पड़ते, लेकिन खाली खड़ा था हाथी, कुछ काम भी | तुमने देखा, कभी कोई मर जाता है तो नदी पर तैर जाता है! न था, इधर-उधर देख रहा था, सुबह की धूप ले रहा था-चूहा जिंदा डूब गया था, मरकर तैर जाता है। मुर्दे को कोई तरकीब दिखाई पड़ा। उसने कहा, 'अरे! आश्चर्य! इतना छोटा प्राणी, | पता है जो जिंदे को पता नहीं थी। अगर जिंदा भी मुर्दे की भांति हो कभी देखा नहीं।' चूहे ने कहा, 'आप गलत न समझें। मैं जरा जाता तो नदी ने तैरा दिया होता, तो नदी डुबाती न। अगर जिंदा कुछ दिनों से बीमार हूं।' ने भी स्वीकार कर लिया होता कि चलो राजी हैं, डुबाओ; तो छोटा कौन है। थोड़े दिनों से बीमार हूं। जरा तबियत नासाज | नदी डुबाती न। जो राजी है उसे कौन डुबाता है! वह जो डूबना है, इसलिए छोटा दिखाई पड़ रहा हूं। नहीं चाहता, जो प्रतिरोध करता है, संघर्ष करता है, नदी उसी को तुमने भी नहीं समझा लिया है हजारों बार अपने को? डुबा देती है। तुम लड़ो मत! समझाना छोड़ो! उस समझाने में ही, उस तर्क में ही, तुम्हारा | मगर यह न लड़ने की घटना तभी घटेगी जब तुम्हारे लड़ने की अहंकार शेष रह जाता है। जिस दिन तुम अपनी हार को स्वभाव वृत्ति पूरी तरह पराजित हो जाये; रत्ती मात्र भी आशा शेष न रहे। समझ लोगे कि मेरे किये होगा क्या...नहीं कि मैं आज कमजोर तुम गहन निराशा में गिरो। वहीं से सुबह है समर्पण की। हूं, कल बलशाली हो जाऊंगा। नहीं कि मुझे ठीक विधि का पता संकल्प जहां हारता है, वहां समर्पण है। जीत गये तो जीत गये; नहीं है, कल पता चल जायेगा। नहीं कि आज भाग्य ने साथ न न जीते तो भी हारे नहीं, क्योंकि फिर हार में से जीत निकल आती दिया, कल देगा। कोई हर्ज नहीं, एक बार हारे तो सदा थोड़े ही है। इसलिए धर्म के मार्ग पर जानेवाला कभी, कभी भी हारता तो हारेंगे। कभी तो भाग्य बरसेगा! कभी तो किस्मत साथ होगी! है ही नहीं; जीतता है तो जीतता है, हारता है तो जीतता है। कभी तो परमात्मा भी दया करेगा! किये जाओ! | परमात्मा की तरफ जानेवाला हर हालत में पहुंचता है। क्योंकि नहीं, अहंकार नपुंसक है स्वभाव से। उसके किये कुछ होता सभी रास्ते उसकी तरफ जाते हैं। ही नहीं। | जिन मित्र ने पूछा है, उनकी अड़चन यह है कि संकल्प का पूरा तो मैं तुमसे कहंगा कि तुम संकल्प कर ही लो; जितना तुमसे | प्रयोग नहीं किया, और उस कमी को समर्पण से पूरा करना लो। हारो पूरी तरह। हार में विजय छुपी है। चाहते हैं। संकल्प पूरा नहीं हुआ, तो समर्पण कैसे पूरा होगा? संकल्प की हार में समर्पण उठता है। जीत गये तो ठीक। अगर | तुम्हारा अहंकार पूरी तरह धूल में गिर जाना चाहिए। संकल्प से जीत गये तो ठीक; कोई जरूरत न रही। कुछ लोग यही तो अंजामे-जुस्तजू है जीत गये हैं। इक्के-दुक्के जीते हैं। रास्ता बड़ा कठोर है, बड़ा कि ठोकरें खाकर बुतकदों की दुर्गम है! लेकिन कुछ लोग जीते हैं। तो अपनी पूरी कोशिश कर जबीने-रुसवा को रखकर अपनी लो। अगर जीत गये, अगर संकल्प से पा लिया तो पा ही हरम की चौखट पे सो गया हूं लिया। अगर न जीते, तो भी पूरी कोशिश कर लेने के बाद हार जो काफिला इस तरफ से गुजरे, समग्र होगी। तो पूरी तरह हार जाना। तो अनेकों ने हारकर पाया वो एक ठोकर मुझे लगा दे, है। और जीतकर पाने से हारकर पाने का मजा ज्यादा है। 'जमील' मैं बीच रास्ते में । यह प्रेम कुछ बात ऐसी है कि यहां हार, जीत है। तो हारने से इसी भरोसे पे सो गया हूं। घबड़ाना मत। मगर एक बार तुम्हें अपनी पूरी ताकत दांव पर यही तो अंजामे-जुस्तजू है—यही तो खोज का नतीजा है कि लगा लेनी चाहिए। कहीं मन में यह लुका-छिपा भाव न रह जाये| ठोकरें खाकर बुतकदों की—कि बहुत पूजागहों की, मंदिरों की, 254 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पकाआतम S मूर्तिग्रहों की, ठोकरें खा-खाकर... हो गये, छोड़कर चले गये। उन्होंने कहा, यह गौतम तो अब जबीने-रुसवा को रखकर अपनी भ्रष्ट हो गया। इसने तो साधना का पथ ही छोड़ दिया। लेकिन हरम की चौखट पे सो गया हूं। उसी रात घटना घटी। उसी रात बुद्धत्व को बुद्ध उपलब्ध हुए। -अपने बदनाम मस्तक को अब तो तेरे भवन के सामने | उसी रात दीया जल गया। सीढ़ियों पर रखकर सो गया है। अब खोजता भी नहीं। महावीर ने संकल्प से पाया; बुद्ध ने समर्पण से। गये दोनों जबीने-रुसवा को रखकर अपनी संकल्प के रास्ते पर थे। इसलिए जैनों और बुद्धों में बड़ा हरम की चौखट पे सो गया है बुनियादी विरोध बना रहा है; क्योंकि जैनों को लगता है, अगर जो काफिला इस तरफ से गुजरे बुद्ध भी ठीक हैं तो फिर महावीर के ठीक होने में कठिनाई पड़ती वो एक ठोकर मुझे लगा दे है। क्योंकि बुद्ध ने तो छोड़कर पाया, प्रयास छोड़कर पाया; 'जमील' मैं बीच रास्ते में अप्रयास से पाया। खोज ही छोड़ दी, तब पाया। और फिर तो इसी भरोसे पे सो गया है। बुद्ध ने इसे नियम बना दिया कि तम तब तक न पा सकोगे, जब समर्पण ऐसी घड़ी में घटता है, जब तुम बिलकुल हारकर बीच तक तुम्हारा प्रयास समाप्त न हो जाये। क्योंकि जिसे पाना है, रास्ते पर गिरकर सो गये कि अब ठीक है, तुझे उठाना हो उठा वह पाया ही हुआ है; प्रयास छोड़ो तो दिखाई पड़ जाये। प्रयास । जिला देना! तुझे मारना हो मार देना! न की आपाधापी में दिखाई नहीं पड़ता। तुम दौड़ते हो, चिल्लाते अपनी अब कोई खोज है, न अपनी अब कोई आकांक्षा है! जो हो, भागते हो तो जो मौजूद है उससे चूक जाते हो। तेरी मर्जी-वही पूरी होने दे! तब समर्पण उठता है। महावीर ने संकल्प से पाया। इसलिए बौद्धों को महावीर समर्पण करने की बात नहीं है, होने की दशा है। इसलिए तुम प्रीतिकर नहीं लगते। क्योंकि अगर महावीर ठीक हैं तो फिर बुद्ध यह तो पूछ ही नहीं सकते कि मुझमें समर्पण की शक्ति भी नहीं। का पाना कैसे हुआ? समर्पण का शक्ति से क्या लेना? शक्ति की भाषा ही समर्पण के मैं तुमसे कहता हूं: दोनों ठीक हैं। सत्य कंजूस नहीं। और विपरीत है। समर्पण तो असहाय, बेसहारा, पराजित...उससे परमात्मा का एक ही रास्ता नहीं। जितने लोग हैं, उतने रास्ते हैं। उठता है। अभी तुम शक्ति की भाषा में सोच रहे हो, इसलिए मैं हर आदमी वहीं से तो चलेगा, जहां है! तुम वहां से चलोगे जहां कहता हूं, थोड़ा संकल्प कर लो। महावीर के रास्ते पर थोड़ा तुम हो। दूसरा वहां से चलेगा जहां वह है। लेकिन सभी रास्ते चलो। पहंच गये तो महावीर हो जाओगे, न पहुंचे तो मीरा हो उस तक पहुंच जाते हैं। सत्य का अर्थ ही यह है कि सब द्वार उसी जाओगे। घबड़ाना क्या है? जो चलता है, मैं कहता हूं, पहुंच तक पहुंचाते हैं। असत्य का बंधा हुआ मार्ग होता है। सत्य का ही जाता है। कोई बंधा हुआ मार्ग नहीं होता। क्योंकि असत्य की सीमा होती महावीर और बुद्ध दोनों एक ही रास्ते से चले। दोनों का रास्ता है; सत्य की कोई सीमा नहीं होती। अगर क्षुद्र के पास जाना हो संकल्प का रास्ता था। दोनों समसामयिक भी थे। थोड़े-से ही तो सभी रास्तों से न पहुंच सकोगे। अगर तुम्हें गंगा जाना है तो वर्ष का फासला था। महावीर बारह वर्षों तक जूझते रहे। सभी रास्तों से न पहुंच सकोगे। लेकिन अगर महासमुद्र की जूझकर उन्होंने पा लिया। बुद्ध छह वर्ष के बाद थक गये, हार | तरफ जाना है तो कहीं से भी चलो, पहुंच जाओगे। पूरब जाओ, गये। रास्ता वही था। इतने थक गये, इतने हार गये कि सब पश्चिम जाओ, उत्तर जाओ, दक्षिण जाओ, देर-अबेर सागर छोड़कर एक दिन वृक्ष के नीचे बैठ गये कि बस अब हो गया; न तुम्हें मिल ही जायेगा। क्योंकि सागर ने पृथ्वी को सब तरफ से संसार में कुछ पाने योग्य है, न आत्मा में कुछ पाने योग्य घेरा है। कोई रास्ते से करीब मिलेगा, किसी से थोड़ी दूर है—पाने योग्य ही कुछ नहीं तो पाऊंगा क्या! मिलेगा। नाम शायद अलग होंगे, कहीं हिंद महासागर मिलेगा, उस सांझ उन्होंने सब छोड़ दिया। खोज भी छोड़ दी। उनके कहीं प्रशांत महासागर मिलेगा, कहीं अरब सागर पांच शिष्य, जो उनके साथ थे सदा, यह देखकर कि बुद्ध भ्रष्ट | मिलेगा-नाम ही अलग होंगे, सागर का स्वाद एक है। 255 www.jainelibrary org Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 TIPRETRIES सत्य महासागर जैसा है: असत्य छोटे-छोटे डबरे हैं। अगर | मौत। उसके सामने तो एक ही सवाल होगाः अगर जीना है तो जरा भी इधर-उधर गये तो चूक जाओगे। हाथ-पैर फेंको, नहीं मरे! नदी तो भूल ही जायेगी, मौत और समर्पण घट सके, इसके लिए संकल्प पूरी तरह कर लो। जीवन के बीच चुनाव होगा। कौन चिंता करता है उस समय कि दोनों हालत में संकल्प जरूरी है। संकल्प से पहुंचना हो तो भी | बहो। तैरना जो नहीं जानता है, वह हाथ-पैर तड़फड़ाने लगेगा। जरूरी है; समर्पण से पहुंचना हो तो भी जरूरी है। संकल्प हर | जो तैरने में बहत कुशल है, वही राजी होगा: वह कहेगा कि ठीक हाल आवश्यक है और पूरा। क्योंकि जो थोड़ा तुमने अधूरा है, बहकर देख लें। किया, जो बच गया, वही तुम्हें सतायेगा; वही समर्पण को निर्भय चित्त से बहना संभव है। संकल्प तुम पूरा कर लो। घटित न होने देगा। | उससे तुम तैरना सीख जाओगे। अगर पहुंच गये तैरने से, तो और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि इसी मार्ग से चलोगे तो | ठीक है, पहुंच ही गये। अगर न पहुंचे, तो घबड़ाने की कोई बात पहंचोगे। अगर तुम्हें पहंचना है तो ऐसा कोई भी मार्ग नहीं है जो नहीं। एक उपाय शेष रह जाता है-निरुपाय होने का उपाय: तुम्हें रोक पाये। लेकिन पहुंचने की एक शर्त है : जो भी करो, असहाय होने का उपाय। मन भाव से करना। अब समर्पण तो किया नहीं जा सकता. भक्ति की वही भाषा है। प्रेमी की वही भाषा है। सफियों की. इसलिए संकल्प ही करो। तो यहां भी मैं इतने संकल्प के प्रयोग नानक की, कबीर की, मीरा की, चैतन्य की, वही भाषा है: छोड़ तुम्हें देता हूं और समर्पण की बात किये चला जाता हूं। दो! लेकिन इसके पहले वे बड़े निष्णात हो चुके हैं तैरने में। ऐसे मेरे पास लोग आ जाते हैं, कभी-कभी वे कहते हैं, आप कहते ही, बिना तैरना जाने कौन कब छोड़ पाया है? तुम्हारे अचेतन से हैं समर्पण, कुछ भी नहीं करना, सिर्फ बहना है। फिर क्यों इतने जोर का भय उठेगा कि उस भय से तुम प्रभावित हो ध्यान? फिर क्यों पांच-पांच ध्यान दिन में? मैं जानता हूं कुछ | जाओगे, तड़फड़ाने लगोगे; चिल्लाने लगोगेः बचाओ! भी नहीं करना, बहना है; लेकिन तुम जैसे हो, अभी बह न कहते हैं, जब कोई संगीतज्ञ परिपूर्ण रूप से पारंगत हो जाता है, सकोगे। तुम तैरने लगोगे। तुम तड़फड़ाने लगोगे। तो वीणा तोड़ देता है; क्योंकि फिर वीणा से भी सूक्ष्म संगीत में मुर्दे की भांति नदी में छूट जाने के लिए तैरने की बड़ी गहरी बाधा पड़ती है। वीणा भी तो कोलाहल ही पैदा करती है। मधुर कुशलता चाहिए। बड़ा तैराक ही अपने को छोड़ सकता है नदी कोलाहल, पर है तो कोलाहल ही। जब कोई और गहरे संगीत में में। क्योंकि बड़ा तैराक ही भय से मुक्त हो जाता है। वह जानता उतरने लगता है, जहां शून्य की ध्वनि बजती है, जहां शून्य का है कि तैर लेंगे जब जरूरत होगी। अगर कोई कठिनाई आ गई तो अनाहत नाद है; तो वीणा भी हटा देता है, वीणा भी छोड़ देता तैरना तो अपने पास है। जितना बड़ा तैराक हो, उतना ही अपने है। अब तो भीतर का अंतरंग बजने लगा, अब बाहर के सहारे को निस्पंद छोड़ देता है। हाथ-पैर भी नहीं हिलाता। क्योंकि वह कौन लेता है! जानता है, डर क्या है! हाथ अपने पास हैं, मैं सदा मौजूद ऐसा ही मैं तुमसे कहता हूं। समर्पण में जो उतरना चाहता हो, हूं-अगर कोई घड़ी ऐसी आई तो तैर लूंगा। लेकिन ऐसी घड़ी संकल्प में कुशल हो जाना जरूरी है। इसलिए तो इन विपरीत का भय उसे नहीं सताता। | मार्गों की तुमसे चर्चा करता रहता हूं, ताकि कोई मार्ग तुम्हें पकड़ जिसने तैरना नहीं जाना, उससे मैं कहं कि त कद जा नदी में, न ले। और इन विपरीत का उपयोग तम रोज करते हो सामान्य छोड़ दे अपने को, वह कूद भी जाये किसी प्रेरणा में, किसी जीवन में; लेकिन परमात्मा की तरफ जाते वक्त भूल जाते हो। उल्लास के क्षण में, उत्साह में, उत्तेजना में, किसी मदहोशी में, | जरा व्यवहारिक बनो! चलते हो तुम, तो तुम्हारे दोनों पैर एक मेरी बात में पड़ जाये, मेरा गीत उसे पकड़ ले, नशे में आ जाये, साथ नहीं चलते; एक पैर खड़ा रहता है तो दूसरा उठता है। कूद जाये तो कूदते ही भूल जायेगा कि मैंने क्या कहा था। वह । दोनों विपरीत काम करते हैं: एक खड़ा रहता है-अडिग, तत्क्षण हाथ-पैर फेंकने लगेगा। वह हाथ-पैर फेंकना अवश जमीन को पकड़कर; दूसरा उठता है, आगे जाता है। फिर दूसरा होगा। उसे रोक न सकेगा। क्योंकि रोकने का मतलब होगाः खड़ा हो जाता है तो पहला उठता है, आगे जाता है। 256/ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमने खयाल किया, इस वैपरीत्य में ही तुम्हारी गति है। अगर दोनों पैर एक साथ उठा लो, गिरोगे, बुरी तरह गिरोगे, हाथ-पैर तोड़ लोगे। फिर कभी चल न पाओगे। अगर दोनों पैर जमाकर खड़े हो जाओ तो भी न चल पाओगे। चलना हो तो एक पैर समर्पण का एक पैर संकल्प का । पक्षी उड़ता है, दो पंख | चाहिए – दोनों अलग-अलग दिशाओं में फैले हुए। एक ही पंख से तो पक्षी डूब जायेगा । एक फकीर, सूफी फकीर को उसके शिष्य ने पूछा कि 'क्या अकेले संकल्प से पहुंचना न हो सकेगा या अकेले समर्पण से?' वह फकीर नदी के किनारे खड़ा था। वे नदी के पार जाने की तैयारी कर रहे थे। उस फकीर ने कहा, आओ रास्ते में उत्तर दे | दूंगा | नाव में दोनों बैठ गये। साधारणतः तो शिष्य ही नाव को चलाता था, लेकिन उस दिन गुरु ने कहा, मैं ही नाव चलाता हूं। उसने एक पतवार से नाव खेनी शुरू कर दी। अब नाव दो पतवार से चलती है। एक पतवार से तो नाव गोल-गोल घूमने लगी, वर्तुलाकार चक्कर मारने लगी। उसका शिष्य हंसने लगा। उसने कहा, 'आप क्या मजाक कर रहे हैं? आपको मालूम नहीं चलाना, मुझे दें। कहीं एक पतवार से नाव चली है ? ऐसे तो हम यहीं चक्कर खाते रहेंगे।' तो गुरु ने कहा, एक पतवार का नाम समर्पण है और दूसरी पतवार का नाम संकल्प। और जिसने एक से चलाने की कोशिश की, वह मुश्किल में पड़ेगा। अब तुम इसे ऐसा समझो – बड़ा विरोधाभास लगेगा – समर्पण करना हो तो भी तो मूलतः संकल्प चाहिए। संकल्पहीन कैसे समर्पण करेगा ? समर्पण कोई छोटी घटना है ? किसी के चरणों में अपने को छोड़ देना, कोई छोटा निर्णय है ? इससे बड़ा और कोई निर्णय हो सकता है? हवाओं के सहारे सूखे पत्ते की भांति अपने को छोड़ देना, इससे बड़ा कोई और निर्णय हो सकता है? इतना अभय, इतना गैर-डांवांडोल चित्त ... तो समर्पण का भी पहला कदम तो संकल्प है। और संकल्प की भी आत्यंतिक परिपूर्णता समर्पण में है। क्योंकि करते-करते तो तुम थकोगे ही। कभी तो ऐसी घड़ी आनी चाहिए जब करने से छुटकारा हो—उसी को तो हम मोक्ष कहते हैं । करा, किया, बहुत किया, जन्मों-जन्मों तक किया, कर-करके ही तो हमने अपने जीवन को उलझा लिया है। इसलिए इस संकल्प की अंतिम निष्पत्ति: समर्पण उलझाव के मूल आधार को हम कर्म कहते हैं । कर्म का अर्थ है : जो किया। और हम कहते हैं, कर्म से कैसे छुटकारा हो ? लोग मुझसे पूछते भी हैं कभी-कभी आकर, कर्म से कैसे छुटकारा हो ? लेकिन मुझे लगता है, उन्हें ठीक याद नहीं रहा कि कर्म का अर्थ क्या होता है— करने से कैसे छुटकारा हो ? अकर्ता -भाव का कैसे जन्म हो ? कब ऐसी घड़ी आयेगी जब मैं सिर्फ हो सकूं और करने की कोई रेखा न बचे? करने को कुछ भी न रहे, होना परिपूर्ण हो जाये – उसको ह मोक्ष कहते हैं । मोक्ष का अर्थ है : जहां तुम हो, विश्व के साथ ऐसी संगति में, विश्व के साथ ऐसे तारतम्य में, विश्व के साथ ऐसे संगीत में लयबद्ध; कि तुम कुछ भी नहीं करते, विश्व ही करता है; तुम उसके साथ बहते हो। संकल्प का भी अंतिम परिणाम समर्पण है; और समर्पण की भी शुरुआत, प्रथम चरण संकल्प है। इसलिए मैं तुमसे कहूंगा, तुम अभी संकल्प की ही चिंता कर लो। दूसरा प्रश्न: आपका कहना है कि प्यास है तो जल भी होगा ही। यही नहीं, प्यास इसलिए है कि कहीं जल है । और आपने तो यहां तक कहा कि प्यासा ही जल को नहीं खोजता, जल भी प्यासे को खोजता है । तब जानना चाहता हूं कि प्यासे और पानी के बीच कभी-कभी इतनी दूरी मालूम देती है कि प्यासा पानी तक नहीं जा पाता; या कि प्यासा अंधा और बहरा है कि न उसे जल दीखता है, न उसका कलकल नाद सुनाई देता है। और कभी-कभी तो जल के बीच रहकर भी आदमी यासार जाता है। मुझे अपने बारे में कुछ ऐसा ही लगता है। कृपापूर्वक मुझे मार्ग-निर्देश दें। निश्चित ही यह खोज एकतरफा नहीं है। एकतरफा हो तो कभी पूरी न होगी । अगर तुम्हीं सत्य को खोज रहे हो और सत्य तुम्हें न खोज रहा हो, तो मिलने की कोई संभावना नहीं है। अगर सत्य भी आतुर न हो तुमसे मिल जाने को, तो सत्य फिर अपने को छिपाये चला जायेगा। तुम उघाड़े जाओगे, वह छिपाये जायेगा । फिर तो ऐसा हो जायेगा जैसे द्रौपदी का चीर बढ़ता गया। वह उघड़ने को राजी न थी। वह उस दरबार में नग्न होने को राजी न थी । नग्न करने की चेष्टा दरबारियों की थी, दुर्योधन 257 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s जिन सूत्र भागा । MER HD H की थी, उसके मित्रों की थी—पर द्रौपदी सहयोगी न थी। चीर तो तुम्हारी चीख-पुकार सूने आकाश में खो जायेगी। लेकिन बढ़ता चला गया। वे उघाड़ते गये, चीर बढ़ता चला गया, द्रौपदी नहीं, पुकार सुनी गई है। प्रार्थना कभी न कभी उस हृदय तक ढकती चली गई। पहुंच जाती है। अगर न पहुंचती हो तो कारण यह नहीं है कि वह यह कहानी बड़ी बहमल्य है, बड़ी प्रतीकात्मक है। लेकिन सुनने को उत्सुक नहीं है, कारण कुछ और होंगे। या तो तुम द्रौपदी जब किसी को प्रेम करती होगी, तब तो नग्न हो जाती गलत दिशा में चिल्ला रहे हो; या तुम पूरे मन से बुला ही नहीं रहे होगी। तब तो भीतर गहन में यह आकांक्षा होती होगी, कोई हो; या बुलाने के साथ-साथ तुम भीतर डरे भी हो कि कहीं सुन उघाड़ ले, किसी के सामने सब खोल दूं, कुछ भी छिपाया हुआ ही न लेना! न रह जाये! मैंने सना है, एक आदमी लौटता था लकडियां अपने सिर पर अगर परमात्मा तुम से बच रहा है तो एक बात पक्की है-इस लेकर। थक गया है, बूढ़ा हो गया है सत्तर साल का। लकड़ी दौड़ में तुम जीत न पाओगे-वह बचना चाह रहा है और तुम | काटते-काटते जिंदगी बड़ी ऊब हो गई है। जैसा कि अनेक बार खोज रहे हो। वही जीतेगा। उसके पास विराट ऊर्जा है, बड़ी लोग कहते हैं, ऐसा ही उसने कहा। मुहावरा था, कुछ मतलब न शक्ति है; तुम्हारे पास है क्या? अगर वह परम सत्य ही तुमसे था। ऐसे ही कहा कि हे भगवान! अब कब तक और जिंदगी बचना चाह रहा है तो फिर तुम जीत नहीं सकते, तुम्हारी हार | घसिटवानी है? मौत को मुझे ही क्यों नहीं भेजता? जवानों को निश्चित है। लेकिन आदमी जीते हैं। महावीर जीते, बुद्ध जीते, आ जाती है, मुझे क्यों लटकाये हुए है? अब तो भेज! अब तो कृष्ण, क्राइस्ट जीते। आदमी जीते हैं। एक बात साफ है कि वह मैं मरने को राजी हूं कि यह जीवन बहुत हो गया! यह सुबह से भी उघड़ने के लिए राजी है। वह बूंघट मारकर बैठा हो, मगर रोज लकड़ी काटना, यह दिनभर लकड़ी इकट्ठी करना, सांझ चाहता है कि तुम चूंघट उठाओ। बड़ी भीतर आकांक्षा है कि तुम | बेचकर किसी तरह रोटी पेट के लिए जुटानी, रात सो जाना, फिर पास आओ, खोजो। सुबह यही! आखिर सार क्या है? अब तो भेज दे मौत को! । इसलिए मैं कहता हूं कि पानी भी तुम्हारे द्वारा पीये जाने को ऐसा होता नहीं अकसर कि इतनी जल्दी मौत आ जाये, पर उस प्यासा है। तुम्हीं जल को नहीं खोज रहे हो, जल भी तुम्हें खोज दिन आ गई। मौत को सामने देखकर लकड़हारा घबड़ा गया। रहा है। अपने गट्ठर को नीचे रखकर सुस्ता रहा था झाड़ के नीचे, मौत ने गर न होतीं कैदे-रस्मो-राह की मजबूरियां | कहा, 'मैं आ गई। बोलो, क्या काम है?' शमा खुद उड़कर पहुंचती अपने परवानों के पास। उसने कहा, 'कुछ और नहीं है, यहां कोई दिखाई न पड़ता था, - अगर जीवन के नियम न होते, व्यवस्था के सूत्र न गट्ठर उठवाकर मेरे सिर पर रखना है। इतनी कृपा करो, इस होते...। गर न होतीं कैदे-रस्मो-राह की मजबूरियां! हजार गठरी को मेरे सिर पर वापस रख दो। बहुत धन्यवाद! और नियम हैं, व्यवस्था है। और कम से कम व्यवस्था जिसने बनाई आगे बुलाऊं भी तो ऐसा कष्ट मत करना!' है, वह तो पालेगा ही। तुम बुलाते भी हो तो तुम्हारा बुलावा पूरा है? हार्दिक है? गर न होतीं कैदे-रस्मो-राह की मजबूरियां तुम्हारा रोआ-रोआं उसमें सम्मिलित है कि एक पर्त इनकार किये शमा खुद उड़कर पहुंचती अपने परवानों के पास। चली जा रही है? एक पर्त कहती है, अभी कोई प्रार्थना के दिन -परमात्मा खुद तुम्हारे पास आ जाता। शायद आता भी है, हैं, अभी तो तुम जवान हो। ये तो बुढ़ापे की बातें हैं। बुढ़ापे की तुम पहचान नहीं पाते। क्योंकि जब तक तुम उस खोज पर न भी कहां, लोग जब मरने लगते हैं तभी! जब जीभ लड़खड़ा निकलो, तुम न पहचान पाओगे। यह खोज दोनों तरफ से हो, जाती है, जब खुद बोलते भी नहीं बनता, तब किराए के यह आग दोनों तरफ से लगी हो, तो ही परिणाम हो सकता है। पंडित-पुरोहित कान में राम-राम जप देते हैं! जिंदा रहते-रहते अगर भक्त अकेला भगवान, भगवान, भगवान चिल्लाता रहे; | तो आदमी और हजार वासनाओं में उलझा रहता है, परमात्मा की भगवान बहरा हो, या सुनने को राजी न हो, या बचना चाहता हो, वासना निर्मित कहां होती है? 12581 . Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प की अंतिम निष्पत्ति: समर्पण ।।। जब सारी वासनाएं उस एक वासना में तिरोहित हो जाती हैं, हिम्मत ही न आयेगी, यह साहस ही न जन्मगा। जैसे सभी नदियां समुद्र में गिर जाती हैं। ऐसे जब तुम्हारी सारी तो अड़चन कहां होगी? तुम भी खोजते हो, परमात्मा भी आकांक्षाएं एकजुट परमात्मा की तरफ प्रवाहित होती हैं, खोजता है-अड़चन कहां है? मिलन होता क्यों नहीं? अभीप्सा होती है, तब प्रार्थना पैदा होती है। फिर क्षणभर भी देर पहली बात-तुम लगते हो कि खोजते हो, खोजते नहीं। दांव नहीं लगती। और मैं तुमसे कहता हूं कि फिर अगर परवाना न भी | पर तुम कुछ भी नहीं लगाते। तुम परमात्मा को मुफ्त पाना चाहते जाये तो शमा उड़कर उसके पास आ जाती है। हो। तुम क्षुद्र चीजों की तलाश में भी जीवन दांव पर लगा देते तुम्हीं नहीं खोज रहे, वह भी खोज रहा है। हो। मजनू लैला को खोजता है, तो जैसा दांव पर लगा देता है; इजिप्त में पुराना वचन है कि अगर उसने न खोजा होता तो ऐसा तुमने परमात्मा की खोज में अपने को दांव पर लगाया? तुम्हारे मन में उसे खोजने की बात भी पैदा न होती। कहते हैं कि नहीं, तुम परमात्मा को भी अपने जीवन में थोड़ी जगह देते हो, जो उसकी खोज पर निकलता है, वह वही है, जिसे परमात्मा ने चौबीस घंटे में पांच मिनट पूजा-प्रार्थना कर लेते हो। वह भी खोज ही लिया। तुम प्यासे ही तब होते हो उसके लिए, जब जल्दी-जल्दी निपटा देते हो। वह भी एक औपचारिकता है, किन्हीं गहरे अर्थों में, कहीं किसी गहरी गहराई पर उसने तुम्हारे जिसको कर लेना है; वह भी तुम्हारी चालाकी, होशियारी का हृदय पर हाथ रख दिया। सभी तो उसे खोजने नहीं निकलते। हिसाब है कि पता नहीं, परमात्मा हो ही, तो यह कहने को तो कभी-कभी कोई दीवाना हो उठता है। जरूर उसने अपने रहेगा कि ध्यान रख, रोज पांच मिनट तेरी प्रार्थना करते थे, मधु-पात्र से कोई मदिरा तुम में उड़ेल दी। शायद तुम्हें भी पता | कितनी मालाएं सरकाईं, रोज गीता पढ़ते थे! कहीं मौत के बाद नहीं है, इतनी गहराई पर उड़ेली। शायद तुम्हारे प्राणों के प्राण, ऐसा हो ही कि परमात्मा हो, तो हमारे पास कुछ कहने को होगा, तुम्हारे केंद्र पर उड़ेली। वहां तो तुम कभी जाते नहीं, तुम तो कुछ बैंक-बैलेंस होगा, हम खाली हाथ न होंगे! न हुआ तो कुछ बाहर-बाहर घूमते रहते हो। तुम तो घर कभी आते नहीं। बिगड़ता नहीं है। पांच-दस मिनट खर्च भी हो गये तो क्या हर्ज मेरे देखे भी ऐसा ही है। जो परमात्मा को चुनता है, वह इसकी है! हुआ तो काम आ जायेगी बात। खबर दे रहा है कि परमात्मा ने उसे चुन लिया। तुम होशियार हो! तुम दो नावों पर सवार रहते हो। तुम्हारी तिब्बत में भी ऐसी एक लोकोक्ति है कि शिष्य थोड़े ही गुरु को प्रार्थना भी तुम्हारा गणित है। वहीं तो प्रार्थना मर जाती है। चुनता है, गुरु शिष्य को चुनता है। लगता यही है कि शिष्य ने क्योंकि प्रार्थना गणित हो ही नहीं सकती। उन्माद है प्रार्थना। चुना; क्योंकि शिष्य का अहंकार अभी 'मैं' के आसपास जीता पागलपन है प्रार्थना। दीवानगी है प्रार्थना। एक नशा है। गणित है। वह कहता है, मैं दीक्षित हो रहा हूं! वह कहता है, मैंने इस नहीं, हिसाब-किताब नहीं। गुरु को चुना! लेकिन जिन्होंने तिब्बत में यह लोकोक्ति बनाई। तुम्हारी प्रार्थना जब पागल हो जायेगी, तो पूरी हो जायेगी। जब होगी, वे जानते थे। तिब्बत में गुरु-शिष्य की परंपरा अति | परमात्मा तुम्हें सब तरफ से घेर लेगा, सुबह भी उसकी, सांझ भी प्राचीन है, अति शुद्ध है। वे ठीक जानते हैं। वे ठीक कह रहे हैं उसकी, भर दोपहरी भी उसकी, तुम उठोगे-बैठोगे तो भी उसमें कि गुरु शिष्य को चुनता है। कहता नहीं, क्योंकि कहने से भी हो ही लीन रहोगे; बाजार भी जाओगे तो ऊपर-ऊपर बाजार होगा, सकता है, शिष्य छिटक जाये। कहने से भी हो सकता है, शिष्य भीतर-भीतर उसकी याद होगी; दुकान पर भी बैठोगे तो में प्रतिरोध पैदा हो जाये। कहने से भी हो सकता है, उसके ऊपर-ऊपर से ग्राहक को देखोगे, भीतर-भीतर उसी का दर्शन अहंकार को चोट लग जाये, घाव बन जाये और जो पास आता | होगा-जब तुम्हारा चौबीस घंटे का जीवन अहर्निश; था, दूर निकल जाये। गुरु कुछ कहता भी नहीं। वह यह भी भीतर-बाहर आती श्वास-प्रश्वास की भांति उस पर समर्पित स्वीकार कर लेता है कि तुमने मुझे चुना। लेकिन मैं भी यही होगा तो मिलन हो जायेगा। तुमसे कहता हूं कि जब तक गुरु ने तुम्हें नहीं चुना है, तुममें चुनने तो पहली तो बात, तुम बातें करते हो मिलने की, दांव पर कुछ का सवाल ही न उठेगा, तुम्हें यह भाव ही पैदा न होगा, यह नहीं लगाते। और यह दांव कुछ ऐसा है कि पूरा ही पूरा 259 www.jainelibrarorg Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 1MBSITORRENT लगाओगे तो ही लगेगा; रत्तीभर भी बचाया तो चूक जाओगे।। है कि तुम्हारे और उसके बीच स्थान नहीं है, जगह नहीं है। क्योंकि उस बचाने में ही अश्रद्धा आ गई। उस बचाने में ही इसलिए भी चूकना होता रहता है। जब तुम इतने शांत हो चालाकी आ गई, भोलापन खो गया। प्रार्थना तो निर्दोष भाव जाओगे, जब तुम इतने थिर हो जाओगे, जब तुम्हारे जीवन की है। पूरा का पूरा कोई अपने को रख देता है, जरा भी बचाता| लौ अकंप हो जायेगी, तभी तुम देख पाओगे, जो निकट से भी नहीं। यह नहीं सोचता कि ऐसे कहीं ऐसा न हो कि दांव खतम हो | निकट है। जाये, नाहक, थोड़ा तो बचा लूं! मुहम्मद ने कहा है कि गर्दन में जो प्राण को प्रवाहित करनेवाली इसलिए मैं कहता हूं: प्रार्थना जुआरी कर सकता है, दुकानदार नाड़ी है, जिसके काट देने से आदमी मर जाता है। वह भी दूर है। नहीं। दुकानदार तो सोच-समझकर चलता है, 'इतना | परमात्मा उससे भी ज्यादा पास है। लेकिन इतने पास को जानने लगाऊंगा, कितना मिलेगा? अगर खोया भी तो बहुत ज्यादा तो के लिए तुम्हें भी पास आना पड़ेगा। तुम अपने से बहुत दूर न खो जायेगा? इतना खोये कि जिसकी पूर्ति हो सके।' निकल गये हो। तुम्हारी वासनाएं जहां हैं, वहीं तुम हो। वासनाएं जुआरी सब दांव पर लगा देता है, कुछ बचाता नहीं। उतना | तुम्हारी बड़ी दूर भविष्य में फैली हैं। तुम पास आते ही नहीं। साहस चाहिए और जुआरी तो वस्तुएं दांव पर लगाता है, निर्वासना जब पैदा होती है, तो प्रार्थना पैदा होती है। तुम अपने धन-पैसा दांव पर लगाता है; भक्त, प्रार्थी, अपने को दांव पर पास आ जाते हो। पास जैसे-जैसे आने लगते हो, उसकी धुन लगाता है। क्योंकि परमात्मा को पाना हो तो स्वयं को ही दांव पर | बजने लगती है। जैसे-जैसे पास आते हो, उसकी सुगंध आने लगाना पड़ेगा। स्वयं की कीमत पर ही मिलता है। | लगती है। जैसे-जैसे पास आते हो, उसका कलकल-नाद तो पहली बात, तुम्हारी प्रार्थना झूठी है, मिथ्या है। तुम्हारी पूजा सुनाई पड़ने लगता है, अनाहत सुनाई पड़ने लगता है। फिर तो औपचारिक है; लोक-व्यवहार है, पूजा नहीं है। दूसरी बात, | तुम नाचने लगते हो। फिर तुम चलते नहीं। फिर नाचकर दौड़ते तुम परमात्मा को चाहते हो या परमात्मा के नाम पर कुछ और हो घर की तरफ। फिर तो तुम्हारे जीवन में घूघर बंध जाते हैं गीत चाहते हो? प्रार्थना तुम्हारी झूठी है, परमात्मा भी तुम्हारा अंतिम बंध जाते हैं। फिर तो तुम मस्ती में तरोबोर हो जाते हो। गंतव्य नहीं है। लोग परमात्मा को चाहते हैं कि चलो, उसकी लेकिन अपने पास आओ। परमात्मा के पास आने का एक ही प्रार्थना से धन मिलेगा, पद मिलेगा, प्रतिष्ठा मिलेगी, तो वस्तुतः उपाय है। अपने पास आओ! परमात्मा कोई दूसरा नहीं है, तो पद, प्रतिष्ठा और धन चाहते हैं; परमात्मा का तो साधन की तुम्हारा ही परम अस्तित्व है, तुम्हारी नियति है। तुम अगर बीज तरह उपयोग कर लेना चाहते हैं। वे तो परमात्मा को भी चाकर हो तो परमात्मा वृक्ष है। तुम अगर कली हो तो वह फूल है। वह की तरह अपने काम में लगा लेना चाहते हैं। लेकिन उनका तुम्हारा ही पूरा-पूरा खिलाव है। पास आओ। करीब आओ। असली लक्ष्य और है। अगर शैतान उन्हें धन दे, तो वे शैतान की अपने में थिर बनो। पूजा करेंगे। जो उन्हें धन दे, उसकी पूजा करेंगे। जो उन्हें पद दे, मैं सुन रहा हूं तेरे दिल की धड़कनें पैहम उसकी पूजा करेंगे। जो उन्हें पद दे, वही उनका परमात्मा हो है तेरा दिल मुतजस्सिस कहीं जरूर मेरा। जायेगा। परमात्मा गौण है, कुछ और मूल्यवान है, कुछ और मैं अपने हृदय में भी तेरे ही दिल की धड़कनें सुन रहा हूं। मैं पाने की तलाश है। सुन रहा हूं तेरे दिल की धड़कनें पैहम-लगातार, सतत, तो तुम परमात्मा को साधन नहीं बना सकते हो; बनाओगे तो अनवरत! इस दिल की धड़कन में भी उसकी ही धड़कन है। चूक जाओगे। परमात्मा परम साध्य है। अपने को तुम उसका सुननेवाला चाहिए। तुम्हारे कान इतनी व्यर्थ की आवाजों से भरे साधन बना लो, फिर मिलने में देर न होगी। हैं कि तुम्हें अपने दिल की धड़कन सुनाई ही नहीं पड़ती। तीसरी बात, परमात्मा बहुत निकट है, निकट से भी निकट है। पश्चिम के एक विचारक ने अपनी डायरी में लिखा है-बड़ा निकट कहना भी गलत है, क्योंकि निकट में भी थोड़ी दूरी आ संगीतज्ञ है कि अमरीका में एक प्रयोगशाला में वह गया। जाती है। परमात्मा तुम्हारे रोएं-रोएं में समाया है। वह इतने पास गया था कुछ कारण से। उसे खबर मिली थी कि वहां एक 260/ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Soilan Jodhara be Sancer कल्प की अंतिम निष्पत्तिः समर्पण प्रयोगशाला बनाई गई है, जो परिपूर्ण रूप से साउंड-प्रूफ है, सौ उड़ते पत्ते तुम्हें भ्रम दे जाते हैं कि शायद आ गया। हवा के झोंके प्रतिशत। कोई आवाज, किसी तरह की आवाज भीतर नहीं वृक्षों में सरसराहट करते हैं और तुम्हें लगता है, शायद आ गया! आती। तो वह गया। वह जानना चाहता था कि परम सन्नाटा तुम चौंक-चौंक उठते हो। तुम चौबीस घंटे तने रहते हो कि कैसा होता है। क्योंकि संगीतज्ञ था और परम सन्नाटे से पहचान | शायद अब आये, अब आये, पता नहीं कब आये! और कहीं चाहता था। क्योंकि संगीत भी उसी तरफ ले जाता है। वह भीतर | ऐसा न हो कि वह आये और तैयारी अधूरी हो! तो तुम राह पर गया तो वह बड़ा हैरान हुआ : बिलकुल सन्नाटा था, लेकिन दो खड़े राह देखते रहते हो! वह तुम्हारे घर में बैठा है। वह तुम्हारे आवाजें आ रही थीं। वह साफ-साफ सुन सका। उसने, जो होने से पहले तुम्हारे घर में बैठा है। मेजबान के पहले मेहमान आदमी उसे दिखा रहा था प्रयोगशाला, उससे पूछा कि तुम तो आ गया है। घर आओ! तुम उसे भीतर बैठा पाओगे। कहते हो कि यह सौ प्रतिशत साउंड-प्रूफ है, ध्वनि किसी तरह बोधिधर्म जब ज्ञान को उपलब्ध हुआ तो कहते हैं, वह बड़े जोर की यहां नहीं आ सकती; लेकिन मैं दो आवाजें सुन रहा हूं। वह से खिलखिलाकर हंसा। उसके आसपास और भी साधक थे। जो साथ था, हंसने लगा। उसने कहा, वे दो आवाजें आपके| उन्होंने पूछा, 'क्या हुआ?' उसने कहा, 'हद्द हो गई! मजाक भीतर हैं; वे बाहर से नहीं आ रहीं। एक आवाज है तुम्हारे हृदय की भी एक सीमा होती है। जिसकी हम तलाश करते थे, उसे घर की। इतने जोर से धक-धक हो रही थी कि उसे याद भी न रहा में बैठा पाया। जिसे हम खोजने निकले थे, वह खोजनेवाले में ही कि यह हृदय की आवाज हो सकती है। और दूसरी आवाज है | छिपा था। खूब मजाक हो गई।' फिर बोधिधर्म कहते हैं, तुम्हारे खून की गति की; रगों में जो खून दौड़ रहा है, उसका | जिंदगी भर हंसता ही रहा। जब भी कोई परमात्मा की बात कलकल-नाद। ये आवाजें बाहर से नहीं आ रही हैं। करता, वह हंसने लगता। वह कहता, यह बात ही मत छेड़ो। लेकिन बाहर की आवाजें जब बिलकल बंद थीं, तब ये सुनाई यह बड़े मजाक की बात है। यह बड़ा गहरा व्यंग्य है। पड़ीं। हो तो यह तुम्हें भी रही हैं; उसको भी हो रही थीं, रोज चूकोगे इसलिए नहीं कि वह दूर है—चूक रहे हो इसलिए कि चौबीस घंटे चल रही हैं। लेकिन इतना शोरगुल है कि उसमें ये वह बहुत-बहुत पास है, पास से भी पास है। लौटो! पहले घर धीमी-धीमी आवाजें खो जाती हैं। हृदय की धड़कन, खून की में तलाश कर लें, फिर बाहर निकलें। क्योंकि बाहर तो बड़ा गति, ये भी तुमसे बाहर हैं। एक और आवाज है जहां हृदय की विस्तार है। चांद-तारों तक कहां खोजते रहोगे? घर को तो धड़कन भी बंद हो जाती है और खून की गति भी बंद हो जाती है, । पहले खोज लो। वहां न मिले तो फिर बाहर जाना। लेकिन तब सुनी जाती है। उसको हमने ओंकार कहा है, अनाहत-नाद जिसने भी घर में खोजा है, उसे पा ही लिया है। इसका अपवाद कहा है, प्रणव कहा है। कभी भी नहीं हआ है। मैं सुन रहा हूं तेरे दिल की धड़कनें पैहम है तेरा दिल मुतजस्सिस कहीं जरूर मेरा। तीसरा प्रश्न: आप मुझे बहुत-बहत अच्छे लगते हैं। मझे -और इससे मुझे ऐसा लगता है कि मैं ही तुझे नहीं खोज आपके प्रेम में रोने के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। कैसे कहूं रहा, तेरा दिल भी मेरी तलाश कर रहा है—चूंकि तेरी आवाज मैं उस प्रेम को! और आश्चर्य है कि मैं अकसर आपके प्रति अपने हृदय में सुनता हूं। तुम्हारे भीतर उसी ने रूप धरा है। उसी अनाप-शनाप भी बकता हूं; कभी-कभी गाली भी देता हूं। ने तुम्हारे जीवन में रंग भरा है। जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, यह क्या है? वह तुम्हारे घर में आकर बैठा है। तुम दरवाजे पर आंख लगाये अतिथि की राह देख रहे हो-और अतिथि कभी घर के बाहर मैं एक बार मुल्ला नसरुद्दीन के घर मेहमान था। वह अपने गया नहीं। तुम बाहर बैठे हो, आंगन में खड़े हो, राहगीरों को बेटे को समझा रहा था, डरा रहा था; क्योंकि बेटा भद्दी गालियां देख रहे हो कि कब आयेगा मेहमान, वह प्यारा कब आयेगा! | पास-पड़ोस से सीखकर आ जाता था। तो उसने एक तख्ती पर हर राहगीर की आवाज में तुम्हें भनक आती है, शायद आ गया! | लिखकर कमरे में बेटे के टांग दिया था, कि अगर तूने 2611 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 जिन सत्र भाग 1 'बदमाश' शब्द का उपयोग किया तो पांच पैसा जुर्माना; अगर 'गधे' शब्द का उपयोग किया तो दस पैसे जुर्माना, अगर 'साला' शब्द का उपयोग किया तो बीस पैसे जुर्माना, अगर 'हरामजादा' शब्द का उपयोग किया तो चालीस पैसे जुर्माना । पचास पैसे वह अपने बेटे को जेब खर्च के लिए रोज देता है। बेटा हंसने लगा। वह सुनता रहा और देखता रहा और हंसने लगा। तो उसने पूछा, 'तू हंसता क्यों है ? बात क्या है ?' उसने कहा कि मुझे ऐसी भी गालियां आती हैं कि रुपया भी कम पड़ेगा। गालियां तुम्हें आती हैं, तो तुम जिससे भी संबंध बनाओगे उसी की तरफ बहने लगेंगी। जो तुम्हें आता है वही तो बहेगा। गालियां ही तुमने जीवन में सीखी हैं, तो तब जब तुम प्रेम में भी पड़ते हो तो प्रेम में भी तुम्हारी गालियां प्रवाहित होने लगती हैं। आखिर तुम्हीं तो बहोगे न अपने प्रेम में ? तो तुमने जीवनभर में जो दुर्गंध इकट्ठी की है, वह तुम्हारे प्रेमी पर भी तो पड़ेगी। आखिर प्रेम 'तुम' करोगे तो तुम्हारी गालियां कहां जायेंगी ? इसे समझने की कोशिश करना। तुम शायद सोचते हो, तुम शत्रुओं को ही गाली देते हो - गलत । अगर गाली देना तुम्हारी आदत में शुमार है, अगर गाली देने की तुम्हारी भीतर संभावना है, तो शत्रु को तुम प्रगट में देते होओगे, मित्र को तुम अप्रगट में | देते होओगे — मगर दोगे जरूर। जो तुम्हारे पास है वह तो तुम बांटोगे। मित्र को शायद मजाक में दोगे — मगर दोगे जरूर। ऐसे लोग हैं कि जब तक उनमें गाली-गुफ्ता का संबंध न हो तब तक वे मित्रता ही नहीं मानते। जब तक 'आइये', 'बैठिये', 'आप कैसे हैं' इत्यादि शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है, तब तक मित्रता नहीं, परिचय है । जब गाली-गुफ्ता शुरू हो जाती है, तब मित्रता है। मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा आर्किटेक्ट, एक बड़ा शिल्पी समुद्र में जहाज डूबने से, समुद्र में तैरते तैरते एक अनजान द्वीप पर लग गया। अकेला था। वहां द्वीप पर कोई भी न था । बड़ा कुशल शिल्पी था । और कोई काम भी न था उसे। बड़े फल थे, वृक्ष लदे फलों से, तो भोजन की कोई कमी न थी । जंगल में I इसे थोड़ा देखना। यह कैसी मित्रता हुई ? लेकिन तुम्हारी मजबूरी है। जो तुम्हारे पास है, वह तुम्हारी लकड़ियां थीं। सुंदर पत्थर थे। उसने धीरे-धीरे बैठे-बैठे क्या मित्रता पर भी छाया डालेगा। दो तरह के लोग हैं। कुछ लोग हैं जो एक आदमी को मित्र बना लेते हैं और दूसरे को शत्रु बना लेते हैं। वे अपने को बांट लेते हैं। जो-जो बुरा है वह शत्रु की तरफ प्रवाहित करते हैं, नहर खोद लेते हैं; जो-जो अच्छा है, वह मित्र की तरफ प्रवाहित करते हैं, नहर खोद लेते हैं। लेकिन जब तुम मेरे प्रेम में पड़ोगे तो पूरे के पूरे ही पड़ोगे। तब नहर खोदने से काम न चलेगा। तब तुम्हारी गाली भी मेरे पास आयेगी, तुम्हारी प्रार्थना भी मेरे पास आयेगी। तुम्हें जागना होगा ! और गालियों से निस्तार पाना होगा। अन्यथा तुम्हारा प्रेम भी कलुषित हो जायेगा, तुम्हारी प्रार्थना भी कलुषित हो जायेगी। अच्छा है कि इस बहाने तुम्हें तुम्हारी गालियां दिखाई पड़ने लगीं; अब धीरे-धीरे उन गालियों से अपने बंधन को खोलो। अब धीरे-धीरे जागो। क्योंकि वे गालियां तुम्हें उड़ने न देंगी, वजनी हैं; पत्थर की तरह तुम्हारी गर्दन में अटकी रह जायेंगी । मेरे और तुम्हारे बीच पत्थरों की तरह अटकी रह जायेंगी। प्रवाह ठीक से न हो पायेगा। तुम जब भी गाली दोगे, सिकुड़ जाओगे । जब भी गाली दोगे, तुम्हारे भीतर अपराध-भाव उठेगा। जब भी गाली दोगे, ग्लानि मालूम होगी। अच्छा है कि प्रश्न पूछा; कम से कम ईमानदारी तो की। अ इतना और होश सम्हालो । गाली देना बंद करने को नहीं कह रहा हूं मैं, क्योंकि अगर तुमने जबर्दस्ती बंद की तो तुम किसी और को देने लगोगे। तब तुम्हें एक और गुरु चाहिए पड़ेगा, जिसको तुम गाली दो और एक गुरु जिसकी तुम प्रशंसा करो। यही तो लोग कर रहे हैं। अगर महावीर की प्रशंसा करते हैं, तो बुद्ध को गाली देते हैं । गालियां कहां जायें ? नहर खोदनी पड़ती है। अगर राम की प्रशंसा करते हैं तो कृष्ण को गाली देते हैं। अगर कृष्ण की प्रशंसा करते हैं तो राम को गाली देते हैं। लेकिन थोड़ा जागो ! करेगा, बनाना शुरू कर दिया। मकान बनाये। दुकानें बनाईं। चर्च बनाये । वर्षों बाद, कोई बीस वर्ष बाद, जब उसका पूरा नगर आबाद हो गया, तब एक जहाज किनारे लगा कर । तो उस शिल्पी ने कहा जहाज के यात्रियों को, कैप्टन को, कि इसके पहले कि हम छोड़ें, इसके पहले कि मैं जहाज पर सवार हो जाऊं, आओ, मैंने जो बनाया है उसे तो देख लो ! तो उसने Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्पकातिम निष्पत्तिः समा जाकर दिखाया। और सब तो ठीक था, लेकिन लोग बड़े हैरान हाथ से मिटाता हूं। यह भवन फिर कैसे बनेगा? एक हाथ से हुए : उसने दो चर्च बनाये। उन्होंने कहा, दो चर्च का क्या | श्रद्धा की ईंट रखता हूं, दूसरे हाथ से अश्रद्धा का जहर डालता करोगे? एक चर्च समझ में आता है। तो उसने कहा, एक चर्च हूं। एक हाथ से बीज बोता हूं, दूसरे हाथ से अग्नि बरसाता हूं। वह जिसमें मैं जाता हूं और एक चर्च वह जिसमें मैं नहीं जाता हूं। यह भवन, यह बगीचा निर्मित कैसे होगा? थोड़ा सोचो। अकेले एक चर्च से काम न चलेगा, जिसमें तुम तुम कुछ मेरा नुकसान कर रहे हो, ऐसा मत सोचना। तुम जाते हो। वह चर्च भी चाहिए, जिसमें तुम नहीं जाते। मंदिर से अपना ही नुकसान कर रहे हो। तुम अपने भोजन में ही गंदगी काम न चलेगा, मस्जिद भी चाहिए जिसमें तुम नहीं जाते। गिरजे डाल रहे हो। वह तुम्हें ही भोजन करना है। वह तुम्हारे ही खून में से ही काम नहीं चलेगा, गुरुद्वारा भी चाहिए जिसमें तुम नहीं | बहेगा। उससे तुम्हारी ही हड्डी बनेगी। गाली देने से उसका थोड़े जाते। मजा ही क्या है अगर अकेला वही चर्च हो जिसमें तुम ही नुकसान होता है जिसे गाली दी–गाली देनेवाले का नुकसान जाते हो। तो फिर तुम्हारा गलत जो है वह तुम कहां रखोगे? होता है। उसकी जीभ खराब हुई। उसका हृदय धूमिल हुआ। तो अकसर लोग दो गुरु चुनते हैं: एक, जिसके पक्ष में; और | उसके प्राण क्षुद्र हुए। एक जिसके विपक्ष में। दो प्रेमी चुनते हैं: एक को मित्र कहते हैं, पूछा है, 'यह क्या है?' एक को शत्रु। यह तुम्हारे भीतर का सीजोफ्रेनिया, तुम्हारे भीतर का विभक्त ध्यान से देखना, अगर तुम्हारा शत्रु मर जाये तो तुम्हें बड़ी कमी व्यक्तित्व। तुम दो हो, एक नहीं। इस 'दो' को हटाओ और मालूम होगी। तुम बड़े खाली-खाली मालूम पड़ोगे। अब तुम एक को जन्माओ। अन्यथा तुम विक्षिप्त हो जाओगे-ऐसे जैसे क्या करोगे? शत्रु के मरने से भी-जिसको तुम सदा चाहते थे तुम्हारे भीतर दो व्यक्ति हैं और तुम्हारे भीतर एकता नहीं है। कि मर जाये, जिसके लिए तुम प्रार्थना करते थे कि मर जिसने पूछा है, उसे मैं जानता हूं। अगर वह ऐसे ही चलता रहा जाये-वह भी जब मरेगा तो तुम रोओगे भीतर। क्योंकि तुमको | तो आज नहीं कल पागल-घर में होगा, पागलखाने में होगा। लगेगा, अब तुम क्या करोगे? जो तुम शत्रु की तरफ बहा रहे थे, जैसे तुम्हारा एक पैर एक तरफ जाये, दूसरा पैर दूसरी तरफ अब वह कहां जायेगा? फिर तुम्हें कोई शत्रु खोजना पड़ेगा। जाये; एक आंख कुछ देखे, दूसरी आंख कुछ देखे तो तुम लोग बिना शत्र के नहीं रह सकते, क्योंकि उनके भीतर बड़ी धीरे-धीरे खंडित हो जाओगे: तम्हारे भीतर का सर-संगीत खो शत्रुता छिपी है। जायेगा; सामंजस्य, समन्वय टूट जायेगा। तो दो उपाय हैं : या तो तुम एक गुरु और खोज लो, एक चर्च यह एक तरह का पागलपन है। इससे जागो। और इसमें रस और बनाओ जिसमें तुम नहीं जाते, जिसकी तुम नहीं सुनते, | मत लो। क्योंकि प्रश्नकर्ता के प्रश्न से ऐसा लगता है, जैसे वह जिसके तुम दुश्मन हो, जो गलत है, पाखंडी है। और दूसरा कोई बड़ी बहुमूल्य बात कर रहा है। क्योंकि उसने यह भी लिखा उपाय यह है कि तुम्हारे भीतर ये जो गालियां उठ रही हैं, इन्हें है पीछे कि जब मैं इस तरह गालियां इत्यादि देता हूं तो लोग मुझे समझो, देखो, अपने भीतर के कलुष को पहचानो, अपने भीतर 'नासमझ' कहते हैं और मुझे उन पर हंसी आती है। ऐसा लगता के कड़ा-कर्कट को समझो-बझो। है, तुम रस ले रहे हो। कोई हर्जा नहीं। अगर इससे ऊपर न उठ पहला उपाय सार्थक नहीं है, क्योंकि उससे तुम बदलोगे ना सको तो यह भी ठीक है। कम से कम गाली देते हो, तब भी मेरी तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे। उससे तो यही बेहतर है कि तुम मुझे याद तो कर ही लेते होओगे, मगर याद करने के बेहतर ढंग हो प्रेम भी किये जाओ और गालियां भी दिये जाओ। क्योंकि यह | सकते हैं। यह याद करने का तुमने बड़ा बेहूदा ढंग चुना। स्थिति ज्यादा दिन न चल सकेगी; तुम्हारा प्रेम ही भीतर सकुचाने मैं तुमसे कहता हूं, अगर अनाप-शनाप बकना हो, गाली देना लगा है; तुम्हारा प्रेम ही भीतर कष्ट पाने लगा है। अच्छा है, हो, तो प्रेम को हटा दो, कम से कम इकहरे इकट्ठे तो रहोगे। कोई फिक्र नहीं। ऐसे ही जीये जाओ। धीरे-धीरे तुम खुद ही अगर प्रेम करना हो तो गाली-गलौज से छुटकारा पा लो। सोचोगे, यह मैं क्या कर रहा हूं! एक हाथ से बनाता हूं, दूसरे क्योंकि मेरा सवाल नहीं है। मुझे गाली देने से मेरा क्या हर्ज है! www.jainelibrarorg Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 लेकिन तुम्हारी गाली तुम्हीं को तोड़ती जायेगी। तुम धीरे-धीरे रही भगवान की धारणा, तो क्या भगवान की तुम्हारी धारणा अपने से ही अलग होने लगोगे। और इन दोनों छोरों को मिलाना है, इस पर सब निर्भर करेगा, क्या तुम्हारी परिभाषा है। भगवान मुश्किल हो जायेगा। | शब्द तो बड़ा साफ-सुथरा है। इसका मतलब केवल होता है: एक रात मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को सुलाकर अपने कमरे भाग्यवान। उसका अर्थ होता है: द ब्लेसिड वन। उसका इतना में आ गया। एक घंटे से ऊपर हो गया, मगर वह बेटा बार-बार ही अर्थ होता है कि जिसने अपनी नियति को पा लिया, अपने चिल्लाये जा रहा था ः 'पापा! मुझे प्यास लगी है।' भाग्य को उपलब्ध हो गया; जो होने को था, हो गया। बस 'चुपचाप सो जाओ', मुल्ला ने जोर से चिल्लाकर कहा। इतना ही। जब कली फूल बन जाती है, तब भगवान है। जो हो 'अगर अब और तंग किया तो उलूंगा और थप्पड़ लगाऊंगा।' सकती थी, हो गई। बीज में पड़ी थी, तब भगवान न थी। वृक्ष में 'पापा, जब थप्पड़ लगाने उठो तो एक गिलास पानी भी लेते छिपी थी, तब भगवान न थी। कली थी, तब भी भगवान न थी। आना', बेटे ने कहा। | भगवान होने के रास्ते पर थी। फिर फूल हो गई। भगवान हो ठीक कहा। कम से कम इतना तो कर ही लेना। उठोगे तो ही। | गई। भाग्य खिल गया। तो अगर कोई और उपाय न हो, और याद करने का यही ढंग मेरे लिए तो 'भगवान' शब्द का इतना ही अर्थ है कि तुम जो तुम्हें आता हो, कोई हर्जा नहीं। चलो, यह भी ठीक, गाली ही दे होने को हो वही हो जाओ। निश्चित ही, प्रत्येक की भगवत्ता लेना। याद तो जारी रहेगी। लेकिन दोनों में अगर चलते रहे तो भिन्न होगी। कोई पिकासो होगा और उसके जीवन में बडे तुम दो घोड़ों पर सवार हो, तुम बड़ी अड़चन में पड़ोगे। या तो चित्रकारी के फूल खिलेंगे। कोई कालिदास होगा; उसके जीवन प्रेम को जाने दो। यह भी प्रेम क्या? या गाली को जाने दो। में काव्य के बड़े फूल खिलेंगे। हर व्यक्ति की भगवत्ता उसकी एक स्वर बनो, तो ही शांत हो सकोगे। अन्यथा शांति का कोई अपनी निज होगी। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का बीज अनूठे-अनूठे उपाय नहीं है। शांति कुछ भी नहीं है-एकस्वर हो गये आदमी ढंग से खिलेगा। की अवस्था है। अशांति कुछ भी नहीं है-दो स्वरों में, अनेक इसलिए तो महावीर महावीर जैसे हैं, बुद्ध बुद्ध जैसे हैं, कृष्ण स्वरों में बंटे और टूटे हुए आदमी की विक्षिप्तता है। कृष्ण जैसे हैं। इनके लिए तुलना भी तो नहीं खोजी जा सकती कि किसके जैसे हैं। अब कृष्ण को महावीर से कैसे तौलोगे? और उन्हीं मित्र ने दूसरा सवाल भी पूछा है। भगवान के संबंध में तुमने अगर भगवान का अर्थ बड़ा सीमित कर लिया कि कृष्ण मेरे मन में जो पुरानी और विचित्र धारणाएं जमी हैं, उनके कारण | भगवान हैं, तो फिर अड़चन आ जायेगी; फिर राम भगवान न हो आप मझे भगवान जैसे नहीं लगते; किंतु आप जो मेरे लिए हैं, । सकेंगे। फिर तुम्हारा भगवान का दायरा बड़ा छोटा है। वह एक उसे मैं कोई नाम देने में असमर्थ पाता हूं अपने को। आप इतने आदमी पर समाप्त हो गया। फिर बुद्ध भगवान न हो पायेंगे। विराट और हम जैसे ही लगते हैं। कृपा कर इस पर कुछ फिर महावीर को कहां रखोगे? फिर मुहम्मद को कहां रखोगे, प्रकाश डालें। क्राइस्ट को कहां रखोगे, मूसा को कहां रखोगे? फिर नानक और कबीर और दादू और रैदास...? नहीं, फिर तम बड़ी भगवान जैसा मैं हूं भी नहीं, तो लगूगा कैसे? 'भगवान मुश्किल में पड़ जाओगे। फिर करोड़ों भगवान हुए हैं। जो भी जैसे' का अर्थ समझे कि जो भगवान नहीं है, भगवान जैसा है! खिल गया, वह भगवान हो गया, भाग्यवान हो गया। तो फिर मैं तुमसे कहता हूं, मैं भगवान हूं, भगवान जैसा नहीं। और तुम उनको कहां रखोगे? अगर तुमने फूल के खिलने की कोई तुमसे भी मैं कहता हूं, तुम भगवान हो, 'भगवान जैसे' नहीं। ऐसी परिभाषा बना ली कि जैसा चंपा का फूल खिलता है, वही 'जैसे' शब्द में तो बड़ा झूठ छिपा है, बड़ा असत्य छिपा है। खिलना है, तो फिर गुलाब के फूल को तुम क्या कहोगे? तुम 'जैसे' का तो अर्थ हुआः खोटा सिक्का; असली सिक्के जैसा कहोगे, 'यह कोई खिलना है? खिलता तो चंपा का फल है।' लगता है, है नहीं। तो फिर तुम्हारा फूल शब्द बड़ा सीमित है। फिर तो चंपा का ही 264/ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प की अंतिम निष्पत्ति: समर्पण फूल फूल है; और गुलाब और कमल, फिर कोई फूल न रहे। क्योंकि उनकी और पुरानी परिभाषाएं थीं जिसमें वे नहीं बैठते लेकिन गुलाब भी फूल है, कमल भी फूल है, चंपा भी फूल है, थे। नया भगवान कभी भी पुराने भगवान वाली परिभाषा में नहीं चमेली भी। एक ही फूल शब्द सबके लिए उपयोग करते हो। बैठ सकता, क्योंकि वह परिभाषा उसके लिए बनी न थी। वह क्योंकि न तो रंग से फूल का कोई संबंध है, न आकृति से कोई परिभाषा किसी और के लिए बनी थी। अब जिन्होंने राम को संबंध है—फूल का संबंध तो खिलने से है, फूलने से है, | भगवान माना है, वे कृष्ण को कैसे भगवान मानें? इधर राम प्रफुल्ल होने से है, खुल जाने से। तो जो भी खुल जाता है, वही | हैं-एक पत्नीव्रता! इधर कृष्ण हैं-कहते हैं, सोलह हजार फूल है। गुलाब भी खुलता है, कमल भी खुलता है। गंध उनकी रानियां हैं! अनब्याही, दूसरों की ब्याही हुई स्त्रियों को भी | अलग, रंग अगल, रूप, ढंग अलग-इससे कोई लेना-देना उठा लाये हैं। यह कोई भगवान जैसी बात है? तो बहुतों को तो है, खुल गया; पूरा हो गया; जो छिपा कृष्ण लंपट ही मालूम होते हैं। बहुतों को राम भी कुछ बहुत था वह प्रगट हुआ; जो गीत अनगाया पड़ा था, वह गाया गया; ऊंचाई पर नहीं मालूम होते। जो नाच अभिव्यक्त नहीं हुआ था, अभिव्यक्त हो गया! तुम्हें मैं समझाने की कोशिश में कुछ उदाहरण दूं। भगवान बीजरूप से सभी भगवान हैं। फूलरूप से सभी भगवान हो | सभी को एक जैसा उपलब्ध है; जैसे सूरज का प्रकाश सब पर सकते हैं। तुम्हारी परिभाषा पर निर्भर है। तुम्हारी परिभाषा अगर पड़ रहा है। लेकिन कोई वृक्ष हरा मालू बहुत क्षुद्र और संकीर्ण है तो अच्छा ही है कि तुम मुझे उसके लाल मालूम हो रहा है, कोई फल सफेद है और प्रकाश सब बाहर रखो, क्योंकि उतनी संकीर्ण परिभाषा में जीना मुझे रुचेगा पर एक जैसा पड़ रहा है। भौतिकी, फिजिक्स के जानकारों का नहीं : तुम यही समझो कि यह आदमी भगवान नहीं है। लेकिन कहना है कि प्रकाश की किरण तो सब पर पड़ रही है। लेकिन तुम ध्यान रखना, अगर परिभाषा तुम्हारी बहुत छोटी है, तो तुम | जो पत्ते प्रकाश की हरी किरण को वापस लौटा देते हैं, वे हरे भी भगवान न हो सकोगे। तुम्हारी परिभाषा में अगर मैं नहीं समा मालूम हो रहे हैं। जो चीजें प्रकाश की किरणों को पूरा पी जाती सकता तो तुम कैसे समाओगे? | हैं, वे काली मालूम होती है। जो चीजें प्रकाश को पूरा का पूरा मित्र ने पूछा है कि 'आप तो हमें हम जैसे ही लगते हैं।' लौटा देती हैं, वे सफेद मालूम होती हैं। जो चीजें जिस किरण को तो यही दोष है कि मैं तुम्हें तुम जैसा लगता है। तो फिर तुम्हारा लौटाती हैं, वे उसी किरण के रंग की हो जाती हैं। अंधेरे में सभी क्या होगा? तुम जैसे लगने के कारण भी परिभाषा में नहीं वस्तुओं का रंग खो जाता है—यह तुम जानकर हैरान होओगे। समाता, तो तुम्हारी क्या गति होगी? तुम तो बिलकुल परिभाषा अंधेरे में तुम यह मत सोचना कि जो हरे वृक्ष थे, वे अभी भी हरे के बाहर पड़ जाओगे। मैंने तो चाहा है कि तुम्हें याद आ जाये कि होंगे-भूल में मत पड़ना। फिजिक्स कहती है, वृक्ष हरे नहीं तुम भगवान हो, लेकिन तुम्हारी कोई धारणा होगी। उस धारणा होते अंधेरे में। और यह मत सोचना कि जब अंधेरा होता है तो से मैं मेल न खाता होऊंगा। तुम अगर हिंदू हो तो कृष्ण...अगर गुलाब का फूल और चमेली का फूल अभी भी सफेद और लाल जैन हो तो महावीर...। निश्चित ही मैं नग्न नहीं खड़ा हूं, कपड़े होगा। गलती में हो तुम। रंग के लिए प्रकाश चाहिए। जब पहने हुए हं, तो महावीर तो है ही नहीं। तो उस अर्थ में भगवान अंधेरा होता है तो सब रंग खो जाते हैं; कोई वस्तु का कोई रंग नहीं हूं। निश्चित ही मैं बुद्ध जैसा नहीं हूं। और न ही किसी नहीं होता। न काली वस्तुएं काली होती हैं, न सफेद वस्तुएं बोधि-वृक्ष के नीचे बैठा हूं। निश्चित ही बुद्ध नहीं हूं। न कृष्ण | सफेद होती हैं; क्योंकि रंग वस्तुओं में नहीं है, रंग तो वस्तुओं जैसा है; मोरमुकुट नहीं बांधा, बांसुरी हाथ में नहीं है, पीतांबर और प्रकाश के बीच के अंतर्संबंध में है: जिस चीज में भोग की | नहीं पहना. तो कैसे कष्ण जैसा हं? तो तम्हारी परिभाषा में तो मैं गहन वत्ति है...। न आऊंगा। इसलिए हम राक्षसों को काला प्रतीक मानते रहे हैं। वह प्रतीक लेकिन तुम याद रखना, कृष्ण के समय में बहुत लोग थे जो बिलकुल ठीक है। जरूरी नहीं है कि रावण काला रहा हो, कृष्ण को भगवान नहीं मान सकते थे। नहीं माना था उन्होंने, लेकिन प्रतीक की तरह बिलकुल ठीक है। काले का अर्थ है : जो 265 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 जिन सूत्र भाग: 1 सब पी जाये, कुछ छोड़े न; सब पर कुंडली मारकर बैठ जाये, कुछ दान न करे; जिसके जीवन से प्रेम न उठता हो; जो सब चीजों के लिए कृपणता से इकट्ठा करता चला जाये। ठीक है कि रावण की लंका सोने की थी, रही होगी। सारा सोना उसने इकट्ठा कर लिया होगा सारे संसार से काला रंग राक्षस, शैतान, असुर उसका रंग है। साधारणतः हममें से अधिक लोग भगवान के साथ यही करते हैं। भगवान हम पर बरस रहा है। वह प्रकाश की भांति है। लेकिन हम उसे पीकर बैठ जाते हैं। हम उसे सिकोड़ लेते हैं। | हम सब तरफ से उस पर कुंडली मार लेते हैं। हम उसे बांटते नहीं। हम उसे लौटने नहीं देते। उसके कारण हम बेरंग हो जाते हैं, काले हो जाते हैं। बाटो ! जितना तुम बांटोगे उतना तुम्हारे जीवन में रंग आने लगेगा। अगर तुमने एक किरण लौटा दी तो हरा रंग आ जायेगा; अगर दूसरी किरण लौटा दी तो लाल रंग आ जायेगा। अगर तुमने सब लौटा दिया तो तुम शुभ्र हो जाओगे । दुनिया के सारे धर्मशास्त्र शैतान को काला रंगते हैं, राक्षस को काला रंगते हैं | जरथुस्त्र अहरिमन को काला रंगता है। ईसाई डेविल को, मुसलमान शैतान को, सब काले रंगते हैं। वह काला बिलकुल प्रतीक है। वह जैसा भौतिक शास्त्र का अंग है, वैसे ही अध्यात्म-शास्त्र का भी अंग है। जब भी तुम किसी चीज को पीकर बैठ जाते हो, तुम काले हो जाते हो। तब तुम बीज की भांति हो; सब भीतर बंद है और एक खोल ऊपर से चढ़ी है। जब तुम सब छोड़ देते हो, इसलिए सफेद त्याग का प्रतीक है। तो महावीर, बुद्ध, राम, मोज़िज़ शुभ्र वस्त्रों की भांति हैं, शुभ्र दीवाल की भांति हैं । लाओत्सु पारदर्शी कांच की भांति है । तो अगर कांच पूरा पारदर्शी हो तो तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ेगा । उसके पार क्या है, वह दिखाई पड़ेगा; कांच दिखाई नहीं पड़ेगा । अगर कांच दिखाई पड़ता है तो उसका मतलब है, थोड़ी अशुद्धि रह गई। तो लाओत्सु अगर तुम्हारे पास भी बैठा रहे तो तुम्हें पता न चलेगा। अगर महावीर तुम्हारे पास बैठें, तो तुम्हारी आंखें "जैनों ने सफेद वस्त्र चुने मुनियों के लिए -त्याग की वजह से चमचमा जायेंगी; शुभ्रता तुम्हें घेर लेगी। अगर रावण तुम्हारे सब छोड़ देता है । सब त्याग कर देता है। पास बैठे तो तुम घबड़ाने लगोगे; वह तुम्हें चूसने लगेगा, खींचने लगेगा। वह तुम्हारी सीता को चुराने में लग जायेगा। वह तुम्हें भी पी जाना चाहेगा। जरूरी नहीं है कि वह तुम्हें भोगे, क्योंकि भोगने के लिए भी थोड़ा त्यागना पड़ता है। वह तो सिर्फ कुंडली मारकर बैठ जायेगा। I तो एक तरफ शैतान है। फिर जो सब छोड़ देता है; जैसे राम, जैसे महावीर, सब छोड़ देते हैं— शुभ्र हैं । तो राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनका जीवन बड़े संयम, विवेक, संतुलन, अनुशासन का जीवन है। महावीर का जीवन परम त्याग का जीवन है; सब छोड़ दिया है; सब छोड़ दिया; कुछ भी नहीं रखा है— शुभ्र हो गये हैं! जैनों के दो पंथ हैं: दिगंबर और श्वेतांबर । महावीर ने वस्त्र तो पहने नहीं, रहे तो वे नग्न ही; लेकिन फिर भी श्वेतांबर दृष्टि में भी सार है। यह कहना कि वे सफेद वस्त्रों में ढके थे, बिलकुल सार्थक है। जैसे शैतान को काला रंगने में सार्थकता है, वैसे ही महावीर को शुभ्र वस्त्रों में, श्वेतांबर बनाने में भी सार्थकता है। यद्यपि वे नग्न थे, लेकिन उनके जीवन का लक्षण सफेद, शुभ्र, श्वेत वस्त्र हैं— श्वेतांबर हैं । सब उन्होंने छोड़ दिया। यह दूसरा उपाय है। अगर परमात्मा को तुम सिकोड़कर बैठ गये, तो तुम कुछ भी हो सकते हो ः पशु, पत्थर, आदमी । परमात्मा तुम्हारे भीतर सिकुड़ा पड़ा रहेगा। बाटो ! खोलो इन जालों को जो भीतर बंधे हैं! तोड़ो खोल को, अंकुर उठने दो! तुम पाओगे शुभ्र परमात्मा का उदय हुआ। साधारण विभाजन हैं। फिर एक तीसरी भी स्थिति है। जैसे कि कोई पारदर्शी कांच का टुकड़ा, वह किरणों को लौटाता नहीं है, पीता भी नहीं, पार हो जाने देता है; शुभ्र भी नहीं है, काला भी नहीं है। क्योंकि काला होने के लिए पी जाना जरूरी है। शुभ्र होने के लिए लौटा देना जरूरी है। कांच का टुकड़ा पार हो जाने देता है; पारदर्शी है। सफेद दीवाल है; वह लौटा देती है। काला पत्थर है, वह पी जाता है। कांच है, वह पार हो जाने देता है। इसलिए मैं... रामायण में जो कथा है कि वह सीता को चुराकर ले गया, फिर उसने अशोक वाटिका में उन्हें रख दिया, उन्हें छुआ भी नहीं। असली कंजूस छूता भी नहीं। धन को छूता भी नहीं; बस उसको रखकर तिजोड़ी में बैठ जाता है। उसने सीता Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प की अंतिम निष्पत्तिः समर्पण को भोगा नहीं। उसमें प्रयोजन भी न था। बस सुंदर स्त्री मेरे से नाराज होकर लौटेंगे, क्योंकि उनका कुरूप चेहरा दिखाई कब्जे में आ गई, इतना काफी है। उसका रस कब्जे का रस है। पड़ेगा, उनकी वीभत्सता दिखाई पड़ेगी। ऐसे लोग महावीर से | तो अगर रावण जैसा आदमी तुम्हारे पास बैठे तो तुम पाओगे, | नाराज न होंगे, क्योंकि महावीर के पास सिर्फ महावीर के फूल जैसे कोई अंधकार तुम्हें खींचे लेता हो, पी जाना चाहता है। | दिखाई पड़ेंगे। तुम महावीर की पूजा कर लोगे। महावीर के साथ अगर राम और महावीर जैसे व्यक्ति तुम्हारे पास खड़े हों, तो तुम पूजा पर्याप्त हो जायेगी। पतंजलि के साथ साधना जरूरी होगी। पाओगे कि तुम्हारी आंखें किसी शुभ्रता में झपकपाने लगीं। उन्हें लेकिन जो भी पतंजलि के साथ जायेगा उसके जीवन में क्रांति झेलना मुश्किल मालूम पड़ेगा। निश्चित है। लाओत्सु जैसा व्यक्ति अगर तुम्हारे पास भी बैठा हो तो तुम्हें फिर एक और पांचवां रूप है-प्रिज्म की भांति। किरण पता न चलेगा कि कोई बैठा है या नहीं बैठा है। इसलिए तो गुजरती है तिकोन कांच के टुकड़े से, तो इंद्रधनुष पैदा हो जाता लाओत्सु के पीछे कोई धर्म न बन सका। धर्म बने कैसे? धर्म | है। कृष्ण ऐसे हैं जैसे इंद्रधनुष। किरण पार भी होती है, लेकिन बनने के लिए दिखाई पड़ना चाहिए। लाओत्सु तो ना-कुछ है, लाओत्सु जैसी नहीं। प्रिज्म में से पार होती है। सीधा-सरल शून्यवत है। यह भी परमात्मा का एक रूप है। कांच का टुकड़ा नहीं है। बड़े कोणों वाला कांच का टुकड़ा! बड़े परमात्मा का पहला रूप है: शैतान–सबसे नीचा रूप। पहलुओं वाला कांच का टुकड़ा! कृष्ण बहुआयामी हैं, बड़े दूसरा रूप है : शुभ्र। कुछ उस ढंग से प्रगट होते हैं परमात्मा। पहलू हैं! और जब कृष्ण से किरण गुजरती है तो सात रंगों में टूट फिर लाओत्सु है; वह भी एक रूप है परमात्मा का पारदर्शी। जाती है। बड़ा नृत्य, बड़ा गीत, बड़ा रास पैदा होता है। इसलिए फिर एक चौथा रूप भी है—दर्पण की भांति; किरणें लौटती ही मोर-मुकुट है। इसलिए मोर-पंख बंधे हैं। इसलिए हाथ में नहीं सिर्फ, तुम्हारा प्रतिबिंब भी बनाती हैं। तुम अगर दर्पण के बांसुरी है। इसलिए पैर में धुंधर बंधे हैं। इसलिए पीतांबर वेश | पास जाओगे तो तुम्हारी तस्वीर तुम्हें दिखाई पड़ जायेगी। कुछ में है। इसलिए सिल्क, शुद्धतम सिल्क के वस्त्र हैं। गले में हार परमात्मा इस रूप में भी प्रगट हुआ है—पतंजलि। अगर | है। बाहुएं आभूषणों से सजी हैं। करधनी बांधी हुई है। कृष्ण पतंजलि के पास जाओगे तो तुम्हें अपनी तस्वीर दिखाई पड़ने बड़े रंगीले हैं, बड़े सजे हैं। परमात्मा बड़े शृंगार में प्रगट हुआ लगेगी। महावीर के पास न दिखाई पड़ेगी तुम्हें अपनी तस्वीर। है। अगर नाचना हो तो कृष्ण के साथ। अगर गीत की धुन सिर्फ तुम्हें उनकी शुभ्रता घेर लेगी; जैसे चांदनी के फूल तुम पर | सुननी हो तो कृष्ण के पास। बरस पड़ें! लेकिन पतंजलि के पास तुम्हें अपना ही रूप दिखाई कृष्ण पतंजलि जैसे शिक्षक नहीं हैं, न महावीर जैसे हैं, पड़ जायेगा; तुम्हारी झलक बनेगी। और पतंजलि तुम्हें अभिभूत कर लें, ऐसे हैं। न लाओत्सु जैसे कि शून्य में खो गये आत्म-आविष्कार के लिए बड़ा सहयोगी हो सकेगा। लाओत्सु हों, ऐसे हैं। कृष्ण के साथ महोत्सव है, उत्सव है। कृष्ण के के साथ तो वे लोग चल सकेंगे, बहुत मुश्किल, विरले, जिनके साथ राग-रंग है। पास इतनी सूक्ष्म दृष्टि है कि पारदर्शी को भी देख सकें। पतंजलि और सभी रूप परमात्मा के हैं। अब इसमें से जो किसी एक के साथ बहुत लोग चल सकेंगे। महावीर के साथ भी लोग चल रूप से जकड़ गया उसको दूसरा रूप पहचान में न आयेगा। सकेंगे, राम के साथ भी चल सकेंगे; लेकिन राम और महावीर अगर तुमने कृष्ण की रंग-रेली देखी और उसको तुमने परमात्मा से अभिभूत होंगे, रूपांतरित बहुत नहीं होंगे। क्योंकि खुद का का रूप जाना, तो फिर महावीर तुम्हें सूखे-सूखे, रूखे-रूखे दर्शन नहीं होगा। महावीर का दर्शन होगा अगर उनके पास | मालूम पड़ेंगे। तुम कहोगे, 'ये कैसे भगवान हैं? बांसुरी तो जाओगे। पतंजलि की खूबी और! उसके पास तुम्हें तुम्हारा बजती ही नहीं, भगवत्ता कहां है? संगीत तो पैदा ही नहीं होता, दर्शन होगा! तुम्हारा चेहरा विकराल है तो विकराल दिखाई गीत तो बरसते ही नहीं, ये कैसे भगवान?' बड़े मरुस्थल जैसे पड़ेगा, सुंदर है तो सुंदर दिखाई पड़ेगा। तुम जैसे हो, पतंजलि के मालूम होंगे। | पास तम वैसे ही प्रगट हो जाओगे। कुछ लोग पतंजलि के पास और अगर तम महावीर से अभिभूत हो गये और तमने कहा, 267 स | Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 जिन सूत्र भाग: 1 यही भगवान का रूप है तो कृष्ण में तुमको लगेगा, कुछ गड़बड़ हो रही है। यह नाच कैसा ? परम वीतराग पुरुष कहीं नाचता है? यह बांसुरी कैसी? क्योंकि सब बांसुरी तो राग है। सब रास राग है। यह आसपास खड़ी हुई सुंदर स्त्रियां, नाचतीं, डोलतीं, यह सब क्या हो रहा है? यह तो संसार है। तुम्हारी परिभाषा पर निर्भर है। और मैं धार्मिक व्यक्ति उसको कहता हूं, जिसकी परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं; जो परमात्मा को अपरिभाष्य मानता है, अनिर्वचनीय मानता है । और जिस रूप में भी परमात्मा प्रगट होता है, पहचान लेता है, खोज लेता है; क्योंकि रूप तो सब उसी के हैं। इसलिए धोखे का कोई उपाय नहीं है। तामीरे - कायनात को गहरी नज़र से देख वह जर्रा कौन-सा है यहां जो अहम् नहीं । जरा गहरी नजर से देखो सृष्टि को ! यहां कण-कण महत्वपूर्ण है! उसकी महिमा से आपूरित है ! उसकी ही विभूति है, उसका ही प्रसाद है। लेकिन तुम्हारा जितना बड़ा प्याला होगा, उतनी ही तुम क्षमता जुटा पाओगे परमात्मा के प्रसाद की । इसलिए छोटी-छोटी परिभाषाओं के प्याले लेकर मत चलो। जब प्याला ही लेना है तो बड़ा लो कि सागर समा जायें। नहीं तो आज नहीं | कल, तुम पाओगे कि तुम्हारे प्याले में बड़ा थोड़ा है। और थोड़ा तुम्हें कष्ट देगा। और कष्ट तुम्हारे प्याले के कारण हो रहा है। तुमने प्याला बड़ा चुना होता तो परमात्मा बड़े प्याले में भी उतरने को राजी था । अनिर्वचनीय को पकड़ो! अव्याख्य की व्याख्या मत करो । अव्याख्य को अव्याख्य रहने दो। नाम-रूप मत धरो उसके । तो फिर जिस रूप में भी आयेगा, तुम पहचान लोगे। तुम हर रूप में पहचान लोगे। तुम रावण में भी देख लोगे, राम में तो देख ही लोगे। वह भी उसी का रूप है; विपरीत चला गया, गलत हो गया, बेस्वाद हो गया— लेकिन उसी का स्वाद है। साकिए - दौरा से शिकवा बेश-कम का है फिजूल जर्फ जितना उसने देखा उतनी पैमाने में है। साकिए-दौरां से शिकवा बेश-कम का है फिजूल - साकी से कम-ज्यादा की शिकायत करनी व्यर्थ है। जर्फ जितना उसने | देखा, उतनी पैमाने में है। उसने देखा, कितनी तुम पचा सकोगे, उतनी तुम्हारे पैमाने में है । बड़ी करो परिभाषा ! मेरी मानो तो परिभाषा को छोड़ो, इतनी बड़ी करो कि परिभाषा बचे न। तो तुम्हारा जर्फ बड़ा होगा, तुम्हारी क्षमता और पात्रता बड़ी होगी। तब मैं ही तुम्हें भगवान नहीं, तुम भी, तुम्हारा बेटा भी, तुम्हारी पत्नी भी - सभी तुम्हें भगवान दिखाई पड़ने लगेंगे। कोई बीजरूप है, कोई वृक्षरूप हुआ, कोई कली बना, कोई फूल बना। और फूलों की हजारों-हजारों किस्में हैं; ऐसे ही परमात्मा के हजार-हजार रूप हैं। फिर जो मुझे भगवान कहते हैं, वे केवल अपना प्रेम प्रदर्शित करते हैं। जिससे प्रेम हो जाये, वहीं भगवान दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। वह प्रेम ही क्या जिसमें भगवान दिखाई न पड़े? तुम मेरी तो छोड़ो, तुम अगर किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गये तो वहां भी दिव्यता की झलक दिखाई पड़ेगी। तुम अगर किसी पुरुष के प्रेम में पड़ गये तो वहां भी अचानक पुरुष-भाव खो जायेगा, परमात्म-भाव प्रगट होगा। शबाब आया, किसी बुत पर फिदा होने का वक्त आया मेरी दुनिया में बंदे के खुदा होने का वक्त आया। जब कोई जवान होता है, शबाब आया, जवानी आई, किसी बुत पर फिदा होने का वक्त आया ! अब किसी प्रतिमा पर पागल हो जाने का समय आ गया। मेरी दुनिया में बंदे के खुदा होने का वक्त आया। अब कोई बंदा खुदा जैसा दिखाई पड़ेगा। यह तो साधारण प्रेम में हो जाता है। यह तो मजनू को लैला में दिखाई पड़ने लगता है। यह तो शीरी को फरिहाद में दिखाई पड़ जाता है। तो आत्मिक प्रेम में तो घटना और भी गहरी घटती है । अब जिनका मुझसे प्रेम है, उन्हें भगवान दिखाई पड़ जायेगा । तुम्हारा हो या न हो, मेरा तुमसे है; मुझे तुम में दिखाई पड़ता है। अगर तुम्हें न दिखाई पड़े तो तुम व्यर्थ ही वंचित रह जाओगे । और ध्यान रखना, अगर मैं तुमसे कहूं कि परमात्मा मुझ में है और किसी में नहीं, तो खतरनाक बात कह रहा हूं। तुम भी यही सुनना चाहते हो, क्योंकि फिर तुम्हारा अहंकार मजे से रस ले सकेगा। लेकिन मैं कहता हूं, परमात्मा सबकी सामान्यता है। परमात्मा कोई विशेष बात नहीं है, कोई विशिष्टता नहीं है। परमात्मा सभी के होने का ढंग है, सभी का स्वभाव है। जानो न जानो, तुम परमात्मा हो, जब तक न जानोगे, बंद रहोगे; जिस Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन जान लोगे, खुल जाओगे । इसलिए कहीं अगर तुम्हें कोई फूल मिल जाये तो उसके पास थोड़े रह लेना, क्योंकि सत्संग संक्रामक होता है। फूल के पास शायद तुम्हारी कली भी खुलने का ढंग सीख जाये। बस इतना ही सत्संग का अर्थ होता है। आखिरी प्रश्न: कुछ कहना था, नहीं कह पा रहा हूं। हृदय की पीड़ा प्रेम बनकर बिखर जाती है। मेरी दिनचर्या आनंदचर्या बन चुकी है। मेरी आंखें अब झपकने - सी लगी हैं, क्योंकि आपकी आंखों में जादू है । अब पिघलूं और बहूं - बस यही कह दें! तथास्तु! आज इतना ही । संकल्प की अंतिम निष्पत्ति: समर्पण 269 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inteo WWW. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रवचन वासना ढपोरशंख है For Private & Personal use only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ। ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्त कामेहिं । । ३२ ।। तुमं सि नाम स चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि । सिनाम सचेव, जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ।। ३३ ।। रागादीणमणुप्पासो, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए । तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा ।। ३४ ।। अज्झसिएण बंधो, सत्ते मारेज्ज मा थ मारेज्ज | एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छयणयस्स । । ३५।। हिंसा दो अविरमणं, वहपरिणामो य होइ हिंसा हु । तम्हा पमत्तजोगे, पाणव्ववरोवओ णिच्चं । । ३६ ।। अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिंसति णिच्छओ समए । जो होदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो ।। ३७।। गं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि । हम जाण, धम्ममहिंसासमं नत्थि ।। ३८ ।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प रमात्मा को अस्वीकार करनेवाले और लोग भी हुए हैं; लेकिन जैसी कुशलता से महावीर ने अस्वीकार किया, वैसा किसी ने भी नहीं किया। कुशलता से मेरा अर्थ है, परमात्मा को अस्वीकार भी किया और फिर भी परमात्मा को बचा लिया। इनकार भी किया, परमात्मा को खोने भी न दिया । मूर्ति-भंजक बहुत हुए हैं; लेकिन मूर्ति तोड़ने में ही परमात्मा भी टूट गया। महावीर ने मूर्ति तोड़ी, लेकिन उस अमूर्त को पूरा-पूरा बचा लिया। यही उनकी कुशलता है। परमात्मा जब मूर्ति बन जाता है तो थोथा हो जाता है। परमात्मा जब तक अमूर्त अनुभव हो, तभी तक बहुमूल्य है। जैसे ही आकार दिया, वैसे ही परमात्मा से दूर होने लगे; क्योंकि परमात्मा निराकार है। जैसे ही पत्थर में परमात्मा को देखना शुरू किया, वैसे ही आंखें अंधी होनी शुरू हो जाती हैं। इस्लाम ने भी मूर्तियां तोड़ीं। महावीर ने भी मूर्तियां तोड़ीं। लेकिन महावीर ने बड़ी कुशलता से तोड़ीं। महावीर ने बड़ी अहिंसा से तोड़ीं, बड़े प्रेम से तोड़ीं। जरा-सा फासला है, लेकिन बड़ा भेद है। इस्लाम ने बड़े क्रोध से तोड़ दीं, बड़ी हिंसा से तोड़ दीं। हिंसा और क्रोध में, तोड़ने के आग्रह में, एक बात साफ हो गई। जब हम आग्रह से कोई चीज तोड़ते हैं तो उसका अर्थ है, कहीं अचेतन में हमारा लगाव है। तोड़ने योग्य मानते हैं, इतना श्रम उठाते हैं तोड़ने के लिए, तो जरूर हमें लगता है कि मूर्ति में कोई मूल्य है। महावीर ने इस तरह न तोड़ा। तोड़ा भी, मूर्ति बिखेर भी दी, चोट भी न हुई, आवाज भी न हुई, और भीतर जो छिपा था, अमूर्त, उसे बचा भी लिया। कारवां लग चुका है रस्ते पर फिर कोई रहनुमा न आ जाए बुत-ओ-बुतखाना तोड़ने वाले इसी जद में खुदा न आ जाए देखो-देखो इन आंसुओं पे 'जमील' तुहमते - इल्तिजा न आ जाए। बुत-ओ-बुतखाना तोड़ने वाले इसी जद में खुदा न आ जाए। मूर्तियों और मंदिर से छुटकारा उपयोगी है। लेकिन ध्यान रखना, इसी जद में कहीं खुदा न आ जाए! कहीं ऐसा न हो कि मंदिर और मूर्ति तोड़ने में खुदा भी टूट जाए ! उसे तो बचाना है, जो मंदिर में छिपा है। उसे तो बचाना है जो मूर्ति में छिपा है। महावीर ने बड़ी कुशलता से बचाया है। इसे समझने की कोशिश करें। 'जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अतः आत्म- हितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव हिंसा का परित्याग किया है। जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है।' यही तो उपनिषद कहते हैं। यही तो वेद कहते हैं। लेकिन उपनिषद और वेद परमात्मा के नाम से कहते हैं; महावीर ने आत्मा के नाम से कहा। बड़ा फर्क है। जैसे ही परमात्मा का विचार होता है, ऐसा लगता है ईश्वर कोई और, कहीं और। दूरी पैदा हो जाती है। महावीर ने आत्मा के नाम से वही कहा । आत्मा से दूरी पैदा नहीं होती। वह तुम्हारा स्वरूप है। वह 275 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग : 1 तुम्हारा होने का केंद्र है। तो दूसरे में भी तुम्हें जब अपना केंद्र __तुमने जो चोट दूसरे को मारी है, वह क्रोध में तुम्हीं को लग गई दिखाई पड़ने लगे, तब महावीर कहते हैं, तुम जागे। है। महावीर का यह मूलभूत आधार है। अगर तुम दुखी हो तो अहिंसा का पूरा शास्त्र दूसरे में भी स्वयं को देखने का ही | तुमने किसी को दुख देना चाहा था; अन्यथा तुम दुखी न हो शास्त्र है। लेकिन इस दूसरे को देखने को एक परमात्मा को सकते थे। तुम पीड़ित हो, परेशान हो, चिंताग्रस्त हो, संताप से महावीर नहीं मानते कि परमात्मा सब में छाया हआ है। महावीर भरे हो, चैन खो गया, शांति खो गई, जीवन की प्रफुल्लता खो मानते हैं, तुम्हीं दूसरे से जुड़े हो और दूसरा तुमसे जुड़ा है। जीवन | गई है, तो जरूर यही तुमने जीवन के साथ किया है। जीवन के एक अंतरात्माओं का अंतर्जाल है; अंतरात्माओं का अंतर्संबंध साथ तुम जो करते हो, उसी के प्रतिफल तुम्हें मिलते हैं। . है। जैसे मकड़ी का जाला होता है; एक धागे को हिला दो, पूरा हमारी हालत उलटी है। साधारणतः हम ऐसा सोचते हैं कि जाला हिल जाता है—ऐसे ही एक व्यक्ति की चेतना को हिला दूसरे हमें दुखी कर रहे हैं। दूसरे तो केवल तुमने जो दिया था दो, सारा अस्तित्व हिल जाता है। एक वृक्ष को चोट पहुंचा दो, | वापिस लौटा रहे हैं। तुम्हारी धरोहर तुम्हें सौंप रहे हैं। और अगर चोट सभी पर फैल जाती है। क्योंकि हम अलग-थलग नहीं हैं। तुमने ऐसा देखा कि दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं तो तुम्हारी पूरी हम टूटे-टूटे नहीं हैं। मेरे और तुम्हारे बीच कोई दीवाल नहीं है। जीवन-दिशा भ्रांत हो जाएगी। तब तुम कभी सुखी न हो जो मुझे घटेगा, वह तुम्हें भी घटेगा। जो तुम्हें घटेगा, वह मुझ सकोगे। क्योंकि दूसरों को तुम कैसे बदलोगे? अपने को ही तक भी आ जाएगा। जैसे हम सागर में एक कंकड़ को फेंक दें, | बदलना इतना मुश्किल है, दूसरों को तुम कैसे बदलोगे? फिर लहरें उठती हैं. दर-दिगंत तक फैलती चली जाती हैं। अगर मैंने दसरा कोई एक थोड़ी है, अनंत हैं। इस अनंत को तुम कैसे तुम्हें चोट पहुंचाई तो एक कंकड़ फेंका सागर में। माना, तुम्हारी बदलोगे? और इसको बदलने के लिए तो अनंत काल लग तरफ फेंका था, लेकिन उसकी लहरें सभी को आंदोलित करेंगी। जाएगा। अगर बदल भी पाए तो इतना समय लग जाएगा...! उन सभी में मैं भी सम्मिलित हूं। एक तो बदलना असंभव, बदल भी लिया तो अनंत काल तुम तो जो दख देता है. वह अपने हाथ से अपने लिए दख निर्मित | दख भोगते रहोगे। करता है। जो सुख बांटता है, वह अपने हाथ से अपने लिए सुख । यहीं मार्क्स और महावीर की दृष्टि में भेद है। मार्क्स कहता है, निमंत्रित करता है। तुम जो दोगे वही तुम्हें मिलेगा। जो तुमने समाज जुम्मेवार है, अर्थव्यवस्था जुम्मेवार है। इसे बदल दो, दिया था पहले वही तुम पा रहे हो। किया तुमने दूसरे के साथ सब सुख हो जायेगा। परमात्मा को मनुष्य से अलग दूर ऊपर था, हो गया तुम्हारे साथ। आकाश में माननेवाले कहते हैं, प्रार्थना करो, पूजा करो, सब महावीर कहते हैं, तुम्हारे अतिरिक्त यहां कोई नहीं है। तो तुम ठीक हो जायेगा। गंगा-स्नान करो, सब ठीक हो जायेगा। वे भी जो भी करोगे, अपने ही साथ कर रहे हो। | बड़ी झूठी बातें हाथ में दे रहे हैं। हमारी हालत ऐसी है, जैसे तुमने उस शेखचिल्ली की कहानी महावीर सीधी बीमारी का निदान करते हैं। वे कहते हैं, न तो सुनी होगी। वह बैठा था, शांति से राह चलते लोगों को देख रहा कोई परमात्मा ऊपर बैठकर तुम्हें दुख दे रहा है। इसलिए तुम्हें था। एक मक्खी उसे परेशान करने लगी, आकर नाक पर बैठने दुख नहीं दिया जा रहा है कि तुमने प्रार्थना नहीं की है, कि तुमने लगी। एक-दो दफे उसने झपट्टा मारा, लेकिन मक्खियां जिद्दी पूजा नहीं की है। ऐसा परमात्मा भी क्या परमात्मा होगा जो होती हैं। जैसे ही उसने झपट्टा मारा, मक्खी फिर आकर नाक पर | तुम्हारी पूजा की अपेक्षा और आकांक्षा रखता हो, और जो बैठ गई। फिर उसे क्रोध आने लगा। यह छोटी-सी मक्खी और इसलिए नाराज हो जाता हो कि तुम ठीक से पूजा नहीं कर रहे, उसे सता रही है! उसका क्रोध बढ़ता चला गया। उसने और प्रार्थना नहीं कर रहे, तुम नियम और व्यवस्था से नहीं चल रहे! झपट्टे जोर से मारे। फिर उसके बर्दाश्त के बाहर हो गया। पास ऐसा परमात्मा तो बड़ा अहंकारी होगा। ऐसा परमात्मा तो स्वयं में ही पड़ी हुई छुरी थी, उठाकर छुरी उसने मक्खी को मारी। | दुखी होगा, तुम्हें कैसे सुखी कर पाएगा? थोड़ा सोचो, अगर मक्खी तो उड़ गई, नाक कट गई। परमात्मा तुम्हारी प्रार्थनाओं से सुखी होता हो, तो मरा जाता 276 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वासना ढपोरशंख है होगा, पागल हुआ जाता होगा! इतने लोग हैं, कौन प्रार्थना यहां जैनों को भी कुछ बात समझ लेनी जैसी है। भ्रांतियां करता है? जो प्रार्थना करते हैं, वे भी परमात्मा के लिए प्रार्थना हमारी ऐसी हैं कि सत्य भी हमारे हाथ लग जाएं तो हम उन्हें नहीं करते; वे भी कुछ और मांगने के लिए करते हैं। जब काम | विकृत कर लेते हैं। जैन सोचते हैं कि वे जीव-दया कर रहे हैं, निपट जाता है तो भूल जाते हैं। दुख में याद आ जाती है, सुख में | दूसरे पर दया कर रहे हैं। महावीर कहते हैं, जिसने जीव पर दया विस्मरण हो जाता है। दुख में विस्मरण नहीं होता, सुख में | की उसने अपने पर दया की। बस इतना ही। नहीं तो एक नया विस्मरण हो जाता है। परमात्मा को तो वे भी याद नहीं करते हैं। | अहंकार, एक नया भूत पैदा होता है कि मैं जीव-दया कर रहा हूं, तो परमात्मा तो पागल हुआ जा रहा होगा, अगर तुम्हारी | कि मैं अहिंसक हूं, कि मैंने देखो कितने जीवों को बचाया! एक प्रार्थनाओं से उसे प्रसन्न होने की अपेक्षा है तो! | नई अकड़ पैदा होती है। इतना ही कहो कि तुमने अपने को दुख महावीर कहते हैं, ऐसा कोई परमात्मा नहीं है। यह भी तुम्हारे | देने से स्वयं को बचाया। तुमने स्वार्थ साधा। तुमने आत्महित भलावे हैं। तुम सत्य को नहीं देखना चाहते कि तमने दुख साधा। इसमें घोषणा और विज्ञापन करने की कोई भी जरूरत फैलाया, इसलिए दुख पा रहे हो, तो तुम कोई न कोई बहाना नहीं है। तुम ऐसी तो घोषणा नहीं करते कि आज मैंने अपना सिर खोजते हो बाहर। कभी समाज-व्यवस्था में, कभी भाग्य में, दीवाल से नहीं तोड़ा। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि आज मैंने पैर कभी प्रकृति के दोषों में, कभी त्रिगुणों में, कभी परमात्मा की में छुरा नहीं मारा। तुम ऐसा कहोगे तो लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, प्रार्थना-पूजा में लेकिन तुम बाहर कोई सहारा खोजते हो। तुम इसमें क्या बड़ा किया? यह तो सभी करते हैं। एक बात नहीं देखना चाहते कि तुम जुम्मेवार हो। अगर तुमने जीव-हिंसा नहीं की, तो कुछ पुण्य किया, ऐसा जीवन का सबसे बड़ा कठोर सत्य यही है-इसे स्वीकार कर मत सोचो। इतना ही कि अपने पर दया की। यह सूत्र बड़ा लेना कि जो मुझे हो रहा है, उसके लिए मैं जुम्मेवार हूं। बड़ी बहुमूल्य है। नहीं तो एक नया पागलपन शुरू होगा। पहले तुम उदासी आएगी। मैं जुम्मेवार हूं-अपने दुखों के लिए, अपनी सोचते थे, दूसरे तुम्हें दुख दे रहे हैं; अब तुम सोचने लगोगे कि चिंताओं के लिए! दूसरे पर जुम्मा टाल के थोड़ी राहत मिलती तुम दूसरों को सुख दे रहे हो। लेकिन अगर तुम दूसरों को सुख दे है। कम से कम इतनी तो राहत मिलती है कि दूसरे कर रहे हैं, मैं सकते हो तो दुख भी दे सकते हो। मूल भ्रांति तो मौजूद रही। क्या करूं! असहाय होने का मजा तो आ जाता है। और अगर तुम दूसरों को सुख-दुख दे सकते हो तो दूसरे तुम्हें महावीर ने कहा, यह धोखाधड़ी अब और मत करो। यह तुमने | क्यों नहीं दे सकते? तर्क तो वहीं का वहीं रहा, कहीं हटा न।। किया था, वही लौट रहा है। यह तुमने दिया था, उसकी ही | महावीर चाहते हैं कि तुम इस गहन सत्य को एक बार प्रगाढ़ता प्रतिध्वनि है। और अगर तुमने यह न देखा तो तुम फिर वही किए से अंगीकार कर लो कि तुम जो करोगे, वह अपने ही साथ कर चले जा रहे हो जिसके कारण तुम दुखी हो। तो जाल फैलता ही | रहे हो। दूसरे निमित्त हो सकते हैं, बहाने हो सकते हैं। लेकिन चला जायेगा। अंततः, अंततोगत्वा, सभी किया हुआ अपने साथ किया हुआ यह दुष्चक्र का अंत हीन होगा। चाक घूमता ही रहेगा। सिद्ध होता है। 'जीववहो अप्पवहो!' जीव का वध अपना ही वध है। जब 'जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया भी तुमने किसी को मारा, अपने को ही काटा और मारा। है...।' 'जीवदया अप्पणो दया होइ।' और जीव पर जब भी तुमने | महावीर कहते हैं, धार्मिक व्यक्ति स्वार्थी व्यक्ति है। उसे दया की, किसी पर भी, तुमने अपने पर ही दया की। समझ में आ गया कि अपने साथ क्या करना है। उसने अपने 'अतः आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिंसा का | साथ शिष्टाचार सीख लिया। अधार्मिक व्यक्ति अशिष्ट है; परित्याग किया है।' यह वचन समझना। 'आत्महितैषी' अपने साथ ही अशिष्टता कर रहा है। अधार्मिक व्यक्ति अज्ञानी आत्मकाम–अत्त कामेहिं। स्वार्थ का जो अर्थ होता है, वही। है; अपने को ही काट रहा है, चोट पहुंचा रहा है। सोचता है, आत्महितैषी, अपना हित चाहनेवालों ने...। दूसरे को चोट पहुंचा रहे हैं। उस सोचने में, उस सपने में, अपने . Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 को ही तोड़ता चला जाता है। से प्रेम हो जाए, और सामान न हो तो कैसे प्रेम करे! 'आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीवहिंसा का परित्याग | लेकिन स्त्रियों के अनुभव से भी यह पता चला कि उनको भी किया है।' उन्होंने किसी भी तरह की हिंसा को अपने जीवन में इसमें रस आया है। चाहे हिम्मत न रही दुबारा इस आदमी के बचाया नहीं। | पास जाने की, लेकिन इस आदमी को वे स्त्रियां कभी भूल न हिंसा का अर्थ होता दूसरे को दुख देने की आकांक्षा। हिंसा सकीं। तो मनोवैज्ञानिकों को पहली दफा एक सूत्र समझ में आना का अर्थ होता है। दूसरे के दुख में सुख लेने का भाव। हिंसा का शुरू हुआ कि स्त्रियों को स्वयं को पीड़ा देने में कुछ रस मालूम अर्थ है: परपीड़न में रस। जिसको आज आधुनिक मनोविज्ञान होता है; जैसे पुरुषों को दूसरों को पीड़ा देने में कुछ रस मालूम सैडिज़म कहता है-दूसरे को पीड़ा देने में रस-उसको ही होता है। महावीर हिंसा कहते हैं। फिर एक दूसरा आदमी हुआ : मैसोच। उसके नाम पर दूसरा महावीर की हिंसा का सिद्धांत अति मनोवैज्ञानिक है। दुनिया | शब्द बना : मैसोचिज़म। मैसोचिज़म का अर्थ है: स्वयं को दुख में दो तरह के लोग हैं। मनोवैज्ञानिक उनका विभाजन करते हैं। देने में रस लेना। वह खुद को सताता था। वह भी कोड़े मारता एक-जिनको वे सैडिस्ट कहते हैं, जो दूसरे को सताने में रस था, लेकिन खुद को मारता था। और जब तक वह अपने को लेते हैं। ठीक से पीटता, मारता और खुद चीखने-चिल्लाने न लगता, एक बड़ा लेखक हुआः सादे। उसके नाम पर सैडिज़म निर्मित तब तक उसकी कामोत्तेजना न जगती थी। तो जो स्त्री उसके प्रेम हुआ। उसका एक ही रस था, दूसरों को सताने में। वह प्रेम भी में पड़ जाती, वह स्त्री को कहता कि पहले मुझे मारो, पीटो, मेरी करता किसी स्त्री को तो द्वार-दरवाजे बंद करके पहले तो उसकी छाती पर नाचो। जैसे काली नाचती है शिव की छाती पर, ऐसा पिटाई करता, कोड़े मारता, लहूलुहान कर देता। वह चिल्लाती | मैसोच कहता कि पहले मेरी छाती पर नाचो, मुझे रौंदो। जब वह | और चीखती, भागती और वह कोड़े मारता। और भागने का | काफी पीटा जाता, और खून बहने लगता और सब तरफ कोड़ों कोई उपाय न था, द्वार-दरवाजे बंद थे। जब तक वह के निशान बन जाते, तब कामोत्तेजना का ज्वार उठता। तब वह चीखती-चिल्लाती न, रोती-भागती न, तब तक उसकी प्रेम कर पाता। ये भी उसके लिए कामोत्तेजना को जगाने का कामोत्तेजना न जागती। ये कमोत्तेजना का उपाय था। जब वह उपाय था। उसके नाम पर मनोवैज्ञानिकों ने दूसरा शब्द बनायाः स्त्री भागने, चीखने-चिल्लाने लगती और लहू बहने लगता, तब | मेसोचिज़म।। उसकी कामोत्तेजना जगती। तब वह उसे प्रेम करता। उसके नाम तो दो तरह के लोग हैं दुनिया में दूसरे के दुख में रस लेनेवाले पर सैडिज़म शब्द निर्मित हुआ। वह जेल में मरा, क्योंकि अनेक और स्वयं के दुख में रस लेनेवाले। स्त्रियों के साथ उसने यही किया। तुम जिनको त्यागी, महात्मा कहते हो, उनमें से अधिक तो लेकिन एक बड़े आश्चर्य की बात पता चली कि जिन स्त्रियों ने मेसोचिस्ट हैं, बीमार हैं। वास्तविक स्वस्थ आदमी न तो दूसरे भी दि सादे से प्रेम किया, उनको फिर किसी दूसरे का प्रेम कभी न को दुख देने में रस लेता है, न खुद को दुख देने में रस लेता है। दुबारा हिम्मत न की उसके पास जाने की, दुख में रस नहीं लेता-स्वस्थ आदमी का लक्षण है। दुख में लेकिन फिर सब प्रेम फीके पड़ गए। यह भी थोड़ी हैरानी की | रस लेने का अर्थ हुआः परवर्शन; कुछ विकृति हो गई; कहीं बात हुई। जैसी उत्तेजना उसने जगाई, जैसा तूफान उसने खड़ा | कुछ गड़बड़ हो गई बात। | कर दिया, वैसा फिर कोई भी न कर पाया। दि सादे तो अपना फूल में कोई रस ले, यह समझ में आता है लेकिन काटों में बैग साथ में लेकर चलता था-कहां कौन मिल जाये, क्या कोई रस लेने लगे...। फूल को कोई अपने हाथों पर रखे, पता! उस बैग में, जैसे डाक्टर लेकर चलता है, उसका सब | आंखों की पलकों से छुआए, समझ में आता है। फूल की माला साज-सामान होता था। कोड़े, कांटे, चुभाने के सामान, सब बनाकर अपने गले में डाल ले, समझ में आता है। सामान लेकर चलता था। कब कहां कोई स्त्री मिल जाए, किसी| लेकिन कांटों को कोई अपने में चुभाने लगे और कांटों का हार 2781 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ST वासना ढपोरशंख है ran Bhar NER बनाकर पहनने लगे, तो कुछ विकृति हो गई। कहीं स्वभाव से दुख देने में कुछ अर्थ ही नहीं है। दुख देना तो जीवन के अवसर च्युत हो गया यह आदमी। | को व्यर्थ करना है, खराब करना है। जहां संगीत उठ सकता था दुख में रस, चाहे वह अपने दुख में हो और चाहे दूसरे के दुख आनंद का, उस ऊर्जा को तुमने दुख में बदल लिया। जहां फूल में हो, हिंसा है। इसलिए अगर तुम मुझ से पूछो तो महावीर के | खिल सकते थे, वहां कांटे बिछा लिये। पीछे चलने वाले जैन मुनियों में निन्यानबे प्रतिशत तो महावीर के | ‘जीव का वध अपना वध है।' ऐसे महावीर परमात्मा की दुश्मन हैं। वे हिंसा में रस ले रहे हैं; यद्यपि उन्होंने हिंसा का रुख | भावना को भीतर से ले आते हैं। मंदिर गिरा देते हैं, परमात्मा को अपनी तरफ बदल लिया है। बचा लेते हैं। क्योंकि जब मेरे देने से तुम तक दुख पहुंचता है यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। और फिर मुझ पर लौट आता है, तो इसका अर्थ एक ही हुआ कि महावीर कहते हैं, दूसरे को भी दुख दो तो भी अपने पर लौटता मैं और तुम जुड़े हैं; कोई सेतु है। कुछ आवागमन हो रहा है। है-जरा वर्तुल बड़ा होता है। | कुछ लेन-देन चल रहा है। हमारे फासले और फर्क ऊपर-ऊपर अगर तुमको मैं कोड़ा मारूं तो भी कोड़ा मेरी तरफ लौटेगा, होंगे, भीतर कहीं गहराई में हम जड़े हैं। तभी तो मैं तम्हें दुख दे थोड़ा समय लगेगा; क्योंकि तुम तक की दूरी जाना, फिर पाता हूं और फिर दुख मेरे पास लौट आता है। बीच में कोई लौटना। फिर हो सकता है, तुम भी सीधा-सीधा न भेजो, केयर दीवाल होती, कोई खाई होती, खड्ड होता, सेतु न होता, हमें आफ भेजो; तो लंबी यात्रा होगी। कभी जन्म भी लग जाते हैं। जोड़नेवाला कोई तत्व न होता, तो ठीक था; दुख कैसे लौटता? कभी जन्मों के बाद लौटेगा कोड़ा। मैं भी भूल चुका होऊंगा कि जाता है, आता है। तरंगें जाती हैं, लौट आती हैं। अर्थ हुआ कि कब तुम्हें दिया था लेकिन आएगा। | कोई गहराई में हम एक ही सागर के हिस्से हैं। उस सागर का फिर जिसको मेसोचिस्ट हम कहते हैं, वह ज्यादा कशल है। नाम ही परमात्मा है। वह कहता है, इतनी लंबी यात्रा क्या करनी है; कोड़ा अपने हाथ लेकिन महावीर उसे बाहर स्थापित नहीं करते; तुम्हारे भीतर में लेकर खुद ही को मार लेना उचित है। वह ज्यादा नगद है। स्थापित करते हैं। क्योंकि बाहर जैसे ही परमात्मा स्थापित किया मगर हर हालत में कोड़ा अपने पर ही पड़ता है। तो दुख चाहे तुम जाता है, लोग पूजा और प्रार्थना में लग जाते हैं। लोग जीवन का दूसरे को दो, चाहे अपने को दो-तुम हिंसक हो। रूपांतरण नहीं करते, पूजा-प्रार्थना करते हैं। वे परमात्मा से तुमने देखा होगा काशी के रास्तों पर कांटों पर लेटे हुए कहते हैं, हे प्रभु! जीवन को बदलो! बिगाड़ते जीवन को खुद हैं त्यागियों को-वे मैसोचिस्ट हैं, वे हिंसक हैं। वे रस ले रहे हैं और आशा रखते हैं, कोई और बदलेगा। तो फिर ऐसा परमात्मा खुद को सताने में। भी पुराने ढांचे को चलाने का ही आधार बन जाता है। क्योंकि तुमने ऐसे साधुओं को देखा होगा, जो महीनों का उपवास कर | जब तक तुम न बदलोगे, कोई न बदलेगा। अगर कोई परमात्मा रहे हैं। वे दुखवादी हैं। वे अपने को सता रहे हैं। वे हिंसा में होता तो उसने कभी का बदल दिया होता। तुम कितने दिन से मजा ले रहे हैं। तुमने ऐसे साधुओं के बाबत सुना होगा, जिन्होंने प्रार्थना कर रहे हो! तुम्हारे हाथ कब से जुड़े हैं नमाज में! तुम अपनी आंखें फोड़ लीं। वे दुखवादी हैं। तुमने ऐसे साधुओं के कितने दिन से झुके बैठे हो मूर्तियों के समाने! कुछ भी तो नहीं संबंध में सुना होगा जिन्होंने अपनी जननेंद्रियां काट ली हैं। वे होता। सदियां बीत गईं, जनम-जनम तुमने प्रार्थना की है, पूजा दुखवादी हैं। की है-कुछ भी तो नहीं होता। तुम वहीं के वहीं हो। आदमी दो हिस्सों में बंटा है: दूसरे को दुख दो या अपने को देखो पूजा करनेवाले को! रोज चला जाता है मंदिर, रोज लौट दुख दो, मगर दुख दो। आता है—वही का वही है! कोई भी तो रूप बदलता नहीं। हां, स्वस्थ आदमी सब भांति की हिंसा का त्याग करता है। यह एक और खतरा पैदा हो जाता है। अब वह आश्वस्त हो जाता है महावीर के स्वास्थ्य की परिभाषा है। स्वस्थ व्यक्ति अहिंसक कि ठीक है, प्रभु खयाल रखेगा। और जो उसे करना है, किये होता है। न वह दूसरे को दुख देता न स्वयं को दुख देता, क्योंकि चला जाता है। जो करता है, उससे जीवन निर्मित होगा; पूजा से 279 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 HARIWARRIA नहीं। पहुंचाना अपने ही स्वभाव को नुकसान पहुंचाना है। देखो-देखो इन आंसुओं पे 'जमील' "जिसे तू हनन योग्य मानता है वह तू ही है। और जिसे तू तुहमते-इल्तिजा न आ जाए! आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह भी तु ही है। इसलिए न तो जमील ने कहा है कि ये जो आंसू बह रहे हैं आनंद के, कोई किसी को आज्ञा में रख, न किसी को हनन योग्य मान।' भूल से इन्हें प्रार्थना न समझ ले! कहीं इन पर प्रार्थना का आरोप यहां सभी मालिक हैं; गुलाम होने को कोई भी नहीं है। न आ जाए! थोड़ा सोचना। तुम तो जिनसे प्रेम करते हो, उन्हें भी गुलाम महावीर ने कभी हाथ भी नहीं जोड़े, झुके भी नहीं-कहीं | बना लेते हो। पति पत्नी का मालिक हो जाता है। वह पत्नी से प्रार्थना का आरोप न आ जाए! कहीं कोई यह न कह दे कि यह कहता है, मान कि मैं परमात्मा हूं। पति परमेश्वर हो जाता है। आदमी प्रार्थना कर रहा है! पत्नी यद्यपि लिखती है, 'तुम्हारी दासी' चिट्ठी-पत्री में, बाकी क्योंकि प्रार्थना का अर्थ हुआ : मैंने किया है गलत, कोई और वह असलियत नहीं है। दिल में वह भी सोचती है कि तुम्हारी उसे ठीक कर दे। लेकिन यह तो गणित के बाहर होगा, जीवन के | मालकिन। इसीलिए तो घर स्त्री का समझा जाता है, वह गणित के विपरीत होगा। मैंने किया गलत, मुझे ही ठीक करना घरवाली समझी जाती है। कोई पति को थोड़े ही घरवाला कहता होगा। जो घट रहा है मेरे पास, वह मेरे ही कर्मों का फल है। मुझे है, पत्नी को! मालकियत उसकी है। और मुश्किल है ऐसा पति कर्म रूपांतरित करने होंगे। कठिन होगा मार्ग, लेकिन कोई | खोजना जो उसकी मालकियत मानकर न चलता हो। तो उपाय नहीं। कठिन होगा मार्ग, पर बस एक ही मार्ग है। कठिन ऊपर-ऊपर पति बाजार में दिखलाता रहता है कि मैं मालिक हूं, ही मार्ग है। | भीतर-भीतर पत्नी रोज उसे जतलाती रहती है सुबह से सांझ 'जिसे तू हनन योग्य मानता है वह तू ही है।' जिसे तू मारने तक, अनेक मौकों पर कि मालिक कौन है, ठीक समझ लेना! चला है, जिसे तूने मारने की योजना बनाई है, वह तू ही है। मुल्ला नसरुद्दीन के घर उसके मित्र इकट्ठे थे एक दिन। कुछ 'जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह भी तू ही है।' जिसे झंझट हो गई। पत्नी झपटी, जैसी उसकी आदत। तो वह तूने गुलाम बना लिया है वह भी तू है। जिसे तू मारने चला है वह भागकर बिस्तर के नीचे छिप गया। पत्नी झुक आयी और उसने भी तू है। यह एक ही आत्मा का विस्तार है। ठीक तेरे जैसा ही कहा, 'निकल बाहर...! निकलो बाहर।' तो मुल्ला और चैतन्य दूसरे में भी है। भीतर सरकता गया बिस्तर के। उसने कहा, 'निकलते हो कि हजार मिट्टी के दीये हों, ज्योति एक है। ज्योति का स्वभाव एक नहीं...!' उसने कहा कि 'आज तय ही हो जाये कि मालिक है। मिट्टी के दीयों में बड़ा फर्क हो सकता है—एक आकार, | कौन है! नहीं निकलते!' दूसरा आकार, हजार आकार हो सकते हैं; एक रंग, दूसरा रंग, यह कोई तय करने का ढंग हआ। लेकिन जिन्हें हम प्रेम करते हजार रंग हो सकते हैं। छोटे दीये, बड़े दीये, लेकिन सबके हैं उनको भी हम गुलामी में बांधते हैं। इसलिए तो प्रेम से भी भीतर जो ज्योति जलती है वह एक है। लोग ऊब जाते हैं; प्रेम से भी छुटकारा चाहते हैं। बड़ी अजीब जो मेरे भीतर है, उससे अन्यथा तुम्हारे भीतर नहीं है। मुझ में बात है! यहां इस जगत में प्रेम भी दुख देता मालूम पड़ता है। और तुम में जो फर्क और फासले हैं, वे मिट्टी के दीये के हैं। मेरी क्योंकि प्रेम हम कहते हैं, है कुछ और। नाम हम अच्छे चुनते हैं, देह अलग, तुम्हारी देह अलग; रंग-ढंग अलग, संदर चुनते हैं लेकिन नाम ही संदर और अच्छे हैं. भीतर कछ शैली-व्यवस्था अलग-पर सब ऊपर-ऊपर की बात है! और है। जैसे-जैसे भीतर उतरोगे, वैसे-वैसे ही भेद समाप्त होते जाते हैं। तुम जरा गौर करना कि जब तुम किसी को कहते हो कि मुझे जब ठीक अंतर्तम में पहुंचोगे तो पाओगेः जो दीया यहां जल रहा तुझसे प्रेम है, तो तुम जरा गौर करना, तुम्हारी असली आकांक्षा है, जो ज्योति यहां जल रही है, वही ज्योति वहां भी जल रही है। क्या है? असली आकांक्षा कुछ और होगी। प्रेम के नाम के नीचे ज्योति का स्वभाव एक है। इसलिए इस ज्योति को नुकसान कुछ और छिपा होगा-हिंसा छिपी होगी, स्वामित्व का भाव 12801 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना ढपारशख है छिपा होगा, महत्वाकांक्षा छिपी होगी। एक आदमी को कब्जे में | चम्मच से बाहर सामान भी गिर जाता, कभी चम्मच भी गिर ले लेने की आकांक्षा छिपी होगी। इसीलिए तो जिसको तुम कब्जे जाती, कभी उसके कपड़ों पर भी खाना गिर जाता। तो पत्नी में ले लेते हो, उसमें रस खो जाता है। बहुत नाराज होती थी। आखिर पत्नी ने एक दिन उसे उठा दिया किस पति को पत्नी में रस है? बड़ा रस था जब तक पाया न कुर्सी से, खाने की टेबल पर से, कोने में ले जाकर बिठा दिया था। तब तक जान दांव पर लगा देने को तैयार थे। मिलते ही और कहा कि चम्मच से अब खाना तुम बंद करो! एक बर्तन में सब हाथ-पैर ढीले हो जाते हैं, बात खतम हो गई! क्योंकि जो इकट्ठा सब भोजन रख दिया और कहा कि इसी से तुम भोजन रस था, वह जीतने में था। जो रस था, वह चुनौती में था। अब करो। उस दिन से बूढ़े को टेबल पर आने की मनाही हो गई। चुनौती दूसरी स्त्रियों से आती है, पत्नी से नहीं आती। पत्नी तो लेकिन बूढ़ा बूढ़ा होता जा रहा था और हाथ-पैर उसके कंपते थे जीत ली। अब जीते हुए को क्या जीतना! कोई भी रास्ते से और अब और कंपने लगे। क्योंकि अब घर में यह स्थिति हो गई गुजरती स्त्री आकर्षण का कारण बन जाती है, क्योंकि फिर, फिर कि आदमी की आदमी की तरह गिनती न रही। एक दिन उसके कोई विजय की यात्रा के लिए एक निमंत्रण मिला। प्रेम के नाम हाथ से बर्तन भी छूट गया, तो उसकी बहू ने कहा कि 'अब पर जीत की आकांक्षा होगी। जीत यानी अहंकार। और फिर प्रेम बहुत हो गया! अब तुम्हें तो जानवरों जैसी व्यवस्था करनी के नाम पर कब्जियत की दौड़ चलती है, कौन कब्जा करे! कौन पड़गी।' तो उसने एक बड़ी बालटी में उसके सामने भोजन असली मालिक है, यह तय करने में जिंदगी खराब हो जाती है। रखना शुरू कर दिया; जैसे गाय-भैंस का रखते हों। हर छोटी-बड़ी बात पर झगड़ा चलता है। कलह, एक-दूसरे को ऐसा कुछ दिन चला। इस युवती का छोटा बेटा था। वह यह आज्ञा में रखने की चेष्टा!...बाप बेटे से कहता है कि मेरी सब देखता रहता था। एक दिन वह बाहर से, बढ़ई कुछ काम मानकर चल, क्योंकि मुझे तुझसे प्रेम है। मैं जो कहता हूं वैसा कर रहा था घर में, लकड़ी के टुकड़े उठा लाया और उन्हें कर, क्योंकि मुझे तुझसे प्रेम है। मैं जो कहता हूं, उससे विपरीत जोड़-जोड़कर कुछ बनाने लगा। तो उसकी मां ने और उसके मत करना, क्योंकि मुझे तुझसे प्रेम है। मैं तेरे हित में कह रहा हूं! | पिता ने, दोनों टेबल पर बैठे थे, पूछा, 'क्या कर रहे हो?' तो अपना हित साध नहीं पाये, दूसरे का हित तुम क्या साधोगे? | उसने कहा कि मैं भी आप दोनों के लिए, जब आप बूढ़े हो खुद कोरे के कोरे रह गये, बेटे को उपदेश दिये जा रहे हो! बेटा जाएंगे, तो यह लकड़ी की बालटी बना रहा हूं। भी सुन लेता है जब तक कमजोर है। वह भी देखता है कि ठहरो स्वभावतः सब चीजें वर्तुल में घूमती हैं। जो तुम अपने बाप के थोड़े, जल्दी ही मैं भी शक्तिशाली हो जाऊंगा। तो अगर बेटे साथ कर रहे हो, याद रखना, बेटा तुम्हारे साथ करेगा! ध्यान जवान होकर बाप को सताने लगते हैं, यह कुछ आकस्मिक नहीं रखना, जो बेटा तुम्हारे साथ कर रहा है, वह तुमने अपने बाप के है। हर बाप ने बेटे को, जब वह छोटा था, सताया है-उसके साथ किया था। और ध्यान रखना, तुम जो बेटे के साथ अभी ही हित में सताया है; मगर सताया है। हित की बातें तो सब कर रहे हो, वह कल लौटायेगा। क्योंकि जिंदगी में कोई भी चीज व्यर्थ की बकवास है-सताने का मजा...! रुकती नहीं, लौटानी पड़ती है। बूढ़े हो जाने पर बेटा उत्तर देने लगता है। जो दिया था, वह सोच-समझकर! प्रेम के नाम पर अधिकार, गुलामी मत वापिस लौटने लगता है। थोपना। क्योंकि प्रेम तो परम स्वतंत्रता है। जिसको प्रेम है, वह मैंने सुना है, एक घर में शादी होकर, पत्नी आयी। तो बूढ़ा अकारण है। वह कुछ भी थोपता नहीं। प्रेम का अर्थ ही होता है: बाप, पति का बाप, उसे पसंद नहीं पड़ता था। किसी को पसंद दूसरे को दूसरा होने देने की स्वतंत्रता। दूसरा जैसा है उसको नहीं पड़ता। वह चाहती थी कि किसी तरह इस बूढ़े से छुटकारा वैसा ही अंगीकार कर लेने की क्षमता प्रेम है। न उसे बदलना हो। एक बोझ...। लेकिन कोई उपाय न था। कहीं जाने की | है-बड़े-बड़े आदर्शों के नाम पर भी नहीं, क्योंकि सब आदर्श कोई जगह न थी। बूढ़े को वहां रहना ही पड़ा। वह बहुत बूढ़ा हो | मालकियत करने के ढंग हैं। तुम बेटे से कहते हो, यह आदत गया था। उसके हाथ भी कंपते थे। भोजन करता तो कभी-कभी गलत है, इसे छोड़ो। अब तुम आदत के बहाने बेटे की गर्दन पर Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Luitel जिन सत्र कब्जा कर रहे हो। आदत अगर गलत है तो निवेदन कर दो। चाहता है। क्योंकि जब तक गुलाम बनाने की चाह है तब तक आदत अगर गलत है तो जतला दो। लेकिन इसके बहाने | गुलामी आती रहेगी। मालकियत मत करो। इतना ही कहो कि मुझे गलत दिखाई पड़ती। ठीक तम जैसे ही लोग हैं सब तरफ। जो तम चाहते हो. वही वे है आदत, फिर तुम्हारी मर्जी! फिर तुम अपने मालिक हो! फिर भी चाहते हैं। जो तुम नहीं चाहते, वही वे भी नहीं चाहते। इस अगर तुमने गलत को भी चुना, तो चुनो! सत्य को ठीक से समझना। कल रात मैं एक आधुनिक विचारक, 'साज़' की एक किताब जीसस से कोई पूछता है, एक युवक निकोदेमस, कि मैं जल्दी पढ़ रहा था। उसमें कुछ परिभाषाएं दी हैं। उसमें जवान, प्रौढ़ में हूं, मुझे कुछ छोटा-सा सूत्र दे दें जो मेरा जीवन बदल दे। तो आदमी की परिभाषा भी है। उसने लिखा है : प्रौढ़ वह आदमी जीसस ने कहा, दूसरे के साथ वह मत करना, जो तुम चाहते हो, है, जिसे ठीक करने की तो आजादी है ही, गलत करने की भी दूसरा तुम्हारे साथ न करे। उन्होंने कहा, इतना काफी है। इतने से आजादी है। अगर गलत करने की आजादी न हो तो आजादी सारा धर्म निकल आता है। दूसरे के साथ वह मत करना, जो तुम क्या हुई? अगर ठीक ही करने की स्वतंत्रता हो तो यह तो नहीं चाहते कि दूसरा तुम्हारे साथ करे। बस काफी है। स्वतंत्रता शब्द का बड़ा दुरुपयोग हुआ। | यह एक वचन ही बाइबिल की पूरी कथा है, पूरा सार है। प्रेम स्वतंत्र करता है। निश्चित, सावधान करता है, कि महावीर का भी पूरा सार यही है। वे समझा रहे हैं कि तुम्हें यह यहां-यहां मैं गया हूं और मैंने गड्ढे पाए, तुम सोच-समझ कर | बात खयाल में आ जाये कि दूसरा 'दूसरा' नहीं है तुम्हारे जाना, सम्हलकर जाना। अगर जाने का मन हो तो मेरा अनुभव जैसा ही चैतन्य, तुम्हारी जैसी ही आत्मा, ठीक तुम्हारे ही जैसे ले लो, मेरे अनुभव के बाद जाना। जाने से नहीं रोकता हूं; सुख और दुख का आकांक्षी, ठीक तुम जैसा ही मोक्ष का खोजी, लेकिन मैं गिर गया था, उसकी खबर तुम्हें दे देता हूं। हो सकता स्वतंत्रता का दीवाना है। है, तुम न भी गिरो। हो सकता है, तुम सम्हलकर जाओ और इतना खयाल रखना। इतना खयाल रखकर अगर चले तो न बचकर निकल आओ। लेकिन मैं जल गया था। तो इतना तुम्हें तो तुम किसी को बांधोगे और न तुम बंधोगे। कह देता हूं कि वहां जलन है, फिर तुम सोचकर जाना। न बांधनेवाला भी बंध जाता है। कारागृह का मालिक भी जाओ, तुम्हारी मर्जी! जाओ तुम्हारी मर्जी! कारागृह को छोड़कर थोड़े ही जा सकता है। कैदी भीतर होंगे, अपना सत्य निवेदन कर देना पर्याप्त है। लेकिन गर्दन पर हम मालिक बाहर होगा-लेकिन बाहर जो है वह भी खड़ा रहता है हावी हो जाते हैं। हम आदर्शों का उपयोग भी कारागृहों की तरह कि कैदी भाग न जायें। उसे भी कैदियों कि साथ कैदी ही हो जाना करते हैं, जंजीरों की तरह करते हैं। | पड़ता है। महावीर कहते हैं: "जिनों ने, जाग्रत पुरुषों ने कहा है, राग आदि की अनुत्पत्ति "जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। और जिसे तू अहिंसा, और उसकी उत्पत्ति हिंसा है।' आज्ञा में रखने योग्य मानता है वह भी त ही है।' | 'जागे हए पुरुषों ने कहा है, राग आदि की उत्पत्ति हिंसा और एक बडी महत्वपर्ण बात इस सत्र से निकलती है। अगर तमने अनत्पत्ति अहिंसा है।' किसी को गुलाम बनाने की चेष्टा की तो वही व्यक्ति तुम्हें भी यह अहिंसा का बड़ा सूक्ष्मतम विश्लेषण है। दूसरे को चोट गुलाम बनाने की चेष्टा करेगा। क्योंकि जिसे तुम आज्ञा में रखना करने जाओ, यह तो दूर की बात है। यह तो फिर विचार का चाहते हो, वह तुम ही हो। भूल के किसी को गुलाम मत बनाना, स्थूल होने की बात है। तुम्हारे मन में राग उठा तभी हिंसा उठ अन्यथा तुम गुलाम बन जाओगे। और अगर तुम गुलाम बन गए। जाती है। फिर तुम करो या न करो, यह सवाल नहीं है। तुम्हारे हो तो खोजबीन करना; तुम पाओगे कि गुलाम बनाने की मन में जरा-सा राग उठा...तुम राह से जाते थे, एक बड़ा मकान आकांक्षा का ही यह परिणाम है। परिपूर्ण स्वस्थ आदमी वही है, | देखा, तुम्हारे मन में हुआ: ‘ऐसा मकान मैं भी बनाऊं!' हिंसा जो न तो किसी का गुलाम है और न किसी को गुलाम बनाना हो गई। हिंसा का बीज पड़ गया; क्योंकि अब इस बड़े मकान 282 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को बनाने के लिए धन चाहिए, इस बड़े मकान को बनाने के लिए 'दूसरों से धन छीनना पड़ेगा। इस बड़े मकान को बनाने के लिए अब प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी। इस बड़े मकान को बनाने के लिए ईमानदारी, बेईमानी, सब मार्गों से खोजबीन करनी पड़ेगी – जैसे भी। इस बड़े मकान की आकांक्षा के उठते ही तुम्हारे भीतर हिंसा का बीज पड़ गया। देर लगेगी वृक्ष बनने में; लेकिन अगर बचना हो वृक्ष से तो बीज से ही बच जाना। इसलिए महावीर कहते हैं, राग की उत्पत्ति - हिंसा । ऐसा मत सोचना कि किसी की गर्दन काटोगे तब हिंसा | यही अपराध और पाप का भेद है। अपराध -- जब पाप वास्तविक होकर प्रगट हो जाता है। जब पाप कानून की पकड़ में आ जाता है तो अपराध । और जब तक पाप कानून की पकड़ में नहीं आता तभी तक पाप । तुम अपने मन में बैठे अगर दुनियाभर को भी मारने का विचार करते रहो, तो कोई अदालत तुम्हें दंड नहीं दे सकती। पुलिस नहीं आ सकती पकड़ने कि तुम बहुत हिंसा के विचार कर रहे हो । विचार की स्वतंत्रता है तुम्हें । विचार को व्यक्त मत करना । कानून इतनी ही फिक्र करता है कि तुम जो सोचते हो, करना मत; किया तो पकड़े गये। अगर तुम सिर्फ सोचते रहो, तुम्हारी मौज। लेकिन धर्म इससे गहरे जाता है। धर्म कहता है, तुम सोचना मत। क्योंकि जो तुमने सोचा, कितनी देर बचोगे करने से? विचार वस्तु बन जाता है। जो भाव है, वह कल घना होकर बरसेगा । आज जो बिलकुल छोटा-सा मालूम पड़ता था, वह कल बड़ा हो जायेगा; वह फैलता रहेगा। आज कहीं भी पता न चलता था, तुम बिलकुल शांत बैठे थे। महावीर के जीवन में उल्लेख है कि उनका एक शिष्य था : प्रसेनचंद्र । वह सम्राट था पहले, फिर संन्यस्त हो गया, नग्न मुनि हो गया। एक दिन प्रसेनचंद्र का एक दूसरा मित्र बिंबिसार महावीर के दर्शन को आया । वह भी सम्राट था। उसने आकर महावीर को पूछा कि राह में प्रसेनचंद्र को खड़े देखा एक गुफा में । धन्यभागी है प्रसेनचंद्र ! मेरा बचपन का साथी है। वह मुनित्व को उपलब्ध हो गया। वह दिगंबर मुनि हो गया। एक मैं हूं अभागा, अभी भी सड़-गल रहा हूं संसार में। एक प्रश्न मेरे मन में उठा है, वह आप से पूछना है। जब मैं प्रसेनचंद्र के पास से गुजर रहा था और वासना ढपोरशंख है मेरे मन में यह भाव उठा कि धन्यभागी है प्रसेनचंद्र — मेरे साथ ही बड़ा हुआ, साथ हम पढ़े और लिखे और खेले और ये इतने बड़े आंतरिक साम्राज्य का मालिक हो गया और मैं कुछ भी न कर पाया; मैं बाहर की व्यर्थ की चीजें जुटाने में लगा रहा; मेरी जिंदगी यूं ही गई तो तब मेरे मन में सवाल उठा था कि अगर प्रसेनचंद्र की इसी समय मृत्यु हो जाये तो यह किस स्वर्ग में या मोक्ष में जन्मेगा, वह मैं आप से पूछता हूं। महावीर ने कहा, उस समय अगर प्रसेनचंद्र की मृत्यु हो जाती तो वह सातवें नर्क में पड़ता । बिंबिसार ने कहा, आप क्या कहते हैं? सातवें नर्क में ? तो हमारी क्या गति होगी ? वह सब छोड़कर खड़ा है! महावीर ने कहा कि तुम आए, उसके पहले तुम्हारा फौज - फांटा आया; तुम्हारे वजीर निकले, सेनापति निकले, सिपाही निकले, उन सब ने भी प्रसेनचंद्र को देखा । तुम्हारे दो वजीर उसके पास खड़े होकर बात करने लगे कि ये देखो, बुद्ध की तरह यहां खड़ा है ! यह प्रसेनचंद्र है! यह बड़ा सम्राट था। अगर आज लगा रहता अपने काम में तो सारी जमीन का मालिक हो जाता। यहां बुद्ध की तरह खड़ा है नग्न ! और ये अपने वजीरों के ऊपर सब छोड़ आया है। इसके बेटे छोटे हैं और वजीर सब लूटे ले रहे हैं। जब तक इसके बेटे बड़े होंगे तब तक खजाने में कुछ बचेगा ही नहीं । उन दोनों वजीरों ने ऐसी बात की, प्रसेनचंद्र ने सुनी। वह आंख बंद किये खड़ा था। लेकिन उसने सुनी। सुनते ही क्रोध आ गया। उसने कहा, 'अच्छा! तो मेरे वजीर समझते क्या हैं, क्या मैं मर गया हूं ! मैं अभी जिंदा हूं!' क्रोध में, जैसी उसकी पुरानी आदत थी, हाथ उसका तलवार पर चला गया। तलवार अब नहीं थी, अब तो नंगा खड़ा था। लेकिन पुरानी आदत...! तलवार पर हाथ चला गया। जब तलवार पर उसका हाथ गया तो उसकी पुरानी एक और आदत भी थी कि जब भी वह बहुत क्रोध में आ जाता और तलवार पर उसका हाथ जाता तो दूसरे हाथ से वह अपना मुकुट सम्हालता कि कहीं वह गिर न जाये क्रोध में । अब मुकुट भी न था । दूसरा हाथ उसने मुकुट सम्हालने के लिए रखा; वहां कुछ भी न था । अपने ही माथे को छूकर उसे याद आयी कि अरे, यह मैं क्या कर रहा हूं! तत्क्षण उसने अपना तनाव छोड़ दिया, हिंसा का भाव छोड़ दिया। 283 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 तो महावीर ने कहा, जब तुम गुजर रहे थे उसके पास से, तब मिलता वहां भी खोजे चले जाते हैं! उसका हाथ तलवार पर था। मरता तो सातवें नर्क जाता। लेकिन एक सूफी फकीर के घर एक रात चोर घुस गए। सूफी सोया अब अगर मरे तो मोक्ष उसका है। घड़ी भर का ही फासला हुआ था, उठा और दीया जला लिया उसने। चोर बड़े घबड़ा गए। है। बाहर से देखने पर प्रसेनचंद्र अब भी वैसा है। बाहर तो कोई उसने कहा, 'घबड़ाओ मत! मैं तुम्हारा साथ दूंगा।' भी फर्कन पड़ा, लेकिन भीतर की भाव-दशा बदल गई। उन्होंने कहा, 'मतलब? तुम पागल तो नहीं हो? होश में तुम्हारा होना, तुम्हारा भीतर, तुम्हारा आंतरिक तत्व है। भाव हो? हम चोर हैं!' तम्हें भीतर बदलते हैं। विचार तुम्हें भीतर बदलते हैं। बाहर तो उसने कहा, 'तम फिक्र छोडो। इस घर में मैं तीस साल से रह जब तुम विचारों को लाते हो तो समाज शुरू होता है। समाज | रहा हूं और खोज रहा हूं कि कुछ मिल जाये, मिलता नहीं। मैं जहां शुरू होता है वहां कानून शुरू होता है। लेकिन तुम जहां हो, तुम्हें साथ दूंगा। अगर तुम खोज लो, आधा-आधा बांट लेंगे। वहां पाप और पुण्य का हिसाब है, वहां धर्म का हिसाब है। तो मैं दीया जलाकर आया, भाग मत जाना।' 'राग आदि की उत्पत्ति हिंसा, अनुत्पत्ति अहिंसा है।' जिस जिंदगी में तुम रह रहे हो जन्मों से, उसमें कुछ पाया है? जान भी जिंदगी पे देते हैं लेकिन उम्मीद नहीं छूटती। शायद मिले कल, ऐसे आशा के जिंदगी काबिले-यकी भी नहीं। सहारे बंधे जीते हो। अनुभव पर सदा तुम्हारी आशा जीत जाती मैं हूं वोह जिससे चर्ख दबता था है। यही जीवन का सबसे बड़ा रोग है : अनुभव पर आशा की अब तो गरदानती जमीं भी नहीं। जीत। अनुभव तो कहता है, कुछ भी नहीं है। अनुभव तो हजार आज नहीं कल, यह शरीर तो गिरेगा, मिट्टी में मिल जायेगा। बार कह चुका कि कुछ भी नहीं है। अनुभव से तो सदा हाथ में मैं हूं वोह जिससे चर्ख दबता था-कभी आकाश दबता था। राख लगी है। लेकिन आशा कहती है, कौन जाने! अब तो गरदानती जमीं भी नहीं-फिर जमीन भी कोई फिक्र न उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती करेगी। वादा न वफा करते, वादा तो किया होता। जान भी जिंदगी पे देते हैं। उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती—एक भरोसा तो जिंदगी काबिले-यकी भी नहीं। आ जाता, एक आशा तो बंध जाती! वादा न वफा करते-कोई और जिस जिंदगी पर हम मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं, जरूरत न थी कि जो वायदा किया था वह पूरा करते। वादा तो वह जिंदगी पानी का एक बबूला है-अब मिटा तब मिटा; एक किया होता! सपने में खींची गई लकीर है—खिंची भी नहीं. सिर्फ खिचे होने | __ आदमी इतने से ही जीये चला जाता है: 'कहा तो होता! का खयाल है! आशा तो बंधा दी होती! सांत्वना तो रखवा देते!' जिस जिंदगी के लिए हम मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं उस तुमने कभी गौर किया? तुम उन चीजों पर भी भरोसा किये जिंदगी का मूल्य कितना है? जिस दिन व्यक्ति को अपने जीवन जाते हो जिनको तुम जानते हो कुछ परिणाम होने का नहीं। बहुत का मूल्य दिखाई पड़ना शुरू होता है कि इस जीवन का कोई भी बार जान चुके हो कि कुछ मिलता नहीं! कितनी बार क्रोध मूल्य नहीं है, मिट्टी में मिट्टी गिर जायेगी, तो मैं व्यर्थ इस मिट्टी किया! कितनी बार कामवासना में जले, डूबे, क्या मिला? को बचाने के लिए जो उपाय करता हूं, राग-द्वेष करता हूं, उनका हाथ खाली के खाली रहे। लेकिन फिर भी...। कोई सार नहीं है। जीवन की असारता दिखाई पड़ जाये तो सब ___ हजार बार भी वादा वफा न हो लेकिन राग-द्वेष की असारता दिखाई पड़ जाती है। उस असारता के | मैं उनकी राह में आंखें बिछा के देख तो लूं। अनुभव का नाम ही अहिंसा है। -न आये, कोई हर्जा नहीं! हजार बार न आये, कोई हर्जा लेकिन हम झूठ में ऐसे रगे-पगे हैं, कि जहां बार-बार आशा नहीं। एक हजार एकवीं बार शायद आ जाये। मैं उनकी राह में टूटती है वहां भी आशा किये चले जाते हैं; जहां कभी कुछ नहीं आंखें बिछा के देख तो लूँ! 284| Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे ही सब बैठे हैं अपने दरवाजों पर, राह में आंखें बिछाए, उसकी, जो न कभी आया है और न कभी आएगा। बंद करो दरवाजे । उठो, बहुत देख चुके यह राह ! तुम जिसकी राह देख रहे हो, वह है ही नहीं। उसके आने का कोई सवाल नहीं है। वासनाओं से जिसने आनंद के आने की राह देखी है वह गलत की राह देख रहा है, जो आ ही नहीं सकता। वासना का स्वभाव आनंद नहीं। सिर्फ आशा बंधाती है । वासना ढपोरशंख है। तुमने कहानी सुनी है? एक आदमी ने शिव की बड़ी भक्ति की। जब उसकी भक्ति पूरी हो गई, शिव ने कहा, तू वरदान मांग ले। उस आदमी ने कहा, 'मैं क्या मांगूं ! आप ही जो उचित हो, दे दें।' शिव ने उठाकर अपना शंख दे दिया और कहा, यह शंख है, इससे तू जो भी मांगेगा मिल जायेगा । तू कहेगा कि एक मकान मिल जाये, एक मकान मिल जायेगा। तू कहेगा, धनी वर्षा हो जये, धन की वर्षा हो जायेगी। उस आदमी ने तत्क्षण — शिव को तो भूल ही गया - प्रयोग किया कि हीरे-जवाहरात बरस जाएं, बरस गए। घर, आंगन, द्वार सब भर गए। यह खबर धीरे-धीरे आसपास फैलने लगी। क्योंकि अचानक वह आदमी ऐसी शान से रहने लगा कि दूर-दूर तक उसकी सुगंध फैल गई। एक संन्यासी उसके दर्शन को आया। वह रात ठहरा। संन्यासी ने कहा कि मुझे पता है कि तुम्हें शंख मिल गया है, क्योंकि मुझे भी मिल गया है। मैंने भी शिव की भक्ति की थी। मगर तुम्हारा शंख मुझे पता नहीं, मेरा शंख तो महाशंख है। इससे जितना मांगो, दुगना देता है । कहो लाख मिल जायें दो लाख ...। तो उसने कहा, देखें तुम्हारा शंख ! लोभ बढ़ा। इतना सब मिल रहा था उसे, लेकिन फिर भी लोभ पकड़ा। उसने कहा, | देखें तुम्हारा शंख । उस संन्यासी ने शंख दिखलाया और संन्यासी ने शंख से कहा कि एक करोड़ रुपये चाहिए। शंख बोला, एक क्या करोग, दो ले लो! वह भक्त तो... कहा कि बस ठीक है। आप तो संन्यासी हैं, आपको क्या करना ! छोटे शंख से भी काम चल जायेगा, छोटा मेरे पास है। छोटा तो उसने संन्यासी को दे दिया। संन्यासी तो भाग गया उसी रात उसने सुबह उठते ही से पूजा-प्रार्थना की, अपने महाशंख को निकाला और कहा, 'हो जाये करोड़ रुपयों की वर्षा!' शंख बोला, दो करोड़ की कर दूं? मगर हुआ कुछ भी नहीं। उस आदमी ने वासना ढपोरशंख ह कहा, 'अच्छा दो करोड़ की सही ।' उसने कहा, अरे, चार की कर दूं? मगर हुआ कुछ नहीं। वह आदमी थोड़ा घबड़ाया । उसने कहा कि भई करते क्यों नहीं... चार ही सही। उसने कहा, 'अरे, आठ की कर दें न... !' ऐसा ही ढपोरशंख था वह । उससे कुछ हुआ नहीं, वह दुगना करता जाता...! वासना ढपोरशंख है। राग ढपोरशंख है। वह तुमसे कहता है कि होगा, होगा; जितना मांग रहे हो उससे ज्यादा होगा। तुम्हारे सपने से भी बड़ा सपना पूरा कर के दिखला दूंगा। क्या तुमने खाक आशा की है! जो तुम्हें दूंगा, तुम चकित हो जाओगे । तुमने इसकी कभी आशा भी नहीं की थी, सोचा भी न था । ये सब बातें हैं। अनुभव तो कुछ और कहता है। अनुभव तो कहता है, न दो की वर्षा होती है, न चार की वर्षा होती है, न आठ की वर्षा होती है। लेकिन आशा बड़ी होती चली जाती है। आशा कहे चली जाती है, 'अरे! और कर दूं ! तुम घबड़ा क्यों रहे हो ? अगर इतने दिन बेकार गये, कोई फिक्र नहीं, आगे देखो, भविष्य में देखो! अतीत का हिसाब मत रखो। सूरज ऊगेगा! चंदा चमकेगा ! जरा आगे देखो!' आशा तुम्हें आगे खींचे लिये चली जाती है। इसलिए महावीर कहते हैं, 'राग की उत्पत्ति... ।' जहां से आशा का जन्म होता है, वहीं समझने की जरूरत है, वहीं जागने की जरूरत है। वहीं आशा को मत सहारा देना। कहना, 'ठीक ढपोरशंख, तुझे जो कहना हो, कह। हम कुछ मांगते ही नहीं। न हम लाख मांगते न दो लाख मांगते। हमने मांग ही छोड़ दी । ' थोड़े दिन में तुम पाओगे कि जब तुम न मांगोगे तो ढपोरशंख दुगना न कर पाएगा। क्योंकि वह दुगना तभी करता है, जब तुम मांगते हो। तुम न मांगो तो वह चुप हो जाएगा। तुम न मांगो तो वासना आशा न बंधाएगी। तुम मांगते हो, इसलिए बंधाती है। भूल तुम्हारे मांगने में हो जाती है। तुमने मांगा कि तुम आशा के चक्कर में पड़े। आशा कहती है, दुगना दिला देंगे ! जड़ से महावीर पकड़ते हैं। 'हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है । फिर कोई जीव मरे या न मरे, जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है।' यह बड़ा बहुमूल्य सूत्र है । इस सूत्र को गीता के परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत क्योंकि गीता का सारा संदेश यही है । कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, न कोई मरता है न कोई मारता है, तो तू 285 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R m जिन सत्र भागः1 R -5 । बेफिक्री से मार। क्योंकि आत्मा तो अमर है। न हन्यते हन्यमाने लोगों ने खोजबीन करनी शुरू की कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शरीरे! शरीर के मारने से वह नहीं मरती। तू फिक्र छोड़! यह तो पैर में लगने से सिर में कोई परिणाम हुआ है। तो फिर सिरदर्द मिट्टी है, गिरेगी, गिर जायेगी। लेकिन जो इसके भीतर छिपा है, वाले लोगों को उसी पैर के स्थान पर तीर चुभाने से फायदा देखा वह तो रहेगा और रहेगा। गया। और सिरदर्द के बीमार भी ठीक हो गए उसी जगह तीर कृष्ण बिलकुल ठीक कह रहे हैं, आत्मा मरती नहीं। महावीर चुभाने से। तो फिर बिंदु खोजे गए अकुपंचर के, सात सौ बिंदु कुछ और बात प्रवेश करते हैं। महावीर कहते हैं, हिंसा करने के शरीर में। तो कुछ बिंदु हैं जिनको दबाने से कुछ बीमारियां ठीक अध्यवसाय से...हिंसा करने के विचार से, भाव से, कर्म का हो जाती हैं। कुछ बिंदु हैं जिनको दबाने से कुछ और बीमारियां बंध होता है। फिर कोई जीव मरे या न मरे...। किसी के मरने से | ठीक हो जाती हैं। तो शरीर विद्युत का मंडल है। उसमें एक तरफ हिंसा नहीं होती; तुमने मारना चाहा, इससे हिंसा होती है। से विद्युत को दबाने से कहीं दूसरी तरफ विद्युत में परिणाम होते कृष्ण बिलकुल ठीक कहते हैं कि काट डालो, कोई मरेगा | हैं। बड़ा रहस्यमय है। लेकिन अकुपंचर काम करता है। नहीं; क्योंकि आत्मा मरणधर्मा नहीं है। लेकिन महावीर कहते अब सवाल यह है कि जिस आदमी ने तीर मारा था, उसने पाप हैं, तुमने काट डालना चाहा! कटा कोई या नहीं कटा, यह किया या पुण्य ? क्योंकि जीवनभर का सिरदर्द चला गया। सवाल नहीं है; तुमने काटना चाहा, तुम्हारी उस चाह में हिंसा | अगर हम फल को देखें, तब तो पुण्य किया। लेकिन अगर है। फिर कोई मरा न मरा, यह बात अप्रासंगिक है। तुमने मारना | उसके भाव को देखें, तो तो पाप ही है। क्योंकि वह तो मारना चाहा था, तुम फंस गए। तुम्हारी मारने की चाह ने बीज बो चाहता था। वह कोई इसका सिरदर्द ठीक करना नहीं चाहता दिया। तुम दुख पाओगे। तुम्हें दुख मिलेगा। इसलिए नहीं कि | था। उसने तो मारना चाहा था। इसलिए उसने तो हिंसा की। तुमने लोग मारे, क्योंकि लोग तो मरे ही नहीं, लेकिन तुमने यह बात अप्रासंगिक है कि यह आदमी ठीक हो गया। इससे मारना चाहे। वस्तुतः हिंसा घटती है या नहीं घटती है, यह उसका कोई संबंध नहीं है। यह तो दुर्घटना है। सवाल नहीं है। गहरा सवाल यही है कि तुम्हारी आकांक्षा मारने तो तुम्हारा कृत्य फल के द्वारा निर्धारित नहीं होता कि पाप है या की थी। कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि तुम्हारी आकांक्षा पुण्य है, तुम्हारे अभिप्राय के द्वारा निर्धारित होता है, इन्टेशन। कुछ थी, हो कुछ जाता है। | कभी ऐसा भी हो सकता है, बुरे अभिप्राय से ठीक घट जाये, ऐसा हुआ, चीन में कोई पांच हजार साल पहले इस तरह | और कभी ऐसा भी हो सकता है कि ठीक अभिप्राय से बुरा घट अकुपंचर की विद्या का जन्म हुआ। एक आदमी को जिंदगी भर जाये। लेकिन फल से निर्णय नहीं होता; निर्णय तुम्हारे अभिप्राय से सिरदर्द था। वह बड़ा तकलीफ में पड़ा था। वह बड़ा परेशान से होता है-तुम्हारे अंतर्तम में तमने क्या चाहा था। कभी ऐसा था। सब इलाज कर चुका था, कोई इलाज नहीं होता था। कोई भी हो सकता है कि तुम कुछ भला करने गए थे और बुरा हो दवा नहीं मिलती थी। कोई चिकित्सक ठीक नहीं कर पाता था। | गया। तो भी वह पाप नहीं है। कभी तुम बुरा करने गए थे और पत्थर के बोझ की तरह उसका सिर चौबीस घंटे भारी था। और भला हो गया, तो भी वह पाप है। जैसे बिजली कौंधती हो, ऐसे उसके सिर में तड़फन थी। वह न | महावीर का विश्लेषण फल पर नहीं ले जाता। कृष्ण और बैठ सकता था, न काम कर सकता था। जीना उसका दूभर हो महावीर दोनों राजी हैं कि आत्मा मरती नहीं। फिर भी महावीर गया था। आत्महत्या करने का उपाय किया था तो लोगों ने करने | कहते हैं, मारने की आकांक्षा, मारने की आकांक्षा में हिंसा है। न दिया। कोई दुश्मन था उसका, किसी से झगड़ा हो गया, उस मारने की आकांक्षा ही बंधन का कारण है। दुश्मन ने एक तीर उसे मारा। वह तीर उसके पैर में लगा और पैर धन नहीं बांधता। धन तुम्हारे चारों तरफ पड़ा रहे, लेकिन धन में तीर के लगते ही सिरदर्द चला गया। वह चिकित्सकों के पास को पकड़ने की, परिग्रह की आकांक्षा बांधती है। पत्नी, स्त्री नहीं गया। उसने कहा, 'यह हुआ क्या? यह तीर पैर में लगा और बांधती, भोगने की कामना बांधती है। ऐसा ठीक से देखोगे तो उसी क्षण दर्द चला गया।' ऐसे अकुपंचर का जन्म हुआ। तब सारा जाल भीतर है, बाहर नहीं। 286 . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र वासना ढपारशख है लोग मुझसे कहते हैं कि संसार छोड़ना है। जैसे संसार कहीं दिलवाने की कोई तुम्हारी आकांक्षा है। तुम टाल रहे हो कि झंझट बाहर है! संसार से उनका मतलब है-दुकान, बाजार, पत्नी, मिटाओ, जाओ। और तुम कह रहे हो कि ठीक है मलहम-पट्टी बच्चे-इनको छोड़ना है। संसार भीतर है। संसार तुम्हारे कर दी, अब तुम आशा में जीयो। अभिप्राय में है। संसार तुम्हारी कामना और वासना में है। पूरब में यही शिष्टाचार है, सांत्वना बंधा दो। कोई मर गया, 'हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है। फिर | तुम पहुंच जाते हो कहने कि कोई हर्जा नहीं, आत्मा तो अमर है। कोई जीव मरे या न मरे, जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है। तुम्हें पता है! लेकिन तुम कहते हो, पता हो या न हो, अब यह तो आशा के स्वभाव को समझने की कोशिश करो। अनुभव को कोई दुख में पड़ा है, इसको तो सांत्वना दो! जिताओ, आशा को हराओ। जो तुमने जीवन के अनुभव से यूं तो नहीं कहता कि सचमुच करो इंसाफ जाना है उसका भरोसा करो। जो तुम्हारा मन फैलाव करता है, झूठी भी तसल्ली हो तो जीता ही रहूं में। सपनों के, उनका भरोसा मत करो। और ऐसी झूठी तसल्ली के धागे पर लोग जीते रहते हैं। यही यूं तो नहीं कहता कि सचमुच करो इंसाफ तुम्हारे साधु-संन्यासी कर रहे हैं। वे तुम्हें झूठी तसल्ली बंधाए झूठी भी तसल्ली हो तो जीता ही रहूं मैं। जाते हैं। तुम उनके पास जाओ और तुम कहो कि मन में बड़ी तुम भी झूठी तसल्लियों में जी रहे हो। तुम दूसरों से झूठी | अशांति है, वह कहता है, 'कोई फिक्र न करो। यह राम-राम तसल्ली मांगते हो। जपना, सब ठीक हो जायेगा।' अब राम-राम जपने से कोई भी पश्चिम से जब लोग पूरब आते हैं तो बड़े हैरान होते हैं। संबंध अशांति का नहीं है। अशांति तुम पैदा कर रहे हो, राम का क्योंकि पूरब के आदमी झूठी तसल्लियां देने में बड़े कुशल हैं। इसमें कुछ हाथ नहीं है। अशांति तुम पैदा किये चले जाओगे, यहां इस मुल्क में अगर तुम किसी के पास जाओ और कहो कि राम-राम भी जपोगे, क्या होगा? थोड़ी और अशाति बढ़ फलां काम करना है, आप करवा देंगे। वह कहता है, बिलकुल जाएगी, बस। उसने तुम्हारे मूल कारण को न पकड़ा। मूल करवा देंगे। पश्चिम में ऐसा नहीं है। अगर वह करवा सकेगा तो कारण पकड़ना झंझट की बात है, मुश्किल बात है, कठिन बात ही कहेगा। फिर भी वह शर्त के साथ कहेगा कि मैं कोशिश है। शायद उसको भी पता न हो, लेकिन तुम्हारी तसल्ली उसने करूंगा। होगा कि नहीं होगा, यह मुश्किल है। मैं अपनी तरफ | बंधा दी। तुम भी प्रसन्न लौटे। तुम भी आनंदित हुए कि चलो। से कोशिश करूंगा। अगर नहीं करवा सकेगा तो स्पष्ट 'नहीं' तुम गए कि आशीर्वाद दे दो कि शांत हो जाये चित्त। कहेगा कि नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा, क्षमा करें! पूरब में __ भारत में साधु हैं, जो तैयार बैठे हैं, हाथ तैयार ही रखते हैं वे ऐसा नहीं है। तुम किसी से भी कहो, वह कहता है, हां करवा आशीर्वाद देने को। वे कहते हैं, यह लो आशीर्वाद। न कुछ देंगे! चाहे वह करवा सकता हो, चाहे उसकी क्षमता में हो चाहे लेना है, न कुछ देना है। न उनका कुछ हर्जा हो रहा है और न न हो; लेकिन वह यह कहता है कि क्यों नाहक तुम्हें दुखी तुम्हें कुछ मिल रहा है; लेकिन बात हो गई, तसल्ली बंध गई। करना। जब होगा तब होगा, अभी तो तसल्ली! तुम अपने घर लौट गए, जैसे के तैसे, जैसे आये थे। थोड़ी और जब पश्चिम से लोग पूरब आते हैं, धंधे और व्यवसाय के | आशा मजबूत लेकर लौट गए कि अब सब ठीक हो जायेगा। लिए, तो वे बड़े हैरान होते हैं। उनको समझ में ही नहीं आता कि अगर तुम ईमानदारी से जीवन का रूपांतरण चाहते हो तो उनके किसकी मानें, किसकी न मानें; क्योंकि सभी 'हां' कहते हैं। पास जाना जो तसल्ली बंधाते न हों; जो तुम्हारे जीवन का निदान 'नहीं तो कोई मुश्किल से कहता है। 'नहीं' तो जैसे सीधा कर के रख देते हों सामने—चाहे चोट भी लगती हो; चाहे अशिष्टाचार है। तुम्हारा घाव भी छू जाता हो और तुम्हारी मलहम-पट्टी उखड़ तुमने भी कभी खयाल किया? कोई तुम्हारे पास आता है कि जाती हो; चाहे तुम्हारे नासूर से मवाद निकल आती हो। लेकिन नौकरी चाहिए, तुम कहते हो कि हां, कोशिश करेंगे, दिलवा उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाने के आदी नहीं हैं; जो तुम्हारे देंगे। ऐसा कहते वक्त तुम क्षणभर को भी सोच नहीं रहे हो कि जीवन के सत्य को वैसा का वैसा रख देते हैं जैसा है। पीड़ा होती www.jainelibrar.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र है। लेकिन जीवन-रूपांतरण में पीड़ा छुपी है। और अगर तुमने में लिख दिया होता। मुझे भी पता नहीं, गोडोड कौन है। बात सुनी और समझने की कोशिश की और जीवन में लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। ठीक से पूछो, किसकी प्रतीक्षा कर रहे वैसा आचरण और व्यवहार किया तो तुम बदल जाओगे। हो? उनको भी पता नहीं है। गोडोड यानी वह, जिसका पता तसल्ली उन्होंने नहीं बंधाई, लेकिन तुम्हारे जीवन को क्रांति दे देंगे। नहीं, लेकिन प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभी लोग उत्सुकता से बैठे हैं वे। लेकिन तुम मुफ्त तसल्ली में घूमते हो। फिर एक साधु चुक दरवाजे खोले हुए—कोई आनेवाला है। जाता है, क्योंकि कई दफे तसल्ली बंधा चुका, अब तुम्हें उसमें यह गोडोड की कहानी बड़ी प्यारी है। दो आदमी बैठे हैं। ऐसे भरोसा नहीं रहा, फिर तुम दूसरा साध खोज लेते हो। साधओं | नाटक शुरू होता है। और वे एक-दूसरे से पूछते हैं कि क्यों भई, की कोई कमी नहीं है। जिंदगी बड़ी छोटी है, साधु बहुत हैं। क्या हाल है? वह कहता है, 'सब ठीक है। आज आयेगा, तसल्ली, तसल्ली, तसल्ली। तम घमते फिरते हो। ऐसा मालम पड़ता है।' कौन आयेगा. इसकी तो कोई बात ही बंद करो। जीवन के सत्य को पकड़ो। जीवन का सत्य सुगम | नहीं- आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।' दूसरा कहता नहीं है, सांत्वना नहीं है। जीवन का सत्य कठोर है। कांटा चुभा है, 'सोचता तो मैं भी हूं। आना चाहिए। कब से हम राह देख है तुम्हारी छाती में, उसे निकालने में पीड़ा होगी। तुम चीखोगे, रहे हैं! और भरोसा बंधवाया था। और आदमी ऐसा गैर-भरोसे चिल्लाओगे। लेकिन वह चीख-चिल्लाहट जरूरी है। और का नहीं है। देखें शायद आज आए।' ऐसी बात चलती है। वे तुम्हें जो उस पीड़ा से गुजारने में साथी हो सके, उसे मित्र मानना। दोनों देखते रहते हैं रास्ते की तरफ, रास्ते के किनारे बैठे। कोई सदगुरु तसल्ली नहीं देता। सदगुरु सत्य देता है, फिर चाहे | आता नहीं। दोपहर हो जाती है। सांझ हो जाती है। वे कहते हैं, कितना ही कड़वा हो। आखिर वैद्य अगर यह सोचने लगे कि 'फिर नहीं आया। हद्द हो गयी बेईमानी की! आदमी ऐसा तो न मीठी ही दवा देनी है, तो चिकित्सा न होगी, मरीज चाहे प्रसन्न हो था, कुछ अड़चन आ गई होगी, कोई बीमार हो गया!' बाकी जाये क्षणभर को। शरबत पिला दे मरीज को, लेकिन इससे | कौन है इसकी कोई बात नहीं चलती। कई दफे वे परेशान हो बीमारी ठीक न होगी; मरीज प्रसन्न होकर घर लौट जायेगा, जाते हैं। वे कहते हैं, 'अब बहत हो गया, बंद करो जी लेकिन बीमारी और बढ़ जायेगी। नहीं, कड़वी दवा भी देनी इंतजार!' मगर दोनों बैठे हैं। कभी-कभी कहते हैं 'अब मैं पड़ती है, जहर जैसी दवा भी देनी पड़ती है। मरीज नाराज भी | चला। तुम ही करो।' एक कहता है कि बहुत हो गया, एक होता है, तो भी देनी पड़ती है। सीमा होती है। मगर जाता-करता कोई नहीं, क्योंकि जाएं भी आशा ने सारे संसार को भटकाया हुआ है। और आशाएं मत कहां! कहीं और जाओगे, वहां भी इंतजार करना पड़ेगा। रहते खोजो। जहां आशा टूटती हो, जहां तसल्ली उखड़ती हो, जहां | वहीं हैं। बैठे वहीं हैं। बात भी करते रहते हैं, कभी यह भी नहीं तुम्हारे सांत्वना के सब जाल बिखरते हों, जहां तुम्हारा सारा एक-दूसरे से पूछते कि किसका इंतजार कर रहे हो? मान लिया व्यक्तित्व जो अब तक झूठ पर खड़ा था तहस-नहस होकर है कि किसी का इंतजार कर रहे हैं। खंडहर हो जाता हो-वहां जाना। दर्धर्ष है मार्ग। यह जो गोडोड है, यह सब को पकड़े हुए है। लोग कहते हैं मौत से बदतर है इंतजार तुमने कभी पूछा है, किसकी राह देख रहे हो? कौन मेरी तमाम उम्र कटी इंतजार में आनेवाला है? किसके लिए द्वार खोले हैं? और किसके लिए सभी की कटती है। तुम कर क्या रहे हो सिवाय इंतजार के? । घर सजाए बैठे हो? नहीं, तुम कहोगे यह तो हमें पक्का पता सैमुअल बैकेट का एक छोटा नाटक है-वेटिंग फार गोडोड, नहीं है, कौन आनेवाला है; लेकिन कोई आनेवाला है, ऐसा गोडोड की प्रतीक्षा। यह गोडोड कौन है? किसी ने सैमुअल लगता है। बैकेट को पूछा कि आखिर यह गोडोड कौन है! क्योंकि पूरा मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम क्या खोज रहे हैं, नाटक पढ़ जाओ, पता ही नहीं चलता कि गोडोड कौन है। हमें पता ही नहीं; मगर खोज रहे हैं। अब खोजोगे कैसे अगर सैमुअल बैकेट ने कहा कि अगर मुझे ही पता होता तो मैंने नाटक यह ही पता नहीं कि क्या खोज रहे हो? 288 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A STRRIAL वासना ढपोरशंख है । लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कुछ पूछना है; लेकिन हमें की आदत है। अहिंसा की शैली को बोधपूर्वक स्वीकार करना मालूम नहीं कि क्या पूछना है। और वे गलत नहीं कहते, बड़े पड़ेगा। उसे जीवन की साधना बनाना होगा। नहीं तो जब कोई ईमानदार लोग हैं। यही स्थिति है। लोग पूछना चाहते हैं, कुछ हिंसा करने को तैयार हो जाएगा, तुम अचानक भूल जाओगे। पूछना जरूर है। ऐसा आभास मालूम होता है। कहीं प्राणों में तुमने सोचा भी न था हिंसा करने के लिए, लेकिन हिंसा होगी। ऐसी घुमड़ मालूम होती है, कुछ पूछना है लेकिन क्या? कुछ पुरानी आदत है, पुराने संस्कार हैं। पुराने संस्करों को गिराने के पकड़ में नहीं आता। कुछ रूप नहीं बनता। कुछ आकार नहीं लिए बोधपूर्वक निर्णय चाहिए। हिंसा से विरत होने का निर्णय बैठता। खोजना है-लेकिन क्या? यह गोडोड कौन है? | चाहिए। किसी को मालूम नहीं। "हिंसा में विरत न होना, हिंसा का परिणाम रखना हिंसा ही इस इंतजार से जागो! यह प्रतीक्षा बहुत हो चुकी। न कभी कोई है...।' आया है, न कभी कोई आयेगा। बंद करो दरवाजे। अब तो संभावना भी बचा लेना हिंसा है। उसको खोजो जो तुम हो। कभी धन में प्रतीक्षा की, कभी पद में 'इसलिए जहां प्रमाद है, वहां नित्य हिंसा है...।' प्रतीक्षा की; कभी लोगों की आंखों में सम्मान चाहा, कभी यह गहरी से गहरी पकड़ है, जो हो सकती है। प्रार्थना की, आकाश की तरफ देखा, किसी परमात्मा को __'जहां प्रमाद है वहां नित्य हिंसा है...।' खोजा लेकिन सब गोडोड! तम्हें साफ नहीं, तुम क्या खोज प्रमाद यानी मुर्छा। जहां सोया-सोयापन है; जहां चले जा रहे रहे हो, तुम क्या मांग रहे हो! अब तो उचित है कि अपने में हैं नींद में, आंखें खुली हैं, लेकिन मन सोया, बेहोश है; जहां हम डूबो। उसे देखें जो हम हैं। किसी और की प्रतीक्षा करनी उचित मूर्छा में चल रहे हैं-वहां हिंसा है। क्योंकि मूछित व्यक्ति नहीं है। क्या करेगा? हजार परिस्थितियां रोज आती हैं हिंसा की, _ 'हिंसा में विरत न होना, हिंसा का परिणाम रखना हिंसा ही मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? होश तो है नहीं कि कुछ नया जीवन-उदबोध, कुछ नयी जीवन-उमंग, कोई नई किरण फूट अगर तुमने हिंसा का बोधपूर्वक त्याग नहीं किया है तो हिंसा सके। बेहोश है तो पुरानी आदत से चलेगा, बेहोश आदमी जारी रहेगी। महावीर और सूक्ष्म तल पर ले जाते हैं। वे कहते हैं, आदत से चलता है। होशवाला आदमी प्रतिपल होश से चलता दूसरे को मारने का, दूसरे को दुख देने का भाव तो हिंसा है ही; है, आदत से नहीं। लेकिन अगर तुमने बोधपूर्वक दूसरे को दुख देने की समस्त किसी ने गाली दी, तुम्हें याद भी न रहेगा कि तुम्हारा चेहरा संभावना का त्याग नहीं किया है, अगर तुमने अहिंसा को तमतमा गया। यह तमतमा जाएगा, तब पता चलेगा कि अरे, बोधपूर्वक अपनी जीवनचर्या नहीं बनाया है, तो भी हिंसा है। फिर हो गया! यह एक क्षण में हो जाता है, क्षण के खंड में हो हिंसा में विरत न होना, जागकर होशपूर्वक, निर्णयपूर्वक अपने जाता है। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी, कोई चीज हिल गई सामने यह साफ न कर लेना कि मैं हिंसा से विरत हुआ, तो भीतर। अभी खाली बैठे थे तो कुछ बात न थी। स्त्री का खयाल खतरा है। जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, वह पैदा हो सकता है। ही न था। अभी बैठे वृक्षों की हरियाली देखते थे; खिले फूलों किसी घड़ी, किसी असमय में, किसी परिस्थिति में, जिससे तुम को, आकाश के तारों को देखते थे-कुछ पता भी न था, लेकिन विरत नहीं हुए हो, उसके पैदा होने की संभावना है। माना कि परिणाम तो भीतर पड़ा है। आदत तो पुरानी भीतर पड़ी है। एक तुमने सोचा भी नहीं कि किसी को मारना है; लेकिन कोई छुरी स्त्री पास से गुजर गई, क्षणभर में बिजली कौंध गई। भीतर कुछ लेकर सामने आ गया तो तुम भूल जाओगे। तुम्हारे पास अहिंसा हिल गया। भीतर कोई तूफान उठ आया। भीतर कोई वासना की कोई शैली नहीं है। तुम हिंसा की शैली को पकड़ लोगे, | सजग हो गई। बीज तो पड़े ही हैं, जब भी वर्षा हो जायेगी, अंकुर क्योंकि वह पुरानी आदत है। हो जायेंगे। तो महावीर यह कह रहे हैं कि हिंसा की शैली तो जन्मों-जन्मों शला ता जन्मा-जन्मों तो महावीर कहते हैं, 'वस्तुत तो महावीर कहते हैं, 'वस्तुतः मच्छो ही हिंसा है और अमच्छों। 289 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भार अहिंसा है। आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है। जब वापिस लौटता है झटके के बाद, तो उसे याद नहीं रहती कि वह आत्मा मूर्छित है तो हिंसा; जब आत्मा जाग्रत है तो अहिंसा। अभी थोड़ी देर पहले पागल था, अब उसको पागल रहना है। यह सिद्धांत का निश्चय है।' आदत से संबंध छूट गया। तो अकसर लाभ हो जाता है। अत्ता चेव अहिंसा-आत्मा ही अहिंसा, आत्मा ही हिंसा। अकसर पागल ठीक हो जाता है। लेकिन यह तुम खुद अपने यह सिद्धांत का निश्चय है। लिए कर सकते हो। 'जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है।' और हम सब पागल हैं। और हमारा सारा व्यवहार सोया हुआ जो जागा हुआ है, जो होशपूर्वक जीता है, अवेयरनेस, सम्यक है। जिस भांति बन सके, जगाने की चेष्टा अपने को करनी है। बोध, एक-एक कदम बोधपूर्वक रखता है, विवेकपूर्वक रखता कई तरह से झटके दिये जा सकते हैं। कोई भी छोटा स्मरण भी है-वह अहिंसक है। सहयोगी हो सकता है। तुम्हें मैंने माला दी है। इसको ही एक 'जो प्रमत्त है, वह हिंसक है।' जो नशे में जी रहा है, जिसे नयी स्मरण की आदत बना लो कि जब कोई कामवासना उठने ठीक पता भी नहीं है-कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं—चला | लगे, तत्क्षण माला को हाथ में पकड़ लेना। किसी को पता भी न जा रहा है! तुम अपने को पकड़ो। अपने को हिलाओ, डुलाओ, चलेगा। लेकिन उस माला को पकड़ना तुम्हें याद दिला देगा कि जगाओ! झटका दो! अरे! फिर गिरे, फिर गिरने को तैयार हुए। तुम्हें मैंने गैरिक वस्त्र सूफियों में एक प्रक्रिया है-झटका देने की। सूफियों का एक दिये हैं, वे याददाश्त के लिए हैं; अन्यथा गैरिक वस्त्रों से क्या वर्ग साधकों को कहता है कि जब भी तुम्हें लगे कि तंद्रा आ रही | होता जाता है! है, जोर से एक झटका शरीर को दो। जैसे कोई वृक्ष तूफान में एक आदमी शराबी है, वह संन्यास लेने आ गया था। वह हिल जाता है, आंधी में कंप जाता है, धूल-धंवास गिर जाती है, कहने लगा कि मैं शराबी हं, अब आपसे कैसे छिपाऊं! संन्यास ऐसा कभी अपने को झटका दो। भी लेना है। घबड़ाहट यही है कि गैरिक वस्त्रों में फिर तम कभी कोशिश करके देखना। क्षणभर को तम पाओगे एक शराब-घर कैसे जाऊंगा। ताजगी, एक होश, अपनी याद, मैं कौन हं! चैतन्य थोड़ी देर को __ 'वह तेरी फिक्र है। वह हमारी क्या फिक्र है? तू चिंता प्रखर होगा, झलकेगा; फिर खो जायेगा। ऐसे झटके अपने को करना। हमने अपना काम कर दिया, तुझे संन्यास दे दिया। अब देते रहना। इसमें हम क्या फिक्र करें, कहां तू जायेगा कहां नहीं। तेरे पीछे कभी-कभी छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। बहुत छोटी चीजें हम कोई चौबीस घंटे घूमेंगे नहीं। अब तू ही निपट लेना।' काम की हो जाती हैं। तो जब भी कोई गाली दे, एक झटका | उसने कहा कि झंझट में डाल रहे हो आप। अपने को देना। इसको धीरे-धीरे अपने जीवन की व्यवस्था बना झंझट तो है। क्योंकि सोए-सोए जीते थे, जागना एक झंझट लेना। कोई गाली देगा, तुम अपने को झटका दोगे। झटका देकर है। पर वह हिम्मतवर आदमी है। साफ-सुथरा आदमी है। तुम पाओगे कि आदत से संबंध छूट गया। यही तो 'इलेक्ट्रो | अन्यथा कहने की कोई जरूरत ही नहीं थी, छिपा जाता। शराब शाक...' मनोविज्ञान इसी को कहता है। आदमी पागल हो पीते हैं, कौन कहता है। लेकिन कुछ दिन बाद आया और उसने जाता है, कोई उपाय नहीं सूझता, कैसे ठीक करें, तो उसके कहा कि मुश्किल हो गई। अब पैर रुकते हैं। ऐसा नहीं कि मस्तिष्क में बिजली दौड़ा देते हैं। होता क्या है? जब बिजली | शराब पीने का मन अब नहीं होता; होता है, लेकिन अब ये तेजी से दौड़ती है तो उसके मस्तिष्क में एक झंझावात आता है। गैरिक वस्त्र झंझट का कारण हैं। वहां पहुंच जाता हूं तो लोग एक झटका लगता है। उस झटके के कारण, वह जो पागलपन | चौंककर देखते हैं जैसे कि कोई अजूबा जानवर हूं। सिनेमा-घर उस पर सवार था, उससे उसका संबंध क्षणभर को टूट जाता है। में खड़ा था कतार में, तो चारों तरफ लोग देखने लगे। दो क्षणभर को वह भूल जाता है कि मैं पागल हूं। सातत्य टूट जाता आदमियों ने आकर पैर छू लिये तो मैं भागा कि अब यहां...जहां है, कंटीन्यूटी टूट जाती है। फिर उसे याद नहीं रहती। फिर जब लोग पैर छू रहे हैं, अब यहां सिनेमा में जाना योग्य नहीं है। 290 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ veer वासना ढपोरशंख है तुमने कहानी सुनी है पुरानी? एक चोर भागा। उसके पीछे अहिंसा है। लेकिन महावीर एक-एक शब्द को बहुत सोचकर लोग लगे थे। उसे कोई भागने का, बचने का उपाय नहीं दिखाई बोले हैं, तुम्हारी तरफ देखकर बोले हैं। क्योंकि प्रेम के साथ पड़ा। वह एक नदी के किनारे पहुंचा। वहां कुछ राख का ढेर | तुम्हारा पुराना एसोसिएशन है, पुराना संबंध है। तुमने प्रेम से पड़ा था। उसने जल्दी से कपड़े उतारकर तो फेंके नदी में, नग्न हो अब तक जो मतलब समझे हैं वे राग के हैं, काम के हैं। तुम्हारे गया, डुबकी मारी, राख ऊपर से डाल ली और झाड़ के नीचे लिए प्रेम का एक ही मतलब होता है: वासना। तुमने प्रेम का आंख बंदकर के बैठ गया। पद्मासन लगा लिया। पकड़नेवाले दूसरा गहनतम अर्थ नहीं जाना। आ गये, कोई वहां दिखाई नहीं पड़ता-एक साधु महाराज। प्रेम का वास्तविक अर्थ होता है। इतने स्वस्थ हो जाना कि तुम उन्होंने सबने पैर छुए। चोर ने कहा, 'अरे हद्द हो गई! मैं झूठा न किसी को दुख पहुंचाना चाहते हो, न स्वयं को दुख पहुंचाना साधु हूं और मेरे लोग पैर छू रहे हैं।' लेकिन एक झटका लगा चाहते हो। तुम अपने को भी प्रेम करते हो, दूसरे को भी प्रेम कि काश! मैं सच्चा होता तो क्या न हो जाता! लेकिन उस करते हो। और यह प्रेम अब कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी दशा है। झटके में क्रांति हो गई। लोग तो चले गए पैर छूकर, लेकिन वह कोई न भी हो तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम फैलता रहता है। जैसे सदा के लिए साधु हो गया। उसने कहा, जब झूठे तक को, जब अकेले में खिले विजन में फूल, तो भी तो सुगंध बिखरती रहती झूठी साधुता तक को ऐसा सम्मान मिल गया, जब झूठे में ऐसा है। दीया जले अकेले अंधकार में, अमावस की रात में, तो भी रस, तो सच्चे की तो कहना क्या! तो प्रकाश फैलता रहता है। दीया यह थोड़े ही सोचता है कि कोई स्मरण के साधन हैं। गैरिक वस्त्र है तुम्हारा, किसी को मारने यहां है ही नहीं, तो फायदा क्या! फूल यह थोड़े ही सोचता है, के लिए हाथ उठने लगेगा तो अपना गैरिक वस्त्र भी दिखाई पड़ इस रास्ते से कोई गजरता ही नहीं, कोई नासापट आएंगे ही नहीं जायेगा। बस उतना ही काफी होगा। हाथ को नीचे छोड़ देना। यहां, तो किसके लिए गंध बिखेरूं! छोड़ो, क्या सार है। ऐसे ही शराब का प्याला हाथ में उठा लो, पास लाने लगो, तो गैरिक | प्रेम को जो उपलब्ध है, वह यह थोड़े ही सोचता है कि कोई लेगा वस्त्र दिखाई पड़ जायेगा। फिर हाथ को वहीं वापिस लौटा देना। तब दं, या किसी खास को दूं। प्रेम उसका स्वभाव है। धीरे-धीरे तुम पाओगे, एक नए बोध की दशा तुम्हारे भीतर सघन | लेकिन महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। उस शब्द होने लगी, जो पुरानी आदतों को काट देगी। के कारण उन्होंने पुरानी एक भ्रांति से बचाना चाहा आदमी को, "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल ताकि लोग उनके ही प्रेम को न समझ लें कि महावीर उन्हीं के प्रेम कुछ भी नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।' का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन एक दूसरी भ्रांति शुरू हो गयी। इसलिए महावीर ने अहिंसा को परम धर्म कहा है। आकाश से आदमी इतना उलझा हुआ है कि तुम उसे बचा नहीं सकते। तब विशाल, मेरुओं से भी ऊंचा! अहिंसा शब्द के साथ एक नयी भ्रांति शुरू हो गयी। 'अहिंसा' शब्द सोचने जैसा है। महावीर ने प्रेम शब्द का अब जैन मुनि हैं, उनके जीवन में प्रेम दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उपयोग नहीं किया, यद्यपि ज्यादा उचित होता कि वे प्रेम शब्द का उनने अहिंसा का ठीक-ठीक मतलब ले लिया, हिंसा नहीं उपयोग करते। लेकिन उन्होंने किया नहीं। उनके न करने के पीछे करनी; तो नकारात्मक, विधायक कुछ भी नहीं, पाजिटिव कुछ कारण हैं। क्योंकि प्रेम शब्द से तुम कुछ समझे बैठे हो जो कि भी नहीं। चींटी नहीं मारनी, मगर चींटी के प्रति कोई प्रेम नहीं है। बिलकुल गलत है। उसी शब्द का उपयोग करने से कहीं ऐसा न चींटी नहीं मारनी, क्योंकि मारने से नर्क जाना पड़ता है। यह तो हो, महावीर को डर रहा, कि तुम अपना ही प्रेम समझ लो कि लोभ ही हुआ। किसी को नहीं मारना, किसी को गाली नहीं देना, तुम्हारे ही प्रेम की बात हो रही है। तो महावीर को एक क्योंकि गाली देने से मोक्ष खोता है। यह तो लोभ ही हुआ, प्रेम नकारात्मक शब्द उपयोग करना पड़ा: अहिंसा; हिंसा नहीं। नहीं। इस फर्क को समझना। लेकिन महावीर का मतलब प्रेम से है। सूफी जिसको 'इश्क' तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा का महावीर का कहते हैं, जीसस ने जिसको प्रेम कहा है—वही महावीर की अर्थ है : प्रेम। तुम्हारा प्रेम नहीं; क्योंकि एक और प्रेम है। 291 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भाग: 1 - Si लेकिन जैन मुनियों की अहिंसा भी नहीं, क्योंकि वह बिलकुल ऐसा समझो कि एक झरना है, उसके मार्ग पर पत्थर रखे हैं। मुर्दा है। वह मर गयी। नकार में कहीं कोई जी सकता है? सिर्फ तो हम कहते हैं, पत्थर हटा लो, तो झरना फूट जाये। नकार-नकार में कोई जी सकता है? नकार में कोई घर बना | लेकिन पत्थर का हटा लेना ही झरना नहीं है। क्योंकि कई सकता है? कुछ विधायक चाहिए। | जगह और जगह भी पत्थर पड़े हैं, वहां हटा लेना, तो झरना नहीं विधायक का अर्थ है: कुछ ऊर्जा तुम्हारे भीतर जगनी चाहिए। फूटेगा; तुम बैठे रहना कि पत्थर तो हटा लिये, बस झरना हो सिकुड़ने से ही थोड़े ही काम चलेगा! किसी को मारो मत, | गया। पत्थर का हटाना झरने के लिए जरूरी हो सकता है, बिलकुल ठीक; लेकिन क्यों न मारो किसी को? क्योंकि तुम्हें लेकिन पत्थर के हटने में ही झरना नहीं है। झरना तो कुछ प्रेम है, इसलिए। इसलिए नहीं कि मारोगे तो नर्क जाना पड़ेगा। विधायक बात है। हो तो पत्थर के हटने पर प्रगट हो जायेगा; न यह कोई प्रेम हुआ? यह तो अपना ही लोभ हुआ। लोगों को | हो तो तुम पत्थर हटाए बैठे रहना जैसे जैन मुनि बैठे हुए हैं। यह मत मारो, क्योंकि तुम्हारा प्रेम तुम्हें बताएगा कि दूसरे को मारना, नहीं करते, वह नहीं करते-सब नहीं करने पर है। चोरी नहीं दूसरे को दुख देना...तो तुम कैसे आशा बांधते हो कि तुम्हारे करते, लेकिन अचोर नहीं हैं। लोभ नहीं करते, लेकिन अलोभी जीवन में प्रेम का फैलाव हो सकेगा? नहीं हैं। हिंसा नहीं करते, लेकिन अहिंसक नहीं हैं। क्योंकि प्रेम फैलता है, बढ़ता है। महावीर कहते हैं, 'आकाश जैसा! विधायक चूक रहा है। सुमेरू पर्वत से भी ऊंचा, आकाश से भी विशाल!' जिंदगी जिंगारे-आईना है, आईना है इश्क। तो यह कुछ विधायक घड़ी हो तो ही बढ़ सकती है। कुछ हो तो संग है मामूरए-कौनेन और शोला है इश्क। बढ़ सकता है। इल्म बरबत है, अमल मिजराब है, नग्मा है इश्क। अहिंसा का तो अर्थ है : हिंसा का न होना। यह तो ऐसे ही जर्रा-जरी कारवां है, इश्क खिजे-कारवां। हुआ जैसे कि चिकित्सा-शास्त्र में अगर पूछा जाये कि स्वास्थ्य प्रेम स्वच्छ दर्पण है। और प्रेम के सिवाय जीवन में जो कुछ है, क्या है, तो वे कहते हैं बीमारी का न होना। लेकिन मुर्दा भी वह दर्पण पर मैल है, धूल है। सांसारिक वस्तुएं तो पत्थर हैं। बीमार नहीं होता, लेकिन उसको तुम स्वस्थ न कह सकोगे। वह प्रेम प्रकाश है। ज्ञान वाद्य है। आचरण मिजराब है। प्रेम संगीत स्वास्थ्य की परिभाषा पूरी करता है, क्योंकि बीमार नहीं है। जिंदा है। जीवन का कण-कण यात्री है। प्रेम यात्री-दल का ही बीमार होता है, मुर्दा कैसे बीमार होगा? बीमार होने के लिए पथ-प्रदर्शक है। जिंदा होना जरूरी है। तो यह स्वास्थ्य की परिभाषा पर्याप्त नहीं महावीर ने जिसे अहिंसा कहा है, वह सूफियों का इश्क है। मार न होना। यह तो नकारात्मक हुई। हां, स्वस्थ इस बात को अब दोहरा देने की जरूरत पड़ी है। क्योंकि जैसी आदमी बीमार नहीं होता, यह बात जरूर सच है। लेकिन | मुश्किल महावीर को मालूम पड़ी थी प्रेम के साथ, वैसी ही स्वास्थ्य कुछ और भी है। बीमारी न होने से ज्यादा कुछ है, कुछ मुश्किल मुझे मालूम पड़ती है अहिंसा के साथ। महावीर प्रेम विधायक है। जब तुम स्वस्थ रहे हो, क्या तुमने अनुभव नहीं शब्द का उपयोग न कर सके, क्योंकि गलत धारणा लोगों के मन किया, क्या तुम इतना ही जानते हो कि न टी.बी., न कैंसर, न में प्रेम की थी। आज मुझे अहिंसा शब्द का उपयोग करने में और रोग? क्या जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुमको इनकी याद | अड़चन होती है, क्योंकि बड़ी गलत धारणा लोगों के मन में है। आती है कि देखो, कितना मजा आ रहा है, न टी. बी. है, न हमारे सभी शब्द हमारे कारण खराब हो जाते हैं, गंदे हो जाते कैंसर है? ऐसा होता है? जब तुम स्वस्थ होते हो, न तो टी. हैं; क्योंकि हमारे शब्दों में भी हमारी प्रतिध्वनि होती है। जब बी. की याद आती है, न कैंसर की, न नकार की। | कामी प्रेम की बात करता है तो उसका प्रेम भी काम से भर जाता स्वास्थ्य का अपना ही रस है। स्वास्थ्य का अपना ही है। जब निषेधात्मक वृत्तियों का व्यक्ति अहिंसा की बात करता है अहोभाव है। स्वास्थ्य की अपनी ही प्रफुल्लता है। स्वास्थ्य का तो उसकी अहिंसा निषेधात्मक हो जाती है। अहिंसा यानी प्रेम, झरना फूटता है। यह कोई बीमारी की बात नहीं है। परम प्रेम। 292 Jain Eucation International . Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERI वासना ढपारशख है है अब जिंदगी सायए इश्क में हम तो सोचते हैं, क्रोध बलवान है। बस यही धार्मिक और ज़रा मोत दामन बचा कर चले अधार्मिक आदमी का अंतर है। वह शोलों से अकसर रहे हमकिनार अगर तुम मुझ से पूछो तो धार्मिक आदमी वह है जो यह जान जो फूलों से दामन बचा कर चले। गया कि कोमल अंततः जीतता है; जिसका भरोसा फूल पर आ -जिंदगी अब प्रेम के साथ है, प्रेम की छाया में है। गया और पत्थर से जिसकी श्रद्धा उठ गई। और अधार्मिक है अब जिंदगी सायए इश्क में आदमी वह है, जो भला फूल की प्रशंसा करता हो, लेकिन जब ज़रा मौत दामन बचा कर चले। समय आता है तो पत्थर पर भरोसा करता है। -अब जरा मौत होशियारी से चले, क्योंकि जो प्रेम के साये महावीर की अहिंसा अनुयायियों के हाथ में पड़कर विकृत हो में आ गया उसकी कोई मौत नहीं। वह अमृत को उपलब्ध हो गयी, निषेध हो गयी है। वह बड़ा विधायक जीवन-स्रोत था। जाता है। | लेकिन हमारी अड़चन है। जो भी हम सुनते हैं, उसका हम अर्थ और प्रेम फूल जैसा है। मौत अंगार जैसी है। लेकिन इस | अपने हिसाब से लगाते हैं। अगर कोई मर गया-किसी का जीवन की, अस्तित्व की यही महत्वपूर्ण राजभरी बात है कि प्रेमी मर गया, किसी की प्रेयसी मर गई तो हम अपने हिसाब अंततः फूल जीतते हैं, अंगार हार जाते हैं। अंततः कोमल जीतता से अर्थ लगाते हैं। जिसकी प्रेयसी मर गई है या प्रेमी मर गया है, है, कठोर हार जाता है। गिरता है पहाड़ से जल, कोमल जल, उसे अगर हम रोता नहीं देखते, आंख में आंसू नहीं देखते, तो क्षीणदेह जलधार, बड़ी-बड़ी चट्टाने मार्ग में पड़ी होती हैं—कौन हम सोचते हैं, 'अरे! तो कुछ दर्द नहीं हुआ, दुख नहीं हुआ? सोचेगा कि ये चट्टानें कभी कट जायेंगी! लेकिन एक दिन रोई भी नहीं? तो कोई लगाव न रहा होगा। तो कोई चाहत न रही धीरे-धीरे धीरे-धीरे चट्टानें कटती जाती हैं और रेत होती जाती होगी। तो कोई प्रेम न रहा होगा।' हैं। धार बड़ी कोमल है। चट्टानें बड़ी कठोर हैं। लेकिन कोमल लेकिन तुम्हें पता है, अगर सच में ही गहरी पीड़ा हो तो आंसू सदा जीत जाता है। अंतिम विजय कोमल की है। आते नहीं! आंसू भी रुक जाते हैं। और आंसू बहुत गहरी पीड़ा वह शोलों से अकसर रहे हमकिनार के सबूत नहीं हैं—पीड़ा के सबूत हैं-बहुत गहरी पीड़ा के जो फूलों से दामन बचा कर चले। सबूत नहीं हैं। अब बड़ी कठिनाई है। आंसू तब भी नहीं आते, और जिन्होंने अपने को फूलों से बचाया, कोमलता से बचाया, | जब पीड़ा नहीं होती; और आंसू तब भी नहीं आते जब महान उनकी जिंदगी में अंगारे ही अंगारे रहे, जलन ही जलन रही। पीड़ा होती है। तो भूल-चूक की संभावना है। कभी यह भी हो तुम फूल को कमजोर मत समझना। तुम फूल को | सकता है कि रूखी आंखों को देखकर तुम सोचो कि कोई पीड़ा महाशक्तिशाली समझना। पत्थर कमजोर हैं; यद्यपि दिखाई नहीं हुई; और कभी यह भी हो सकता है, क्योंकि मैं कहता हूं यही पड़ता है कि पत्थर बड़े मजबूत, बड़े शक्तिशाली हैं। रूखी आंखों में बड़ी गहरी पीड़ा है कि आंसू भी नहीं बह रहे, तो लेकिन पत्थर मुर्दा हैं, शक्तिशाली हो कैसे सकते हैं? फूल | फिर उसको भी तुम समझ लो कि बड़ी गहरी पीड़ा हो रही है जीवंत है। उसके खिलने में जीवन है। उसकी सुगंध में जीवन | जिसको कोई पीड़ा नहीं हुई। जिंदगी में शब्द सीमित हो जाते हैं। है। उसकी कोमलता में जीवन है। अस्तित्व में शब्दों की कोई सीमा नहीं है। वहां तो हमें प्रत्येक अकसर हम हिंसा के लिए राजी हो जाते हैं, क्योंकि हिंसा घटना को उसके निजी व्यक्तित्व में देखना चाहिए। कोई पुरानी लगती है ज्यादा मजबूत, शक्तिशाली! अहिंसा, प्रेम लगता है | परिभाषा से नहीं चलना चाहिए। कमजोर। हम जल्दी भरोसा कर लेते हैं हिंसा पर; अहिंसा पर | शक न कर मेरी खुश्क आंखों पर भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि फूलों पर हमारा भरोसा उठ गया | यूं भी आंसू बहाए जाते हैं। है। कोमल की शक्ति को हम भूल ही गये हैं। विनम्र की शक्ति | -यह भी एक ढंग है। को हम भूल गए हैं। प्रेम बलवान है, यह हमें याद भी न रहा है। तो तुम जल्दी से निर्णय मत लेना। महावीर ने प्रेम की ही बात 293 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1जिन सूत्र भाग: 1MUMBAI कही, लेकिन प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। प्रेम शब्द का का ठीक-ठीक अर्थ प्रेम है। सूफी जिसे इश्क कहते हैं, उसी को उपयोग न करने के कारण अतीत की भूल तो बचा ली, लेकिन महावीर अहिंसा कहते हैं। जीसस ने कहा है, प्रेम परमात्मा है। भविष्य की भूल हो गयी। तो पीछे जो आये, उन्होंने अहिंसा को उसी को महावीर ने कहा है : सिर्फ निषेध बना लिया। शब्द में निषेध है। सारे शब्द तुगं न मंदराओ, आगासाओ विसालय नत्थि। निषेधात्मक हैं। अचौर्य, अपरिग्रह, अहिंसा, अकाम, । जह तह जयंमि जाणसु, धम्महिंसासमं नत्थि।। अप्रमाद-सारे शब्द निषेधात्मक हैं। तो ऐसा लगा उनको कि 'जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा कोई और पर्वत नहीं, और | महावीर कहते हैं : नहीं, नहीं, नहीं। हां की कोई जगह नहीं है। आकाश से विशाल कोई और आकाश नहीं, वैसे ही अहिंसा के इसी कारण हिंदुओं ने तो महावीर को नास्तिक ही कह दिया; समान कोई धर्म नहीं है।' क्योंकि परमात्मा नहीं और फिर सारा शास्त्र 'नहीं' से भरा है। नहीं, लेकिन उस 'नहीं' के भीतर बड़ी गहरी 'हां' छिपी है। आज इतना ही। 'नहीं' का उपयोग करना पड़ा, क्योंकि लोगों ने 'हां' वाले शब्दों का दुरुपयोग कर लिया था। लेकिन भूल फिर हो गयी। महावीर का कोई कसूर नहीं है। शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। और आदमी कुछ ऐसा है, तुम जो भी शब्द उसे दो वह उसका ही दुरुपयोग कर लेगा। क्योंकि सुनते तुम वही हो जो तुम सुन सकते हो। तो महावीर के पीछे निषेधात्मक लोगों की कतार लग गई। इसलिए तो महावीर का धर्म फैल नहीं सका। कहीं निषेध के आधार पर कोई चीज फैलती है? महावीर का धर्म सिकड़कर रह गया। 'नहीं-नहीं' पर कोई जिंदगी बनती है? 'नहीं-नहीं' से कोई जिंदगी के गीत बनते हैं? तो सिकुड़ गया। लेकिन कुछ रुग्ण लोग, जो नकारात्मक थे, उनके पीछे इकट्ठे हो गये। उनकी कतार लगी है। उनका सारा हिसाब इतना है कि बस 'नहीं' कहते जाओ। जो भी चीज हो उसे इनकार करते जाओ। इनकार कर-कर के वे कटते जाते हैं, मरते जाते हैं। तो उनकी प्रक्रिया करीब-करीब आत्मघात जैसी हो गयी। इसलिए जैन मुनियों के पास जीवन का उत्सव न मिलेगा, जीवन का अहोभाव न मिलेगा। इसलिए जैन मुनियों के पास तुम्हें जीवन की सुरभि न मिलेगी। तुम्हें जैन मुनियों के पास कोई गीत और नृत्य न मिलेगा। यह भी क्या धर्म हुआ, जिससे नृत्य पैदा न हो सके! यह भी | क्या धर्म हुआ जिससे गीत का जन्म न हो सके, जिसमें फूलन खिलें! यह सिकुड़ा हुआ धर्म हुआ। यह बीमारों को उत्सुक करेगा। निषेधात्मक और नकारात्मक लोगों को बुला लेगा। यह एक तरह का अस्पताल होगा, मंदिर नहीं। इसलिए मैं तुमसे कह देना चाहता है कि महावीर की अहिंसा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां प्रवचन प्रेम से मुझे प्रेम है Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को चौबीसवां तीर्थंकर क्यों स्वीकार किया ? महावीर का स्वयं सद्गुरु, तीर्थंकर बनना व शिष्यों को दीक्षा देनाक्या उनके ही सिद्धांत के विपरीत नहीं है ? वर्तमान शताब्दि में आप हमें कौन-सा शब्द देना पसंद करेंगे ? आपके सामने दिल खोलूं कि नहीं खोलूं - मुझे घबड़ाहट होती है। और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती ? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है ! Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाहा हला प्रश्न ः परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को भिन्नता पैदा होती है। विरोध से दूसरे को खोजने की आकांक्षा प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर पैदा होती है। स्त्री-पुरुष लड़ते रहते हैं और प्रेम करते रहते हैं। क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं। | लड़ाई और प्रेम कुछ इतने विपरीत नहीं हैं। जिस पति-पत्नी में लड़ाई बंद हो चुकी हो, समझना कि प्रेम भी परंपरा की तो परंपरा है ही, परंपरा-भंजन की भी परंपरा है। मर चुका। जब तक प्रेम की चिंगार रहेगी, तब तक थोड़ा-बहुत परंपरा तो प्राचीन है ही, क्रांति भी कुछ नवीन नहीं। क्रांति उतनी झगड़ा, थोड़ी-बहुत कलह भी रहेगी। लड़ने से प्रेम नहीं मरता ही प्राचीन है जितनी परंपरा। है। लड़ना प्रेम का ही अनिवार्य हिस्सा है। इस पृथ्वी पर सब कुछ इतनी बार हो चुका है कि नया हो कैसे जैनों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी हिंदुओं की। जैनों सकेगा? जिसको तुम नया कहते हो, वह भी बड़ा पुराना है; के पहले तीर्थंकर ऋषभ का नाम वेदों में उपलब्ध है-बड़े जिसे पुराना कहते हो, वह तो है ही। जब से परंपरावादी रहा है, सम्मान से उपलब्ध है। उस जमाने के लोग बड़े हिम्मतवर रहे तभी से क्रांतिवादी भी रहा है। जब से रूढ़िवादी रहा है, तभी से होंगे। अपने विरोधी को भी सम्मान से याद किया है। रूढ़ि को तोड़नेवाला भी रहा है। जब प्रतिमाएं बनानेवाले लोग | जिस दिन दुनिया समझदार होती है, उस दिन ऐसा ही होगा। पैदा हुए, तभी से प्रतिमाओं को तोड़नेवाले लोग भी पैदा हो तुम अपने विरोधी को भी सम्मान से याद करोगे, क्योंकि विरोधी गये। वे साथ-साथ हैं। वे अलग-अलग हो भी न सकेंगे। वे के बिना तुम भी नहीं हो सकते हो। विरोधी तुम्हें परिभाषित दिन और रात की तरह साथ-साथ हैं। | करता है। उसकी मौजूदगी तुम्हें त्वरा देती है, तीव्रता देती है, क्रांति और परंपरा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न परंपरा जी गति देती है। उसका विरोध तुम्हें चुनौती देता है। उसके विरोध सकती है बिना क्रांति के, न क्रांति जी सकती है बिना परंपरा के। के ही आधार पर तुम अपने को निखारते हो, सम्हालते हो, जिस दिन परंपरा मर जायेगी, उसी दिन क्रांति भी मर जायेगी। मजबूत करते हो। इसे थोड़ा समझना; क्योंकि साधारणतः हम जीवन में जहां भी अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है : जिस राष्ट्र विरोध देखते हैं—सोचते हैं, दोनों दुश्मन हैं। ऐसा देखना अधूरा को शक्तिशाली रहना हो, उसे शक्तिशाली दुश्मन खोज लेने है। जहां-जहां विरोध है, वहां गौर से खोजोगे तो गहराई में | चाहिए। अगर दुश्मन कमजोर होगा, तुम कमजोर हो जाओगे। पाओगे, दोनों परिपूरक हैं। विरोध भी एक भांति कि मैत्री है और जिससे लड़ोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर दुश्मन शक्तिशाली शत्रुता भी एक ढंग का प्रेम है। पुरुष हैं, स्त्रियां हैं उनमें प्रेम भी होगा तो उससे लड़ने में तुम शक्तिशाली होने लगोगे। मित्र तो है, विरोध भी है। विरोध के कारण ही प्रेम है। क्योंकि विरोध से कैसे भी चन लेना, लेकिन शत्र जरा सोच-समझकर चनना। 299 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 जिन सूत्र भाग: 1 क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक है । वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता है । वह तुम्हें चुनौती देता है । वह तुम्हें बुलावा देता है, प्रतिस्पर्धा का अवसर देता है। अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध का भाव पैदा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान याद किया है। ऋषभ कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए जैनों के पहले तीर्थंकर हैं। तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती पहुंचाए गए। सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा। निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है। इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी प्रगाढ़ है । और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है ! राहत का कोई उपाय नहीं । महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं है । वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी बीमारी है; अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ। तो महावीर उस मूर्तिभंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा । इसलिए स्वभावतः उस परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित किया । वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन-धर्म का अध्ययन करने पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का । तेईस तो करीब-करीब पुराण- कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी हिंदुओं की परंपरा | जैन वेद विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं | मानते - मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब तो वे भी परंपरावादी हैं। लेकिन जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं ! तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही उठना है । तुम्हें कोई ले जा न सकेगा ! महावीर यह भी नहीं कहते कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा — अपने ही पैरों से । महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ । वे कहते हैं, आदेश में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और जाओ ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं । इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते आदेश नहीं । उपदेश का मतलब है : मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी । न मानो तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। | लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है। तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है Boss गए, इतिहास न रहे। ऐसा कभी-कभी होता है, जब बहुत महावीर को पूजोगे तो मोक्ष मिल जायेगा। स्वयं को जानोगे तो प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होता है तो वह चाहे बीच में पैदा हो, मोक्ष मिलेगा, महावीर की पूजा से नहीं। स्वयं को जगाओगे तो चाहे पहले हो, चाहे अंत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–सभी मोक्ष मिलेगा, महावीर की अनुकंपा से नहीं। कोई गुरुप्रसाद की चीजें उसके आसपास वर्तुलाकार चक्कर काटने लगती हैं। जगह जैनों के पास नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सत्य अगर आज तम जिस जैन-धर्म को जानते हो, पक्का नहीं है कि किसी के प्रसाद से मिल जाये तो सस्ता हो गया। फिर तो सत्य ऋषभ का वही रहा हो, पार्श्वनाथ का वही रहा हो, नेमीनाथ का भी वस्तु की तरह हो गया; किसी ने दे दिया; उधार हो गया। वही रहा हो, जरूरी नहीं है। आज तो तुम जिस जैन-धर्म को | अपने जीवन को गलाओ। अपने जीवन को गला-गलाकर ही जानते हो, उसकी सारी रूप-रेखा महावीर ने दी है। वह सत्य ढाला जायेगा। यह सत्य कहीं बाहर नहीं है कि कोई दे दे। रूप-रेखा इतनी गहन हो गई कि अब तुम उसी बात को ऋषभ में | इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि महावीर को जब स्वीकार भी पढ़ लोगे, क्योंकि महावीर को तुमने समझ लिया है। किया गया चौबीसवें तीर्थंकर की तरह, तो इसीलिए स्वीकार समझो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं महावीर के संबंध में, जरूरी | किया गया कि उनसे ज्यादा बगावती आदमी उस समय में कोई नहीं कि महावीर उससे राजी हों। लेकिन अगर तुमने मुझे ठीक | भी न था। और भी लोग थे। और भी दावेदार थे। क्योंकि क्रांति से समझा, तो फिर मैं तुम्हारा पीछा न छोड़ सकंगा; फिर तुम जब किसी की बपौती थोड़े ही है। जब महावीर जिंदा थे तो बड़े तूफान भी महावीर को पढ़ोगे, तुम मुझे ही पढ़ोगे। जो मैं कह रहा हूं, के दिन थे भारत में; बड़ी बौद्धिक जागृति का काल था; बड़े वह तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा। अर्थ तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये, शिखर पर लोग, आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। जैसे आज तो बाहर के शब्दों में वही अर्थ दिखाई पड़ने लगता है। अगर विज्ञान समझना हो तो कहीं पश्चिम में शरण लेनी पड़ेगी; महावीर इस क्रांतिकारी परंपरा में सबसे ज्यादा महिमावान, उस दिन अगर धर्म का कोई भी रूप समझना था, तो भारत में सबसे बड़े मेधावी व्यक्ति हुए। इसलिए उनके शब्द समझने शरण लेनी पड़ती। भारत के पास सभी धर्म की परंपराओं के बड़े जैसे हैं, विचार करने जैसे हैं, क्रांतिकारी तो अनूठे रहे होंगे; जाग्रत पुरुष थे। और उन सभी के शिष्यों की आकांक्षा थी कि वे क्योंकि जैनों के दो संप्रदाय हैं-दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर चौबीसवें तीर्थंकर की तरह घोषित हो जायें। प्रबुद्ध कात्यायन तो मानते हैं, महावीर का कोई भी वचन बचा नहीं, कोई शास्त्र था, मक्खली गोशाल था, संजय विलेट्ठीपुत्त था, और भी लोग बचा नहीं। यह भी क्रांति का हिस्सा है। वे कहते हैं, कोई शास्त्र थे। अजित केशकंबली था। ये सभी बड़े महिमाशाली पुरुष थे। महावीर का वचन नहीं। ये जो वचन हैं, यह श्वेतांबरों के संग्रह लेकिन इन सबके बीच से वह जो सर्वाधिक क्रांतिकारी था, से लिये गये हैं। दिगंबरों के पास कोई संग्रह नहीं है। यह बड़े महावीर, वह श्रमणों की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर बना। बद्ध आश्चर्य की बात है कि दिगंबरों ने बचाया क्यों नहीं! यह भी | भी थे। उसी गहरी क्रांति का हिस्सा है। क्योंकि अगर बचाओ शब्दों | बुद्ध की तो अलग ही परंपरा बन गई; अलग ही धर्म का जन्म को, तो आज नहीं कल वे शास्त्र बन जाएंगे। बचाओ तो शास्त्र | हुआ। लेकिन यह सोचने जैसा है कि बुद्ध की मौजूदगी में भी आज नहीं कल वेद बन जाएंगे। इसलिए दिगंबरों ने तो महावीर | क्रांतिकारियों की धारा ने महावीर को चुना था। महावीर की के वचन बचाए ही नहीं। यह शास्त्र के प्रति बगावत की बड़ी क्रांति बुद्ध से ज्यादा गहरी है। बहुत जगह बुद्ध थोड़ा समझौता अनूठी कहानी है। मानते हैं महवीर को, लेकिन कुछ शास्त्र नहीं करते मालूम पड़ते हैं; ज्यादा व्यवहारिक हैं। महावीर बिलकुल बचाया है। व्यक्तिगत, गुरु से शिष्य को कहकर जो बातें आयी अव्यवहारिक हैं। क्रांतिकारी सदा अव्यवहारिक रहा है। उसके हैं, बस वही; उनको लिखा नहीं है। | पैर जमीन पर नहीं होते, आकाश में होते हैं। वह आकाश में और इसलिए कोई भी शास्त्र महावीर के संबंध में दिगंबरों के | उड़ता है। हिसाब से प्रामाणिक नहीं है। न शास्त्र बचाया कि कहीं उसके कुछ उदाहरण के लिए समझना जरूरी है। बुद्ध के पास स्त्रियां साथ परिग्रह न हो जाए, न इस तरह के कोई आश्वासन दिये कि आयीं, दीक्षा के लिए, तो बुद्ध ने इनकार कर दिया। यह 301 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 समझौता था। यह थोड़ा भय था। यह इस बात का भय था कि लोकतांत्रिक हिसाब है। लेकिन महावीर का प्रभाव इतना ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ संन्यासी महिमाशाली हुआ कि जिनके वस्त्र थे उनकी प्रतिमाओं से भी हों और साथ-साथ रहें। बुद्ध को भय लगा, इससे तो कहीं ऐसा वस्त्र उतर गए। क्योंकि फिर ऐसा लगने लगा, अगर महावीर न हो जाये कि धर्म नष्ट हो जाये! कहीं स्त्री-पुरुषों का साथ नग्न हैं और पार्श्वनाथ वस्त्र पहने हुए हैं तो पार्श्वनाथ ओछे रहना कामवासना के ज्वार के पैदा होने का कारण न बन जाये! मालूम पड़ेंगे, छोटे मालूम पड़ेंगेः इतना भी त्याग न कर पाये! कहीं स्त्रियां पुरुषों को भ्रष्ट न कर दें। तो वह जो स्त्रियों के प्रति | नग्नता कसौटी हो गई। पुरुषों का पुराना भय है, कहीं न कहीं बुद्ध के मन में उसकी छाया ऐसा सदा हुआ है। जो सर्वाधिक महिमाशाली है वह कसौटी थी। उन्होंने इनकार किया। वे वर्षों तक इनकार करते रहे कि स्त्री बन जाता है। फिर उसके पीछे इतिहास भी बदल जाता है। को मैं संन्यास न दंगा: क्योंकि स्त्री को संन्यास देने से खतरा है। अतीत भी बदल जाता है; क्योंकि अतीत के संबंध में हमारे महावीर के सामने भी सवाल उठा। वे तत्क्षण संन्यास दे दृष्टिकोण बदल जाते हैं। नग्न खड़े हो जाना बड़ा क्रांतिकारी | दिये। उन्होंने एक बार भी यह सवाल न उठाया कि स्त्री को मामला था, क्योंकि नग्नता सिर्फ नग्नता नहीं है। इसका तुम संन्यास देने से कोई खतरा तो न होगा! क्रांतिकारी खतरे को अर्थ समझो।। मानता ही नहीं, बल्कि जहां खतरा हो वहां जानकर जाता है। नग्न होने का अर्थ है: समाज का परिपूर्ण अस्वीकार; समाज उन्होंने यह खतरा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, जो होगा की धारणाओं की परिपूर्ण उपेक्षा। तुम अगर चौरस्ते पर नग्न ठीक है। फिर बुद्ध ने मजबूरी में, बहुत दवाब डाले जाने पर, खड़े हो जाओ तो उसका अर्थ यह होता है कि तुम दो कौड़ी वर्षों के बाद जब स्त्रियों को दीक्षा भी दी तो उन्होंने तत्क्षण कहा कीमत नहीं देते कि लोग क्या सोचते हैं, कि लोग अच्छा सोचते कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा न जीयेगा; यह मैंने हैं कि बुरा सोचते हैं, कि लोग तुम्हारे संबंध में क्या कहेंगे। हमारे अपने हाथ से ही बीज बो दिया अपने धर्म के नष्ट होने का। और पास शब्द है भाषा में किसी को गाली देनी हो तो हम कहते हैं बुद्ध का धर्म पांच सौ वर्ष के बीच नष्ट भी हो गया भारत से। "नंगा-लुच्चा'-वह महावीर से पैदा हुआ। नग्न वे थे और और कारण वही सिद्ध हुआ जो बुद्ध ने माना था; जो भय था वह बाल लोंचते थे, इसलिए लुच्चा। पहली दफा महावीर को ही सही साबित हुआ। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष पास-पास रहे तो लोगों ने नंगा-लुच्चा कहा; क्योंकि वे नग्न खड़े होते थे और विराग तो दूर हो गया, वैराग्य तो दूर हो गया, राग-रंग शुरू बाल भी काटते न थे। जब बाल बढ़ जाते थे तो हाथ से उनका हुआ। राग-रंग ने नये रास्ते खोज लिये, नयी तर्क की व्यवस्थाएं लोंच करते थे। खोज लीं। तंत्र का जन्म हुआ। बुद्ध-धर्म समाप्त हो गया। तुमने कभी सोचा न होगा कि आखिर नंगे को लच्चा क्यों लेकिन महावीर का धर्म अब भी जीता है, अब भी कहते हैं! लुच्चे का क्या संबंध है? फिर तो धीरे-धीरे लुच्चा जीता-जागता है। स्त्रियों को समाविष्ट कर लिया, धर्म नष्ट न शब्द अलग भी उपयोग होता है। अब तुम कहते हो, फला हुआ। बड़ा क्रांतिकारी भाव रहा होगा। महावीर नग्न खड़े हो आदमी बड़ा लुच्चा है। लेकिन तुम यह नहीं पूछते कि उसने गए। कोई जैनों में भी परंपरा न थी नग्न होने की। आज तो तुम लोंचा क्या है। महावीर के साथ पैदा हुआ शब्द है-गाली की जाकर देखोगे दिगंबर जैन मंदिरों में तो चौबीस ही जैनों की तरह पैदा हुआ, निश्चित ही समाज बहुत नाराज हुआ होगा, प्रतिमाएं नग्न हैं। वह महावीर ने परिभाषा दे दी। वे तेईस नग्न थे बहुत क्रुद्ध हुआ होगा। इस आदमी ने सारे हिसाब तोड़ दिये। नहीं, महावीर ही नग्न हुए थे। बाकी तेईस तो वस्त्रधारी ही थे। वस्त्र सिर्फ वस्त्र थोड़े ही हैं, समाज की सारी धारणा है। वस्त्रों इसलिए अगर श्वेतांबरों और दिगंबरों के विवाद में निर्णय करना में छिपे हुए समाज का सारा संस्कार, उपचार, शिष्टाचार, हो तो बहुमत श्वेतांबरों के पक्ष में होगा, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों सभ्यता, सब है। नग्न को हम असभ्य कहते हैं। आदिवासी हैं, में तेईस वस्त्रधारी थे, और एक ही निर्वस्त्र था। तो अगर निर्णय नग्न रहते हैं, उनको हम असभ्य कहते हैं, आदिम कहते हैं। ही करना हो तो तेईस की तरफ ध्यान करके करना चाहिए, सीधा | क्यों? क्यों असभ्य ? क्योंकि अभी उन्हें इतनी भी समझ नहीं 302 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pron म प्रेम से मुझे प्रेम है RA S कि अपने शरीर को ढांकें, छिपाएं; जानवरों की तरह हैं; पशुओं में सम्मिलित रखना मुश्किल हो गया। वह अलग ही टूट गई की तरह हैं। आदमी और जानवर में जो बड़े-बड़े फर्क हैं, उनमें | धारा। एक फर्क यह भी है कि आदमी कपड़े पहनता है। आदमी | यहां तुम सोचो, बुद्ध महावीर के समकालीन थे। बुद्ध को अकेला पशु है जो कपड़े पहनता है। बाकी सभी पशु नग्न हैं। श्रमणों की परंपरा ने अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार नहीं तो महावीर जब नग्न हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति नहीं, प्रकृति | किया; महावीर को किया। हिंदुओं ने बुद्ध को अपना दसवां को चुनता हूं; सभ्यता को नहीं, आदिम-स्वभाव को चुनता हूं। | अवतार स्वीकार किया; महावीर के नाम का उल्लेख भी नहीं और जो भी दांव पर लगती हो इज्जत, पद-प्रतिष्ठा, वह सब किया। क्या मामला है? बुद्ध अभी भी स्वीकार किये जा सकते दांव पर लगा देता हूं। आज से पच्चीस सौ साल पहले वैसी | थे। थोड़े बगावती थे, लेकिन डोर बिलकुल न तोड़ दी थी; फिर हिम्मत बड़ी कठिन थी; आज भी कठिन है। आज भी नग्न खड़े भी बंधे थे। महावीर ने बिलकुल ही डोर तोड़ दी, खूटी उखाड़ होने पर अड़चनें खड़ी हो जायेंगी, तत्क्षण पलिस ले जायेगी, ली; बाहर खड़े हो गए खुले आकाश में। अदालत में मुकदमा चलेगा। महावीर सभी तरह से मनुष्य को विशाल करना चाहते हैं। दिगंबर जैन मुनि को किसी गांव से गुजरना हो तो पुलिस को नजर को वुसअत नसीब होगी खबर करनी पड़ती है। और जब दिगंबर जैन मुनि, नग्न मुनि हदों से निकलेगा जब तखैय्युल गुजरता है, तो उसके शिष्यों को उसके चारों तरफ घेरा बनाकर हरम भी ऐ शेख! सतहे-बी, सुन चलना पड़ता है ताकि उसकी नग्नता कुछ तो ढंकी रहे। मकान है, ला-मकां नहीं है। दिगंबर जैन मुनि खोते चले गए हैं, एक दर्जन से ज्यादा नहीं हैं तभी विशालता आत्मा को उपलब्ध होती है। जब कल्पना के अब। क्योंकि बड़ा कठिन मामला है। वह नग्नता ही उपद्रव है। ऊपर से भी सारी जंजीरें हट जाती हैं। जब तुम्हारा सोच-विचार फिर सारे समाज की व्यवस्था को जड़-मूल से इनकार करना, तो मुक्त होता है तभी तुम्हारी आत्मा भी विशाल होती है। समाज भी प्रतिरोध करता है, बदला लेता है, नाराज हो जाता है। नजर को वुसअत नसीब होगी-तभी तुम्हारी दृष्टि विशाल प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख तो ऋग्वेद में है; लेकिन महावीर बनेगी, जब उसके ऊपर किसी तरह के बंधन न रह जाएं-न का उल्लेख किसी हिंदू-ग्रंथ में नहीं है। निश्चित ही महावीर शास्त्र के, न अतीत के, न सदगुरुओं के। अति क्रांतिकारी रहे। इतने क्रांतिकारी रहे कि उनका उल्लेख हरम भी ए शेख! सतहे-बी, सुन करने तक की हिम्मत हिंदू-शास्त्रों ने नहीं की है। इस आदमी का मकान है, ला-मकां नहीं है। नाम लेना भी खतरनाक मालम हआ है। ये मंदिर, ये मस्जिद, ये पूजागह भी, सन। ये भी संकीर्ण हैं। तो क्रांतिकारियों की जो परंपरा है, उस परंपरा ने अगर महावीर | मकान हैं, ला-मकां नहीं हैं। को चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया, स्वाभाविक था यह। | और हमें एक ऐसी जगह चाहिए जहां कोई सीमा न हो, यह भी समझ लेना जरूरी है कि महावीर के पहले तक | ला-मकां; जहां कोई सीमा न रोकती हो। नजर को वुसअत जैन-धर्म कोई अलग धर्म न था। वह चिंतकों की एक धारा थी, नसीब होगी और तब तेरी दृष्टि विशाल होगी। लेकिन कोई अलग धर्म न था। महावीर के साथ ही चिंतकों की तो महावीर ने अत्यंत विशाल दृष्टि दी है। लेकिन जब अत्यंत धारा सघन हुई; उसने रूप लिया, संगठन बनी, संघ बनी और विशाल दृष्टि होगी, तो सभी की दृष्टियों के विपरीत पड़ हिंदू परंपरा से अलग होकर चलने लगी। | जायेगी। संकीर्ण दृष्टि के साथी मिल जाएंगे: विशाल दष्टि के पार्श्वनाथ या ऋषभदेव एक अर्थ में हिंदू ही थे-वैसे ही जैसे साथी नहीं मिलते। अब अगर मैं कृष्ण की ही महिमा गाऊं तो जीसस यहूदी थे। महावीर भी जब जिंदा थे तो करीब-करीब हिंदू हिंदू मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है कि फिर महावीर थे। लेकिन महावीर ने जो प्रगाढ़ता से क्रांति को रूप दिया, वह की बात मत उठाना। अगर मैं महावीर के ही गीत गुनगुनाऊं, तो इतना प्रबल हो गया, इतना साफ हो गया कि उसे फिर हिंदू-धारा | जैन मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है, अब कृष्ण को 303 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALL जिन सत्र भागः 1 Mir बीच में मत लाना। कौन राजी होगा इस आदमी से? क्योंकि तुम चाहते हो, कुछ अगर तुम संकीर्ण हो तो तुम्हें किसी न किसी का साथ मिल | बंधी हुई लकीर मिल जाये। लेकिन महावीर कहते हैं, सभी बंधी जायेगा, क्योंकि संकीर्ण लोग चारों तरफ मौजूद हैं। मुझसे जैन लकीरें, सभी संकीर्णताएं उस परम सत्य को प्रगट नहीं कर भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने कृष्ण की बात की; मुझसे हिंदू | | पातीं। एक अर्थ में वह है और एक अर्थ में नहीं है। भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने महावीर की बात की मुझसे जैसे कोई तुमसे पूछे, शून्य है? क्या कहोगे? एक अर्थ में है; बौद्ध नाराज हो जाता है कि क्यों मैंने महावीर की चर्चा की; अगर कहो कि नहीं है तो पूरा गणित गिर जायेगा। एक अर्थ में मुझसे जैन नाराज हो जाता है कि बुद्ध की बात क्यों उठाई! है। और एक अर्थ में नहीं है, क्योंकि शून्य का मतलब ही होता है मुझसे तो साथ-संग वही दे सकता है जिसकी नजर संकीर्ण न | कि जो नहीं है। और अगर दोनों बातें एक साथ सच हैं तो फिर हो। और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि मैं परंपरा के भी पक्ष तीसरी बात भी ठीक है कि दोनों है। लेकिन दोनों बातें एक साथ में हूं और क्रांति के भी पक्ष में हूं। तब और अड़चन हो जाती है। सच कैसे हो सकती हैं? कोई चीज या तो होती है या नहीं होती। तब परंपरावादी मुझसे नाराज हो जाता है कि क्रांति की तुम बात | तो महावीर कहते हैं, दोनों असत्य भी हैं। ऐसा वे बढ़ते चले करते हो; और क्रांतिवादी नाराज हो जायेगा कि तुम परंपरा की जाते हैं। और प्रत्येक वक्तव्य के साथ वे स्यात लगाते हैं, बात करते हो। लेकिन मैं असल में चाहता हूं कि तुम्हारी नजर परहैप्स। यह बड़ी अनूठी बात है। वे कहते हैं, स्यात।। पर कोई भी सीमा न रह जाये; तुम्हारी सब सीमाएं टूट जाएं; तुम | तुम सुनने आते हो कोई मत। तुम अनिश्चित हो। तुम्हें पता विशाल हो जाओ; तुम खुले आकाश के नीचे खड़े हो जाओ; नहीं, क्या है, क्या नहीं है। तुम चाहते हो, कोई आदमी जो कोई घेरा न रहे! बड़े से बड़ा घेरा भी आखिर घेरा है। और टेबिल ठोककर कह दे कि हां, ईश्वर है। और इतने जोर से कहे आत्मा का तभी जन्म होता है जब तुम्हारी दृष्टि सभी दृष्टियों से कि तुम घबड़ा जाओ और मान लो। लेकिन महावीर कहते हैं, मुक्त हो जाती है। उस अवस्था को महावीर ने सम्यक दृष्टि कहा | स्यात; वे तुम्हें सांत्वना नहीं देते। वे कहते हैं, हो भी सकता है, है-जब कोई दृष्टि नहीं पकड़ती। न भी हो। इसमें कोई झिझक नहीं है। इसलिए महावीर ने अपने विचार-दर्शन को अनेकांत कहा है। अनेकों को ऐसा लगेगा, शायद महावीर को पता नहीं है। अनेकांत का अर्थ होता है। जिसने कोई एकांतिक दृष्टि नहीं कहते हैं 'शायद'? लेकिन महावीर को पता है, इसलिए कहते पकड़ी। महावीर ने जिस दर्शन को जन्म दिया, उसका नाम हैं स्यात। क्योंकि जो पता है वह इतना बड़ा है कि उसके संबंध में स्यातवाद है। तुम महावीर से कुछ पूछो तो वे सात भंगियों में कोई भी वक्तव्य एकांगी हो जाता है। उसके संबंध में सभी उत्तर देते हैं। तुम उनसे पूछो, ईश्वर है? तो वे कहते हैं, है; और वक्तव्य एक साथ ही सार्थक हो सकते हैं। तब एक वक्तव्य तत्क्षण कहते हैं, नहीं है। और वे कहते हैं, दोनों है, और कहते हैं | दूसरे वक्तव्य को काटता जाता है। तुम्हारे पास कुछ सिद्धांत दोनों नहीं है। और ऐसा उत्तर देते चले जाते हैं। सात दृष्टियां हो नहीं बचता, आखिर में तुम ही बचते हो। तुम्हारी बुद्धि के पास सकती हैं ईश्वर के बाबत, वे सातों दृष्टियों का एक साथ उपयोग कोई दृष्टिकोण नहीं बचता, केवल देखने की क्षमता बचती है। करते हैं। वे तुम्हें कोई जगह नहीं देना चाहते। तुमने पूछा, ईश्वर __इससे बड़ी क्रांति कभी घटी नहीं। इसलिए क्रांतिकारियों ने है? महावीर कहते हैं, है। इसके पहले कि तुम उठो और सोचो अगर महावीर को अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया तो | कि बस फैसला हो गया, वे कहते हैं रुको, नहीं है। तुम सोचोगे, कुछ आश्चर्य नहीं है। तुम्हें अड़चन होती है सोचने में कि क्रांति, चलो यह भी ठीक है-नहीं है तो भी बात साफ हो गई। उठने | मूर्ति-भंजन और उसमें भी फिर चौबीसवें तीर्थंकर! क्योंकि तुमने लगे, वे कहते हैं, बैठो, दोनों है, है भी और नहीं भी। अब तुम सोचा है और समझा है अब तक कि क्रांति कोई नई चीज है। जरा अड़चन में पड़े। लेकिन वे अभी भी नहीं रुकते. वे बढ़ते ही | क्रांति और परंपरा ऐसे हैं, जैसे तुम्हारे दो पैर। सभी क्रांतियां चले जाते हैं। कहते हैं, दोनों है। चौथा उनका उत्तर है, दोनों नहीं। अंततः परंपरा बन जाती हैं और सभी परंपराएं प्रारंभ में क्रांतियां है। और ऐसा सात भंगियों में सप्त-भंग! थीं। क्रांति परंपरा का पहला कदम है और परंपरा क्रांति की Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mithuniti प्रेम से मुझे प्रेम है। अंतिम दशा है। है। इसलिए क्रांति को फिर-फिर करते रहना पड़ता है और धर्म कृष्णमूर्ति कुछ कहते हैं, वचन क्रांतिकारी हैं—परंपरा बनने को पुनः पुनः जन्म देना पड़ता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति धर्म को लगे। कृष्णमूर्तिवादी आदमी पैदा हो गया है। कृष्णमूर्ति कहते जन्म देते वक्त यह न सोचे कि उसका धर्म अपवाद होगा। हैं, कोई गुरु नहीं। उनका माननेवाला भी कहता है, कोई गुरु असंभव है। अपवाद कोई भी नहीं हो सकता। जो पैदा हो रहा नहीं। लेकिन मेरे पास उनके माननेवाले आ जाते हैं। वे कहते है, वह मरेगा। फिर नये धर्मों की जरूरत रहेगी। हैं, कोई गुरु नहीं। मैंने कहा, तुमने यह सीखा कहां? वे कहते अब यहां भी थोड़ा सोचने जैसा है। जब धर्म क्रांतिकारी होता हैं, उनके चरणों में बैठकर सीखा है। तो वे तुम्हारे गुरु हो गए। है तब अलग तरह के लोगों को आकर्षित करता तुम यह स्वयं के बोध से दोहरा रहे हो कि कोई गुरु नहीं? यह है—क्रांतिकारियों को, बगावतियों को, विद्रोहियों को। फिर भी तुमने सीख लिया है। और जहां सीखना हो गया, वहां गुरु | धीरे-धीरे जैसे-जैसे धर्म स्थापित होने लगता है, ऐस्टेब्लिश होने आ गया। कृष्णमूर्तिवादी भी अपने पक्ष की तर्कणा करता है, लगता है, फिर वह क्रांतिकारियों को आकर्षित करना तो दूर, विचारणा करता है, सिद्ध करने के लिए प्रमाण देता है, अगर वे पैदा हो जायें तो उन्हें निकाल बाहर करता है, क्योंकि वे वाद-विवाद करता है। बचना मुश्किल है। खतरा करने लगते हैं। क्रांति ऐसे ही है जैसे जन्म-और जब जन्म हो गया तो मौत | अब यह एक बड़ा विरोधाभास है। अगर जैन-धर्म में फिर भी होगी। अब तुम लाख उपाय करो बचने के; अगर बचना था महावीर पैदा हो जायें तो जैनी उन्हें निकाल बाहर कर देंगे, तो जन्मना ही नहीं था। वहीं भूल हो गई। अब कुछ किया नहीं बर्दाश्त न करेंगे। अगर जीसस फिर पैदा हो जायें ईसाई घर में तो जा सकता। मरना तो पड़ेगा ही। अब की बार फिर सूली लगेगी-अब की बार ईसाई लगाएंगे। आगे खयाल रखना, जन्मना मत। इसलिए जिसको मौत से | पिछली बार यहूदियों ने लगाई थी, क्योंकि उन्होंने यहूदी-घर में बचना हो उसे जन्म से बचना चाहिए। पैदा होने की गलती की थी। किसी और ने नहीं लगाई, यहूदियों कहते हैं. डायोजनीज को किसी ने पछा कि दनिया में सबसे ने लगाई थी। बेहतर बात कौन-सी है। उसने कहा, बेहतर बात तो है पैदा न और यहूदी बड़े क्रांतिकारी थे अपने प्रथम चरण में। मूसा बड़े होना। उस आदमी ने कहा, खैर अब यह तो हो ही नहीं सकता, क्रांतिकारी हैं। यहूदियों की मुक्ति, इजिप्त से उनका छुटकारा, हम हो ही गए पैदा-नंबर दो क्या? उसने कहा, नंबर नए जीवन और जगत की खोज, नए समाज की पूरी की पूरी दो-जितनी जल्दी मर सको मर जाना। पैदा न होते, कोई झंझट अंतरचिंतना और उसकी नींव मूसा ने भरी। न होती; मर गए, फिर झंझट मिट गई। लेकिन उसी घर में, उसी कल में, उसी परंपरा में आता है क्रांति जन्म है। मगर जब क्रांति हो गई तो मौत भी होगी। जीसस, और जीसस वही करना चाहता है जो मूसा ने किया था; क्रांति परंपरा बनेगी। यही तो तुम देख रहे हो। ये जो सारे धर्म लेकिन मूसा के माननेवाले बरदाश्त न करेंगे, क्योंकि यह फिर तुम्हें पृथ्वी पर दिखाई पड़ते हैं, क्या तुम सोचते हो, ये पहले ही उखाड़ डालेगा। क्षण से परंपरा थे? पहले क्षण में तो ये क्रांति की तरह उठे थे। कहीं भी तुम पैदा हो जाओ, अगर तुमने नये धर्म की चिंतना फिर सम्हल गए, संगठित हो गए, व्यवस्थित हो गए; | की और धर्म सदा ही नया है, क्रांति उसकी शुरुआत है तो अराजकता खो गई, ज्योति खो गई। फिर सब बात बंद हो जाती तुम निकाल बाहर किये जाओगे। हां, तुम्हारे आसपास एक नया है। फिर धीरे-धीरे सब समाप्त हो जाता है। धर्म निर्मित हो जायेगा। जल्दी ही तुम्हारे बच्चे वहां भी क्रांति न जैन-धर्म अब एक परंपरा है। बुद्ध-धर्म एक परंपरा है। चलने देंगे। वहां भी जब कोई क्रांतिकारी पैदा होगा, उसे निकाल सिक्ख-धर्म अब एक परंपरा है। नानक के साथ क्रांति थी, बड़ी बाहर किया जायेगा। यह क्रांतिकारी का भाग्य है कि सूली पर बगावत थी। फिर खो गई बात। फिर धीरे-धीरे राख जम गई। लटके। और यह सभी धर्मों की नियति है कि क्रांति की तरह पैदा सभी चीजों पर राख जम जायेगी, क्योंकि यह जीवन का नियम हों, परंपरा की तरह सड़ जाएं। 305 www.jainelibrary org Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रश्न: कल आपने समझाया कि महावीर ने बड़ी पकड़कर उतारता नहीं। ऊबड़-खाबड़ जंगल पहाड़ में उतरना कुशलता से, बड़ी अहिंसा के साथ ईश्वर, पूजा, प्रार्थना, प्रेम | मुश्किल होता है। वह घाट बना देता है। वह सब व्यवस्थित कर आदि शब्दों का इनकार किया। उसके पहले भी आपने बताया देता है। ठीक जगह-जहां से दूसरा किनारा करीब से करीब है, था कि उन्होंने शरण और भक्ति का भी इनकार किया। कृपया ऐसी जगह, जहां जलधार बहुत खतरनाक नहीं है; ऐसी जगह, समझाएं कि तब उनका स्वयं एक सदगुरु, तीर्थंकर बनना व जहां जलधार छिछली है, तुम चलकर भी पार हो सकोगे; ऐसी शिष्यों को दीक्षा व आशीर्वाद देना क्या उनके ही सिद्धांत के जगह, जहां कम से कम डूबने का भय है-वह घाट बना देता विपरीत नहीं है? है। वह घाट के ऊपर सारे नक्शे रख देता है कि बाएं जाओ कि दाएं जाओ, कि कितने कदम चलने पर पानी गहरा होगा और पहली बात–महावीर तीर्थंकर हैं, सदगुरु नहीं। सदगुरु कितने कदम चलने पर दूसरा किनारा करीब आ जायेगा। वह भक्तों का शब्द है। इसलिए महावीर के लिए सदगुरु शब्द का दूसरे किनारे का वर्णन कर देता है। वह सारी बात कर देता है, उपयोग मत करना। और तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ होता है। घाट निर्मित कर देता है, सारे उपकरण यात्रा के मौजूद कर देता सदगुरु का बड़ा अलग अर्थ होता है। | है-बस, वहीं छोड़ देता है। फिर तुम जाओ, यात्रा तुम्हीं को सदगुरु का अर्थ होता है जो तुम्हारा हाथ पकड़ ले; जैसे बाप करनी है। बेटे का हाथ पकड़ लेता है और ले चलता है। और बेटा अपनी तीर्थंकर सदगुरु नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा कोई व्यक्तिगत सारी श्रद्धा बाप को दे देता है; वह जानता है कि हम ठीक जा रहे संबंध नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा बड़ा अव्यक्तिगत संबंध है। हैं—चाहे बाप खतरे में भी जा रहा हो, भयंकर जंगल से गुजर महावीर के पास तुम जाओ तो तुम्हारा जो प्रेम महावीर के प्रति है रहा हो। बाप डरता हो तो डरता रहे, बेटा मस्ती से चलता है। वह एकतरफा है। तुम्हारा होगा। महावीर तो कहते हैं, उसे भी बाप के हाथ में हाथ है, अब और क्या चाहिए! बेटा आनंदित छोड़ो, क्योंकि वह भी बंधन बनेगा। महावीर का तो बिलकुल होकर देखता है जंगल। वह हजार प्रश्न उठाता है। बाप कहता नहीं है। तुम भला अपनी कल्पना से सोचते होओ कि हम दीवाने है, चुप रहो! बाप घबड़ा रहा है। बाप अकेला है। बेटे को क्या हैं महावीर के, लेकिन महावीर तुम्हारे दीवाने नहीं हैं। तुम चले फिक्र है। जब बाप साथ है तो सब बात हो गई। जाओगे तो वे बैठकर रोएंगे नहीं कि कहां खो गया। सदगुरु का अर्थ होता है: समर्पण किसी के प्रति; उसके हाथ भक्त और सदगुरु की बात अलग है। जीसस ने कहा है: में हाथ दे देना, बस। फिर भक्त कहता है, अब हम छोटे बच्चे सदगुरु ऐसा है...वह धारणा है पैगंबर की, सदगरु की, कि जैसे की तरह हो गए; अब तुम्हें जहां ले चलना हो ले चलो; हम गडरिये की कोई भेड़ भटक जाये। सांझ हो गई, सारी भेड़ें आ शिष्य हो गए। | गईं, लेकिन एक भेड़ जंगल में भटक गई, तो सारी भेड़ों को 'तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ है। तीर्थकर तुम्हारे हाथ को खतरे में छोड़कर वह उस एक भेड़ की तलाश में जाता है। वह अपने हाथ में नहीं लेता। तीर्थंकर तुम्हें सहारा नहीं देता। जंगल में उतरता है फिर अंधेरी रात में, चिल्लाता है, पुकारता है। तीर्थंकर शब्द का अर्थ होता है: तीर्थ बनानेवाला, घाट जब भेड़ को खोज लेता है तो उसे कंधे पर रखकर लौटता है। बनानेवाला। नदी के किनारे घाट बना देता है, फिर जिसकी मौज | भटकी भेड़ को कंधे पर रखकर लौटता है। और भटकी भेड़ के हो उस घाट से उतर जाये। लेकिन वह तुम्हें इस नाव में बिठाकर लिए जो भेड़ें साथ थीं, उनको खतरे में छोड़ जाता है। इस बीच ले नहीं जाता। वह माझी नहीं है। वह तुम्हें नाव में बिठाकर उस | जंगली जानवर हमला भी कर सकते हैं! पार नहीं ले जाता, न वह तुम्हारा हाथ पकड़कर नदी में तैराता है। यह ईसाइयों की मसीहा की धारणा है, सदगुरु की। उसका वह सिर्फ घाट बना देता है। संबंध वैयक्तिक है। वह तुम्हारी तरफ व्यक्तिगत ढंग से तीर्थ का अर्थ होता है: घाट। तीर्थंकर का अर्थ होता है | सोचता-विचारता है। तीर्थंकर निर्वैयक्तिक है। वह सिर्फ जिन्होंने घाट बनाये। तो सुगम कर देता है उतरना, लेकिन हाथ सिद्धांत बता देता है। वह कहता है, दो और दो चार होते हैं, तुम 306 ain Equcation International Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है जोड़ लो। गणित बता दिया, नियम बता दिया, अब तुम कर लो शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है। तुम्हारा होश काम आएगा, मेरी हल। इससे ज्यादा उसका कोई संबंध नहीं है। | शुभाकांक्षा थोड़े ही! और वे कहते हैं, कहीं तुम्हारे मन में ऐसा अगर तुम चले जाओ, खो जाओ, तो तुम्हारे लिए बैठकर रोता | भरोसा आने लगे जैसा कि काहिलों और सुस्तों को आ जाता नहीं और न बीहड़ में तुम्हें चिल्लाता हुआ आता है। क्योंकि है—किसी के आशीर्वाद से सब हो जायेगा तो वे वैसे ही मर तीर्थंकरों की धारणा ऐसी है। वे कहते हैं, जिसे भटकना है वह रहे थे और मर जाते। वे वैसे ही डूब रहे थे, वे और हाथ-पैर भटकेगा। जब अपने ही भटकने से ऊब न जायेगा, तब तक | तड़फड़ाना छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, अब आशीर्वाद मिल गया, भटकेगा। और अगर कोई भटकना ही चाहता है तो उसे न अब सब ठीक है। भटकने देना उचित नहीं है, उसकी स्वतंत्रता में बाधा है। अब महावीर कहते हैं, ऐसी झूठी बातों के लिए मेरे पास मत इस बात का भी मूल्य है। आना। दीक्षा देते हैं। दीक्षा का अर्थ है : इनिसिएशन। दीक्षा का जीसस की बात भी समझ में आती है कि जो जाग गया है, वह अर्थ है : वे तुम्हें बता देते हैं, जो उन्हें हुआ है। वे कहते हैं, यह उसको सहारा दे जो सोया है। महावीर की बात भी समझ में रहा रास्ता। ज्योति फेंक देते हैं रास्ते पर। दीक्षा का तो अर्थ है, आती है। वे कहते हैं, सहारा देना एक बात है; लेकिन वह उदघाटन कर देते हैं एक द्वार का। जिस द्वार से वे प्रवेश किए हैं, सहारा न चाहता हो तो उस पर सहारा थोपना बिलकुल दूसरी वह द्वार तुम्हें भी इंगित कर देते हैं, कि वो रहा। आशीर्वाद का बात है। इसलिए वे उपदेश देते हैं, आदेश नहीं देते। वे मार्ग | अर्थ है कि वे तुम्हारे लिए प्रार्थना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है दिखा देते हैं, फिर यह भी नहीं कहते कि चलो, उठो। फिर तुम्हें कि वे मंगल कामना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है कि तुम्हारी झिझकारते नहीं हैं, तुम्हें सोए से उठाते नहीं, तुम्हारे सपने को यात्रा में वह भी सम्मिलित हैं। नहीं, तीर्थंकर आशीर्वाद नहीं तोड़ते नहीं। वे कहते हैं, अगर तुम्हारी यही मर्जी है तो तुम्हारी देते। ये अलग-अलग परंपराओं के शब्द हैं, इनका वैयक्तिक स्वतंत्रता है। वे तुम्हारी वैयक्तिक स्वतंत्रता को अलग-अलग अर्थ समझ लेना जरूरी है, अन्यथा बड़ी भ्रांति सम्मान देते हैं। अगर तुमने भटकना तय किया है तो यही तुम्हारी | पैदा होती है। नियति है, अभी और भटको; जब तुम्हें समझ में आ जाये तब पहली दफा मैं बंबई निमंत्रित हुआ, कई वर्ष पहले-एक लौट आना। इसका मतलब यह हुआ: वे तुम्हें भेड़-बकरी नहीं महावीर जयंती पर। मेरे पहले, एक जैन मुनि बोले तो मैं तो बहुत मानते, तुम्हें मनुष्य मानते हैं। तब तम्हें समझ में आयेगी बात कि | चकित हुआ, क्योंकि उन्होंने जो बातें कहीं, वे बिलकुल अ-जैन उनकी बात का भी बल है। वे कहते हैं, तुम कोई भेड़ थोड़े ही हो | थीं। उन्होंने कहा महावीर का जन्म हआ जगत के कल्याण के कि हम तुम्हें उठाकर कंधे पर ले आएं। तुम मनुष्य हो! तुम्हारे लिए। ऐसा जैनी मुनि कहते हैं। जैनी भी कहते हैं। उनको पता भीतर परमात्मा छिपा है। और अगर तुम्हारे परमात्मा ने यही नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। यह तो हिंदू-भाषा है। कृष्ण का अभी तय किया है कि अभी और थोड़ा झेलना है दुख, और थोड़ा जन्म हुआ जगत के कल्याण के लिए। यह समझ में आ जाता जीना है नर्क, तो कौन तुम्हें रोक सकता है! तुम्हारे ऊपर कोई भी है। यदा-यदा हि धर्मस्य...जब-जब होगी धर्म को अड़चन, नहीं है, तुम अंतिम हो। मुझे कुछ मिला है, वह मैं कह देता हूं तब तब आऊंगा...युगे-युगे। यह ठीक है। अवतार की भाषा उपयोग करना हो कर लेना, न करना हो न कर लेना। ऐसा तो बिलकुल ठीक है कि जब जरूरत होगी मेरी, मैं आऊंगा, तुम निर्वैयक्तिक संबंध है। फिक्र मत करना। जब अंधेरा होगा तब आऊंगा दीया लेकर। इसलिए पहली बात तीर्थंकर सदगरु नहीं है। दसरी जब जाल फैलेगा घणा का और हिंसा का. तब आऊंगा तम्हें बात-तीर्थकर दीक्षा तो देता है, आशीर्वाद नहीं देता। उठाने। और हमेशा-हमेशा, तुम भरोसा कर सकते हो। आशीर्वाद सदगुरु देता है। आशीर्वाद का अर्थ है: मेरी लेकिन तीर्थंकर ऐसी भाषा नहीं बोलते। तीर्थंकर की भाषा ही शुभाकांक्षा तुम्हारे साथ है। न, महावीर बिलकुल निर्वैयक्तिक अलग है। तीर्थंकर कहता है, कौन किसका कल्याण कर सकता हैं। वे कहते हैं, मेरी शुभाकांक्षा क्या करेगी? नर्क का रास्ता है? महावीर पैदा हुए अपने पिछले जन्मों के कर्म-फल के 307 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः कारण। पैदा होना मजबूरी है। महावीर की कोई स्वेच्छा नहीं है। तो मत करो। इतना ही कह दो कि हमें अभी कोई आकांक्षा नहीं पैदा हुए, क्योंकि पिछले जन्म में जो कर्म-जाल पैदा किया है, | पैदा हुई है। नहीं, लेकिन वह कहना जरा अभद्र मालूम पड़ता वह खींच लाया। और जो चेष्टा उन्होंने की, कोई है। तुम शिष्टाचार को मानते हो, सभ्यता को मानते हो। तुम जगत-कल्याण के लिए नहीं है। क्योंकि महावीर का मानना ही कहते हो, यह कहना जरा, साफ-साफ कहना ठीक नहीं। तुम है कि कोई दूसरा किसी दूसरे का कल्याण नहीं कर सकता। जरा चोरी-छिपे, लुके-लुके कहते हो। तुम ढंग से, सजाकर कल्याण तो सदा आत्म-कल्याण है। कहते हो, शृंगार से कहते हो। तुम कहते हो, जब प्रभु की कृपा तो जब मैं बोला और मैंने यह कहा तो मुनि तो बहुत नाराज होगी, जब आशीर्वाद होगा सदगुरु का...। हुए। बड़ी घबड़ाहट फैल गई। ‘गुणा' यहां मौजूद है, वह उस | मेरे पास लोग आते हैं। मैं उनसे पूछता हूं, कभी बहुत वर्ष से सभा में भी मौजूद थी। उसने बाद में मुझे बताया, कई साल नहीं दिखाई पड़े। वे कहते हैं, आपने बुलाया ही नहीं। कितनी बाद, कि उसने तो 'ईश्वर भाई' को कहा कि अब हम यहां से मजेदार बात कह रहे हैं वे! तो मैंने कहा, अब कैसे आ गये? निकल चलें, यहां कुछ झगड़ा-फसाद होगा। यहां मारपीट मैंने तो अभी भी नहीं बुलाया था। वे कहते हैं, जरा पूने में कुछ होकर रहेगी अब। क्योंकि सभी जैन नाराज हो गए, क्योंकि मैंने धंधे का काम आ गया था। धंधा का जब काम होता है तब वे कहा, महावीर किसी के कल्याण के लिए पैदा नहीं हुए। लेकिन अपने से आते हैं। अब रहा यह कि मैं पूना में हूं तो मेरे पास भी नाराजगी से क्या होता है? तुम्हारे शास्त्र, तम्हारी परी दुष्टि चलो हो आओ। लेकिन मेरे पास आने के लिए जिम्मेवारी मझ अलग है। और उस दृष्टि का अपना मूल्य है। इसलिए उसकी पर ही छोड़ते हैं कि आपने बुलाया ही नहीं। हालांकि वे सोचते शुद्धता को बचाया जाना चाहिए। ऐसे तो सब वर्णसंकर हो होंगे, बड़ी प्रेमपूर्ण बात कह रहे हैं, लेकिन बड़ी बेईमानी की बात जाती हैं बातें। कह रहे हो। आना हो तो तुम आ जाते हो; न आना हो तो कहते महावीर कहते हैं, कल्याण आत्म-कल्याण है। इसलिए हो, जब आप बुलायेंगे। कसूर जैसे मेरा है! तुम जब कहते हो, आशीर्वाद नहीं दे सकते। फिर उस दिन से जो जैन नाराज हुए तो जब प्रभु की कृपा होगी...इसका अर्थ हुआ कि प्रभु की कृपा नाराज ही हैं। क्योंकि उनको लगा कि मैंने उनके महावीर की कुछ नहीं हो रही है। तुम सोचते हो, ऐसा भी हो सकता है कि प्रभु की प्रतिष्ठा छीन ली है। मैं उनके महावीर को ठीक-ठीक प्रतिष्ठा कृपा न होती हो? क्या तुम सोचते हो, प्रभु कुछ अड़चन डाल दिया। मैंने वही कहा जो महावीर कहते। रहा है कि दूसरों पर कृपा बरसा रहा है, तुम पर नहीं कर रहा है ? लेकिन साधारण आदमी साधारण आदमी है। वह खुद नहीं | अगर कोई कृपा जैसी चीज है तो वह सभी पर बरस रही है। करना चाहता। वह चाहता है कि कोई के आशीर्वाद से हो जाये, लेकिन तुम जब लेना चाहोगे तभी ले सकोगे। मुफ्त मिल जाये। धन तो तुम खुद कमाते हो, धर्म तुम आशीर्वाद इसलिए महावीर कहते हैं, यह बात ही छोड़ दो आशीर्वाद से चाहते हो। तुमने बेईमानी परखी? मकान बनाना हो, तुम की। इशारा मैं कर देता हूं, चलना तुम्हें है। और वे कोई खुद बनाते हो; मोक्ष आशीर्वाद से हो जाये! तुम जो करना नहीं | व्यक्तिगत संबंध नहीं बांधते। उनका जो सबसे बड़ा शिष्य था, चाहते, जो तुम कहते हो मुफ्त मिले तो ले लेंगे, उसमें भी सोचने गौतम, वह महावीर के जीते-जी समाधि का अनुभव न कर का समय मांगोगे। अगर सच में ही कोई देने आ जाये कि यह सका, 'केवल ज्ञान' उसे उपलब्ध न हो सका। जिस दिन रहा मोक्ष, लेते हो? तुम कहोगे, अभी इत्ती जल्दी तो मत करो, महावीर की मृत्यु हुई, उस दिन वह गांव के बाहर उपदेश देने थोड़ा सोचने दो, घर जाने दो, पत्नी भी है, बच्चे भी हैं, थोड़ा पूछ गया था, दूसरे गांव। जब वह लौटता था, रास्ते में उसे खबर तो लूं! जो तुम टालना चाहते हो, तुम बड़ी कुशलता से टालते मिली की महावीर ने शरीर छोड़ दिया, उनका महापरिनिर्वाण हो हो। तुम कहते हो, जब होगी प्रभु की कृपा! मगर और चीजों के गया। तो वह रोने लगा। उसने राहगीरों से पूछा कि यह तो हद्द लिए तुम नहीं कहते। और के लिए तुम खूब आपा-धापी करते हो गई, जिनके साथ मैं जीवनभर रहा, आखिरी क्षण में किस हो। तो साफ-साफ कहो न कि अभी चाहिए नहीं। यह बेईमानी दुर्भाग्य के कारण मैं दूसरे गांव चला गया। आखिरी क्षण तो उन्हें 3081 . Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | देख लेता ! और अब मेरा क्या होगा? उनके रहते-रहते मैं मुक्त न हो सका, अब मेरा क्या होगा ? अब तो गहन अंधकार है और दीया भी बुझ गया। क्या उन्होंने कुछ मेरे लिए संदेश छोड़ा है? तो राहगीरों ने कहा, हां। आखिरी समय में उन्होंने आंख खोली; उन्होंने कहा, गौतम यहां नहीं है; लौटे तो उसे इतनी बात कह | देना कि तू पूरी नदी तो पार कर गया, अब किनारे को पकड़कर क्यों रुक गया है ? कहते हैं, उसी क्षण गौतम ज्ञान को उपलब्ध हुआ। क्या कहा महावीर ने उसके लिए? क्या संदेश छोड़ा कि तू पूरी नदी तो पार कर गया- संसार छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, पत्नी छोड़ दी, घर-द्वार छोड़ दिया, सब छोड़ दिया, सब तरफ से राग हटा लिया - अब तूने राग मुझ पर जमा लिया ! किनारे को पकड़ लिया। अब तू कहता है, गुरु... । यह भी छोड़ दे, नहीं तो नदी तो पार कर आया, अब किनारे को पकड़कर अटका है, तो बाहर कैसे निकलेगा? अब यह भी छोड़। जब सब छोड़ा है तो सभी छोड़। अब इतना भी अपवाद मत रख। उसी क्षण गौतम को बोध आया कि अरे, मैं महावीर को पकड़ने के कारण ही रुक गया हूं! यह मोह छूटता नहीं, इसलिए रुक गया हूं । तो जैन भाषा अमोह की भाषा है। वहां आशीर्वाद नहीं है। डूब जाये कि सलामत रहे किश्ती मेरी न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ। - चाहे डूब जाये, चाहे बचे नाव; लेकिन महावीर कहते हैं, किसी और की तरफ हाथ बढ़ाना मत। न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ। किसी सदगुरु की तरफ हाथ मत बढ़ाना। आशीर्वाद मत मांगना। डूब जाए तो भी ठीक है, पार हो जाये तो भी ठीक है, लेकिन भीख मत मांगना । महावीर का पथ सम्राटों का पथ है, भिखारियों का नहीं। मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से । - स्वभाव मेरा तूफान का है। मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं। — और मैं प्रकृति की मुक्त निगाह, मुक्त दृष्टि हूं । तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से साहिल की तो बात ही नहीं करता, किनारे की तो बात ही नहीं करता। बात तो दूर, प्रेम से मुझे प्रेम है अपनी कल्पना को भी मैं किनारे की बात से भ्रष्ट नहीं करता। सहारे की बात ही गलत है। बे-सहारा! जब तक तुम इतने बे-सहारा न हो जाओ कि तुम्हें लगे अब अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा, और कोई पैर नहीं हैं; अब अपनी ही बुद्धि को जगाना होगा, और कोई सहारा नहीं है; और अपने ही प्राणों का उत्कर्ष करना होगा, कोई और आशीर्वाद, कोई और सांत्वना नहीं है... । तुमने कभी सोचा ? आस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि जब नाव डूब जाती है किसी की और आदमी सागर में तड़फड़ाता है तो जैसी उसकी दशा होती है, जब तक तुम्हारी न हो जाये तब तक तुम कुछ करोगे न । नाव डूब गई। सागर की उत्तंग तरंगें, किनारे का कोई पता नहीं - तब क्या दशा होती है? तब तुम सोचते हो कि आयेगा किसी का आशीर्वाद या उसको बचाना होगा बचायेगा ? नहीं, तब तुम प्राणपण से, अपनी समग्र ऊर्जा से बचने की चेष्टा में लग जाते हो; तुम सागर से लड़ने लगते हो। उस समय न तो विचार रह जाते हैं। कहां विचार की जगह है? सुविधा कहां है? फुर्सत किसे है उस समय विचार करने की? जीवन संकट में है । न विचार रह जाते हैं। कितनी बार ध्यान किया था और न लगा था; उस दिन लग जाता है। अब कोई विचार नहीं रह जाते । न कोई कामना उठती, न कोई वासना उठती, न धन, न स्त्री, न संसार, कुछ भी नहीं, सब खो जाता है। सिर्फ एक स्वयं को बचाने की — वह भी भाव की दशा होती है, विचार नहीं होता । और तुम जूझने लगते हो सागर से । महावीर कहते हैं, ऐसी ही तुम्हारी स्थिति होनी चाहिए। ऐसी ही स्थिति है, लेकिन तुमने कल्पना की नावें बना रखी हैं और तुमने कल्पना के सहारे ले रखे हैं। उन सहारों के कारण तुम चेष्टा नहीं कर पाते जितनी कि कर सकते थे। इसलिए वे कहते हैं, हटा लो सारी सांत्वनाएं। महावीर ने अपने साथ चलनेवालों के सब आश्रय छीन लिये। उनको बे-आसरा कर दिया, ताकि उनके भीतर जो सोए हुए प्राणों की ऊर्जा है वह इस चुनौती में उठ जाये, ज्योतिर्मय हो उठे। मुकाबिल में तेरे लाखों खुदा इसने बनाए हैं उन्हें पूजा है, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं। आदमी ने असली परमात्मा की जगह न मालूम कितने परमात्मा बनाए हैं। उन्हें पूजा, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं। 309 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 जिन सत्र भाग: 1 महावीर कहते हैं, असली परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। न तो बंदगी से कुछ होगा, न गीतों से कुछ होगा, न पूजा-अर्चा के थालों से कुछ होगा। तुम जीवन के तथ्य को समझो। इस सत्य को समझो कि भवसागर में पड़े हो और डूब रहे हो । स्थिति को ठीक से समझ लोगे तो तुम स्वयं को बचाने में लग जाओगे। और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई और बचा नहीं सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण - भावना से बचना, अशरण- भावना में ध्यान करना। किसी की शरण जाने की बात मत सोचना। समर्पण नहीं, संकल्प | तीसरा प्रश्न: आपने कहा कि लोक व्यवहार में आकर प्रज्ञापुरुषों के शब्द अपना अर्थ खो बैठते हैं। और आपने बताया कि महावीर ने 'अहिंसा', जीसस ने 'प्रेम' और सूफियों ने 'इश्क' शब्द अपनाए। भगवान! वर्तमान शताब्दि आप कौन-सा शब्द हमें देना पसंद करेंगे ? मैं तो प्रेम के प्रेम में हूं। उस शब्द से बहुमूल्य मुझे कोई और दूसरा शब्द मालूम नहीं होता । लाख विकृतियां हो गई हों, फिर भी उस शब्द में जादू है। अहिंसा मरा मरा शब्द लगता है। उससे औषधि की बास आती है। अहिंसा - अस्पताल में जैसी बास आती है, वैसी बास आती है। कुछ नहीं करना है, कुछ रोकना है, कुछ निषेध – प्रेम जैसे फूल नहीं खिलते । प्रेम शब्द हृदय में कुछ और ही गूंज लाता है, कोई कमल खिल जाते हैं, कोई द्वार खुलते हैं। अहिंसा से ऐसा पता चलता है, कुछ मजबूरी, कुछ कर्तव्य - विधायकता नहीं है, पाजिटीविटी नहीं है । 'नहीं' में होती भी नहीं । प्रेम में 'हां' है, स्वीकार है। प्रेम में एक अहोभाव है, गीत है, नृत्य है। तो लाखों विकृतियां हो गई हों प्रेम में, तो भी मैं प्रेम को चुनता हूं। क्योंकि प्रेम जिंदा है और उन विकृतियों को अलग करने की क्षमता है उसमें । अहिंसा शब्द में कोई प्राण नहीं हैं। तो भला उसमें महावीर ने जब प्रयोग किया तो कोई विकृतियां न रही हों, अब तो हजारों विकृतियां हो गई हैं। और तकलीफ यह है कि अहिंसा मुर्दा शब्द है। इसलिए उन विकृतियों को छिटकाकर फेंक नहीं सकता। प्रेम फेंक सकता है। प्रेम जीवंत है। ऐसा ही समझो कि एक आदमी मरा हुआ पड़ा है, साफ-सुथरे वस्त्रों में पड़ा है; बिलकुल धुले-धुलाए वस्त्र हैं, शुभ्र वस्त्र हैं; धूल का कण भी नहीं है। और एक जिंदा आदमी बैठा है; पसीने से तरबतर है; धूल भी चिपक गई है; दिनभर मेहनत की है; स्नान की जरूरत है। और तुम अगर मुझसे पूछो कि किसको चुनोगे, तो मैं कहूंगा, मैं जिंदा को चुनता हूं। पसीना है, नहाने से छूट जायेगा। धूल जम गई है वस्त्रों पर, साबुन उपलब्ध है। मगर आदमी जिंदा है ! यह मुर्दा आदमी, माना कि न इसमें पसीना निकलता है, न इस पर धूल जमी है, यह कांच के ताबूत में रखा रह सकता है, ऐसा ही साफ-सुथरा बना रहेगा - पर इसका करोगे क्या? इससे होगा क्या ? अहिंसा मुर्दा शब्द है। प्रेम जीवंत है। निश्चित ही प्रेम के साथ पसीना भी है। पसीने में कभी-कभी बदबू भी आती है। पसीने पर धूल भी जम जाती है। आदमी गंदा भी हो जाता है, लेकिन यह सब जिंदगी के लक्षण हैं। जहां गंदगी हो सकती है, वहां स्वच्छता लायी जा सकती है। ध्यान रखना, जहां गंदगी हो ही नहीं सकती, वहां स्वच्छता कैसे लाओगे? वहां तो मौत आ चुकी । तुम उस बच्चे को पसंद करोगे जो मुर्दे की तरह एक कोने में बैठा रहता है! मां-बाप पसंद करते हैं अकसर, क्योंकि उनके लिए कम उपद्रव का कारण होता है। गोबर - गणेश ! बैठे हैं। कभी-कभी पूजा करनी हो तो गणपति जी की पूजा कर लो, बाकी वे बैठे रहते हैं। मां-बाप को ठीक लगते हैं, लेकिन बाद में पछताएंगे। वे ऐसे ही बैठे रहेंगे। फिर एक उपद्रवी, नटखटी बच्चा है, दौड़ता है, हाथ-पैर भी तोड़ लाता है, खून भी निकल आता है, कपड़े भी गंदे कर आता है, कीचड़ में सना हुआ घर आ जाता है । मैं तो इसी को चुनूंगा। यह जिंदा तो है ! इससे कुछ होने की संभावना है। अहिंसा में कुछ न हो, इसकी चेष्टा है। प्रेम में कुछ हो, इसकी चेष्टा है। मैं जीवन के पक्ष में हूं, मौत चाहे कितनी ही साफ-सुथरी हो। और मौत बड़ी साफ-सुथरी चीज है। झंझटें तो जीवन में हैं, मौत में क्या झंझट है ? वह तो सब झंझटों का अंत है। तो भी मैं मौत को न चुनूंगा, मैं जीवन को ही चुनूंगा। दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का यह पैगामे बाहर आया तो दीवानों के नाम आया। - वे जो बहुत होशियार हैं, गणित से जीते हैं, समझदारी समझदारी ही जिनके जीवन में है और दीवानगी Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलकुल नहीं, जिन्होंने पागल होने की सारी क्षमता को नष्ट कर दिया है— उनके जीवन में कभी वसंत का पैगाम नहीं आता। दयारे - रंगो - निकहत में गुजर क्या होशमंदों का ! — इस रंग-रूप, फूलों से भरी दुनिया में समझदारों की कहां बाहर का कंकड़-पत्थर हो जाता है। जब भीतर के सौंदर्य में जीने जरूरत है ? लगे तो बाहर सौंदर्य दिखता ही नहीं। लेकिन अगर तुम बाहर के सौंदर्य को छोड़कर भागे और यही तुम्हारी जीवन की शैली हो यह पैगामे - बहार आया तो दीवानों के नाम आया। और जब भी वसंत की लहर आती है, संदेश आता है जीवन गई, निषेध, इनकार, नेति नेति, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे | का, तो दीवानों के नाम आता है। फांसी लगा लोगे अपने हाथ से गले में। और जिसको तुम छोड़कर भागे हो, उसकी बुरी तरह याद आएगी। आयेगी ही। अहिंसा तुम्हें होशियारी दे देगी, लेकिन दीवानगी कहां से लाओगे? अहिंसा तुम्हें गलत करने से बचा लेगी; लेकिन सही करने का रंग-रूप कहां से लाओगे ? अहिंसा तुम्हें गाली देने से रोक लेगी; लेकिन गीत कहां से जन्माओगे ? इसलिए जो छोड़कर भागते हैं— स्त्रियों के संबंध में चिंतन चलता रहता है, धन के संबंध में चिंतन चलता रहता है। छिड़कते हैं, झिटकते हैं उस चिंतन को, हटाते हैं। जब-जब स्त्री गाली देने से रुक जाना काफी है? तो जो आदमी गाली नहीं की याद आ जाती है, जोर-जोर से राम-राम-राम-राम जपने |देता, बस पर्याप्त है ? यही तो जैन मुनियों की दशा हो गई है। वे गाली नहीं देते; गीत उनसे पैदा नहीं होता। बैठे हैं, गोबर गणेश, उनकी पूजा कर लो! जैनी जाते हैं सेवा को । उनसे बुराई तो उन्होंने काट डाली लेकिन कहीं कुछ भूल हो गई, कहीं कुछ बड़ी बुनियादी चूक हो गई। और वह चूक यह है कि उन्होंने गलत को छोड़ने की आकांक्षा की, गलत से बचने की चेष्टा की; लेकिन सही को जन्माने के लिए उन्होंने कोई प्रयास न किया। उनका खयाल है कि गलत हट जाए तो सही अपने से आ जायेगा । मेरा खयाल है कि सही आ जाये तो गलत अपने से हट जायेगा। और मैं तुमसे | कहता हूं कि उनका खयाल गलत है। उनका खयाल ऐसे ही है जैसे कोई आदमी, अंधेरा भरा हो कमरे में, अंधेरे को धक्का दे | देकर निकालने लगे। नहीं, अंधेरे को कोई धक्के देकर नहीं निकाल सकता — थकेगा, मरेगा, जिंदगी खराब हो जायेगी । दीया जलाओ ! कुछ विधायक को जलाओ ! अंधेरा अपने से चला जाता है। तो मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोध छोड़ो। मैं कहता हूं, करुणा जन्माओ । मैं तुमसे नहीं कहता, संसार छोड़ो। मैं कहता हूं, | आत्मा को जगाओ। मैं तुमसे नहीं कहता, धन-दौलत छोड़ो। मैं कहता हूं, भीतर एक धन-दौलत है, उस खोजो । मेरा रुख विधायक है । और यह मेरा जानना है कि जिस दिन तुम्हें भीतर की धन-दौलत मिल जायेगी, तुम बाहर की धन-दौलत को प्रेम से मुझे प्रेम है पकड़ोगे ? न पकड़ोगे न छोड़ोगे, क्योंकि वह धन-दौलत ही न रही। छोड़ने लायक भी न रही, पकड़ने की तो बात दूर है। रखा ही क्या है वहां? जहां भीतर के हीरे दिखाई पड़ने लगें, वहां सब लगते हैं कि किसी तरह... । मगर तुम्हारे जपने से क्या होता है ? राम-राम-राम ऊपर रह जाता है, काम-काम-काम-काम भीतर चलता जाता है। तुम्हारे हर दो राम के बीच में से काम की खबर आने लगती है। भागो मत! घबड़ाओ मत। डरो मत! परमात्मा जीवन का निषेध नहीं है, जीवन का परिपूर्ण अनुभव है । और धर्म पलायन नहीं है, जीवन का परिपूर्ण भोग है। पर महावीर ने प्रेम के लिए अहिंसा शब्द चुना; वहां भूल हो गई। भूल हो जाने के लिए कारण थे। क्योंकि प्रेम शब्द... उपनिषद और वेद प्रेम की चर्चा कर रहे थे। और प्रेम का सब तरफ जाल था । और प्रेम के नाम पर सब तरफ भ्रष्टाचार था। 'महावीर को लगा, अब प्रेम का शब्द उपयोग करना खतरे से खाली नहीं है। उन्होंने इसी आशा में अहिंसा का उपयोग किया कि वे समझा लेंगे तुम्हें कि अहिंसा का अर्थ प्रेम ही है। लेकिन वे न समझा पाए । कसूर उनका नहीं है। कसूर उनका है जिन्होंने सुना। उन्होंने तत्क्षण अहिंसा में से प्रेम तो न निकाला, नकारात्मकता निकाल ली। तो महावीर का धर्म धीरे-धीरे ऐसा धर्म हो गया कि इसमें क्या-क्या नहीं करना है, वही महत्वपूर्ण हो गया। ज़ाहिद हद्दे - होशो-खरद में रहा 'असीर' नादां ने जिंदगी ही को जिंदां बना दिया। वह जो बुद्धि-बुद्धि से जी रहा है... 311 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः ज़ाहिद हद्दे-होशो-खिरद में रहा 'असीर' कुछ बंधा है प्रेम से, वहां हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि हम --जो सदा ही बुद्धि की सीमा में ही घिरा रहा, छोड़ने-त्यागने | एक प्रेम के सागर में जी रहे हैं। की सीमा में ही घिरा रहा... जब अणु की पहली दफा खोज हुई और अणु का विस्फोट नादां ने जिंदगी ही को जिंदा बना दिया। किया गया, तो रदरफोर्ड ने, जिसने पहली दफा अणु के संबंध में -उस ना-समझ ने अपने जीवन को ही एक कारागृह बना गहरी खोज की, उसको एक सवाल उठा कि अणु के जो परमाणु लिया। छोड़ो-छोड़ो, सिकुड़ते जाओ-धीरे-धीरे तुम पाओगे, | हैं—इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान-ये आपस में कैसे बंधे हैं? फांसी लग गई अपने ही हाथों। लेकिन, तुम समझ न पाओगे, इनको कौन-सी शक्ति बांधे हुए है ? ये बिखर क्यों नहीं जाते? क्योंकि जितनी तुम्हारी फांसी लगेगी उतने ही लोग तुम्हारे पैरों में तुमने कभी खयाल किया—एक पत्थर पड़ा है, सदियों से पड़ा फूल चढ़ायेंगे। वे कहेंगे, कैसे महात्यागी! तो तुम्हें फांसी में भी है, बिखरता क्यों नहीं? तुम इसे तोड़ दो हथौड़े से, बिखर गया, रस आने लगेगा। क्योंकि फांसी जितनी तुम कसते जाओगे, फिर तुम इसे जोड़ो, फिर रख दो टुकड़ों को पास-पास, मगर | उतना ही तुम्हें सम्मान मिलेगा। जितने ज्यादा उपवास करोगे, । अब न जुड़ेगा। बात क्या हो गई? इतने दिन तक कौन-सी चीज जितना अपने को तोड़ते जाओगे, उतना सम्मान मिलेगा। जितना इसे जोड़े थी? अगर वह चीज इतने दिन तक जोड़े थी, फिर अपने को मिटाओगे, अपना घात करोगे, उतना सम्मान | तुमने टुकड़े पास रख दिये, अब क्यों नहीं जोड़ती? कोई चीज मिलेगा। तो उस मुनि को ज्यादा सम्मान मिलता है जो ज्यादा तोड़ दी तुमने। पत्थर नहीं तोड़ा तुमने कोई और चीज जो सूक्ष्म त्याग करता है। उसको वे लोग कहते हैं, महामनि। लोग सिर | थी, तोड़ दी। पत्थर तो अब भी वही का वही है, उसका वजन भी रखते हैं उसके चरणों में। तो अहंकार मजा लेता है! वही है, टुकड़े भी उतने के उतने हैं लेकिन पहले जुड़े थे, अब तो जिन्होंने भी निषेध की यात्रा की, उन्होंने सिर्फ अहंकार को | टूट गए। अब तुम लाख उनको पास-पास बिठाओ, उनको भर लिया। उनके जीवन में आत्मा खुली नहीं, खिली नहीं। लाख समझाओ कि अब फिर से जुड़ जाओ, पूजा-प्रार्थना करो, तो मैं तो प्रेम को ही चुनता हूं। मैं प्रेम के प्रेम में हूं। मैं तो तुमसे यज्ञ-हवन करो, वह सुनेगा नहीं। कोई चीज तमने तोड़ दी. कोई कहूंगा, लाख खराबियां हो इस शब्द में-महावीर से कुछ सीख बहुत सूक्ष्म चीज तोड़ दी। लो। महावीर ने इस शब्द की खराबियों को देखकर अहिंसा रदरफोर्ड सोचने लगा, कौन-सी चीज जोड़े हुए है। बहुत-से चुना, लेकिन जो परिणाम हुए वे और भी बदतर हुए। बीमारी तो सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं। उनमें एक सिद्धांत प्रेम का भी बीमारी, औषधि भी बीमारी बन गई। है, यह आश्चर्य की बात है। वैज्ञानिक और प्रेम की बात करें! मैं तो तुमसे कहूंगा, प्रेम चुनो। और प्रेम इतना सबल है कि वह लेकिन आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं है। अगर जीवन अपनी भूलों को पार करने की क्षमता रखता है। वह जिंदा है, तो सब तरफ प्रेम से जुड़ा है, अगर वृक्ष फलों से प्रेम के कारण जुड़े गंदा भी हो जाये तो स्नान कर सकता है। अहिंसा लाश है, गंदी | हैं, अगर वृक्ष फूलों से प्रेम के कारण जुड़े हैं, अगर आदमी न होगी, लेकिन उसकी स्वच्छता का भी क्या मूल्य है? उसकी आदमी से प्रेम के कारण जुड़ा है तो फिर निश्चित ही जीवन की स्वच्छता में जीवन की सुवास नहीं है। उसकी स्वच्छता | इकाइयां भी, ईंटें भी प्रेम से ही जुड़ी होंगी। चाहे तुम उसे क्लिनिकल है। मैग्नेटिज्म कहो, चाहे तुम उसे इलेक्ट्रिसिटी कहो-यह नाम का मुझे तो प्रेम शब्द में रस है। क्योंकि मेरे देखे, यह सारा जगत | भेद है। लेकिन कोई चुंबकीय शक्ति सारे जीवन को जोड़े हुए प्रेम से आंदोलित है। यहां श्वास-श्वास प्रेम से चल रही है। है। उस चुंबकीय शक्ति को भक्तों ने भगवान कहा है, प्रेम कहा यहां फूल-फूल प्रेम से खिल रहे हैं। और अभी तो वैज्ञानिक भी है, परमात्मा कहा है। महावीर उसे सत्य कहते हैं। सोचने लगे हैं कि जब प्रेम से सारा जगत बंधा हुआ है-स्त्री लेकिन फिर महावीर का 'सत्य' शब्द बड़ा तटस्थ है। उससे पुरुषों से बंधी, पुरुष स्त्रियों से बंधे, मां-बाप बेटों-बच्चों से रसधार नहीं बहती। सत्य बड़ा रूखा-सूखा है, मरुस्थल जैसा बंधे, बेटे-बच्चे मां-बाप से बंधे, मित्र मित्रों से बंधे-जहां सब है। प्रेम मरूद्यान है। बड़ी रसधार बहती है। उपनिषद कहते हैं, 312 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है रसो वै सः। वह जो परमात्मा है, रस उसका स्वभाव है। | का रास्ता मधुशाला का है। वह कहता है, यह होश ही हमारी रस को मैं भी जीवन का सत्य मानता हूं। और तुम्हारे जीवन में पीड़ा है। रस तभी होता है जब प्रेम होता है। जहां-जहां प्रेम, वहां-वहां तुझ पे कुर्बा मेरे दिल की हर एक बेखबरी रस। जहां-जहां प्रेम खोया, वहां-वहां रस सूखा। रस में डूबो। आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। तन डूबे, मन डूबे, सब डूबे। रस में डूबो! और तब तुम्हारी | हे प्रभु! भक्त कहता है, तुझ पे कुर्बा मेरे दिल की हर एक दृष्टि में एक अलग ही दृश्य दिखाई पड़ना शुरू हो जायेगा। बेखबरी और तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, बेहोशी है। यह मेरे 'जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर दिल का पागलपन है, दीवानगी है। यह तुझ पर कुर्बान करता यह फन कम है कि सैय्याद ने पसंद किया! हूं। यह तुझ पर न्योछावर करता हूं। और तो मेरे पास कुछ भी 'जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर! जमील ने कहा | नहीं है। है, क्यों न हम अभिमान करें इस बात का कि परमात्मा ने हमें तझ पे कुर्बा मेरे दिल की हर एक बेखबरी कैद करने योग्य समझा, बांधने योग्य समझा! यह फन कम है आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। कि सैय्याद ने पसंद किया!–कि उसने हमें पसंद किया, कि और मैं तुझे याद भी कर सकू, यह भी मेरी सामर्थ्य नहीं। तू मेरे भेजा, कि बनाया। विस्मरण के द्वार से ही आ! भक्त तो अपने दुख में से भी सुख का गीत सुन लेता है। आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। मेरी इस बेहोशी अपनी जंजीरों में भी रस पा लेता है। कहता है, परमात्मा ने ही केरास्ते से ही तू आ! बांधा है। छूटने की जल्दी भक्त को नहीं है। भक्त कहता है, तेरे | भक्त का ढंग और। भक्त भी पहुंच जाते हैं। साधक भी पहुंच बंधन हैं—राजी हैं। और ऐसे भक्त छूट जाता है। क्योंकि जिस जाते हैं। महावीर का मार्ग साधक का है। नारद का मार्ग भक्त बंधन को तुमने सौभाग्य समझ लिया, वह बंधन बांधेगा कैसे? का है। लेकिन अगर तुम मुझसे पूछते हो, तो मेरे देखे भक्त के बंधन तभी तक बांधता है जब तक तुम छूटना चाहते हो। तुम्हारे मार्ग से अधिक लोग पहुंच सकते हैं। हां, जिनको भक्ति छूटने की वृत्ति के विपरीत होने के कारण बंधन मालूम होता है। असंभव ही मालूम पड़ती हो, उनको साधक का मार्ग है। वह जब तुम स्वीकार कर लिये, राजी हो गए, तुमने कहा कि मजबूरी है। तुम्हारा प्रेम अगर इतना मर गया है और जड़ हो गया ठीक...। है कि उसमें से तुम परमात्मा को प्रगट नहीं कर सकते, तो फिर 'जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर छोड़ो। फिर तुम साधक के मार्ग से चलो। यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया। लेकिन साधक का मार्ग दोयम है, नंबर दो है। वह उनके लिए यह कोई कम गौरव की बात है कि परमात्मा ने चुना! जो है जिनके भीतर की आत्मा कुछ मुर्दा हो गई है और जिनके भीतर बनाया, जैसा बनाया...। वह हर जगह उसके प्रेम को खोज प्रेम के स्रोत सूख गए हैं, जिनके भीतर गीत-गान नहीं उठता, लेता है। | जिनके भीतर नृत्य-नाच नहीं उठता, जिनकी बांसुरी खो गई और तुम्हारा जीवन अगर हर जगह प्रेम को खोजने है उनके लिए है। अगर तुम्हारी बांसुरी अभी भी तुम्हारे पास लगे-ऐसी जगह भी जहां खोजना बड़ा मुश्किल है—जिस हो और तुम गुनगुना सको गीत, तो सौभाग्यशाली हो। अगर दिन तुम सब जगह प्रेम के दर्शन करने लगो, उस दिन परमात्मा यह न हो; अगर कहीं सब खो चुके बांसुरी दूर जीवन की यात्रा के दर्शन हो गए। में; कहीं प्रेम को कुठाराघात हो गया; कहीं सब जड़ हो गया जीसस ने कहा है, परमात्मा प्रेम है। और मैं कहता हूं, प्रेम तुम्हारा हृदय, अब उसमें कोई पुलक नहीं उठती-तो फिर परमात्मा है। साधक का मार्ग है। साधक का मार्ग उन थोड़े-से लोगों के लिए पर ये रास्ते अलग-अलग हैं। महावीर का रास्ता भक्त का है, जिनके भीतर प्रेम की सब संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। रास्ता नहीं है-होश का। भक्त का रास्ता है बेहोशी का। भक्त लेकिन अगर प्रेम की जरा-सी भी संभावना हो और अंकुरण हो www.jainelibran.org Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 सकता हो, तो फिक्र छोड़ो। जब गीत गाकर और नाचकर उसके | जरूरी हैं। तुम्हें लोरी ही गाकर सुनाता रहूं तो तुम और भी सो घर की तरफ जा सकते हैं, तो फिर लंबे चेहरे, उदास चेहरे लेकर जाओगे। हालांकि लोरी तुम्हें अच्छी लगती है। मगर तुम्हारे जाने की कोई जरूरत नहीं। जब स्वस्थ, प्रफुल्लित उसकी तरफ अच्छे लगने को देखू? तो तुम्हें तो नींद ही अच्छी लगती है। जा सकते हैं, तो नाहक की उदासी, नाहक का वैराग्य थोपने की तुम्हें जगाना होगा! तुम्हें झकझोरना होगा! कोई जरूरत नहीं। | और धीरे-धीरे तुमने अपने रोगों को भी अपने जीवन का महावीर के मार्ग से लोग पहुंचे हैं, तुम भी पहुंच सकते हो। हिस्सा मान लिया है। तुम धीरे-धीरे अपने रोगों के भी प्रेम में पड़ लेकिन महावीर का मार्ग बहुत संकीर्ण है; बहुत थोड़े-से लोग | गए हो। पहुंचते हैं; बहुत थोड़े-से लोग जा सकते हैं। __ एक छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के घर आया था। रात जब भक्ति का मार्ग बड़ा विस्तीर्ण है। उस पर जितने लोग जाना नानी उसकी सुला गई उसे कमरे में और बिजली की बत्ती बुझाई, चाहें, जा सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों को कठिनाई में रस होता तो वह बैठ गया और रोने लगा। उसने पूछा कि क्या हुआ तुझे। है। कुछ लोगों को जो चीज सुलभता से मिलती हो, वह जंचती नानी ने पूछा, क्या हुआ तुझे? उसने कहा कि मुझे अंधेरे का नहीं। कुछ लोगों को जितने ज्यादा उपद्रव और मुसीबतों में से बहुत डर लगता है। पर उसने कहा, 'अरे पागल! और तू अपने गुजरना पड़े उतना ही उन्हें लगता है, कुछ कर रहे हैं। उनके लिए | घर भी तो अंधेरे में ही सोता है और अलग ही कमरे में सोता है, महावीर का मार्ग बिलकुल ठीक है। तो फिर क्या डर है?' तो उसने कहा, नानी, वह बात अलग है। वह मेरा अंधेरा है। आखिरी प्रश्न: आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप अपने-अपने अंधेरे से भी लगाव हो जाता है। मेरा अंधेरा, नाराज हो जाते हैं। पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके मेरी बीमारी, मेरा रोग, मेरी चिंता, मेरा संताप- 'मेरा' उससे पास दिल खोलूं कि नहीं खोलूं। और क्या मैं कुछ भी नहीं कर भी जुड़ जाता है। तभी तो हम अपने दुख को भी पकड़े बैठे रहते पाती? कोशिश तो हर हाल करती हूं कि आपकी बात समझ में | हैं। दुख छोड़ने में भी डर लगता है, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि आए। भक्त को अहंकार का कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या | दुख भी छूट जाये और हाथ खाली हो जायें, और कुछ मिले न; करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है। कृपया एक बार फिर कम से कम कुछ तो है, दुख ही सही, दर्द ही सही! होने का पता समझाएं! तो चलता है कि है। तो कई बार तुमसे मुझे नाराज भी होना पड़ता है-सिर्फ तरु का प्रश्न है। इसीलिए कि तुम्हें प्रेम करता हूं, अन्यथा कोई कारण नहीं है। . 'आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप नाराज हो जाते 'और पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके पास दिल हैं।' बहुत बार ऐसा लगेगा कि मैं नाराज हुआ हूं, पर मेरी खोलूं कि नहीं खोलूं!' । नाराजगी में केवल इतनी ही अभिलाषा है कि शायद नाराज क्या तुम्हारे खोलने न खोलने से कुछ फर्क पड़ेगा? खुला ही होकर कहूं तो तुम सुन लो; शायद नाराज होकर कहूं तो तुम्हारा हुआ है। जिस दिन अपने को जाना, उसी दिन से सभी का दिल सपना टूटे; शायद चोट देकर कहूं तो तुम थोड़े तिलमिलाओ खुल गया है। अपना दिल खुले तो सब का दिल खुल जाता है। और जागो। अब मुझसे छिपाने का उपाय नहीं है। न बताओ, कोई फर्क न झेन फकीर तो डंडा हाथ में रखते हैं तरु! और उन्होंने देखा कि पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य मात्र की पीड़ा एक है। विस्तार के फर्क जरा उनका कोई शिष्य झपकी खा रहा है कि उन्होंने सिर फोड़ा। | होंगे, थोड़े बहुत रंग-ढंग के फर्क होंगे; लेकिन मनुष्य मात्र की लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि झेन सदगुरु का डंडा पड़ा है | पीड़ा एक है कि जिससे हम जन्मे हैं उससे हम बिछुड़ गए हैं; और उसी क्षण साधक समाधि को उपलब्ध हो गया है। कि जो हमारा मूल स्रोत है उससे हम खो गये हैं। और इसलिए तुम्हारी नींद्र गहरी है; चोट करनी जरूरी है। तुम्हें धक्के देने सब खोजते हैं, लेकिन तृप्ति नहीं होती। बहुत दौड़ते हैं, लेकिन 314 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है पहुंचते नहीं; क्योंकि अपने घर का पता ही भूल गया है। का एक चित्र बनाकर लाया। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ऐसा विस्तार की बातें अलग हैं। वे हर एक व्यक्ति की अलग हैं। सुंदर चित्र मैंने पहले कभी देखा न था; कृष्ण की ऐसी छवि कोई उसमें जाने से कोई सार भी नहीं है। बना न पाया था। और मैं तो भावविभोर हो गया, विमुग्ध हो तुम अपना दिल खोलो या न खोलो, इससे कोई फर्क नहीं | गया, नाच उठने का मन हो गया; लेकिन मैं चुप रहा। क्योंकि पड़ता। तुम्हारी आधारभूत पीड़ा का मुझे पता है। अवनींद्रनाथ मौजूद थे, और वे चित्र को बड़े गौर से देख रहे थे। वह पीड़ा यही है कि कैसे प्रभु से मिलन हो जाये! प्रभु नाम दो बड़ी देर सन्नाटा रहा। या न दो। कैसे उससे मिलन हो जाये, जिसे पाकर फिर कुछ और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैं घबड़ा गया कि बात क्या है, वे पाने को न बचे! कुछ कहें! तोड़ें इस खामोशी को, कुछ तो कहें। नंदलाल भी 'और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूं?' थरथर कांप रहा था। और आखिर उन्होंने आंखें ऊपर उठाईं और करती बहुत हो, लेकिन करने से वह मिलता नहीं। कर-करके | उस चित्र को उठाकर बाहर फेंक दिया अपनी बैठक से। और हारने से मिलता है। जब तक करना जारी रहता है, तब तक तो नंदलाल से कहा, 'इसको तुम बड़ी कला मानते हो? यह तो थोड़ी न थोड़ी अस्मिता बनी ही रहती है। मैं कर रहा हूं', तो मैं बंगाल में जो पटिये हैं, जो कृष्ण का चित्र बनाते हैं, दो-दो पैसे में बचा रहता हूं। कृत्य से तो अहंकार कभी मरता नहीं। हां, कृत्य | बेचते हैं, उनके लायक भी नहीं है। तुम जाओ पटियों से सीखो से अहंकार सुंदर हो जाता है, सुरुचिकर हो जाता है। कृत्य से कि कृष्ण कैसे बनाये जाते हैं!' अहंकार में सजावट आ जाती है, शृंगार आ जाता है; मिटता नंदलाल सिर झुकाकर, चरण छूकर लौट गया। रवींद्रनाथ को नहीं। मिटता तो तभी है, जब तुम्हें पता चलता है, मेरे किए कुछ तो बड़ा आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया। लेकिन गुरु-शिष्य भी न होगा। आत्यंतिक रूप से ऐसा पता चलता है कि मेरे किए के बीच क्या बोलना, तो वे चुप रहे। जब नंदलाल चला गया कुछ भी न होगा। अंतिम रूप से यह निर्णय आ जाता है कि मेरे तब उन्होंने कहा कि यह मेरी समझ के बाहर है। आपके भी चित्र किए कुछ भी न होगा। वहीं 'मैं' गिरता है, जहां उसके किए मैंने देखे, लेकिन मैं कह सकता हूं कि उन चित्रों में भी मुझे कोई कुछ भी नहीं होता। इतना नहीं भाया जितना यह कृष्ण का चित्र भाया। और आपने तो तुम करते तो बहुत हो; लेकिन मैं तुमसे कहे चला जाता हूं, | इसको उठाकर फेंक दिया! कुछ भी नहीं, यह भी कुछ नहीं, और करो, और करो। और जो लेकिन अवनींद्रनाथ चुप! तो उन्होंने आंखें उठाकर देखा, जितना ज्यादा कर रहा है उससे मैं और ज्यादा कहता हूं, यह कुछ आंख से आंसू बह रहे हैं। अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुम समझे भी नहीं, और करो। क्योंकि जो जितना ज्यादा कर रहा है, उससे नहीं; इससे मुझे बड़ा भरोसा है; इससे अभी और खींचा जा उतनी ही आशा बंधती है कि करीब पहुंच रहा है उस सीमा के, | सकता है। अभी यह और ऊंचाइयां छू सकता है। मैं भी जानता जहां सब करना व्यर्थ हो जाएगा। तो और दौड़ाता हूं। जो पिछड़ हूं कि ऐसा चित्र मैंने भी नहीं बनाया। मगर इसकी अभी और गए हैं, उनको न भी कहूं, क्योंकि उनके दौड़ने से भी कुछ बहुत संभावना है। अगर मैं कह दूं कि बस, बहुत हो गया। मेरी होनेवाला नहीं है। लेकिन जो दौड़ में बहुत आगे हैं और बड़ी | प्रशंसा का हाथ इसके सिर पर पड़ जाये, तो यही इसकी रुकावट शक्ति से दौड़ रहे हैं उनको तो जरा भी शिथिलता खतरनाक होगी | हो जायेगी। मैं इसका दुश्मन नहीं हूं। और महंगी पड़ जायेगी। नंदलाल तीन साल तक पता न चला, कहां चला गया। वह ऐसा उल्लेख है, रवींद्रनाथ के चाचा थे अवनींद्रनाथ। बड़े गांव-गांव बंगाल में घूमता रहा और जहां-जहां पटियों की खबर चित्रकार थे। भारत में ऐसे चित्रकार इस सदी में एक-दो ही मिली, गांव के ग्रामीण कलाकारों की, उनसे जाकर कृष्ण के चित्र हुए। दूसरा जो बड़ा चित्रकार भारत में पैदा हुआ, नंदलाल, वह | बनाना सीखता रहा। तीन साल बाद लौटा। रवींद्रनाथ को उनका शिष्य था। रवींद्रनाथ एक दिन बैठे थे अवनींद्रनाथ के | नंदलाल ने आकर कहा कि उनकी बड़ी अनुकंपा है! ऐसा बहुत साथ। और नंदलाल, जब वह युवक था और विद्यार्थी था, कृष्ण कुछ सीखकर लौटा हूं जो यहां बैठकर कभी सीख ही न पाता! 315 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 TIMERA उन ग्रामीण सरल हृदय लोगों में तकनीक तो नहीं है, तकनीक की हर एक रंजो-गम से रिहा हो गये हम। उन्हें कोई शिक्षा नहीं मिली है। लेकिन भाव की बड़ी गहनता है। अब तू जान! और असली चीज तो भाव है, तकनीक में क्या रखा है? कितने दीवाने मुहब्बत में मिटे हैं 'सीमाब' तो जो यहां मेरे पास तीव्रता से काम में लगे हैं, उनकी पीठ में जमा की जाए जो खाक उनकी तो वीराना बने। नहीं थपथपाता। उनसे तो मैं कहता हूं, यह क्या है? बंगाल के कितने प्रेमी उसके प्रेम में मिट गए हैं! जमा की जाये जो खाक पटिये भी इससे बेहतर कर लेते हैं। उनसे तो मैं यही कहे चला उनकी तो वीराना बने। एक मरुस्थल बन जाये, अगर उनकी जाऊंगा, यह भी कुछ नहीं-और-और-और-उस घड़ी तक, | राख इकट्ठी करें। उसी राख के मरुस्थल में अपनी राख को भी जहां कि करने की पराकाष्ठा आ जाये। क्योंकि जहां करने की मिला दो। पराकाष्ठा आती है वहीं अहंकार की भी पराकाष्ठा आ जाती है। गर बाजी इश्क की बाजी है और जब करना-मात्र गिर जाता है, जब तुम्हें लगता है, अब | जो चाहो लगा दो, डर कैसा? आगे करने को कुछ भी नहीं बचा और तुम बैठ जाते हो, उस गर जीत गए तो क्या कहना बैठने में ही पहली दफा परमात्म-तत्व से संबंध होता है। तुम हारे भी तो बाजी मात नहीं। नहीं होते, उस बैठने में तुम नहीं होते; उस बैठने में तुम्हारे भीतर गर जीत गए तो क्या कहना। परमात्मा ही होता है। तो महावीर हो जाता है आदमी, अगर जीत गया। 'क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूँ? कोशिश तो हर हाल हारे भी तो बाजी मात नहीं! हार गए तो मीरा पैदा हो जाती है। करती हूं कि आपकी बात समझ में आये। भक्त को अहंकार का अड़चन नहीं है, बाधा नहीं है। कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा गर बाजी इश्क की बाजी है रही है।' जो चाहो लगा दो डर कैसा? बड़े शुभ लक्षण हैं। किए जाओ। गर जीत गए तो क्या कहना हिम्मत को टूट ही जाना है। तुम्हारी हिम्मत ही बाधा हारे भी तो बाजी मात नहीं। है-भक्त के लिए। समर्पण के मार्ग पर तुम्हारी हिम्मत और यह कुछ रास्ता ऐसा है प्रभु का कि जो पहुंचते हैं, वे तो पहुंच तुम्हारा बल ही बाधा है। निर्बल के बल राम! वहां तो जब तुम ही जाते हैं; जो भटकते हैं वे भी पहुंच जाते हैं। संसार के मार्ग बिलकुल निर्बल हो जाओगे, सब टूट जायेगा, उसी क्षण, उसी पर उलटी ही कथा है: जो पहुंचते हैं, वे भी नहीं पहुंचते; जो पल अनिर्वचनीय से मिलन हो जाता है। भटकते हैं, उनका तो कहना ही क्या! परमात्मा के मार्ग पर जो . मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर पहुंचते हैं, वे तो पहुंच ही जाते हैं; जो भटकते हैं, वे भी पहुंच हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम। जाते हैं। इतना ही क्या कम है कि हम उसे खोजने में भटके? उसके प्रेम को तुम्हारे चारों तरफ बंधने दो, उसके प्रेम को | इतना कम है कि हमने उसे खोजना चाहा? इतना कम है कि कसने दो। उसके प्रेम की फांसी में तुम्हारा अहंकार मर जायेगा। अंधेरी रात में हमने उस दीये की आशाएं और सपने संजोए? महब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर कैफियत उनके करम की कोई हमसे पूछे हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम। जिससे खुश होते हैं दीवाना बना देते हैं। . अब तुम छोड़ो अपना रंज भी, अपना गम भी; जो तुम्हारे पास परमात्मा का प्रेम जब तुम पर बरसेगा तो दीवानगी और है उसके चरणों में चढ़ा दो! कुछ और तो है नहीं, कहां से बढ़ेगी, आंसू और बहेंगे, हृदय टूटेगा, बिखरेगा। राख हो लाओगे फूल? जो है...आंसू सही। उसके चरणों में रख दो! जाओगे तुम उस बड़े मरुस्थल में-जहां मीरा भी खो गई है, और उससे कहा दो कि चैतन्य भी खो गए हैं, जहां राबिया खो गई है, जहां कबीर, मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर नानक, रैदास खो गए हैं। उस विराट मरुस्थल में तुम भी खो 316 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मझे प्रेम है । जाओगे। लेकिन खोने के पहले एक शर्त पूरी कर देनी जरूरी है। यहां संसार में धन नहीं मिलता; यहां संसार में प्रेमपात्र नहीं कि तुम जो कर सकते हो वह कर लो; अन्यथा तुम्हें ऐसा लगा | मिलता; यहां संसार में कुछ भी नहीं मिलता-ऐसे संसार में रहेगा कुछ न कुछ कर लेते। अटके रहोगे। अहंकार थोड़ी-सी हमने परमात्मा को मांगा है। जहां कुछ भी नहीं मिलता; जहां जो जगह बनाए रखेगा। दिखाई पड़नेवाली चीजें हैं, वे भी हाथ में पकड़ में नहीं प्रेम की आकांक्षा जिसने की है और भक्ति का मार्ग जिसने आतीं-वहां हमने अदृश्य को पकड़ना मांगा है! दृश्य पकड़ में चुना है, उसने बड़े असंभव की आकांक्षा की है। नहीं आता, सीमित पर हाथ नहीं बंधते-वहां हमने असीम की इसलिए महावीर गणित की तरह साफ हैं। वहां साफ-सुथरा अभीप्सा की है! विज्ञान है। इसलिए जैन-धर्म में विज्ञान की भाषा है। मीरा और ___ उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे चैतन्य, नारद और कबीर-उनकी भाषा अटपटी है, जो दर्द भी नाकाबिले-दरमा नज़र आया। सधुक्कड़ी, उलटबांसी जैसी। वहां गंगा गंगोत्री की तरफ बहती राह बड़ी पीड़ा से भरी है, पर पीड़ा बड़ी मधुर है। उसके मार्ग है। बड़ी रहस्य से भरी, क्योंकि उन्होंने बड़े असंभव की पर लगे कांटे भी अंततः फूल बन जाते हैं। आकांक्षा की है। महावीर की बात चाहे कितनी ही कठोर मालूम पड़ती हो, लेकिन गणित के समझ में आनेवाली है। और प्रेमियों आज इतना ही। की बात चाहे कितनी ही सरल मालूम पड़ती हो, बड़ी असाध्य मालूम होती है। उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया। -प्रेम का दर्द ऐसा है कि असाध्य है। इसका कोई इलाज नहीं उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया। -जिसका कोई इलाज नहीं, असाध्य है, जिसकी कोई औषधि नहीं। प्रेम एक ऐसी पीड़ा है, जिसका कोई इलाज नहीं। लेकिन जिसने उस पीड़ा को स्वीकार कर लिया है, वह धीरे-धीरे पायेगाः पीड़ा मीठी होती जाती है; पीड़ा और मीठी होती जाती है। और एक दिन पता चलता है कि जिसे हमने पहले क्षण में दर्द जाना था, वह दर्द न था; वह उस प्रभु के आने की खबर थी, उसके पगों की ध्वनि थी, आहट थी। हम परिचित न थे, इसलिए दर्द जैसा मालूम हुआ था; या प्रभु इतनी तीव्रता से करीब आया था कि हम झेल न सके थे, हमारी पात्रता न थी; जैसे कि आंख में सूरज एकदम से पड़ गया हो और आंखें चौंधिया जायें और दर्द मालूम पड़े। जब परमात्मा की तरफ कोई चल रहा है तो उसने एक ऐसी दीवानगी मांगी है, जो असंभव जैसी लगती है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e www.ja Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंद्रहवां प्रवचन मनुष्यो सतत जाग्रत रहो For Private & P enal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000 सत्र सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था। तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्म।।३९।। जागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं च सुत्तया सेया। वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए।।४०।। । पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं। तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडितमेव वा।।४१।। न कम्मुणा कम्म खवेंति वाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा। मेघाविणो लोभमया ववीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं।।४२।। जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स बड्डते बुद्धी। जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो।।४३।। जह दीवा दीवसयं पइप्पए सो य दिप्पय दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेति।।४४।। ww.jainelibrary.org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिन-सूत्रों का सार आज के सूत्रों में है-जिन साधना है—इतना डुबा देता है कि कोई बचता ही नहीं, पीछे लकीर भी की मूल भित्ति; जिनत्व का अर्थ। नहीं छूट जाती है। साधक अपने को जगाता है-इतना जगाता परमात्मा की खोज में दो उपाय हैं। एक उपाय है: है कि जागरण की ज्योति ही रह जाती है, कोई जागनेवाला नहीं उसमें ऐसे तल्लीन हो जाना कि तुम न बचो; उसमें ऐसे लीन हो | बचता। हर हालत में अहंकार खो जाता है—चाहे परिपूर्ण रूप जाना कि लीन होनेवाला बचे ही नहीं-जैसे सागर में नमक की | से तल्लीन होकर खो दो और चाहे परिपूर्ण रूप से जागकर खो डगली डाल दें, खो जाती है, स्वाद फैल जाता है, लेकिन कोई | दो। इन दो अतियों पर परिणाम एक ही होता है। इसलिए भक्त बचता नहीं। दूसरा मार्ग है : खोना जरा भी नहीं; जागना ! इतने | और ज्ञानी, प्रेमी और साधक सभी वहीं पहुंच जाते हैं। मार्ग का जागना कि जागरण ही शेष रह जाये, जागनेवाला न बचे। बड़ा फर्क है, मंजिल का जरा भी फर्क नहीं है। पहला मार्ग बेहोशी का है, दूसरा मार्ग होश का है, लेकिन राह जुदा, सफर जुदा, रहजनो-रहबर जुदा दोनों के भीतर सार बात एक है कि तुम न बचो। इसलिए तुम्हें | मेरे जुनूने-शौक की मंजिले-बेनिशां है और। रामकृष्ण जैसे उल्लेख महावीर और बुद्ध के जीवन में न मिलेंगे, | महावीर से पूछो तो वे कहेंगेः राह जुदा, सफर जुदा, कि रामकृष्ण परमात्मा का नाम लेते-लेते बेहोश हो गये, कि | | रहजनो-रहबर जुदा! यह मेरी राह अलग, इस राह की यात्रा घंटों बेहोश पड़े रहे। कभी-कभी दिनों होश में न लौटते। और | अलग; इतना ही नहीं, मेरी राह पर लूटनेवाले और पथ-प्रदर्शक जब होश में आते तो फिर रोने लगते और कहते कि मां! यह भी अलग! लुटेरे भी मेरी राह के अलग हैं। स्वभावतः होंगे। कहां मुझे बेहोशी की दुनिया में भेज रही हो? वापिस बुला लो! क्योंकि जहां होश साधना है, वहां लुटेरे अलग होंगे। वहां वही उसी गहन बेहोशी में मुझे वापिस बुला लो! मुझे संसार का होश | लुटेरे बन जायेंगे जो भक्ति के मार्ग पर पथ-प्रदर्शक होते हैं। नहीं चाहिए। मुझे तुम्हारी बेहोशी चाहिए! | जहां होश को गंवा देना है, मस्ती में डूब जाना है, जहां परमात्मा ऐसा उल्लेख महावीर के जीवन में असंभव है; कल्पना में भी की शराब पी लेनी है-वहां जो सहयोगी है, वह महावीर के नहीं लाया जा सकता; महावीर की जीवन-सरणी में बैठता मार्ग पर लुटेरा हो जायेगा। महावीर के मार्ग पर जो सहयोगी है, नहीं। गिर पड़ना बेहोश होकर, यह तो दूर; महावीर एक पैर भी वह महावीर के मार्ग पर लुटेरा हो जायेगा। महावीर के मार्ग पर नहीं उठाते बेहोशी में; हाथ भी नहीं हिलाते बेहोशी में; आंख | जो सहयोगी है, पथ-प्रदर्शक है, राहबर है, वह भी की पलक भी नहीं झपते बेहोशी में। पर लुटेरा हो जायेगा। लेकिन इन दोनों विपरीत दिखाई पड़नेवाले मार्गों के बीच में | ध्यान भक्ति के मार्ग पर लटेरा हो जायेगा; वहां प्रार्थना कुछ सेतु हैं। वह सेतु स्मरण रखना। भक्त अपने को डुबा देता | पथ-प्रदर्शक है। महावीर के मार्ग पर प्रार्थना लुटेरा हो जायेगी; 323 | Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 वहां ध्यान पथ-प्रदर्शक है। लेकिन मंजिल पर जाकर सब मिल याद काम नहीं आती। जाते हैं। क्योंकि पहुंचना उस जगह है जहां तुम अशेष भाव से, | स्वप्न की दशा से बाहर होने के दो उपाय हैं। या तो सुषुप्ति में कुछ भी बचे न, परिपूर्ण रूप से मुक्त हो जाओ। डूब जाओ। रामकृष्ण और भक्तों ने सुषुप्ति का उपयोग किया है इसे भी खयाल में ले लेना। साधारणतः हम सोचते हैं, मैं मुक्त स्वप्न से मुक्त होने के लिए। महावीर और बुद्ध और पतंजलि ने हो जाऊंगा, तो ऐसा लगता है कि मैं तो बचूंगा-मुक्त होकर जागृति का उपयोग किया है स्वप्न से मुक्त होने के लिए। लेकिन बचूंगा। लेकिन जो गहरे उतरने की कोशिश करेंगे या जिन्होंने | असली बात स्वप्न से मुक्त होना है। या इस किनारे या उस सच में ही समझना चाहा है-मैं मुक्त हो जाऊंगा, इसका केवल किनारे, यह मंझधार में न रह जाओ! इतना ही अर्थ होता है कि 'मैं' से मुक्त हो जाऊंगा। 'मैं' भाव ___ महावीर के ये सूत्र जागरण के सूत्र हैं। इनका सार-भाव है: चला जायेगा। 'मैं' भाव जहां तक है वहां तक मुक्ति नहीं है। जागो! जहां 'मैं' भाव विसर्जित हो जाता है, वहीं मक्ति है। 'मैं' भाव मैंने सुना है, एक आदमी भर-दुपहर भागा हुआ शराबघर में को विसर्जित करने के दो उपाय हैं : या तो डुबा दो, या जगा लो। आया। उसने कलारिन से कहा कि एक बात पूछने आया हूं। ऐसा समझो, पतंजलि ने योग-सूत्रों में मनुष्य के चित्त की तीन बड़ा बेचैन और परेशान था। जैसे कुछ गंवा बैठा हो, कुछ बहुत दशायें कहीं हैं। एक है सुषुप्ति। एक है जाग्रत। एक है स्वप्न। खो गया हो। जिस दशा में हम साधारणतः हैं, वह स्वप्न की दशा है; कामना ‘एक बात पूछनी है : क्या रात मैं यहां आया था?' की, विचारणा की, ऊहापोह की, हजार-हजार वासनाओं की। 'जरूर आये थे।' स्वप्न की दशा है। इस स्वप्न की दशा के दोनों तरफ एक-एक | 'कई लोगों के साथ आया था?' दशायें हैं: एक सुषुप्ति की और एक जागृति की। इस स्वप्न की 'कई लोगों के साथ आये थे।' दशा से मुक्त होना है। इस स्वप्न की दशा में ही तुमने स्वप्न देख 'सबको शराब पिलवाई थी, खुद भी पी थी?' लिया है कि तुम हो। यह तुम्हारा स्वप्न है। या तो सषप्ति में खो 'जरूर पिलवाई थी और पी थी।' जाओ. जहां स्वप्न न बचे या जाग्रत हो जाओ, जहां स्वप्न के वह आदमी बोला, 'शक्र खदा का। सौ रुपये चकाये थे?' बाहर आ जाओ। उसने कहा, 'बिलकुल चुकाये थे।' तो स्वप्न के बीच में हम खड़े हैं। स्वप्न यानी संसार। इसलिए उसने कहा, 'तब कोई हर्जा नहीं।' तो शंकर उसे माया कहते हैं। वह स्वप्न की दशा है। वहां जो वह बड़ा प्रसन्न हो गया। उस कलारिन ने पूछा कि मैं कुछ नहीं है, वह हम देख रहे हैं। और वहां जो है, वह हमें दिखाई समझी नहीं, बात क्या है? उसने कहा, 'मैं तो यही सोच रहा था नहीं पड़ रहा है। वहां हम जो देख रहे हैं, वह हमारा ही प्रक्षेपण | कि सौ रुपये कहीं गंवा बैठा। इसलिए ही परेशान था।' है। वहां जिसमें हम जी रहे हैं, वह हमारी ही कामना, हमारी ही बेहोश आदमी भी सोचता है कि कहीं गंवा तो नहीं बैठा! आशा, हमारी ही भावना है। सत्य से उसका कोई संबंध नहीं। लेकिन बेहोशी में कमाओगे कैसे, गंवाओगे ही! चाहे शराब वह हमारी निर्मिति है। पीने में गंवाये हों, चाहे किसी बगीचे की बैंच पर भूल आये तुमने स्वप्न में देखा! स्वप्न देखते समय तो ऐसा ही लगता है होओ। शायद बगीचे की बैंच पर भूल आना ज्यादा बेहतर था; कि सब सच है; ऐसा ही लगता है कि कुछ भी असत्य नहीं है। सौ रुपये ही गंवाते, कम से कम होश तो न गंवाया होता! लुट सुबह जागकर पता चलता है कि अरे, एक सपने में खो गये थे, जाना बेहतर था, यह तो लुट जाने से बदतर दशा है। पर वह इतना सत्य मालूम पड़ा था! आदमी बोला, 'शुक्र खुदा का! मैं तो डर रहा था कि कहीं रुपये रोज-रोज तुम सपना देखे हो, रोज-रोज सुबह पाया है कि गंवा तो नहीं बैठा।' असत्य है। फिर भी जब रात घनी होती है, फिर नींद में डूब जाते जिंदगी के अंत में अधिक लोग ऐसी ही दशा में पाते हैं। सोचते | हो, फिर सपना तरंगित होने लगता है, फिर भूल जाते हो, वह हैं, कहीं जिंदगी गंवा तो नहीं बैठे! लेकिन कितने ही बड़े मकान ain Education International Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो बनाकर छोड़ जाओ और कितने ही धन की राशियां लगा जाओ, जाये और तुम जगत को खुली आंख से देख लो - आंख जिस इससे क्या फर्क पड़ता है ? पर सपनों की पर्त न हो; आंख जिस पर सपनों की धूल न हो; ऐसे चैतन्य से दर्पण स्वच्छ हो और जो सत्य है वह झलक जाये – तो तुम्हारी जिंदगी में पहली दफा, वह यात्रा शुरू होगी जो जिनत्व की यात्रा है। तब तुम जीतने की तरफ चलने लगे। सपने में तो हार ही हार है। जिंदगी तो गई और गई। जिंदगी तो राख हो गई। मकान बना आये, खंडहर बनेंगे। बड़ी दौड़-धूप की थी, बड़ी तिजोड़ियां छोड़ आये - कोई और उनकी मालकियत करेगा। तुम्हारे हाथ तो खाली हैं। इससे तो बेहतर होता कि तुम बैठे ही रहते और तुमने कुछ न किया होता, तो कम से कम तुम उतने पवित्र तो रहते जितने जन्म के समय थे। यह तो सारी आपाधापी तुम्हें और भी अपवित्र कर गई। यह तो तुम और भी शराब से भरकर विदा हो रहे हो। यह तो तुम और जहर ले आये। जिंदगी से कमाया तो कुछ भी नहीं, एक नयी मौत और कमाई, फिर जन्मने की वासना कमाई । यह कोई कमाना हुआ? जिसे तुम जिंदगी कहते हो, महावीर उसे स्वप्न कहते हैं । और जिसे तुम जागरण कहते हो, वह जागरण नहीं है; वह सिर्फ खुली आंख देखा गया सपना है। हम दो तरह के सपने देखते हैं: एक, रात जब हम आंख बंदकर लेते हैं; और एक तब जब सुबह हम आंख खोल लेते हैं। लेकिन हमारा सपना सतत चलता है। महावीर के हिसाब से सपने से तो तुम तभी मुक्त होते हो, जब तुम्हारा मन ऐसा निष्कलुष होता है कि उसमें एक भी विचार की तरंग नहीं उठती। जब तक तरंगें हैं, तब तक स्वप्न है। जब तक तुम्हारे भीतर कुछ चित्र घूम रहे हैं और तुम्हारे चित्त पर तरंगें उठ रही हैं- 'यह हो जाऊं, यह पा लूं, यह कर लूं, यह बन जाऊं - तब तक तुम स्वप्नों से दबे हो । फिर तुम्हारी आंख खुली है या बंद, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता । तुम बेहोश हो । महावीर के लिए तो होश तभी है, जब तुम्हारा चित्त निर्विचार हो । तो जागरण का अर्थ समझ लेना । जागरण का अर्थ तुम्हारा जागरण नहीं है। तुम्हारा जागरण तो नींद का ही एक ढंग है। महावीर कहते हैं जागरण चित्त की उस दशा को, जब चैतन्य तो हो लेकिन विचार की कोई तरंग में छिपा न हो; कोई आवरण न रह जाये विचार का; शुद्ध चैतन्य हो; बस जागरण हो। तुम देख रहे हो और तुम्हारी आंख में एक भी बादल नहीं तैरता -- किसी कामना का, किसी आकांक्षा का। तुम कुछ चाहते नहीं । तुम्हारा कोई असंतोष नहीं है। तुम जैसे हो, उससे तुम परम राजी हो । एक क्षण को भी तुम्हारा यह राजीपन, तुम्हारा यह स्वीकार जग जिन यानी जीतने की कला। जिनत्व यानी स्वयं के मालिक हो जाने की कला। हमने और सबके तो मालिक होना चाहा है—धन के, पत्नी के, पति के, बेटे के, राज्य के, साम्राज्य हमने और का तो मालिक होना चाहा है, एक बात हम भूल गये हैं, बुनियादी, कि हम अभी अपने मालिक नहीं हुए। और जो अपना मालिक नहीं है, वह किसका मालिक हो सकेगा ! वह गुलामों का गुलाम हो जायेगा । पहला सूत्र : सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । 'इस जगत में ज्ञान सारभूत अर्थ है ।' इस जगत में बोध सारभूत अर्थ है । अवेयरनेस ! सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था। तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं । । 'अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो। जो पुरुष सोते हैं, उनका अर्थ नष्ट हो जाता है।' जीवन में हमारे भी अर्थ है, कोई मीनिंग है। हम भी कुछ पाना चाहते हैं। हां, हमारे भी कुछ बहाने हैं। अगर आज मौत आ जाये तो तुम कहोगे, 'ठहरो! कई काम अधूरे पड़े हैं। न मालूम कितनी यात्राएं शुरू की थीं, पूरी नहीं हुईं। ऐसे बीच में उठा लोग तो अर्थ अधूरा रह जायेगा । अभी तो अर्थ भरा नहीं । अभी तो अभिप्राय पूरा नहीं हुआ। रुको।' सिकंदर, नेपोलियन साम्राज्य बनाने में जीवन का अर्थ देख रहे हैं। कोई कुछ और करके जीवन का अर्थ देख रहा है। लेकिन महावीर कहते हैं: इस जगत में बोध सारभूत अर्थ है । और कुछ भी नहीं—न धन, न पद, न प्रतिष्ठा । 'जो पुरुष सोते हैं उनका यह अर्थ नष्ट हो जाता है।' अर्थ तुम्हारे भीतर है और तुम्हीं सो रहे हो तो अर्थ का जागरण कैसे होगा ? तुम्हारे जागने में ही तुम्हारे जीवन का अर्थ जागेगा । मेरे पास अनेक लोग आते हैं। वे कहते हैं, जीवन का अर्थ 325 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 HRUITREAM क्या है? जैसे कि अर्थ कोई बाहर रखी चीज है, जो कोई बता दे | चाहता हूं; अन्यथा खाली-खाली मालूम पड़ रहा है। मेरे ऊपर कि यह रहा। जैसे तुम पूछो, सूरज कहां है, कोई बता दे कि वह | कोई उत्तरदायित्व नहीं है।' धनी घर का लड़का है। सब सुविधा रहा आकाश में! है। 'खाली-खाली मालूम हो रहा हूं। शादी कर लूंगा तो कुछ लोग पूछते हैं, जीवन का अर्थ क्या है? भरापन हो जायेगा।' जैसे अर्थ कोई बनी-बनाई, रेडीमेड वस्तु है, जो कहीं रखी है। अभी अमरीका में एक आदमी पर मुकदमा चलता था, क्योंकि और तुम्हें खोजनी है। उसने सात आदमियों को गोली मार दी थी-अकारण, जीवन में अर्थ नहीं है। अर्थ तुममें है! और तुम जागोगे तो | अपरिचित अजनबियों को! ऐसे लोगों को जिनका चेहरा भी जीवन में अर्थ फैल जायेगा। और तुम सोये रहोगे तो जीवन | उसने नहीं देखा था, पीछे से। सागर-तट पर कोई बैठा था, निरर्थक हो जायेगा। फिर इस निरर्थकता के खालीपन से बड़ी | उसने पीछे से आकर गोली मार दी। एक ही दिन में सात आदमी घबड़ाहट होती है, तो आदमी झूठे-झूठे अर्थ कल्पित कर लेता मार डाले। बामुश्किल पकड़ा जा सका। पकड़े जाने पर है। वे सहारे हैं, सांत्वनाएं हैं। तो कोई कहता है, बच्चों को बड़े अदालत में जब पूछा गया कि तूने किया क्यों? क्योंकि इनसे करना है। लगा रहता है, व्यस्त रहता है। क्योंकि जब भी कोई तेरी कोई दुश्मनी न थी; दुश्मनी तो दूर, पहचान भी न थी। अर्थ नहीं मालूम पड़े बाहर, तो भीतर की निरर्थकता मालूम होती तो उसने कहा कि मेरा जीवन बड़ा खाली-खाली है; मैं कुछ है। बच्चों को बड़े करना है। तुम्हारे पिता भी यही करते रहे, | काम चाहता था; किसी चीज से अपने को भर लेना चाहता था। उनके पिता भी यही करते रहे। ये बच्चे बड़े किसलिए हो रहे मैं चाहता हूं कि लोगों का ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हो। और हैं ये भी यही करेंगे। ये भी बच्चे बड़े करेंगे। वह काम हो गया। अब मुझे फिक्र नहीं, तुम फांसी दे दो! इसका मतलब क्या है? प्रयोजन क्या है? अगर तुम्हारे पिता | लेकिन सब अखबारों में मेरा फोटो भी छप गया, सभी अखबारों तुमको बड़ा करते रहे और तुम अपने बच्चों को बड़ा करते रहोगे, में नाम भी छप गया। आज हजारों लोगों की जबान पर मेरा नाम तुम्हारे बच्चे उनके बच्चों को बड़ा करते रहेंगे, तो इस बड़े करने है, यह तो देखो! का प्रयोजन क्या है? इस सतत सक्रियता का अर्थ क्या है? | लोग कहते हैं, बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा ही। इसमें कुछ अर्थ तो नहीं है। यह तो तुम्हें भी कभी-कभी झलक राजनीतिज्ञों में और अपराधियों में बहुत फर्क नहीं है। जाता है। | राजनीतिज्ञ समाज-सम्मत व्यवस्था के भीतर नाम को कमाने की धन ही इकट्ठा कर लोगे तो क्या होगा? अंततः आती है मौत! चेष्टा करता है। अपराधी समाज-सम्मत व्यवस्था नहीं खोज सब हाथ खाली हो जाते हैं। सब छिन जाता है। जो छिन ही पाता, समाज के विरोध में भी कुछ करके नाम पाने की आकांक्षा जायेगा, उसे पकड़-पकड़कर क्या होगा? लेकिन कम से कम करता है। इसलिए अगर कोई रातनीतिज्ञ बहुत दिनों तक बीच में कुछ अर्थ है, प्रयोजन है—इस तरह की भ्रांति तो पैदा हो राजनीति को न पा सके तो उपद्रवी हो जाता है, क्रिमिनल हो जाता जाती है। है, अपराधी हो जाता है। क्योंकि मूल आकांक्षा है: लोगों का लोग अजीब-अजीब अर्थ पैदा कर लेते हैं। ध्यान आकर्षित करना। मूल आकांक्षा है। लोगों को लगे कि मैं एक युवक मेरे पास आया। अपनी प्रेयसी को लेकर आया कुछ है; दुनिया कहे कि तुम कुछ हो, तुम्हारा कुछ अर्थ है। तुम और उसने कहा कि मुझे विवाह करना है। मैंने कहा कि अभी ऐसे ही आये और चले नहीं गये; तुमने बड़ा शोर मचाया। तेरी उम्र बीस साल से ज्यादा नहीं है, अभी इतनी जल्दी बोझ क्यों तुम्हारा आना एक तूफान की तरह था। दुनिया को तुम्हारे ऊपर लेता है? अभी दो-चार-पांच साल और मुक्त रहकर गुजर ध्यान देना पड़ा। सकते हैं। इतने उत्तरदायित्व लेने की अभी जरूरत कहां है? | तुमने कभी खयाल किया? तुम वस्त्र भी इसीलिए पहनते हो अभी तू स्कूल में पढ़ता है! थोड़ा रुक! पढ़ लिख ले। ढंग-ढंग के कि ध्यान पड़े, कोई देखे। स्त्रियां देखीं, नयी उसने कहा, 'उत्तरदायित्व लेने के लिये ही तो विवाह करना साड़ियां पहनकर आ जाती हैं तो बड़ी बेचैन रहती हैं, जब तक 326 Jáin Education International Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो कोई पूछ न ले, कहां खरीदी; जब तक कोई साड़ी का पोत न देखे के बीच से अपने गांव पहुंच गई। . और प्रशंसा न कर दे। - तुमने कभी खयाल किया है कि तुम कितने उपाय करते हो कि तुमने वह कहानी तो सुनी होगी। बड़ी पुरानी कहानी है कि एक किसी तरह लोगों का ध्यान आकर्षित हो जाये। अर्थ नहीं है औरत ने अपने घर में आग लगा ली थी और जब लोग आये तब जीवन में तो तुम झूठे अर्थ पैदा करने की कोशिश करते वह हाथ ऊंचे-ऊंचे उठाकर चिल्लाने लगी कि हे परमात्मा! हो-कोई कह दे कि 'तुम बड़े सार्थक हो! तुम जो कर रहे हो नष्ट हो गई, मर गई, लुट गई! तब किसी औरत ने पूछा, 'अरे! वह मूल्यवान है! तुम बड़ा ऊंचा काम कर रहे हो!' तुमसे कोई ये कंगन तो हमने देखे ही नहीं, कब बनवाये?' उसने कहा कि कुछ भी करवा ले सकता है, बस तुमसे यह कहलवा दिया जाये नासमझ, पहले ही पूछ लेती तो घर में आग क्यों लगानी पड़ती! कि तुम कोई बड़ा काम कर रहे हो, बड़ा ऊंचा, बड़ा महत्वपूर्ण! यह गांव भर की राह देखती रही, कंगन बनाये हैं, कोई पूछेगा! इस जगत में बोध के अतिरिक्त और कोई अर्थ नहीं है। और किसी ने न पूछा। जितने अर्थ तुम खोजते हो, उन सब से तुम्हारी बेहोशी घनी होती जब झोपड़े में आग लगी और आग की रोशनी उठी और कंगन है, बढ़ती है, जागरण नहीं आता। चमकने लगे और वह हाथ उठाने का मौका आया कि अब 'जो पुरुष सोते हैं उनके अर्थ नष्ट हो जाते हैं। अतः सतत चिल्ला-चिल्लाकर, हाथ हिला-हिलाकर वह कह सकती जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो।' पुरानी आदतें पड़ी हैं बहुत, उनको हिलाओ, डुलाओ, ताकि तुम जरा अपने पर गौर करना। हम सभी कंगन दिखाने निकले | उनसे छुटकारा हो सके, वे ढीली हो जायें! बड़ा बहुमूल्य वचन हैं, चाहे घर में आग लगाकर भी दिखाना पड़े। लेकिन ऐसा न हो है: 'अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित कि हम ऐसे ही विदा हो जायें, किसी को पता भी न चले कि कब करो।' हिलाओ-जैसे वृक्ष को कोई हिलाये और उसकी जड़ें आये, कब चले गये, कब उठे, कब बैठे, कब जन्मे। इस कंगन उखड़ जायें। अब पानी मत सींचो और! ऐसे ही क्या कम दुख दिखाने को लोग कहते हैं, अरे! कुछ नाम कर जाओ। कहते हैं, | भोगा है। ऐसे ही क्या कम भटके हो। पानी मत सींचो! लेकिन कुछ नाम छोड़ जाओ इतिहास में। तो तैमूरलंग और चंगेज़ और जो हमें जगाता है, वह दुश्मन मालूम पड़ता है, क्योंकि वह नादिरशाह इतिहास में नाम छोड़ जाते हैं, हजारों लोगों को आग हिलाता है। लगवाकर, हजारों लोगों को काटकर। __ आस्पेंस्की ने अपनी किताब 'इन सर्च आफ द मिरेकुलस' कहते हैं, एक वेश्या तैमूर के शिविर में नाचने आयी थी। जब अपने गुरु गुरजिएफ को समर्पित की है, तो उसमें लिखा है: वह रात जाने लगी तो वह डरती थी, क्योंकि रास्ता अंधेरा था। 'गुरजिएफ के लिए-जिसने मेरी नींद को तोड़ दिया।' और कोई दस-बारह मील दूर उसका गांव था। तो तैमूर ने कहा, लेकिन जब कोई तुम्हारी नींद तोड़ता है तो सुखद नहीं मालूम घबड़ा मत। उसने अपने सैनिकों से कहा कि इसके रास्ते में होता। जब कोई तुम्हारी नींद तोड़ता है तो तुम्हें लगता है दुश्मन। जितने गांव पड़ें, आग लगा दो! थोड़े सैनिक भी झिझके कि यह इसलिए जगत में नींद तोड़नेवाले सदा दुश्मन मालूम पड़े। जरा अतिशय मालूम पड़ता है। एक मशाल से ही इसको सुकरात को हमने ऐसे ही जहर नहीं पिला दिया था, और न पहुंचाया जा सकता है! लेकिन तैमूरलंग ने कहा, 'इतिहास याद | जीसस को हमने ऐसे ही सूली पर लटका दिया, न हमने महावीर नहीं रखेगा मशाल से पहुंचाओगे तो। पता रहना चाहिए आने को ऐसे ही पत्थर मारे और कान में खीलें ठोंके। यह अकारण ले हजारों सालों को कि तैमूरलंग की वेश्या थी, कोई साधारण नहीं था। ये लोग नींद तोड़ रहे थे। ये अलार्म की तरह थे। तुम वेश्या न थी। उसके द्वार में, दरबार में नाचने आयी थी। कोई जब मजे से सो रहे थे और सुबह का आखिरी सपना देख रहे थे, आठ-दस छोटे-छोटे गांवों में, जो रास्ते में पड़ते थे, आग लगा | तब ये बीच में आ गये और उन्होंने उपद्रव मचा दिया कि जागो! दी गई। गांव में लोग सो रहे थे, उनको पता भी नहीं था, आधी तुम्हारा भाव तो इन दो पंक्तियों में प्रगट हुआ है। रात–ताकि रास्ता रोशन हो जाये। वेश्या उन जलती हुई लाशों न अजा हो, न सहर हो, न गजर हो शबे-वस्ल 327 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 क्या मजा हो जो किसी को न जगाए कोई। जैसे व्यक्ति जितनी देर सोयें, उतना ही उपद्रव कम! आप तो न अजा हो-न तो मस्जिद में कोई अजान पड़े; न सहर सोये ही रहें।' हो-न सुबह हो, न सूरज ऊगे; न गजर हो-न कोई मंदिर में महावीर कहते हैं, धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है; अधार्मिकों घंटियों को बजाये; मिलन की रात! क्या मजा हो जो किसी को का सोना श्रेयस्कर है। क्योंकि अगर अधार्मिक सक्रिय हो उठे, न जगाये कोई! | तो अधर्म ही करेगा। महावीर यह कह रहे हैं कि अधार्मिक का तो सोने में हमारी बड़ी आतुरता है। जिसको हम सुख कहते हैं, शक्तिहीन होना अच्छा है; धार्मिक का शक्तिशाली होना अच्छा अगर तुम गौर से पाओगे तो वह एक मधुर सपना देखने से ज्यादा है। महावीर यह कह रहे हैं, धार्मिक के पास बल हो तो धर्म नहीं है। जिसको हम सुखी जिंदगी कहते हैं, वह ऐसी जिंदगी है, घटेगा; अधार्मिक को पास बल होगा तो अधर्म घटेगा, वह कुछ जिसमें मधुर स्वप्नों का काफी जाल है। जिसको हम दुखद न कुछ उपद्रव करेगा। राजनीतिज्ञ बीमार रहें तो अच्छा है; जिंदगी कहते हैं, वह भी सपनों की ही जिंदगी है; उसमें सपने अस्पतालों में रहें तो अच्छा है। ठीक हुए कि वे कुछ उपद्रव दुख से भरे हैं, नाइटमेयर जैसे हैं। करेंगे। बिना उपद्रव किये वे रह नहीं सकते हैं। उपद्रव के लिए लेकिन सपना तो सपना है। तुम सुखद सपने देखकर भी एक अच्छे-अच्छे नाम देंगे। उपद्रव को सजायेंगे, शंगारेंगे। उपद्रव दिन मर जाओगे तो क्या होगा? को क्रांति, स्वतंत्रता, समानता, साम्यवाद, न मालूम क्या-क्या इसलिए महावीर कहते हैं, अर्थ बाहर नहीं है; अर्थ तो तुम्हारे नाम देंगे। लेकिन बहुत गहरे में उपद्रव की आकांक्षा है। खाली भीतर की ज्योति के प्रज्वलित हो जाने में है। तुम्हारी रोशनी | वे बैठ नहीं सकते। तुम्हारे जीवन को भर दे और सपनों को तितर-बितर कर दे। और महावीर व्यंग्य कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, अधार्मिक सोये तुमने अब तक पूर्व जन्मों में जो अर्जित कर्म किये हैं, जिनके | रहें तो ठीक; धार्मिक जागे। कारण जड़ें मजबूत हो गई हैं सपनों की, जिनके कारण सपने इसलिए महावीर की पूरी प्रक्रिया यह है कि तुम जागो भी, साथ सत्य मालूम होते हैं, जिनके कारण जो नहीं है वह बहुत ही साथ तुम धार्मिक भी होते चलो; धार्मिक होते चलो और साथ वास्तविक मालूम हो रहा है-उनको हिलाओ, प्रकंपित करो! ही साथ जागते भी चलो। अन्यथा शक्ति भी गलत हाथों में उन जड़ों को तोड़ो और उखाड़ो! पड़कर खतरनाक सिद्ध होती है। ऐसा ही तो हुआ है, विज्ञान ने 'धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना शक्ति सोये हुए आदमियों के हाथ में दे दी। ऐसा नहीं है कि श्रेयस्कर है।' बड़ा बहुमूल्य वचन है! महावीर कहते हैं, पहली दफा वैज्ञानिकों को अणु की शक्ति का पता चला है। धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना महावीर भी अणुवादी थे। जैन-दर्शन दुनिया का सबसे प्राचीन श्रेयस्कर है। अणुवादी दर्शन है। आइंस्टीन और रदरफोर्ड ने जो इस सदी में नादिरशाह के जीवन में भी ऐसा उल्लेख है। उसने एक सूफी पाया है, वह जैन कोई पांच हजार साल से कहते रहे हैं कि पदार्थ फकीर को पूछा, क्योंकि वह खुद बहुत आलसी था और सुबह | अणुओं का समूह है, पदार्थ अणुओं से बना है। दस बजे के पहले नहीं उठता था। रात देर तक नाच-गान अणु का सिद्धांत जैनियों का प्राचीनतम सिद्धांत है। और चलता, शराब चलती, तो सुबह दस-बारह बजे उठता। उसने जैसे-जैसे विज्ञान साफ होता जा रहा है, वैसे-वैसे पराने शास्त्रों एक सूफी फकीर को पूछा कि मेरे दरबारी मुझ से कहते हैं कि के अर्थ साफ होते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि अणु-शक्ति को इतना आलस्य ठीक नहीं है, तुम क्या कहते हो? उस सूफी | खोज लिया गया था। संभवतः महाभारत का अंत अणुशक्ति से फकीर ने महावीर का यह वचन दोहराया मालूम होता है; क्योंकि ही हुआ। लेकिन फिर एक बात समझ में पूरब को आ गई कि बिलकुल यही वचन उसने दोहराया। उसने कहा, आप तो अगर | जब तक लोग सोये हुए हैं, इतनी शक्ति उनके हाथ में होना बिलकुल सोयें चौबीस घंटे तो अच्छा है। नादिरशाह थोड़ा खतरनाक है; उसका दुरुपयोग होगा। शक्ति उसके हाथ में होनी चौंका। उसने कहा, 'तुम्हारा मतलब?' उसने कहा, 'आप चाहिए, जिसके भीतर सदभाव पहले आ गया हो तो फिर ठीक 328 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEANIRAM मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो है। नहीं तो शक्ति का तुम करोगे क्या? तुमने लार्ड बेकन का क्योंकि तुम कहोगे, अब सुविधा मिली, अब दौड़-धूप न रही, प्रसिद्ध वचन सुना होगा-पावर करप्ट्स एंड करप्ट्स धन हाथ आ गया-अब घर बैठकर गीत गुनगुना लें। अब तक एब्सोल्यूटली-कि शक्ति जिनके हाथ में है वह लोगों को तो मजदूरी करनी पड़ती थी, गड्ढा खोदना पड़ता था, समय व्यर्थ व्यभिचारित कर देती है और परिपूर्ण रूप से व्यभिचारित कर होता था, शक्ति व्यय होती थी-गीत गाने का अवसर कहां देती है। लेकिन वह वचन सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नहीं है। था! अब गीत गाने का अवसर मिला है। शक्ति किसी को व्यभिचारित नहीं करती। शक्ति केवल तुम्हारे ___ तो धन अगर सम्यक हाथों में पड़े तो शुभ है; असम्यक हाथों भीतर जो व्यभिचार पड़ा था, उसे प्रगट करती है। में पड़ जाए तो अशुभ है। इसलिए तुम मेरी बात खयाल रखना। तुम देखते हो, एक आदमी के पास कुछ भी नहीं है तो वह मैं तुमसे यह नहीं कहता कि धन छोड़ो। धन में क्या रखा है? शराब नहीं पीता; वह शराब के खिलाफ है। फिर कल अचानक तुम्हारे हाथ बदलने चाहिए। तो जो धन को छोड़कर भाग जाते लाटरी हाथ लग जाती है, फिर वह शराब पीने लगता है। अब हैं-तथाकथित त्यागी–वे केवल अवसर को छोड़कर भाग वह भूल जाता है सब शराब की खिलाफत। तो लोगों को ऐसा | रहे हैं; बीज का क्या होगा? बीज तो भीतर है। वह तो साथ ही लगता है कि धन ने इसे भ्रष्ट किया। बात गलत है। धन न होने चला जायेगा। फिर वे धन से डरने लगेंगे, क्योंकि उनको बात से यह अपने को समझाता था, अंगूर खट्टे हैं। पीना भी चाहता समझ में आ जायेगी, तर्क साफ हो जायेगा कि धन हाथ आया तो पीता कहां से? तो नीति के, धर्म के वचन दोहराता था। अब कि उपद्रव शुरू होता है। लेकिन धन कहीं उपद्रव ला सकता जब धन हाथ में आ गया, सब भूल गया। है? चांदी के ठीकरे उपद्रव ला सकते हैं? तब तो चांदी के इस देश में ऐसा हुआ। स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में जो लोग ठीकरे आत्मा से भी ज्यादा बलवान हो गये। चांदी के ठीकरे बड़े त्यागी-तपस्वी मालूम पड़ते थे, वे कोई त्यागी-तपस्वी थे उपद्रव नहीं ला सकते-उपद्रव तुम्हारे भीतर पड़ा है। नहीं। क्योंकि परीक्षा तो तब है जब शक्ति हाथ में आई। जब इसलिए मैं कहता हूं, वास्तविक त्यागी की परीक्षा संसार के शक्ति हाथ में न थी तब तो कोई भी त्यागी-तपस्वी होता है। जब भीतर है, बाहर नहीं। भगोड़े की बात और है, लेकिन वास्तविक शक्ति हाथ में आई, राज्य रूपांतरित हुआ और तथाकथित त्यागी की परीक्षा संसार के भीतर है। वहीं पता चलेगा। जो त्यागी-तपस्वी सत्ताधारी बने, तत्क्षण त्याग-तपश्चर्या सब महल में रहकर फकीर की तरह रह जाये—वहीं पता चलेगा। समाप्त हो गई। लगेगा शायद सत्ता ने उन्हें भ्रष्ट किया। नहीं, जो स्त्री-पुरुषों के बीच रहकर अकेला रह जाये—वहीं पता सत्ता ने केवल अवसर दिया, तो जो भ्रष्ट होने के बीज भीतर पड़े चलेगा। जहां सब साधन थे, लेकिन फिर भी जो अकंपित थे उन पर वर्षा हुई। बीज तो थे ही। क्योंकि तुम्हारा धन तुम्हें रहे—वहीं पता चलेगा। कैसे भ्रष्ट कर सकता है, अगर तुम्ही भ्रष्ट होने को पूर्व से तैयार इसलिए अगर कोई मुझसे पूछे कि त्याग की अगर परम प्रतिमा न थे? तुम सिर्फ धन की प्रतीक्षा कर रहे थे। धन आ गया, | बतानी हो, तो मैं महावीर को न बताऊंगा, मैं कृष्ण को संयोग मिल गया; अब रुकने की कोई जरूरत न रही। अब बताऊंगा। महावीर परम त्यागी हैं, लेकिन परीक्षा की सीमा के रुके, वह बिलकुल पागल है। अब तक रुके थे, वह तो कारण बाहर हैं। परीक्षा कभी भी नहीं हुई। जहां उपद्रव खड़ा होता है, यह था कि अपनी पहुंच के बाहर थे अंगूर। इसलिए कहते थे, वहां से दूर हैं। लेकिन कृष्ण परीक्षा से भी गुजर गये हैं। मैं जनक खट्टे हैं। अब नसेनी हाथ लग गई, अब कौन रुकेगा! अब को बताऊंगा। साम्राज्य है। सारा साम्राज्य का जाल है। और रुकना असंभव है। उसके बीच बाहर हैं। सत्ता हाथ में आते ही लोग भ्रष्ट हो जाते हैं इसलिए नहीं कि तो मैं तुमसे भागने को नहीं कहता। और महावीर का भी वचन सत्ता भ्रष्ट करती है, बल्कि इसलिए कि सत्ता अवसर देती है। तो | तुम ठीक से समझो, तो वे भी जागने को कह रहे हैं, भागने को जो तुम्हारे भीतर छिपा था वह प्रगट हो जाता है। अगर तुम्हारे नहीं कह रहे हैं। हां, यह हो सकता है कि जागकर तुम्हें यहां भीतर काव्य छिपा था, हाथ में सत्ता आते ही काव्य प्रगट होगा। रहना अर्थहीन मालूम पड़े, जैसा कि महावीर को मालूम पड़ा। 329 www.jainelibrar.org Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 जिन सूत्र भाग: 1 और तुम्हारी स्वाभाविक नियति तुम्हें दूर वनों और उपवनों में ले जाये कि पहाड़ों में ले जाये, तो ठीक है। लेकिन, तुम संसार को छोड़कर नहीं जा रहे हो। तुम्हारे छोड़ने में कोई प्रयास नहीं है। तुम सहज अपने स्वभाव के अनुकूल, जो तुम्हें ठीक पड़ रहा है, उस तरफ जा रहे हो। इसमें फर्क है। एक आदमी जो बाजार को छोड़कर भागता है, जो बाजार से डरकर भागता है, उसका अभी बाजार में अर्थ खोया नहीं है। अगर अर्थ खो जाये तो डर कैसा? और एक आदमी, जो बाजार में अर्थ पाता ही नहीं, इसलिए चला जाता है। ये दोनों जाते हुए मालूम पड़ेंगे, लेकिन दोनों के भीतर क्रांतिकारी फर्क है। ऐसा समझो कि एक रस्सी पड़ी है। तुम गुजरे पास से, तुमने सांप समझ लिया और तुम भागे। तुम पूरब की तरफ जा रहे थे, तुम पूरब की तरफ ही भागे, लेकिन घबड़ाकर भागे। क्योंकि सांप में तुम्हें भय मालूम पड़ा । फिर एक और आदमी आ रहा है। उसने भी गौर से देखा और उसे सांप नहीं दिखाई पड़ा, रस्सी ही दिखाई पड़ी। उसको भी पूरब जाना है, वह भी पूरब जा रहा है। लेकिन जो घबड़ाकर भागा है उसमें और जो रस्सी को | देखकर जा रहा है, बुनियादी फर्क है। दोनों एक ही दिशा में जा रहे हैं। लेकिन जो भाग गया है उसके भागने के पीछे अभी अंधकार है, अंधेरा है, अज्ञान है। और जो जागकर जा रहा है, उसके जाने में प्रकाश है, ज्योति है । 'इस जगत में ज्ञान आदि सारभूत अर्थ हैं। जो पुरुष सोते हैं उनका अर्थ खो जाता है। सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो। धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर, अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है। ऐसा भगवान महावीर ने वत्स देश के राजा- शतानीक की बहन जयंति से कहा था।' 'प्रमाद को कर्म (आस्रव) और अप्रमाद को अकर्म (संवर) कहा है। प्रमाद, होने से मनुष्य अज्ञानी होता है; प्रमाद के न होने से ज्ञानी होता है।' तुमने कभी खयाल किया ! बाल तुम्हारे शरीर से जुड़े हैं, काट देते हो; फिर तो तुम्हारे नहीं रह जाते! नाखून काट देते हो, फिर तो तुम्हारे नहीं रह जाते! बच्चा जैसे ही पैदा हो गया, मां की देह के बाहर आ गया - तुम्हारा क्या रह गया ? 'मेरा' - भाव गिर जाये, ममत्व गिर जाये - फिर तुम बच्चों की फिक्र कर देते हो, उनकी साज-संवार कर देते हो; लेकिन इस साज-संवार में अब कोई राग नहीं है। और इस साज संवार के द्वारा तुम अपनी तुम जो भी कर रहे हो, उसका सवाल नहीं है - तुम क्यों कर महत्वाकांक्षाओं को, अपने अहंकार को, अपनी अतृप्त रहे हो, उसका सवाल है। अभीप्साओं को पूरा नहीं करना चाहते। तुम बच्चों को साथ दे यही करना और ढंग से भी किया जा सकता है, जागकर भी देते हो कि ठीक है, संयोग मिल गया, तुम असहाय हो; मुझसे 'प्रमाद को कर्म...' प्रमाद यानी मूर्च्छा । प्रमाद यानी सोया-सोयापन । प्रमाद, जैसे कोई भीतरी नशे में तुम पड़े हो । 'प्रमाद को कर्म कहा है ... ।' ain Education International किया जा सकता है— तब कर्म नहीं होगा । समझो। तुम अपने बच्चों में लिप्त हो, राग में डूबे हो। तुमने बड़ी महत्वाकांक्षाएं बच्चों के कंधों पर रख दी हैं । तुम जो नहीं कर पाये जिंदगी में, चाहते हो तुम्हारे बच्चे कर लेंगे। अगर मां-बाप पढ़े-लिखे हों तो बच्चों को बुरी तरह पढ़ाते-लिखाते हैं। क्योंकि उनकी एक कमी रह गई, वह खलती है। कम से कम अपने में न हो सकी, अपने बच्चों में पूरी हो जाये। जो मां-बाप जिंदगी भर तड़फते रहे, किसी बड़े पद पर न हो सके, वे अपने बच्चों को पहले से ही तैयार करते हैं कि हम तो चूक गये, तुम मत चूक जाना! अब तुम बच्चों को तैयार कर रहे हो जीवन के युद्ध के लिये। यह एक स्थिति है। फिर एक दूसरा आदमी है। उसके भी बच्चे हैं। लेकिन जागा हुआ आदमी है। जागते ही 'मेरे हैं', यह तो खयाल समाप्त हो जाता है; 'बच्चे हैं, यह खयाल रह जाता है। 'मेरे हैं', यह तो प्रमाद का हिस्सा है, मूर्च्छा का हिस्सा है। मेरा क्या है? खाली हाथ हम आते हैं, खाली हाथ हम जाते हैं । और बच्चे मेरे क्या हो सकते हैं? भला मेरे द्वारा आये हों, मैं मार्ग बना होऊं; लेकिन आये तो कहीं अज्ञात से हैं ! मेरे चौराहे से गुजरे होंगे, इससे मेरे नहीं हो जाते। मेरे पास हैं, इससे मेरे नहीं हो जाते। मेरे शरीर का सहारा लेकर बड़े हो रहे हैं, इसलिए मेरे नहीं हो जाते। मेरे जीवाणु के माध्यम से प्रगट हुए हैं, इसलिए भी मेरे नहीं हो जाते। चैतन्य की अपनी यात्रा है। ये जो बच्चे तुम्हारे पास हैं, ये भी अपनी-अपनी यात्रा से आये हैं। इस जीवन में संयोग... .तुमसे गुजरे हैं, तुम्हारे नहीं हैं। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो बन सकता है, मैं कुछ कर देता हूं। लेकिन तुम कहते हो, तुम्हें | भी दौड़ नहीं रुकती! अब उन रुपयों का कुछ भी नहीं कर जो होना हो तुम वही होना; मेरी मत सुनना। मैं तो असफल सकते। अब कुछ भी बचा नहीं है, जो उनसे खरीदा जा सके; हुआ ही हुआ; अब मैं तुम्हें और खराब न कर जाऊंगा। जो भी खरीदा जा सकता था वह सब खरीद लिया, लेकिन फिर एक बात, अगर मां-बाप थोड़े भी जाग्रत हों, तो निश्चित भी दौड़ जारी रहती है। यह कोई विक्षिप्त दौड़ है। यह कोई करेंगे-वे बच्चों को सजग कर देंगे कि हमने तो जिंदगी गंवाई पागलपन है। इस पागलपन से जो मुक्त हो जाता है, उसके कर्म ही गंवाई, तुम मत गंवा देना! कृपा करके हम जैसे तो बनना ही बांधते नहीं। उसके कर्म प्राकृतिक कर्म हो जाते हैं, नैसर्गिक कर्म मत और कुछ भी बन जाना; क्योंकि यह तो हमने होकर देख | हो जाते हैं। लिया। इस होने से तो कुछ भी न पाया। | प्रमाद को इसलिए महावीर कर्म कहते हैं। करने को कर्म नहीं सोया हुआ बाप उलटी कोशिश करता है। वह कहता है, मेरे कहते, करने में जो बेहोशी है उसको कर्म कहते हैं। यह थोड़ा जैसे! बच्चे उससे थोड़े भिन्न होने लगते हैं तो वह नाराज होता सोचने जैसा है। यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। तुम क्या करते हो, है। वे प्रतिकृति होने चाहिए। वे ठीक मेरी प्रतिमा होने चाहिए। यह सवाल नहीं है-तुम होश में रहकर करते हो कि बेहोश 'मेरे' हैं, तो उनके माध्यम से किसी तरह का अमरत्व खोजा रहकर करते हो। यह तो कर्म की बड़ी अनूठी व्याख्या हुई। 5 मैं तो मिट जाऊंगा. लेकिन मेरी प्रतिमाएं छुट | प्रम जायेंगी। कोई सिलसिला मेरा जारी रहेगा। ___ ‘पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवंर।' कर्म तो वही हैं। कबीर भी कपड़ा बुनते हैं, बाजार में बेचने तो जाग जाओ, कर्म तो तब भी जारी रहेगा। आखिर महावीर जाते हैं। गोरा कुम्हार मटकियां बनाता है, बाजार में बेचता है। भी जाग गये, फिर भी तो कोई चालीस साल जीवित रहे, कर्म तो रैदास जिंदगी भर जूते बनाते रहे। लेकिन कुछ फर्क हो गया। किया ही; उठे भी, सोये भी, भोजन भी किया, उपवास भी कबीर अब भी कपड़ा बनाते हैं, लेकिन अब इसमें कोई व्यवसाय | किया, ध्यान भी किया, मौन भी किया, बोले भी, चुप भी नहीं है। अब इससे कुछ धन कमा लेकर धन के ऊपर सांप रहे-सब कर्म चलता रहा। लेकिन यह कर्म अब बांधता नहीं बनकर बैठ जाने की आकांक्षा नहीं है। जरूरी है; रोटी के लिए, है। अब इस कर्म में कोई तंद्रा नहीं है, अब कोई मूर्छा नहीं है। कपड़े के लिए कर लेते हैं। आवश्यक है, कर लेते हैं। इसमें अब यह सोये-सोये नहीं हो रहा है, यह जागकर हो रहा है। अब कोई वासना नहीं है। __ जैसे ही तुम जागते हो, जीवन शुद्ध जरूरतों पर आ जाता है। जरूरत और वासना के भेद को समझना। जरूरतें तो सभी की जो गैर-जरूरी है, उसकी पकड़ नहीं रह जाती। ऐसा समझो कि । जरूरतें तो जीवन का अंग हैं। वासनाएं आज अचानक तम्हें खबर मिले कि पना में भूकंप होने को है और विक्षिप्तताएं हैं। वे कभी पूरी नहीं होती। और उनका जीवन की | तुम्हें थोड़ी-सी ही चीजें बचाकर निकलने का मौका है, और तुम किसी जरूरत से कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी सम्राट होना सारा घर का सामान इकट्ठा कर लो, और सोचो कि क्या बचायें चाहता है, इसका जीवन की जरूरत से क्या संबंध है? हां, और क्या छोड़ें। तुम चकित होओगे यह जानकर और यह भूखा रोटी मांगता है, यह समझ में आता है। नंगा कपड़ा चाहता विचार तुम्हारे मन में जरूर आयेगा कि यह इतना व्यर्थ का है, यह समझ में आता है। लेकिन कोई आदमी सम्राट होना सामान इकट्ठा क्यों किया। इसमें बहुत थोड़ा ही काम का होगा चाहता है। अब यह सम्राट होने से किसी भी जरूरत का कोई जो तुम ले जा सकोगे। और जब तुम चुनने लगोगे, तुम्हें खुद ही संबंध नहीं है। समझ में आयेगा, दस में से नौ चीजें तुम खुद ही छोड़े दे रहे हो। तुम्हें प्यास लगी है. पानी चाहिए। तुम धप में खड़े हो, छप्पर | लेकिन इनको इकट्ठा करने में बड़ा समय व्यतीत किया। इनको चाहिए-समझ में आता है। लेकिन धन का एक ढेर इकट्ठा करने में पागल की तरह दौड़े। इनको इकट्ठा करने में लगा-लगाकर तुम उस धन के ढेर पर बैठे रहो, यह बात रुग्ण जीवन की बड़ी संपदा खोयी और कूड़ा-कर्कट इकट्ठा किया। है, यह विक्षिप्त है। अरबों रुपये हो जाते हैं लोगों के पास, तब इसको ले जाने के क्षण में, तुम खुद ही सोचोगे कि इसमें 3311 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः । बहुत-सा तो ऐसा है जो ले जाने योग्य नहीं है। हड़बड़ाहट पैदा होती थी। ऐस्कीमों की जीवन-व्यवस्था में एक प्रक्रिया है, बड़ी बहुमूल्य तुम साइकिल चलाते हो, लेकिन शायद ही तुम किसी है! काश, सारी दुनिया में कभी हो जाये तो बड़े काम की हो! साइकिल चलानेवाले को ठीक चलाते देखो, क्योंकि अगर ठीक ऐस्कीमों, जैसे यहां वर्ष में दीवाली आती है, ऐसा उनका एक कोई चला रहा हो तो पैर के पंजे पर जोर देना काफी है। पूरे शरीर दिन आता है— उत्सव का दिन। उस दिन उनके पास जो भी हो, को तनाव देने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन साइकिल क्या जो व्यर्थ होता है, वह बांट देते हैं। इसका बड़ा परिणाम होता | चला रहे हैं, पूरा शरीर तना हुआ है। फिर थक जाते हैं। फिर है। घर खाली, शुद्ध, साफ हो जाते हैं। और इसका दूसरा | ऊब जाते हैं। परिणाम यह होता है कि जब सालभर बाद व्यर्थ को बांट ही देना | जिंदगी में जरा गौर करो! जो काम जितने से हो सकता हो है तो वे व्यर्थ को इकट्ठा भी नहीं करते; क्योंकि वह फिजूल है, उतना तो जरूरी है; उससे रत्तीभर भी ज्यादा डालना मूर्छा के वह सालभर बाद बंट जाना है। उसके लिए दौड़-धूप कौन करे! | कारण हो रहा होगा। वह साइकिल सवार जानता ही नहीं कि तो एस्कीमों का घर अत्यंत जरूरत, अत्यंत आवश्यक पर क्या कर रहा है। उसे याद ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जो निर्भर है। और तुम ऐस्कीमों को जितना संतोषी पाओगे, किसी काम रत्तीभर से हो सकता था, जो सई से हो सकता था, वहां को न पाओगे। पर मौत के दिन तो सभी कुछ छूट जाना है; तलवार लिए बैठे हो। खुद को लहूलुहान कर लिया है, दूसरों थोड़ा भी न ले जा सकोगे। अगर थोड़ा मौत का स्मरण बना रहे को लहूलुहान कर रहे हो। और सुई तो सी देती कपड़े को, तो तुम व्यर्थ की दौड़-धूप छोड़ दोगे।। तलवार और फाड़ देती है। जो काम सुई से होता है वह तलवार तुम अपने सौ कर्मों को जरा गौर से देखना; उसमें से नब्बे तो से हो नहीं सकता। चुपचाप गिराये जा सकते हैं, जिनके लिए कोई कारण नहीं है। सम्यक जीवन चाहिए! दो छोटे बच्चे बात कर रहे थे। एक बच्चा कह रहा था कि मेरी महावीर कहते हैं, 'प्रमाद को कर्म, अप्रमाद को अकर्म कहा मा अदभुत है! वह किसी भी विषय पर घंटों बोल सकती है। है। प्रमाद के होने से मनुष्य अज्ञानी होता है। और प्रमाद के न दूसरा बोला, यह कुछ भी नहीं है। मेरी मां बिना विषय के घंटों | होने से मनुष्य ज्ञानी हो जाता है।' सम्हालो थोड़ा। जीवन की क्या, दिनों बोल सकती है। विषय के घंटों क्या, विषय की कोई | गंध को व्यर्थ गंवाए दे रहे हो। जरूरत ही नहीं है। कहीं की रहेगी न आवारा हो कर __ तुम जरा खयाल रखना, तुम जितना बोल रहे हो, उसमें से | यह खुशबू जो फूलों ने कांटों पे तौली। कितना जरूरी था, कितना तुम छोड़ सकते थे। तुम जो कर रहे | बड़ी मुश्किल से खुशबू आती है। बड़ी मुश्किल से! बड़ी हो, उसमें से कितना जरूरी था, कितना छोड़ा जा सकता था! जद्दोजहद से! जरा देखो तो बीज से लेकर फूल तक की यात्रा, धीरे-धीरे अपने जीवन को व्यवस्था दो! होश लाओ! जहां कितनी कठिन है ! करीब-करीब असंभव है। चलकर पहुंचा जा सकता है, वहां दौड़कर क्यों पहुंच रहे हो? कितनी अड़चनें हैं। कितने अवरोध हैं। पहले तो बीज टूटे न मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तो मैंने देखा कि परीक्षा में टूटे; टूट जाये तो ठीक भूमि मिले न मिले; ठीक भूमि भी मिल से हैं, लेकिन पूरा शरीर खिंचा है। तो मैं | जाये तो कोई पानी दे न दे, कोई पानी भी दे, सूरज की रोशनी पड़े उनसे कहता कि जब तुम हाथ से लिख रहे हो तो दो अंगुलियों पर न पड़े; कोई बच्चा उखाड़ दे पौधे को; कोई जानवर खा जाये या जोर पड़े, यह तो समझ में आता है; लेकिन यह पूरा शरीर अंगूठे कोई कुत्ता अपना पेशाब-घर बना ले! करोगे क्या? हजार से लेकर सिर तक तुम तने हुए क्यों हो? किन्हीं-किन्हीं बाधाएं हैं! तब कहीं वृक्ष खड़ा हो पाता। तब कहीं फूल आते। विद्यार्थियों को बात समझ में आई और वे शरीर को शिथिल कांटों पर तौल-तौलकर गंध पैदा करनी पड़ती है। छोड़कर लिखे। और बाद में उन्होंने मुझे कहा, यह आश्चर्य की कहीं की रहेगी न आवारा हो कर बात है! हम नाहक शक्ति खो रहे थे और उसकी वजह से यह खुशबू जो फूलों ने कांटों पे तौली। 332 Main Education International Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो -और फिर होता क्या है परिणाम? सिर्फ आवारा होकर | झंझटें खड़ी हो जाती थीं। भटक जाती है। तुम जरा सोचो! तुम्हारी जिंदगी की कितनी झंझटें तुम्हारे मनुष्य होना बड़ी लंबी यात्रा है। इस देश में हम कहते रहे हैं, | बोलने के कारण खड़ी हो गई हैं! घर आये, कुछ बोल दिए पत्नी चौरासी करोड़ योनियां! अनंत-अनंत काल, यात्रा करते-करते, | से। तब खयाल में नहीं था कि यह बोलने का क्या परिणाम निखारते-निखारते यह फूल खिला है, जो मनुष्य है, जिसको हम होगा। जब बोला था तो कोई भाव भी न था बुरा; लेकिन बोले, मनुष्य कहते हैं। यह मनुष्यता का फूल खिला है। और अब तुम फंसे। तुम भी बेहोश हो। तुम बेहोशी में बोल गये। पत्नी ने कर क्या रहे हो? यह गंध आवारा हुई जा रही है। यह ऐसे ही बेहोशी में सुना। उसने कुछ का कुछ सुना। लड़ने-झगड़ने पर व्यर्थ भटकी जा रही है और खोई जा रही है। इतने श्रम से जिसे खड़ी हो गई। अब तुम लाख समझाते हो कि यह मेरा मतलब न पाया है, उसे तुम ऐसे चुपचाप बेहोशी में गंवाए दे रहे हो। था, इससे क्या होता है? अब मतलब न था, यह समझाने के 'अज्ञानी साधक कर्म-प्रवृत्ति के द्वारा कर्म का क्षय होना मानते | लिए तुम कुछ बोल रहे हो, उसमें से भी पत्नी कुछ पकड़ेगी। हैं: किंतु वे कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नहीं कर सकते। धीर पुरुष अब यह सिलसिला कहां अंत होगा? अकर्म...(संवर या निवृत्ति) के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं। थोड़ा सोचो, तुम्हारी जिंदगी की कितनी विपदाएं कम न हो मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा संतोषी होकर पाप जायें, अगर तुम थोड़े चुप रहो! सोच के बोलो! अत्यंत. जरूरी नहीं करते।' हो तो बोलो। जैसे एक-एक शब्द के लिए मूल्य चुकाना पड़ेगा, 'अज्ञानी साधक कर्मप्रवृत्ति के द्वारा ही कर्म का क्षय सोचते इस तरह बोलो। तुम न केवल यह पाओगे कि तुम्हारे बोलने में हैं...।' वे सोचते हैं, कर्म को काटना है तो और कर्म करो। बल आ गया, तुम यह भी पाओगे कि तुम्हारे बोलने के कारण ज्ञानी साधक कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नहीं मानते। अड़चनें कम हो गईं; न तुम अपने लिए पैदा करते हो, न औरों के 'अकर्म के द्वारा...' अकर्म का क्या अर्थ है? पहला—जो लिए अड़चनें पैदा करते हो। और तुम्हारे जीवन में एक प्रसाद व्यर्थ कर्म हैं उन्हें जाने दो। त्याग करने को नहीं कह रहा अभिव्यक्त होना शुरू हो जायेगा। क्योंकि जो चुप रहता है, हूँ-बोध से समझो कि व्यर्थ हैं, वे अपने से गिर जायेंगे, चले उसके पास ऊर्जा इकट्ठी होती है। बोल-बोलकर तुम उसे चुकता जायेंगे, विदा हो जायेंगे। तुम्हारा लगाव टूट जायेगा। थोड़ा | कर लेते हो। जागकर अपने जीवन-चर्या को गौर से देखते रहो: सुबह से रात | अकर्म की तरफ पहला कदम है : व्यर्थ कर्म के प्रति जागो। तक क्या कर रहे हो? उसमें क्या-क्या व्यर्थ है? तो पहले व्यर्थ | फिर, जो सार्थक बच रहे—बचेगा, कुछ तो बचेगा; क्योंकि को जाने दो। यह पहला कदम होगा कि धीरे-धीरे तुम व्यर्थ को | जब तक जीवन है, कुछ कर्म रहेगा, जीवन कर्म है—फिर जो हटा दो। और तुम नब्बे प्रतिशत व्यर्थ पाओगे। यह मैं सार्थक बचे, उसके प्रति साक्षी-भाव रखकर करो, कर्ता रहकर अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। निन्यानबे प्रतिशत पाओगे। नब्बे मत करो। ऐसे करो जैसे तुम करनेवाले नहीं हो। भूख लगी है प्रतिशत कह रहा हूं, ताकि तुम एकदम से घबड़ा न जाओ। शरीर को, तुम आयोजन कर देते हो; लेकिन तुम भूख से भी दूर एक मित्र को मैंने कहा कि तम दिन में इस तरह बोलो, जैसे कि हो, आयोजन से भी दूर हो। न तो भूख तुम्हें लगी है और न हर शब्द के लिए मूल्य चुकाना है; जैसे टेलीग्राम कर रहे हो; आयोजन तुम करते हो। तुम अकर्ता-भाव में डूबे रहते हो। तुम | जैसे एक-एक शब्द के लिए मूल्य चुकाना पड़ेगा। उन्होंने कुछ कहते हो, साक्षी हूं, देखता हूं। शरीर को भूख लगती है, रोटी दिन प्रयोग किया और मुझे आकर कहा, यह बड़ी हैरानी की बात जुटा देता हूं। प्यास लगती है, सरोवर के पास चला जाता हूं। है। तब तो दस-बीस शब्दों से ही दिन में काम हो जाता है। जहां | | लेकिन तुम अब फर्ता नहीं हो। 'हां' और 'ना' कहने से भी काम हो जाता है, वहां पहले मैं यह जो कर्ता-भाव का चला जाना है और साक्षी-भाव से, कितना बोले जा रहा था! और इसके बड़े लाभ हुए, उन्होंने जागकर, अप्रमाद से कर्म को करना है-उसको महावीर अकर्म कहा। क्योंकि कुछ गलत बोलकर, कुछ व्यर्थ बोलकर हजार कहते हैं। अकर्म का मतलब तुम यह मत समझना कि कुछ न 333 : Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 जिन सूत्र भाग: 1 करना; जैसा कि जैन मुनियों ने समझ लिया है। अकर्म का अर्थ यह नहीं है कि तुम बस बैठ गये। क्योंकि तुम्हारे बैठने से भी क्या होगा ? एक संन्यासी मुझे मिलने आये । काश्मीर में एक शिविर मैंने लिया था। उसके पहले ही वे मुझसे मिलने आये थे, तो मैंने उनसे कहा कि अच्छा हो काश्मीर आ जायें। उन्होंने कहा, यह जरा मुश्किल है। चलो, मैंने कहा, जाने दो। बंबई में जहां मैं था, जहां वे मिलने आये थे, मैंने कहा, कल सुबह फलां-फलां जगह, कुछ मित्र ध्यान करने को इकट्ठे हो रहे हैं, वहां आ जाओ। उसने कहा, यह भी बड़ा मुश्किल है। मैंने कहा, मुश्किल क्या है? मैं समझू । तो उन्होंने कहा, मुश्किल यह है— उनके साथ एक सज्जन और थे कि मैं पैसा खुद नहीं रखता; पैसे को छूने का मैंने त्याग कर दिया है। तो टैक्सी में बैठना पड़े, तो पैसे की तो जरूरत पड़ेगी। ट्रेन में बैठना पड़े तो पैसे की जरूरत पड़ेगी । तो ये सज्जन को साथ रखना पड़ता है। जहां इनको सुविधा हो, वहीं मैं आ सकता हूं। और कल इनको सुविधा नहीं है। तो मैंने कहा, यह भी बड़ा मजा हुआ। पैसा तुम इनकी जेब में रखे हुए हो...। यह तो उलझाव और बढ़ गया। तुम समझ रहे हो, तुम पैसा नहीं छूते । तुम सोच रहे हो, तुम पैसे से मुक्त हो गये। तुम पैसे से मुक्त नहीं हुए, इस आदमी से और बंध गये। इससे तो पैसा ही ठीक था, अपने ही खीसे में रख लेते, अपने ही हाथ से निकाल लेते। इसके हाथ से निकलवाया। काम तो तुम्हारा ही होना है। बिना पैसे के भी नहीं होता, यह भी तुम्हें पता है । तो यह किसको धोखा दे रहे हो तुम ? यह तुम्हारे हाथ में ऐसी कौन-सी खराबी है या तुम्हारे हाथ ऐसा कौन-सा गुण है, जिसके कारण अपने हाथ को बचा रहे हो, इसका हाथ डलवा रहे हो? तुम अगर पाप कर रहे हो तो कम से कम अकेले ही कर रहे थे; अब तुम इससे भी करवा रहे हो। तुम पर दोहरा जुर्म होगा। तुम फंसोगे बुरी तरह । तुम यह मत सोचो कि तुम त्यागी हो । अब जैन मुनि है। बैठ गया है दूर सिकुड़कर। वह कहता है, हम कुछ नहीं करते। लेकिन कोई उसके लिए रोटी कमायेगा । कोई उसके लिए वस्त्र कमायेगा । जो बड़े जैन मुनि हैं, उनको लोग बुलाने में गांव में डरते हैं; क्योंकि उनका गांव में आने का मतलब है: सारे श्रावकों की मुसीबत। भारी खर्च का मामला है। तो बड़े मुनियों को छोटे गांव तो बुला ही नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि उतना खर्च कौन उठायेगा ? अब यह थोड़ा सोचना! अगर तुम खाली बैठ गये तो तुम्हारी जरूरतें कोई और पूरी करेगा। लेकिन जब तक जरूरतें हैं—और तब तक जरूरतें है जब तक जीवन है— तो कर्म तो जारी रहेगा। यह कर्म दूसरे के कंधे पर रख देने से, यह दूसरे के कंधे पर रखकर गोली चलाने से तुम बचोगे न। इसमें तुम पर दोहरा पाप लग रहा है। तुम जो कर रहे हो वह तो कर ही रहे हो और इस आदमी के कंधे पर रख रहे हो। इस आदमी को भी तुम साधन बना रहे हो। यह भी गलत है। जो करना है जरूरी, वह करना। फिर साक्षी भाव रखना । शरीर की जरूरत पूरी कर देनी है। जरूरत से ज्यादा की आकांक्षा नहीं करनी है। मूल जरूरत पर रुक जाना है। और जो भी हो रहा है, उसके प्रति साक्षी भाव रखना है। 'धीर पुरुष अकर्म के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं। मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा संतोषी होकर पाप नहीं करते।' मेधावी ! महावीर उन्हीं को मेधावी कहते हैं, इंटेलीजेंट, जो साक्षी होने में समर्थ हैं । और मेधा मेधा नहीं। जिसको तुम मेधावी कहते हो, वह तुम जैसा ही है - मूच्छित । हो सकता है, किसी दिशा में कुशल है। कोई तकनीक उसने सीख लिया है। तुम कहते हो, कोई चित्रकार है बड़ा मेधावी; क्योंकि तुम जैसा चित्र बनाते हो, उससे बहुत अच्छा चित्र बनाता है। लेकिन जीवन का चित्र तो तुम जैसा बना रहे हो, वैसा ही वह भी बना रहा है। तुम कहते हो, कोई कवि है, बड़ा मेधावी । क्योंकि जो तुम नहीं कह सकते, जो तुम नहीं गा सकते, वह गा देता है। ठीक है। लेकिन जीवन का अंतिम चित्र तो तुम्हारे जैसा ही वह बना रहा है। उसमें कोई फर्क नहीं है। क्रोध तुम्हें है, उसे है । लोभ तुम्हें है, उसे है। मत्सर तुम्हें घेरता है, उसे घेरता है। महावीर कहते हैं, जिसने जीवन के चित्र को और जीवन के गीत को सम्हाल लिया, जिसने वहां बुद्धिमत्ता का उपयोग कर लिया, वही मेधावी है; बाकी सब मेधा तो कहने की मेधा है। लज्जते-दर्द के ऐवज दौलते-दो जहां न लूं दिल का सकून और है, दौलते-दो जहां है और 7 सारे संसार की संपत्ति भी मिलती हो उस आदमी को जिसने Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यो, सतत जाग्रत रहो . थोड़े मन की शांति जानी, तो वह लेने को राजी न होगा। दो तुम्हारा स्वरूप है, उसकी झलक कभी-कभी मिल ही जाती है। लोकों की भी संपत्ति मिलती हो..। कितने ही आकाश में बादल घिरे, आकाश कभी न कभी दो लज्जते-दर्द के ऐवज दौलते-दो जहां न लूं।। बादलों के बीच से दिखाई पड़ ही जाता है। यह जो सत्य की खोज में पीड़ा उठानी पड़ती है, इस पीड़ा के तो खयाल रखना, तुम भी कभी-कभी जागते हो; हालांकि बदले भी अगर दुनिया की सारी संपत्ति मिलती हो, दोनों दुनिया तुम उसका कोई हिसाब नहीं रखते, क्योंकि तुम प्रत्यभिज्ञा नहीं की मिलती हो, तो भी न लूं। | कर पाते कि यह क्या है। तुम उसे कुछ और-और नाम दे देते दिल का सकन और है, दौलते-दो जहां है और। वह दिल की हो। कभी ऐसा होता है कि अचानक खड़े हो तुम, सुबह का शांति कुछ बात और है। वह कुछ संपदा और है। एक बार सूरज ऊगा, पक्षियों ने गीत गाया-और एक बड़ी गहरी शांति जिसके मन में उसकी भनक पड़ गई, फिर सब फीका हो जाता और सुकून तुम्हें मिला! तुम सोचते हो शायद सुबह के सौंदर्य के है। मेधावी पुरुष लोभ के कारण धर्म नहीं करता। कोई स्वर्ग | कारण, सूरज के कारण, पक्षियों के गीत के कारण। नहीं। पाने के लिए धर्म नहीं करता, न भय के कारण, नर्क से बचने के यद्यपि पक्षियों के गीत, सुबह के सूरज और खुले आकाश ने | लिए धर्म नहीं करता। मेधावी पुरुष तो पाता है कि वातावरण दिया, उस वातावरण में क्षणभर को तुम अवाक रह जितना-जितना जागरण आता है, उतना-उतना आनंद आता है। गये, क्षणभर को विचारधारा बंद हो गई, क्षणभर को बादल जागरण में ही छिपा है आनंद। आनंद जागरण का फल नहीं है; यहां-वहां न हिले, बीच में से थोड़ा-सा आकाश, भीतर का आनंद जागरण का स्वभाव है। ऐसा नहीं है कि पहले जागरण | आकाश दिखाई पड़ गया। मिलता है, फिर आनंद मिलता है—जागरण में ही मिल जाता | कभी किसी के प्रेम में मन शांत हो गया। कभी संगीत सुनते है। इधर तुम जागते चले जाते हो, उधर आनंद की नई-नई समय। कोई कुशल वीणा-वादक वीणा बजाता हो और उसके पुलक, नई-नई किरण, नया-नया नृत्य भीतर होने लगता है। तार बाहर कंपते रहे और भीतर, तुम्हारे भीतर भी कुछ कंपा; इस अहद में कमयाबिए-इन्सां है कुछ ऐसी वीणा बंद हुई, तुम्हारे भीतर भी कुछ क्षणभर को बंद हो गया। लाखों में बामुश्किल कोई इन्सां नज़र आया। एक गहन शांति तुम्हें अनुभव हुई। लाखों लोग हैं, आदमी कहां! लाखों आदमियों में कभी। लेकिन तुम सोचोगे, शायद यह वीणा-वादक की कुशलता के एक-आध आदमी नजर आता है। क्योंकि आदमी का जो कारण है। यद्यपि उसने निमित्त का काम किया, लेकिन वस्तुतः बुनियादी लक्षण है, जागरण, वह दिखाई नहीं पड़ता। पशु हैं, घटना तुम्हारे भीतर घटी। उन्हें भी भूख लगती है तो खोजते हैं; कामवासना जगती है तो | ऐसे जीवन में तुम्हें कई बार क्षण मिलते हैं; लेकिन तुम उनके कामवासना की तृप्ति करते हैं। पशुओं को भी लोभ दे दो तो | कारण गलत समझ लेते हो। राजी हो जाते हैं, भय दे दो तो राजी हो जाते हैं। कुत्ते को | जब भी तुम्हें शांति मिलती है तो भीतर कुछ प्रकाश पैदा होता मारो-पीटो तो जैसा करतब करना हो, कर देगा। लोभ दो, रोटी है, उसके कारण ही मिलती है। एक बार यह समझ में आ जाये के टुकड़े डालो, तो तुम्हारे पीछे जी-हजूरी करता फिरेगा। अगर तो फिर तुम बाहर के कारणों को नहीं जुटाते; फिर तुम भीतर की मनुष्य भी ऐसे ही लोभ और भय के बीच ही आंदोलित हो रहा ही जागृति को सम्हालने में लग जाते हो। है, तो फिर मनुष्य और पशु में भेद क्या है? ऐ काश हो यह जज्बए-तामीर मुस्तकिल मनुष्यता उसी दिन प्रारंभ होती है जिस दिन तुम्हारी वृत्तियों से चौंके तो हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां से हम। पीछे एक जागरण का स्वर, एक जागरण का स्रोत पैदा होता है। काश! निर्माण का यह अवसर थोड़ा स्थायी हो जाये। गहरी जागते ही तुम मनुष्य बनते हो, उसके पहले नहीं। और ऐसा भी नींद से चौंके तो हैं, लेकिन फिर कहीं हम नींद में न खो जायें। नहीं है कि कभी-कभी तुम न जागते होओ। ऐसा भी नहीं है कि ऐसा रोज होता है। तुम्हारी नींद भी टूटती है, लेकिन फिर तुम जागने के क्षण कभी-कभी अचानक न आ जाते हों। क्योंकि जो | नींद में खो जाते हो। 335 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E जिन सूत्र भागः1 ऐ काश हो यह जज्बए-तामीर मुस्तकिल साथ चाहिए। शास्त्र से यह न हो सकेगा। किसी जागे हुए का चौंके तो हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां से हम। साथ चाहिए! तुम सोये हो तो कोई जागा हुआ ही तुम्हें जगा हो सकती है। यह निर्माण की क्षणभर को आई हुई दशा स्थायी सकता है। शास्त्र को तुम रखे रहो, तुम उसका तकिया बना हो सकती है। | लोगे। शास्त्र क्या करेगा, अगर तुम तकिया बना लोगे? तुम लेकिन तुम्हें स्थायी करनी पड़े। इसे दोहराना पड़े। इसे उस पर ही सिर टेककर और आराम से सो जाओगे, शास्त्र क्या बार-बार आमंत्रित करना पड़े। जब भी समय मिले, अवसर करेगा? कोई तीर्थंकर चाहिए! मिले, फिर-फिर इस भाव-दशा को जगाना पड़े-ताकि इससे महावीर कहते हैं: वही है आचार्य जो जागा हुआ है, जिसका पहचान होने लगे; ताकि इससे संबंध जुड़ने लगे; ताकि आचरण जागृति से निष्पन्न है। जैसे एक दीये से और दीप जल धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर यह प्रकाश का स्तंभ खड़ा हो जाये। जाते हैं, सैकड़ों दीप जल जाते हैं; फिर भी जो दीप जल रहा था, 'मनुष्यो सतत जागते रहो। जो जागता है, उसकी बुद्धि बढ़ती वह तो दीप्त ही रहता है, उसका कुछ खोता थोड़े ही है। यही तो है। जो सोता है, वह धन्य नहीं है। धन्य वही है, जो सदा जागता आध्यात्मिक संपदा की महिमा है। बांटो, बंटती नहीं। दिए चले जाओ, चुकती नहीं। जीवन की और सभी संपदाएं बांटने से कम जागरह नरा! णिच्चं जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धी। होती चली जाती हैं। इसलिए जीवन की और सभी संपदाएं जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो।। आदमी को कंजूस बनाती हैं, कृपण बनाती हैं। सिर्फ जो जागता है वह धन्य है। मनुष्यो, सतत जागते रहो। जो | आध्यात्मिक संपदा ऐसी संपदा है कि बांटो, बंटती नहीं। एक जागेगा उसकी मेधा बढ़ती है। जो सोता है उसकी मेधा सो जाती दीये से जलाये जाओ हजार दीये, कुछ ऐसा नहीं कि पहले दीये है। जो जागता है उसका भाग्य भी जागता है। जो सोता है उसका | की जिससे ज्योति जलाई थी, अब ज्योति कम हो गई। ज्योति का भाग्य भी सो जाता है। जागरण की पराकाष्ठा ही भगवत्ता है। दान तुम्हें कम नहीं करता। ज्योति का दान एक ज्योतिर्मय संघ इसलिए मैंने कहा, भगवान का अर्थ है : जिसका भाग्य पूरा जाग का निर्माण करता है। गया; जिसने अपने भीतर कोई कोना-किनारा सोया हुआ न ऐसे महावीर ने हजारों दीये जलाये; जिन-संघ का निर्माण छोड़ा, जिसने अंधेरे की कोई जगह न छोड़ी। हुआ। ऐसे बुद्ध ने हजारों दीये जलाये; बुद्ध-संघ का निर्माण उठ कि खुर्शीद का सामाने-सफर ताजा करें हुआ। लेकिन फिर धीरे-धीरे जब जीवित पुरुष खो जाता है, नफसे-सोख्त-ए-शाम औ सहर ताजा करें! वचन शास्त्र में संगृहीत हो जाते हैं, लोग शास्त्रों का तकिया बना उठ कि खुर्शीद का सामाने-सफर ताजा करें लेते हैं। उठो कि सूरज की यात्रा पर चलें! यह सूरज कोई बाहर का पड़ा था सूना सितार दिल का, हुई अचानक यह जाग तुमसे सूरज नहीं-यह भीतर के जागरण का सूरज है। जो जिंदगी रोग बन चुकी थी, बन गई है आज राग तुमसे। 'जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं, और वह स्वयं भी हजारों लोगों ने महावीर के पास ऐसा अनुभव किया। दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं जो जिंदगी रोग बन चुकी थी, बन गई है आज राग तुमसे प्रकाशवान रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।' पड़ा था सूना सितार दिल का, हुई अचानक यह जाग तुमसे। _ 'जह दीवा दीवसयं'-जैसे दीये से दीया जल जाता है, दीप ध्यान रखना, एक बड़ा गहरा सिद्धांत इस सदी में कार्ल से दीप जले, ऐसे किसी जाग्रत पुरुष को खोजो, जिसके पास गुस्ताव जुंग ने खोजा। उसे उसने सिनक्रानिसिटी कहा है। तुम्हारे भीतर भी जागरण की आकांक्षा जगे; जिसके पास तुम्हारे | कठिन है उसका अनुवाद। अर्थ यह है कि अगर एक व्यक्ति के भीतर भी जागने की परम वासना जगे; जिसके पास तुम्हारे भीतर भीतर कोई घटना घटे, एक व्यक्ति की वीणा बजे, तो उसके पास भी संक्रामक हो जाये और तुम भी सोचने लगो, विचारने लगो, जो भी आयेगा, उसकी वीणा पर भी वैसी ही झनक शुरू हो प्रयास करने लगोः 'कैसे नींद को तोड़ें!' किसी जागे हुए का जायेगी। उसे भी याद आ जायेगी किसी सोये हुए राग की। उसे 336 ! Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RABELLER HINTUN मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो म भी अपना स्मरण आना शुरू होगा। इसमें कार्य-कारण का लगी। कुछ पक्षियों के कंठों में कोई प्यास जग उठती है, कोई सिद्धांत नहीं है। ऐसा नहीं है कि महावीर की मौजूदगी के कारण गीत अपने से फूटने लगता है! तुम जागते हो। जागरण तो तुम्हारा स्वभाव है; महावीर की सूरज की मौजूदगी...ऐसी तीर्थंकर की मौजूदगी; ऐसे अवतार मौजूदगी के कारण भूला हुआ, बिसरा हआ याद आ जाता है। की मौजूदगी, मसीहा की मौजूदगी, पैगंबर की मौजूदगी: ऐसे जो होता है, वह तो तुम्हारे भीतर ही होता है, वह महावीर के बिना किसी व्यक्ति की मौजूदगी जिसका दीया जल रहा है अकंपित। भी हो सकता था; लेकिन महावीर की मौजूदगी में सरलता से हो ऐसा क्षण अगर कहीं मिलता हो तो उसे चूक मत जाना। तुम्हारा जायेगा। जैसे एक दीया जला हो और दूसरा दीया जले हुए दीये | मन हजार तरकीबें खोजेगा चूकने की। इसी मन के कारण तो तुम को देखकर इस स्मरण से भर जाये कि मैं भी दीया हूं, मैं भी जल महावीर को भी चूके, बुद्ध को भी चूके, कृष्ण को भी, क्राइस्ट सकता हूं। जैसे एक बीज फूटा हो और दूसरे बीज के भीतर भी को भी। तुम चूकते ही चले गये हो। चूकने की तुम्हारी आदत अकुलाहट पैदा हो जाये कि मैं भी फूट सकता हूं। बन गई है। सब दांव पर लगा देना अगर कभी तुम्हें, कहीं भी इसलिए सत्संग का पूरब में बड़ा मूल्य रहा है। सत्संग | किसी के सान्निध्य में ऐसा लगे की यहां दीया जला है, तब सब कीमिया है, रसायन, अल्केमी। सत्संग का अर्थ है किसी ऐसे दांव पर लगा देना। यह जुआरियों का काम है। यह अंधेरे में आदमी के पास होना, किसी ऐसे आदमी की उपस्थिति में होना, उतरना है। साहस और श्रद्धा! लेकिन दांव पर लगा देना। जो जागा है। तो धीरे-धीरे बिना कुछ किये तुम्हारे भीतर भी कोई | क्यों? क्योंकि अगर खोया तो क्या खोयेगा? तुम्हारे पास नया राग उठने लगेगा। तुम अचानक पाओगे, कोई नींद टूटने कुछ है ही नहीं खोने को। अगर मिल गया तो सब मिल लगी, कोई पर्ते हिलने लगीं। जायेगा। अगर खोया तो कुछ भी खोया नहीं। लेकिन तुम्हारे मरहबा ऐ जज्बए-खुद ऐतबादी मरहबा पास जो है, तुम उसे अभी बहुत कुछ समझते हो। वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी। मैंने सुना है, शिवपुरी के पास एक विराट कवि सम्मेलन का किसी ऐसे व्यक्ति के पास तुम्हारे भीतर पड़ा हुआ आयोजन हो रहा था। कुछ कवि एक कार में बैठकर वहां जा रहे आत्मविश्वास जिसे तुम भूल गये हो, जग आयेगा। शाबाश! | आत्मविश्वास की दृढ़ता, शाबाश! कवियों में से बोला एक, 'भैया! तुम्हारे गांव जा रहे हैं, कवि मरहबा ऐ जज्बए-खुद ऐतबादी मरहबा! सम्मेलन में भाग लेने। हमारे पास धरा क्या है? कुछ कविताएं शाबाश! तुम अपने भीतर ही अनुभव करोगे, कुछ सोया ही सुना सकते हैं। तो सुन लो।' डाकुओं ने उन्हें ग्यारह रुपये जगने लगा। तुम अपनी ही पीठ थप थपाओगे। दिये और कहा, 'महाराज! कविता आप गांव में ही सुनाना और वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी। जरा देर तक सुनाना तो ठीक रहेगा। हमें अभी दुनिया में और भी और जरा-सा तुम्हारे भीतर तूफान हिल जाये कि नाव जो पड़ी काम करने हैं। है जन्मों-जन्मों से किनारे वह रवाना हो जाये, किश्ती चल पड़े। महावीर अगर तुम्हारे द्वार पर आकर तुम्हें गीत भी सुनाने को सत्संग में गुरु कुछ करता नहीं, सिर्फ उसकी मौजूदगी...। राजी हो जायें तो भी तुम कहोगे, ‘महाराज! किसी और को मौजूदगी भी कुछ करती नहीं-मौजूदगी से कुछ होता है। सूरज खोज लो, अभी हमें दुनिया में बहुत और काम करने हैं। ये कुछ एक-एक फूल को पकड़कर खोलता थोड़े ही है; ऊगा ग्यारह रुपये दक्षिणा ले लो हमें छोड़ने की। यह कविता कहीं इधर, फूल खिलने लगे। और सुना देना।' वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी। महावीर के चरणों में तुमने फूल चढ़ाये—वे ग्यारह रुपये हैं कि कुछ सूरज सुबह ऊगकर एक-एक पक्षी के द्वार पर दस्तक तो महाराज! आप शांत रहो। हमें बख्शो । अभी हमें दुनिया में देता नहीं कि गाओ, प्रभात की बेला आ गई! गीत गुनगुनाओ! और बहुत काम पड़े हैं। लेकिन सूरज ऊगा-वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवा होने | लेकिन इस दुनिया में जरा गौर से देखना, क्या काम तुम कर Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भार रहे हो? और जिस दुनिया में तुम इतने उलझे हो, वहां तुम क्या शोरगुल मचा रहे थे। तो वह उनसे परेशान था, बाधा पड़ रही खोज रहे हो? मेरे देखे तो सभी लोग परमात्मा को खोज रहे हैं। थी। तो वह खिड़की पर गया। उसने कहा कि तुम यहां क्या कर कुछ लोग गलत जगह खोज रहे हैं, कुछ लोग ठीक जगह खोज रहे हो, पागलो! नदी की खबर है, एक बड़ा राक्षस आया है। रहे हैं। कुछ लोग ऐसे दरवाजों पर खोज रहे हैं जहां दीवालें हैं, बड़ा विकराल है। बड़ा भयंकर है! ऐसा कभी देखा नहीं गया। दरवाजे नहीं हैं, कुछ लोग ठीक दरवाजों पर दस्तक मार रहे हैं। । _मैं तुमसे कहता हूं, वेश्या के घर पर भी जो आदमी दस्तक देता उसका इतना कहना था कि वे बच्चे तो भागे सरपट नदी की है वह भी परमात्मा की खोज में ही वहां गया है। क्योंकि वेश्या तरफ। रबाई ने सोचा कि ठीक, झंझट मिटी। वह अपना आकर के द्वार पर भी वह आनंद की तलाश में गया है और आनंद फिर पढ़ाई-लिखाई में लग गया। लेकिन थोड़ी ही देर में उसने परमात्मा की तलाश है। जिसने शराबघर में शराब पीकर | देखा, सारा गांव नदी की तरफ जा रहा है। उसने खिड़की पर बेहोश...नालियों में गिर पड़ा है, वह भी परमात्मा की ही तलाश खड़े होकर देखा, पूछा, 'भाइयो! कहां जा रहे हो?' लोगों ने में गया था। क्योंकि आनंद की खोज परमात्मा की खोज है। कहा कि 'अरे तुम्हें पता नहीं अभी तक? नदी के किनारे एक लेकिन गलत जगह। कोई और मधुशाला खोजनी थी, जहां राक्षस आया हुआ है। बड़ा विकराल है! हरे रंग का है। अदृश्य अंगूरों की सुरा ढाली जाती है! कहीं और पियक्कड़ होना बड़े-बड़े दांत हैं।' जो रबाई ने बताया भी नहीं था, वह भी सब था, पियक्कड़ ही होना था तो! कहीं किसी रामकृष्ण के पास उन्होंने बताया। रबाई ने कहा, ठहरो। मैं भी आया। रबाई ने डूबना था पीकर! अपने मन में कहा कि अरे बात तो मैंने ही गढ़ी है। पर उसने कहीं भी तुम खोज रहे हो, तुम्हारी खोज कुछ भी हो, तुम्हारा कहा, कौन जाने, सच ही हो! बहाना कुछ भी हो, अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, _दूसरे को धोखा देते-देते आदमी खुद को भी धोखा दे लेता है। आनंद की तलाश में निकले हो। अगर इतना तुम्हें समझ में आ कौन जाने, सच ही हो! कुछ हर्जा भी क्या है जाने में! देख ही जाये तो बहुत कठिनाई न बचेगी। फिर तुम्हारे पास एक कसौटी लेना चाहिए! हो गई कि 'जहां मैं खोज रहा हूं, वहां आनंद मिल सकता है?' तुम कहते कुछ और हो, चाहते कुछ और हो, सोचते कुछ और कितनी बार तो वहां गया हूं, सदा खाली हाथ लौटा हूं। कुछ हो। तुम्हारा जीवन तुम्हारे ही हाथ से पैदा की गई उलझनों में खोकर लौटा हूं, पाकर तो कुछ भी नहीं लौटा। कुछ और दीन उलझ गया है। होकर लौटा हूं। कुछ और दरिद्र होकर लौटा हूं। भिक्षा-पात्र | एक भिखारी मुल्ला नसरुद्दीन को देखकर चिल्लाया, 'बड़े बड़ा भला हो गया हो, हृदय का पात्र भरा तो नहीं। मियां! भूखा हूं, कुछ पैसे दे दो तो खाना खा लं।' मल्ला ने आनंद खोज रहे हो, यह स्पष्ट हो, तो कसौटी हाथ में रहेगी। दयावश बगल के हलवाई की दुकान पर ले जाकर उसे खाना तो तुम जांच लेना। जैसे सोना जांचता है सुनार, पत्थर पर कस खिलवा दिया। खाना खाकर भिखारी बड़ा नाराज होता बाहर लेता है; आनंद पर कसते जाना, कसते जाना। तुम पाओगे, निकला और बड़बड़ाया, 'अजीब मजाक है! पिक्चर देखने के जिंदगी, जिसको तुम जिंदगी कहते हो, कोई भी उस आनंद के लिए तो दो रुपये चाहिए, वे तो जुटते नहीं, खाना सुबह से पांच पत्थर पर सोना साबित नहीं होती। तभी तुम सुन सकोगे किसी लोग खिला चुके।' जाग्रत पुरुष के वचन, किसी जिन-पुरुष के वचन। मगर तुम मांगते खाना हो, देखना पिक्चर है! लेकिन तुम अपने को धोखा दे रहे हो। तम मांगते कुछ हो, तुम जिंदगी में जरा गौर से देखना, तुम क्या मांग रहे हो? मांगना कुछ और चाहा था, करते कुछ हो, बताते कुछ हो। दूसरों | क्योंकि तुम जो मांग रहे हो, वह मिल जायेगा। तब तुम को ही धोखा देते हो, ऐसा नहीं है; खुद को भी धोखा दे लेते हो। पछताओगे। न मिला तो पछताओगे। मिल गया तो मैंने सुना है, एक यहूदी रबाई दूसरे दिन के सुबह के लिए पछताओगे। क्योंकि मांगा तुमने कुछ और था और चाहा कुछ अपना प्रवचन तैयार कर रहा था और बाहर कुछ आवारा बच्चे और था। फिर उस भिखारी को तो पता भी था अपनी चाह का, 338 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो तम्हें अपनी चाह का भी कोई पता नहीं। इस बेहोशी को तोड़ो। ठीक-ठीक साफ कर लो, क्या चाहना है, ठीक-ठीक दिशा खोज लो, कहां खोजना है? और दो ही दिशायें हैं, ज्यादा उलझन नहीं है। या तो आदमी बाहर की तरफ खोजता है या भीतर की तरफ खोजता है। बाहर की तरफ खोजकर तुमने देख भी लिया है। थोड़ा भीतर को भी मौका दो! और ध्यान रखना, सांसारिक आदमी को तो एक ही अनुभव है-बाहर की तरफ का; धार्मिक आदमी को दोनों अनुभव हैं-बाहर का भी, भीतर का भी। इसलिए धार्मिक आदमी की बात जरा गौर से सुन लेना। इसलिए महावीर की, कृष्ण की, बुद्ध की बात को जरा गौर से सुन लेना। तुम जहां खोज रहे हो वहां तो उन्होंने भी खोजा था। नहीं पाया। फिर उन्होंने वहां खोजा जहां तुमने अभी नहीं खोजा है। और वहां पाया। तो एक बार थोड़ा-थोड़ा समय, थोड़ी-थोड़ी शक्ति निकालो। तेईस घंटे संसार को दे दो, एक घंटा स्वयं के लिए बचा लो। जिस आदमी के पास अपने लिए एक घंटा भी नहीं है, उससे बड़ा दरिद्र कोई भी नहीं है। उसे ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, जो कहना हो कहो, लेकिन एक घंटा अपने लिए बचा लो। तुम आखिर में मरते वक्त पाओगे कि बाकी तेईस घंटे व्यर्थ गये, वही एक घंटा असली बचाया हुआ सिद्ध हुआ। और वह एक घंटा तुम्हारे तेईस घंटों को जीत लेगा, हरा देगा। क्योंकि जब तुम्हें रस आने लगेगा, रसधार बहेगी, तो फिर तुम कैसे धोखा दोगे अपने को? जब असली सिक्के दिखाई पड़ने लगेंगे तो नकली सिक्कों के धोखे में तुम आओगे कैसे? तोड़ो इस बेहोशी को। और तुम्हारे बिना तोड़े कोई और तोड़ न सकेगा। उठ कि खुर्शीद का सामाने-सफर ताजा करें। -उठो! थोड़ा आत्मविश्वास जगाओ! मरहबा ऐ जज्बए-खुद ऐतबादी मरहबा वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी। आज इतना ही। 339 ] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रवचन उठो, जागो-सुबह करीब है Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार जैसे महावीर के 'अहिंसा' शब्द का गलत अर्थ लिया गया, ऐसे ही क्या आपका 'प्रेम' शब्द खतरे से नहीं भरा है ? जो दीया तूफान से बुझ गया, उसे फिर जला के क्या करूं? जो परमात्मा घर से ही भटक गया, उसे घर वापस बुला के क्या करूं? तेरे गुस्से से भी प्यार, तेरी मार भी स्वीकार Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्न : कल आपने बताया कि महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि लोग उसका गलत अर्थ लेते हैं- और यह कि आज लोग अहिंसा का गलत अर्थ लेते हैं, इसलिए आप प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं। पर जैसा लोग महावीर के समय में प्रेम शब्द का गलत अर्थ करते थे, क्या आज भी वही स्थिति नहीं है? और आपके द्वारा सर्वाधिक उपयुक्त शब्द, प्रेम, क्या आज भी खतरे से भरा नहीं है? शब्द- मात्र खतरे से भरा है। क्योंकि जैसे ही बोला गया शब्द, बोलनेवाले की मालकियत उस पर समाप्त हो जाती है; सुननेवाला मालिक हो जाता है। कुछ मैंने कहा, कहते ही मैं मालिक नहीं रहा; सुनते ही तुम मालिक हो गये। अब तुम क्या अर्थ करोगे - तुम पर निर्भर है। जो शब्दों से डरते हों, उन्हें तो बोलने का ही उपाय नहीं है। क्योंकि अर्थ मैं नहीं डाल सकता; अर्थ तो तुम डालोगे । मेरा अर्थ तो मेरे हृदय में रह जायेगा; शब्द की खाली खोल तुम तक जायेगी; आत्मा फिर तुम उसमें डालोगे। तो अर्थ तो सदा तुम्हारा होगा। और चूंकि तुम उपद्रव से ग्रस्त हो, तुम जो भी अर्थ डालोगे वह भी उपद्रव ग्रस्त होगा। क्योंकि तुम बड़े भ्रांत हो, तुम्हारे अर्थ भ्रांत ही होंगे। तुम गलत ही निकाल लोगे। तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि जिन्होंने जाना है, वे चुप रह | जायें। लेकिन चुप रह जाने का भी तुम अर्थ करोगे कि क्यों चुप रह गये। बुद्ध ने बहुत-से प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये - सिर्फ इस कारण कि उन प्रश्नों के उत्तर लोगों को गलत अर्थों में ले जाते हैं। तो बुद्ध के मरने के बाद जो सबसे बड़ा विवाद बुद्ध के अनुयायियों में उठा, वह यह था कि बुद्ध इन प्रश्नों के संबंध में चुप क्यों रह गये ! और बुद्ध धर्म के जो खंड-खंड टुकड़े हुए, वह उनके चुप रह जाने की वजह से हुए। क्योंकि किसी ने कहा कि वे चुप रह गये, क्योंकि जो उन्होंने जाना वह शब्द में प्रगट करने योग्य न था। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि वहां जानने को ही कुछ नहीं है; प्रगट करने का सवाल ही नहीं है। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं चला, तो बोलते क्या ? चुप्पी का भी तो तुम अर्थ करोगे! तो अर्थ से तो बचा नहीं जा सकता । तो उपाय क्या है ? उपाय यही है कि जिसे जो शब्द ठीक लगे, वह उसका उपयोग करे और सब तरह से, हर दिशा से, उस शब्द को परिभाषित करे। जितने दूर तक संभव हो तुम्हें मौका न दे कि तुम अपना अर्थ प्रवेश कर पाओ। इस तरह की परिभाषा करे, सब तरफ से इस तरह का पहरा बिठाये शब्द पर, फिर भी अगर तुम गलत अर्थ करना चाहो तो करोगे ही। लेकिन सत्य का गलत उपयोग होगा, इस डर से सत्य बोलने से नहीं रुका जा सकता। सौ में निन्यानबे लोग गलत अर्थ कर लेंगे, कोई हर्ज नहीं; वह जो एक ठीक अर्थ कर लेगा, तो भी सार्थक है बोलना। क्योंकि वे जो निन्यानबे गलत अर्थ कर रहे हैं, न सुनते तो भी गलत होते, कुछ बिगड़ा नहीं है । वे गलत थे, इसलिए गलत अर्थ किया; गलत अर्थ के कारण गलत नहीं हो गये हैं । इसलिए अगर उन्होंने गलत अर्थ किया तो उनकी जिंदगी 345 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R जिन सूत्र भार | में कुछ और बिगाड़ नहीं आ जायेगा। वे बिगड़े थे, बिगड़े डालोगे, वे भी लौटेंगे...! इसलिए मैं उस खेत की ओर नजर रहेंगे। लेकिन वह जो सौ में एक भी अगर सुन लेगा, राजी होगा, करता हूं, उस खेत की तरफ, जिस पर इन पच्चीस सौ वर्षों में उठेगा, चलेगा, तो पर्याप्त है। सौ सुननेवालों में अगर एक भी | खेती नहीं हुई। जग जाये, तो सार्थक हो गया श्रम। निन्यानबे की फ्रिक करने की प्रेम शब्द का आध्यात्मिक अर्थ उपयोग नहीं किया गया है। कोई जरूरत नहीं है। | उसका उपयोग कर लेना जरूरी है। मैं यह नहीं कहता हूं कि सदा महावीर ने अहिंसा शब्द चुना, वह उनकी पसंद थी। उनकी यह सार्थक रहेगा; जल्दी ही इस खेत में से भी उपजाऊपन नष्ट पसंद के बहुत कारण हैं। एक कारण है कि प्रेम और भक्ति के हो जायेगा। तब नये-नये शब्द खोजने होंगे। वह आनेवाले नाम पर चलनेवाला संप्रदाय बिलकुल विकृत हो गया था। अब लोग चिंता करें। अगर प्रेम की ही वे बात करते तो उस संप्रदाय से पृथक, अलग नये शब्द सदा जरूरी रहते हैं, क्योंकि नये शब्दों के साथ खड़े होने की कोई सुविधा न थी। वे जिस क्रांति की बात करना | मनुष्य में नयी चेतना का संचार होता है। और कभी-कभी पराने चाहते थे, वह क्रांति पैदा न होती। उन्हीं शब्दों के उन्हीं | बहुत दिन तक उपयोग न किये गये शब्दों का पुनः उपयोग पारिभाषिक शब्दों का उपयोग करने का परिणाम यह होता, वे भी उपयोगी होता है, क्योंकि वे फिर नये हो गये होते हैं; इतने दिन पंडितों और ब्राह्मणों के उसी समुदाय में खो जाते जिसकी बड़ी | तक पड़े रहे खाली, बिना फसल बोये, फिर क्षमता को अर्जित भीड़ थी। उन्होंने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। इस तरह कर लेते हैं। तो प्रेम शब्द ने क्षमता अर्जित कर ली है। उन्होंने एक परिभाषा दी। इस तरह उन्होंने अपने को पृथक | फिर कुछ और बातें हैं। अहिंसा शब्द नकारात्मक है। उसमें किया। इस तरह भीड़ में खोने से अपने को बचाया। उपयोगी था | 'नहीं' पर जोर है। महावीर का जोर 'नहीं' पर था। मेरा जोर उनका उपयोग कर लेना अहिंसा का। | 'नहीं' पर नहीं है। मेरे लिए आस्तिकता स्वीकार में है। 'हां' लेकिन इन पच्चीस सौ सालों में अहिंसा शब्द को बड़ा मूल्य के भाव में है। 'नहीं' पर जीवन के स्तंभ नहीं रखे जा सकते। मिल गया है। उस मूल्य से फिर वैसी की वैसी स्थिति खड़ी हो | और जिसने 'नहीं' के घर में रहना शुरू किया वह सिकुड़ जाता गई है। अब अहिंसा शब्द का उपयोग करने का अर्थ है: अहिंसा | है। और जैन धर्म अगर सिकड़ गया तो उसका कोई और कारण की कतार में खड़े हए लोगों की भीड़ में खो जाना। नहीं है; 'नहीं' के घर ने मार डाला। तो जिस कारण से महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया, । बुद्ध ने भी 'नहीं' शब्दों का उपयोग शुरू किया था। पांच सौ उसी कारण से मैं अहिंसा शब्द का उपयोग नहीं कर सकता हूं। साल में बुद्ध का धर्म नष्ट हो गया और तब बौद्ध भिक्षुओं को कारण वही है। मैं प्रेम शब्द का उपयोग करना चाहूंगा। इन एक बात समझ में आ गई कि 'नहीं' शब्दों ने जान ले ली। वे पच्चीस सौ सालों में प्रेम शब्द खो गया, उपयोग में नहीं आया। जो नकारात्मक शब्द हैं—निर्वाण-नहीं हो जाना—किसकी जैसे किसी ने अपने खेत को कुछ वर्षों के लिए बंजर छोड़ दिया आकांक्षा है 'नहीं' होने की? शब्द सुनकर ही लोग चौंक जाते हो, खेती न की हो, तो जिस खेत पर बार-बार खेती की गई है, हैं। तो जब बौद्ध भिक्षु भारत के बाहर गये, बर्मा, लंका, चीन तो उसका उपजाऊपन नष्ट हो जाता है। वह जो खाली पड़ा रहा उन्होंने 'नहीं' शब्दों का त्याग कर दिया। एशिया में बुद्ध-धर्म खेत है वर्षों तक, उसने फिर उपजाऊ शक्ति को अर्जित कर फैला जब उसने 'हां' शब्दों का उपयोग किया-अकारात्मक, लिया है। तो प्रेम शब्द फिर उपयोगी हो गया है। उस शब्द में विधायक, जीवंत। बौद्ध धर्म विराट धर्म हो गया। बुद्ध के शब्द फिर प्राण डाले जा सकते हैं। | अगर पकड़े रहते तो जो दशा जैनों की हुई, वही दशा बुद्ध-धर्म पच्चीस सौ साल के अंतराल ने, इस पच्चीस सौ साल में की होती। बुद्ध की मजबूरी थी 'नहीं' शब्दों का उपयोग करने बुद्ध, महावीर और गांधी तक अहिंसा शब्द की बड़ी महिमा की; वही मजबूरी थी जो महावीर की थी। ब्राह्मण परंपरा 'हां' गायी गई है। अहिंसा शब्द पर काफी खेती हो चुकी; अब वहां शब्दों से भरी है। आस्तिक शब्दों से भरी है। इस बड़ी परंपरा से कुछ भी पैदा नहीं होता। अब तो डर यह है कि जितने बीज तुम | अगर अलग खड़े न करो तो यह परंपरा लील जायेगी। इस 1346 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 परंपरा से अलग खड़ा होना जरूरी है। अलग खड़े होने के लिए 'नहीं' शब्दों का उपयोग करना पड़ा, ताकि सीमा-रेखा साफ हो जाये। और जब अल्पमत में कोई होता है तो उसे बड़ी स्पष्टता से अपनी सीमा रेखा बनानी पड़ती है, क्योंकि बहुमत उसे लील जायेगा। हिंदुओं का विराट सागर था; जैनों, बौद्धों की नदी कहीं भी खो जाती इसमें, यह ताल तलैया कहीं भी खो जाता, इसका कहीं पता भी न चलता। तो उस ताल तलैया को बहुत सुरक्षित होकर अपनी व्यवस्था करनी पड़ी। उसने उन सारे शब्दों का उपयोग रोक दिया, जो हिंदू उपयोग करते थे । वे शब्द अपने-आप में बहुमूल्य थे; लेकिन मजबूरी थी, उन शब्दों के साथ संबंध हिंदुओं का था। अगर ब्रह्म शब्द का उपयोग करो - डूबे ! अगर परमात्मा शब्द का उपयोग करो - डूबे ! हिंदुओं के पास लंबी परंपरा थी। उस परंपरा के कारण सारे विधायक शब्द उपयोग कर लिये गये थे। हिंदुओं का वही तो बल है। हिंदू इतने आघातों के बाद जीते रहे हैं, उसका कारण कहां है? उसका कारण है उनकी विधायकता में, स्वीकार में, अंगीकार में अगर तुम वैदिक, उपनिषद के ऋषियों का स्मरण करो तो तुम्हें समझ में आयेगा कि अब तुम जिसे साधु और संन्यासी कहते हो, उस हिसाब से वे साधु-संन्यासी न थे। मैं जिस हिसाब से संन्यासी कहता हूं, उस हिसाब से संन्यासी थे। घर में थे, गृहस्थी में थे, उनकी पत्नियां थीं, बच्चे थे, धन-दौलत थी। बड़ा विधायक रूप था । संन्यास हिंदुओं के लिए गृहस्थी के विपरीत नहीं था, गृहस्थी का ही आत्यंतिक फल था । ऐसा नहीं था कि घर को छोड़कर जो चला गया, वह संन्यासी है; नहीं, जिसने घर पूरा कर लिया, वह संन्यासी है। जो घर में पूरा-पूरा जी लिया और पार हो गया; जीवन के अनुभव एक-एक सोपान की तरह चढ़ गया - वह संन्यासी है। संन्यास हिंदुओं के लिए जीवन का अंतिम शिखर था। पहले ब्रह्मचर्य, फिर गार्हस्थ्य, फिर वानप्रस्थ, फिर संन्यास - ऐसी जीवन में एक क्रमबद्धता थी, एक विकास था। बहुत वैज्ञानिक बात थी। पहले संसार को ठीक से अनुभव तो कर लो, भोग की पीड़ा तो जानो, ताकि तुम त्यागी हो सको । धन की व्यर्थता तो जानो ताकि विराग का जन्म हो सके ! इस देह की नश्वरता को तो पहचानो ! शास्त्रों से नहीं -- जीवन, उठो, जागो - सुबह करीब है। अनुभव...! सभी को अनुभव हाथ आ जाता है। तो हिंदुओं के हिसाब से संन्यास जीवन-विरोधी न था, जीवन का नवनीत था। जिन्होंने जीवन को जीया, वे उस नवनीत को उपलब्ध हुए। दूध है; उसे जमाओ, दही बनाओ, दही का मंथन करो, मक्खन निकालो, मक्खन को गरमाओ, घी बनाओ – ऐसा संन्यास था। घी की तरह ! फिर घी का तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुमने कभी खयाल किया, घी के बाद कोई गति नहीं है। घी को तुम कुछ और नहीं बना सकते। दूध दही हो सकता है; दही मक्खन बन जाता है; मक्खन घी बन जाता है - लेकिन अब तुम घी को कुछ भी नहीं बना सकते। पराकाष्ठा ! अब अगर तुम चाहो, कि घी को पीछे भी लौटायें तो वह भी नहीं कर सकते। तुम चाहो कि अब घी का मक्खन बना लें, कि मक्खन का अब दही बना लें, कि दही से अब दूध में उतर जायें - वह भी नहीं हो सकता। तो हिंदुओं के लिए तो संन्यास घी की तरह था; वह आखिरी बात थी – जिससे पीछे लौटना नहीं होता, जिसके आगे जाना नहीं है । और उस तक जिसे पहुंचना है, उसे ये सारी सीढ़ियां पार करनी होंगी। इस सनातन धर्म के बीच महावीर का आविर्भाव हुआ । यह परंपरा सड़ गई थी, गल गई थी। सभी परंपराएं एक दिन सड़ जाती हैं, गल जाती हैं। यह जीवन का स्वाभाविक धर्म है। जैसे हर जवान बूढ़ा हो जाता है, फिर हर बूढ़ा मर जाता है, फिर एक दिन अस्थि लेकर हम जाकर जला आते हैं — ठीक ऐसी ही संस्कृतियां पैदा होती हैं, धर्म पैदा होते हैं, जवान होते हैं, बूढ़े होते हैं, मरते हैं। लेकिन जिस बात को हम सामान्यतया जीवन में कर लेते हैं...मां मर गई तो बहुत प्रेम था, फिर भी क्या करोगे ? रोते हो, धोते हो, रोते जाते हो, अर्थी बांधते जाते हो—करोगे क्या ? रोते जाते हो, अर्थी लेकर चल पड़ते हो । रोते जाते हो, जला आते हो। इतनी हिम्मत हम धर्मों के साथ न कर पाये कि वे भी जवान होते हैं; जब जवान होते हैं तब उनका मजा और! जब हिंदू धर्म शिखर पर ना तो उसने उपनिषद जैसे शास्त्रों को जन्म दिया, महाकाव्य पैदा हुआ ! सब तरफ गीत गूंज उठा हिंदू धर्म का ! प्राणों में पुलक थी, उत्साह था, जवानी थी ! फिर हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ । जब हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ और मर 347 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 जिन सूत्र भाग: 1 गया या मरने के करीब था, मरणासन्न था, तब बुद्ध और महावीर का आविर्भाव हुआ। अब इस मरते आदमी के साथ उनको किसी भी तरह का संबंध जोड़ना खतरनाक था । यह तो मर ही रहा था। इसके साथ संबंध जोड़ने का अर्थ था, तुम पहले से ही मौत से जुड़ गये। स्वभावतः उन्होंने नये शब्द खोजे । तुम देखो, जैनों ने संस्कृत भाषा तक का उपयोग न किया ! शब्दों की तो बात अलग; उस भाषा में भी बोलने में खतरा था, क्योंकि भाषा के सब संबंध थे। अब अगर संस्कृत का महावीर उपयोग करते तो उपनिषदों से ऊंचा गीत और क्या गा पाते ? पराकाष्ठा हो गई थी। संस्कृत ने अपनी आखिरी ऊंचाई पा ली थी। संस्कृत ने शिखर छू लिया था; अब इसके पार जाने का कोई उपाय न था । इस मंदिर पर कलश चढ़ चुका था। तो महावीर ने संस्कृत का उपयोग न किया। महावीर ने प्राकृत का उपयोग किया। संस्कृत पंडित की भाषा थी, सुसंस्कृत की, अभिजात्य की। महावीर ने दीन की, गरीब की, लोकजन की भाषा का उपयोग किया। ध्यान रखना, जब भी नया धर्म आता है तो उनके द्वारा आता है, जो पुराने धर्म के कारण दलित थे, पीड़ित थे। जो पुराने धर्म के कारण प्रतिष्ठित थे वे तो नये धर्म को क्यों चुनेंगे? उनका तो पुराने धर्म के साथ बड़ा संबंध है। उनके तो बड़े स्वार्थ हैं। तो स्वभावतः ब्राह्मण आंदोलित होगा महावीर के विचारों से, यह तो संभव न था । क्षत्रिय आंदोलित हो सकता था, वैश्य आंदोलित हो सकता था, शूद्र आंदोलित हो सकता था । क्षत्रिय भी बहुत आंदोलित नहीं हुआ, क्योंकि उसके भी संबंध बहुत गहरे ब्राह्मण 1. से जुड़े थे। ब्राह्मण सबके ऊपर था। लेकिन वस्तुतः तो क्षत्रिय ही ऊपर था, जिसके हाथ में तलवार है। क्षत्रिय के कारण और आज्ञा से ब्राह्मण ऊपर रह सकता था । नाममात्र को ब्राह्मण ऊपर था, वस्तुतः तो क्षत्रिय ऊपर था । तुम कितनी ही बात करो कि संतों की महिमा थी; महिमा थी, लेकिन उस महिमा को भी जब तक राजा आकर चरण न छूता, कौन महिमा थी? राजा आकर चरण छूता था तो संत की महिमा थी। तो संत दीवाने रहते थे कि कितने राजा किसके पास आते हैं। तो क्षत्रिय भी प्रतिष्ठित था । इसलिए जैन धर्म अगर बनियों का धर्म हो गया, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। वैश्य सर्वाधिक प्रभावित हुए। शूद्र बहुत कम प्रभावित हुए, क्योंकि प्रभावित होने की भी थोड़ी समझ तो चाहिए ! ain Education International क्षत्रिय के स्वार्थ थे, ब्राह्मण का तो कोई उपाय न था कि वह जैन बने; इस बनने में कोई सार न था । अभी भी तुम देखते हो, हिंदुस्तान में जो लोग ईसाई बनते हैं, कोई बिरला, सिंघानिया, साहू कोई ईसाई बनते हैं? ईसाई बनता है शूद्र, गांव का गरीब, आदिवासी। जिनका निहित स्वार्थ है, वे किसलिए ईसाई बनेगें ? ईसाई तो वह बनता है जो हिंदू धर्म से पीड़ित है, परेशान है । जो हिंदू धर्म उसे नहीं दे सका है, उसका आश्वासन ईसाइयत देती है। | तो महावीर और बुद्ध दोनों ने कहा, कोई वर्ण नहीं है। लेकिन शूद्र तो इतना दलित था कि उसे ये शब्द भी समझ में न आ सकते थे; उसको तो शास्त्र पढ़ने की मनाही थी । उसको तो कोई शिक्षा भी न थी। इसलिए स्वभावतः ब्राह्मण आ नहीं सकता था, क्षत्रिय को आने का कोई कारण न था— उसके हाथ में तलवार और बल था । शूद्र समझ नहीं सकता था। और शुद्र को भीतर लाने में खतरा भी था, क्योंकि वह वैश्य नहीं घुसने देता था शूद्र को । क्योंकि वह छिड़कता था । उसकी भी धारणा तो हिंदू की थी। अगर क्षत्रिय आता तो वैश्य स्वीकार कर लेता; वह ऊपर का था; ब्राह्मण आता तो भी स्वीकार कर लेता । शूद्र से उसे भी अड़चन थी; वह उससे भी नीचे था। इसलिए वैश्य शूद्र को घुसने न देगा। इसलिए जैन धर्म वैश्यों का धर्म हो गया, दुकानदारों का धर्म हो गया। स्वभावतः महावीर को इनकी भाषा का उपयोग करना पड़ा - लोक - भाषा का । बुद्ध ने भी वही किया। उन्होंने भी लोक भाषा का उपयोग किया। उन्होंने पाली चुनी। क्योंकि वे प्राकृत चुनते तो महावीर के साथ बंध जाते। इसे थोड़ा सोचना चाहिए। महावीर बुद्ध से कोई तीस साल उम्र में बड़े थे। महावीर पहले आ गये थे। तीस साल वे काम कर चुके थे। ब्राह्मण संस्कृत बोलते थे, महावीर ने प्राकृत चुनी थी; बुद्ध को दोनों उपाय न रहे थे । एक ही क्षेत्र में थे दोनों, लेकिन बुद्ध ने पाली चुनी, ताकि साफ-साफ व्याख्या हो सके, भेद हो सके। भाषा से बड़ा भेद और किसी चीज से पैदा नहीं होता। तुम जानते हो, जब कोई आदमी तुम्हारी भाषा नहीं समझता, तो तुम अजनबी हो गये, एकदम अजनबी हो गये । पास-पास बैठे हो और हजारों मील का फासला हो गया। क्योंकि आदमी Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो--सुबह करीब है। जीता है भाषा से, जुड़ता है भाषा से। फिर भी उसकी प्रेयसी उसे परमात्मा मानने लगती है। तो अगर संस्कृत का त्याग करने का परिणाम यह हुआ कि जैन हिंदू धर्म | प्रेम शब्द का बहुत उपयोग करो तो परमात्मा को इनकार न कर से बिलकुल साफ अलग टूट गये। पाली का प्रयोग करने के सकोगे। क्योंकि प्रेम शब्द का इशारा ही और की तरफ है। प्रेम कारण बौद्ध जैनों से भी टूट गये, ब्राह्मणों से भी टूट गये। तीर है, निशाना कहीं और है : निकलेगा तुम्हारे हृदय से, लगेगा दोनों ने वर्गों का विरोध किया, तो ही तो वे आकर्षित कर सके किसी और हृदय में। वैश्य को। यद्यपि वैश्य आकर्षित हो गया, लेकिन बड़े मजे की तो प्रेम तो खतरनाक है—ध्यान। प्रेम तो खतरनाक बातें हैं, दुनिया में संस्कार बड़ी मुश्किल से जाते हैं। अभी भी है-अहिंसा। प्रेम तो खतरनाक है, क्योंकि प्रेम के साथ जैन मंदिर में शूद्र को प्रवेश नहीं है। और महावीर कहते हैं, न परमात्मा आता है और परमात्मा के साथ हिंदुओं की पूरी कोई शूद्र है, न कोई ब्राह्मण है, न कोई वैश्य है, न कोई क्षत्रिय जीवन-चिंतना जुड़ी है। इसलिए महावीर को परमात्मा भी है। उनकी सारी क्रांति वर्ण-विरोधी है। लेकिन फिर भी वर्ण | इनकार कर देना पड़ा, प्रेम भी इनकार कर देना पड़ा, प्रार्थना भी जाता नहीं। इनकार कर देनी पड़ी, पूजा, अर्चना, धूप-दीप सब इनकार कर तुमने देखा, अगर कोई ब्राह्मण ईसाई हो जाये, तो वह ईसाई देना पड़ा। सब भांति व्यक्ति अपने में भीतर चला जाये, बाहर होकर भी ब्राह्मण रहता है। ईसाइयों को मैं जानता हूं। उनमें कोई जाये ही नहीं। परमात्मा भी बहिर्यात्रा है। इस कारण महावीर ने अगर ब्राह्मण के वर्ग से ईसाई हुआ है और कोई अगर शूद्र के वर्ग | अहिंसा शब्द का उपयोग किया। से ईसाई हुआ है, तो वह जो ब्राह्मण ईसाई है, शूद्र ईसाई से ऊपर लेकिन अहिंसा बहुत कमजोर शब्द है; प्रेम के सामने टिकता रहता है। ब्राह्मण ईसाई शूद्र ईसाई से विवाह नहीं करता। नहीं, बहुत लंगड़ा है। उनकी जरूरत थी। उनकी मजबूरी थी। संस्कार बड़े गहरे बैठ जाते हैं! लेकिन प्रेम के पास पैर हैं। तो जब महावीर ने वर्णों की व्यवस्था तोड़ दी, तो उन्होंने तुम जरा किसी स्त्री से कहो कि मेरा तुझसे अहिंसा का संबंध आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी; क्योंकि वह वर्णाश्रम एक ही हो गया है, तब तुम्हें पता चलेगा! वह दुबारा तुम्हारी शकल न प्रत्यय था—चार वर्ण, चार आश्रम। जब महावीर ने वर्ण की देखेगी। किसी स्त्री से अहिंसा का संबंध! उसका मतलब इतना व्यवस्था तोड़ी तो उन्होंने आश्रम की भी व्यवस्था तोड़ दी। यह हुआ कि हम तुम्हें मारेंगे भी नहीं, कष्ट भी न देंगे। खतम, संबंध तोड़ना जरूरी था, नहीं तो हिंदू ढांचा पकड़े रहता; उससे छूटना पूरा हो गया! दोगे क्या? यह तो न देने की बात हुई। दुख न मुश्किल था। जब तुम किसी एक सागर में पैदा होते हो तो तुम्हें दोगे, समझ में आया। मारोगे नहीं, यह भी समझ में आया। अपना द्वीप बनाना पड़ता है। तो उन्होंने कहा कि न कोई ब्रह्मचर्य | लेकिन इतने पर कोई संबंध निर्भर होते हैं? का सवाल है, न कोई गृहस्थ का सवाल है, न कोई वानप्रस्थ अहिंसा संबंध तोड़ने की व्यवस्था है, जोड़ने की नहीं। का, न कोई संन्यस्त का; और जब तुम संन्यस्त होना चाहते हो | इसलिए महावीर का अनुयायी टूट जाता है, सबसे टूट जाता है। तभी हो सकते हो। इस तरह उन्होंने दोनों ही व्यवस्थाएं तोड़ दीं। अहिंसा जोड़ ही नहीं सकती। अहिंसा में कोई सीमेंट नहीं है। फिर उन्होंने नये शब्द खोजे, नयी भाषा खोजी।। अहिंसा में योग नहीं है। प्रेम शब्द बहुत खतरनाक है। क्यों? क्योंकि प्रेम के साथ ही अब तुम चकित होओगे, महावीर ने योग शब्द का उपयोग तत्क्षण परमात्मा प्रवेश करता है। तुमने कभी देखा, एक नहीं किया। और भी तुम हैरान होओगे कि महावीर ने 'अयोग' साधारण स्त्री को भी तुम प्रेम करने लगो तो उसमें देवी का शब्द का उपयोग किया है। जुड़ना नहीं है, टूटना है, अयोग। तो आविर्भाव हो जाता है। एक स्त्री एक साधारण-से पुरुष के प्रेम जब महावीर का ज्ञानी परम अवस्था को उपलब्ध होता है तो में पड़ जाये तो उसे परमात्मा मानने लगती है। जहां प्रेम आता है, उसको वे कहते हैं, 'अयोगी, केवली'। जो सब तरह से सबसे वहां पीछे से परमात्मा आ जाता है। साधारण जीवन में, जहां कि टूटकर अकेला हो गया : अयोगी, केवली। योग पाप है, क्योंकि तुम भलीभांति जानते हो कि यह आदमी परमात्मा नहीं है, लेकिन योग में तो बात ही जुड़ने की है। जुड़ना तो है ही नहीं, क्योंकि 3491 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 जुड़ना ही तो संसार है। संसार से टूट जाने में असली बात है। निकले। तो नोह ने अपनी पत्नी से पूछा, 'यह मामला क्या है? तो अहिंसा से संबंध तोड़ा जा सकता है, जोड़ा तो नहीं जा मैंने पहले कहा था कि दो-दो लेना, एक-एक लेना।' उसने सकता। अहिंसा सिकोड़ सकती है, फैला तो नहीं सकती। कहा, 'लिये तो इतने ही थे, मगर इतने हो गए सात दिन में।' । अहिंसा तुम्हें अपने में बंद कर देगी, खोलेगी तो नहीं। अहिंसा में एक जोड़ा काफी है। उतने बचाने से सारी प्रकृति, सारी पृथ्वी कोई द्वार-दरवाजे नहीं हैं, दीवाल है। इसलिए जितने तुम | बच गई। अहिंसा जैसे शब्दों से भरोगे, उतने ही तुम पाते जाओगे कि तुम | जीवन का स्वभाव फैलाव है। प्रेम में फैलाव है; अहिंसा में सूखने लगे, तुम्हारे पत्ते कुम्हलाने लगे, शाखाएं गिरने लगीं, तुम सिकुड़ाव है। इसलिए मैं तो प्रेम शब्द को ही पसंद करता हूं। सिकुड़ने लगे, तुम लौटने लगे। तुम्हारा फैलाव खो गया। अहिंसा प्रेम का एक छोटा-सा अंग है। जिससे हम प्रेम करते हैं, तुम्हारे जीवन का अभियान खो गया। उसे हम दुख नहीं देना चाहते—यह बात ही साफ है। जिससे तो अगर जैन सिकुड़ गये तो कुछ आकस्मिक नहीं है। फैलने हमारा प्रेम का संबंध है, उससे हमारा अहिंसा का संबंध तो हो ही का उपाय न था। गया। लेकिन जिससे हमारा अहिंसा का संबंध है, उससे प्रेम का नकार को कभी जीवन की व्यवस्था मत बनाना, क्योंकि जीवन | संबंध हो गया—यह जरूरी नहीं है। प्रेम अहिंसा से बड़ी बात का स्वभाव फैलाव है। यहां सब चीजें फैलती हैं। एक छोटे से है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे हम कैसे दुख पहुंचायेंगे? उसे बीज को डाल दो, एक बड़ा वृक्ष हो जाता है। उस वृक्ष में फिर दुख पहुंचाकर तो अपने को ही दुख पहुंच जाता है। भूल-चूक से करोड़ों बीज लग जाते हैं। एक बीज करोड़ बीज हो जाता है। अगर पहुंच भी जाता हो, तो भी हम क्षमा-याची होते हैं, सुधार करोड बीजों को फैला दो, परी पथ्वी वक्षों से भर जायेगी। एक | की कोशिश करते हैं। अहिंसा अपने से सध आती है: जहां प्रेम बीज से यह पूरी पृथ्वी हरी हो सकती है। आया, अहिंसा पीछे से अपने आप आ जाती है। तुम जरा देखो तो जीवन का ढंग। ईसाई कहते हैं, अदम और तो मैं तो कहता हूं, प्रेम को बढ़ाओ। वह व्यक्तियों पर सीमित हव्वा, एक जोड़ा भगवान ने पैदा किया था, फिर उससे ये सारे न रहे; फैलता जाये, वृक्षों, पशु-पक्षियों को भी घेर ले। चार अरब मनुष्य पैदा हुए। बस एक जोड़ा काफी था। और जब मैं कहता हूं, परमात्मा को प्रेम करो, तो मेरा इतना ही यहूदियों की कथा है कि परमात्मा बहुत नाराज हो गया था एक अर्थ है कि यह जो दिखाई पड़ रहा है-दृश्य-इसको इतना बार। लोग भ्रष्ट हो गये थे। तो उसने सारी पृथ्वी को महाप्रलय | प्रेम करो कि इस सभी में तुम्हें अदृश्य की प्रतीति होने लगे। में डुबा दिया। लेकिन एक भक्त था उसका : नोह। उसने नोह से | पत्ते-पत्ते में वह दिखाई पड़ने लगे। कहा कि तुझे हम बचा लेंगे। लेकिन नोह ने प्रार्थना की कि माना अहिंसा अपने से आ जायेगी। अहिंसा के लिए अलग से कि लोग बुरे हैं, गलत हो गये हैं; लेकिन इतने नाराज न हों, कुछ शास्त्र बनाने की कोई जरूरत नहीं है। तो बचा लें, बीज तो बचा लें। तो परमात्मा ने कहा, 'अच्छा! तू माना कि प्रेम शब्द के अब भी गलत अर्थ लिये जायेंगे, लेकिन एक-एक पशुओं का एक-एक जोड़ा अपनी नाव में रख लेना। फिर भी मैं मानता हूं कि प्रेम ज्यादा जीवंत शब्द है। गलत भी वह नाव भर बचेगी।' बस एक जोड़ा काफी था। लेकिन बड़ी अर्थ लिये जायेंगे, तो भी चुनने योग्य है। गलत अर्थ तो अहिंसा मधुर कहानी है। नोह और उसकी पत्नी दरवाजे पर खड़े हो गये के भी लिये गये। और शब्द नकारात्मक था, मुर्दा था तो और नाव में, उन्होंने कहा, आ जाओ एक-एक जोड़ा। तो हाथी गलत अर्थ मुर्दे पर इकट्ठे हुए। बड़ी सड़ांध पैदा हो गई। जीवंत आया, ऊंट आये, घोड़े आये, गधे आये-सब आये। फिर कोई शब्द हो तो थोड़ा-बहुत गलत अर्थ लेने में बाधा डालेगा, जब प्रलय समाप्त हो गया, सात दिन के बाद सारी पृथ्वी डूब | इनकार करेगा। एक पत्थर पड़ा हो, उसको तुम छैनी उठाकर गई, सिर्फ नोह की नाव बची। फिर पृथ्वी उभरी, फिर किनारे | काटने लगो, तो वह कुछ बाधा न डालेगा। एक जिंदा बच्चा हो नाव लगी। फिर वे दोनों दरवाजे पर खड़े हो गये, फिर एक-एक | तो उछलेगा-कूदेगा, चीखेगा-चिल्लायेगा। मोहल्ले-पड़ोस के को निकाला। लेकिन वे बड़े हैरान हुए, चूहे कोई दस-पच्चीस लोगों को इकट्ठा कर लेगा अगर छैनी उठाओगे उसके ऊपर। 350/ Janin Education International Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIHARI उठो, जागो—सुबह करीब है उठा, जागा-सुबह करीब है - प्रेम जीवंत है। अगर तुम उसे बदलोगे तो इतनी आसानी से न | स्थिति तो करीब-करीब आज भी वही है। प्रेम शब्द गलत बदल पाओगे; शोरगुल मचायेगा। अहिंसा बिलकुल मुर्दा है। समझा जायेगा। लेकिन मेरे साथ भेद है। मैं कोई नया धर्म खड़ा तुम उसे बना लेना, अपने रंग-ढंग में रंग-लेप कर लेना। करने में उत्सुक नहीं हूं। नयी भाषा खड़ी करने में उत्सुक नहीं हूं। अहिंसा के शब्द से आवाज भी न निकलेगी। तुम जो भी बना नया शास्त्र निर्मित करने में उत्सुक नहीं हूं। शास्त्र तो बहुत हैं। लोगे, वही बन जायेगी। धर्म भी बहुत हैं। भाषाएं भी बहुत हैं। अब तो हमें कुछ खोज नकार हमेशा ही सावधान होने योग्य है। अभाव है नकार। करनी चाहिए कि सभी धर्मों के भीतर जो सार है, वह हमारी अभाव पर इतना जोर मत देना; क्योंकि अभाव से तुम धीरे-धीरे पकड़ में आ जाये। तो मैं यह नहीं...मेरी चेष्टा वही नहीं है जो रसहीन हो जाओगे। अभाव को देखते-देखते तुम भी धीरे-धीरे महावीर की थी। तो महावीर हिंदू से डरे थे; मैं डरा हुआ नहीं बुझ जाओगे। | हूं। बुद्ध, महावीर से भी डरे हुए थे; मैं डरा हुआ नहीं हूं। मैं न महावीर की मजबूरी थी, उन्होंने चुना; लेकिन उनकी मजबूरी | ईसाई से डरा हुआ हूं, न मुसलमान से डरा हुआ हूं, न हिंदू से, न से मैं बंधा हुआ नहीं हूं। उन्होंने ठीक माना होगा। उनकी | जैन से, न बौद्ध से—किसी से डरे होने का कोई कारण नहीं है। परिस्थिति में जो उन्हें ठीक लगा होगा, किया होगा। लेकिन हां, अगर मुझे कोई नया धर्म स्थापित करना हो तो भय आ उनकी परिस्थिति मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है। यही तो मुझे जायेगा। क्योंकि फिर मुझे खयाल रखना पड़ेगा। सारे बाजार सुविधा है। मेरे ऊपर किसी का बंधन नहीं है। अगर जैन का खयाल रखना पड़ेगा। मेरी चीज कुछ नयी होनी चाहिए, महावीर पर बोलेगा तो उसको अड़चन होगी। वह हिम्मत नहीं | पृथक होनी चाहिए; उसमें गंध, रंग अलग होना चाहिए, जुटा पाता। उसको महावीर का बंधन मानकर चलना पड़ता है। ट्रेडमार्का अलग होना चाहिए, तो ही टिक पायेगी बाजार में, जो महावीर ने कहा, वह हर हालत में ठीक होना ही चाहिए। उस अन्यथा खो जायेगी। दिन के लिए भी ठीक होना चाहिए, आज भी ठीक होना चाहिए। मेरी तो चेष्टा बड़ी भिन्न है। मेरी चेष्टा यह है कि जो अब तक मैं कहता हूं, उस दिन जरूर ठीक रहा होगा; क्योंकि महावीर | जाना गया है और काफी जान लिया गया है-अब उस जैसा बुद्धिशाली व्यक्ति, जब इस शब्द को चुना था तो बहुत | जानने का सार-निचोड़ लोगों को मिलना शुरू हो जाये। सोचकर चुना होगा। लेकिन महावीर कोई सदा के लिए आदमी धर्मों का कोई भविष्य नहीं है। धर्म गये, अतीत की बात हो को बांध नहीं गये। कौन बांध जाता है? कौन बांध सकता है? गये। जैसे विज्ञान एक है, ऐसा ही भविष्य में कभी धर्म भी एक मेरे लिए कोई मजबूरी नहीं है। इसलिए मैं पतंजलि पर भी होगा। हिंदू नहीं होगा, मुसलमान नहीं होगा, ईसाई नहीं होगा। बोलता हूं, तो भी मेरी कोई मजबूरी नहीं है। कोई बंधन नहीं है। इन सबने अपनी-अपनी धाराएं धर्म के सागर में डाल दीं। अब कोई ऐसा नहीं है कि पतंजलि ने जो कहा है, वह ठीक ही कहा | सागर को हम गंगा थोड़े ही कहते हैं, यमुना थोड़े ही कहते है। आज के लिए तो मैं फिक्र नहीं करता। आज के लिए तो मैं हैं-कोई जरूरत नहीं कहने की। सागर यमुना से भी बड़ा है, जो कहूंगा, मैं मानता है, ज्यादा ठीक है। उन्होंने अपने समय के गंगा से भी बड़ा है, ब्रह्मपुत्र से भी बड़ा है-हजारों नदियों को लिए कहा होगा। जैसे वे अपने समय के लिए कहने के हकदार लील जाता है; इंचभर ऊपर नहीं उठता। हजारों नदियां बादलों थे, वैसे अपने समय के लिए कहने के लिए मैं हकदार हूं। में उड़ जाती हैं; इंचभर नीचे नहीं गिरता। अब धर्म का सागर निश्चित ही, मैं यह नहीं कहता कि मैं जो कह रहा हूं, वह बनना चाहिए; ताल, सरोवर बहुत हो चुके। अब उन्होंने काफी सदा-सदा सही रहेगा; कभी न कभी सड़ जायेगा, मरेगा। तब बोध की सामग्री इकट्ठी कर दी है। अब कोई जरूरत नहीं है कि कोई न कोई उसे बदलेगा-बदलना ही चाहिए। इस जगत में हिंदू मुसलमान से लड़े, कि जैन हिंदू से लड़े। अब तो जरूरत है कोई भी व्यक्ति सभी के लिए सदा के लिए निर्णायक नहीं हो कि जैन, हिंदू और मुसलमान और ईसाई और सिक्ख के बीच जो सकता; नहीं तो मनुष्य की स्वतंत्रता, महिमा मर जायेगी। | सारभूत है, वह प्रगट हो जाये; ताकि धर्म का विज्ञान बने। गुनो, सुनो, समझो, लेकिन कभी भी अंधी लकीरें मत पीटो। अब विज्ञान विज्ञान है; न ईसाई है, न हि 351 www.jainelibrarorg Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग शा है। कोई ईसाई भी अगर वैज्ञानिक सत्य खोजता है तो उस सत्य | जाओ, फिर कोई बात नहीं। खाट से, अब खाट से बचोगे तब को हम ईसाई तो नहीं कहते। आइंस्टीन ने रिलेटिविटी का तो फिर जीना ही मुश्किल हो जायेगा। सिद्धांत खोजा, सापेक्षता का सिद्धांत खोजा। इसको हम ईसाई | ईरान में कहावत है, जमीन पर सोनेवाला खाट से कभी नहीं तो नहीं कहते, यहूदी तो नहीं कहते, मुसलमान तो नहीं कहते। गिरता। बिलकुल ठीक है। जब जमीन पर ही सो रहे हैं तो खाट मुसलमान खोजे तो भी वह विज्ञान, हिंदू खोजे तो भी विज्ञान, से गिरोगे कैसे? लेकिन ऐसे कहां तक बचते रहोगे? फिर यहूदी खोजे तो भी विज्ञान। तो धर्म के संबंध में भी, कोई भी | जीओगे कैसे? फिर यह जीना तो एक पलायन हो जायेगा। यहां खोजे, वह उस एक ही परम सत्य की तरफ इशारे हैं। अंगुलियों | तो हर चीज में खतरा है। यहां प्रेम करो, खतरा है। यहां घर से को छोड़ो अब, अब चांद को देखो! | बाहर निकलो, खतरा है। यहां सांस लो, खतरा है। इन्फैक्शन। मेरी चेष्टा है कि तुम्हें अंगुलियों से छड़ाऊं और चांद को | यहां पानी पीयो, खतरा है। यहां भोजन करो, खतरा है। यहां दिखाऊं, क्योंकि सभी अंगुलियां उसी चांद की तरफ बता रही | खतरा ही खतरा है। यहां तो मरे हए ही खतरे के बाहर हैं। हैं। हां, किसी अंगुली पर हीरे जड़ा हुआ शृंगार है; कोई अंगुली | देखा तुमने, मरा हुआ आदमी बिलकुल खतरे के बाहर है। काली-कलूटी है; कोई दुर्बल है; कोई बड़ी सुंदर है, युवा है | पहली तो बात, अब मर नहीं सकता। कोई बीमारी नहीं लग कोई बूढ़ी है; कोई अति प्राचीन है; कोई अभी छोटे बच्चे की सकती, छूत की बीमारी नहीं लग सकती। दूसरे इससे बचते हैं, तरह है, नये-नये पल्लव की भांति-मगर ये सारी अंगुलियां | यह किसी से नहीं बचता। तो जिन लोगों ने भी खतरे, खतरे, जिस चांद की तरफ उठी हैं, वह एक है। हमने अंगुलियों पर | खतरे को सोचा है, हिसाब रखा है, वे धीरे-धीरे मर गये। इस अब तक बहुत ध्यान दिया, अब अंगुलियों को छोड़ें और चांद | देश के मुर्दा हो जाने में बड़ा हाथ है-इस धारणा का, कि इसमें पर ध्यान दें। इशारा समझें। खतरा है, इसमें खतरा है। तो सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते तो मैं तो प्रेम शब्द का उपयोग जारी रखेंगा। खतरा तो है, जाओ-जाओगे कहां? लेकिन खतरे से क्या घबड़ाना? खतरे से घबड़ा-घबड़ाकर ही मैंने सुना है, पुराने गांव की एक कहानी है कि गांव का जो तो आदमी नपुंसक हो गया है। हर जगह खतरे से बच रहे हैं। मालगुजार था, उससे मिलने एक ब्राह्मण आया। तो जब ब्राह्मण धीरे-धीरे तुम पाओगे, जिंदगी से भी बच गये; क्योंकि जिंदगी आये तो मालगुजार को नीचे बैठना चाहिए। मालगुजार अपने स्वयं खतरा है। जो प्रेम से बचेगा, आज नहीं कल जिंदगी से भी तखत पर बैठा था। ब्राह्मण आया तो मालगजार, वह नीचे बचेगा। जिंदगी में भी खतरा है। मौत तो जिंदगी में ही घटेगी। ब्राह्मण बैठने लगा। मालगुजार ने कहा, 'यह ठीक नहीं है, कभी तुमने सोचा...? नियम के विपरीत है। तुम ऊपर बैठो, मैं नीचे बैठता हूं।' उस मेरी बूढ़ी नानी थी। वह सदा डरती थी कि मैं हवाई जहाज में न ब्राह्मण ने कहा, 'लेकिन इसमें बड़ी झंझट आयेगी।' जिद्दी था जाऊं। जब भी मैं घर से निकलता, तब वह कहती, ‘एक बात मालगुजार भी। उस ब्राह्मण ने कहा, 'ऐसा कहां तक करोगे? खयाल रखना-हवाई जहाज में कभी नहीं।' | क्योंकि अगर मैं नीचे बैठेंगा. तम क्या करोगे फिर?' उसने मैंने उसको कहा कि तू डरती क्यों है हवाई जहाज से? उसने | | कहा, 'मैं गड्डा खोदकर उसमें नीचे बैठ जाऊंगा।' उसने कहा, कहा कि अखबार में खबर आती है कि गिर गया, लोग मर गये। | 'अगर मैं गड्ढे में आ गया, फिर? उसने कहा, 'मैं और गड्डा मैंने कहा, 'तुझे पता है, निन्यानबे प्रतिशत लोग तो खाट पर नीचे खोद लूंगा।' उस ब्राह्मण ने कहा, 'मैंने अगर और गड्डा मरते हैं? तो क्या खाट पर सोना बंद कर दूं, बोल?' उसने खोद लिया तो?' उस मालगुजार ने कहा, 'फिर गड्डे को पूर के कहा, यह बात तो ठीक है। उसको भी जंची बात। उसने कहा, मैं घर चला जाऊंगा। फिर क्या करूंगा? तुम मेरे पीछे ही लगे यह बात तो ठीक है। मरते तो खाट पर ही हैं निन्यानबे प्रतिशत रहोगे, तो तुमको गड्ढे में पूर के, मैं घर चला जाऊंगा।' लोग। तो अगर दुर्घटना कोई बचानी है तो खाट बचानी है। ऐसे कहां तक भागते रहोगे? कहीं तो भय को गड्ढे में दबाना कभी-कभार कोई मरता है हवाई जहाज में। उसने कहा, फिर पड़ेगा। कहीं तो उसको पूरना पड़ेगा। 352 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो-सुबह करीब है यह मुझे पता है कि प्रेम खतरनाक शब्द है। सभी जीवंत शब्द | है? कि तुम हीरे से बचोगे? हीरे का काम किसी का सिर तोड़ खतरनाक होते हैं। डालना नहीं है। यह तो छोटे-मोटे पत्थर से भी हो सकता था। अहिंसा क्लीनिकल है। अहिंसा बिलकुल अस्पताल में धोया, | मनुष्य ने प्रेम का, प्रेम-ऊर्जा का बड़ा निम्नतम उपयोग किया पोंछा, साफ-सुथरा शब्द है। उसमें रोगाणु हैं ही नहीं। जीवाणु है, क्षुद्रतम उपयोग किया है। वह उपयोग है-और संतति को ही नहीं हैं तो रोगाणु कहां से होंगे? वह बड़ा डाक्टरी शब्द है। पैदा करना। प्रेम का जो परम उपयोग है, वह स्वयं को जन्म देना उसमें काफी औषधियां छिड़की गई हैं। पर वह पीने योग्य भी है। प्रेम का जो साधारण उपयोग है, वह दूसरे को जन्म देना है। नहीं रहा, जैसा बहुत पोटेशियम डाल दिया हो पानी में। प्रेम की जो आखिरी पराकाष्ठा है, वह अपने को जन्म देना प्रेम बड़ा जीवंत शब्द है—होना ही चाहिए; क्योंकि सारा है-आत्म-जन्म। प्रेम की जो आखिरी पराकाष्ठा है, वह बाहर जगत प्रेम से जीता है। तुम जन्मे हो प्रेम से। तुम जीओगे प्रेम | दिखाई पड़नेवाली देहें, शरीर, रूप, रंग, इन पर ही समाप्त नहीं में। और काश, तुम मर भी सको प्रेम में, तो धन्यभागी हो! हो जाती। रंग में जो छिपा है, रूप में जो छिपा है, दृश्य में जो जन्मते सभी हैं, जीते बहुत कम हैं; मरते तो कभी-कभी कोई हैं। छिपा है, जब वह दिखाई पड़ने लगे, तब तुम समझना कि तुमने जन्मते सभी प्रेम में हैं। प्रेम का पूरा उपयोग किया। इसलिए प्रेम की प्रबल आकांक्षा जीवन में होती है—प्रेम तुम्हारे पास रोशनी है, लेकिन रोशनी से अगर तुम जिंदगी की मिले, प्रेम बंटे, प्रेम दिया जाये, प्रेम लिया जाये। जीवन का गंदगी ही देखते फिरो तो रोशनी का कोई कसूर नहीं है। यह सारा आदान-प्रदान प्रेम के सिक्कों का है। प्रेम से मत भागना; रोशनी तुम्हें जिंदगी का परम रूप भी दिखा सकती थी। क्योंकि जो प्रेम से भागा, वह जीवन से भागा, और जो जीवन से है तेरा हुस्न जब से मेरा मरकजे-निगाह भागा वह परमात्मा के मंदिर को कभी भी खोज न पायेगा। हर शै है एतबारे-नजर से गिरी हुई। मछली की तरह तड़पायेगा अहसास तुझे पायाबी का और एक बार उसका रूप तुम्हें थोड़ा दिखाई पड़ने लगे, थोड़ी जीना है तो अपने दरिया में इमकाने-तलातुम रहने दे। उसकी झलक आने लगे, उसके हुस्न की, उसके सौंदर्य की; -घबड़ा मत तूफानों से। अगर जीना है... फूलों में से कभी तुम्हें उसकी आंख भी झांकती दिखाई पड़ने जीना है तो अपने दरिया में इमकाने-तलातुम रहने दे लगे; सागर की लहरों में कभी तुम्हें उसकी भी लहर का अनुभव -रहने दे आंधियों, तूफानों की संभावना। अगर आंधी और | हो जाये... तूफान की सारी संभावना काट दी, तो दरिया दरिया न रह है तेरा हुस्न जब से मेरा मरकजे-निगाह! जायेगा, छिछला हो जायेगा। तुम्हारी आंख में जरा उसके सौंदर्य की छाया बनने लगे, । मछली की तरह तड़पायेगा अहसास तुझे पायाबी का-फिर प्रतिबिंब, परछाई पड़ने लगे... उथला पानी तुझे मछली की तरह तड़पायेगा। तूफान रहने दो; | हर शै है एतबारे-नजर से गिरी हुई! क्योंकि तूफानों से टक्कर लेकर ही जीवन निखरता है। तूफानों में उसी दिन से सब चीजें मूल्य खो देंगी। उसी दिन से तुम धन, से गुजरकर ही जीवन का निखार आता है। पद, प्रतिष्ठा, देह, वस्तुएं, इन सब का मूल्य गिर जायेगा। प्रेम को मैं धर्म कहता हूं। लेकिन कठिन है, क्योंकि तुमने प्रेम महावीर कहते हैं, इन सब का मूल्य गिरा दो तो सत्य तुम्हें को केवल वासना की तरह जाना है। इसलिए तुम्हारे डर को मैं | उपलब्ध हो जायेगा; मैं तुमसे कहता हूं कि तुम परमात्मा का समझता हूं। तुम घबड़ाये हो! प्रेम? प्रेम से तो तुमने केवल थोड़ा इशारा खोजने लगो, थोड़ा उसका हुस्न तुम्हारी आंख में वासना जानी है। प्रेम से तो तुमने अपने बहुत निम्नतम रूप का | उतरने लगे, थोड़ा उसका नशा तम्हें मदमस्त करने लगे तो चीजें ही संबंध जोड़ा है। यह तुम्हारी भूल है, इसमें प्रेम का कोई कसूर अपने-आप छूट जायेंगी। नहीं। अब किसी आदमी के हाथ में हीरा हो और वह उसको और ये दो ही रास्ते हैं : या तो चीजें छोड़ो, तो सत्य का दर्शन किसी के सिर में मारकर सिर तोड़ डाले तो इसमें हीरे का कसूर होता है; या सत्य का दर्शन शुरू करो, तो चीजें छूट जाती हैं। 353 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 15 अब मैं तुमसे कहता हूं कि पहला मार्ग बड़ा खतरनाक है। चीजें को रास आता है, जो उनके शास्त्र के अनुकूल पड़ता है, वही छोड़ो, पक्का नहीं है कि चीजें छूटने से उसका दर्शन हो जायेगा; बोलना पड़ता है। जब मेरे पास कभी आ जाते हैं, क्योंकि अब कहीं ऐसा न हो कि चीजें छूटने से तुम केवल सिकुड़कर रह तो उनके अनुयायी भी आने नहीं देते; पहले आ जाते थे, तो वे जाओ और दर्शन की क्षमता भी खो जाये। ऐसा ही हुआ है। मुझसे कहते थे, अकेले में बात करनी है। अपने अनुयायियों को कभी कोई एक-आध महावीर अपवाद हो जाते हैं, बात अलग। बाहर कर देते। अकेले में क्यों करनी है? वे कहते कि आप नियम नहीं हैं वे। अधिक लोगों को तो मैं यही देखता हूं कि चीजें इनको तो बाहर जाने दें, इनके सामने सच न कहा जा सकेगा। छोड़-छोड़कर उनको कुछ मिला नहीं है; कुछ छूटा जरूर, मिला अकेले में उनके प्रश्न बुनियादी रूप से तीन मैंने पाये। एक, कि कुछ भी नहीं है। मिलने से तो वे भयभीत हो गये हैं, डरते हैं। मैं उन्होंने छोड़ दिया सब, लेकिन भीतर से रस नहीं गया है। दूसरा, तो तुमसे कहूंगा छोड़ना मत, जब तक कि श्रेष्ठ का अनुभव न हो | जो-जो वासनायें उन्होंने दबा ली हैं, जैसे-जैसे देह कमजोर होती जाये। श्रेष्ठ को पहले उतरने दो; आने दो रोशनी को, फिर | जाती है, वे वासनाएं प्रबल होकर उभर रही हैं। पैंतालीस साल अंधेरा जायेगा। के बाद पता चलना शुरू होता है, जो-जो दबा लिया, वह तम खेल रहे थे कंकड़-पत्थर से, फिर कोई हीरे दे गया था; मुश्किल में डालता है। क्योंकि दबाने की ताकत कमजोर हो कंकड़-पत्थर छुट जायेंगे। हीरे जब सामने हों तो मुट्ठियां कौन जाती है। दबानेवाला दीन होने लगता है, क्षीण होने लगता है। कंकड़-पत्थरों से भरेगा! और जो वासना दबाई है, अंगार की तरह वह ताजी रहती है। लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम कंकड़-पत्थर छोड़ दो तो कोई | और तीसरी बात, एक संदेह कि हमने जो किया है, वह ठीक आकर हीरों से तुम्हारी मुट्ठियां भर दे। किया? यह उचित हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो संसार में अकसर तो मैं देखा हूं, जैन मुनि जब मेरे पास कभी आते हैं, तो है वही ठीक हो? उनकी बात सुनकर बड़ी व्यथा होती है। अब यह बड़ी दयनीय दशा है। यह तुमसे ज्यादा दयनीय दशा तो वे यही कहते हैं कि हमने छोड़ तो सब दिया, लेकिन पाया | है। यह तुमसे ज्यादा मुश्किल और उलझन की दशा है। तुम्हारे तो कुछ भी नहीं। जिंदगी हो गई छोड़ने में, अब मौत करीब आने पास कुछ तो है—संसार ही सही; ये हाथ बिलकुल खाली हो लगी। अब तो हाथ-पैर भी कंपने लगे। अब डर भी समाने गये। इन खाली हाथों की दीनता देखो लगा। अब लौटकर भी उस संसार में नहीं जा सकते जिसको मैं तुम्हें दीन नहीं बनाना चाहता। मैं कहता हूं, तुम परमात्मा छोड़ आये। अब थूककर चाटना ठीक भी नहीं मालूम होता।' को खोजो। वह जैसे-जैसे मिलता जायेगा, वैसे-वैसे संसार और समय भी न रहा, शक्ति भी न रही। लेकिन भीतर एक तिरोहित होता जायेगा। जैसे-जैसे तुम्हारे हाथ भरने लगेंगे संदेह उठता है। न मालूम कितने जैन मुनियों ने मुझसे कहा है कि उससे, वैसे-वैसे तुम पाओगे संसार से हाथ हटने लगे। हटाना भीतर एक संदेह उठता है कि हमने छोड़कर ठीक किया? कहीं न पड़ेंगे। हटाना पड़े तो दमन होता है। हट जायें, अपने से हट हमसे कुछ भूल तो नहीं हो गई? जायें तो उसका सौंदर्य ही अनूठा है। फिर उसकी लकीर भी नहीं कहीं ऐसा तो नहीं था कि यही संसार सब कुछ है और हम | रह जाती भीतर, पीड़ा भी नहीं रह जाती। इसको भी छोड़ बैठे? दूसरा तो मिला नहीं, यह छूट गया। जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां तुम्हें उनकी पीड़ा का अंदाज नहीं, क्योंकि तुम केवल उनका आगे बढ़े हए हैं हर इक कारवां से हम। प्रवचन सुनते हो। प्रवचन में तो वे वही दोहराते हैं, जिसको | -और जिस दिन तुम अपनी बागडोर प्रेम के हाथ में दे सुनकर वे फंस गये हैं। प्रवचन में तो वे सत्य नहीं कहते। | दोगे... अभी तक आदमी इस प्रामाणिकता को उपलब्ध नहीं हुआ कि जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां प्रवचन में सत्य कहे। प्रवचन में तो वह वही कहता है जो तुम्हें -और जिस दिन से तुम्हारा पथ-प्रदर्शक, अगुआ प्रेम हो रास आता है, भाता है। अब जैनों के बीच बोलते हैं तो जो जैनों | जायेगा... 354 ain Education International Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो-सुबह करीब है आगे बढ़े हुए हैं हर इक कारवां से हम। तुम जिसे प्रेम करते हो उसी की गर्दन दबाने लगते हो, इतनी --उसी दिन तुम पाओगे, तुम सबसे ज्यादा आगे बढ़ गये | हिंसा है। प्रेमी अकसर एक-दूसरे को मार डालते हैं। विवाह की हो। प्रेम के अतिरिक्त कोई आगे बढ़ा नहीं है। प्रेम पथ-प्रदर्शक | तिथि अकसर मरण की तिथि सिद्ध होती है। है। प्रेम प्रकाश का दीया है। एक आदमी का विवाह हो रहा था। राह पर एक मित्र मिल खतरे मुझे मालूम हैं कि प्रेम के हैं, क्योंकि तुमने प्रेम का गलत गया। कल विवाह होनेवाला था। उस मित्र ने कहा, 'बड़ी रूप जाना है। लेकिन तुम्हारे गलत रूप जानने के कारण सत्य | बधाइयां!' उस मित्र ने कहा, 'शायद तुम्हें पता नहीं है, अभी तुमसे न कहूं, तो वह और भी खतरनाक होगा। मैं वही कहूंगा | मेरा विवाह हुआ नहीं, कल होनेवाला है। उसने कहा, जो ठीक है। तुम्हें उसमें से गलत निकालना हो, निकाल लेना। | इसीलिए तो बधाइयां दे रहे हैं, फिर बधाइयां देने का उपाय न वह तुम्हारी जिम्मेवारी है। लेकिन जिम्मेवार तुम्हीं रहोगे। लेकिन | रहेगा। एक दिन और बचा है, जी लो! चल लो मस्ती से, इस कारण कि कहीं तुम कुछ गलती न कर लो, मैं तुम्हें मारना | स्वतंत्रता से।' नहीं चाहता। तुम्हारी जिंदगी तो पूरी-पूरी ऊर्जा से भरी हुई होनी । अगर राह पर तुम स्त्री-पुरुष को चलते देखो तो तुम तत्क्षण चाहिए। कोई हर्जा नहीं, आज गलत जाओगे; जिस ऊर्जा से कह सकते हो कि ये पति-पत्नी हैं या नहीं। पति डरा-डरा चल गलत गये हो, उसी ऊर्जा से वापिस भी आ सकते हो। रहा है, नीचे नजर रखकर चल रहा है, इधर-उधर देखता नहीं; लेकिन प्रेम को जरा कसना। रोज-रोज ऊपर उठाना। क्योंकि फिर झंझट खड़ी हो जाये! रोज-रोज देखना कि उसके और नये-नये सोपान हैं। यह प्रेम गर्दन को काट जाता है। मधुर-मधुर सोपान हैं! बड़े प्रीति-भरे! मैं एक ट्रेन में सफर कर रहा था। एक महिला मेरे साथ उस तुम तो जिसे प्रेम कहते हो, वह बड़ी मिश्रित अवस्था है; जैसे | डब्बे में थी। उसका पति भी था, लेकिन वह किसी दूसरे डब्बे में सोने में बहुत कूड़ा-कर्कट मिला हो। था। पर वह हर स्टेशन पर आता। तो मैंने उससे पूछा कि मुझे इसलिए तुम्हारे प्रेम में घणा भी मिली है। तुम जिसको प्रेम शक होता है, ये पति हो नहीं सकते। उसने कहा, 'क्यों?' वह करते हो उसी को घृणा भी करते हो। थोड़ी चौंकी। तुमने कभी जांचा अपने मन को कि जरा पत्नी नाराज हो जाती 'कितने दिन हुए शादी हुए?' है कि तुम सोचते हो कि मर ही जाये तो बेहतर। सोचने लगते हो | उसने कहा, 'कोई सात-आठ साल हो गये।' कि हे भगवान, इसको उठाओ! कहां फंस गये इस चक्कर में! 'यह बात उपन्यास में हो सकती है। सात-आठ साल हो गये, बेटा तुम्हारे अनुकूल नहीं चलता तो मां कहने लगती है कि तुम और पति हर स्टेशन पर उतरकर आते हैं इस भीड़-भड़क्का पैदा ही न हुए होते जो अच्छा था। तुम्हारे प्रेम से घृणा बहुत दूर में...!' नहीं है। तुम्हारे आशीर्वाद से तुम्हारा अभिशाप बहुत दूर नहीं है। वह कहने लगी, 'आपने ठीक पहचाना। वे मेरे पति हैं नहीं, पास ही पास बैठे हैं। तुम्हारी मुस्कुराहट तुम्हारे आंसुओं से बहुत लगाव है।' ज्यादा दूर नहीं है। तब बात ठीक है। लगाव एक बात है। पत्नी तुम किसी और थोड़ा जागो! इसे देखो। तुम्हारा प्रेम क्षण में क्रोध बन जाता | की होओगी। नहीं तो अपना पति हर स्टेशन पर उतरकर आये! है, क्षणभर में क्रोध बन जाता है। अभी जिसके लिए तुम जान | एक दफे जो छटा, तो वह आखिरी स्टेशन पर भी आ जाये तो देने को तैयार थे, क्षणभर में उसी की जान लेने को तैयार हो जाते | काफी है।' हो। जरा सोचो, जरा जागो और देखो। | प्रेम में बड़ा और बहुत कुछ मिला हुआ है। एक-दूसरे की यह प्रेम बहत गंदगियों से मिला हुआ है। इसमें क्रोध भी है। गर्दन दबा देते हैं। हां, बहाने हम अच्छे खोजते हैं। लेकिन इसमें द्वेष भी है। इसमें ईर्ष्या भी है, मत्सर है, मोह है, राग है, जिसको प्रेम कहें, वह अभी बड़ी दूर है। लेकिन जिसे तुम प्रेम घृणा है, हिंसा है। कह रहे हो, उसमें भी वह पड़ा है। इसलिए मैं यह न कहूंगा, इस नागो आरआ है। इस है, राग 355 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 4 सब को फेंक देना। इसको निखारना है। इस सोने में मिट्टी मिली नहीं है कि तुम कुछ और हो गये हो जो तुम नहीं हो। भूलने का है, माना; मिट्टी को काट डालना है, सोने को बचाना है। तो इतना ही अर्थ है कि तुमने कुछ और समझ लिया है। हो तो तुम | दुनिया में कुछ लोग हैं जो इसी को प्रेम समझ रहे हैं। वे गलत। वही जो हो। जैसे आज रात तुम यहां सोओ और सपने में देखो, और दुनिया में कुछ लोग हैं जो मिट्टी के कारण इस पूरे प्रेम को | कलकत्ते में हो, तो कोई कलकत्ते पहुंच नहीं गये। कोई लौटने के फेंक देने को कहते हैं। वे भी गलत; पहले से भी ज्यादा गलत। | लिए तुम्हें कोई हवाई जहाज नहीं पकड़ना पड़ेगा। कोई हिलाकर क्योंकि मिट्टी के बहाने कहीं सोने को मत फेंक देना! जगा देगा, तुम पूना में जगोगे, कलकत्ते में नहीं जगोगे। तुम यह अहिंसा की धारणा में वही हो गया है। फेंक ही दो इस प्रेम न कहोगे कि यह क्या मुसीबत कर दी। तुम भागकर स्टेशन भी को; इसमें खतरा है, इसमें उपद्रव है, इसमें तनाव है, परेशानी न जाओगे कि अब मैं पकडूं ट्रेन पूना जाने की, इस आदमी ने है, अशांति है। फेंक ही दो। लेकिन साथ ही सोना भी चला कलकत्ते में जगा दिया। सपने में कलकत्ते में थे। यह सिर्फ जाता है। खयाल था। असलियत में तो तुम पूना में ही हो। मैं तुमसे कहता हूं, ये दोनों अतियां हैं, इनसे बचना। इसमें से | परमात्मा को खोया जा नहीं सकता। हो तो तुम परमात्मा में मिट्टी तो काटनी है-घृणा काटनी है, क्रोध काटना है, मत्सर, | ही। सपने तुम कोई भी देख लो। और सपना तुम्हारी स्वतंत्रता ईर्ष्या अलग करनी है—प्रेम को निखारना है। है। और सपने बड़े मधुर हैं। और सपने एकदम बुरे भी नहीं हैं, जीवन एक प्रयोगशाला है प्रेम को निखार लेने की। और क्योंकि इन्हीं सपनों के माध्यम से तुम अपने से अपने को दूर कर धन्यभागी हैं वे जो अपने प्रेम को पूरा निखार लेते हैं। उस प्रेम के लेते हो, फासला कर लेते हो। फिर मिलन का मजा आ जाता निखरे रूप में ही जगत जैसा दिखाई पड़ता है उसका नाम है। जैसे मछली सागर में ही रहती है तो सागर को भूल ही जाती परमात्मा है। उस प्रेम के निखरे रूप में ही तुम जिस नियति को है, सागर का पता ही नहीं चलता। जरा फेंक दो मछली को उपलब्ध होते हो, उसका नाम आत्मा है। किनारे पर, तड़फती है तब उसे पहली दफा याद आती है कि सागर क्या है। दूसरा प्रश्नः जो दीया तूफान से बुझ गया उसे फिर जलाकर तुम अपने सपनों के तट पर तड़फ रहे हो। यह तड़फ तुम्हें फिर क्या करूं? जो स्वभाव स्वप्न में खो गया, उसे वापस जगाकर सागर में ले जायेगी। अब तुम पूछते हो कि क्या फायदा जो क्या करूं? आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि मैं ही परमात्मा दीया तूफान से बुझ गया...?' बुझा नहीं है। कोई तूफान हूं, लेकिन जो परमात्मा घर से ही भटक गया, उसे घर वापिस तुम्हारे दीये को बुझा नहीं सकता; अन्यथा तूफान तो इतने बुलाकर क्या करूं? हैं...। कोई तूफान तुम्हारे दीये को नहीं बुझा सकता। किसको पता चल रहा है यह? यह कौन कह रहा है कि क्या करूं उस ऐसा प्रश्न बहुतों के मन में उठता है, स्वाभाविक है। लेकिन दीये को फिर से जलाकर जिसको तूफान ने बुझा दिया? यह जो तुम जीवन की जटिलता को नहीं समझ रहे हो। स्वभाव इसीलिए कह रहा है वही तो तुम्हारा दीया है-यह तुम्हारा जो खो गया है, क्योंकि बिना खोये तुम उसे जान ही न सकोगे। वह चैतन्य-भाव है। यह कौन कह रहा है कि क्या फायदा उस जानने की प्रक्रिया है। जो तुम्हारे पास है, सदा से है, सदा से है, परमात्मा को खोजने से जो घर से ही दूर चला गया? मगर यह सदा से है, तुम उसके प्रति अंधे हो जाते हो। उसे खोना जरूरी कौन है जो कह रहा है? है, ताकि तुम पा सको। पाने के लिए खोना अनिवार्य है। खोकर यही तुम्हारा परमात्म-भाव है। यह साक्षी-भाव, यह चैतन्य, भी तुम वस्तुतः थोड़े ही खोते हो, क्योंकि स्वभाव तो वही है जो यह ज्ञान, यह बोध, यह ज्योति। दीया बुझता नहीं। यह दीया खोया न जा सके। बुझनेवाला दीया नहीं है। और बुझ जाता तो इसके जलाने के विस्मरण का नाम खोना है। तुम भूल गये हो। और यह भूलने फिर कोई उपाय न थे। बुझ जाता तो तुम होते ही न। बुझ जाता की बात अत्यंत आवश्यक है समझ लेनी। भूलने का अर्थ यह तो सोचनेवाला भी न होता कि कैसे इसे जलाऊं। तुम हो। तुम 356 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । उठो, जागो-सुबह करीब है परिपूर्ण हो। सिर्फ एक सपने ने तुम्हें घेर लिया है। एक बादल आनी चाहिए। और खेल में 'क्यों' का तो सवाल मत उठाना। आ गया है। और सूरज को ढांक लिया है। क्योंकि 'क्यों' दुकानदार का शब्द है, खिलाड़ी का नहीं। अब यह धूप-छांव का खेल बड़ा मधुर है। इसलिए हिंदुओं की दो आदमी फटबाल खेल रहे हैं, तो तम पछते हो, 'यह क्या परिभाषा बड़ी अनूठी है। वे कहते हैं, लीला है। तुम इसको बड़ा फायदा? इधर से गेंद उधर मारी, उधर से इधर मारी; अरे एक काम समझ रहे हो कि खो दिया, अब क्या फायदा! तुमने कभी जगह रखो, बैठ जाओ शांति से।' आदमी बालीबाल खेल रहे बचपन में छिया-छी नहीं खेली? दो बच्चे छिया-छी खेलते हैं, | हैं, तुमने देखा कैसा पागलपन करते हैं। बीच में एक जाली बांध दोनों आंख बंद करके खड़े हो जाते हैं, छिप जाते हैं। पता है कि रखी है, इधर से फेंक रहे हैं उधर; उधर से फेंक रहे हैं इधर। और यहीं छिपे हैं, इसी कमरे में छिपे हैं। कई बार चक्कर लगाते हैं, | इनकी तो छोड़ो ही, कई भीड़ लगाकर खड़े हैं देखने के लिए। खोजते हैं कहां छिपा है, बड़ा शोरगुल मचाते हैं और उन्हें इतना-सा काम हो रहा है, गेंद इधर से उधर फेंकी जा रही यह पक्का पता है कहां छिपा है,क्योंकि घर ही कौन बड़ा है; वही । तो दो मशीनें लगाकर भी कर सकते हो। इसमें सार क्या है? कमरे में कहीं छिपा है, बिस्तर के नीचे चला गया है कि दीवाल अगर दुकानदार है तो पूछेगा, 'क्यों? इससे मिलेगा क्या?' की ओट में खड़ा हो गया है। सब पता है। लेकिन फिर खेल का लेकिन तब चूक गये बात। मिलने का सवाल नहीं है, खेल में ही मजा चला जाता है, जब सब पता ही है तो। तो थोड़ा दौड़ते हैं, रस है। यह जो खेल की उमंम है, इसमें ही रस है। धामते हैं, खोजते हैं, इधर-उधर झांकते हैं, फिर पकड़ लेते हैं। | तिनके की तरह सैले-हवादिस लिये फिरा हिंदू कहते हैं, यह जगत छिया-छी है, लीला है। तुम्हीं अपने | तूफान लेकर आये थे हम जिंदगी के साथ। को खोज रहे हो, तुम्हीं अपने को छिपा रहे हो। तुम पूछोगे, तूफान हमारे साथ आया है। जिंदगी तूफान है। इसमें बड़ी 'क्यों? क्यों खेलें छिया-छी?' मत खेलो। सारा धर्म वही तो लहरें उठती हैं, बड़ी आंधियां आती हैं। फिर सन्नाटा भी छा जाता कला सिखाता है तुम्हें कि जिनको छिया-छी नहीं खेलनी, वे है। सन्नाटे के लिए आंधी जरूरी है; आंधी के लिए सन्नाटा ध्यान करें, वे छिया-छी के बाहर हो जाते हैं। ध्यान का मतलब जरूरी है-दोनों परिपूरक हैं। यहां मिलना भी है, खोना भी है; कुल इतना ही है कि अगर थक गये, अब तुम्हें खेलना नहीं है, तो पाना भी है, बिछुड़ना भी है; याद भी है, विस्मृति भी है। ये दोनों घोषणा कर दो कि अब हम खेल के बाहर होते हैं, अब हम जरा पहलू हैं, दो पंख हैं। इनसे ही जीवन के आकाश में उड़ने का विश्राम करेंगे, या अब हमें भूख लगी है, अब हम घर जाते हैं। उपाय है। जिनको अभी खेलने में रस आ रहा है, वे खेलें। जिनको खेलने ये हादसे कि जो इक-इक कदम पे हाइल हैं में अब थकान आने लगी है, वे घर लौट जायें। खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा लेंगे। परमात्मा की खोज का मतलब इतना ही है कि अब बहुत हो जमाना ची-ब-जबीं है तो क्या बात है 'रविश' गई छिया-छी; अब थक गये। बस इतना ही स्मरण काफी है कि हम इस अताब पे कुछ और मुस्कुरा लेंगे। थक गये—विश्राम। जैसे दिनभर आदमी मेहनत करता है, रात ये हादसे, ये घटनायें जो हर कदम पर घट रही हैं, ये पत्थर जो सो जाता है। अब तुम यह तो नहीं कहते रात खड़े होकर कि अब हर कदम पर अड़े हुए हैं, खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा क्यों सोयें, जब दिनभर मेहनत की! तुम्हारी मर्जी, न सोना हो तो | लेंगे। घबड़ाओ मत; ये पत्थर नहीं हैं, ये सीढ़ियां बन जानेवाली न सोओ, खड़े रहो। रातभर सोये रहे, अब सुबह तुम्हें कोई हैं। यह भटकाव ही उसके पहुंचने का रास्ता बन जाने वाला है। उठाने लगे तो तुम यह तो नहीं कहते कि नहीं उठेंगे अब; रातभर | यह दूर हो जाना ही पास आने का उपाय है। सोये रहे, अब क्यों उठे? नहीं सोने के बाद जागना है; जागने ये हादसे कि जो इक-इक कदम पे हाइल हैं के बाद सोना है। दिन के बाद रात है, रात के बाद दिन है। ये जो अड़े हैं पत्थर, और घटनाएं, और जीवन के उलझाव, ध्यान, संसार, परमात्मा, अरूप और उसके रूप, इन दोनों के और बाजार और दुकान और तृष्णा और मोह और हजार-हजार बीच यात्रा है। यह खेल बड़ा मधुर है। बस खेलने की कला बातें हैं...खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा लेंगे। घबड़ाओ 357 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 जिन सूत्र भाग: 1 मत, खेले चले जाओ। अभी तुम ठीक से खेल समझे नहीं, अभी खेल का गणित नहीं आया। गणित आ जायेगा तो रस आने लगेगा। और तब इन पत्थरों पर चढ़ने में मजा आने लगेगा। तब तुम धन्यवाद दोगे इन पत्थरों को कि अच्छा किया कि तुम थे, अन्यथा कहां चढ़ते! अच्छा हुआ कि तुम थे, अन्यथा जीवन को जांचने की सुविधा कहां मिलती, अवसर कहां मिलता ! जमाना च-ब- जबीं है तो क्या बात है 'रविश' और अगर जमाना बहुत क्रोध से भरा है और चारों तरफ बड़ी अड़चन और मुसीबत है तो बात क्या है 'रविश'... हम इस अताब पे कुछ और मुस्कुरा 'लेंगे। इस क्रोध पर थोड़ा और मुस्कुरा लेना । यह जो जमाना इतने उपद्रव खड़ा करता है, इस पर थोड़ा मुस्कुराना सीखो। / परमात्मा का खोजी खेल मानकर चलता है। तुम बड़ी गंभीरता से चल रहे हो, यह अड़चन है। तुम्हारे तथाकथित धार्मिकों ने तुम्हें बड़े गंभीर चेहरे सिखा दिये हैं; जैसे कि प्रार्थना कोई काम है! प्रार्थना खेल है। प्रार्थना रस है, काम नहीं है। इसमें कुछ लाभ और लोभ थोड़े ही है। इसमें तो होने का मजा है। इन पक्षियों से पूछो ! ये जो झींगुर गुनगुनाये जा रहे हैं, इनसे पूछो - किसलिए? वे तुम्हारी बात पर ही आश्चर्य करेंगे कि सवाल भी उठाने योग्य है ? मजा आ रहा है। तुम्हें जब तक संसार में मजा आ रहा है, दौड़े जाओ; जब तुम्हें परमात्मा में मजा आने लगे, रुक जाना। मजे मजे की बात है। मैं जो संसार में हैं, उनके विरोध में नहीं हूं। मैं कहता हूं, उन्हें मजा आ रहा है तो मजा लें। तकलीफ तो कब खड़ी होती है कि तुम्हें मजा संसार में आ रहा है और तुम किसी की बात में पड़ गये और उसने कहा कि संसार में क्या रखा है! तुम्हें मजा संसार में आ रहा है। अब तुम एक उलझन में पड़े, एक तनाव पैदा हुआ। किसी ने कह दिया, संसार में क्या रखा है, यह तो सब धूल है, | यह तो सब पड़ा रह जाएगा - यह ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब बांध चलेगा बनजारा! उनका बनजारा बांधकर चल रहा हो, लेकिन तुम्हारा तो अभी बिलकुल खेल लग रहा था, तंबू लग रहा था, व्यवस्था तुम जुटा रहे थे। यह बात तुम्हारे कान में पड़ गई, अब तुम अड़चन में पड़े। अब तुम तंबू भी गाड़े जा रहे हो और सोच रहे हो, सब ठाठ पड़ा रह जायेगा। अब अड़चन आई। अब तुम इकहरे न रहे। तुम्हारा व्यक्तित्व खंडों में बंट गया । तुम्हारे तथाकथित धर्मों ने तुम्हें विक्षिप्त बना दिया है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि तुम छोड़कर चल पड़ो। मैं तुमसे कह रहा हूं, ठीक से तंबू गड़ा लो। भगवान से भटकने का मौका मिला है, ठीक से भटक जाओ। दूर जाने का क्षण आया है, दूर चले जाओ। इसमें भी क्या कंजूसी करनी? क्योंकि मेरे देखे जो जितनी दूर जाता है, जब उसे याद पकड़ती है तो उतनी ही तीव्रता से पास आता है। पास आने और दूर आने में एक अनुपात है। खोने का तो कोई उपाय नहीं है, खेल है। रोकर खेलना हो रोकर खेल लो; हंस के खेलना हो हंसकर खेल लो। जो हंसकर खेलता है, उसको मैं धार्मिक कहता हूं। जो रो-रोकर खेलने लगे, वह कोई खिलाड़ी नहीं है। है रात तो इसके बाद सहर, अनवार भी लेकर आएगी सुबह तो शब तारों के चमकते हार भी लेकर आएगी। है रात तो इसके बाद सहर - रात है तो सुबह होने के करीब है, घबड़ाओ मत। रात का मजा ले लो, सुबह तो हो ही जायेगी। सुबह के लिए रोओ, चिल्लाओ- चीखो मत। यह रात सुबह के रास्ते पर ही है। यह रात होनेवाली सुबह ही है। यह रात का ही छिपा हुआ रूप है। है रात तो इसके बाद सहर अनवार भी लेकर आएगी। सुबह प्रकाश भी लेकर आनेवाली है। अंधेरे को ठीक से तो भोग लो ! क्योंकि अगर आंखें अंधेरे को ठीक से न भोग पायें तो तुम प्रकाश को भोगने के योग्य न बन पाओगे। तुमने कभी खयाल किया ? जब अंधेरे के बाद तुम प्रकाश को देखते हो तो अंधेरा तुम्हारी आंखों को तैयार करता है; तुम प्रकाश को देखने में समर्थ हो जाते हो । आंख को विश्राम मिलता है अंधेरे में; आंख ताजी हो जाती है । फिर से तुम देखने में कुशल हो जाते हो। इसलिए तो आंख झपकती रहती है। तुमने कभी पूछा कि आंख झपकती क्यों रहती है ? यह हर पल अंधेरे को पैदा करती रहती है, ताकि ताजी बनी रहे। इसलिए तुमने देखा फिल्म जाते हो देखने, तो तीन घंटे तुम आंख का झपकना भूल जाते हो। उसी लिए आंख थक जाती है। फिल्म के कारण नहीं, टेलीविजन देखने के कारण नहीं; तुम आंख का झपकना Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठो, जागो-सुबह करीब है भूल जाते हो कि जो स्वाभाविक प्रक्रिया थी अंधेरे को बीच-बीच जीवन कभी नहीं हारता। तुम हार जाओगे तो विदा कर लिये में लाने की, वह भूल जाते हो। तुम इतने ज्यादा तन जाते हो कि जाओगे, बुला लिये जाओगे। जीवन चलता जाता है। एक लहर आंख फाड़े बैठे रहते हो। अब की बार जब सिनेमा जाओ या हार जाती है तो विलीन हो जाती है सागर में। फिल्म देखने जाओ या टेलीविजन देखो, तो आंख को झपकाते | शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें? रहना, तुम पाओगे कोई थकान न आई। आंख के झपकने में राज है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने। है। अंधेरा प्रकाश का खेल है। धूप छाया का खेल है। और अगर एक पैमाना टूट गया तो घबड़ाते क्यों हो, मधुशाला हैरात तो इसके बाद सहर अनवार भी लेकर आएगी। साबित है, तो हजार पैमाने भरे तैयार हैं। विश्राम तो कर लो थोड़ा रात में। यहां छोटी-छोटी चीजों से लोग घबड़ा जाते हैं। किसी की संसार विश्राम है परमात्मा का। जल्दी ही सुबह होगी, | पत्नी मर गई, वैराग्य का उदय हो गया। है मैकदा तो सलामत परमात्मा भी आयेगा, प्रकाश भी लायेगा। भाग-दौड़ मत करो। हजार पैमाने! इतनी जल्दी क्यों करते हैं? किसी की दुकान में व्यर्थ शीर्षासन इत्यादि लगाकर खड़े न हो जाओ। इससे रात के घाटा लग गया, दिवाला निकल गया-अरे, दीवाली बहुत जाने का कोई संबंध नहीं। रात अपने से आती है, अपने से जाती मनाई, अब दिवाला भी मना लो! इतना घबड़ाना क्या? है। तुम तो सिर्फ साक्षी रहो। है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने।। है सुबह तो शब तारों के चमकते हार भी लेकर आएगी। हारकर धर्म की तरफ, पराजय के भाव से, विफलता से, और अगर सुबह है तो ध्यान रखना, रात भी आनेवाली है। विषाद से कहीं कोई गया है! उदासी से तो रुग्णता आती है, यह जीवन का चक्र है जो घूमता चला जाता है। इस चक्र में जो जीवन का स्वास्थ्य नहीं। धर्म की तरफ उदासी से नहीं, प्रसन्नता खेलना सीख जाये-खेलना पहली शर्त-गंभीरता से नहीं, | से, प्रफुल्लता से गये हुए ही पहुंचते हैं। खिलाड़ी के अहोभाव से, रस से-जो खेलना सीख जाये, यह बुलंद नग्मए-आदम है बज्मे-अंजुम में पहली शर्त। और दूसरी बात धीरे-धीरे तुम्हारे खिलाड़ीपन से -नक्षत्र मंडल में आदमी का गीत गूंज रहा है। उठेगी, वह है साक्षी-भाव। जब तुम देखोगे, रात भी अपने से कब इक सितारए-नौ हंस पड़े खुदा जाने आती है; सुबह भी अपने से हो जाती है: फिर सांझ आ जाती है, | -कब वर्षा हो जायेगी परम आनंद की. पता नहीं कभी भी हो फिर तारे जगमगा उठते हैं—यह सब अपने से हो रहा है तो मैं | सकती है! नाहक दौड़-धूप क्यों करूं; मैं सिर्फ साक्षी रहूं, देखें, जो होता है हयात अभी है फकत इक हयात का परतब उसका मजा लू, रस लूं। परमात्मा इतने रूप धरता है, -जिसे तुमने अभी जिंदगी समझा है, वह तो केवल जिंदगी इतने-इतने नाच करता है, मैं द्रष्टा बनूं। तो पहले खिलाड़ी बनो, | की छाया है। फिर द्रष्टा बन जाओ, बस। यह दो बातें जिसके जीवन में आ हयात अभी है फकत इक हयात का परतब गईं, उसने पा ही लिया। अभी हयात को समझा ही क्या है दुनिया ने। शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें? अभी तुमने जीवन का पूरा राज कहां सीखा? जल्दी मत है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने करो। निर्णय मत लो कि 'क्या फायदा जो दीया बुझ गया, अब बुलंद नग्मए-आदम है बज्मे-अंजुम में इसको जलाने से क्या फायदा! और जो घर छूट गया, उसको कब इक सितारए-नौ हंस पड़े खुदा जाने खोजने से क्या फायदा!' ऐसे तो तुम थककर गिर जाओगे। हयात अभी है फकत इक हयात का परतब ऐसे तो तुम जीते-जी मुर्दा हो जाओगे। अभी हयात को समझा ही क्या है दुनिया ने। उठो जीवन की यात्रा प्रफुल्लता से करनी है। शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें? और जब कुछ खोता हो, तब भी समझ रखनाः यह भी कुछ अगर तुम हार गये हो तो इसको जीवन की हार मत समझो। पाने का उपाय होगा। 359 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 जिन सूत्र भाग: 1 आखिरी प्रश्न : तेरे गुस्से से भी प्यार, तेरी मार भी स्वीकार चाहे खुशी दो कि दो गम, दे दो खुशी-खुशी करतार तेरी धूप हो कि छांव, मुझको दोनों हैं स्वीकार तेरा सब कुछ मुझे पसंद, तेरा न भी नहीं इनकार। शुभ है, ऐसी ही भाव की दशा भक्त की दशा है। और जिसको ऐसे स्वीकार का भाव आ गया; अस्वीकार को भी स्वीकार करने की क्षमता आ गई; 'नहीं' में भी दंश न रहा; हार में भी कांटे न चुभे; सुख आये कि दुख, दोनों को जिसने परमात्मा का उपहार समझकर स्वीकार कर लिया, उसका प्रसाद मान कर स्वीकार कर लिया- उसकी मंजिल ज्यादा दूर नहीं है। उसके पैर मंजिल के करीब आने लगे। उसका रास्ता पूरा होने के करीब आने लगा। इस भाव - दशा को सम्हालना । इस भाव - दशा को धीरे-धीरे गहराना। यह तुम्हारे रोएं रोएं में समा जाये। यह तुम्हारी धड़कन धड़कन में बस जाये । और मैं तुमसे कहता हूं, दीवानगी से बड़ी कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। क्योंकि जो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को अस्वीकार, उनके जीवन में दुख ही दुख भर जाता है। तुम्हारे अस्वीकार करने से दुख थोड़े ही जाता है, दुगना हो जाता है। कांटा तो चुभा ही है, पीड़ा तो हो ही रही है - तुम अस्वीकार करते हो, उससे पीड़ा और सघन हो जाती है। कांटा चुभा है और तुम स्वीकार कर लेते हो, तुम कहते हो, 'प्रभु की कोई मर्जी होगी! जरूर किसी कारण से चुभाया होगा ।' जिनको हर हालत में खुश और शादमां पाता हूं मैं बायजीद निकलता था एक रास्ते से, पत्थर से चोट लग गई, वह गिर पड़ा, पैर से खून निकलने लगा ! उसने हाथ उठाये उनके गुलशन में बहारे-बेखिजां पाता हूं मैं । जो हर हाल में खुश हैं, उनके जीवन में वसंत आता है और आकाश की तरफ और प्रभु को धन्यवाद दिया कि 'धन्यवाद, पतझड़ कभी नहीं आती। वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें मेरे मालिक! तू भी खूब खयाल रखता है!' उसके एक भक्त ने पूछा, 'यह जरा जरूरत से ज्यादा हो गई बात। अतिशयोक्ति हुई जा रही है। खून निकल रहा है, पत्थर की चोट लगी है— धन्यवाद का कारण कहां है ? ' हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे। बायजीद ने कहा, 'पागलो, फांसी भी हो सकती थी। उसका खयाल तो देखो! अपने फकीरों का खयाल रखता है। जरा-सी चोट से बचा दिया। मैं जैसा आदमी हूं, उसकी तो फांसी भी हो जाये तो कम है। मेरे पाप, मेरे गुनाह तो देखो !' तो पैर में लगी चोट और बहता लहू भी अहोभाग्य हो गया। बायजीद तीन दिन से भूखा था। एक गांव में रुके। वह सांझ प्रार्थना जब करता था तो रोज कहता था, 'प्रभु! जो भी मेरी जरूरत होती है, तू सदा पूरी कर देता है।' उस दिन भक्त जरा नाराज थे, तीन दिन से भूखे थे। किसी गांव में ठहरने को जगह न मिली। लोगों ने रुकने न दिया। लोग विरोध में थे। फिर भी उस रात उन्होंने कहा, अब आज देखें, आज यह बायजीद क्या अगर तुम्हारे पास ऐसी प्रेम की भाव- दशा उठ रही है, ऐसी पहली झलकें आनी शुरू हुई हैं कि सुख और दुख दोनों को तुम प्रभु की अनुकंपा मान लो, तो फिर जल्दी ही, तुम्हारे पास वैसे दिल का निर्माण हो जायेगा । हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे ! वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें ! फिर तुम्हारी आंख परमात्मा को देख ही लेगी। यही तो अभिलाषी की आंख की परीक्षा है । सुख को तो सभी स्वीकार कर लेते हैं। उससे कुछ पता नहीं चलता । दुख को भी जो स्वीकार कर लेता है, उससे ही पता चलता है। फूल गिरें, सभी मान लेते हैं, और प्रसन्न हो लेते हैं। लेकिन जबे कांटे जीवन में आयें तब भी जो मुस्कुराता रहता है... वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें। आई वह आंख, वह अभिलाषी नेत्र, प्रभु के दर्शन करने की क्षमता वाले नेत्र...। हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे। एक पागलपन आयेगा, घबड़ाना मत। यह पागलों की ही बात है। बुद्धिमान तो ठीक-ठीक को स्वीकार करते हैं। बुद्धिमान तो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को इनकार करते हैं; फूल चुनते हैं, कांटे अलग करते हैं। यह तो दीवानों की बात है कि दोनों को स्वीकार कर लेते हैं। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAHUTNERMI उठो, जागो-सुबह करीब है। कहता है! उसने फिर वही कहा कि हे प्रभु! तू भी खूब है। जब सघन भाव! तो तुम पाओगे, सब तरफ से परमात्मा ने नये-नये जो मेरी जरूरत होती है, परी कर देता है। द्वार खोल लिये; हर तरफ से उसकी हवाएं तुम्हें छूने लगीं। एक भक्त ने कहा, 'अब सुनो! तीन दिन से भूखे हैं। क्या __हर एक जल्वा है मेरे लिए कशिश तेरी खाक जरूरत पूरी कर देता है?' हर एक सदा मुझे तेरा पयाम होती है। बायजीद हंसने लगा। उसने कहा, 'तुम समझे ही नहीं; तीन फिर हर आवाज में उसका संदेश और हर रूप में उसका रंग, दिन से भूख मेरी जरूरत थी। तीन दिन उपवास मेरी जरूरत थी। हर फूल में उसकी खुशबू...। तुम तैयार हो जाओ। और यही उसने पूरी की।' | तैयारी का ढंग है। इसे तुम चौबीस घंटे स्मरण रखो। जल्दी ही देखो, ऐसा आदमी दुख नहीं पा सकता। ऐसे आदमी को कैसे दुख भी आयेंगे, स्मरण रखना। सुख भी आयेंगे, स्मरण दुख दोगे? परमात्मा भी बड़ी उधेड़-बुन में पड़ जाता होगा ऐसे | रखना। तुम हर हालत में सभी कुछ उसी को समर्पण किये चले आदमी के साथ कि अब करो क्या! यह आदमी तो जीतने जाना। तुम कहना, सब तेरे हैं, सब तेरे भेजे हैं। और जल्दी ही लगा! यह तो छिया-छी में हाथ आगे मारने लगा। इसको दुखी तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन में सुख-दुख की उधेड़-बुन खो गई करने का उपाय न रहा। और एक परम शांति विराजमान हो गई है-ऐसी शांति जो पृथ्वी और सुख तभी उत्पन्न होता है जब दुखी होने का उपाय नहीं रह की नहीं है; ऐसी शांति जो केवल स्वर्ग की है! जाता। अगर तुमने सुख पकड़ा और दुख छोड़ा, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, तुम्हारा सुख भी दुख हो जाता है। आज इतना ही। पकड़नेवाले का सुख भी दुख हो जाता है; क्योंकि वह डरता है, कहीं छिन न जाये। छिनेगा तो ही। कौन सुख स्थायी होता है? आया है, जायेगा! पानी की लहर है। न दुख ठहरता, न सुख ठहरता। जिसने पकड़ा सुख को, वह दुखी होने लगा। पहले सुख की आकांक्षा में दुखी था; अब इस भय से दुखी होगा कि छूटता, अब गया, अब गया, अब जायेगा! और जिसने दुख को स्वीकार कर लिया, वह तो दुख को भी रूपांतरित कर लेता है। सुख तो सुख है ही, वह दुख को भी सख बना लेता है। इस कीमिया को ही धर्म समझना। जुनूं हर रंग में मशरूरो-शादां खिरद! हर हाल में चींबर जबीं है। प्रेमोन्माद, जुनूं हर रंग में मशरूरो-शादा.... -वह जो पागलों की मस्ती है, दीवानों की मस्ती है, वह तो हर हाल में खुश है। खिरद! लेकिन अक्ल, बुद्धि, हर हाल में चींबर जंबी है। वह हर हाल में त्यौरी चढ़ाये हुए है। कुछ भी हो जाये, तृप्ति नहीं होती। कुछ भी मिल जाये, असंतोष बना रहता है। सौभाग्य है, अगर इस तरह की भाव-दशा में रमते जाओ। यह सिर्फ तुम्हारी कविता न हो, तुम्हारा जीवन बने! यह तुमने सिर्फ होशियारी न की हो प्रश्न पूछकर, यह तुम्हारा भाव बने! 361 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.ja Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां प्रवचन आत्मा परम आधार है For Private & Personel Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिण तिविहेण। झाइज्जइ परमप्पा, उवइ8 जिणवरिंदेहिं।।४५।। णिद्दण्डो णिद्दण्डो, णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो, णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा।।४६।। णिग्गंथो णीरागो, णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मूक्को। णिक्कामो णिस्कोहो, णिम्माणो णिम्मदो अप्पा।।४७।। www.amelibrary.org Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम के तारीक रस्ते में पहुंचता कहीं भी नहीं। कोई मुसाफिर न राह भूले __ वर्तुलाकार जो घूमेगा, वह पहुंचेगा कैसे? मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी ___ इसलिए हमने जीवन को चक्र कहा है। गाड़ी के चाक की चिरागे-तुरबत जला रहा हूं। भांति, घूमता है, घूमता रहता है; कभी एक आरा ऊपर आता है, जीवन के रास्ते पर जिन्होंने अपने को परिपूर्ण मिटा दिया है, वे कभी दूसरा आरा नीचे चला जाता है लेकिन वस्तुतः कोई भेद ही केवल ऐसा प्रकाश बन सके हैं जिनसे भूले-भटकों को राह नहीं पड़ता। कभी क्रोध ऊपर आया, कभी मोह ऊपर आया; मिल जाये। जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह कभी प्रेम झलका, कभी घृणा उठी; कभी ईर्ष्या से भरे, कभी दूसरों को भटकाने का कारण बना है। और जिसने अपने को बड़ी करुणा छा गई; कभी बादल घिरे, कभी सूरज मिटा लिया, वह स्वयं तो पहुंचा ही है; लेकिन सहज ही, निकला-ऐसी धूप-छांव चलती रहती है। एक आरा ऊपर, साथ-साथ, उसके प्रकाश में बहुत और लोग भी पहुंच गये हैं। दूसरा आरा नीचे होता रहता है, और हम चाक की भांति घूमते महावीर किसी को पहुंचा नहीं सकते; लेकिन जो पहुंचने के रहते हैं। लेकिन हम हैं वहीं, जहां हम थे। हमारे जीवन में यात्रा लिए आतुर हो वह उनकी रोशनी में बड़ी दूर तक की यात्रा कर नहीं है। तीर्थयात्रा तो दूर, यात्रा ही नहीं है। बंद डबरे की भांति सकता है। हैं, जो सागर की तरफ जाता नहीं। यात्री को स्वयं निर्णय लेना पड़े। जाना है, तो प्रकाश के साथ डबरा डरता है। सागर में खो जाने का डर है। और डर सच है, संबंध बनाने पड़े। | क्योंकि डबरा खोयेगा सागर में। लेकिन उसे पता नहीं, उसके अभी हमने जीवन-जीवन, जन्मों-जन्मों अंधेरे के साथ संबंध | खोने में ही सागर का हो जाना भी उसे मिलनेवाला है। बनाये हैं। धीरे-धीरे अंधेरे के साथ हमारे संबंध, संस्कार हो गये अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले हैं, स्वभाव हो गए हैं। अंधेरा हमें सहज ही आकर्षित कर लेता आदमी का रास्ता बड़ा अंधेरा है! है। एक तो रोशनी हमें दिखाई ही नहीं पड़ती, शायद अंधेरे में | अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले रहने के कारण हमारी आंखें रोशनी में तिलमिला जाती हैं; या मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी चिरागे-तुरबत जला रहा हूं। अगर दिखाई भी पड़ जाये तो भीतर बड़ा भय पैदा होता है। तो मैंने अपने जीवन को, अपने होने को तो बुझा दिया है अपरिचित का भय। नये का भय। अनजान का भय। और अपनी मजार का दीया जला लिया है। चिरागे-तुरबत जला तो हम तो बंधी लकीर में जीते हैं-कोल्ह के बैल की तरह रहा हूं! जीते हैं। कोल्हू का बैल चलता बहुत है, दिनभर चलता है; | जिसे कवि ने चिरागे-तुरबत कहा है, उसी को महावीर निर्वाण Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग कहते हैं। है। इसे भी समझ लेना, फिर हम सत्रों में प्रवेश करें। जीवन को तो बुझा दिया है, मौत का दीया जला लिया है। व्याख्या तो परम सत्य की हो नहीं सकती; क्योंकि व्याख्या यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम तो जीवन और जीवन की उसी की हो सकती है जिसका विश्लेषण हो सके, जिसे तोड़ा जा आकांक्षा से भरे हैं। जीवेषणा! किसी भी कीमत पर, मरते हों, सके, जिसे खंडों में बांटा जा सके। जैसे कि मकान है, इसकी सड़ते हों, गलते हों; लेकिन फिर भी जीना चाहते हैं। चाहे सब व्याख्या हो सकती है कि यह ईंटों का संग्रह है। ईंटों को एक के छीन लिया जाये. अंधे हो जायें, सड़क पर भिखमंगे की तरह ऊपर एक जमाया गया है, एक खास तरतीब में बिठाया गया है, घिसटते रहें, कुछ भी जीवन में अर्थ न दिखाई पड़े, फिर भी तो मकान बन गया है। एक-एक ईंट को अलग कर लो, मकान जीवन को पकड़े रहते हैं। ऐसा लगता है, जैसे जीवन का कोई | खो जायेगा। तो ईंटों की एक तरतीब से जमाई गई व्यवस्था का अपने आप में ही अर्थ है। नाम मकान है। लेकिन आत्मा के टुकड़े नहीं होते, खंड नहीं दुख ही दुख मिलता हो, पीड़ा ही पीड़ा मिलती हो, तो भी होते। जैसे मकान ईंटों से जमा है, ऐसा आत्मा किन्हीं अंशों से आदमी जीवन को पकड़े रहता है। सारे स्वाभिमान को बेचना मिलकर नहीं बनी है। पड़े, आत्मा को बेचना पड़े, सब भांति अपने को काट-काटकर | सत्य का खंड नहीं होता, टुकड़े नहीं होते। सत्य तो बस है। बाजार में रख देना पड़े, तो भी आदमी जीवन को पकड़े रहता है। तो उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। महावीर का सारा शिक्षण जीवेषणा को बुझाने का शिक्षण है। अगर वैज्ञानिक से पूछो, पानी की क्या व्याख्या है, वह कहता जब तक, जिसे तुमने जीवन कहा है, तुम उसे न बुझाओगे; जब है, हाइड्रोजन आक्सीजन के मिलने से जो बनता है वह पानी है। तक तुमने जिसे अब तक मृत्यु कहा है, उसे तुम अंगीकार न कर लेकिन दो चीजों से मिलकर बनता है, इसलिए व्याख्या हो गई। लोगे-तब तक महाजीवन का द्वार न खुलेगा। क्योंकि तुम उससे पूछो कि हाइड्रोजन की क्या व्याख्या है, तो वह कहता है, जिसे जीवन कहते हो, वह मृत्यु है। और जिसे महावीर मृत्यु इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान से मिलकर जो बनता है वह कहते हैं, वह महाजीवन है। हाइड्रोजन है। लेकिन उससे पूछो, इलेक्ट्रान की क्या व्याख्या है, श्री अरविंद ने कहा है : 'जब खोजता था तो जिसे मैंने दिन तब वह अटक जाता है; क्योंकि अब खंड समाप्त हो गये। वह समझा था, प्रकाश समझा था-वह खोजने के बाद अंधेरा | कहता है, इलेक्ट्रान तो बस इलेक्ट्रान है। अब इसको समझाने साबित हुआ, रात साबित हुई। और जिसे मैंने जीवन जाना था. का उपाय नहीं, क्योंकि दो से मिलकर बनता नहीं। वह मृत्यु सिद्ध हुई। और जिसे मैंने अमृत समझकर पीया था, दो से जो मिलकर बनता है, उसकी व्याख्या हो सकती है। वह जहर था।' क्योंकि इन दो के सहारे पर हम इशारा कर सकते हैं। जागने के बाद जीवन में बड़ी गहरी उथल-पुथल हो जाती है, लेकिन जहां एक ही स्वभाव हो, अखंड, वहां निर्वचन के सारे मूल्य बदल जाते हैं जैसे कोई आदमी सिर के बल खड़ा | बाहर हो जाता है। होकर देख रहा हो संसार को, और सारा संसार उसे उलटा इसलिए इन सूत्रों में महावीर आत्मा के संबंध में जो मालूम पड़ता हो; और फिर वह पैर के बल खड़ा हो जाये, और कहेंगे-पहली बात-वह व्याख्या नहीं है। व्याख्या तो हो नहीं तब सारा संसार उसे सीधा मालूम पड़े। सकती। इशारा है, इंगित है। अभी जिसे हमने जीवन समझा है, वह हमारे चित्त की बड़ी __ दूसरी बात-परिभाषा नहीं है। परिभाषा उस चीज की हो विपरीत दशा है। टटोल-टटोलकर, अनुमान लगा-लगाकर, सकती है जिसकी सीमा हो। जिसकी सीमा न हो उसकी हमने कुछ सोच रखा है कि यह रहा जीवन। रोशनी आने पर, परिभाषा नहीं हो सकती। परिभाषा का अर्थ ही होता है : सीमा आंख खुलने पर, जीवन कुछ और ही सिद्ध होता है। को खींचना। आज के सूत्रों में महावीर उस परम जीवन की तरफ इशारे कर तुमसे कोई पूछे, तुम्हारा मकान कहां है, तो परिभाषा हो सकती रहे हैं। व्याख्या नहीं है यह, न ही परिभाषा है; यह सिर्फ वर्णन है; क्योंकि इस तरफ कोई पड़ोसी है, उस तरफ कोई पड़ोसी है; 368 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE आत्मा परम आधार है इधर भी सीमा है, उधर भी सीमा है; इधर रास्ता है, उधर नदी आत्मा में ही 'है' पन छिपा है। वह उसका स्वभाव ही है। है। कुछ सीमा हो सकती है। जहां-जहां सीमा हो सकती है, उसे बाहर से रखने की जरूरत नहीं। कर्सी में है' पन नहीं छिपा वहां परिभाषा हो सकती है। हम कह सकते हैं, इन सीमाओं के है। वह उसका स्वभाव नहीं है। एक बार शून्य से आई है, एक भीतर जो है, वह मेरा मकान है। बार फिर शून्य में चली जायेगी। आत्मा न आई है न गई है, तो लेकिन आत्मा की या सत्य की तो कोई सीमा नहीं है। आत्मा परिभाषा नहीं हो सकती। कहां है-यह कहना तो कठिन है; क्योंकि 'कहां' का तो फिर आत्मा के संबंध में क्या हो सकता है? महावीर कहते हैं, मतलब होगाः स्थान-निर्देश। और आत्मा स्थान में नहीं है। वर्णन हो सकता है। वर्णन बड़ी अलग बात है। डिसक्रिप्शन; आत्मा कब है-यह भी कहना संभव नहीं है; क्योंकि 'कब' | डेफिनीशन नहीं। का तो अर्थ होगा : समय में निर्देश। आत्मा समय में भी नहीं है। वर्णन का अर्थ होता है: हम सिर्फ इशारे कर सकते हैं कि ऐसा आत्मा कालातीत है, क्षेत्रातीत है। न वह समय के भीतर है न है, ऐसा है, ऐसा है। जिन्होंने जाना है, वे ही वर्णन कर सकते स्थान के भीतर है-और दो ही उपाय हैं जिसके द्वारा परिभाषा हैं। जिन्होंने नहीं जाना है, वे जानने की यात्रा पर जा सकते हैं; होती है। लेकिन वर्णन को सुनकर ही उनकी समझ में कुछ भी न आयेगा। जैसे अगर कोई पूछे कि तुम कब पैदा हुए, कहां पैदा हुए, तो | वर्णन से प्यास पैदा हो सकती है। परिभाषा हो जाती है। तुम कहते हो, फलां गांव में स्थान बता तुम अंधेरे में हो, तो प्रकाश का मैं वर्णन कर सकता हूं: उससे दिया; फलां घर में, फलां परिवार में स्थान बता दिया; फलां तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा कि प्रकाश क्या है। इतना ही समझ तारीख को, सुबह या सांझ या दुपहर, फलां घड़ी-मुहूर्त में आयेगा-वह भी अगर तुम साहसी हो, दांव पर लगाने की में-समय बता दिया। परिभाषा हो गई। समय और स्थान का | हिम्मत रखते हो, जोखिम का बल है और अभियान पर निकलने ठीक-ठीक निर्देश कर दिया। तो जहां समय और स्थान की अभीप्सा है तो इतना ही समझ में आयेगा कि कुछ है जो | एक-दूसरे को काटते हैं, दोनों की रेखायें जहां कटती हैं, वह बिंदु | मैंने अब तक नहीं जाना; और यह आदमी जो इसे जान चका है. तुम्हारी परिभाषा हो गई। | बड़ा आनंदित मालूम होता है, प्रसन्न मालूम होता है; मैं भी लेकिन आत्मा का न तो कभी जन्म हुआ, न कभी अंत होता, न जानूं। और निश्चित ही यह आदमी इस अंधेरे को भी जानता है, किसी स्थान में आत्मा को कभी पाया गया है, न वह स्थान में क्योंकि मेरे पास बैठा है; और इस आदमी ने कुछ और भी जाना होती। टाइम-स्पेस, समय और स्थान दोनों के पार है, तो है जो अंधेरे से ज्यादा है; भरोसा करूं। परिभाषा कैसे? आत्मा है-ऐसा कहा जा सकता है। लेकिन इसलिए श्रद्धा का बड़ा मल्य है। विज्ञान में श्रद्धा का कोई परिभाषा नहीं की जा सकती। वस्तुतः तो 'आत्मा है', ऐसा मूल्य नहीं है; क्योंकि विज्ञान वर्णन नहीं करता, परिभाषा करता कहने में भी भल हो जाती है। क्योंकि 'है' अलग से जोड़ना है, व्याख्या करता है। तो विज्ञान में कोई श्रद्धा की जरूरत नहीं ठीक नहीं है। आत्मा के होने में ही सम्मिलित है 'है'। है। संदेह करो खूब, तो भी विज्ञान तुम्हें समझा देगा कि यह रही जैसे हम कहें कुर्सी है, तो ठीक है; क्योंकि एक दिन कुर्सी नहीं व्याख्या, यह रही परिभाषा, यह प्रयोगशाला-कर डालो। थी और एक दिन फिर नहीं हो जायेगी। दो 'नहीं' के बीच में धर्म के साथ कठिनाई है; प्रयोगशाला तो है, लेकिन भीतर है, 'है' की सुविधा है। 'है' के होने के लिए दो 'नहीं' दोनों तरफ बाहर नहीं है। मेरी प्रयोगशाला में मैं तुम्हें ले जा नहीं सकता! चाहिए। एक दिन कुर्सी नहीं थी, अब कुर्सी है; फिर एक दिन लाख चाहूं, लाख पुकारूं, लेकिन मेरी प्रयोगशाला में तुम न आ की 'नहीं' हो जायेगी-तो 'है' कहने में कुछ अर्थ है। सकोगे। तुम्हारी प्रयोगशाला में मैं नहीं आ सकता। यह आत्मा को 'है' कहने में क्या अर्थ है? सदा थी, सदा है, प्रयोगशाला अत्यंत निजी है। सदा रहेगी। जो कभी 'नहीं हुई ही नहीं, उसे 'है' भी क्या | विज्ञान की प्रयोगशालाएं सामहिक हैं। विज्ञान की टेबल पर कहना? तो आत्मा है, इसमें भी पुनरुक्ति है। रखकर कोई चीज जांची-परखी जाये तो सभी देख सकते हैं। 369 www.jainelibray.org Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INE जिन सत्र भागः 1 MIRRIERRELI धर्म के जगत में तो जो प्रयोग करता है, केवल वही देख पाता है। लेकिन वेद का अभी जन्म नहीं हआ। क्योंकि वेद का जन्म तो कह सकता है, गीत गुनगुना सकता है, उस आनंद की खबर ला तुम्हारे ही ध्यान की प्रक्रिया में होगा। सकता है, नाच सकता है, या मौन खड़ा हो जाता है। या उसके तो शब्द ये सब बहुमूल्य हैं, महा गहन अर्थ से भरे हैं; लेकिन जीवन की प्रभा को तुम पहचानो, उसके पास आओ, उसकी | तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते ये खाली कारतूसें रह जायेंगे। तुम पलक को छओ, उसके पास शांति को अनुभव करो, उसके इन्हें अगर फिर से जीवंत करना चाहो तो बड़े साहस, अदम्य आनंद की थोड़ी किरणें तुम पर भी पड़ने दो-तो शायद तुम्हें साहस से और जोखिम उठाने की हिम्मत से ही यह हो सकेगा। एक बात भर खयाल में आ जाये कि जो मेरे जीवन में अब तक समझने की हम कोशिश करें। हुआ है उससे शांति नहीं मिली, यह आदमी शांत है; जो मेरे __ आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण। जीवन में हुआ है उससे भय नहीं मिटा, इस आदमी का भय मिट झाइज्जइ परमप्पा, उवइटुं जिणवरिंदेहि।।। गया है; जो मेरे जीवन में हुआ है उससे अभी तक मृत्यु पर मेरी 'जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया कोई विजय नहीं हुई, इस आदमी की मृत्यु पर विजय हो गई है; से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा जो मैंने जीवन में जाना है उससे चिंताएं बढ़ी हैं, इस आदमी की | का ध्यान करो।' तिरोहित हो गई हैं; शायद इसे कुछ मिला है जो मैं चूक रहा हूं। 'मन, वचन, काया से...' थोड़ा चलूं, हिम्मत करूं। थोड़ा मैं भी खोजूं; अपनी सीमा, | महावीर की साधना-प्रक्रिया में ये तीन बाधाएं हैं—मन, अपने घेरे के बाहर उठू।। वचन, काया। अपनी सीमा और घेरे के बाहर उठना ही संन्यास है। काया तो हमें दिखाई पड़ती है। काया के पीछे छिपी हुई विचारों संसार तुम्हारी सीमा है। वहां सब तुम्हारा जाना-माना, की पर्ते हैं, सघन पर्ते हैं-उनका नाम वचन। तुम चाहे बोलो या परिचित है। संन्यास इस सीमा के जरा बाहर सिर उठाना है। न बोलो, तो भीतर तो बोलते ही रहते हो। चुप भी जो आदमी ये सूत्र वर्णन के सूत्र हैं। एक-एक शब्द बहुमूल्य है-और बैठा है, वह भी भीतर बोल रहा है। वचन जारी है। साथ ही साथ अर्थहीन भी। __तो शरीर की एक पर्त है-स्थूल; उसके भीतर छिपी हुई सूक्ष्म जब मैं कहता हूं अर्थहीन, तो मेरा अर्थ है कि अर्थ तो तभी पैदा पर्त है विचार की, संस्कार की, धारणाओं की-वह घूम रही है। होगा जब तुम अनुभव करोगे। शब्द बड़े प्यारे हैं, बड़े अनूठे हैं! वह चौबीस घंटे तुम्हें घेरे हुए है। रात सपने में भी चल रही है। महावीर ने जब इनको कहा है तो सार्थक हैं, इसीलिए कहा है। मैं उठो, बैठो, चलो, कुछ भी करो, भीतर विचार की एक परिधि जब तुमसे कह रहा हूं तो सार्थक हैं, इसीलिए कह रहा हूं। अपना घेरा बांधे रखती है। लेकिन मेरे कहने से ही अर्थ तुम्हारी पकड़ में न आयेगा। अर्थ तो उस विचार से भी गहरा मन है। अगर आधुनिक मनोविज्ञान तुम्हें अपने अनुभव से डालना होगा। शब्द तुम्हें दे दूंगा, जैसे की भाषा में कहें तो जिसको आधुनिक मनोविज्ञान 'कांशस शब्द की प्यालियां तुम्हें दे दीं; लेकिन जो मदिरा तुम्हें ढालनी है मांइड' कहता है, उसी को महावीर वचन कहते हैं। और वह तो तुम्हें भीतर ढालनी पड़े और इन प्यालियों में भरनी पड़े। जिसको आधुनिक मनोविज्ञान 'अनकांशस मांइड' कहता है, ये शब्द कोरे हैं; इनमें तुम प्राण डालोगे तो ये जीवंत हो उठेगे। | उसको महावीर मन कहते हैं। इन शब्दों को ही तुम अर्थ मत समझ लेना, जैसा कि पंडितों ने | मन का जो हिस्सा तुम्हारी चेतना में प्रविष्ट हो गया है वह है समझ रखा है। तो फिर शब्द को ही लोग दोहराये चले जाते हैं। वचन। मन का जो हिस्सा विचार बन गया है और मन का जो फिर वे आत्मा का वर्णन सीख लेते हैं, कंठस्थ कर लेते हिस्सा अभी विचार नहीं बना है, विचार बनने की प्रक्रिया में हैं तोतों की तरह। फिर उसी को दोहराते-दोहराते भूल ही जाते है-वह है मन। हैं कि हमने अभी जाना नहीं; यह तो हमने सुना था; यह तो मन है बीज की भांति; विचार अंकुरित हो गये बीज हैं। और श्रवण था; यह तो श्रुति थी। ज्यादा से ज्यादा स्मृति बन गई, ये तीनों संयुक्त हैं। जो तुम्हारे मन में है, वह आज नहीं कल 370 Jan Education International Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WITHUN आत्मा परम आधार है। तुम्हारे विचार में होगा। और जो तुम्हारे विचार में है, वह आज कहते हो, मुझे भूख लगी। और जब भी तुम दोहराते हो कि मुझे नहीं कल तुम्हारे शरीर में होगा। जो तुम्हारे शरीर में है, वह आज भूख लगी, तब तुम फिर शरीर-भाव को मजबूत करते हो, नहीं कल तुम्हारे विचार में था। और जो तुम्हारे विचार में है, वह क्योंकि यह विचार शरीर-भाव को मजबूत करनेवाला है। शरीर कल नहीं परसों तुम्हारे मन में था। में एक कामवासना की तरंग उठती है, तुम कहते हो, मेरे मन में शरीर से ही जो छूटना चाहता है, वह छूट न पायेगा; क्योंकि कामोत्तेजना उठी। तुम शरीर से अपना तादात्म्य कर रहे हो। शरीर के आधार तो विचार में पड़े हैं। विचार से ही जो छूटना और जब तुम तादात्म्य करते हो, इसी तादात्म्य के कारण तो यह चाहता है, वह भी न छुट पायेगा; क्योंकि विचार से भी गहरी शरीर निर्मित हुआ है और इसी तादात्म्य के कारण तुम इसे एक पर्त है मन की। सम्हाले हुए हो और इसी तादात्म्य के कारण तुम भविष्य में भी बहुत-सी साधना-प्रक्रियाएं हैं जो सोचती हैं शरीर से ही छूटने शरीर निर्मित करते रहोगे। जैसे ही तुमने शरीर को कहा, 'मैं', से सब हो जायेगा। हठयोग है। हठयोग का सारा आग्रह शरीर तुमने एक गहरा संबंध जोड़ लिया। पर है। शरीर को ही इस भांति जीत लेना है कि शरीर का हमारे साधारणतः हम शरीर के तल पर ही जीते हैं। हम में से जो थोड़े ऊपर कोई बल न रह जाये। लेकिन महावीर कहते हैं: जो जीतने जागरूक होते हैं, वे सोचना शुरू करते हैं कि शरीर मैं नहीं हो चला है, वह जो विचार का भीतर भाव उठा है, वह भी तो सूक्ष्म सकता। क्योंकि उनको साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैं जीता शरीर है। वह कोई शरीर से भिन्न नहीं है। उससे एक नये तरह तो अंतर्विचारों में हूं। कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम भूखे बैठे का शरीर निर्मित हो जायेगा, लेकिन शरीर जारी रहेगा। हो और विचारों में तल्लीन हो तो भूख का पता नहीं चलता। फिर मंत्रयोग है वह मानता है कि मन को ही बदल लेना, वाणी कभी ऐसा हो जाता है कि शरीर थका हुआ है और तुम्हारा बेटा को, विचार को बदल लेना काफी है। मन के व्यक्त रूप को | अचानक छत पर से गिर पड़ा; तुम विश्राम करने जा रहे थे, बदल लेना काफी है। तो मंत्रों का उच्चार करो। मंत्रों के गहन लेकिन अब शरीर में अचानक ऊर्जा आ जाती है। तुम भागे उच्चार से, मंत्र के छंद में बद्ध होकर विचार सो जाते हैं। जो अस्पताल की तरफ, भूल ही गये विश्राम; भूल ही गये कि तुम अंकुरित हो गये थे वे भी गिरकर फिर बीज हो जाते हैं। लेकिन थके थे, कि चार दिन से सोए नहीं थे, कि लंबी यात्रा से लौटे थे। मन तो रहेगा। अभिव्यक्त मन समाप्त हो जायेगा लेकिन छिपा | विचार जब पकड़ लेता है तो शरीर दूर रह जाता है। हुआ गूढ़ मन, अनकांशस, अचेतन मन, वह तो बना रहेगा। खिलाड़ी है, मैदान पर खेलता है, फुटबाल या हाकी खेलता वह फिर नये मन खड़े करेगा, फिर नये विचार उठायेगा। जब है, पैर में चोट लग जाती है खेलते वक्त, खून बहने लगता है; बीज बचा है तो कब तक उससे बचोगे? अंकुरित होगा। फिर दर्शकों को दिखाई पड़ता है, उसे पता नहीं चलता। वह विचारों वर्षा आयेगी, फिर जरा भूल-चूक हो जायेगी, फिर मंत्र याद न में तल्लीन है। वह खेलने की धुन में है। अभी फुरसत कहां! रहेगा-फिर अंकुरण हो जायेगा। | अभी ध्यान देने की सुविधा नहीं है उसे। अभी सारा ध्यान तो महावीर कहते हैं, जिसे आत्मा तक जाना हो, उसे विचारों में जुड़ा है। अभी शरीर दूर पड़ गया, बड़ा दूर पड़ गया। तीनों-मन, वचन, काया-तीनों के पार उठना होता है। खेल बंद हो जायेगा, अचानक वह शरीर में लौटेगा-खून इसे तुम थोड़ा समझो, क्योंकि यही हम सब हैं-इन तीन में बहता हुआ मालूम पड़ेगा। वह चकित होगा ः इतनी देर तक मुझे हम खड़े हैं। आत्मा का तो हमें कोई पता नहीं है। आत्मा तो इन पता कैसे न चला! तीन के पार है। ऐसा श्रद्धा से हम स्वीकार करते हैं कि होगी। तुम्हें भी बहुत बार अनुभव हुआ होगा : जब तुम विचार में महावीर कहते, बुद्ध कहते, कृष्ण कहते, पतंजलि कहते-ठीक तल्लीन होते हो, शरीर से दूरी बढ़ जाती है। कभी-कभी विचार है, कहते हैं तो होगी। लेकिन हमने अब तक जो जाना है, वह की तल्लीनता इतनी हो सकती है कि आपरेशन भी शरीर पर ज्यादा से ज्यादा हमारी जानकारी शरीर तक है। तुम शरीर को ही किया जाये और तुम्हें पता न चले। मानते हो कि तुम हो। इसलिए शरीर को भूख लगती है तो तुम काशी नरेश का ऐसा ही आपरेशन हुआ था। वे भक्त थे, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 जिन सूत्र भागः । - गीता के प्रेमी थे और गीता को बड़ी तल्लीनता से गनगनाते थे। बंद कर रहा है। उसने एक नया शब्द गढ़ा है: साइकोसोमेटिक, उन्होंने कहा कि मुझे कोई बेहोशी की दवा देने की जरूरत नहीं मनोशरीर। शरीर और मन, दो शब्द ठीक नहीं हैं; क्योंकि उससे है। मुझे मेरी गीता गुनगुनाने दो, तुम आपरेशन कर लो। डाक्टर | भ्रांति होती है कि जैसे दो चीजें हैं-मन और शरीर। राजी न थे; क्योंकि क्या भरोसा? लेकिन यह आदमी कोई मन और शरीर एक ही चीज है। शरीर स्थूलतम मन है; मन बेहोशी की दवा लेने को राजी न था और आपेरशन एकदम सूक्ष्मतम शरीर है। और दोनों के बीच में विचारों की तरंगों का जरूरी था, अन्यथा यह मरेगा। ऐसी हालत देखकर कि यह लेने | जगत है। लेकिन यह इकट्ठा है। समाधि की दशा में आदमी मन को राजी नहीं है, मौत तो होने ही वाली है, प्रयोग कर लेना उचित के बाहर होता है। ध्यान की दशा में मन शांत हो जाता है; है। डाक्टरों ने आज्ञा दी कि तुम अपनी गीता गुनगुनाओ। समाधि की दशा में मन के बाहर होता है। तब पहली दफे आत्मा घंटाभर आपरेशन में लगा। वे अपनी गीता गुनगुनाते रहे, का पता चलता है। आपरेशन हो गया और उन्हें पता भी न चला। आरुहवि अंतरप्पा...। विचार में अगर तुम बहुत जोर से संयुक्त हो जाओ तो शरीर | 'तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, और तुम्हारे बीच संबंध दूर का हो जाता है। अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।' तो जिन्होंने विचार के थोड़े-से प्रयोग किये हैं, वे इस निष्कर्ष बड़ा अनूठा सूत्र है। सारा योग इसमें आ गया। पर पहुंच जाते हैं कि हम शरीर नहीं हैं. विचार हैं। लेकिन विचार गरजिएफ के जीवन में एक उल्लेख है। वह अमरीका गया भी एक पर्त है। शरीर से गहरी है, लेकिन शरीर की ही है। था। उसे अपनी ध्यान-विद्यापीठ को चलाने के लिए पैसों की विचार भी पदार्थ हैं। | जरूरत थी, तो उसने न्यूयार्क के सारे बड़े धनपतियों को निमंत्रित महावीर का सिद्धांत इस संबंध में बड़ा अजीब है। महावीर किया था। न्यूयार्क की जो सबसे ऊंची सोसाइटी, अभिजात कहते हैं, विचार भी पदार्थ है, मैटिरियल है, पुदगल है। विचार वर्ग, उसके चुनदे प्रतिनिधि मौजूद थे। गुरजिएफ की खबर तो के भी अणु होते हैं। शायद विज्ञान महावीर से जल्दी राजी हो | अमरीका में पहुंच गई थी। उस आदमी को देखने को लोग जायेगा; क्योंकि महावीर का बोध बड़ा साफ है। वे कहते हैं, उत्सुक थे। कोई पचास-साठ मित्रों का समूह था; स्त्रियां थीं, विचार के भी अणु हैं। वह भी कोई अपार्थिव चीज नहीं है, वह पुरुष थे। जिस व्यक्ति ने गुरजिएफ के संस्मरण लिखे हैं, उसने भी पार्थिव है। बड़ी सूक्ष्म है, लेकिन पार्थिव है। लिखा है कि गुरजिएफ ने मुझे बुलाया इन लोगों से मिलने के विचार से भी कुछ लोग नीचे उतरते हैं। ध्यान में वैसी घड़ी पहले और मुझसे कहा कि तुम्हें जितने भी गंदे और अश्लील आती है, जब तुम विचारों को शांत कर लेते हो; जब विचारों की | शब्द आते हों अंग्रेजी के, मुझे बता दो। वह आदमी थोड़ा तरंगें कम होते-होते होते-होते खो जाती हैं, झील बिलकुल शांत चौंका। उसने कहा कि अश्लील शब्दों से क्या करना? क्योंकि हो जाती है, कोई विचार की तरंग नहीं होती, वचन नहीं होता, गुरजिएफ अंग्रेजी ठीक से जानता नहीं था। उसने कहा, तुम भीतर शब्द नहीं उठते, शब्दों में फल-फूल नहीं लगते, शब्द | फिक्र छोड़ो। तो जितने भी गंदे अश्लील शब्द उसे आते थे, बिलकुल शांत हो गये होते हैं। उसने बता दिये। गुरजिएफ ने वे लिख लिये और याद कर उस निशब्द दशा में मन के साथ तादात्म्य हो जाता है। तब लिये। फिर गुरजिएफ जब बोलने गया उन मित्रों के बीच, तो आदमी सोचता है, यही मैं हूं। यह बड़ा प्यारा क्षण है-बड़ा थोड़ी देर उसने बातें कीं, फिर इसके बाद उसने कामवासना की शांत, बड़ा मौन! और आदमी सोचता है, यही मैं हूं। लेकिन बात शुरू की। फिर धीरे-धीरे तो कामवासना की बात को ऐसा यह भी सूक्ष्मतम शरीर की दशा है। गहरा ले गया कि सिर्फ अश्लील और अभद्र शब्दों का ही आधुनिक मनोविज्ञान महावीर से राजी है। आधुनिक उपयोग करने लगा। और घड़ीभर में-जिसने संस्मरण लिखे हैं मनोविज्ञान कहता है, शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं। शरीर और उसने लिखा है-ऐसी हालत आ गई कि सारे लोग कामोत्तेजित मन ऐसे दो शब्दों का प्रयोग भी आधुनिक मनोविज्ञान धीरे-धीरे हो गये। भूल ही गये। स्त्रियां पुरुषों के साथ खेल में लग गईं, 372 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EARRAHA RESUHAATH आत्मा परम आधार है । पुरुष स्त्रियों के साथ खेल में लग गये; यह भूल ही गये कि शब्द बैठता जाता है, यह बैठता जाता है। यह तुम्हारा वचन बन गुरजिएफ को मिलने आये हैं। गुरजिएफ चुप होकर बैठ गया जाता है। फिर कल तुम जब बाजार में खरीदने जाते हो और और वह सारी रासलीला चलने लगी। तब ठीक जब वे दुकानदार पूछता है, कौन-सा टुथपेस्ट, तो तुम्हें याद भी नहीं रासलीला में बड़े डूबने के ही करीब थे, वह खड़ा हुआ। उसने रहता कि तुम होश में कह रहे हो कि बेहोशी में। तुम कहते हो, कहा, 'सावधान! मेरी तरफ देखो! सिर्फ शब्दों के आधार पर बिनाका टुथपेस्ट। और तुम यही सोचते हो कि तुमने स्वयं ही मैंने तुम्हारी बेहोशी को प्रगट कर दिया है। सिर्फ कुछ शब्द | सोचकर तय किया है। तुमने सोचकर तय नहीं किया है। यह बोलकर मैंने तुम्हारे मनों को तरंगित कर दिया है। यह स्थिति | विज्ञापित है। अखबारों में पढ़ा, दीवालों पर लिखा देखा, रेडियो देखो अपनी। तुम शब्दों के इतने गुलाम हो! और मैंने सिर्फ पर सुना, टेलीविजन पर देखा, सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें देखीं, तुम्हारी बेहोशी दिखाने के लिए ही यह प्रयोग किया है। और मैं हंसते हुए मोतियों की तरह उनके चमकते हुए दांत देखे-और एक संस्था बना रहा हूं, जहां मैं होश सिखाना चाहता हूं; उसके | बिनाका टुथपेस्ट, और बिनाका टुथपेस्ट, और हर जगह सुंदर लिए रुपये चाहिए।' स्त्रियों की तस्वीरें देखें विज्ञापनों में। उन्होंने कहा कि मेरे पति को उसने हजारों डालर इकट्ठे कर लिये उसी क्षण। यह बात तो कौन-सी दो चीजें पसंद हैं? –'मैं और बिनाका टुथपेस्ट!' इतनी साफ थी। लोग चौंककर बैठ गये एकदम घबड़ाकर कि वे सब तरफ से शब्द की एक पर्त तुम्हारे भीतर बनायी जाती है। यह क्या कर रहे थे! भूल ही गये थे-शिष्टाचार, समाज, राजनीतिज्ञ वही करते हैं, दुकानदार वही करते हैं। एक शब्द नीति, धर्म। इस आदमी ने सिर्फ शब्दों के जाल पर...। | | बिठाया जाता है। बहुत बार दोहराने से तुम्हारे भीतर लकीरें तुमने कभी खयाल किया? पर्दे पर फिल्म में कामोत्तेजना के | खिंच जाती हैं। समाजवाद, समाजवाद, समाजवाद! धीरे-धीरे चित्र आने शुरू होते हैं, तुम कामोत्तेजित हो जाते हो! तुमने कभी धीरे-धीरे यह लकीर बैठ जाती है। जब लकीर मजबूत होकर सोचा कि धूप-छाया का खेल है? लेकिन तुम इतने उद्विग्न हो बैठ जाती है तो वही लकीर तुम्हें आंदोलित करने लगती है, तुम्हें जाते हो...! गतिमान करने लगती है। शब्दों के आधार पर, वचनों के आधार पर हम जीते हैं। कोई तुम समाज से बंधे हो शब्दों के कारण। जरा शब्दों को तुमसे कह देता है, 'बड़े प्यारे हैं आप', फूल खिल जाते हैं! हिला-डुलाकर देखो और तुम पाओगे, तुम समाज से मुक्त होने कोई जरा घृणा से देख देता है, नर्क प्रगट हो जाता है। कोई जरा लगे। हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं-क्या हैं ये? ये सिर्फ सम्मान से नहीं पूछता, मन उदास हो जाता है। कोई नमस्कार | शब्द हैं! जैन हूं, बौद्ध हूं-ये क्या हैं? सिर्फ शब्द हैं! लेकिन कर लेता है, उदास थे, उदासी खो जाती है। बचपन से दोहराया गया कि तुम जैन हो; इतनी बार दोहराया तुमने कभी देखा कि तुम कितने शब्दों के हाथ में हो? | गया है कि अब तुम्हें याद भी नहीं आता कि कब शुरू किया गया शब्द तुम्हारी बेहोशी हैं। इसको महावीर कहते हैं वचन। था दोहराना। यह विज्ञापन, यह कंडीशनिंग, यह संस्कार ऐसा इससे जागना जरूरी है। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कि कोई डाला गया है कि अब तुमसे कोई नींद में भी पूछे, तो भी तुम प्रशंसा करे कि निंदा, बराबर हो जाये। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कहोगे, जैन हूं। शराब भी पीकर सड़क पर गिर पड़े होओ और कि शब्द इतने बलशाली न रह जायें कि तुम्हारे प्राणों को | कोई हिलाकर पूछे कि कौन हो, तुम कहोगे, जैन। इतना गहरा आंदोलित कर दें, अन्यथा तुम्हारी आत्मा का क्या होगा? चला गया है! विज्ञापन की कला में कुशल जो विशेषज्ञ हैं वे इस बात को मगर यही शब्द तुम्हें आंदोलित करता है। फिर अगर कोई कह समझ गये हैं कि आदमी शब्दों से जीता है, तो शब्दों को दोहराये देता है, 'इस्लाम खतरे में है', तो तुम मरने-मारने को उतारू हो चले जाते हैं। तुम्हारे मन पर पर्ते बना देते हैं। बिनाका टुथपेस्ट, | जाते हो। 'इस्लाम' एक शब्द है। शब्द सत्य नहीं है। कोई बिनाका टुथपेस्ट दोहराये चले जाते हैं। तुम शायद सोचते भी शब्द सत्य नहीं है। नहीं कि तुम्हारा कुछ बिगड़ रहा है; लेकिन तुम्हें पता नहीं है, यह शब्द के साथ संबंध को शिथिल करो। 373 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1TMETRA तो महावीर कहते हैं, शरीर के साथ संबंध को शिथिल करो, भी अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, मन को मार डालो। न, शब्द के साथ, वचन के साथ संबंध को शिथिल करो। और फिर महावीर कहते हैं, तुम अपने को शिथिल कर लो इनसे। जब धीरे-धीरे मन के साथ। | इनकी जरूरत हो, उपयोग कर लो। लेकिन जब इनकी जरूरत न शरीर से शुरू करो, क्योंकि वह स्थूलतम है; उस पर प्रयोग हो तो इनकी जकड़ न रहे। चलना है, कहीं जाना है, तो शरीर का करना आसान होगा। इसलिए महावीर की पूरी प्रक्रिया शरीर से उपयोग करना पड़ेगा। किसी से कुछ बोलना है, कहना है, तो शुरू होती है, मन पर पूरी होती है। वचन का उपयोग करना पड़ेगा। कुछ सोचना है, चिंतन करना जब तुम शरीर से मुक्त होने लगोगे तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा है, तो मन का, मनन का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन यह भीतर का बंधन-वचन का। जब तुम वचन से मुक्त होने उपयोग हो। ऐसा न हो कि तुम यह भूल ही जाओ कि तुम इनसे लगोगे तब तुम्हारी आंखें इतनी साफ होंगी, पारदर्शी होंगी कि | अलग हो। और जब इनका उपयोग नहीं करना है तो तुम इनको तुम्हें मन का बंधन दिखाई पड़ेगा। और इन तीनों के पार आत्मा बांधकर एक कोने में रख सको। इतनी क्षमता बनी रहे। है। और उस आत्मा में परमात्मा छिपा है। । तुमने देखा? लोग सिनेमा-घरों में बैठे हैं, होटलों में बैठे हैं _ 'जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया और टांगें हिला रहे हैं! उनसे पूछो कि टांग किसलिए हिला रहे से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा हो? चलते, तब सब ठीक था; चलने में टांग हिलनी चाहिए। का ध्यान करो।' मगर यहां कुर्सी पर बैठे-बैठे टांग क्यों हिला रहे हो? कहोगे तो बाहर से भीतर और भीतर से और भीतर...शरीर हमारा सेतु है वे चौंककर रोक लेंगे। वे कहेंगे, हमें कुछ याद न था। लेकिन बाहर से। वचन भी हमारा सेतु है बाहर से। मन भी हमारा सेत् | इसका यह मतलब हुआ कि शरीर के साथ संबंध ऐसा हो गया है है बाहर से। जुड़े हैं हम इस तरह। कि जब जरूरत नहीं होती तब भी टांगें हिलती जाती हैं। इसलिए तुमने देखा, गूंगा आदमी जो बोल नहीं सकता, वह नींद में लोग बड़बड़ाते हैं। पूछो, 'किससे बात कर रहे हो? समाज का हिस्सा नहीं हो पाता! जड़बुद्धि; जिसके पास मन की अब तो यहां कोई भी नहीं, अब तो चुप हो जाओ!' तो वे नींद में बहुत क्षमता नहीं है, वह अकेला रह जाता है। तुमने यह खयाल | बड़बड़ाते हैं। कोई न हो तो भी क्या हुआ; बोलने की आदत किया, इस समाज में वे ही लोग सर्वाधिक मूल्यवान हो जाते हैं | ऐसी पड़ गई है! जो शब्दों का प्रयोग करने में सर्वाधिक कुशल होते हैं! नेता हों, | मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर किसी आदमी को तीन महीने के धर्मगुरु हों, कवि हों, लेखक हों—जिन लोगों की भी क्षमता | लिए एकांत-गृह में छोड़ दिया जाये जहां सब सुविधा हो, उसे वचन पर गहरी है, वे इस जगत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाते वक्त पर भोजन सरककर मिल जाये मशीन के द्वारा, कोई हैं। जिनकी वचन पर पकड़ गहरी नहीं है, वे पिछड़ जाते हैं। अड़चन न हो, लेकिन बोलने को कोई न हो तो तीन सप्ताह के मनुष्य का असली समाज भाषा में है। इसलिए जो बच्चा देर | बाद उसके ओंठ हिलने लगेंगे। तीन सप्ताह तक वह नहीं बोलता, मां-बाप चिंतित हो जाते हैं, घबड़ा जाते हैं कि | भीतर-भीतर बात करेगा। तीन सप्ताह के बाद वह ओंठ अब बड़ा मुश्किल हुआ। क्योंकि यह बच्चा कभी सभ्य न बन | हिलाकर बात करने लगेगा। छह सप्ताह के बाद वाणी बाहर सकेगा। यह समाज का हिस्सा न बन सकेगा। यह अधूरा | आने लगेगी। नौ सप्ताह के बाद वह बड़े खुलकर बोलेगा। पड़ेगा, अकेला पड़ा रह जायेगा। इसकी कोई जीवन की यात्रा, | अकेले। और अब इस तरह बोलेगा कि जैसे किसी से बात कर गति न होगी। रहा है और कोई मौजूद है। बारहवें सप्ताह होते-होते वह ये सेतु हैं जो हमें बाहर से जोड़े हुए हैं। इन सेतुओं से मुक्त हम | बिलकुल पागल हो जायेगा। होना सीखें तो हम भीतर से जुड़ेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि | तुमने पागलखाने में लोग बैठे देखे हैं जो अपने से बातें कर रहे महावीर कहते हैं, तुम बोलो मत। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि | हैं? उनको हो क्या गया है? वाणी के साथ, वचन के साथ महावीर कहते हैं, शरीर की आत्महत्या कर डालो। इसका यह | इतना ज्यादा तादात्म्य हो गया है कि अब दूसरे की मौजूदगी भी 1374 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MERELEBRATE m आत्मा परम आधार है। ANTA 40 जरूरी नहीं है। तुम्हें तो दूसरे को खोजना पड़ता है, क्योंकि तुम्हें कहा, 'क्या तुमने समझा है हम पागल हैं? हमको कैसे अभी थोड़ा-सा होश बाकी है कि बिना दूसरे के कैसे बात करो! | वार्तालाप करना, आता है। क्या तुमने समझा हम पागल हैं? उठे, चलो मित्र के घर जायें, होटल जायें, क्लब-घर जायें। | जब एक बोलता है, दूसरे को चुप हो ही जाना चाहिए। लेकिन क्योंकि अभी तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है कि अकेले ही बात | दूसरा जब चुप है, अपने भीतर गुनतारा बिठा रहा है; जब यह करने लगो। हालांकि जब तुम दूसरे से भी बात करते हो, तो भी चुप हो जायेगा, तब वह अपना शुरू कर देगा। ये दोनों धाराएं तुम अकेले ही बात कर रहे हो। वह दूसरा चाहे सुनने को राजी | अलग-अलग चल रही हैं, अपने-अपने भीतर चल रही हैं। भी नहीं है। वह ऊबा हुआ है, जम्हाई लेता है, घड़ी देखता है। तुम थोड़ा वचन से जागो! वचन से जागे कि तुम समाज से वह छिटकना चाहता है, लेकिन तुम उसको पकड़े हुए हो! छूटे—जंगल भागने से कोई समाज से मुक्त नहीं होता। भाषा लोग हाथ तक पकड़कर बातें करते हैं कि कहीं निकल न से हट जाने से समाज से मुक्त होता है। इसलिए वास्तविक जाओ! बिलकुल पास आ जाते हैं, बिलकुल चेहरे के पास एकांत भाषा से मुक्ति है। हिमालय पर भी जाओगे तो भाषा से चेहरा ले आते हैं कि कहीं छुटकर खिसक न जाओ। बामुश्किल अगर मुक्त न हुए तो तुम पौधों से, वक्षों से बात करने लगोगे, तो मिले हो! वह तुम्हारी सुनना नहीं चाहता। वह हा-हूं करता पक्षियों से बोलने लगोगे। बोलने के लिए कोई भी सहारा खोज है। वह कहता है, ठीक है, सब ठीक है; मगर तुम अपना कहे लोगे। कुछ न होगा तो आकाश में बैठे भगवान से चर्चा शुरू चले जा रहे हो! कर दोगे। देवी-देवता और अप्सरायें प्रगट होने लगेंगी। वे सब और तुमने कभी यह खयाल किया है कि दो लोग जब बातें तुम्हारे कल्पना के जाल हैं। लेकिन तुम कुछ पैदा कर लोगे करते हैं, तुम जरा चुप होकर शांति से बैठकर उन दोनों की बातें जिसके सहारे तुम बात कर सको। सुनो तो तुम हैरान होओगेः वे दोनों एक-दूसरे से बात नहीं। | भाषा से जो मुक्त हुआ, वही संन्यासी है। इसीलिए महावीर ने करते! एक को अपनी कहनी है, दूसरे को अपनी कहनी है। अपने संन्यासी को 'मुनि' कहा। मुनि का अर्थ है : भाषा से जो दोनों अपनी-अपनी कहते हैं। पति-पत्नी की बात सुनो तो बहुत मुक्त; मौन को जो उपलब्ध। सोचकर कहा। अपनी-अपनी कहते हैं। हां, इतना अभी मुनि का अर्थ नहीं है, संसार से भाग गया। मनि का अर्थ नहीं होश है कि थोड़ा-थोड़ा एक-दूसरे की बातचीत में तार जोड़ते है, घर से भाग गया। बड़ी गहरी बात कही: भाषा से जाग गया; जाते हैं, ताकि ऐसा न लगे कि ये बिलकुल पागल हैं। वचन का पुराना पागलपन न रहा। जरूरत होती है तो उपयोग दो प्रोफेसर पागल हो गये थे। वे एक पागलखाने में थे। कर लेता है, अन्यथा सरकाकर बगल में रख देता है। जैसे तुम मनोवैज्ञानिक जो उनका अध्ययन कर रहा था, बड़ा हैरान हुआ; कार का उपयोग कर लेते हो; जब जाना है बैठ गये, कार चलाई, क्योंकि वे दोनों बात करते, तो जब एक बात करता तो दूसरा चुप वापस गैरेज में बंद कर दी। ऐसे ही वह वाणी के यंत्र का उपयोग हो जाता। दोनों प्रोफेसर थे, सुशिक्षित थे। फिर जब दूसरा करता | कर लेता है, जब जरूरत हुई; फिर वापस गैरेज में बंद कर दी। तो पहला चुप हो जाता। लेकिन दोनों की बातों में कोई तार-तुक | ऐसे ज्यादातर वह मौन रहता है, मौन में डूबता है; जरूरत के नहीं, कोई संगति नहीं। एक आकाश की हांक रहा है, दूसरा | वक्त भाषा में उतरता है। लेकिन भाषा उपकरण हो जाती है। जमीन की हाक रहा है। उससे कोई लेना ही देना नहीं। कहीं तार | अब यह भाषा का मालिक है। जुड़ते ही नहीं; आसपास भी नहीं आते, जुड़ने की बात दूर। जिस दिन भाषा उपकरण हो गई, उस दिन तुम मुनि हुए। तुमने समानांतर चल रही हैं रेखाएं, कहीं मिलती नहीं। आखिर वह | घर छोड़ा या न छोड़ा, मझे फिक्र नहीं है। लेकिन जिस दिन भाष बड़ा हैरान हुआ कि इतने पागल हैं कि कुछ भी बकते हैं। लेकिन | से तुम छूटे, भाषा का कारागृह तुम्हारे ऊपर वजनी न रहा, भारी इतना खयाल रखते हैं, जब दूसरा बोलता है तो एक चुप हो जाता | न रहा, तुम समर्थ हुए जब चाहो तो बोलो, लेकिन बोलने की है। तो वह अंदर गया। उसने पूछा कि यह बड़े रहस्य की बात | चाह तुम्हें पागल की तरह आंदोलित नहीं करती तो तुम मुनि है! जब एक बोलता है, दूसरा चुप क्यों हो जाता है? उसने | हो गये। 375 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 जिन सूत्र भाग: 1 'मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।' बाहर जाने के मार्ग हैं। शरीर बाहर से जोड़ता है । स्वभावतः शरीर बाहर से आया है, मां से मिला, पिता से मिला। तुम इसे लेकर नहीं आये। यह बाहर के द्वारा दिया गया है, बाहर की भेट है। यह तुम्हारी मां का है, तुम्हारे पिता का है। उनका भी है, कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उनके पास भी जो शरीर था वह उनके माता-पिता का था। उनका भी था, यह भी कहना ठीक नहीं। इसलिए अगर इसकी पूरी गहराई में जाओगे तो शरीर प्रकृति का है; बाहर से आया है; मिट्टी का है; जल का है; वायु का है; आकाश का है; पंच महाभूतों का है; तुम्हारा नहीं है । जो बाहर से आया है वह बाहर की गुलामी में है। स्वभावतः तुम्हारे भीतर भी जो जल है वह बाहर के जल के ही नियमों का पालन करता है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करता। कैसे करेगा ? तुमसे | उसका कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे भीतर जो मिट्टी है, वह मिट्टी के नियमों का पालन करती है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करती। उस पर गुरुत्वाकर्षण का काम होता है । तुम्हारे भीतर जहां से जो आया है, उसी नियम का पालन करता है। वायु वायु का पालन करती है। अग्नि अग्नि का पालन करती है। इसे तुम खयाल रखना । इसलिए अगर तुमको चांद, पूर्णिमा के चांद को देखकर बड़ी उमंग उठती है, तो तुमने कभी सोचा न होगा, क्यों उठती है ! यह वैसे ही उठती है उमंग, जैसे सागर में उमंग उठती है। क्योंकि सागर चांद से प्रभावित होता है, आंदोलित होता है, ज्वार उठता है, नाचने लगता है। बड़ी लहरें, उत्तंग लहरें उठती हैं, सागर पगला जाता है इसलिए चांद की रात में ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो थोड़ा पगला न जाता हो। जो बहुत संवेदनशील हैं, बहुत ज्यादा पगला जाते हैं। इसलिए पागलों के लिए अंग्रेजी शब्द है : लूनाटिक | लूनाटिक का मतलब होता है चांदमारा; चांद ने मारा इसे | हिंदी में भी चांदमारा पागल के लिए उपयोग करते हैं । आदमी के शरीर के भीतर कोई अस्सी प्रतिशत जल है, थोड़ा नहीं है। और यह जल ठीक वैसा ही जल है जैसा सागर का । उतने ही लवण इस शरीर के जल में भी हैं। हिंदू कहते हैं कि पहला अवतार मछली का । वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य का पहला अवतरण मछली में । और मछली के भीतर जो जल का ढंग है, वही आदमी के शरीर के भीतर भी है। अभी भी है। इसलिए जब सागर उत्तंगित हो जाता है, तरंगित हो जाता है, तो तुम भी तरंगित हो जाते हो। चांद को देखकर कौन मोहित नहीं हो जाता ! लेकिन यह तुम नहीं हो जो मोहित हो रहे हो; यह तुम्हारे भीतर का जल है, अस्सी प्रतिशत, जिसमें तरंग उठी है बड़ी सूक्ष्म । अगर इसे तुम समझोगे तो चांद हो कि अमावस हो, सब बराबर हो गये। फिर कोई फर्क न रहा। तुम जब एक स्त्री को देखकर आंदोलित हो जाते हो, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हो, कोई वासना का ज्वार तुम्हें घेर लेता है, तो तुम यह मत सोचना कि तुम प्रभावित हो गये हो; ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए स्त्री- हारमोन, ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए पुरुष - हारमोन, यह तुम्हारे शरीर की केमिस्ट्री है, रसायन है जो प्रभावित हो रही है। क्योंकि तुम्हारा आधा शरीर स्त्री का है, आधा पुरुष का है। सभी अर्धनारीश्वर हैं। आधा मां से मिला है, आधा पिता से मिला है। तो जब भी तुम किसी स्त्री को देखकर प्रभावित होते हो, तो तुम यह मत सोचना कि मैं प्रभावित हुआ। वहां तुम भ्रांति कर रहे हो। वहां शरीर के साथ तुमने तादात्म्य कर लिया। ये तो तुम्हारे शरीर के भीतर के द्रव्य हैं जो आंदोलित हुए; क्योंकि ये उसी नियम को मानकर चलते हैं जो पदार्थों का नियम है। यह कर्षण, यह आकर्षण, यह चुंबक पौदगलिक है, शारीरिक है । यह पदार्थगत है। यह होना भी चाहिए पदार्थगत । इसलिए जैसे-जैसे व्यक्ति अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे-वैसे दूसरों के शरीर उसको कम प्रभावित करते हैं। जिस दिन व्यक्ति को यह पूरा अनुभव होने लगता है कि मैं शरीर हूं ही नहीं, उसी दिन स्त्री-पुरुष के शरीर के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं। फिर कौन पास से निकल जाता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । तुम्हारे भीतर कोई तरंग नहीं उठती। फिर पूर्णिमा की रात हो कि अमावस की रात, सब बराबर हो जाता है। शरीर में तरगें उठती रहेंगी, इससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम दूर खड़े द्रष्टा हो जाते हो। मन भी मन के ही नियमों को मानकर चलता है, तुम्हारे नियम मानकर नहीं चलता। इसलिए तुमने कई दफे देखा होगा कि Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा परम आधार है अगर तुम दस आदमियों के पास गये मिलने और वे दसों प्रसन्न मस्जिद जलाने, या मुसलमानों की भीड़ चली आ रही है हिंदुओं थे, आनंदित थे, तुम उदास थे; लेकिन क्षणभर में तुम भूल जाते का मंदिर तोड़ने-तब एक भला-अच्छा आदमी भी जो नमाज हो कि तुम उदास हो। उन दस आदमियों की प्रसन्न-चित्तता में पढ़ता है, सादा-सीधा है, कभी किसी की हिंसा करने की नहीं तुम भी प्रसन्न हो जाते हो। तुम भी हंसने लगते हो। घड़ीभर | सोची, किसी का मकान जलाने की नहीं सोची-वह भी उस पहले आंखें आंसुओं से भरी थीं, क्या हो गया इतनी जल्दी? भीड़ में चल पड़ता है! वह जो मन के सूक्ष्म परमाणु हैं...दस आदमियों के परमाणु तुमने कभी भीड़ में देखा कि अचानक तुममें गति आ जाती है! निश्चित ही तुमसे ज्यादा मजबूत हैं। तुम्हारा मन अल्पमत में हो | भीड़ अगर उत्साह से है, तो तुम उत्साह से भर जाते हो! भीड़ गया, बहुमत ने हावी कर दिया तुम्हें, इसलिए उदास आदमियों अगर तेजी से चल रही है तो तुम तेजी से दौड़ने लगते हो। भीड़ के पास जाओगे, उदास होने लगोगे। अगर मकान में आग लगा रही है तो तुम उसमें भी रस लेने लगते तुम कभी गये हो अस्पताल किसी मरीज को देखने? जल्दी हो। बाद में अगर कोई तुमसे पूछेगा, तो तुम कहोगे, 'पता नहीं भागने का मन होता है। बीमार लोग हैं, अस्वस्थ लोग हैं, उदास कैसे यह हो गया! मैंने क्यों साथ दिया!' अगर तुमसे कोई यह लोग हैं, जराजीर्ण लोग हैं उनके पास तुम भी जराजीर्ण होने पूछे कि क्या अकेले तुम यह कर सकते थे, तो तुम निश्चित लगते हो। घबड़ाहट होती है, अकुलाहट होती है, भाग जाने का | कहोगे कि नहीं कर सकता था। अकेले तो मैंने कभी ऐसा नहीं मन होता है। किया। यह भीड़ में हो गया। भीड़ में तुम्हारा उत्तरदायित्व क्षीण तुमने कभी खयाल किया कि डाक्टर कठोर हो जाता है! होना हो जाता है। बहुमत हावी हो जाता है। मन की तरंगें चारों तरफ ही पड़े, नहीं तो वह मर जाये। अगर डाक्टर कठोर न हो तो जीए से तुम्हें घेर लेती हैं, आंदोलित कर देती हैं। कैसे? चौबीस घंटे उदास, बीमार, रुग्ण...। उसे धीरे-धीरे जो आदमी भीड़ से प्रभावित नहीं होता, वह मन के बाहर हो इतनी कठोरता भीतर बना लेनी पड़ती है कि उसे पता ही नहीं गया। जो आदमी भीड़ से प्रभावित होत चलता, कि कौन उदास है, कौन मर रहा है। ये सब घटनाएं है। इसलिए तो राजनेता रैली निकालते हैं-अपना-अपना साधारण हो जाती हैं। कोई मरीज मर गया तो वह यह नहीं कहता प्रभाव दिखाने के लिए, कि कितने लाख आदमी उनकी रैली में कि कोई आदमी मर गया—कौन-सा बिस्तर खाली हो गया! सम्मिलित थे। उससे लोग प्रभावित होते हैं, निश्चित ही कौन-सा नंबर मर गया! आदमी की बात उठानी ठीक नहीं है, . प्रभावित होते हैं। जिसकी रैली में लाख थे और जिसकी रैली में नंबर ही मरते हैं अस्पताल में। और डाक्टर को नंबर पर ही ध्यान पांच लाख थे, वह जो जनता खड़ी देख रही है चारों तरफ वह रखना जरूरी होता है। उतनी कठोरता जरूरी है, नहीं तो वह मर | पांच लाखवाले से प्रभावित होती है। इसमें कोई गणित नहीं जायेगा। वह जी न सकेगा। उसकी हंसी बिलकुल सूख बिठाना पड़ता। यह अनजान है। वह पांच लाख की भीड़ जायेगी। उसके लिए जीने का कोई उपाय न रह जायेगा। प्रभावित कर देती है। इसलिए अकसर जब कभी कोई युवक मेरे पास आ जाते हैं, वे अगर किसी राजनेता के चुनाव में हारने की अफवाह भी फैल कहते हैं कि मैं अपनी एक डाक्टर साथिन के साथ विवाह कर | जाये तो वह हार जाता है; जीतने की अफवाह फैल जाये तो वह रहा हूं और युवक भी डाक्टर तो मैं कहता हूं, थोड़े सावधान! जीत जाता है। एक ही डाक्टर ठीक है। दोनों डाक्टर इतने कठोर होंगे कि तुम अंग्रेजी में कहावत है: नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस। पिघल न पाओगे; तुम एक-दूसरे से मिल न पाओगे। तो यह सफलता से ज्यादा कोई चीज सफल नहीं होती। बड़ी ठीक है। विवाह व्यवसायिक तो उपयोगी होगा, आर्थिक रूप से उपयोगी क्योंकि जब तुम सफल हो रहे होते हो तो तुम चारों तरफ परमाणु होगा; लेकिन जीवन से इसका कोई संबंध न होगा। फेंकते हो अपनी सफलता के। जब तुम असफल हो रहे होते हो ध्यान रखना, तुम्हारा मन प्रतिक्षण दूसरे के मनों से आंदोलित तो तुम चारों तरफ परमाणु फेंकते हो अपनी असफलता के। हो रहा है। हिंदुओं की भीड़ चली जा रही है मुसलमानों की असफलता में कौन साथ देता है! जीते के साथ सभी हो लेते हैं, 377 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः1 शाहा हारे के साथ कौन होता है! ऊगते सूरज के सभी साथी हैं, डूबते अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में सूरज का कौन साथी है! कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए। लेकिन भीड़ का राज क्या है? तुम भीड़ से इतने आंदोलित -उड़ान की ऐसी चाह, उड़ान की कम से कम ऐसी क्यों होते हो? सारे दुनिया के धर्म अपनी भीड़ को बढ़ाने के | अभीप्सा, कि आकाश से भी पार हो जायें! लिए इतने पागल क्यों रहते हैं? क्योंकि भीड़ है तो और भीड़ को __ यह शरीर तो मिट्टी से बना है। इससे तो पार होना ही है। ये आकर्षित करने का उपाय है। जितनी बड़ी भीड़ है उतनी भीड़ को वचन, ये शब्द ये भी मिट्टी के ही सूक्ष्म अणु-परमाणु हैं, इनसे आकर्षित करने का उपाय है। हिंदू अगर बीस करोड़ हैं, भी मुक्त होना है। यह मन, यह तो मन इस शरीर और वाणी का मुसलमान अगर साठ करोड़ हैं या ईसाई अगर एक अरब हैं, तो ही कोषागार है, संचित परमाणु हैं-इससे भी मुक्त होना है। स्वभावतः यह भीड़ सारे जगत के मन को आंदोलित करती है। वहीं अंतआकाश शुरू होता है। और आकाश से भी आगे यह भीड़ परमाणु फेंकती है। निकल जायें, वहीं परमात्मा है-जहां यह भी पता नहीं रहता कि ध्यान रखना, भीड़ से सावधान रहना। क्योंकि जब तुम भीड़ | मैं आत्मा हूं, जहां सिर्फ आत्मा ही रह जाती है, मैं बिलकल गिर से प्रभावित होते हो, तब तुम अपने ही मन से प्रभावित हो रहे | जाता है...। हो-और तुम्हारा मन तुम्हें तरंगित कर रहा है। __ अब इसे थोड़ा समझना। हम कहते हैं, मेरा शरीर, मेरा मन, शरीर, वचन, मन–तीनों से पार साक्षी-भाव में ठहरना है। मेरे विचार-'मेरा'। पहले 'मेरा' को गिराना है। फिर हम और जो साक्षी-भाव में ठहरता है, वही परमात्मा का अनुभव कर कहेंगे, 'मैं', आत्मा। फिर 'मैं' को गिराना है। जब 'मेरा' पाता है। गिरता है तो आत्मा प्रगट होती है। जब 'मैं' भी गिरता है तो इलाही! वह नज़र दे आशियां तक हो, कफस जिसको परमात्मा प्रगट होता है। न ऐसी कम निगाही, जो कफस को आशियां समझे।। __'आत्मा; मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित, हे प्रभु! ऐसी आंख दे कि घर भी जेलखाना मालूम पड़े। ऐसी निर्द्वद्व-अकेला, निर्मम ममत्वरहित, निष्कल-शरीर ओछी आंख मत दे देना कि जेलखाना भी घर मालूम पड़ने लगे। रहित, निरालंब–परद्रव्यआलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, अभी तो जेलखाना घर मालूम पड़ता है। अभी तो तुम अपने मोह-रहित तथा निर्भय है।' शरीर को अपना जीवन समझे हो। यह तुम्हारा कारागृह है। वर्णन, यह कोई परिभाषा नहीं है। यह कोई व्याख्या नहीं है। अभी तो तुम अपनी भाषा की कुशलता को अपनी सामर्थ्य समझे ऐसा महावीर का अनुभव है। वे इसे कह देते हैं बड़े सूक्ष्म में। हो। यह तुम्हारी गुलामी है। अभी तो तुमने मन को अपना बल | 'मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित...।' समझा है। जहां न मन रह गया, न वचन रह गया, न काया रह गई। जहां मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, मन की शक्ति कैसे बढ़े, शरीर बहुत दूर छुट गया, विचार की तरंगें बहुत दूर छुट गईं। यह बताएं! मन की शक्ति बढ़ानी है कि मन से मुक्त होना है ? | जहां मन भी बहुत पीछे छूट गया। जहां इन सबसे तुम पार चले वे कहते हैं, संकल्प थोड़ा कम है। विल पावर चाहिए! | आये। जहां इन सबसे भीतर चले गये। जहां तुमने अंतरगृह में विल पावर, संकल्प की शक्ति तो मन को ही बढ़ायेगी। प्रवेश किया। मंदिर की दीवालें दूर छूट गईं। जिसमें तुम मन से दूर होकर जो मिलता है वह आत्मबल है। मन से जो आवास बनाये हुए हो, वह सब दूर छूट गया। अब तुम वहां आ मिलता है वह कोई बल नहीं है; वह तो तुम्हारी निर्बलता है। वह | गये, जहां अंतर्तम है, जहां अंतर्तम का शून्य-गह है, शून्याकाश तो धोखा है। है। तो निर्दूद्व। उस घड़ी में दो नहीं बचते, एक बचता है। अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में उपनिषदों में कथा है: एक जिज्ञासु ने याज्ञवल्क्य से पूछा, कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए। 'कितने देवता हैं?' याज्ञवल्क्य ने कहा, 'शास्त्र कहते हैं आकाश से भी आगे जाना है! तैंतीस हजार।' उस जिज्ञासु ने कहा, 'यह थोड़ा बहुत ज्यादा हो 3781 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा परम आधार है गया। किस-किसकी पूजा करेंगे? थोड़ी हमारी सामर्थ्य पर तुम्हारा अकेलापन दूसरे की गैर-मौजूदगी है। इसलिए तुम्हारा ध्यान दो। तो मैं फिर से पूछता हूं, कितने देवता हैं?' तो अकेलापन वस्तुतः अकेलापन नहीं है। वहां तुम नहीं हो याज्ञवल्क्य ने कहा कि ऐसा है कि मुख्य तो तीन सौ तीस ही। अकेलेपन में; दूसरा गैर-मौजूद है, इसकी प्रतीति है। पत्नी उस आदमी ने कहा, 'मैं बहुत समर्थ नहीं हूं, तीन सौ तीस भी मायके चली गई, इसलिए अकेलापन लगता है। यह अकेलापन मुझे मुश्किल पड़ जायेंगे। तुम जरा और संक्षिप्त करो। नकारात्मक है। यह पत्नी से जुड़ा है। इसमें पत्नी के वापिस याज्ञवल्क्य ने कहा, 'तो फिर तीन।' उस आदमी ने कहा, लौट आने की आकांक्षा छिपी है। यह पीड़ा है। इसलिए 'तीन से भी बड़ी झंझट होगी। तीन तरफ खीचेंगे। किसकी अकेलेपन शब्द में ही उदासी हो गई है। क्योंकि महावीर जैसा सुनूंगा?' तो याज्ञवल्क्य ने कहा, 'अब तू बहुत गड़बड़ कर अकेलापन तो कभी-कभार किसी को मिलता है। तुम्हारा रहा है। डेढ़!' उस आदमी ने कहा कि अब चलो, अब तो आ | अकेलापन बहुत है, बहुमत को है। ही गये करीब-करीब। अब सच्ची बात ही कह दो। अब सत्य कोई आदमी कहता है, बड़ा अकेलापन लगता है, तो तुम ऐसा ही कह दो। तो याज्ञवल्क्य ने कहा, 'सत्य तो एक है।' नहीं मानते कि बड़ा प्रसन्न होकर कह रहा है; तो तुम समझते हो सत्य तो एक, एक ही है सत्य। उसे एक कहना भी उचित नहीं कि दुखी है, परेशान है, उदास है। है, क्योंकि एक कहते से दो का खयाल पैदा होता है। एक महावीर का अकेलापन दूसरे की अनुपस्थिति से नहीं अकेला तो हो ही नहीं सकता दो के बिना। इसलिए भारत में बनता-अपनी उपस्थिति से बनता है। सभी परम ज्ञानियों ने उसे एक भी नहीं कहा, क्योंकि एक कहने इस फर्क को खयाल में रखना। से दो का तत्क्षण खयाल होता है। एक होगा कैसे अगर दो नहीं अंग्रेजी में दो शब्द हैं। अलोननेस, लोनलीनेस। वे शब्द बड़े हैं? एक गणित की संख्या निर्मित ही तब होती है जब दो और अच्छे हैं। महावीर का जो अकेलापन है, वह अलोननेस। तीन, और सारी संख्याएं हों। तुम्हारा जो अकेलापन है वह लोनलीनेस है। महावीर का जो इसलिए वेदांत कहता है : अद्वैत; दो नहीं। एक नहीं कहता। अकेलापन है, वह एकांत; अकेलापन नहीं। तुम्हारा जो महावीर कहते हैं : निर्द्वद्व; दो नहीं, द्वंद्व नहीं। और महावीर का अकेलापन है, वह एकाकीपन है; अकेलापन; उदासी; कुछ निद्वंद्व अद्वैत से भी मधुर है। खोया-खोया; कुछ कम-कम; कुछ अभाव; कुछ होना चाहिए क्योंकि अद्वैत का मतलब है : दो नहीं हैं। महावीर का मतलब | था, नहीं है। कमरे में जाते हैं, पत्नी दिखाई नहीं पड़ती, बच्चे है : द्वंद्व नहीं है। दो में तो ऐसा लगता है, चीजें ठहरी हैं; प्रक्रिया दिखाई नहीं पड़ते। तुम्हारी नजरें किसी दूसरे को खोज रही हैं का बोध नहीं होता, थिरता का बोध होता है। निर्द्वद्व में द्वंद्व नहीं और दूसरा मिलता नहीं। तुम्हारा अकेलापन यानी तन्हाई। है, संघर्षण नहीं है; गति का बोध है। महावीर का अकेलापन : जहां तक नजर जाती है, खुद ही को और महावीर का गति पर बड़ा जोर है। महावीर तो कहते हैं : | पाते हैं। सारा कमरा अपने से भरा है; सारा आकाश अपने से जो गत्यात्मक है, वही सत्य है; जो निरंतर गतिमान है। महावीर भरा है! अपने को ही छूते हैं, अपने को ही गुनगुनाते हैं! अपना कहते हैं : जहां गति नहीं है वहीं मृत्यु है। और जहां सतत गति | होना इतना गहन हुआ है कि अब दूसरे की कोई जरूरत नहीं है! है. ऊर्जा का सतत आरोहण है. वहीं जीवन है। इसलिए वे शब्द दूसरे की याद भी नहीं आती। दुसरा है भी, इसका पता नहीं उपयोग करते हैं : निर्द्वद्व, अकेला। अकेले से तुम खयाल चलता! निर्द्वद्व! रखना : तुमने जो अकेलापन जाना है, वह महावीर का अर्थ नहीं | महावीर का अकेलापन बड़ा विधायक है, पाजिटिव है। हो सकता। क्योंकि महावीर ने जो अकेलापन जाना है उसका तो 'निर्मम-ममत्व-रहित...।' तुम्हें कोई पता ही नहीं है। तुमने भी बहुत बार अकेलापन जाना | तुम्हारा 'निर्मम' अलग है। तुम्हारे निर्मम का अर्थ होता है : है। पत्नी मायके चली गई और तम अकेले हो गये, कि बच्चे कठोर। तुम उस आदमी को निर्मम कहते हो जो बड़ा कठोर है, सब हास्टल चले गये और तुम अकेले हो गये। दुष्ट है। महावीर-और दुष्ट! नहीं, हम अलग-अलग 379 www.jainelibrary org Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म जिन सूत्र भागः1 TARA R भाषाओं के लोक में जी रहे हैं। महावीर के लिए निम वह है तरह सब तरफ बहने लगती है; अब कोई कूल-किनारा नहीं रह जिसे ममत्व नहीं; जिसके पास से 'मेरा' समाप्त हो गया; जाता। तो महावीर की निर्ममता में करुणा है और हमारे ममत्व में जिसके लिए अब कोई चीज 'मेरी' नहीं, बस। तुम्हें तो दोनों भी कठोरता है। बातें एक लगती हैं; जैसे 'शरीर-रहित, निरालंब...।' एक घर में आग लगी। मालिक छाती पीटकर रोने लगा। कोई आलंबन नहीं है आत्मा का। कोई आधार नहीं है आत्मा किसी ने कहा, 'घबड़ाओ मत, चिल्लाओ मत, परेशान मत | का। आत्मा परम आधार है। उसके आगे फिर कोई आधार नहीं होओ। मैंने तुम्हारे बेटे को कल ही तो किसी से बात करते देखा | है। होना अपने कारण है, स्वयंभू है। था। मकान बेचने का सब तय हो गया है। पैसे भी दे दिये गये | तो जैसा उपनिषद ब्रह्म के लिए कहते हैं-परम आधार, हैं। यह तो मकान बिक चका, तुम्हारा नहीं है।' निरालंब-वैसा ही महावीर आत्मा के लिए कहते हैं। जिसको उस आदमी के आंसू सूख गये। वह स्वस्थ हो गया। उसने | उपनिषदों ने ब्रह्म कहा है, उसी को महावीर ने आत्मा कहा है। कहा, 'अरे! मुझे इसका पता ही नहीं था।' ब्रह्म या आत्मा कहने से फर्क नहीं होता। मकान जल रहा है। मकान वही का वही है, लेकिन 'मेरा' | एक हमें मानना पड़ेगा जो निरालंब है, जिसका कोई आधार नहीं है तो अब क्या फिक्र! तभी बेटा आया घबड़ाया हुआ। नहीं; जो सबका आधार है, लेकिन जिसका कोई आधार नहीं। उसने कहा कि ऐसे खड़े हो, क्या कर रहे हो? यह मकान जला अन्यथा अस्तित्व बेबूझ हो जायेगा। जा रहा है! बात हुई थी, लेकिन पैसे लिये-दिये नहीं गये थे। वैज्ञानिक कहता है: पानी बना है हाइड्रोजन-आक्सीजन से; मकान अपना ही जल रहा है। आक्सीजन बनी है इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पोजिट्रान से; इलेक्ट्रान, फिर बाप रोने लगा, फिर छाती पीटने लगा। मकान वही का | न्यूट्रान, पोजिट्रान बने हैं विद्युत से, विद्युत-ऊर्जा से। वही है; 'मेरे' से जुड़ जाता है तो दुख ले आता है; 'मेरे' से विद्युत-ऊर्जा किससे बनी है? वे कहते हैं, बस विद्युत-ऊर्जा छूट जाता है तो बात खत्म हो गई। किसी से नहीं बनी है तो विद्युत-ऊर्जा उनके लिए निरालंब हो जिस-जिसको तुमने 'मेरा' माना है, वहीं-वहीं से दुख आता गई। कहीं तो जाकर आधार खोज लेना होगा, जिसके पार कुछ है। जिस-जिस से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है, वहां से कोई दुख भी नहीं है। नहीं आता। इसलिए जितना तुम्हारा 'मेरे' का जाल होगा, महावीर उस आधार को आत्मा में खोजते हैं। निश्चित ही उतना ही तुम्हारा दुख होगा। जितना तुम्हारा मेरे का जाल टूट विद्युत की बजाय आत्मा में खोजना ज्यादा गहरा है। क्योंकि जायेगा, उतना ही तुम्हारा दुख समाप्त हो जायेगा। विद्युत की खोज भी आत्मा ने की है। जब वैज्ञानिक कहता है, . जब महावीर कहते हैं 'निर्मम' तो वे कहते हैं, जिसका मेरा' इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पोजिट्रान, और ये सब विद्युत से बने हैं, भाव गिर गया। इसका यह अर्थ नहीं कि वह कठोर हो गया। तो उसकी चेतना इस गहराई तक पहुंच जाती है। तो जिस गहराई सच तो यह है कि ऐसा आदमी ही करुणावान होता है। मेरे' के तक हम पहुंचते हैं, उस गहराई से ज्यादा गहराई हमारी होनी ही कारण तुम कठोर हो। क्योंकि 'मेरे' के कारण तुम्हारी करुणा चाहिए, अन्यथा हम उस गहराई तक नहीं पहुंच सकते। मुक्त नहीं हो पाती। अगर तुम्हारा बेटा गिरता है तो उठा लेते वैज्ञानिक अपने को छोड़ देता है, बाहर रख लेता है। लेकिन हो; दूसरे का बेटा गिरता है तो आंख बचाकर निकल जाते हो। कुछ भी हम खोज लेंगे, खोजनेवाले से बड़ा वह नहीं होगा जो 'मेरे' के कारण तुम कठोर हो। तुम्हारा बेटा भूखा मरता है तो हम खोजेंगे। इसे थोड़ा खयाल में रखना। इसलिए महावीर तुम परेशान होते हो; दूसरे का बेटा भूखा मरता है, तुम्हें क्या परमात्मा से भी ज्यादा मूल्य आत्मा शब्द को देते हैं। वे कहते हैं, लेना-देना! तुम मेरे' के कारण कठोर हो। आत्मा ही तो खोजेगी न परमात्मा को! तो जो खोजनेवाला है वह महावीर का 'मेरा' विसर्जित हो जाता है : करुणा मुक्त हो जिसे खोज लेगा उससे बड़ा है। मैं जिसे पा लूं, उससे मैं बड़ा हो जाती है; अब मेरे की ही धाराओं में नहीं बहती; अब तो बाढ़ की गया। तुम जिसे पा लो, तुम उससे बड़े हो गये। अगर तुम 3801 Main Eucation International Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MALA Simi RL आत्मा परम आधार है । RATEELINES गौरीशंकर पर खड़े हो गये तो तुम गौरीशंकर से बड़े हो गये। खड़ा रहता है लेकिन भय दोनों के भीतर है। बहादुर भय के तो महावीर का विश्लेषण बड़ा महत्वपूर्ण है। महावीर कहते बावजूद भी चला जाता है युद्ध में; कायर भय अनुभव होते ही हैं, आत्मा से बड़ा कुछ भी नहीं है; क्योंकि सभी कुछ अंततः भाग खड़ा होता है। एक आगे जाता है, एक पीछे जाता है; आत्मा ही पायेगी-मोक्ष, निर्वाण, ब्रह्म। तो जो पानेवाला है लेकिन भय दोनों में है। भय से कोई बाहर नहीं है। भय से वही मालिक है, वही निरालंब, वही परम आधार है। तो-महावीर कहते हैं-वही बाहर होता है, जो आत्मा को __'परद्रव्य-आलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह-रहित उपलब्ध हुआ; क्योंकि आत्मा अमरत्व है। वहां फिर कोई मृत्यु तथा निर्भय है।' नहीं। वहां पहुंचते ही पता चलता है कि न तो यह मर सकती है और निर्भय समझनेवाला तत्व है। हम भयभीत हैं। हम कंप | चेतना, न कभी मरी है, न जन्मी है-अजन्मी, अनादि, अमृत। रहे हैं, चौबीस घंटे भयभीत हैं। यह भय क्या है? बहाने कुछ तब सारा भय शून्य हो जाता है। तब सारे भय गिर जाते हैं। भी हों। और हम अपने को किसी भी तरह समझा लेते हों, कुछ आत्मा को जाने बिना भय के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं तरकीबें खोज लेते हों-कभी भय है कि प्रियजन न खो जाये; है। और भय के बाहर गये बिना कैसे दुख के बाहर जाओगे? कभी भय है बीमार न हो जायें; कभी भय है वृद्ध न हो जायें, बूढ़े कैसे भय के बाहर गये बिना चिंता के बाहर जाओगे, संताप के न हो जायें; कभी भय है, धन न खो जाये; कभी भय है, पद न बाहर जाओगे? कंपते ही रहोगे। खो जाये, प्रतिष्ठा न खो जाये, नाम-यश न खो जाये, आदमी का होना एक गहन कंपन है। आत्मा को जानते ही कुल-परंपरा न खो जाये-हजार भय हैं, लेकिन सबके गहरे में कंपन ठहर जाता है। स्थिति-प्रज्ञता पैदा होती है। ज्योति अकंप अगर खोजेंगे तो मृत्यु का भय है : कहीं मैं न खो जाऊं! हो जाती है, निर्धूम जलती है; जैसे ऐसे किसी घर में हो जहां हवा धन को भी हम इसीलिए पकड़ते हैं कि धन के सहारे स्वयं के के झोंके न आते हों-अकंप जलती है। तब पहली दफा जीवन होने में सहायता मिलती है; अन्यथा धन के लिए कौन धन को | में वसंत आता है। उसके पहले जो वसंत जाने वे तो पतझड़ के पकड़ता है? कौन इतना पागल है? लेकिन धन हो तो थोड़ा ही आगमन के आने के उपाय थे। उसके पहले तो जवानी जो बल होता है-बीमारी होगी, बुढ़ापा होगा तो धन रक्षा करेगा। | जानी वह बुढ़ापे का ही चरण था। उसके पहले तो जो जन्म कोई शत्रु होगा तो धन रक्षा करेगा। हम पद-प्रतिष्ठा को पकड़ते मिला, वह मौत की ही शुरुआत थी। आत्मा में आकर, स्वयं में हैं, क्योंकि उससे भी आत्म-रक्षा होती है। यश को पकड़ते हैं, आकर, पहली दफे वसंत आता है-ऐसा वसंत, जिसके पीछे कुल को पकड़ते हैं, समाज के अंग बनते हैं, धर्म के अंग बनते हैं, राजनीति के अंग बनते हैं-उस सबमें बहुत गहरे में | नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल आत्मरक्षा की भावना है। सब तरफ से मौत हमें पीड़ित किये है: बहारे-नौ के कदमों की सदा है। मरना होगा! नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल रोज कोई मरता है। हमारे पैर और हिल जाते हैं। रोज कोई बहारे-नौ के कदमों की सदा है। मरता है : जड़ें और उखड़ जाती हैं। रोज कोई धक्के दे जाता है। अब बेड़ियों की झंकार नहीं मालूम होती है वसंत में। यह तो ये तूफान रोज आते ही हैं मौत के। आज कोई गया, कल कोई वसंत-आगमन की पगध्वनि है, बेड़ियों की झंकार नहीं। इसके गया-परसों हमें भी जाना होगा, यह घबड़ाहट है! पहले तो वसंत भी आया तो बांध गया था। इसके पहले तो प्रेम तो आदमी इस अवस्था में कभी अभय को उपलब्ध हो ही नहीं भी आया तो बंधन बन गया था। इसके पहले तो जो भी आया सकता। जिनको तुम बहादुर कहते हो, वे भी अभय को उपलब्ध था, कारागृह ही सिद्ध हुआ था। अब पहली दफा वसंत आता नहीं होते। कायर नहीं हैं वे। इससे तुम यह मत समझना कि है। ऐसे फूल खिलते हैं जो फिर कभी मुहते नहीं। ऐसे फूल भयभीत नहीं हैं। कायर और बहादुर दोनों के भीतर भय है। खिलते हैं जो मुझाने को नहीं खिलते।। कायर भय की मानकर भाग खड़ा होता है; बहादुर नहीं मानता, 'वह आत्मा निग्रंथ है, निराग है, निशल्य है. सर्वदोषों से 1381 www.jainelibrary org Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 जिन सूत्र भाग: 1 विमुक्त है, निष्काम है और निक्रोध, निर्मान और निर्मद है । ' 'निराग, निर्ग्रथ, निशल्य...।' महावीर के अपने पारिभाषिक शब्द हैं। निर्ग्रथ का अर्थ होता है जहां अब कोई ग्रंथि न रही; कोई एढ़ा टेढ़ापन न रहा; कोई गांठ न रही; जिसको मनोवैज्ञानिक काम्प्लेक्स कहते हैं— ग्रंथि । वैसी कोई ग्रंथि न रही; आदमी सरल हुआ; चेतना पर कोई बाधाएं, अवरोध न रहे; झरना बहने लगा, सब चट्टानें राह से हट गईं। अगर चट्टानें पूरी हट जायें तो झरने का शोर भी बंद हो जाता है। झरने के करण थोड़े ही शोर होता है; शोर तो | चट्टानों के कारण होता है, बीच में पड़े पत्थरों के कारण होता है । सब चट्टानें हट जायें तो झरना एकदम शांत हो जाता है। जीवन-ऊर्जा जब शांत बहने लगती है, कोई ग्रंथि नहीं होती...। अभी तो हमारे पास हजार-हजार ग्रंथियां हैं। अभी तो हम सीधे बह ही नहीं पाते। अभी तो हमारे सारे कदम ऐसे पड़ते हैं जैसे शराबी चलता है— लड़खड़ाते; हर घड़ी गिरने - गिरने को। एक पांव इधर पड़ता है, दूसरा कहीं और पड़ता है। कहीं रखना चाहते हैं, कहीं पड़ जाता है। अभी तो हम कहते कुछ हैं, मतलब कुछ होता है; करना कुछ चाहते थे, कर कुछ जाते हैं। अभी जीवन एक सरल घटना नहीं है। और अभी हम इस सरलता को पा भी न सकेंगे; क्योंकि हम तो अपनी जटिलता को ही सरलता समझे बैठे हैं। हम तो अपनी जटिलता के लिए बड़े तर्क खोजते हैं। कल रात मैं देख रहा था एक जैन ग्रंथ । लोगों ने पत्थर मारे, लकड़ियों से पीटा, जंगली जानवर छोड़े, कुत्ते, खूंखार कुत्ते छोड़े, इतने से भी लोगों को न लगा तो लोग उठा उठाकर उनके शरीर के ऊपर फेंकते थे, वे नीचे गिरते थे - चट्टानों पर लोग बहुत नाराज थे। इस नाराजगी में कारण था। कारण यह था कि हम हैं जटिल लोग। जब भी कोई सरल आदमी पैदा होता है, उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पाते। वह बड़े गहरे में हमें अपमानजनक मालूम पड़ता है। उसकी मौजूदगी हमें चुभती है, शूल की तरह चुभती है। बेईमान चाहते हैं, बाकी भी लोग बेईमान हों। अगर ईमानदार आदमी बेईमानों के बीच में हो तो बेईमान उसे बर्दाश्त न करेंगे। उनके लिए खतरा है वह ईमानदार आदमी; क्योंकि उसकी ईमानदारी के कारण उनकी बेईमानी साफ हुई जाती है, उघड़ी जाती है। चोर चोर को पसंद करते हैं। झूठ बोलनेवाले झूठ बोलनेवाले को पसंद करते हैं। जैसे लोग होते हैं, वैसों को पसंद करते हैं। महावीर जैसा निर्ग्रथ आदमी, जिसकी कोई ग्रंथि नहीं, कोई उलझाव नहीं, जैसा है सीधा-सरल नग्न खड़ा हो गया- लोगों को बड़ी कठिनाई हो गई। लोग इसे बर्दाश्त न कर सके। लोग उनको एक गांव से दूसरे गांव में खदेड़ने लगे। लेकिन यह आदमी भी खूब था । इसने सब स्वीकार कर लिया। इसने कहा कि यह भी हो रहा है तो होने दो। तुम करते हो तो तुम कुछ और शब्द देते हो; दूसरा करता इसने कुछ बदलने की कोशिश न की । जिस गांव से इसे भगाया अगर तुम्हें क्रोध आ जाता है तो तुम सीधा-सीधा थोड़े ही कहते हो कि मैं क्रोधी आदमी हूं। तुम कहते हो, क्रोध की जरूरत थी; अगर क्रोध न करेंगे तो यह बेटा सुधरेगा कैसे ? अब तुम ग्रंथि को तो स्वीकार कर ही नहीं रहे हो कि तुम क्रोधी हो । तुम यह कह रहे हो कि यह तो बेटे को सुधारने के लिए करना पड़ रहा है। तुम बहाने में टाले दे रहे हो, तो यह ग्रंथि तो मजबूत होती चली जायेगी। यह ग्रंथि तो घनी होती चली जायेगी। तो दूसरा करता है, तो तुम कहते हो, अहंकारी; तुम करते हो कहते हो, स्वाभिमान है। अगर तुम्हें कोई नई सूझ आती है तो तुम कहते हो, मौलिक चिंतन; अगर दूसरे को आती है, तुम कहते हो, झक्की है, दिमाग थोड़ा ढीला है, इस तरह की बातें इसके दिमाग में उठती हैं।' है...। अगर एक ईसाई हिंदू हो जाये तो ईसाई कहते हैं, गद्दार । अगर एक हिंदू ईसाई हो जाये, तो वे कहते हैं, सुमार्ग पर आ गया। वह हिंदू की बात है। हिंदू अगर ईसाई हो जाये तो वो कहते हैं, गद्दार । अगर ईसाई हिंदू हो जाये तो वे कहते हैं, सदबुद्धि का जन्म हुआ । ग्रंथियों को हम छिपाते हैं। तो फिर जिसको हम छिपाते हैं, वह बढ़ेगा। ग्रंथियों को उघाड़ना पड़ेगा। इसलिए तो महावीर नग्न हुए। वह 'नग्न' बड़ा प्रतीकात्मक है । उन्होंने कहा, जैसा हूं, जो हूं, अब कोई वस्त्र न रखूंगा, आवरण न रखूंगा, अब सब उघाड़े देता हूं। अब कोई ग्रंथि जैसी भी है, बुरी है, भली है, लोग स्वीकार करें, न स्वीकार करें... । लोगों ने किस-किस तरह का व्यवहार महावीर से किया, हैरानी होती है ! | Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tum आत्मा परम आधार है गया, अगर लोग खदेड़कर बाहर कर गये तो ये बाहर हो गये। महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया! न दतौन, न स्नान। वर्षों लेकिन ऐसा भी नहीं कि दुबारा उस गांव में न आए हों। फिर राह तक पानी का उपयोग ही नहीं किया। वह तो भक्तों को दया आने में पड़ गया गांव तो फिर आ गये। जो सहज होने लगा वह होने लगी होगी। उनके प्रेमियों को दया आने लगी। इसलिए जैनियों दिया। सहज-स्फूर्त जीवन महावीर का मूलभूत स्वर है। उसमें में अभिषेक शुरू हुआ। साल में एक दिन वे बिठाकर महावीर जरा भी सजावट नहीं है, शृंगार नहीं है। उसमें जरा भी अन्यथा | को, उनके ऊपर पानी डाल देते हैं। अभी भी डालते हैं, मूर्ति पर दिखाई पड़ने का कोई आग्रह नहीं है—जैसे हैं, जो हैं। डालते हैं अब वे। अभिषेक। भक्तों को भी घबड़ाहट होने लगी कहते हैं, महावीर ने वर्षों तक स्नान नहीं किया; क्योंकि उन्होंने होगी कि इतना आदमी, इतना सरल हो जाना भी ठीक नहीं। कहा कि अब शरीर है और यह तो दुर्गंध-भरा है ही, अब इसको इतना प्राकृतिक, जैसे पशु जीते हैं—निर्मल! धो-धोकर, पोंछ-पोंछकर भी क्या सार? किसको धोखा देना लेकिन तुमने खयाल किया? पशु गंदे मालूम होते हैं? एक है? वर्षों तक उन्होंने दतौन नहीं की। क्योंकि उन्होंने कहा कि आदमी ही कुछ अजीब है, इतनी व्यवस्था के बाद भी गंदा मुंह से तो बास आती ही है। अब किसको समझाना है कि बास | मालूम होता है! पशु सदा ताजे और स्वच्छ मालूम होते हैं। कहीं नहीं आती? ऐसा तो नहीं है, ताजे स्वच्छ होने की चेष्टा में ही हमने अपने को तुमने कभी खयाल किया? तुम जो भी करते हो, दूसरों को गंदा कर लिया है? कहीं यह अति आग्रह, आरोपण, यह झूठ, दिखाने के लिए करते हो। अगर घर में बैठे हो तो कैसे ही अप्राकृतिक होने की चेष्टा, यह कृत्रिम जीवन-कहीं यही तो उलटे-सीधे कपड़े पहने बैठे रहते हो। बाहर जाना है कि हुए हमारी गंदगी का कारण नहीं? क्योंकि इस पूरी प्रकृति में चारों तैयार! वैसे ही क्यों नहीं निकल आते? बाहर जा रहे हैं। बाहर | तरफ जरा गौर से देखो, पक्षी हैं, पशु हैं-कौन गंदा मालूम जाने का मतलब है : अब लोगों की तरफ ध्यान रखना है; उनकी पड़ता है? कौन स्नान कर रहा है? कौन दतौन कर रहा है? आंख को क्या ठीक लगेगा, क्या ठीक नहीं लगेगा-अपनी लेकिन सब साफ-सुथरे मालूम होते हैं; सारी प्रकृति नहाई हुई प्रतिष्ठा का सवाल है। कुछ दिखलाना है। जैसे तुम नहीं हो, मालूम होती है-एक आदमी को छोड़कर। वैसे दिखलाना है। व्यवसाय शुरू हो गया। - महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया—प्राकृतिक होने का। स्त्रियों को देखा, घर में कैसी बैठी रहती हैं ! भैरवी के रूप में! | रूसो ने जो बहुत बाद में कहा : बैक टू नेचर, चलो प्रकृति की इसलिए अगर उनके पति उनसे घबड़ा जाते हैं तो कुछ आश्चर्य ओर वापिस। वह तो रूसो ने सिर्फ कहा है-महावीर ने नहीं। बाहर निकली तो सब अप्सरायें हो जाती हैं। इसलिए किया। बड़ी दुर्धर्ष साधना थी। क्योंकि सब भांति यह आकांक्षा अगर दूसरे उन पर आकर्षित हो जाते हैं तो भी कुछ आश्चर्य छोड़ देनी कि दूसरे मेरे संबंध में क्या सोचते हैं, बड़ी कठिन है। नहीं। पतियों को तो भरोसा ही नहीं आता कि उनकी पत्नी को भी अभी जैन मुनि हैं, वे भी वैसा ही कुछ करने की कोशिश करते कोई रास्ते में धक्का दे गया। हैं, लेकिन वह सच नहीं है। क्योंकि इस कोशिश में बुनियादी मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा पागलखाने। जाकर दस्तक बात खो गई है। वह भी इस फिक्र में लगे हैं कि दूसरे क्या सोचते दी। अधिकारी ने पूछा, कैसे आये आधी रात? उसने कहा, मेरी हैं। जैन मुनि है, वह देख रहा है कि जैन श्रमण की जो पत्नी भाग गई है। उसने कहा, यहां आने का क्या कारण? | जीवन-धारा है, वह ऐसी होनी चाहिए, अनुशासन, यह उसने कहा, मैं यह पूछने आया हूं, कोई पागल तो नहीं निकल व्यवस्था...। महावीर ने सारी व्यवस्था तोड़कर प्रकृति के हाथों भागा यहां से? क्योंकि मेरी पत्नी को कोई और ले भागे इस गांव में छोड़ दी; जैन मुनि ने महावीर ने जो किया उसको अपनी में, यह तो संभव नहीं है। कोई पागल तो नहीं छूटा है आज, यह | व्यवस्था बना लिया है। इन दोनों में बड़ा बुनियादी फर्क है। मैं पूछने आया हूं। महावीर ने सारा अनुशासन छोड़ दिया; सारी संस्कृति, संस्कार, एक हमारे होने के ढंग हैं, एक हमारे दिखाने के ढंग हैं। एक हैं | समाज, सभ्यता छोड़ दी; हो रहे प्रकृति के हाथ-जैसे पशु दांत हमारे खाने के, एक हैं दिखाने के। रहते हैं, ऐसे! जैन मुनि उसी में से अपनी व्यवस्था निकाल 383 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1 लिया। प्रभावित करने का खयाल ही न रहा, पसीना आता रहा होगा, महावीर दतौन नहीं करते तो जैन मुनि भी दतौन नहीं करता। लेकिन पसीने का गुण-धर्म बदल गया। . कम से कम ऐसा पता तो नहीं चलने देता कि करता है। क्योंकि इसे तुम ऐसा समझो—चित्त की दशायें बदलती हैं तो शरीर मैं जानता हूं, वे करते हैं। मैंने जैन साध्वियों के पास टुथपेस्ट भी की दशायें भी बदलती हैं। जब कोई स्त्री कामातुर होती है तो छिपा हुआ देखा है। | उसके पसीने में एक अलग तरह की बास आने लगती है। एक जैन साध्वी मुझे मिलने आती थी। उसके मुंह से मुझे बड़ी | इसलिए तो जानवर मादा को संघते हैं। इसके पहले कि वे संभोग बास आती थी। वह दतौन नहीं करती रही होगी। तो मैंने पूछा करें, मादा को सूंघते हैं। क्योंकि पसीना मादा की खबर देता है, कि और साध्वियां भी आती हैं, उनके मुंह से बास नहीं आती। वह राजी है या नहीं। तो वह हंसने लगी। उसने कहा, आपसे क्या छिपाना! वे सब | आदमी के जीवन में भी ठीक वही नियम काम करते हैं; टुथपेस्ट छिपाये रहती हैं। वे सब टुथपेस्ट करती हैं। दुबारा जब क्योंकि देह के नियम तो वही के वही हैं। जब कोई स्त्री कामातुर वह खुद भी आई तो उसके मुंह से भी मुझे बास नहीं आ रही थी होती है, उसके पसीने में खास बदबू आनी शुरू होती है। और तो मैंने पूछा, मामला क्या है? तो उसने कहा कि जब आपने | जब कोई व्यक्ति काम से परिपूर्ण मुक्त हो जाता है तब उसके कहा तो मुझे भी लगा कि यह तो बात ठीक नहीं है, तो मैंने भी पसीने की वह सारी बदबू जो कामातुरता से आती थी, विलीन हो करना शुरू कर दिया; मगर किसी से आप कहना मत! | जाती है। तब उसके पसीने में एक और ही तरह की बास आती बाहर से तो यही दिखाना पड़ता है कि नहीं। बाहर से न भी है, एक और ही तरह की गंध होती है। दिखाओ, अगर तुम भीतर से भी पालन करो तो फर्क समझ में मुंह से हम बोलते हैं। बोलने की जो प्रक्रिया है, उससे मुंह में आया तुम्हें। महावीर ने सब चीजों का पालन छोड़ दिया। यह | एक खास तरह की बास आनी शुरू होती है, क्योंकि घर्षण पैदा उनकी क्रांति थी। अब तुम महावीर को देख-देखकर पालन | होता है। थूक में और मुंह के यंत्र में सतत घर्षण से एक तरह की करने के लिए नियम बना रहे हो। यह कोई क्रांति न हुई, यह | बास आनी शुरू होती है। परंपरा हुई। और महावीर के संबंध में कहा जाता है कि धीरे-धीरे अगर कोई मौन रह जाये, चुप रह जाये, बोले ही न, तो तुम उनकी देह से पसीने की बदबू आनी बंद हो गई। जैन तो इसको पाओगे उसके मुंह से वह बास आनी बंद हो गई। क्योंकि वह तो और ढंग से समझाते हैं। वह ढंग मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। केवल घर्षण की वजह से पैदा हो रही थी। वे तो कहते हैं, तीर्थंकर के पसीने में बास नहीं आती। यह बात महावीर महीनों तक भोजन नहीं करते। जब तक उन्हें ऐसा तो बेतुकी मालूम होती है। पसीना तो पसीना है। इसमें तीर्थंकर नहीं हो जाता कि अब शरीर की बिलकुल अपरिहार्य जरूरत आ को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं है। वे कहते हैं, तीर्थंकर गई, तभी भोजन करते हैं। और बड़ा अल्प भोजन करते हैं। को पसीना ही नहीं आता। यह बात भी मेरी समझ में नहीं उतने भोजन से शरीर चलता है। बस वह पूरा का पूरा भोजन आती। लेकिन पशु हैं, पक्षी हैं, प्रकृति की सहज धारा में जीते पचा जाते हैं। हैं-कौन-सी बास आ रही है? जंगली पशु-पक्षियों में अभी पश्चिम में चूंकि कारों के चलने से, कारों में जलनेवाले कौन-सी बास आ रही है? नहीं, मेरी तो दृष्टि यही है कि पेट्रोल के धुएं के कारण वैज्ञानिक बड़े चिंतित हो गये हैं। महावीर इतने सरल हो गये कि फिर पशुवत हो गये। 'पशुवत' | तो इस तरह की कारें निर्मित की जा रही हैं कि पेट्रोल पूरा का को मैं उपयोग कर रहा हूं-बड़े बहुमूल्य अर्थों में। इतने पूरा जल जाये, जरा भी बचे न; क्योंकि जो बच जाता है, नैसर्गिक हो गये! जब दिखावे की आकांक्षा छूट गई तो शरीर में गैर-जला, उसकी वजह से ही गंध और वायु-दूषण पैदा होता एक क्रांति घटित हुई। क्योंकि वह दिखावे की जो आकांक्षा है, | है। अगर पूरा जल जाये तो फिर कोई गंध पैदा नहीं होती, वह शरीर को एक स्थिति में रखती है; जब दिखावे की आकांक्षा वायु-दूषण पैदा नहीं होता। छुट जाती है तो शरीर में एक क्रांति घटित होती है। किसी को तो महावीर कभी महीने में एक दफा भोजन करते, कभी दो 884 Jan Education International Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEW आत्मा परम आधार है दफा भोजन करते। शरीर की जरूरत इतनी होती और भोजन उपाय करते हैं जिससे ज्यादा हो जाये। महावीर ने ऐसे उपाय इतना कम होता कि वह पूरा का पूरा पचा जाते। किये कि उतना ही हो जितना प्रकृति की जरूरत है। मन से कुछ जैन कहते हैं, महावीर मल-मूत्र का त्याग नहीं करते; क्योंकि भी न जोड़ा जाये। तो स्वभावतः धीरे-धीरे उनकी सारी ग्रंथियां तीर्थंकरों को मल-मूत्र नहीं होता। मैं यह नहीं कहता। मैं यह | खुलती गईं। वह छोटे बच्चे की भांति या पशु की भांति हो गये। कहता हूं कि अगर तुम भी महीने में एकाध बार भोजन करोगे तो उनमें सरलता का आविर्भाव हुआ। निग्रंथ होने का यही अर्थ है। मल-मूत्र की जरूरत न रह जायेगी। शरीर पूरा पचा जायेगा। | वे ऐसे सरल हो गये कि उनमें एक भी तिरछी लकीर न बची। शरीर के पचाने की जरूरत इतनी होगी कि तुमने जो लिया है। दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, उसको कहते हैं सरल उसमें से कुछ भी छोड़ने का उपाय न होगा। महावीर ने बारह रेखा। और दो बिंदुओं के बीच जो इरछी-तिरछी यात्रा करनी वर्षों की साधना में कहते हैं, मुश्किल से तीन सौ साठ दिन पड़े, गोल, घुमावदार, वह है ग्रंथि। भोजन किया। तो हर बारह दिन में एक दिन भोजन पड़ता है। महावीर सीधी सरल रेखा की भांति हैं। हम बड़े इरछे-तिरछे वह भोजन इतना कम था, और वह भी एक बार और वह भी | हैं। हम कहते कुछ, करते कुछ। हम करते कुछ और अपने को महावीर खड़े-खड़े करते, बैठते भी न थे। क्योंकि महावीर समझाते कुछ। हम दूसरे को ही धोखा देते हों, ऐसा नहीं है। हम कहते, बैठो तो थोड़ा ज्यादा भोजन आदमी कर लेता है। अपने को भी धोखा देते हैं। छोटी-छोटी चीजों से फर्क पड़ते हैं। | मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ लखनऊ में ठहरा हुआ था। गर्मी तुमने कभी खयाल किया? खड़े-खड़े भोजन करके देखो एक के दिन और भरी दुपहरी में बिजली चली गई, तो वह बहुत दफा। 'बफे' महावीर ने शुरू किया। ज्यादा मेहमान हों, झल्लाया। उसे जो भी चुनी हुई गालियां आती थीं, उसने दी। भोजन कम हो, तो बफे। बिठालना मत, बिठालो तो फिर ज्यादा फिर वह भागा, नीचे गया, होटल के नीचे से एक पंखा खरीद खाते हैं। खड़े-खड़े शरीर का आसन ऐसा होता है कि पेट तना लाया। पंखा उसने किया नहीं कि टूटा नहीं। दो टुकड़े हो गये। होता है; बैठने से पेट शिथिल हो जाता है, ज्यादा जगह हो जाती फिर तो जो वह बहुत ही नाराज हुआ। फिर तो वह गालियां है। अब किसी को कहो दौड़ते-दौड़ते भोजन करो तो और कम | विशेष रूप से सुरक्षित रखता है, वे भी उसने दीं। फिर वह हो जायेगा, स्वभावतः। भागा, नीचे गया। यह सोचकर कि कहीं कोई झगड़ा-फसाद न महावीर खड़े-खड़े भोजन करते। पात्र में भोजन नहीं करते हो, मैं भी उसके पीछे गया कि अब यह कुछ...। पर नीचे जो थे-करपात्री थे हाथ में ही भोजन करते थे। अब हाथ में जरा देखा, वह...। अच्छा हआ कि गया। पंखेवाले ने उससे कहा भोजन करके देखो! दो-चार ग्रास के बाद ही तुम सोचोगे, अब कि इसमें क्या आश्चर्य की बात है, इसमें क्यों बौखलाये जा रहे बहुत हो गया। वह प्रक्रिया कोई ऐसी नहीं कि बहुत देर जारी हो? नसरुद्दीन ने कहा, एक ही बार किया और पंखा टूट गया, रखने का सुख मालूम पड़े। धूप में, सड़क पर खड़े हुए, हाथ में, और तुम कहते हो आश्चर्य की बात नहीं! उस पंखेवाले ने नग्न, जो थोड़ा-बहुत मिल गया, वे ले लेते। बैठते भी न। एक लखनवी अंदाज में कहा, हुजूर! यह लखनऊ का नफासत, बार! वह भी दस-बारह दिन में एक बार। यह पूरा का पूरा नजाकत का पंखा है। आपको करना नहीं आता। आपने लट्ठ भोजन पच जाता। यह पूरा का पूरा भोजन शरीर में लीन हो | की तरह घुमा दिया होगा। हुजूर! लखनऊ में तो पंखे को सामने जाता। तो संभव है, मलमूत्र पैदा होने की जरूरत न रह जाये। रख लेते हैं और सिर को हिलाते हैं। फिर सिर भला टूट जाये, ऐसे नैसर्गिक ढंग से जीना उन्होंने शुरू किया कि मन से कोई पंखा कभी नहीं टूटता। आप जरा लज्जत बाधा न हो। | आये हैं तो थोड़े लखनऊ का रिवाज भी सीखिये। हम तो ऐसा उपाय करते हैं...तुमने देखा, जब बहुत मित्रों को | | हम तरकीबें खोज लेते हैं। हम तर्क खोज लेते हैं। जीवन बुला लो घर पर, तो ज्यादा खाना हो जाता है। रेडियो चला दो, उलटा भी जा रहा हो तो भी हम उसे सीधा मानने के ढंग खोज गीत-संगीत बजा दो, तो ज्यादा खाना हो जाता है। हम तो ऐसे | लेते हैं। 3851 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 जिन सूत्र भाग: 1 तुम न जागो तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम्हें ही देखना पड़ेगा कि तुमने कहां-कहां अपनी ग्रंथियों को मजबूत करने के लिए तर्क खोज रखे हैं। क्रोध करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। मोह करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। राग को तुम प्रेम कहते हो। अच्छा शब्द रख लेते हो, नीचे गंदगी छिप जाती है। भय के कारण किसी के साथ हो लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है। लोभ के कारण किसी के साथ हाथ में हाथ डाल लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है, मित्रता है । अहंकार के कारण त्याग करते हो; लेकिन कहते हो, दान है। ऐसे तो फिर तुम ग्रंथियों में उलझते चले जाओगे। फिर तो ग्रंथियों के जंगल में खो जाओगे । महावीर कहते हैं, सरल हो रहो। जैसे हो वैसा ही अपने को जानो। धीरे-धीरे ग्रंथियां छूट जाती हैं और जीवन में एक अलग तरह की ऊर्जा का आविर्भाव होता है। एक सहजता ! एक सरलता ! एक भोलापन ! एक बच्चे के जैसा भाव ! 'निराग, निशल्य...।' और निश्चित ही जिस आदमी के जीवन में कोई ग्रंथि नहीं है, उसके जीवन में कोई राग नहीं होता। उसके पास न बचाने को कुछ है, न छोड़ने को कुछ है । और जिस आदमी के जीवन में निर्ग्रथि है, उसके जीवन में शल्य खो जाते हैं। शल्य यानी कांटे। जो चुभते हैं, वह खो जाते हैं। किसी ने तुम्हें गाली दी । तुम कहते हो, इसकी गाली चुभी । गाली के कारण गाली नहीं चुभती - तुम्हारे अहंकार के कारण चुभती है। अहंकार को जाने दो, फिर कोई गाली देता रहे, कोई फर्क न पड़ेगा। फिर गाली में कोई शल्य न रह जायेगा। 'निशल्यता' महावीर का बड़ा प्यारा शब्द है । वे कहते हैं, भीतर से तुम कांटों को पकड़ने को तैयार हो, वही असली शल्य है। तुमने मान चाहा, इसलिए अपमान का कांटा चुभा । तुम मान ही न चाहते तो अपमान का कांटा न चुभता । तुमने सफलता चाही, इसलिए विफलता का विषाद आया। तुम सफलता ही न मांगते, विफलता का विषाद कभी न आता। तुमने प्रथम खड़े होना चाहा था, इसलिए तुम रो रहे हो कि तुम प्रथम खड़े न हो पाये । तुमने अंतिम ही खड़े होने की आकांक्षा की होती, तो तुम्हें कौन हरा पाता ? फिर तुम्हारा जीवन निशल्य हो जाता। 'सर्वदोषों से विमुक्त, निष्काम, निक्रोध, निर्मान और निर्मद... ।' ये आत्मा की तरफ इशारे हैं। ये इशारे जो आत्मा को उपलब्ध हो जाता है, उसे उपलब्ध होते हैं। और जो आत्मा को उपलब्ध नहीं हुआ है, उसके लिए ये इशारे मार्ग के सूचक हैं। ये दो बातें हैं इसमें । यह आत्मा की दशा का वर्णन है और आत्मा की तरफ पहुंचने की व्यवस्था, उपाय भी । तो अगर तुम्हें उसे पाना है— उस आत्मा को, जहां कोई मद नहीं है, जहां कोई बेहोशी नहीं है, न मान का मद है, न पद का, न धन का, कोई मद नहीं है—अगर तुम्हें उस दशा को पाना है, तो मदों को छोड़ना शुरू कर दो। अकड़ो मत! तो अपने को हटाने लगो मद से । उस आत्मा की दशा में कोई ग्रंथि नहीं है। तो अगर तुम्हें उसे पाना है। तो ग्रंथियों को धीरे-धीरे छोड़ो; जितना बन सके उतना छोड़ो; जिस मात्रा में बन सके उतना छोड़ो। कभी-कभी सच होना शुरू करो, सरल होना शुरू करो। कभी-कभी तो सचाई को करके भी देखो, जोखिम भी हो तो भी करके देखो। कभी सच भी बोलकर देखो; चाहे कुछ खोता हो तो भी बोलकर देखो। दांव लगाओ। अगर आत्मा निशल्य है तो तुम अपने कांटे जहां-जहां तुम्हें चुभते हैं उनको पहचानो। दूसरे को दोष मत दो। अपने भीतर घाव उनको भरो। जब तक तुम दूसरे को दोष देते रहोगे, वे घाव न भरेंगे। और तब तक तुम बार-बार कांटों से चुभते रहोगे और घाव को संजोते रहोगे। अब कौन चाहता है कि गाली कोई दे ! लेकिन तुम कैसे रोकोगे इस सारे संसार को कि कोई तुम्हें गाली न दे ? उपाय एक है कि तुम भीतर से गाली जहां अटकती है, खटकती है, उस जगह को हटा दो। तुम उस घाव को भर लो, फिर सारा संसार गाली देता रहे तो भी तुम इसके बीच से गुजर जाओगे - निशल्य | यह जो वर्णन है आत्मा का, यही पथ भी है पहुंचने का । दिल में जौके - वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया। ऐसी आग लगाओ इस घर को, इस बेहोशी को, कि जो भी है इसमें, जल जाये। ऐसी आग सुलगाओ कि ये सारी ग्रंथियां, ये सारे शल्य, ये सारे घाव, यह तादात्म्य - शरीर का, मन का, विचार का, यह अहंकार, यह मिट्टी के प्रति इतनी ज्यादा आकांक्षा, जल जाये! दिल में जौके - वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं ! - कि इनकी याद भी न रह जाये । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया। ऐसी जलाओ ! उस जलने के बाद ही तुम्हारा कुंदन-रूप, तुम्हारा स्वर्ण शुद्ध होकर बाहर आयेगा । तलाशे - यार में क्या ढूंढ़िए किसी का साथ हमारा साया हमें नागबार राह में है। और यह जो महावीर की अंतर्यात्रा है, इसमें कोई संगी-साथी न मिलेगा। यहां तो अपनी छाया भी भारी पड़ती है । यह अकेले का रास्ता है। यह एकाकी का रास्ता है। यह एकांत ! तो धीरे-धीरे हटो भीड़ से ! धीरे-धीरे हटो दूसरे से। धीरे-धीरे दूसरे का खयाल, दूसरे की धारणा छोड़ो। धीरे-धीरे द्वंद्वों को हटाओ । तलाशे - यार में क्या ढूंढ़िए किसी का साथ । हमारा साया हमें नागबार राह में है। एक ऐसी घड़ी आती है कि तुम्हारी छाया भी तुम्हारे साथ नहीं होती, क्योंकि छाया भी शरीर की बनती है, मन की बनती है, विचार की बनती है। छाया भी स्थूल की बनती है। आत्मा कोई छाया नहीं बनती। अभी तो हालत ऐसी है कि आत्मा खो गई है, छाया ही रही है; फिर ऐसी हालत आती है, आत्मा बचती है, छाया तक खो जाती है। महावीर को सुनकर, समझकर तुम कुछ कर पाओगे, ऐसा मैं नहीं सोचता । जब तक कि तुम अपने जीवन में भी महावीर जो कह रहे हैं, उसके आधार न खोज लोगे; जब तुम्हारे जीवन में भी तुम्हें ऐसा न दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर ठीक कहते हैं - तब तक तुमने अगर ऊपर-ऊपर से उनकी बातों का आरोपण भी कर लिया, जैसा कि जैन कर रहे हैं, तो कुछ लाभ न होगा। उससे तुम और उलझन में पड़ जाओगे। उससे जटिलता बढ़ेगी, ग्रंथियां और बढ़ जायेंगी। मेरे देखे कभी - कभी ऐसा हो जाता है कि सामान्य गृहस्थ कहीं ज्यादा निर्ग्रथ मालूम होता है बजाय मुनि के । उसकी और ज्यादा ग्रंथियां हो गई होती हैं। वह और तिरछा हो गया। उसने और नियमों के जाल खड़े कर लिये। नैसर्गिक तो नहीं हुआ है। उसने और छोटी-छोटी बातों की इतनी व्यवस्था कर ली कि अब वो व्यवस्था ही जुटाने में उसका समय नष्ट होता है। चौबीस घंटे इसी में व्यतीत होते हैं। होती नहीं कबूल दुआ तर्के-इश्क की दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां। आत्मा परम आधार है और ध्यान रखना, अगर तुम्हारी अंतरात्मा में ही चाह नउठी हो तो ऐसा कोई व्रत - नियम ऊपर से मत ले लेना। नहीं तो व्रत- नियम तुम्हें और झूठा बनायेगा । लोग व्रत और नियम ले ते हैं भीड़ के लिए। मंदिर में जाते हैं, इतने लोग देख रहे हैं : लोग व्रत ले लेते हैं, कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं । यह ब्रह्मचर्य का व्रत उनके जीवन से नहीं आ रहा है। ये इतने लोग प्रशंसा करेंगे, ताली बजायेंगे और कहेंगे कि इस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य का व्रत धारण कर लिया है और हम अभागे, अभी तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण न कर पाये ! इस कारण ब्रह्मचर्य का व्रत मत ले लेना, नहीं तो पछताओगे । होती नहीं कबूल दुआ तर्के - इश्क की ! - अगर तुम प्रार्थना कर रहे हो कि हे प्रभु! मुझे राग से, मोह से ऊपर उठा... लेकिन यह कबूल न होगी, यह प्रार्थना स्वीकार न होगी । दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां ? - और अगर तुम्हारा भीतर का दिल ही यह न चाहता हो तो कहने से क्या होगा ? और अगर भीतर का दिल चाहता हो तो प्रार्थना की जरूरत ही नहीं । तुमने चाहा कि हुआ। लोग ऐसे हैं कि दोनों संसार सम्हाले चले जाते हैं। इसी वजह से आदमी जटिल हो जाता है। शब को मय खूब सीपी, सुबह को तौबा कर ली रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न ई। रात शराब पी लेते हैं, सुबह पश्चात्ताप कर लेते हैं ! शब को मय खूब सीपी, सुबह को तौबा कर ली रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गयी। स्वर्ग भी सम्हाल लिया, संसार भी सम्हाल लिया। ऐसी बेईमानी में मत पड़ना। जिसने दोनों सम्हाले, उसके दोनों गये। जिसने एक को सम्हाला, उसका सब सम्हल जाता है। और वह एक तुम्हारे भीतर छिपा है। वह एक तुम हो। उसे महावीर तुम्हारी अंतरात्मा कहते हैं, तुम्हारा परमात्मा कहते हैं। आज इतना ही। 387 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्रवचन धर्म आविष्कार है- स्वयं का Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार कृष्ण कहते हैं कि मारो और महावीर कहते हैं कि हिंसा का विचारमात्र हिंसा है। दोनों में श्रेष्ठ कौन है? बहुत समय से मैं आपके पास हूं और मैं बहुत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं यह आप भलीभांति जानते हैं। आपकी कही अनेक बातें मेरे सिर पर से गुजर जाती हैं। परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं। फिर मैं क्यों यहां हूं और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं? जीवन व अस्तित्व के परम सत्यों की क्या निरपेक्ष अभिव्यक्ति संभव नहीं है? किसी प्यासे को जब मैं आपके पास लाती हूं तो वह मुझसे दूर हो जाता है। मुझे एक तड़प-सी होती है। लेकिन 'तेरी जो मर्जी' कहकर गा पड़ती हूं : 'राम श्री राम जय जय राम।' wwjainelibrar.org Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्न : कृष्ण कहते हैं कि मारो और महावीर कहते हैं कि हिंसा का विचार मात्र हिंसा है। कृपया बतायें कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ के प्रश्न अत्यंत अज्ञान से भरे हुए हैं। उस ऊंचाई पर तुलना काम नहीं आती। और तुलना करने वाला मन न तो महावीर को समझ सकेगा और न कृष्ण को समझ सकेगा। क्योंकि तुलना करने वाला मन दुकानदार का मन है, समझदार का नहीं । ऐसा ही समझो कि जैसे एक गिलास में आधा जल भरा हुआ रखा हो और कोई कहे कि आधा गिलास खाली है और कोई कहे कि आधा गिलास भरा है, और तुम मुझसे पूछो कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है, तो तुम बात समझे ही नहीं। जो आधा खाली है वह आधा भरा भी है। जो आधा भरा है वह आधा खाली भी है। दोनों ने कहने के अलग-अलग ढंग चुने हैं। एक ने विधेय पर जोर दिया, एक ने निषेध पर जोर दिया। एक ने भरे हिस्से को देखा, एक ने खाली हिस्से को देखा। लेकिन दोनों ने ही सत्य की तरफ इशारा किया। कृष्ण कहते हैं, कर्तृत्व तेरा नहीं है, परमात्मा का है। इसलिए मैं करनेवाला हूं, यह भाव ही छोड़ दे। यह भाव ही हिंसा है। मैं निमित्त-मात्र हूं; वह जो करवायेगा, मैं करूंगा; मैं बीच में न खड़ा होऊंगा। मैं कोई बाधा न डालूंगा। अगर ठीक से समझो तो कृष्ण ने यह नहीं कहा है कि तू मार; कृष्ण ने तो इतना ही कहा है, वह तुझे निमित्त बनाये मारने में तो मार । कृष्ण की गीता को इस दृष्टि से कभी देखा नहीं गया। सोचो कि अर्जुन की जगह कोई दूसरा व्यक्ति होता तो अंततः यह निष्कर्ष भी ले सकता था कि मैं संन्यास लेता हूं क्योंकि उसकी मर्जी संन्यास की है। अपने को सब भांति छोड़ देता और कृष्ण से कहता कि क्षमा करें, अपने को सब भांति छोड़ रहा हूं, तो एक ही भाव उठता है कि संन्यास ले लूं। तो जब उसकी मर्जी संन्यास की है तो मैं कैसे लडूं? जब एक ही भाव सब श्वासों में मेरे गूंज रहा है कि छोड़ दूं सब, चला जाऊं वन-प्रांत में, तो जाता हूं। तो कृष्ण इनकार न करते कि तूने गलत किया। कृष्ण कहते, जो वह करवाये वही कर । अर्जुन युद्ध किया, क्योंकि अर्जुन का सारा व्यक्तित्व क्षत्रिय का था। अर्जुन जो संन्यास की बात कर रहा था, वह ऊपर-ऊपर थी, बौद्धिक थी; वह वास्तविक न थी । अगर वास्तविक होती तो कृष्ण की गीता से वह संन्यास का ही सार लेता । कृष्ण की गीता में ठीक-ठीक निर्देश नहीं है कि क्या करो; कृष्ण की गीता में तो इतना ही निर्देश है कि तुम मत करो, उसे करने दो। फिर अगर उसने यही चुना है कि तुमसे हजारों लोगों को कटवा दे, तो उसकी मर्जी! तुम यह मत सोचना कि तुम कर रहे हो। तुम अपने को सब भांति समर्पित करो । कृष्ण की भाषा समर्पण की भाषा है। तुम इस भांति शून्यवत मैं बांस की पोंगरी की तरह हो जाऊंगा; वह जो गायेगा, जो खड़े हो जाओ कि जहां उसकी हवाएं ले जायें वहीं चले जाओ। गुनगुनायेगा, उसकी मर्जी ! तुम तैरो मत - बहो । 393 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 जब अर्जुन ने अपने को छोड़ा तो तत्क्षण उसका संन्यास का कि मेरे रहते इतना बड़ा मकान पड़ोस में खड़ा कर दिया। अब भाव विदा हो गया। वह युद्ध के लिए तत्पर हो गया। उसने चाहे सारा जीवन दांव पर लग जाये, बड़ा मकान बनाकर गांडीव फिर उठा लिया। क्योंकि वह बांसुरी बनी ही उसके लिए दिखाना है। तो तुमने बड़ा मकान बनाया, 'मैं' को बड़ा थी। वही गीत अर्जुन गा सकता था। अर्जुन योद्धा था, क्षत्रिय | किया–हिंसा हो गई। था। वह परमात्मा का सैनिक ही हो सकता था, परमात्मा का तुम किसी आदमी के पास से अकड़कर निकल गये-हिंसा संन्यासी नहीं हो सकता था। वह उसकी नियति थी। हो गई। हिंसा तुम्हारी जहां भी 'मैं' की धारा गहरी होती है, वहीं इसलिए तुम...यह प्रश्न किसी जैन ने पूछा है, इसलिए वह हो जाती है। कहता है, कृष्ण कहते हैं कि मारो।' कृष्ण कहते नहीं कि तो महावीर ने कहा, कर्मों को छोड़ो, जिनसे हिंसा होती है। मारो। कृष्ण न कहते कि मत मारो। कृष्ण इतना ही कहते हैं, जो जिनसे दूसरे को चोट लगती है, वह छोड़ो। जिनसे दूसरों को करवाये...! तुम निर्णय न लो, उसी को निर्णय दो। बागडोर | दुख होता है, वह छोड़ो। और तब तुम चकित होकर देखोगे कि उसके हाथ में दे दो। तुम शून्यवत खड़े हो जाओ। और जो जिससे दूसरे को चोट लगती है, उसी से तुम्हारा अहंकार मजबूत अंतर्तम से उठे, जो उसकी आवाज आये उसी दिशा में चल | होता है, और कोई उपाय नहीं है। भोजन ही अहंकार का यही है पड़ो। कृष्ण का मार्ग समर्पण का है। अर्जुन युद्ध में गया, | कि दूसरे को चोट लगे। सांस्कृतिक, सभ्य ढंग से लगे कि क्योंकि सब भांति अपने को शुन्य करके उसने यही पाया कि यही असभ्य ढंग से लगे; तुम किसी को गाली दो कि किसी का व्यंग्य आवाज आती है कि 'कर्तव्य को पूरा कर! अब फिर मैं क्या कर | करो; तुम किसी को जिंदगी के युद्ध में पछाड़ दो, गिरा दो; या सकता हूं?' तुम त्याग के युद्ध में किसी को हरा दो कि तुम किसी को अपने से महावीर कहते हैं, हिंसा का भाव-मात्र हिंसा है। कृष्ण भी यही छोटा त्यागी करके सिद्ध कर दो-कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम कहते हैं अगर तुम समझने की कोशिश करो। कृष्ण तो यह भी कोई भी माध्यम चुनो, जिस माध्यम से भी दूसरे को दुख हो कहते हैं कि हिंसा का भाव तो हिंसा है ही, अहिंसा तक का भाव सकता है, वह माध्यम हिंसा है। और हिंसा से 'मैं' मजबूत कि मैं अहिंसा करता हूं, हिंसा है। मैं करता हूं, इसमें हिंसा है। होता है। जोर कृत्य पर नहीं है, कर्ता पर है। मैं हूं, यही हिंसा है। 'मैं' को | तो महावीर कहते हैं, हिंसा के सारे कृत्य छोड़ दो। हिंसा का हटा लो, अहिंसा हो जाएगी। भाव तक छोड़ दो, कृत्य की तो बात अलग। क्योंकि भाव भी अर्जुन युद्ध में लड़कर भी अहिंसक रहा, हिंसक नहीं है। काफी है; वह भी भोजन बन जायेगा, वह भी अहंकार को क्योंकि जिसने अपना कर्तव्य ही हटा लिया, जिसने अपना मजबूत करेगा। जब तुमने हिंसा के सब भाव, कृत्य छोड़ दिये, कर्ता-भाव ही हटा लिया, उसको अब तुम कर्म के लिए दोषी न तुम अचानक पाओगे तुम्हारा 'मैं' धूल-धूसरित हो गया, गिर ठहरा सकोगे। दोनों एक ही बात कह रहे हैं। कृष्ण का जोर है पड़ा, समाप्त हो गया। कि कर्ता-भाव गिरा दो, और महावीर का जोर है कि कर्म को यह महावीर की प्रक्रिया है: कर्म के विसर्जन से कर्ता का रूपांतरित कर दो। विसर्जन! निश्चित ही यह प्रक्रिया क्रमिक होगी। एक-एक कर्म अब थोड़ा समझना। अगर तुम हिंसक कर्मों को छोड़ते चले को ध्यान रखकर, साधना साधनी होगी, एक-एक कर्म का जाओ तो तुम्हारा 'मैं' गिरने लगेगा, क्योंकि 'मैं' बिना हिंसा हिसाब रखकर चलना होगा, क्योंकि बड़े सूक्ष्म हैं के खड़ा नहीं रह सकता। 'मैं' के लिए हिंसा चाहिए-बड़ी कर्म...जरा-सी आंख का इशारा और हिंसा हो जाती है। तो सूक्ष्म हो, स्थूल हो, लेकिन हिंसा चाहिए। | बड़ी लंबी प्रक्रिया है, संकल्प का मार्ग है। इंच-इंच लड़ना पड़ोसी ने मकान बनाया, तुम बड़ा मकान बना लो-हिंसा हो | होगा, पहाड़ चढ़ना होगा। गई। क्योंकि तुमने बड़ा मकान सिर्फ बनाया इसलिए कि अब | कृष्ण कहते हैं, ऐसा एक-एक कर्म को छोड़ोगे पड़ोसी को नीचा दिखाना है। यह इसने इतनी हिम्मत कैसे की | फुटकर-फुटकर, लंबा समय लग जायेगा। और फिर कृष्ण और 394 Main Education International Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENTERTA धर्म आविष्कार है-स्वयं का BAR अर्जुन के बीच समय था भी नहीं। कृष्ण की जो गीता है, वह एक लेकिन दोनों ही हालत में एक ही घटना घटती है। अंतिम विशेष परिस्थिति में कही गई है। महावीर अपने शिष्यों से बोल परिणाम एक है। इसलिए जो ऐसा पूछता है कि दोनों में कौन रहे थे चालीस साल तक। कृष्ण की गीता तो क्षणों में हो गई। ये श्रेष्ठ है, वह गलत पूछता है। वह दोनों में से किसी को भी नहीं कोई साधारण क्षण न थे, बड़े असाधारण क्षण थे। बड़ी संकट समझा। तुम अगर महावीर को समझ लो, कृष्ण समझ में आने की स्थिति थी। यहां अगर एक-एक कर्म को छोड़ने के लिए ही चाहिए। अगर तम कृष्ण को समझ लो और महावीर समझ में कृष्ण कहें, समय ही न था। युद्ध द्वार पर खड़ा था। युद्ध सामने | न आयें, तो कृष्ण समझ में नहीं आये। मेरे देखे जिसने एक खड़ा था। शंख बज गये थे। युद्ध की घोषणा हो गई थी। योद्धा | अनुभवी को समझ लिया, उसने सब अनुभवियों को समझ एक-दूसरे के सामने अड़े थे। अर्जुन ने भी कहा था, मेरे रथ को लिया। फिर उसे भाषा, ढंग, अभिव्यक्ति, अभिव्यंजना के ले चलो बीच युद्ध में। और कृष्ण युद्ध के बीच में रथ को ले प्रकार, उलझाव में न डाल सकेंगे। फिर कोई चीज उसकी आंखों आये थे। ठीक उस क्षण में जब युद्ध सामने था, क्षणभर की देर को धुंधला न कर सकेगी। लेकिन मैं देखता हूं कि जो महावीर के न थी, शंख फूंके जा रहे थे, युद्ध शुरू होने के करीब था, जल्दी पक्ष में हैं, वे कृष्ण के विपक्ष में हैं। जो कृष्ण के पक्ष में हैं, वे ही मार-धाड़ होगी-तभी अर्जुन को दिखाई पड़ा, रोमांचित हो | महावीर के विपक्ष में हैं। जो महावीर के पक्ष में है, वह मुहम्मद आया, एक पुलक हुई। उसे लगा, यह तो व्यर्थ है। इतना युद्ध, | के पक्ष में तो हो ही कैसे सकता है? जो मुहम्मद के पक्ष में है, इतनी हिंसा-क्या सार है? उसके हाथ ढीले पड़ गये, गात | वह कैसे महावीर की बात को बरदाश्त कर सकता है? शिथिल हुए, गांडीव हाथ से छूट गया। वह थका-मांदा, डरा साफ है, इनमें से कोई भी समझा नहीं। इन्होंने शब्द पकड़ हुआ रथ में बैठ गया। उसने कृष्ण से कहा, मैं तो सोचता हूं कि लिये हैं। ये लड़ रहे हैं एक-दूसरे से; क्योंकि एक कहता है सब छोड़कर चला जाऊं। | गिलास आधा खाली है, और दूसरा कहता है गिलास आधा भरा यह बड़े संकट का क्षण था। यहां कोई ऐसी प्रक्रिया जिसमें है। ये सिर काटने-कटवाने को तैयार हैं। स्वभावतः भाषा में जन्मों-जन्मों लगते, साधना करनी पड़ती हो, काम की नहीं हो | दोनों अलग-अलग मालूम पड़ते हैं। एक कहता है, आधा सकती थी। तो कृष्ण ने जो कहा, वह ऐसा था कि तत्क्षण हो खाली है, तो जोर मालूम होता है खाली पर; एक कहता है आधा सके, एक छलांग में हो सके। भरा है, तो जोर मालूम होता है भरे पर। अब खाली और भरा! संकल्प तो धीरे-धीरे होता है। संकल्प यात्रा है-सीढ़ी दर विरोधाभासी हो गये। लेकिन जरा आधे का खयाल रखना। उस सीढ़ी, इंच-इंच, रत्ती-रत्ती। वह फुटकर काम है। समर्पण आधे में ही सारा सार है। छलांग है-थोक, इकट्ठा। एक क्षण में भी हो सकता है। मेरे देखे दोनों की बातों में कोई गहरा अंतर नहीं है-हो नहीं महावीर जिन शिष्यों को बोल रहे थे, वे युद्ध के स्थल पर न सकता। तुम्हें न दिखाई पड़े तो अपनी आंखों पर थोड़े पानी के थे। इस विशेष परिस्थिति को खयाल में रखना। तो कृष्ण यह तो छींटे मारना। थोड़ा जागने की कोशिश करना। कह नहीं सकते कि तू अपने कर्म बदल! कृष्ण यही कह सकते हैं जल्दी निर्णय मत लेना।। सी घडी में त अपने कर्ता को ही रख दे। और कर्ता को जब भी तम्हें दो सत्परुषों में कोई विरोध दिखाई पडे. तो पहली रखने से भी वही हो जाता है। क्योंकि अंततः कर्मों को बदलने से बात तो तुम यही सोचना कि मेरे देखने में कहीं भूल हुई जा रही कर्ता ही गिरेगा; तो जब कर्ता को ही गिराना है तो सीधा ही गिरा है। इसे तुम गांठ में बांधकर रख लो। जब भी तुम्हें दो सत्पुरुषों दो। कर्ता को ही छोड़ दो। | में कोई विरोध दिखाई पड़े, तो पहली बात तो तुम यही सोचना समर्पण भक्त का मार्ग है। वह कहता है, परमात्मा के चरणों कि मुझसे कहीं भूल हुई जा रही है; कहीं मेरे देखने, समझने में, में रख दो; कह दो कि मैं कुछ हूं नहीं, अब जो हो तेरी मर्जी! बुरा कहीं मेरी चिंतना में, परिभाषा में, व्याख्या में, चूक हुई जा रही करवायेगा, बुरा करेंगे; अच्छा करवायेगा, अच्छा करेंगे। अब है। क्योंकि दो सत्पुरुष विपरीत बातें तो कह नहीं करना हमारा नहीं है। सकते–विपरीत कहें तो भी विपरीत कह नहीं सकते। उनकी 3951 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATTA जिन सूत्र भागः1 विपरीतता में भी कहीं कोई तालमेल होगा। उनकी विपरीतता के घूघर होंगे, न गीत होगा। महावीर के वक्तव्य बिलकुल बीच भी कोई सेतु होगा—होना ही चाहिए। इससे अन्यथा की वैज्ञानिक होंगे, सूत्रबद्ध होंगे। जितना संक्षिप्त हो सकता है, कोई सुविधा नहीं है। उतना संक्षिप्त होगा। और इन दोनों के वक्तव्य की व्यवस्था लेकिन तुम्हारा मन तो जैसे और संसार में चीजों के बाबत अलग-अलग होगी, इससे तुम चिंता में पड़ जाओगे। विचार करता है, तुलना करता है-कौन अच्छा, कौन बुरा, लेकिन तुमसे मैं एक बात कह देता हूं: तुम तब तक निर्णय मत कौन सुंदर, कौन असुंदर, कौन ज्ञानी, कौन अज्ञानी—इन्हीं लेना जब तक तुम न जान लो।। मूल्य-मापदंडों को लेकर तुम उस परम लोक में भी खड़े हो जाते फिर तुम पूछोगे, 'हम करें क्या? जानें कहां से?' हो। तो वहां भी कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन आगे, कौन पीछे, मैं कहता हूं, किसी को भी चुन लो। श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ का सवाल किसने ज्यादा जाना, किसने कम जाना, किसका जानना ठीक, नहीं है। जो तुम्हें मौजू पड़ जाये, जो तुम्हें रास पड़ जाये, जिससे किसका गैर-ठीक-इस चिंतना में पड़ जाते हो। और इस सब तुम्हारा मेल बैठ जाये—वही तुम्हारे लिए श्रेष्ठ है। नहीं तो तुम चिंतना के भीतर एक बात तुम कभी सोचते ही नहीं कि मैंने अभी मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर तुम यह सोचने लगे कि तय ही कुछ भी देखा नहीं है। तो जिन दो देखनेवालों ने कुछ कहा है, मैं नहीं करना है कि कौन श्रेष्ठ है, तो फिर हम चलें किसके साथ! न देखनेवाला, अंधा, कैसे तय करूं कि कौन ठीक कहता | जब तुम तय करना चाहते हो कौन श्रेष्ठ है, तो कौन श्रेष्ठ है, यह होगा? अगर तय ही करना हो तो देखकर ही तय तय करने के लिए मत करना। तुम तो इतना ही तय करना, मेरे करना-आंख खोलकर रोशनी से भरकर। तब तुम हंसोगे। लिए कौन! 'मेरे' का खयाल रखना। वह वक्तव्य तुम्हारी ऐसा ही समझो कि इस बगीचे में एक कवि आ जाये और सापेक्षता में है। नहीं अगर तुम तय न कर पाये तो तुम मुश्किल लौटकर तुम उससे पूछो, क्या देखा, और वह एक गीत में पड़ोगेगुनगुनाये। अब सभी तो गीत न गुनगुना सकेंगे। दूसरा भी कोई काबे से दैर, दैर से काबा इस बगीचे में आये; उसको भी यही फूल मिलेंगे, यही वृक्ष होंगे, मार डालेगी राह की गर्दिश। यही हवाएं होंगी, यही पक्षियों के गीत होंगे-लेकिन वह गीत फिर मंदिर से मस्जिद, मस्जिद से मंदिर-राह की धूल ही मार गुनगुनाना नहीं जानता। वह भी जाकर कहेगा बाहर, क्या डालेगी। कुछ तो तय करना ही पड़ेगा-मंदिर या मस्जिद। देखा। लेकिन स्वभावतः कवि के वक्तव्य में और उसके वक्तव्य कहीं तो बैठकर प्रार्थना करनी है! कहीं तो पूजा करनी है! में भेद हो जायेगा। कोई तीसरा आदमी, लकड़हारा आ जाये, तो तो अगर तुम ऐसे डावांडोल होने लगे तो मुश्किल हो जायेगा। वह यहां इस बगीचे में सिर्फ लकड़ियां देखेगा-कौन-कौन-सी अगर तुमने यह सवाल इसलिए पूछा है कि मेरे लिए कौन ठीक लकड़ियां काटी जा सकती हैं। कौन आयेगा, कैसी भाषा लेकर पड़ेगा, तब तो ठीक पूछा है। अगर महावीर और कृष्ण के बीच आयेगा-इस पर निर्भर करेगा। फिर जब वह जाकर अपना निर्णय करने को पूछा है, तो बिलकुल गलत पूछा है। हां, तुम्हारे वक्तव्य देगा तो तुम यह मत सोच लेना कि ये अलग-अलग लिए कोई एक ठीक पड़ेगा। वक्तव्य, अलग-अलग बगीचों के संबंध में हैं। ये वक्तव्य जिनको जीवन में संकल्प में रस है और जिनको समर्पण करना बिलकुल अलग-अलग होंगे, फिर भी ये एक ही बगीचे के असंभव है, उनके लिए महावीर ठीक हैं। जिनके लिए समर्पण संबंध में हैं। सुगम है और संकल्प कठिन है, उनके लिए कृष्ण ठीक हैं। सत्य एक है; जाननेवालों ने उसे बहुत ढंग से कहा है। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, मामेकं शरणं व्रजः। सब छोड़! सर्व धर्मान् जाननेवाला अपने ही ढंग से कहेगा। अब महावीर और मीरा के परित्यज्य; छोड़-छाड़ सब धर्म! मेरी शरण आ जा! यही धर्म | वक्तव्य में मेल नहीं हो सकता। मीरा है मदमस्त। मीरा है स्त्री, है, यही परम धर्म है। महावीर हैं पुरुष। मीरा कहेगी नाचकर, गुनगुनाकर। उसके पग महावीर कहते हैं, शरण भूलकर किसी की मत जाना। शरण के घूघर बजेंगे। उस ढंग से कहेगी। महावीर न नाचेंगे, न पग में गये कि उलझे। शरण गये कि दास बने। शरण से कहीं मोक्ष 396 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है--स्वयं का उपलब्ध होगा? यह शरण तो गुलामी है। सम्हलकर अपनी वृत्तियों का परीक्षण-निरीक्षण करना, अशरण-भावना—महावीर का सूत्र है। अशरण--भावना।। विश्लेषण करना। अपने रस की धार को पहचानना। ज्यादा देर कोई शरण नहीं! कहीं कोई शरण नहीं है-अपने ही पैर पर खड़े न लगेगी, थोड़े प्रयोग करने से साफ हो जायेगा कि कौन-सी होना है। बात जमती है। कौन-सा भोजन तुम्हें रास आता है, यह तुम्हें दोनों ठीक हैं। मगर दोनों एक साथ तुम्हारे लिए ठीक नहीं हो जल्दी ही पता चल जायेगा। जो भोजन रास आयेगा, उसे पाकर सकते। दोनों एक साथ मेरे लिए ठीक हैं। तुम्हें दो में से कोई एक प्रफुल्लता मालूम होगी। जो भोजन रास न आयेगा, उसे ले लेने चुनना पड़ेगा। अन्यथा के बाद बोझ मालूम होगा; जैसे पेट पर पत्थर डाल दिये; मतली काबे से दैर, दैर से काबा होगी। शरीर उसे बाहर फेंक देना चाहेगा। व्यवस्था उसे मार डालेगी राह की गर्दिश। स्वीकार न करेगी। धुआं, धूल, राह की आपाधापी में ही तुम नष्ट हो जाओगे | ठीक ऐसा ही आत्मिक भोजन है। जब तुम्हें कोई मार्ग रास आ समय ही न बचेगा मंदिर में प्रवेश करने का कि मस्जिद में प्रवेश जाता है, तत्क्षण सब तरफ फूल खिलने लगते हैं। तुम प्रसन्न हो करने का। प्रार्थना करनी है तो कहीं तो चुनना ही होगा। लेकिन जाते हो। तुम प्रफुल्लित हो जाते हो। वह लक्षण है। अगर तुम चुनाव का ध्यान रखना-'मेरे' कारण चुन रहा हूं; उनमें कौन सूख जाओ, उदास हो जाओ, दीन हो जाओ, तो बस बात खराब श्रेष्ठ है, इस कारण नहीं। सापेक्षता अपनी तरफ रखना। यह मैं | हो गई। दोनों को साथ नहीं चुन सकता। इतना बड़ा मेरे पास हृदय नहीं। मैंने सुना है, एक पादरी, एक ईसाई धर्मगुरु, एक रास्ते से गुजर इतनी विराट मेरी दृष्टि नहीं कि दोनों को साथ-साथ सम्हालूं! रहा था। अचानक बादल उठे, जोर की आंधी आई, बिजलियां इतना मेरे घर में स्थान नहीं कि दोनों को साथ-साथ मेहमान बना चमकी, वर्षा मूसलाधार होने लगी। तो वह भागकर पास के एक लू! यह मजबूरी मानकर चुनना कि घर छोटा है और एक को ही | झाड़ के नीचे खड़ा हो गया। घनी छाया थी। झाड़ के नीचे एक बुला सकता हूं। बूढ़ा भी बैठा हुआ था। वह बूढ़ा प्रार्थना कर रहा था। उस जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन तो तुम पाओगेः दोनों एक ही | धर्मगुरु ने खुद भी जिंदगीभर हजारों लोगों को प्रार्थना करवाई सत्य के दो भिन्न चेहरे हैं। लेकिन तब तक तुम्हें निर्णय करना थी, खुद भी हजारों बार प्रार्थना की थी, लेकिन प्रार्थना में कभी जरूरी है। और यह निर्णय बहुत जागरूक रहकर करना। यह रस न पाया था। करता था एक औपचारिक क्रिया-कांड। ईसाई निर्णय जन्म पर मत छोड़ देना कि तुम जैन घर में पैदा हुए तो घर में पैदा हुआ था, फिर ईसाई पादरी की तरह शिक्षित हो गया, महावीर तुम्हें श्रेष्ठ होने ही चाहिए। काश! चीजें इतनी आसान तो दूसरों को भी करवाता था; लेकिन मन में कभी तरंग न उठी होती! कि तुम हिंदू घर में पैदा हुए, इसलिए कृष्ण तुम्हें श्रेष्ठ होने | थी। इस बूढ़े को डोलते देखा। इस बूढ़े के टूटे-फूटे शब्द! ही चाहिए। काश! जन्म ने इतना तय कर दिया होता तो मार्ग लेकिन उसकी आंखों की मस्ती! उसके चेहरे पर एक बड़ा सुगम हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ भी तय नहीं होता। ऐसा आभामंडल! उसे पहली दफे लगा : अरे! तो प्रार्थना मैंने अब कुछ भी तय होने का उपाय नहीं है। तक जानी नहीं! ऐसी शांत! ऐसी उपस्थिति! ऐसी पवित्र जीसस यहूदी घर में पैदा हुए लेकिन यहूदियों का मार्ग न उपस्थिति उसने कभी अनुभव न की थी। जमा। मुहम्मद मूर्ति-पूजक घर में पैदा हुए थे, लेकिन मूर्ति-पूजा उस बूढ़े के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थीं। बड़ा बूढ़ा था, काफी का मार्ग न जमा। महावीर पैदा हुए थे तो राज-घर में, क्षत्रिय थे, | उम्र हो गई थी, नब्बे के करीब उम्र होगी। लकड़हारा था, युद्ध का ही शिक्षण मिला था, लेकिन युद्ध की भाषा, राजमहल, लकड़ियों का ढेर बगल में रखा था। लौटता होगा शहर, वर्षा क्षत्रिय, राजनीति, न जमी। छोड़ सब, संन्यासी हो गये। आ गई तो रुक गया। समय प्रार्थना का हो गया, तो प्रार्थना कर क्या तुम्हें जमेगा? जन्म से मत पूछना कि कहां हम पैदा हुए। रहा था। जब प्रार्थना पूरी हो गई, तो पादरी ने बड़े अहोभाव से वहां पूछा तो भटकाव का डर है। क्या तुम्हें जमेगा? थोड़ा पूछा कि तुम्हारा ईश्वर से बड़ा प्रेम है! उस बूढ़े ने कहा, 'हां, 397 www.jainelibrar org Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 उसका भी मेरे प्रति बड़ा प्रेम है! सच कहूं तो वह मुझे काफी दुनिया अधार्मिक हो गई, क्योंकि धर्म को हम जन्म से तय करते चाहता है।' हैं। धर्म कोई वसीयत थोड़े ही है। और धर्म का कोई खून, हड्डी, उस पादरी का जीवन मैं पढ़ रहा था। उसने लिखा है, प्रार्थना मांस-मज्जा से थोड़े ही संबंध है! धर्म कोई वांशिक के संबंध में इससे अदभुत वचन मैंने अपने जीवन में कभी नहीं 'हेरिडिटरी' थोड़े ही है कि तुम जैन घर में पैदा हुए तो तुम्हारा सुने थे। उस बूढ़े ने कहा कि अगर सच कहूं, तो वह मुझे काफी खून जैन का है। तो डाक्टर से जाकर जांच करवाकर देख लो कि चाहता है। जैन और हिंदू और मुसलमान के खून में...डाक्टर कुछ पता न प्रार्थना रास आ जाये, तुम्हारे रुझान में बैठ जाये, तो ऐसा ही बता सकेगा-कौन हिंदू का है, कौन जैन का है, कौन नहीं कि तुम परमात्मा को चाहते हो, तत्क्षण तुम पाओगेः वह भी मुसलमान का है। हड्डी कोई हिंदू, जैन, मुसलमान नहीं होती। तुम्हें चाहता है। चाहत कोई एक तरफ थोड़े ही होती है! तुम उस | हिंदू, जैन, मुसलमान, तो तुम्हें निर्णय करना होगा। तरफ से भी पाओगे : संवाद आने लगे, संदेश आने लगे। तुम | लेकिन लोग कमजोर हैं, सुस्त हैं, काहिल हैं, कायर हैं। कौन उस तरफ से भी पाओगेः हजार-हजार रूपों में उसका प्रेम तुम झंझट में पड़े! इसलिए कोई भी बहाने से तय कर लेते हैं कि पर बरसने लगा। चलो ठीक है, जन्म से ही हो गया तय तो झंझट मिटी। खुद तो हां, अगर प्रार्थना जमे न, तो तुम्हीं करते रहोगे; दूसरी तरफ से खोजने से बचे! खद तो विवेक करने से बचे! कौन विश्लेषण कछ भी न आयेगा। बोझ लगेगा। करना है, इसलिए कर करता, कौन खोजता, कहां जाते, किसको पूछते, मुफ्त तय हो लोगे। कर्तव्य है, इसलिए पूरा निपटा दोगे। सदा घर में होती गया-चलो ठीक है। रही इसलिए करना है, तो कर देते हैं। लेकिन पुलक न होगी। __ यह तो ऐसे ही है, जैसे रुपये को तुम फेंककर चित्त-पट्ट कर लो अहोभाव न होगा। आनंद न होगा। और सोचो कि इससे धर्म तय हो जायेगा। चित्त पड़े तो महावीर, और जिस प्रार्थना में अहोभाव न हो, उस प्रार्थना से कैसे पट्ट पड़ जाये तो कृष्ण। जैसा वो बेहूदा और अप्रासांगिक है, तुम्हारी भूख मिटेगी। | ऐसे ही जन्म भी बेहूदा और अप्रासांगिक है। कहां तुम पैदा हुए तो ध्यान रखना, अपनी भीतर की दशा को पहचानना ज्यादा हो, इससे तुम्हारी जीवन-चिंतना और धारा का कोई संबंध नहीं जरूरी है। महावीर ठीक हैं, श्रेष्ठ हैं, कि कृष्ण-यह बात तो है। तुम्हें अपना धर्म खोजना पड़े। फिजूल। तुम्हें महावीर जमते हैं? सिर्फ इसलिए नहीं कि तुम खोज से ही मिलता है धर्म। धर्म आविष्कार है। और जब कोई जैन घर में पैदा हुए हो। अगर सिर्फ इसलिए जमते हैं तो तुम खुद खोजता है अपने धर्म को, तो उस खोज के कारण ही धर्म में भटकोगे। अगर सच में जमते हैं, ऐसे जमते हैं कि अगर तुम एक रौनक होती है। जो व्यक्ति पहली दफा महावीर को खोजते मुसलमान घर में भी पैदा होते तो भी तुम जैन मंदिर में ही प्रार्थना हुए आये थे, उन्होंने जिस प्रकाश और महिमा का आनंद उठाया, करने गये होते; ऐसे जमते हैं कि तुम चाहे हिंदू घर में पैदा होते, वो जैन घर में पैदा हुए पच्चीस सौ साल बाद बच्चे थोड़े ही उठा चाहे बचपन से गीता सुनी होती, लेकिन जिस दिन महावीर का रहे हैं। शब्द तुम्हारे कान में पड़ता, सब गीता-वीता भूल जाते और तुम जो महावीर को खोजते आये थे, जो दूर-दूर से प्यासे होकर महावीर के पीछे दौड़ पड़ते-ऐसे जमते हैं तो फिर महावीर | आये थे, जिन्होंने तीर्थयात्रा की थी; जिन्होंने महावीर को चुना था तुम्हारे लिए मार्ग हैं। नहीं ऐसे जमते हैं, इतने जोर की पुकार नहीं सारे संकटों के बावजूद; जिन्हें महावीर की पुकार हृदय को छू तुम्हारे भीतर पैदा होती उनके नाम को सुनकर, उनके नाम को गई थी, आंदोलित कर गई थी; जिन्होंने क्राइस्ट को चुना या सुनकर तुम्हारे हृदय में कोई घंटियां नहीं बजती, सुन लेते हो कि मुहम्मद को चुना स्वेच्छा से, अंतरंग से...तो उतना खयाल ठीक है, अपना धर्म है तो फिर कुछ सार नहीं। फिर तुम कहीं रखना। और इतने ईमानदार रहना। क्योंकि अगर यहां बेईमानी और खोजो। फिर किसी और मंदिर के द्वार पर दस्तक दो। हो गई, इस बुनियादी बात में बेईमानी हो गई, तो तुम सदा के धर्म हमेशा ही अपना चुना हुआ होता है, तो ही होता है। लिए भटक जाओगे। 398 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का दूसरा प्रश्न भी इससे संबंधित है। 'गुणा' ने पूछा है : कारागृह पत्थर की ईंटों के ही नहीं होते, शब्दों की ईंटों के भी बहुत समय से मैं आपके पास हूं और मैं बहुत अज्ञानी और होते हैं और ज्यादा मजबूत होते हैं। बचपन से जो सुना है, निर्बद्धि हं, यह आप भलीभांति जानते हैं। आपकी कही अनेक बचपन से जो समझा है, जिसके संस्कार पड़े हैं, वह तुम्हारे चारों बातें मेरे सिर पर से गुजर जाती हैं। आप परमात्मा से बिछुड़न तरफ दीवाल बन जाती है। फिर बाद में उस दीवाल के बाहर की जिस पीड़ा की बात करते हैं, वह पीड़ा मुझे कभी हुई नहीं। निकलने में बड़ी घबड़ाहट होने लगती है। ऐसा लगता है, यह परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं। फिर मैं क्यों यहां हूं | तो अधर्म हो जायेगा। इससे बाहर गये तो अधर्म हो जायेगा। और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं? इसके भीतर रहने में ही धर्म है। और भीतर रहने में प्राण अकुलाते हैं। 'गुणा' की भी तकलीफ वही है जो मैंने अभी तुमसे कही। महावीर का ढंग बड़ा भिन्न है। वह जैन घर में पैदा हुई है। इसलिए परमात्मा शब्द सार्थक नहीं मुझे तलाश रही है है; प्यास शब्द भी सार्थक नहीं है। जैन घर की भाषा में परमात्मा नहीं, तलाश नहीं और प्रार्थना के लिए कोई स्थान नहीं है। संस्कार जैन के हैं, प्राण तलाश में तो तलब जैन के नहीं हैं। ऊपर से सारी धारा बौद्धिकता से तो जैन की है, | जुस्तजू-सी होती है और भीतर के प्राण तो एक अत्यंत भावुक स्त्री के हैं। दबा-दबी ही सही कृष्ण से रंग बैठ सकता था। कृष्ण के साथ नाच हो सकता आरजू-सी होती है था। महावीर के साथ नाच बैठता नहीं। नाचो तो उपद्रव मालूम न आरजू न तलब है होगा महावीर के साथ। वहां नाच की कोई संगति नहीं है। वहां न जुस्तजू न तलाश गीत. वाद्य की कोई संगति नहीं है। यही कठिनाई है। जरा-सी एक जराहत इसलिए जब मैं कहता हूं, परमात्मा की प्यास, तो जैन सुन जरा-सी एक खराश। लेता है; लेकिन उसके भीतर कुछ होता नहीं। उसके सारे मुझे तलाश रही है संस्कारों की पर्ते-कैसा परमात्मा! कैसी प्यास! मुझसे थोड़ा | नहीं, तलाश नहीं। लगाव है तो सुन लेता है, बर्दाश्त कर लेता है। लेकिन ऐसे | खोज की भाषा ही ठीक नहीं है; क्योंकि खोज का अर्थ ही होता उसकी पर्तों के भीतर बात नहीं उतरती। है, बाहर खोजना। खोज का अर्थ ही होता है कि कहीं परमात्मा ठीक वैसा ही जब मैं कहता हं-अशरण-भावना, संकल्प. छिपा है और खोजना है स्वयं अपने पैरों पर खड़े हो जाना—जब मैं महावीर की बात मुझे तलाश रही है करता हूं तो हिंदू सुन लेता है, मुझसे लगाव है। लेकिन वह नहीं, तलाश नहींसोचता है, कहीं न कहीं यह तो बड़ी अहंकार की ही बात हो रही तलाश में तो तलब... है। अपने पैर पर खड़े होना—इसमें कुछ समर्पण तो है नहीं। और फिर तलाश में तो इच्छा पैदा हो जाती है, वासना आ सब परमात्मा पर छोड़ना है, और इसमें कोई समर्पण की बात जाती है। परमात्मा को खोजने की भी तो वासना है, आकांक्षा है, नहीं है। मेल नहीं बैठता। अभीप्सा है। वही कठिनाई ‘गुणा' की है। गुणा के पास एक भावुक हृदय तलाश में तो तलब है, जो नाच सकता है, गा सकता है, गुनगुना सकता है। उसको | जुस्तजू-सी होती है। जरूरत थी किसी और भाषा की। जैन भाषा उसके काम की नहीं और फिर इच्छा जल्दी ही आकुल इच्छा बन जाती है, तीव्र हो है। जैन भाषा में फंसी है। उस भाषा के बाहर आने की हिम्मत जाती है, फिर जलाने लगती है। भी नहीं है। महावीर के मार्ग पर तो समस्त इच्छाओं के त्याग से रास्ता 399 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 जिन सूत्र भाग: 1 खुलता है । समस्त इच्छाओं के त्याग में मोक्ष की इच्छा भी सम्मिलित है। इसे थोड़ा समझना । वह जो मोक्षवादी है, वह कहता है, मोक्ष की भी इच्छा छोड़ देनी है, तब मोक्ष मिलेगा। परमात्मा की भी इच्छा छोड़ देनी है, तभी । इच्छा मात्र बाधा है। भक्तों से पूछो ! भक्त कहते हैं, अगर मोक्ष छोड़ना पड़े, हम तैयार हैं; लेकिन तुम्हारी अभीप्सा बनी रहे। प्रभु को पाने की अकुलाहट बनी रहे ! बैकुंठ पर लात मारने को तैयार हैं। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे विरह में जो मजा आ रहा है, वह खो जाये ! भक्त, परमात्मा के विरह को बचा लेना चाहता है। उसके मिलन की तो बात दूर, उसका विरह भी बड़ा प्यारा है। ज्ञानी, |परमात्मा की आकांक्षा भी छोड़ देना चाहता है । विरह की तो बात दूर, उसके मिलन की भी आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि आकांक्षा मात्र उसे मोक्ष में बाधा मालूम होती है। ये अलग-अलग भाषाएं हैं। तलाश में तो तलब जुस्तजू-सी होती है दबा-दबी ही सही आरजू-सी होती है। कितना ही दबाओ, कितना ही सम्हालो, संस्कारित करो, लेकिन आकांक्षा तो रहती है, आरजू तो रहती है। इसलिए तो महावीर के मार्ग पर प्रार्थना शब्द गलत है। ध्यान! प्रार्थना की कोई जगह नहीं है। प्रार्थना में तो आरजू-सी रहती है। दबा-दबी ही सही आरजू-सी होती है न आरजू न तलब है -न पाने की इच्छा है, न पाने की कोई याचना है। न जुस्तजू न तलाश -न खोज है, न खोज में कोई पागलपन है। फिर है क्या ? भक्त बोलता है, परमात्मा की प्यास के कारण खोजने निकले हैं। ज्ञानी बोलता है, भीतर एक घाव है, पीड़ा है—उसको मिटाना है। जरा-सी एक जराहत — एक घाव है भीतर । जरा-सी एक खराश - और उस घाव में पीड़ा है। इस बात को समझने की कोशिश करो। भक्त की पीड़ा भी प्यास है। वह कहता है, प्रभु पीड़ा दो । प्यासा करो, जलाओ ! ज्ञानी के लिए परमात्मा नहीं है, न कोई प्यास है, न कोई और बात है। सिर्फ अज्ञान की एक पीड़ा है; यह पीड़ा प्यास नहीं है, यह दुख है। यह कांटे की तरह चुभ रही है। इसे निकालकर फेंकना है। ये दोनों भाषाएं अलग हैं। और जब तक तुम्हें ठीक सम्यक भाषा न मिल जाये, जिससे तुम्हारे हृदय का तालमेल बैठे, तब तक ऐसी अड़चन होगी। मेरी बातें सिर पर से निकलती हुई मालूम होंगी। कोई-कोई बात जो तुम्हारे संस्कार से मेल खा जायेगी, वो समझ में आयेगी । लेकिन समझ में आने से क्या होगा? अगर तुम्हारे हृदय से मेल न खायेगी तो समझ में आ जायेगी, किसी काम में न आयेगी। और जो बात तुम्हारे हृदय से मेल खाती थी, वह तुम्हारे सिर पर से निकल जायेगी; क्योंकि संस्कार उसे भीतर प्रविष्ट न होने देगा। जो बात तुम समझ लोगे, वह तुम्हारे काम की न होगी। और जो तुम्हारे काम की थी, वह तुम्हारा मन तुम्हें समझने न देगा। 'गुणा' की तकलीफ, भावुक स्त्रैण हृदय की तकलीफ है। जैन मार्ग पुरुष का मार्ग है। और जब मैं कहता हूं, पुरुष का, तो मेरा मतलब यह नहीं कि स्त्रियां उस मार्ग से नहीं जा सकतीं। स्त्रियां भी जा सकती हैं, लेकिन पुरुष - धर्मा; जिनकी वृत्ति पुरुष वृत्ति हो । कृष्ण का मार्ग स्त्रैण मार्ग है। इसका यह मतलब नहीं कि पुरुष नहीं जा सकते; जा सकते हैं - लेकिन वे ही पुरुष, जिनकी भावदशा स्त्रैण हो । गोप भी जा सकते हैं; लेकिन गोप ऊपर-ऊपर से होंगे, भीतर से गोपी का ही भाव होगा। इसलिए कृष्ण का भक्त तो अपने को मानने लगता है, वह स्त्री है; उसकी, कृष्ण की गोपी है। वह अपने पुरुष-भाव को छोड़ देता है । जैन साध्वी अपने सारे स्त्रैण भाव को धीरे-धीरे काटकर गिरा देती है, पुरुषवत हो जाती है। सारा राग, सारा रस, सब समाप्त कर देना है। मरुस्थल की तरह हो जाना है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का गलत और सही की बात नहीं है-तुम्हें जो रास पड़ जाये। का मार्ग खोज लेता है। मार्गों की फिक्र छोड़ो, अपनी फिक्र ऐसी तकलीफ बनी ही रहेगी, जब तक तुम संस्कारों और अपने करो। मार्गों के लिए तुम नहीं बने हो, तुम्हारे लिए मार्ग हैं। हृदय के बीच जो विरोध है उसको ठीक से पहचानकर शास्त्रों में मत उलझो। शास्त्रों के लिए तुम नहीं हो कि तुम्हारी साफ-साफ रास्ता न बना लोगे। कुर्बानी उनके लिए हो जाये, जैसा कि हो रहा है। शास्त्रों पर 'गुणा' को अपने संस्कार छोड़ने पड़ेंगे। उसे अपने हृदय की | कुर्बान हैं करोड़ों लोग। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं। अगर शीत-सर्दी भाषा को पहचानना पड़ेगा। नहीं तो वह तकलीफ में ही रहेगी। लगती हो, जला लो, ताप लो। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं; नींद जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी आती हो, तकिया बना लो। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं; ओढ़ लो, तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है? सर्दी लगती हो तो। शास्त्र साधन हैं, मनुष्य साध्य है। इसे ध्यान तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है? में रखो, तो जो अड़चन मालूम हो रही है, वह मिट जायेगी। 'बहुत समय से आपके पास हूं...' लेकिन वह संस्कार कहां तुम नहीं आए? न आओ, याद दे दो पास होने देते हैं ? बिलकुल पास है...'गुणा' काफी दिन से फैसला छोड़ा, फकत फरियाद दे दो मेरे पास है। लेकिन संस्कार बीच में एक बड़ी सख्त दीवाल है। मति नहीं कहती, चरण का स्वाद दे दो टटोलता हूं मैं। मेरे हाथ तुम तक नहीं पहुंच पाते। तुम्हारी बस प्रहारों का अनंत प्रसाद दे दो दीवाल है। लगता है पास-पास खड़े हैं, क्योंकि यह दीवाल पारदर्शी है, शब्दों की है। पत्थर की होती तो मैं तुम्हें दिखाई भी न देख ले जग, सिसककर आराधना सुली चढ़ी पड़ता। यही तो खूबी है शब्दों की दीवाल की : पारदर्शी है, कांच जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी की है। आर-पार दिखाई पड़ता है, इसलिए लगता है बिलकुल तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है? पास खड़े हैं। तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है? कभी तुमने खयाल किया? कांच की खिड़की के उस तरफ अगर 'गुणा' जागती नहीं, समझती नहीं, तो व्यर्थ ही समाप्त इस तरफ खड़े हो जाओ; जरा-सा कांच का फासला है, मगर होगी। किसी दिन जीवन के अंतिम पहर में उसे ऐसा ही कहना | उतना फासला काफी है। हम पास हैं, एक-दूसरे से बहुत दूर पड़ेगा हैं। अनंत फासला है। जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी यह कांच की दीवाल तोड़ो। और अकसर ऐसा हो जाता है जो तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है? बहुत दिन से पास हैं, वह इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि पास हैं। -जीवन आया और गया। व्यर्थ ही गया! कांच दिखाई ही नहीं पड़ता, धीरे-धीरे आर-पार दिखाई पड़ता गाओ, नाचो! ध्यान नहीं, प्रार्थना तुम्हारे लिए मार्ग होगा। है, बात भूल जाती है। पर कांच अभी है। मतवालापन। होश नहीं, बेहोशी तुम्हारी दवा है। 'और मैं बहत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं, यह आप भलीभांति तुम नहीं आये? न आओ, याद दे दो जानते हैं।' फैसला छोड़ा, फकत फरियाद दे दो बिलकुल भलीभांति जानता हूं। इसीलिए तो कह रहा हूं: मति नहीं कहती... अज्ञानी और निर्बुद्धि के लिए भक्ति मार्ग है, प्रेम मार्ग है। -बुद्धि और ज्ञान की आकांक्षा नहीं है। मति नहीं, चरण का स्वाद दे दो मति नहीं कहती, चरण का स्वाद दे दो! फैसला नहीं, फरियाद दे दो। बस प्रहारों का अनंत प्रसाद दे दो! उतना काफी है। -तो तृप्ति होगी। 'आपकी कही अनेक बातें मेरे सिर पर से गजर जाती हैं।' अपने को जिसने ठीक से पहचाना वह जल्दी ही अपनी तृप्ति जो-जो तुम्हारे काम की हैं, वह सिर पर से गुजर रही हैं। मैं 401 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ per M जिन सूत्र भाग : 1 स देखता हूं उन्हें गुजरते, क्योंकि तुम्हारा सिर उन्हें टिकने नहीं | स्त्रियों को थोड़े भक्ति के रास्ते पर खोजबीन करनी चाहिए। देता। जो बातें तुम्हारे काम की हैं और हृदय तक पहुंचनी चाहिए पुरुषों को थोड़े संकल्प के रास्ते पर खोजबीन करनी चाहिए। तो थीं, वह सिर उन्हें भीतर प्रवेश नहीं होने देता। वह द्वार से ही पति हिंदू हो, तो जरूरी नहीं है कि पत्नी भी हिंदु हो। जिस दिन लौटा देता है, द्वारपाल ही उन्हें अलग कर देता है। और जिन्हें भली दुनिया होगी, उस दिन पत्नी अपना धर्म चुनेगी, पति अपना तुम्हारा सिर प्रवेश होने देता है वह तुम्हारे काम की नहीं। क्योंकि धर्म चुनेगा। और बेटे-बेटियों के लिए खुला अवसर छोड़ा तुम्हारे सिर के पास अपने संस्कार हैं। जायेगा कि जब वह बड़े हो जायें तो अपना धर्म चुनें। अच्छी अगर जैन मुझे सुनने आता है तो वह उतनी बातों को भीतर दुनिया होगी तो एक-एक घर में करीब-करीब आठ-आठ जाने देता है, जितनी उसके जैन धर्म से मेल खाती हैं; बाकी को दस-दस धर्म होंगे, एक-एक परिवार में। होने ही चाहिए; बाहर रोक देता है कि ठहरो, कहां जा रहे हो? जैन नहीं हो। हिंदू क्योंकि जिसको जो रास पड़ जायेगा। कपड़े मैं तुम जिद्द नहीं सुनने आता है, उतनी को भीतर जाने देता है जितनी हिंदू धर्म से करते; किसी को सफेद पहनना है, सफेद पहनता है; किसी को मेल खाती हैं; बाकी को कह देता है, भीतर मत आना। हरा पहनना है, हरा पहनता है। भोजन में तुम जिद्द नहीं करते; तो तुम सुनते वही हो, जो तुम्हारा सिर तुम्हें आज्ञा देता है। तुम किसी को चावल ठीक रास आते हैं, चावल खाता है; किसी को मुझे थोड़े ही सुनते हो। जो मुझे सुनता है, उसमें रूपांतरण गेहूं रास आते हैं, गेहूं खाता है। धर्म के संबंध में क्यों जिद्द करते निश्चित है। हो कि सभी पर एक ही धर्म थोपा जाये? यह पहरेदार को विदा करो, इसे छुट्टी दे दो। तो जो अभी सिर पत्नी को अगर भक्त होना हो, भक्त हो जाये; कृष्ण के मंदिर के ऊपर से जा रही हैं, वह सिर की गहराई में भी उतरेंगी। और में पूजा चढ़ाये। पति को अगर जैन रहना है, जैन रहे; महावीर सिर में ही न उतरें तो हृदय में कैसे उतरेंगी? सिर तो द्वार है। जब के प्रकाश को लेकर चले। बेटे को अगर ठीक लगे कि बुद्ध हो सिर में कोई बात उतर जाती है तो धीरे-धीरे हृदय में डूबती है, जाना है, तो किसी को रोकने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। तलहटी में बैठती है और वहां से क्रांति घटित होती है। क्योंकि असली सवाल धार्मिक होने का है। अगर बुद्ध होने से, 'आप परमात्मा से बिछड़न की जिस पीड़ा की बात कहते हैं, बुद्ध के मार्ग पर चलने से कोई धार्मिक होता है तो शुभ है। वह पीड़ा मुझे कभी हुई नहीं।' इस दुनिया में निन्यानबे प्रतिशत लोग अधार्मिक हैं, क्योंकि परमात्मा का खयाल ही नहीं है! पीड़ा तो तब हो न जब हमें। | उनको ठीक धर्म चुनने का मौका नहीं मिला है। नास्तिकों के खयाल हो कि परमात्मा है! परमात्मा की धारणा का ही खंडन | कारण दुनिया अधार्मिक नहीं है, तथाकथित धार्मिकों के कारण है। जब धारणा का ही खंडन है तो प्यास तो कैसे उठेगी? उठेगी | अधार्मिक है। जो मुझे रुचिकर है वह खाने न दिया जाये, तो जो भी, तो तुम कोई और चीज ही समझोगे—किसी और चीज की मुझे खाने दिया जाता है उसे मैं जबर्दस्ती ढोता हूं, क्योंकि उसमें प्यास है। परमात्मा की तो हो ही नहीं सकती। कभी सोचोगे धन | मेरी कोई रुचि नहीं है। की प्यास है; कभी सोचोगे प्रेम की प्यास है; कभी सोचोगे पद धर्म स्वतंत्रता है; स्वेच्छा का चुनाव है। की प्यास है लेकिन 'परमात्मा' शब्द है ही नहीं तुम्हारे पास, 'परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं है, फिर मैं क्यों तो प्यास को परमात्मा की तरफ उन्मुख होने का उपाय नहीं है। यहां हं? और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हं?' और आत्मा की तरफ जाने के लिए जैसा पुरुषार्थ चाहिए, जैसा अड़चन अपने हृदय को ढांक लेने की है, दबा लेने की है। पौरुषिक उद्दाम संकल्प चाहिए, वह तुम्हारे पास नहीं है। कुछ सिर को हटाओ, हृदय को प्रगट करो। तब यह प्रश्न साफ हो हर्जा नहीं है। कुछ दुर्गुण नहीं है। जायेगा। स्थिति बिलकुल साफ हो जायेगी। द्वार खुल जायेगा। दुनिया में आधे लोग संकल्प से ही पहुंचेंगे, आधे लोग गणित नहीं है जीवन। और जीवन किसी लक्ष्य की तरफ प्रेरित समर्पण से ही पहुंचेंगे। लेकिन हमारी तकलीफ है: हम सभी को नहीं है। कोई ऐसा नहीं है कि जीवन किसी लक्ष्य की तरफ चला एक ही घेरे में बंद कर देते हैं। जा रहा है। यहां प्रतिपल प्रफुल्लता से होना लक्ष्य है। यहां 402 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का प्रतिपल आनंद-भाव से जीना लक्ष्य है। यहां पल-पल धर्म मनुष्य के भीतर फूल उगाने की कला है। और फूल आनंद-निमग्न होना लक्ष्य है। | अंतिम है, चरम है; इसके पार कुछ भी नहीं। प्रत्येक क्षण चरम पूछो फूलों से, 'क्यों खिले हो?' क्या कहेंगे बेचारे! पूछो है। जगत कहीं जा नहीं रहा है-जगत है। तुम भी इस 'है' में आकाश के तारों से, 'क्यों ज्योतिर्मय हो?' क्या कहेंगे! डूब जाओ। लेकिन तुम्हारे पास अगर गणित की भाषा है, जो लेकिन सब तरफ एक अहोगीत चल रहा है। एक अहोभाव नाच | पूछती है कि हम यह तो करेंगे, लेकिन किसलिए, तो चूक हो रहा है! पल-पल, प्रतिपल! जायेगी। धर्म इस ढंग से जीने का मार्ग है कि तुम प्रतिक्षण से आनंद को मैं जो भाषा बोल रहा हूं, वह खेल की भाषा है, दुकान की निचोड़ लो। प्रतिक्षण में छिपा है स्वर्ग। तुम उसे चूस लो, नहीं। छोटे बच्चे खेल रहे हैं। तुम पहुंच जाते हो, डांटने-डपटने निचोड़ लो, पी लो। प्रतिक्षण में छिपी है रसधार। लगते हो : 'क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो, इससे क्या अब यहां लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम ध्यान क्यों कर रहे मिलेगा?' छोटे बच्चे हैरान होते हैं कि...मिलने की बात ही हैं? वे यह पूछ रहे हैं कि इससे क्या मिलेगा? ध्यान से कभी उनकी समझ में नहीं आती। मिलने का सवाल कहां है? कोई कुछ मिला है! ध्यान ही मिलना है। ध्यान में आनंद है। ध्यान में बैंक में बैलेंस बढ़ जायेगा? खाते-बही में ज्यादा पैसे इकट्ठे हो प्रफुल्लता है, नृत्य है। ध्यान के क्षण में सब कुछ है, अंतर्निहित जायेंगे? यह उनकी समझ में ही नहीं आता। खेल रहे थे, मिल है। ध्यान के क्षण के बाहर कुछ भी नहीं है। लेकिन यह भक्त रहा था। नाच रहे थे, मिल रहा था। इसके पार थोड़े ही कुछ की भाषा है। मिलना है। ज्ञानी की भाषा तो लक्ष्य की भाषा होती है। यह प्रेमी की भाषा इसलिए भक्त कहता है, जीवन एक लीला है। है। प्रेमी कहता है, प्रेम में सब कुछ है, प्रेम के बाहर क्या है! प्रेम ज्ञानी कहता है, जीवन हिसाब-किताब है। कर्म का जाल है। किसी और चीज के लिए साधन थोड़े ही है, साध्य है। ज्ञानी | इसमें साधन जुटाने हैं, साध्य पाना है। पूछता है साधन! यह साधन है, साध्य क्या है? मुझे तो भक्त की भाषा प्रीतिकर है। ज्ञानी की भाषा उतनी तो वह जो जैन बुद्धि मन में बैठी है, वह पूछती है, 'क्या महिमापूर्ण नहीं है। गणित हो भी नहीं सकता उतना महिमापूर्ण मिलेगा? उपवास करेंगे तो यह मिलेगा। इतने उपवास करेंगे तो | जैसा काव्य होता है। और जब काव्य बन सकता हो जीवन, तो यह मिलेगा। इतना त्याग करेंगे, इतना तप करेंगे, तो इतना पुण्य गणित क्यों बनाना? हां, जब काव्य न बन सकता हो, मजबूरी का अर्जन होगा। इससे स्वर्ग मिलेगा। यह ध्यान करके यहां है, तब गणित बना लेना। जब तर्क के बिना नृत्य हो सकता हो क्या कर रहे हो? इससे क्या मिलेगा?' मैंने कभी तुम्हें कहा भी तो तर्क को बीच में क्यों लाना? हां, अगर नाच आता ही न हो, नहीं कि इससे कुछ मिलेगा। मैं तो तुमसे कहता हूं, इसी में तर्क ही तर्क आता हो, तो फिर ठीक है, तर्क को ही जी लेना। मिलता है, इसी में मिल रहा है। तम इसके बाहर नजर ही मत ले जाओ। इसमें ही डूबो, डुबकी लगाओ। इसमें ही ऐसे पूर्ण भाव तीसरा प्रश्न : जाग्रत पुरुषों ने देश-काल-परिस्थिति और से डूब जाओ कि न कुछ खोज रह जाये, न कोई खोजनेवाला रह | लोगों की युगानुकूल मनोदशा का खयाल रखकर एक ही सत्य जाये। ऐसी तन्मयता, ऐसी तल्लीनता प्रगट हो, तो यही क्षण को बड़े भिन्न-भिन्न रूप से अभिव्यक्त किया है। यहां तक कि परमात्म-क्षण हो गया। वे परस्पर बिलकुल विवादास्पद तथा विरोधाभासी तक बन प्रतिक्षण परमात्मा तुम्हारे चारों तरफ बरस रहा है। परमात्मा | गये हैं। जीवन व अस्तित्व के परम सत्यों की क्या निरपेक्ष एक उपस्थिति है आनंद की। तुम जरा भीतर अपने साज को अभिव्यक्ति संभव नहीं है? क्या सदा ही युग व लोक-दशा ठीक से बिठा लो। धुन बजने लगेगी। तुम्हारे भीतर से वैसे ही की सीमा सत्य पर आरोपित होती रहेगी? झरने फूटने लगेंगे, जैसे पहाड़ों से फूटते हैं। और तुम्हारे भीतर वैसे ही फूल खिलने लगेंगे, जैसे वृक्षों पर खिलते हैं। अभिव्यक्ति तो सदा सीमित होगी। अभिव्यक्ति तो सदा 403 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जिन सूत्र भाग: 1 सापेक्ष होगी। बोलनेवाला, सुननेवाला, दोनों ही अभिव्यक्ति क्योंकि सत्य सभी विरोधों को अपने में समाये हुए है। वहां रात की सीमा बनायेंगे। भी है और दिन भी है। वहां जन्म भी है, मृत्यु भी है। तो कोई मैं वही बोलूंगा जो बोला जा सकता है। तुम वही समझोगे जो | आदमी शायद सत्य की खबर लाये और जन्म के द्वारा समझाने समझा जा सकता है। सत्य तो विराट है। की कोशिश करे। कोई सत्य की खबर लाये और मृत्यु के द्वारा अगर मैं सागर के दर्शन करने जाऊं और तुम मुझसे कहो कि समझाने की कोशिश करे। कोई सत्य की खबर लाये, राग के लौटते में थोड़ा सागर लेते आना, तो पूरा सागर तो न ला द्वारा समझाये; जैसा कि नारद ने किया: परमात्मा का राग, पाऊंगा। हो सकता है, थोड़ा-सा जल सागर का ले आऊं। परमात्मा का प्रेम, परमात्मा की भक्ति ! कोई परमात्मा की खबर लेकिन उस जल में बहुत कुछ बातें नहीं होंगी। सागर का तूफान लाये, विराग के द्वारा समझाने की कोशिश करे: जैसा महावीर ने न होगा, सागर की लहरें न होंगी। वही तो असली सागर था। किया। दोनों उसमें हैं। बड़ा विराट आकाश है। उसमें सब वह तुमुल नाद और घोर गर्जन! शिलाखंडों पर टकराती हुई समाया है। लहरें! वह उठती दूर-दूर मीलों तक फैले हुए विस्तार से भरी | तो जब भी कोई व्यक्ति अभिव्यक्त करेगा तो कुछ तो चुनेगा, लहरें! वह उफान! वह सब तो न होगा। भरकर ले आऊंगा | कहां से अभिव्यक्त करे! तो अपनी-अपनी रुझान, एक बर्तन में थोड़ा-सा सागर का जल। फिर भी थोड़ा तो होगा | अपनी-अपनी पसंद, अपना-अपना ढंग। कुछ। स्वाद लोगे तो खारा होगा। सागर जैसा उस बर्तन में क्या इसलिए सत्य की अभिव्यक्तियां विरोधाभासी भी होगी। होगा? थोड़ा खारापन का स्वाद आ जायेगा, बस। लेकिन विरोधाभासी उन्हीं को दिखाई पड़ती हैं, जिन्होंने समझा सत्य तो सागर से भी विराट है। जब हम उसे शब्दों की | नहीं। विवादास्पद उन्हीं को मालूम पड़ती हैं, जिनकी अभी चुल्लुओं में भरकर लाते हैं किसी को देने, असली तो खो जाता | आंखें केवल शब्दों से भरी हैं, और अर्थों का आविर्भाव नहीं है। थोड़ा-सा स्वाद भी पहुंच जाये, थोड़ा नमक भी तुम्हारी जीभ हुआ। पर पड़ जाये, तो बहुत! इसलिए बोलनेवाला सीमा देगा, फिर | भक्त तो भगवान के समाने जाकर अवाक हो जाता है। वाणी सुननेवाला सीमा देगा। फिर युग-युग की भाषा होगी। युग-युग | ठहर जाती है। कुछ सूझता नहीं। जब लौट आता है भगवान के के भाषा की शैली होगी, प्रचलन होगा, मापदंड होंगे। वह सब उस जगत से, तब सब सूझने लगता है; लेकिन तब तक भगवान सीमाएं देंगे। सत्य को जब भी जाना जाता है तब तो वह निरपेक्ष जा चुका। वह परम महत्ता जिसने घेर लिया था, अब नहीं है। है, लेकिन जब कहा जाता है तब सापेक्ष हो जाता है। इसलिए तो स्मृति से पकड़ने की कोशिश करता है। कई बार भक्त सभी अभिव्यक्तियां सीमित होंगी। सोचकर जाता है, अब की बार पूछ लेंगे। उन्हीं से पूछ लेंगे, . इसलिए महावीर कहते हैं, सभी अभिव्यक्तियां-स्यात! | 'कैसे तुम्हारी खबर दें?' कोई अभिव्यक्ति पूर्ण नहीं। और कोई अभिव्यक्ति पूर्ण निश्चय __ बात भी आपके आगे न जुबां से निकली। से नहीं कही जा सकती, क्योंकि पूर्ण निश्चय से कहने का तो लीजिए आए थे हम सोच के क्या क्या दिल में। अर्थ यह होगा कि इसके पार अब कहने को कुछ भी न बचा। और वहां जाकर ठिठककर खड़ा रह जाता है। साधारण प्रेम में प्रत्येक अभिव्यक्ति एक सीमा तक सच होगी और एक सीमा के तक भाषा लंगड़ाकर गिर जाती है, तो प्रार्थना की तो बात ही आगे गलत हो जायेगी। इसलिए परम ज्ञानी बड़े झिझककर क्या! वहां कोरा अवाक, आश्चर्यचकित, सन्नाटा हो जाता है। बोलते हैं। जानते हुए बोलते हैं कि जो कह रहे हैं, वह बहुत हां, जब वह महिमा बीत जाती है, जब वह महाक्षण गुजर जाता सीमित है; जो कहना था, वह बहुत असीम था। जो जाना, वह है, धूल रह जाती है रथ की उड़ती हुई पीछे-तब होश आता है। बड़ा था; जो जता रहे हैं, वह बड़ा छोटा है। तब बुद्धि लौटती है। तब थोड़ा सम्हालने की कोशिश करता है। फिर स्वभावतः अलग-अलग ज्ञानी अलग-अलग ढंग से | लेकिन तब धूल पकड़ में आती है, रथ तो जा चुका। फिर उसी | जतलायेंगे। और उनकी बातें विरोधाभासी भी मालूम पड़ेंगी, | धूल की खबर देता है। तो फिर जानता भी है कि यह भी क्या 404 ain Education International LS Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खबर दे रहा हूं; यह तो धूल है जो रथ के पहियों से उड़ी थी। यह कोई रथ तो नहीं है। और रथ में विराजमान जो आया था, उसकी तो बात ही क्या करनी ! उस क्षण तो मैं बिलकुल मिट गया था। बुद्धि न थी, मैं न था । तो एक चित्र भी तो न पकड़ पाया, एक छवि भी तो न खींच पाया कि लोगों को दिखा देता ! फिर भी... उसके चरण की धूल भी सही ! उसके चरणों ने छुआ है, या उसके रथ के पहियों ने छुआ है, तो इस धूल में भी कुछ स्वा आ गया होगा। बस ! उस धूल की बात है। ज्ञानी है, वह जब ध्यान की परम दशा में पहुंचता है, सब विचार शांत हो जाते हैं। जब अनुभव होता है, तब विचार नहीं होते। जब विचार लौटते हैं, तब अनुभव जा चुका होता है । तो विचार हमेशा पीछे-पीछे आते हैं। और कुछ टूटा-फूटा, कुछ जूठा, कुछ रेखाएं पड़ी रह गईं समय पर, उनको इकट्ठा कर लेते हैं। उन्हीं को हम अभिव्यक्ति बनाते हैं। जाना गया है, वह कभी कहा नहीं गया। जो कहा गया है, वह वस्तुतः वैसा कभी जाना नहीं गया था। इसलिए शब्दों को मत पकड़ना । इसीलिए मैं निरंतर कहता हूं कि शास्त्र सहयोगी नहीं हो पाते। क्योंकि जब तुम किसी सदगुरु के पास होते हो, तब उसके शब्दों में भी उसके निशब्द की ध्वनि आती है। तब उसकी अभिव्यक्ति तुम्हारे भीतर उसके फूल खिलने लगते हैं, जो अनभिव्यक्त रह गया है। तब उसके बोलने में भी तुम उसके अबोल को सुन पाते हो। उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति; तुम्हें छूती है, तुम्हें स्पर्श करती है, तुम्हें नहला जाती है। वह जो शब्दों से कहता है, वह तो ठीक ही है, वह तो शास्त्र भी कह देंगे; लेकिन जो उसकी मौजूदगी के स्पर्श में तुम्हें अनुभव होता है, वह शास्त्र न कह पायेंगे। इसलिए सदगुरु के सान्निध्य में तो क्षणभर को तुम्हें ऐसा लगता है कि उसकी अभिव्यक्ति ने छू लिया। बात जतला दी, बता दी, इशारा हो गया। खिड़की खुली थी, देख लिया। ऐसा तुम्हें लगता है कि जो मैं खुद भी कहना चाहता था और न कह पाता था, वह तुमने कह दिया। देखना तकरीर की लज्ज्त कि जो उसने कहा मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है। बहुत बार तुम्हें लगेगा सदगुरु के पास कि ठीक, बिलकुल ठीक, यही तो मैं कहना चाहता था, लेकिन शब्द न जुटा पाता धर्म आविष्कार है— स्वयं का था, असमर्थ था। जो मैं कहना चाहता था, तुमने कह दिया। कई बार सदगुरु के सान्निध्य में तुम्हारा हृदय ठीक उस जगह जायेगा, जहां कुछ अनुभव होता है। लेकिन वह अनुभव होता है उपस्थिति से । वह है सत्संग । शास्त्र में तो राख रह जाती है। राख की भी राख । छाया की भी छाया । तो अगर कोई जीवित व्यक्ति मिल सके, ऐसा सौभाग्य हो, तो हजार काम छोड़कर उसके चरणों में बैठने का अवसर मत छोड़ना । क्योंकि जो शास्त्र नहीं कह पाते हैं, यद्यपि कहने की चेष्टा की गई है, वह उसकी मौजूदगी कहेगी। इसलिए जो लोग महावीर के पास थे, उन्होंने जो जाना; जिन्होंने कृष्ण के पास होने का सौभाग्य पाया, उन्होंने जो जाना — वह तुम गीता पढ़कर थोड़े ही जान सकोगे; वह तुम जिन-सूत्र पढ़कर थोड़े ही जान सकोगे ! उसका कोई उपाय नहीं । सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी रह गई—वही शास्त्र है। केंचुली जब सांप पर चढ़ी थी, तब भी केंचुली ही थी, लेकिन तब जीवंत थी। तब सांप चलता था तो केंचुली भी चलती थी। तब सांप फुफकारता था तो केंचुली भी फुफकारती थी । फिर सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी रह गई। अब हवा के झोंके में हिलती-डुलती है, लेकिन अब चलती नहीं; अब उसके पास अपने कोई प्राण नहीं हैं, जीवंत आत्मा नहीं है। सभी धर्म जब पैदा होते हैं तो किसी सदगुरु की मौजूदगी में पैदा होते हैं। सदगुरु के विदा हो जाने पर सांप की केंचुलियां पड़ी रह जाती हैं अनंत सदियों तक, और लोग उनकी पूजा करते रहते हैं। हां, सदगुरु न मिले तो मजबूरी है। तो फिर तुम शास्त्र को ही पूज लेना। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि पृथ्वी पर सदगुरु न हों! सदा होते हैं । यद्यपि दुर्भाग्य यह है कि जब वह होते हैं, बहुत कम लोग पहचानते हैं। जब वह जा चुके होते हैं, तब मुर्दा केंचुली को बहुत लोग पूजते हैं। लोगों का मरे से कुछ लगाव है, जिंदा से कुछ घबड़ाहट है! जीवन से कुछ डर है, मृत्यु की बड़ी पूजा है ! आखिरी प्रश्न : जब कोई प्यासा या प्यारा मिल जाता है, तब मेरी दशा पूर पर आई नदी जैसी हो जाती है। मैं आपको लेकर उस पर बरस पड़ती हूं। जाने किस नगरी की आवाज निकल पड़ती है। मैं दोनों सिरों पर जलती हुई मशाल जैसी हो जाती 405 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 जिन सूत्र भाग: 1 हूं। लेकिन आपके पास ला देने पर वह आदमी मुझसे दूर हो जाता है; जैसे बच्चा बड़ा होने पर मां से दूर निकल जाता है। और तब अपने घर वापिस होते समय मुझे एक तड़प-सी होती है। लेकिन 'तेरी जो मर्जी' कहके गा पड़ती हूं : राम श्री राम, जय जय राम । 'प्रतिभा' ने पूछा है। ऐसा होगा, स्वाभाविक है । जिन्होंने मुझे थोड़ा पीया है, उनके मन में यह भाव जगना स्वाभाविक है कि कोई और भी मुझे पीए। जिसे कोई सरोवर मिल गया है, राह पर किसी प्यासे को देखकर उसका हाथ पकड़ेगा, सरोवर तक ले आना चाहेगा। कभी-कभी तो जबर्दस्ती भी करता हुआ मालूम पड़ेगा। क्योंकि वह जानता है, अभी तुम भला नाराज हो जाओ, सरोवर पर पहुंचकर तुम भी कहोगे, अच्छा किया जबर्दस्ती की। प्रेम बांटना चाहता है। जो भी मिलता है प्रेम को, बांटना चाहता है। कहीं अगर परमात्मा की खुशबू मिली है तो तुम बांटना चाहोगे। दोनों छोर से मशाल की तरह जलकर बांटना चाहोगे। इसलिए जहां भी कहीं कोई प्यासा मिल जायेगा, तुम्हारे जीवन में एक पूर आ जायेगा। तुम सब कुछ उसमें उंडेल देना चाहोगे। और स्वभावतः तुम जब उसे मेरे पास ले आओगे, तो एक थोड़ी-सी कमी भी मालूम होगी। वह थोड़ी-सी जो अस्मिता बची है, उसके कारण मालूम होती है। क्योंकि जब तुम उसे समझाकर मेरे पास ले आये, तब एक अर्थ में वह तुम्हारे पीछे चल रहा था, तुम्हारी मानकर चला था। जब तुम उसे मेरे पास ला रहे थे तब वह तुमसे आंदोलित और प्रभावित था । फिर जब तुम उसे मेरे पास ले आओगे, स्वभावतः इसलिए तुम उसे लाये भी हो मेरे पास कि वह मुझसे जुड़ जाये, अब वह तुम्हारे पीछे न चलेगा। उसका मुझसे सीधा संबंध हो जायेगा। यही तुमने चाहा भी था, यही तुम्हारी प्रार्थना भी थी। लेकिन फिर भी अस्मिता को थोड़ा-सा धक्का लगेगा कि अरे ! इसको सरोवर मिल गया तो हमें भूल ही गया ! इस अस्मिता को भी जाने देना और गीत बिलकुल ठीक है : 'राम श्री राम, जय जय राम'। इसको गुनगुनाना ! अस्मिता को इतना भी मत बचाना । अच्छा अहंकार भी होता है। ध्यान रखना! बुरा अहंकार तो होता ही है, अच्छा अहंकार भी होता है। पवित्र अस्मिता भी होती है -- 'पायस इगो' । जब तुम कोई अच्छा काम करते हो तो एक बड़ा सदभाव उठता है कि कुछ किया, कुछ अच्छा किया ! उसे भी छोड़ना है। अंततः उसे भी छोड़ना है। तो अभी जब किसी को ले आयी होगी 'प्रतिभा' और उसे लगा होगा कि वह तो सरोवर से जुड़ गया, अब उसकी कोई फिक्र नहीं करता, तो अभी जो 'राम श्री राम, जय जय राम' कहा है, वह थोड़ी मजबूरी में कहा है, कि ठीक है, अब जो तेरी मर्जी! नहीं, इसको आनंद भाव से कहना बड़ा फर्क पड़ जायेगा। अभी तो कहा है कि जो तेरी मर्जी! लेकिन जब हम कहते हैं 'जो तेरी मर्जी', तभी हम बता रहे हैं कि यह हमारी मर्जी न थी । जो तेरी मर्जी का मतलब ही यही होता है कि ठीक है ! हमारी मर्जी तो न थी यह, लेकिन अब तुम्हारी है तो ठीक है। राम श्री राम, जय जय राम! मगर इसमें मजबूरी है। नहीं, अब दुबारा जब किसी को लाओ, तो पहले से ही इस भाव से ही लाना है, जानकर ही लाना है, कि वह सरोवर में डूब जाये और तुम्हें भूल जाये। क्योंकि तुम्हें याद रखे तो सरोवर में डूबने में बाधा पड़ेगी। और जब वह सरोवर में डूब जाये, तुम्हें भूल जाये, तो धन्यवाद देना। ऐसा मत कहना कि जो तेरी मर्जी! कहना, 'धन्यवाद ! मेरी प्रार्थना पूरी हुई। इसीलिए तो लाई थी ।' और तब फिर गुनगुनाना : 'राम श्री राम, जय जय राम !' और तब उसका भाव बिलकुल अलग होगा। शब्द तो सभी वही होते हैं भाव बड़े बदल जाते हैं । तब यह अहोभाव होगा । तब यह परमात्मा को धन्यवाद है कि ठीक! तूने बड़ी कृपा की कि मुझे इतनी भी अस्मिता न दी कि मैं रुकावट बनूं। मेरे पास तुम जब मित्रों को लाओगे तो सभी को ऐसा होगा । मगर पहले से ही यह होशपूर्वक लाना है कि ला ही इसलिए रहे हो कि वे तुम्हें भूलें । और यह शिक्षण जरूरी है, क्योंकि यही मुझे भी करना पड़ता है। एक दिन मुझे भी कहना पड़ता है: राम श्री राम, जय जय राम ! क्योंकि मैं जिसकी तरफ ले जा रहा एक दिन वह गये... तो यह प्रशिक्षण जरूरी है। यह जो 'प्रतिभा' ने कहा है, मेरा भी अनुभव है। मगर यही सारी चेष्टा है। यह सफल हो, यही सौभाग्य है। इस कारण संकोच मत करना कि अब क्या लाना किसी को, जिसको ले जाओ वही दगा दे जाता है। इस कारण रोकना मत, Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का इस कारण अपने पर नियंत्रण मत रखना। नहीं, जब पूर आये तो में पड़ने का, उसे लड़ने देना। वह लड़-लड़कर ही पड़ेगा। आने देना। अपने-अपने ढंग होते हैं, अपनी-अपनी शैली होती है। जब्त की काशिशें बजा लेकिन चमक उसकी बिजली में, तारे में है क्या छुपे शौके-बेपनाह का राज यह चांदी में, सोने में, पारे में है हर किसी को सुनाई देती है उसी की बयाबां, उसी के बबूल मेरी आवाज में तेरी आवाज। उसी के हैं कांटे, उसी के हैं फूल। जिन्होंने मुझे चाहा है, प्रेम किया है, जो सच में मेरे पास आये तो अगर कोई कांटा जैसा भी मालूम पड़े तो भी समझना, उसी हैं, सारे आवरण छोड़कर, वे अगर 'जब्त' भी करना चाहेंगे, का है; नाराज मत हो जाना। फूल पर बहुत प्रसन्न मत हो जाना, रोकना भी चाहेंगे कांटे पर बहुत नाराज मत हो जाना। एक बात स्मरण रखना कि जब्त की कोशिशें बजा लेकिन तुमने निवेदन कर दिया था, बात समाप्त हो गई। तुमने छिपाया -वे अगर चाहेंगे भी कि किसी को कैसे बतायें, क्या बतायें, नहीं, तुम्हें कुछ पता था, कह दिया। जो तुम कहो, उसमें आग्रह संकोच भी करेंगे तो भी कुछ फर्क न पड़ेगा। भी मत रखना कि उसे मानना ही चाहिए। क्योंकि आग्रह सत्य क्या छुपे शौके-बेपनाह का राज! को नष्ट कर देता है; प्रेम को दूषित कर देता है, धूमिल कर देता – अथाह प्रेम प्रगट होने ही लगता है। है। तुम तो बिना किसी आग्रह के अनाग्रह भाव से कह देना कि हर किसी को सुनाई देती है कुछ हमें भी सुनाई पड़ी है आवाज, शायद तुम्हारे काम आ जाये, मेरी आवाज में तेरी आवाज। कहीं हम गये हैं, हमारी कुछ प्यास बुझी है-हो सकता है, यह जिन्होंने मुझे चाहा है, उनकी आवाज में मेरी आवाज सुनाई। जल तुम्हारी भी प्यास को तृप्त करने में काम आ जाये। मगर पड़ने ही लगेगी। कहना, 'हो सकता है, जरूरी नहीं। तुम्हारी प्यास अलग हो, और हर स्थिति में...क्योंकि यह तो एक स्थिति है जो | तुम्हें किसी और जल की जरूरत हो। और शायद अभी तुम्हें 'प्रतिभा' ने पूछी है कि किसी को ले आती है, फिर वह डूब प्यास ही न हो और जल की जरूरत ही न हो।' तो निवेदन कर जाता है। मगर बहुत बार तो ऐसा होगा, तुम किसी को लाना | देना और भूल जाना। चाहोगे और न ला पाओगे। तुम लाख कोशिश करोगे, तुम | अगर तुमने अनाग्रहपूर्वक निवेदन किया है, तो बहुत लोगों को जितनी कोशिश करोगे उतना ही वह प्रतिरोध करेगा और न तुम खबर पहुंचाने में सफल हो जाओगे। यह खबर कुछ ऐसी है आयेगा। तब भी बेचैन मत होना। तब भी यह मत सोचना कि कि अत्यंत विनम्रता में, अत्यंत प्रेम में, अत्यंत सरलता में ही यह कुछ गलत हो रहा है। तब भी ठीक ही हो रहा है। अभी पहुंचाई जा सकती है। उसकी यही जरूरत होगी। उस पर नाराज मत होना और यह मत मेरे पास किसी को ले आना कोई मिशनरी काम नहीं है कि टूट सोचना कि जिद्दी है, कि अहंकारी है, कि अज्ञानी है, कि पापी पड़े उस पर और उसको तर्क देने लगे, और समझाने लगे, और है। क्योंकि ऐसे जल्दी ही मन में भाव उठते हैं। तुम्हारी कोई न सिद्ध करने लगे, और उसको गलत सिद्ध करने लगे। नहीं, यह माने तो नाराज होने की इच्छा हो जाती है। नर्क भेजने के भाव कुछ काम इतना क्षुद्र नहीं है। धर्म मिशन तो बन ही नहीं सकता। उठने में देर नहीं लगती, कि तुम तो इतनी कोशिश कर रहे हो, | मिशन तो सब राजनीति के होते हैं। तुम तो सिर्फ मेरी सुगंध इसके ही शुभ के लिए, और इस मूढ़ को देखो, मतांध! सुनता थोड़ी-सी फैला सको, फैला देना। वही सुगंध अगर खींच ही नहीं, बहरा है! नहीं, तब समझना कि परमात्मा अभी यही सकेगी तो खींच लायेगी। और अगर उस आदमी के जीवन में चाहता है कि वह न आये। उसके राज सभी जाहिर नहीं होते। जरूरत आ गई होगी तो खिंच आयेगा; या वह सुगंध उसकी होने भी नहीं चाहिए। कभी किसी को प्रतिरोध की ही जरूरत स्मृति में पड़ी रह जायेगी, कभी जरूरत आयेगी तो उसे याद आ होती है। कभी कोई तुमसे लड़ता है, वही उसका ढंग है मेरे प्रेम जायेगी। तुम्हारा काम पूरा हो गया। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जिन सत्र भागः तुम कंजूस मत रहना, बस इतना काफी है। मिशनरी भूलकर मत बनना और कंजूस मत होना। इन दोनों के बीच संतुलन! किसी को जबर्दस्ती समझाने-बुझाने की कोई भी जरूरत नहीं है। कोई जबर्दस्ती समझाये-बुझाये, समझा है, बूझा है ? यह बड़ा नाजुक काम है। ये धागे बड़े रेशम के धागे हैं। ये जंजीरें नहीं हैं लोहे की कि बांध दी और घसीट लाये। ये रेशम के धागे हैं, बड़े कच्चे धागे! और कच्चे धागे से कोई खिंचा आये तो ही ठीक है। लोहे की जंजीरों से कोई खिंचा भी आ गया तो उसका आना न आना बराबर है। बिना धागे के ही ला सको तो ही कुशलता है। आज इतना ही। 408 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.jait Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्रवचन धर्म की मूल भित्तिः अभय For Private seconal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र वि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो । एवं भांति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव । ।४८।। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता व कत्तीणं । । ४९ ।। कोणा भणिज्ज हो, गाउं सव्वे पराइए भावे । मज्झमिणं ति य वयणं, जाणतो अप्पयं सुद्धं ।। ५० ।। अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदं सणसमग्गो । तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि । । ५१ ।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी वन थोड़ी देर को है। सुबह हो गई तो जल्दी सांझ लगा देने को तैयार हो! जोखिम उठाने की हिम्मत चाहिए। जा भी होगी। जन्म हुआ तो मौत आने लगी ही तुम्हारे | जुआरी का दिल चाहिए। होशियारी से न चल सकोगे इस रास्ते पास। पर। होशियार भटक जाते हैं। ज्यादा समझदारी अंततः नासमझी जन्म और मृत्यु के बीच में ज्यादा समय नहीं है-अत्यल्प सिद्ध होती है। क्योंकि समझदार रत्ती-रत्ती का हिसाब रखता है। काल है। उसे सोये-सोये मत बिता देना। क्योंकि जो उसे | रत्ती-रत्ती तो बचा लेता है; लेकिन जीवन का सारा खजाना खो सोये-सोये बिता देता है, वह जान ही नहीं पाता कि कौन था, जाता है। बूंद-बूंद बचा लेता है, सागर गंवा देता है। क्यों आया था; जीवन के सारे रहस्यों से अपरिचित रह जाता | कंकड़-पत्थर जुटाने में ही समय व्यतीत हो जाता है और सांझ है। और प्राणों में सिवाय आंसुओं के, अतृप्त आकांक्षाओं के, आने में देर नहीं लगती। सुबह हो गई तो सांझ होने लगी। सूरज असंतोष के, विषाद के, कुछ भी लेकर न जा सकोगे। ऊगा नहीं कि डूबना शुरू हो जाता है; पूरब से उठा नहीं कि जागा हुआ ही भरता है; सोया हुआ खाली रह जाता है। और पश्चिम की तरफ यात्रा शुरू हो गई। जीवन इतना छोटा है कि अगर उद्दाम वेग से, अगर महत संकल्प | इसके पहले कि सूरज डूब जाये, इसके पहले कि अंधेरा तुम्हें से, अगर सारे जीवन को दांव पर लगा देने की आकांक्षा के पकड़ ले और खुद को खोजना मुश्किल हो जाये और ऐसा बिना, जागना चाहा तो जाग न पाओगे। बहुत बार हो चुका है इसलिए तुम्हें चेता देना जरूरी है। बहुत तो ऐसे भी हैं जो सोये-सोये ही जागने का सपना देख अनेक-अनेक बार तुमने सूरज देखा है, सुबह देखी है। लेते हैं और समझा लेते हैं कि जाग गये। सौ में से निन्यानबे और तुम्हारे जीवन की कथा पूरी भी नहीं हो पाती। कब साधु-संन्यासी जागने का सपना देख रहे हैं, जागे नहीं। क्योंकि किसकी होती है? जागने की जो प्रक्रिया है और उस प्रक्रिया के लिए जितने जोर से | जमाना बड़े शौक से सुन रहा था जीवन को दांव पर लगा देने की जरूरत है, वैसा साहस उनमें हमीं सो गये दासतां कहते-कहते दिखाई नहीं पड़ता। अकसर तो ऐसा होता है कि साधु और कभी पूरी भी नहीं होती दासतां। सभी बीच में ही मर जाते हैं। संन्यासी भयभीत लोग होते हैं। साहस के कारण संन्यासी नहीं क्योंकि आकांक्षाएं अनंत हैं और समय सीमित है। जीवन की होते हैं; संसार के भय के कारण संन्यासी हो जाते हैं। और प्याली में इतनी आकांक्षाएं भरी नहीं जा सकतीं। संन्यास का भय से क्या संबंध हो सकता है? | तो अगर खाली हाथ जाना हो तो सांसारिक का जीवन है। इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, इस बात को खयाल में अगर भरे हाथ जाना हो तो धार्मिक का जीवन है। लेकिन धर्म का ले लेना : दुस्साहस चाहिए। ऐसा साहस-जो सब दांव पर प्रारंभ साहस से होता है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 जिन सूत्र भाग: 1 दुनिया में दो तरह के धार्मिक व्यक्ति हैं। एक- जो भय के कारण धार्मिक हैं। चोरी नहीं कर सकते, भय के कारण; इसलिए अचोर हैं। बेईमानी नहीं कर सकते, पकड़े जाने के भय के कारण; इसलिए ईमानदार हैं। यह ईमानदारी कोई बहुत गहरी नहीं हो सकती। इस ईमानदारी में बेईमानी छिपी है। यह ईमानदारी ऊपर-ऊपर है; भीतर बेईमानी वास बनाए है। झूठ नहीं बोलते, क्योंकि पकड़े न जायें । अधर्म नहीं करते, क्योंकि पाप का भय है, नर्क का भय है। नर्क की लपटें दिखाई पड़ती हैं। और हाथ-पैर उनके शिथिल हो जाते हैं। दुनिया में अधिक लोग धार्मिक हैं- भय के कारण; दंड के कारण। लेकिन जो भय के कारण धार्मिक हैं, वे तो धार्मिक हो ही नहीं सकते। उससे तो अधार्मिक बेहतर; कम से कम भयभीत तो नहीं है। महावीर ने अभय को धर्म की मूल भित्ति कहा है। और है भी अभय धर्म कि मूल भित्ति । क्योंकि संसार को तो गंवाना है और कुछ ऐसी खोज करनी है जिसका हमें अभी पता भी नहीं । यह साहस के बिना कैसे होगा? जो सामने दिखाई पड़ता है उसे तो छोड़ना है और जो कभी दिखाई नहीं पड़ता, सदा अदृश्य है, अदृश्यों की गहरी पर्तों में छिपा है, रहस्यों की पर्तों में छिपा है— उसे खोजना है। | क्षेत्र से वस्तुएं बनती हैं, यह साफ है। मनुष्य की चेतना कहां है? क्षेत्र में तो कहीं नहीं बता सकते। उंगली से इशारा हो सके, नहीं बता सकते। जहां भी हाथ रखोगे वहीं गलती हो जायेगी। आदमी की आत्मा कहीं समय में है। शरीर क्षेत्र में है, आत्मा समय में है। वस्तुएं क्षेत्र में हैं, घटनाएं समय में हैं। अगर तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाये और कोई पूछे कहां है प्रेम, तो तुम क्या कहोगे ? तुम कहोगे, प्रेम घटना है, वस्तु नहीं। जब तुम कहते हो, प्रेम घटना है, तो तुम यह कह रहे हो कि समय में है, स्थान में नहीं । इसलिए हम यह न बता सकेंगे, कहां है। हम इतना ही कह सकते हैं, कब घटा। 'कहां' से कोई संबंध भी नहीं है - कब, किस घड़ी में, किस मुहूर्त में ! समझदार कहता है, हाथ की आधी भी भली । दूर की पूरी रोटी से हाथ की आधी रोटी भली ! तो समझदार तो कहता है, जो है उसे भोग लो। चाहे उसमें कुछ भी न हो; लेकिन इसे दांव पर मत लगाओ, क्योंकि कौन जानता है, जिसके लिए तुम दांव पर . लगा रहे हो वह है भी या नहीं ! जिस सत्य की, जिस आत्मा की, जिस परमात्मा की खोज पर निकलते हो— किसने देखा? इसलिए चार्वाक कहते हैं, 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत ।' पी लो घी ऋण लेकर भी - सामने तो है ! किस स्वर्ग के लिए छोड़ते हो ? ऋण न भी चुके तो फिक्र मत करो। लेकिन जो सामने है, उसे भोग लो। समय को गंवा सकते हैं हम क्षुद्र को इकट्ठा करने में । क्षुद्र सामने है और जो विराट है वह छिपा है। इस क्षुद्र को इकट्ठा कर-करके भी तो कुछ पाया नहीं जाता। इसलिए महावीर कहते हैं, इसे दांव पर लगा दो। यह कचरा ही है; इसको दांव पर लगाने में कुछ खो नहीं रहे हो। और जो समय बच जायेगा, जो शुद्ध समय बच जायेगा, जिसको तुमने संसार में नहीं गंवाया, वही शुद्ध समय ध्यान बनता है। | धर्म का पहला कदम तब उठता है, जब तुम देखते हो जो सामने है वह भोगने योग्य ही नहीं । भोगा तो, न भोगा तो - सब बराबर है। इसे भोग भी लिया तो क्या भोगा? इसे पाकर भी क्या मिलेगा? हां, इसे पाने में, इसे भोगने में जो समय गया वह जीवन की संपदा गई। महावीर ने तो आत्मा को नाम 'समय' दिया है। बड़ी महत्वपूर्ण बात है। महावीर आत्मा को कहते हैं : 'समय' । समय को गंवाते हो तो आत्मा को गंवाते हो । समय को सम्हाल लिया तो आत्मा को सम्हाल लिया। जैसे वस्तुएं स्थान घेरती हैं, वैसे आत्मा समय घेरती है। जैसे वस्तुएं बाहर घटती हैं— क्षेत्र में, वैसे आत्मा भीतर घटती है:-समय में | आइंस्टीन शायद महावीर से राजी होता; क्योंकि उसने भी पाया कि जीवन को बनानेवाले दो ही तत्व हैं : टाइम और स्पेस, समय और क्षेत्र । संसार में न गंवाया गया समय ध्यान है। संसार की व्यस्तताओं में कलुषित न किया गया समय ध्यान है। इसलिए महावीर के लिए ध्यान के लिए जो शब्द है वह है : 'सामायिक' । वह 'समय' से बना है। महावीर बड़े वैज्ञानिक हैं, उनकी शब्दावली में । जो समय संसार में नहीं लगा है, वही 'सामायिक'। महावीर के पास परमात्मा तो है नहीं कि कह दें कि परमात्मा में जो समय लगा है, वह ध्यान नहीं, जो संसार में नहीं लगा, जो Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H Bodya * मेकी मलपि INE Sta B संसार से अछता बच गया है, जिसे संसार दषित नहीं कर पाया, अब सामान कहां हैं? जिस समय को संसार की कोई छाया नहीं पड़ी, कुंआरा अब वे मेरे गान कहां हैं? है-वही सामायिक। जगती के नीरस मरुथल पर जिसने समय को न बचाया और जिसने समय की शुद्धता न हंसता था मैं जिनके बल पर जानी, जो सामायिक में न जीया-वह आया भी वसंत में और चिर वसंत-सेवित सपनों के पतझड़ में रहा। जीवन का प्रसाद बरसता था, लेकिन उसका मेरे वे उद्यान कहां हैं? पात्र उलटा पड़ा रहा। जीवन की अमृत-सरिता बहती थी, वह अब वे मेरे गान कहां हैं? किनारे पर ही पीठ किए खड़ा रहा-कहीं और देखता रहा और ऐसा कहीं तब न पता चले जब करने को कोई शक्ति हाथ में न प्यासा रहा, और कंठ जलता रहा।। | रह जाये। पता तो सभी को चलता है। एक न एक दिन वे सब जिसमें तुम आज अपने को लगाये हो, आज नहीं कल तुम गीत जो गुनगुना-गुनगुनाकर मन को समझाया था, वे सब व्यर्थ पाओगे व्यर्थ है। जो जितनी जल्दी पा ले, उतना बोध, उतनी सिद्ध होते हैं। पानी पर खींची गई लकीरें, कि रेत पर किये गये बुद्धि, उतनी समझ उसमें है। कुछ हैं जो मरते दम तक नहीं हस्ताक्षर, कि तुम बना भी नहीं पाते कि पुंछ जाते हैं और मिट पाते-मरकर भी नहीं पाते! कुछ हैं जो बुढ़ापा आते-आते थोड़े जाते हैं। कि कागज की नावें कि तुमने छोड़ी नहीं कि डूब जाती चेतते हैं। इधर शरीर डगमगाने लगता है तो उधर आत्मा थोड़ी हैं! कि ताश के पत्तों के घर कि हवा का जरा-सा झोंका, और सम्हलती है। इधर रोग पकड़ने लगते हैं, बीमारियां घर करने | फिर उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिलती! लगती हैं, चोट पड़ती है। कुछ खयाल आता है: कैसे जिंदगी आज वे मेरे गान कहां हैं? गंवा दी। लेकिन जो और समझदार हैं, वे भरी जवानी में जाग टूट गई मरकत की प्याली जाते हैं। जब कि सब तरफ लुभावना जगत था और सब तरफ लुप्त हुई मदिरा की लाली आकर्षण थे, उनको भी वह गहरी आंख से देख लेते हैं और मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले उनके पीछे भी पाते हैं कुछ नहीं, सिवाय मन के भ्रमों के; अब सामान कहां हैं? अपनी ही कल्पनाओं, अपने ही सपनों का जाल है; अपने ही अब वे मेरे गान कहां हैं? प्रक्षेपण हैं। भरी जवानी में भी जाग जाते हैं। जो और भी प्रगाढ़ | लेकिन यह उस दिन याद न आये, जब आंखों में देखने की हैं, वह बचपन में ही जाग जाते हैं। शक्ति भी न बचे, प्राणों में जागने की ऊर्जा भी न बचे। यह उस कहते हैं, लाओत्सु पैदा ही हुआ जागा हुआ। हुआ होगा; | दिन याद न आये जबकि पैर खड़े होने में असमर्थ हो जायें। यह क्योंकि उससे उलटा तो हम देखते ही हैं, लोग मर ही जाते हैं। अभी याद आ जाये तो कुछ हो सकता है। सोये-सोये। अगर जिंदगीभर लोग सोये-सोये मर सकते हैं, यह महावीर कहते हैं, जगत का अनुभव तीन खंडों में तोड़ा जा घटना घट सकती है, एक अति पर, तो दूसरी अति पर यह भी सकता है। जो वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, वे हैं ज्ञेय, 'द नोन'। घट सकता है कि कोई पैदा होते से ही जाग जाये; किसी को | जिन्हें हम जानते हैं, वे हमसे सबसे ज्यादा दूर हैं। जो आदमी सुबह के सूरज में ही सांझ दिख जाये; इधर दीया जला कि बुझने धन के पीछे पड़ा है वह ज्ञेय के पीछे पड़ा है, स्थूल के पीछे पड़ा का खयाल आ जाये। जितनी तीव्र मेधा होती है, उतनी धार्मिक है। आब्जेक्टिव, संसार उसके लिए सब कुछ है। धन इकट्ठा होती है। करेगा, पद इकट्ठा करेगा, मकान बनायेगा–लेकिन वस्तुओं पर आज वे मेरे गान कहां हैं? उसका आग्रह होगा। उससे थोड़ा जो भीतर की तरफ आता है, टूट गई मरकत की प्याली वह ज्ञेय को नहीं पकड़ता, ज्ञान को पकड़ता है। वहां वृक्ष है। लुप्त हुई मदिरा की लाली तुम वृक्षों को देख रहे हो। वृक्ष ज्ञान की आखिरी परिधि मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले हैं-ज्ञेय। फिर थोड़ा इधर को चलो तो वृक्षों और तुम्हारे बीच Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है—ज्ञान। वृक्ष दिखाई पड़ जाननेवाले को ही न जाना तो और जानकर करोगे क्या? अपने रहे हैं, हरे हैं, सुंदर हैं, प्रीतिकर हैं। उनकी सुगंध तुम्हारी को ही न पहचाना तो और पहचान किस काम में आयेगी? नासापुटों को भर रही है। ताजी-ताजी भूमि से सुवास आ रही अपने से ही बिना परिचित हुए चल पड़े, तो कितनों से परिचय है। फूल खिले हैं। पक्षियों के गीत हैं। तुम्हारे और उनके बीच बनाया, उसका क्या सार होगा? दूसरों से परिचित होने में ही एक सेतु फैला है, एक तंतु-जाल फैला है। उस तंतु-जाल को मत गंवा देना जीवन को। परिचय की प्रक्रिया को समझने में ही हम कहते हैं ज्ञान। आंख न होंगी तो तुम हरियाली न देख मत गंवा देना जीवन को। यह कौन है तुम्हारे भीतर, जिसके सकोगे। तो हरियाली सिर्फ वृक्षों में नहीं है-आंख के बिना हो माध्यम से ज्ञान घटता है, जिसके माध्यम से ज्ञेय से संबंध बनता ही नहीं सकती। तो हरियाली तो वृक्ष और आंख के बीच घटती है? यह ज्ञाता-भाव! यह चैतन्य ! यह होश! यह बोध ! इसकी है। वैज्ञानिक भी अब इस बात से राजी हैं। जब कोई देखनेवाला | खोज ही धर्म है। नहीं होता तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे बगीचे के वृक्ष हरे पहला सूत्रः रहते हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं रहता तो हरे हो ही नहीं | णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दुजो भावो। सकते। क्योंकि हरापन वृक्ष का गुण-धर्म नहीं है-हरापन वृक्ष __ एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।। और आंख के बीच का नाता है। बिना आंख के वृक्ष हरे नहीं 'आत्मा ज्ञायक है। आत्मा जाननेवाला है। आत्मा ज्ञाता है, होते-हो नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। जब आंख ही नहीं है द्रष्टा है। जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त। जो तो हरापन प्रगट ही नहीं होगा। वृक्ष होंगे-रंगहीन। गुलाब का | अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है। आत्मा ज्ञायक-रूप फूल गुलाबी न होगा। गुलाब का फूल और तुम जब मिलते हो, में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत तब गुलाबी होता है। 'गुलाबी' तुम्हारे और गुलाब के फूल के अशुद्धता नहीं है।' बीच का संबंध है। __ यह बड़ा बारीक सूक्ष्म सूत्र है! समझने की चेष्टा करना। तो दूसरा जगत है : ज्ञान। कुछ लोग हैं जो वस्तुओं के पीछे क्योंकि महावीर के अंतस्तल के बहुत करीब है। यही उनकी पड़े हैं, फूलों के पीछे पड़े हैं। उनसे कुछ जो ज्यादा समझदार हैं, | भित्ति है, जिस पर सारी जैन-साधना का मंदिर खड़ा है। वे फिर ज्ञान की खोज में लगते हैं। वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक हैं, आत्मा ज्ञायक है-यह तो पहली बात, यह पहली उदघोषणा, कवि हैं, मनीषी हैं, विचारक हैं, चिंतक हैं—वे ज्ञान की पकड़ में यह पहला वक्तव्य कि आत्मा ज्ञेय नहीं है, वस्तु नहीं है: जान लगे हैं। वे ज्ञान को बढ़ाते हैं। सको, ऐसी नहीं है। क्योंकि जिसे भी हम जान लेते हैं, उसका ही महावीर कहते हैं, यह भी थोड़ा बाहर है। इसके भीतर छिपा है रहस्य खो जाता है। इसलिए आत्मा कभी विज्ञान का विषय बन तुम्हारा ज्ञायक स्वरूप, ज्ञाता। ये तीन त्रिभंगियां हैं-ज्ञाता, सकेगी, इसकी संभावना नहीं है। विज्ञान लाख उपाय करे, वह ज्ञेय, ज्ञान। जो परम रहस्य के खोजी हैं, वे ज्ञान की भी फिक्र जो भी जानेगा वह आत्मा नहीं होगी। क्योंकि आत्मा तो नहीं करते, वे तो उसकी फिक्र करते हैं: 'यह जाननेवाला कौन आत्यंतिक रूप से जाननेवाली है; जानी नहीं जा सकती। उसे है!' जो सबसे दूर हैं ज्ञान की यात्रा पर, वे फिक्र करते हैं : 'यह हम अपने सामने रख नहीं सकते। जिसके सामने हम सब रखते जानी जानेवाली चीज क्या है!' जो परम रहस्य के खोजी हैं, वह | हैं, वही आत्मा है। तो आत्मा को स्वयं तो हम कभी अपने फिक्र करते हैं : यह जाननेवाला कौन है! यह मैं कौन है, जो जान सामने न रख सकेंगे। रहा है, जिसके लिए वृक्ष हरे हैं, जिसके लिए गुलाबी फूल | अगर महावीर की बात ठीक समझो तो महावीर यह कह रहे गुलाबी हैं; जिसके लिए चांद-तारे सुंदर हैं! यह मैं कौन हूं! हैं : 'आत्मज्ञान' शब्द ठीक नहीं है। वस्तुओं का ज्ञान हो सकता इन दोनों के बीच में दार्शनिक है, वैज्ञानिक है, चिंतक है। है, पर का ज्ञान हो सकता है, आत्मज्ञान कैसे होगा? आत्मज्ञान महावीर की सारी खोज उस ज्ञाता-स्वरूप की खोज है; 'यह का तो मतलब हुआ कि तुमने आत्मा को भी दो हिस्सों में तोड़ जाननेवाला कौन है!' क्योंकि महावीर कहते हैं, अगर लिया-जाननेवाला और जाना जानेवाला। तो महावीर कहते हैं 416 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मल भित्तिः अभय जो जाननेवाला है, वही आत्मा है; जो जाना जा रहा है वह तो अभी सोये हो। जागो! लेकिन फिर वह कहते हैं कि जागना भी आत्मा नहीं है। उस आत्मा का स्वभाव नहीं है। क्योंकि जब सोना उस आत्मा हम अपने शरीर को जानते हैं। पैर में चोट लग गई, दर्द हुआ, | का स्वभाव नहीं है तो जागना कैसे उस आत्मा का स्वभाव तो महावीर कहते हैं, चूंकि तुम जानते हो कि पैर में दर्द हुआ, होगा? जागना-सोना दोनों ही आत्मा के बाहर हैं। तो एक दिन इसलिए एक बात तो निश्चित हो गई कि तुम यह दर्द नहीं, तुम ऐसा अनुभव आना शुरू होता है कि तुम जागने और सोने के भी यह पैर नहीं। क्योंकि जाननेवाला हमेशा पार है; अतिक्रमण कर पार हो। तुम तो वह हो जो जानता है कि जागे अब, अब सोये। जाता है; ट्रांसेंडेंटल है। भूख लगी तो महावीर कहते हैं, एक सुबह जागकर तुम्हें पता चलता है कि अरे, जाग गये। तो तुम बात पक्की हो गई : तुम्हें पता चला भूख लगी; एक बात पक्की जागने से एक नहीं हो सकते। तुम्हें जागने का भी पता चलता है : हो गई कि तुम भूख नहीं हो। तुम तो वह हो जिसे पता चला, जाग गये! रातभर सोये रहे तो सुबह तुम कहते हो बड़ी गहरी जिसे प्रतीति हुई, जिसे अहसास हुआ कि भूख लगी, कि शरीर नींद आई! उसका भी तुम्हें पता है। नींद का भी पता है। कभी भूखा है कि रोटी की जरूरत है, कि प्यास लगी, पानी की जरूरत नींद ठीक नहीं आती तो सुबह कहते हो, बड़े व्याघात पड़े, है; कि गर्मी हो रही है कि पसीने की धारें बही जा रही हैं, कोई उच्छंखल थी रात, बड़े दुखस्वप्न चले, ऊबड़-खाबड़ रहा शीतल स्थान खोजू, कोई छाया खोजूं।। सब। शांति न मिली, चैन न मिला, थका-हारा उठा हूं, रात नींद जो भी तुम जानते हो, जानने के कारण ही वह 'पर' हो गया। ठीक से न आई! तो रात तुम नींद को भी जानते हो, सुबह उठकर ज्ञान प्रत्येक वस्तु को 'पर' बना देता है। ज्ञान-मात्र 'पर' का तुम जागने को भी जानते हो। तो निश्चित ही न तुम जागरण हो, है। तो आत्मज्ञान तो हो नहीं सकता। इस अर्थ में नहीं हो न तुम निद्रा हो। तुम तो जागने और निद्रा के पार सकता, जिस अर्थ में हम और चीजों का ज्ञान करते हैं। ज्ञायक-स्वरूप, ज्ञाता-स्वरूप आत्मा हो। आत्मा ज्ञायक है, ज्ञेय नहीं। सदा जाननेवाला है। इसलिए 'जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त।' जिन्हें आत्मा को खोजना है, उन्हें अपने भीतर निरंतर उस जगह लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से सोये हुए को हम कहते हैं, जागो पहुंचना चाहिए, जहां सिर्फ जाननेवाला ही शेष रह जाये और | अगर आत्मा को जानना हो। जब वह जाग जायेगा तो उससे जानने को कुछ न बचे। उसे महावीर 'समाधि' कहते हैं-जहां कहेंगे, अब जागने से भी जागो! संसारी को कहते हैं, संन्यास ले शुद्ध जानना रह जाये और जानने के लिए कोई जगह न हो; दीया लो! फिर संन्यासी को कहते हैं कि अब संन्यास भी छोड़ो! यह जलता हो, लेकिन प्रकाश उसका किसी पर पड़ता न हो। दीया | तो ऐसा ही है जैसे एक कांटा पैर में लगा, दूसरे कांटे से खींचकर जलता है अभी, दीवाल पर प्रकाश पड़ता है। तो दीया तो ज्ञाता उसे बाहर निकाल लिया; फिर दोनों ही कांटे फेंक देते हैं। हुआ, दीवाल ज्ञेय हो गई और दोनों के बीच जो संबंध जुड़ रहा है | बीमारी थी, औषधि ले ली; फिर बीमारी चली गई तो औषधि की वह ज्ञान हो गया। ऐसी कल्पना करो कि दीया शून्य में जलता | बोतल को कचरे-घर में फेंक देते हैं। तो जागरण की जो इतनी हो, कि दीये की ज्योति किसी पर न पड़ती हो-ऐसी चित्त की चेष्टा है, वह भी औषधि से ज्यादा नहीं है। बीमारी है, नींद में दशा का नाम, महावीर कहते हैं, समाधि है। जहां शुद्ध-बुद्ध, | पड़े हैं, सोये हैं-यह हमारी अवस्था है। इसे जगाने के लिए मात्र ज्ञायक-स्वरूप शेष रह गया; कोई जाननेवाली चीज औषधि है ध्यान, जागरण, विवेक। लेकिन जब जाग गये तब तो व्याघात उत्पन्न नहीं करती; कोई जाननेवाली चीज अशुद्धि उत्पन्न | यह भी पता चलता है कि हम तो जागने के भी पार हैं। यह सोना नहीं करती-अबाध-अनवरुद्ध चैतन्य का प्रवाह है; शुद्ध और जागना, यह भी शरीर और मन में ही हो रहा है। चैतन्य-मात्र है! इसलिए तो कृष्ण गीता में कहते हैं: या निशा सर्वभूतानां, 'आत्मा ज्ञायक है।' और ज्ञायक! 'जो ज्ञायक है वह न तस्यां जागर्ति संयमी! अप्रमत्त होता है न प्रमत्त।' | जब सारे लोग सोये हैं, तब भी संयमी जागता है। इसका क्या यह भी बड़ी विचार की बात है। क्योंकि महावीर कहते हैं, तुम अर्थ हुआ? क्या संयमी सोता नहीं? संयमी सोता है, लेकिन Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस जानता है कि यह जो सोया है, यह मैं नहीं हूं। तादात्म्य बनाता है, तो तुम धीरे-धीरे पाओगेः वह सुंदर होने महावीर तो और भी गजब की बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं, लगा। उसके जीवन में तुम्हें एक नये गुण का प्रादुर्भाव दिखायी संयमी जब जागता है तब भी जागरण के साथ अपना तादात्म्य पड़ेगा। वह सुंदर होने लगेगा। जो आदमी अपने को योद्धा नहीं करता-सोने के साथ तो वह करता ही नहीं; जैसा कृष्ण समझता है, लड़ाका समझता है, उसके चारों तरफ धीरे-धीरे तुम कहते हैं कि सब सोये रहते हैं, उनका तादात्म्य हो जाता है। वह पाओगे योद्धा के लक्षण प्रगट होने लगे। कहते हैं, हम सोये हैं। संयमी कहता है, हम तो जागते रहे। जिससे हम तादात्म्य करते हैं, वही हम हो जाते हैं। क्योंकि महावीर कहते हैं कि इससे भी ऊपर उठना है। जागने में भी धीरे-धीरे जिसे हमने अपने साथ जोड़ा वह हमें प्रभावित करता तादात्म्य न हो जाये, सोने में तो तोड़ना ही है तादात्म्य। मूर्छा तो है, रूपांतरित करता है। तोड़नी ही है, अमूर्छा पकड़ नहीं लेनी है। राग तो तोड़ना ही है, सम्मोहनविद जानते हैं कि अगर किसी पुरुष को सम्मोहित विराग पकड़ नहीं लेना है। करके कहा जाये कि तू पुरुष नहीं स्त्री है, तो गहरे सम्मोहन में इसलिए महावीर ने एक नये शब्द का उपयोग कियाः उसका तादात्म्य हो जाता है कि वह स्त्री है। फिर उससे कहा वीतराग। महावीर ने अपने परम संन्यासियों को विरागी न कहा, जाये, उठकर चलो, तो वह पुरुष जैसा नहीं चलता, स्त्री जैसा क्योंकि 'विरागी' में ऐसा लगता है : राग के विपरीत। सोये थे, चलने लगता है जो कि बड़ी कठिन बात है। क्योंकि पुरुष के जाग गये। संसार में थे, संन्यासी हो गये। राग था, विराग साध पास अलग तरह की हड्डियां हैं। और खासकर स्त्री की चाल लिया। महावीर कहते हैं, वीतराग। पुरुष से भिन्न है, क्योंकि स्त्री के शरीर में गर्भ का स्थान है। उसी 'वीतराग' शब्द बड़ा अदभुत है! वीतराग का अर्थ होता है। गर्भ के स्थान के कारण उसकी चाल में एक गोलाई है, जो पुरुष न राग रहा, न विराग रहा। वीत : पार हो गये, दोनों के पार हो की चाल में नहीं हो सकती। लेकिन अगर सम्मोहित किया जाये गये। वह पूरी दुनिया ही गई। वह पूरा सिक्का ही छोड़ दिया। किसी व्यक्ति को और कहा जाये कि तुम स्त्री हो तो वह चलेगा वह द्वंद्व का जगत अब साथ न रहा। सोना और जागना भी द्वंद्व स्त्री की तरह। उससे कहा जाये बोलो तो वह बोलेगा स्त्री की है। राग और विराग भी द्वंद्व है! संसार और संन्यास भी द्वंद्व है। तरह। आवाज भी बदल जायेगी। यह सम्मोहन की प्रक्रिया निर्बुद्व हुए। सबके पार हुए। इतनी गहरी हो सकती है। कि अगर सम्मोहित व्यक्ति को कहा 'जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है।' जाये कि यह हाथ पर हम तुम्हारे अंगार रख रहे हैं और तुम सिर्फ यह शुद्धि की बड़ी अनूठी परिभाषा हुई। जो जागता नहीं, | एक साधारण कंकड़ रख रहे हो, तो उसका हाथ जल जायेगा, सोता नहीं; जो मूछित नहीं होता, अमूर्छित नहीं होता; जो न | फफोला आ जायेगा। साधारण कंकड़ गर्म भी नहीं है, अंगार की संसार में खोता है, न संन्यास में खोता है जिसका कहीं तो बात ही नहीं है, ठंडा पत्थर हाथ पर रखते हो और कहते हो तादात्म्य नहीं होता, वही शुद्ध है। जिसको गुरजिएफ कहता है: यह अंगार है, वह छिटककर फेंककर खड़ा हो जायेगा, आईडेंटिफिकेशन, तादात्म्य। जो किसी चीज से अपने स्वभाव चिल्लायेगा कि मार डाला, जला दिया। और उसके हाथ पर न को नहीं जोड़ता। जो दूर-दूर, पार-पार बना रहता है! जो सदा केवल जलने का स्थान बनेगा, फफोला भी उठेगा। जानता रहता है : मैं भिन्न हूं, मैं भिन्न हूं। किसी भी चीज के साथ अब क्या हुआ? अंगार तो रखा नहीं था, लेकिन अंगार रखा जो ऐसा भाव नहीं करता कि यह मैं हूं। क्योंकि जहां ही यह भाव है, यह भाव से तादात्म्य हो गया। इसीलिए तो लोग अंगारों पर आया कि यह मैं हूं, वहीं अशुद्धि शुरू हो गई। क्योंकि जिससे भी चल लेते हैं-वह भी भाव-तादात्म्य है। मुसलमान फकीर हम जुड़ते हैं, वह हमें प्रभावित करने लगता है। या हिंदू योगी अंगारों पर चल लेते हैं। वह तादात्म्य की बात है। तुमने कभी खयाल किया? लोग जिन चीजों से अपना इस बात का पक्का तादात्म्य होना चाहिए कि हम चल लेंगे, तादात्म्य बनाते हैं, धीरे-धीरे वैसा ही रंग-ढंग उनके जीवन में छा भगवान बचायेगा, कि कोई वली बचायेगा। बस इसका पक्का जाता है। अगर कोई कवि सौंदर्य की अनुभूतियों के साथ अपना भरोसा होना चाहिए, फिर तुम न जलोगे। क्योंकि तुम्हारा भरोसा 1418 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UE धर्म की मल भित्तिः अभय तुम्हारी सुरक्षा करेगा। वह तादात्म्य बन गया। कि सुखी तो तब होंगे जब सुख की कोई घटना घटेगी। और रामकृष्ण ने सभी धर्मों की साधना की। ऐसा प्रयोग उनके दुखी तो रहेंगे ही, क्योंकि जब तक सुख की घटना नहीं घटती तो पहले कभी किसी ने किया न था। उस साधना के दौर में उन्होंने क्या कर सकते हैं! कोई लाटरी कभी-कभी खुलेगी, तब सुखी छह महीने तक बंगाल में प्रचलित कृष्ण-मार्गियों के एक संप्रदाय हो लेंगे। और मैं मानता हूं कि वह तब भी सुखी न हो पायेंगे, की साधना की-राधा संप्रदाय। उस संप्रदाय का साधक | क्योंकि दुख की आदत इतनी मजबूत हो जाती है, दुख इतना मानकर चलता है कि मैं कृष्ण की गोपी हं, राधा हूं। वह स्त्रियों सघनीभूत हो जाता है कि अगर सुख की कोई घटना भी घटे तो के कपड़े पहनता है, कृष्ण की मूर्ति को लेकर रात सोता है। छह तुम जानते ही नहीं कि अब सुखी कैसे हों! जो कभी नाचा ही महीने तक रामकृष्ण ऐसा साधना करते थे। बड़ी हैरानी की नहीं है, नाचने का क्षण भी आ जाये तो कैसे नाचेगा? हाथ-पैर घटना घटी-और वह घटना यह थी, उनके स्तन बड़े हो गये, साथ न देंगे। स्त्रैण हो गये। रामकृष्ण जैसा व्यक्ति जब तादात्म्य करेगा तो वह महावीर कहते हैं, शुद्धि का अर्थ है : जहां कोई तादात्म्य नहीं; कोई छोटा-मोटा तादात्म्य नहीं है। उन्होंने पूरे प्राण इसमें उंडेल न सुख का, न दुख का; न देह का, न मन का। जहां शुद्ध दिये। उनकी आवाज स्त्रैण हो गई। वह चलने स्त्रियों की तरह जाननेवाला बचा है और कोई चीज छाया नहीं डालती, उस लगे, लेकिन यहीं तक मामला रुकता तो ठीक था; उन्हें मासिक छाया-शून्य जगत में आत्मा शुद्ध होती है। धर्म शुरू हो गया, जो कि एक आश्चर्यजनक घटना है। इतना 'आत्मा ज्ञायक-रूप में ही ज्ञात है...' तादात्म्य! फिर साधना के बाहर भी आ गये तो भी छह-आठ आत्मा का ज्ञेय की तरह जानने का कोई उपाय नहीं है। महीने लगे उनका स्त्री-रूप विदा होने में। जाननेवाले की तरह ही आत्मा जानी जाती है. जानी गई वस्त की सम्मोहन का शास्त्र बड़ी बातें खोलने के किनारे पहुंच रहा है | तरह नहीं। और किसी न किसी दिन सम्मोहन-शास्त्र जब अपने पूरे ...और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अध्ययन प्रगट कर चुकेगा तो धर्म की बहुत-सी बातें बड़ी अशुद्धता नहीं है।' सुगमता से समझ में आ सकेंगी। इसे थोड़ा हम समझें। तुमने कभी खयाल किया? जब भी तुम जो भी हो, यह तुम्हारा ही भाव है। अगर तुम अपने को कोई आदमी तुम्हें गौर से देखता है तो तुम्हें थोड़ी-सी बेचैनी और दुखी मान रहे हो तो तुम दुखी होते चले जाओगे। अगर तुम अड़चन होती है। तो समाज में एक स्वीकृत नियम है : तीन क्षण अपने को सुखी मान सकते हो, तुम सुखी होते चले जाओगे। से ज्यादा कोई आदमी किसी को गौर से नहीं देखता। देखे तो मुसलमान फकीर बायजीद से किसी ने पूछा कि तुम इतने उसको हम लुच्चा कहते हैं। लुच्चे का अर्थ है: गौर से प्रसन्न, सदा प्रसन्न-मामला क्या है? उसने कहा कि मैंने एक देखनेवाला। लुच्चा बनता है लोचन से। आंखें अड़ा दीं किसी नियम बना लिया है कि सुबह जब मैं उठता हूं तो मेरे सामने दो पर तो लुच्चा। तीन सैकिंड तक ठीक है। उतना स्वीकृत है। राह विकल्प होते हैं कि आज दिन प्रसन्न होना कि नहीं प्रसन्न होना; चलते आदमी भी एक, एक क्षणभर को दूसरे को देख लेते हैं। आज दिन सुख में बिताना कि दुख में बिताना। और मैं अकसर तो ठीक है। लेकिन लौट-लौटकर देखने लगे, खड़ा ही हो जाये हमेशा ही सुख का ही विकल्प चुनता हूं। क्यों चुनूं दुख का और देखने लगे, आंखें गड़ा ले...। तो तुमने कभी खयाल विकल्प? सार क्या है? इसलिए मैं प्रसन्न हूं। किया, कोई आदमी अगर तुम्हें आंखें गड़ाकर देखे तो तुम्हें तुम जरा करके देखना। सुबह उठकर पहला निर्णय यही करना बेचैनी होती है। यहां तक कि अगर कोई आदमी तुम्हारे पीछे कि आज दिन प्रसन्न ही रहना है। और तुम अचानक पाओगे खड़ा हो और पीछे से भी आंखें गड़ाकर तुम्हें देखे तो भी तुम्हें प्रसन्नता की बहुत-सी घटनाएं घटने लगीं। वह वैसे भी घटतीं, बेचैनी होगी; हालांकि तुम उसे देख नहीं रहे, लेकिन तुम्हें पता लेकिन तुमने अगर दुखी होने का निर्णय किया था...जैसा चल जायेगा कि वह आंखें गड़ाये है। निन्यानबे लोग किये बैठे हैं। निन्यानबे प्रतिशत लोग सोचते हैं | तुम इसका प्रयोग करके देखना ! ट्रेन में, बस में किसी के पीछे Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः खड़े हो, उसकी चैथी पर आंखें गड़ाकर देखना जरा थोड़ी 'आत्मा ज्ञायक-रूप में ही ज्ञात है और वह शद्ध अर्थ में देर-एक दो तीन मिनट। वह फौरन लौटकर देखेगा और क्रोध ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है।' से देखेगा। मनोवैज्ञानिक ने इस पर बहुत-से प्रयोग किये हैं। । यह बहुत मूलभूत बात है। इसको शाब्दिक जाल में खो मत क्या मामला है? आदमी किसी के गौर से देखने को, बेचैन देना। इसको ज्ञान के दांव-पेचों में मत खो देना। क्योंकि इस पर क्यों हो जाता है, बर्दाश्त क्यों नहीं करता? क्योंकि जब भी कोई बड़े दांव-पेंच चलते रहे हैं। पंडितों ने बड़े अर्थ किये हैं, बड़ी तुम्हें गौर से देखता है, बहुत गौर से देखता है, तो वह तुम्हें वस्तु व्याख्याएं की हैं-पक्ष-विपक्ष में। क्योंकि पंडितों का अपना में रूपांतरित कर देता है। वह तुम्हारे ज्ञायक-स्वभाव को नष्ट हिसाब है। वे कहते हैं, ज्ञायक, बिना ज्ञेय के ज्ञायक अकेला हो करता है। वह तुम्हें ज्ञेय बना देता है, आब्जेक्ट। जैसे कुर्सी को कैसे सकता है? तर्कगत संदेह उठाते हैं, जब ज्ञेय नहीं है तो कोई देख रहा है, मकान को कोई देख रहा है, वृक्ष को कोई देख ज्ञायक कैसा? जब ज्ञान नहीं है तो ज्ञायक कैसे? रहा है-ऐसे ही जब तुम्हें कोई देखता है, तब तुम्हारा तो दार्शनिकों का एक समूह रहा है जो कहता है, जब ज्ञेय और ज्ञायक-स्वरूप नष्ट होता है। तुम्हें ऐसा लगता है कि मुझे वस्तु ज्ञान खो जायेंगे, तो ज्ञायक भी खो जायेगा, अंधकार छा समझा जा रहा है; जैसे मैं कोई देखने की वस्तु है। | जायेगा। शायद तर्क से उनकी बात ठीक भी लगती हो। लेकिन हां, कोई तुम्हें बहुत प्रेम से देखे तो बेचैनी नहीं होती। जिससे जो अनुभव है, वह तर्क के थोड़े बाहर है। और महावीर को तर्क तुम्हारा लगाव हो, तो बेचैनी नहीं होती। क्योंकि तुम जानते हो, | में कोई रस नहीं है। वह सिर्फ वक्तव्य दे रहे हैं, जो उन्होंने जाना वह तुम्हारे शरीर को नहीं देख रहा। तुम जानते हो, वह तुम्हें है। मैं भी तुमसे कहता हूं, ज्ञायक बच रहता है। ज्ञान भी खो वस्तु नहीं बना रहा। तुम जानते हो, उसकी आंखें तुम्हारे जाता है। ज्ञेय भी खो जाता है। ज्ञायक-स्वभाव को खोज रही हैं; तुम्हारी अंतरात्मा को खोज और इसलिए अगर खोजना हो तो तर्कजाल में मत पड़ना। रही हैं। उसकी आंखें तुम्हारे भीतर जाकर तुम्हारी खोज में हैं। थोड़ी साधना की दिशा में कदम उठाना। तुम, जिसको कि विषय-वस्तु बनाया नहीं जा सकता, वह उसके | अल्फाज के पेचों में उलझता नहीं दाना साथ संग-साथ जोड़ने की आकांक्षा रखता है। इसलिए प्रेम के | गव्वास को मतलब है सदफ से कि गहर से क्षण में ही आंख बेहूदी नहीं मालूम पड़ती। अन्यथा आंख, अगर शब्दों की उलझनों में समझदार नहीं उलझता। गौर से कोई देखता चला जाये तो हिंसक हो जाती है; अभद्र अल्फाज के पेचों में उलझता नहीं दाना। मालुम होने लगती है; शिष्टाचार के बाहर हो जाती है। -वह जो बुद्धिमान है, वह शब्दों के दांव-पेंच में नहीं जब भी किसी व्यक्ति को देखो तो उसे वस्त बनाने की चेष्टा उलझता।। मत करना। अन्यथा तुम हिंसा से देख रहे हो। किसी व्यक्ति को गव्वास को मतलब है सदफ से कि गुहर से। साधन की तरह मत देखना, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, -वह जो गहरा गोता लगानेवाला है, उसे मतलब मोतियों से परम साध्य है। किसी व्यक्ति को ऐसा मत देखना कि इसका है या सीपियों से? वह मोती तलाशता है। जैसे मोती सीपी में क्या उपयोग है, कि यह आदमी पद पर है, काम पड़ेगा, जय राम | छिपे होते हैं, लेकिन सभी सीपियों में नहीं छिपे होते; कुछ जी कर लो; कि यह आदमी पद पर है, थोड़ी खुशामद करो; कि सीपियां खाली होती हैं, कोई मोती नहीं होता-कुछ शब्द खाली इस आदमी के पास धन है, कभी जरूरत पड़ सकती है कि यह होते हैं, उनमें कोई मोती नहीं होता। पंडितों के शब्द सीपियों की आदमी शक्तिशाली है, दोस्ती बनाना काम की बात होगी। तरह हैं; उनमें कोई मोती नहीं होता। क्योंकि मोती तो अनुभव से किसी व्यक्ति को जब तुम साधन की तरह देखते हो, तब भी ढालना होता है। मोती तो प्राणों से ढालना होता है। ये महावीर तुम हिंसा कर रहे हो। क्योंकि वह ज्ञायक-स्वरूप जो भीतर के वचन सीपियां नहीं हैं। मोती हैं, और तुम इन मोतियों का अर्थ छिपा है, साध्य है-आत्यंतिक साध्य है। उसे साधन नहीं | तभी समझ पाओगे, जब तुम भी इन्हें ढालने में लगोगे। बनाया जा सकता। मेरे देखे, जब तक तुम किसी अर्थ में महावीर जैसे न होने लगो 4201 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मूल भित्ति : अभय तब तक तुम महावीर को न समझ पाओगे। समझने का एक ही तो कृष्ण की गीता न होती, शायद भीष्म पितामह की कोई गीता उपाय है : जिसे तुम समझने चले हो, उस जैसे होने लगो। होती तो होती। 'मैं आत्मा न शरीर है, न मन हं, न वाणी है, और न उसका | अगर रावण जीता होता तो रामायण नहीं होती हो नहीं कारण हूं। मैं न कर्ता हूं, न करानेवाला हूं और न कर्ता का सकती थी। कौन लिखता? हारे हुए के लिए कौन लिखता! अनुमोदक ही हूं।' जीते के सब संगी-साथी हैं, हारे के कौन साथ है? तब रामायण णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। के विपरीत, बिलकुल विपरीत रावण की कोई कथा होती, जिसमें कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीण।। रावण तो धार्मिक होता और राम अधार्मिक होते। -न शरीर, न मन, न वाणी, न उनका कारण, न उनका कर्ता, तुम थोड़ा सोचो। विभीषण ने धोखा दिया है, गद्दारी की है; न करानेवाला और न कर्ता का अनुमोदक ही हूं। लेकिन राम-भक्त कहता है, 'भक्त विभीषण! राम का प्यारा कल हम गीता की बात करते थे। कृष्ण कहते हैं, तम केवल विभीषण।' लेकिन अगर रावण जीतता और कथा लिखी गई उपकरण हो जाओ। महावीर कहते हैं, उपकरण भी नहीं। अगर होती, तो विभीषण गद्दारों का गद्दार सिद्ध होता, धोखेबाज, तुम उपकरण भी हुए तो तुम कुछ तो हुए! सहारा तो दिया! | बेईमान, मीरजाफर का आदिगुरु सिद्ध होता। साधन तो बने! तो महावीर कहते हैं, न तो तुम कर्ता, न कौन लिखता है कहानी, इस पर निर्भर करता है। और जो भी करानेवाला हो, न कर्ता का अनुमोदक। उपकरण की तो बात कहानी लिखेगा, वह यह मानकर चलेगा कि मैंने जो किया वह दूसरी, तुम अनुमोदन भी मत करना। तुम यह भी मत कहना कि परमात्मा चाहता था। हां, यह ठीक है। अगर कोई आदमी किसी की हत्या कर रहा है। महावीर आदमी की बेईमानी को जानते हैं। आदमी बड़ा तो तुम यह भी मत कहना कि हां, यह ठीक है। अनुमोदन भी मत | धोखेबाज है! वह जो खुद करना चाहता है परमात्मा के नाम पर करना। कहने की बात नहीं है, मन में भी मत सोचना कि हां, यह थोप देता है। अगर हिटलर जीतता तो कथा बिलकुल और ठीक है। मन में सोचने की बात भी नहीं है। तुम्हारे भीतर होती। चर्चिल जीता, कथा और हुई। कथा कौन लिखता है, इस जरा-सा भी भाव उठे, जरा-सी भी लहर उठे कि नहीं, यह गलत पर निर्भर करती है। तो नहीं है, यह जरूरी था तो भी पाप हो गया। महावीर कहते हैं, इन जालों में मत पड़ना। तुम्हें क्या पता कृष्ण कहते हैं, 'अधर्म के विनाश के लिए, पाप के विनाश के परमात्मा की क्या मर्जी है? तुम कैसे निर्णय करोगे कि यही लिए अर्जुन! तू उपकरण बन।' लेकिन महावीर कहते हैं, परमात्मा की मर्जी है? अर्जुन जीते, अर्जुन का पक्ष जीते-यह उपकरण हिंसा का बनना किसी भी कारण से घातक है। परमात्मा की मर्जी है, तुम कैसे निर्णय करोगे? । खतरनाक है। और आदमी के मन का भरोसा क्या? क्योंकि हर आदमी जीतना चाहता है। और हर आदमी अपने जीतने के अकसर तो यह होता है, तुम जो करना चाहते हो, उसको तुम | लिए सब कुछ करना चाहता है। और मान लेगा कि यही परमात्मा के नाम से करने लगते हो। परमात्मा की मर्जी है, मुझे जिताना चाहता है। आदमी बड़ा बेईमान है! इसलिए दुनिया में इतने युद्ध होते हैं। पिछले महायुद्ध में एक जर्मन और एक अंग्रेज जनरल की बात दोनों पक्ष कहते हैं कि परमात्मा का काम कर रहे हैं। दोनों पक्ष हुई। जर्मन हारने शुरू हो गये थे और उस जनरल ने अंग्रेज कहते हैं, हम धर्म-युद्ध कर रहे हैं। अब यह तो हम चूंकि जनरल को पूछा कि तुम जीतना शुरू हो गये हो, कैसे जीते चले महाभारत हुआ और पांडव जीते, इसलिए जो इतिहास हमारे जा रहे हो, राज क्या है? उस जनरल ने कहा, 'राज साफ है। पास है वह एकतरफा है। | हम रोज युद्ध करने के पहले परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। सोचो थोड़ा, कौरव जीते होते तो क्या यह इतिहास यही परमात्मा हमारे साथ है।' होता? कौरव जीते होते तो उन्होंने सिद्ध किया होता कि पांडव उस जर्मन ने कहा, यह तो कोई बात जंचती नहीं, क्योंकि हारे क्यों, क्योंकि वे अधार्मिक थे। और कौरव अगर जीते होते प्रार्थना तो हम भी करते हैं युद्ध के पहले, और हम भी मानते हैं www.jainelibrarorg Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 जिन सूत्र भाग : 1 कि परमात्मा हमारे साथ है। वह अंग्रेज हंसने लगा। उसने कहा कि तुम्हें एक बात समझनी चाहिए : किसी ने कभी सुना कि परमात्मा जर्मन भाषा जानता ? किस भाषा में करते हो प्रार्थना ? अंग्रेज सोचता है, परमात्मा अंग्रेजी जानता है । संस्कृत के पंडित कहते हैं, संस्कृत देववाणी है।... वह प्रभु की भाषा है! और बाकी सब भाषाएं, वे देववाणियां नहीं हैं! अपनी भाषा को देववाणी मान लेना बड़ा सुगम है। और अपनी आकांक्षा को परमात्मा की आकांक्षा मान लेना बहुत सुगम है। और अपने अहंकार को परमात्मा की आड़ में छिपा ना बहुत सुगम है। महावीर आदमी को कोई धोखे का उपाय नहीं देना चाहते। वे कहते हैं, तुम धोखेबाज हो, यह तो जाहिर है, क्योंकि जन्मों-जन्मों से भटक रहे हो, अनेक तरह से अपने को धोखा दे लेते हो । 'मैं न शरीर हूं, न मन हूं, न वाणी हूं और न उनका कारण हूं। मैं न कर्ता हूं, न करानेवाला हूं, न कर्ता का अनुमोदक हूं।' जब तक इतनी प्रगाढ़ता तुम अपने आत्यंतिक स्वरूप को सभी तादात्म्यों से बाहर न कर लोगे, तब तक तुम उस शुद्ध-बुद्ध अवस्था को न पहुंच सकोगे, जिसको महावीर 'जिनत्व' कहते हैं । बुद्ध मंदिर बनवाये, इससे क्या लाभ होगा? और मैं लाखों बौद्ध भिक्षुओं को भिक्षा देता हूं, राज्य उनका पालन करना है – इससे मुझे कितना पुण्य हुआ है ? दूसरों से भी उसने पूछा था, लेकिन दूसरे तो दुकानदार थे; उन्होंने कहां, महापुण्य हो रहा है, स्वर्ग में तुम्हारे लिए विशेष इंतजाम होगा। उन्होंने हजार तरह की बातें समझाई होंगी। सातवें स्वर्ग में जाओगे । पुण्य की राशि लगी जा रही है। इंद्र बनोगे ! लेकिन यह बोधिधर्म थोड़ा उजड्डु, सीधा-साफ आदमी था। उसने कहा, 'लाभ! दिमाग दुरुस्त है ? यह तुमने पूछा इसके कारण पाप लगा। तुम नर्क में पड़ोगे ।' सम्राट वू थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा कि नर्क में! तो बोधिधर्म ने कहा, कि लाभ की आकांक्षा से किया गया दान, दान नहीं है। लाभ की जरा-सी भी रेखा बच गई तो दान विकृत हो गया। फिर भी सम्राट वू ने कहा कि मैंने जो किया है, क्या वह पवित्र नहीं है, धार्मिक नहीं है। बोधिधर्म ने कहा, धर्म का पवित्रता से क्या लेना-देना? धर्म तो पवित्रता से भी मुक्त है। वह अपवित्र और पवित्र, वह सब संसार की बातें हैं । नाराज हुआ सम्राट, प्रसन्न न हुआ। क्योंकि ऐसे आदमी से कौन प्रसन्न होता है ! हम लोभ को ऐसा पकड़े हैं कि अगर हमसे दान भी करवाना हो तो हमारे लोभ को फुसलाना पड़ता है। हम तो ऐसे भयभीत हैं कि हमें अगर निर्भय बनाना हो, तो भी हमारे भय को ही सुशिक्षित करना होता है। हमारा जीवन बड़ी उलटी दशा में है। जिंदगी तो जिंदगी, हम मर भी जाते हैं, तो भी हमारी आशाओं का ढांचा नहीं बदलता । मेरी खाक पर साज़े- इकतार लेकर उम्मीद अब भी एक गीत-सा गा रही है हमारी तो त्याग में भी भोग की वासना बनी रहती है। और हम तो वासना भी छोड़ते हैं तो भी किसी वासना को पूरा करने के लिए ही छोड़ते हैं। हम तो दान भी करते हैं तो लोभ के कारण करते हैं। गंगा के किनारे बैठे हुए पंडित-पुरोहित लोगों को समझाते हैं : 'यहां एक दो, एक करोड़ पाओगे वहां ।' कोई हिसाब भी होता है! एक से एक करोड़ का कोई संबंध बनता है ? लेकिन जब लोभ को ही जगाना है तो अतिशयोक्ति करने में हर्ज क्या है! एक पैसा यहां दान दो, एक करोड़ पाओगे ! कुछ तो थोड़ा ब्याज का खयाल रखो। यह तो जरा अतिशयोक्ति हो गई। लेकिन मतलब एक करोड़ पाने से थोड़े ही है, तुमसे एक निकलवा लेने से है । और जानते हैं कि तुम लोभी हो, तुम तो दान भी लोभ के कारण करोगे। दान भी तुम करते हो तो पहले पूछ लेते हो, इससे मिलेगा क्या? मर जाते हैं, कब्रें बन जाती हैं, तो भी कब्र पर तुम बैठा हुआ पाओगे : वही पुरानी आशा इकतारा बजा रही है - वही कामना, वही वासना, वही लोभ, वही मोह ! 'आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला तथा परकीय ( आत्म-व्यतिरिक्त) भावों को जाननेवाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा जो यह कहेगा, यह मेरा है ?' महावीर कहते हैं, अज्ञान का आधार है यह कहना कि 'यह मेरा है।' ममत्व, 'मैं' को जोड़ लेना किसी भी चीज से, आत्मा बोधिधर्म चीन पहुंचा, तो चीन के सम्राट ने पूछा कि मैंने हजारों का तादात्म्य बना लेना किसी चीज से यही समस्त अधर्म का Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मूल भित्तिः अभयः आधार है। तो वह कहते हैं, शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला ऐसा जायेगी कि यह आदमी इस गाय के पीछे जायेगा? उन्होंने कहा, कौन ज्ञानी होगा, जो यह कहेगा 'यह मेरा है?' 'मेरा' अज्ञान अगर रस्सी काट दी तो गाय तो इस आदमी के पीछे जानेवाली है-घनीभूत अज्ञान! कहो, मेरा मकान। कहो, मेरी दुकान। नहीं; यह तो रस्सी में भी मुश्किल से जाती मालूम पड़ रही है। या कहो, मेरा मंदिर। या कहो, मेरा धर्म। कहो, मेरा बेटा! या यह आदमी ही गाय के पीछे जायेगा। कहो, मेरा गुरु। लेकिन जहां भी 'मेरा' है और जोर 'मेरे' पर तो उस फकीर ने कहा, रस्सी के धोखे में मत पड़ो! इस गाय है, वहां-वहां अज्ञान है। 'मेरे' का दावा ही अज्ञान का है। को इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। इस गाय ने कोई कुछ भी तुम्हारा नहीं है-सिवाय तुम्हारे। तादात्म्य इस आदमी से नहीं बनाया है; इस आदमी ने तादात्म्य महावीर इस संबंध में बड़े आत्यंतिक हैं और साफ हैं। सिवाय बनाया है गाय से। तो गुलाम यह आदमी है, गाय नहीं। तुम्हारे और कोई भी तुम्हारा नहीं है। तुम्हारा होना ही बस तुम्हारा जब तुम कहते हो, 'यह मेरा मकान', तो तुम यह मत सोचना है। उसी को लेकर तुम आये, उसी को लेकर तुम जाओगे। कि मकान भी कहता है कि 'तुम मेरे मालिक।' मकान ऐसी बाकी तो खेल है। कोई पत्नी है, कोई पति है; कोई मित्र है, कोई भूल-चूक नहीं करेगा। मकान इतने अज्ञानी नहीं हैं। मकान को शत्रु है; कोई अपना है, कोई पराया है लेकिन बाकी सब खेल | मतलब ही नहीं है। अगर मकान को थोड़ा होश होता तो वह है। जहां तुम ठहरे हो, यहां 'मेरा' कुछ भी नहीं है। हंसता। वह मुस्कुराता तुम्हारी नासमझी पर। वह शायद तुम्हें धर्मशाला है। रात रुक गये, ठीक। सुबह चलना है, चल क्षमा कर देता कि ठीक है, अज्ञानी हो, चलेगा। लेकिन मकान पड़ना है। तो महावीर कहते हैं, 'मेरा' जिसने छोड़ दिया उसका को तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम नहीं थे, तब भी यह अज्ञान गिर जायेगा। मकान बना रह सकता था। तुम नहीं रहोगे, तब भी बना रहेगा। _ 'मेरा' का अर्थ हआ कि आत्मा को हम किसी चीज से जोड़ते इब्राहीम सम्राट था बल्ख का। एक फकीर उसके द्वार पर हैं। जब तुम कहते हो, 'मेरा मकान', तो कौन-सी घटना घटती आया और झंझट करने लगा कि मुझे इस महल में ठहरना है। है। मकान को तो कुछ परिवर्तन नहीं होता, यह तो जाहिर है। लेकिन वह 'महल' नहीं कह रहा था। वह कहता था, यह तुम मर जाओगे, मकान रोयेगा नहीं। मकान गिर जायेगा तो तुम | 'सराय' में मुझे ठहरना है। बड़े जोर-जोर से लड़ रहा था वह रोओगे। एक बात पक्की है, जब तुम कहते हो, 'मेरा मकान', पहरेदार से। तो कोई परिवर्तन तुममें होता है, मकान में नहीं होता। मकान तो पहरेदार ने कहा, हजार दफे कह दिया यह धर्मशाला नहीं, वैसा का वैसा बना रहता है। | सराय नहीं। सराय गांव में दूसरी है। यह राजा का महल है। यह एक सूफी फकीर अपने विद्यार्थियों को लेकर जा रहा था और राजा का खुद का निवास है। तुम होश में हो? तुम क्या बातें कर राह पर उसने देखा कि एक आदमी गाय को रस्सी से बांधे खींचे रहे हो? यह कोई ठहरने की जगह नहीं।। लिये जा रहा है। तो उसने अपने विद्यार्थियों को कहा, घेर लो इस तो उसने कहा, फिर मैं राजा को देखना चाहता हूं। इब्राहीम भी आदमी को, एक शिक्षा देनी है। वह आदमी भी थोड़ा चौंका, | भीतर से सुन रहा था-बड़े जोर से। और उस फकीर की लेकिन अवाक खड़ा रह गया कि क्या मामला है, क्या शिक्षा है। आवाज में कुछ जादू था, कुछ चोट थी। वह जिस ढंग से कह वह सूफी फकीर ने अपने शिष्यों से कहा, 'मैं तुमसे पूछता हूं कि रहा था, ऐसा नहीं लगता था कि सिर्फ जिद्दी, कोई पागल है। इनमें गुलाम कौन किसका है? यह आदमी इस गाय का गुलाम उसके कहने में कुछ रहस्य मालूम होता था। उसने कहा, उसे है कि गाय इस आदमी की गुलाम?' स्वभावतः शिष्यों ने कहा बुलाओ भीतर। वह फकीर भीतर आया और उसने कहा, 'कौन कि गाय इस आदमी की गुलाम है, क्योंकि इस आदमी के हाथ में राजा है? तुम!' वह सिंहासन पर बैठा था, उसने कहा कि गाय की रस्सी है और यह जहां चाहे वहां ले जा सकता है। सूफी साफ है कि मैं राजा हूं। और यह मेरा निवास है और तुम व्यर्थ फकीर ने कहा, तुमने बहुत ऊपर से देखा। अब ऐसा समझो कि पहरेदार से झंझट कर रहे हो। हम यह रस्सी बीच से काट दें तो गाय इस आदमी के पीछे उसने कहा, बड़ी हैरानी की बात है। मैं पहले भी आया था, 4231 ] Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AHATTINE जिन सूत्र भाग: 1HITTERRIT तब एक दूसरा आदमी इस सिंहासन पर बैठा था और वह भी जाननेवाला है। और जिसने यह जान लिया कि मेरा कुछ भी नहीं यही कहता था। | है, उसी को पता चलेगा मैं कौन हूं। उस राजा ने कहा, वे मेरे पिता थे, वे अब स्वर्गवासी हो गये। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कैसे पता चले कि मैं उसने कहा, उनके पहले भी मैं आया था, तब एक तीसरा ही कौन हं। सीधी प्रक्रिया है : 'मेरे' को शिथिल करते जाओ। आदमी बैठा था। और हर बार पहरेदार भी बदल जाते हैं। जहां-जहां 'मेरे' को पाओ, वहां-वहां रस्सी को काटते जाओ। आदमी भी बदल जाते हैं। यह मकान वही है। और हर बार जब कुछ छोड़कर भाग जाने की भी जरूरत नहीं है कि तुम घर मैं आता हूं, तब यही झंझट! छोड़कर भागो। क्योंकि छोड़कर भागने में तो ऐसा लगता है कि उसने कहा, वे हमारे पिता के पिता थे, वे भी स्वर्गवासी हो | काट न पाये, डरकर भाग गये। डर लगा कि रहे तो कहीं 'मेरा' गये। हो ही न जाये यह मकान! कहीं लगने न लगे कि मेरा है! तो तो उसने इब्राहीम से पूछा, 'जब मैं चौथी बार आऊंगा, तुम जंगल भाग गये, जंगल में क्या होगा? जिस झाड़ के नीचे मुझे यहां मिलोगे, इस सिंहासन पर, कि फिर कोई और | बैठोगे, वही तुम्हारा हो जायेगा। मिलेगा? जब इतने लोग यहां बदलते जाते हैं, इसलिए तो मैं | तुमने देखा, भिखारी भी जिस जगह पर बैठता है सड़क के, कहता हूं यह सराय है, धर्मशाला है। तुम भी टिके हो थोड़ी देर; वह उसकी हो जाती है। अगर दूसरा भिखारी वहां आ जाये, मेरे टिक जाने में क्या बिगड़ रहा है? सुबह हुई, तुम भी चल झगड़ा हो जाता है, अब कुछ नहीं है। चलती सड़क है, किसी पड़ोगे, हम भी चल पड़ेंगे। की नहीं है, सार्वजनिक है। मगर भिखारियों के भी अड्डे होते हैं। कहते हैं इब्राहीम को बोध हुआ। वह सिंहासन से नीचे उतर जो भिखारी जिस जगह बैठता है, वह उसकी दुकान है। आया और उसने कहा कि तूने मुझे जगा दिया। अब तू रुक, मैं एक आदमी एक भिखारी के सामने से गुजर रहा था। वह चला। अब यहां रुककर भी क्या करना है। जहां से सुबह जाना | भिखारी चिल्लाया, 'बाबा! कुछ पैसे मिल जायें, सिनेमा देख पड़ेगा, इतनी देर भी क्यों गंवानी! आऊंगा।' और सामने तख्ती लगा रखी थी कि मैं अंधा हूं। उस इब्राहीम ने छोड़ दिया राजमहल। इब्राहीम सूफियों का एक आदमी ने पूछा, तुम अंधे हो? तो उसने कहा कि नहीं, असल में बड़ा फकीर हो गया। यह दुकान दूसरे भिखारी की है। वह आज छुट्टी पर है। मैं अंधा मेरा मकान! मेरा बेटा! मेरा धन! मेरा धर्म! जहां-जहां तुम नहीं हूं, मैं लंगड़ा हूं। यह दुकान दूसरे की है, मैं तो सिर्फ आज 'मेरे' को फैलाते हो, वहां-वहां तुम्हारा 'मैं', झूठा 'मैं' खड़ा बैठा हूं, क्योंकि वह छुट्टी पर है। और मौके की दुकान है। तो होता है। जो 'मैं' 'मेरे' के फैलाव से बनता है, उसीको | जब वह छुट्टी पर होता है तो मुझे बिठा जाता है। महावीर अहंकार कहते हैं। और जो 'मैं' सब 'मेरे' के टूट तुम अगर जाओ जंगलों में, हिमालय की गुफाओं में, जहां जाने पर बचता है, उसको महावीर आत्मा कहते हैं। तो अभी तो संसार छोड़कर बैठे हैं संन्यासी, उनकी भी गुफाएं हैं: दूसरा न तुमने जो अपना 'मैं' जाना है, वह 'मैं' नहीं है। वह तो तुम्हारी बैठे। अगर दूसरा बैठ जाये, झगड़ा मच जाता है। तो क्या फर्क और गाय के बीच में बंधी हुई रस्सी है। वह तुम्हारी अंतरात्मा पड़ेगा? मकान छूटेगा, गुफा अपनी हो जायेगी। गुफा छूटेगी, नहीं है। वह तो तुम्हारे मकान पर लगी हुई तुम्हारे अहंकार की सड़क के किनारे बैठ जाओगे तो वह टुकड़ा अपना हो जायेगा। छाप है। तुम कहां अपने को लगाते हो, यह थोड़े ही सवाल है। कहीं भी इसलिए महावीर कहते हैं: तो चिपकाओगे उस 'मैं' को! बस जहां चिपका दोगे, वही को णाम भणिज्ज बुहो, णाउं सव्वे पराइए भावे। झंझट हो जायेगी। मज्झमिणं ति य वयणं, जाणतो अप्पयं सद्धं ।। लोग धर्म से भी चिपका देते हैं। मेरा मंदिर! हिंदु कहते हैं, 'ऐसा कौन है जाननेवाला, जो कहेगा यह मेरा है?' | हमारा! मुसलमान की मस्जिद, वे कहते हैं, हमारी! हिंदू को रस तो जिसने यह जान लिया कि मेरा कुछ नहीं है, वही आता है मुसलमान की मस्जिद गिर जाये तो। 1424 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vavi tor पर्म की मूल भित्तिः अभय S R एक हिंदू पंडित में और एक मुसलमान मौलवी में बड़ी दोस्ती के लिये है। इसकी क्षणभंगुरता को गौर से देखते रहो, तो तुम थी। मौलवी नयी मस्जिद बनाने के लिये योजना कर रहा था इसे 'मेरा' न कहोगे। और दान मांग रहा था। उसने मित्रों को भी पत्र लिखे। उसने उस तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल! पंडित को भी पत्र लिखा कि मस्जिद बनाने के लिए चेष्टा कर रहे | और दिल की जो गहन शांति है, वह जो आत्म-शांति है, हैं, कुछ दान! पंडित ने पत्र लिखा कि यह तो असंभव है; मैं हिंदू | वासना के त्याग से ही मिलेगी: ममता के त्याग से ही मिलेगी। हूं और मस्जिद बनाने के लिए दान दूं, यह तो संभव नहीं है। हां, दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या! पुरानी को गिराने के निमित्त सौ रुपये भेज रहा हूं। पुरानी 'मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं तथा ज्ञान-दर्शन से गिराओगे न, नयी बनाने के पहले! मेरा दान पुरानी को गिराने के परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर लिये है। इसका उपयोग भर गिराने में कर लेना। बनाने के लिए मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' तो मैं कैसे दे सकता हूं! अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदं सणसमग्गो। मस्जिद गिर जाये, हिंदू प्रसन्न है। मंदिर जल जाये, मुसलमान तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि।। प्रसन्न है। किसी को परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है, . "मैं एक हूं...।' अपना-अपना है। अगर तुम्हारे परमात्मा पिट रहे हों तो कोई | __ एक-एक शब्द समझना इस सूत्र का। महावीर कहते हैं, मैं बचाने भी न आयेगा। लोग खुश ही होंगे कि अच्छा है, तुम्हारे एक हूं। तुम न कह सकोगे कि तुम एक हो। तुम तो अगर गौर ही पिट रहे हैं। | करोगे, तो पाओगे तुम एक भीड़ हो। तुम अनेक हो। तुम तो जबलपुर में गणेश-उत्सव पर गणेशों का जुलूस निकलता है, एक बाजार हो। एक उपद्रव हो, जिसके भीतर कई स्वर हैं। शोभा-यात्रा निकलती है। और हर मुहल्ले के गणेशों की जगह महावीर ने कहा, साधारणतः मनुष्य 'बहुचित्तवान' है। इस बंटी हुई है। तो पहले ब्राह्मणों के टोले का गणेश होता है, फिर | शब्द का प्रयोग अकेले महावीर ने किया है पच्चीस सौ साल दसरे टोले। फिर ऐसे पीछे आखिर में हरिजन टोले। पहले। अब आधुनिक मनोविज्ञान इस शब्द का उपयोग करता एक बार ब्राह्मणों का टोला आने में थोड़ी देर हो गई और है। वह कहता है: मल्टीसाइकिक, बहुचित्तवान। एक-एक तेलियों के गणेश पहले आ गये। तो जब ब्राह्मणों के गणेश आदमी के पास एक-एक मन नहीं है; एक-एक आदमी के पास पहुंचे, ब्राह्मणों ने कहा, 'हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों न मालूम कितने मन हैं! का गणेश और आगे!' | तुम अकसर कहते हो कि यह मेरे मन को नहीं भाता। लेकिन हां, गणेश भी तेलियों के, ब्राह्मणों के अलग-अलग हैं! तुमने कभी खयाल किया कि सुबह जो तुम्हारे मन को नहीं तेलियों का गणेश, हटाओ पीछे। यह तो बेइज्जती की बात हो भाता। वही शाम को भाने लगता है! आज जो अच्छा लगता है, गई। और तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा। कल बुरा लगने लगता है। क्षणभर पहले जो प्रीतिकर था, अब हिंदू-मुसलमान के देवी-देवता तो छोड़ो, हिंदू के भी शत्रु मालूम होने लगता है। तो तुम सोचते नहीं कि तुम्हारे भीतर देवी-देवता! तेली और ब्राह्मण के अलग हो जाते हैं। बहुत मन हैं; एक मन नहीं है। अगर एक मन हो तो तुम्हारा प्रेम सब जगह आदमी अपने अहंकार की पताका लिये खड़ा रहता एकरस होगा। अगर एक मन हो तो तुम्हारा भाव थिर होगा। है। इस पताका को जो गिरा देता है वही आत्मा को जानने में | अगर एक मन हो तो बदलाहट न होगी। तुम्हारे भीतर शाश्वतता समर्थ होता है। होगी, चिरंतनता होगी। छोड़ो इस मेरे-तेरे को। सपनों में ज्यादा रस मत लो। लेकिन तुम तो एक भीड़ हो। गुरजिएफ कहता था, तुम एक तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल ऐसे घर हो जिसका मालिक तो सोया है और नौकर पाली बांध दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या! लिये हैं। क्योंकि सभी नौकर मालिक होना चाहते हैं। सभी एक इतना ही देखते रहो कि यहां जो है, दो दिन के लिये है, क्षणभर साथ तो हो नहीं सकते। और मालिक सोया है, तो नौकरों ने 425 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 पाली बांध ली है। आधा-आधा घड़ी को एक-एक नौकर | सरकार निर्मित करने की कोशिश करता है। मालिक हो जाता है। जब, जो नौकर मालिक होता है, उस वक्त । की तर्के-मय तो मायले-पिंदार हो गया उसकी चलाता है। फिर वह किसी की नहीं सुनता। मैं तौबा करके और गुनहगार हो गया। ठीक कहता है गुरजिएफ। ऐसी ही आदमी की दशा है। और तुमने कभी किसी चीज को न करने की कसम खाई? जब तुम क्रोध में हो, तब क्रोध की चलती है। यह तुम्हारा एक कसम खाते ही उसमें और रस आने लगता है। खाकर कसम नौकर है। और क्रोध में तुम ऐसी बातें कर जाते हो कि घड़ीभर देखो! चाहे इसके पहले कोई रस भी न रहा हो। कसम खाकर बाद जब क्रोध का राज्य जा चुका होगा, तब तुम पछताओगे। | देखो... क्योंकि तब दूसरा मालिक आ गया। वह मालिक कहेगा, 'यह की तर्के-मय तो मायले-पिंदार हो गया। क्या गलती कर ली? बड़ी भूल हो गई।' क्षमा मांगोगे। और जैसे ही कोई चीज त्यागी कि तुम्हारी कल्पना घोड़ों पर इस दूसरे मालिक के प्रभाव में तुम किसी को कह आओगे कि | सवार हो जाती है। और वह सोचती है, 'अरे भोग लो! पता अब कभी क्रोध न करूंगा। नहीं कितना मजा है, नहीं तो दुनिया क्यों इसके खिलाफ है? फिर गलती कर रहे हो। क्योंकि वह जो क्रोध करनेवाला है, कुछ न कुछ राज तो होगा ही। नहीं तो इतने लोग समझानेवाले जब मालकियत में फिर आयेगा, तब यह पश्चात्ताप काम न | हैं, कोई छोड़ता नहीं।' कल्पना घोड़े पर सवार हो जायेगी। आयेगा: यह आश्वासन काम न आयेगा। यह किसी और के | मैं तौबा करके और गनहगार हो गया। द्वारा दिया गया आश्वासन क्रोध क्यों पूरा करेगा? पश्चात्ताप करो। तुम कहो, अब कभी न करेंगे। और तत्क्षण कामवासना उठती है तो तुम उसके प्रभाव में हो जाते हो। फिर तुम्हारे भीतर गुनाह उठने लगेंगे। करने की आकांक्षा प्रबल सुबह उठकर मंदिर चले जाते हो, ब्रह्मचर्य की कसम खाने लगते होगी, जब भी तुम कहोगे अब न करेंगे। हो। भूल गये सांझ। फिर आयेगी सांझ। फिर कामवासना । उपवास करके देखो! उस दिन जैसा भोजन में रस लोगे, वैसा सिंहासन पर बैठेगी। फिर तुम अड़चन में पड़ोगे। कभी न लिया था। उस दिन भोजन ही भोजन करोगे। रात-दिन समझने की कोशिश करो। इन मनों में से कोई भी मन तुम्हारा | सपने ही सपने आयेंगे। जिस चीज को छोड़ोगे उसी की तरफ नहीं है। तुम तो अभी सोये हो। इन मनों में से किसी को चुनना कल्पना रसलीन होने लगती है। नहीं है, क्योंकि इनमें से चुना हुआ तो ठीक वैसा ही रहेगा जैसा संयमी बड़े अंतर्युद्ध में पड़ जाता है, गृहयुद्ध में पड़ जाता है। लोकतांत्रिक सरकार होती है-बहुमत की। लेकिन बहुमत का | ज्ञानी और संयमी में फर्क है। महावीर का जोर ज्ञानी पर है। कोई भरोसा है? आज जो इस पार्टी में है, कल दूसरी पार्टी में हो| महावीर कहते हैं, 'मैं एक है, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं तथा जाता है। आज जो मित्र है, कल शत्रु हो जाता है। वहां तो ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और रूप-रंग रोज बदलते रहते हैं। खेल चलता रहता है। जो तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' सरकार बनी दिखाई पड़ती है, वह किसी भी क्षण गिर जाती है। महावीर यह नहीं कहते कि मैं परकीय भावों का क्षय करके जिनकी कभी आशा न थी, वे सरकार में पहुंच जाते हैं, मालिक अपने स्वभाव में थिर होता हूं। महावीर कहते हैं, अपने स्वभाव बन जाते हैं। यह चलता रहता है। यह तो सागर में उठती लहरों में थिर होता हूं, इसलिए परकीय भावों का क्षय होता। जैसा खेल है। ___ 'मैं अपने स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर...।' तो अगर तुमने कोई कसम खाकर किसी तरह बहमत बना असली सवाल उस एक में तन्मय हो जाने का है; संसार के लिया, तो तुम मुश्किल में रहोगे। वह अल्पमत सदा उपद्रव | त्याग का कम, सत्य के अनुभव, सत्य के रस का ज्यादा है, सत्य खड़ा करता रहेगा। वह आंदोलन चलायेगा। वह झंझट पैदा | के स्वाद का ज्यादा है। करेगा। वह बहुमत को खिसकायेगा। संयमी और ज्ञानी के | 'मैं एक हूं...।' जीवन में यही फर्क है। संयमी अपने भीतर एक लोकतांत्रिक कौन है तुम्हारे भीतर एक? वासनाएं तो अनेक हैं? विचार 4261 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक हैं। देह भी एक नहीं है, क्योंकि देह भी रोज बदलती है। | बचपन में एक थी, जवानी में और है, बुढ़ापे में और होगी। और ये तो मोटे विभाजन हैं, अगर गौर से देखो तो रोज बदलती है। सुबह कुछ है सांझ कुछ है । देह हजार बार बदलती है। मन तो करोड़ बार बदलता है। यह कोई भी एक नहीं है । इन सबके भीतर अगर तुम एक को खोज लो, वह एक ही साक्षी - भाव है— ज्ञायक - भाव जिसको महावीर कहते हैं ज्ञाता - वह एक है । बचपन में भी वही था, जवानी में भी वही, बुढ़ापे में भी वही । सुख में, दुख में, क्रोध में, प्रेम में, करुणा में -- सब में वही । वह एक है । उस एक को जिसने पकड़ लिया उसने जीवन का आधार खोज लिया। उस एक पर जो अपने भवन को खड़ा करेगा, उसके शिखर मोक्ष तक उठ जायेंगे। 'मैं एक, शुद्ध, ममता - रहित, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण... ।' उस अंतरात्मा का एक ही लक्षण है: ज्ञान-दर्शन; जानने की, | देखने की क्षमता। बस इतना उसका स्वभाव है। आत्मा का इतना ही स्वभाव है : देखने-जानने की क्षमता। अगर जानो और देखो, इस क्षमता का उपयोग करो, तो संसार बन जाता है। अगर न जानो, न देखो, इस क्षमता को शुद्ध छोड़ दो, उपयोग मत करो, तो मुक्ति फलित हो जाती है। धर्म की मूल भित्ति: अभय तरंगें तो बहुत उठीं, लहरें तो बहुत आईं; लेकिन तट ! वह जगह न मिली, जहां सब लहरें शांत हो जाती हैं। उफ! तूफान तो बहुत रहे, आंधियां तो बहुत रहीं; लेकिन ऐसी कोई शरण न मिली, जहां सुख-चैन हो जाता है। नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये और सदा अधूरा-अधूरा रहा; कुछ मिला तो कुछ कम हो गया। नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। इस संसार में प्यास तो है, प्यार तो है; लेकिन न भाषा मिलती, न माध्यम मिलता, न द्वार मिलता । भटकती है रूह रेगिस्तानों में — प्यास के, अतृप्ति के असंतोष के । जो बाहर जायेगा तो ऐसा ही होगा। भीतर आते ही किनारा मिलता है। बाहर प्यास ही प्यास है, भीतर तृप्ति ही तृप्ति । मुझे ऐसा कहने दो कि बाहर प्यास ही प्यास है और तृप्ति बिलकुल नहीं; और भीतर तृप्ति ही तृप्ति है, प्यास बिलकुल नहीं। तो असली सवाल भीतर आने का है। आनंद तुम्हारा स्वभाव है। 'मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण 'अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर, मैं इन हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गए प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। -जैसी जिंदगी है, वहां सिर्फ प्यास है, तृप्ति नहीं है। प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली ! जिसे तुम संसार कहते हो, वह प्यास और प्यास और प्यास, मरुस्थल ! हां, दूर मरूद्यान दिखाई पड़ते हैं, पास पहुंचने पर मरूद्यान सिद्ध नहीं होते। वे सारी प्यासें, तड़फड़ाहटें दौड़, आपाधापी, वह बाहर का सारा जाल, सूखे कंठ, रोती आंखें - उन सबका त्याग होता चला जाता है, क्षय होता चला जाता है। उपनिषद ठीक महावीर की इस अंतर्दृष्टि को प्रगट करते हैं। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो । मैं सदा रहनेवाला, सनातन, सदा सदैव स्थिर रहनेवाला आत्मा हूं। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो । और जब तक कोई शाश्वत से न जुड़ जाये, क्षणभंगुर से कैसे सुख पाया जा सकता है? पानी के बबूलों को संपदा बनाने में प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली। दिखाई भी पड़े जल-स्रोत, तो भी सत्य सिद्ध न हुए मन के लगे हो । हाथ में नहीं आते, तब तक तो इंद्रधनुष उन पर बनते ही स्वप्न थे ! हैं; हाथ में आते ही फूट जाते हैं। नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली। उपनिषद कहते हैं : सतां हि सत्य । सत्पुरुषों का स्वभाव ही 427 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 सत्यमय होता है। उस शाश्वत की जो सदा से है और सदा रहेगा। और उस सत्य कोई बाहर की बात नहीं तुम्हारे स्वभाव की बात है। शाश्वत की वर्षा होते ही क्षणभंगुर से छुटकारा हो जाता है। सतां ही सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते। क्षणभंगुर को छोड़ना नहीं पड़ता। पानी के बबूलों को कोई और वे सदा उस भीतर के सत्य में रमते हैं। छोड़ता है? बोध आया-छूट गये! अज्ञान में पकड़ता है, ज्ञान वही महावीर कह रहे हैं तन्मय होकर, स्वभाव में स्थित, में छूट जाता है। अज्ञान में हम संसार को पकड़ते हैं, ज्ञान में हम परकीय भावों का क्षय करता हूँ। स्वयं को पकड़ लेते हैं। और जिसने स्वयं को पा लिया, उसने इसे थोड़ा प्रयोग में लाना शुरू करो। उठते-बैठते एक धागा सब पा लिया। और जिसने स्वयं को खोया, वह कुछ भी पा ले, भीतर सम्हालते रहो, जीवन के सारे मनके इसी धागे में पिरो लो। तो भी उसका पा लिया हुआ कुछ सिद्ध न होगा। एक न एक दिन उठो तो याद रखो कि मैं जाननेवाला हं, उठनेवाला नहीं। उठ तो वह रोयेगा। उसकी आंखें आंसुओं से भरी होंगी। शरीर रहा है। उठ तो मन रहा है। मैं सिर्फ जाननेवाला हूं। चलो आज वे मेरे गान कहां हैं? रास्ते पर, तो जानते रहो: चल तो शरीर रहा है, चल तो मन रहा टूट गई मरकत की प्याली है; मैं तो सिर्फ जान रहा हूं। जान रहा हूं कि शरीर चल रहा, मन लुप्त हुई मदिरा की लाली चल रहा। भोजन करो तो स्मरण रखो कि भोजन तो शरीर में पड़ | मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले रहा है, कि शरीर तृप्त हो रहा है, कि मन तृप्त हो रहा है; लेकिन अब सामान कहां हैं? मैं तो जाननेवाला हूं। अब वे मेरे गान कहां हैं? इस जाननेवाले के सूत्र को तुम जीवन के सारे मनकों में पिरो जगती के नीरव मरुथल पर दो। धीरे-धीरे यह तुम्हें स्वाभाविक होता जायेगा। तुम कुछ भी । हंसता था मैं जिनके बल पर करोगे, भीतर एक अहर्निश नाद बजता रहेगा : 'मैं ज्ञाता हूं।' चिर वसंत-सेवित सपनों के उस ज्ञाता में ही तुम एक हो जाओगें। उस ज्ञाता को जानते ही तुम मेरे वे उद्यान कहां हैं? संसार के पार हो जाओगे। अब वे मेरे गान कहां हैं? महावीर कहते हैं, जैसे कमल के पत्ते जल में रहते भी जल को | इसके पहले कि आंखें आंसुओं से भर जायें और हृदय केवल छूते नहीं, ऐसे ही फिर जो साक्षी-भाव को उपलब्ध हुआ, जल में राख का एक ढेर रह जाये, जागो! इसके पहले कि जीवन हाथ से रहते हुए भी जल को छूता नहीं। तुम फिर कहीं भी हो, तुम बह जाये, छिटक जाये, उठो! अवसर को मत खोओ! संसार के बाहर हो। संसार के भीतर भी तुम बाहर हो। फिर तुम जीवन अल्प है। उसे व्यर्थ में मत गंवा दो। मंदिर तुम्हारे भीतर भीड़ में खड़े भी अकेले हो। अभी तो तुम अकेले भी खड़े भीड़ में है। अगर समय का तुम ठीक उपयोग करना सीख जाओ, ही होते हो। | सामायिक सीख जाओ-मंदिर में प्रवेश हो जाये। और ये जो वचन हैं महावीर के, ये किसी दार्शनिक के वक्तव्य समय को संसार में लगाना और समय को संसार से मुक्त कर | नहीं हैं। ये किसी तत्वचिंतक की धारणाएं नहीं हैं। ये तो एक लेना-बस दो आयाम हैं। महासाधक के अनुभव हैं। इन्हें तुम अनुभव बनाओ, तो ही समय को संसार से मुक्त करो। समय को संसार की व्यस्तता इनका राज खुलेगा। इन्हें तुम प्रयोग बनाओ और इनके लिए तुम | से मुक्त करो! सामायिक फलित होगी! अपने में प्रवेश होगा! प्रयोगशाला बनो, तो ही ये सूत्र सत्य हो सकेंगे। आत्मधन मिलेगा! आत्मगीत बजेगा! आत्मा का नर्तन! तन्मय सतां हि सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते। होकर तुम डूबोगे! रमो इन सत्यों में। इन सत्यों को तुम्हारा स्वभाव बनने दो। तब तुम्हारे जीवन में उसकी वर्षा हो जायेगी आज इतना ही। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो। 428 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां प्रवचन पलकन पग पोंछे आज पिया के Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार आपको सुनने के बाद मुझे व्यवहारिक जीवन में शिथिलता आती है। लेकिन जब आप प्रेम और भक्ति पर बोलते हैं तो मन खिल जाता है। कृपाकर मुझे मेरा मार्ग दें। मेरे भीतर स्तब्धता, सन्नाटा-सा लग रहा है और साथ ही अच्छे-बुरे विचारों का आक्रमण भी। मैं अपने को बहुत असहाय पा रही हूं। भय लगता है! आप महावीर की अहिंसा पर, बुद्ध के शून्य पर, या कुछ भी बोलते हैं तो उसमें अनिवार्यतः प्रेम जोड़ देते हैं। क्या हम संन्यासियों में प्रेम का अत्यंत अभाव देखकर ही प्रेम का पुनः पुनः स्मरण कराते हैं? मुझे समर्पण में बहुत आनंद आता है, ज्ञान से थोड़ा अहंकार जगता है। मैं कौन-सा ध्यान करूं-बताने की कृपा करें। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न: आपको सुनने के बाद मुझे जो तुम्हारे लिए ठीक है, उसे भूलकर भी दूसरे पर आरोपित व्यवहारिक जीवन में शिथिलता और उदासी का मत करना। वहीं हिंसा शुरू हो जाती है। जो तुम्हारे लिए ठीक अनुभव होता है। लेकिन जब प्रेम और भक्ति, है, उसे जीना। और किसी को भी इतना अधिकार मत देना कि आनंद और उत्सव पर आप बोलते हैं, तब मन खिल जाता है। वह तुम्हारे ऊपर अपने ठीक को थोप पाये। क्योंकि वहीं से और आनंद से भर जाता है। कृपापूर्वक मुझे मेरा मार्ग दें। गुलामी शुरू हो जाती है। | न किसी को गुलाम बनाना, न किसी के गुलाम बनना तो ही आनंद कसौटी है। सत्य की चिंता छोड़ो। जहां आनंद है, उसी तुम धार्मिक हो सकोगे। दिशा में चल पड़ो। सत्य मिलेगा ही। असत्य की दिशा में | और कसौटी एक ही है हाथ में कि जहां तुम्हें आनंद की पुलक आनंद हो ही नहीं सकता। इसीलिए तो हमने आनंद को ब्रह्म की मिले, वहां सरकते जाना। अगर झूठा होगा आनंद-उस झूठे परिभाषा बनाया है। सच्चिदानंद! आनंद को ही हम सुख कहते हैं। आनंद कसौटी है। आनंद पर कभी संदेह मत करना। अगर | सुख का अर्थ है: जिसने धोखा दिया आनंद का, लेकिन था आनंद न होगा तो जल्दी ही पता चल जायेगा। झूठा आनंद नहीं। सुख का अर्थ है : जाकर पता चला आनंद नहीं है। दूर से ज्यादा देर टिकेगा नहीं। ढोल सुहावना मालूम पड़ा था। मगमरीचिका थी। दर से कुछ डूबो! जहां से आनंद की किरण आती है वहीं सूरज है सत्य और समझे थे, पास कुछ और सिद्ध हुआ। इसलिए मैं तुमसे का। तुम किरण को पकड़ लो और चल पड़ो। सत्य की चिंता ही सुख से भी भागने को नहीं कहता; क्योंकि अगर तुम भाग गये छोड़ो। किरण पकड़ ली तो सूरज की दिशा पर चल पड़े। और मृगमरीचिका को बिना देखे, तो सुख तुम्हारा सदा पीछा करेगा। आदमी के पास दूसरा कोई उपाय नहीं है। सत्य से ही पता मैं तुमसे कहता हूं, सुख में भी जाओ, ताकि वह दुख हो जाये। चलेगा, क्या ठीक है। क्योंकि जो ठीक है, वही जीवन को अगर वह दुख है तो दुख हो जायेगा और अगर दुख नहीं है तो संगीत और आनंद से भरता है। | वहीं से तुम्हारी परमात्मा की सीढ़ियां शरू होंगी। और जब मैं कहता हूं, जो ठीक है, तो मेरा प्रयोजन लेकिन, मनुष्य के मन को आनंद के लिए तैयार नहीं किया व्यक्ति-व्यक्ति से है। जो तुम्हें ठीक है, जरूरी नहीं कि तुम्हारे गया है। इसलिए प्रश्न उठता है। इसलिए तुम अपनी इस पति को ठीक हो। जो तुम्हें ठीक है, जरूरी नहीं कि तुम्हारे बेटे स्वाभाविक रुझान को भी समस्या बना लेते हो। को ठीक हो। जो तुम्हें ठीक है, जरूरी नहीं कि तुम्हारे भाई को | अगर वैराग्य की बातें तुम्हें रस नहीं देतीं छोड़ो! तुम्हारे ठीक हो, मित्र को ठीक हो, पड़ोसी को ठीक हो। लिए न होंगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे बातें गलत हैं। वे Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सूत्र भागः 11 किसी और के लिए होंगी। कोई महावीर उस रास्ते से चलकर | आंखें उधार नहीं मिलतीं और न दर्शन उधार मिलता है, मेरी पहुंचेगा। कुछ प्रयोजन नहीं तुम्हें उनसे। आंख से मैं देख सकता हूं। मेरी आंख से तुम न देख सकोगे। तुम्हारा हृदय तुम्हें प्रतिपल बताता है कि कौन-सी भूमि तुम्हारे मेरे लिए मैं जी सकता हूं, मेरे लिए तुम न जी सकोगे। और मेरे फूल को खिलायेगी। लिए मैं ही मर सकता हूं, तुम न मर सकोगे। फिर हर वृक्ष के लिए अलग भूमि होती है। कोई वृक्ष रेत में ही एक की जगह दूसरे के खड़े होने का कोई भी उपाय नहीं है। खड़ा होता है। कोई वृक्ष कंकड़-पत्थर चाहता है। कोई वृक्ष मगर वहीं हम धोखा देते हैं। काली भूमि चाहता है कि जरा-भी कंकड़-पत्थर न हों। जो एक महावीर ने कहा है तो ठीक कहा होगा। ठीक ही कहा है। के लिए अमृत है, वह दूसरे के लिए जहर हो जाता है। लेकिन तुम्हारे लिए कहा है, ऐसा महावीर को तुम्हारे हिसाब से इसलिए सदा ध्यान रखनाः कोई वक्तव्य सत्य के संबंध में बोलने का कोई कारण भी न था; तुम महावीर के सामने भी न सार्वभौम नहीं है-व्यक्ति-सापेक्ष है। थे। महावीर को तुम्हारा कोई पता भी नहीं है। महावीर ने तो वैराग्य की बात किसी को खिलाती होगी। असली सवाल अपना सत्य कहा है। इसे खयाल रखना। खिल जाना है। किसी को मरुस्थल की रेत में ही खिलने का यहां जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह जरूरी नहीं है कि तुम्हारा सत्य सौभाग्य होता होगा। कैक्टस मरुस्थल में ही खिलते हैं। उनका हो। वह मेरा सत्य है, इतना जरूरी है। ऐसा मैंने जाना। ऐसा भी अपना सौंदर्य है। गुलाब वहां न खिलेंगे। गुलाब का अपना तुम भी जानोगे, इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। जान भी सकते सौंदर्य है। हो, न भी जानो! तो अपने हृदय से कभी भी जबर्दस्ती मत करना। अगर | मुझसे मेल खा जाओ, तुम्हारा व्यक्तित्व मुझसे मेल खाता हो, व्यक्ति अपने हृदय की मानकर चलता रहे, और हृदय के तो शायद जो मेरा सत्य है वह तुम्हारा भी अनुभव बन जाये। अतिरिक्त, हृदय के विपरीत किसी की न माने, तो सत्य से तुम लेकिन अगर व्यक्तित्व मेल न खाता हो, तो मेरा सत्य तुम्हारे भटक न सकोगे, पहुंच ही जाओगे। ऊपर-ऊपर रहेगा, भीतर-भीतर तो तुम्हारा ही सत्य रहेगा।। जहां आनंद न होगा और धोखा खाया, वहां धोखा कितनी देर सभी दर्शन आत्म-कथाएं हैं, 'आटो-बायोग्राफिकल' हैं। वे चलेगा? प्यासे आदमी को कितनी देर झूठे पानी से समझाओगे, व्यक्ति के संबंध में हैं। बुझाओगे? कितनी देर सांत्वना दोगे? जल्दी ही उसे समझ में | जब महावीर कुछ कहते हैं, तो वह महावीर के संबंध में आ जायेगाः यहां कोई जलधार नहीं है। हां, लेकिन यह हो | सूचनाएं हैं; जब बुद्ध कुछ कहते हैं तो बुद्ध के संबंध में। जब सकता है, उसे तुम इस झूठी जलधार के पास ही न पहुंचने दो, तो मीरा नाचती है और नाच से कुछ कहती है, तो अपने संबंध में कभी उसके अनभव में ही न आ सके कि मगमरीचिका थी. वहां कह रही है। कुछ था नहीं। तो शायद उसके मन में सपना अपने ताने-बाने | सत्य के संबंध में जिनती उदघोषणाएं हैं, वह उन व्यक्तियों की बुनता रहे ! शायद मन कहता रहे, वहां सुख था! वहां सुख था! | उदघोषणाएं हैं जिन्होंने सत्य को जाना। उनके माध्यम से सत्य ऐसा ही मैं तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों में देखता हूं। आया। सत्य ने एक रूप लिया। जरूरी नहीं है वही रूप तुम्हारे संसार में सुख नहीं है, ऐसा उनका अनुभव नहीं है। ऐसा किसी लिए ठीक हो। तुम कैसे समझोगे? अनुभवी की बात को उन्होंने मान लिया है। उनका स्वयं का कुछ लोग हैं, जो इसलिए मान लेते हैं किसी की बात को, हृदय तो कह रहा था, सुख है। उस हृदय को तो इनकारा, क्योंकि और लोग उसकी बात को मानते हैं। अगर जीसस को अस्वीकार किया; किसी और को आरोपित कर लिया। अपने एक अरब आदमी मानते हैं तो कुछ तो इसीलिए मान लेंगे कि प्राणों की आवाज तो न सुनी; किसी और की आवाज पर चल | जिसको एक अरब मानते हैं, वह गलत कैसे हो सकता है? पड़े। फिर उनका जीवन बड़े दुख से भर जाता है। क्योंकि जहां | लेकिन ध्यान रखना, यह भी संभव है कि एक अरब जिसे उन्हें सुख दिखाई पड़ता था, वहां उन्हें अब भी दिखाई पड़ेगा। मानते हों वह तुम्हारे लिए न हो। वह एक अरब के लिए भी सही Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2015 पलकन पग पोंछं आज पिया के हो और फिर भी तुम्हारे लिए सही न हो। क्योंकि परमात्मा असली नहीं है। एक-एक व्यक्ति को अनूठा रचता है, एक-एक व्यक्ति को परमात्मा दोबारा कोई चीज बनाता नहीं। परम कलाकार है! अद्वितीय रचता है। यही तो मनुष्य की महिमा है। ऐसा थोड़े ही है कि जगत चुक गया है, कि अब उसे कुछ सूझता मनुष्य की तो छोड़ दो फिक्र, एक पत्ते को इस बगीचे से तुम नहीं, कि फिर महावीर को बना दे, फिर राम को बना दे, फिर खोज लो, फिर वैसा पत्ता तुम सारी पृथ्वी पर खोजकर भी दूसरा कृष्ण को बना दे। न पा सकोगे। देखा तुमने, न महावीर दुबारा, न कृष्ण दुबारा, न राम दुबारा! एक कंकड़ उठा लो मार्ग से, फिर अनंत-अनंत चांद-तारों पर जो एक बार आता है, फिर दोबारा पर्दे पर आता ही नहीं। इसे भी खोजते रहो तो ठीक वैसा कंकड़ तुम्हें दुबारा न मिलेगा। स्मरण रखना। परमात्मा कोई फोर्ड-कार बनानेवाली असेंबली-लाइन नहीं है। तुम भी नये हो। सीख सबसे लेना, मानना अपनी। सुनना कि एक-सी कारें। परमात्मा कोई मैकेनिक नहीं है, तकनीशियन सबकी, अंतिम निर्णय हृदय से लेना। नहीं है-कलाकार है। तो अगर वैराग्य की बातें सुनकर शिथिलता और उदासी आती जितना बड़ा कवि होगा, उतना ही दुबारा किसी गीत को नहीं है; हृदय का फूल खिलता नहीं, कुम्हलाता है; कली फूल नहीं दोहराता। जितना बड़ा चित्रकार होगा, दुबारा फिर उसी चित्र को बनती, उलटा फूल अपनी पंखुड़ियां बंद कर लेता है-जैसे नहीं बनाता। दुबारा अगर बना भी ले वैसा चित्र तो आनंद | साझ सूरज के डूब जाने पर बहुत-से फूल अपनी पंखुड़ियां बंद अनुभव नहीं करता। कर लेते हैं तो समझ लेना, यह सत्य तुम्हारा सूरज नहीं। यह ऐसा हुआ कि एक आदमी ने पिकासो का एक चित्र खरीदा। होगा सत्य किसी और का, क्योंकि कुछ फूल हैं जो सूरज के कई लाख रुपये का चित्र था। तो स्वभावतः वह पता कर लेना | डूबने पर ही खिलते हैं। रातरानी है। उसका होगा, तुम्हारे लिए चाहता था कि चित्र नकली तो नहीं है। तो वह पिकासो के पास नहीं है। तुम्हारा रास्ता फिर बिलकुल साफ है। ही उस चित्र को लेकर गया। और उसने पिकासो से कहा कि मैं जहां तुम्हें आनंद की झलक मिले, साहस करके वहां जाना। यह खरीद रहा हूं, लाखों रुपये का मामला है, मैं इतना पूछने | जरूरी नहीं है कि हर बार तुम वहां आनंद पाओगे, यह मैं नहीं आया हूं कि यह असली है? तुम्हारा ही बनाया हुआ है, किसी कह रहा हूं। बहुत बार तुम पाओगे वहां कुछ भी न था, राख का की नकल तो नहीं? ढेर था। लेकिन तब भी अनुभव होगा। तब भी जीवन में प्रौढ़ता पिकासो ने उस चित्र की तरफ बड़ी बेरुखी से देखा और कहा, | आयेगी। राख का ढेर देखकर समझ आयेगी। आगे राख के ढेर नकली है, किसी और का बनाया है। पिकासो की प्रेयसी मौजूद पहचानने की कला आयेगी। दुबारा धोखा मुश्किल होगा। थी और वह बड़ी चकित हुई, क्योंकि यह चित्र उस प्रेयसी के तीसरी बार धोखा असंभव हो जायेगा। फिर एक ऐसी घड़ी आ सामने ही बनाया गया था। और पिकासो ने ही बनाया था। | जायेगी कि कितना ही लोभक दृश्य हो, तुम दूर से भी पहचान उसने कहा कि शायद तुम भूल रहे हो, शायद तुम्हारी स्मृति तुम्हें पाओगे कि कहां राख है, कहां अंगार है; कहां जीवन है, कहां धोखा दे रही है। यह चित्र तुमने मेरे सामने बनाया है। यह सब बुझा-बुझा है।। तुम्हारा ही बनाया हुआ है। - भूल-भूल करके ही आदमी सीखता है। गलत को गलत जान पिकासो ने कहा, मैंने बनाया है, लेकिन फिर भी नकली है। लेना सही की तरफ जाने का उपाय है। भ्रांत को भ्रांत पहचान क्योंकि इसे मैं पहले भी बना चुका हूं। इसको असली कहना | लेना, निर्धांत होने की व्यवस्था है। ठीक नहीं है, आथैटिक नहीं है। एक दफा जो बना चुके, बात तो मैं तुमसे कहता नहीं कि तुम जल्दी भाग जाना, मेरी मानकर पुरानी हो गई। अब उसे कोई दूसरा नकल करे या मैं खुद ही | भाग जाना। तुम तो अपने ही अनुभव से जाना। होगा सुख, तो उसकी नकल करूं, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन यह चित्र | स्वर्ग का रास्ता बनेगा। नहीं होगा सुख, तो अनुभव जगेगा। मैं पहले भी बना चुका हूं। यह सिर्फ प्रतिध्वनि है, छाया है; एडीसन एक प्रयोग कर रहा था। उसमें सात सौ बार हारा। 4351 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 उसके सारे साथी-सहयोगी रुष्ट हो गये, परेशान हो गये। उसके बातों को बीच-बीच में मत डालना। क्योंकि फिर तुम सब विद्यार्थी तो घबड़ा गये कि अब यह कब खतम होगा; क्या पूरा विकृत कर दोगे। एक बार साफ हो गया कि प्रेम की चर्चा तुम्हें जीवन यह एक ही प्रयोग में करते रहना है; सात सौ बार! तीन उमंग से भर देती है तो फिर तुम विरागियों की चर्चा की बात ही साल खराब हो गये! एक दिन उसके सब सहयोगियों ने कहा, छोड़ देना। फिर वह रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है। फिर उनकी बात 'आप सुनिये! आप तो रोज सुबह फिर प्रसन्नचित्त आ जाते हैं | तुम्हें झंझट में डाल देगी। प्रेमी की बात बड़ी अलग है। और फिर काम शुरू कर देते हैं। लेकिन हमारा भी सोचिये! यह | इश्क हायल है तेरे मिलने में जिंदगी इसी में गंवानी है? सात सौ दफे हार चुके; अब छोड़िये हमसे ये पर्दा हटाया न गया। भी! कुछ और करिये!' विरागी कहता है कि प्रेम को हटा लो तो परमात्मा से मिल एडीसन ने कहा कि तुमसे किसने कहा कि मैं सात सौ बार हार जाओ। प्रेमी कहता है: इश्क हायल है तेरे मिलने में! लोग चुका? मैं तो हर बार जीत के करीब आ रहा हूं। समझो कि सात कहते हैं कि प्रेम के कारण हम तुझसे नहीं मिल रहे हैं; होगा यही सौ एक दरवाजे हैं उसके, तो सात सौ दरवाजे तो हम खटखटा सही। हमसे यह पर्दा हटाया न गया। लेकिन हम यह पर्दा न चुके; वहां नहीं था द्वार, दीवाल थी। वह दरवाजे झूठे थे! अब | हटा सकेंगे। हम तो, अगर प्रेम के कारण ही तू चूक रहा है तो हम रोज-रोज करीब असली दरवाजे के आ रहे हैं। कितनी देर | चूके चले जायेंगे लेकिन यह प्रेम हमसे न हटाया जायेगा। यह चलेगा! तो सात सौ बार हम असफल हुए, यह तुमसे भक्त के लिए तो प्रेम ही परमात्मा है। ज्ञानी के लिए प्रेम बाधा किसने कहा? हर कदम हमें सफलता के करीब लाया है। हर है। वह प्रेम को कहता है, राग! हटाओ! वैराग्य को जगाओ! विफलता सफलता के करीब लाती है। सात सौ बार के अनुभव तो ही सत्य मिलेगा। ने हमें काफी प्रौढ़ बना दिया है। हमारी परख पैनी हो गई है। प्रेमी और भक्त कहता है, पर्दे को नहीं हटाना, अपने को मिटा अब हमें वो सात सौ मार्ग भटका नहीं सकते। और निश्चित ही | देना है। प्रेम ही प्रेम रह जाये, तुम न बचो! ठीक मार्ग के हम करीब आ रहे हैं। कितनी देर होगा, यह तो इश्क हायल है तेरे मिलने में कहना मुश्किल है। हमसे यह पर्दा हटाया न गया। और कहते हैं, उसके कोई पंद्रह दिन बाद ही एडीसन सफल हो तुझको देखा तो सेर चश्म हुए गया। उसने बिजली का पहला बल्ब बना लिया। आज सारी तुझको चाहा तो और चाह न की। दुनिया उसकी वजह से रोशन है। | -आंखों की सारी भूख मिट गई तुझे देखते ही! तेरी झलक जो बाहर के प्रकाश की खोज के संबंध में सही है, वही भीतर पाते ही! के प्रकाश की खोज के संबंध में भी सही है। तुझको देखा तो सेर चश्म हुए जहां सुख मिले-जाना! तुझको चाहा तो और चाह न की। मैं यहां तुम्हें डराने को नहीं हूं। डरकर कभी कोई जागा? मैं विरागी कहता है, सब चाह छोड़ो तो परमात्मा मिलेगा। प्रेमी तुम्हें घबड़ाता नहीं हूं। मैं तुमसे कहता हूं, जाओ! साहस से, कहता है, उसकी चाह आ गई तो सब चाह अपने से छूट जाती हिम्मत से! होगा सुख तो एक कदम और तुमने प्रभु की तरफ | है; छोड़ने की झंझट प्रेमी को नहीं है। उसकी चाह काफी है। लिया। नहीं होगा सुख, तो भी एक कदम प्रभु की ओर लिया। तुझको देखा तो सेर चश्म हुए एक द्वार बंद हुआ! इस तरफ जाने में कोई सार नहीं। एक रास्ता तुझको चाहा तो और चाह न की। गलत हुआ। सही रास्ते के करीब आने लगे। फिर उसको चाहने के बाद कहीं कोई और चाह बचती है! हृदय की सुनो। तो अगर भक्ति, प्रेम और उत्सव की बात पर ये दोनों अलग-अलग मार्ग हैं। विरागी कहता है, सब सनकर तुम्हारे हृदय में कोई धुन बजती है, तुम्हारे हृदय की वीणा | चाह छोड़ो-इतना कि परमात्मा की चाह भी छूट जाये। वह भी कंपित होने लगती है, तो वही तुम्हारा मार्ग है। फिर वैराग्य की | एक रास्ता है। अचाह में झूब जाओ। परमात्मा तक की चाह न 4361 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलकन पग पोंछ आज पिया के बचे-उतनी भी चाह की रेखा न रह जाये भीतर। परिपूर्ण | भीतर के बीज फूटने लगें; जिस भाषा के संपर्क में तुम्हारा अचाह में खड़े हो जाओ। जरा भी कंपन न रह जाये चाह का, व्यक्तित्व निखार लेने लगे; रस जगे; गीत जगे; नृत्य उठे-तो वासना का। उसी घड़ी मिलन! फिर समझना कि हृदय साफ-साफ इशारा कर रहा है किस तरफ प्रेमी कहता है, उसकी चाह में ऐसे डूब जाओ कि तुम न बचो; चलो। फिर और सारी चिंताएं छोड़ देना-किस घर में पैदा हुए, तुम्हारी सारी जीवन-ऊर्जा बस उसकी चाहत, उसका प्रेम बन | किस धर्म में पैदा हुए, कौन-सा सिखावन, कौन-सी शिक्षा दी जाये। उसी घड़ी मिलन! गई, कौन-सा शास्त्र पकड़ाया गया, फिर सब गौण है। हृदय से दोनों तरफ से मिलन हुआ है। दोनों में कौन ठीक और गलत, | परमात्मा ने बोल दिया कि तुम्हारे लिए जाने का रास्ता कौन है। इस तरह कहने की बात ही नासमझी है। इतना ही देख लेना, लेकिन ऐसा सभी को न होगा। तुम्हारा हृदय किसके साथ खिलता है! यहां कुछ हैं जिनको प्रेम की बात सुनकर बेचैनी शुरू हो जाती तन से तो सब भांति विलग तुम है, घबड़ाहट शुरू हो जाती है। विराग की बात सुनकर वह शांत लेकिन मन से दूर नहीं हो बैठ जाते हैं, कि अब चलो ठीक बात हुई। वह भी गलत नहीं जुड़े न पंडित, सजी न वेदी हैं। उनको जो रुचता है, उनको जो पचता है। वे शायद जीवन में वचन हुए न मंत्र उचारे काफी जले हैं। और जैसा दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर जनम-जनम को किंतु वधू यह पीने लगता है; प्रेम ने शायद उन्हें काफी जलाया है। यद्यपि जो हाथ बिकी बेमोल तुम्हारे प्रेम उन्होंने अब तक जाना था, वह बिलकुल ही क्षुद्र था, व्यर्थ झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के था, नाममात्र को था। लेकिन उसने इतना जला दिया है कि अब रिश्ते जितने दुनियाभर के तो वह परमात्मा की भक्ति की बात या प्रेम की बात सुनकर भी सबसे तुम मुक्त, प्रेम चौंक जाते हैं। वे छाछ को भी फूंक-फूंककर पीते हैं। मगर के वृंदावन से दूर नहीं हो। ठीक, अगर विराग से उनके हृदय का भाव खुलता है, शांति तन से तो सब भांति विलग तुम मिलती है और एक सुख की दशा पैदा होती है, तो वही ठीक। लेकिन मन से दूर नहीं हो। उसी से वे चलें। और सब नाते-रिश्ते होंगे संसार के, लेकिन भक्त कहता है, और जिस बात पर मैं जोर देना चाहता हूं, वह यह कि कभी प्रेम का नाता संसार का नहीं है। प्रेम तो वृंदावन है। वह कोई भूलकर भी किसी को तुम अपनी भांति चलाने की चेष्टा मत नाता नहीं है। वह कोई बनने मिटनेवाली बात नहीं है। वह कोई करना। यह चेष्टा हम सबके मन में पैदा होती है। यह हमारे संबंध नहीं है। वह तो एक आनंद की, अहोभाव की दशा है। अहंकार का बड़ा गहरा हिस्सा है। हम दूसरे को अपनी प्रतिछवि वृंदावन है। में बनाना चाहते हैं। बाप अपने बेटे को ढालना चाहता है ठीक झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के अपने जैसा। मां अपनी बेटी को दालना चाहती है ठीक अपने रिश्ते जितने दुनियाभर के जैसी। मित्र मित्र को ढालने में लग जाता है। हम सब इस चेष्टा सबसे तुम मुक्त, प्रेम में होते हैं कि अगर हमारा बस चले तो सारी दुनिया को हम के वृंदावन से दूर नहीं हो।। अपनी प्रतिछवि में ढाल दें। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति और सब होगा बाधा! प्रेम-और बाधा! भक्त को बाधा | मिलती है। इससे मैं तो हो जाता हूं आदर्श; और सभी हो जाते हैं नहीं दिखाई पड़ती। भक्त तो प्रेम से ही उसके पास पहुंचता है। मेरी छायाएं। इससे मैं तो हो जाता हूं सभी जीवन का मापदंड। प्रेम में डूबकर ही उसमें डूबता है। | इस भ्रांति से थोड़े सजग होना। ये विरागी की और प्रेमी की अलग-अलग भाषाएं हैं। इनमें जो तुम्हें अपना सत्य खोजना है। और सभी सत्य निजी सत्य हैं। भाषा तुम्हारे हृदय में रम जाये; जिस भाषा की वर्षा में तुम्हारे | दूसरे पर थोपना नहीं है। तो न तो थोपना और न किसी को थोपने Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEUSH जिन सूत्र भाग 1 देना। अगर इन दो बातों से तुम बच गये—क्योंकि बड़ा खतरा जीवनभर हम एक-दूसरे को दबाने की चेष्टा करते यह है कि जो नहीं थोपते, वे दसरों को थोपलेने देते हैं। जो दसरे हैं-जाने-अनजाने उपायों से। बाप बेटे को बदलना चाहता को नहीं थोपने देते, वे खुद दूसरों पर थोप देते हैं। है। बदलने की चेष्टा में सिर्फ वह यह कहना चाहता है कि इस दुनिया में वस्तुतः समझपूर्वक जीना बड़ा कठिन है। समझ मालिक मैं हूं। बेटा भी बड़ा होकर इस बूढ़े बाप को बदलने की के दोनों तरफ नासमझी की अतियां हैं। चेष्टा करेगा, क्योंकि तब बाप कमजोर होने लगेगा। तब बेटा मैक्यावली ने कहा है, इसके पहले कि कोई तुम पर आक्रमण | इसको समझाने लगेगा कि क्या करना उचित है और क्या करना करे, तुम आक्रमण कर देना। क्योंकि यही सुरक्षा का सर्वोत्तम उचित नहीं है, कि तुम सठिया गये हो, कि तुम्हारी बुद्धि तुमने खो उपाय है। तो यहां प्रत्येक व्यक्ति यही कोशिश कर रहा है कि दी, कि तुम्हें इस दुनिया का पता नहीं है जो आज है; तुम जिस इसके पहले कि कोई तुम्हारी गर्दन पकड़े, तुम पकड़ लो। इसके दुनिया की बातें कर रहे हो, वह गई-गुजरी हो चुकी; अब तुम पहले कि तुम्हें कोई बदले, तुम बदल दो। इसके पहले कि मेरी सुनो! तुम्हारी कोई परिभाषा करे, तुम परिभाषा कर दो। इस जगत में इन दोनों अतियों से बचना बड़ा कठिन है। मगर तुमने देखा, पूरे जीवन हम एक-दूसरे को परिभाषित कर रहे जो बच जाये वही साधक है। न तो तुम दूसरे को दबाने की हैं, हम हजार-हजार तरकीबों से एक-दूसरे की परिभाषा करते कोशिश करना और न किसी को अवसर देना कि तम्हें दबा दे। हैं। पति खड़ा है, कार में हार्न बजा रहा है, पत्नी देर लगाती एक बात तुम साफ कर देना कि चाहे कोई भी कीमत हो, कितनी है-वह यह घोषणा कर रही है देर लगाकर कि खड़े रहो; ही जोखिम हो, मैं अपने हृदय की मानकर चलूंगा। चाहे सब मालिक कौन है, जाहिर हो जाना चाहिए। वह पति को परिभाषा | खोना पड़े! इसी को मैं संन्यास की भाव-दशा कहता हूं। दे रही है। संन्यास कोई बाह्य कृत्य नहीं है—एक भीतरी अंतर्घोषणा है ध्यान रखना, जो जिसको प्रतीक्षा करवा सकता है, वह उसकी कि अब से मैं अपने हृदय की मानकर चलूंगा, चाहे इसके लिए परिभाषा कर देता है। तुम दफ्तर में गये किसी से मिलने तो मुझे सब गंवाना पड़े; चाहे इसके लिए मुझे दीन-दरिद्र हो जाना मैनेजर तुम्हें बिठा रखेगा थोड़ी देर, चाहे उसको कोई काम न हो। पड़े; चाहे राह का भिखारी हो जाना पड़े। राह के भिखारी होने क्लर्क भी तुम्हें बड़ी देर बाद देखेगा, चाहे वह कुछ भी न कर रहा की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर यह भी होना पड़े तो मेरी तैयारी हो। वह वैसे ही अपने रजिस्टर उलटने लगेगा, क्योंकि वह तुम्हें | है; लेकिन अब एक बात मैंने तय कर ली कि अपने हृदय के परिभाषा देना चाहता है कि साफ हो जाना चाहिए कि यहां कौन अतिरिक्त और किसी की मानकर न चलूंगा। अब मेरा हृदय ही मालिक है! | मेरा वेद होगा। और मेरा हृदय ही मेरी भगवदगीता होगी। हृदय मैं तुमको प्रतीक्षा करवा सकता हूं, तो मैं मालिक हूं! ही मेरा कुरान और मेरी बाइबिल होगी। . जो प्रतीक्षा करवा सकता है वह ऊपर है। तो पति भी सांझ को और तुम चकित होओगे कि जिस दिन तुम हृदय की सुनने क्लब-घर में देर तक बैठा ताश खेलता रहता है, पत्नी को राह | लगोगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में गति आ जायेगी। कुछ दिखवाता है कि घर बैठी रहो, करती रहो प्रतीक्षा खाने के लिए! अड़चनें आयेंगी समाज की तरफ से, दूसरों की तरफ से; क्योंकि जरा देर करके ही आयेगा। वह यह साफ बता देना चाहता है कि कल तक जिनकी तुमने मानी थी, अचानक वे इतने जल्दी राजी न कौन मालिक है। हो जायेंगे। वे इतनी जल्दी स्वीकार न कर लेंगे। लेकिन भीतर तुमने देखा, बड़े नेता सभा में आयें तो हमेशा देर से आयेंगे। | तुम पाओगेः उमंग आ गई! तरंग आ गई! एक ज्वार आ गया बड़ा नेता, और वक्त पर आ जाये। यह बात हो ही नहीं सकती। शक्ति का! भीतर तुम पाओगे कि अब तुम दीन-दरिद्र नहीं हो; जितना बड़ा नेता, उतनी देर करके आयेगा। उतनी लोगों को तुम सम्राट हो गये। प्रतीक्षा करवा देगा। उनको जाहिर करवा देगा कि तुम कौन हो, तो जो तुम्हें रुचे। विराग तो विराग! उससे भी लोग परमात्मा तुम्हें साफ हो जाना चाहिए। तक पहुंचे हैं। भक्ति तो भक्ति! 438 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलकन पग पोंछं आज पिया के दूसरा प्रश्न : मेरे भीतर जैसे स्तब्धता, सन्नाटा-सा लग रहा हैं, तो हाथ खाली हो जाते हैं। हाथों का खाली हो जाना सत्य के है। खाली-खाली, शून्यता जैसे छा गई हो। और साथ ही उतरने के लिए अत्यंत जरूरी है। लेकिन व्यर्थ के जाने और सत्य अच्छे-बुरे विचारों का आक्रमण भी हावी होता रहता है। मैं | के आने के बीच में थोड़ा अंतराल है। उस अंतराल में बड़ी पीड़ा क्या करूं? मैं बावरी-सी हो गई हूं। मैं अपने को बहुत होती है। उस अंतराल को जो पार नहीं कर पाता, वह घबड़ाकर असहाय, अकेली और असुरक्षित पा रही हूं। भय लगता है। फिर बाहर निकल आता है। | इसीलिए 'सरोज' ने पूछा है : 'एक तरफ खाली-खालीपन 'सरोज' का प्रश्न है। और शून्यता छा गई है और दूसरी तरफ अच्छे-बरे विचारों का ऐसा होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है। क्योंकि जैसे ही हम आक्रमण भी होता रहता है।' भीतर जाते हैं, हम अकेले हो जाते हैं। इसीलिए तो लोग भीतर | वह आक्रमण इसीलिए हो रहा है। वह आक्रमण हो रहा है, जाने से डरते हैं। ऐसा नहीं, बल्कि तुम चेष्टा कर-करके अच्छे-बुरे विचारों को बाहर हैं और लोग, भीतर तो कोई भी नहीं। भीतर तो तुम हो पकड़ रही हो, ताकि भीतर जो निस्तब्धता है वह एकदम भयावनी और बस तुम हो। बाहर अनंत लोग हैं, चहल-पहल है। भीतर न हो जाये। कुछ तो सहारा रहे। विचार ही सही, कुछ तो तरंगें तो सन्नाटा है। बाहर बहुत भरावट है, भीतर तो शून्य है। और उठती रहें, तो कुछ व्यस्तता बनी रहे। क हम बाहर जीए, संबंधों में जीए, औरों के साथ लोग खाली होने की बजाय दुखी होना भी पसंद करते हैं, जीए, भीड़-बाजार, घर-गृहस्थी-हजार व्यस्तताएं। क्योंकि कम से कम दुख तो है! कुछ तो है हाथ में! हाथ __ तो जब भीतर चलना शुरू करोगे तो अचानक अनुभव में बिलकुल खाली तो नहीं। कंकड़-पत्थर सही, न हुए आना शुरू हो गया, वह सब तो दूर छूट गया और इस भीतर तो हीरे-जवाहरात! लेकिन कोई यह तो नहीं कह सकता कि कुछ तुम्हारा निकटतम प्रियजन भी नहीं आ सकता। यह तो तुम्हारा भी नहीं है। नितांत एकांत है। यह तो इतना निजी है, इतना प्राइवेट है कि तुम __ अधिक लोग दुख को भी नहीं छोड़ते, क्योंकि उनको डर अपने प्रेमी को भी इसमें निमंत्रित न कर सकोगे। यहां तो बस लगता है—छोड़ दिया इतने दिनों का संग-साथ, तो अकेले हो तुम हो और तुम हो। जायेंगे। तो शुरू-शुरू में बड़ी निस्तब्धता, सन्नाटा, सूनापन | तुमने कभी खयाल किया, बहुत दिन बीमार रहने के बाद अगर नकारात्मक मालूम होगा। तुम बिस्तर से उठो तो बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है : अब कहां राह देखी नहीं और दूर है मंजिल मेरी जायें। अब तो बिस्तर पर होना जीवन की शैली हो गयी थी। कोई साकी नहीं, मैं हं, मेरी तन्हाई है। अगर दो-चार साल बिस्तर पर रह गये, तो जो आदमी दो-चार घबड़ाहट भी होगी; क्योंकि राह देखी नहीं, मंजिल का कोई साल बिस्तर पर रह जाता है, फिर वह उठता ही नहीं; इसलिए पक्का पता नहीं कहां है, कहां जा रहे हैं, क्या हो रहा है। मील के नहीं कि बीमारी ठीक नहीं होती, बीमारी ठीक भी हो जाये तो अब पत्थर भी नहीं हैं भीतर। कौन लगायेगा मील का पत्थर? कोई| वह बीमारी को पकड़ लेता है। चिकित्सक इस घटना से नक्शा भी नहीं है भीतर का। कौन देगा नक्शा? वहां कोई हाथ भलीभांति परिचित हैं कि अगर बीमारी ज्यादा दिन रह जाए तो लेकर चलानेवाला भी नहीं है। तो अचानक आदमी असहाय बीमार को फिर ठीक करना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसकी मालूम होता है। बीमारी आदत का हिस्सा हो जाती है। अब बीमारी को वह अपने इस असहाय अवस्था से अगर गुजर गये, अगर इस असहाय जीवन के ढंग में समा लेता है। अब इस ढंग को छोड़ने में अवस्था को शांति से पार कर लिया, तो तुम्हारे जीवन में पहली | अड़चन होगी। दफा आत्मबल का जन्म होगा। लेकिन उसके पहले असहाय अगर तुम एक दुख के आदी हो गये हो तो तुम उस दुख को अवस्था से गुजर जाना जरूरी है। जब झूठी चीजें हाथ से छूटती सम्हाले रहोगे। 439 www.jainelibrar corg Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भार इसलिए अकसर मैं देखता हूं कि लोग दुख की सीमाएं और सौभाग्य से मिलता है। अब मिल गया है तो इसे खराब मत स्थितियों को भी छोड़ते नहीं। अगर किसी पत्नी से तुम्हारा करो। अब तो इस शून्य में डूबो। यद्यपि प्राथमिक चरण पर जीवन सतत कलह में गुजर रहा है तो भी तुम अलग नहीं होते। डूबना ऐसा ही लगेगा, जैसा मरे, मौत हुई। या किसी पति के साथ जीवन एक नारकीय स्थिति बन गई है, तो और एक अर्थ में ठीक भी है, तुम तो मरोगे ही। तुम जैसे अब भी अलग नहीं होते। क्यों? हजार बहाने तुम खोजते हो, | तक रहे हो, इस शून्य में डूबोगे, मिट जाओगे। नये का जन्म लेकिन वह सब बहाने हैं। मौलिक बात यह है कि अब इस दुख होगा, आविर्भाव होगा। की भी आदत हो गई है। 'क्या करूं? मैं बावरी-सी हो गई हैं।' । और एक बड़ा अनुभव पश्चिम में आना शुरू हुआ है, जहां कि | पागलपन जैसा ही लगेगा। भीतर जाओ तो शून्यता; बाहर लोग काफी पति-पत्नियां तीव्रता से बदलते हैं। एक अनुभव आओ तो व्यर्थ के विचारों का ऊहापोह है। बाहर आओ तो कोई आना शुरू हुआ है कि जो आदमी एक पत्नी को छोड़कर दूसरी | सार नहीं है और भीतर जाओ तो घबड़ाहट! एक अनंत शून्य पत्नी को खोजता है, वह फिर करीब-करीब वैसी ही स्त्री को मुंह-बाए खड़ा है। तो पागलपन मालूम पड़ेगा। यह पागलपन खोज लेता है जैसी उसने छोड़ी। उसी तरह की कर्कशा या उसी तभी तक मालूम होगा जब तक शून्य से रस नहीं बैठता। तरह की उपद्रवी! छोड़ा नहीं है अभी एक को, और वह दूसरी | शून्य में रस लो, पहचान बनाओ! शून्य को गुनगुनाओ। को फिर वैसा का वैसा खोज लेता है! क्या कारण होगा? अब शून्य को नाचो! जब शून्य आ जाये तो अहोभाव अनुभव करो। तो उसको उसी तरह की स्त्री में रस आने लगा। तो अब वह फिर परमात्मा को धन्यवाद दो। यह उसकी अनुकंपा है। खोज लेता है। उसकी चाह का ढंग रुग्ण हो गया। अब वह शून्य इस जगत में परमात्मा की सबसे बड़ी देन है, प्रसाद है। गलत की तरफ उत्सुक हो जाता है। वह फिर वैसी ही थोड़े-से सौभाग्यशाली लोगों को मिलता है। और जिनको व्यक्तित्ववाली स्त्री को खोज लायेगा, जो फिर कहानी को मिलता है, वे भी सभी सम्हाल नहीं पाते। बहुत-से तो उसे नष्ट दोहरायेगी। फिर त्याग करेगा। कर देते हैं। क्योंकि वह देन इतनी बड़ी है कि तुम्हारी पात्रता एक आदमी के बाबत मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन किया। उसने छोटी पड़ जाती है। आठ तलाक किये और हर बार वैसी ही पत्नी खोज लाया। _ 'मैं अपने को बहुत असहाय, अकेली, असुरक्षित पा रही आदमी तो वही है-खोजनेवाला वही है तो फिर वही | हूं...।' खोज लायेगा। कोई हर्जा नहीं। मन कहेगा, कोई सुरक्षा खोज लो। मन तुम जरा खयाल करना अपने जीवन में, तुमने बहुत-से दुख | कहेगा, किसी तरह किसी को अपने इस एकांत में ले आओ। पकड़ तो नहीं रखे हैं जो कि जाना चाहते हैं, लेकिन तम नहीं जाने वह अगर भूल की तो शून्य की शुद्धता नष्ट हो जायेगी। फिर दे रहे हो! संसार निर्मित हो जायेगा। ऐसे ही तो हम बहुत बार वापिस तो जब व्यक्ति को सन्नाटा होगा तो वह पुराने विचारों को | कोल्ह के बैल बन जाते हैं। आमंत्रित करेगा, बुलायेगा। वह आक्रमण नहीं है, तुम्हारा ___ अब यह एक खिड़की खुली है, इसे बंद मत कर देना। बुलावा है। क्योंकि उस भांति थोड़ी देर को भीतर की रिक्तता भर असहाय मालूम होते हो, असहाय सही। स्वीकार करो! जाती है। उथल-पुथल मच जाती है। असुरक्षित मालूम होते हो, असुरक्षित सही। स्वीकार करो। यह विचार है, क्रोध है, झगड़ा है, कोई सपना है, कोई योजना जो तथ्य सामने प्रगट हो रहा है, इसे इनकार मत करो और है-उतनी देर को तुम अपने भीतर के आकाश को भर लेते हो। बदलने की चेष्टा मत करो। इसे भरपूर नजर देखो, अहोभाव से उतनी देर को शून्य भूल जाता है। दखो, कृतज्ञता से देखो। कहो कि प्रभु ने यही चाहा कि शून्य शन्य में रस लो, तो धीरे-धीरे ये विचार समाप्त हो जायेंगे। होना है, जरूर शन्य से ही जन्म होता होगा। यह मेरी राह शन्य यह शून्य बड़ा महिमाशाली है। शून्य को ही तो ध्यान कहा है। के मंदिर से ही गुजरती है, तो इससे गुजर जाना है। 440 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलकन पग पोंछु आज पिया के जल्दी ही इस शून्य का चेहरा बदलना शुरू हो जायेगा। अगर तुम्हें आग में डाले। बड़ी जलन होगी, बड़ी पीड़ा होगी। उस तुमने इसे स्वीकार किया तो इस शून्य में तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ने | पीड़ा के बिना कोई भी जन्मा नहीं है। उस पीड़ा के बिना किसी लगेगा। जिसे हम स्वीकार करते हैं, उसमें सौंदर्य दिखाई पड़ने को नये जन्म का आविर्भाव नहीं हुआ है। लगता है। इसलिए तो अपनी मां किसी को असुंदर नहीं मालूम हए होश गुम तेरे आने से पहले होती। अपना बेटा किसी को असुंदर नहीं मालूम होता। जिसे | हमीं खो गये तुझको पाने से पहले हम स्वीकार करते हैं, वहां सौंदर्य का आविर्भाव हो जाता है। हुए तुझ बिन बसर क्या बताऊं सौंदर्य हमारे स्वीकार से पैदा होता है। किसे होश था तेरे आने से पहले। सौंदर्य कहीं बाहर कोई गण नहीं है हमारे स्वीकार की छाया हए होश गम तेरे आने से पहले। है। स्वीकार करो-और सौंदर्य पूर्ण बनने लगेगा। स्वीकार उसके आने के पहले तुम्हारा होश भी खो जायेगा, तम भी खो करो-और सौंदर्य में बड़ा आनंद आने लगेगा। स्वीकार | जाओगे। क्योंकि तुमने जिसे अब तक समझा है 'मैं', वह सिर्फ करो-और शून्य शांति, और परम शांति का धाम बन जायेगा। कूड़ा-कर्कट है। वही तो बाधा है। अगर अस्वीकार किया तो दौड़कर बाहर जाने के अतिरिक्त कोई हमीं खो गये तुमको पाने से पहले। उपाय नहीं है। और बाहर से ही तो थककर भीतर आ रहे थे। एक बड़ी महत्वपूर्ण बात याद रखना ः आदमी कभी परमात्मा फिर बड़ी विक्षिप्तता पैदा होगी। से मिलता नहीं। जब तक आदमी है तब तक परमात्मा नहीं। शून्य परमात्मा का पहला अनुभव है। पूर्ण परमात्मा का | और जब परमात्मा प्रगट होता है, आदमी खो चुका होता है। अंतिम अनुभव है। शून्य की तरह परमात्मा आता है; पूर्ण की आदमी तो बीमारी है। मिट जाने पर उस परम धन्यता का तरह विराजमान होता है। शून्य की तरह आता है, क्योंकि हमारा आविर्भाव होता है। तुम जब खाली कर देते हो सिंहासन, तभी मिटना जरूरी है। शून्य की तरह आता है, क्योंकि हम सिर्फ | परमात्मा उस पर विराज पाता है। तुम जब तक बैठे हो, तब तक कूड़ा-कर्कट का ढेर हैं। हमें आग देना जरूरी है, ताकि हम जल विराज नहीं पाता। जायें और वही बचे जो कुंदन है। सिर्फ शुद्ध स्वर्ण बचे और ये पंक्तियां बड़ी मधुर हैं: कचरा जल जाये। हुए होश गुम तेरे आने से पहले तो जब सुनार सोने को आग में डालता है तो सोना भी घबड़ाता हमीं खो गये तुझको पाने से पहले होगा, चिंतित होता होगा, बच जाना चाहता होगा, अंगीठी के हुए तुझ बिन बसर क्या बताऊं बाहर आ जाना चाहता होगा। लेकिन उसे पता नहीं कि सुनार की -दिन तेरे आने के पहले कैसे बीते, यह भी कैसे बताऊं! आकांक्षा क्या है। सुनार सोने को नहीं जलाना चाहता। और किसे होश था तेरे आने से पहले! सुनार भलीभांति जानता है कि सोना जलता नहीं। जो जल जाये न तो तेरे आने के पहले होश था, क्योंकि हम बेहोश थे संसार वह सोना नहीं है। वह डाल ही रहा है आग में इसलिए कि जो में; न तेरे आने के बाद होश रहा, क्योंकि हम बेहोश हुए तुझमें। सोना नहीं है, उससे सोना अलग हो जाये। तो यह जो इन दोनों बेहोशियों के बीच-संसार की बेहोशी शून्य आग है। और परमात्मा उन्हीं को डालता है जिन पर और परमात्मा की बेहोशी; संसार की शराब और परमात्मा की उसकी अनुकंपा है। शराब-इन दोनों मधुशालाओं के बीच जो थोड़ी-सी यात्रा है पात्रता से ही शून्य उत्पन्न होता है। घबड़ाना मत! छलांग वहीं थोड़ा-सा होश रहता है। लोग या तो धन में खोये हैं, पद में लगाकर अंगीठी के बाहर मत गिर जाना। नहीं तो पहले से भी खोये हैं, मद से भरे हैं; और या फिर लोग परमात्मा में खो जाते ज्यादा कूड़ा-कर्कट संगृहीत हो जायेगा। स्वीकार करना। हैं। दोनों के बीच में, दो मधुशालाओं के बीच में जो थोड़ा-सा भीतर की यात्रा पर शून्य मिला—यह पहली खबर मिली कि फासला है, वहीं थोड़ा-सा होश रहता है। तुम पात्र होने लगे। कम से कम तुम इतने पात्र हुए कि परमात्मा 'सरोज' अभी उसी यात्रा पर है-दो मधुशालाओं के बीच Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न m जिन सूत्र भागः1 BN 58 Post mari viral । में। अगर भीतर गई तो भी होश खो जायेंगे। अगर घबड़ाकर विराजमान हो जाता है। जिसको लोग सिर्फ पैर की ठोकरें बाहर आ गई तो फिर होश खो जायेंगे। और जब दो मारकर निकल जाते थे, उसी के चरणों में लोग आकर ि मधुशालाओं में ही चुनना हो, जब दो शराबों में ही चुनना हो तो | झुकाने लगते हैं, फूल चढ़ाने लगते हैं। फिर परमात्मा की ही शराब चुन लेना। संसार की तो बहुत कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं चखी, बहुत स्वाद लिया—कुछ पाया नहीं। अब इस गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ अपरिचित, अनजान का भी एक स्वाद ले लें। हिम्मत करना। करारे-खातिरे बेताब-थक गया हूं में। बावलापन तो उठेगा। कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं! बंगाल में संतों का एक संप्रदाय है, उसका नाम ही 'बाउल' चाहे कितनी ही पीड़ा हो, जाना उसी की तरफ! है-बावरे, पागल! बड़े अदभुत संत हुए बाउल। नाचते कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं! हैं-आनंद-मग्न! उस भीतर की शराब में मस्त, मदहोश! कहना भी हो, शिकायत भी करनी हो, तो उसी से करना। धीरे-धीरे उनका नाम ही 'बावरा' हो गया। लेकिन जिसे तुम | बाहर मत लौटना। यह तो कसम खा लेना कि अब बाहर नहीं समझदारी कहते हो, उससे वह लाख गुना कीमती है। लौटना है। क्योंकि बाहर को देख तो चुके बहुत, पाया क्या? तुम्हारी समझदारी भी हाथ में क्या लाती है? कुछ ठीकरे इकट्ठे | अब लौटकर भी क्या पायेंगे? हो जाते हैं, जो मौत छीन लेती है। कुछ नाम-धाम हो जाता है, कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं जो तुम्हारे जाते ही पोंछ दिया जाता है, दूसरों के लिए जगह गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब... बनानी पड़ती है। और मैंने जो धैर्य और सहनशक्ति के बहुत दावे किये थे, वह दुनिया का होश है न कुछ अपनी खबर मुझे सब गलत थे। तुम उन पर ज्यादा अब भरोसा मत करो, आ बेखुद बना दिया है यूं तेरे जमाल ने। जाओ! उसमें डूबो! बेखुदी खुदा को पाने का उपाय है। आदमी ने अपने अहंकार में बहुत दफा सोचा है कि मैं मिटना होने की एकमात्र संभावना। सहनशक्ति रखता हूं, शांति रखता हूं, धैर्य रखता हूं, मेरा धैर्य यह शून्य डरायेगा, घबड़ायेगा। जैसे कोई पक्षी अब तक | अडिग है। घोंसले में रहा हो और आज अचानक खुले आकाश में: गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब... घबड़ायेगा! चिंतित होगा, बेचैन होगा! लौट-लौट पड़ेगा मन | -वे सब दावे जो मैंने किये थे-आत्मबल के, धैर्य के, कि चल पड़ो अपने घोंसले की तरफ, कहां इन तूफानों में उलझने | सहनशक्ति के सब गलत थे। क्षमा करो मुझे! लगे? कहां ये हवाएं और आकाश और बादल, और कहां ये गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ सूरज और ये चांद-तारे! और यह कितना विराट है! भागो! करारे-खातिरे-बेताब थक गया हूं मैं। अपने घोंसले में छिप जाओ। ठीक वैसी दशा है। मन बहत और अब तो मैं थक गया हूं। करेगा घोंसले में उतर आने का। 'सरोज' पूछती है कि असहाय, बेसहारा...। लेकिन अब लौटना मत। अब उसको पुकारा है तो पुकारे ही तो अब बाहर मत लौटना। अब उसी से कहना कि थक गई है चले जाना। और अब सुख आये कि दुख, पीड़ा हो कि बहुत और अब मुझसे नहीं सहा जाता। लेकिन भीतर की तरफ जलन-अंगीकार कर लेना, क्योंकि हमें पता नहीं है शायद यही से आंख मत हटाना। कठिन होंगे ये क्षण। लेकिन जो गुजर हमारे जीवन-निर्माण के लिए जरूरी है। जाता है इन क्षणों से, वह एक बिलकुल नये अभिनव जीवन को छैनी से जब कोई पत्थर को तोड़ने लगता है, तो पत्थर भी तो | उपलब्ध हो जाता है। ये क्षण क्रांति के क्षण हैं। रोता होगा। लेकिन छैनी से टूट-टूटकर ही पत्थर प्रतिमा बनता | सौ में से निन्यानबे लोग तो कभी इस दशा को पहुंचते नहीं। है। जो राह के किनारे पड़ा था, वह मंदिर के अंतर्गर्भ में फिर जो सौ लोग पहुंचते हैं उनमें से निन्यानबे बाहर वापस लौट Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आते हैं। इसलिए शास्त्र कहते हैं, बड़ा दुर्गम है मार्ग । पहुंच-पहुंचकर छूट जाता है। हाथ में आते-आते मंजिल हजारों कोस के फासले पर हो जाती है। तीसरा प्रश्न: आप महावीर की अहिंसा पर बोलते हैं तो प्रेम जोड़ देते हैं; बुद्ध के शून्य पर बोलते हैं तो प्रेम जोड़ देते हैं। आप कुछ भी बोलते हैं तो प्रेम उसमें अनिवार्यतः जोड़ देते हैं । क्या हम संन्यासियों में प्रेम का अत्यंत अभाव देखकर ही आप प्रेम का पुनः पुनः स्मरण कराते हैं। कृपाकर कहें। जोड़ता नहीं, उघाड़ता हूं। अहिंसा नाम की मंजूषा में प्रेम का धन छिपा है । खोलता हूं मंजूषा को । तुमसे कहता हूं, इसके भीतर तो देखो ! यह मंजूषा बाहर से भी बड़ी सुंदर है! बड़ी नक्काशी है इस पर! बड़े कारीगरों ने मेहनत की है! लेकिन मंजूषा कितनी ही सुंदर हो, मंजूषा है; भीतर तो देखो ! अहिंसा तो शब्द है; सार तो प्रेम है ! और अगर सार मर जाये तो फिर अहिंसा पर तुम कितनी ही नक्काशी करते रहो, फिर मंजूषा को तुम ढोते रहो सदियों सदियों तक—उससे जीवन, उससे अमृत, उससे आनंद का आविर्भाव न होगा। फिर अहिंसा तार्किकों के हाथ में पड़ जायेगी। फिर वे शब्द की ही बाल की खाल निकालते रहेंगे। महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया प्रेम के लिए। मैं कहता हूं कि अहिंसा को हटाओ और भीतर झांककर देखो। खोलो इस मंजूषा को ! जोड़ता नहीं हूं, उघाड़ता हूं। अहिंसा हो ही कैसे सकती है बिना प्रेम के ? दूसरे को दुख न दो—यह हो ही कैसे सकता है जब तक कि दूसरे के प्रति प्रेम का आविर्भाव न हुआ हो ? और अगर तुमने इसे नियम और औपचारिक व्यवस्था की तरह मान लिया कि दूसरे को दुख नहीं देना है, क्योंकि दूसरे को दुख देने से नर्क मिलता है - प्रेम के कारण नहीं, भय के कारण दूसरे को दुख नहीं देना है - तो तुम्हारी अहिंसा में बहुत अहिंसा न होगी। तुम्हारी अहिंसा में भी हिंसा प्रगट होगी। तुम्हारी अहिंसा में फिर प्रेम के फूल न खिलेंगे। तुम्हारी अहिंसा निर्जीव होगी। पलकन पग पोंछं आज पिया के प्राण तो खो ही गये हैं, लाश रह गई है। हां, लाश को भी ठीक रासायनिक द्रव्य लगाकर रखो तो सुंदर मालूम हो सकती है। लेकिन लाश लाश है। सुंदरतम व्यक्ति की भी लाश लाश है। प्राण ही खो गये ! प्राण तो विधायक तत्व है। प्रेम विधायक तत्व है। प्रेम का अर्थ है : कुछ तुम्हारे भीतर है। अहिंसा का तो कुल इतना ही अर्थ है कि दूसरे के साथ बुरा मत तुम अगर किसी व्यक्ति की बीमारियां भर अलग करना चाहते हो और उसके जीवन में स्वास्थ्य की आकांक्षा नहीं करते तो तुम उसे स्वास्थ्य न दे पाओगे और बीमारियां भी अलग न कर पाओगे। क्योंकि बीमारी का अलग होना और उसके भीतर स्वास्थ्य का जन्म होना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दूसरे को दुख न दूं, यह गौण बात है। दूसरे को मेरे जीवन से सुख मिले—यह मूल बात है। प्रेम का इतना ही अर्थ है कि तुम दूसरे की प्रसन्नता में प्रसन्न होने लगे। क्या है प्रेम का अर्थ ? तुम कहते हो, मुझे अपनी पत्नी से प्रेम है या बेटे से प्रेम है या मित्र से प्रेम है - क्या मतलब है? इतना ही मतलब है कि जब तुम्हारा बेटा प्रसन्न होता है, तब तुम प्रसन्न होते हो। जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगती है, तो प्रेम । और जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें अप्रसन्न करने लगती है, तो घृणा । जब दूसरे की अप्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने ऐसा हुआ है, जैनों की अहिंसा निर्जीव हो गई है। उसमें से लगती है तो क्रोध, घृणा, वैमनस्य, शत्रुता, हिंसा और जब 1 करना । और यह मैं तुमसे कहना चाहता हूं: जब तक तुम दूसरे के साथ भला करने में न लग जाओ, तुम बुरा करने से न बच सकोगे। तुम कुछ तो करोगे। जीवन कृत्य है, कर्म है। अगर मैं तुम्हारे रास्ते पर फूल न बिछाऊंगा तो मैं कांटे बिछाऊंगा। और ऐसा आदमी तुम न पाओगे जो कहे कि मैं सिर्फ कांटे नहीं बिछाता तुम्हारे रास्ते पर फूल से मुझे क्या लेना-देना । तुम पाओगे कि यह आदमी या तो इतना सिकुड़ जायेगा, जैसे जैन सिकुड़ गये हैं कि फिर यह डरने लगेगा जीवन में उतरने से; क्योंकि उतरा कि कुछ कृत्य हुआ, कृत्य हुआ तो या तो कांटे बिछाओ या फूल बिछाओ। और इसकी सारी शिक्षण की व्यवस्था यह हो गईः कांटे मत बिछाना । फूल बिछाने की तो इसने हिम्मत खो दी। फूल बिछाने का तो खयाल ही छोड़ दिया। कांटे नहीं बिछाना है ! 443 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 SITE Samji दूसरे की प्रफुल्लता तुम्हें छूने लगती है और प्रसन्न करने लगती | इसे तुम कभी भूलना मत। मैं कोई उनकी व्याख्या नहीं कर रहा है, तो प्रेम। | हूं। उनके शब्द प्यारे हैं, पुनरुज्जीवित करने जैसे हैं। उन पर धूल अहिंसा का मेरे लिए अर्थ है कि तुम्हें सबकी प्रसन्नता प्रसन्न | जम गई बहुत, उनकी धूल झाड़ देने जैसी है। लेकिन जो मैं तुमसे करने लगे। तो तुम्हारे ऊपर कितनी विराट वर्षा न हो जायेगी! कह रहा हूं, महावीर तो उसमें बहाना हैं; कह तो मैं तुमसे वही धर्म-मेघ-समाधि ! तुम्हारे ऊपर धर्म के मेघ बरस उठेंगे। सब रहा हूं जो मैं कह सकता हूं। तरफ से किसी की भी प्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगे! एक वृक्ष ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है कि अहिंसा का मूल प्राण प्रेम है। में फूल खिले और तुम प्रसन्न हो जाओ! सुबह सूरज ऊगे और ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है कि जब व्यक्ति निर्वाण को उपलब्ध तुम प्रसन्न हो जाओ! एक बच्चा मुस्कुराये और तुम प्रसन्न हो | होता है, सब भांति अहंकार-शून्य हो जाता है, तब जो शेष रह जाओ! यहां कहीं भी मुस्कुराहट हो और तुम्हारे भीतर भी आनंद | जाता है, वही प्रेम का विराट आकाश है। लेकिन यह मेरी दृष्टि प्रविष्ट हो जाये! तो सारा जगत तुम्हें प्रसन्न करने लगेगा। ऐसी है। और अगर मुझे चुनना हो महावीर में और अपने में, तो मैं प्रसन्न दशा का नाम ही संन्यास है। अपने को चुनता हूं, महावीर को नहीं चुनता। और मैं तुमसे भी और, अगर हर एक की प्रसन्नता तुम्हें दुखी करती है, जैसा कि यही कहता हूं, तुम्हें अगर चुनना हो मुझमें और अपने में तो संसार में होता है-उसी दुख का नाम संसार है। तुम किसी को अपने को चुनना, मेरी चिंता मत करना। क्योंकि आत्यंतिक हंसते नहीं देख सकते। हंसते देखते ही ईर्ष्या पैदा होती है। तुम चुनाव तो स्वयं का है। किसी का बड़ा मकान बनते नहीं देख सकते। बड़ा मकान बनते प्रेम, मेरे लिए धर्म का सार है। और मेरे देखे धर्म नष्ट हुआ, ही तुम्हारे भीतर अप्रसन्नता पैदा होती है—स्पर्धा, प्रतियोगिता, सड़ गया...जहां-जहां से प्रेम अलग हो गया धर्म से, वहीं-वहीं हिंसा, ईर्ष्या ! तुम अगर दूसरे की हंसी में हंसते भी हो तो थोथी धर्म लाश हो गया। हंसी हंसते हो, ऊपर-ऊपर हंसते हो, लोकचार, उपचार। तुम भी थोड़ा सोचो, तुम्हारे जीवन में जब प्रेम न रह जाये, तो सामाजिक शिष्टाचार है। | तुम जिंदा लाश होओगे! जब तक प्रेम है तभी तक धड़कन है। 'अहिंसा' शब्द ने बड़ा खतरा किया है। वह नकारात्मक है। | चाहे उस प्रेम का कोई भी रूप हो, चाहे वह कामवासना हो और मैं उसके भीतर छिपे हुए अकारात्मक विधायक प्रेम को उघाड़ना चाहे प्रभु-वासना हो; चाहे धन का हो, चाहे धर्म का हो; चाहे चाहता हूं। जोड़ता नहीं हूं, उघाड़ रहा हूं। देह का हो, चाहे आत्मा का हो; क्षुद्र से क्षुद्र प्रेम हो या विराट से बुद्ध ने जिसे शून्य कहा है, निर्वाण कहा है; कहा है कि तुम विराट प्रेम हो लेकिन प्रेम के बिना तम एकदम खाली हो मिट जाओ; जब तुम मिट जाते हो तो तुम्हारे भीतर जो बचता है, | जाओगे। अचानक तुम पाओगे तुम जी रहे हो, लेकिन जीवन वही प्रेम है। जितना अहंकार होगा उतना ही प्रेम कम होगा। जब बचा नहीं। निकल गया! पक्षी उड़ चुका है, पिंजड़ा पड़ा रह कोई अहंकार नहीं रह जाता तो प्रेम ही प्रेम, प्रेम का सागर है! गया है। . और, इसे भी स्मरण रखना कि जब मैं बुद्ध पर बोलता हूं तो | निराले हैं अंदाज दुनिया से अपने अपने पर ही बोलूंगा। बुद्ध तो खूटी हो सकते हैं ज्यादा से | कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं ज्यादा। महावीर पर बोलता हूं तो महावीर खूटी हो सकते हैं। कोई कैद समझे मगर हम तो ए दिल टांगूंगा तो मैं अपने को ही, और कोई उपाय नहीं है। और कोई मुहब्बत को आजादगी जानते हैं। उपाय हो भी नहीं सकता। तो जब मैं महावीर पर बोल रहा हूं तो निराले हैं अदांज दुनिया से अपने तुम यह मत समझ लेना कि मैं सिर्फ महावीर पर बोल रहा हूं। मैं कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं। कोई यंत्र नहीं हूं। मेरी अपनी दृष्टि है। तो महावीर के शब्द हाथ दूसरे के पीछे जो अंधा होकर चल रहा है वह आत्मघात कर में लूंगा, लेकिन रंग तो मेरा ही उन पर पड़ेगा। उनके शास्त्र को रहा है। उलटूंगा-पलटूंगा, लेकिन अर्थ तो मेरा होगा। कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलकन पग पोंछ आन पिया के कोई कैद समझे मगर हम तो ऐ दिल खुलेगा। और अगर प्रेम सध जाये तो सब सध जाता है। तो मुहब्बत को आजादगी जानते हैं। किरणों के भीतर किरणों के द्वार खुलते जाते हैं। कोई कहता हो कि कैद है...। अगर प्रेम कैद है तो वह प्रेम संत अगस्तीन से किसी ने पूछा कि मुझे एक शब्द में सारा प्रेम ही नहीं। कहीं कुछ भूल हो रही है। तुमने कुछ को कुछ शास्त्र समझा दें, ताकि मैं सदा याद रख सकूँ। तो अगस्तीन ने समझ रखा है। क्योंकि प्रेम ने तो सदा मुक्त किया। प्रेम ने तो बहुत सोचा और कहा कि फिर अगर ऐसा ही कोई शब्द चाहते इतना मुक्त किया कि तुम्हारा परमात्मा पूरा-पूरा निखार को हो, तो प्रेम। इस एक शब्द को याद रखना। इसके विपरीत मत उपलब्ध हो जाता है। जो प्रेम बांध ले वह प्रेम नहीं; जो मुक्त जाना। और सदा इसके अनुकूल व्यवहार करना; शेष सब करे, वही प्रेम है। जो तुम्हारे स्वत्व को प्रगट करे, वही प्रेम है। अपने से सुधर जायेगा। जो तुम्हारे सत्व को निखारे, शुद्ध करे, वही प्रेम है। तुम जरा सोचो। तुम्हारे जीवन में प्रेम आ जाये, मंदिर न भी प्रेम ने कभी किसी को बांधा नहीं। गये तो तुम मंदिर पहुंच जाओगे। तुम्हारे जीवन में प्रेम आ जाये तो जिन लोगों ने कहा है कि प्रेम बंधन है, उन्होंने प्रेम के कुछ और तुमने शास्त्र न भी पढ़े तो तुम शास्त्र पढ़ लोगे। ढाई आखर गलत रूप जाने होंगे। और जिन्होंने सोचा कि प्रेम को छोड़कर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय! प्रेम सम्हल जाये तो कुछ बड़ी हम मुक्त हुए, उन्होंने जिंदगी को गंवाने को जीवन समझ लिया दार्शनिक चर्चाओं में पड़ने की जरूरत नहीं है। होगा। वे सिकुड़नेवाले लोग रहे होंगे। प्रेम अस्तित्वगत धर्म है। ‘एक्ज़ीसटेंशियल'! बाकी सब मेरे देखे, फैलो तो ही तुम परमात्मा तक पहुंचोगे। जितने बकवास है। फैलो, जितने विस्तीर्ण होने लगो, उतना शुभ है। अलम-नसीबों, जिगर-फिगारों चौथा प्रश्न : मुझे समर्पण में बहुत आनंद आता है। मेरी अलम-नसीबों, जिगर-फिगारों प्रार्थना शब्दों-शब्द परमात्मा या आपके लिए होती है। ज्ञान की सुबह अफलाक पर नहीं है। का शब्द अच्छा लगता है, मगर थोड़ा अहंकार जगता है। मेरा -जो दुखी हैं, जो कारागृह में पड़े हैं, जिनके हृदय घायल हैं, प्रतिपल ध्यान में जा रहा है, ऐसा भाव सदा रहता है। तो मैं उनकी सुबह कहीं दूर किसी आकाश पर नहीं है। कौन-सा ध्यान करूं-यह बताने की कृपा करें! जहां पे हम तुम खड़े हैं दोनों सहर का रौशन उफक यहीं है। समर्पण. जिसे सध रहा हो-ध्यान हो गया। और अन्यथा -और जहां हम दोनों खड़े हैं, ठीक इसी जगह सुबह का ध्यान करने की कोई भी जरूरत नहीं है। जिसे शरणागति में मजा सूरज ऊगेगा। जहां हम हैं वहीं सूरज ऊगेगा। आ रहो हो, बस इसी मजे के सहारे को पकड़कर और-और गहरे यहीं पे गम के शरार मिलकर मजे में उतरते जाओ। रोओ, आंसू बहाओ-आनंद से, शफक का गुलजार बन गये हैं। प्रफुल्लता से। यहीं पे कातिल दुखों के तेशे एक मित्र परसों आकर कह रहे थे कि थोड़ी घबड़ाहट होती है, कतार अंदर कतार किरनों क्योंकि जब भी ध्यान करने बैठता हूं, मस्ती आती है तो आंसू के आतिशी हार बन गए हैं! आने लगते हैं और शरीर कंपने लगता है और रोमांच हो जाता जहां हम हैं. जैसे हम हैं. वहीं ठीक हमारी ही मौजदगी और है। तो मैंने पछा. क्या करते हो? तो उन्होंने कहा, मैं रोक लेता हमारी आज की इस स्थिति में, द्वार खुल सकता है। वह द्वार प्रेम हूं जबर्दस्ती। सुशिक्षित व्यक्ति हैं—अब रोएं! और काफी उम्र हो गई है। वृद्ध हैं, कोई पैंसठ के करीब उम्र हो गई है। तुम परमात्मा को आकाश में मत खोजना, अन्यथा भटकोगे | जिंदगीभर कभी रोए नहीं, आंख कभी गीली न की। रोमांच हो व्यर्थ। तुम तो परमात्मा को हृदय के प्रेम में खोजना, तो द्वार जाता है। शरीर कंपने लगता है। कोई समझेगा कि क्या का है। 1445 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः पागलपन हो गया कि बीमारी हो गई कछ, तो रोक लेते हैं। निखार लो, रो लो! कहीं ऐसा न हो कि वह आ जाये और मैंने उनको कहा कि अब यह खतरनाक कर रहे हो। एक तरफ तुम्हारी आंखें गीली न हों। तो पैदा कर रहे हो-प्रार्थना, पूजा, ध्यान से और फिर रोक है खबर गर्म उनके आने की रहे हो। यह तो विरोधाभासी कृत्य हो जायेगा। यह तो तुम्हारी आज ही घर में बोरिया न हुआ। जीवन-ऊर्जा में विरोध, संकट पैदा हो जायेगा। यह तो बिछाने को आसन घर में नहीं है और उनके आने की खबर आ खरतनाक है। प्रसन्न होओ, आंसुओं को आनंद से बहने दो! | गई है! आनंद के लक्षण हैं आंसू! लेकिन हमने एक ही ढंग के आंसू कोई फिक्र नहीं, बिना आसन के चल जायेगा। लेकिन और जाने हैं—वे दुख के आंसू हैं। | भी कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण जरूरी चीजें हैं। आदमी ने कई महत्वपूर्ण चीजों के अनुभव खो दिये; उनमें एक | पलकन पग पोंछू आज पिया के महत्वपूर्ण आंसू भी हैं। आंसू को सीमित कर लिया है; जब अंसुअन पूर्छ हाल हिया के। दुखी होते हैं, तभी रोते हैं। आंसू का दुख से कुछ लेना-देना नहीं | बोरिया न हुआ, चलेगा। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि पैर है। आंसू का संबंध तो अतिरेक से है। दुख ज्यादा हो जाये तो पोंछने के लिए पलकें न हों! कहीं ऐसा न हो कि हाल हिया के आंसू की जरूरत आ जाती है। आनंद ज्यादा हो जाये तो आंसू पूछने के लिए आंसू न हों! की जरूरत आ जाती है। जो इतना ज्यादा हो जाये कि प्याली के पलकन पग पोंछू आज पिया के ऊपर से बहने लगे, तो आंसू आते हैं। आंसू का कोई संबंध न अंसुअन पूर्वी हाल हिया के। दुख से है न सुख से है-अतिरेक से है। उसकी तैयारी करो! निमंत्रण भेज दिया, तो आता ही होगा। तो तुम कभी आनंद में रोये या नहीं? अगर आनंद में नहीं रोये बुलाया है तो आयेगा ही। अब तुम उसके आने की चिंता न तो तुमने आंसुओं की जो सबसे ऊंची चरम अनुभूति थी वह चूक | करके, अपनी तैयारी करो। गये। तब तुमने बहुत साधारण-सी अनुभूति दुख की जानी। और बड़ी से बड़ी तैयारी है कि तुम हृदय भरकर रो सको, कि और दुख के कारण, लोग कहते हैं कि हिम्मत रखो, रोओ मत! तुम परिपूर्ण डूबकर नाच सको, कि अवाक, आश्चर्यचकित और लोग कहते हैं, मर्द बनो, रोओ मत! यह क्या बच्चों के जैसे घड़ियां बीत जायें और तुम ठगे-से रह सको! या स्त्रियों जैसे रोने लगे? तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई! आंसू का जो एक और अनूठा रूप है—आनंद का, अहोभाव भूलती सी जवानी नई हो उठी का-उससे मनुष्यता वंचित ही हो गई है। जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी . नारद ने अपने सूत्रों में कहा है: भक्त रोमांचित होता! बालपन की रवानी नई हो उठी आंसुओं से भर जाता! गदगद हो जाता! कंपित होने लगती कि रसहीन सारे बरस रस भरे उसकी देह ! रो-रोआं पुलकित हो जाता! हो गए, जब तुम्हारी छटा भा गई तो जिसको समर्पण में, शरणागति में, आनंद आ रहा है, वह तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई! ध्यान की फिक्र न करे। प्रार्थना! जलाये धूप-दीप! नाचे। भक्त तो यह मानकर ही चलता है कि तुम चल ही पड़े रोये! पुलकित हो! थोड़े क्षणों को पागल होने की कला सीखे! होओगे! खबर मिल ही गई होगी तुम्हें! थोड़े क्षणों को भूले समझदारी और संसार! थोड़ी देर को मीरा वह तैयारी में जुट जाता है। बने! लोक-लाज खोई! साधक तो भगवान को खोजता है; भक्त तो भगवान को ध्यान की कोई जरूरत नहीं है-प्रार्थना की जरूरत है। ध्यान | मानता है। साधक को तो अभी तय करना है कि भगवान है या है संकल्प के मार्ग पर। प्रार्थना है समर्पण के मार्ग पर। इसके नहीं। भक्त को उतना तो तय है कि भगवान है; अब इतना ही पहले कि परमात्मा आये, प्रार्थना खूब कर लो, आंखों को खूब | देखना है कि मेरी पात्रता है या नहीं। इस भेद को स्मरण रखना। 446 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलकन पग पोंछु आज पिया के साधक सत्य को खोजने के लिए अपनी पात्रता इकट्ठी करता तो ऐसा हुआ होगा। है। भक्त, सत्य तो है ही, प्रभू तो है ही, अब मैं उसके योग्य बन, बहत युवक मझे सनने आ जाते हैं, यवतियां सनने आ जाती इसके लिए अपनी पात्रता इकट्ठी करता है। दोनों की दिशाओं में हैं। यह शुभ लक्षण है। क्योंकि बूढ़े धर्म की बात सुनने आयें, बड़ा फर्क है। | यह अशुभ लक्षण है। बूढ़े तो धर्म की बात सुनने तभी आते हैं सत्य का खोजी विचार-निर्विचार के पंखों से चलता है। जब जिंदगी में उनके सब उपाय व्यर्थ हो गये, मौत करीब आने भक्त-न विचार, न निर्विचार; भाव, भक्ति, पूजा, प्रार्थना! लगी! मौत के भय से! और जब बूढ़े ही मंदिर, मस्जिदों में आने एक तो तय ही है बात कि परमात्मा है, इसलिए खोजने का उसके | लगते हैं और जवान वहां से खो जाते हैं, तो वे मंदिर-मस्जिद भी पास सवाल नहीं है। वह खोजने की झंझट में नहीं पड़ता। उसे कब्रों जैसे हो जाते हैं, मुर्दा हो जाते हैं। शुभ है तो अपने होने की वजह से इतना पर्याप्त प्रमाण मिल गया है कि युवतियां भी धर्म को समझने की कोशिश करें, क्योंकि उनके जीवन है, जीवन का स्रोत भी है। अपनी किरण को देखकर ही कारण धर्म भी यवा रहता है। जब भी धर्म जद समझ गया कि सूरज भी है, अन्यथा किरण कैसे होती? मैं हूं, उसमें वृद्ध तो आते ही हैं, युवा भी आते हैं। इतना काफी है। तू भी है। अब कैसे मैं अपने को तैयार कर लूं? | और यह फर्क समझ लेना। मुझे तो जो वृद्ध भी सुनने आते हैं, तो अत्यंत प्रेम से भरकर प्रतीक्षा करो! उसकी पग-ध्वनि वे भी तभी आ सकते हैं जब वे किसी गहरे अर्थ में अभी भी युवा सुनो! आता ही होगा! द्वार पर कान लगाकर बैठ जाओ। उसके हों। और मंदिर-मस्जिदों में अगर कभी कोई जवान भी पहुंच विरह में, जब तक नहीं आया है, उसकी अनुपस्थिति में, उसके| जाता है तो तभी पहुंचता है जब वह किसी गहरे अर्थ में बूढ़ा हो अभाव में भी, उसके भाव को अनुभव करो। उसका अभाव भी चुका; वह जिंदा नहीं है अब, रुग्ण है। क्योंकि मैं जो कह रहा प्यारा है। इसे समझना। हूं, वह जीवन-विरोधी नहीं है। मैं जो कह रहा हूं, वह महाजीवन संसार की चीजें मिल भी जायें तो कुछ नहीं मिलता; और की खोज है। परमात्मा न भी मिले, सिर्फ उसकी याद भी मिल जाये तो सब तो अनेक बार ऐसा हो जायेगा कि युवा-युवती आ जायेंगे मिल जाता है! सुनने, सुनकर उनको कई रूपांतरण होंगे। जिसे उन्होंने कल तक हंसी-खुशी समझा था, वह हंसी-खुशी मालूम न होगी। अच्छा आखिरी प्रश्नः आपको सुनने के पूर्व मैं कालेज की है, कुछ बोध जगना शुरू हुआ। क्योंकि अब तक जिसे हंसती-खेलती छात्रा रही; सुनने के बाद न जाने क्या हुआ कि | हंसी-खुशी जाना था, वह केवल नासमझी थी, वह केवल कहीं भी रुचि नहीं लगती-सुख-भोग में भी नहीं। सत्संग में बचपना था। अभी खिलौनों से खेलते रहे थे। मेरे पास आकर आती भी हूं और आने से कतराती भी हूं। कृपापूर्वक उनको दिखाई पड़ जायेगा, ये तो खिलौने हैं। रस खो जायेगा। मार्ग-दर्शन दें। असली जीवन की शुरुआत के पहले खिलौनों में रस खो जाना जरूरी है। जो हंसना-खेलना इतनी सरलता से खो जाये, उसका कोई | फिर आने में डर भी लगेगा। आने का मन भी होगा। आने से मूल्य नहीं। मैं तुम्हें ऐसा हंसना-खेलना सिखाऊंगा जो फिर खो बचना भी संभव नहीं है और डर भी लगेगा। डर लगेगा कि कहीं न सके। ऐसा न हो कि सारा जीवन का रस खो जाये। और आने से रुकना एक तो बचपन है, जिसमें बच्चे प्रसन्न होते हैं। उस प्रसन्नता भी असंभव होगा, क्योंकि कोई रस पैदा होगा जो पुकारेगा और का कोई बहुत मूल्य नहीं है—जिंदगी उसे नष्ट कर देगी। फिर बुलायेगा। एक दुविधा पैदा होगी। यह भी शुभ लक्षण है। यह एक और बचपन है, जो जीवन की चरम प्रौढ़ता से उपलब्ध होता सोच-विचारशील व्यक्ति का लक्षण है। है। संत फिर छोटे बच्चों जैसे हो जाते हैं। फिर एक हंसना और सोच-विचारशील व्यक्ति को जीवन में हजार ऐसे मौके आते खेलना पैदा होता है; उसे फिर कोई भी न छीन सकेगा। | हैं, जहां उसे तय करना पड़ता है; जहां आधा मन कहता है मत Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 जिन सूत्र भाग: 1 जाओ, आधा कहता है जाओ । कायर आदमी उस आधे मन की मान लेता है, जो कहता है मत जाओ । साहसी व्यक्ति उस आ मन की मानता है जो कहता है, करो अभियान ! खोजो नये को ! अपरिचित राह को चुनो ! पश्चिम के एक बहुत बड़े कवि से किसी ने पूछा कि तुम्हारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात जिसने तुम्हारे जीवन के अर्थ को निर्णीत किया, कौन-सी थी ? तो उसने कहा कि जब मेरे पिता मर रहे थे तो उन्होंने मुझे पास बुलाया और कहा कि सुन, जीवन के हर कदम पर दो रास्ते खुलते हैं। एक रास्ता जाना-माना, जिस पर तुम चलते रहे हो; और एक रास्ता अपरिचित अनजाना, जिस पर तुम कभी नहीं चले हो । मन सदा कहेगा, जाने-माने को चुन लो, क्योंकि मन बहुत आर्थोडक्स है। जाने-माने को कभी मत चुनना, क्योंकि जिस पर चलते ही रहे हो, अब और चलकर क्या होगा ? अनजाने को चुन लेना । और जिंदगी के हर रास्ते पर दो कदम खुलते हैं। दो रास्ते खुलते हैं। सदा अनजाने को चुनते रहना । उस कवि ने कहा, मैंने पिता की बात मान ली। बड़ी कठिन थी। और कई बार भूला । कई बार चूका। लेकिन फिर भी उस सूत्र को सम्हाले रहा। इसी तरह मेरे जीवन में रोज-रोज सत्य की नयी-नयी सुबह हुई; सत्य का नया-नया सूरज निकला। अपरिचित, अनजान, अज्ञात — उसे जो चुनता है, उसने परमात्मा को चुना। तो डर लगेगा यहां आने में। क्योंकि मैं तुम्हें रोज अनजान की तरफ, अपरिचित की तरफ धक्के दूंगा। मन कहेगा, रुक जाओ, मत जाओ। इलाहाबाद में मैं बोल रहा था कई वर्षों पहले। जिन मित्र ने मुझे बुलाया था, वे हिंदी के एक कवि और लेखक हैं। वे सामने ही बैठे थे। कोई दस-पंद्रह मिनट मैंने देखा कि उनकी आंखों से आंसू गिरते रहे फिर वे एकदम से उठे और भवन के बाहर निकल गये । उन्होंने ही मुझे बुलाया था। फिर तीन दिन उनका कोई पता ही न चला। जब विदा का दिन आया तो वह मुझे स्टेशन छोड़ने आये। मैंने पूछा कि कहां चल दिये ! उन्होंने कहा कि पंद्रह मिनट तो मैं सुनता रहा, फिर मैं डरा । फिर मुझे लगा कि यह आदमी खतरे में ले जायेगा। तो मैंने कहा कि इसके पहले | कि कोई झंझट शुरू हो, यहां से निकल जाना चाहिए। तो मैं निकल गया। यह स्थिति सभी के सामने आयेगी । मेरे साथ चलना है तो बहुत कुछ जो तुम्हारी जिंदगी में तुम्हें कल तक मूल्यवान मालूम होता रहा, मूल्यहीन हो जायेगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, अज्ञात के लिए सदा अपने द्वार खुले रखना। क्योंकि वही द्वार है, जिससे परमात्मा प्रवेश करता है। आज इतना ही। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internal For www.jaba Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां प्रवचन जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति For Private Personal Use Only / Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIMIRMATI - मग्गो मग्गफलं ति य, द्रविहं जिणसासणे समक्खादं। मग्गो खलु सम्मतं मग्गफलं होइ निव्वाणं ।।५२।। दंसणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि। साधूहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा।।५३।। B आण्णाणादो पाणी, जदि मण्णादि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो।।५४ ।। E KIRANI www.jainelibrary org Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sन-दर्शन गणित, विज्ञान जैसा दर्शन है। काव्य की | क्योंकि हम जानते नहीं जीवन के नियम को, इसलिए हम । उसमें कोई जगह नहीं है। परमात्मा का नाम लेते हैं। तुमने देखा भी होगा, जब भी तुम वही उसकी विशिष्टता है। कहते हो ‘परमात्मा जाने' तो तुम्हारा मतलब यह होता है कि दो और दो जैसे चार होते हैं, ऐसे ही महावीर के वक्तव्य हैं। कोई नहीं जानता। ‘परमात्मा जाने' का यह अर्थ नहीं होता कि उन्हें समझने के लिए ठीक वैज्ञानिक की बुद्धि चाहिए। जैसे सौ परमात्मा जानता है-इतना ही अर्थ होता है कि तुम भी नहीं डिग्री तक हम पानी को गर्म करें, तो वह भाप बन जाता है। सौ जानते, कोई भी नहीं जानता। जहां तुम्हें अपने अज्ञान को प्रगट डिग्री तक पानी गर्म हुआ कि भाप बनेगा ही। इस भाप को बनाने | करना होता है वहां तुम परमात्मा को ले आते हो। लेकिन इस के लिए न तो किसी की प्रार्थना करनी जरूरी है, न किसी का | ढंग से प्रगट करते हो कि लगता है जैसे कोई जानता है। आशीर्वाद लेना जरूरी है। और अगर सौ डिग्री तक पानी गर्म न 'परमात्मा जाने', इसमें तुमने यह भी छिपा लिया कि मैं नहीं हुआ, तो लाख प्रार्थना करो, लाख आशीर्वाद लो, पानी पानी ही जानता। और दूसरे के सामने यह बात ढांक दी, अज्ञान को छिपा रहेगा, भाप न बनेगा। लिया, प्रगट न होने दिया। जैसे विज्ञान कहता है, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, विज्ञान कहता है: जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है, परमात्मा हटता प्रकृति के नियम काफी हैं, पर्याप्त हैं; परमात्मा के होने से उन | जाता है। जिस दिन ज्ञान पूरा हो जायेगा, परमात्मा शून्य हो नियमों में कुछ जुड़ेगा नहीं। विज्ञान की एक मूलभूत धारणा | जायेगा। है-और वह है न्यूनतम सिद्धांत। जितने कम सिद्धांतों से काम महावीर की भी ऐसी ही दृष्टि है। इसलिए महावीर ने परमात्मा चल सके उतना उचित है। चेष्टा तो विज्ञान की यही है कि अंततः को इनकार किया, प्रार्थना को इनकार किया-शुद्ध जीवन के एक ही सिद्धांत मिल जाये जिससे जीवन की सारी पहेली सुलझ गणित को समझने की कोशिश की। सके। इसलिए गैर-अनिवार्य को बिलकुल जगह नहीं देना है। आदमी बंधन में है, तो कारण होंगे। अगर आदमी को अगर सौ डिग्री गर्म करने से पानी भाप बन जाता है तो फिर बंधन-मुक्त होना है तो उन कारणों को अलग करना होगा। पानी को भाप बनाने के लिए और किसी परमात्मा की जरूरत | बस, इतना सीधा-साफ। और सब आकांक्षाएं, अपेक्षाएं नहीं है। और किसी की प्रार्थना भी व्यर्थ है। इस नियम को अपने-आपको भुलाने के उपाय हैं। जिसने जान लिया, वह अगर पानी को भाप बनाना चाहेगा तो कोई तुम्हें बंधन में डाला नहीं है, कोई तुम्हें मुक्त करने न बना लेगा। आयेगा। जीवन के सीधे नियम का तुम उपयोग नहीं किये, विज्ञान के हिसाब से परमात्मा हमारे अज्ञान का हिस्सा है। इसलिए बंधन में पड़ गये हो। उपयोग कर लोगे, बंधन के बाहर 453 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग । हो जाओगे। संबंध नहीं है। इलाज करो। बीमारी के रोगाणु हैं, उनसे मुक्त जैसे कोई आदमी सम्हलकर चलता हो तो गिरता नहीं। जो होने की व्यवस्था करो। ताबीज से रोगाणु डरेंगे न और न मुक्त आदमी गिर जाता है, उससे हम कहते हैं, सम्हलकर चलो! होंगे और न तुम उनसे मुक्त हो सकोगे। सम्हलकर चलने का क्या अर्थ होता है ? सम्हलकर चलने का महावीर कहते हैं, जीवन में दुख है तो तुम ठीक-ठीक कारण अर्थ होता है: जमीन की गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है, उसका खोजो। दुख से तुम बचना चाहते हो, यह तो हमें मालूम है; ध्यान रखकर चलो। अगर इरछे-तिरछे चले-गिरोगे। वही लेकिन सिर्फ बचने की आकांक्षा से बच न सकोगे। और दुख से गुरुत्वाकर्षण का नियम जो तुम्हें चलाता है, सम्हालता है, | तुम बचना चाहते हो, इसलिए कोई भी कुछ बता देता है, वही जिसके बिना चल न सकोगे, अगर उसके विपरीत गये तो करने लगते हो—इससे भी न बच सकोगे। हो सकता है गिरोगे, हाथ-पैर तोड़ लोगे, फिर कभी चल न पाओगे। तो | बतानेवाले की भी आकांक्षा शुभ हो; खोजनेवाले की भी गुरुत्वाकर्षण के निमय को समझ लो और अपने और उस नियम | आकांक्षा शुभ हो; लेकिन आकांक्षाओं से थोड़े ही जीवन चलता के बीच एक संगीत का संबंध बना लो। इतना ही धर्म है। है। जीवन चलता है सत्यों से, नियमों से। तो नियम को खोज महावीर धर्म की परिभाषा करते हैं : जीवन के स्वभाव सूत्र को लो। नियम के खोजते ही जीवन में क्रांति घटित होती है। समझ लेना धर्म है। जीवन के स्वभाव को पहचान लेना धर्म है। उस नियम की खोज को महावीर कहते हैं: मार्ग। वही मार्ग स्वभाव ही धर्म है। पकड़ में आ जाये तो फिर परिणाम के लिए प्रार्थना भी करनी ये सूत्र ऐसे ही सीधे-साफ हैं। जरूरी नहीं है, उतना भी समय खराब मत करना। क्योंकि जब पहला सूत्रः तुमने आग जला दी और पानी गर्म होने लगा तो अब बैठकर मग्गो मग्गफलं ति य, द्रविहं जिणसासणे समक्खाद। प्रार्थना मत करना कि हे परमात्मा, इसको भाप बना! अब किसी मग्गो खलु सम्मतं मग्गफलं होइ निव्वाणं।। परमात्मा को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। अब तो पानी भाप 'जिन-शासन में मार्ग तथा मार्ग-फल, इन दो प्रकारों से कथन | | बनेगा। ईंधन पूरा है, आग जल उठी है-पानी भाप बनेगा। किया गया है। मार्ग है मोक्ष का उपाय और फल है निर्वाण।' अब इसे कोई रोक भी न सकेगा। इस नियम के विपरीत कुछ घट मार्ग और मार्ग-फल! बस महावीर के सारे वचन इन दो | न सकेगा। हिस्सों में बांटे जा सकते हैं : कारण और कार्य। ऐसा करो तो महावीर चमत्कार में नहीं मानते। कोई वैज्ञानिक बुद्धि का ऐसा होगा। बस इतनी दो सरणियों में महावीर के पूरे कथन बांटे व्यक्ति नहीं मानता। चमत्कार कहीं न कहीं धोखा होगा, क्योंकि जा सकते हैं। कुछ कथन हैं जो बताते हैं क्या करो और कुछ नियमों का कोई अपवाद नहीं होता। अगर कोई आदमी हाथ से कथन हैं जो बताते हैं कि फिर क्या होगा। अगर जहर पी लो तो राख निकाल देता है तो कहीं न कहीं कोई मदारीगिरी होगी, मृत्यु होगी। अगर अमृत को खोज लो तो अमरत्व को उपलब्ध क्योंकि जीवन के नियम किसी का अपवाद नहीं मानते। जीवन हो जाओगे। के नियम व्यक्तियों की चिंता नहीं करते-निर्वैयक्तिक हैं, परिणाम कारण के पीछे ऐसे ही चला आता है जैसे तुम्हारे पीछे सार्वभौम हैं। उनसे अन्यथा होने का उपाय नहीं।। तुम्हारी छाया चली आती है। तो करना क्या है? न प्रार्थना, न अगर कोई आदमी साठ डिग्री पर पानी को भाप बना दे तो या पूजा, न मंदिर, न पाठ: क्योंकि इनसे कछ भी न होगा। इनसे तो थर्मामीटर से धोखा दे रहा है या किसी तरह का आयोजन कर कारण का कोई संबंध नहीं है। रहा है, जिससे तुम्हें यह भ्रम पैदा होता है कि साठ डिग्री पर पानी यह तो ऐसे ही है जैसे वर्षा नहीं हो रही और कोई यज्ञ कर रहा भाप बन रहा है। है। इसका कुछ लेना-देना नहीं है। यज्ञ से कोई कार्य-कारण का पानी तो सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। उसने किसी तरह का संबंध नहीं है वर्षा से। कि कोई बीमार पड़ा है और तुम ताबीज भ्रमजाल रचा है। लेकिन चमत्कार जगत में नहीं होते। बांध रहे हो: ताबीज से और बीमारी का कोई कार्य-कारण का चमत्कार का तो अर्थ यह होता है कि जगत के नियम पक्षपात 1454 Jair Education International Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति करते हैं। किसी एक आदमी की मानकर कुछ उलटा भी कर देते तो उपनिषदों में जैसा सौंदर्य है, कृष्ण के वचनों में जैसा रस है हैं। किसी दूसरे की मानकर नियम में शिथिलता कर देते हैं। वैसा महावीर के वचनों में नहीं है। किसी तीसरे पर नाराज हो जाते हैं। जिस पर प्रसन्न हैं, साठ डिग्री गणित को गाया नहीं जा सकता। गणित को गाओ तो गणित पर पानी भाप बन जाता है; जिस पर नाराज हैं, उसके लिए डेढ़ बिगड़ जाता है। क्योंकि गाने के लिए कुछ गैर-गणित भीतर सौ डिग्री पर भी भाप नहीं बनता। लाना पड़ता है। मगर महावीर कहते हैं, पानी सौ डिग्री पर भाप बनता है। इसलिए तो हम कवि से कभी तार्किक होने की अपेक्षा नहीं नियम न नाराज होते न प्रसन्न होते। नियम निर्वैयक्तिक है। करते। और कवि अगर सपनों की बात करे तो हम उसे क्षमा इसको खयाल में लेना। परमात्मा व्यक्ति है। करते हैं। और कवि अगर मनगढंत बातों में घूमे तो हम कहते हैं, तो जब भी हम परमात्मा की बात करते हैं, हमारे मन में कवि है, कविता है। संभावनाएं उठने लगती हैं कि अगर खूब प्रार्थना करें, खूब स्तुति | लेकिन गणितज्ञ से हम दूसरी अपेक्षा करते हैं। गणितज्ञ से हम करें, खूब समझा-बुझा लें, तो जो दूसरे के लिए नहीं हुआ है वह चाहते हैं सीधी-साफ रेखा हो, शुद्ध रेखा हो, जिसमें कुछ भी हमारे लिए हो जायेगा। क्योंकि व्यक्ति के आते ही लगता है गणितज्ञ ने अपने भाव के कारण न डाला हो। केवल सत्य का फुसला लेंगे, राजी कर लेंगे, समझा लेंगे, रोयेंगे, गिड़गिड़ायेंगे, प्रतिफलन हो। शुद्ध सत्य का प्रतिफलन हो। सजावट न हो, सहानुभूति पैदा कर लेंगे, करुणा मांगेंगे! आखिर परमात्मा शंगार न हो। दयालु है, तो खूब रोयेंगे तो दया उठेगी। इसलिए महावीर के वचन, जैसे महावीर नग्न हैं वैसे ही लेकिन महावीर कहते हैं, ऐसे तुम किसी और को धोखा नहीं दे | महावीर के वचन भी नग्न हैं। उनमें कोई सजावट नहीं है। जैसा रहे, अपने को ही धोखा दे रहे हो। है वैसा कहा है। और जिनके पास वैज्ञानिक बुद्धि है उनको ऐसी चेष्टाएं व्यर्थ हैं और उनमें गंवाया गया समय तुमने व्यर्थ महावीर पर बड़ी श्रद्धा पैदा होगी। उनको महावीर के साथ बड़ा ही गंवाया। मार्ग को खोज लो! संबंध जुड़ जायेगा। महावीर का जोर मार्ग पर है; परमात्मा के सहारे पर नहीं; 'मार्ग तथा मार्ग-फल, इन दो प्रकार से कथन किया है। मार्ग परमात्मा के आलंबन पर नहीं। यही तो सारे विज्ञान की दृष्टि मोक्ष का उपाय है और उसका फल मोक्ष या निर्वाण...' है। विज्ञान कहता है, कहीं कुछ घट रहा है। हमें आज पता न हो | मोक्ष या निर्वाण शब्द को समझ लेना चाहिए। क्यों घट रहा है; लेकिन जिस दिन पता चल जायेगा उस दिन 'मोक्ष' शब्द बड़ा अनूठा है। भारत के बाहर की किन्हीं फिर घटाने की शक्ति हमारे हाथ में आ जायेगी। भाषाओं में मोक्ष के पर्यायवाची कोई शब्द नहीं है। स्वर्ग है सभी और जब तक हमें पता नहीं है तब तक बेहतर है कि हम कहें | भाषाओं में, लेकिन मोक्ष भारत के बाहर की किन्हीं भाषाओं में कि हमें मालम नहीं। नहीं है। क्योंकि मोक्ष की धारणा ही किसी और देश में पैदा नहीं तो महावीर के अधिक वचन तो मार्ग-सूचक हैं। और कुछ हुई। उतनी ऊंचाई तक, उतनी गहराई तक मनुष्य की चिंतना और वचन फल-सूचक हैं। ऐसा पूरा जिन-शासन दो हिस्सों में | ध्यान गया नहीं कहीं और। विभाजित है। मोक्ष का अर्थ होता है : जहां सुख भी नहीं, दुख भी नहीं। आइंस्टीन भी इससे राजी होगा। प्लांक भी इससे राजी होगा। स्वर्ग का अर्थ होता है : जहां सुख है, भरपूर सुख है। स्वर्ग का रसेल भी इसमें भूल-चूक न निकाल पायेगा। इसलिए महावीर | अर्थ होता है जो हम चाहते हैं वही है; जैसा हम चाहते हैं वैसा के वचनों में या जैन शास्त्रों में तुम्हें कहीं काव्य न मिलेगा, काव्य | है। हमारी चाह का परिपूरक है। हमारी चाह को भरता है। का चमत्कार न मिलेगा। पढ़ोगे तो रूखे-सूखे लगेंगे। ठीक हमारी चाहत के अनुकूल जहां सब हो रहा है वहां स्वर्ग है। तो गणित की किताबें हैं-ज्यामिति, आध्यात्मिक ज्यामिति। जहां हमारी चाह पूरी होती है वहां क्षणभर को हम भी स्वर्ग में हो अंतरात्मा के संबंध में ज्यामेट्री खड़ी की है। जाते हैं। 455 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 नर्क का अर्थ है : जहां सब हमारी चाह के विपरीत हो रहा है | उस क्षण में तुम कहां होते हो? उस क्षण में तुम शरीर के भीतर जो हम चाहते हैं ठीक उससे उलटा हो रहा है; जिस-जिससे हम | होते हो? नहीं, उस क्षण में शरीर की स्मृति खो जाती है। तुम बचना चाहते हैं वही-वही हो रहा है। विदेह हो जाते हो। क्योंकि शरीर से हमारा संबंध चाह का संबंध नर्क और स्वर्ग सारी दुनिया की भाषाओं में हैं। है। उस क्षण में तुम शरीर में नहीं होते। उस क्षण में तुम पृथ्वी पर 'मोक्ष' बड़ा अनूठा शब्द है। मोक्ष का अर्थ है : न तो हमारी नहीं होते। उस क्षण में तुम स्थान में नहीं होते। उस क्षण में तुम अब कोई चाह है, न हमारी कोई पसंद है। क्योंकि महावीर कहते समय में भी नहीं होते। उस क्षण में तुम अचानक किसी दूसरे ही हैं, जब तक चाह है तब तक बंधन रहेगा। हां, यह भी हो सकता लोक में प्रवेश कर गये-पार का लोक! जल्दी ही तुम लौट है कि तुम सोने के बंधन बना लो; लोहे की जंजीरें तोड़ डालो | आओगे। क्योंकि उस पार के लोक में जीने की, उस ऊंचाई पर और सोने की जंजीरें ढाल लो। और यह भी हो सकता है उन | जीने की तुम्हारी क्षमता नहीं है। उस ऊंचाई पर श्वास लेने की जंजीरों पर हीरे-मोती जड़ दो। वे प्यारे लगने लगें। वे इतने प्यारे तुम्हारी कुशलता नहीं है। उन ऊंचाइयों पर उड़ने की अभी तुमने हो जायें कि आभूषण मालूम पड़ें। | आदत नहीं डाली, अभ्यास नहीं किया है। बहुत-से आभूषण, जिन्हें तुम आभूषण समझते हो, जंजीरें | इसलिए कभी-कभी क्षणभर को जब चाह छूट जाती है, तब सिद्ध होते हैं; और बहुत-सी जंजीरें जिनकी तुम्हें याद भी नहीं | तुम एकदम मुक्ति अनुभव करते हो। आती कि जंजीरें हैं, आभूषणों में छिप गई हैं। ऐसे ही तो पहली दफा आदमी को मोक्ष का खयाल उठा होगा तो महावीर कहते हैं, सुख की आकांक्षा या सुख का मिलना भी | कि जो क्षणभर को हो सकता है वह सदा को क्यों न हो! जो एक जंजीर है-सोने की जंजीर है। दुख का मिलना लोहे की जंजीर | क्षण को चेतना में कभी-कभी झलक जाता है, वह सदा के लिए है। लेकिन दोनों बांधते हैं। तुमने खयाल किया? कभी तुम्हें चेतना का स्वभाव क्यों न बन जाये! एकाध क्षण को भी ऐसी चैतन्य की घड़ी आई, जब न सुख की मोक्ष का अर्थ है : जहां चेतना की कोई चाह नहीं। जहां चाह आकांक्षा है न दुख की? तब तुमने देखा, कैसी मुक्ति अनुभव | नहीं वहां संसार में कोई राह नहीं। होती है! सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। सब कारागृह विलुप्त चाह राह बनाती है; संसार में ले आती है। क्योंकि जहां चाह हो जाते हैं। क्षणभर को तुम्हारे चेतना के आकाश में एक भी आई, वहां वस्तुओं का संसार आया। तुमने कुछ चाहा, तुम्हारी बादल नहीं रह जाता। निरभ्र आकाश! अनंत आकाश! जैसे ही आंख दूर गई, 'पर' पर पड़ी-तुम बंधे! तुम उलझन में पड़े! उठी आकांक्षा, बादल घिरे, अंधेरा छाया! आकाश तो खो गया, और जिसने सुख चाहा-उसे दुख मिला। बदलियां रह गईं! धुएं के बादल रह गये! | यह तो हमारा सबका अनुभव है। सभी ने सुख चाहा कभी क्षणभर को भी अगर तुम्हारे जीवन में ऐसा हो जाता हो, है-मिला कहां? चाहा तो सभी ने सुख है; पाया सभी ने दुख छा है, न दुख की, कोई इच्छा नहीं है, तुम है। इसे तुम कब देखोगे? कब जागोगे कि चाह तो कुछ और अनिच्छा में बैठे हो–उसी घड़ी को महावीर 'सामायिक' कहते होती है, मिलता कुछ और है। हैं। तुम संसार के बाहर हो। क्योंकि महावीर के हिसाब में संसार तो महावीर कहते हैं, यह जीवन का आधारभूत नियम है कि जो का अर्थ है : चाह के भीतर होना। | सुख चाहेगा वह दुख पायेगा। सुख की चाह में ही दुख छिपा है। चाह से भरे होना संसार में होना है। फिर तुम चाह कोई भी | इसे समझो। करो। चाहे पृथ्वी के धन की हो, चाहे स्वर्ग के धन की हो; चाहे | पहला, सुख वही चाहता है जो दुखी है-एक बात। क्योंकि तुम पुण्य की आकांक्षा करो; लेकिन कोई भी आकांक्षा है, चाहत | तुम वही चाहते हो जो तुम्हारे पास नहीं है। जो तुम्हारे पास है, जारी है और तुम संसार में हो। | तुम क्यों चाहोगे? जो तुम्हारे पास है ही, उसकी तो चाह खो ऐसी भी घड़ियां हैं चैतन्य की, जब कोई चाह नहीं, जब तुम | जाती है; जो नहीं है उसकी ही चाह पैदा होती है। अभाव चाह | हो-निपट अकेले! शुद्ध! कोई धुएं की रेखा भी भीतर नहीं। को जन्माता है। अभाव जन्मदाता है। 456 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति तो जिस आदमी ने सुख चाहा, एक बात तो उसने यह बतायी दुख निकलता है। कि वह दुखी है। फिर जिस आदमी ने सुख चाहा, उसने दूसरी तो महावीर कहते हैं, जिसने छोड़ा है, उसने सिर्फ दुख को ही बात भी बतायी कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो | नहीं छोड़ा, उसने सुख को भी छोड़ा है। उसने नर्क का ही त्याग जाऊंगा, विषाद घेरेगा, असफलता हाथ लगेगी। और जैसे ही नहीं किया...। वह तो सभी करते हैं; उसमें कौन-सी कुशलता उसे यह खयाल आया कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो | है? उसमें कौन-सी मेधा है? दुख से कौन नहीं बचना जाऊंगा, विषाद होगा मेरे जीवन में, उद्विग्न हो जाऊंगा, हारा चाहता-सभी बचते हैं। उसमें कौन-सी बुद्धिमानी है? उसमें हुआ, थका हुआ, पराजित-भय समाया! भय आया। यह कौन-सी विशेषता है। लेकिन जिसने गौर से देखा, समझा, आदमी वैसे ही दुखी था, इसने सुख की चाह करके और दुख | जीवन की पर्तों को उघाड़ा, रहस्य को पहचाना, गणित का सूत्र बुला लिया, और भयभीत हो गया। अब यह डगमगाते कदमों समझ में आ गया उसे कि दुख की सारी चाल यही है कि वह तुम्हें से सुख की तरफ चलता है। | सुख का आश्वासन देता है और भरमा लेता है। तुम सुख के और, सुख हम सदा बाहर मांगते हैं: किसी स्त्री से मिलेगा, आश्वासन में दुख के पीछे चले जाते हो, भटक जाते हो। किसी पुरुष से मिलेगा, धन से मिलेगा, पद से मिलेगा! लेकिन मिलता दुख है, चाहते सदा सुख हो। पद से सुख का क्या संबंध है? तुम कितनी ऊंची कुर्सी पर बैठते । जो जागा इस अनुभव में, उसने सुख नहीं चाहा। और जिसने हो, इससे सुख का क्या संबंध? तुम कितने बड़े मकान में हो, सुख नहीं चाहा, उसके जीवन से दुख विदा होने लगे। क्योंकि इससे क्या सुख का संबंध है? | बिना सुख की चाह के दुख निर्मित नहीं हो सकता। सुख का मकान के बड़े और छोटे होने से कहीं भी तो कोई थोड़ा सोचो! संबंध नहीं है। क्योंकि सड़क पर खड़े भिखारी भी कभी सुखी जिस आदमी ने सफलता नहीं चाही, उसे तुम विफल कैसे देखे गये हैं। महावीर खुद ही ऐसे भिखारी थे। और कभी महलों करोगे? और जिसने कभी जीतना नहीं चाहा, उसे तुम हराओगे में सम्राट भी दुखी देखे गये हैं। कैसे? और जिसने कभी धनी होने के पागलपन में अपने को तो दुख और सुख का संबंध स्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता, नहीं लगाया, उसे तुम निर्धन कैसे कर पाओगे? और जिसने परिस्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता—कुछ भीतरी दशाओं से तुमसे सम्मान नहीं मांगा, तुम उसका अपमान कैसे करोगे? जुड़ा है। तो जब भी तुमने बाहर मांगा, गलत जगह मांगा। और | करोगे कैसे? उपाय कहां है ? उसने तुम्हें सुविधा कहां दी? मांग मात्र बाहर की होती है। भीतर तो मांगोगे किससे, मांगोगे जिसने सम्मान चाहा, उसे तुम अपमानित कर सकते हो। क्या? वहां तो कुछ भी नहीं है-शून्य आकाश है। वहां तो जिसने धन चाहा, उसकी चाह में ही वह निर्धन हो गया। जिसने कोरापन है। वहां तो तुम मुट्ठी बांधना चाहोगे तो बंधेगी नहीं; जीत चाही, उसने पराजय के ढेर लगा लिये। बंध भी जायेगी तो हाथ में कुछ न आयेगा। आकाश को कौन इसलिए महावीर कहते हैं: मोक्ष का अर्थ है इस अनुभव को मुट्ठी में बांध सका है! आत्मा को भी कोई नहीं बांध सका है। तुम्हारे जीवन की स्थिर दशा बना लेना कि न सुख की चाह न तो भीतर तो कुछ पकड़ में आता नहीं, बाहर पकड़ में चीजें आ दुख की चाह, न नर्कन स्वर्ग, कोई चाह नहीं। जाती हैं, तो हम सोचते हैं बाहर होगा। ऐसे बाहर दौड़ते हैं जहां ___ अचाह की दशा मोक्ष है। नहीं है। फिर एक न एक दिन स्वप्न टूटता है और पता चलता है । तो यह तो परिणाम है मोक्ष। मोक्ष यहां घट सकता है। ऐसा यहां नहीं है; हम महादुखी हो जाते हैं। उस महादुख से और बड़े मत सोचना जैसा कि साधारणतः लोग समझते हैं कि मोक्ष मरने सुख की आकांक्षा पैदा होती है। क्योंकि जितने हम दुखी होते हैं | के बाद घटता है। जिसको जीते-जी नहीं घटा उसे मरने के बाद उतनी ही तीव्र आकांक्षा होती है कि जल्दी करो, मौत करीब आयी | भी नहीं घटेगा। पहले तो मोक्ष जीवन में उतरता है। इसलिए जाती है, सुखी होना है। ऐसा एक दुष्टचक्र है। दुख में से सुख व्यक्ति पहले जीवन-मुक्त होता है-जीते-जी मुक्त होता है। की आकांक्षा निकलती है; सुख की आकांक्षा में से और बड़ा फिर जो जीते-जी मुक्त हो गया, वह तो मरने के बाद भी मुक्त | Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 रहेगा। मुक्ति एकमात्र संपदा है जिसे मृत्यु नहीं छीन पाती। और पर जाकर कहा कि सुनो, मरना है तो इतना शोरगुल क्यों कर रहे सारी संपदाएं मृत्यु छीन लेती है। | हो? शोरगुल जिसको जिंदा रहना है उसको शोभा देता है। अब इसलिए महावीर कहते हैं: अगर तुम थोड़े भी बुद्धिमान हो, जिसको मरना ही है तो यह इतना क्या विज्ञापन? दरवाजा खोलो थोड़ा हिसाब तो करो, गणित तो बिठाओ! तुम जो इकट्ठा कर रहे और मेरे साथ चलो! तुम्हें मरने की कोई ढंग से व्यवस्था जुटा हो वह सब मौत छीन लेगी। पहले तो कर न पाओगे। कौन कब | देंगे; यह कोई ढंग चुना? अब जब मरना ही है...। कर पाया? और अगर किसी तरह कर भी लिया तो जब तक तुम तब वह मुझे तो धमकी दे नहीं सका कि मर जाऊंगा। अब उसे कर पाओगे, मौत द्वार पर आ जायेगी। करोगे तुम, छीन लेगी | कुछ समझ में न आया तो उसने दरवाजा खोल दिया। मैंने कहा, मौत। यह कैसी नासमझी कर रहे हो? उसे कमा लो, जिसे मौत 'तुम मेरे साथ आओ-नर्मदा पर चलेंगे। 'धुआंधार' ले न छीन सकती होः मुक्त दशा! चैतन्य की अचाह की दशा! | चलेंगे। वहां से तुम कूद जाना। चांद की रात है, जलप्रपात है, चैतन्य का निरभ्र आकाश, जिसमें कोई चाह के बादल नहीं! जब मर ही रहे हो—जिंदगी में तो कुछ नहीं मिला, कम से कम फिर मौत कुछ भी न कर पायेगी। मौत को ही सुंदर बना लो!' मौत एक जगह जाकर हारती है-वह मोक्ष है। और सभी उसने मेरी तरफ बड़ी गौर से और हैरानी से देखा; क्योंकि जो चीजों पर जीत जाती है। अब इसे समझना। भी आये थे, वह सब समझा रहे थे दरवाजे के बाहर से कि बेटा हमारी जीवन की भी आकांक्षा है, इसलिए मौत जीत जाती है। मरना मत! ऐसा मत करना, वैसा मत करना! जीवेषणा! हम जीना चाहते हैं-हर हाल जीना चाहते हैं! हर एक लड़की से उसका प्रेम था। उस लड़की ने विवाह करने से शर्त पूरी करने को राजी हैं, लेकिन जीना चाहते हैं। सड़ते हों, इनकार कर दिया था। तो लोग समझा रहे थेः 'उससे अच्छी गलते हों, मरते हों, खाट पर पड़े हों, अस्पतालों में लटके हों, लड़कियां मिल जायेंगी, उसमें रखा क्या है? तू घबड़ाता क्यों उलटे-सीधे हाथ-पैर बंधे हों लेकिन जीना चाहते हैं। मरना हैं?' मगर वह जिद्द पकड़े हुए था। नहीं चाहते। कैसी भी हालत में आदमी पड़ा हो और उससे पूछो, मैं उसे घर ले आया और मैंने कहा कि रात तझे जो भी करना 'मरना चाहते हो?' वह इनकार करेगा। तुम चकित होओगे, हो, क्योंकि यह आखिरी रात है-कोई फिल्म देखनी है? कोई बहुत-से लोग कहते हैं कि 'अब तो भगवान उठा लो!' वह भी मिठाई खानी है? कुछ आखिरी पत्र वगैरह लिखना? कुछ भी मरना नहीं चाहते। वह भी कहने की बातें कर रहे हैं। तुझे करना हो तो बोल, क्योंकि फिर मौका नहीं रहेगा। और दो । मेरा एक मित्र मरना चाहता था, आत्महत्या करना चाहता था। बजे रात हम उठेंगे और चल पड़ेंगे। तू कूद जाना, हम उसके पिता बहुत घबड़ा गये। इकलौता बेटा था और अकेले आयेंगे। मित्र का कर्तव्य है...कि जो असमय में काम आये वही मुझसे ही उसकी दोस्ती थी, तो वे मुझे बुलाने आये। तो मैंने मित्र है। अब इस वक्त तेरे कोई काम नहीं आ सकता। कहा, 'घबड़ाओ मत! मैं उसे भलीभांति जानता हूं। चिंता न वह सुनता था मेरी बात, बड़े क्रोध से देखता था। बोलता भी करो।' पर वे बोले कि चिंता होती है, उसने दरवाजा बंद कर नहीं था कुछ। दो बजे रात का अलार्म भर दिया। दोनों हम सो लिया है। और अगर दरवाजे पर खटका भी करो तो वह गये। बीच में अलार्म-घड़ी रख ली। जैसे ही दो बजे अलार्म चिल्लाता है, कि 'मैं मर जाऊंगा, दरवाजा नहीं खोलूंगा।' वह | बजा, उसने जल्दी से अलार्म बंद किया। मैंने उसका हाथ घड़ी कुछ कर न ले, सिर न तोड़ दे। कुछ छुरी वगैरह न छिपा रखी पर पकड़ा। मैंने कहा, अलार्म बंद नहीं कर सकते! वह एकदम हो, कुछ जहर वगैरह न रखे हो, कोई गोलियां न ले आया हो! | बैठ गया और चिल्लाया कि तुम मेरे दुश्मन हो कि मेरे दोस्त ? और पिता वैद्य हैं तो और भी डरे कि वह जहर तो हमारे घर में तुम मुझे क्यों मारने में लगे हो? क्या मुझे मरना ही पड़ेगा? रहता ही है, गोलियां भी हैं, दवाइयां भी हैं, वह कुछ ले न गया '...मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। तुम मरना चाहो तो मैं साथ हो उठाकर! देता हूं। तुम जीना चाहो तो मैं साथ देने को तैयार हूं-मेरा काम तो मैं गया। भीड़ लगी थी, मुहल्ला इकट्ठा था। मैंने दरवाजे | साथ देने का है-तुम अगर मरने में सुख पाते हो तो मैं क्यों ९हा 458 Main Education International . Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति । बाधा दूं! तुम फिर सोच लो, सुबह कहीं तुम बदल मत जो सौ में से एक मर जाता है, वह भी ऐसा लगता है कि जाना—सूरज ऊगा देखकर, फिर लोग, भीड़ देखकर-फिर भूल-चूक से सफल हो गया। निन्यानबे तो सफल नहीं होते, तुम मौत की बात मत कर लेना। अब तुम तय कर लो। अगर | क्योंकि वह असफलता का इंतजाम पहले से कर लेते हैं। मरने मरना हो तो मर जाओ। अगर जिंदा रहना है तो जिंदा रहो, फिर की चेष्टा, उनकी कुछ घोषणा है जीवन के बाबत। वे किसी और मरने की बात मत करो।' तरह का जीवन चाहते हैं लेकिन जीवन नहीं चाहते, ऐसा नहीं है। वह आदमी अभी भी जिंदा है। वह मुझ पर बहुत नाराज है! जीवन तो चाहते ही हैं और तरह का जीवन चाहते हैं। इस उसने शादी भी कर ली किसी दूसरी स्त्री से। अब तो बच्चे भी हैं जीवन से तप्ति नहीं हो रही है। तो वे इस जीवन के प्रति शिकायत उसके। और कभी मैं गया उस गांव दुबारा तो उसको बुलाता हूं कर रहे हैं मरने की कोशिश में। तो वह बड़ी नाराजगी में आता है। वह प्रसन्न नहीं है। जैसे मैंने | लेकिन कौन किसको रोक सकता है? मरना कोई चाहता नहीं, उसका कोई अहित किया। और मैं वही कर रहा था जो वह करना इसलिए कानून चलता है। अन्यथा मैं नहीं देखता कोई उपाय है चाहता था। कि तुम कैसे किसी आदमी को रोक सकोगे मरने से। जिसको लोग कहते हैं कि मर जायें अब तो। वे यह नहीं कह रहे हैं कि मरना है वह राह खोज लेगा।। मरना चाहते हैं। भूल मत समझ लेना। वे तो सिर्फ यही कह रहे मौत तो व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको कोई राज्य हैं कि जिंदगी थोड़ी बेहतर होनी चाहिए। यह कोई जिंदगी है। छीन नहीं सकता। इस मरने की चाह में ही जीवन की आकांक्षा है। इस मरने की लेकिन कोई मरना ही नहीं चाहता, छीनने का सवाल ही नहीं चाह में भी और जीवन को चूस लेने का भाव है। वे यह कह रहे है। कभी-कभी कोई भूल-चूक से सफल हो जाता है। वह भी | हैं कि अब जिंदगी में कुछ सार तो नहीं मालम पड़ता, क्या पछताता होगा मरकर कि 'अरे, यह मैंने क्या कर लिया। यह फायदा जीने से! लेकिन फिर भी भीतर जीने की आकांक्षा है! जरा मैं अति कर गया। जरा दो कदम ज्यादा उठा लिये, जरा दो अन्यथा कौन किसको मरने से रोक सका है? कौन कब रोक कदम कम उठाने थे।' प्रेत होकर वह भी पछताता होगा। सकता है? महावीर कहते हैं : चूंकि जीवेषणा है, इसलिए मौत तुमसे कुछ दुनिया के सरकारी कानूनों में अगर सबसे मूढ़तापूर्ण कोई है तो छीन पाती है। जिस व्यक्ति की जीवन की आकांक्षा भी न वह आत्महत्या के विपरीत कानून है। वह कुछ समझ के बाहर रही...। इसका यह अर्थ नहीं है कि उसको मरने की आकांक्षा है। सरकारों को ऐसे कानून नहीं बनाने चाहिए जिनको वह पूरा न | पैदा हो जाती है। क्योंकि जिसको जीवन की आकांक्षा न रही, करवा सकती हों। आत्महत्या का कानून कोई सरकार पूरा नहीं उसे मरने की आकांक्षा कैसे पैदा होगी? वह तो जो है उसे करवा सकती। जिसको मरना है, उसे कोई कैसे रोक सकता है, स्वीकार कर लेता है। जीवन तो जीवन, मौत तो मौत। उसने थोड़ा सोचो तो! सौ में निन्यानबे लोग जो मरने की चेष्टा करते | अपनी आकांक्षाओं को आरोपित करना बंद कर दिया। जो तथ्य हैं, वे सिर्फ दिखावा करते हैं, मरना नहीं चाहते सौ में से है, स्वीकार कर लेता है। अभी जी रहा है, तो जी रहा है; क्षणभर निन्यानबे मरने की चेष्टा करके बच जाते हैं। वे बचने का पहले बाद सांस बंद हो गई तो वह चुपचाप बंद कर लेगा। वह एक ही इंतजाम कर लेते हैं। आकांक्षा जीने की इतनी प्रगाढ़ है! और दफा ज्यादा सांस लेने की चेष्टा न करेगा। हां! मरने के महले | वह जो एक आदमी मर जाता है, वह भी मरना चाहता था, इसमें मरेगा भी नहीं; क्योंकि उसमें भी जीवेषणा, आकांक्षा, चाह का संदेह है। मर गया, यह दूसरी बात है। कुछ जरा जरूरत से | हिस्सा होता है। ज्यादा इंतजाम कर गया। कुछ समझ न पाया। दस गोलियां मुक्तपुरुष वही है जिसके भीतर से अब जीवन की भी आकांक्षा लेनी थीं, बीस ले लीं। कुछ भूल-चूक गणित में हो गई। नहीं रही। फिर मौत कोई परिणाम नहीं ला पाती। सोचती थी पत्नी कि पति सांझ घर आ जायेंगे, वे दो दिन तक | और जहां मौत व्यर्थ हो जाती है, वही कसौटी है कि तुमने परम नहीं आये और वह रात पड़ी-पड़ी मर गई। जीवन को जाना। उस परम जीवन का नाम महावीर मोक्ष रखते हैं 459 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः या निर्वाण। 'दर्शन' का अर्थ है : देखने की क्षमता; द्रष्टा, साक्षी। लेकिन बुद्ध और महावीर दोनों ने निर्वाण शब्द का उपयोग 'ज्ञान' का अर्थ है : साक्षी को जो दिखाई पड़ता है; द्रष्टा के जो अलग-अलग अर्थों में किया है। बुद्ध के निर्वाण का ठीक वही | अनुभव में आता है। और 'चारित्र्य' का अर्थ है: जो जागा, अर्थ होता है जो दीये के बुझने का होता है। दीये को फूंककर बुझा जिसने देखा, जिसने जाना—उस जानने के कारण जो जीवन में देते हैं, उसको हम कहते हैं दीये का निर्वाण हो गया। महावीर के उतर आता है। निर्वाण शब्द का अर्थ अलग है, क्योंकि उनकी जीवन-दृष्टि | तो पहली तो घटना घटती है साक्षी-भाव में दर्शन की। दूसरी अलग है। महावीर कहते हैं, दीया नहीं बुझता। दीया तो बुझेगा | घटना घटती है बोध की, ज्ञान की-समझ में आया। तीसरी ही नहीं कभी; यह ज्योति तो सदा रहनेवाली है। सिर्फ दीये की | घटना घटती है चारित्र्य की। क्योंकि जो समझ में आ गया, ज्योति से धुआं नहीं उठता। उससे विपरीत करोगे कैसे? 'वाण' का अर्थ होता है वासना। 'निब्बाण' का अर्थ होता अगर तुम जैन मुनियों से पूछो तो वे अकसर उलटी व्याख्या है: वासनारहित हो जाना। तुमने देखा, ईंधन जलाते हो : लपटें कर रहे हैं। वे चरित्र को पहले रखते हैं जबकि किसी सूत्र में भी उठती हैं, धुआं भी उठता है। अगर ईंधन गीला हो तो धुआं महावीर ने चरित्र को पहले नहीं रखा; चरित्र को अंतिम रखा है। बहुत उठता है; अगर ईंधन सूखा हो तो कम उठता है। अगर पहला दर्शन, फिर ज्ञान, फिर चरित्र। अगर जैन मुनि ईंधन बिलकुल सूखा हो तो धुआं उठ ही नहीं सकता; क्योंकि वह कहता है: 'चरित्र! पहले चरित्र को सुधारो। जब चरित्र धुआं आग के कारण नहीं उठता, लकड़ी के गीलेपन के कारण सुधरेगा तो ज्ञान होगा। चरित्रहीन को कहीं ज्ञान हुआ है? और उठता है; लकड़ी के कारण नहीं उठता, वह जो लकड़ी में पानी | जब ज्ञान होगा तब कहीं दर्शन उपलब्ध होगा।' उसने सारी बात छिपा है, उसके कारण उठता है। उलटी कर ली। तो महावीर कहते हैं कि जब ऐसी सूखे ईंधन जैसी व्यक्ति की लेकिन महावीर के शब्दों में कहीं भी चरित्र पहले नहीं चेतना हो जाती है, जिसमें वासना का कोई गीलापन नहीं रहा, | आता-आ नहीं सकता। पहले तो मूर्छा तोड़नी जरूरी है। | सूख गई पोर-पोर, वासना-मात्र सूख गई, हरी वासना जरा भी दर्शन यानी मूर्छा का टूट जाना; देखने की क्षमता आ जाना; न रही-तब लपट तो उठती है, लेकिन धुआं नहीं उठता। आंख का खुल जाना। आंख खुली कि अनुभव में आना शुरू उस निर्धूम लपट का नाम निर्वाण है। वासना के गिर जाने का होता है कि क्या है सत्य। वह जो 'क्या है सत्य', उसकी नाम निर्वाण। अनुभूति है, उसका नाम ज्ञान है। बुद्ध के हिसाब से तो आत्मा के मिट जाने का नाम निर्वाण, तो ज्ञान शास्त्र से नहीं मिल सकता। महावीर के हिसाब से वासना के मिट जाने का नाम निर्वाण। इसलिए महावीर ने ज्ञान को दर्शन के बाद रखा है। ज्ञान तो ' 'मार्ग है उपाय, मोक्ष है फल।' और इन दो बातों में, महावीर मिल सकता है केवल ध्यान से, शास्त्र से नहीं। और चारित्र्य कहते हैं, सारी बात हो गई। कभी भी अभ्यास करने से नहीं पैदा हो सकता। अभ्यास से तो 'दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य तथा तप को जिनेंद्रदेव ने मोक्ष का मार्ग | जो पैदा होता है, वह आदत है। कहा है। शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। इन भावों चारित्र्य तो तब पैदा होता है जब तुम्हारे भीतर दृष्टि इतनी सघन से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' होती है कि तुम उसके विपरीत नहीं चल पाते।। फिर मार्ग क्या है? मैंने सुना है, एक बिच्छू ने एक केंकड़े से कहा कि मुझे नदी के 'दंसणाणचरित्ताणि...' | उस पार जाना है, मित्र! पार करवा दो! उस केंकड़े ने कहा, दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप-ये शब्द बड़े बहुमूल्य हैं। 'तुमने मुझे नासमझ समझा है? बीच रास्ते में मेरी पीठ पर बैठे महावीर का सारा नवनीत इन तीन शब्दों में, त्रिरत्न-दर्शन, डंक मार दोगे, डूब जाऊंगा, मर जाऊंगा।' । | ज्ञान, चरित्र में समाया हुआ है। बिच्छू ने कहा, 'मालूम होता है तर्क में तुम बहुत कमजोर हो। 4600 . Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति तुमने ठीक तर्क-शास्त्र का शिक्षण नहीं लिया। अरे नासमझ! समझ लेना। दर्शन का अर्थ फिलासफी नहीं है। दर्शन का अर्थ जब मैं पीठ पर तेरी बैठा हूं और डंक मारूंगा तो तू डूबेगा वह तो है: देखने की क्षमता; तुम्हारी आंखों का निष्कलुष हो जाना; ठीक, मैं भी तो डूबूंगा! मैं भी तो मरूंगा! तो यह बात तर्क के तुम ऐसे देख सको कि देखने में तुम अपने भावों को मिश्रित न विपरीत है। ऐसा मैं कैसे कर सकूँगा? तेरी ही मौत होती होती करो; तुम निर्भाव से देख सको; तटस्थ, निष्पक्ष, निर्विकार, तुम तो समझ में आ सकता था; तेरी मौत तो मेरी मौत भी बनेगी। अपने को बीच में न डालो; तुम अपने को बिना डाले देख इसलिए यह बात तर्क के अनुकूल नहीं है।' केंकड़े ने कहा, | | सको। तो फिर तुम्हारे जीवन में दर्शन उपलब्ध होगा। 'बात तो ठीक है। तर्क के बिलकुल अनुकूल नहीं है। आओ क्रोध आये, क्रोध को गौर से देखना। क्रोध को रोककर चरित्र बैठ जाओ!' बैठ गया पीठ पर बिच्छ, चल पड़े दोनों और बीच निर्मित करने की कोशिश मत करना। क्रोध को गौर से देखना। मझधार में जो होना था हुआ। बिच्छु ने डंक मारा। जब डंक | इतने गौर से देखना कि तुम्हें क्रोध का सारा अर्थ समझ में आ मारा और दोनों डूबने लगे तो मरते-मरते केंकड़े ने पूछा कि जाये। इतने गौर से देखना कि तुम क्रोध से पृथक और अलग महानुभाव, तर्क का क्या हुआ? उस बिच्छू ने कहा, 'तर्क का साक्षी हो, यह तुम्हारी अनुभूति में आ जाये। इतने गौर से देखना इससे क्या संबंध है? यह मेरा चरित्र है।' कि क्रोध वहां पड़ा रह जाये वस्तु की तरह, तुम यहां द्रष्टा की लोग जैसा जी रहे हैं वैसा जीने को मजबर हैं। उनके पास दष्टि तरह खडे रह जाओ: तम्हारे दोनों के बीच का सेत टट जाये। ही वैसी जीने की है। तुम सोचते हो, कोई आदमी शराब पीता है, दर्शन का अर्थ होता है सारे सेतुओं का टूट जाना। व्यक्ति इसलिए मूर्छित है। असलियत और है। वह मूर्छित है, अलिप्त खड़ा होकर देखता है-क्रोध है तो क्रोध को; काम है| इसलिए शराब पीता है। तुम सोचते हो, एक आदमी मांसाहार तो काम को; हिंसा है तो हिंसा को; प्रेम है तो प्रेम को; राग है तो करता है, इसलिए हिंसक है। तुम गलत सोचते हो। वह आदमी राग को अलिप्त भाव से देखता है, सिर्फ देखता है। जिसको हिंसक है, इसलिए मांसाहार करता है। अगर तुमने ऐसा सोचा | कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, होश; जिसको बुद्ध ने सम्यक कि मांसाहार करने के कारण हिंसक है तो तुम्हारी चेष्टा यह होगी स्मृति कहा है, ठीक-ठीक स्मृति, जिसको गुरजिएफ ने कि मांसाहार छुड़ा दो। मांसाहार तो छूट जायेगा, लेकिन अगर सेल्फ-रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-बोध; उसी को महावीर दर्शन वह हिंसक होने के कारण मांसाहारी था, तो हिंसा नहीं छूटेगी। कहते हैं। इधर दर्शन की क्षमता घनी होगी कि दर्शन से जो-जो फिर हिंसा नये मार्ग खोज लेगी। किसी और तरफ से हिंसक हो | तुम्हें दिखाई पड़ेगा, वह जो दर्शन का सार इकट्ठा होने लगेगा वह जायेगा वह। किसी और बहाने से हिंसा करेगा। है ज्ञान। तो एक तो ज्ञान है जो शास्त्र से मिलता है और एक ज्ञान ध्यान रखना, हम जैसे हैं वह हमारे भीतरी चित्त की अवस्था के है जो जीवन के साक्षी-भाव से मिलता है। उसको महावीर ज्ञान कारण है। कहते हैं। पढ़ लोगे शास्त्र में, उससे क्या होगा? अकसर ऐसा बाहर से भीतर को नहीं बदला जा सकता। आचरण से अंतस हुआ है। नहीं बदला जा सकता। लेकिन अंतस बदल जाये तो आचरण | अहले-दानिश आम हैं, कमयाब हैं अहले-नजर तत्क्षण बदलना शुरू हो जाता है। क्या तअज्जुब कि खाली रह गया तेरा अयाग। __ महावीर का सूत्र बिलकुल साफ है : दर्शन, ज्ञान, चरित्र। इन | अहले-दानिश आम हैं-शास्त्रों के जानकार बहुत हैं। तीन को जैनों ने त्रिरत्न कहा है। ये उनकी तीन मणियां हैं, जिन तथाकथित बुद्धिमान बहत हैं। तथाकथित बुद्धिशाली बहत हैं। पर मोक्ष का भवन निर्मित होता है। ये आधार हैं। और ये तीन कमयाब हैं अहले-नजर-लेकिन जिनके पास द्रष्टा की दृष्टि रत्न जिसके पास हैं उसके पास सब आ गया-सारी संपदा सारे है, अहले-नजर, जिनके पास शुद्ध आंख है, देखने की क्षमता जगत की। त्रिलोक की सारी संपदा उसके पास आ गई। है, ऐसे बहुत-बहुत विरले हैं।। दर्शन उपलब्ध होता है-जागरण से, अप्रमत्तता से, होश से। अहले-दानिश आम हैं, कमयाब हैं अहले-नजर दर्शन का अर्थ तुम जैन दर्शन, हिंदू दर्शन, बौद्ध दर्शन, ऐसा मत क्या तअज्जुब कि खाली रह गया तेरा अयाग। 461 | Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 अगर तुम्हारे जीवन की प्याली अमृत से बिना भरी रह गई तो | हैं, बाहर निकालते हैं। कुछ आश्चर्य नहीं; क्योंकि तुमने शास्त्रों से ही जीवन की प्याली तपश्चर्या का अर्थ है : इस जीवन-दृष्टि का ठे को भरना चाहा। शास्त्रों से ही तुमने सोचा कि तुम बुद्धिमान हो | जाना। सुख को बुलाना नहीं, कोई निमंत्रण नहीं लिखना और जाओगे। तो अहले-दानिश हो गये, तथाकथित बुद्धिमान हो | दुख आ जाये तो जो आ गया बिना बुलाये, अतिथि देव है, गये। कंठस्थ हो गये सत्य। लेकिन कंठस्थ सत्य, सत्य नहीं | उसको स्वीकार कर लेना। है-मात्र थोथे सिद्धांत हैं। प्राण कौन डालेगा उनमें? प्राण तो तो तप का अर्थ दुख पैदा करना नहीं है; लेकिन दुख जो तुमने व्यक्ति को स्वयं डालने होते हैं। इसे याद रखना। जन्मों-जन्मों में अर्जित किया है, वह आयेगा। उसके साथ क्या जिसे तुम पाओ वही सत्य है। जिसे तुमने नहीं पाया वह सत्य | रुख अपनाओगे? तप एक रुख है, दृष्टि है। तप यह कहता है, नहीं हो सकता: वह सत्य के संबंध में कोई सिद्धांत होगा। ऐसा मैंने दुख के बीज बोये थे, अब फसल काटने का वक्त आ गया ही समझो कि पाक-शास्त्र पढ़ते रहो, पढ़ते रहो, इससे न तो | तो मैं काटूंगा। यह फसल कौन काटेगा? दुख के बीज मैंने बोये भूख मिटेगी, न जीवन पुष्ट होगा। रोटी पकानी पड़ेगी। आटा | थे तो फसल भी मुझे ही काटनी है। तो अब रो-रोकर क्या गूंथना पड़ेगा। चूल्हा जलाना पड़ेगा। इतना ही नहीं, फिर रोटी काटनी ! अब स्वीकार-भाव से काट लेनी है। पचानी पड़ेगी। रोटी भी बन जाये तो भी कुछ काम नहीं आती, | इसे खयाल रखना; नहीं तो भ्रांति क्या है कि जो लोग तपस्वी जब तक कि पचाने की क्षमता न हो, जब तक रोटी पचे न और | बनते हैं, वे सोचते हैं, अभी सुख को लिखते थे चिट्ठियां, अब लहू में रूपांतरित न हो जाये, हड्डी, मांस-मज्जा न बने, तब तक दुख को लिखो! मगर चिट्ठियां लिखना जारी रहता है। बुलावा किस काम की? भेजते ही रहते हैं। पहले सुख को पकड़ते थे; अब वे सोचते हैं, दर्शन की भट्टी में ज्ञान की रोटी पकती है। और ज्ञान की रोटी दुख को पकड़ो। पहले सुख को न जाने देते थे; अब दुख जाने को जब तुम पचाते हो और ज्ञान की रोटी जब तुम्हारा खून, | लगे तो वे कहते हैं, 'मत जाओ! तुम्हारे बिना हम कैसे रहेंगे।' मांस-मज्जा बन जाती है, तो चारित्र्य। चरित्र आखिरी बात है। लेकिन यह तो विकृति हो गई। यह तो रोग हो गया। यह तो सबसे पहले तो शून्य आकाश में दर्शन घटता है। फिर दर्शन | पुराना रोग बदला तो नया रोग पकड़ गया। उतरता है तुम्हारी अंतरात्मा में, ज्ञान बनता है। फिर ज्ञान तुम्हारे तप का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि जो आये दुख तो निश्चित जीवन में अनस्यूत हो जाता है। तब चारित्र्य बनता है। ये त्रिरत्न हमने कमाया होगा; बिना कमाये कुछ भी आता नहीं। तो हमने और तप। किसी न किसी रूप में उसे बुलाया होगा। बिना बुलाये कुछ भी 'तप' शब्द भी समझने जैसा है। तप का अर्थ अपने को दुख आता नहीं। हमने सुख मानकर ही बुलाया होगा; लेकिन वह देना नहीं होता। तपस्वी का अर्थ अपने को सतानेवाला नहीं है, | हमारी मान्यता भ्रांत थी। जिसको हमने सुख कहकर पुकारा था, मेसोचिस्ट नहीं है। तप का अर्थ होता है : दुख आये तो उसे वह दुख का नाम था। आ गया दुख, अब इसे स्वीकार कर सहिष्णुता से स्वीकार करना। तप का अर्थ है: दुख आये तो उसे | लेना। इसे धक्के नहीं देना, इनकार दुश्मन की तरह दुत्कारना नहीं; उसे भी मित्र की तरह स्वीकार साक्षी-भाव रखना है। कर लेना। साधारणतः हम सुख को तो बुलाते हैं, दुख को दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप जिनेंद्रदेव ने मोक्ष के मार्ग कहे। दुत्कारते हैं। तप का अर्थ होता है : सुख को तो बुलाना मत; आ | शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं...।' गये दुख को स्वीकार कर लेना। यह बड़ी क्रांतिकारी बात है : 'शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के तप हमसे ठीक उलटी व्यवस्था है। अभी हम कहते हैं, सुख | मार्ग नहीं हैं। इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' आये, चिट्ठियां लिखते हैं सुख को कि आओ, निमंत्रण भेजते | __अच्छा करूं, बुरा न करूं, पुण्य करूं, पाप न करूं-ये शुभ हैं। और दुख को, बिना बुलाया भी आ जाये-बिना बुलाया ही | भाव हैं। किसी को दुख न दं, सुख दूं-ये शुभ भाव हैं। मुझसे आता है, क्योंकि कौन दुख को बुलाता है-उसे हम धक्का देते हिंसा न हो, अहिंसा हो; लोभ न हो, दान हो; क्रोध न हो, दया 462 Main Education International Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति | हो, करुणा हो-ये शुभ भाव हैं। लेकिन महावीर कहते हैं, | क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया। मुझसे कुछ हो, इसमें ही बंधन है। बुरे का तो बंधन होता ही है, छरे की तीक्ष्ण धारा की भांति, जैसे कोई पतले छरे की धार पर भले का भी बंधन हो जाता है। लोभी तो बंधता ही है, दानी भी चलता हो, ऐसा मार्ग है। शुभ को भी एक तरफ छोड़ देना, बंध जाता है। और पापी तो बंधता ही है, पुण्यात्मा भी बंध जाता अशुभ को भी दूसरी तरफ छोड़ देना। संयमी का अर्थ है जो है, यद्यपि पुण्यात्मा की जंजीरें सोने की होती हैं। | दोनों के मध्य चलने में कुशल हो गया; जो चुनाव नहीं करता, इसलिए महावीर कहते हैं, शुभ और अशुभ भाव मोक्ष का च्वायसलेस, विकल्परहित, निर्विकल्प चलता है; जो मध्य में मार्ग नहीं हैं। दोनों से मुक्त होना है। अशुभ को तो छोड़ना ही सम्हलकर चलता है। है, शुभ को भी छोड़ना है। असाधु को तो छोड़ना ही है, साधु के हिंदू शास्त्र कहते हैं : मध्यं अभयम्! जो मध्य में है उसे कोई भी पार जाना है। एक ऐसी दशा चाहिए, जो सभी दशाओं का भय नहीं। इधर-उधर हुए कि भय शुरू हुआ। जरा भी झुके अतिक्रमण कर जाती हो। एक ऐसी दशा, जिसका लगाव, बायें, जरा भी झुके दायें, तो भय शुरू हुआ। न तो वामपंथी और आग्रह किसी भी बात में न हो। न दक्षिणपंथी, ठीक मध्य में, जो अपने को सम्हाल ले। . 'इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' कठिन लगेगा, क्योंकि हमें आसान लगता है: अशुभ छोड़ना दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर है, कोई हर्जा नहीं है; शुभ को पकड़ लेंगे! क्रोध छोड़ना है, छोड़ दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा। | देंगे: करुणा को पकड़ लेंगे। लेकिन कछ पकड़ने को तो होगा। अगर तुम गौर से देखो तो मित्रों ने इतने कष्ट दिये हैं कि अब पकड़ने की हमारी पुरानी आदत है। दुश्मनों की क्या शिकायत करनी! महावीर कहते हैं, अगर गौर महावीर कहते हैं, पकड़ ही संसार है। और सारी पकड़ का से देखो तो शुभ आकांक्षाओं से ही पटा पड़ा है नर्क का मार्ग। छूट जाना, मुट्ठी का खुल जाना ही मोक्ष है। अशुभ आकांक्षाओं की तो बात ही छोड़ो; उनकी तो शिकायत | 'अज्ञानवश यदि ज्ञानी भी ऐसा मानने लगे कि शुद्ध सम्प्रयोग क्या करनी! अगर कोई क्रोधी बंधन में पड़ा है तो यह तो अर्थात, भक्ति आदि शुभ भाव से दुख-मुक्ति होती है तो वह भी स्वाभाविक है; लेकिन चेष्टा करके जो दया कर रहा है, वह भी राग का अंश होने से पर-समयरत होता है।' बंधन में पड़ जाता है। वहां भी अहंकार निर्मित होता है महावीर भक्ति को भी बंधन का कारण कह रहे हैं। यह भी दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर अज्ञानवश तथाकथित बुद्धिमान आदमी भी ऐसा मानने लगे कि दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा। शुद्ध सम्प्रयोग, शुद्ध भक्ति, तो क्यों बांधेगी, तो वह भी गलत शुभ ने ही इस बुरी तरह सताया है, अशुभ की तो शिकायत है। शुभ भक्ति से भी राग का ही अंश निर्मित होता है। क्या करें। अपनों ने इस तरह सताया है कि परायों की तो बात ही महावीर का मार्ग संकल्प का मार्ग है। वहां भक्ति के लिए भी क्या करें! उनकी शिकायत करने जैसी भी नहीं रही। जगह नहीं है। तुमने देखा, तुम्हारे शुभ भावों ने ही तुम्हें कितना सताया है। भगवान के लिए जगह नहीं है; भक्ति के लिए तो जगह कैसे प्रेम ने कितना सताया है, यह तो देखो। फिर घणा की सोचना। हो सकती है। तुम किसी के लिए अच्छा करना चाहते थे, उसके कारण कितनी ऋग्वेद में ऋषि ने पूछा है: झंझट में पड़े हो। फिर तुम किसी के लिए बुरा करना चाहते थे, कस्मै देवाय हविषा विधेम। उसकी सोचो। किस देवता को हम अपनी पूजा-अर्चना चढ़ायें, किस देवता महावीर कहते हैं, तुम अच्छा-बुरा दोनों ही करनेवाले नहीं हो, | की उपासना करें? लेकिन महावीर कहते हैं, जहां तक उपासना ऐसे साक्षी बन जाओ। वहां से मोक्ष का द्वार खुलता है। अच्छा है वहां तक तो किसी दूसरे से बंधन हो जायेगा। पर-समयरत, और बुरा तो कर्म का ही मार्ग है। और कर्म तो बांधता है। न शुभ | दूसरे पर निर्भर हो जाओगे। परमात्मा होगा तो परतंत्रता होगी। न अशुभ-दोनों के मध्य में संतुलित! और परतंत्रता होगी तो बंधन निर्मित रहेगा। तुम स्वतंत्र कैसे हो 463 . Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 जाओगे? तम परिपूर्ण मुक्त कैसे हो सकोगे? हुआ है, वह किसी परमात्मा के खेल की बात बन जाये तो थोड़ी महावीर के हिसाब में परमात्मा का होना मोक्ष के विपरीत है।। ज्यादती हो गई। जन्मों-जन्मों की चेष्टाओं के बाद जिसे पाया या तो मोक्ष हो सकता है या परमात्मा हो सकता है। अगर | जाता है, उसे पाकर अगर जरा-सी उसकी मर्जी के बदलने से परमात्मा है तो मोक्ष नहीं हो सकता; क्योंकि परमात्मा तो | खोना पड़े, तो वह उपलब्धि उपलब्धि के योग्य न रही। फिर निरंकुश होगा। वह तो नियम के ऊपर होगा। महावीर कहते हैं, जगत एक पागलपन है। नियम के ऊपर किसी का भी होना खतरनाक है, क्योंकि फिर | 'शुद्ध सम्प्रयोग अर्थात भक्ति आदि शुभ भाव से दुख मुक्ति उसकी मर्जी ! जैसा हिंदू कहते हैं, परमात्मा की लीला, इच्छा! होती है, ऐसा अगर कोई मानता हो तो वह गलत मानता है, उसने संसार बनाया। यह महावीर को बर्दाश्त के बाहर है। । क्योंकि वह भी राग का अंश है।' महावीर कहते हैं, इसका तो अर्थ हुआ कि जो लोग मुक्त हो अगर भक्तों की बात सुनें तो लगता भी है कि राग का अंश। गये, अगर परमात्मा की लीला हो जाये, इच्छा हो जाये तो उनको | शुद्ध राग है, बड़ा श्रेष्ठ राग है, जरा भी दूषित नहीं है संसार वापस संसार में भेजा जा सकता है। तो ऐसे मोक्ष का तो कोई से-लेकिन फिर भी राग तो है ही! मूल्य न रहा। अगर परमात्मा की मर्जी से संसार निर्मित होता है | उसके मजकूर के सिवा 'बेदार' तो मोक्ष लेकर भी हम क्या करेंगे? उसकी मर्जी जिस दिन बदल और कुछ बात खुश नहीं आती। जाये, आज्ञा दे दे कि चलो मोक्ष खाली करो, संसार वापस भक्त कहता है, भगवान की याद के सिवाय और कछ बात में लौटो! अगर खेल ही है और वह निरंकुश है और वह नियम के मजा नहीं आता। लेकिन इसका अर्थ तो साफ हुआ कि मजा ऊपर है, तो फिर व्यर्थ बात हो गई। अभी अपना नहीं है-उसकी याद! तो कहीं निर्भर है, पर है, महावीर पूछते हैं कि परमात्मा नियम के ऊपर है, या नियम अपने से बाहर है। परमात्मा के ऊपर है? अगर नियम परमात्मा के ऊपर है तो शाम से आ रही है याद तेरी परमात्मा परमात्मा नहीं। फिर नियम ही परमात्मा है। और अगर जाम छलका रही है याद तेरी परमात्मा नियम के ऊपर है तो नियम सब बकवास है। फिर झनझना-सा रहा है साजे-खयाल नियम का क्या अर्थ? उसकी निरंकुश इच्छा है; जब वह जैसा गीत-से गा रही है याद तेरी। चाहे कर दे। . लेकिन भक्त वैसे ही शब्दों का उपयोग करता है परमात्मा के इसलिए महावीर कहते हैं, अगर जगत में व्यवस्था लिए जो वह प्रेयसी के लिए करता है या प्रेमी के लिए करता है। चाहिए...अब तुम चकित होओगे कि दृष्टियां कितनी मौलिक फर्क नहीं मालूम पड़ता। ऐसा लगता है कि जो हमारा राग रूप से भिन्न हो सकती हैं! हिंदु कहते हैं, अगर जगत में मनुष्यों के प्रति था, उसी राग को हम परमात्मा की तरफ आरोपित व्यवस्था चाहिए तो परमात्मा चाहिए। क्योंकि बिना परमात्मा के कर देते हैं। कौन व्यवस्था करेगा? अराजकता हो जायेगी। और महावीर शाम से आ रही है याद तेरी कहते हैं, अगर परमात्मा हुआ तो अराजकता हो जायेगी। जाम छलका रही है याद तेरी क्योंकि फिर व्यवस्था कैसे सम्हलेगी? अगर नियम के ऊपर झनझना-सा रहा है साजे-खयाल कोई बैठा है जो नियम को भी तोड़-मरोड़ कर सकता है तो गीत-से गा रही है याद तेरी। अव्यवस्था हो जायेगी। महावीर परमात्मा को उसी कारण से | यह हम प्रेयसी के लिए भी कह सकते हैं और परमात्मा के लिए इनकार करते हैं जिस कारण से हिंदू स्वीकार करते हैं। भी कह सकते हैं। का अर्थ ही है कि एक ऐसी चित्त की दशा, एक ऐसे इसलिए सूफियों के वचन दोहरे अर्थ किये जा सकते हैं। या तो | चैतन्य की दशा जिसको फिर वापस न लौटाया जा सके। तुम उनका अर्थ कर लो सांसारिक, तो प्रेयसी के लिए कहे गये अन्यथा इतने श्रम, इतनी तपश्चर्या, इतनी चेष्टा से जो उपलब्ध | हैं; या अर्थ कर लो आध्यात्मिक, तो परमात्मा के लिए कहे गये 464 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PEEALLL जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति हैं। लेकिन शब्द वही के वही हैं। उमर खैयाम की रुबाइयां इसी -हे धर्मगुरु! मुझे प्रार्थना के समय शराब पीने से मत रोक! तरह भ्रष्ट हुईं। जिस व्यक्ति ने पहली दफा अनुवाद किया कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिद्क लाना है। फिटज़राल्ड ने, अंग्रेजी में, उसने समझा कि ये मधु-गीत हैं, -थोड़ी-सी सचाई तो होनी चाहिए, नहीं तो प्रार्थना झूठी हो शराब की प्रशंसा में गाये गए गीत हैं। लेकिन उमर खैयाम शराब जायेगी। कहता है परमात्मा की याद को, उसकी स्मृति को, जिक्र को। अब या तो हम समझ लें कि यह बाहर की शराब है या हम और जिन साकियों की वह बात करता है, वह वही परमात्मा है। समझ लें कि किसी भीतर की शराब है। लेकिन महावीर कहते और जिस मधु के ढालने की बात कर रहा है, वह जीवन-रस है। हैं, शराब शराब है। तुम इसे कितना ही ऊंचा उठाओ, और लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फिटज़राल्ड ने अनुवाद कितने ही शुद्ध अंगूरों से निचोड़ो, शराब शराब है। और नशा दिया। उसने समझा कि यह सब प्रेयसी, साकी, मधुशाला-ये नशा है। यह किसी की सुंदर सूरत को देखकर छा जाये या यह सब संसार की ही चीजें हैं। | परमात्मा के फूल और पक्षियों के गीत सुनकर आ जाये, इससे दोनों के लिए उपयोग हो सकते हैं। क्या फर्क पड़ता है? लेकिन तुम्हारा राग अभी भी बाहर है। चलो छिया-छी हो अंतर में सुंदर स्त्री बाहर है, सुंदर पुरुष बाहर है, सुंदर फूल भी बाहर तुम चंदा हैं और सुंदर परमात्मा का आकाश और चांद तारे भी बाहर मैं रात सुहागन चमक-चमक उढे आंगन में 'राग का अंश होने से भक्ति भी पर-समयरत है।' चलो छिया-छी हो अंतर में वह दूसरे में लगी। दूसरे में उत्सुक है। अपनी तरफ नहीं लौट भक्त जो भाषा बोलते हैं—मीरा की भाषा, चैतन्य की भाषा रही है। दूसरे की तरफ बह रही है। और दूसरा बंधन है। या कबीर की-उसमें कठिनाई मालूम होगी। | इसलिए महावीर भक्ति को भी जगह न देंगे। और अगर हम कबीर कहते हैं, मैं राम की दुलहन हो गया! आखिर भाषा तो भक्तों की बातें सुनें तो महावीर की बात में सचाई भी मालूम इसी जगत के रागात्मक शब्दों का उपयोग कर रही है। मीरा पड़ती है, निश्चित सचाई मालूम पड़ती है। क्योंकि भक्त कहती है, 'सेज को तैयार किया है. तम कब आओगे?' 'सेज | भगवान से ऐसी बातें करता है। जैसे प्रेमी एक-दूसरे से बातें को तैयार किया है'-यह तो सुहागरात की ही बात हो गई। करते हैं। मान-मनौवल भी चलती है। रूठना-मनाना भी तो महावीर के कहने में सार्थकता भी है कि कितना ही शुद्ध राग चलता है। शिकवा-शिकायत भी चलती हैं। हो जाये, कितना ही शुद्ध सम्प्रयोग, कितनी ही शुद्ध भक्ति हो, मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था लेकिन उसमें स्वर तो संसार का ही होगा। उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है? सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह भक्त भगवान से कहता है: कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिदक लाना है। मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था-तुम्हारे सूफी कहते हैं कि हमें प्रार्थना के वक्त पीने से मत रोको, उपेक्षा-भाव पर मुझे नाराज होना चाहिए: चिल्लाता रहता हूँ, क्योंकि प्रार्थना के लिए थोड़ी सचाई लानी है। और बिना पीए तुम्हारा कोई उत्तर भी नहीं पाता... कहीं सचाई हुई? बिना पीए तो आदमी झूठ और धोखे दिये । मुझको इस तर्जे-तगाफुल पे खफा होना था चला जाता है। इसलिए तो शराबी की बातें सुनो, वह ज्यादा उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है? ईमानदारी की होती है। वह सच बोलने लगता है। फिक्र ही न भक्त तो बात करता है, प्रार्थना करता है, बोलता है, रोता है रही झूठ बोलने की। झूठ याद कौन रखे! फायदा, हानि, कभी, कभी भगवान पर नाराज भी हो जाता है। खफा भी हो | लाभ-कुछ भी न रहा। जाता है, दो-चार दिन प्रार्थना भी नहीं करता, बंद कर देता है सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह! द्वार-दरवाजे कि पड़े रहो। फिर मना भी लेता है। 1465 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 जिन सूत्र भाग: 1 लेकिन महावीर कहेंगे, यह सारा खेल तो कल्पना का है। यह राग का ही है। इसमें तो दूसरा अभी भी मौजूद है। माना कि शुद्ध हुआ, शुभ हुआ, किसी को हानि नहीं हो रही है इससे, लाभ ही हो रहा है - लेकिन फिर भी, जहां तक लाभ हो रहा है वहां तक हानि भी जुड़ी है। इसके भी पार जाना है। महावीर के लिए भाव भी बंधन है। इसलिए महावीर का मार्ग शुद्ध निर्भाव का मार्ग है। जैन भी जैन मंदिरों में जो कर रहे हैं, महावीर लौटें तो नाराज होंगे। कहेंगे, 'तुम यह क्या कर रहे हो ? यही सब तो मैंने मना किया था।' महावीर की ही मूर्ति के सामने बैठे हैं साजशृंगार लगाकर, कि हे प्रभु! महावीर से ही बातें चल रही हैं। महावीर से बात चलाने का उपाय नहीं है। अगर महावीर की मानते हो, अगर महावीर के मार्ग को शुद्ध रखना है, तो महावीर से बातें चलाने का उपाय नहीं है। सच तो पूजा भी जैन धर्म में संभव नहीं हो सकती; प्रार्थना की कोई गुंजाइश नहीं है; भक्ति का कोई मार्ग नहीं है। लेकिन मंदिर बनते हैं, पूजा होती है, प्रतिमा खड़ी होती है । बात असल ऐसी है कि जिन्हें भक्त होना चाहिए था, वह अगर जैन घरों में पैदा हो जाते हैं तो वह क्या करें! खुद तो भक्त होने का उपाय नहीं है, महावीर को ही भ्रष्ट कर लेते हैं। दुनिया के सभी धर्म भ्रष्ट हो गये हैं, संकर हो गये हैं; क्योंकि लोग जन्मों के कारण धर्मों में हैं। और यह बड़ी खतरनाक बात है। मैं तो चाहूंगा, महावीर का धर्म शुद्ध हो। क्योंकि शुद्ध हो तो कुछ थोड़े-से लोग जो संकल्प से पहुंच सकते हैं, उनका रास्ता सीधा-साफ हो। लेकिन वह शुद्ध तभी हो सकता है, जब लोग उसे स्वयं चुनें, जन्म के कारण धर्म आरोपित न हो। तो कृष्ण के मार्ग पर ऐसे लोग मिल जायेंगे जिनको महावीर के मार्ग पर होना चाहिए था। वे वहां सब खराब कर रहे हैं । वे प्रार्थना भी करते हैं, लेकिन उनको आंसू नहीं बहते । वे कहते हैं, 'कैसे प्रार्थना करें, हृदय में कोई रसधार आती ही नहीं!' इधर महावीर के मार्ग पर ऐसे लोग हैं जो कृष्ण के मार्ग पर होते तो सुगमता से पहुंच जाते। उनकी आंखें लबालब भरी हैं। उनकी प्याली छलकी जा रही है। लेकिन महावीर के वचन हैं कि राग का अंश है भक्ति, तो रोके हुए हैं। आंसुओं को सुखाने की कोशिश कर रहे हैं। अड़चन पैदा होती है अगर तुम अपने से विपरीत चले गये। किसी ने पीछे पूछा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम समर्पण और संकल्प में समन्वय स्थापित कर लें ? वही तो तुमने किया है। हो सकता है, यह सवाल ही नहीं है - वही हुआ है। लेकिन समन्वय हो नहीं सकता। सिर्फ समझौता हो जाता है। तो तुम दोनों बातों का तालमेल बिठा लेते हो। लेकिन उस तालमेल बिठालने में दोनों मार्ग भ्रष्ट हो जाते हैं। ऐसा ही समझो, बैलगाड़ी से कोई यात्रा करता है, कोई कार से यात्रा करता है, कोई रेलगाड़ी से, कोई हवाई जहाज से - सब पहुंच जाते हैं। सबके मार्ग अलग हैं। रेलगाड़ी रेल की पटरियों पर दौड़ती है। बैलगाड़ी को पटरियों पर दौड़ने की कोई जरूरत नहीं है, ऊबड़-खाबड़ जंगली पथ भी गुजर जाती है। कार वहां से न गुजर सकेगी। अब ये सब रास्ते और ये सब वाहन ठीक हैं। लेकिन तुमने अगर कहा, समन्वय स्थापित कर लें कि चलो बैलों को लेकर कार में जोत दें, कि कार का इंजिन बैलगाड़ी में रख दें, कि रेल के चक्के बैलगाड़ी में ठोक दें और बैलगाड़ी के चक्के रेल में ठोक दें – तो समन्वय स्थापित नहीं होगा सिर्फ इतना ही होगा कि कोई भी वाहन चलाने में, पहुंचाने में समर्थन रह जायेगा। यह समन्वय नहीं हुआ। यह तुमने रास्ते ही खराब कर लिए, वाहन ही नष्ट कर दिए। प्रत्येक मार्ग पर सुनिश्चित चिह्न हैं और प्रत्येक मार्ग की अपनी सुनिश्चित दिशा है। तो जब मैं महावीर के मार्ग पर बोल रहा हूं तो तुम खयाल रखना: मैं चाहता हूं कि शुद्ध महावीर की बात तुम्हारी समझ में आ जाये; फिर जिसको वह यात्रा सुगम मालूम पड़े वह चल सके। वहां भक्ति को भूल ही जाना। वहां सूफियों से कुछ लेना-देना नहीं। वहां तो तुम शुद्ध निर्भाव होने की चेष्टा करना, क्योंकि वही निर्भाव ही वहां गाड़ी का चाक है। लेकिन अकसर लोग ऐसा करते हैं: महावीर के मार्ग पर भाव ले आयेंगे और जब नारद को पढ़ेंगे तब उनकी बुद्धि में निर्भाव उठने लगेगा। ये तरकीबें हैं न पहुंचने की ये बहाने हैं ताकि तुम पहुंच न पाओ । ऐसे उलझाव खड़े करते हो । अंततः समन्वय है, लेकिन वह है गंतव्य पर पहुंचकर । जहां से मैं खड़े होकर देख रहा हूं, वे सभी रास्ते यहीं आ जाते हैं। लेकिन हर रास्ते की व्यवस्था अलग है। कोई पहाड़ से गुजरता है, कोई रेगिस्तानों से गुजरता है, कोई हरियाली से भरे उपवन से गुजरता है। किसी रास्ते पर कोयल की कुहू कुहू है और किसी रास्ते पर बिलकुल सन्नाटा है, पक्षी हैं ही नहीं । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति रास्तों की अलग-अलग व्यवस्था है। और प्रत्येक ने चेष्टा करीब-करीब आओगे, वैसे पाओगे तुम रूपांतरित हुए, बदले, की है कि उसका रास्ता शुद्ध रहे। नये हुए, नया जन्म हुआ। तो महावीर साफ किये दे रहे हैं : एक-एक कदम पर जन्म है। एक-एक पल नये का आविर्भाव अण्णाणादो णाणी जदि मण्णादि सुद्ध संपओगादो है। उस आविर्भाव से ही प्रमाण मिलता है कि मैं जो चल रहा हूं हवदि त्ति दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो।। तो ठीक चल रहा हूं। लेकिन जो बैठे हैं उनके पास कोई उपाय भक्ति भी दुख-मुक्ति की तरफ नहीं ले जायेगी। | नहीं है कि जानें कौन ठीक है। तर्क जुटायेंगे, चिंतन करेंगे, ध्यान रखना, जब महावीर कहते हैं, भक्ति दुख-मुक्ति की शास्त्रों का मेल-ताल बिठायेंगे। तरफ नहीं ले जायेगी, तो यह सार्थक है वचन महावीर के मार्ग और तर्क वेश्या जैसा है। उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम जैसा पर। यह वचन आत्यंतिक नहीं है। इस वचन से नारद गलत | उसका उपयोग करना चाहो वैसा कर ले सकते हो। अब महावीर नहीं होते। इस वचन से सिर्फ इतना ही साफ होता है कि महावीर कहते हैं, व्यवस्था के कारण परमात्मा को स्वीकार नहीं किया जा के मार्ग पर भक्ति की कोयल की कुहू कुहू नहीं है। और अगर सकता। हिंदू कहते हैं, व्यवस्था के लिए परमात्मा की जरूरत महावीर के मार्ग पर भक्ति की कोयल की कुहू-कुहू सुनाई पड़े, है, अन्यथा व्यवस्था कौन करेगा? विपरीत तर्क, लेकिन दोनों तो तुम भटक गये हो, तुम मार्ग पर हो नहीं। वहां भाव बंधन है; ठीक मालूम होते हैं अपनी-अपनी जगह। तुम सोच-सोचकर क्योंकि वहां दूसरे की मौजूदगी परतंत्रता है। बैठ-बैठकर, विचार कर-करके कभी न पहुंच पाओगे। उठो धिगस्तु परवश्यताम्। और चलो! -धिक्कार है परवशता को, परतंत्रता को। महावीर का मार्ग शुद्धतम मार्गों में से एक है। लेकिन उसे शुद्ध वहां परमात्मा प्रीतिकर नहीं है। उसकी मौजूदगी ही अपनी रखना। महावीर के मार्ग पर पूजा को मत ले आना, प्रार्थना को गुलामी का सबूत है। मत ले आना। महावीर अपने मार्ग की बात कर रहे हैं। अब यह तुम्हें बड़ा अगर पूजा-प्रार्थना में ही रस है तो पूजा-प्रार्थना के मार्ग हैं। कठिन लगता है। तुम्हें लगता है, अगर महावीर सही हैं तो नारद बजाय इसके कि तुम मार्ग को खराब करो, तुम्हीं उतरकर दूसरे गलत होने चाहिए। वहां तुम भूल कर रहे हो। तुम्हें लगता है, मार्ग पर चले जाना। अगर नारद सही हैं तो महावीर गलत होने चाहिए। तुम बड़ी दुनिया बड़ी धार्मिक हो जायेगी उस दिन, जिस दिन लोग जल्दी कर रहे हो। तुम जीवन की विराटता को नहीं देख पाते। सुलभता से एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर जा सकेंगे; न उन्हें कोई जीवन इतना विराट है कि सब विरोधी मार्गों को अपने में समाए रोकेगा, न कोई बाधा डालेगा, न उन्हें कोई जबर्दस्ती अपने मार्ग हुए है। यहां महावीर भी सही हैं और नारद भी सही हैं। और | पर खींचेगा, न कोई कन्वर्ट करने को उत्सुक होगा और न कोई नारद के मार्ग पर चलकर भी लोग पहुंच गये हैं और महावीर के रोक लेने को उत्सुक होगा। अगर किसी के मन में उमंग उठी है मार्ग पर भी चलकर लोग पहंच गये हैं। | आनंद की, रस की, भाव की, तो वह मार्ग खोज लेगा भाव का। लेकिन एक बात तय है : जो भी चले हैं वे पहुंचे हैं। कुछ लोग | कोई बाधा नहीं डालेगा, न कोई उसे प्रभावित करेगा कि इस मार्ग हैं जो मार्गों के किनारे बैठकर विचार कर रहे हैं कौन सही है! पर आओ। क्योंकि कभी-कभी प्रभाव में तुम गलत मार्ग पर जा जीवन ऐसे ही बीता चला जाता है सोचने में, कौन सही है! सही सकते हो। कभी-कभी रोकने की वजह से गलत मार्ग पर रुक का भी कैसे पता चलेगा जब तक चलोगे नहीं? चलने से ही | सकते हो। पता चलेगा कौन सही है। क्योंकि जब करीब आने लगोगे | जीवन एक मुक्त हलन-चलन, रूपांतरण, बदलाहट की | जलस्रोत के, तो ठंडी हवाएं छूने लगेंगी। जब करीब आने सुविधा होनी चाहिए। लगोगे मंजिल के तो जीवन में आलोक आने लगेगा। जब करीब महावीर का मार्ग अपने-आप में पूर्ण सही है। पर उससे कोई आने लगोगे तो दर्शन ज्ञान बनेगा, ज्ञान चरित्र बनेगा। जैसे-जैसे और गलत नहीं होता। उससे विपरीत दिखाई पड़नेवाले भी ९ 467 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 जिन सूत्र भाग: 1 गलत नहीं होते। इतना तुम्हें स्मरण रहे तो तुम्हारे भीतर संप्रदाय तरफ देख रहा है; अंतर्मुखी हों तो अंदर की तरफ देख रहा है। का भाव पैदा नहीं होगा । बहिर्मुख, अंतर्मुख, दोनों से मुक्त हों तो परमात्मा स्थित हुआ, स्वस्थ हुआ, अपने में लौट आया। इस अवस्था को महावीर मोक्ष कहते हैं। संप्रदाय का भाव इस तरह पैदा होता है। इन सूत्रों को जो पढ़ेगा...। जैन पढ़ते रहे हैं। तो जब वे देखते हैं किसी को मंदिर की तरफ जाते कृष्ण के, तब उनको लगता है, बेचारा भटका ! | उनको याद आता है महावीर का सूत्र कि राग का अंश है भक्ति ! और यह आदमी राग में पड़ा है। नहीं, यह तुम सोचना ही मत । तुमने अपने लिए सोच लिया, काफी है। तुम्हें दूसरे की अंतर्व्यवस्था का कुछ भी पता नहीं है। तुम बस अपने लिए निर्णय कर लो, उतना बहुत । और वह निर्णय भी चलने के लिए हो, बैठे-बैठे सोचने के लिए नहीं । महावीर तुम्हें वहां ले जाना चाहते हैं जहां न कोई विचार रह जाता, न कोई भाव रह जाता, न कोई चाह रह जाती, न कोई परमात्मा रह जाता – जहां बस तुम एकांत अकेले अपनी परिपूर्णता शुद्धता में बच रहते हो ! निर्धूम जलती है तुम्हारी चेतना ! हर मंजर - ए - बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हूं मैं । ऊंचाइयां भी जहां नीचे छूट जाती हैं। हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऊंचाइयां भी पीछे छूट गईं। ऊंचाइयां भी नीचाइयां तो छूट ही गईं, ऊंचाइयां भी छूट गईं। अशुभ तो छूट ही गया, शुभ भी छूट गया। पाप तो छूटा, पुण्य भी छूटा । हर मंजर - ए - बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हूं मैं । — और मैं किस आकाश में उड़ रहा हूं! महावीर उस आकाश को आत्मा कहते हैं। अंतअकाश! परम आनंद है वहां परम शांति ! महावीर उस परम दशा को ही परमात्म-दशा कहते हैं। परमात्मा एक नहीं है महावीर के लिए, वरन प्रत्येक व्यक्ति की नियति है। हर व्यक्ति परमात्मा होने के मार्ग पर है। हर व्यक्ति परमात्मा हो रहा है; देर- अबेर होता चला जा रहा है। 1 परमात्मा सृष्टि के प्रथम क्षण में नहीं है— परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति की अंतिम उपलब्धि में है। उतने ही परमात्मा हैं जितनी आत्माएं हैं। फिर ये आत्माएं बहिर्मुखी हों तो परमात्मा बाहर की आज इतना ही। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवां प्रवचन परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार इस जगत में न पकड़ने-योग्य कुछ है न छोड़ने योग्य । लेकिन एक बात पकड़ने और छोड़ने के बीच बेचैन कर गयी : प्रेम-वासना- मेरे जीवन की एकमात्र समस्या । आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने क हमने माना कि तगाल न करोगे, लेकिन खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक । आपके प्रवचन के समय बड़ी मीठी और गहरी नींद आती है। क्या कारण है ? संन्यास के शुरू कुछ साल संन्यासिनी होने का भ्रम रहा । लेकिन संन्यास के फूल की जो आप बात करते हैं, अपने को उसके योग्य नहीं पाती। जमीन से पैर उखड़ गए हैं, लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे । यह कैसी अवस्था है ? Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न : इस जगत में न पकड़ने-योग्य कुछ दिन तक गूंजते न रह सके- क्योंकि आदमी रुग्ण है, क्योंकि । है, न छोड़ने-योग्य-ऐसा आपने कहा। और आदमी बीमार है; और आदमी से कृष्ण की बांसुरी के स्वरों का मैंने तटस्थता में शांति का अनुभव भी पाया। संबंध नहीं बैठता। लेकिन एक बात पकड़ने और छोड़ने के बीच बेचैन कर आदमी दुखी है और इसलिए दुख के कारण वह जीवन के गई-वह है प्रेम-वासना। मेरे जीवन का वही एक प्रश्न है, सुख-रूप को नहीं देख पाता। वह अपने दुख को ही जीवन में समस्या है। देखता है। इसलिए जब भी कोई तुमसे कहेगा, जीवन व्यर्थ है, असार है, तुम्हें तत्क्षण बात समझ में आ जायेगी। क्योंकि तुम्हें प्रेम समस्या नहीं है बनाना चाहो तो समस्या बन सकती है। भी ऐसा ही लग रहा है। प्रेम है जीवन का समाधान। लेकिन तुम्हारे देखने में कहीं कोई जिन्हें भी जीने का ढंग न आया, वे जीवन से नाराज हो जाते भूल-चूक हो रही है। तुमने प्रेम को निष्पक्ष भाव से नहीं देखा। हैं। अपने से तो कोई यह देखने को राजी नहीं है कि मेरी शैली जिन्होंने प्रेम के विपरीत जीवन का ढांचा निर्मित किया है, या जो गलत, मेरे जीवन को पहचानने का रास्ता गलत, जीवन की तरफ जीवन-विरोधी हैं, तुमने उनकी आंख से प्रेम को देखा है। पहुंचने की मेरी व्यवस्था गलत। ऐसा तो कोई नहीं देखता; तुम्हारी आंखें किन्हीं खयालों से भरी हैं, उन खयालों के कारण क्योंकि उसमें तो फिर 'मैं' गलत हो जाऊंगा। प्रेम समस्या बन जाता है। फिर तो कोई भी चीज समस्या बनाई हम, अगर अहंकार और जीवन में चुनना हो, तो अहंकार को जा सकती है। समस्या ही बनाना हो तो फिर इस जगत में ऐसी | चुन लेते हैं, जीवन को नहीं। मैं तो गलत कैसे हो सकता हूं, कोई बात नहीं, जो समस्या न बन जाये। कोई भोजन को समस्या जीवन ही गलत होना चाहिए। मैं तो गलत कैसे हो सकता हूं, बना लेता है। कोई शरीर को समस्या बना लेता है। कोई वस्त्रों प्रेम ही गलत होना चाहिए! को समस्या बना लेता है। प्रेम को भी समस्या बनाना चाहो तो तो जब भी हमें चुनना होता है, हम 'मैं' को चुन लेते हैं कि मैं बन सकता है। यह तुम पर निर्भर है। कहीं देखने में कुछ भूल हो तो ठीक हूं ही! एक बात तो सुनिश्चित है कि मैं ठीक हूं। और रही है। | फिर भी जीवन में दुख हैं तो कहीं न कहीं गलती का सूत्रपात होता प्रेम को सदा ही तथाकथित धार्मिकों ने निंदित किया है। होगा; कहीं न कहीं भूल के बीज होंगे। तो हम चारों तरफ देखते क्योंकि जीवन के विधायक को स्वीकार करनेवाले धर्म अब तक हैं भूल के बीज खोजने को। कोई धन में देखता है; धन छोड़कर पैदा नहीं हुए; या पैदा भी हुए तो उनकी झलकें आईं और खो भाग जाता है। लोभ में नहीं देखता; धन में देख लेता है, तो धन गईं। कभी किसी कृष्ण ने बांसुरी बजाई; लेकिन वे स्वर ज्यादा को छोड़कर भाग जाता है। अपने भीतर नहीं देखता, तृष्णा में Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 जिन सूत्र भाग: 1 नहीं देखता। लेकिन धन को छोड़कर कहां जाओगे ? धन तो बाहर था, बाहर ही रहेगा। तुम कहीं भी भाग जाओ, तुम्हारे भीतर की लोभ - दशा कैसे बदलेगी ? कोई देखता है, पद में उपद्रव है, अशांति है— पद छोड़कर हट जाता है। न तो अशांति पद में है, न धन में है। कोई देखता है, प्रेम में उलझाव है । प्रेम में उलझाव नहीं है। उलझाव तो तुम्हारी प्रेम न कर पाने की स्थिति में है। तुमने प्रेम के नाम पर कुछ और किया है, इसलिए उलझाव है। थोड़ा समझो। इधर मैं देखता हूं, सैकड़ों लोग अपनी प्रेम की समस्या लेकर मेरे पास आते हैं। तो पहली बात तो यह है कि प्रेम तो उन्होंने किया ही नहीं है, समस्या है। प्रेम के नाम पर कुछ और किया है। प्रेम के नाम पर ईर्ष्या की है। प्रेम के नाम पर दूसरे पर मालकियत साधनी चाही है। प्रेम के नाम पर राजनीति की है। प्रेम के नाम पर किसी को दबाना चाहा है, सताना चाहा है। प्रेम के नाम पर किसी के सिर पर बैठ जाना चाहा है । यह नाम प्रेम का है, भीतर छिपा कुछ और है। तुम जिस स्त्री से कहते हो, मैंने प्रेम किया, तुमने प्रेम किया? तुम जिस पुरुष को कहते हो, मैंने प्रेम किया, तुमने प्रेम किया ? जिस बेटे को तुम 'कहते मैंने प्रेम किया, प्रेम किया? बेटे में तुमने महत्वाकांक्षा की है कि तुम जो नहीं कर पाये, बेटा पूरा करेगा। तुम जो अधूरा छोड़ जाओगे, बेटा पूरा करेगा। बेटे के माध्यम से तुमने एक तरह का अमरत्व साधना चाहा। तुम तो मरोगे, तुम्हारा अंश तुम्हारे बेटे में जीयेगा। चलो इतना ही सही, पूरे न बचोगे, एक अंश बचेगा। वृक्ष न बचेगा, लेकिन बीज तो बचेगा। चलो यही सही। इतना तो इंतजाम कर लें। कौन अपने बेटे को प्रेम करता है ! बेटे के माध्यम से कुछ और चीजें हैं, कुछ अहंकार की एषणाएं हैं जिन्हें तुम पूरा करना चाहते हो। तुम नहीं बन पाये प्रधानमंत्री, बेटा बन जायेगा। तुम नहीं हो पाये बड़े धन कुबेर, बेटा हो जायेगा । नाम तो रहेगा। नाम तो तुम्हारा है, बेटा तो तुम्हारा है ! इसलिए दुनिया में इतने मां-बाप कहते हैं कि हम अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, लेकिन दुनिया में कहीं प्रेम दिखाई नहीं पड़ता । सभी बच्चे तो मां-बाप से पैदा होते हैं। अगर सच में ही मां-बाप प्रेम करते हैं तो सभी बच्चे प्रेम से पैदा हों और उनके जीवन में प्रेम की सुगंध हो । लेकिन वह सुगंध तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती । दिखाई तो पड़ती है घृणा की दुर्गंध । दिखाई तो पड़ता है युद्ध, वैमनस्य, हत्या, हिंसा, क्रोध, और सभी प्रेम के स्रोत से आते हैं। तो जरूर प्रेम के स्रोत में कहीं कोई जहर मिला है। क्योंकि अंतिम परिणाम बताते हैं। फल से पता चलता है वृक्ष का। तो तुम्हारे बेटे के जीवन में अगर प्रेम फले तो ही पता चलेगा कि तुमने प्रेम किया था, तुमने प्रेम की खाद डाली थी। लेकिन किसी बेटे के जीवन से पता नहीं चलता। पत्नी है, पति है, एक-दूसरे को कहते हैं कि प्रेम करते हैं। लेकिन कभी तुमने देखा, गौर से समझा – यह प्रेम है या कुछ और ? प्रेम के नाम से धोखा दे रहा है। फिर समस्याएं खड़ी होती हैं । तुम्हारी पत्नी किसी दूसरे की तरफ गौर से भी देख ले तो अड़चन शुरू हो जाती है। तुम्हारे अतिरिक्त भी सौंदर्य है जगत में। तुमने कुछ सौंदर्य की मोनोपाली, एकाधिकार नहीं कर लिया है । तुम्हारे अतिरिक्त भी सौंदर्य है जगत में। तुममें भी सौंदर्य है, क्योंकि जगत में सौंदर्य है, अन्यथा तुममें भी न होता। तो अगर पत्नी किसी की तरफ भरनजर देख लेती है, तुम घबड़ा क्यों गये हो ? इतने परेशान क्यों हो गये हो ? घबड़ाहट है। प्रेम कहीं घबड़ाता है? अगर प्रेम हो तो तुम चुपचाप पूछोगे, 'सुंदर लगा यह व्यक्ति ? मुझे भी सुंदर लगा। सुंदर है।' न तो पत्नी को यह छिपाना पड़ेगा कि यह व्यक्ति सुंदर लगा, न तुम्हें इसके लिए कोई संघर्ष करना पड़ेगा कि तुम पत्नी को दबाओ, कि पत्नी की आंख को हटाओ, कि पत्नी पर नियंत्रण करो। कहां क्या बुरा हुआ है ? पति अगर किसी और स्त्री से हंसकर बोल ले, मुस्कुराकर बोल ले तो पत्नी बेचैन है, परेशान है। यह कैसा प्रेम है ? यह कैसा प्रेम है जो पति को मुस्कुराते नहीं देख सकता ? पत्नी कहती है, मुस्कुराना तो बस मेरे पास। यह तो ऐसे हुआ, जैसे कि तुम कहो कि सांस लेना तो बस मेरे पास ! बाकी चौबीस घंटे और कहीं श्वास मत लेना । मुस्कुराहट भी श्वास है । प्रेम भी श्वास है । और जैसे बिना भोजन के आदमी मर जाता है— बिना प्रेम के आदमी मर जाता है । बिना भोजन के शरीर मरता है - बिना प्रेम के आत्मा मर जाती है । तो बिना भोजन के तो तुम जी भी लो-थोड़े दिन; बिना प्रेम के तो तुम क्षणभर नहीं जी सकते। क्योंकि प्रेम ही तुम्हारी आत्मा की श्वास है । जैसे शरीर को आक्सीजन चाहिए Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम प्रतिपल, ऐसे ही प्राणों को प्रेम चाहिए प्रतिपल। लेकिन तुम घर आधार गिर जाता। प्रेम से तो भक्तों ने भगवान को ही खोजा है। के बाहर जाते हो तो भी डरे हो। किसी से प्रेम से बात भी करते हो और तुम कहते हो, प्रेम में समस्या है! तो तुम जरा फिर से विचार तो भीतर एक भय खड़ा है कि कहीं पत्नी को पता न चल जाये। करना। प्रेम में कुछ और मिश्रित होगा। उस मिश्रित के कारण यह कैसा प्रेम हुआ, जो तुम्हारी प्रसन्नता के विपरीत आ रहा है? समस्या खड़ी होगी। उस मिश्रित को गिरा दो। यह कैसा प्रेम हुआ, जो तुम्हें दुखी देखना चाहता है, प्रसन्न नहीं ईर्ष्या मत करो प्रेम के माध्यम से और महत्वाकांक्षा मत करो। देखना चाहता? यह कैसा प्रेम हुआ जो तुम्हें बांधता है, मुक्त और प्रेम के माध्यम से किसी की मालकियत मत करो। और प्रेम नहीं करता? नहीं, यह प्रेम का नाम है। इसके पीछे कुछ और के माध्यम से किसी तरह की गुलामी मत थोपो। प्रेम पर्याप्त है। है-मालकियत है, पजेसिवनेस है, एकाधिकार है। इसमें प्रेम प्रेम से कुछ और मत चाहो। प्रेम अपने में साध्य है; उसे साधन कम, अर्थशास्त्र ज्यादा है। मत बनाओ। फिर तुम देखोगे कि जीवन बड़ी शांति से विकसित पत्नी डरी है कि अगर कहीं तुम किसी दूसरे में उत्सुक हो गये होने लगा। और शांति से ही नहीं, क्योंकि सिर्फ शांति भी थोड़ी तो मेरी व्यवस्था का, धन का, मेरे बच्चों का, घर का क्या होगा! मुर्दा मालूम होती है। तुममें कोई उत्सुकता नहीं है-आर्थिक व्यवस्था का सवाल है। मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन को शांति-मात्र का लक्ष्य नहीं देता हूं; अर्थ के नियोजन में गड़बड़ पड़ जायेगी। न तुम पत्नी में उत्सुक | क्योंकि जिस शांति में आनंद की पुलक न हो, वह शांति पर्याप्त हो। कुछ और बातें हैं, जिनके कारण तुम उत्सुक हो। प्रतिष्ठा नहीं। जिसमें आनंद की लहरें भी उठती हों, वही शांति ठीक है। है। समाज में आदर-सम्मान है। लोग कहते हैं कि ऐसा एक नहीं तो शांति का अर्थ केवल इतना होगा कि अशांति नहीं है। पत्नी-व्रती कोई दूसरा देखा नहीं। राम के बाद बस तुम्हीं हुए कुछ होगा नहीं; कुछ नहीं है, इस पर जोर होगा। फिर तुम्हारी हो। तो एक रिस्पेक्टेबिलिटी है, एक सम्मान है। अगर शांति अहिंसा जैसी होगी। फिर तुम्हारी शांति उपद्रव का अभाव यहां-वहां नजर गई, सम्मान बिखर जायेगा। प्रतिष्ठा दांव पर होगी; जैसे कि रास्ता न चलता हो, रेलगाड़ी न गुजरती हो, लगेगी। बाजार में नाम नीचा गिरेगा। दुकान कम चलेगी। सब हवाई जहाज न निकलता हो। या तुम दूर हिमालय पर चले गये गड़बड़ हो जायेगी। हजार और बातें हैं। | तो वहां एक तरह की शांति है, सन्नाटा है। लेकिन उस सन्नाटे में फिर इन्हीं बातों के कारण अड़चन होती है। तो तुम कहते हो, बहुत मूल्य नहीं है क्योंकि वह सिर्फ अभाव है। प्रेम के कारण समस्या खड़ी हो रही है। | फिर एक और शांति है, जो संगीत की तरह है: तुम्हारे चारों अब तक मैने ऐसी कोई घटना नहीं देखी और हजारों लोगों के तरफ वीणा बजने लगे; बाहर-भीतर एक नृत्य होने लगे; शांति चित्त के निरीक्षण से तुमसे कहता हूं कि जब प्रेम ने समस्या खड़ी गाये भी नाचे भी, उमंग से भरी हो, हर्षोन्माद हो तो ही, तो ही की हो, समस्या किसी और चीज ने खड़ी की है। लेकिन ठीक है। बुनियादी भूल तो तुम यह मानकर चलते हो कि वही प्रेम था। तो इतना ही काफी नहीं कि तुम शांत हो जाओ। इसे समझना। फिर जब समस्या खड़ी होती है तो प्रेम पर ही दोष थोप देते हो। जो लोग प्रेम के जीवन को छोड़कर हट जायेंगे, इस खयाल से प्रेम ने तो लोगों को मुक्त किया है। प्रेम ने तो जीवन में स्वाद कि वहां समस्या थी, वे शांत तो हो जायेंगे, लेकिन आनंदित न दिया है परमात्मा का। प्रेम के माध्यम से ही लोग धीरे-धीरे हो पायेंगे। उनकी आंखों में चिंता के बादल तो न होंगे, लेकिन प्रार्थना की तरफ सरके हैं, आकर्षित हुए हैं। प्रार्थना में स्वाद | आनंद-अश्रुओं की वर्षा भी न होगी। उनकी आंखों में तनाव, मिला है अनंत का, अज्ञात का। प्रेम ने बल दिया है। प्रेम ने | बेचैनी, परेशानी, चिंता-इसकी धूल-धवांस तो न होगी; अभियान दिया है, साहस दिया है। लेकिन प्रेम ने समस्या कभी | लेकिन उनकी आंखों में तुम किसी अनंत का नृत्य न देख भी नहीं दी। | पाओगे। उनकी आंखें झरोखे न बनेंगी परमात्मा की। उनकी अगर प्रेम समस्या देता होता तो जीसस कैसे कहते कि आंखें रूखी-रूखी, सूखी-सूखी, मुर्दा-मुर्दा होंगी। परमात्मा प्रेम है? तो तो फिर भक्ति-शास्त्र का सारा का सारा जीवन को शांति का लक्ष्य मत देना। शांति जरूरी है, काफी Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE A जिन सूत्र भागः1AREERPREEEEEEE नहीं। जीवन और बड़े द्वार खोलता है आनंद के। आनंद के पीछे जब तुम अकेले हो तो तुम बेईमान नहीं हो सकते, न ईमानदार शांति तो अनिवार्य होती है, लेकिन शांति के साथ जरूरी रूप से हो सकते हो; क्योंकि अकेले में क्या बेईमानी और क्या आनंद नहीं होता। तुम ऐसा मत सोचना कि बीमार न हुए तो ईमानदारी! दूसरा चाहिए। तो अकेले आदमी को ऐसा भ्रम हो स्वस्थ हो गये। बीमार न होना स्वस्थ होने के लिए जरूरी है, सकता है कि मैं ईमानदार हूं। इसलिए तो लोग जंगलों में भाग लेकिन काफी नहीं। क्योंकि यह भी हो सकता है कि बीमार तुम गये, गुफाओं में छिप गये। नहीं हो, लेकिन स्वास्थ्य की कोई पुलक नहीं है। स्वास्थ्य बड़ी अकेले में बड़ी सुविधा है; क्योंकि न बेईमानी है, तो साफ हो अलग बात है। जब कभी तुम स्वस्थ हुए हो, तो तुम्हें पता है कि गया कि ईमानदार हैं। लोगों ने अभाव को परिभाषा बना लिया। वह बीमारी न होने का ही नाम नहीं है, कुछ विधायक ऊर्जा लेकिन तुम ईमानदार भी नहीं हो जब तुम अकेले में हो। क्योंकि तुम्हारे भीतर तरंगें लेती है। यह जरूरी है कि बीमारी न हो तो अकेले में किसके साथ ईमानदारी, कैसी ईमानदारी? स्वास्थ्य के उतरने में सहायता आती है। लेकिन जिसने यह आओ वापस संबंधों में करीब लोगों के। वहां तत्क्षण पता समझ लिया कि बीमारियों का अभाव ही स्वास्थ्य है, उसने चलेगा, तुम ईमानदार हो कि बेईमान; तुम झूठ बोलते हो कि जीवन के संबंध में बड़ी भूल कर ली। सच। यह अकेले में कैसे पता चलेगा? किससे बोलोगे? तुम तो मैं तुमसे कहंगा, प्रेम पर फिर से विचार करना, ध्यान करुणावान हो या कठोर, यह कैसे पता चलेगा? करीब आओ! करना। और प्रेम से भयभीत मत होना। भय है। उसी भय के किसी जीवन को निकट आने दो। कारण बहुत लोग भाग गये हैं। भय है। . और तत्क्षण तुम्हारे भीतर कुछ घटने लगेगा, जिससे साफ और भय क्या है? होगा कि तुम में कठोरता है या करुणा है। जब भी तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में उतरते हो, दूसरा व्यक्ति अब तुम देखो, जैन मुनि हैं! अहिंसा और करुणा उनके जीवन तुम्हारे लिए दर्पण बन जाता है और तुम्हारा चेहरा उसमें दिखाई | का मूल आधार होना चाहिए, लेकिन है नहीं। क्योंकि जब तुम पड़ने लगता है। दर्पण से लोग डरते हैं; क्योंकि दर्पण में वे बातें अपने को जीवन से तोड़ लोगे तो करुणा का पता कैसे चलेगा? दिखाई पड़ने लगती हैं जो तुम नहीं देखना चाहते। अकेले थे तो किस हिसाब से तुम्हारे भीतर करुणा प्रगट होगी? कोई उपाय क्रोध का पता न चलता था; किसी के प्रेम में पड़े तो क्रोध का नहीं है। जैन मुनि रास्ते से गुजरता हो तो अगर एक भिखमंगा पता चलेगा। दूसरा दर्पण बन गया। और दूसरा चुनौती बन उसके सामने हाथ फैला दे, तो उसके पास देने को भी कुछ नहीं गया। और चारों तरफ स्थितियां खड़ी होंगी, जिनमें तुम्हारा क्रोध है। तो तुम यह तो न कहोगे, यह कृपण है। तुम कहोगे, यह तो प्रगट होने लगेगा, तुम्हारे धोखे जाहिर होने लगेंगे। तुम्हारे झूठे त्यागी है, इसके पास कुछ है ही नहीं; देने को ही कुछ नहीं है तो चेहरे कभी-कभी खिसक जायेंगे और गिर जायेंगे। कुछ ऐसी देने का सवाल नहीं उठता। लेकिन क्या जरूरी है कि इसके पास स्थितियां बनने लगेंगी जिसमें तुम निर्वस्त्र हो जाओगे। तुम्हारे देने को कुछ नहीं है, लेकिन यह देना चाहता था? कैसे पता भीतर की नग्नता झांकने लगेगी। डर लगता है! चलेगा कि देना चाहता था? कहीं ऐसा तो नहीं है इस त्याग में अकेले में आदमी अपने को ढांककर बैठा रहता है। संबंध बड़े कृपणता ही छिपी हो? सूचक होते हैं। संबंधों में ही पता चलता है तुम कौन हो। क्योंकि अकसर मैंने देखा है, कुपण त्यागी हो जाते हैं। त्याग से दूसरे की आंख में तुम्हारी जो छवि बनती है, उसी को तो तुम देख बढ़िया उपाय नहीं है कृपणता को छिपाने का। क्योंकि जब कुछ पाते हो; खद की तो कोई छवि देखने का सीधा उपाय नहीं है। है ही नहीं तो देने का सवाल ही समाप्त हो गया। जैन मुनि से तुम तुम सीधे तो अपने को देख ही न सकोगे। देखने के लिए दर्पण अपेक्षा तो न रखोगे कि गरीब को कुछ दे, भिखमंगे को कुछ दे, चाहिए। और दर्पण तो मुर्दा है-संबंधों का दर्पण जीवंत है। बीमार को कुछ दे। देने की छोड़ो, तुम यह भी अपेक्षा नहीं रखते जब दूसरे की आंख में तुम्हारी छवि बनती है, तब तुम्हारा सत्य कि बीमार का पैर दबा दे या बीमार को पानी भरकर ला दे। प्रगट होने लगता है। इसे थोड़ा समझो। क्योंकि जैन मुनि कहता है, उसमें तो राग है। ain Education International Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIT जैनों का एक पंथ है-तेरापंथ-आचार्य तुलसी का पंथ। वे योग्य न था। क्योंकि उनका कुल जोर पकड़ने पर है; जो भी तो यहां तक कहते हैं कि अगर राह के किनारे कोई मर रहा हो तो मिले पकड़ लो, सम्हालकर रख लो! कूड़ा-कर्कट हो तो भी रख तुम चुपचाप अपने राह से चले जाना। क्योंकि क्या पता, तुम लो, कौन जाने कल कुछ काम आ जाये! छोड़ने की उनकी उस प्यासे मरते आदमी को पानी पिला दो, और वह कल हत्यारा हिम्मत नहीं है। फिर इनके विपरीत दूसरे लोग हैं, जिनको हम हो जाये, तो तुमने हत्या में भाग लिया। ठीक है, वह मर जाता त्यागी कहते हैं। वे भोगियों जैसे ही हैं, सिर्फ शीर्षासन कर रहे अगर तुम पानी न पिलाते, मर जाता तो हत्या न कर पाता। तुमने हैं, उलटे खड़े हो गये हैं। वे कहते हैं, सब छोड़ दो। सर्वस्व पानी पिलाया तो वह जी गया। जी गया, उसने कल जाकर हत्या त्याग! पहला आदमी भूल कर रहा थाः सब पकड़ लो; यह की, तो तुम यह मत समझना कि तुम बच गये। तुमने ही तो हाथ दूसरा आदमी कहता है: सब छोड़ दो। मैं तुमसे कहता हूं: दिया। इसलिए तुम अपने रास्ते पर चुपचाप चले जाना। जीवन में कुछ छोड़ने योग्य है, वह अपने से छूट जाता है; कुछ अब यह लगेगा विराग, त्याग! और ऐसी कठोर अवस्था में पकड़ने योग्य है, वह अपने से बच जाता है। और ये दोनों आदमी अपने भीतर बंद हो जाता है खोल के भीतर। इसकी | अतियां हैं। और दोनों अतियां खतरनाक हैं। पहचान ही मुश्किल हो जाती है कि यह कौन है, क्योंकि दर्पण प्रेम के नाम से कुछ चल रहा है, जो छूटना चाहिए लेकिन वह तोड़ देता है। प्रेम के अनुभव से ही छूटेगा। प्रेम की पीड़ा से गुजरोगे, समझोगे संबंधों से जो डरता है, वह दर्पण से डर रहा है। और प्रेम से कहां-कहां कांटे हैं, तो उनको छोड़ दोगे। और प्रेम में कुछ है जो बड़ा स्वच्छ कोई दर्पण नहीं है। जितने तुम्हारे जीवन में प्रेम के | | बचाने योग्य है; क्योंकि प्रेम में परमात्मा की झलक है। कहीं पूरा संबंध होंगे, उतनी ही तुम्हारी सचाई जगह-जगह प्रगट प्रेम मत छोड़ बैठना, नहीं तो तुमने टब के पानी के साथ बच्चे को होगी-उठते, बैठते, चलते। मैं तुमसे कहता हूं, अपनी सचाई भी फेंक दिया। तुमने कूड़ा-कर्कट के साथ सोना भी फेंक दिया। को जानना जरूरी है, तो ही अपनी आत्मा को रूपांतरित किया तुमने असार के साथ सार भी फेंक दिया। यह तो कुछ समझदारी जा सकता है। न हुई। यह तो कुछ विवेक न हुआ। इसलिए घबड़ाओ मत। और प्रेम को समस्या मत बनाओ। दो तरह के अविवेकी हैं-भोगी और त्यागी। भोगी का इतना डर क्या है? इतनी घबड़ाहट क्या है? अनुभव से उतरो, अविवेक है कि वह कहता है, कि जो भी है पकड़ लो, असार को गुजरो। भी पकड़ लो। वह बच्चे को तो बचाता ही है, गंदे पानी को भी जीवन जैसा है, अगर हम उसे वैसा का वैसा जीने को राजी हो बचा लेता है, उसको भी सम्हालकर रख लेता है। फिर त्यागी जायें और जीवन जो शिक्षाएं देता है उन शिक्षाओं को सीखने को | का अविवेक है। वह गंदे पानी को तो फेंकता ही है, बच्चे को भी तत्पर रहें, तो इस जीवन में कुछ भी छोड़ने जैसा नहीं है। जो साथ फेंक देता है। यह दोनों असंयम हैं। छोड़ने जैसा है, छूट जायेगा; जो बचने जैसा है, बच जायेगा। न | मेरे देखे, संयम तो ऐसी चित्त की दशा है, ऐसी जागरूक दशा, तुम्हें छोड़ना पड़ेगा, न तुम्हें बचाना पड़ेगा। जिसमें जो बचने योग्य है बचना चाहिए, बचता है; जो न बचने इसलिए मैं कहता हूं, न यहां कुछ छोड़ने योग्य है, न पकड़ने योग्य है, छोड़ने योग्य है, छूटता है। इसको ही हमने योग्य। मेरा मतलब समझ लेना। मेरा मतलब यह है कि यहां तो परमहंस-दशा कहा है। हंस की भांति, कि दूध और पानी को तुम गुजर जाओ जीवन की गहनता से जो छूटने योग्य है छूट | अलग-अलग कर ले। जायेगा; जो पकड़ने योग्य है बच जायेगा; तुम्हें न कुछ छोड़ना मैं तुमसे कहता हूं, यहां पानी बहुत है, यहां दूध भी बहुत है। है, तुम्हें न कुछ पकड़ना है। तुम इस राह से गुजर जाओ।। इस संसार में पदार्थ भी है, परमात्मा भी है। यहां रोग भी हैं और लेकिन राह से भागना मत, भगोड़े मत बनना। स्वास्थ्य भी है। यहां समस्याएं भी हैं और समाधान भी हैं। तुम दो तरह के लोग हैं। एक हैं: पकड़नेवाले, जिनको हम भोगी ये दो भूलों से बचना। सब पकड़ने में गलत भी बच रहता है, कहते हैं। दीवाने हैं। वे उसको भी पकड़ लेते हैं, जो पकड़ने सब छोड़ने में सही भी छूट जाता है। हंसा तो मोती चुगे! Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 कंकड़-कंकड़ छोड़ देना, मोती-मोती चुन लेना। प्रेम में बड़े फिर एक ज्ञान है कि तुम किसी व्यक्ति के अंतस्तल में उतरते मोती हैं! | हो; हृदय से हृदय की गांठ बांधते हो, एक-दूसरे के लिए अपना इसलिए तुमसे फिर-फिर कहता हूं, उसे समस्या मत बनाना। द्वार-दरवाजा खुला छोड़ते हो। हां, उसमें कुछ कंकड़ पड़े हैं, उन्हें निकालना जरूरी है। प्रेम का क्या अर्थ होता है? यही अर्थ होता है कि किसी जैसे-जैसे प्रेम का अनुभव गहन होता है-प्रेम का गुण व्यक्ति के लिए तुमने अब अपने जीवन के सब दरवाजे खुले बदलता है। | छोड़ दिये; और किसी व्यक्ति ने तुम्हारे लिए अपने जीवन के अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे सब दरवाजे खुले छोड़ दिये। प्रेम का यही अर्थ होता है कि दो और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा व्यक्तियों के बीच अब छुपाने योग्य कोई राज न रहा। प्रेम का राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा यही अर्थ होता है कि अब दो व्यक्तियों के बीच ऐसा कुछ भी मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग। नहीं है जिसे छिपाया जाये; सब उघाड़ा; दो हृदय अपने आवरण जब कोई व्यक्ति पहली दफा प्रेम में उतरता है, तो प्रेम होता है के बाहर आये; दो हृदयों ने एक-दूसरे को नग्नता में देखा और एक स्वप्न जैसा; जैसे और सब व्यर्थ हो जाता है, प्रेम ही सार्थक | दो हृदय एक-दूसरे में प्रविष्ट हुए। और यह प्रेम के द्वारा ही हो जाता है। संभव है। लेकिन जैसे-जैसे प्रेम का अनुभव गहन होता है, प्रेम की पीड़ा | अगर तुम बाहर खड़े रहो, जैसा कि वैज्ञानिक खड़ा रहता है, साफ होती है, और भी दुख दिखाई पड़ने शुरू होते हैं। | तटस्थ भाव से दर्शक की तरह देखते रहो. प्रेम में डबोन. तो तम और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा कभी जान ही न पाओगे। आत्मा को तो न जान पाओगे। राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा इसलिए विज्ञान आत्मा को नहीं जान पाता। विज्ञान कभी भी नहीं अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे जान पायेगा कि आदमी में आत्मा है। क्योंकि आत्मा का पता तो मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग। प्रेम के अतिरिक्त और किसी ढंग से चलता ही नहीं। यह कोई और प्रेम बहुत कुछ सिखाता है। प्रेम से बड़ी कोई पाठशाला चीर-फाड़ करके पता नहीं चलेगा। यह कोई डिसेक्शन, सर्जरी नहीं है। क्योंकि प्रेम से ज्यादा तुम किसी मनुष्य के निकट और करके पता नहीं चलेगा। यह कोई औजारों को आदमी के भीतर किसी ढंग से आते नहीं हो। जितने तुम निकट आते हो, उतने ही ले जाकर पहचान नहीं हो सकती कि आत्मा है। तब तो कुछ भी मनुष्य की अंतरात्मा प्रगट होने लगती है। तुम भी झलकते हो, न मिलेगा। हड्डी, मांस-मज्जा मिलेगी। जो बाहर-बाहर है, दुसरा भी झलकता है। जितने तुम करीब आते हो, तुम भी वही पकड़ में आयेगा। जो भीतर-भीतर है, वह छुट जायेगा। उघड़ते हो, दूसरा भी उघड़ता है। __ तुमने खयाल किया कि जिसे तुम प्रेम करते हो, वह हड्डी, एक तो विज्ञान का ढंग है-दूर खड़े होकर देख लेने का ढंगः | मांस-मज्जा नहीं रह जाता! जिसे तुम प्रेम नहीं करते, वह हड्डी, बाहर से देख लेने का ढंग। फिर एक कवि का ढंग है : भीतर | मांस-मज्जा रह जाता है। जिसे तुम प्रेम नहीं करते, वह मात्र गहरे उतरकर, प्रेम करके देखने का ढंग। अब अगर तुम्हें वृक्ष | शरीर है। जिसे तुम प्रेम करते हो, उसमें पहली दफा आत्मा का को देखना है, चट्टान को देखना है, तो शायद बाहर से भी देख | बोध होना शुरू होता है। लो। मैं कहता हूं शायद; क्योंकि जिन्होंने बहुत गहरा देखा है, वे इसलिए जिन्होंने खूब प्रेम किया, अटूट प्रेम किया, उन्हें सब तो कहते हैं, चट्टान को भी बाहर से देखना अधूरा देखना है। जगह आत्मा दिखाई पड़ गई। अगर महावीर को पत्थरों में भी क्योंकि चट्टान का भी अंतस्तल है। तो बाहर-बाहर से तुम दिखाई पड़ गई तो उसका कारण यह नहीं है कि वे दूर खड़े चट्टान की परिक्रमा कर आओगे, देख लोगे-उस देखने को | वैज्ञानिक की तरह देखते रहे, वे गहरे में अंतस्तल में संबंधित तुम देखना मत मान लेना। बर्टेड रसेल ने कहा है, वह परिचय | हुए, उतरे। तो वृक्ष में भी आत्मा दिख गई। तो महावीर वृक्ष का है-एक्वेंटेंस। उसे ज्ञान मत कहना। पत्ता तोड़ने में भी चिंता अनुभव करते हैं। 478 Main Education International . Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम यह चिंता जैन मुनि की चिंता नहीं है। जैन मुनि चिंता करता है, इसलिए मैं कहता हूं, अहिंसा का मौलिक अर्थ प्रेम है। वृक्ष का पत्ता नहीं तोड़ना है, क्योंकि उसे स्वर्ग जाना है। पशु को | तुम घबड़ाना मत! प्रेम तुम्हें बहुत कुछ सिखायेगा। प्रेम तुम्हें नहीं मारना है, क्योंकि नर्क से बचना है। यह दुकानदार का तुम्हारे अहंकार का नर्क बतायेगा; तुम उसे छोड़ देना। और प्रेम हिसाब है। महावीर वृक्ष को चोट नहीं पहुंचाते, क्योंकि उन्हें तुम्हें तुम्हारे हृदय का स्वर्ग भी दिखायेगा; तो उसे पकड़ लेना। दिखाई पड़ा कि वृक्ष सिर्फ वृक्ष नहीं है, जीवंत आत्मा है। न आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी केवल इतना दिखाई पड़ा कि वृक्ष जीवंत आत्मा है, यह भी यासी हिरमान के दुख-दर्द के मानी सीखे दिखाई पड़ा कि ठीक मेरे जैसी ही आत्मा है-उसी राह पर जिस जेरदस्तों के मुशाइब को समझना सीखा पर मैं हूं, थोड़े पीछे सही; आज नहीं कल मनुष्य हो जायेगा। सर्द आहों के रुखे-जर्द के मानी सीखे। इसलिए महावीर ने सारे जीवन को पांच हिस्सों में बांट दिया। प्रेम तुम्हें बहुत कुछ सिखायेगा। प्रेम के अतिरिक्त कोई और एकेंद्रिय जीव। पृथ्वी को उन्होंने कहा, एक-इंद्रिय जीव। पृथ्वी सिखा ही नहीं सकता। इसलिए अगर प्रेम में कुछ अड़चन भी! महावीर जमीन पर भी चलते हैं तो बहुत क्षमा मांगते हुए मालूम होती है तो उसे प्रेम की अड़चन मत कहना। तुमने अभी चलते हैं। वह भी जीवन है। एक ही उसकी इंद्रिय है-केवल प्रेम के पाठ पूरे नहीं सीखे, इसलिए अड़चन आ रही है। जैसे काया, केवल देह। | कोई आदमी नया-नया पानी में तैरना शुरू करता है तो हाथ-पैर जिसको वैज्ञानिक अब कहते हैं, अमीबा-महावीर को तड़फड़ाता है, घबड़ाता है, बेचैनी होती है। यह कोई तैरना तैरने उसकी पकड़ आ गई थी। वैज्ञानिक कहते हैं, अमीबा पहला का स्वरूप नहीं है; यह तो न तैरने की वजह से हो रहा है। प्राण-स्पंदन है। उसके पास केवल देह होती है, न हड्डी, न तुम अगर मुझसे पूछो तो मैं ऐसा कहूंगा, कि प्रेम में जो समस्या मस्तिष्क, न आंख, न कान, कुछ भी नहीं; कोई इंद्रिय नहीं, | है, वह अप्रेम की वजह से पैदा हो रही है। जब यह आदमी तैरना सिर्फ शरीर होता है। वह अपने शरीर को ही अपने भोजन के | सीख जायेगा तो तैरने में एक प्रसाद आ जाता, तब कोई चेष्टा पास ले आता है। अपने भोजन के ऊपर बैठ जाता है और शरीर नहीं करनी होती। तब ठीक-ठीक तैराक तो नदी पर छोड़ देता है और उसका भोजन मिलकर विलीन हो जाते हैं, एक-दूसरे में अपने को। हाथ-पैर भी नहीं चलाता। नदी ही सम्हाल लेती है। लीन हो जाते हैं। उसके पास कोई मुंह भी नहीं है। फिर उसका ऐसी कुशलता आ जाती है कि कुछ भी करना नहीं पड़ता; होना शरीर जब बड़ा होने लगता है-इतना बड़ा हो जाता है कि काफी रहता है और नदी सम्हाल लेती है। सम्हालना मुश्किल हो जाता है, तो शरीर दो हिस्सों में टूट जाता प्रेम भी चैतन्य के सागर में तैरना है; दूसरे के सागर में डुबकी है और दो अमीबा हो जाते हैं। इसी तरह उसकी संतति होती है। लगानी है। पहले-पहले हाथ-पैर तड़फड़ायेंगे; घबड़ाहट लेकिन वह जीवन का पहला रूप है। होगी; सांस रुंधेगी; लगेगा मरे, डूबे; चिल्लाहट होगी कि महावीर ने कहा, एक-इंद्रिय, सिर्फ शरीर जीवन का पहला | बचाओ! लेकिन जल्दी ही, इस बचाव की आवाज के कारण रूप है। मनुष्य है पंचेंद्रिय। उसके पास पांच इंद्रियां हैं। वह निकलकर भाग मत खड़े होना। यह तो तुम्हारी अकुशलता के सबसे विकसित रूप है। लेकिन वृक्ष, पशु-पौधे, सब उसी कारण है। यह तो धीरे-धीरे चली जायेगी। रफ्ता-रफ्ता, कतार में हैं; चले आ रहे हैं बढ़ते। हम भी कभी वृक्ष थे और आहिस्ता-आहिस्ता अभ्यास गहरा होता जायेगा। वृक्ष कभी हम जैसे हो जायेंगे। तो प्रेम मत छोड़ो; प्रेम में जागरण को सम्मिलित करो। प्रेम तो महावीर ने जीवन का एक सागर खोज लिया, जिसमें सभी मत छोड़ो; प्रेम के साथ धर्म को, ध्यान को जोड़ो। प्रेम + ध्यान, जीवन की घटनाएं हैं। यह महा प्रेम में घटा है। यह कोई तार्किक बस इतना करो और समस्या विदा हो जायेगी। और समस्या की विश्लेषण नहीं है। यह महावीर को अनुभव हुआ है। यह जगह तुम पाओगेः प्रेम एक अदभुत रहस्य है-और पहला तेजस्विता जीवन की उनको प्रतीत हुई। यह बहत प्रेम में ही हो रहस्य जहां से परमात्मा की खबर मिलती है। शुरू-शुरू में सकती है। घबड़ाहट स्वाभाविक है। 1479 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 1 न घबरा जवानी की बेहररवी से पड़ता है। अब तो न हजार रुपये हैं न दस रुपये हैं। हजार रुपये यह दरिया बना लेगा खुद ही किनारा का जब ढेर था, तो हजार रुपये की कीमत थी उसकी। पांच रुपये वहीं तक खुदी है, वहीं से खुदा है का ढेर था, दस रुपये का ढेर था, तो दस रुपये की कीमत थी; जहां बेकसी ढूंढ़ती हो सहारा। लेकिन दोनों हटा लिये तो जो शून्य पीछे रह जाता है, वह तो घबडाओ मत। यह आज जो जवानी का तफान है, यह जो लगता है एक ही मल्य का है। दस रुपये का शन्य भी उतना ही राग-मोह की उठी आंधी है, यह अपने से ही विदा हो जायेगी। बड़ा है, हजार रुपये का शून्य भी उतना ही बड़ा है। तो तुम तुम जरा पैर को सम्हालकर चलते रहो। गलती कर रहे हो। जीवन में ऐसा नहीं है। जो आदमी जितना न घबड़ा जवानी की बेहररवी से गहरा जीया है, जब वह एकांत में जाता है तो उसके एकांत की यह दरिया बना लेगा खुद ही किनारा। गहराई भी उतनी ही गहरी होती है। जो आदमी समूह में जीया ही हां, जल्दी अगर भाग खड़े हुए तो मुश्किल में पड़ जाओगे। नहीं है, वह एकांत में चला जाता है, तो उसके एकांत की कोई तब न यहां के रहोगे न वहां के। गहराई ही नहीं होती। इसे तुम अनुभव कर सकते हो कि जो जो प्रेम से भाग गया उसके पास अहंकार के सिवाय कुछ भी आदमी जंगल में ही जीया है, उसे जंगल में कोई सौंदर्य नहीं नहीं बचता। यद्यपि अगर तुम बहुत दूर भाग गये तो तुम्हें पता होता। जो भीड़ में, समूह में, बाजार में बैठा रहा है, जब कभी भी न चलेगा अहंकार का, क्योंकि उसका पता भी साथ-संग में जंगल जाता है तो जो उसे जंगल में दिखाई पड़ता है, वह जंगल चलता है, समूह में चलता है। के आदमी को दिखाई नहीं पड़ता। तुमने खयाल किया, आदमी का बच्चा पैदा होता है, अगर उसे | वानगाग के जीवन में ऐसा स्मरण है कि वानगाग एक समुद्र संग-साथ न मिले, मां-पिता परिवार न मिले, समूह-समाज न तट पर, फ्रांस के, अपने चित्र बना रहा था। वह सूरज के पीछे मिले, तो बच नहीं सकता, मर जायेगा। तुम कोई कल्पना कर दीवाना था। सूर्योदय, सूर्यास्त–उन पर उसने बड़ी मेहनत सकते हो कि आदमी का बच्चा बच जाये बिना समूह, संग-साथ की। समुद्र के किनारे वह एक दिन सूर्यास्त का चित्र बना रहा के? हां कभी-कभी ऐसा हुआ है कि भेड़िये आदमी के बच्चे को | था। उसके चित्र को देख रही थी एक समुद्र के तट की मछुआ ले गये; लेकिन वह भी समूह था, संग-साथ था। भेड़ियों ने की औरत। वह गौर से देखती रही, गौर से देखती रही। वह फिर बचा लिया। लेकिन अकेला तो आज तक कोई मनुष्य का बच्चा दूसरे दिन देखने आई, फिर तीसरे दिन देखने आई। और सातवें बचा नहीं है। जो मनुष्य के शरीर के संबंध में सच है, वही मैं दिन धीरे-धीरे वानगाग से परिचय भी हो गया। तो जब सूरज तुमसे कहता हूं, आदमी की आत्मा के संबंध में भी सच है। डूबने के करीब आया तो उसने कहा कि आप रुकना, मैं जरा उसका जन्म भी समूह में होता है-संग-साथ में, परिवार में। | अपने पति को, अपने बच्चों को भी ले आऊं। तो वानगाग ने आदमी की आत्मा भी अकेले में नहीं जन्मती। हां, अकेले का पूछा, किसलिए? तो उसने कहा कि वे भी सूर्यास्त देख लें। तो तुम उपयोग कर सकते हो। कभी-कभी अकेले हो जाने में भी | उसने कहा कि वे तो यहीं रहते ही हैं इस समुद्र तट पर, उन्होंने | रस है। कभी-कभी दसरे से दर हट जाने में भी रस है। लेकिन सूर्यास्त नहीं देखा? उस स्त्री ने कहा, नहीं मैंने भी नहीं देखा था, वह फायदा भी दूसरे से दूर हटने के कारण होता है। खयाल जब तक आप न आये थे। यह तो इतना स्वाभाविक था हमारे करना, वह फायदा भी अकेले होने के कारण नहीं होता, दूसरे से जीवन का हिस्सा कि इसका हमें कभी बोध न हुआ था। तुम्हारे दूर हटने के कारण होता है। उसका लाभ भी दूसरे में ही है। आने से हमें पता चला सूर्यास्त का सौंदर्य। ऐसा समझो कि एक हजार रुपये का ढेर लगा है और एक दस अब यह वानगाग जहां से आ रहा है, वहां सूर्यास्त मुश्किल है रुपये की ढेरी लगी है। जब हम हजार रुपये की ढेरी हटाते हैं, देखना, सूर्योदय देखना मुश्किल; कुहासा घिरा रहता है। इसके और दस रुपये की ढेरी हटाते हैं, तो दस रुपये का अभाव भी लिए सूर्योदय और सूर्यास्त बड़े महिमापूर्ण हैं।। | वैसा ही मालूम पड़ता है जैसे हजार रुपये का अभाव मालूम पश्चिम में संडे, सूर्य का दिन छुट्टी का दिन है। क्योंकि सूर्य 4800 . Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARIHARANEE परमात्मा के मंदिर का द्वार प्रेम ऐसा प्रगाढ़ होकर दिखाई नहीं देता जैसा पूरब में दिखाई पड़ता दो। लेकिन प्रेमी कहता है, छोड़ो; क्योंकि जिसने छोड़ा है उसीने है; ऐसी महिमा नहीं है सूरज की; सूरज ढका-ढका है, भोगा। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। जिसने दिया उसीने पाया। प्रेमी छिपा-छिपा है। कहता है, दे दो; क्योंकि बिना दिये पा न सकोगे। तो सूरज का दिन छट्टी का दिन होना ही चाहिए। लोग उत्सव प्रेम की बड़ी अनठी कीमिया हैः तम्हारे पास वही होता है जो मनायें: सूरज निकला है, सूरज का दिन है। तुम दे देते हो। जो तुम बचा लेते हो, वह तुम्हारे पास कभी नहीं एकांत में उतनी ही गुणवत्ता होगी जितना गहरा तुम्हारे संबंधों होता। दिखता है तुम्हारे पास है, लेकिन तुम उसके मालिक नहीं का जगत था। जिस आदमी ने खूब भरपूर प्रेम किया है, वह जब होते। मालिक तुम उसी के हो जो तुम दे देते हो। जो बांट दिया, हिमालय पर जाकर बैठ जाता है तो उसके हृदय की गहरई पूछो उसी के मालिक हो। मालकियत कब घटती है, तुमने सोचा? मत। लेकिन जिसने कभी प्रेम ही नहीं किया, वह भी हिमालय जब तुम्हारे हाथ से कोई चीज किसी दूसरे हाथ में जाती है, उस की पहाड़ी पर जाकर बैठ जाता है; उसका छिछलापन क्षण। जब तुम्हारे हाथ से हटती है चीज, तुम मालिक होते हो। छिछलापन ही रहनेवाला है। अगर तुम्हारी मुट्ठी में बंद रहे, तुम मालिक नहीं होते, ज्यादा से ___ मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम्हारे एकांत का भी तभी मूल्य है ज्यादा पहरेदार। तिजोड़ी पर बैठे हैं लट्ठ लिये, बंदूक जब तुम्हारे संबंधों की गहराई हो। अगर हजार रुपये की गहराई। लिये—पर पहरेदार। थी तो तुम्हारा एकांत हजार रुपये के मूल्य का होगा। अगर दस जिस क्षण तुम देते हो, देने से ही पता चलता है कि तुम्हारे पास रुपये की गहराई थी तो दस रुपये के मूल्य का होगा। था। देने से ही तुम्हें भी पता चलता है कि मैं दे सका-मेरा था! जीवन का गणित मुर्दा गणित नहीं है। यहां तुमने कितनी वही है तुम्हारा जो तुमने दिया। और उसी को तुमने भोगा, जो तीव्रता से, त्वरा से जीवन को जीया है, उतनी ही अनूठी तुमने बांटा। अनुभूतियां एकांत में उठेगी। इसलिए मैं कहता हूं : जाओ प्रेम साझेदारी बढ़ाओ! प्रेम का अर्थ इतना ही होता है : साझेदारी में, क्योंकि तुम्हारे ध्यान की गहराई भी तुम्हारे प्रेम की गहराई पर करो। किसी को दो! किसी को बांटो! और धन्यवाद देना उसे, निर्भर होगी। दूसरे के साथ तो जीकर देख लो, ताकि तुम अपने जो तुम्हारे जीवन में इस भांति आये कि तुम उससे कुछ बांट साथ जीने का राज सीख जाओ। सको। धन्यवाद देना! दूसरे के माध्यम से हम अपने पास आते हैं। दू प्रेम की बड़ी कुशलता यह है कि यहां लेनेवाला भी कुछ देता है जिसके द्वारा हम अपने पर वापस आते हैं। और देनेवाला भी कुछ देता है। जब तुम किसी को कुछ देते हो व्यक्तियों के बीच निकटतम दूरी का नाम प्रेम है। जैसे दो और वह स्वीकार कर लेता है तो उसने भी तुम्हें कुछ बिंदओं के बीच निकटतम दूरी का नाम रेखा, ऐसे दो व्यक्तियों दिया-उसकी स्वीकृति से दिया। उसने तुम्हें मालिक बना के बीच निकटतम दूरी का नाम प्रेम है। अगर थोड़े इरछे-तिरछे दिया। उसने तुम्हें दाता बना दिया। अब और क्या चाहते हो? चलकर जाते हो तो यह प्रेम नहीं है। सीधे-सीधे! तुमने जो दिया वह कुछ नहीं था। उसने जो दिया वह बहुत ज्यादा प्रेम सिखायेगा सरलता। प्रेम सिखायेगा विनम्रता। प्रेम है। इसलिए हिंदुस्तान में हमारी व्यवस्था है कि पहले दान दो, सिखायेगा निरहंकार। प्रेम सिखायेगा त्याग। | फिर दक्षिणा दो। दक्षिणा का अर्थ है : उसने दान स्वीकार किया, इसे तुम खयाल रखना, जिसने कभी प्रेम नहीं किया उसका | इसका धन्यवाद भी दो। अकेले दान से काम न चलेगा। पहले त्याग कृपण का त्याग होता है; वह त्याग नहीं है। वह कंजूस तो दो, लेकिन यह जरूरी थोड़े ही है कि वह ले ले। कोई इनकार है। इसलिए मैं सुनता हूं साधुओं को समझाते कि छोड़ दो कर दे, फिर? कोई कह दे नहीं चाहिए, फिर? धन-दौलत, मौत सब छीन लेगी। अब यह जरा सोचने जैसी प्रेम का अर्थ है ऐसा भरोसा कि तुम जिसे देने जा रहे हो, वह बात है कि मौत छीन लेगी, इसलिए छोड़ने को कह रहे हो। | ले लेगा, इनकार न करेगा। बहुत-से लोग इनकार के कारण ही मतलब, यह डर छीने जाने का है। इसलिए बेहतर है, छोड़ ही देने से डरते हैं कि हम देने गये और किसी ने कह दिया, नहीं; Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 द्वार बंद कर लिया, फिर ? रिजेक्शन, अस्वीकार पैदा हुआ? | है। तो लोग पत्नियों को भी खरीदकर लाते रहे, दहेज दे-देकर तो बड़ी घबड़ाहट लगती है! | लाते रहे। वह भी खरीद-फरोख्त थी। अनेक लोग मुझसे आकर कहते हैं कि प्रेम में एक ही डर | अब यह मुश्किल होता जा रहा है, तो लोगों का ध्यान वस्तुओं मालूम पड़ता है। हम तो निवेदन करें और इनकार हो जाये! हम की तरफ जा रहा है, या पशओं की तरफ जा रहा है। एक कत्ता तो अपने हृदय के द्वार खोलें, पलक-पांवड़े बिछायें और दूसरा रख लिया; जब भी घर आये, वह पूंछ हिलाता है। वह कभी भी पीठ किये चला जाये, न आये; हम तो स्वागतम द्वार पर बांधे, ऐसा नहीं कह सकता कि नहीं हिलायेंगे पूंछ। तुम जब भी आये, फूल-पत्तियां लटकायें और कोई बिना देखे गुजर जाये तो फिर तभी तुम्हें गौरव देता है। बड़ी पीड़ा होगी! इससे तो बेहतर, अपना द्वार-दरवाजा बंद ही कुत्ते बड़े राजनीतिज्ञ हैं। वे समझ गये एक राजनीति कि रखना। क्योंकि जैसे ही तुम किसी को बुलाते हो, दूसरे को तुमने आदमी पूंछ हिलाने से बड़ा प्रसन्न होता है। उधर उसकी पूंछ बल दिया, शक्ति दी, जीवन दिया। अब दूसरे के हाथ में उपाय मुस्कुराने लगी, इधर तुम मुस्कुराने लगे। उसने एक कला सीख है, वह स्वीकार कर ले, अस्वीकार कर दे। ली। पर देखा तुमने, कुत्ते भी देखते हैं। अगर अजनबी आदमी प्रेम का पहला कदम ही जोखिम से भरा है। इसलिए स्त्रियां आता है तो भौंकते भी हैं, पूंछ भी हिलाते हैं। यह, यह राजनीति कभी प्रेम-निवेदन नहीं करतीं। इतनी जोखिम स्त्रियां नहीं न हुई, यह कूटनीति, डिप्लोमेसी है। वे यह देख रहे हैं कि जांच उठातीं। वे राह देखती हैं—तुम्हीं प्रेम-निवेदन करो। वे प्रतीक्षा तो कर लो, आदमी अपनावाला है कि नहीं है, पराया है, मित्र है करती हैं। कि कितनी जोखिम पुरुष उठाता है। जोखिम बड़ी है, कि शत्रु है। तो भौंकते भी हैं कि अगर शत्रु हुआ तो पूंछ रोक क्योंकि दूसरा कह सकता है, नहीं। दूसरा द्वार को बंद कर दे | लेंगे, भौंकते चले जायेंगे; अगर मित्र हुआ तो भौंकना बंद कर सकता है, तो फिर क्या होगा? फिर बड़ी पीड़ा और तड़फ देंगे, पूंछ पर पूरी ताकत लगा देंगे-असंदिग्ध जब हो जायेंगे। होगी। तुम इस योग्य न समझे गये कि स्वीकार किये जाओ! अभी संदेह है। नया-नया आदमी आ रहा है, पता नहीं मालिक इसलिए बहुत-से लोग अपना प्रेम ऐसी चीजों से लगाते हैं का मित्र हो कि दुश्मन हो। जहां से अस्वीकार हो ही नहीं सकता। एक कार खरीद ली, उसी पश्चिम में लोग जानवरों के पीछे कुत्ते-बिल्लियां पालने में से प्रेम करने लगे। अमरीका में करीब-करीब स्त्री के बाद कार लगे हैं; या वस्तुओं के पीछे हैं-कार है, मकान है; और हजार का नंबर दो है। कार में एक सुविधा है; इनकार नहीं कर तरह के उपकरण विज्ञान ने खोज दिये हैं, उनमें अपना प्रेम लगा सकती; खरीद लाये तो तुम्हारी। इसलिए हजारों साल तक | रहे हैं। आदमी स्त्री को भी खरीद के लाता रहा, प्रेम करके नहीं; क्योंकि यह वस्तुतः प्रेम से बचने का उपाय है, क्योंकि प्रेम की सबसे प्रेम में खतरा था। इसलिए विवाह पैदा हुआ। | पहली जोखिम यह है कि जब तुम दूसरे को देने जाते हो अपना विवाह होशियारी है; जोखिम से बचने की व्यवस्था है। हृदय, तो इनकार भी हो सकता है। और अगर दूसरे ने स्वीकार मां-बाप इंतजाम करते हैं, पंडित-पुरोहित कुंडली मिलाते हैं। किया तो तुमने ही कुछ नहीं दिया, दूसरे ने स्वीकार करके तुम्हें तुम्हें सीधा निवेदन नहीं करना पड़ता। जैसे तुम किसी के भाई कुछ दे दिया। प्रेम में लेनेवाला भी देनेवाला है—देनेवाला तो हो, किसी की बहन हो-ऐसे एक दिन किसी के पति या पत्नी | देनेवाला है ही। हो जाते हो। अचानक तुम पाते हो-हो गये। उसके लिए तुम्हें प्रेम की बड़ी अपूर्व महिमा है। वहां दोनों दाता हो जाते हैं। खोज नहीं करनी पड़ती: तम्हें पहली जोखिम नहीं उठानी पड़ती। इससे बड़ा जाद और कहीं भी घटित नहीं होता। सब गणित के लेकिन जब पहली जोखिम नहीं उठाई तो सारा जीवन गलत हो | नियम टूट जाते हैं। क्योंकि दोनों दाता हो नहीं सकते गणित के जाता है। वह दुस्साहस जरूरी है। | नियम से; एक दाता होगा तो एक लेनेवाला होगा। एक का हाथ तो विवाह ईजाद हुआ, ताकि प्रेम से बचा जा सके। लोग ऊपर होगा, दूसरे का हाथ नीचे होगा। लेकिन प्रेम दोनों हाथों सोचते हैं, प्रेम के लिए विवाह है। प्रेम वस्तुतः बचने का उपाय को समान स्तर पर ला देता है; दोनों दाता बन जाते हैं। देनेवाला 482 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम तो है ही, लेनेवाला भी दाता बन जाता है। और लेनेवाला जो जैसे-जैसे गहरा गया, वैसे-वैसे पिघलता गया। गहरे नहीं गया, देता है, वह देनेवाले से भी बड़ा है। ऐसा नहीं; खूब गहरे गया। और ऐसा भी नहीं कि उसने गहराई इसलिए प्रेम गणित की सीमा के बाहर पड़ता है, हिसाब के न छू ली; उसने पूर सागर का अंतस्तल छू लिया। लेकिन तब बाहर पड़ता है, अर्थशास्त्र के बाहर पड़ता है, रहस्यमय है। तक खुद खो चुका था, लौटनेवाला न बचा था। घबड़ाना न ! कृपण मत बनना! कायर मत बनना ! प्रेम के द्वार नमक का पुतला जैसा ही आदमी है-प्रेम का पुतला। वह पर दस्तक देना। क्योंकि वही द्वार एक दिन परमात्मा का मंदिर | प्रेम से पैदा हुआ है, प्रेम से बना है। तुम्हारा रो-रोआं, तुम्हारी भी सिद्ध होता है। रत्ती-रत्ती प्रेम से बनी है। तो जब तुम परमात्मा के सागर में डुबकी लगाओगे...नहीं कि तुम पता न लगा लोगे, पता लगा दूसरा प्रश्न: लोगे; लेकिन पता लगाने में खो जाओगे। आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक इब्तिदा में ही मर गये सब यार कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक कौन इश्क की इंतिहा लाया। हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन इसलिए खाक होने की तैयारी रखो। और माना कि बहत बार खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक। ऐसा लगेगा कि बड़ी देर हुई जा रही है और बहुत बार तड़फ होगी कि अब जल्दी हो, और बहुत बार ऐसी शिकायत उठेगी कि अब प्रेम का रास्ता ही मिटने का रास्ता है। वहां खाक हो जाना ही और पीड़ा क्यों; फिर भीउपलब्धि है। वहां खो जाना ही पा लेना है। वहां बचाने की | क्या उसके बगैर जिंदगानी? चेष्टा से ही बाधा होती है। वहां तो धीरे-धीरे अपने को गलाते। माना वह हजार दिलशिकन है। जाना है और एक ऐसी घड़ी लानी है, जहां प्रेमी तो बचे ही -बहत दिल को दुखानेवाला है. लेकिन उसके बिना जिंदगी न-बस प्रेम का ही सागर लहरें लेता रह जाये। उसी क्षण का कोई अर्थ भी नहीं। परमात्मा अवतरित होता है। जहां तुम मिटे वहीं परमात्मा का | धन्यभागी हैं वे जो परमात्मा के रास्ते पर दुखी और पीड़ित होते प्रवेश है। हैं। अभागे हैं वे जो परमात्मा के विपरीत रास्ते पर सुखी और इब्तिदा में ही मर गये सब यार प्रसन्न हैं। क्योंकि परमात्मा के विपरीत रास्ते पर सुख और प्रसन्न कौन इश्क की इंतिहा लाया। भी राख हो जायेगा। और परमात्मा के रास्ते पर राख हो जाना भी प्रेम के प्रारंभ में ही लोग मर जाते हैं। अंत तक जाने की तो | स्वर्ण हो जाने का उपाय, व्यवस्था है। सुविधा कहां है, बचता कौन है? प्रेम की कोई आज तक गहराई एक तर्जे-तगाफुल है सो वह उनको मुबारक नहीं छू सका। एक अर्जे-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे। रामकृष्ण कहते थे, एक मेला भरा था और लोग सागर के तट -एक उपेक्षा है सो परमात्मा को छोड़ दिया, वह करता रहे। पर विचार करते थे कि सागर की गहराई कितनी है। एक नमक एक तर्जे-तगाफुल है सो वह उनको मुबारक का पुतला भी आया था। एक अर्जे-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे। उसने कहा, 'ठहरो! ऐसे विचार करने से क्या होगा? मैं -एक अभीप्सा है, प्रार्थना है, वह हम करते रहेंगे। एक डुबकी लगाता हूं। मैं अभी पता ला देता हूं।' उसने डुबकी लगा| उपेक्षा है, तू करते रहना! ली, लेकिन लौटा नहीं, लौटा नहीं, लौटा नहीं। सांझ हो गयी, | भक्त कहता है, तू उपेक्षा करना, हम अभीप्सा करेंगे; देखें दूसरा दिन हो गया, मेला उजड़ने का वक्त भी आ गया, लोग कौन जीतता है! राह देखते रहे, लेकिन वह कभी लौटा नहीं। वह लौटता कैसे? एक तर्जे-तगाफुल है सो वह उनको मुबारक वह नमक का पुतला था; सागर में उतरा तो गलने लगा। एक अर्जे-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे। 483 www.jainelibrary org Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 जिन सूत्र भाग: 1 परमात्मा दूर है, ऐसा तो सोचना ही नहीं। क्योंकि जो दूर हो सकता है, वह तो परमात्मा न होगा। परमात्मा तो वही है जिसने तुम्हें सब तरफ से घेरा है, बाहर और भीतर सब तरफ से भरा है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। परमात्मा सर्वस्व है । परमात्मा सब कुछ का नाम है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, परमात्मा समष्टि है। इसलिए उससे दूर तो हम नहीं हैं, लेकिन जरा हम बेहोश हैं। अल्लारे बेखुदी कि तेरे पास बैठकर तेरा ही इंतजार किया है कभी-कभी। हम बेहोश हैं, बस इतनी ही बात है। और हम बेहोश तब तक रहेंगे, जब तक हम हैं । हमारा होना हमारा बेहोश होना है। तो खाक तो होना पड़ेगा। जलना तो पड़ेगा। राख तो होना पड़ेगा। मगर यही वास्तविक होने का उपाय है। मैं एक किताब पढ़ रहा था । उसमें एक अमरीकी प्रार्थना करता है कि हे प्रभु! सुनते हैं धीरज की बड़ी जरूरत है, तो धीरज अभी तो हम नाममात्र को कहने मात्र को हैं। अभी हमारे दे–लेकिन अभी और यहीं ! धीरज की बड़ी जरूरत है ! तो दे, धीरज दे -- लेकिन अभी और यहीं ! जीवन में कुछ चीजें समय मांगती हैं - और जितनी महत्वपूर्ण हों उतना ज्यादा समय मांगती हैं। अगर किसी व्यक्ति से केवल वासना का संबंध बनाना हो तो अभी और यहीं बन सकता है, प्रेम का बनाना हो तो समय लगेगा। और प्रार्थना का बनाना हो तो अनंत काल लग जायेंगे । और परमात्मा का बनाना हो तो शाश्वतता चाहिए। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी शाश्वतता तक। क्योंकि शाश्वतता ने अभी और यहां भी तुम तक अपना हाथ पहुंचाया है। तुम शाश्वत के लिए तैयार हुए कि अभी और यहीं भी घट सकता है। इसमें जरा विरोधाभास लगेगा। इसे स्पष्ट करके कहूं। होने में क्या है ? कोई सत्व नहीं, कोई सार नहीं । तो घबड़ाओ मत। और यह भी माना कि'आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक हमने माना कि तगाकुल न करोगे, लेकिन खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।' हो जाओ ! तमाम उम्र तेरा इंतजार कर लेंगे मगर ये रंज रहेगा कि जिंदगी कम है। I करो! उम्र छोटी पड़ जाये, इंतजार बड़ा हो जाये । अनेक उम्रे समा जायें, इंतजार इतना बड़ा हो जाये । प्रतीक्षा ऐसी घनी हो जाये कि जन्म और जीवन पलक के झपने जैसे बीतने लगे। | लेकिन इंतजार का सिलसिला जारी रहे। शरीर बदलें, जीवन बदलें, योनि बदले, रूप बदलें, रंग बदलें, नाम बदलें, सब बदलता जाये - लेकिन भीतर की प्रतीक्षा का एक सूत्र अनस्यूत रहे, एक धागा पिरोया रहे सारे मनकों में । घटना तो इस क्षण भी घट सकती है, लेकिन प्रतीक्षा अनंत चाहिए। और घटना बहुत देर होगी घटने के लिए, अगर प्रतीक्षा में थोड़ी कमी रही। जल्दबाजी न करना । नये युग ने बड़ी जल्दबाजी की है। इसलिए प्रतीक्षा के गहरे रूप खो गये हैं। कोई प्रतीक्षा करने को राजी नहीं है। पश्चिम से एक बड़ा बुखार सारे जगत में फैला है - तेजी, जल्दी, स्पीड ! तो जैसे इंस्टेंट काफी, ऐसा सारा जीवन, सभी कुछ अभी हो जाये, इसी क्षण हो जाये, आज ही हो जाये! तो मनुष्य के जीवन की कुछ गहराइयां खो ही गयीं, क्योंकि कुछ चीजें धीरे-धीरे होती हैं । कुछ चीजें मौसमी फूलों की तरह होती हैं- आज लगायीं, तीन सप्ताह में पौधे हो जायेंगे, छह सप्ताह में फूल आ जायेंगे — लेकिन आये नहीं कि गये भी नहीं। लेकिन देवदार और चीड़ के वृक्ष वर्षों लेंगे, वर्षों लगेंगे, बड़े धीरे-धीरे बढ़ेंगे। और यह तो परमात्मा की खोज तो शाश्वत वृक्ष है; इसको रोपना अपने हृदय में, तो बड़ी अनंत प्रक्रिया है। अब यह अभी इसी क्षण नहीं हो सकता। अगर तुम शाश्वत प्रतीक्षा करने को राजी हो तो अभी और यहीं घट सकता है; क्योंकि शाश्वत प्रतीक्षा का अर्थ हुआ अब कोई जल्दी नहीं; तुम शांत हुए; शिथिल तुमने छोड़ा; तनाव हटा। अब तुम्हारी कोई मांग नहीं है- हो, जब हो । अब कोई जल्दी न रही। बस इस शिथिल और शांत मन में अभी और यहीं घट सकता है I | तुमने मांगा अभी और यहीं घट जाये तो तुम इतने तन गये, इतने परेशान हो गये कि कहीं न घटा और समय बीत गया तो कहीं समय फिजूल न चला जाये। तुम्हारे तनाव के कारण ही न घट पायेगा। मांग में तनाव है। यही अभीप्सा शब्द की खूबी है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना का अर्थ है: मांग है, तनावपूर्ण । अभीप्सा का अर्थ है : मांग है, तनावशून्य। मांगते भी हैं, जल्दी भी नहीं है; देना, जब तुझे देना हो! तेरी मर्जी! न देना हो, उसके लिए भी राजी हैं ! तीसरा प्रश्न : आपके प्रवचन के समय मैंने संन्यासियों के चेहरे का अवलोकन किया है। ऐसा लगता है कि वे गहरी नींद में पहुंच गये हैं । और मेरा अपना अनुभव भी यही है कि जैसी मीठी, गहरी और लुभावनी नींद प्रवचन के समय लगती है वैसी और कभी अनुभव में नहीं आती। क्या कारण है ? अलग-अलग लोगों के अलग-अलग कारण होंगे। एक कारण तो बताया नहीं जा सकता, क्योंकि यहां बहुत लोग हैं। लेकिन फिर भी प्रश्न विचारणीय है। पहली बात, कुछ लोग तो निश्चित ही सभी धर्म सभाओं में सो जाते हैं। यह बचने की एक तरकीब है। यह मन की एक बड़ी सूक्ष्म व्यवस्था है। जिससे तुम बचना चाहते हो तो बीच में एक नींद का पर्दा डाल लेते हो । सुना ही नहीं, तो अपने साथ ही कूटनीतिक खेल खेल गये। सुनने भी गये तो रस भी ले लिया कि धार्मिक व्यक्ति हैं और सो भी गये तो सुना भी नहीं। तो दुनिया को दिखाई भी पड़ा कि धार्मिक हैं और झंझट भी न हुई । धार्मिक होने की झंझट में भी न पड़े। तो एक तो वर्ग ऐसे लोगों का है, जो धर्म की बात पड़ी नहीं उनके कान में कि उन्हें नींद आई नहीं। यह उनके भीतर करीब-करीब यांत्रिक हो गया है। मंदिरों में, चर्चों में तुम उन्हें सोता हुआ पाओगे। एक पादरी पूछ रहा था अपने एक भक्त को; क्योंकि पादरी देखता था, जब भी वह आता है, सोया ही रहता है चर्च में | उसने उससे एक दिन पूछा कि क्या रात नींद ठीक से नहीं होती ? उस आदमी ने कहा, रात तो नींद लगती ही नहीं। हजार चिंताएं हैं संसार की, मगर उसकी कोई चिंता नहीं । जब आपका प्रवचन सुनता हूं तो खूब गहरी नींद लग जाती है। । संसार की तो चिंता है, परमात्मा की तो कोई चिंता है नहीं संसार के तो विचार हैं, परमात्मा का तो कोई विचार है नहीं । संसार की तो भाग-दौड़ है, तो नींद को खलल डालती है। परमात्मा की कोई भाग-दौड़ तो है नहीं। तो परमात्मा की बात परमात्मा के मंदिर का द्वार प्रेम सुनकर कोई महत्वाकांक्षा तो जगती नहीं कि पाना है, उठना है, जाना है। तो जब जहां कोई महत्वाकांक्षा नहीं उठती तो आदमी सो जाता है, करेंगे भी क्या और? तुमने देखा, जब तुम्हारे पास कुछ भी करने को नहीं होता, तब तुम सो जाते हो। करोगे क्या और ? जब तक कुछ करने को होता है, तब तक तुम करते रहते हो। और तुमने यह भी देखा होगा जब तुम्हारे पास करने को इतना कुछ होता है कि तुम बिस्तर पर भी पड़ जाते हो, लेकिन मन में काम जारी रहता है, तो नींद नहीं आती। तो जहां काम है वहां नींद में बाधा है। परमात्मा तुम्हारा कोई काम तो है नहीं। वहां कुछ करने को तो है नहीं । तुम्हारे भीतर कोई अभीप्सा तो है नहीं; उसे पाने की कोई आकांक्षा तो है नहीं । सुन लिया, नींद आ गयी । त एक तो ऐसे लोग हैं। दूसरे ऐसे लोग हैं जो वस्तुतः नींद में चले जाते हैं आकांक्षा के रहते भी । परमात्मा को पाने की प्यास भी है, किसी को धोखा देने नहीं आये हैं; लेकिन फिर भी नींद में चले जाते हैं। अपने को भी धोखा नहीं दे रहे हैं, लेकिन नींद बरबस पकड़ लेती है। उसका कारण है— जन्मों-जन्मों की मन की आदत । जिस दिशा में मन कभी गया नहीं है, उस दिशा में जाने से मन इनकार करता है, जिस दिशा में मन को कभी ले नहीं गये हो पहले, अनभ्यस्त है, रास्ता अपरिचित वह वहां जाने से बिलकुल इनकार कर देता है। वह जमीन पर ही बैठ जाता है। वह आंख ही बंद कर लेता है। वह कहता है, हम सो ही जायेंगे । यह मन का इनकार है। त दूसरा वर्ग है जो निष्ठापूर्वक समझना चाहता है; लेकिन उसका मन इनकार कर रहा है। फिर एक तीसरा वर्ग है, जिसकी नींद बड़े और कारण से पैदा हो रही है। अगर तुम हृदयपूर्वक मेरी बातों को सुन रहे हो तो एक तरह की तंद्रा उतर ही आयेगी। पर वह नींद नहीं है । उसको योग अलग नाम देता है— तंद्रा । वह नींद जैसी है, निद्रा जैसी है, लेकिन निद्रा नहीं है। वह तंद्रा है। तंद्रा का अर्थ है : जब तुम मधुर संगीत सुनते हो तो एक ताल बंध जाती है भीतर, एक सुर बंध जाता है, एक सन्नाटा खिंच जाता है, विचार शांत हो जाते हैं। एक बड़ी झपकी, जिसको तुम जागना भी नहीं कह सकते, सोना भी नहीं कह सकते; जो दोनों के मध्य है— तंद्रा – ऐसी घड़ी आ जाती है। न बाहर न भीतर, देहली 485 . Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 जिन सूत्र भाग: 1 पर खड़े हो जाते हो, मध्य में खड़े हो जाते हो। तुम यह भी नहीं कह सकते कि सो गये थे, क्योंकि तुम मेरी बात पूरी तरह सुनते रहोगे । और तुम यह भी नहीं कह सकते कि तुम जागे हुए क्योंकि एक बड़ी राहत, जैसी कि नींद में भी नहीं मिलती, एक बड़ी विश्रांति, तुम्हें उस तंद्रा से मिल जाएगी। तो तीसरा वर्ग है, जिसकी निद्रा तंद्रा के जैसी है। इसमें पहले वर्ग में अगर तुम हो तो अच्छा हो, आना बंद कर देना । अगर दूसरे वर्ग में तुम हो तो संघर्ष करना; क्योंकि वह निद्रा तुम्हारे मन की पुरानी आदत है, उसे तोड़ना पड़ेगा। अगर तीसरे वर्ग में तुम हो तो सौभाग्यशाली समझना और इस तंद्रा से लड़ना मत; इस तंद्रा में चुपचाप अपने को छोड़ देना। क्योंकि जो भी मैं कह रहा हूं, तंद्रा में कुछ भी चूकेगा नहीं; वह तुम्हारे पास पहुंच ही जायेगा। यह हो सकता है कि शायद तुम बाद में याद न रख सको, क्योंकि याद बहुत ऊपर-ऊपर है; वह और भी गहरे पहुंच जायेगा। तंद्रा में अगर तुमने सुना तो वह सुनना बड़ा गहरा है । वह तुम्हारे प्राण-प्राण में उतर जायेगा । अगर तुम्हारी तंद्रा की स्थिति हो तो उसे तोड़ने की कोशिश मत करना। तब तो आंख बंद करके शांति से उसमें डूब जाना। क्योंकि मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह सिर्फ वचन ही नहीं हैं; मैं तुमसे जो कह रहा हूं, उन वचनों में कुछ तुम्हें दे भी रहा हूं। कुछ ऊर्जा का संचरण हो रहा है। कोई ऊर्जा का संवाद हो रहा है। अगर तुम जागे रहे तो तुम्हारे मन के विचार चलते रहेंगे। अगर तुम सो गये तो तुम सुन न सकोगे। अगर तंद्रा में रहे तो जागने के विचार भी न चलेंगे और नींद भी न होगी। बीच में खड़े देहली पर तुम मेरे बहुत करीब आ जाओगे। तुम्हारा हृदय मेरे हृदय के बहुत करीब धड़कने लगेगा। तो सोच लेना, तुम्हारी जैसी दशा हो...। अगर तीसरी हो तो बड़ी सौभाग्य की । तंद्रा तो ध्यान की अवस्था है। इसी को तो सूफियों ने मस्ती कहा है। एक नशा चढ़ जाता । एक नशे जैसा है। और लगता है, जिसने पूछा है, उसकी स्थिति तंद्रा की ही होगी; क्योंकि मेरा अपना अनुभव यही है, उसने कहा है, कि जैसी मीठी, गहरी और लुभावनी ... । तंद्रा की स्थिति मीठी है, गहरी है, लुभावनी है। लेकिन तुम्हारे लिए नयी होगी, इसलिए तुम उसे निद्रा समझ रहे हो । थोड़ी उसके साथ और पहचान बढ़ेगी तो तुम साफ-साफ देख लोगे कि जागरण अलग, निद्रा अलग, तंद्रा बिलकुल अलग है। तंद्रा तो एक मादक स्थिति है। नमाजे-इश्क का आता भी है, जो होश कभी तो बेखुदी मेरी बढ़कर इमाम होती है। - कभी-कभी जब प्रार्थना में डूबने की इच्छा भी होती है तो तत्क्षण तल्लीनता मेरा नेतृत्व करने लगती है। नमाजे-इश्क का आता भी है, जो होश कभी तो बेखुदी मेरी बढ़कर इमाम होती है। - तो तत्क्षण मेरी तल्लीनता आगे आ जाती है और मार्गदर्शक हो जाती है। यह तंद्रा वही तल्लीनता है जो मार्गदर्शक बन जाती है। फिर फिक्र मत करना। अगर तीसरी तरह की तंद्रा हो तो यह भी मत सोचना कि लोग क्या कहेंगे। यह भी मत सोचना कि यह कहीं कोई नियम का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है। यह भी मत सोचना कि यह कहीं बुरा तो नहीं है कि मैं बोल रहा हूं, और तुम सो रहे हो। नहीं, यह नींद है ही नहीं। यह तो प्रेम की एक बड़ी गहरी दशा है। मेरे शब्द तुम्हारे लिए एक गहरा संगीत लेकर आ रहे हैं। तुमने शब्दों को ही नहीं सुना है, संगीत को भी पीना शुरू कर दिया है। मोहब्बत में नियाज़ और हुस्ने महवे-नाज क्या मानी मैं इस दस्तूर को तरमीम के काबिल समझता हूं। और जहां प्रेम है, वहां नियम उल्लंघन हो सकता है। क्योंकि प्रेम इतना परम नियम है कि फिर किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है। तो तुम केवल शिष्टाचार के कारण सम्हालकर और आंख खोलकर मत बैठे रहना। अगर तंद्रा तुम्हें अनुभव होती हो तो... मोहब्बत में नियाज़ और हुस्ने महवे-नाज क्या मानी ? तो फिर प्रेम में नम्रता और अहंकार तक का कोई मूल्य नहीं । मैं इस दस्तूर को तरमीम के काबिल समझता हूं। फिर तो सभी दस्तूर तरमीम के काबिल हैं। फिर तो शिष्टाचार की फिक्र छोड़ो। प्रेमी के लिए कोई नियम नहीं है। मगर बहुत गौर से देखना । कहीं ऐसा न हो कि नींद पहले तरह की हो ! अगर पहले तरह की हो तो अपने को सम्हालना। या तो आना बंद करो...। एक चर्च में ऐसा हुआ एक बूढ़ा आदमी, लेकिन करोड़पति, सामने ही बैठता था। और जब पादरी बोलता तो न केवल वह Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोता, बल्कि घुर्राता भी । तो उससे और चर्च के लोगों को भी अड़चन होती। उससे कुछ कहा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि वह करोड़पति था और उसके दान पर चर्च चलता था । उसे यह भी नहीं बताया जा सकता कि तुम घुर्राते हो । तो पादरी ने एक तरकीब खोज ली। उसके साथ एक छोटा बच्चा भी आता था, उसका वह नाती-पोता। उसने छोटे बच्चे को एक दिन बुलाया और कहा कि देख तू अपने दादा को जब वे घुर्राने लगें, हिला दिया कर । मैं तुझे चार आने दिया करूंगा रोज। उसने कहा, ठीक! तो वह बच्चा, जब भी उसका दादा घुर्राने लगता, उसको तो बच्चे को कोई मतलब भी नहीं था प्रवचन से, वह अपने दादा ही पर नजर रखता, उनको हिला देता। ऐसा दो-तीन दिन तो चला, लेकिन चौथे दिन देखा कि बच्चे ने हिलाया नहीं। तो, पादरी ने उसे बुलाया कि क्यों, क्या हुआ? उसने कहा, मेरे दादा ने कहा कि देख, अगर तू मुझे नहीं हिलायेगा तो मैं एक रुपया...। अब आप सोच लो उसने कहा, रुपया मिल रहा है! अगर पहली ऐसी दशा हो तो कोई जरूरत नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। जाना क्यों ऐसी जगह जहां नींद आती हो ? घर ही सोया जा सकता है, सुगमता से, सुविधा से। यहां बैठकर सख्त पत्थर पर, नींद भी मुश्किल होती होगी। तुम तोट दोगे, पाप मुझको भी लगेगा। 'संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में जीती रही कि मैं संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन थे।' भ्रम के दिन सदा ही सुख और आनंद के दिन होते हैं। लेकिन भ्रम के साथ एक ही खतरा है कि वह सदा नहीं चल सकता; वह एक दिन टूटता ही है। और जब टूटता है तो पीड़ा होती है । लेकिन उसका टूट जाना शुभ है। और अब जब मैं कह रहा हूं कि संन्यास केवल लेने की बात नहीं है... लेने से तो शुरुआत होती है, अंत नहीं। संन्यासी बनने का जब तुम निर्णय करते हो, संकल्प करते हो, समर्पण करते हो, तो वह तो यात्रा का पहला कदम है। वहीं बैठकर प्रसन्न मत होते रहना। नहीं तो मंजिल कभी घर न आयेगी; तुम कभी मंजिल तक न पहुंचोगे । उचित है कि पहला कदम भी उठाया। यह भी सौभाग्य था । इसके लिए गुनगुनाना, गीत गाना, नाच लेना, प्रसन्न होना; लेकिन यात्रा जारी रखनी है। आगे जाना है! रोज आगे जाना है। और जितने तुम आगे जाने लगोगे, उतने मैं तुम्हें और आगे की यात्रा के इशारे देने लगूंगा । | अगर दूसरी तरह की नींद हो तो फिर कोई फिक्र नहीं। फिर अपने को जगाने की कोशिश करना। अगर दूसरी तरह की नींद हो कि मन की पुरानी आदत के कारण आ जाती हो, तो मन की आदतें तो तोड़नी हैं, उनसे तो संघर्ष करना होगा । और जब पहली और दूसरी तरह की नींद विदा हो जायेगी तो तीसरी तरह की नींद की संभावना शुरू होती है। और जब तीसरी आ जाये तो डरना मत फिर उसमें लीन होना, डूबना । तो पहले तुमसे कहता हूं, संन्यास सिर्फ एक भाव-भंगिमा है। वह तो तुम्हें फुसलाने के लिए। वह तो तुम्हें राजी कर लेने के लिए। तुमसे कहता हूं, यहीं पास रहा, दो कदम जाना है। जब तुम दो कदम उठा लेते हो, तब मैं कहता हूं कि अब दो कदम और । ऐसे दो-दो कदम तुम्हें बढ़ाकर हजारों कदम उठवाये जा सकते हैं। अगर मैं तुमसे कहूं हजार कदम पहले से, तो शायद तुम पहला कदम भी न उठाओ। तुमने हिम्मत इतनी खो दी है, आत्मविश्वास इतना खो दिया है। तुम बड़ी क्षुद्र बातों से प्रभावित होते हो । हजार कदम, तो शायद हजार कदम की बात रुकावट ही बन जाये। इसलिए मैंने संन्यास को इतना सरल बना दिया है जितना सरल हो सकता है। सिर्फ संन्यास लेने की आकांक्षा को मैं कहता हूं काफी है, बस, और कोई पात्रता नहीं। लेकिन एक बार तुम संन्यासी होने का पहला कदम उठाये, तो यात्रा शुरू हुई। फिर मैं पात्रता की बात भी करूंगा। फिर कैसे जीवन के फूल खिलें, उनकी दिशा में तुम्हें संलग्न भी करूंगा । और एक बार तुम मेरे साथ आ गये, चल आखिरी प्रश्नः संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में जीती रही कि मैं संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन थे। किंतु अब जो आप संन्यास के फूल की बात करते हैं तो मैं अपने को बहुत अयोग्य पाती हूं। जमीन से पैर उखड़ गये, लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे। यह कैसी अवस्था है कि एक ओर कीर्तन, नाच और भक्ति में लीन होती हूं, तो दूसरी ओर परमात्मा के मंदिर का द्वार प्रेम ध्यान और होश भी पकड़ता है। और यह संसार ... उफ... कब तक चलेगा? 487 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAL जिन सूत्र भागः1 AHANERAL पड़े, तो मैं जानता हूं वापस लौटना आसान नहीं। एक बार इतनी आकाश में उड़ने का; लेकिन पंख पैदा करने होंगे। या होंगे भी हिम्मत कर ली कि मेरे रंग में रंगे, कि गैरिक वस्त्रों में डूबे, कि मौजूद तो जन्मों-जन्मों से उनका उपयोग नहीं किया; उनका फिर तुम भाग न सकोगे। अंगुली पकड़ ली तो फिर पहुंचा भी उपयोग सीखना पड़ेगा। लेकिन शुभ है कि कम से कम आधा तो पकड़ लूंगा। एक बार अंगुली हाथ में लेता हूं, तुम सोचते हो, हुआ। जमीन से पैर तो उखड़ गये। अब जमीन पर खड़े होने की क्या हर्जा है, अंगुली ही तो है कोई; जब चाहेंगे तब छुड़ा लेंगे। तो जगह न रही। अब तो पंख खोजने ही पड़ेंगे। तुमसे मैं कहता है, अंगुली काफी है; इतने से काम हो जायेगा। और ध्यान रखना, जब तक कि जीवन संकट में न पड़ जाये, इतने से काम न होगा। इतने से काम शुरू होता है। जीवन नये की खोज नहीं करता। नये की खोज संकट में होती तो स्वभावतः देर-अबेर प्रत्येक को ऐसा लगेगा कि यह तो है। जब इतना संकट आ जाता है कि कुछ करना ही होगा, तभी बड़ी मुश्किल हुई। हम तो सोचे थे सरल है; यह तो कठिन होने नये की खोज होती है; अन्यथा मन बड़ा आलसी है। लगी बात। यह तो मार्ग ऊंचाइयों पर चढ़ने लगा। हम तो सोचे तो अगर तुम्हारी जमीन मैंने छीन ली तो अब तुम थे, समतल है। हम तो सोचे थे, राजपथ है; ये तो पगडंडियां तड़फड़ाओगे, फेंकोगे हाथ-पैर। उन्हीं हाथ-पैर के फेंकने से फूटने लगी, और जंगल में अकेले की यात्रा होने लगी। पंखों का जन्म होगा। पंख तो हैं, तुम भूल ही गये हो; तुम्हें याद लेकिन उस तक पहुंचने के लिए बहुत कुछ चुकाना पड़ता है। ही न रही। अपने पूरे जीवन की ही आहुति देनी पड़ती है। तो अड़चन से शुरू-शुरू में तड़फड़ाहट करोगे तो एकदम से उड़ना न आ घबड़ाना मत। जायेगा। उड़ने के लिए बड़ी कुशलता चाहिए। वह कुशलता और अयोग्यता का बोध पैदा हो रहा हो तो इसे शुभ मानना; धीरे-धीरे पैदा होगी। लेकिन तुम उड़ सकोगे। क्योंकि आकाश क्योंकि अयोग्यता का बोध केवल उन्हीं को होता है, जिनके ही, अनंत आकाश ही-कहो उसे परमात्मा, मोक्ष, भीतर थोड़ी बुद्धिमत्ता है। मूढ़ तो अपने को योग्य ही समझते हैं। निर्वाण-तुम्हारी नियति है। और जो पक्षी उस आकाश में नहीं उन्हें अयोग्यता का तो पता ही नहीं चलता। अज्ञानी तो अपने को उड़ा, घोंसले में ही बैठा रह गया, उसके अभाग्य को क्या कहें! ज्ञानी ही मानते हैं। यह तो सिर्फ ज्ञानियों को पता चलता है कि पैदा हुआ था कि उड़े आकाश में। लेकिन पैदा तो घोंसले में होना हम अज्ञानी हैं। इसलिए अगर अयोग्यता का बोध हो रहा है तो पड़ता है; आकाश में तो कोई भी पक्षी का अंडा रखा नहीं जा दुखी मत होना। यह तो पहली सूरज की किरण फूटी। यह तो सकता। अंडा तो रखना पड़ता है घोंसले में। लेकिन अंडा फूट पहला दीया जला। अब इसी दीये से योग्यता पैदा होगी। जाये और पक्षी वहीं बैठा रहे घोंसले में और डरे...और डर अयोग्यता का पता चल गया तो अयोग्यता से मुक्त हो जाना उसका स्वाभाविक है, कभी उड़ा नहीं पहले...। बहुत आसान है। अयोग्यता का पता ही न चलता हो तो फिर तो मैंने तुमसे तुम्हारा घोंसला तो छीन लिया; अब बैठने की तो कैसे मुक्त हो सकोगे? कोई जगह नहीं है। उड़ना ही पड़ेगा! और तुम उड़ोगे। 'जमीन से पैर उखड़ गये हैं, लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे तुमने देखा, जो लोग तैरना सिखाते हैं, वे करते क्या हैं? वे हैं...।' नये व्यक्ति को पानी में फेंक देते हैं। और कुछ भी नहीं करते। ठीक है। जहां तुम जा रहे थे वहां से तुम्हें खींच लिया है। वह | लेकिन पानी में गिरकर कोई भी हाथ-पैर फेंकेगा ही, अपने को दिशा समाप्त हुई। उस तरफ रस बंद हुआ। लेकिन जहां तुम्हें ले बचाने के लिए फेंकेगा। वही तैरने का पहला चरण है। फिर जाना है, उस दिशा में लगाने के लिए तुम्हारे भीतर पात्रता लानी धीरे-धीरे कुशलता आ जाती है। फिर वह देखता है, कैसे ढंग से होगी। पुराने रास्ते पर चलने की तुम्हारे पास कुशलता है। पुराना फेंकना; कैसे कम शक्ति लगे और फेंकना। फिर धीरे-धीरे तो रास्ता तो हटा दिया, नये रास्ते पर तुम्हें लगा दिया; लेकिन नये बिना फेंके भी तैरने लगता है। रास्ते की कुशलता सीखनी होगी। जड़ें तो टूट गयीं, ठीक हुआ ऐसा ही आत्मिक जगत भी है। और इसमें ध्यान रखना, ऐसा जमीन से पैर उखड़ गये, ठीक हुआ। यह पहला कदम तो हुआ एक बार होगा, ऐसा नहीं; बहुत बार होगा। क्योंकि फिर तुम - ---- - -- 488 Jairi Education International Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम । एक ऊंचाई पर अपना घर बना लोगे, फिर मैं उसे उखाड़ दूंगा, ताकि नयी ऊंचाई पर तुम उठो। गुरु का काम ही इतना है कि वह उस समय तक तुम्हें धक्का दिये चला जाये, जब तक तुम वहां न पहुंच जाओ, जिसके आगे फिर कोई ऊंचाई नहीं। परमात्मा तक जब तक तुम्हें न पहुंचा दे, तब तक तुम्हारे पीछे लगा ही रहे; तब तक तुम्हें परेशान करता ही | रहे; तब तक जैसे भी हो-कभी तुम्हें सुख देकर, कभी तुम्हें दुख देकर; कभी तुम्हारी पीठ थपथपाकर और कभी तुम्हारी लानत-मनामत करके; कभी तुम पर क्रोध जाहिर करके और कभी तुम पर प्रेम जाहिर करके-लेकिन तुम्हें धकाता ही रहे। क्योंकि तुम्हारा मन तो कहेगा, बस यहीं रुक जायें। तुम तो हर जगह रुक जाने को तत्पर हो; क्योंकि रुक जाने में विश्राम है। चलने में श्रम है। लेकिन मैं तुम्हें उस क्षण तक चलाता रहंगा, जब तक कि परम विश्राम न आ जाये। परम विश्राम यानी परमात्मा। परम विश्राम यानी मोक्ष। जिससे फिर पीछे गिरना नहीं होता और जिसके पार फिर कुछ और शेष नहीं है— ऐसे परम सत्य को पाने के पहले बहुत बार तुम मुझसे नाराज भी होने लगोगे। क्योंकि तुम सस्ता चाहते हो। क्योंकि तुम सदा चाहते हो कि मुफ्त में मिल जाये। तुम सदा चाहते हो कि तुम्हारे बिना कुछ किये मिल जाये। तो तुम भाग ही न जाओ, इसलिए मैं कभी-कभी ऐसा भी कहता हूं; बिना किये कुछ मिल जायेगा। तो तुम रुके भी रहते हो कि शायद अब मिलता हो। लेकिन बिना किये कुछ भी नहीं मिलता। तो तुम्हें रोकने के लिए कह देता हूं, बिना किये भी मिल जायेगा, प्रभु के प्रसाद से भी मिल जायेगा। तो तुम रुके रहते हो आशा में। और यहां तुम्हारे साथ मैं चेष्टा में लगा रहता हूं कि तुम कुछ करने लगो। क्योंकि उसका प्रसाद भी उन्हीं को मिलता है जो कुछ करते हैं। तो घबड़ाना मत, बेचैन मत होना। यह शुभ है कि अयोग्यता दिखाई पड़ी। यह शुभ है कि वह सस्ती प्रसन्नता जो संन्यास लेने से ही आ गयी थी, खो गयी। अब असली संन्यासी बनना! थोड़ा सोचो! मात्र वस्त्र बदलने से प्रसन्न हो गये थे; जिस दिन आत्मा बदलेगी तो क्या होगा! आज इतना ही। 4891 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern a l For P www.airber Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां प्रवचन जीवन की भव्यताः अभी और यहीं For Private & Wewenal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्म भोगनिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।५५।। सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव ति भणियमन्नेसु। परिणामो णन्नगदो, दुक्खक्खयकारणं समये।।५६।। पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेंदु, पुण्णखएणेव णिव्वाणं ।।५७।। कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि।।५८।। सोवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्भ।।५९।। तम्हा दु कुसीलेहिं य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं। साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण।।६०।। वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरई इयरेहिं। छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ।।६१।। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला सूत्र : 'अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका पालन भी करता है, किंतु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं ।' संसार की आदत आसानी से नहीं जाती । जन्मों-जन्मों तक जिसे पाला है, संवारा है, वह आदत संसार को छोड़ने भी चलो तो भी साथ चलती है। इसे समझें, क्योंकि इसे बिना समझे कोई कभी धार्मिक न हो | पायेगा । बहुत हैं जिन्होंने संसार छोड़ दिया। बाहर दिखायी पड़नेवाला संसार छोड़ देना कठिन भी नहीं । आश्चर्य तो यही है कि बाहर दिखायी पड़नेवाले संसार को लोग कैसे पकड़े रहते हैं! इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि किसी भी थोड़ी-सी प्रज्ञावान चेतना को छोड़ने का खयाल आ जाये तो कुछ आश्चर्यचकित होने की बात नहीं। कुछ भी मिलता हुआ दिखायी नहीं पड़ता, छोड़ने का मन आ जाता है। लेकिन बाहर के संसार से भी ज्यादा भीतर एक संसार है। वह | संसार है कि अगर हम छोड़ते भी हैं कुछ तो कुछ पाने के लिए ही छोड़ते हैं। वह पाने की वृत्ति नहीं जाती । तो लोग संसार छोड़ देते हैं तो सोचते हैं, मोक्ष पाने के लिए; धन छोड़ देते हैं तो सोचते हैं, पुण्य पाने के लिए। लेकिन पाने की वासना भीतर खड़ी रहती है। महावीर इन सूत्रों में यही बात साफ करना चाहते हैं कि असली संसार 'पाने की वासना' में है। पाने की वासना के कारण बाहर का संसार है। बाहर के संसार के कारण पाने की वासना नहीं है। तुम संसार को छोड़ भी दो और तुम्हारे भीतर की वासना की आग सुलगती रह जाये तो कुछ अंतर न हुआ। तो महावीर कहते हैं ऐसे धार्मिक व्यक्ति को - 'अभव्य जीव ।' वह सिर्फ भव्य दिखायी पड़ता है, लेकिन उसकी भव्यता बाहर-बाहर है, भीतर उसके राग खड़ा है, भीतर लोभ खड़ा है। तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा, जिसके भीतर लोभ न हो ? तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जो धार्मिक हो, धार्मिक होने के आनंद के कारण; जो यह नहीं कहता हो कि धार्मिक श्रम, पुरुषार्थ से मैं कुछ भविष्य में कमाने जा रहा हूं ? तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जिसके मन में भविष्य की कोई आकांक्षा न हो, फलाकांक्षा न हो ? तो तुम अगर अपने धार्मिक गुरुओं से, साधुओं से जाकर पूछो कि आप ये पुण्य, तपश्चर्या, साधना, ध्यान, सामायिक, उपवास, व्रत, नियम, इन सबका पालन कर रहे हैं— किसलिए ? और अगर वे बता सकें कि किसलिए तो समझना कि वे अभव्य जीव हैं। अभी उनमें भव्यता का जन्म नहीं हुआ। और वे सभी बता सकेंगे कि पुण्य के लिए, स्वर्ग के लिए; भविष्य में उच्च योनियां मिलें, देवलोक मिले - इसलिए या उनमें जो बहुत ज्यादा तर्ककुशल हैं, वे कहेंगे, मोक्ष के लिए; सबसे छुटकारा हो जाये, इसलिए । लेकिन जो आदमी छूटना चाहता है, उसका छुटकारा हो नहीं सकता; क्योंकि अभी कोई चाह बची-छूटने की चाह बची। तो सब चाहें निमज्जित हो जाएं छूटने की चाह में, तो छूटने की 495 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 जिन सूत्र भाग: 1 आनंद है, सामायिक परम शांति है। भेद समझ लेना, क्योंकि दोनों की बातें एक-सी लगती हैं। धार्मिक कहता है, शांति के लिए सामायिक में बैठता हूं। तो महावीर कहेंगे अभव्य है, अभी कृपण है, अभी वासना लगी है। अभी सामायिक को भी यह साधन बना रहा है। तो कभी इसने महावीर कहते हैं, अगर तुमने कुछ पाने के लिए छोड़ा तो छोड़ा धन को साधन बनाया था – सोचा था, धन से सुख मिलेगा; ही नहीं। धोखा किसको दिया ? अपने को दे लिया। कभी इसने पद को साधन बनाया था - सोचा था पद-प्रतिष्ठा से उपनिषदों में एक बड़ा अदभुत सूत्र है : कृपणा फलहेतवः | जो सुख मिलेगा; कभी यह सेनापति हो गया था, दुर्धर्ष युद्ध में उतरा | व्यक्ति फल की आकांक्षा से कुछ काम करता है वह कृपण है, था, हजारों की गर्दनें काट दी थीं - सोचा था इससे सुख वह कंजूस है। उसे जीवन की कला ही न आयी। उसने जीवन मिलेगा। लेकिन एक बात अभी भी कायम है कि सुख को पा का सत्य ही न जाना । होगा किसी साधन से। कभी धन साधन, कभी पद साधन, कभी तलवार साधन; अब व्रत, उपवास, नियम - साधन; योग, ध्यान, सामायिक - साधन । लेकिन मूल गणित वही है । जो भी कर रहा है, अधार्मिक व्यक्ति उसमें रस नहीं लेता। उसका रस हमेशा फल में है। गीता में कृष्ण जो कहते हैं : फलाकांक्षा! वह देख रहा है आगे : यह मिलेगा, यह मिलेगा, यह मिलेगा – इसलिए कर रहा है। अगर पता चल जाये नहीं मिलेगा तो उसका करना अभी रुक जाये। तो वह पूछेगा, फिर कैसे मिलेगा ? 1 महावीर कहते हैं, जिस व्यक्ति को धर्म में साध्य दिखायी पड़ने लगा वही व्यक्ति भव्य है। तो तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, कुरान पढ़ो, गीता पढ़ो, पूजा करो, प्रार्थना करो - एक बात भीतर खोजते रहनाः ये तुम साधन की तरह कर रहे हो, निमित्त की तरह ? तो महावीर की दृष्टि में अभव्य हो । अभी तुम्हारे भीतर उस पवित्र उन्मेष का जन्म नहीं हुआ जो तुम्हें दिव्य बना दे, भव्य बना दे । चाह एक मजबूत रस्से की तरह हो जायेगी। छोटी-छोटी चाहें तो थोड़े-थोड़े धागे हैं, उन सबको एक ही रस्से में इकट्ठा कर लिया - छूटने की चाह, मोक्ष की आकांक्षा । तो जैसा छोटी-छोटी वासनाओं ने बांधा था, उससे भी ज्यादा यह मोक्ष की रस्सी बांध लेगी। महावीर का यह सूत्र भी यही कह रहा है कि अगर तुमने कुछ पाने की आकांक्षा से—भला वह आकांक्षा मोक्ष की ही हो — धर्म किया तो धर्म किया ही नहीं, धर्म का धोखा किया। अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है लेकिन उसकी श्रद्धा में 'यद्यपि ' जुड़ा हुआ है। उसकी प्रतीति भी करता है । उसमें रुचि भी रखता है, उसका यथाशक्य पालन भी करता है- फिर भी वह धर्म को निमित्त समझकर करता है, साध्य समझकर नहीं । धर्म का भी साधन बनाता है। धर्म से भी कुछ पाना है, इसलिए करता है। अगर धर्म के बिना जो वह पाना चाहता है मिल जाये तो वह धर्म को कूड़े-कर्कट में फेंक देगा। अगर तुम्हारे साधु-संन्यासियों और मुनि महाराजों को पता चल जाये कि स्वर्ग |पहुंचने का कोई शार्टकट भी है तो वे सब अपने पीछी - कमंडल छोड़कर भाग खड़े होंगे, क्योंकि उसी के लिए तो वे इस लंबे रास्ते से जा रहे थे। अगर कोई पास का रास्ता मिल गया है, कोई सुगम रास्ता मिल गया है, तो कौन कष्ट उठायेगा ! पास का रास्ता मिल जाने पर भी जो धर्म के रास्ते पर खड़ा रहे, उसे ही जानना कि वह धार्मिक है। क्यों? क्योंकि उसके लिए धर्म साध्य है, साधन नहीं। 'भव्य' शब्द महावीर का अपना है। दिव्य शब्द का वे उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि दिव्य से तो देवता और अंततः परमात्मा का खयाल आ जाता है। इसलिए महावीर की भाषा में ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं। धर्म साधन नहीं, साध्य है । तो भव्य का वही अर्थ है जो समस्त अन्य धर्मों की भाषा में दिव्य का जल्दी क्या है ? तो जाना कहां है? वास्तविक धार्मिक व्यक्ति का प्रत्येक पल मोक्ष है। वह ध्यान करता है क्योंकि ध्यान में परम आनंद है। इसलिए नहीं कि आनंद मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए 'इसलिए' जैसी कोई बात ही नहीं। वह सामायिक में बैठता है। क्योंकि सामायिक है । भव्य का अर्थ है : जिसका जीवन प्रतिपल साध्य हुआ । भव्य का अर्थ है : जो कृपण न रहा । कृपणा फलहेतवः ! अब जिसके लिए फल का कोई सवाल ही नहीं है! अब जिसकी सारी कृपणता मिटी, कंजूसी मिटी ! अब जो जिंदगी में चाह के ढंग से नहीं जीता – अचाह का मजा ले रहा है; अचाह में डूबता है, रस - Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं लेता है! नहीं कि दान से स्वर्ग मिलेगा-दान में स्वर्ग है। देता हूं, क्योंकि एक क्षण को भी तुम्हें पता चल जाये कि ऐसा भी जीने का ढंग देने में ही फूल खिल रहे हैं। फूल कल नहीं हैं, भविष्य में नहीं है जिसमें भविष्य की कोई जरूरत नहीं, वहीं भव्यता उतरती है। हैं-अभी खिल रहे हैं, यहीं खिल रहे हैं। यहां देने का खयाल 'भविष्य' शब्द भी सोचने जैसा है, क्योंकि उसकी भी मूल | नहीं उठा कि वहां फूल खिलने लगेयहां शांत बैठने का खयाल धातु भव्य की ही है। नहीं उठा कि शांति होने लगी! यहां आनंदित होने की उमंग उठी जिससे भव्य बना है, उसी से भविष्य बना है। दोनों शब्दों का कि आनंद आ गया! मूलस्रोत एक ही है। यह बड़े सोचने जैसी बात है! हम भविष्य युगपत साधन और साध्य मिल जाते हैं -एक ही क्षण में, एक को भव्य क्यों कहते हैं? अतीत तो किसी तरह काट लिया, ही पल में। वर्तमान भी किसी तरह गुजार रहे हैं; सारी आशा भविष्य में लगी गुरजिएफ के एक शिष्य बनेट ने एक अनूठा संस्मरण लिखा है। तो हम भविष्य को तो भव्य बनाते हैं! उटोपिया! जो नहीं है। बैनेट गुरजिएफ का सबसे लंबे समय तक शिष्य रहा। हुआ है वह भविष्य में होगा। इसलिए भव्य भविष्य को हम पश्चिम से जो व्यक्ति सबसे पहले गुरजिएफ के पास पहुंचा वह मानते हैं कि भविष्य भव्य है। हमारी सारी आकांक्षाओं का बैनेट था। और अंत तक जो गुरजिएफ के साथ लगा रहा वह भी सार-निचोड़ भविष्य में है। जो होना था और नहीं हो पाया, वह बैनेट था। कोई पैंतालीस साल का संबंध था। बैनेट ने लिखा है भविष्य में होगा, कल होगा। जो हमें बनना था और नहीं बन | कि गुरजिएफ के साथ काम करते हुए, एक दिन गुरजिएफ ने उसे पाये वह हम कल बनेंगे। जो वर्षा हमारे जीवन में घटनी थी और कहा था वह गड्ढे खोदता रहे, तो दिनभर गड्ढे खोदता रहा। वह नहीं घट पायी, सूखे रह गये, वह कल होगी। इतना थक गया था...! वह गुरजिएफ की एक प्रक्रिया थी थका इसलिए सभी लोगों के मन में भविष्य तो भव्य होता है। दीन | देना, इतना थका देना कि हाथ हिलाने की भी स्थिति न रह जाये। से दीन, दुखी से दुखी, पीड़ित से पीड़ित व्यक्ति के मन में भी क्योंकि गुरजिएफ कहता था कि जब तुम इतने थक जाते हो कि भविष्य भव्य होता है-इसीलिए उसे भविष्य कहते हैं। हाथ हिलाने की भी स्थिति नहीं रह जाती तभी तुम्हारा परम शक्ति । लेकिन महावीर कहते हैं, भव्य वह है जिसका कोई भविष्य | से संबंध जुड़ता है। जब तक तुममें शक्ति होती है तब तक परम नहीं; जो 'अभी और यहीं बिना किसी चाह के जीने लगे। शक्ति तुममें प्रवाहित नहीं होती। तो उसे थका दिया था। वह जब तक भविष्य है तब तक तुम अभव्य हो। भविष्य है ही दिनभर से थक गया था। तीन रात से सोया भी न था। वह तरकीब झुठलाने की, जीवन में प्रवंचना की। ऐसे कल्पनाओं का | गिरा-गिरा हो रहा था। खोद रहा था, लेकिन अब उसे समझ में जाल बुन-बुनकर तुम अपने को समझा लेते हो, सांत्वना दे लेते नहीं आ रहा था कि अगली बार कुदाली उठा सकेगा कि नहीं। हो। कभी धन के माध्यम से दी थी, अब धर्म के माध्यम से देते कदाली उठाये-उठाये झपकी खा रहा था। तब गरजिएफ आया हो। महावीर कहते हैं, बहुत फर्क नहीं है। चाहे कितनी ही तुम और उसने कहा कि यह क्या कर रहे हो? इतने जल्दी नहीं, श्रद्धा दिखाओ, कितनी ही प्रतीति जतलाओ, कितनी ही रुचि अभी तो जंगल जाना है और कुछ लकड़ियां काटकर लानी हैं। प्रगट करो, पालन भी कर लो-लेकिन तुम्हारे पालन करने में तो गुरजिएफ की शर्तों में एक शर्त थी कि वह जो कहे, करना भी अभव्यता रहेगी, क्योंकि तुम्हारी नजर भविष्य पर लगी ही होगा। क्योंकि उसी माध्यम से वह सोयी हई चेतना को जगा रहेगी। तुम करोगे, लेकिन व्यवसायी की तरह करोगे। धर्म सकता है। तो बैनेट की बिलकुल इच्छा नहीं थी। जाने का तुम्हारा कृत्य ही रहेगा, तुम्हारे जीवन की लीला न हो पायेगी। जंगल तो सवाल ही नहीं था। अपने कमरे तक कैसे और जब धर्म जीवन की लीला बन जाये...। लौटेगा-यह चिंता थी। कहीं बीच में गिरकर सो तो नहीं - अगर तुम्हें कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाये जो कहे कि ध्यान जायेगा। लेकिन जब गुरजिएफ ने कहा तो गया। जंगल गया, में आनंद है, इसलिए ध्यान कर रहा हूं; ध्यान से आनंद मिलेगा, लकड़ियां काटी। जब वह लकड़ियां काट रहा था, तब अचानक इसलिए नहीं-ध्यान ही आनंद है। दान कर रहा हूं, इसलिए घटना घटी। अचानक उसे लगा सारी सुस्ती खो गयी और एक Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 बड़ी ऊर्जा का जैसे बांध टूट गया! यहां बिलकुल खाली हो गया इसको ही हिंदुओं ने कल्पवृक्ष की अवस्था कहा है। था शक्ति से; जगह, स्थान निर्मित हो गया था। भीतर जहां | कल्पवृक्ष स्वर्ग में लगा हुआ कोई वक्ष नहीं है। कल्पवृक्ष ऊर्जा भरी है, वहां से टूट पड़ी। बही गड्ढे की तरफ। गड्ढा बन तुम्हारे भीतर की एक चैतन्य अवस्था है। गया था थकान के कारण। ऊर्जा बही और सारा शरीर, बैनेट के उल्लेख से तुम समझ सकते हो कल्पवृक्ष का क्या रोआं-रोआं ऐसी शक्ति से भर गया जैसा कभी भी न हुआ था। अर्थ होगा। कल्पवृक्ष का अर्थ होगा कि जहां साधन और साध्य उसने कभी ऐसी शक्ति जानी ही न थी। उस क्षण उसे लगा, इस का फासला न रहा, जहां दोनों के बीच कोई दूरी न रही। यहां समय मैं जो चाहूं वह हो सकता है। इतनी शक्ति थी! तो उसने साधन हुआ नहीं कि साध्य आ ही गया। एक साथ, युगपत! सोचा, क्या चाहूं? जिंदगीभर सोचा था आनंदित...तो उसने क्षणभर का भी, क्षण के खंड का भी हिस्सा नहीं है-यही कहा, मैं आनंदित होना चाहता हूं। ऐसा भाव करना था कि वह कल्पवृक्ष की धारणा है।। एकदम आनंदित हो गया। उसे भरोसा ही न आया कि आदमी के कल्पवृक्ष की धारणा है कि जिस वृक्ष के नीचे तुम बैठे, इधर बस में है क्या आनंदित होना! चाहते तो सभी हैं—होता कौन तुमने मांगा उधर मिला। ऐसे कोई वृक्ष कहीं नहीं हैं, लेकिन ऐसे है! उसने सोचा कि आनंदित हो जाऊं...यह तो सिर्फ खेल कर वृक्ष तुम बन सकते हो। और उस बनने की दिशा में जो पहला रहा था शक्ति को देखकर। इतनी शक्ति नाच रही थी चारों| कदम है वह यह कि साधन और साध्य की दूरी कम करो। तरफ, रोआं-रोआं ऐसा भरा-पूरा था कि उसको लगा इस क्षण क्योंकि जहां साधन और साध्य मिलते हैं, वहीं वह घटना घटती में तो अगर मैं जो भी चाहूंगा हो जायेगा तो क्या चाहूं! | है कल्पवृक्ष की। 'आनंदित!' ऐसा सोचना था, यह शब्द का उठना और तुमने खूब दूरी बना रखी है। तुम तो सदा दूरी निर्मित था-आनंद-कि उसकी पुलक-पुलक नाच उठी। उसे बस | करते चले जाते हो। तुम कहते हो, कल मिले। तुम्हें यह भरोसा भरोसा न आया। उसने कहा कोई धोखा तो नहीं खा रहा हूं, कोई ही नहीं आता कि आज मिल सकता है, अभी मिल सकता है, सपना तो नहीं देख रहा हूं, कोई मजाक तो नहीं की जा रही है मेरे | इसी क्षण मिल सकता है। साथ। तो उसने सोचा कि उलटा करके देख लूं: दुखी हो जाऊं! तुमने आत्मबल खो दिया है। तुमने जन्मों-जन्मों तक वासना ऐसा सोचना था कि 'दुखी हो जाऊं' कि एकदम गिर पड़ा! के चक्कर में पड़कर...वासना का चक्कर ही यही है: साध्य चारों तरफ जैसे अंधेरा छा गया। जैसे अचानक सूरज डूब गया! | और साधन की दूरी यानी वासना; साध्य और साधन का मिलन जैसे सब तरफ दुख ही दुख और दुख की तरंगें उठने लगीं। वह यानी आत्मा।...तो तुमने इतनी दूरी बना ली है कि इस जन्म में घबराया कि यह तो मैं नर्क में गिरने लगा। यह हो क्या रहा है! भी तुम्हें भरोसा नहीं आता कि मिलेगा, तो तुम कहते हो, अगले उसने कहा, मैं शांत हो जाऊं, वह तत्क्षण शांत हो गया। जन्म में! अगले जन्म पर भी भरोसा नहीं आता, क्योंकि तुम उसने सब मनोभाव उठाकर देखे। फिर तो एक-एक पर प्रयोग जानते हो अपने आपको भलीभांति कि कितने जन्मों से तो भटक करके देखा-क्रोध, घृणा, प्रेम-और जो भाव उसने उठाया रहे हो कुछ मिलता तो नहीं। तो तुम कहते हो, स्वर्ग में, परलोक वही भाव परिपूर्ण रूप से प्रगट हुआ। में; इस लोक में नहीं तो परलोक में। तुम दूर हटाये जा रहे हो। वह भागा हुआ आया। उसने गुरजिएफ को कहा कि चकित हो तुम साध्य और साधन के बीच समय की बड़ी दूरी बनाये जा रहे गया हूं। उसने कहा, अब चकित होने की जरूरत नहीं, चुपचाप हो। यह समय को हटा दो और गिरा दो। सो जा! अब जो हुआ है इसे चुपचाप संभालकर रख और याद कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा छोड़ दो। उपनिषद कहते हैं, रखना, कभी भूलना मत कि अगर आदमी ठीक स्थिति में हो तो कंजूस मत बनो। महावीर कहते हैं, भव्य हो जाओ। भविष्य के जो चाहता है, वही हो जाता है। गैर-ठीक स्थिति में तुम चाहते | पीछे क्यों पड़े हो? तुम भव्य हो सकते हो। तुमने भविष्य को रहो, चाहते रहो, कुछ भी नहीं होता। ठीक स्थिति में जब भीतर भव्यता दे रखी है। के तार मिलते हैं तो साधन और साध्य की दरी खो जाती है। भव्य का अर्थ हआ : ऐसी घड़ी जहां तम्हें पाने को कुछ भी 498 , Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं नहीं; जहां सब मिला हुआ है। ऐसी परितृप्ति, ऐसा परितोष! वह जो वासना है, उसको भी बड़े फूल खिलाना आता है। तुम तो फिर भी तुम्हारे जीवन से धर्म होता है, लेकिन अब धर्म | अगर भागे संसार से तो वह धर्म के फूल खिलाने लगती है। तुम खेल की तरह है। जैसे कोई संगीतज्ञ अपनी वीणा पर धुन उठाता अगर भागे विचार से तो वह ध्यान के फूल खिलाने लगती है। है-नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि इतना मिला है, हविश को आ गया है गुल खिलाना इसे गुनगुनाए, इसे गाए, इसका स्वाद लेता है, कि कोई नर्तक जरा ए जिंदगी! दामन बचाना। । है नहीं कि कोई देखे; कोई देख ले, यह उसका जरा सावधान रहना। तुम्हारी तष्णा बड़े-बड़े रूप रख लेती सौभाग्य है, न देखे उसका दुर्भाग्य है। है। तृष्णा बड़ी बहुरूपिया है। तुम जैसा रूप चाहते हो वह वैसा | वानगाग के चित्रों को देखने एक आदमी आया। उसे कुछ ही रखकर नाचने लगती है। वह कहती है, चलो यही सही। समझ में न आया कि इन चित्रों में क्या है। उसने इधर-उधर देखा लेकिन जब तक तुम उसको ठीक से पहचान न लोगे, उसके सब और फिर वह जाने लगा तो उसने वानगाग को कहा कि मेरी कुछ रूपों में, जब तुम एक बुनियादी बात न पहचान लोगे कि तृष्णा समझ में नहीं आता। मैं तो यह भी तय नहीं कर सकता कि चित्र | साधन और साध्य की दूरी है...फिर जहां भी साधन और साध्य सीधे लटके हैं कि उलटे लटके हैं। इनमें है क्या? की दूरी हो, समझना कि तृष्णा ने रूप धरा। सावधान हो जाना! वानगाग की आंख में, कहते हैं आंसू आ गये। उस आदमी ने जरा ए जिंदगी! दामन बचाना! कहा कि क्या मैंने आपको दुख पहुंचाया? वानगाग ने कहा, ...तब तुम सावधान हो जाना कि फिर आया भविष्य; कहीं से | नहीं! लेकिन मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं: काश, तुम्हारे तृष्णा ने द्वार खटखटाया। फिर तुमने कहा, कल-तृष्णा आ पास मेरे जैसी देखनेवाली आंखें होती! तुम बिलकुल अंधे हो, गयी! फिर तुमने कहा, ऐसा हो जाये, ऐसा होता, और उसका इसलिए आंख में आंसू आ गये, और कोई कारण नहीं। तुम आयोजन करने लगे-बस तृष्णा आ गयी! जिस घड़ी तुम जो व्यक्ति धार्मिक है, उसके पास एक आंख है, जो अधार्मिक बैठे हो या चल रहे हो या उठे हो, खड़े हो, और उस घड़ी में कोई के पास नहीं है। उसके पास एक तीसरा नेत्र है। उसके पास तृष्णा नहीं है-तुम बैठे हो तो बस बैठे हो आनंदित; खड़े हो तो दिव्य चक्षु है। और वह दिव्य चक्षु प्रत्येक चीज को भव्य कर खड़े हो आनंदित; चल रहे हो तो चल रहे आनंदित-जीवन के देता है, सुंदर कर देता है। वह जहां भी आंख डालता है, वहीं ये छोटे-छोटे कर्म भव्य हो जाते हैं। मिट्टी सोना हो जाती है। वह जहां हाथ रखता है. वहीं मिट्टी सोने झेन फकीर कहते हैं, जिसने साधारण में असाधारण को खोज में बदल जाती है। वह जिस तरफ उठता है, बैठता है, उसी तरफ लिया, उसी ने खोजा। जो असाधारण के चक्कर में लगा है, वह कल्पवृक्ष निर्मित होने लगता है। | तो साधारण ही रह जायेगा। क्योंकि असाधारण का चक्कर यह तुम्हारे बस में है कि तुम भव्य हो जाओ। लेकिन भव्य | तृष्णा का चक्कर है। होने का एक ही उपाय है कि भविष्य गिर जाए। भविष्य से ले लो एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि जब तुम ज्ञान को उपलब्ध वापस, तुमने जो भव्यता उसे दी है। और उस भविष्य से छीनी नहीं हुए थे, तब तुम क्या करते थे? उसने कहा, लकड़ी काटता गयी भव्यता को अपने हृदय में आरोपित करो। था, कुएं से पानी भरकर लाता था। और उसने पूछा, अब जब 'अभव्य जीव धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये हो, अब क्या करते हो? उसने कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं।' । कहा, अब भी लकड़ी काटता हूं, अब भी कुएं से पानी भरकर वह तो धर्म से भी कर्म का जाल ही फैलाता है, कर्म का क्षय लाता हूं। तो उसने कहा, फिर फर्क क्या है? फर्क बहुत बड़ा नहीं होता। वह तो धर्म के नाम पर ही इस संसार की ही वृत्तियों | है। पहले भी कुएं से पानी भरकर लाता था, लेकिन कुछ पाने की को फिर-फिर आरोपित कर लेता है। आकांक्षा थी उसके द्वारा; पहले भी लकड़ी काटता था, लेकिन हविश को आ गया है गुल खिलाना वासना कहीं भविष्य में थी। जरा ए जिंदगी! दामन बचाना। ...अब भी लकड़ी काटता है, अब भी पानी भरकर लाता 499 www.jainelibrary org Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 है-करोगे भी क्या? जीवन तो इन्हीं छोटी-छोटी चीजों से | और अशभ परिणाम पाप है। फिर धर्म क्या है? धर्म पाप और मिलकर बना है। लकड़ी भी काटोगे, पानी भी भरकर लाओगे, पुण्य से मुक्ति है-न दिया और न छीना। धर्म अनन्यगत, दूसरे घर में बुहारी लगाओगे, खाना बनाओगे, कपड़े धोओगे, स्नान से मुक्त हो जाना है। करोगे, भोजन करोगे, सोओगे, उठोगे, बैठोगे, चलोगे-जीवन | 'अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुखों के इन्हीं छोटे-छोटे अणुओं से बना है। क्षय का कारण होता है।' लेकिन फर्क एक आ जायेगा। ये महावीर के मूल आधार-सूत्र हैं, 'स्व-द्रव्य में प्रवृत्त कृत्य भव्य हो जाता है जब उसमें कोई तृष्णा नहीं होती। जैसे | परिणाम!' ये उनके पारिभाषिक शब्द हैं। ही तृष्णा से छूटा कि कृत्य पवित्र हुआ। जो अपने में ही रमण कर रहा है... लेकिन हम तो ऐसे उलझ गये हैं तृष्णा में कि कभी-कभी जहां तुम बैठे हो, कुछ भी नहीं कर रहे हो, सिर्फ बैठे हो : अपने में उलझे हैं वहां से भाग भी खड़े होते हैं तो और सब तो छोड़ ही रमण हो रहा है! तुम अपने में ही डूबे हो, लीन हो, तल्लीन जाते हैं लेकिन तष्णा हमारे साथ चली जाती है। हो। मन कहीं जा ही नहीं रहा है। न भविष्य में जा रहा है, न ये न जाना था इस महफिल में दिल रह जायेगा दूसरे में जा रहा है। क्योंकि दूसरे में भी जाना भविष्य में जाना हम ये समझे थे चले आयेंगे दमभर देखकर। है। तुम दूसरे का कोई चिंतन ही नहीं कर रहे-सारा चिंतन रुक लेकिन लगाव कुछ ऐसा बन जाता है कि दिल महफिल में रह गया है। तुम विचार ही नहीं कर रहे हो, क्योंकि सभी विचार जाता है और महफिल दिल में समा जाती है। फिर तुम भागते दुसरे के हैं। तुम सिर्फ हो। फिरते हो, लेकिन कुछ अंतर नहीं पड़ता। तुम जहां जाते हो फिर यह स्व-द्रव्य में होना-तुम मात्र हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। वहां एक संसार खड़ा हो जाता है, क्योंकि संसार का जो तुम कोई संबंध निर्मित नहीं कर रहे। तुम कोई सेतु नहीं बना रहे। 'ब्लू-प्रिंट' है, उसका जो बुनियादी नक्शा है, वह तुम्हारी तृष्णा दूसरे के पास जाने की कोई आकांक्षा नहीं। दूसरे से दूर जाने की भी कोई आकांक्षा नहीं। दूसरा तुम्हारी कल्पना के लोक में है ही 'वह अभव्य जीव नहीं जानता कि पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ नहीं। बस अकेले तुम अपने से भरे हो! अपने से भरपूर, परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। धर्म अनन्यगत लबालब, कहीं जाते हुए नहीं! तरंग भी नहीं, लहर भी नहीं। अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुःखों के क्योंकि लहर भी कहीं जाती है। तुम बस यहीं हो। ऐसी घड़ी को क्षय का कारण होता है।' | महावीर कहते हैं धर्म। 'पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है।' पुण्य की लहर उठी-और अगर लहर दूसरे के हित में हुई तो पुण्य, परिभाषा महावीर कर रहे हैं। दूसरे के साथ शुभ परिणाम का अहित में हुई तो पाप। लहर ही न उठी, तुम स्व-द्रव्य में लीन संबंध पुण्य है। अन्य के साथ शुभ परिणाम का संबंध पुण्य है। | बैठे रहे तो धर्म। तो धर्म पुण्य और पाप के पार है। तुमने किसी को दान दिया-एक संबंध निर्मित हुआ। लेकिन जो पुण्य और पाप के पार है उसका भविष्य नहीं हो सकता। पण्य का संबंध है-तमने दिया। तमने किसी से छीन लिया, तुम अपने में तो बस अभी और यहीं हो सकते हो—यही वर्तमान चोरी की, तो फिर एक संबंध बना-तुमने किसी से छीना! दोनों | के क्षण में। तुम अपनी आत्म-सत्ता का अनुभव कर सकते हो, अलग-अलग हैं। किसी को दिया-छीनने से बिलकुल उलटा क्योंकि सत्ता उपलब्ध ही है। उसके लिए कल तक रुकने की है। छीनना देने से बिलकुल उलटा है। देना पुण्य है, तो छीनना जरूरत नहीं; यह कहने की जरूरत नहीं कि कल अपने में प्रवेश पाप है। करूंगा। हां, दूसरे में प्रवेश करना हो तो कल तक रुकना लेकिन दोनों हालत में एक बात है समान–दूसरा मौजूद है। | पड़ेगा; दूसरे को राजी करना होगा, समझाना-बुझाना पड़ेगा। दिया तो दूसरे को, छीना तो दूसरे से। दूसरा तो है ही! लेकिन अपने में प्रवेश करना हो तो इसके लिए तो कल तक तो महावीर कहते हैं, पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है छोड़ने की जरूरत नहीं। इसके लिए तो कोई भी साधन जरूरी 500 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता: अभी और यहीं नहीं है। क्योंकि वहां तो तुम हो ही; सिर्फ थोड़ा विस्मरण हुआ दुबारा बीज मत बोना। जो लग गए हैं फल वह तो पकेंगे और है। स्मरण आते ही तुम अचानक पाते हो कि तुम सदा अपने घर गिरेंगे-पककर ही गिरेंगे; परिपक्व होकर ही गिरेंगे। में थे। यह अपने घर में होना धर्म है। उन्हें चुपचाप स्वीकार कर लेना। बड़ा दुख होगा, उसे स्वीकार पाप तो बांधता ही है, पुण्य भी बांध लेता है। इसलिए महावीर | कर लेना। उसी को महावीर तप कहते हैं। जो दुख हमने बोये थे कहते हैं, जिसने पुण्य को धर्म समझा, उसने अभी धर्म को नहीं और अब पक गए हैं, अब उन दुखों को हमें भोगना होगा। उन्हें समझा। उसने अपनी पाप की वृत्ति को ही सजा लिया, सुंदर चुपचाप भोग लेना। उनके प्रति कोई भी प्रतिक्रिया न करना। बना लिया; लेकिन पाप को जाना नहीं कि पाप क्या था। पाप यह भी मत कहना कि यह बुरा है। उन्हें हटाने की कोशिश मत यही था कि अपने से बाहर चले गये थे। दूसरे की हत्या करने करना। उनसे बचने और भागने की कोशिश मत करना। क्योंकि गये थे कि दूसरे को बचाने गये थे, दोनों बातें बराबर हैं। अपने तुम्हारी सब कोशिश विलंब करेगी। से बाहर चले गये थे। वहीं मौलिक पाप हो गया। तुम तो अहोभाव से स्वीकार कर लेना कि अहो, जो दुख बोये सितम है ऐ रोशनी सितम है कि वह भी अब धूप की है जद में थे उनके फल पक गये और दुख भोगने का क्षण आ गया। जरा-सा साया जो रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में। धन्यभागी हूं, छुटकारा हुआ! तुम बैठे हो छिपे, दरख्तों के नीचे, थोड़ी-सी छाया है, भरी सद चाक हुआ गो जाम-ए-तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा दोपहरी में-लेकिन धीरे-धीरे धूप वहां भी पहुंच जाती है। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा। धीरे-धीरे धूप उसे भी छीन लेती है। महावीर कहते हैं, जीना ऐसे जैसे कि मरने का वक्त तो तय है। सितम है ऐ रोशनी! सितम है कि वह भी है अब धूप की जद तो क्या करें, जीना पड़ेगा! और जीवन के लिए व्यवस्था ऐसे ही में-वह भी आ गया अब धूप के घेरे में-जरा-सा साया जो जुटा लेना जैसे कि अब जीना है, फटे वस्त्र हैं तो सी लेता है रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में। आदमी। सद चाक हुआ गो जाम-ए-तन मजबूरी थी सीना ही तो पहले आदमी पाप से बचता है और पुण्य की छाया में बैठना पड़ा-हजार-हजार बार कपड़े फट गये; लेकिन मजबूरी थी, चाहता है। लेकिन ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता है पुण्य विवशता थी-सीना ही पड़ा। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने भी पाप का ही विस्तार है। ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता के लिए जीना ही पड़ा। है कि पुण्य भी सजायी हुई बेड़ी है, जंजीर है। जल्दी ही पता चुपचाप, हर हाल उस समय तक प्रतीक्षा करनी होगी जब पाप चलता है कि यह भी डूब गया पाप में। के फल पक जाएं और गिर जाएं-यथासमय। महावीर कहते जिस दिन पुण्य भी पाप जैसा दिखायी पड़ने लगता है, उस दिन हैं, वह अपने-आप! जैसे फलों के पकने का समय है, मौसम व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है। | है, ऐसे सारे जीवन के कर्मों के पकने का समय है। वह महावीर की धर्म की परिभाषा बड़ी पराकाष्ठा की है, अपने-आप पक जाते हैं, तुम्हें उनकी चिंता नहीं करनी। तुम आत्यंतिक है; उससे ज्यादा शुद्ध परिभाषा खोजनी मुश्किल है। भविष्य की चिंता छोड़ो! तुम वर्तमान में, स्वयं में, स्व-परिणाम 'धर्म है अनन्यगत अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम और तब में लीन होना सीखो। धीरे-धीरे बाकी सब अपने से आप यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।' यथासमय हो जायेगा। उसका तुम्हें हिसाब भी नहीं रखना। जब वह तुम्हें सोचना नहीं है कि दुख क्षय हों या दख के कारणों का | पाप का फल आये और दुख हो, पीड़ा हो, तो उसे स्वीकार कर क्षय हो। वह तो यथासमय हो जाता है। यह यथासमय की बात | लेना। वही तप है। भी समझ लेनी चाहिए। 'जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भी संसार की ही इच्छा महावीर कहते हैं, हमने पाप किये जन्मों-जन्मों, बीज बोए, करता है। पुण्य सुगति का हेतु अवश्य है। किंतु निर्वाण तो पुण्य वृक्ष लगाए। यथासमय फल पकेंगे और गिर जायेंगे। उसमें के क्षय से ही होता है।' जल्दी नहीं की जा सकती। इतना ही किया जा सकता है कि महावीर कहते हैं, शुभ है पुण्य की इच्छा करना; लेकिन है 1501 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग संसार की ही इच्छा। इसलिए पुण्य की इच्छा पर ही मत रुक तक चेष्टा है, वासना है, तब तक पीड़ा ही हाथ आती है। जब जाना। पुण्य की इच्छा करना ताकि पाप से छुटकारा हो सके। तक मांगना है, तब तक परम संपदा नहीं मिलती। एक कांटा लग जाए, दूसरे से निकाल लेते हैं ऐसे ही पुण्य की | यहां मांगने से भीख नहीं मिलती, परम संपदा कहां मिलेगी! इच्छा करना ताकि पाप निकल जाये। लेकिन जब एक कांटा परम संपदा मिलती है सम्राटों को, जिन्होंने भीतर के क्षीर-सागर निकल जाये तो दूसरे को घाव में मत रख लेना। दूसरा भी उतना पर अपनी ही ऊर्जा के शेषनाग की कुंडलिनियों पर विश्राम लगा ही कांटा है; माना कि पहले को निकालने में सहयोगी हुआ। दिया है, बिस्तर लगा दिया है। धन्यवाद दे देना और दोनों को फेंक देना। पाप जब निकल जाये नहीं, बाहर कोई जगह नहीं है इस जीवन के मरुस्थल में जहां तो पुण्य को मत सम्हालने लगना; अन्यथा संसार ही सम्हाला विश्राम मिल सके। यहां तो दौड़ना ही दौड़ना होगा। यहां तो हर जाता है। बिंदु जो विश्राम का मालूम पड़ता है, केवल नयी दौड़ का प्रारंभ __ 'जो पुण्य की इच्छा करता है वह भी संसार की ही इच्छा करता सिद्ध होता है। सोचकर आते हैं कि अब, अब विश्राम का क्षण है। पुण्य सुगति का हेतु है, किंतु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही आया; पहुंचते-पहुंचते विश्राम का क्षितिज और आगे सरक होता है।' जाता है। इधर अंधेरे की लानते हैं, उधर उजाले की जहमतें हैं वासना में कभी किसी ने विश्राम नहीं जाना। विश्राम वहां नहीं तेरे मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? है। विराम वहां नहीं है, राम वहां नहीं है। विश्राम तो भीतर है बड़ी कठिनाई है! इधर अंधेरे की लानते हैं—यहां अंधेरे की जहां तृष्णा शून्य हो जाती है। तकलीफें हैं। उधर उजाले की जहमतें हैं—उधर प्रकाश की भी 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो।' झंझटें हैं। इधर पाप सताता है, उधर पुण्य भी सताता है। तेरे इस वचन को गौर से सुनना। मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? यह जो 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सशील जानो। जिंदगी का मरुस्थल है, इस पर कहां विश्राम करें? इस जिंदगी किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है, जो संसार में प्रविष्ट के मरुस्थल में विश्राम की कोई जगह नहीं। विश्राम की जगह तो कराता है ?' मुसाफिर के भीतर है। यहां बाहर बिस्तर लगाया तो भटके। पहले महावीर कहते हैं, अशुभ कर्म को कुशील, शुभ कर्म को यहां तो भीतर बिस्तर लगाना होगा। उस भीतर बिस्तर लगाने सुशील जानो। तत्क्षण दूसरे वाक्य में खंडन करते हैं। कहते हैं, को महावीर कहते हैं, 'अनन्यगत; स्व-द्रव्य में प्रवृत्त किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट परिणाम।' लगा लिया भीतर बिस्तर! कराता है? तर्क से भरी हुई बुद्धि को लगेगा, यह क्या मामला देखा विष्णु को, सो रहे हैं क्षीर-सागर में! लगाया बिस्तर | है! यह तो वक्तव्य तत्क्षण विपरीत हो गया। एक वाक्य पहले क्षीर-सागर में! कथा प्रीतिकर है! ही कहा कि अशुभ को कुशील, शुभ को सुशील जानो-और [ अर्थ है: अमृत का सागर, जिसका कोई अंत | फिर कहते हैं कि सुशील कैसे जाना जा सकता है शुभ को, नहीं आता। उस पर बिस्तर लगा है। और बिस्तर किसका है? क्योंकि वह संसार में प्रवेश कराता है! शेषनाग का। उसने कुंडली मारी है। ___ यह दो तलों के लोगों के लिए कहा गया वक्तव्य है। महावीर नाग प्रतीक है तुम्हारी ऊर्जा का, कुंडलिनी का, तुम्हारे भीतर | जैसे व्यक्तियों के वक्तव्यों में अगर असंगति मिले तो इतना ही छिपी हुई ऊर्जा का। उसी ऊर्जा की कुंडली मारकर अनंत के | समझना कि वह वक्तव्य कई तलों पर दिये गये हैं। पहले वे कह सागर पर जो बिस्तर लगाकर लेट गया है...! लक्ष्मी उसके पैर रहे हैं उससे, जो पाप में रत है। उससे वे कह रहे हैं कि अशुभ दबाती है! सारे सुख उसके पैर दबाने लगते हैं। सब वैभव कर्म को कुशील जान, शुभ कर्म को सुशील। फिर जब वह पाप सहज ही उसे उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं कि वह उनकी चेष्टा से मुक्त हो गया है, तो वे उससे कहते हैं, 'लेकिन सुन! उसे करता है। जब तक चेष्टा है तब तक दुख ही पैर दबाता है। जब सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है? 502 Jan Education International Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं यह भी सुशील नहीं है। यह तो कामचलाऊ बात थी, चलाने जैसा क्या है? वह तो मजबूरी से कर रहा है कि खूब पाप व्यवहारिक थी। किए हैं, अब उनको धोना है; खूब गंदगी इकट्ठी कर ली है, अब महावीर ने कहा है, वक्तव्य उनके दो आधारों पर स्नान करना है। तो तुम स्नान-घर अपना मकान के सामने थोड़े हैं-व्यवहारिक-नय और निश्चय-नय। एक वक्तव्य ऐसा है ही बनाते हो—कि खड़े हैं बीच सड़क पर और स्नान कर रहे हैं; जो व्यवहारिक है। एक कांटे को दूसरे कांटे से निकालना है; कि सारा गांव देख ले कि कैसे स्वच्छ हो रहे हैं! स्नान-घर में तो इसलिए वे कहते हैं, यह कांटा बड़ा शुभ है, इससे तुम लगे हुए तुम छिपकर चुपचाप स्नान कर लेते हो। तुम्हारा पुण्य का गृह भी कांटे को निकाल लो। जब कांटा निकल जाता है तब वे निश्चय ऐसा ही छुपा होना चाहिए। क्योंकि अगर तुमने इससे प्रशंसा वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं, अब दोनों कांटों को फेंक दो क्योंकि पायी तो यह एक नया उपद्रव बन जायेगा। तो फिर तुम प्रशंसा कोई कांटा सुशील कैसे हो सकता है! कांटा तो दुशील ही है, पाने का जो मजा है उसके लिए पुण्य करने लगोगे। फिर भव्य न कुशील ही है। रहे, अभव्य हो गए। तो महावीर की सारी वाणी दो तलों पर है। एक तल है जहां तो पुण्य को जो चुपचाप करे वही भव्य है। पुण्य की जो तुम खड़े हो, तुमसे बोल रहे हैं। और दूसरा तल है जब तुम घोषणा करके करे वह अभव्य है। लेकिन हम तो पुण्य करते ही उनकी सुन लोगे, समझ लोगे, मान लोगे, तब तत्क्षण वे तुमसे इसलिए हैं ताकि घोषणा हो। हम तो पुण्य करने के लिए राजी ही कहेंगे, अब इस कांटे को पकड़कर पूजा मत करने लगना। इसीलिए होते हैं, पुण्य के लिए थोड़े ही, घोषणा के लिए। पुण्य अच्छा है कामचलाऊ दृष्टि से; क्योंकि पाप से छुटकारा जो लोग दान इकट्ठा करते हैं वे भलीभांति जानते हैं। वे गांव के दिलाने में सहयोगी है। लेकिन इसको पकड़कर मत बैठ जाना। दो-चार धनी-मानी व्यक्तियों से पहले लिस्ट पर नाम लिखवा पुण्य ही तुम्हारे जीवन की अंतिम दिशा न बन जाये। अन्यथा लाते हैं। वे कहते हैं, न देना आप दस हजार, देना हजार; बीमारी से छूटे, औषधि से पकड़ गये। औषधि शुभ है, बीमारी लेकिन लिख तो दो दस हजार, ताकि दूसरे लोगों को देखकर से छुटा देने को; लेकिन औषधि की पूजा मत करना। पुण्य के लगे कि फलां ने दस हजार दिये, ईर्ष्या जगे, स्पर्धा पैदा हो गुणगान मत गाना। 'अच्छा तो यह अपने को समझता क्या है! दस हजार दिये तो लेकिन यही होता है। एक आदमी जरा-सा दान कर देता है तो लिखो ग्यारह हजार!' उसकी चर्चा करता है। न केवल चर्चा करता है, आयोजन करता दान के लिए भी अहंकार को ही फुसलाना पड़ता है। पुण्य के है कि लोग जानें कि इसने दान किया; अखबार में खबर छपे, | लिए भी बीमारी को ही खुजलाना पड़ता है। फिर जब दान हो फोटो छपे कि इसने दान किया। जाए तो दानी प्रतीक्षा करता है: अब प्रतिफल! शोभा-यात्रा महावीर कहते हैं, दान किया, यह तो ऐसा ही था कि पाप किया निकले। बैंड-बाजे बजें! सारे गांव में चर्चा हो! दूर-दूरदिगंत था, उसका प्रक्षालन किया; पाप किया था, उसका पश्चात्ताप तक उसकी खबर पहुंचे! किया- इसमें शोरगुल क्या मचा रहे हो? किसी आदमी को एक सज्जन मुझे मिलने आये थे। पत्नी भी साथ थी। तो पत्नी टी. बी. हो गयी थी, उसने दवा ली, ठीक हो गया तो वह ने मुझसे कहा कि शायद आपको मेरे पति का परिचय नहीं है। कोई अखबारों में खबर देने जाता है कि देखो, मैं कैसा महापुरुष, पत्नी मुझे एक-दो बार आकर मिल गयी थी। मैंने कहा कि ये कि दवा ली और ठीक हो गया! तो हम उसे पागल कहेंगे। पहली दफे आये हैं। उसने कहा, 'ये बड़े दानी हैं। एक लाख महावीर कहते हैं, खूब पाप किया है, थोड़ा-थोड़ा पुण्य करके | रुपया अब तक दान कर चुके हैं।' उसे छांटते हो, तो इसमें शोरगुल मचाने की कोई जरूरत नहीं। पति ने तत्क्षण पत्नी का पैर दबाया और कहा, 'एक लाख नहीं तो वास्तविक पुण्यात्मा व्यक्ति तो ऐसे करेगा पुण्य कि एक हाथ | एक लाख दस हजार!' वह दस हजार भी कम बोल रही है तो से करे और दूसरे हाथ को पता न चले। चुपचाप करेगा। पता ही पति को कष्ट हो गया; सुधार किया। नहीं चले किसी को क्योंकि पुण्य तो पश्चात्ताप है, इसमें पता दानी दान से मान इकट्ठा नहीं कर सकता। दानी मानी नहीं हो 503 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 सकता। क्योंकि जो मानी है वह दानी कैसे हो सकेगा? थोड़ी देर पुण्य में विश्राम कर लेना-लेकिन जाना है मोक्ष। तो महावीर कहते हैं, 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ को ये मय छलक के भी उस हुस्न को पहंच न सकी सुशील जानो किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार | ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका। में प्रविष्ट करा दे?' नहीं वह भी कुशील है अंततः। अगर पाप पुण्य को कितना ही छलकाओ, पुण्य को कितना ही प्रदर्शित की दृष्टि से सोचो तो पुण्य सुशील है। अगर मोक्ष की दृष्टि से | करो, इससे तुम्हारा भव्य रूप प्रगट न होगा। शुभ रूप प्रगट सोचो तो पुण्य कुशील है! होगा, भव्य रूप नहीं क्योंकि भव्य तो शुभ से भी उतना ही दूर है इसलिए महावीर के सभी वक्तव्य दृष्टि-वक्तव्य हैं। इसको | जितना शुभ अशुभ से दूर है। भव्य तो बड़ा लोकतीत है। महावीर की परिभाषा में 'नय' कहते हैं-देखने का एक ढंग। ये मय छलक के भी उस हस्न को पहंच न सकी महावीर कहते हैं, कोई भी वक्तव्य निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है। ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका।। तुम कहते हो, फलां आदमी बहुत लंबा। इसका कोई मतलब वह जो तुम्हारा परम सौंदर्य है, जो अंतसौंदर्य है, उसको पुण्य नहीं होता, क्योंकि कोई ऊंट से लंबा नहीं होगा, पहाड़ से लंबा | भी नहीं छू सकता। क्योंकि पुण्य भी कृत्य है। कृत्य कितना ही नहीं होगा, झाड़ से लंबा नहीं होगा। तुम जब कहते हो फलां | बड़ा हो, आत्मा से छोटा होता है। कृत्य कितना ही बड़ा हो, आदमी लंबा, तो तुम मानकर चलते हो कि आदमी की एक कर्ता से छोटा होता है। तुमने जो किया है वह तुमसे बड़ा नहीं हो सामान्य ऊंचाई है, छह फीट, वह सात फीट है। लेकिन पहाड़ | सकता। करनेवाला सदा ही बड़ा है। के नीचे है। यह बड़ा मूलभूत दृष्टिकोण है कि कर्ता कृत्य से बड़ा है। जिस कहते हैं, ऊंट पहाड़ के पास जाने से डरते हैं। डरते होंगे, | जीवन की ऊर्जा से छोटी-छोटी लहरें पुण्य की उठती हैं, वे लहरें क्योंकि जब रेगिस्तान में चलते रहते हैं तो वही पहाड़ है। जब उस जीवन-ऊर्जा से बड़ी नहीं हो सकतीं। सागर में कितनी ही पहाड़ करीब आने लगता है तो दीनता प्रगट होती है। बड़ी लहर उठती हो, सागर से बड़ी नहीं हो सकती। हमारे सभी वक्तव्य सापेक्ष हैं। एक दृष्टि से ठीक होंगे, तुम सोच सकते हो सागर में ऐसी कोई लहर कभी उठ सकती तत्क्षण दूसरी दृष्टि से गलत हो जायेंगे। है जो सागर से बड़ी हो? असंभव! कितनी ही बड़ी लहर उठे, आइंस्टीन ने तो बहुत बाद में, ढाई हजार साल बाद महावीर | एक बात तय रहेगी कि सागर से छोटी रहेगी। अब तुम कोई के, विज्ञान के जगत में सापेक्षता का नियम सिद्ध किया। पर चाय की प्याली में थोड़े ही सागर की लहर उठा सकते हो। चाय महावीर ने ढाई हजार साल पहले धर्म के जगत में वही नियम की प्याली में चाय की प्याली की ही लहर उठेगी। वह चाय की सिद्ध किया था। प्याली से छोटी रहेगी। महावीर और आइंस्टीन बड़े एक साथ खड़े हैं। जो दान | महावीर कहते हैं कि जो हमारी अंतरात्मा है वह विराट है। महावीर का धर्म के जगत में है, वही दान आइंस्टीन का विज्ञान के | कृत्य तो छोटी-छोटी तरंगें हैं। उन छोटी-छोटी तरंगों को तुम जगत में है। आइंस्टीन ने डांवांडोल कर दिया विज्ञान का सारा | सब कुछ मत मान लेना। वे पुण्य की भी हों तरंगें तो भी तुम्हारे जगत। सारी चीजें सापेक्ष हो गयीं। निरपेक्ष कोई वक्तव्य न परम सौंदर्य को न छू पायेंगी। और कितने ही पुण्य के फूल रहा। कोई ऐसा वक्तव्य नहीं है जो तुम बिना किसी शर्त के कह | खिलते जाएं तो भी तुम्हारे परम सौंदर्य के सामने चरणों में चढ़ाने सको। सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। | के योग्य भी न हो पायेंगे। महावीर ने भी कहा, सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। इसलिए इस संसार में तो हम जो भी करते हैं वह कृत्य है। पुण्य करें, इसमें तुम विरोध मत देखना और विसंगति मत देखना। यह दो | पाप करें; अच्छा करें, बुरा करें-जो भी हम बाहर करते हैं वह दृष्टियों से कही गयी बात है। कृत्य है। जो भीतर बैठा है, करने के पार, साक्षी-वह इस कितनी ही चेष्टा करो, पुण्य के द्वारा तुम्हारा परम रूप प्रगट न | संसार का हिस्सा नहीं है। हो सकेगा। पुण्य बीच की मंजिल हो सकती है। पाप से हटकर | वही है हमारा परम सौंदर्य। वही है मुक्ति, मोक्ष। 504 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं - मेरी रंगतें न निखर सकीं, मेरी निहकतें न बिखर सकीं | खोज, विराट में ही सुख है। मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा। 'बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियां तुम कितनी ही लाख चेष्टाएं करो, तुम्हारे कृत्यों के कारण बांधती हैं। इस प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बांधते तुम्हारा रंग न निखरेगा। पाप से तो निखरेगा ही कैसे। और कालिख लग जायेगी। पुण्य से भी न निखरेगा। कितना ही सोना महावीर कहते हैं, बेड़ी सोने की या लोहे की, दोनों बांध लेती चढ़ा लो अपने ऊपर, तो भी न निखरेगा। | हैं। तुम इससे प्रसन्न मत हो जाना कि तुम कारागृह में बड़े खास मेरी रंगतें न निखर सकी, मेरी निहकतें न बिखर सकी कैदी हो। तुम्हारे हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; दूसरे साधारण और न तुम्हारी सुगंध बिखर सकेगी तुम्हारे कृत्यों से। क्योंकि कैदी हैं, लोहे से बंधे हैं—इससे तुम बहुत ज्यादा प्रसन्न मत हो | तुम अपने कृत्यों से बहुत बड़े हो। | जाना। भिखारी बंधा होगा लोहे की जंजीरों में, सम्राट बंधा है मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा। सोने की जंजीरों में। लेकिन असली सवाल तो बंधे होने का है। तुम्हारी शिकायत बनी ही रहेगी-तुम कितने ही बुरे कर्म तो जो बुरा कर्म करता है, वह भी बंधा हुआ है। पापी तो बंधा ही | करो; तुम नादिर हो जाओ, चंगेज हो जाओ, तैमूर, हिटलर हो | होता है, पुण्यात्मा भी बंधा होता है। और कभी-कभी तो ऐसा जाओ; या तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो। तुम सम्राट अशोक होता है कि पुण्यात्मा पापी से भी ज्यादा बंधा होता है। क्योंकि हो जाओ कि सम्राट वू हो जाओ; तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो पापी तो लोहे की बेड़ियां छोड़ना चाहता है; पुण्यात्मा सोने की | तो भी तम्हारा अंतिम निखार कृत्य से आनेवाला नहीं है। बेड़ियां बचाना चाहता है। तुम कृत्य से बड़े हो। ऐसे लहरों को निखार-निखारकर कहीं तो कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि अपराधी भी छूटने को सागर निखरेगा? | उत्सुक होता है, लेकिन साधु छूटने को उत्सुक नहीं होता। सागर तो निखरेगा साक्षी-भाव में। सागर तो निखरेगा अनन्य क्योंकि उससे तुम कैसे छूटने को उत्सुक होओगे जिससे बड़ा भाव से स्व-द्रव्य में लीन हो जाने से। सुख मिल रहा है और जिसके कारण बड़ा सम्मान मिल रहा है। उपनिषदों में बड़े बहुमूल्य वक्तव्य हैं: 'यो वै भूमा जिसके कारण अहंकार भरता है, फलता-फूलता है! तत्सुख'- विशाल में है सुख। विराट में है सुख। 'नाल्पे तो कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि वे लोग अभागे हैं जिनके सुखमस्ति'-लघु में सुख कहाँ! छोटे में सुख कहां! 'भूमैव हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; वे उनको बचाने लगते हैं: वे सुख'-निश्चय ही विराट में ही सुख है। 'भूमा त्वेव उनको आभूषण समझने लगते हैं। विजिज्ञासितव्यः।' इसलिए उस एक विराट को ही जानने को 'अतः परमार्थतः दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर आकांक्षा कर। विराट! जहां कोई सीमा नहीं, जिसकी कोई उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि परिभाषा नहीं! कशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट महावीर कहते हैं, वह विराट तुम्हारे भीतर छपा है। तम्हारे होती है।' कृत्य तो छोटी-छोटी ऊर्मियां हैं-शुभ और अशुभ-लेकिन और स्वाधीनता महावीर के लिए परम मूल्य है-अल्टीमेट सभी ऊर्मियां हैं। दूसरे के किनारे की तरफ चल पड़ती हैं। जब वैल्यू! उसके पार कुछ भी नहीं। जब तुम परिपूर्ण स्वाधीन हो, सागर में कोई ऊर्मि नहीं होती तो सागर बे-किनारा होता है, जब तुम्हारी स्वाधीनता पर कोई सीमा नहीं, जब तुम्हारी क्योंकि किनारे की तरफ कुछ भी नहीं जा रहा है। जब सागर में स्वाधीनता पर कोई बाधा नहीं, अनवरुद्ध तुम्हारी स्वतंत्रता कोई ऊर्मियां नहीं होती तो सागर किनारे से टूटा होता है-तभी तुम विराट हो, तभी तुम भूमा हो। तब तुम छोटे न है-तटहीन। तब सागर विराट होता है। रहे। और स्वतंत्रता तो दोनों से ही नष्ट हो जाती है। इसलिए न _ 'यो वै भूमा तत्सुख'-विराट में सुख है। 'नाल्पे पाप को पकड़ना न पुण्य को; न संसार को पकड़ना, न त्याग सुखमस्ति'-छोटे में कहां सुख! 'भूमैव सुख'-विराट को को। संसार को मत पकड़ना, संन्यास को मत पकड़ना। संसार 505 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जिन सूत्र भाग : 1 छोड़ने के लिए संन्यास का उपयोग कर लेना, बस। फिर उससे लेने को आये हो, अभी जल्दी मत करो।' पर उन्होंने कहा, भी पार हो जाना। अगर अंततः छोड़ ही देना है तो लेने से सार क्या? माना कि यहां कारागृह से थक जाना तो जरूरी है; जिसको हम घर | औषधि अंततः छोड़ देनी होगी–लेकिन तब जब बीमारी जा कहते हैं, अपना घर कहते हैं, आशियां कहते हैं उससे भी | चुकी हो। तुम यह तो नहीं कहते चिकित्सक को कि औषधि लेने थक जाना जरूरी है। से फायदा क्या, अंततः तो छोड़ ही देनी है! अगर न लोगे तो वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ | बीमारी में अटके रह जाओगे। औषधि तो लेनी होगी और तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम। छोड़नी भी होगी। सीढ़ियां चढ़नी भी होंगी और छोड़नी भी अगर कोई गौर से देखे उथल-पुथल आंधियों की, तो तुम होंगी। तुमने कहा, जब छोड़ ही देनी है तो चढ़ना क्या, तो फिर कारागृह से थोड़े ही थकोगे, घर से भी थक जाओगे। तुम नीचे ही रह जाओगे। वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ महावीर को तत्क्षण खयाल उठा होगा, यह जो मैंने कहा कि तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम। पाप भी छोड़ दो, पुण्य भी छोड़ दो, क्योंकि दोनों बंधन हैं तो तब तुम जिंदगी के घर से भी थक जाओगे। जहां सुरक्षा शायद आदमी चोरी तो नहीं छोड़ेगा, दान करना छोड़ देगा: मिलती है, शरण मिलती है, उससे भी थक जाओगे। जहां 'क्या फायदा! इतना ही बंधन काफी है चोरी का ही, अब और सहारा मिलता है, आसरा मिलता है, उससे भी थक जाओगे। दान का बंधन क्यों सिर पर लेना! संसार का बंधन ही काफी है, शत्रु से तो थकोगे ही, मित्र से भी थक जाओगे। पराये से तो अब संन्यास का बंधन और क्यों सिर पर लेना! एक ही बंधन थकोगे ही अपने से भी थक जाओगे; क्योंकि वस्तुतः तो अपना बहुत है—हाथ में लोहे की जंजीरें पड़ी हैं, अब सोने की और भी पराया है। | क्या डालना!' तथापि, फिर महावीर कहते हैं, 'परमार्थतः दोनों प्रकार के तो महावीर को तत्क्षण कहना पड़ा, 'व्रत व तपादि के द्वारा कर्मों को कुशील जानकर उनसे राग न करना चाहिए। क्योंकि स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नर्कादि के दुख उठाना उनका संसर्ग...कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से ठीक नहीं...।' स्वाधीनता नष्ट होती है।' औषधि कड़वी भी हो तो भी उसका कड़वापन झेल लेना उचित 'तथापि, व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके है। क्योंकि उसके बिना फिर बीमारी का नर्क है। न करने पर नर्कादि के दुख उठाना ठीक नहीं। क्योंकि कष्ट सहते ...क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं बेहतर, में खड़े रहने कहीं अच्छा है।' कहीं अच्छा है।' संन्यास की एक छाया है। आत्यंतिक छाया नहीं, आखिरी महावीर जब कह रहे हैं कि छोड़ दो सब-पुण्य भी, पाप छाया नहीं-आखिरी छाया तो आत्मा की है। संन्यास की एक भी-तब तत्क्षण उन्हें खयाल आया होगा कि आदमी बड़ा सुरक्षा है; अंतिम सुरक्षा नहीं, बीच का पड़ाव है। लंबी यात्रा में बेईमान है। उससे कहो, छोड़ दो पुण्य भी, पाप भी, तो पाप तो बीच में पड़ी धर्मशाला है। वहां विश्राम करके सुबह चल शायद न छोड़ेगा, पुण्य छोड़ देगा। वह कहेगा, बिलकुल ठीक! पड़ना। लेकिन यह मत सोचना कि जब सुबह चल ही पड़ना है अभी मैंने कहा कि छोड़ दो संसार, छोड़ दो संन्यास! तुम में से तो रात विश्राम क्या करना, चलते ही रहो! तो फिर तुम ज्यादा न कई के मन में उठा होगाः अरे, यह तो बिलकुल बेहतर, तो छोड़ चल पाओगे। तो फिर तुम बहुत दूर न पहुंच पाओगे। दो संन्यास! महावीर जैसे व्यक्तियों को निरंतर एक अड़चन खड़ी रहती है: हम अपने मतलब की सुन लेते हैं। | जब भी वे बोलते हैं तो एक तो वे बोलते हैं जो उन्हें लगता है ठीक एक मित्र ने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि 'अंततः तो सब | है, और तत्क्षण उन्हें तुम्हारा भी ध्यान रखना पड़ता है, तब वे वह छोड़ ही देना है?' मैंने कहा, 'अभी तुम लिये भी नहीं, अभी | भी बोलते हैं जो तुम कहीं गलत न समझ लो। तो वे कहते हैं, 506 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं 'कोई फिक्र मत करना। कहा मैंने, माना कि सोने की जंजीर है | होने की खबर है। पुण्य, लेकिन अभी जल्दी मत करना; पहले लोहे की जंजीर को इसलिए जिस व्यक्ति का मोक्ष और निर्वाण करीब आ रहा है, सोने से बदल लेना। इतना तो करो। सोने की जंजीर थोड़ी। उसके दुख बड़े सघन हो जाते हैं। सभी फल अनंत-अनंत जन्मों हलकी होगी; लोहे की जंजीर जैसी भारी न होगी। सोने की के इकट्ठे पकने लगते हैं। यथासमय! आ गई घड़ी। जंजीर थोड़ी प्रीतिकर होगी। तुम उतने कुरूप न मालूम पड़ोगे महावीर बड़ी बुरी तरह बीमार हुए। बुद्ध का शरीर भी विषाक्त जितने लोहे की जंजीर में मालूम पड़ते थे।' हो गया था। रामकृष्ण कैंसर से विदा हुए; रमण भी। संसार को थोड़ा बदलो संन्यास में। और जो दूसरा आत्यंतिक बहुतों के मन में सवाल उठता है कि क्यों ऐसे सदपुरुष, और वक्तव्य है-पारमार्थिक चरम-वह तभी सार्थक है जब क्यों ऐसा दुखद अंत? संन्यास फल जाए। जब पहला कांटा निकल जाए और दूसरा हमें समझ में नहीं आता है। हमें जीवन के गणित का पता नहीं कांटा व्यर्थ हो जाए, तब उसे फेंक देना। है। जिनकी आखिरी घड़ी करीब आ गयी है, तो जन्मों-जन्मों जीवन को ऐसे गुजारो जैसे पिछले किये हुए कर्मों का फल है। के, अनंत-अनंत फल शीघ्रता से पकने शुरू हो जाते हैं, क्योंकि तटस्थता से, बड़ी दूरी के भाव से, उपेक्षा से, बिना प्रतिक्रिया वे विदा होंगे जब, पूरी तरह से विदा होंगे, फिर दुबारा उनका किये, बिना छोटी-छोटी बातों में उलझे-ऐसे गुजर जाओ जैसे आना नहीं है तो सारा निपटारा, सारा कर्मक्षय त्वरा से होता राह की धूल जब गुजरते हो तो पड़ती है। जब राह से चलते हो है, तीव्रता से होता है। सब तरह की पीडाएं जिनको अब तक कुत्ते भी भौंकते हैं; जब राह से चलते हो, धूप भी पड़ती दबाकर बैठे रहे थे, उभरकर सामने आती हैं। और आ जाना है-सबको तुम गुजार देते हो। जन्मों-जन्मों तक जो निर्मित जरूरी है। वह न केवल पुराने कर्मों का फल है बल्कि भविष्य किया है उसे धीरे-धीरे इसी तरह छोड़ने का उपाय-उपेक्षा! की तैयारी भी। उनको वे कितनी शांति से देख लेते हैं, कितने दुख आये तो उसे भी ठहर जाने देना। उसके साथ भी शत्रुता मत | सहज भाव से उनको गुजर जाने देते हैं उससे उनकी अंतिम बांधना। न हो, ऐसा मत कहना। तैयारी होती है; अंतिम पाथेय निर्मित होता है। है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम ऐशमा! सुबह होती है रोती है किसलिए रह-रहके पूछते हैं यह उम्रे-रवां से हम। थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे। साधक यही पूछता रहता है अपने भीतर : 'और, और कितनी संसार को छोड़ना है, क्योंकि संसार में जो वसंत दिखायी यात्रा है?' अपनी जाती हुई, उम्र से पूछता है : 'और कितना, पड़ता है वह झूठा है, इसलिए संसार को छोड़ते वक्त व्यक्ति के और कितना?' लेकिन जो घटता है, उसे स्वीकार कर लेता है। जीवन में सारे फूल गिर जायेंगे, पतझड़ हो जायेगी; पत्ते भी गिर जो घटता है, उसे स्वीकार करके बैठ नहीं जाता। जो घटता है, । जायेंगे; रूखे, नंगे वृक्ष खड़े रह जायेंगे। लेकिन यह कोई अंतिम उसे स्वीकार कर लेता है और यात्रा जारी रखता है। अवस्था नहीं है। यह भी बीच का ही पड़ाव है। जिसने इस है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम-और भीतर खयाल | पतझड़ को भी पूरे भाव से स्वीकार कर लिया, उसके भीतर फिर रखता है कि तेरा अंतिम लक्ष्य और कितनी दूर है? रह-रहके एक और तरह का वसंत उठता है जिसकी कोई पतझड़ नहीं। पछते हैं यह उप्रे-रवा से हम-जाती हई उम्र से पछता रहता है जिसने इस पतझड़ को भी पूरे आत्मभाव से अंगीकार कर लिया, कि और कितनी दूर है? और अपने को सम्हाले रखता है। स्वागत से, और जरा भी ना-नुच न की, इनकार न किया-तप विषाद में नहीं गिरने देता। यही अर्थ रखता है तो उसके जीवन में फिर फूल खिलते हैं। ऐशमा। सुबह होती है रोती है किसलिए वे फूल विराट के हैं। वे फूल परम सागर के हैं, परम सत्य के हैं। थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे। इन्हीं बजते हुए पत्तों से गुलशन फूट निकलेंगे जैसे सुबह होने के करीब है, रात गहरी अंधेरी हो जाती है। बहारों का यह मातम सिर्फ अंजामे-खिजां तक है। सुबह होने के करीब रात सर्वाधिक अंधेरी हो जाती है। वह सुबह | तो तुम ऐसा मत देखना कि त्यागी दखी है। ऊपर से शायद 5071 www.jainelibrar.org Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 जिन सूत्र भाग: 1 दिखायी भी पड़े। तुम ऐसा मत सोचना कि त्यागी दुखवादी है। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। क्योंकि तुम 'जिसे सुख मानते हो उसे वह छोड़ रहा है, तो तुम्हें लगेगा दुखवादी है। लेकिन त्यागी दुखवादी नहीं है। त्यागी ही परम भोग की तरफ जा रहा है। क्योंकि जिसे तुम सुख कहते हो वह सुख नहीं है। जिसे तुम दुख कहते हो वह दुख नहीं है। जिसे तुम सुख कहते हो वह केवल तुम्हारी आकांक्षा है, आशा है, तृष्णा है। हविश को आ गया है गुल खिलाना, जरा ए जिंदगी! दामन बचाना। जिसे तुम सुख कहते हो वह तो केवल हविश है; वह तो एक तृष्णा है, जो कभी भरती नहीं, दुष्पूर है। और जिसे तुम दुख कहते हो, वह तुम्हारे अतीत में चाहे गए सुखों के फल हैं। तो त्यागी वह है जो तुम्हारे सुख को सुख नहीं देखता, सिर्फ तुम्हारा सपना मानता है; और तुम्हारे दुख को वास्तविक मानता है, क्योंकि वह अतीत जन्मों में किये गये कर्मों का फल है। तो तुम्हारे सुख को तो वह बिलकुल छोड़ देता है, क्योंकि कल्पना को छोड़ने में देर क्या लगती है! कल्पना ही है, छोड़ने को कुछ है भी नहीं । कल्पना ही छोड़नी है; थी ही नहीं, सिर्फ विचार था। तो तुम्हारे सुख को तो तत्क्षण छोड़ देता है। जो तुम्हारे सुख को छोड़ देता है, वही संन्यासी है। लेकिन दुख को इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। क्योंकि दुख अब कल्पना नहीं है। तुम्हारी अनंत अनंत कल्पनाओं ने जो घाव तुम पर छोड़ दिये हैं, दुख उनका नाम है। तो दुख को वह स्वीकार करता है। कल्पना का त्याग संन्यास; दुख का स्वीकार संन्यास । सुख तो यूं छूट जाता है क्योंकि सुख है कहां ? छोड़ने योग्य कुछ है ही नहीं, मुट्ठी खाली है। दो पागल बात कर रहे थे - पागलखाने में बैठे। एक पागल ने मुट्ठी बांध ली तो उसने कहा कि अनुमान लगाओ, मेरी मुट्ठी में क्या है ? तो पहले पागल ने कहा कि कुछ थोड़े संकेत तो दो । उसने कहा, कोई संकेत नहीं। तीन मौके तुम्हें। तो पहले पागल ने कहा कि हवाई जहाज। दूसरे पागल ने कहा कि नहीं। तो पहले पागल ने कहा, हाथी । तो दूसरे पागल ने कहा, नहीं। तो पहले पागल ने कहा, रेलगाड़ी। तो उसने कहा, ठहर भाई, जरा मुझे देख लेने दे। उसने धीरे से अपनी मुट्ठी खोलकर देखा और कहा कि मालूम होता है तूने झांक लिया। वहां कुछ है नहीं! न रेलगाड़ी है, न हवाई जहाज, न हाथी है। मुट्ठी खोलने पर मुट्ठी खाली है। अगर मुट्ठी में कुछ है तो वह सिर्फ पागलपन के कारण है। वह पागलपन की धारणा है। तो तुम्हारे सुख को छोड़ने में तो क्षणभर की देर नहीं लगती। सुख है ही नहीं। मुट्ठी खाली है। इसलिए तो लोग मुट्ठी खोलकर नहीं देखते कि कहीं पता न चल जाये कि कुछ भी नहीं है। मुट्ठी बांधे रहो ! कहते हैं, बंधी लाख की ! मैं भी मानता हूं: बंधी लाख की, खुली खाक की ! क्योंकि है ही नहीं कुछ वहां बंधी है, इसलिए लाख मालूम होते हैं। बांधे रखो मुट्ठी, तिजोड़ी पर ताले डाले रखो। खोलकर मत देखना, अन्यथा खाली हाथ पाओगे। तो सुख तो यूं ही छोड़ा जा सकता है। तत्क्षण छोड़ा जा सकता है । जरा-सा साक्षी भाव - सुख गया ! लेकिन दुख ? दुख थोड़ा समय लेगा। अनंत अनंत जन्मों में वह जो गलत गलत धारणाओं के घाव छूट गये हैं, लकीरें छूट गयी हैं...। तो सुख का त्याग और दुख का स्वीकार – यही महावीर का संन्यास है। और इस संन्यास का जो परम फल है, वह अपने आप घटता है। वह परम फल निर्वाण है। वह परम फल सुख नहीं है, पुण्य नहीं है, स्वर्ग नहीं है। वह परम फल मोक्ष है, परम स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का इतना बड़ा उपदेष्टा कभी नहीं हुआ। और भी स्वतंत्रता की बात करनेवाले लोग हुए हैं; लेकिन महावीर की स्वतंत्रता के साथ ऐसी पकड़ है, ऐसी गहरी पकड़ है कि स्वतंत्रता को बचाने के लिए वे परमात्मा तक को स्वतंत्रता की वेदी पर आहुति दे देते हैं। लेकिन स्वतंत्रता की आहुति परमात्मा की वेदी पर नहीं देते। वे कहते हैं, परमात्मा रहेगा तो स्वतंत्रता पूरी न रहेगी। इसलिए परमात्मा नहीं है। स्वतंत्रता परिपूर्ण है। और इस परम स्वतंत्रता को पा लेने की ही सारी दौड़, सारी यात्रा, सारा धर्म, जन्मों-जन्मों के भटकाव ! कैसे इसे हम पायें ? धीरे-धीरे तुम स्वतंत्रता के सूत्रों को अपने जीवन में जगह देने लगो । जो-जो बांधता हो, उस-उससे जागने लगो । पहले पाप जागोगे, क्योंकि वह बांधता है, इस बीच के उपाय में पुण्य का सहारा ले लेना। कहीं तो हाथ रखने के लिए जगह चाहिए। पाप www.jainelibrary:org Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं MINALS से हटोगे तो पुण्य की भूमि चाहिए। उस पर खड़े हो जाना। लेकिन उस पर इतनी ज्यादा देर खड़े मत रहना कि फिर वहां घर बना लो। जैसे ही पाप समाप्त हो जाएं, पुण्य से भी छलांग लगा जाना। तब सब किनारे खो जाते हैं। 'यो वै भूमा. तत्सख'-और तब है सख विराट में। 'नाल्पे सुखमस्ति'-लघु में सुख कहां! 'भूमैव सुख'-उस भूमा में ही सुख है। उस भूमा की ही हम जिज्ञासा करें, उस भूमा को ही हम खोजें! वह भूमा हममें छुपा है। वह स्वतंत्रता हमारा स्वभाव है। आज इतना ही। 509 www.jainelibrar org Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . = Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां प्रवचन मांग नहीं - अहोभाव, अहोगीत Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है हम नहीं आए यहां कोई हमें लाया है किसने नन्हा-सा मुहब्बत का ये जला के दिया दिले-वीरां के अंधेरे पे तरस खाया है। पर दीया तो जलता नजर नहीं आता...? भगवान, तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम ! कल जिस क्षण आपने कहा कि महावीर ने स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, उस क्षण मैं आपको निहारता ही रहा। क्या कर दिया आपने? । मुझे इतना कुछ मिल रहा था कि अंतर में समाता नहींऔर प्यास भी इतनी ही है।...प्रभु! यह सब क्या हो रहा है? www.jainefibrary.org Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्नः तरफ अंधेरा है, अंधेरे में लगा स्वार्थ है। दूसरी-तरफ अंधेरे की बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है तकलीफें हैं। दीये का खयाल पैदा होता है। जब तक तुम अंधेरे हम नहीं आए यहां कोई हमें लाया है के स्वार्थ न तोड़ लोगे, तब तक तुम दीया जला न सकोगे। यह किसने नन्हा-सा मुहब्बत का ये जला के दिया | सीधा गणित है। तो दीये जलाने की तो फिक्र छोड़ो, पहले यह दिले-वीरां के अंधेरे पे तरस खाया है। देख लो कि 'अंधेरे में हमारा स्वार्थ है ? हम अंधेरे को चाहते हैं पर दीया तो जलता नजर नहीं आता...? कि बना रहे? अंधेरे से कुछ मिलने की आशा है? अंधेरे में मन | को लगाया है? भविष्य को अंधेरे में छिपाया है, सपने देखे कविता उधार है। किसी और का दीया जला होगा, उसने गायी हैं?' अगर अंधेरे से कुछ भी मिलने का, कहीं भी थोड़ा-सा है। अपने काव्य को जन्माना होगा। खयाल है तो तुम दीया कैसे जलने दोगे? कोई जला भी दे तो दीया तो सभी का जल सकता है। दीया है तो जलने के लिए उसे बुझा दोगे। जो दीया जलाये वह दुश्मन मालूम होगा। है। दीया है तो जलने की संभावना है। लेकिन कोई दसरा अंधेरे में तम्हारा बडा न्यस्त स्वार्थ है तुम्हारा दीया जला नहीं सकता। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। तुम इसलिए दीया नहीं जल रहा है। तुम्हारे अंधेरे पर कोई कितना न जलाना चाहो तो दीया जलाया नहीं जा सकता और तुम ही तरस खाये, तो भी अगर तुम अंधेरे में रहना चाहते हो तो इस जलाना चाहो तो कोई तुम्हें रोक न सकेगा। तुमने चाहा नहीं है | तरस से कुछ भी न होगा। कि दीया जले। अभी अंधेरे में तुम्हारे बड़े लगाव हैं। महावीर आते हैं, बुद्ध आते हैं, कृष्ण आते हैं, क्राइस्ट आते अकसर मैं लोगों को देखता हूं। वे चाहते हैं, अंधेरा भी बना हैं। तरस की कुछ कमी नहीं है। करुणा बड़ी है। महाकरुणा के रहे और दीया भी जल जाये। ऐसी उलझन है। क्योंकि अंधेरे में स्रोत आते हैं। स्वयं सूर्य तुम्हारे द्वार पर आकर दस्तक देते हैं। बड़े स्वार्थ हैं। लेकिन तुम अपने अंधेरे में छिपे बैठे हो। तुम सोचते हो कि जैसे एक आदमी चोरी करने गया हो, तो कई बार टकरा जाये, प्रकाश भी जल जाये। लेकिन कभी तुमने भीतर का द्वंद्व देखा? दीवाल-दरवाजे से ठोकर खा जाये, तो सोचने लगे मन में कि कि प्रकाश के जलने के साथ ही अंधेरे के सभी स्वार्थ नष्ट-भ्रष्ट दीया होता तो ठीक था लेकिन दीया हो और रोशनी हो जाये तो हो जायेंगे। तो अंधेरे से पाने की तुमने जो-जो आशाएं बांधी हैं, चोरी न कर सकेगा। तो अगर कोई कहे कि यह रहा दीया, लेलो वह सभी धूल-धूसरित हो जायेंगी। उस अंधेरे से भरी आशाओं तो वह कहेगा, पागल तो नहीं समझा है मझे? को ही तो हम संसार कहते हैं।। तो तुम्हारी दिक्कत यह है कि तुम्हारा जीवन दोहरा है। एक तो जब तक संसार में थोड़ा भी ऐसा लग रहा है कि कुछ मिल 516 : Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1 सकता है, मिलेगा--तब तक तुम स्थगित करोगे, दीये को तम्हारे प्रकाश की आकांक्षा अंधेरे के विपरीत नहीं है-अंधेरे जलने न दोगे। तब तक तुम रोशनी से डरोगे। अगर रोशनी आ को छिपाने का उपाय और व्यवस्था है। जाये तो तुम पीठ कर लोगे। तुम हजार तर्क, विचार खोज लोगे तुम प्रकाश का खूब शोरगुल मचाते हो, आंसू बहाते हो, रोशनी से बचने के। तुम कहोगे, यह तो रोशनी आंखों को चिल्लाते हो, 'प्रकाश चाहिए', ताकि सारी दुनिया देख ले कि तिलमिलाती है, कि यह रोशनी तो हमारी सारी व्यवस्था को | अगर अंधेरा है तो तुम जिम्मेवार नहीं हो। तुम तो प्रकाश का डगमगाये देती है, कि यह रोशनी तो असुरक्षित कर देगी। हम कितना गुणगान कर रहे हो। भले, हमारा अंधेरा भला! बर्टेड रसेल ने लिखा है, जगत में बड़ी अजीब विडंबना है: लेकिन बेईमानी ऐसी है कि तुम अगर इसे भी साफ देख लो तो यहां जो आदमी जितना अनैतिक होगा, उतनी ही नीति की चर्चा भी रास्ता बन जाये। तुम साफ कह दो कि 'हम अंधेरे में ही करेगा। क्योंकि नीति की चर्चा से वह एक हवा पैदा करता है, जीयेंगे! बंद करो प्रकाश की बातचीत ! हमें कुछ लेना-देना नहीं जिससे पता चल जाये कि और कोई हो अनैतिक, मैं तो कम से है। लेकिन तुम उतने ईमानदार भी नहीं हो। कम नहीं हूं। जब कोई प्रकाश की बात करता है तो तुम इतने स्पष्ट भी नहीं यहां अभी किसी की जेब कट जाये तो जो आदमी जेब काटे, हो कि कह सको कि 'बंद! यह बात से हमें कुछ लेना-देना नहीं | अगर उसमें थोड़ी भी अकल हो तो उसको बड़ा शोरगुल मचाना है। हम अंधेरे में जीना चाहते हैं और अंधेरे में ही जीयेंगे। और चाहिए कि जेब कट गयी, पकड़ो चोर को। दौड़-धूप करनी अंधेरा हमारा सुख है।' चाहिए। एक बात निश्चित है, उसको कोई भी न पकड़ेगा। यह भी तुम नहीं कह पाते। तुम यह भी दिखलाना चाहते हो क्योंकि उसने अगर चोरी की होती और जेब काटी होता तो वह तो कि तुम प्रकाश के प्रेमी हो। तम यह भी दिखलाना चाहते हो कि | भाग गया होता। वह तो यहां बीच में खड़ा रहेगा। वह तो चोरी तुम शुभ के पक्षपाती हो। के खिलाफ बोलने लगेगा। एक बहरा आदमी रोज सुबह चर्च जाता था। रविवार को वह दो आदमी मछली मार रहे थे। और तभी उस सरोवर का सबसे पहले पहुंच जाता था और पहली पंक्ति में बैठता था। वह निरीक्षक आ गया। एक आदमी भाग खड़ा हुआ। तो वह उसके बज्र बधिर था। उसे न तो प्रवचन में कुछ सुनायी पड़ता न समझ | पीछे भागा। कोई दो मील जाकर हांफते-हांफते उसको पकड़ में आता। न संगीत चर्च में होता, वह उसको सुनायी पड़ता। पाया। और जब पकड़ पाया तो उसने जल्दी से खीसे से एक दिन एक आदमी ने पूछा कि 'तुम इतने जल्दी आते | निकालकर लाइसेंस बता दिया। उसको मछली मारने का हक किसलिए हो? रोज तुम चर्च चले आते हो, मीलों चलकर। था। तो उस आदमी ने कहा कि 'अरे नासमझ! तो फिर भागा तुम्हें कुछ सुनायी तो पड़ता नहीं। न तुम संगीत सुन सकते हो, न क्यों?' तो उसने कहा कि इसीलिए कि दूसरे के पास लाइसेंस तुम प्रवचन सुन सकते हो, तो तुम आते किसलिए हो?' नहीं है। वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा कि मैं जतलाने आता हूं लोग बड़ी होशियारी से चल रहे हैं। कि सारी दुनिया देख ले कि मैं किस पक्ष में हूं। और परमात्मा भी तुम प्रकाश की खूब बातचीत करते हो ताकि एक बात तो नोट कर ले कि मैं कोई सांसारिक आदमी नहीं हूं। धार्मिक हूं! | निश्चित हो जाये कि तुम प्रकाश के आकांक्षी, अभीप्सु! तो तुम्हें तो तुम यह मोह भी नहीं छोड़ पाते कि तुम धार्मिक हो। धर्म के | कोई सोच भी न सकेगा कि तुम और अंधेरे का व्यवसाय करते साथ बड़ी प्रतिष्ठा जुड़ी है। धर्म के साथ बड़ा बल जुड़ा है, होओगे। आसानी से लोग फंस जायेंगे तुम्हारे व्यवसाय में। तुम प्रभुत्व जुड़ा है। वस्तुतः तुम जितने बेईमान होते हो उतने ही जेबें ज्यादा सुगमता से काट सकोगे। बेई धार्मिक दिखलाने की चेष्टा करते हो। क्योंकि बेईमानी को धार्मिक होना जरूरी है। दुकान ठीक चलानी हो तो मंदिर जाना छिपाने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं। प्रकाश की आकांक्षा | जरूरी है। मंदिर जाना दुकान के ठीक चलने का हिस्सा है। करके अंधेरे को ढांकते हो, छिपाते हो। दुकानदार भी खाते-बही लिखता है तो ऊपर लिखता है, 'श्री 516 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं-अहाभाव, अहोगीत ALL गणेशाय नमः' 'लाभ-शुभ।' ईश्वर का स्मरण करके किताब अब मतलब समझे? वे शांति चाहते हैं ताकि ठीक से अशांत बाजार की शुरू करता है। ईश्वर का स्मरण-उस किताब में हो सकें। और अशांति को छोड़ने की तैयारी नहीं है। शांति की सहयोगी होने को! वह यह कह रहा है, 'बाधा मत डालना। हम मांग भी अशांति को ही चलाये रखने के लिए है। तो तुम्हारे भक्त हैं।' तो मैंने उनसे कहा कि फिर कहीं और जाओ, क्योंकि असंभव जैसा मैं देखता हूं, सैकड़ों लोग चाहते हैं ध्यान! लेकिन ध्यान मैं न कर सकूँगा। शांत तुम्हें कोई भी नहीं कर सकता, जब तक जिन शर्तों से घट सकता है, वह शर्ते पूरी करने को राजी नहीं। तुम न समझ लो कि अशांत करने के उपाय बंद करने होंगे। कोई शर्त पूरी करने को राजी नहीं। सिर्फ बेशर्त, मुफ्त! और मैं जहां-जहां से अशांति आती है, वहां-वहां से हाथ खींच लेना तुमसे कहता हूं कि अगर यह संभव होता कि ध्यान मुफ्त दिया होगा। शांति के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता—सिर्फ अशांति जा सकता—चूंकि संभव नहीं है, इसलिए तुम मजे से मांगते से हाथ खींच लेते ही शांति निर्मित हो जाती है। शांति तो अशांति रहते हो। कोई खतरा नहीं है—अगर यह संभव होता कि ध्यान का अभाव है। शांति के लिए सीधा कुछ भी नहीं करना है। मैं तुम्हें उठाकर दे देता, तो मैं जानता हूं तुम मांगते भी नहीं। तुम तुमने अंधेरे में अपनी बड़ी आकांक्षाएं जोड़ रखी हैं, उनको हटा भागते। तुम कहते, 'अभी नहीं! अभी बच्चे बड़े हो रहे हैं। लो! दीया तो जल जायेगा। दीया तो जलने को तत्पर है, अभी थोड़ा और जीवन को सम्हाल लेने दो। अभी ध्यान! अभी प्रतिपल तत्पर है, क्योंकि दीया जलने के लिए है। दीया तो जलने नहीं!' क्योंकि ध्यान कहीं सब अस्त-व्यस्त न कर दे! और की संभावना लेकर आया है और रो रहा है। तुम्हारे दीये से ध्यान महाक्रांति है, अस्त-व्यस्त तो करेगा। | टपकते आंसू मैं देखता हूं कि कब जलाओगे, क्या मुझे ऐसे ही तुम जैसे हो, तुमने उसी ढंग की दुनिया अपने चारों तरफ बना बुझा-बुझा ही विदा कर दोगे? क्योंकि ऐसे ही बहुत जन्मों में ली है। तुम्हारे चारों तरफ तुम्हारी दुनिया है। तुम बदलोगे, तुमने उसे विदा कर दिया। जन्म मिला, लेकिन जीवन न मिला। तुम्हारी दुनिया गिर जायेगी। क्योंकि वह आदमी ही बीच से हट जन्म के साथ ही जीवन थोड़े ही मिलता है! जन्म तो केवल गया जिसकी दुनिया थी। वह केंद्र गिर गया जिसके सहारे चाक संभावना है। जीवन अर्जित करना होता है। जरूरी नहीं है कि घूमता था। एक नयी दुनिया निर्मित होगी। तुम जन्म गये तो तुमने जीवन पा लिया हो। जन्म के साथ तो तो अगर तुम धन की दौड़ में लगे हो तो तुम ध्यान न कर बुझा दीया मिलता है। फिर उसे जलाना पड़ता है। सकोगे। गहन संघर्ष से जीवन की ज्योति प्रगट होती है। जैसे दो एक बड़े राजनीतिज्ञ मेरे पास आते थे। वह मुझसे कहते, कुछ लकड़ियों के घर्षण से आग पैदा हो जाती है, दो पत्थरों के घर्षण शांति का उपाय बताइए। मैंने कहा, अशांति तुम करते हो, शांति से आग पैदा हो जाती है-ऐसे तुम जब जीवन की सारी का उपाय मुझसे पूछते हो? छोड़ो महत्वाकांक्षा! महत्वाकांक्षा चुनौतियों से संघर्ष लेते हो, तब तुम्हारे भीतर का दीया जलता से तो अशांति पैदा होगी। जहां भी रहोगे, पीड़ित और परेशान है। और कोई उपाय नहीं है। उधार जल नहीं सकता। रहोगे। जहां भी रहोगे, असंतुष्ट रहोगे। शांति कैसे होगी? यह कविता किसी और की है। और जरूरी नहीं कि जिसने उन्होंने कहा कि आप वह मत कहिये, मैं तो आपके पास | गायी हो उसका भी दीया जला हो। क्योंकि अकसर तो ऐसा इसीलिए आया कि थोड़ी शांति हो तो थोड़ा ढंग से प्रतिस्पर्धा कर होता है, लोग कविताएं गाकर सोच लेते हैं कि जल गया दीया। सकू। अशांति के कारण प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा हूं। रात नींद जिनके जीवन में प्रेम नहीं है, वे प्रेम के गीत गाकर सांत्वना कर नहीं आती। बेचैनी रहती है। तो मुझसे पीछे आनेवाले लोग लेते हैं। मुख्यमंत्री हो गये और मैं मंत्री-पद पर ही अटका हूं। जितनी मैं बहुत कवियों को जानता हूं। तुम्हारी और उनकी परेशानी में दौड़-धूप वे लोग कर लेते हैं, मैं नहीं कर पाता। इसीलिए तो | मैंने जरा भी भेद नहीं पाया। शायद तुमसे बदतर उनकी परेशानी आपके चरणों में आया हूं कि थोड़ी शांति दो, ताकि दौड़-धूप है। फर्क है तो इतना कि वे सपने सजाने में कुशल हैं। तुम इतने ठीक से कर सकूँ। कशल नहीं हो सपनों को रंग देने में। वे इतने कशल हैं कि बझे 51 - Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 दीये को भी जले दीये की तरह मानकर जी सकते हैं, गीत गुनगुना आदमी जो दूसरे खंभे से बंधा था, उसने कहा, 'इसकी बातों में सकते हैं। मत पड़ना, मैंने इसे कभी भेजा ही नहीं! यह सरासर झूठा है।' अकसर ऐसा होता है : जो तुम्हारे पास नहीं है उसकी सांत्वना लेकिन जो पैगंबर की तरह बंधा था, उसने क्या कहा? वह तुम अनेक रूपों से अपने पास जुटा लेते हो। प्रेम जिसके पास मुस्कुराया। उसने कहा, 'यह तो लिखा ही है शास्त्रों में कि नहीं है, वह प्रेम के बहुत गीत गाकर धीरे-धीरे भरोसा कर लेता उसके पैगंबरों को सदा तकलीफें झेलनी पड़ेंगी। तुम्हारे कोड़ों से है कि प्रेम हो गया। यह बड़ी विडंबना है। प्रेम के गीत जितने कुछ भी सिद्ध नहीं होता है—इतना ही सिद्ध होता है कि शास्त्र लोगों ने गाये हैं उनमें से निन्यानबे ने प्रेम को जाना ही न था। जो | सही हैं।' नहीं जान पाए जीवन में, जो यथार्थतः न घट पाया, उसे उन्होंने पागल आदमी का अर्थ क्या होता है? इतना ही कि जिसने सपनों में घटा लिया। सपने परिपूरक हैं। अब खुली आंख सपने देखने शुरू कर दिये; जो अपने सपनों में आधुनिक मनोविज्ञान इस सत्य को स्वीकार करता है कि सपने भरोसा करने लगा है—इतना कि यथार्थ झूठा पड़ जाता है, सपने परिपूरक हैं। जो तुम जीवन में नहीं कर पाते हो वह तुम सपने में ज्यादा सच मालूम होते हैं। करके अपने को समझा लेते हो। दिन में उपवास करो, रात सपनें | तो तुम्हारे कवि और पागलों में कोई बहुत अंतर नहीं होता है। में भोजन कर लोगे। दिन में ब्रह्मचर्य साधो, रात सपने में सुंदर | कवि थोड़े कुशल पागल हैं, जिनके पास कुछ प्रतिभा है; सुंदर स्त्रियां, सुंदर पुरुष तुम्हारे आसपास नाचने लगेंगे। तुम्हारे गीत रच सकते हैं, कि सुंदर चित्र बना सकते हैं। अकसर तो तुम ऋषि-मुनियों के आसपास अप्सराएं यूं ही नहीं नाची थीं। कोई कवियों के पास मत जाना—उनके गीत का सौंदर्य देखकर, वस्तुतः अप्सराएं कहीं से आती नहीं। किस इंद्र को पड़ी है? | अन्यथा वहां एक कुरूप आदमी पाओगे। गीत को सुन लेना। कहां कौन इंद्र है? वह तो ऋषि-मुनि ने ही जो दबा लिया था, गीत में बड़ा सौंदर्य हो सकता है। कभी-कभी तो बड़ी आकाश दमन कर लिया था; वह जिसको प्रगट नहीं किया था जीवन की ऊंचाई कवि छू लेते हैं। में-वह सन्नाटे में रात के, तंद्रा के क्षण में, निद्रा के क्षण में प्रगट | सपनों को बाधा क्या है? सपनों को कोई सीमा नहीं है। जहां होने लगा। और अगर बहुत दबाया तो आंख बंद करने की भी तक सपना देखना हो, देख सकते हो। न पहाड़ रोकते हैं, न जरूरत नहीं, अप्सरा खली आंख प्रगट हो जायेगी। यह निर्भर | आकाश रोकते हैं। लेकिन सपने तम जो देखते हो वह खबर देते करता है कि तुमने दमन कितना गहरा किया। अगर दमन बहुत | हैं कि जिस चीज की कमी रह गयी, उसको सपने में पूरा कर रहे गहरा कर लिया। इतना गहरा कर लिया कि अब दमन को हो। भिखमंगा सपने देखता है सम्राट होने के। और अकसर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। तो खुली आंख भी तुम सपने सम्राटों ने भिखमंगे होने के सपने देखे। देखे ही नहीं, पूरे किये। देखने लगोगे। खुली आंख और बंद आंख में दमन की गहराई महावीर, बुद्ध सम्राट थे। लेकिन भिखारी होने का सपना पैदा हो का ही फर्क है। तुम बंद आंख से देखते हो। तुमने पागल गया। न केवल सपना देखा, उसे पूरा किया। आदमी देखे? वे खुली आंख से देख रहे हैं। भिखारी सम्राट होने के सपने देखते हैं। जो नहीं हो रहा है, जो एक पागलखाने में एक आदमी दावा करता था कि वह ईश्वर नहीं है पास उसको सपने में देखना पड़ता है। का भेजा हुआ पैगंबर है। जिस मुसलमान खलीफा ने उसे तो जरूरी नहीं है कि जिसने ये पंक्तियां लिखी हों...ये कैदखाने में डलवा दिया था, वह उससे मिलने आया। कहा था | पंक्तियां प्यारी हैं, सार्थक हैं। कि तीन सप्ताह तू फिर से सोच ले। वह जब उससे मिलने आया बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है तो वह एक खंभे से बंधा था। उसको कोड़े मारे गये थे, तीन हम नहीं आये यहां कोई हमें लाया है। सप्ताह भूखा रखा गया था। और जब उसने उस आदमी से पूछा खयाल तो दुरुस्त है। लेकिन यह खयाल ही नहीं है, यह सत्य कि क्या खयाल है, क्या अब भी तेरा खयाल है कि तुझे परमात्मा है। तुम यहां आये कहां? कोई लाया है। तुमने न तो आने का ने पैगंबर बनाकर भेजा है, इसके पहले कि वह बोले, एक दूसरा निर्णय किया था, न तुमने आने की आकांक्षा की थी। न तुमसे 518 Jait Education International Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत किसी ने पूछा था कि तुम संसार जाना चाहते, जीवन में उतरना। नाटकीय ढंग से घुसा मारकर टेबल पर कहा कि अगर ईश्वर हो चाहते? कोई तुम्हें उतार गया है। एक दिन अचानक तुमने तो मैं चुनौती देता हूं, इसी वक्त अपने किसी देवदूत को भेजो जागकर पाया कि तुम यहां हो। हमने सदा अपने को जिंदगी के | ताकि मुझे एक चांटा मारे-चांटा सुना जा सके, देखा जा सके। बीच में पाया है। जिंदगी के प्रारंभ में तो किसी ने नहीं पाया। ऐसे कोई देवदूत तो आते नहीं, ईश्वर ऐसी चुनौतियां लेता नहीं। जरूर कोई लाया है। कोई आंख पर पट्टियां बांधकर इस बगीचे ऐसा ले तो मुश्किल में पड़ जाये। इतने लोग हैं, इतनी चुनौतियां में छोड़ गया है। हैं। लेकिन एक आदमी बीच में से उठा, उसने आकर एक चांटा बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है। मारा। उसने कहा, यह क्या करते हो? उसने कहा कि ईश्वर ने हम नहीं आये यहां, कोई हमें लाया है। मुझे भेजा है। ईश्वर ने कहा कि तुम इस योग्य नहीं कि देवदूत और अगर यह खयाल ही रहा तो ज्यादा देर न टिकेगा, चला भेजे जायें, मैं ही काफी हूं। जायेगा। खयाल आते हैं, जाते हैं। खयाल बसते थोड़े ही हैं। मकान तुमसे बनवा लेता है। दुकान तुमसे चलवा लेता है। खयाल का कोई बड़ा भरोसा थोड़े ही है! जब तक कि यह काम तुमसे हजार करवा लेता है। लेकिन तुमको ही जब उसने खयाल ध्यान न बन जाये, तब तक इस पर भरोसा मत करना। बनाया और तुम्हारी नियति में, तुम्हारी प्रकृति में बीज डाले यह तो आयी है तरंग, चली जायेगी। अभी आयी है, अभी भूल वासनाओं के, इच्छाओं के। उन्हीं इच्छाओं के बीजों का फिर जाओगे। क्षणभर में उतर जायेगा खयाल। रूपांतरण होता है, वृक्ष बनते हैं। जिस दिन यह खयाल ध्यान बन जाये, यह तुम्हारी स्थिर चित्त | तम जरा पक्षियों को देखो? उन्होंने तो कोई आर्किटेक्चर का की भाव-दशा बन जाये कि कोई लाया है-क्या परिणाम | कोई शिक्षण नहीं लिया। कैसे प्यारे घोंसले बना लेते हैं। ऐसे भी होंगे? परिणाम बड़े दरगामी होंगे। अगर कोई लाया है तो पक्षी हैं कि उनको जन्म देने के बाद माता और पिता तो उड़ जाते तुम्हारे अहंकार के लिए कोई जगह न रह जायेगी। जन्म किसी ने हैं। अंडा ही छोड़कर उड़ जाते हैं। अंडा बाद में फूटता है। तो दिया, जीवन किसी ने दिया। तुम क्यों अकड़े फिरते हो? तुम पक्षियों को अपने मां-बाप से मिलने का मौका भी नहीं आता। नाहक बोझ ढो रहे हो इस 'मैं' का। न तुम आये, न तुम हो, न इसलिए शिक्षण का कोई उपाय भी नहीं है, कोई स्कल नहीं। तम जाओगे। कोई लाया. कोई रखे है, कोई ले जायेगा। लेकिन जब वे पक्षी बड़े होते हैं, फिर घोंसला बनाते हैं। और हिंदू पुराण बड़ी मधुर कथा कहते हैं। जो लाया वह ब्रह्मा। जो घोंसला ठीक वैसा ही होता है जैसा उनके मां-बाप ने बनाया सम्हाले वह विष्णु। जो ले जायेगा वह शिव। तुम पर कुछ था। वे भी उड़ जायेंगे अंडे को रखकर। अंडा फूटेगा तब छोड़ते नहीं। काम ही नहीं छोड़ते कुछ। ब्रह्मा ले आया है, विष्णु । मां-बाप पास न होंगे। पुनः सदियों-सदियों अनंत काल तक सम्हाले हैं, शिव ले जायेंगे। मतलब केवल इतना है कि विराट ने ऐसा सिलसिला चलता रहेगा। तुम में एक तरंग ली है। वैज्ञानिक बड़े चकित थे कि यह घोंसला बन कैसे जाता है! वही विराट जब चाहेगा तो तरंग समा जायेगी। और घोंसला कोई छोटी प्रक्रिया नहीं है। एक पक्षी का घोंसला तुम अपने को बीच में मत लाओ। जब इतनी विराट चीजें भी | उतारकर बनाने की कोशिश करो। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ तुम्हारे बिना हो गयीं, तो तुम छोटी-छोटी बातों का हिसाब मत जाओगे। तिनकों से, धागों से, पंखों से पक्षी ऐसे सुंदर घोंसले रखो कि मैंने मकान बनाया है। जब तुमने अपने को ही नहीं बनाते हैं। कभी-कभी तो बड़े जटिल घोंसले बनाते हैं। बनाया है तो तुम मकान भी क्या बनाओगे? यह तो जिसने तुम्हें कोई बनवा लेता है! जिसने पक्षियों को बनाया है, उसी ने बनाया है, उसी ने बनवा लिया होगा। उसी ने तुमसे यह मकान शायद पक्षियों के द्वारा घोंसले बनाने की योजना भी उनके भीतर भी बनवा लिया होगा। कर रखी है। बिना शिक्षण के करवा लेता है। एक कहानी मैं पढ़ रहा था। एक नास्तिक बोल रहा था। तुम कहते हो मैंने प्रेम किया, कि मैं एक स्त्री के प्रेम में गिर ईश्वर के विपरीत प्रमाण दे रहा था। और अंततः उसने बड़े गया। यह तुमने किया? या कि जिसने तुम्हें जन्म दिया, उसने 519 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 ही यह प्रेम भी तुम्हें दिया? | तुम पाओगेः सब कविताएं फीकी हैं। जीवन को थोड़ा परखो! फिर से छानो! फिर से विश्लेषण __ जिस दिन तुम्हारा जीवन गीत गुनगुनाएगा, उस दिन तुम करो। तुम पाओगे: कोई करवा रहा है। पाओगे : सब कविताएं कूड़ा-कर्कट हैं। यह खयाल तो बड़ा अच्छा है अगर ध्यान बन जाये। और और घबड़ाना मत! ध्यान से मेरा अर्थ है, अगर यह खयाल स्थिर भाव बन जाये, | दीया अगर बुझा है तो इसे इस तरह देखना कि यह जलने के तुम्हारा बोध बन जाये। लिए प्रतीक्षा है। बुझे को निराशा मत बना लेना। ऐसा मत बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है, सोचना : 'अब क्या करें? अंधेरा सघन है। दीया बुझा है।' हम नहीं आये यहां, कोई हमें लाया है! हाथ-पैर रोककर गिर मत पड़ना। थक मत जाना! इतने पर ही सारा धर्म पूरा हो जाता है-अगर तुम्हें ये समझ में हम जिसको मौत समझते हैं पैगामे-हयाते-जदीद है वोह आ जाये कि कोई हमें लाया है: कोई हमें ले जायेगा: कोई हमारे । ये फूल चमन में जितने हैं, फिर खिलने को मझाते हैं। भीतर श्वास ले रहा है। कोई हमारे भीतर जी रहा है। तो तुम जिसको हम मौत कहते हैं, वह भी मौत नहीं। वह भी नये अकर्ता भाव को उपलब्ध हो गये। फिर तुम कर्ता नहीं हो। | जीवन का संदेश है। और जब तुम कर्ता नहीं हो तो तुम्हारी सारी जीवन-ऊर्जा साक्षी ___ हम जिसको मौत समझते हैं, पैगामे-हयाते-जदीद है वोह बन जायेगी। कर्ता में नियोजित है जीवन-ऊर्जा, करने में लगी ये फूल चमन में जितने हैं, फिर खिलने को मुहते हैं। है। अगर करने से तुम्हारा हाथ अलग हो जाये ऐसा नहीं कि कर्म जो फूल मुझ गया, उसमें तुम नये खिलनेवाले फूल की छवि बंद हो जायेगा; कर्म तो चलेगा-और सुडौल चलेगा; और देखना। यहां सब फिर से खिलने को मुाता है। अगर दीया शुभ चलेगा। भूल-चूक कम हो जायेगी, क्योंकि तुम्हारे कारण | बुझा है तो जलने को ही प्रतीक्षा कर रहा है कि जले।। जो बाधा पड़ती थी वह भी मिट जायेगी। अबाध उसकी धारा इसे निराश होने का कारण मत बना लेना। वस्तुतः यही तो तुमसे बहने लगेगी। कर्म तो चलता रहेगा। वह तो उस आशा की किरण है, कि तुम्हारा दीया अभी बुझा है। जल सकता चलानेवाले पर है। वह तो पूर्ण पर है। लेकिन तुम, तुम्हारी ऊर्जा है। कुछ होने को बाकी है। यही तो आशा की किरण है कि सब बचेगी। वही ऊर्जा संगृहीत होकर साक्षी-भाव बनती है। वही हो नहीं गया है। जो हुआ है वह क्षुद्र है। जो नहीं हुआ है वह ऊर्जा समाधि बनती है। विराट है। वह विराट अभी प्रतीक्षा कर रहा है। वह होने को है। किसने नन्हा-सा मुहब्बत का ये जलाकर दिया यही तो जीवन की संभावना, उत्फुल्लता है, प्रसाद है, कि कुछ दिले-वीरां के अंधेरे पे तरस खाया है। होने को है। और वही ऊर्जा, वही समाधि दीया बनेगी। वही जलेगी तो तुम तो पैर में तुम घुघर बांध सकते हो और नाच सकते हो। और प्रकाशित होओगे। जब तक ध्यान की ज्योति न जले भीतर, तुम जो होने को है वह सबसे बड़ा है। जो हो चुका है, जो हुआ है प्रकाशित न हो सकोगे। और ध्यान की ज्योति बाहर से भीतर जन्म, जो हुआ है देह का मिलना, जो हुआ है धन-संपत्ति, नहीं डाली जा सकती-अंतर्तम में ही खिलती है। पद-प्रतिष्ठा-वह सब छोटा है। जो होने को है-ध्यान, जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं तो वृक्ष में रसधार बहती है-उसी समाधि, मोक्ष-वह विराट है। जो हुआ है वह ना-कुछ है। जो रसधार के आखिरी छोर पर रंगीन फूलों का जन्म होता है। ऐसे होने को है वह सब कुछ है। इसे आशा का संचार समझना। इसे ही तुम्हारे जीवन के वृक्ष में रसधार बह रही है। वही रसधार जब | समझना जीवन का संदेश। कती है, समाधि के फल खिलते हैं। तब तुम्हारे और एक बार तुम्हारे भीतर आशा पैदा हो जाये और तम भीतर दीया जलेगा। | निराश न रह जाओ, हताश न बैठ जाओ, तुम्हारी जीवन ऊर्जा कविताओं को गुनगुनाकर भूल में मत पड़ जाना। कविताएं उठ बैठे, आशा से भरपूर-तो रसधार बहने लगी! फूल प्यारी हैं। लेकिन जब तुम्हारा जीवन का काव्य निर्मित होगा तब खिलेंगे। दीये भी जलेंगे। 520 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत. यह तेरा तसव्वुर है या तेरी तमन्नाएं कठिन होगा। संघर्षण होगा। लेकिन उसी संघर्षण में तुम दिल में कोई रह-रहके दीपक-से जलाए है। जागोगे, आंख खुलेगी। यह तेरा तसव्वुर है या तेरी तमन्नाएं और अच्छा है कि आंख खुलते-खलते ही दीया भी जले। दिल में कोई रह रहके दीपके-से जलाए है। कोई दूसरा जला दे दीया तो तुम आंख न खोलोगे। जरा तुम्हारे भीतर आशा उठे तो उसका तसव्वुर, उसकी । ऐसा मैंने सुना है, एक पुरानी चीनी कथा है, एक किसान ने तमन्ना, उसकी खोज के लिए पैर आगे बढ़ने लगे। उसकी खोज । परमात्मा से बड़े दिनों तक प्रार्थना की कि 'हे प्रभु! तुझे करनी है जिसने तुम्हें भेजा है। उसकी खोज करनी है जहां से तुम खेती-बाड़ी का कुछ पता नहीं। जब पानी चाहिए तब पानी नहीं; आये हो। अगर हिंदुओं की भाषा का उपयोग करना हो तो कहोः जब पानी नहीं चाहिए, तब बेतहाशा पानी! बाढ़ भेज देता है! उसकी खोज करनी है, जिसने तुम्हें भेजा है। अगर जैनों की भाषा तुझे कुछ समझ नहीं। तूने कभी खेती-बाड़ी नहीं की। ओलों की का उपयोग करना है तो कहो : उसकी खोज करनी है, जहां से तुम क्या जरूरत है ? जब धूप चाहिए तब धूप नहीं।' आये हो। मूल-स्रोत की! जीवन के मूल-बिंदु की, जहां से आखिर परेशान हो गया परमात्मा भी सुन-सुनकर। उसने सारा विस्तार हुआ है। | कहा, 'आखिर तू चाहता क्या है?' उस किसान ने कहा कि जरा-सा भी तुम्हारे भीतर उसकी खोज का अंकुर पड़ | एक साल मुझे मौका दें। आखिर जिंदगी हो गयी खेती-बाड़ी जाये-दिल में कोई रह-रहकर दीपक-से जलाए है। तो करते हुए। मुझे पता है, तूने कभी खेती-बाड़ी की भी नहीं। एक पल-पल दीये पर दीये, दीयों की पंक्तियां, दीप-मालाएं जल साल जो मैं चाहूं, वैसा हो।' उठेगी। तुम्हारा रास्ता ज्योतिर्मय हो जायेगा। परमात्मा ने कहा, 'चल यही सही।' लेकिन इस ज्योतिर्मय के पहले जोखिम उठानी पड़ेगी। अगर एक साल ऐसा हुआ कि किसान जब धूप चाहता तब धूप; जोखिम न उठायी तो कवि रह जाओगे; अगर जोखिम उठायी तो जब पानी चाहता तब पानी। बड़ी फसल उठी। ऐसी कभी न ऋषि हो जाओगे। जोखिम उठानी पड़ेगी। जोखिम है उस सब उठी थी। गेहूं की बालें इतनी बड़ी-बड़ी हुईं कि किसान ने कहा, को खोने की, जो अंधेरे में ही मिलता है और अंधेरे में ही मिल 'अब देखो! सालभर के बाद दिखलाऊंगा कि क्या तुम अब सकता है। अंधेरे के सारे के सारे व्यवसाय को खोने की जोखिम | तक परेशान करते रहे संसार को!' आदमियों के सिरों के ऊपर शर्त है-दीये के जलने की। चली गयीं। फिर वक्त आया फसल काटने का। फसल काटी दीया जल सकता है। कीमत चुकाने को राजी हो जाओ। मुफ्त गयी। बालें तो बहुत बड़ी-बड़ी थीं, लेकिन गेहूं उनमें न थे। वह वह दीया नहीं जलेगा। और अच्छा है कि मुफ्त नहीं जलता। किसान बड़ा हैरान हुआ कि यह मामला क्या हुआ! उसने प्रभु क्योंकि मुफ्त जल जाता तो कोई रस न होता। मुफ्त जल जाता | को कहा, 'हे प्रभु! समझे नहीं-धूप जब चाहिए तब धूप दी। तो तुम धन्यवाद भी अनुभव न करते। मुफ्त जल जाता तो तुम वर्षा जब चाहिए तब वर्षा दी। वर्षभर ठीक मेरे हिसाब से सब प्रौढ़ ही न हो पाते। मुफ्त जल जाता तो तुम जाग ही न पाते। तो चला। और बालें इतनी ऊंची गयीं, कभी न गयी थीं। किसी ने दीया भी जलता रहता और तम कमरे में अंधेरे में ही रहते। तम देखी न थीं इतनी ऊंची बालें। लेकिन मामला क्या है? अंदर आंख बंद किये सोये रहते। | कोई गेहूं नहीं है! दीये के जलने से ही थोड़े ही रोशनी हो जाती है-आंख भी तो तो परमात्मा हंसा और उसने कहा, 'तूने सिर्फ धूप मांगी, पानी खुली होनी चाहिए। सूरज भी निकल आये और तुम आंख बंद मांगा, ओले नहीं मांगे, तूफान नहीं मांगा, आंधी नहीं मांगी। किये पड़े रहो तो तुम अंधेरे में रहोगे। छोटी-सी दो पलकें इतने | आंधी और तूफान के बिना भीतर का सत्व संगृहीत नहीं होता। बड़े सूरज को नकार देती हैं। तो बालें बड़ी हो गयीं लेकिन भीतर प्राण संग्रहीत न हुए।' तो चनौती स्वीकार करो! दीया जल सकता है-इस आशा से संघर्ष के बिना कहीं प्राण संगृहीत हुए हैं? उद्वेलित होओ। उठो! तो अगर तुम्हें मुफ्त मिल जाता होता भीतर का दीया भी तो 5211 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 जिन सूत्र भाग: 1 तुम्हारे भीतर आत्मा पैदा न होती। तुम बाल हो जाते बड़ी लंबी, प्रणाम । यह भी पहली दफे कहा है। मगर भीतर गेहूं का दाना न होता । इस जीवन में जैसा है, सब वैसा ही जरूरी है। जो चेष्टा से मिलना चाहिए, वह चेष्टा से ही मिलता है। क्योंकि बिना चेष्टा के वह मिल ही नहीं सकता; वह पैदा ही नहीं होता; तुम्हारी पात्रता ही निर्मित नहीं होती। दूसरा प्रश्न : भगवान, तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम ! 'दर्शन' ने पूछा है। प्रश्न तो है ही नहीं। 'दर्शन' की वृत्ति भी प्रश्न पूछने की नहीं हृदय का है। है। उसने सिर्फ अपना अहोभाव प्रगट किया है। इसे समझना । जो पूछते हैं, जरूरी नहीं कि समझ पायेंगे। पूछने के कारण ही बहुत बार तुम समझने से वंचित रह जाते हो। क्योंकि जब तुम पूछते हो तो प्रश्न को तुम इतना इतना भारी समझ लेते हो, और तुम प्रश्न में इतने व्यस्त हो जाते हो कि उत्तर के लिए जगह ही नहीं मिलती तुम्हारे भीतर प्रवेश पाने की । तुम उत्तर के लिए दरवाजा नहीं छोड़ते। समझ तो वे ही सकते हैं जो पूछते नहीं । न पूछना ठीक-ठीक उत्तर को समझ लेने का अनिवार्य चरण है। तो 'दर्शन' ने न तो कभी कुछ पूछा है— सिर्फ एक बार को छोड़कर। पहली बार जब वह मुझे मिलने आयी थी, वर्षों पहले, तब विवाद करने आयी थी। कोई बात उसे जंची न थी तो तर्क करने आयी थी। मैंने उसी दिन देख लिया था कि वह उलझ गयी, अब लौट न सकेगी। आयी थी तर्क करने, रह गयी सदा को। उसके बाद उसने कभी कुछ पूछा नहीं। वर्षों बीत गये। और इन वर्षों में बहुत लोग आये गये, वह फिर मेरे साथ रही। रास्ता ऊबड़-खाबड़ था तो भी; कंटकाकीर्ण था तो भी। अब तो मैं धीरे-धीरे आश्वस्त हो गया हूं कि लौटकर पीछे देखूंगा तो कोई भी न हो, तो भी 'दर्शन' होगी। वह छाया की तरह पीछे रही है। पहले ही दिन विवाद उसने छोड़ दिया। संवाद शुरू होता है तभी, जब हम विवाद छोड़ते हैं। उत्तर पहुंचने लगता है तभी जब हम प्रश्न छोड़ देते हैं। उसने कुछ पूछा नहीं, इतना सिर्फ कहा है, तुम्हारे चरणों में शत-शत नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत नहीं मगर जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम ? - प्रेम कोई छिपाने की बात नहीं । नागुफ्तनी हदीसे - मुहब्बत नहीं मगर - प्रेम कोई न कहने की बात नहीं। जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम ? लेकिन जो दिल की बात है उसे कैसे जबान से कहा जाये ! कहना भी चाहें तो भी कही नहीं जा सकती। जो भी कहा जा सकता है, वह बुद्धि का होता है। जो नहीं कहा जा सकता, वही तो उसे मैंने रोते देखा है, हंसते देखा है; प्रसन्न देखा है, उदास देखा है। लेकिन कभी उसने कुछ कहा नहीं। इस न कहने के कारण उसे बहुत कुछ मिला है, जो उनको नहीं मिल पाया जो बहुत कहने में लगे हैं। लेकिन, फिर भी खामोश भी रहो, चुप भी रहो तो भी हृदय कुछ कहना चाहता है। नहीं कह सकता, असमर्थ पाता है फिर भी कुछ कहना चाहता है। कहने में, अभिव्यक्त होने में संबंधित होना चाहता है। मैं हजार जब्त करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या ? कि दयारे-नाजे - हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है। उस प्रेमी के दरबार में, उस प्रेमी की महफिल में, मैं हजार जब्त करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या न कहो, सम्हालो तो भी : दयारे-नाजे - हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है। लेकिन चुप रहना भी तो अभिव्यक्ति हो जाती है । न कुछ कहकर भी तो कुछ कह दिया जाता है। मौन भी तो अपनी एक मुखरता रखता है। तो यद्यपि 'दर्शन' ने कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन बहुत कुछ वह कहती रही है - अपनी चुप्पी से, अपने शांत मौन से । अनेक बार मैंने उससे पूछा भी है, लेकिन फिर भी वह बचा गयी, उसने कुछ कहा नहीं है। ऐसी भाव दशा जल्दी ही परम फूलों को उपलब्ध होती है। और आज उसने पहली दफा लिखा है। एक बार और उसने पत्र लिखा था - वह भी खाली कागज भेजा था; उसमें कुछ लिखा नहीं था। उत्तर मैं उसका भी दिया था। क्योंकि खाली कागज में Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत भी तो कोई बड़ी अंतर्तम से उठी हुई प्रश्नावली है। कुछ जो नहीं प्रिय को देखना रह गया हो। कहा जा सकता, जिसे शायद वह खुद भी नहीं तय कर पाती कि हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बा, कैसे कहें, उसको खाली कागज में लिखकर भेज दिया है। अपने | कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए। शून्य को! आज उसने धन्यवाद दिया है। कुछ लिखा है। तुम्हारे उसे मैंने 'दर्शन' नाम दिया है। 'दर्शन' का अर्थ होता है: चरणों में शत-शत प्रणाम। उसके भीतर कुछ हो रहा है, वह 'हसरते-दीदार'; देखने की अभिलाषा। और उसकी देखने की बड़ी पीड़ा से गुजर रही है। पुराना संसार टूट रहा है। नये का अभिलाषा गहन होती चली गयी है। अब तो यहां बैठती भी है अभ्युदय हो रहा है। इन पीड़ा के क्षणों में अत्यंत जरूरी है कि तो आंखें बंद करके ही बैठती है। जैसे-जैसे देखने की अभिलाषा वह जो होने जा रहा है, उसके प्रति अहोभाव से भरी रहे। गहन होती है, वैसे-वैसे आंख भी बंद होने लगती है। क्योंकि अन्यथा, पुराना संसार काफी वजनी है! उसका जाल-जंजाल | आंख से तो वही देखा जा सकता है जो रूप है, आकार है, नाम गहरा है। उसमें बार-बार उतर जाने की, उलझ जाने की है। आंख बंद करके उसे देखा जा सकता है जो अरूप है, संभावना है! लेकिन उसके सौभाग्य से वह जाल खुद ही टूटा निराकार है, अनाम है। जा रहा है। वह जाल खुद ही पीछे हटा जा रहा है। हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बा, सदा ही ऐसा होता है। जिस दिन तुम तैयार हो, उसी दिन कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए। संसार तुम्हें छोड़ने को तैयार हो जाता है। तुम लाख कहते हो कि और 'दर्शन' की जिंदगी अब उस दिशा में प्रवाहित हो रही है, क्या करें, कैसे छोड़ें, संसार नहीं छोड़ रहा है। गलत कहते हो। | उसकी नाव, जहां उस परम प्यारे के सिवाय कोई और न बचेगा। जिस दिन तुम छोड़ना चाहते हो, उस दिन संसार क्षणभर को नहीं कठिन होगी यात्रा! सब छूटेगा। लेकिन सब छूटने के मूल्य पकड़ता है, क्योंकि संसार ने तुम्हें कभी पकड़ा ही न था। इधर पर ही सब मिलता है। एक ही बात खयाल रखनातुम छोड़ने लगे, उधर संसार अपने आप छोड़ने लगता है। हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल ऐसी ही घड़ी से वह गुजर रही है। ऐसी घड़ी में प्रणाम करने का जहां वह हुस्न-लामहदूद हो, ऐ दिल! वहीं ले चल। खयाल, सौभाग्य है क्योंकि ऐसे समय में तो शिकायत करने का -जहां वह परम सौंदर्य हो, अब वहीं चलेंगे! मन होता है। अगर वह शिकायत लिख भेजती आज तो मैं हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल समझता कि ठीक था, तर्कयुक्त था; क्योंकि पीड़ा से गुजर रही -मंदिर हो, मस्जिद हो, काबा हो, काशी हो, कुछ भी हो। है, घनी पीड़ा से गुजर रही है। आज वह मुझ पर नाराज होती तो हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल समझ में आनेवाली बात थी। क्योंकि यह बिलकुल स्वाभाविक जहां वह हुस्न-लामहदूद हो, ऐ दिल! वहीं ले चल! है कि जब पीड़ा से कोई गुजरे तो कहीं न कहीं, किसी न किसी को जहां वह असीम सौंदर्य हो! जहां उस परम प्रिय का दर्शन हो! दोष दे। और मुझसे ज्यादा करीब उसके कोई भी नहीं। तो जो भी उसके लिए सब निछावर करने की तैयारी रखना। वह करीब हो, उसी को हम दोष देते हैं। . | आखिरी दम तक परीक्षा लेता है। वह आखिरी-आखिरी घड़ी आज इस दुख की घड़ी में स्वाभाविक था कि वह कहती कि | तक परीक्षा लेता है। आखिरी-आखिरी घड़ी तक पीड़ा देता है! 'तुम्हीं' ने सब खराब कर दिया। सब उजड़ गया! सब धागे | लेकिन जो उस पीड़ा से गुजर जाता है, वह उस महापात्रता को टे जा रहे हैं। लेकिन इस घड़ी में उसका चरणों में प्रणाम भेजना उपलब्ध हो जाता है-जहां तुम्हें परमात्मा को खोजने नहीं जाना बहुत बहुमूल्य है। इस किरण के सहारे ही वह पार हो जायेगी। पड़ता, परमात्मा तुम्हें खोजता आता है! हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बा, और अगर, अहोभाव हो तो घड़ी दूर नहीं। शिकायत से लोग कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए। दूर होते हैं परमात्मा से; धन्यवाद से पास होते हैं। जितना हजारों सूरज भी उसकी आंखों पर कुर्बान हैं; उसकी देखने की धन्यवाद गहन होता जाता है उतनी दूरी कम होती जाती है। अगर अभिलाषा पर कुर्बान हैं जिसके जीवन का लक्ष्य ही उस परम | अहोभाव परिपूर्ण हो जाये तो दूरी समाप्त हो जाती है। अहोभाव 523 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सुत्र भागः1 - के क्षण में अचानक तुम पाते हो वही है मौजूद! उसने ही तुम्हें लग जायेंगे। सब तरफ से घेरा है। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं। 'दर्शन' वहां है जहां सम्हालकर चलना होगा प्रतिपल। और उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है! रोज-रोज सम्हालने को ज्यादा सम्हालना होगा। ज्यादा गुल में, शफक में, दामने-अब्रे-बहार में सावधानी, सावचेती। देखा जो मैंने आए नजर तुम जगह-जगह। इन पीड़ा के क्षणों को अगर ठीक से पार कर लिया तो मंदिर संध्या की लाली में देखा, कि वसंतों की वर्षा में देखा! ज्यादा दूर नहीं है, पास ही है-कुहासे में ढंका है। गुल में, शफक में, दामने-अब्रे-बहार में देखा जो मैंने आए नजर तुम जगह-जगह। तीसरा प्रश्न : कल जिस क्षण आपने कहा कि 'महावीर ने वही दिखायी पड़ने लगेगा। ऐसा अहोभाव हो कि कहीं मन के स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, वह मूल्य किसी और ने कोने-कातर में भी सरकती कोई शिकायत न रह जाये, उसके | नहीं दिया' उस क्षण मैं आपको निहारता ही रहा। क्या कर दुख भी स्वीकार हों, उसकी पीड़ा भी स्वीकार हो। उसने दी दिया आपने? मैं अपनी अभव्यता देखता रहूं, अल्पता देखता पीड़ा, इस योग्य समझा। यही क्या कम है! ऐसे भाव में मंदिर | रहूं, और आपको निहारता रहूं, शीश नवाता रहूं! निर्मित होता है। ऐसे भाव की दशा में भक्त निर्मित होता है। और 'दर्शन' जल्दी ही उस दशा को उपलब्ध हो सकती है। सुना यदि शांत मन से तो कभी-कभी ऐसे झरोखे खुलेंगे। लेकिन जितने हम करीब पहुंचते हैं, उतना ही खतरा भी बढ़ता महावीर ने तो कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन ले तो मात्र है। जो जमीन पर चलते हैं, समतल जमीन पर, उनके गिरने का | श्रवण से भी पार हो जाता है। इसलिए महावीर ने कहा कि मेरे कोई भी डर नहीं। लेकिन जो पहाड़ की ऊंचाइयों पर चढ़ते हैं, | चार तीर्थ हैं, चार घाट हैं जिनसे लोग उस पार जा सकते हैं: गिरने का डर भी उसी के साथ-साथ बढ़ता जाता है। गिरे तो बुरी | श्रावक, श्राविका, साध्वी, साधू।। तरह गिरेंगे। इसलिए जितनी ऊंचाई आती है, उतने ही | । श्रावक-श्राविका का अर्थ होता है। जिन्होंने ठीक से सना, सम्हलकर और सावधान होकर चलने के क्षण आते हैं। जमीन श्रवण किया। सिर्फ सुनकर कोई पार जा सकता है? निश्चित पर गिरे भी तो क्या गिरे, फिर उठकर खड़े हो जायेंगे। ही। लेकिन सिर्फ सुनने को कोई छोटी घटना मत समझना। मैंने सुना है, बायजीद एक गांव के पास से गुजर रहा था। सिर्फ सुनना बड़ी घटना है—करने से भी बड़ी घटना है। करना उसने एक शराबी को देखा, जो डगमगाता चल रहा था! | तो आसान है, सुनना कठिन है। क्योंकि ठीक सुनने का अर्थ है : बायजीद ने उसे पकड़ा और कहा कि, 'सुन पागल! कितनी पी | जब तुम्हारे भीतर कोई विचार की तरंग न हो; तभी तुम वह सुन रखी है? कुछ होश सम्हाल! गिर पड़ेगा तो कीचड़ मची है, पाओगे जो कहा जा रहा है। अगर विचारों की तरंगें हैं तो तुम सब कपड़े खराब हो जायेंगे।' वही सुन लोगे जो तुम्हारी विचार की तरंगें व्याख्या करेंगी। उस शराबी ने आंख खोली और हंसने लगा। उसने कहा, मैं यहां बोल रहा हूं। तुम वहां सोच भी रहे हो। तो मिश्रित 'बायजीद! हम अगर गिरे तो कपड़े ही खराब होंगे; तुम अगर | होगा सुनना। मेरे कहे पर तुम्हारे विचारों की खोल चढ़ जायेगी। गिरे तो...?' मेरे कहे पर तुम्हारे विचारों का रंग बिखर जायेगा। तुम वही बायजीद बड़ा सूफी फकीर था, बड़ा संत था। समझ लोगे जो तुम समझ सकते थे; वह नहीं जो मैंने कहा था। 'तुम अगर गिरे तो?' तो कभी-कभी ऐसी घड़ी घटेगी सुनते-सुनते कि तुम उस तो कहते हैं, बायजीद ने उसके चरण छुए और कहा कि ठीक जगह पहुंच जाओगे जिसको महावीर श्रावक का तीर्थ कहते हैं। समय पर तूने मुझे चेताया। अगर हम गिरे तो कपड़े तो दूर, श्रवण के घाट पर पहुंच जाओगे! अचानक! तब क्या मैं कह आत्मा तक खराब हो जायेगी। तू गिरा तो सुबह नहा-धोकर रहा हूं, यह सवाल नहीं है कोई भी शब्द, भाव-भंगिमा मात्र, ठीक हो जायेगा, यह भी सच है। अगर हम गिरे तो जन्म-जन्म तुम्हारे भीतर कोई झरोखा खोल देगी! कोई द्वार जो बंद पड़ा था 524 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत जन्मों से, हवा के एक झोंके में खुल जायेगा! कोई दृश्य जो तुमने बच्चा मृत होगा या अर्ध-जीवित होगा। कभी न देखा था, दिखायी पड़ जायेगा। ऐसा ही कुछ हुआ है! | तो जो भी यहां घटेगा मेरे निकट तुम्हारे भीतर, तुम उसे घटने दे 'कल जिस क्षण आपने कहा, महावीर ने स्वाधीनता को रहे हो-इतना याद रखना। भूलकर भी यह मत सोचना कि मैंने आत्यंतिक मूल्य दिया, वह किसी और ने नहीं दिया, उस क्षण मैं | कुछ किया। तुमने कुछ होने दिया। अगर यह तुम्हें खयाल रहे आपको निहारता ही रहा। क्या कर दिया आपने?' तो तुम मालिक रहोगे। तुम जब होने देना चाहोगे तभी हो मैंने कुछ भी नहीं किया। मेरे किये क्या हो सकता है? तुमने | जायेगा। अगर तुम सतत होने देना चाहोगे तो सतत होता रहेगा। कुछ होने दिया। मैंने कुछ किया नहीं। तुमने कुछ होने दिया। लेकिन मालकियत मेरे हाथ में मत दे देना। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। ऐसी भूल अकसर हो जाती है। अकसर, जीवन में हमारा सारा अगर तुमने ऐसा सोचा कि मैंने कुछ कर दिया, तो यह तो तर्क यही है : कोई तुम्हारे पास से गुजरा और तुम्हें नमस्कार न परतंत्रता की नयी जंजीर शुरू हो जायेगी। तब तुम राह देखोगे किया-क्रोध आ गया। अब तुम कहते हो, इस आदमी ने कि मैं कुछ करूं तो हो। क्रोधित कर दिया। इस आदमी ने कुछ भी नहीं किया। यह इस भ्रांति में मत पड़ना। यह भ्रांति होती है। उसकी मर्जी नमस्कार करे न करे। हां, एक मौजूदगी बनी, एक तुम एक राह से गुजर रहे हो। एक सुंदर स्त्री दिखायी पड़ी। अवसर बना। उसने नमस्कार नहीं किया। क्रोध तो तुमने होने कुछ हो गया। अब तुम कहते हो, 'इस स्त्री ने कुछ कर दिया।' दिया। इसे दोष दूसरे पर मत देना। इस स्त्री ने कुछ भी नहीं किया। तुम्हारे भीतर ही कुछ हुआ। तुम्हारे भीतर कोई दूसरा कुछ करता नहीं। ऐसा ही समझो कि इसकी मौजूदगी ने सहारा दे दिया। इसने कोई जादू नहीं किया, एक सूखा कुआं हो और हम उसमें एक बालटी डालें, खूब कोई वशीकरण नहीं किया, जैसा लोग समझते हैं। शायद इसे तो खड़खड़ाएं, खूब डुबकी लगवाएं बालटी की, लेकिन कुछ भी न खयाल भी न हो। तुम्हें कुछ हुआ, यह पक्का है। इसकी हो, क्योंकि कुआं सूखा है। बालटी खाली की खाली वापस आ मौजूदगी ने कैटेलेटिक एजेंट का काम किया। शायद इसकी जाए। फिर भरे कुएं में हम बालटी डालें, तो भरकर आ जाये। मौजूदगी में न हो पाता, देर-अबेर होता, लेकिन इसकी मौजूदगी तुम अगर प्रेम से भरे हो तो परिस्थितियां अनुकूल बन जायेंगी में कोई चीज तुम्हारे भीतर झलक गयी; लेकिन जो झलकी है वह | जिनमें तुम्हारा प्रेम उभरकर आ जायेगा। तुम अगर क्रोध से भरे तुम्हारी ही अंतर-दशा है। इसकी मौजूदगी में तुमको झलक हो तो परिस्थितियां अनुकूल बन जायेंगी, जिनमें क्रोध उभरकर मिली प्रेम की, लेकिन प्रेम तुम्हारी भाव-दशा है। तुम्हारे भीतर | आ जायेगा। पड़ा हुआ प्रेम फूट पड़ा। इसकी मौजूदगी अवसर बनी। इसने यह संसार सभी परिस्थितियों का समागम है। यहां सभी कुछ किया नहीं। इसकी मौजूदगी निष्क्रिय अवसर है। परिस्थितियां मौजूद हैं। तुम जिससे भरे हो वही प्रगट होने ठीक वैसे ही बुद्धपुरुषों की मौजूदगी निष्क्रिय अवसर है। बुद्ध लगेगा। अगर तुम थोड़े शांत, मौन से भर जाओ, तो तुम्हारे या महावीर तुम्हारे भीतर कुछ करते नहीं। नहीं, इतनी हिंसा भी भीतर बहुत कुछ घटेगा, बहुत-से वातायन खुलेंगे। वे न कर सकेंगे। यह भी हिंसा हो जायेगी। असमय में कुछ कर | लेकिन भूलकर भी यह मत कहना कि मैंने कुछ किया। ज्यादा देना ऐसा ही होगा जैसे गर्भपात हो जाये समय के पहले। नहीं वे से ज्यादा इतना ही कहना कि मेरी मौजूदगी में तुमने कुछ होने प्रतीक्षा करेंगे। दिया। और फिर ये भी कोशिश करना कि मेरी मौजूदगी के बिना सकरात कहता थाः मेरा काम दाई का काम है, मिडवाइफ। भी वह हो जाये, ताकि तुम उसके मालिक बन सको। दाई का काम यह है कि जब बच्चा पैदा होने के करीब हो तब वह मुझे सुन रहे थे, कुछ हुआ-अचानक तुम चौंक गये, अवाक जरा सहारा दे दे। बिना सहारे के भी पैदा हो जायेगा बच्चा। रह गए, चकित! थोड़ा सहारा दे दे। थोड़ी ढाढ़स बंधा दे। थोड़ी हिम्मत बंधा दो। अब ऐसा ही सुबह बैठ जाना, सूरज ऊगते ही, सूरज को लेकिन समय के पहले बच्चे को बहार न निकाल दे, अन्यथा देखना! फिर वैसे ही शांत, मौन उसे देखते रहना। तुम अचानक 525/ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 जिन सूत्र भाग : 1 - पाओगे: किसी दिन सूरज के ऊगने से भी वैसा हो जायेगा। संयोगवशात तुम चुप थे। मन में सन्नाटा था। सुनने को आतुर फिर पक्षियों के कोलाहल को सुनना। उनके कलरव को थे, इसलिए बोल नहीं रहे थे। उस आतुरता में भी कोई ऐसी घड़ी सुनना। किसी दिन तुम पाओगेः सुनते-सुनते-सुनते फिर तार | आयी होगी जहां मेरे श्वास के और तुम्हारे श्वास के बीच एक मिल गए! फिर हो गया! तब तो एक बात पक्की हो जायेगी कि लयबद्धता आ गयी, एक तालमेल हो गया। तो जिस तरह, तुम जहां भी होने देते हो वहीं हो जाता है। जिस जगत में मैं स्पंदित हो रहा हूं, क्षणभर को तुम मेरे साथ नाच फिर किसी दिन बीच बाजार में, जहां होने की कोई आशा नहीं | लिये, स्पंदित हो गए। कुछ हुआ! कुछ—जिससे तुम चकित दिखायी पड़ती, वहां तुम बाजार के शोरगुल को मौन भाव से होओ! कुछ—जिस पर तुम भरोसा नहीं कर सकते! सुनना और तुम चकित होओगेः वहां भी हो जाता है! कुछ—जिसको तुम चाहोगे कि मैं कहूं कि मैंने किया! क्योंकि तब तुम मालिक होने लगे। तब तुम अपने पैरों पर खड़े होने | तुम्हें अपने पर आत्मविश्वास नहीं कि तुमसे ऐसा हो सकेगा। लगे। तब मैं तुम्हारे लिए बैसाखी न बना, वरन मेरी मौजूदगी ने फिर भी मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हीं से हुआ है। और बार-बार तुम्हारे पैरों को बल दिया। | तुमसे यही कहूंगा कि जब भी हो, स्मरण रखना तुम्हीं से हो रहा ध्यान रखना, तुम्हारी आकांक्षा मुझे बैसाखी बना लेने की है। है। मेरी परिस्थिति का उपयोग कर लो। मेरी मौजूदगी का लेकिन बैसाखी मिल जाए तो भी तुम लंगड़े ही रहोगे। | उपयोग कर लो। मेरी मौजूदगी तुम्हें तुम्हारे भीतर की संपदा के किसी गुरु को बैसाखी मत बनाना। और जो गुरु स्वयं को प्रति थोड़ा जागरूक कर दे, फिर तुम मुझे भूलो! क्योंकि मैं बाहर तुम्हारी बैसाखी बनने दे वह तुम्हारा मित्र नहीं, श वह तुम्हारे लंगड़ेपन के लिए शाश्वतता दे रहा है। अब तुम सदा बुद्ध ने कहा : बुद्ध-पुरुष इशारा करते हैं, चलना तुम्हें पड़ता के लिए लंगड़े रह जाओगे। है। महावीर ने कहा है : मैं सिर्फ उपदेश करता हूं, आदेश नहीं। यही बात अकसर घटती है। तुम किन्हीं लोगों के पास जाकर मैं वही बोल देता हूं, जो है। तुम अगर सुनने को राजी हो सुन कहोगे, कि आपकी मौजूदगी ने, आपने ऐसा कुछ कर दिया। लो। जीसस ने कहा है : अगर तुम्हारे पास आंखें हों तो देख लो, सदगुरु और असदगुरु की पहचान यही है। असदगुरु कहेगा, | मैं मौजूद हूं! तुम्हारे पास कान हों तो सुन लो, मैं बोल रहा हूं! 'हां, मेरी शक्ति से ऐसा हुआ।' सदगुरु कहेगा, 'किसी की तुम्हारे पास हृदय हो तो धड़क लो मेरे साथ! शक्ति का कोई सवाल नहीं। तुमने होने दिया', और तुम अगर ऐसा ही समझो कि थोड़ी, क्षणभर को, तुम मेरे साथ धड़क होने दो तो कोयल की कुहू-कुहू से भी हो जायेगा। पानी के झरने लिये, श्वास से श्वास मेल खा गयी, धड़कन से धड़कन मेल की आवाज से भी हो जायेगा। सागर के तुमुल नाद से भी हो खा गयी। एक क्षण को एक आरोह हुआ। तुम्हारे भीतर एक जायेगा। फिर तो बीच बाजार में भी हो जायेगा। भीड़, तरंग उठी, उसने आकाश छू लिया! लेकिन इसे मैं चाहता हूं कि कोलाहल, चलते हुए लोग, हजार तरह की बातें, तुम सदा स्मरण रखना कि वह तुम्हारे ही कारण हुआ। क्योंकि शोरगुल-उससे भी हो जायेगा। क्योंकि असली बात बाहर से अगर मेरे कारण हुआ तो तुम मुझसे बंधे। फिर बाजार में न हो भीतर नहीं आ रही है-असली बात भीतर से बाहर जा रही है। | सकेगा। फिर पक्षियों के कलरव में न हो सकेगा। फिर सागर के असली बात है कि तुम शांत होकर सुनने में समर्थ हो गए; तुमने | तुमुल नाद में न हो सकेगा। फिर तुम बंधे मुझसे। फिर तो मैं कोई प्रतिक्रिया न की। तुम्हारा नशा हो गया। फिर तुम्हें मेरी तलफ लगेगी, कि जाएं निश्चित ही, पहली दफा उसी व्यक्ति के पास हो सकेगा। | वहां, सुनें वहीं, फिर सत्संग करें। जिससे तम्हारा बड़ा श्रद्धा का लगाव है। पहली दफा। वहां नहीं, सत्संग का अर्थ ही यह है कि तुम्हारी ऐसी घड़ी आ जाये आसान होगा, जहां बड़ा प्रेम का लेन-देन है; जहां दो हृदय | कि सब जगह, जहां तुम हो वहीं सत्संग होने लगे। नहीं कहता साथ-साथ धड़कते हैं। कि यहां मत आना, लेकिन वह आना तुम्हारा रोग न बन जाए; जब तुमने मेरी यह बात सुनी तब किसी कारण से, वह शराबी की लत न बन जाए। 526 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत तुम आना और प्रसन्न होना। और तुम आना और खुलना। अनहोना घट गया, तो लोग कहेंगे, इस बोलने में क्या रखा है? और तुम आना और प्रसाद को उपलब्ध होना। लेकिन स्मरण | ये शब्द तो साधारण हैं। रखना कि सब तुम्हारे भीतर हो रहा है। और जब तुम यहां से 'महावीर ने स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, वह मूल्य जाओ, तो जो हुआ है उसे संभालकर अपने साथ ले जाना, उसे किसी और ने नहीं दिया'-इन शब्दों से क्या घट सकता है? यहां मत छोड़ जाना। और धीरे-धीरे विपरीत परिस्थितियों में भी तुम दूसरे को मत समझाना! ये बातें तो दीवानों की हैं। हां उसकी झलक को पाने की कोशिश करना। जहां कोई संभावना | किसी और को हुआ हो तो उससे बात कर लेना। नहीं तो खतरा न दिखायी पड़ती हो, जहां दुख ही दुख, पीड़ा ही पीड़ा हो—फिर क्या है? खतरा यह है कि अगर तुम औरों से यह कहोगे तो वे तुम आंख बंद करके उसी भावदशा को, उसी तरंग को अपने | समझेंगे, कि कुछ गड़बड़; तुम्हारा दिमाग खराब हो रहा है, भीतर लाना। तुम चकित होओगे कि धीरे-धीरे वह तरंग उठने किसी सम्मोहन में पड़ गये हो। और डर यह है कि वे कहीं लगी, मालकियत हाथ में आने लगी। तुम्हारा आत्म-अविश्वास न जगा दें। अगर आत्म-अविश्वास तब कहीं भी, आंगन कितना ही तिरछा हो, तुम्हें नाच आ गया जग गया तो दुबारा यह न होगा। तो तुम नाच सकोगे। ज्यादा से ज्यादा यहां मैं इतना ही कर रहा हूं | तो ऐसी घटना कभी भी घटती हो, मुझे कह देना या गैरिक रंग कि तुम्हें चौकोर आंगन दे रहा हूं। इससे ज्यादा नहीं। जो जगा है के बहुत पागल यहां हैं, उनसे कह देना; मगर समझदारों से मत वह तुम्हारे भीतर ही सोया था। कहना, नहीं तो वे तुम्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। अंततः जब फिर ये कैसी कसकसी है दिल में, तुम्हारे जीवन में सब साफ हो जायेगा, फिर तो कोई नुकसान नहीं तुझको मुद्दत हुई कि भूल चुका। पहुंचा सकता। लेकिन अभी जब अंकुर बड़ा कोमल होता है, वह जो कसकसी फिर से मालूम हुई, वह कुछ बाहर से नहीं अभी जब बीज टूटा ही होता है, तब हर खतरा प्राणघाती हो आयी है। वह उसी की याददाश्त है जिसे तुम मुद्दत हुई भूल | सकता है। चुके। वह तुम्हारे मूलस्रोत का स्मरण है। जब दिल पे न हो काबू अपना, क्या जब्त करें क्या सब्र करें। फिर ये कैसी कसकसी है दिल में मुझ जैसे काश वह हो जाएं जो आ-आकर समझाते हैं। तुझको मुद्दत हुई कि भूल चुका। कई लोग तुम्हें समझायेंगे कि 'क्या पागलपन कर रहे हो? इतने भूल चूके हो कि अब यह भी याद नहीं कि भूल चुके। होश में आओ! बुद्धि सम्हालो। यह तुम किन बातों में पड़े जा भूल चुके हैं, यह भी याद रहे तो बिलकुल भूले नहीं, याद है। रहे हो?' लेकिन हम इतने भूल गये हैं कि यह भी अब याद नहीं कि भूल | जब दिल पे न हो काबू अपना, क्या जब्त करें क्या सब्र करें! चुके। मुझ जैसे काश वह हो जाएं जो आ-आकर समझाते हैं। तुम मेरे करीब, वह मुद्दत हुई जिसे तुम भूल चुके, जनम-जनम | लेकिन वह तुम्हारे जैसे न होंगे। और डर यह है कि वह तुम्हें का घेरा, बहुत दूर रह गयी वह बात जो तुम्हारा मूलस्रोत थी और अपने जैसा बना सकते हैं, क्योंकि वे ज्यादा हैं। जो तुम्हारी, अंतिम जीवन की नियति है; प्रथम जो थी और भीड़ है। और हम भीड़ पर बड़ा भरोसा करते हैं। हमारी अंतिम जो है, वह बात भूल गयी है-यहां तुम्हें याद आ जाये, धारणा ही यह है कि जिस बात को बहुत लोग मानते हैं, वह ठीक थोड़ी सुरति आ जाये! बस इतना काफी है! होनी चाहिए। अकसर तो उलटा होता है। जिसको बहुत लोग और इस बात को तुम हर किसी से कहते मत फिरना। नहीं तो मानते हैं वह बात अकसर तो गलत होती है। क्योंकि बहुत लोग लोग हंसेंगे। यह बात तो दीवानों से ही करने की है। गलत हैं। अकसर तो ऐसा होता है, ठीक बात को कभी कोई अगर तुमने यह किसी और को कहा कि मैं यह बोल रहा था। एक-आध मानता है। भीड़ तो सदा गलत को ही मानती है। कि 'महावीर ने स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, वह मूल्य इसलिए सत्य के जगत में कोई लोकतंत्र नहीं है, कोई मत नहीं है, किसी और ने नहीं दिया', उस क्षण में तुम्हारे भीतर कुछ कि नब्बे प्रतिशत लोगों ने साथ दे दिया तो सत्य होना चाहिए। 527 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 अकसर तो ऐसा हुआ है: जब महावीर ने कहा तो वे अकेले, तो पोप को समझ में भी आ रहा था, लेकिन फिर भी उसने जब बुद्ध ने कहा तो वे अकेले। गैलीलियो को कहा कि तुम क्षमा मांगो। अदालत में घुटने धर्म को छोड दें. विज्ञान को लें। गैलीलियो ने कहा, टेककर गैलीलियो ने क्षमा मांगी लेकिन वह आदमी भी बडा कोपरनिकस ने कहा तो अकेले। आइंस्टीन न कहा तो अकेले। गजब का था। उसने कहा कि मैं क्षमा चाहता हूं। आप कहते हैं, सारी दुनिया मानती थी सदियों से कि जमीन चपटी है। और शास्त्र कहते हैं तो सूरज ही चक्कर लगाता होगा, पृथ्वी खड़ी जब गैलीलियो ने कहा कि जमीन गोल है तो वह अकेला था। होगी। लेकिन एक बात मैं कहे देता हूं, मेरे कहने से कुछ भी नहीं सारी दुनिया मानती थी सदियों से कि सूरज ऊगता है, डूबता है। होता। लगा तो पृथ्वी ही चक्कर रही है। मेरे कहने से क्या अब भी सभी भाषाएं यही कहती हैं: सूर्यास्त, सूर्योदय; होगा? मैं क्षमा मांगता हूं। मेरा इसमें कुछ हाथ ही नहीं है। मैं सनराइज, सनसेट। गैलीलियो हो चुका, इससे भाषा में अभी थोड़े ही पृथ्वी को चलवा रहा हूं? तो मैं झंझट में नहीं पड़ना फर्क नहीं पड़ा है। तीन सौ साल हो गये, लेकिन भाषा अब भी | चाहता। लेकिन एक बात मैं कहे देता हूं कि मैं क्षमा मांगू या न गलत बोली जा रही है। मांगू, मैं कहूं या न कहूं—इससे क्या फर्क पड़ता है? गैलीलियो ने कहा, न सूरज ऊगता है न डूबता है-सूरज आदमियत माने या न माने, इससे क्या फर्क पड़ता है ? सूरज चलता ही नहीं। खयाल यह था कि सूरज पृथ्वी के चारों तरफ | खड़ा है पृथ्वी चक्कर लगा रही है। चक्कर लगाता है। दिखता है लगाता हुआ, इसमें कोई शक दुनिया में सत्य को जाननेवाले तो कभी-कभी होते हैं। भीड़ तो नहीं। अब भी खाली आंख से देखो तो लगता है कि चक्कर | असत्य को मानती है। लेकिन हमारे मन में एक धारणा है कि लगा रहा है। | जिसको बहुत लोग मानते हैं वह ठीक होना चाहिए। इतने लोग असलियत बिलकुल उलटी है : पृथ्वी चक्कर लगा रही है। मानते हैं! और हमारा कोई आत्मविश्वास तो है नहीं। सूरज खड़ा है। लेकिन हम पृथ्वी पर बैठे हैं तो हमको पृथ्वी का तो दूसरों से मत कहना। अन्यथा वे हंसेंगे। उनकी हंसी तुम्हारे चक्कर लगाना तो दिखायी पड़ नहीं सकता। इसलिए सूरज जीवन में जहर हो सकती है। वे तुम्हें पागल समझेंगे। उनका चक्कर लगाता हुआ दिखायी मालूम पड़ता है। समझना तुम्हें डगमगा सकता है। कभी तुमने खयाल किया? ट्रेन में तुम बैठे हो और दूसरी ट्रेन इसलिए ये बातें तो ऐसी हैं कि जो तुम्हारे ही रास्ते पर चल रहे बगल में खड़ी है। तुम्हारी ट्रेन चलती है तो लगता है दूसरी ट्रेन हैं और जिन्हें कुछ ऐसा होना शुरू हआ हो, उनसे कर लेना; तो चल पड़ी। चौंककर तुम्हें लगता है दूसरी ट्रेन चल रही है। तुम एक दूसरे के लिए सहयोगी बनोगे, सहारा बनोगे, बल दोगे, चलती तुम्हारी है, लेकिन तुम तो अपनी ट्रेन में बैठे हो। तुम भी आत्मबल विकसित होगा। और जितना आत्मबल बढ़ेगा उतनी उसके साथ चल पड़े, इसलिए पता नहीं चलता। दोनों की गति और घटनाएं संभव हो जायेंगी। बराबर है। लेकिन पास की ट्रेन खड़ी है। वह चलती हुई मालूम पड़ती है। आखिरी प्रश्नः मुझे इतना कुछ मिल रहा था कि उसका गैलीलियो ने कहा है कि सरज खडा है. पथ्वी चलती है। आनंद अंतर में समाता नहीं था। इतना आनंद, इतनी खशी हजारों-हजारों साल से आदमी मानता था : पृथ्वी खड़ी है, सूरज कहां रखं, कैसे सम्हालूं-समझ में नहीं आता। और प्यास चलता है। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। भी उतनी ही है। जिनकी कृपा से जीवन की संध्या में मुझे यह गैलीलियो को अदालत में ले जाया गया था। क्योंकि पोप सब मिल रहा है, उनसे पास होते हए भी दूर है। इन दो बातों के खिलाफ था, क्योंकि बाइबिल में तो लिखा है कि पृथ्वी खड़ी है। लिए पागल-सी जी रही थी। कुछ दिनों से सब चुप होने लगा और धर्मगुरु सदा डरते रहे हैं कि अगर शास्त्र की एक भी बात | है। घंटों बैठी रहती हूं या लेटी रहती हूं। कुछ करने का मन गलत हो जाये तो लोगों में शक पैदा होगा। लोग सोचेंगे जब | नहीं होता। न कुछ बुरा लगता है और न अच्छा। प्रभु, यह एक गलत हो सकती है तो बाकी भी गलत हो सकती हैं। सब क्या हो रहा है? 528/ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रकम a मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत - शुभ हो रहा है। प्यास थिर हो रही है। प्यास गहरी हो रही है। है, कौन भगवान है। नदी जब उथली होती है तो शोरगल करती है। नदी जब गहरी रामकृष्ण अपने ऊपर ही फूल डाल लेते थे। भगवान को होती है तो शांत हो जाती है। इतनी शांत हो जाती है कि पता ही चढ़ाने जाते, खुद ही पर डाल लेते। भगवान को भोग लगाते, नहीं चलता कि चलती भी है या नहीं। खुद ही के मुंह में डाल लेते। लोगों ने शिकायत की कि यह तो गहरी नदी को देखा? थिर मालूम होती है। बस ऐसा ही हो कोई पूजा न हुई। ये तो पूजा का उल्लंघन है। रहा है। जो प्यास अब तक थोड़ी तरंगें भी पैदा करती थी, वह रामकृष्ण ने कहा, 'करूं क्या? भेद ही नहीं मालूम होता। और गहराई पर जा रही है। अब सब चुप हो रहा है। | यह मुंह भी अब उसी का! यह सिर भी उसी का। ये हाथ भी कुछ रोज ये भी रंग रहा इंतजार का, उसी के! ये फूल भी उसी के!' आंख उठ गयी जिधर बस उधर देखते रहे। कौन कौन है, पक्का पता नहीं चलता! आंख हटाना भी भूल जायेगा। विचार करना भी भूल इक तेरी तमन्ना ने कुछ ऐसा नवाजा है, जायेगा। ठगे-ठगे से! बैठे-बैठे। मांगी ही नहीं जाती अब कोई दुआ हमसे। कुछ रोज ये भी रंग रहा इंतजार का, अब यह जो घड़ी आ रही है, इस घड़ी में कुछ भी मांगना मत। आंख उठ गयी जिधर बस उधर देखते रहे। अब तो सिर्फ धन्यवाद, सिर्फ अहोभाव। उसे धन्यवाद देना ! ऐसी दीवानगी आयेगी, आ रही है। स्वागत करना उसका! जो भी वह दे, धन्यवाद देना। उदासी मालूम पड़े तो भी धन्यवाद पलक पांवड़े बिछाना उसके लिए! घबड़ा मत जाना। क्योंकि | देना; जल्दी उदासी शांति में परिणित हो जायेगी। ऐसा लगे, पहले-पहले जब शांति उतरती है तो लगती है उदासी है। क्योंकि उत्सव खो रहा है तो भी धन्यवाद देना। एक नया उत्सव शुरू हो हम उदासी से परिचित हैं, शांति से परिचित नहीं हैं। दोनों के | रहा है जो अभिव्यक्ति का नहीं है, जो अनभिव्यक्त है, जो शांत चेहरे में थोड़ा तालमेल है। है और मौन है। तो जब पहली दफे शांति आती है तो ऐसा लगता है कहीं ये तो मैं तुमसे कहता हूं, महावीर भी नाचे हैं, मीरा ही नहीं नाची। नहीं कि हम उदास हुए जा रहे हैं। पहले-पहले आनंद भी बाजे लेकिन मीरा का नाच बाहर भी आया, महावीर का नाच भीतर ही बजाता है। फिर धीरे-धीरे बाजे शांत होने लगते हैं, क्योंकि भीतर रह गया। इतना गहन है। बाजों का शोरगुल भी आनंद में बाधा है। फिर आनंद की एक जैसे देखा नील नदी है, इजिप्त में! कई मीलों तक जमीन के ऐसी घड़ी आती है जब उत्सव भी शांत हो जाता है। नीचे ही बहती है, दिखायी नहीं पड़ती। फिर प्रगट होती है। तो भीतर-भीतर, भीतर-भीतर रग-रोएं में समा जाता है। नाच भी | सदियां हो गयीं, लोगों को पता ही न था कि इसका जन्म-स्रोत नहीं होगा-नाच इतना गहरा हो जाता है। कोई क्रिया ऊपर कहां है, यह उदगम कहां है! क्योंकि कई मीलों तक तो वह दिखायी न पड़ेगी। जमीन के नीचे ही बहती है तो उदगम का पता कैसे चले? पहले तो शौके-दीद में सब कुछ भुला दिया मीरा ऐसी है जैसे नील नदी प्रगट हो गयी। और महावीर ऐसे अब में नजर को ढूंढ़ रहा हूं, नजर मुझे। | हैं जैसे नील नदी अभी जमीन के नीचे बहती है। नाच तो है ऐसी घड़ी आती है कि अपना ही पता नहीं चलता। ही-लेकिन नाच बड़ा मौन है, चुप है, बड़ा गरु-गंभीर है! पहले तो शौके-दीद में सब कछ भला दिया—पहले तो उस कठिनाई होगी। ये प्रतीक्षा के पल पीडा के पल भी होंगे। परमात्मा को देखने की आकांक्षा में सब भुला बैठे। लेकिन उस कभी-कभी तो ऐसा लगेगा, कुछ खो तो नहीं गया। पहले तो सब भुलाने में नजर भी खो जाती है। अब मैं नजर को ढूंढ़ रहा बड़े आनंदित मालूम हो रहे थे; वह आनंद भी चला गया। पहले हूं, नजर मुझे। अब कुछ समझ में नहीं आता कौन कहां है, कौन तो बड़े नाचे-नाचे मालूम पड़ते थे; वह पुलक चली गयी। कहीं कौन है? कुछ खो तो नहीं गया! आखिरी घड़ी में कुछ भी पता नहीं चलता भेद का : कौन भक्त | शबे-इंतजार की कशमकश न पूछ कैसे सहर हुई 529] Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 जिन सूत्र भाग: 1 कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया। मिलन की रात की कशमकश न पूछ और यह मत पूछ कि कैसे सुबह हुई ! बड़ी मुश्किल हुई। कभी एक चिराग जला लिया, फिर बुझा दिया, फिर जला लिया, फिर बुझा दिया ! ऐसी उधेड़-बुन हुई। शबे-इंतजार की कशमकश न पूछ कैसे सहर हुई कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया। ऐसी कशमकश आएगी। घबड़ाना मत। बस एक ही खयाल रखना कि जो भी हो रहा है, जो भी होता है- शुभ है। यही तुम्हारी प्रार्थना हो अब कि जो भी हो रहा है, शुभ है। और तब शुभ के नये-नये द्वार खुलते जायेंगे । दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर, सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं। इस चिंता में मत पड़ना क्योंकि अब जल्दी ही दिल के पास जो परमात्मा का रास्ता गुजरता है वह दिखायी पड़ेगा । सोच-विचार में मत पड़ना । जब सब सन्नाटा हो जाता है, उत्सव भी चला जाता है, आनंद भी चला जाता है और सब शांत हो जाता है और आदमी ठगाठगा रह जाता है— तभी हृदय के पास से जिसका रास्ता गुजरता है उसके दर्शन होते हैं ! हम अपने करीब आये, असंग हुए, निसंग हुए ! यही संन्यास की पराकाष्ठा है। संसार और बाहर का सब भूल गया! भीतर, भीतर, भीतर उतरते गये! अपने केंद्र पर आये ! वहां से गुजरती है राह परमात्मा की ! तब संदेह में मत पड़ जाना क्योंकि ये मन में विचार, आखिरी विचार यही आता है कि कहीं यह रास्ता सही है कि गलत । दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर, सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं। यह मत सोचना। यह विचार करना ही मत । अब तो विचार को पूरा का पूरा ही त्याग दो। अब तो निर्विचार हो रहो। और जो भी हो, उसको स्वीकार करते जाओ। धीरे-धीरे उसी रास्ते पर उसका रथ भी आयेगा । और जब वह रथ से उतरे और तुम्हारे सामने अपनी झोली फैला दे तो कंजूसी मत करना । सब डाल देना ! स्वाहा ! सब डाल देना ! रवींद्रनाथ का एक गीत है । एक भिखारी सुबह - सुबह उठा। अपनी झोली को कंधे पर टांगकर भीख मांगने निकला। जैसा कि भिखारी करते हैं, उसने भी किया। थोड़े से चावल के दाने अपनी झोली में घर से डाल लिए। देनेवालों के लिए थोड़ी हिम्मत होती है कि चलो इसको औरों ने भी दिया है। तो भिखारी थोड़े-से पैसे अपनी थाली में डालकर बैठ जाता है। तो निकलनेवाले को थोड़ा साहस रहता है कि कोई हम ही नहीं फंस रहे हैं, और लोगों ने भी दिया है। तो थोड़ी लज्जत भी आती है, तो थोड़ी लज्जा भी लगती है, थोड़ा शर्म भी, संकोच भी लगता है कि अब और दे चुके हैं तो हम कोई इतने गये-बीते तो नहीं, चलो एक पैसा दे दो! तो थोड़े-से चावल के दाने डालकर झोली में भिखारी चला। राह पर आया, कभी सोचा भी न था । सपना भी न देखा था - राह पर आ रहा है उस महाराजा का रथ - स्वर्ण रथ, सूर्य की किरणों में चमकता हुआ ! उसने सोचा, आज मेरे धन्यभाग, आज मेरे भाग्य खुल गये ! आज तो झोली पसार दूंगा और मांग लूंगा। अब राजा ही सामने आ रहा है, द्वार से कभी भीतर जाने का मौका मिलता न था । द्वारपाल द्वार से ही भगा देते थे। अब आप तो रास्ते पर मिल गये । तो वह बीच में खड़ा हो गया। रथ रुका। राजा न केवल उसे अपने पास बुलाया, खुद उतरकर नीचे आया। लेकिन राजा को पास देखकर वह घबड़ा गया। कभी राजा की सन्निधि नहीं की। याद ही न रही, अवाक ठगा रह गया। देखता रहा राजा के मुंह की तरफ। और इसके पहले कि वह अपनी झोली फैलाये, राजा ने अपनी झोली फैला दी। और उसने कहा, मना मत करना, इनकार मत करना, क्योंकि मेरे ज्योतिषियों ने कहा है कि आज मैं भीख मागूं तो राज्य बचेगा, अन्यथा राज्य पर खतरा है। अब कठिनाई हम सोच सकते हैं: भिखारी जिसने कभी दिया नहीं, सदा मांगा ! देने की कोई आदत ही नहीं । देने का कोई संस्कार ही नहीं। वह बहुत घबड़ाया, लेकिन अब इनकार भी न कर सका, क्योंकि राजा ने कहा, 'इनकार मत करना, पूरे राज्य पर खतरा है। कुछ भी दे दो, उसने हाथ भीतर डाला झोली के। मुट्ठी बांधता है, खोलता है। कभी दिया तो है नहीं, देने की आदत ही नहीं। बामुश्किल एक चावल का दाना निकालकर उसने राजा की झोली में डाल दिया। रथ आया गया हो गया, धूल उड़ती रह गयी ! वह तो खड़ा रह गया। उसने कहा, 'यह तो हद्द हो गयी। और गरीब कर गया! एक दाना और पास था, वह भी ले गया !' फिर सांझ घर लौटा भीख मांगकर । उस दिन खूब भीख Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARYALAL मांग नहीं- अहोभाव, मिली। ऐसी कभी न मिली थी। जो देता है उसे मिलती भी है। उस दिन घर लौटा। प्रसन्न होना चाहिए था, लेकिन थोड़ा उदास था। वह एक दाना कम था। घर आकर पत्नी ने पूछा, 'इतने उदास?' तो उसने कहा, 'क्या करूं? हद्द हो गयी। मिलने की आशा बांधी थी, वह तो दूर, और हमसे, हाथ से ले गया! भाग्य की विडंबना, मजाक तो देखो, व्यंग्य!' उसने झोली बड़ी उदासी से उड़ेली। देखकर चकित हुआ, एक दाना सोने का हो गया था। जो दिया था, वह सोने का हो गया था। छाती पीट-पीटकर रोने लगा। पत्नी तो कुछ समझी नहीं। उसने कहा, 'हुआ क्या है ? माजरा क्या है?' ‘लुट गये', उसने कहा, 'लुट गये! सारे दाने दे दिये होते, तो सारे दाने सोने के हो जाते। लेकिन अवसर आया, गया!' तो इतना ही कहता हूं, यह जो घड़ी पक रही है, इसको पकने देना। जल्दी ही हृदय के पास से उसकी राह मिलेगी। राह ही नहीं, उसका रथ भी आता है, स्वर्ण-रथ, सूर्य-किरणों में चमकता! उस वक्त मांगने का मन होगा, क्योंकि हम सदा भिखमंगे रहे हैं। मांगना मत! और अगर वह झोली तुम्हारे सामने फैलाये, जैसी कि उसने सदा ही फैलायी है, तो दे देना! तब ऐसा मत करना कृपणता, कंजूसी कि एक दाना डाल देना; अन्यथा फिर रोओगे जन्मों-जन्मों तक! क्योंकि फिर कब दुबारा उसका रथ मिलेगा कहना मुश्किल है। सब दे डालना। झोली और तुम स्वयं भी छलांग लगा जाना, ताकि सब स्वर्णमय हो जाये। सब स्वर्णमय हो सकता है। होना चाहिए। हम बाधा न दें तो हो जाये, अभी हो जाये। चिंता-विचार न करना। शुभ हो रहा है! सब शांत होता जा रहा है। जल्दी ही रथ आने के करीब है। उस घड़ी की अहोभाव से प्रतीक्षा! कठिन होगी प्रतीक्षा। दीया जलेगा, बुझेगा। जलाओगे, बुझाओगे। गुजार देना रात! घबड़ाना मत। जितनी प्रतीक्षा पीड़ादायी होगी, उतना ही मिलन आनंददायी है। आज इतना ही। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dein Education Internal For Pre www.jain Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां प्रवचन दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष For Private & Pesanal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ।। ६२ ।। नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।। ६३ ।। हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ ।।६४।। संजोअसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा ।। ६५ ।। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखना। अधिक लोगों ने जीवन के आधार ज्ञान पर रख लिए हैं। तर्क से, विचार से, बुद्धि से जो बात ठीक लगी है - सोचा, उसे स्वीकार कर लें। लेकिन जो तर्क से ठीक लगा है वह हृदय न जा सकेगा, क्योंकि तर्क की पहुंच हृदय तक नहीं। तर्क तो सिर्फ खोपड़ी की खुजलाहट है; बहुत ऊपर-ऊपर है। प्राणों को आंदोलित नहीं करता तर्क । श्रद्धा तर्क के लिए कभी किसी ने प्राण दिये ? तर्क के लिए कभी कोई शहीद हुआ ? तुम जिसके लिए मर सको, वही तुम्हारी है । तुम जिसके बिना जी न सको, वही तुम्हारी श्रद्धा है। तुम कहो जीयेंगे तो इसके साथ, इसके बिना तो मृत्यु हो जायेगी – वही श्रद्धा है। जो जीवन से भी बड़ी है, वही श्रद्धा है। जिसके लिए जीवन भी निछावर किया जा सकता है, वही श्रद्धा है। तर्क के लिए तुमने कभी किसी को जीवन निछावर करते देखा ? दो और दो चार होते हैं - इस सत्य का अगर कोई प्रतिपादन करता हो और तुम तलवार लेकर खड़े हो जाओ, तो क्या वह सत्य की रक्षा के लिए अपने जीवन को देना चाहेगा? मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ेगा। दो और दो चार होते हैं, इसके लिए मरने में कोई सार न मालूम होगा । वह कहेगा कि तुम्हारी मर्जी, दो और दो पांच कर लो कि दो और दो तीन कर लो; लेकिन दो और दो चार कोई ऐसी बात नहीं जिसके लिए मैं जीवन को गंवा दूं । प्रेम के लिए कोई जीवन को गंवा सकता है। इसलिए श्रद्धा जीवन का आधार ज्ञान पर मत रखना - दृष्टि पर, दर्शन पर प्रेम की भांति है। महावीर कहते हैं, श्रद्धा पर जीवन को खड़ा ना णेण जाणई भावे - ज्ञान से मनुष्य जानता है। दंसणेण य सद्दहे - दर्शन से श्रद्धा उत्पन्न होती है। चरित्तेण निगिण्हाइ – चरित्र से निरोध होता है, निषेध होता है। तवेण परिसुज्झई — और तप से मनुष्य विशुद्ध होता है । ज्ञान से हम जानते हैं। लेकिन जानना काफी नहीं है। जानना बहुत ऊपर-ऊपर है। मात्र जान लेने से श्रद्धा पैदा नहीं होती। जब तक कि स्वयं दर्शन न हो जाये, जब तक कि खुद की आंखों से हम न देख लें - तब तक श्रद्धा नहीं होती। महावीर ने देखा; हमने सुना । जो सुनकर जान लिया, उससे श्रद्धा पैदा नहीं होगी। कृष्ण ने कहा; हमने सुना । मान लिया सुनकर। उससे श्रद्धा पैदा नहीं होगी। और अगर तुमने श्रद्धा किसी भांति आरोपित कर ली तो तुम भटक जाओगे। क्योंकि झूठी श्रद्धा जीवन को रूपांतरित नहीं करती। वही लक्षण है झूठी श्रद्धा का, कि जीवन तो कहीं और जाता है, श्रद्धा कुछ और कहती है। श्रद्धा कहती है, त्याग; और जीवन धन को इकट्ठा करता चला जाता है। तो श्रद्धा झूठी है, मिथ्या है। जब जीवन और श्रद्धा साथ-साथ चलने लगे, जब जीवन श्रद्धा के पीछे छाया की भांति चलने लगे, तभी जानना की श्रद्धा सच्ची है। तो महावीर कहते हैं, श्रद्धा मौलिक है। श्रद्धा जो ज्ञान आविर्भूत हो, वही ज्ञान है। और जब श्रद्धा से ज्ञान आविर्भूत होगा तो ज्ञान से चारित्र्य अपने-आप निष्पन्न होता है। 537 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 करना। महावीर की श्रद्धा को समझ लेना। उनका विशेष शब्द राजी हो जाते हैं। विश्वास मरा हुआ है, लाश है। है: श्रद्धान। यह तुम जिसे साधारणतः श्रद्धा कहते हो उससे हां, महावीर को दिखायी पड़ा होगा। जो उन्होंने कहा वह महावीर का कोई प्रयोजन नहीं है। लोग कहते हैं, हमारी तो उनकी श्रद्धा थी; जो तुमने सुना वह तुम्हारा विश्वास है। ईश्वर में बड़ी श्रद्धा है। जिसे तुमने देखा नहीं, श्रद्धा होगी इसलिए खयाल रखना, अगर मैं कुछ कह रहा हूं तो वह मेरी कैसे? श्रद्धा कान से नहीं होती, श्रद्धा आंख से होती है। श्रद्धा है। और तुमने अगर सुनकर मान लिया तो तुम धोखे में इसलिए श्रद्धान का दूसरा नाम महावीर 'दर्शन' कहते हैं। पड़ गये। तुम्हारे लिए वह विश्वास होगा। चूंकि मेरे लिए श्रद्धा श्रद्धान और दर्शन महावीर की भाषा में पर्यायवाची हैं; एक ही है, इसलिए तुम्हारे लिए श्रद्धा न हो जायेगी। जैसा मैंने देखा, अर्थ रखते हैं, उनमें जरा भी फर्क नहीं है। तुम भी देखो। इसलिए तुम कहते हो, ईश्वर में हमारी श्रद्धा है। देखा? तो मैं तुम्हें श्रद्धा नहीं दे सकता; मैं तुम्हें सिर्फ कुछ इशारे दे अनुभव किया? स्पर्श हुआ? जीये उसमें? तुम्हारा हृदय सकता हूं, जिनसे तुम भी आंख खोलो और देखो। जब तुम देख उसके साथ धड़का? तुम नाचे उसके साथ? कोई पहचान है? लोगे तभी श्रद्धा होगी। फिर तुम्हारे देखे को कोई छीन न नहीं, तुम कहते हो मान्यता है। और लोग कहते हैं, बड़े बुजुर्ग सकेगा। क्योंकि देखते ही हृदय में विराजमान हो जाता है। कहते हैं, सनातन से चली आयी बात, परंपरा में है। लेकिन इसलिए महावीर ने श्रुतियों को, स्मृतियों को, सभी को इनकार इससे श्रद्धा पैदा न होगी। यह तुम्हारा विश्वास है, श्रद्धा नहीं। कर दिया; वेद को इनकार कर दिया। यह शब्द विचारणीय है। विश्वास और श्रद्धा का भेद यही है। विश्वास उधार; श्रद्धा हिंदू कहते हैं, वेद उपनिषद श्रुतियां हैं। सुना ऐसा हमने; ऐसा अपनी। श्रद्धा होती है निज की, विश्वास ऐसा है जैसे बाजार से सदपुरुषों ने कहा; ऐसा जो जागे, उनका बोध है-श्रुति! फिर खरीद लाए कागज या प्लास्टिक के फूल और घर को सजा हमने उसे याद रखा; सदियों सदियों तक सम्हाला धरोहर की लिया। श्रद्धा ऐसे है जैसे बीज बोया, वृक्ष को सम्हाला, पानी तरह-स्मृति! सभी शास्त्र पहले श्रुति बनते, फिर स्मृति बन दिया, खाद दी-फिर एक दिन फूल आये और हवाएं सुगंध से जाते। महावीर ने कहा, न श्रुति न स्मृति-श्रद्धा। भर गयीं। शास्त्र को तुम्हें स्वयं ही निर्मित करना होगा। तुम्हारा शास्त्र श्रद्धा के फूल तुम्हारे जीवन में लगते हैं—उधार और बासे तुम्हें जन्म देना होगा। ऐसे गोद लिए शास्त्र काम न पड़ेंगे। नहीं; किसी और से नहीं; मांगे हुए नहीं। फर्क देखा! एक स्त्री मां बनती है-गोद लेकर मां बन जाती विश्वास बड़ा सस्ता है। इतने सस्ते तुम सत्य को न पा है। ऐसा मां बनने का धोखा देती है। न तो गर्भ रहा, न गर्भ की सकोगे। सत्य जो सर्वोपरि है, उसे तुम विश्वास से न पा पीड़ा सही, न नौ महीने के लंबे कष्ट भोगे, न वमन हआ, न दर्द सकोगे। उधार कब किसने सत्य को जाना है। उठा, न मितली आयी, न बोझ सहा, फिर प्रसव की पीड़ा भी न उपनिषद कहते हैं : सत्यम् परं, परं सत्यम्; सत्य सर्वोत्कृष्ट है सही, कि जैसे प्राण संकट में पड़े, कि बचेंगे कि न और जो सर्वोत्कृष्ट है वही सत्य है। सर्वोत्कृष्ट को इतने सस्ते बचेंगे।...उस अज्ञात जीवन के लिए जो पेट में है अपने ज्ञात कैसे पा सकोगे? अपने को दांव पर लगाना होगा। इसलिए मैं | जीवन को दांव पर लगाया—उस अनजान के लिए जो अभी कहता हूं, दुकानदार सत्य तक नहीं पहुंचते; जुआरी पहुंचते हैं। आया नहीं; कौन है, कैसा है, कुछ पता नहीं है; जो ज्ञात है, क्योंकि सत्य की पहली शर्त यह है: अपने को गंवाओ तो परिचित है, पहचाना है, उसको खतरे में डाला; अपने प्राण मिलेगा; दांव पर लगाओ तो मिलेगा। यह बिलकुल जुए जैसा जोखिम में डाले। है। मिलेगा कि नहीं, यह पक्का नहीं है। तुम तो गंवा दोगे अपने तो एक तो मां बनती है गर्भ को धारण करके। फिर होशियार को, तब मिलेगा। गंवाने के पहले कोई सुनिश्चित नहीं कर लोग हैं। वे कहते हैं, 'इतनी परेशानी में क्या पड़ना! बच्चे तो सकता कि मिलेगा ही। गोद भी लिए जा सकते हैं।' गोद ले लो। लेकिन गोद लेने में इसलिए दुकानदार, गणित, तर्क बिठानेवाले लोग विश्वास से और गर्भ लेने में बड़ा फर्क है। कामचलाऊ मां पैदा हो जायेगी. 538 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि, ज्ञान, चरित्र-और माक्ष लेकिन असली मां पैदा न होगी। क्योंकि असली मां तो तभी पैदा चित्त की मालूम पड़ेगी। जिद्दी। हठाग्रही! एकांतवादी! होती है जब बच्चा पैदा होता है। समझदार आदमी तो समझौतावादी होता है। बुद्धिमान तो सभी जब बच्चा पैदा होता है तो दो चीजों का जन्म होता है-बच्चे | समझौतावादी होते हैं। वे कहते हैं, जहां पूरा न मिलता हो वहां का और मां का। एक तरफ बच्चा पैदा होता है, दूसरी तरफ मां | आधा ले लो। तो मनोवैज्ञानिक उस स्त्री को-जो कहेगी कि पैदा होती है। अभी कल तक जो एक साधारण स्त्री थी, ठीक है, मैं आधा लेने को राजी हूं-कहेगा स्वस्थ है, नार्मल अचानक मां बन जाती है। बच्चे को तुमने गोद में ले लिया तो | है। और यह स्त्री तो आब्सैस्ड है, जो कहती है पूरा लूंगी, नहीं तो बच्चा तो कभी पैदा नहीं हुआ; तुमसे तो पैदा नहीं हुआ। तो मां पूरा दे दूंगी, यह तो पागलपन से भरी है। बनने का धोखा पैदा होता है। तो उस मनोवैज्ञानिक ने कहा है, अगर आज यह घटना घटे तो विश्वास ऐसा ही है-गोद लिया हुआ सत्य। श्रद्धान, श्रद्धा अमरीका की अदालत बच्चा उसको दे देगी जो आधा लेने को ऐसे है-जन्म दिया हुआ सत्य। और कोई दूसरा तुम्हारे सत्य राजी थी, क्योंकि वह पागल नहीं है। तर्कयुक्त है उसका उत्तर, को कैसे जन्म दे सकेगा! विचारपूर्ण है। यह कौन-सी समझदारी है कि अगर पूरा न बड़ी पुरानी कहानी है सोलोमन के जीवन में। दो स्त्रियां मिलता हो तो आधा भी छोड़ दो। जितना मिलता हो उतना तो ले सोलोमन की अदालत में आयीं। वे दोनों दावा कर रही थीं एक लो! मध्यमार्ग चुनो। अति पर तो मत जाओ! ही बच्चे का कि वह उसकी मां है। बड़ी कठिनाई थी। कैसे तय जो लोग बुद्धि से चलते हैं, वे होशियारी से चलते हैं। जो किया जाये? सोलोमन ने कहा, ठीक है। एक-एक को पास | श्रद्धान से चलते हैं, वे दीवाने होते हैं। इसलिए तो बुद्धि के लिए बुलाया और कान में कहा कि सुन, तय करना तो मुश्किल हो रहा प्रेम सदा अंधा मालूम होता है। बुद्धि कहती है, थोड़ा सोचो, है। कोई गवाह नहीं, कोई चश्मदीद गवाह नहीं है। तो उचित समझो, विचारो, हिसाब बिठाओ। यही है कि आधा-आधा बच्चा बांट देते हैं। तो जिसका बच्चा | महावीर कह रहे हैं कि ज्ञान से तो मनुष्य केवल जानता है। था वह तो चीख मारकर रो उठी। उसने कहा कि नहीं, ऐसा मत जानना यानी परिचय बाहर-बाहर। हृदय तक बिधती नहीं करना; फिर पूरा ही उसे दे दो। लेकिन जिसका बच्चा नहीं था, बात। श्रद्धा से, दर्शन से बिधती है हृदय तक-रोएं-रोएं में उसने कहा कि ठीक है, न्याययुक्त है, तर्कयुक्त समा जाती है; श्वास-श्वास में प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए तुम है-आधा-आधा बांट दो। जो चीख उठी थी। और जिसने ज्ञान को पकड़कर मत बैठे रह जाना।...नाणेण जाणई तर्क का सहारा न लिया था, हृदय का सहारा लिया था, उसने भावे-ज्ञान से तो बस जानना मात्र होता है। 'एक्वेंटेन्स'। कहा कि नहीं-नहीं, फिर उसे ही दे दो; मेरा नहीं है, उसी का है। | ऐसा परिचय बन जाता है। सोलोमन ने उसी को बेटा दे दिया। हृदय ने गवाही दे दी, | __ जैसे तुमने हिमालय के संबंध में कुछ बातें भूगोल की किताब किसका है! में पढ़ी हैं—क्या यह जानना वही है जो उसके लिए प्रगट होता यह तो कहानी पुरानी हो गयी। | है, जिसने हिमालय के दर्शन किए, जिसकी आंखों ने हिमालय एक मनोवैज्ञानिक का जीवन में पढ़ रहा था। उसने इस कहानी | की शीतलता को पीया, जिसकी आंखों ने हिमालय के सौंदर्य को के बाबत चर्चा की है। और उसने लिखा है अगर आज अमरीका अपने में प्रविष्ट होने दिया, जो हिमालय की घाटियों और की किसी अदालत में यह मामला आये और जज तय न कर शिखरों पर घूमा, जिसने हिमालय का स्पर्श किया? क्या यह पाये, तो वह मनोवैज्ञानिक को बुलायेगा। क्योंकि अब तो जानना वही है जो भूगोल की किताब से मिल जाता है? भूगोल अमरीका में मनोवैज्ञानिक से पूछा जाता है कि क्या करना, ये की किताब में तो कोरे कागजों पर स्याही के काले चिह्न हैं और दोनों स्त्रियां दावा करती हैं, इनमें कौन झूठी है? और कुछ भी नहीं। कहां वे स्वर्ण-शिखर! कहां वे बर्फ से ढंके हुए मनोवैज्ञानिक सोलोमन की तरकीब का उपयोग करें, तो जो स्त्री शीतल अछूते, कुंवारे लोक! कहे, कि 'लूंगी तो पूरा, नहीं तो पूरा दे दूंगी', वह थोड़ा रुग्ण आंखें-आंखें ही केवल सत्य को देख सकेंगी। कही-सुनी 539 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 पर बहुत ध्यान मत देना। देखा-देखी बात! देखो तो ही कुछ जानना है? विवेकानंद झिझके! 'अभी जानना है कि थोड़ी देर बात हुई। लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात। रुकोगे?' विवेकानंद ने कहा, मैंने सोचा नहीं। यह तो मैंने नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। सोचा ही न था कि कोई इस तरह पूछेगा जैसे कि पास के कमरे में 'दर्शन से ही श्रद्धा उत्पन्न होती है।' है ईश्वर, दरवाजा खोला कि दिखा देंगे! श्रद्धा का अर्थ है, जुड़ गये तार तुम्हारे हृदय से; बात बुद्धि की रामकृष्ण ने कहा, उस कमरे से भी पास है। तुम्हारे भीतर है! न रही; बात केवल मत न रही, 'ओपिनियन' न रही। अब | मेरे भीतर है! तुम कहो तो मैं दिखा दं। और तमने अभी तैयारी न ऐसा नहीं कि ऐसा हम सोचते हैं-ऐसा है। श्रद्धा का अर्थ की हो तो सोचकर आ जाना।। हुआ : ऐसा है। ऐसा नहीं कि हम सोचते हैं; ऐसा नहीं कि और और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें-रामकृष्ण तो थोड़े लोग कहते हैं; ऐसा नहीं कि जाननेवालों ने कहा है; ऐसा नहीं पागल-से आदमी थे-उन्होंने विवेकानंद की छाती पर पैर लगा कि हमने सुना है-ऐसा है। दिया। विवेकानंद धड़ाम से गिर पड़े। बेहोश हो गये। घंटेभर विवेकानंद परमात्मा की खोज में भटकते थे। अनेक गुरुओं के बाद जब होश में आये तो कंप रहे थे पत्ते की तरह तूफान में! रोने पास गये। पूछा, ईश्वर है? विवेकानंद की निष्ठा और लगे। क्योंकि जो दिखाया, जो प्रतीति हुई उस घड़ी में, उसने विवेकानंद की जलती हुई खोज! जिससे पूछते वह घबड़ा | सारा, सारा जीवन बदल दिया। फिर रामकृष्ण से बहुत भागने जाता। वे बलशाली व्यक्ति थे। वे ऐसे पूछते कि अगर उत्तर की कोशिश की, बहुत भागने की कोशिश की, सब उपाय ठीक न मिला तो शायद चढ़ पड़ेंगे, शायद गर्दन दबा देंगे। किए–लेकिन भाग न सके। इस आदमी ने विवेकानंद की रामकृष्ण के पास भी गये। औरों ने ईश्वर के बाबत चर्चा की | आंखें किसी तरफ खोल दीं। थी। उसमें कई बड़े-बड़े लोग थे। उसमें रवींद्रनाथ के दादा थे; अब यह सवाल ज्ञान का न रहा। इसको महावीर श्रद्धान कहते वे महर्षि समझे जाते थे। उनके पास भी विवेकानंद पहुंच गये हैं। श्रद्धा हुई। यह गैर पढ़ा-लिखा आदमी रामकृष्ण, महर्षि थे। वे एक बजरे में रहते थे नाव में। आधी रात तैरकर नाव में देवेंद्रनाथ को हरा दिया। वे बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे, चढ़ गए। पूरी नाव कंप गयी। वे ध्यान कर रहे थे अंदर। ब्रह्म-समाज के जन्मदाताओं में एक थे। लेकिन श्रुति थी, स्मृति दरवाजा धक्का देकर तोड़ दिया। भीतर पहुंच गये पागल की थी-श्रद्धान न था। तरह। आधी रात! पानी में सरोबोर! पूछा, 'क्या बात है। महावीर कहते हैं, ज्ञान से जाना जाता है; दर्शन से श्रद्धा होती युवक! कैसे आये?' तो विवेकानंद ने कहा, 'ईश्वर है?' तो है। और जब श्रद्धा होती है तो चरित्र का जन्म होता है। क्योंकि उन्होंने कहा, 'बैठो मैं तुम्हें समझाऊंगा।' विवेकानंद ने कहा, जिस पर श्रद्धा ही नहीं है वह तुम्हारे चरित्र में कभी न उतर 'मैं समझने नहीं आया। मैं यह जानना चाहता हूं, ईश्वर है? | सकेगा। उतार लोगे तो पाखंड होगा। ऊपर-ऊपर होगा। किसी ऐसा तुम्हें अनुभव हुआ है?' और को दिखाने को होगा। अंतर्तम में तुम विपरीत रहोगे, भिन्न झिझके महर्षि! विवेकानंद छलांग लगाकर नदी में कूद गये। रहोगे। बाहर के दरवाजे से एक, भीतर के दरवाजे से दूसरे बुलाया कि 'सुनो, आये...चले?' विवेकानंद ने कहा, झिझक रहोगे। कहोगे कुछ, करोगे कुछ। वह तुम्हारे चरित्र में न आ ने सब कह दिया। समझने में आया नहीं, जानने में आया नहीं। सकेगा। चरित्र में तो कोई बात तभी आती है जब श्रद्धा की भूमि मैं तो यह पूछने आया हूं कि तुमने देखा है? मैं किसी ऐसे में बीज पड़ता है। आदमी की तलाश में है, जिसका हाथ ईश्वर के हाथ में हो। जीसस ने कहा है, किसान बीज फेंकता है। कुछ रास्ते पर पड़ शास्त्र तो मैं भी पढ़ लूंगा। शास्त्र ही समझना हो तो तमसे क्या जाते हैं, जहां पथरीली जगह है: कभी उगते. समझेंगे, खुद ही पढ़ लेंगे। किनारे पड़ जाते हैं, जहां जमीन तो ठीक है, लेकिन लोग गुजरते फिर रामकृष्ण के पास भी वही सवाल किया था, कि ईश्वर हैं, पैरों में दब जाते हैं: उग भी आते हैं तो मर जाते हैं। कछ उस | है ? तो रामकृष्ण ने क्या उत्तर दिया? रामकृष्ण ने कहा, तुम्हें भूमि में पड़ते हैं, गीली, कोमल-जहां पैदा भी होते हैं, सुरक्षित 5401 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष भी रह जाते हैं। असत्य गिरता है; सत्य तो-जो शेष रह जाता है, असत्य के तो जब तक कोई ज्ञान तुम्हारी श्रद्धा न बन जाये, जब तक हृदय गिर जाने पर जो शेष रह जाता है, तुम्हारा स्वभाव, वही सत्य है। की भूमि में कोई बीज न पड़े, जब तक तुम्हारी दृष्टि में कोई बात इसलिए महावीर कहते हैं, चरित्र से सिर्फ निरोध होता है, सत्य की तरह अनुभव में न आ जाये तब तक चारित्र्य का, नकार होता है, व्यर्थ छूट जाता है। सार्थक तो है ही भीतर, व्यर्थ चरित्र का, आचरण का कोई रूपांतरण नहीं होता। हां, तुम से जुड़ गया है। सार्थक को लाना नहीं है। आयोजन करके, चेष्टा करके रूपांतरण कर सकते हो। बहुतों ने यही किया है। निमंत्रण देकर, अभ्यास करके लाना नहीं है सिर्फ व्यर्थ को ज्ञान से सीधा चरित्र निर्मित किया जा सकता है लेकिन वही देख लेना है। व्यर्थ को व्यर्थ की तरह देख लेना पर्याप्त है। व्यर्थ चरित्र पाखंडी, हिपोक्रेट का चरित्र है। जो ज्ञान से सीधा चरित्र व्यर्थ की तरह दिखा कि हाथ से छूटा, गिरा। फिर तुम उसे दुबारा पर चला गया, वह अपने ऊपर एक तरह का आरोपण कर न उठा सकोगे। और तुम जो उसके बिना रह जाओगे, वही सत्य लेगा। वह सत्य बोलेगा, लेकिन झूठ से उसकी मुक्ति न होगी। है, वही स्वभाव है। वह तुम सदा से थे। झूठ भीतर-भीतर उबलेगा, सत्य ऊपर-ऊपर थोपेगा। वह इसका अर्थ यह हुआ कि तुम ठीक तो हो ही, कुछ गलत से अहिंसक हो जायेगा, लेकिन हिंसा भीतर दावानल की तरह तुम्हारा संबंध जुड़ गया है। ठीक होना तो सदा से ही है; गलत जलती रहेगी। वह ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेगा, लेकिन कामवासना से संबंध जुड़ गया है। गलत से संबंध छूट जाये, तुम ठीक तो थे रोएं-रोएं में मौजूद रहेगी। उसके व्रत ऊपर-ऊपर होंगे; जैसे ही। ऐसा नहीं है कि तुम गलत हो गए हो और तुम्हें ठीक होना वस्त्र हैं ऐसे होंगे; हड्डी, मांस, मज्जा न बनेंगे। है; ऐसा ही है कि सोने के ऊपर मिट्टी की तह बैठ गयी, धूल जम जब ज्ञान श्रद्धा के माध्यम से गुजरकर चरित्र तक पहुंचता है, गयी, दर्पण के ऊपर धूल बैठ गयी-बस धूल को हटा देना है, तब सम्यक चारित्र्य पैदा होता है। पोंछ देना है; दर्पण तो दर्पण है ही। धूल के भीतर शुद्ध दर्पण चरित्र से, जो व्यर्थ है उसका निरोध हो जाता है। चरित्र का मौजूद है। धूल ने दर्पण को खराब थोड़े ही किया है! धूल से इतना ही अर्थ है। महावीर के हिसाब से चरित्र का अर्थ है : व्यर्थ दर्पण नष्ट थोड़े ही हुआ है ! ढंक गया है-उघाड़ना है। का निरोध। इसे खयाल में लेना, क्योंकि महावीर की। इसलिए महावीर के लिए आत्मा एक आविष्कार है। सिर्फ नकारात्मक दृष्टि का बुनियादी हिस्सा है। महावीर यह नहीं | उघाड़ना है। जैसे राख में अंगारा छिपा हो-फूंक मारी, राख कहते कि तुम्हें ब्रह्मचर्य आरोपित करना है। ब्रह्मचर्य तो आत्मा गिर गयी, अंगारा रह गया। ऐसे ही दृष्टि की फूंक जब लग जाती का स्वभाव है; आरोपित करना नहीं। आरोपित तो इसलिए है, राख झड़ जाती है; जो शेष रह जाता है, वही चरित्र है। करना पड़ता है कि श्रद्धा से कभी वासना का सत्य, वासना की 'चरित्र से निरोध होता है और तप से विशुद्धि होती है।' व्यर्थता तुम्हें दिखायी नहीं पड़ी। सुना किसी को, ब्रह्मचर्य की | तप का मैंने तुम्हें कल अर्थ कहा, वह खयाल रखना। तप का बातें मधुर लगी, तुम्हारे अनुभव से भी थोड़ी मेल खाती लगीं। अर्थ है : जो दुख आयें उन्हें चुपचाप, बिना ना-नुच किये, बिना जीवन के दुख से भी तुम ऊब गये हो, परेशान हो गये हो। तो अस्वीकार किए स्वीकार कर लेना। लगा कि ठीक ही है, उचित ही है। ऐसा उचित मानकर तुमने तप का भी अर्थ इतना ही है कि पिछले-पिछले जन्मों में, दूर ब्रह्मचर्य आरोपण करना शुरू किया। तो ब्रह्मचर्य को विधायक की लंबी यात्रा में, हमने जो दुख के बीज बोए थे उनके फल पक रूप से आरोपित करना होगा, पाजिटिव रूप से आरोपित करना गये हैं। उन्हें कौन भोगेगा? उन्हें भोगना ही होगा। तो जिसे होगा। तुम्हें चेष्टा करके ब्रह्मचारी बनना होगा। भोगना ही है, उसे दुख से भोगना गलत है। जिसे भोगना ही है महावीर का कहना यह है, अगर तुम्हें दिखायी पड़ गया कि उसे सहज स्वभाव से, सरलता से, शांति से भोग लेना उचित वासना व्यर्थ है तो ब्रह्मचर्य आरोपित नहीं करना पड़ता; वासना है। क्योंकि अगर तुमने उसे दुख से भोगा तो तुमने फिर दुख के गिर जाती है, जो शेष रह जाता है वही ब्रह्मचर्य। इस भेद को बीज बोये। तुमने प्रतिक्रिया की। तुम कहते रहे कि चाहता नहीं खूब गहराई से समझ लेना। था, यह क्या हो रहा है? इनकार करते रहे। तो तुमने चाह की 541 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः फिर प्रदर्शना की। तुम्हारी चाह भीतर बनी ही रही। तुम सुख __ अभी पश्चिम में वैज्ञानिक कहते हैं, जल्दी ही टेस्ट-ट्यूब में चाहते थे और दुख मिल रहा है तो तुम नाराज रहे, तुम क्रोधित बच्चे होने लगेंगे, ताकि स्त्रियों को इतनी झंझट न उठानी पड़े। रहे। दुख तो भोगना ही पड़ा। लेकिन ये क्रोध और नाराजगी के यह होगा। यह बीस वर्षों के भीतर होगा। यह तुम्हारे सामने नये बीज बो लिये। इनका दुख फिर भोगना पड़ेगा। होगा। क्योंकि स्त्रियों को एक बार पता हो गया कि बच्चे महावीर कहते हैं, तुम चुपचाप, बिना कोई प्रतिक्रिया किये, | | टेस्ट-ट्यूब में पैदा हो सकते हैं, तो जैसे ही मां के पेट में दुख आये तो उसे भोग लो। जैसे दर्पण के सामने सुंदर व्यक्ति | गर्भाधारण होगा, उसके अंडे को निकालकर टेस्ट-ट्यूब में रख आ जाये कि कुरूप व्यक्ति आ जाये, दर्पण कोई इनकार नहीं | दिया जायेगा। फिर वैज्ञानिक उसकी फिक्र कर लेंगे अस्पताल करता, दोनों को झलका देता है। फिर दोनों चले जाते हैं, दर्पण में। यह मां को नौ महीने की उपद्रव, परेशानी, कठिनाई, पीड़ा खाली रह जाता है। तो महावीर कहते हैं, सुख आये तो पकड़ना यह सब बच जायेगी। यह सब तो बच जायेगी, लेकिन मां भी मत, दुख आये तो धकाना मत। सुख आये तो समझना, किये | पैदा न होगी। हुए पुण्य-कर्मों का फल है। दुख आये तो समझना कि किये हुए जरा सोचो! तुम्हारा बच्चा टेस्ट-ट्यूब में पैदा हुआ, तो वह पाप-कर्मों का फल है। निष्पक्ष, तटस्थ दर्पण की भांति खड़े तुम्हारा है या किसी दूसरे का है, क्या फर्क पड़ता है? रहना : दोनों आये हैं, दोनों चले जायेंगे। जो आता है वह जाने टेस्ट-ट्यूब अगर बदल गयी हो भूल-चूक से क्लर्कों की, तो को ही आता है। जो आया है वह जाने के रास्ते पर ही है। सुबह तुम्हें कभी पता भी न चलेगा कि तुम्हारा है या किसी और का है! हो गयी, सांझ हो जायेगी। सांझ हो गयी, सुबह हो जायेगी। भेद ही क्या है? सूरज ऊगा, सूर्यास्त होने लगा। इसलिए घबड़ाना मत। तुम फिर गणित का ऐसे विस्तार होता है। फिर वैज्ञानिक कहते हैं सिर्फ चुपचाप खड़े रहना। तुम्हारी दृष्टि कोरी रहे, दर्पण की तरह कि जरूरी क्यों हो कि तुम्हारे ही वीर्याणु से तुम्हारा बच्चा पैदा रहे—बिना किसी पक्षपात के, बिना किसी विकल्प के। कोई | हो। अच्छे वीर्याणु मिल सकते हैं। यह बात सच है। आदमी धारणा मत बनाना। इस अवस्था का नाम तप है। जब बीज बोता है, खेती करता है, फूल लगाता है, तो अच्छे से तप से आदमी शुद्ध होता है। क्यों? क्योंकि तप से जो अतीत अच्छे बीज चुनता है। तुम अपना बच्चा पैदा करना चाहते हो, है, उससे छुटकारा हो जाता है। अतीत है अशुद्धि...अतीत से | अच्छे से अच्छे बीज चुनो। तुमसे बेहतर बीज मिल सकते हैं। छुटकारा है विशुद्धि। अतीत से दबे रहना है अशुद्धि। तो जल्दी ही, आज नहीं कल जैसे फूलों की दुकानों पर बीज कचरा, कूड़ा-कर्कट न-मालूम कितने जन्मों का छाती पर रखे पैकेट में मिलते हैं, वैसे आज नहीं कल वैज्ञानिक बच्चों के हम बैठे हैं! यह है अशुद्धि। इससे छुटकारा पा जाना है शुद्धि। वीर्याणु पैकेटों में बेचने लगेंगे। उसकी पूरी योजनाएं तैयार हैं। और जैसे ही कोई शुद्ध हुआ, वैसे ही महावीर कहते हैं: जो है, इतना ही नहीं, जैसे फूल के पैकेट पर फूल की तस्वीर बनी होती हमारा स्वरूप, स्वभाव, उसकी छवि उभरने लगती है; उसका है कि कैसा फूल होगा जब फूल होगा, बच्चे की तस्वीर भी बनी रूप स्पष्ट होने लगता है। और एक से दूसरी चीज जुड़ी है। होगी कि कैसा बच्चा होगा। तो तुम चुनाव कर सकते हो : कैसी लेकिन शुरुआत श्रद्धा से। आंख चाहिए, कैसे बाल चाहिए, कैसा चेहरा चाहिए, कितनी दर्शन, ज्ञान, चरित्र–इनको महावीर ने मोक्ष का मार्ग कहा | ऊंचाई चाहिए, लड़का चाहिए, लड़की चाहिए, वैज्ञानिक, है। जीवन बड़ा संयुक्त है : बीज से पौधा, पौधे से वृक्ष, वृक्ष में | कवि-तुम क्या चाहते हो? लेकिन तब एक बात पक्की है: फलों का लग जाना, फूलों का लग जाना। सब ठीक हो जायेगा; बच्चा तुम्हारा नहीं होगा। मां बनने से, कहीं बीच से शुरू मत करना! प्रारंभ से ही प्रारंभ करना। पिता बनने से, तुम वंचित रह जाओगे। बहुत लोग जल्दबाजी में होते हैं। वे सोचते हैं, 'फूल तो बाजार यह होनेवाला है, क्योंकि आदमी तकलीफों से बहुत डरने लगा में मिल जाते हैं। क्यों इतनी परेशानी उठानी? क्यों इतनी झंझट है। तो जहां-जहां सुविधा मिले, सब स्वीकार कर लेता है। लेनी? जो सस्ते में मिल जाता है, वह सस्ते में ले लिया जाये।' अगर सुविधा के कारण जीवन भी गंवा दे तो भी हर्ज नहीं, 5421 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MRITARAMIN दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष - लेकिन सुविधा चाहिए। फिर थोड़ी देर बाद आया। उसे देखकर ही वह कैप्टन थोड़ा तप का अर्थ है : जीवन संघर्षों से गुजरता है, तूफान भी आते परेशान होने लगा। उसने कहा कि 'फिर आ गए! अब क्या हैं, कठिनाइयां भी हैं..-उनको स्वीकार करना। उनको शांत भाव मामला है?' तो मुल्ला ने कहा, 'और सब तो ठीक-ठाक है? से स्वीकार कर लेना, तो तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे शुद्धि और कोई गड़बड़ तो नहीं है ?' उस कैप्टन ने कहा कि इससे निखरेगी। आत्मा प्रगाढ़ होगी। तुम केंद्रित बनोगे, आत्मवान तुम्हें मतलब क्या है ? मुल्ला ने कहा, 'मतलब? फिर बीच में बनोगे। और एक से दूसरी चीज जुड़ी है। श्रद्धा से शुरू करना। मत कहना, जब रुक जाये कि उतरकर धक्के लगाओ!' हृदय से शुरू करना। क्योंकि वहीं तुम्हारे प्राणों का प्राण छिपा बस में बैठने के आदी! आदमी दूध से जल जाये तो छाछ भी है। वही तुम्हारा मंदिर है। और फिर ज्ञान अपने-आप चला फूंक-फूंककर पीने लगता है। तुम्हें दिखायी पड़े, आग जलाती आता है। है, अनुभव में आ जाये...। आया ही था खयाल कि आंखें छलक पड़ीं तो तुमने खयाल किया है। अगर कहीं थियेटर में बैठे हो और आंसू किसी की याद से कितने करीब थे। लोग इतना ही चिल्ला दें, 'आग!' कि भगदड़ मच जाती है। आया ही था खयाल की आंखें छलक पड़ी! खयाल ही उठता | किसी को आग दिखायी नहीं पड़ रही है, किसी ने हो सकता है है, याद ही आती है कि आंखों में आंसू भर जाते हैं। मजाक ही की हो; लेकिन लोग इतना ही चिल्ला दें, 'आग!' आंसू किसी की याद से कितने करीब थे। जैसे याद के करीब कि भगदड़ मच जाती है। फिर तुम लाख समझाओ कि रुको, आंसू हैं और हृदय में किसी की याद उठी तो आंखें डबडबा कोई सुननेवाला नहीं है। आग शब्द भी घबड़ा देता है। जीवंत आती हैं-ऐसा ही, जहां दर्शन घटा, वहां ज्ञान घटता है। बहुत अनुभव का इतना परिणाम है! करीब है ज्ञान दर्शन के। और जहां ज्ञान घटा, वहां चारित्र्य घटना | तो अगर वासना जला दे तो वासना की तो बात दूर, वासना शुरू हो जाता है। अगर एक ही बात सध जाये-दर्शन-तो | | शब्द भी तुम हाथ में न ले सकोगे। अगर कामवासना ने तुम्हारे सब सध जाता है। जीवन को दग्ध किया और घाव बना दिये तो कामवासना की तो महावीर ने तीन की बातें कहीं, ताकि तुम्हें पूरा विश्लेषण साफ दूर, कामवासना की जहां चर्चा भी होती है वहां तुम न बैठ हो जाये; अन्यथा दर्शन कहने से भी काम चल जाता। जब तुम्हें सकोगे। कोई अर्थ न रहा। व्यर्थ के लिए कौन बैठता है! और जाता है कि दरवाजा कहां है, तो फिर तुम दीवाल से व्यर्थ की ही बात नहीं, जले जीवन के दुखद अनुभव हुए, घाव नहीं निकलते। और जब तुम्हें दिखायी पड़ जाता है कि आग हाथ बने-कौन घावों को मांगने जाता है! को जला देती है, अनुभव में आ जाता है, तो फिर तुम हाथ आग लेकिन तुम सुनते हो ब्रह्मचर्य की चर्चा, लोभ पैदा होता है। में नहीं डालते। आग की तो बात दूर, आग की तस्वीर भी रखी वासना की आग अभी दिखाई नहीं पड़ी और ब्रह्मचर्य की चर्चा से हो तो तुम जरा बचकर चलते हो। | लोभ जगने लगता है-इससे अड़चन खड़ी होती है। इससे मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा समुद्र की यात्रा पर | जीवन में एक भ्रांति आती है।। गया। इसके पहले कभी समुद्र की यात्रा न की थी, जहाज में | महावीर कहते हैं, शुरू करना दर्शन से। दर्शन, ज्ञान, बैठा न था। बस के अलावा और किसी वाहन में बैठा ही न था। चरित्र-यह सम्यक सरणि है। और जीवन को अगर ठीक से जहाज में थोड़ी देर बैठा। उठा, कैप्टन के कमरे में जाकर बोला, पहचानना हो तो जीवन को प्रतिपल जागकर देखते रहना। उसके 'पेट्रोल-वेट्रोल तो भर लिया है?' तो उसने कहा, 'सब भर अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। जो भी है-अगर क्रोध हो रहा है लिया है, तुम फिक्र न करो। बैठो अपनी जगह पर!' थोड़ी देर तो क्रोध को जागकर देखना-वही दर्शन बनेगा। करुणा का बैठा रहा, फिर उठकर पहुंचा, और कहा, 'सुनो जी! शास्त्र मत पढ़ना, क्रोध को गौर से देखना : उसी से करुणा किसी इंजिन-विंजिन तो ठीक है?' कैप्टन थोड़ा झल्लाया। उसने दिन पैदा होगी। कहा कि सब ठीक है, आप अपनी जगह पर बैठिये! लेकिन वह मैं हकीकत-आश्ना हूं हस्तिए-मोहूम का 543 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. जिन सूत्र भागः 11 देखता हूं गौर से फूलों को मुरझाने के बाद। 'और मोक्ष के बिना आनंद कहां, निर्वाण कहां।' ऐसे गौर से देखने से कुछ लाभ न होगा। जब नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं। फिर देखने से कुछ सार नहीं। बड़े सीधे-सरल, लेकिन बड़े वैज्ञानिक सूत्र हैं! बुढ़ापे में लोग कामवासना के संबंध में विचार शुरू करते हैं। 'दर्शन के बिना ज्ञान नहीं।' जब फूल मुर्झ गए, जब जीवन में ऊर्जा खो गयी, जब थक गये, इसलिए और कैसा भी ज्ञान तुमने इकट्ठा किया हो, उसे ज्ञान जब जीवन जवाब देने लगा, जब जिंदगी खुद ही उन्हें छोड़ने | मत समझना। और कितना ही ज्ञान तुम्हारे पास हो, उसे तुम लगी और रद्दी के ढेर पर फेंकने लगी-तब वे त्यागने की बात अज्ञान का आभूषण ही समझना; उससे अज्ञान ही सज गया है, सोचते हैं। संवर गया है, ज्ञान पैदा नहीं हुआ। उससे अज्ञान ढंक गया है, इसलिए महावीर ने एक बहुत अनूठा सूत्र भारत को ज्ञान पैदा नहीं हुआ। दिया-और वह था: जब तुम जवान हो, जब जीवन की ऊर्जा | 'ज्ञान के बिना चरित्र नहीं।' भरी-पूरी है, तभी अगर तुम जीवन के दुख को देख लो और दर्शन, ज्ञान, चरित्र। और ज्ञान की परीक्षा यही है कि वह उससे छूट जाओ, भरी जवानी में त्याग का फल लग जाये, तो | तुम्हारे आचरण में उतर आये। बड़ा शुभ है। क्योंकि तब ऊर्जा है। तो जिस ऊर्जा से तुम संसार मैंने सुना है, प्रसिद्ध शहीद चंद्रशेखर आजाद को तीन ही की तरफ जाते थे, वही ऊर्जा तुम्हें मोक्ष की तरफ ले जाने का | गालियां आती थीं। और जब वह बहुत क्रोध में भी आ जाते तो साधन बन जायेगी। ऊर्जा तो वही है। लेकिन जब ऊर्जा जा उन्हीं तीन गालियों को बार-बार दोहराने लगते। गधा, चुकी, थक गये, हाथ-पैर कमजोर पड़ गये, उठते नहीं बनता, नालायक, उल्लू के पट्टे-बस तीन ही गालियां आती थीं। बैठते नहीं बनता-तब तुम त्याग का सोचने लगे। यह त्याग न किसी मित्र ने कहा कि अगर तुम्हें गालियां देने में ऐसा रस आता हुआ, यह तो अपने को धोखा देना हुआ। जिंदगी खुद ही तुम्हें । है और क्रोध के वक्त गालियां कम पड़ जाती हैं तो और क्यों नहीं त्यागे दे रही है। अब तुम्हारे त्याग का कोई अर्थ नहीं है। यह तो | सीख लेते? कोई गालियों की कमी है?...कि गधा, | ऐसे ही हआ कि जब दांत टट गये तब तमने बहत-सी चीजें खाने | नालायक, उल्ल के पट्टे फिर गधा, नालायक, उल्ल के का त्याग कर दिया। अब तुम उन्हें खा ही नहीं सकते। पढे-बार-बार वही दोहराने लगते हो, अच्छा भी नहीं मालूम ध्यान रखना, जो बीत रहा है अभी, आज, यहां, उसके प्रति | होता! जैसे टूटा हुआ रिकार्ड दोहराने लगता है। जागना! दर्शन की क्षमता को वहां सजग करना। जैसे-जैसे तो चंद्रशेखर आजाद ने कहा, 'चौथी गाली की जरूरत नहीं दर्शन जागता जायेगा-क्रोध में, काम में, लोभ में, मोह है।' कोट के खीसे से पिस्तौल निकाली और कहा, 'गाली, में वैसे-वैसे तुम पाओगे मोह, काम, क्रोध, लोभ गिरने लगे, फिर गोली। तीन गाली काफी हैं। फिर इसके बाद गोली।' और एक नयी ऊर्जा का भीतर आविर्भाव हुआ। क्योंकि जो कहा कि मैं इस सूत्र को मानकर चलता हूं कि विचार आचरण में ऊर्जा क्रोध में लगी है वही मुक्त होकर करुणा बन जाती है। लाने चाहिए। तो गाली तो केवल विचार है, गोली आचरण है। दर्शन के माध्यम से क्रोध करुणा बन जाता है। और काम की मगर मजा यह है कि अगर गाली है तो गोली अपने-आप आ यात्रा राम की यात्रा बन जाती है। जायेगी। गाली कब तक देते रहोगे? अगर क्रोध है तो हिंसा पैदा 'सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान नहीं।' होगी। उससे बच न सकोगे। क्योंकि जिसको हम विचार में नांदसणिस्स नाणं। सम्हालते हैं, वह आज नहीं कल आचरण में झलक जाता है। 'ज्ञान के बिना चारित्र्य नहीं।' क्योंकि आचरण कुछ भी नहीं है—निरंतर विचार, पर्त-पर्त नाणेण विणा न हंति चरणगुणा। विचार का ही जम जाना है। विचार ही तो वस्तुएं बन जाते हैं। 'चरित्रगुण के बिना मोक्ष नहीं।' जो तुमने सोचा है, कल वही तुम्हारा आचरण बन जायेगा। जो अगुणिस्स नत्यि मोक्खो तुम्हारा आज विचार है वह कल आचरण होगा। और जो आज Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष तुम्हारा आचरण है वह कल तुम्हारा विचार था। भी ज्यादा जल्दबाजी में हैं, वे चरित्र से शुरू कर देते हैं। जब भी विचार और आचरण एक ही यात्रा के हिस्से हैं। विचार पहला तुम्हें खयाल उठता है, तुम सोचने लगते हो चरित्र को कैसे कदम है; आचरण अंतिम। अगर कोई विचार आचरण न बनता | बदलें। तुम आखिरी बात पहले लाना चाहते हो? तुम भ्रांति में हो तो इस बात का एक ही अर्थ होता है कि वह विचार तुम्हारा पड़ रहे हो। तुम सिर के बल खड़े हो जाओगे। नहीं है। इसलिए कैसे आचरण बने? इसलिए मैं कहता हूं, जैन मुनि सौ में निन्यानबे सिर के बल चिकित्सकों से पूछो! अगर तुम्हारे शरीर में खून की कमी हो खड़े हैं। उन्होंने चरित्र से शुरुआत कर दी। और महावीर के बड़े जाये तो हर किसी का खून तुम्हारे काम न पड़ेगा। तुम्हारा ही | सीधे-साफ सूत्र हैं। इनको समझने के लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता टाइप चाहिए। मतलब हुआ कि तुम्हारा खून ही तुम्हारा शरीर नहीं चाहिए। इनमें उलझाव कुछ भी नहीं है। महावीर की स्वीकार करता है और किसी तरह का खून स्वीकार नहीं उलझाने की आदत नहीं है; चीजों को बिलकुल साफ-साफ रख करता। अगर तुम्हारे चेहरे पर प्लास्टिक सर्जन कुछ आपरेशन देने की आदत है। अब इससे ज्यादा साफ सूत्र क्या होगा: करे और चमड़ी बदलनी हो तो तुम्हारे ही पैर या जांघ की चमड़ी 'दर्शन के बिना ज्ञान नहीं! ज्ञान के बिना चरित्र नहीं। चरित्र के निकालकर लगानी पड़ती है। क्योंकि दूसरी किसी की चमड़ी बिना मोक्ष नहीं।' तुम्हारा शरीर स्वीकार नहीं करता। | लेकिन जैन मुनि क्या कर रहा है? वह चरित्र को साध रहा है। जो शरीर के संबंध में सही है वह आत्मा के संबंध में और भी वह कहता है, जब चरित्र शुद्ध होगा तो ज्ञान शुद्ध होगा। जब ज्यादा सही है। तुम्हारा ही हो अनुभव तो ही तुम्हारी आत्मा ज्ञान शुद्ध होगा तो दर्शन शुद्ध होगा। उसने सारी प्रक्रिया उलटी कार करती है, अन्यथा नहीं स्वीकार करती। तम्हारे ही प्राणों कर ली है। वह सिर के बल खड़ा हो गया है। इसलिए न तो में पगा हो तो ही तुम्हारी आत्मा उसे अपने भीतर लेती है, अन्यथा दर्शन उत्पन्न होता, न ज्ञान उत्पन्न होता, न चरित्र उत्पन्न होता। बाहर फेंक देती है। जैसे हर किसी के खून को तुम्हारे भीतर नहीं | सब बासा है। सब उधार है। सब मुर्दा और लाश की भांति है। डाला जा सकता और जैसे हर किसी की चमड़ी तुम्हारे पैर पर या । कोई उत्सव नहीं है सत्य का। कोई परमात्मा की जीवंत अनभति तुम्हारे चेहरे पर नहीं चिपकायी जा सकती–शरीर तो बाहर है, | नहीं है। आत्मा तो बहुत गहरे है, तुम्हारा आखिरी, आत्यंतिक अस्तित्व 'क्रिया-विहीन ज्ञान व्यर्थ है।' हयं नाणं कियाहीणं। और है। वहां तो केवल तुम ही तुम हो। तुम्हारा ही जो है, वही वहां अज्ञानियों की क्रिया भी व्यर्थ है।' पाएगा जगह; शेष सब अस्वीकृत हो जाता है। _ये सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं! इसलिए महावीर कहते हैं, सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान नहीं। 'हया अण्णाणओ किया।' ज्ञान के बिना चारित्र्य नहीं। चारित्र्य के बिना मोक्ष नहीं। __'क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है।' अगर ऐसा कोई ज्ञान तुम्हारे और जो अभी चरित्र में शुद्ध नहीं हुआ, उसकी मुक्ति कहां! पास है जो जीवन में आचरित नहीं हो रहा है, अपने-आप जीवन क्योंकि मोक्ष तो जो गलत है उससे छुट जाने का नाम है, बंधन के में उतर नहीं रहा है तो व्यर्थ है, गलत है। और अगर तुम अज्ञानी टूट जाने का नाम है। हो और क्रिया में लग गये हो, चरित्र बनाने में लग गये हो, तो और मोक्ष के बिना निर्वाण कहां, आनंद कहां? वह भी व्यर्थ है। तो तुम अगर दुखी हो तो आकस्मिक नहीं। तुम दुखी रहोगे क्रियाहीन ज्ञान तो व्यर्थ है; क्योंकि जानते तुम हो, लेकिन ही, क्योंकि आनंद तक जाने की तुम यात्रा नहीं कर रहे हो। और जीवन में काम में नहीं लाते हो। यह तो ऐसे ही है कि भोजन रखा अगर कभी तुम उत्सुक भी होते हो तो तुम जल्दबाजी में हो, है और तुम भूखे बैठे हो। यह भोजन व्यर्थ है। हो या न हो, अधैर्य है बहुत। तो तुम सोचते हो, दो-चार कदम एक साथ उठ | बराबर है। यह सर्दी पड़ रही है, कंबल सामने रखे बैठे हो, जायें कि दो-चार सीढ़ियां एक साथ छलांग लग जायें, कि जल्दी ओढ़ते नहीं हो—कि धूप निकली है, तुम सर्दी में कंप रहे हो, कुछ हो जाये। कुछ हैं जो ज्ञान से शुरू करते हैं। कुछ, जो और | जाकर धूप में नहीं बैठ जाते हो कि थोड़ा धूप का आनंद ले लो 545/ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 4 और शरीर को गरमा लो। यह ज्ञान तो व्यर्थ है जो आचरण में न हूं, जब तक तुम ढोलपुर में न बोल सको, तक तक तुम्हारे उतर आये। इस भोजन का क्या करोगे? बोलपुर में बोलने का कोई मतलब नहीं है। शांति तो वहां जीसस के जीवन में उल्लेख है कि जीसस ने चमत्कार किया घनीभूत होनी चाहिए जहां चारों तरफ अशांति है। ढोलपुर! और पत्थरों को रोटी बना दिया। एक ईसाई मेरे पास आया था। | बीच बाजार में अगर तुम मुक्त न हो सको तो तुम्हारी मुक्ति दो वह कहने लगा, आप इसमें मानते हैं या नहीं? मैंने कहा, मैं | कौडी की है। अगर हिमालय की चोटियों पर बैठकर तुम मुक्त मानता हूं क्योंकि इससे भी बड़ा चमत्कार दूसरे लोग कर रहे हैं। हो जाओ तो उस मुक्ति का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि उतरते ही उन्होंने रोटियों को पत्थर बना दिया है! तो यह कोई बड़ी बात पहाड़ से नीचे तुम पाओगे, वह मुक्ति पहाड़ पर ही छूट गयी। नहीं कि ईसा ने अगर पत्थर को रोटी बना दिया; यह तो मैं रोज | बाजार में खरोंचें लगेंगी। देख रहा हूं कि करोड़ों-करोड़ों लोगों ने रोटी को पत्थर बना दिया | तुम अपने मुनियों को थोड़ा बाजार में लाओ! वहां पता चल है। चमत्कार तो वही है। | जायेगा, क्योंकि वहां चारों तरफ धक्कम-धुक्की है। ज्ञान रखा है, किसी काम नहीं आता! तुमने ज्ञान का कभी मैंने सुना है, एक संन्यासी तीस वर्ष तक हिमालय में रहा। उपयोग किया है? तुम कर ही नहीं सकते उपयोग, क्योंकि वह उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। लोग उसकी पहाड़ी गुफा दर्शन से पैदा नहीं हुआ है। वह तुम्हारा है ही नहीं। भीतर गहरे तक आने लगे, उसके चरण छूने। आखिर कुंभ का मेला भरा मन में तुम जानते ही हो कि वह ठीक नहीं है। ऊपर-ऊपर से कहे था, तो लोगों ने कहा, 'महाराज! अब तो नीचे उतरो।' तो जाते हो, ठीक है। लोकोपचार, समाज, परंपरा! उसको भी अब तो भरोसा आ गया था। तीस साल! एक दफा तुम्हारा ज्ञान एक शिष्टाचार मात्र है। लेकिन भीतर तुम्हें उस क्रोध नहीं हुआ। एक दफा नाराज नहीं हुआ। एक दफा कोई पर भरोसा नहीं है। जिस पर भरोसा नहीं उसे तुम कैसे जीवन में विकृति नहीं उठी। उसने कहा, आता हूं। वह आया। अब कुंभ उतारोगे? जिस भोजन पर तुम्हें भरोसा नहीं है, उसे तुम कैसे | का मेला! वहां कौन किसकी फिक्र करता है! धक्कम-धुक्की! करोगे? उसे तुम कैसे पचाओगे? उसे तुम क्यों चबाओगे? वह नीचे उतरा तो धक्कम-धुक्की होने लगी। एक आदमी का ऊपर से तुम कहते हो, भोजन है; भीतर तो तुम्हें दिखायी पड़ता पैर उसके पैर पर पड़ गया। वह भूल ही गया तीस साल का है पत्थर, मिट्टी है। इसलिए ज्ञान पड़ा रह जाता है। हिमालय का वास, शांति, ध्यान! झपटकर उसकी गर्दन पकड़ _ 'क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया भी व्यर्थ ली और कहा, 'तूने समझा क्या है ? किसके ऊपर पैर रख रहा है।' और अगर अज्ञानी चरित्रवान होने की कोशिश में लग जाये है? होश से चल!' लेकिन तभी उसे खयाल आया, अरे! तीस तो वह भी व्यर्थ है; क्योंकि वह कितना ही आरोपित कर ले | साल मिट्टी हो गये! चरित्र, वह कभी उसके प्राणों का स्पंदन नहीं बनेगा। वह उसके पर हिमालय में तुम बैठे थे, एकांत में, न किसी का पैर पैर पर जीवन का गीत न होगा। वह बस ऊपर-ऊपर होगा। जरा पड़ता था, न मौके थे, न अवसर थे। खरोंच जरा-सी लग जाये, खरोंच दो-और असली मवाद बाहर निकल आएगा। मुश्किल में पड़ जाओगे। तो तुम तथाकथित चरित्रवानों को खरोंचना मत, अन्यथा साधु अगर सम्यक चरित्र को उपलब्ध हो तो भगोड़ा नहीं चमड़ी से भी कम गहरा उनका चरित्र है। बिना खरोंचा रहे तो होगा। भगोड़े होने की कोई जरूरत नहीं है। उसके होने में सब ठीक चल जाता है। जरा-सी खरोंच-और कठिनाई हो साधुता होगी। उसने कुछ छोड़ा नहीं है; जो गलत था वह छूट जाती है। इसलिए तो तुम्हारे चरित्रवान जीवन को छोड़कर भाग गया है। और उसने कुछ थोपा नहीं है; जो ठीक था वह प्रगट जाते हैं, क्योंकि जीवन में लगती हैं खरोंचें। हुआ है। उसका चरित्र उसकी आंतरिक आत्मा का ही प्रतिबिंब रवींद्रनाथ से किसी ने पूछा, 'आपने शांतिनिकेतन बोलपुर में होगा। उसके जीवन में तुम विरोध न पाओगे। उसके भीतर कोई क्यों बनाया?' तो उन्होंने कहा, 'क्या ढोलपुर में बनाऊं? यहां | दोहरी पर्ते नहीं हैं। उसके व्यक्तित्व में तुम डबल:माइंड न कम से कम बोल तो सकते हैं। बोलपुर!' और मैं तुमसे कहता पाओगे। ऐसा नहीं है कि वह कुछ भीतर है और कुछ होने की 546 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष चेष्टा कर रहा है। वह जो भीतर है, वैसा ही बाहर प्रगट हो रहा | पहली मुलाकात में क्या तमाशा खड़ा करें? और भीड़ लगी है, है। इसलिए महावीर नग्न खड़े हुए। मौलवी है, समाज है, विवाह हो रहा है, गठबंधन डाला जा रहा नग्न खड़े होना बड़ा प्रतीकात्मक है, कि जैसा मैं भीतर हूं वैसा है-अब इसमें कहां तमाशा खड़ा करो बीच में—इसलिए! बाहर। कपड़े भी क्यों पहनं? मैं वैसा क्यों दिखलाऊं जैसा कि जिंदगी में तुम्हारी कसमें, तुम्हारे व्रत, तुम्हारे चरित्र, अगर मैं नहीं हूं? किसी कारण से हैं तो ऊपर-ऊपर होंगे। तुमने देखा! कपड़े के पीछे सिर्फ शरीर को ढांकने की ही पत्नी बहुत नाराज हो गयी–यह मौलवी की और विवाह की आकांक्षा थोड़े ही है। अगर सिर्फ शरीर को ढांकने की आकांक्षा बात उठते देखकर। और उसने कहा कि मेरे मन में कई दफे ऐसा हो तो ठीक। कपड़े के पीछे शरीर को वैसा दिखाने की आकांक्षा लगता है कि तुम बार-बार सोचते होओगे कि मैं अगर किसी है जैसा वह नहीं है। तो महावीर का नग्न खड़े हो जाना कपड़ों और को ब्याही गई होती तो अच्छा था। का विरोध नहीं है; लेकिन तुम्हारी गहरी आकांक्षा का विरोध है। मुल्ला ने कहा, 'नहीं, कभी नहीं! मैं किसी का भला...किसी देखा स्त्रियां या पुरुष! पुरुष कोट बनवाते हैं तो कंधों पर रुई का बुरा क्यों चाहने लगा! हां, यह भावना जरूर मन में भरवा लेते हैं, क्योंकि छाती उभरी हुई दिखायी पड़े। रुई सही; कभी-कभी उठती है कि तुम अगर जनम भर कुंवारी रहती तो मगर कौन देख रहा है भीतर आकर! बाहर से चलते तो छाती | बड़ा अच्छा होता।' उभरी दिखायी पड़ती है। हम छिपाये जाते हैं। जहां प्रेम नहीं है, वहां प्रेम दिखलाए जाते स्त्रियां स्तनों को हजार तरह से उभारकर दिखलाने की कोशिश हैं। जहां सदभाव नहीं है, वहां सदभाव दिखलाए चले जाते हैं। में लगी रहती हैं। न मालूम कितने तरह के इंतजाम कर रखे हैं। और जैसे हम नहीं हैं वैसा हम अपने चारों तरफ रूप खड़ा करते जैसा नहीं है वैसा दिखाने की चेष्टा चल रही है। रहते हैं। धीरे-धीरे दूसरे तो धोखे में आते ही हैं, हम भी धोखे में महावीर नग्न खड़े हुए—सिर्फ इस अर्थ में। यह प्रतीकात्मक आ जाते हैं। अपने ही प्रचारित असत्य अपने को ही सत्य मालूम है कि जैसा हूं, ठीक हूं। अब इसको अन्यथा दिखाने की क्या होने लगते हैं। तब एक बड़ी दुविधा पैदा होती है। उसी दुविधा जरूरत; अन्यथा दिखाने से अन्यथा हो तो न जाऊंगा। किसको | में लोग फंसे हैं। धोखा देना है और क्या सार है? महावीर कहते हैं, क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ, अज्ञानियों की क्रिया दर्शन हो तो ज्ञान होता, ज्ञान हो तो एक चरित्र आना शुरू व्यर्थ। तो न तो आचरण करना जबर्दस्ती। क्योंकि जो तुम्हारे होता। लेकिन वह चरित्र बड़ा नैसर्गिक होता। उसमें आरोपण, ज्ञान में न उतरा हो वह तुम्हें पाखंडित करेगा, तुम्हें पाखंडी चेष्टा, श्रम जरा भी नहीं होता। एक नैसर्गिक दशा होती है। बनाएगा। और अगर कोई तुम्हारे ज्ञान में उतरा हो तो उसकी मुल्ला नसरुद्दीन के घर मैं मेहमान था। सुबह-सुबह उसकी परीक्षा यही है कि वह आचरण में उतरे। इससे तुम गलत अर्थ पत्नी से किसी बात पर झंझट हो गयी। तो मुझे देखकर उसने मत लेना, जैसा कि आमतौर से जैन अनुयायी लेते हैं। वे सोचते थोड़ा ज्यादा रौब बांधना चाहा पत्नी पर। और उसने कहा कि हैं कि जो ज्ञान में आ गया, अब इसको आचरण में उतारना है। देखो, मौलवी के सामने, समाज के सामने तुमने कसम नहीं नहीं, यह तो सिर्फ परीक्षा, कसौटी है। महावीर यह कह रहे हैं खायी थी कि सदा मेरी आज्ञा का पालन करोगी? कि जो ज्ञान में आ गया है, वह आचरण में आना ही चाहिए। मैं मौजूद था तो उसने सोचा कि शायद पत्नी थोड़ी झुकेगी और अगर ज्ञान में आ गया है तो आचरण में आने से बच नहीं झंझट ज्यादा न करेगी। सकता। लेकिन एक शर्त है कि ज्ञान में दर्शन के माध्यम से लेकिन पत्नी ने कहा, 'हां, खायी थी, मुझे याद है। लेकिन आया हो। अगर दर्शन के माध्यम से न आया हो तो ज्ञान की वह सिर्फ इसीलिए खायी थी कि मैं उस वक्त पहली-पहली | तरह पड़ा रहेगा—तुमसे दूर, संबंध न जुड़ेगा; तुम्हारे हृदय और मुलाकात में तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी।' तुम्हारे ज्ञान में कोई सेतु न होगा। अब ऐसी कसम का क्या अर्थ, जो इसीलिए खायी गई हो कि 'जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में 547 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 जिन सूत्र भाग: 1 जंगल में आग लगी हो और एक अंधा आदमी हो जंगल में, वह दौड़ सकता है; लेकिन उसे दिखायी नहीं पड़ता कि आग कहां है, लपटें कहां हैं। वह दौड़कर भी जल मरता है। और एक लंगड़ा हो, उसे दिखायी पड़ता है कि आग कहां लगी है, कहां से भागूं, कहा से निकलूं; लेकिन पैर नहीं हैं, तो भी जल मरता है। जिस व्यक्ति के पास ज्ञान तो है, लेकिन आचरण नहीं, वह जल मरेगा। वह लंगड़ा है। जिस व्यक्ति के पास आचरण तो है, लेकिन बोध नहीं, वह भी जल मरेगा। उसके पास पैर तो थे, लेकिन आंख नहीं है। असमर्थ होने से जल मरता है... और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी न निकल सकेंगे। और जिनके पास ज्ञान है लेकिन चरित्र नहीं, वे देखने में असमर्थ होने से जल मरता है।' भी न निकल सकेंगे। तुम्हारे भीतर एक रसायन घटे, एक अल्केमिकल परिवर्तन हो, एक कीमिया से तुम गुजर जाओ कि तुम्हारा ज्ञान दर्शन बने, तुम्हारी आंख बन जाये और तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा चरित्र बन जाये। दो तरफ ज्ञान में घटनाएं घटें, एक तरफ ज्ञान दर्शन बने और दूसरी तरफ ज्ञान चरित्र बने, तो पक्षी के दोनों पंख उपलब्ध हो गए। अब तुम उड़ सकते हो इस विराट के आकाश में । 'कहा जाता है कि ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है; जैसे कि वन में पंगु और अंधे के मिलने पर पारस्परिक संप्रयोग से वन से निकलकर दोनों नगर में प्रविष्ट हो जाते हैं। एक पहिए से रथ नहीं चलता।' पातो पंगुलो ड्डो, धावमाणो य अंधओ । अंधा भी मर जाता है। पैर थे, बच सकता था। पंगु भी मर जाता है। आंखें थीं, बच सकता था। लेकिन दोनों का मिलन चाहिए। संजो असिद्धीइ फलं वयंति, न हु एग चक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा ।। अगर दोनों साथ हो जाएं, अगर अंधा और लंगड़ा एक | समझौते पर आ जायें, एक मैत्री कर लें, एक संबंध बना - संबंध कि लंगड़ा कहे कि मुझे तुम अपने कंधों पर बिठा लो, ताकि मैं तुम्हारी आंख का काम करने लगूं; संबंध कि अंधा कहे, तुम मेरे कंधों पर बैठ जाओ, ताकि मैं तुम्हारे पैर बन जाऊं । और लंगड़ा उस वन में जहां आग लगी है, बचकर निकल सकते हैं अगर एक व्यक्ति हो जायें, अगर दो न रहें। अगर लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाये, अंधे के लिए देखे और अंधा लंगड़े के लिए चले, दोनों जुड़ जायें, यह संयोग अगर बैठ जाये, तो बचकर निकल सकते हैं, तो सोने में सुगंध आ जाये । महावीर कहते हैं, एक पहिये से रथ नहीं चलता। और ऐसी ही व्यक्ति के जीवन की दशा है। जीवन में तो आग लगी है। यह जीवन का वन तो जल रहा है। इससे निकलने का उपाय? अकेला जिनके पास चरित्र है और जिनके पास बोध नहीं, वे भी अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ से जिसमें वितानों को तना था, स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से संवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ? है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है? जिस दिन तुम दर्शन को उपलब्ध होओगे, उस दिन तुम्हारा पुराना भवन - सपनों का, स्वर्ग के रंगों का, इंद्रधनुषों का गिरेगा-धूल में गिरेगा। खंडहर भी न बचेंगे! क्योंकि सपने के कहीं कोई खंडहर बचते हैं! बस तिरोहित हो जायेगा, जैसे कभी न था। हाथ में राख भी न रह जायेगी। - दर्शन को उपलब्ध होते ही, जीवन को गौर से देखते ही एक बात साफ हो जाती है कि जीवन है, तुम हो और बीच में तुमने जो सपने बनाए थे वे झूठे थे । वे तुम्हारी मूर्च्छा से उठे थे। वे तुम्हारी बंद आंखों से उठे थे। जैसे सुबह एक आदमी जागता है, आंख खोलता है— सारे सपने तिरोहित हो गए। दर्शन का अर्थ है, ऐसे ही तुम जीवन के प्रति आंख खोलो, Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष जागो और देखो! तो कितने-कितने तुमने सजाए हैं, संवारे हैं और दर्शन मूल भित्ति है। अगर दर्शन को न समझ पाए तो पूरे स्वप्न, कितने रंग भरे हैं ! वे सब अचानक तिरोहित हो जायेंगे। महावीर बेबूझ रह जायेंगे। दर्शन का अर्थ है : आंख स्वप्न से कितने ही रंगीन हों, सपने सपने हैं। उनके तिरोहित हो जाने से खाली हो; आंख में कोई सपना न हो, कोई चाह न हो, कोई घबड़ा मत जाना। ईंट-पत्थर से भी छोटी-सी कुटिया बनायी जा तृष्णा न हो। आंख उसको देखने को राजी हो जो है; आंख सकती है। सत्य से भी शांति की छोटी-सी कुटिया बनायी जा उसकी मांग न करे जो होना चाहिए। सकती है। झूठे सपनों के बड़े महलों से कुछ सार नहीं; उनमें फिर से दोहरा दूं। जब भी तुम कहते हो ऐसा होना चाहिए, कोई कभी रहा नहीं। लोगों ने सिर्फ सोचा है कि रहेंगे। वह सिर्फ तभी तुम उसे देखने में असमर्थ हो जाते हो-जो है। तब तुम बातचीत है। वह बातचीत कितनी ही सुंदर मालूम पड़े, वह सिर्फ उसे देखने लगते हो किसी गहरे तल पर-जो नहीं है और होना लफ्फाजी है। | चाहिए। तब तुमने सपना बनाना शुरू कर दिया। तुमने यथार्थ मैंने सुना है, मिर्जा गालिब के पास कोई आदमी रुपये उधार को न देखा। तुमने आदर्श को मांगा। तुमने वह न देखा जो मांगने आया। उन्होंने बड़ी मीठी बातें कहीं। कवि थे। जो मौजूद था। तुम उसकी चाह करने लगे जो होना चाहिए। तुम आदमी रुपये उधार मांगने आया था, उसने भी कविता में ही बात | आशा को बीच में ले आए। तुम कल्पना बीच में ले आए। फिर की। कहा कल्पना ने ताने-बाने बुने। फिर सब चीजें गलत हो गयीं। फिर काका! बड़े बे-वक्त आ गए कल्पना के माध्यम से तुम जो देखते हो वह सत्य नहीं है। ऐसा व्यर्थ ही रास्ता नापा तुम चाहते थे। और आपको देखके मेरा मन कांपा तुमने देखा, जब दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं तो और आपने समय ठीक नहीं भांपा एक-दूसरे में ऐसी चीजें देखने लगते हैं जो हैं ही नहीं। स्त्री पुरुष मेरे शेर मारने गये हैं डाका में ऐसा देखने लगती है कि ऐसा महावीर कभी हुआ ही नहीं। अभी तो चल रहा है फाका पुरुष स्त्री में देखने लगता है जगत का सारा सौंदर्य! ऐसी बातें लौटकर आने दो मेरे काका करने लगते हैं कि जिसका हिसाब नहीं। चांद-तारों को देखने आपका बन जायेगा खाका लगते हैं-एक-दूसरे के चेहरों में, आंखों में। अनंत फूलों की अभी हाका करो, वर्ना गंध एक-दूसरे के पसीने से आने लगती है। ये सपने हैं! ऐसा वे बीबी बना देगी आपका साका चाहते हैं। फिर अगर सुहागरात पूरी होते-होते ये सब सपने टूट और मैं करूंगा ताका जाते हैं तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो यह था कि तुम इतनी देर मेरे आका! अभी न करना इधर नाका भी कैसे देख सके! नहीं तो बीबी न छोड़ेगी एक बाल बांका। फिर प्रेमी सोचते हैं कि दूसरे ने मझे धोखा दिया। कोई किसी इतनी लंबी कविता कही! लेकिन लेना-देना कुछ भी नहीं है। को धोखा नहीं दे रहा-तुम ही धोखा खा रहे हो। फिर प्रेमी वह आदमी कविता से ही घबड़ाकर भाग गया होगा। फिर दुबारा सोचता है, यह प्रेयसी तो गलत साबित हुई। यह तो मैंने जो फूल न आया होगा। की गंध देखी थी वह निकली न। यह क्या मुझे धोखा दे गई। यह तुम्हारे शब्द कितने ही रंगीन हों, और कितने ही काव्य के रंग तो बड़ी कर्कशा निकली। और मैंने तो सारे संगीत, सारा साज तुमने भरे हों, और कितनी ही तुकबंदी बांधी हो, कितने ही शब्दों इसके कंठ में सुना था। मैंने तो कोयल को कूकते सुना था। मैंने का सौंदर्य बिठाया हो लेकिन भुलावे हैंऔर जितने जल्दी तो कोकिला जानी थी। और यह तो घर आते-आते स्वर कर्कश जाग जाओ उतना अच्छा है। हो गया। तो क्या इसने मुझे धोखा दिया था? क्या उस क्षण दर्शन का क्या अर्थ? दर्शन का इतना ही अर्थ है : आंखें इसने बनावट की थी? वह जो माधुर्य इससे मैंने पाया था, तो सपनों से खाली हो जायें। वह सब प्रवंचना थी? तो वह जाल था? वह मुझे फंसाने के 549 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 जिन सूत्र भाग: 1 लिए था? और प्रेयसी भी यही सोचने लगती है कि इस आदमी में जो भगवत्ता देखी थी वह कहां गई ! इसके चरणों में सिर रखने का मन हुआ था - तो वे चरण सब बनावटी थे ! वह सब पाखंड था ? जल्दी ही कांटे उभर आते हैं, फूल विदा हो जाते हैं। जल्दी ही यथार्थ प्रगट होता है और सपने हट जाते हैं। और ऐसा प्रेमी और प्रेयसी के बीच होता है, ऐसा नहीं - ऐसा हमारे हर संबंध में होता है। ऐसे जीवन के हर मोड़ पर हम उन चीजों को देख लेते हैं जो हैं नहीं। हम उन इंद्रधनुषों को तान लेते कहीं भी नहीं हैं। और फिर जब इंद्रधनुष नहीं पाते हैं तो रोते हैं, चीखते हैं, विषाद से भरते हैं, दुखी होते हैं, चिंतित होते हैं। दर्शन का अर्थ है : जो है उसे बिना किसी आशा से समिश्रित किए, बिना किसी कल्पना में डुबाये, बिना कैसा होना चाहिए उसको बीच में लाये, देख लेने की कला ! आंख साफ हो तो तुम कभी उलझोगे न । आंख साफ हो तो यथार्थ से संबंध रहेगा; अयथार्थ तुम्हें बांधेगा न । और आंख साफ हो, तो साफ आंख से जो बोध संगृहीत होता है उसका नाम ज्ञान। साफ आंख से संगृहीत बोध का अंतिम जो परिणाम होता है, उसका नाम चारित्र्य और चारित्र्य का जो आत्यंतिक फल है। महावीर का वह मोक्ष । अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ? शुद्ध दर्शन से जो दिखायी पड़ता है, यथार्थ, उस यथार्थ से ही अपनी जीवन की कुटिया को बना लेने का नाम चारित्र्य है । स्वप्न से जीवन को बनाना और सत्य से जीवन को बनाना - बस यही जीवन को बनाने के दो ढंग हैं। ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कोई मनाही नहीं है। है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? -आंख के दीये को जलाओ ! दर्शन को जगाओ ! कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से संवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जोसना था कुटिया बनाना कब मना है ? है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? लेकिन यह किसी बाहर के दीये के जलाने की बात नहीं है—भीतर के दीये को जलाने की बात है। और यह दीया जलने लगता है जैसे-जैसे तुम आंख को साफ करके देखने लगते हो। तो क्या करो ? रात अंधेरी है । यथार्थ कठोर है। लेकिन दीये के जलाने की जायेंगी । उनको हटाते चलो। शब्द है— सामायिक | पतंजलि का शब्द है — ध्यान । बुद्ध का शब्द है – सम्यक स्मृति । जीवन को जागरण से भरो! जो भी करते हो, करते समय स्मरण रखो कि सपनों को हटाते चलो। पुरानी आदतें हैं, वे बार-बार बीच में आ तेरी दुआ है कि हो तेरी आरजू पूरी मेरी दुआ है कि तेरी आरजू बदल जाए। तुम तो चाहते हो कि तुम्हारी आकांक्षाएं पूरी हो जायें, लेकिन महावीर, बुद्ध, कृष्ण चाहते हैं तुम्हारी आकांक्षाएं बदल जायें। आकांक्षाएं पूरी करना चाहोगे तो सपनों में रहोगे। आकांक्षा बदल जाए, आकांक्षा न हो जाए, शून्य हो जाए तो आकांक्षा के नीचे से जो शक्ति बचेगी, जो आकांक्षा में नियोजित थी, मुक्त होगी, वह तुम्हारे जीवन में विस्फोट हो जायेगा; जैसे अणु को हम तोड़ते हैं, तो छोटे-से अणु में जो आंख से भी दिखायी नहीं पड़ता, इतनी ऊर्जा प्रगट होती है ! अणु के जो परमाणु हैं वह एक-दूसरे को बांधे हुए हैं। जब उन्हें हम अलग करते हैं तो जो शक्ति उनको बांधे थी, वह मुक्त होती है। उस मुक्त शक्ति का Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष । Pain परिणाम हिरोशिमा में देखा, नागासाकी में देखा: एक लाख पचाओगे, पुष्ट होओगे, तो चारित्र्य उत्पन्न होगा। आदमी क्षणभर में राख हो गए। एक छोटे-से परमाणु को | और मोक्ष चारित्र्य की प्रभा है। चरित्रवान मुक्त है। चरित्रहीन जिसको अब तक किसी ने देखा नहीं है, इतने क्षुद्र के भीतर इतनी बंधा है। चरित्रवान की जंजीरें गिर गयीं। ऊर्जा छिपी है! तो आत्मा के भीतर कितनी ऊर्जा न छिपी होगी! | लेकिन अभी तो तुमने जो चरित्रवान देखे हैं, तुम उनको जरा आत्मा के बंधन को हटाना जरूरी है। जैसे अणु के बंधन को पाओगे कि उन्होंने नयी जंजीरें बना ली हैं। तो तुम्हारे चरित्रहीन हटाया तो इतनी विराट ऊर्जा प्रगट हुई-आत्मा के बंधन हट भी बंधे हैं, तुम्हारे चरित्रवान भी बंधे हैं। और अकसर तो बड़ा जायें तो जो परम ऊर्जा प्रगट होती है उसी का नाम महावीर ने व्यंग्य और बड़ी उलटी बात दिखायी पड़ती है: चरित्रहीनों से परमात्मा कहा है। वह आत्म-विस्फोट है। ज्यादा बंधे तुम्हारे चरित्रवान हैं। चरित्रहीनों से भी बंधे! बंधन हटाने हैं। बंधन आकांक्षाओं के, आशाओं के हैं। बंधन चरित्रहीन में भी थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता मालूम पड़ती है। मूर्छा के हैं। तो मूर्छा को तोड़ने में लग जाओ। चरित्रवान तो बैठा है मंदिर में, स्थानक में, पूजागृह में बंद! ऐसा सारे विचार का महावीर का एक संक्षिप्त भाव है : मूर्छा को घबड़ाया, डरा! लेकिन कहीं चूक हो गयी है। चरित्र की प्रभा तोड़ने में लग जाओ। जो भी करो अपने को जगाकर करो। राह मोक्ष है। जो मुक्त न कर जाये, वह चरित्र नहीं। पर चलो तो जागकर चलो। भोजन करो तो जागकर करो। तुम दर्शन से शुरू करना : किसी दिन मोक्ष की प्रभा उपलब्ध किसी का हाथ हाथ में लो तो जागकर लो। और सदा ध्यान रखो होती है। निश्चित होती है। यह जीवन का ठीक गणित है। कि बीच में सपना न आए। थोड़े दिन सपनों को ऐसे छांटते रहे, और महावीर जो भी कह रहे हैं, वह वैज्ञानिक संगति का सत्य हटाते रहे, हटाते रहे तो जल्दी ही तुम पाओगे कभी-कभी | है। उसमें एक-एक कदम वैज्ञानिक है। जैसे सौ डिग्री पानी क्षणभर को सपने नहीं होते और झलक मिलती है। वही झलक गरम करो, भाप बन जाता है-ऐसे महावीर के वचन हैं : दर्शन ज्ञान बनेगी। फिर उन झलकों को इकट्ठी करते जाना। वह अपने से ज्ञान, ज्ञान से चरित्र, चरित्र से मोक्ष! आप इकट्ठी होती चली जाती हैं। ज्ञान एक दफा हो तो कोई भूल नहीं सकता। वह तो हमें, दूसरों की बातें हैं, इसलिए याद रखनी आज इतना ही। पड़ती हैं। जो अपने में घटता है उसे विस्मरण करने का उपाय नहीं है। वह तो संगृहीत होता चला जाता है, सघन होता चला जाता है। और जैसे बूंद-बूंद गिरकर सागर बन जाता है, ऐसे बूंद-बूंद ज्ञान की गिरकर आचरण निर्मित होता है। नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई।। 'ज्ञान से जानना होता है; दर्शन से श्रद्धा, श्रद्धा से चरित्र, चरित्र से शुद्धि...' नादंसणिस्स नाणं-दर्शन के बिना ज्ञान नहीं। नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा-ज्ञान के बिना चरित्र नहीं। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो-चरित्र के बिना मोक्ष कहां? नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं-और मोक्ष के बिना आनंद कहां? उस परमानंद को चाहते हो तो दर्शन के बीज बोओ। दर्शन के बीज बोओ-ज्ञान की फसल काटोगे। उस ज्ञान की फसल को 5511 www.jainelibrar org Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां प्रवचन तुम्हारी संपदा-तुम हो Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चला गया! शक्ति और प्रभुता की खोज में था, यहां शांति और शून्यता सीखने को मिली। अब न आगे जा सकता हूं और न पीछे। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। कृपया मार्गदर्शन दें। दर्शन के तत्क्षण बाद घटी घटना को ही क्या भजन कहते हैं? जो दिन आपके साथ प्रेमपूर्वक बिताए उनको मैं कैसे भूलूं? अतीत को भूलना मेरे बस की बात नहीं। आप वीतराग हैं। अब इन आंसुओं के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है। मन बार-बार कहता है, आप कब आएंगे? Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्नः न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चलो, उन्हीं आकांक्षाओं को प्रभु के मार्ग पर सफल कर लेंगे! चला गया! चाहता था योग से शक्ति, यहां | तो फिर तुम्हें असफलता हाथ लगेगी। और भी गहन असफलता समझने को मिली शांति। चाहता था धर्म से | हाथ लगेगी! जैसे संसार के मार्ग पर लगी, उससे भी ज्यादा! प्रभुता, यहां समझने को मिली शून्यता। कुछ निर्णय नहीं कर | तुम उजड़े-उजड़े हो जाओगे! लेकिन कारण धर्म का पथ नहीं पाता हूं। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। यह यात्रा न मालूम कहां है; कारण तुम्हारी गलत आकांक्षा है। । पुराना विश्वास बिखर चुका है, नये का जन्म | जब कोई चाहता है शक्ति मिल जाये, तो किसके खिलाफ नहीं हो रहा। अब न पीछे जा सकता हूं और न आगे ही बढ़ चाहता है? क्योंकि शक्ति तो सदा किसी के खिलाफ होती है। पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन दें! शक्ति का अर्थ ही हिंसा है। शक्ति हम चाहते ही इसीलिए हैं कि किसी दूसरे से बलशाली धर्म की खोज में निकलनेवाले लोग अकसर किसी और चीज हो जायें, कि किसी दूसरे की छाती पर बैठ जायें, कि किसी दूसरे की खोज में निकलते हैं-उस खोज को धर्म का नाम दे देते हैं। को दबा लें, कि किसी दूसरे को छोटा कर दें। शक्ति का अर्थ ही शक्ति की खोज धर्म की खोज नहीं है। शक्ति की खोज तो महत्वाकांक्षा है। वह अहंकार का ज्वर है। अहंकार की ही खोज है। शक्तिशाली होने की आकांक्षा धर्म तो शांति की खोज है। शांति का अर्थ है : शक्ति की खोज धर्म-विरोधी है। | व्यर्थ है, इस बात का बोध; और शक्ति की खोज से मैं सदा लेकिन अधिक लोग धर्म की यात्रा पर किन्हीं गलत कारणों से बीमार रहूंगा, स्वस्थ न हो पाऊंगा। निकलते हैं; जो संसार में नहीं मिल सका, उसी को खोजने शांति की खोज बिलकुल विपरीत है। शांति की खोज का अर्थ परमात्मा में जाते हैं। | है: मैं इस 'मैं' को भी गिराता है, जिसमें शक्ति की आकांक्षा जो संसार में नहीं मिल सका, उसे खोजने परमात्मा में मत पैदा होती है; मैं इस बीज को दग्ध करता हूं। इसने मुझे जाना। क्योंकि जो संसार में ही नहीं है, वह परमात्मा में तो हो ही तड़फाया, जन्मों-जन्मों तक भटकाया। नहीं सकता। जिसे तुम संसार में न पा सके, उसे तो समझ लेना बुद्ध ने, जब उन्हें परम ज्ञान हुआ तो आकाश की तरफ आंखें कि पाने का कोई उपाय ही नहीं है। उठाकर कहा, 'हे गृहकारक! हे तृष्णा के गृहकारक! अब तुझे लेकिन स्वाभाविक है। संसार में हम जीये हैं अब तक | मेरे लिए और कोई घर न बनाना पड़ेगा। बहुत तूने घर बनाए मेरे जन्मों-जन्मों तक। वही एक भाषा परिचित है-पद की, धन लिए, लेकिन अब मैं आखिरी जाल से मुक्त हो गया हूं। अब की, प्रभुता की, शक्ति की। संसार असफल हुआ तो सोचते हैं और मेरे लिए जन्म न होंगे।' 557 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सूत्र भागः1.. जहां महत्वाकांक्षा न रही, तृष्णा न रही, वहां और जन्म न रहे। है। और जब तक जोड़ा जा सकता है तब तक तुम अतृप्त जहां महत्वाकांक्षा न रही, वहां भविष्य न रहा, समय न रहा; | रहोगे। यह दौड़ तो कभी पूरी न होगी! वहां हम शाश्वत में प्रवेश करते हैं। इसलिए बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर है। इसे कोई कभी भर शाश्वत में प्रवेश होने से जो अनुभव होता है उसी का नाम नहीं पाया। नहीं कि संसार में भरने के साधन नहीं हैं; पर तृष्णा शांति है। समय में दौड़ने से जो अनुभव होता है उसी का नाम | का स्वभाव दुष्पूर है। इस तृष्णा को जब हम थका-थका पाते हैं अशांति है। आज से कल, कल से परसों! जहां हम होते हैं वहां | संसार में और भर नहीं पाते तो हम प्रभ की ओर मड़ते हैं। प्रभ कभी नहीं होते अशांति का यही अर्थ है। जो हम होते हैं उससे की ओर मुड़ना तो ठीक, लेकिन मुड़ने का कारण गलत होता है। हम कभी राजी नहीं होते-कुछ और होना चाहिए! हमारी मांग प्रभु की ओर मुड़कर धीरे-धीरे तुम्हें समझ में पड़ेगा कि तुम्हारी का पात्र कभी भरता नहीं। हमारा भिक्षापात्र खाली का खाली आंखों में तो पुरानी वासना ही भरी है। तुम परमात्मा से भी वही रहता है : कुछ और ! कुछ और! कुछ और! मांग रहे हो जो तुमने संसार से मांगा था। तो तुम मुड़े तो जरूर, तृप्ति तो असंभव है, क्योंकि जो भी मिलेगा उससे ज्यादा शरीर तो मुड़ गया, एक सौ अस्सी डिग्री मुड़ गया लेकिन मिलने की कल्पना तो हम कर ही सकते हैं। जो भी मिल जायेगा आत्मा नहीं मुड़ी। उससे ज्यादा भी हो सकता है, इसकी वासना तो हम जगा ही यही अड़चन प्रश्नकर्ता को मालूम हो रही है : 'न मालूम कहां सकते हैं। से कहां चला गया! चाहता था शक्ति, यहां समझने को मिली क्या तुम सोचते हो ऐसी कोई घड़ी हो सकती है वासना के शांति...।' इससे उलझन पैदा हो रही है। इससे उलझन जगत में, जहां तुम ज्यादा की कल्पना न कर सको? ऐसी तो सलझनी चाहिए। कोई घड़ी नहीं हो सकती। सारा संसार मिल जाए तो भी मन समझ को थोड़ा जगाओ! साफ-सुथरा करो! अगर शक्ति कहेगाः और चांद-तारे पड़े हैं! | मिल जायेगी तो क्या करोगे? और शक्ति पाने में नियोजित कहते हैं, सिकंदर जब डायोजनीज को मिला तो डायोजनीज ने करोगे। लोग धन कमाते हैं, क्या करते हैं? और धन कमाने में एक बड़ा मजाक किया। उसने कहा, 'सिकंदर! यह भी तो लगाते हैं। और कमाकर क्या करेंगे? और कमाने में लगाते हैं। सोच कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा तो बड़ी मुश्किल में पड़ भोगोगे कब? जो मिलता है, उसे और आगे के लिये लगा देना जायेगा।' सिकंदर ने कहा, 'क्यों?' तो डायोजनीज ने कहा, पड़ता है। ऐसे जिंदगी हाथ से निकल जाती है। एक दिन मौत 'फिर इसके बाद दूसरी कोई दुनिया नहीं है।' और कहते हैं, यह | सामने खड़ी हो जाती है, जिसके आगे फिर कुछ भी नहीं है। तब सोचकर ही सिकंदर उदास हो गया। उसने कहा, 'मैंने इस पर तुम चौंकते हो, लेकिन तब बड़ी देर हो चुकी! कभी विचार नहीं किया। लेकिन तुम ठीक कहते हो। सारी | मेरे पास आने का एक ही उपयोग हो सकता है कि जो मौत दुनिया जीतकर फिर मैं क्या करूंगा! फिर तो वासना अधर में करेगी वह मैं तुम्हारे लिए अभी करूं। इसलिए तुम घबड़ाओगे। लटकी रह जायेगी। फिर तो अतृप्ति अधर में लटकी रह | इसलिए तुम भागोगे, बचोगे, तुम उपाय करोगे। जानता हूं, तुम जायेगी। फिर तो छाती पर अतृप्ति का पत्थर सदा के लिए रखा कुछ और खोजने आए हो। लेकिन तुम जो खोजने आए हो वह रह जायेगा। क्योंकि और तो कुछ पाने को नहीं है, लेकिन पाने | मैं तुम्हें नहीं दे सकता। वह देना तो तुम्हारी दुश्मनी होगी। मैं तो की आकांक्षा थोड़े ही समाप्त होती है।' तुम्हें वही दे सकता हूं जो देना चाहिए। मैं तुम्हें शांति की दिशा में | तुम कुछ भी पा लो, कितनी ही शक्ति, कितनी ही प्रभुता, ही अग्रसर करूंगा। कितनी ही प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा-ज्यादा की कल्पना सदा _इसलिए एक महत्वपूर्ण बात समझ लेनी जरूरी है : शिष्य और संभव है। तुम तृप्त न हो पाओगे। तुम्हारी तिजोड़ी कितनी ही गुरु के बीच जो संबंध है वह बड़ा बेबूझ है! शिष्य कुछ और ही बड़ी हो, और भी बड़ी हो सकती है; उसमें कुछ जोड़ा जा सकता | मांगता है; गुरु कुछ और ही देता है। शिष्य जो मांगता है, अगर है। तुम्हारा सौंदर्य कितना ही हो, उसमें कुछ जोड़ा जा सकता। गुरु दे दे तो वह गुरु गुरु नहीं; वह दुश्मन है। गुरु जो देना 5581 Jal Education International Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARIHANNEL तुम्हारी संपदा-तुम हो BRAREL चाहता है, उसे लेने को शिष्य राजी हो जाए तो ही शिष्य है। जा सकता है। तुम अपनी मांग लेकर मेरे पास मत रहना। अन्यथा तुम्हारी खयाल किया तुमने! बड़े से बड़े शक्तिशाली की शक्ति छिन मांग मेरे और तुम्हारे बीच दीवाल की तरह खड़ी रहेगी। जब मेरे सकती है-छीनी जा सकती है। पास ही हो तो यही कह दो कि अब तुम ही यह भी तय करो कि नेपोलियन हार गया अंत में तो उसे सेंट हेलेना के एक छोटे-से क्या ठीक है। इसका नाम ही समर्पण है। द्वीप में कारागृह में डाल दिया गया। सम्राट था। सारे जगत को समर्पण का यह अर्थ नहीं है कि तुम कुछ मांगने आये हो; जीतने चला था। आखिरी नतीजा यह हुआ कि कारागृह में समर्पण करने से मिलेगा, इसलिए समर्पण करते हो। नहीं, पड़ा। द्वीप पर उसे चलने-फिरने की स्वतंत्रता थी। छोटा-सा समर्पण का अर्थ है: तुम अपनी मांग, तुम अपना मन सब द्वीप था। वह पूरा द्वीप ही कारागृह था। इसलिए कहीं भागने का समर्पण करते हो। | तो कोई उपाय न था। पहले ही दिन वह सुबह-सुबह घूमने तुम कहते हो, 'अब मेरी कोई मांग नहीं; अब मेरा कोई मन निकला। एक पगडंडी से गुजर रहा है। एक स्त्री घास का गट्ठर नहीं; अब जो मर्जी हो! अब जो उस पूर्ण की मर्जी हो, वह होने लिए सिर पर आती है। तो नेपोलियन का जो चिकित्सक दो! अब मैं यह न कहूंगा कि मेरी मर्जी पूरी हो।' है-उसे एक चिकित्सक दिया गया था क्योंकि वह बीमार था, मेरी मर्जी पूरी हो, यही अधार्मिक आदमी का लक्षण है। परेशान था, उसकी रक्षा के लिए-वह चिकित्सक चिल्लाकर गुरजिएफ कहता था, तथाकथित धार्मिक लोग अकसर तो कहता है उस घसियारिन से कि 'हट, तुझे पता है कौन आ रहा धर्म-विरोधी हैं। उसने तो यहां तक कहा कि जिनको तुम धर्म है! रास्ता छोड़!' लेकिन नेपोलियन स्वयं रास्ता छोड़कर कहते हो वह सभी ईश्वर-विरोधी हैं। क्योंकि उनके पीछे वही | किनारे खड़ा हो गया और उसने कहा कि तुम भूल करते हो। वे आकांक्षाएं हैं; अपनी मर्जी पूरी करने के इरादे हैं। दिन गये जब नेपोलियन के लिए पहाड़ हट जाते थे। अब तो तुम ईश्वर को भी संचालित करना चाहते हो-अपनी मर्जी घसियारिन भी न हटेगी। अब तो मुझे ही हट जाना उचित है। से! तुम उसे अपने पीछे चलाना चाहते हो। और ईश्वर केवल घसियारिन कम से कम स्वतंत्र तो है, मैं कैदी हूं! मेरी कोई उन्हीं के साथ चल पाता है जो उसके पीछे चलने को राजी हैं। हैसियत नहीं उसके सामने।। सत्य को अपने पीछे खडा करने के लिए तो बहत से लोग नेपोलियन की शक्ति छिन जाती है। सम्राट दीन और दरिद्र हो उत्सुक हैं। सत्य के पीछे खड़ा होने को जो उत्सुक होता है वही जाते हैं। जो छिन जाती है, जिस पर दूसरों का कब्जा हो सकता शिष्य है। उसने ही सीखना शुरू किया। है, जो परतंत्र है-उसका क्या मूल्य ? वह नाव बड़ी छोटी है। तो अब आ ही गए हो तो तुम जो कुछ सीखकर आये हो तुमने खयाल किया ः शक्ति के लिए दूसरों की जरूरत है! जिंदगी से, वह तुम्हारे काम नहीं पड़ेगा। जिंदगी में ही काम न | अगर नेपोलियन को जंगल में अकेला छोड़ दो, उसके पास कोई पड़ा। जो नाव नदी-नाले में काम न आयी उसको लेकर तुम शक्ति नहीं है। प्रधानमंत्रियों को, राष्ट्रपतियों को जंगल में सागर में उतर रहे हो? जो नाव नदी-नालों में डुबाने लगी थी, अकेला छोड़ दो, उनके पास कोई शक्ति नहीं है। शक्ति के लिए उसको लेकर तुम सागर में उतरने का आयोजन कर रहे हो? फिर भीड़ चाहिए। शक्ति के लिए वे लोग चाहिए जिन पर शक्ति डुबो, तो परेशान मत होना! | आरोपित की जा सके। लेकिन शांति तो अकेले में भी तुम्हारी निश्चित ही डूबोगे, क्योंकि सागर के विराट का तुम्हें बोध है; अकेले में और भी ज्यादा तुम्हारी है। उसे तुमसे कोई छीन नहीं। सागर में शक्ति की नाव मत चलाना; वह कागज की नाव नहीं सकता, क्योंकि वह किसी पर निर्भर नहीं है। ठेठ हिमालय है। वह अहंकार की नाव है; बुरी तरफ डूबोगे! कूल-किनारा न के एकांत में भी शांति तुम्हारी होगी; तुम्हारे साथ जाएगी। मिलेगा। बहुत तड़फोगे, परेशान होओगे। वहां तो शांति की जो एकांत में भी तुम्हरे साथ हो, वही तुम्हारी संपदा है। और नाव चलाना। क्योंकि शक्ति की सीमा होती है। शांति की कोई | जो दूसरों पर निर्भर होती हो, उसे तुम एकांत में न ले जा सको, तो सीमा नहीं। शक्ति को छीना जा सकता है, शांति को छीना नहीं मृत्यु के पार कैसे ले जा सकोगे? वहां तो तुम अकेले जाओगे। 559 www.jainelibrarorg Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग न मित्र होंगे, न संगी-साथी, न पति-पत्नी, न बेटे-बेटियां, कोई यह नैसर्गिक जीवन का हिस्सा है। यह किसी से ली नहीं गयी, भी न होगा। मौत में तो तुम अकेले प्रवेश करोगे। सब छुट किसी से छीनी नहीं गई, किसी को दी नहीं जा सकती। जब तुम जायेगा जो दूसरों पर निर्भर था। जो दूसरों ने दिया था वह दूसरे अपने घर लौट आते हो और परम शांति में लीन होते हो, तो वापिस ले लेंगे। तुम कोरे के कोरे रह जाओगे। बुरी तरह डूबेगी अचानक तुम पाते हो शक्ति का आविर्भाव हुआ है! लेकिन यह यह नाव! शक्ति तम्हारी नहीं है। क्योंकि तम तो अशांति के साथ ही चले इसलिए मैं शक्ति की कोई शिक्षण, शक्ति का कोई स्वरूप, गये। यह शक्ति परमात्मा की है। शक्ति की कोई रूप-रेखा तुम्हें नहीं देता हूं। शांति! वही पाने तुम मुझे ऐसा कहने दोः परमात्मा के अतिरिक्त और कोई योग्य है। जो खोया न जा सके, बस वही पाने योग्य है। शक्तिशाली नहीं है। और परमात्मा के अतिरिक्त और कोई पर तुम्हें अड़चन हुई है, यह भी मैं समझता हूं। तुम अगर शक्तिशाली हो भी नहीं सकता। वस्तुतः परमात्मा के अतिरिक्त शक्ति ही खोजने आये थे...जैसा लोग आते हैं। लोग तो किसी को स्वयं को 'मैं' कहने का अधिकार नहीं है। यह तो सत्पुरुषों के पास भी चमत्कार के लिए ही जाते हैं। लोग तो वहां कामचलाऊ है। हम उपयोग करते हैं 'मैं'; लेकिन 'मैं' तो भी शक्ति का ही कोई तमाशा देखना चाहते हैं। लोगों की आंखें वही कह सकता है जो शाश्वत है। हमारे 'मैं' का भरोसा बाजार से इतनी भर गयी हैं कि जब वे मंदिर में भी आते हैं तो क्या? घडीभर तो टिकता नहीं! क्षणभर तो टिकता नहीं! अभी बाजार को अपने साथ ले आते हैं। कुछ, अभी कुछ! पानी पर खींची लकीर है! नहीं, यहां तो उन लोगों के लिए ही सुविधा है जो बाजार से सब तुम जब मिटते हो...और तुम उसी समय मिट जाते हो जब भांति जागकर आये हैं। कम से कम इतनी जाग तो लेकर आये हैं तुम अशांति के रास्ते पर चलना छोड़ देते हो; अर्थात जब तुम कि यह शक्ति की दौड़ व्यर्थ है। अब चलो, दूसरी यात्रा पर शक्ति की खोज छोड़ देते हो, तुम बिखरने लगते हो। इसीलिए निकलें! शांति की यात्रा! बेचैनी है। संसार की पूरी यात्रा शक्ति की यात्रा है—बहाने कुछ भी हों। 'खोपड़ी बड़ी उद्विग्न है', प्रश्नकर्ता ने पूछा है। ‘परेशान हूं। कोई धन इकट्ठा करता है। उससे भी पूछो, धन क्यों इकट्ठा करता आया था शक्ति खोजने, यहां मिली शांति। चाहता था प्रभुता, है? धन से शक्ति आती है। एक-एक रुपये में भरी है शक्ति। यहां मिली शून्यता।' कोई ज्ञान इकट्ठा करता है। उससे पूछो, क्यों? तो ज्ञान से शून्यता द्वार है प्रभु का। तुम अगर शून्य होने को राजी हो गये शक्ति आती है। कोई राज-पदों पर पहुंचने के लिए आतुर है, तो तुम्हें प्रभु होने से कोई भी रोक न सकेगा। और अगर तुम उससे शक्ति आती है। संसार में हम वही करते हैं जिससे शक्ति शून्य होने को राजी न हुए और तुमने प्रभुता की तलाश की, तो आती है। तुम भिखमंगे रहोगे, तुम सूने के सूने रहोगे, खाली के खाली तो अगर संक्षिप्त में कहें, तो संसार है शक्ति की दौड़। बहाने रहोगे। इस विरोधाभास को अपने हृदय में बहुत गहरे बैठ जाने अलग-अलग होंगे। फिर शक्ति की दौड़ से जो जागने लगा, | देना, क्योंकि यह जीवन का आत्यंतिक गणित है। जिसने उसकी व्यर्थता देखी, वही धर्म की यात्रा पर निकलता है। | जीसस ने कहा है जो अपने को बचाएंगे वह मिट जायेंगे; यह यात्रा अंतर्यात्रा है और यहां शांत होते जाना है। और जो अपने को मिटाने को राजी हैं उन्हें कोई भी मिटा नहीं शक्ति की दौड़ का एक ही परिणाम होता है-अशांति। अब सकता। लाओत्सु ने कहा है : जो जीतने की यात्रा पर निकलेंगे, तुमसे मैं एक बड़ी विरोधाभासी बात कहना चाहता हूं: शक्ति की एक दिन हारे हुए पाये जाएंगे; और जो हारने को राजी है, उसे दौड़ का एक ही परिणाम होता है-अशांति; और शांति की दौड़ कोई हरानेवाला नहीं। का एक ही परिणाम है-शक्ति। लेकिन वह तुम्हारी कामना के गुंचा फिर लगा खिलने कारण नहीं। शांत व्यक्ति शक्तिशाली हो जाता है। पर यह आज हमने अपना दिल शक्ति बड़ी और है! यह शक्ति उद्विग्नता नहीं है-स्वभाव है। खू किया हुआ देखा 560 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो गुम किया हुआ पाया। खोजनेवाले शक्ति को कभी नहीं पाते, केवल अशांति पाते हैं, जब उस शांति की वर्षा होती है तो कली फिर खिलने लगती और शांति खोजनेवाले शक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। है। गुंचा फिर लगा खिलने! जो कली आंखों से बिलकुल फिर डरो मत। ओझल हो गयी थी, जिसका पता भी न रहा था, जो बीज होकर उसका, उसको ही लौटा देने में इतना संकोच क्या? उसका कहीं भूमि में खो गयी थी—वह फिर अंकरित हो आती है। | उसके ही चरणों में चढ़ा देने में इतनी कंजूसी क्या? गुंचा फिर लगा खिलने जान दी, दी हुई उसी की थी। आज हमने अपना दिल हक तो यह है कि हक अदा न हुआ। खू किया हुआ देखा। उसी की दी हुई थी, उसी को वापस लौटा दी, उसी को दे दी! और जिसको हम समझते थे मर चुका, जिसका खून हो चुका, । एक लहर उछली सागर में, वापस सागर में गिर गई! वह दिल फिर धड़कने लगा। जान दी, दी हुई उसी की थी आज हमने अपना दिल हक तो यह है कि हक अदा न हुआ। खू किया हुआ देखा सच तो यह है कि कर्तव्य-पालन न हो पाया। यह क्या खाक गुम किया हुआ पाया! बात हुई, क्या दिया! जो उसका था उसी को लौटा दिया, इसमें और जो खो चुका था, गुम हो चुका था, वह फिर मिला। कौन-सा कर्तव्य पालन हुआ? जी हो अपने को मिटाने को, तो एक दिन तुम लेकिन हम बड़े कंजूस हैं। जिससे पाया है, उसी को लौटाने में पाओगे: आज हमने अपना दिल खू किया हुआ देखा! जिसको बेईमानी कर जाते हैं। जिसने बनाया है, उससे भी छिपा लेते हैं। हम सोचे थे कि मर ही चुका, जिसे हम छोड़ ही आए थे दूर कहीं जिससे पाया है उससे भी चोरी कर जाते हैं। राह पर, जिस की हमने अर्थी सजा दी थी, जिसे हम दफना आये क्या है तुम्हारे पास अपना? सांस उसकी! बहता हुआ तुम्हारे थे, या जिसे हमने सूली पर चढ़ा दिया था, जिसे हम जला चुके शरीर में जल उसका। देह में मिट्टी के कण उसके! देह में समाया थे-अचानक वह दिल फिर लहलहाया, फिर हरा हुआ, फिर आकाश उसका! देह में जीवन की धारा अग्नि उसकी! और कली खुली! गुम किया हुआ पाया! और जो खो गया था वह | चैतन्य, वह उसी का अंश! जैसे तुम्हारे आंगन में आकाश फिर मिला। समाया है-बाहर फैले आकाश का ही एक हिस्सा-ऐसे ही प्रभुता छोड़ोः प्रभुता मिलेगी! अहंकार छोड़ोः आत्मा तुममें चैतन्य समाया है। विराट चैतन्य का एक छोटा-सा कोना, मिलेगी! अपने को खो दो, मिट जाने दो, शून्य हो जाओः पूर्ण | एक छोटा आंगन! सब उसका है। के तुम पात्र हो जाओगे। पूर्ण तुममें उतरेगा। तुम्हारे शून्य में ही शून्य होने से डरते क्यों हो, घबड़ाते क्यों हो? बूंद की तरह उतर सकता है। जगह चाहिए न! और पूर्ण जैसे मेहमान के लिए डरो मत सागर के किनारे खड़े होकर, क्योंकि बूंद अगर सागर में जगह बनानी हो, तो शून्य से कम जगह न पड़ेगी, जरूरी होगी। गिर जाये तो सागर हो जायेगी। अगर किनारे पर पड़ी रह गयी तो इतनी ही जगह चाहिए। पूरा शून्य चाहिए, तभी पूर्ण उतर सकता | बूंद ही रह जायेगी। सीमा तड़फायेगी तुम्हें। सीमा दुख देगी। है। पूर्ण, शून्य में बिलकुल बैठ जाता है। असीम के साथ ही सुख हो सकता है। भूमा के साथ ही सुख हो पूर्ण की भी कोई सीमा नहीं है; शून्य की भी कोई सीमा नहीं | सकता है। अल्प में कहां सुख, कैसा सुख? है। असीम को बुलाओगे तो असीम होना ही पड़ेगा। जिस और घबड़ाओ मत! तुमने छोड़ दिया सब, तो तुम यह मत अतिथि को तुमने पुकारा है, उसके आतिथेय भी तो बनना होगा! सोचना कि उसने तुम्हें छोड़ दिया। तुम शून्य हुए तो यह मत मेजबान तो बनना होगा! जगह तो खाली करनी होगी। सिंहासन | सोचना कि वह तुम्हें खाली समझकर तुम्हारे घर में प्रवेश न पर स्थान तो रिक्त करना होगा! करेगा। खाली होओगे, तभी प्रवेश करेगा। तुमने सब छोड़ा, इसलिए कहता हूं: शांति! फिक्र छोड़ो शक्ति की। शक्ति तभी तुमने पात्रता अर्जित कर ली। तुमने सब छोड़ा-अशेष 561 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव से! कुछ भी बचाना मत! रत्तीभर भी मत बचाना। अन्यथा हुआ। अब न पीछे जा सकता हूं न आगे ही बढ़ पाता हूं।' बचाया हुआ ही बाधा हो जायेगी। __ कहीं मत जाओ! पुराना विश्वास बिखर चुका, अब तुम जल्दी तुम स्वयं के और सत्य के बीच कुछ भी रहस्य मत रखना, मत करना नये विश्वास को बनाने की। क्योंकि डर यह है कि सौ छिपाना मत! तुम सब भांति नग्न हो जाना। तुम सब भांति छोड़ | में से निन्यानबे व्यक्ति, जब उनका पुराना विश्वास बिखरता है देना, फिर चिंता की बात नहीं। तो नए को फिर पुराने के ही ढांचे में बना लेते हैं। पुराने से मैं, और बज्मे-मै से यूं तिश्नाकाम जाऊं परिचय होता है। पुराने से पहचान होती है। पुराने के रंग-ढंग गर मैंने की थी तौबा, साकी को क्या हुआ था? पता होते हैं। पुराने की रूप-रेखा उनके हाथ में होती है। फिर साधारण मधुशालाओं में तो यह हो जाता है। नये विश्वास को वह मुराने के ढांचे में ही बना लेते हैं। मैं, और बज्मे-मै से यूं तिश्नाकाम जाऊं, कि मैं ऐसा प्यासा पुराना विश्वास बिखर गया है, डरो मत! तुम मत ढालना नये का प्यासा लौट जाऊं मधुशाला से! | विश्वास को, अन्यथा तुम फिर पुराने सांचे में ढाल लोगे। वही गर मैंने की थी तौबा, साकी को क्या हुआ था? मैंने अगर सांचा तुम जानते हो। तुम चुप रहो। तुम इस बीच की बड़ी बेचैन कसम खायी थी कि न पीऊंगा तो साकी तो भर ही दे सकता था अवस्था में राजी रहो। और तब तुममें श्रद्धा का जन्म होगा। वह पात्र को! साकी तो पिलाने का आग्रह कर सकता था। मेरे तौबा विश्वास नहीं होगी। वह तुम्हारी ढाली हुई न होगी। यही मैं फर्क कर लेने से, मेरे कसम खा लेने से, उसने तो कसम न खायी थी, करता हूं विश्वास और श्रद्धा में। विश्वास है तुम्हारा ढाला वह तो मुझे मना, समझा-बुझा सकता था और जबर्दस्ती करता हुआ; क्योंकि तुम खाली रहने को राजी नहीं, कुछ न कुछ भरने तो हम पी ही लेते। | को चाहिए। सत्य न सही तो झूठ ही सही। अपना न सही तो साधारण मधशाला में तो ऐसा हो जायेगा कि तुमने अगर तौबा | और का ही सही। देखा हुआ न सही तो सुना हुआ ही सही। की है तो तुम तिश्नाकाम ही वापस जाओगे, प्यासे ही वापस | तुम विश्वास को ढालोगे तो तुम्हारा ही ढाला हुआ विश्वास लौटोगे। लेकिन उस परम की मधुशाला में जिसने छोड़ दिया | होगा। न, यह गृह उद्योग सत्य के जगत में काम न आयेगा। सब, वह कभी तिश्नाकाम नहीं जाता। जिसने पकड़ा सब, वही पुराना गिर गया, सौभाग्य! धन्यभागी हो! अब जल्दी मत तिश्नाकाम जाता है। जिसने सब पकड़ा वह प्यासा रह जाता है। | करो नये को बनाने की। अगर तुम इस खालीपन में थोड़ी देर रह तम पकड़नेवालों की तरफ तो देखो! कैसे प्यासे और कैसे उदास | गए तो नया उतरेगा; वह तुम्हारा बनाया हुआ न होगा। और कैसे थके और हारे रह गये हैं। तुम जरा छोड़े हुओं की तरफ | धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम्हारे शून्य को किसी प्रकाश ने उतरकर तो देखो! महावीर, बुद्ध-तुम उनको तो देखो, कैसे भर गए भर दिया। तुम तो गर्भ जैसे हो गए और कोई जीवन आया और हैं! प्यास सदा के लिए मिट गयी है, ऐसी गहन तृप्ति हुई है! तुम्हारे गर्भ में प्रविष्ट हो गया। यह तुम्हारा बनाया हुआ पुतला उसकी मधुशाला से तुम वापिस न आओगे। अगर तुमने सब | नहीं है—यह परमात्मा से आया हुआ जीवन है। छोड़ा तो वह तुम्हें बहुत मनाएगा, बहुत तुम्हें पिलाने का आग्रह श्रद्धा आती है। विश्वास लाया जाता है। विश्वास जबर्दस्ती करेगा। तुम अगर सब उस पर छोड़ दो तो सब हो जाये। है; श्रद्धा नैसर्गिक है; श्रद्धा सहज है। जो आदमी विश्वास के इसलिए मैं कहता हूं, शून्य हो जाओ। शून्य होने से मेरा अर्थ | बिना रहने के लिए राजी है, उसके जीवन में श्रद्धा उतरती है। यह नहीं है कि तुम ना-कुछ हो जाओ। तुम ना-कुछ हो। शून्य | विश्वास का न होना अविश्वास नहीं है। क्योंकि अविश्वास में तुम्हारा यह ना-कुछपन मिट जायेगा। धूल जम गयी है, उसे तो फिर एक तरह का विश्वास है। कोई मानता है, ईश्वर तुमने संपदा समझा है। शून्य होने में यह धूल हट जाएगी और है-यह भी विश्वास; कोई मानता है ईश्वर नहीं है-यह भी तुम्हारे भीतर की संपदा प्रगट हो जायेगी। शून्य होकर ही तुम विश्वास। 'नहीं' लगा देने से कहीं फर्क पड़ता है ? जो आदमी पूर्ण को पाओगे। दूसरा कोई उपाय नहीं है। | मानता है ईश्वर नहीं है-यह उसकी धारणा, उसका शास्त्र। कहा है, 'पुराना विश्वास बिखर चुका, नये का जन्म नहीं कोई महावीर को मानता है, कोई मुहम्मद को–कोई मार्क्स को Main Education International Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो। मानता है। कोई गीता को पूजता है, कोई कुरान को-कोई हूं, प्रतीक्षा करूंगा। कैपिटल को पूजता है। फर्क कुछ भी नहीं है। | प्रार्थना करो, प्रतीक्षा करो; लेकिन विश्वास को निर्मित मत वहां सोवियत रूस में पुराने देवता तो विदा हो गये, पुराने धर्म करो। होगा! धीरज रखो। और अगर धीरज से हुआ, खो गये, पुराने चर्च खो गये; लेकिन कम्युनिज्म का नया चर्च अपने-आप हुआ और तुम सिर्फ साक्षी रहे, गवाह; बनानेवाले निर्मित हो गया है। कम्युनिस्ट नेताओं की नयी प्रतिमाएं निर्मित नहीं, तुमने सिर्फ जगते देखा श्रद्धा को, तुमने श्रद्धा का वृक्ष बढ़ते हो गयी हैं। ईश्वर नहीं है, यही सिद्धांत हो गया है विश्वास का। देखा, तुमने श्रद्धा में फूल-फल लगते देखे, तुम सिर्फ साक्षी बच्चों को रटाया जाता है। जैसे ईसाई रटाते हैं बच्चों को, जैसे रहे तो तुम पाओगे यह श्रद्धा मुक्तिदायी है। मुसलमान रटाते हैं, हिंदू, जैन रटाते हैं बच्चों को, अपनी-अपनी इस श्रद्धा को ही महावीर ने दर्शन कहा है। दर्शन यानी धारणा-वैसे ही कम्युनिज्म अपनी धारणा रटाता है। लेकिन जिसको तुमने देखा, बनाया नहीं। श्रद्धा तुम्हारा कर्म नहीं है, दोनों ही विश्वास हैं। | दर्शन है। श्रद्धा तुम्हारा कृत्य नहीं है, तुम्हारा दर्शन है। जिसको विश्वास का अर्थ यही है : जो तुमने चेष्टा से करके पैदा कर तुमने उठते देखा, फैलते देखा, पूरे आकाश को भरते देखा, तुम लिया है। मनुष्य निर्मित का नाम है विश्वास। और जब मनुष्य साक्षी रहे जिसके-तब विराट से आयी श्रद्धा। और जो विराट कुछ निर्माण नहीं करता, न विश्वास न अविश्वास, न पक्ष न से आती है वह विराट कर जाती है। जो क्षुद्र की है वह क्षुद्र है। विपक्ष, खाली खड़ा रह जाता है; वह कहता है, जब तेरी मर्जी हो । 'अब न पीछे जा सकता हूं, न आगे ही बढ़ सकता हूं!' तब भर देना, अगर न भरेगा तो भी हम राजी हैं—तब एक दिन कोई जरूरत नहीं कहीं जाने की। तुम जहां हो, वहीं डूबने की तुम्हारे शून्य में उस पूर्ण का आगमन होता है। तब तुम्हारी अंधेरी | जरूरत है। आगे-पीछे की भाषा मन की है। आगे-पीछे की रात में जलता है उसका दीया। और यह तुम्हारा जलाया नहीं भाषा महत्वाकांक्षा की है। आगे-पीछे की भाषा : प्रगति हो रही होता; क्योंकि तुम्हारा जलाया तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। कि नहीं, गति हो रही कि नहीं, कहीं जा रहा हूं कि नहीं! जाना तुम्हारा जलाया तुम्हारा ही हिस्सा होगा। तुम्हारा जलाया तुम्हारा कहां है? जो हो, वहीं ठहर जाना है! जो हो, उसमें ही लवलीन ही निर्माण होगा। तुम परमात्मा को मौका दो। तुम थोड़े बीच में हो जाना है। जो हो, उसमें ही तल्लीन हो जाना है। अपने में दखलंदाजी न करो। तुम खड़े देखते रहो। डूबना है, जाना कहां है? सब जाना बाहर है। घर आना है! यह शुभ घड़ी है कि पुराना विश्वास बिखर चुका और नया पैदा और तुम यह मत सोचना कि घर आने के लिए भी कहीं जाना करना भी मत! तुम जल्दी करोगे, क्योंकि खाली होगा। घर तो तम हो ही। जरा बेचैनी छोडो. विचार छोडो. तो जगह अखरती है। जैसे दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं | अचानक तुम पाओगे कि इस घर को तुमने कभी छोड़ा ही नहीं; जाती है—ऐसा जब पुराना विश्वास हट जाता है तो बार-बार तुम सदा ही इसमें थे। खयालों में ही छोड़ा था वस्तुतः कभी नहीं मन वहीं-वहीं लौटता है कि जल्दी विश्वास बनाओ! घर | छोड़ा था। खाली-खाली लगता है, बेचैनी मालूम होती है। इस बेचैनी को बोधिधर्म जब जाग्रत हुआ तो हंसने लगा, खूब हंसने लगा! झेल लेना। लेकिन विश्वास अब मत बनाना। बहुत तुमने उसके आसपास के और भिक्षुओं ने पूछा कि तुम पागल तो नहीं बनाए, कोई काम न आये। कितने-कितने धर्मों में तुम जी नहीं हो गये हो, हुआ क्या है? उसने कहा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चुके हो! कितने-कितने शास्त्रों को तुम पूज नहीं चुके हो! जिसको मैं खोजता था जन्मों-जन्मों से, उसे कभी खोया नहीं कितने-कितने परमात्मा तुमने निर्मित नहीं किये हैं। कितनी | था। खूब मजाक रही! प्रतिमाएं तुम्हारी अर्चना और पूजा को स्वीकार नहीं कर चुकी हैं। तुम्हीं सोचो कि वर्षों तक तुम खोजते रहे किसी चीज को और लेकिन क्या हुआ? अब तुम कह दो कि अब मैं न बनाऊंगा। आखिर में खीसे में हाथ डाला और वहां पायी! और खीसे में अब जब प्रकृति ही उपजाएगी... । अब कागज और प्लास्टिक तुमने खोजा ही नहीं अब तक; क्योंकि यह खयाल ही नहीं उठा के फूल नहीं; अब तो जब असली फूल आएंगे तभी। मैं राजी | कि खीसे में भी हो सकती है। 563) 3 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 जिन सूत्र भाग: 1 तुम्हारी संपदा तुम हो। तुम्हारी संपदा तुम्हारे भीतर इसी क्षण मौजूद है। कहीं न जाओ-न आगे न पीछे, न उत्तर न दक्षिण, न पश्चिम न पूरब, न नीचे न ऊपर - दसों दिशाओं को छोड़ दो। दसों दिशाओं को छोड़कर जो खड़ा हो जाता है, उस अवस्था को महावीर कहते हैं समाधि । वह आ गया घर ! वापसी हो गयी ! उसने जान लिया उसे - जिसका विस्मरण हो गया था। यह भी खयाल रख लेना : तुम चाहते हो मुझे कि मैं तुम्हें कुछ चलाऊं, दौड़ाऊं, कहीं पहुंचाऊं, तुम्हें कोई ज्वर दूं, तुम्हें कोई तड़फ दूं, उत्साह दूं । मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, जरा हमें उत्साह दें - उत्साह ढीला पड़ा जा रहा है। उत्साह किसलिए ? तुम कोई सैनिक नहीं हो कि कहीं युद्ध पर जा रहे हो। तुम संन्यासी हो, अपने घर आ रहे हो - उत्साह कैसा ? लेकिन लोगों को उत्साह चाहिए, दौड़ने के लिए उत्साह जरूरी है, रुकने के लिए उत्साह की जरूरत है ? रुकने के लिए तो उत्साह बाधा भी बन सकता है। क्योंकि वह तुम्हें दौड़ाए रखेगा। शांत बैठ जाना है – कैसा उत्साह ? कहीं जाना नहीं, ऊर्जा का कोई उपयोग नहीं करना है। जैसे शांत झील हो, ऐसे हो जाना है— जिसमें तरंग नहीं उठती, लहर नहीं उठती। भजन भक्तों का शब्द । उसे भी समझ लेना जरूरी है। भजन के लिए दर्शन जरूरी नहीं । भजन के लिए भाव जरूरी है। महावीर का 'दर्शन' पाना हो तो निर्भाव होना जरूरी है। वे विपरीत रास्ते हैं। वहां सारे भाव का त्याग कर देना है। वहां तो भाव राग है। वहां तो प्रेम भी बंधन है। भक्त के मार्ग पर भाव प्रारंभ है: भाव, भजन, भगवान! वहां न ज्ञान, न दर्शन, न चारित्र्य । भक्त को चरित्र इत्यादि की चिंता ही नहीं। वह कहता है, 'चरित्र उसका, हमारा क्या? उसकी जैसी मर्जी! वह जैसा नाच नचाये !' भक्त तो कहता है, 'हम तो कठपुतली की भांति हैं; धागे उसके हाथ में हैं। वह जो बनाये हम बन जाते हैं। दूसरा प्रश्न : दर्शन के तत्क्षण बाद घटी घटना को ही क्या लीला उसकी है। सारा नाटक उसका रचा हुआ है। हम तो भजन कहते हैं? कृपा करके समझाएं। केवल पात्र हैं नाटक में राम बना देता है, राम बन जाते हैं; रावण बना देता है, रावण बन जाते हैं।' लेकिन तुम डरते हो। तुमने अब तक तो जिसको जीवन जाना है, वह दौड़-धूप है, आपा-धापी है। तुमने उसके अतिरिक्त कोई जीवन नहीं जाना। तुमसे अगर कोई बैठने को कहे तो लगता है, यह तो मरने जैसा हो गया; इसमें जीवन कहां है? लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जीवन तुम्हारे भीतर है। उसे दौड़-धूप करके तुम न पा सकोगे। जब दौड़-धूप से थक जाओगे, बैठ जाओगे, और कहोगे, अब कहीं जाने की कोई इच्छा न रही - तत्क्षण तुम पाओगे कि वह मिल गया। 'दर्शन' महावीर की साधना-पद्धति का शब्द है; 'भजन' | उनकी साधना-पद्धति का शब्द नहीं । दर्शन के बाद तो महावीर कहते हैं, ज्ञान घटता है। ज्ञान के बाद चारित्र्य घटता है। भजन की कोई जगह महावीर की विचार - शृंखला में नहीं है । भजन भक्तों की परंपरा का शब्द है। दोनों को जोड़ने की कोशिश मत करो, अन्यथा तुम और उलझ जाओगे। दोनों को अलग-अलग ही रखो। दोनों सही हैं; पर अलग-अलग सही हैं; अलग-अलग यंत्रों के अंग हैं। महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई जगह नहीं है। क्योंकि भजन का अर्थ होता है: उत्सव । भजन का अर्थ होता है: प्रभु - नाम-स्मरण । भजन का अर्थ होता है: तल्लीनता । भजन का अर्थ होता है: बेहोशी, बेखुदी । भजन तो ऐसा है जैसे कोई भीतर की शराब, पीये और मस्त हो गये! भजन तो नृत्य है, गुनगुनाना है, गीत है। महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई चीज नहीं है। वह मार्ग बिलकुल भजन - शून्य है। इसलिए अगर महावीर के मार्ग के शब्द 'दर्शन' का उपयोग कर रहे हो तो भजन को भूल जाओ। महावीर कहते हैं, दर्शन से होगा ज्ञान, बोध | भजन तो है अबोध । महावीर कहते हैं, होगा ज्ञान । महावीर कहते हैं, आयेगी जागृति । भजन तो है गहरी आत्म-विस्मृति, तल्लीनता । और महावीर कहते हैं, ज्ञान से चारित्र्य रूपांतरित होगा। भक्त की भाव- दशा बड़ी अलग है। तो भक्त प्रेम से चलता है, भाव से चलता है। भाव ही सघन होकर भक्ति बनती है। और भक्ति जब प्रगट होती है फूलों की तरह, तो भजन । भाव से शुरुआत है। जब भाव बहुत गहन होने लगता है, Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा--तुम हो इतना गहन होने लगता है कि भाव करनेवाला धीरे-धीरे भाव में | उसी किनारे पहुंचा देंगी; लेकिन दो नावों पर सवार आदमी डूब जाता है, अलग नहीं रह जाता-तो भक्ति। और भक्ति मुश्किल में पड़ जाता है। एक ही नाव पर सवार हुआ जा सकता जब इतनी सघन होती है कि स्वयं का तो दिखायी पड़ना है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि तुम यह घोषणा करो और बिलकुल बंद हो जाता है, स्वयं की जगह परमात्मा की प्रतीति चिल्लाओ और मानो कि मेरी ही नाव पहुंचाती है। वह भी होने लगती है, चारों तरफ उसका दर्शन होने लगता है तो पागलपन है। वह भी कमजोरी है। जो आदमी कहता है मेरी ही भगवान। और भगवान को पा लेने की जो खुशी है, वह भजन नाव पहुंचाती है, उस आदमी को संदेह है अभी। उसे अपनी नाव है। उसको पा लेने से जो नाच पैदा होता है कि मिल गया!... | पहुंचाएगी, इसमें संदेह है। चिल्ला-चिल्लाकर वह विश्वास आर्किमिडीज के जीवन में एक कथा है कि वह एक वैज्ञानिक जगा रहा है। वह कहता है, 'कहां जा रहे हो दूसरी नाव में? यह खोज कर रहा था। अपने टब में बैठा था स्नान करने, तब उसको कभी न पहुंचाएगी। आओ, मेरी ही नाव पहुंचाती है!' वह डरा सूझ आ गयी। तो नग्न बैठा था स्नानागार में, छलांग लगाकर है अपने से कि कहीं दूसरी भी नाव पहुंचाती हो तो उसका खुद उठा। भूल ही गया कि नग्न हूं। भूल ही गया कि स्नानागार है। का इस नाव में बैठना मुश्किल हो जाएगा। खोज का मजा ऐसा था कि दौड़ा सड़कों पर और चिल्लायाः तुम हैरान होओगे! जो लोग दूसरों को कनवर्ट करने चलते 'इरेका। मिल गया!' राजमहल पहुंच गया नंगा, भीड़ लग हैं—जैसे ईसाई हिंदओं को ईसाई बनाने में लगे रहते हैं, आर्य गयी। सम्राट ने भी कहा कि 'तुम पागल हो गये हो! मिल भी समाजी ईसाइयों को हिंदू बनाने में लगे रहते हैं ये सब संदिग्ध गया तो इतने पागल होने की क्या बात है? नग्न क्यों हो?' तब लोग हैं, इनको अपनी नाव पर भरोसा नहीं है। ये जब तक दूसरे उसे याद आया। उसने कहा, 'क्षमा करें! मिलने का क्षण इतना की नाव खाली न करवा लें तब तक इन्हें भरोसा नहीं। ये कहते गहन था कि मैं भूल ही गया; अपना मुझे होश ही न रहा।' हैं, दूसरी भी नावें हैं, इनमें भी लोग जा रहे हैं-कहीं ये लोग तो भजन तो ऐसा क्षण है : इरेका! मिल गया! | पहुंच तो नहीं जाते! ये खुद तो पहुंचे नहीं हैं अभी। इनकी नाव जब भगवान की पहली दफा झलक मिलती है, जब उसकी कहीं जाती नहीं मालूम हो रही है इनको। दूसरे! तो दो ही उपाय छवि पहली दफा दिखाई पड़ती है, जब उसका रूप पहली दफा हैं या तो ये सही हैं, या हम सही हैं। अगर ये सही हैं तो हमक प्रगट होता है, जब उसकी सुगंध नासापुटों में पहली बार भरती अपनी नाव में से उतरना पड़ेगा। अगर हम सही हैं तो इनको है-इरेका! तो भक्त नाच उठता है, गुनगुना उठता है, | इनकी नाव से उतार लें। आंसुओं की धार बह जाती है-आनंद के आंसुओं की! सारी दुनिया में धर्मों के बीच जो संघर्ष चलता है वह स्वयं की सम्हाले नहीं सम्हलता! मस्ती भर जाती है। प्याला छलकने | नाव पर विश्वास नहीं है, इसलिए चलता है। दूसरे को जब तुम लगता है!-तो भजन! समझाने जाते हो तब तुम गौर करनाः कहीं तुम दूसरे के बहाने भजन बिलकुल दूसरी धारा का हिस्सा है। दोनों धाराएं पहुंचा | अपने को ही तो नहीं समझा रहे हो? कहीं दूसरे के बहाने अपने देती हैं, लेकिन दोनों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं। ही संदेहों को तो शांत नहीं कर रहे हो? जब तुम दूसरे को शेख काबे से गया उस तक बिरहमन दैर से समझाने में राजी हो जाते हो कि तुम सही हो, तो तुम्हें बड़ा एक थी दोनों की मंजिल फेर था कुछ राह का। हलकापन मालूम होता है, तुमने खयाल किया। क्यों? एक लेकिन वह कुछ फर्क बड़ा फर्क है! कोई मस्जिद से गया, कोई बोझ था भीतर : कौन जाने हम गलत हों! दूसरे को समझा मंदिर से गया; कोई तप से गया, कोई भाव से गया-थोड़ा-सा लिया, चलो एक आदमी और राजी हो गया! अपने पर तो फर्क है; लेकिन थोड़ा-सा फर्क भी बहुत बड़ा फर्क है। पहुंचकर भरोसा नहीं था; अब एक और राजी हो गया, शायद ठीक हों! तो सब रास्ते उसी पर मिल जाते हैं। लेकिन बीच में बड़े-बड़े दो राजी हो गये, तीन राजी हो गये, भीड़ इकट्ठी हो गयी, तो अंतर हैं। और बीच में तुम दो रास्तों के बीच अपने को डांवाडोल भरोसा पक्का हो गया कि नहीं, हम गलत कैसे हो सकते हैं! मत करना। दो नावों पर कभी सवार मत होना। यद्यपि दोनों नावें इतने लोग कैसे राजी हो जाते! हो सकता था हम भूल में होते, Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः लेकिन इतने लोग! इतने लोग तो भूल में नहीं हो सकते! वगैरह लगाकर ऊपर की बर्थ पर लेटने ही जा रहा था कि कुछ दूसरे को कनवर्ट करने की चेष्टा में अपने ही अविश्वासों को, याद आ गयी तो उसने नीचे की सीट पर लेटे आदमी से पूछा, संदेहों को शांत करने की चेष्टा छिपी है। इसलिए लोग चिल्लाते | भाई साहब! आप कहां जा रहे हैं? तो उस आदमी ने कहा, हैं कि बस यही मार्ग। कलकत्ते जा रहा हूं। मुल्ला बोला, हद्द हो गयी! हम तो बंबई जा महावीर के मार्ग पर बहुत लोग नहीं गये, क्योंकि महावीर ने रहे हैं। विज्ञान का चमत्कार तो देखो कि एक सीट कलकत्ता जा कहा सभी मार्ग सही हैं। रही है, एक सीट बंबई जा रही है! जैन अब हिम्मत नहीं करते यह कहने की कि सभी मार्ग सही अब गंगा और नर्मदा का अगर मिलन हो जाये तो बड़ी हैं। वह हिम्मत छोड़ दी उन्होंने। अब तो वे कहते हैं यही मार्ग | मुश्किल हो गयी। दोनों सागर की तरफ जा रही हैं और दोनों सही है। और कभी-कभी कैसी विडंबना हो जाती है! सागर में ही जा रही हैं। सब जाना सागर की तरफ है। मैं एक जैन मुनि से बात कर रहा था। तो मैंने उनसे कहा कि मैं तो तुमसे कहता हूं, जो संसार की तरफ जा रहा है वह भी जैन धर्म तो स्यादवाद को मानता है। जैन धर्म तो कहता है, और जरा लंबे रास्ते से परमात्मा की ही तरफ जा रहा है। क्योंकि सब भी सही हैं। जैन धर्म का तो यह कहना है, 'यही सही है', यह जाना उसकी तरफ है-देर-अबेर! मैं तो तुमसे कहता हूं, दृष्टि गलत है। 'यह भी सही है', यह दृष्टि सही है। वह भी जिसने वेश्या के द्वार पर दस्तक दी है, उसने भी अनजाने मंदिर सही है, यह भी सही है। यह ही सही है, ऐसे आग्रह में तो दूसरे के द्वार पर ही दस्तक दी है-थोड़ी दूर से दस्तक दी है। लेकिन सब गलत हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि निश्चित, स्यादवाद का वेश्या के पास भी वह मंदिर को ही खोजने गया है, क्योंकि प्रेम यही अर्थ है। फिर थोड़ी बात चलती रही। इधर-उधर की मैंने खोजने गया है। मिले न मिले, दूसरी बात। लेकिन आकांक्षा तो उनसे बात की, फिर थोड़े भूल गये वे तो मैंने उनसे कहा कि | उसी की है। खुद भी परिचित न हो, यह भी हो सकता है। गलत स्यादवाद के विपरीत अगर कोई हो, उसके लिए क्या दिशा में टटोलता हो, यह भी हो सकता है। लेकिन भीतर जो कहियेगा? वह भी सही है? 'कभी नहीं,' उन्होंने कहा, 'ऐसा खोज चल रही है, वह तो उसी की चल रही है। सभी सागर की कैसे हो सकता है? स्यादवाद के जो विपरीत है वह कभी सही | तरफ जा रहे हैं। और सभी पहुंच जाते हैं, क्योंकि सागर ने सब नहीं हो सकता।' दिशाओं से घेरा है। सागर की कोई दिशा नहीं है। ऐसे परमात्मा स्यादवाद का मूल आधार ही यही है कि जो मेरे विपरीत है वह की कोई दिशा नहीं है। भी सही हो सकता है। महावीर का आकाश बड़ा विराट है। वे तो ध्यान रखना, भजन से भी लोग पहुंचते हैं, भाव से भी कहते हैं, इतना बड़ा विराट आकाश है तो इतनी छोटी-छोटी | पहुंचते हैं। पर भाव की नाव अलग है। उसकी चाल अलग है। पगडंडियों पर तुम चिल्लाते हो, यही सही है? तुम पगडंडी के उसकी पतवार अलग है। उसका रंग-ढंग अलग है। वह बड़ी नाप को आकाश का नाप बना देते हो? तुम पहुंचने के संकीर्ण सजी-संवरी है। मार्ग को मंजिल बना देते हो? मंजिल बहुत बड़ी है। सब तरह | महावीर की नाव बड़ी भिन्न है। जरा भी सजी-संवरी नहीं है। के मार्ग वहां समाविष्ट हो जाते हैं। वहां भाव को कोई जगह नहीं है। वहां शुद्ध विचार और ध्यान ऐसा समझो कि गंगा बह रही है, नर्मदा भी बह रही है। गंगा | है। वहां भूलना नहीं है, स्मरण रखना है। भाव में भूलना है, बह रही है पूरब की तरफ, नर्मदा बह रही है पश्चिम की तरफ। स्मरण नहीं रखना है। भाव में आत्मविस्मति करनी है। और अगर दोनों का रास्ते में मिलना हो जाये तो बड़ी मुश्किल हो | महावीर के मार्ग पर आत्मस्मृति जगानी है। बड़े विपरीत हैं। एक जाये। क्योंकि गंगा कहे, मैं सागर की तरफ जाती हूं, तू पागल पूरब जा रहा है, एक पश्चिम जा रहा है-एक नर्मदा, एक कहां जा रही है उलटी; और नर्मदा भी कहे, मैं भी सागर की गंगा-लेकिन दोनों सागर में पहुंच जाते हैं! और सागर में तरफ जाती हूं, तुम्हें कुछ अड़चन हो गयी है... पहुंचकर दोनों सागर हो जाते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सवार हुआ। वह अपना बिस्तर भजन विधायक जीवन-दृष्टि है; दर्शन नकारात्मक 566 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAMARHTET तुम्हारी संपदा-तुम हो URI AAR जीवन-दृष्टि है। भजन का अर्थ है जो डूबा! भजन का अर्थ है जिसने अपने तु और तेरी चंचल सखियां, जब पानी भरने जाती हैं को खोया! भजन का अर्थ है: जिसने अपने को छोड़ा उसके तब साये धानी होते हैं, तब धूप गुलाबी होती है। हाथ में! भजन का अर्थ है जो उसके आसपास नाचा और रास वह जो भक्त है, वह प्रत्येक खेल में परमात्मा को देख रहा है। में सम्मिलित हुआ। भक्त को तो लगता है: यह सारा खेल, यह तू और तेरी चंचल सखियां जब पानी भरने जाती हैं सारी लीला, चाहे कैसा ही ढंग रखती हो-यह कोयल की तब साये धानी होते हैं, तब धूप गुलाबी होती है। कुहू-कुहू, ये वर्षा के बादल, यह वर्षा की रिमझिम टाप-यह धूप भी गुलाबी हो जाती है, साये भी धानी हो जाते हैं। और जो सब अनेक-अनेक रूपों में उसी का आगमन है! यह उसी के भी जा रहा है पनघट की तरफ, वह वही है-उसकी चंचल पैरों में बंधे हुए धुंघरुओं की आवाज है! सखियां हैं। भक्त संसार को सिर्फ संसार की तरह नहीं देखता-परमात्मा सारा जगत अनेक-अनेक रूपों में उसी की लीला है। जिसने की अभिव्यक्ति की तरह देखता है। यह उसका प्रगट रूप है। ने पहचानना शुरू कर दिया, वह हर जगह उसे पहचान लेगा। यह उसी चित्रकार का चित्र है। ये रंग उसी के हाथ ने फैलाए हैं। मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से ये गीत उसी ने रचे हैं। वेद कहते हैं : यह काव्य उसी का है। यह रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम। वही गुनगुनाया है। वही गुनगुना रहा है! भक्त तो कहता है, भगवान है रसाध्यक्ष उस मधुशाला का! साधक के मार्ग पर संसार और सत्य विपरीत हैं। संसार से इस जीवन की मधुशाला का रसाध्यक्ष! और उसी की कृपा का हटना है अगर सत्य में जाना हो। फल है। भक्त के मार्ग पर संसार सत्य का ही परिधान है, उसी की रिंद का, साकी का, मय का, खमका, पैमाने का नाम वेषभषा है। ये जो मोर नाच रहे हैं, ये मोर पंख उसी के मुकुट -इन सबके नामों की महिमा उसी के कारण है। पर लगे हैं। यह जो बांसुरी बज रही है, चाहे तुम्हें उसके ओंठ मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से।। दिखायी पड़ते हों न दिखायी पड़ते हों, यह बांसुरी उसी के ओंठों -उस रसाध्यक्ष की अनुकंपा कि उसी की अनुकंपा से रिंद | पर रखी है; नहीं तो कभी की बजनी बंद हो जाती। का, पियक्कड़ का...। मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं भक्त तो पियक्कड़ है। वह तो भगवान की शराब पी रहा है। जी में आता है लगा दें आग मयखाने को हम। जीवन को तो उसने मधुसिक्त भाव से देखा है। 'प्यारे' को और अगर तुम्हें दिखायी न पड़े वह, तो फिर ऐसा लगेगा कि पहचानने की तरह उसने जीवन की खोज की है। वह सत्य की संसार में आग ही लगा दो। खोज में नहीं है-'प्यारे' की खोज में है! महावीर सत्य की | मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं-सब है खोज में हैं। 'प्यारा' शब्द उनके ओंठ से निकलेगा भी नहीं। । लेकिन पिलानेवाला नहीं है, ढालनेवाला नहीं. साकी नहीं है। मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से जी में आता है लगा दें आग मयखाने को हम! रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम।। तो फिर यह सब व्यर्थ है। लेकिन अगर उसके हाथ तुम्हें जिस गागर में सागर भरी, जिस गागर में मधु का सागर भरा दिखायी पड़ जायें कि उसी ने ढाली है सुरा, तो फिर सुरा भी है, जिस पात्र में मधु पड़ा है, जो पिलानेवाला है, जो पीनेवाला | अमृत है। अगर उसके हाथ दिखायी पड़ जायें तो जहर भी अमृत है—इन सबकी महिमा उसी के कारण है-उसकी ही अनुकंपा है! क्योंकि उसके हाथों में जहर हो ही कैसे सकता है। __ भक्त की दृष्टि बड़ी अलग है। भक्त की दृष्टि को तुम साधक भक्त की भाषा सुरा की, सुगंध की, संगीत की भाषा है। भक्त | की दृष्टि के साथ गडमगड्ड न करना। उन्हें अलग-अलग की भाषा प्रेम की, प्रियतम की, प्रियतमा की भाषा है। भक्त की रखना, साफ-सुथरा रखना। फिर तुम्हें जो प्रीतिकर लगे, उस भाषा रास की, रस की भाषा है। पर चले जाना; मगर मन में कभी भी यह खयाल मत रखना कि Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 दूसरा गलत है। अगर तुमने यह सोचा कि दूसरा गलत है तो मैं होगा तुम्हारा! लेकिन अतीत की सीमा है। जो हो चुका उसकी तुमसे कहूंगा : तुम्हें अपने मार्ग पर संदेह है। दूसरे से तुम्हें क्या सीमा है। जो अभी नहीं हुआ, वह असीम है। हमारी भीड़ कल लेना-देना? होगा, वह भी ठीक होगा। और अगर उसे वहीं से | देखना! तुम तो गये-गुजरे हो! सूर्यास्त हो रहा है! डूबते सूरज आनंद के द्वार खुल रहे हैं, तो तुम कौन हो रोकनेवाले? और को कौन नमस्कार करता है। तुम इस नये सूरज को देखो! अगर उसे वहीं से परमात्मा की पहचान आ रही है, तो तुम कौन तो नये धर्म जब पैदा होते हैं तो वे भविष्य की बात करते हैं। हो बाधा डालनेवाले? क्योंकि वह ही एक रास्ता है भीड़ को बढ़ाने का। उनके पास न सत्य के एकाधिकारी, मोनोपोलिस्ट मत बनना। इसी तरह अतीत है, न भीड़ आज मौजूद है। दुनिया में धर्म नष्ट हुआ, क्योंकि सभी धर्म सत्य के एकाधिकारी लेकिन मैं धार्मिक आदमी उसको कहता हूं, जिसे भीड़ की बन गये। और जब भी धर्म सत्य का एकाधिकारी बनता है, भ्रष्ट जरूरत नहीं किसी भी रूप में, अभी, कल या कभी! जो हो जाता है; संप्रदाय रह जाता है; धर्म मर जाता है, लाश रह कहता है, अकेला काफी हूं। अकेला भी चला तो भी पहुंच जाती है। सत्य पर किसी की बपौती नहीं है। यही महावीर का | जाऊंगा। उसके और परमात्मा के बीच सीधा संबंध है; भीड़ के स्यादवाद है। सत्य सबका है; सब ढंगों से पाया जा सकता है; माध्यम से नहीं है। सब मार्गों से पाया जा सकता है। ऐसा अगर तुम कह पाओ तो _और अच्छा ही है कि इतने मार्ग हैं क्योंकि इतने प्रकार के मनुष्य उसका अर्थ हुआ कि तुम्हें अपने मार्ग पर श्रद्धा है, श्रद्धान है। । हैं। एक-एक व्यक्ति इतना भिन्न है कि यह बड़ा कठिन हो जाता | इसलिए तम्हें दसरे के मार्ग को गाली देने की जरूरत नहीं। तुम्हें कि एक ही मार्ग होता। तो कुछ लोग तो जाते, कुछ और लोग अपने मार्ग पर इतना भरोसा है कि इस भरोसे को दूसरे को गाली इसलिए ही न जा पाते क्योंकि वह उस मार्ग पर ठीक न बैठते।। दे दे कर बढ़ाने की जरूरत नहीं है। तुम अपने मार्ग के प्रति इतने | तुमने खयाल किया। स्कूल में बच्चे पढ़ते हैं। चूंकि हमने मान आश्वस्त हो कि अगर सारी दुनिया भी तुम्हारे मार्ग को छोड़ दे तो रखा है कि जो बच्चा गणित में होशियार है वही होशियार! तो जो तुम अकेले ही गीत गुनगुनाते चले जाओगे। इससे कुछ फर्क न बच्चा गणित में होशियार नहीं वह गधा हो जाता है। तुम जरा पड़ेगा। तुम्हें भीड़ की अपेक्षा नहीं है, जरूरत नहीं है। एक दूसरी दुनिया सोचो! जल्दी ही वह दुनिया आयेगी, जबकि कमजोर आदमी को भीड़ की जरूरत है। भरोसे की कमी हम गणित की बहुत जरूरत न रह जायेगी। कंप्यूटर पैदा हो गये हैं। भीड़ से परा कर लेते हैं। कमजोर आदमी को परंपरा की जरूरत | आनेवाली सदी में छोटे-छोटे बच्चे भी कंप्यूटर अपनी जेब में है। तो हम कहते हैं, पांच हजार साल पुरानी है हमारी परंपरा! रख सकेंगे। गणित का बड़े से बड़ा सवाल कंप्यूटर क्षण में पूरा इस तरह भीड़ को हम पांच हजार साल पुराना बना देते हैं। कर देगा। उसके लिए करने की जरूरत न रह जायेगी। तो भीड़ दो तरह से हो सकती है या तो अभी हो; जैसी ईसाइयों गणित की प्रतिभा समाप्त हो जायेगी। तब हम कहेंगे, जो बच्चा के पास है। एक अरब आदमी! तो वे जरा अतीत की बात नहीं काव्य में गुणवान है वह प्रतिभा-संपन्न है। तब सारा नक्शा करते. क्योंकि अतीत की कोई जरूरत नहीं-भीड़ अभी है। बदल जायेगा। फिर भीड़ को बढ़ाने का दूसरा ढंग यह है कि हिंदू कहते हैं हमारा अभी जो बच्चा गधा है वह भविष्य में गुणवान हो सकता है; धर्म सनातन है। माना कि हम बीस ही करोड़ हैं, इससे क्या होता और अभी जो गुणवान है, भविष्य में व्यर्थ हो सकता है। जब है; लेकिन हम सनातन से हैं। तो उन सारे लोगों को जोड़ लो जो मूल्य बदलते हैं तो लोगों की स्थिति बदल जाती है। अब तक हिंदू रहे, तब तुम्हें पता चलेगा कि हिंदुओं की भीड़ | तुमने देखा! जैसे-जैसे मूल्य बदलते जाते हैं, वैसे-वैसे स्थिति कितनी है! बदलती जाती है। अगर धर्म भी ऐसा हो कि किन्हीं खास लोगों जिनके पास ये दोनों उपाय नहीं, वे कहते हैं, 'भविष्य! अभी के पहुंचने के लिए हो जाये तो उतनी ही संकीर्ण हो जायेगी धारा; छोड़ो-अतीत!' नये-नये धर्म जब पैदा होते हैं, तो वे भविष्य फिर बहुतों का क्या होगा, जो उस तरह से नहीं जा सकते? की बात करते हैं। वे कहते हैं, भविष्य हमारा है। अतीत रहा उनकी तो सोचो। अगर महावीर का ही अकेला मार्ग हो, तो जो 568 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदा बिना नाचे नहीं जा सकते, उनका क्या होगा? यह तो बड़ी चल रहा है। वह कहता है : किसी भांति मुझे इस योग्य बना दो कंजूसी हो जायेगी सत्य के ऊपर। यह तो सत्य का बड़ा संकीर्ण कि तुम्हारे चरणों में सब भांति बिसर जाऊं, भूल जाऊं! मुझे रूप हो जायेगा। जो नाचकर पहुंच सकते हैं, उनकी भी तो जगह ऐसी पिला दो कि फिर मुझे दुबारा होश न आये! मुझे मिटा होनी चाहिए। अगर नाचकर ही पहुंचने की जगह हो और डालो! यह तुम्हारे तीर को मेरे हृदय के बिलकुल आर-पार हो चुपचाप शांत बैठनेवालों के लिए जगह न रह जाये तो भी बात जाने दो। मुझ पर दया करो, मुझे समाप्त करो! करुणा करो और जरा अशोभन हो जायेगी। मुझे बिलकुल जला दो! राख भी न बचे! निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मयखाना __भक्त मिटने के मार्ग पर है। मिटकर वह सत्य को पाता है। तो ठुकराए हुए इन्सां खुदा जाने कहां जाते! | क्योंकि जो मिटता है, वह वही है जो मिट सकता है। कुछ है कि अगर मंदिर और मस्जिद से जिनका मन नहीं बैठता, अगर | शास्त्र से, परंपरा से जिनका मन नहीं बैठता, उनके लिए अगर तो जब भक्त अपने को जलने के लिए छोड़ देता है तो राख, कोई और मार्ग न होता...अगर मिलता न मयखाना, तो ठुकराए कूड़ा-कर्कट जल जाता है, सोना बच जाता है। हुए इन्सां खुदा जाने कहां जाते! महावीर का मार्ग जीतनेवाले का मार्ग है। कोई समर्पण नहीं. नहीं, लेकिन सभी के लिए मार्ग है। उसने तुम्हें बनाया, उसी संघर्ष करना है। संघर्ष कर-करके छांटना है, गलत को छोड़ना दिन तुम्हारा मार्ग भी तुम्हारे भीतर रख दिया है। जरा पहचानो! है। तो उसमें भी वही घटता है। धीरे-धीरे कूड़ा-कर्कट छुट चल-चलकर थोड़ा देखो! अपनी चाल पहचानो! वही मौलिक जाता है, सोना बच जाता है। है। फिर उस चाल से जिस धर्म का मेल बैठ जाता हो, वही महावीर फुटकर-फुटकर चलते हैं, एक-एक इंच लड़ते हैं। तुम्हारा धर्म है। फिर जन्म की फिक्र छोड़ो, परंपरा की फिक्र भक्त बड़ा थोक है। वह इकट्ठा अपने को समर्पण कर देता है। छोड़ो, भीड़ की फिक्र छोड़ो, संस्कार की फिक्र छोड़ो। जिससे भक्ति छलांग है; महावीर यात्रा हैं। पर अपनी-अपनी मौज तुम्हारी लय बैठ जाती हो, जिसके साथ तुम्हारी सांस लयबद्ध हो है। किन्हीं को छलांग में रस न होगा। वे कहेंगे, 'आहिस्ता जाती हो, बस वही तुम्हारा धर्म है; उसी से चल पड़ो। और चलेंगे, सारा दृश्य देखते चलेंगे। धीरे-धीरे बढ़ेंगे, जल्दी क्या भूलकर भी यह न कहना कि दूसरे नहीं पहुंचते, क्योंकि वह है? अनंत काल तो पड़ा है।' किन्हीं को छलांग में रस है। वे अधार्मिक की दृष्टि है। | कहते हैं, जब पहुंचना ही है तो यह क्या धीरे-धीरे, यह क्या सुस्त महावीर का मार्ग है: जीतनेवाले का मार्ग। संघर्ष ! संकल्प! चाल, यह क्या सीढ़ी-सीढ़ी! कूद ही जाते हैं। भक्त का मार्ग है : हारनेवाले का मार्ग। क्योंकि प्रेम हार-हारकर अपने-अपने रस, अपनी-अपनी रुचि, अपने-अपने रुझान जीतता है। हार ही प्रेम की कला है। की बात है। मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना लेकिन एक बात सदा स्मरण रखना : भक्त और साधक के कुछ जीतने के खौफ से हारे चले गये। मार्ग अलग हैं और उनको अलग रखना। तुम्हें जो रुचे उस पर मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना चल जाना। ऐसा मत करना, ऐसा लोभ मत करना कि दोनों में से प्रेम की बाजी कौन कब जीता है। कोई कभी नहीं जीता! यह कुछ-कुछ बचा लें और दोनों में से कुछ-कुछ इकट्ठा कर लें। बाजी जीतनेवाले के लिए है ही नहीं। यहां जिसने जीतने की ऐसे लोभी भी हैं। लेकिन लोभी की बड़ी दुर्गति होती है। संसार कोशिश की वह प्रेम को नष्ट ही कर देता है, मार ही डालता है। में ही हो जाती है तो परमात्मा के मार्ग पर तो बहुत दुर्गति होती है। यहां जीतने की चेष्टा में तो प्रेम मर ही जाता है, कुचल जाता है। लोभ मत करना। ऐसा मत सोचना कि थोड़ा इसमें से भी ले लें मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना जो सुखद लगे और थोड़ा दूसरे में से भी ले लें जो सुखद लगे। कुछ जीतने के खौफ से हारे चले गये। तो फिर तुम बैलगाड़ी और कार को मिलाकर जो इंतजाम कर मगर यहां जो हारता है वही जीतता है। भक्त हारने के मार्ग पर लोगे, वह चलनेवाला नहीं है। वह तुम्हें किसी गड़े में गिरायेगा। 569 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 1 मुल्ला नसरुद्दीन के बेटों ने ऐसा कबाड़खाने से | जब जो इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है आंख निकालने का, सामान ला-लाकर एक कार बना ली। जब बन गयी कार तो तो हो सकता है आंख देखे! तो वे बेचारे बड़ी देर तक काम में उन्होंने मुल्ला को भी निमंत्रित किया। मुल्ला बैठ गया। वह लगे रहे और देखते रहे, वह टेबल पर से आंख देख रही थी। कोई दस-पांच कदम ही गये होंगे कि कार गिरी एक खाई में, | फिर एक आदमी को होश आया। उसने जाकर एक टोकरी खेत में। मुल्ला चारों खाने चित्त पड़ा है। बेटों ने कहा, कि पापा | उसके ऊपर रख दी और फिर वह आराम करने लगे। उन्होंने डाक्टर को बुला लाएं? उसने आंख खाली। उसने कहा, | कहा, अब तो कोई झंझट नहीं। 'डाक्टर को बुलाने की कोई जरूरत नहीं; पशुओं के डाक्टर को मगर आंख देख ही नहीं सकती; आंख सावयव इकाई है, बुला लाओ।' तो उन्होंने पूछा, 'आपको होश है? आप क्या | अलग होते ही व्यर्थ हो जाती है। हाथ अलग होते ही व्यर्थ हो कह रहे हैं? पशुओं के डाक्टर की क्या जरूरत है?' तो उसने जाता है। कहा, 'अगर मैं आदमी होता तो तुम्हारी इस कार में बैठता? यांत्रिक एकता एक बात है। अगर तुम कार के एक यंत्र को अगर मुझमें इतनी अकल होती...। तुम तो वैटनरी डाक्टर को बाहर निकाल लो, तो भी वह सार्थक है, बाजार में बिक सकता बुला लाओ।' है। क्योंकि वह यंत्र का हिस्सा काम आ सकता है। उसका कोई लोभ तुमसे कह सकता है कि थोड़ा भक्ति से चुन लो, थोड़े उपयोग हो सकता है। हाथ को काटकर बाजार में बेचने जाओ, नारद के सूत्र बड़े प्यारे हैं; थोड़ा महावीर से चुन लो, महावीर के कोई न खरीदेगा; उसका कोई उपयोग नहीं। उसकी इकाई टूट सूत्र बड़े प्यारे हैं। लेकिन 'तुम' चुननेवाले होओगे और 'तुम' | गयी। वह निष्प्राण है। जिन सूत्रों को चुन लोगे वह तुम्हारे अनुकूल होंगे। और तुम उन्हें महावीर का मार्ग आर्गनिक है, सावयव है। उसमें से एक छोड़ दोगे जो तुम्हारे अनुकूल नहीं मालूम होते। संभावना इसकी टुकड़ा मत निकालना; वह काम में न आयेगा। वह मुर्दा है। है कि जिन्हें तुम छोड़ोगे उनसे ही तुम्हारा रूपांतरण होता। और नारद का मार्ग भी सावयव है। सभी मार्ग सावयव हैं। उनमें से जो तुम चुनकर एक कृत्रिम ढांचा बना लोगे...कृत्रिम, याद कुछ निकालना मत। रखना। अंग्रेजी में एक शब्द है : आर्गनिक। एक तो ढांचा होता। इसलिए तो मैं गांधी के प्रयोग का बहुत पक्षपाती नहीं हूं: हैः सावयव। जैसे एक वृक्ष है, वृक्ष एक सावयव ढांचा है, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम! इसका मैं पक्षपाती नहीं हूं। क्योंकि आर्गनिक है। जैसे तुम हो, तुम्हारा शरीर एक आर्गनिक ढांचा अल्लाह किसी और सावयव इकाई का हिस्सा है, ईश्वर किसी है। अगर तुम्हारे हाथ को तोड़ दें तो हाथ अलग से न जी और इकाई का हिस्सा है। अल्लाह और ईश्वर को जोड़ देने से न पायेगा; तुम्हारे साथ ही जी सकता था। उसका प्राण तुम्हारी | तो आदमी हिंदू रह जाता, न मुसलमान रह जाता-आदमी बड़ी सावयव एकता में था; अलग होकर मुर्दा हो जायेगा। तुम्हारी | अड़चन और दुविधा में पड़ जाता है। क्योंकि अल्लाह का आंख को बाहर निकाल लें, फिर न देख पायेगी। अपना पूरा मार्ग है; उसे हिंदू मार्ग से कुछ लेने की जरूरत नहीं मुल्ला नसरुद्दीन की एक आंख कांच की है। वह मजदूरों से है। वह पूरा है अपने में-संपूर्ण है। हिंदु मार्ग अपने में पूरा है। काम लेता है तो वहां खड़ा रहता है। एक दिन जरूरी था उसको | उसे अल्लाह और मुसलमान से कुछ लेने की जरूरत नहीं है। जाना। वह रहता है मौजूद, देखता रहता है तो मजदूर काम करते | सभी मार्ग अपने में पूर्ण हैं। सभी मार्ग पहुंचा देते हैं। हैं; चला जाता है तो काम छोड़ देते हैं। तो उसने एक चमत्कार इसलिए मैं तुमसे समझौतावादी बनने को नहीं कहता। अनेक किया...। उसने कहा कि देखो। आंख खींचकर उसने बाहर समझौतावादी अपने को समन्वयवादी कहकर घोषित करते हैं, निकाल ली और उसने कहा, 'यह आंख रखे जा रहा हूं टेबल कि उन्होंने सबका समन्वय कर लिया है। डाक्टर भगवानदास ने पर, यह तुम्हें देखती रहेगी। धोखा देने की कोशिश मत एक किताब लिखी है सब धर्मों के समन्वय पर: द इसेंसियल करना।' मजदूर सकते में भी आ गये, क्योंकि कभी किसी युनिटी आफ आल रिलिजन्स! इस तरह की व्यर्थ किताबें बहुत आदमी को उन्होंने इस तरह आंख निकालते देखा नहीं था। और लिखी गई हैं। वह सब तरफ से कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर लेते हैं। 15701 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो लेकिन वह सब मुर्दा हैं। किसी की आंख ले आये, किसी का आखिरी प्रश्न : बार-बार मन को समझाती हूं, पर समझा कान काट लाये, किसी की नाक ले आये, किसी के पैर ले आये, नहीं पाती हूं। जो दिन आपके साथ प्रेमपूर्वक बिताए, उन्हें मैं किसी तरह जमा-जमूकर नक्शा खड़ा कर दिया—इसको कहते | कैसे भूलूं! बार-बार आपका प्रेम याद आता रहता है। आप हैं : 'इसेंसियल युनिटी आफ आल रिलिजन्स!' यह सब धर्मों कहते हैं कि अतीत को भूल जाऊं; मगर यह मेरे बस की बात की एकता हो गयी! यह मरा हुआ आदमी है। इसमें कुछ भी नहीं। आप वीतराग हो गये। अब इन आंसुओं के सिवा मेरे जिंदा नहीं है। नाक जिंदा होती है किसी जिंदा आदमी के साथ पास कुछ भी नहीं है। जितना प्रेम आपने दिया उतना तो किसी काट ली कि मुर्दा। आंख जिंदा होती है किसी जिंदा आदमी के ने भी नहीं दिया। और मन बार-बार कहता है, आप कब साथ; अलग कर ली कि मुर्दा। फिर तुम अस्थि पंजर पर आएंगे? जमाकर बिलकुल खड़ा कर दो, तो शायद बच्चों के डराने के काम आ जाये, या रात में दरवाजे पर खड़ा कर दो तो चोर इत्यादि 'सोहन' का प्रश्न है। पास न आयें, या खेत में खड़ा कर दो तो पशु-पक्षियों को | समझाने से तो उलझन बढ़ेगी। समझाने की कोई जरूरत नहीं, डराए-लेकिन और किसी ज्यादा काम का नहीं है। समझाने से समझ आती भी नहीं। और 'सोहन' के लिए बहुत लोगों को सवाल उठता है। इस सदी में अनेक लोगों ने समझदारी रास्ता भी नहीं हो सकती। नासमझी में जीना! और सब धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश की है। याद आती है तो उसे हटाने की कोशिश भी मत करना। याद में इस तरह की कोशिश पहले क्यों नहीं की गयी? क्या महावीर, पूरी तरह डूबना। याद से पीड़ा हो तो पीड़ा को होने देना, रोना, बुद्ध, कृष्ण, और क्राइस्ट नासमझ थे? क्या डाक्टर | जार-जार रोना, आंसुओं को बहने देना! वे आंसू पवित्र करेंगे। भगवानदास और महात्मा गांधी और विनोबा ज्यादा समझदार प्रेम के रास्ते पर बहे आंसू पवित्र करते हैं। और वैसी याद हैं? इस सदी में यह समन्वय की जो कोशिश की गयी है, इसके | चिंता नहीं है। वैसी याद तो हृदय की उदभावना है। गहरे में आधार राजनैतिक हैं। महावीर और बुद्ध को एक बात अड़चन इसलिए पैदा हो रही है कि मन समझा रहा है कि छोड़ो साफ थी कि प्रत्येक मार्ग अपने में संपूर्ण है, जीवंत है! उसमें से भी, याद से तो पीड़ा होती है। प्रेम के स्मरण से पीड़ा होती है। कुछ भी अलग किया, मर जायेगा। यह बुद्धि है जो बीच-बीच में बाधा डाल रही है। तो तुम भक्ति के मार्ग पर चलना चाहो तो भक्ति के मार्ग पर इस बुद्धि की मानकर चलने से कुछ भी हल न होगा। क्योंकि चलना, लेकिन समग्ररूपेण! और कुछ छोड़ना मत उसमें से, बुद्धि कभी हृदय को नहीं जीत पाती, अगर हृदय बलशाली हो। क्योंकि जो छोड़ा जा सकता था वह नारद ने ही छोड़ दिया है। जो और सोहन के पास बलशाली हृदय है। बुद्धि भौंकती रहेगी, नहीं छोड़ा जा सकता था, बस उतना ही बचाया है। अगर | हृदय अपने रास्ते पर चलता जायेगा। अगर बुद्धि की सुनी तो महावीर का मार्ग ठीक लगे तो महावीर के मार्ग पर चलना; बड़ी अड़चन पैदा होगी। क्योंकि हृदय बलशाली है और बुद्धि छोड़ना मत उसमें से कुछ, क्योंकि जो छोड़ सकते तो महावीर | उसे बदल नहीं सकती। खुद ही छोड़ देते। कुछ भी व्यर्थ नहीं है; बिलकुल मूलभूत, हृदय की ही सुनो! बुद्धि की छोड़ो। बुद्धि से कहो, 'छोड़ सारभूत जो है, वही बचाया है। इसमें से कुछ भी काटा नहीं जा भौंकना! तू भी याद में लग! तू भी रो! तू भी हृदय की अनुषंग सकता। और न कुछ जोड़ना; क्योंकि जो जोड़ा जा सकता था बन जा, हृदय की छाया बन जा!' वह उन्होंने जोड़ दिया है। कुछ और जोड़ने की जरूरत नहीं है। 'सोहन' के लिए कोई महावीर का रास्ता पहुंचानेवाला नहीं प्रत्येक धर्म बड़ी सावयव इकाई है, जीवंत इकाई है, यंत्रवत है, उसे तो भक्ति का ही कोई रास्ता पहुंचाएगा। तो प्रेम को नहीं। इतना स्मरण रहे तो फिर तुम्हारी जहां रुचि हो, जहां रुझान भक्ति बनाओ, भाव को भक्ति बनाओ। और बेहोशी को, हो, तुम चल पड़ना! तुम पहुंच जाओगे। सभी नदियां सागर की बेखुदी को रास्ता समझोः डूब गये, रोये, नाचे, गाये! तरफ जा रही हैं! इसलिए धीरे-धीरे दूर हट गया हूं। क्योंकि अगर मैं पास होऊ 5711 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 जिन सूत्र भाग: 1 तो तुम रोओगे कैसे? अगर मैं पास होऊं और तुम्हें जब चाहिए तब मिल जाऊं, तो फिर आंसू कब बहाओगे ? याद कैसे करोगे ? यह भी उपाय है। बहुतों को मैंने अपने प्रेम में डाला और फिर धीरे-धीरे दूर हट गया। दूर हट जाना उपाय है। क्योंकि प्रेम अगर दूर हट जाने से मर जाये तो प्रेम न था। और दूर हट जाने से अगर प्रेम और गहन हो जाये तो भक्ति बनने में ज्यादा देर नहीं। भगवान दिखाई नहीं पड़ता; न तुम उसे छू सकते हो, न उससे बोल सकते हो। प्रेमी दिखायी पड़ता है, छुआ जा सकता है, बोला जा सकता है। अगर मैं तुम्हारे पास ही रहूं तो तुम्हारा प्रेम, प्रेम ही रह जायेगा। मुझे तुमसे दूर हटना होगा। इतना दूर हटना होगा कि मैं भी करीब-करीब अदृश्य हो जाऊं। अगर प्रेम फिर भी बच सका तो तुम पाओगे कि प्रेम ने धीरे-धीरे एक रूपांतरण लिया। वह अदृश्य का, अज्ञात का प्रेम बनने लगा ! वही भक्ति है। धीरे-धीरे मेरी याद, मेरी याद न रह जायेगी। धीरे-धीरे मैं भी एक बहाना हो जाऊंगा । उस बहाने से परमात्मा की ही याद तुममें प्रवाहित होने लगेगी। प्रेम का दिन भी होता है, प्रेम की रात भी होती है। अगर प्रेम का दिन ही दिन हो, सुख ही सुख हो और प्रेम की पीड़ा न हो, तो प्रेम छिछला रह जाता है, गहरा नहीं होता। पीड़ा के बिना कोई भी चीज जगत में गहरी नहीं होती। सुख बड़ा ऊपर-ऊपर है, दुख बड़ा गहरा है। सुख की कहीं गहराई होती है? वह तो पानी के ऊपर-ऊपर की लहरें हैं। दुख की गहराई होती है। इसलिए दुख तुम्हारे हृदय को जितना गहरा छूता है उतना सुख कभी नहीं छू पाता । सुखी आदमी को तुम हमेशा छिछला पाओगे। दुखी आदमी के जीवन में एक गहराई होती है। और धन्यभागी हैं वे, जो प्रेम के कारण दुखी हैं ! क्योंकि कारण पर बहुत कुछ निर्भर करेगा । कोई इसलिए दुखी है कि धन नहीं मिला। धन मिलकर ही बहुत गहराई नहीं मिलती, तो धन के न मिलने से क्या खाक गहराई मिलेगी ? उसका दुख व्यर्थ के लिए है। कोई इसलिए रो रहा है कि पद नहीं मिला । धन्यभागी हैं वे जो इसलिए रो रहे हैं कि प्रेम एक खाली जगह छोड़ गया है ! उस खाली जगह को अपना पूजागृह बनाओ। प्रेम ने जहां हृदय को छुआ है और पीड़ा को जगाया है, उस पीड़ा को अपने से विपरीत मत समझो - उसके साथ बहो, उसको स्वीकार करो ! वह पीड़ा तुम्हें मांजेगी। वह पीड़ा तुम्हें निखारेगी। वह पीड़ा अग्नि की तरह सिद्ध होगी और तुम्हारा स्वर्ण कुंदन बनेगा। सुबह तेरी है तो ऐ खालिके-सुबह ! रात है किसकी करम फर्माई ? - हे परमात्मा, अगर सुबह तूने बनायी तो फिर रात किसकी अनुकंपा का फल है ? अगर प्रेम से सुख मिलता है तो प्रेम से दुख भी मिलेगा। प्रेम के दुख को स्वीकार करना ! जिसने सिर्फ प्रेम के सुख को स्वीकार किया उसने आधे को स्वीकार किया; उसके पूरे प्राणों पर प्रेम का विस्तार न हो सकेगा। प्रेम का दिन स्वीकारा, प्रेम की रात भी स्वीकारना । और अगर दोनों स्वीकार हो गये तो ज्यादा देर न लगेगी कि परमात्मा सब तरफ दिखायी पड़ने लगे । दुख भी उसी का है, इसलिए सौभाग्य है । तू मेरे दिल में ही नहीं सारी कायनात में है तू दिन की तरह निहां इस अंधेरी रात में है। - फिर धीरे-धीरे दिन की भांति रात में भी वही छिपा मालूम पड़ेगा । तू दिन की तरह निहां इस अंधेरी रात में है। अंधेरा भी फिर उसका ही स्पर्श देगा। अनुपस्थिति भी जब उसकी उपस्थिति बन जाये तो प्रेम भक्ति बनती है। अनुपस्थिति भी जब उसकी उपस्थिति मालूम पड़ने लगे... क्योंकि अनुपस्थिति भी उसी की है न! उसी से जुड़ी है। तो अनुपस्थिति भी फिर परमात्मा की ही हो गयी, प्रभु की हो गयी, प्रेम की हो गयी ! तो अनुपस्थिति को भरने की कोशिश मत करना । उसको जीना । तू 'मेरे दिल में ही नहीं सारी कायनात में है। और फिर धीरे-धीरे जब दिल में दुख और सुख दोनों क्षणों में वह दिखायी पड़ने लगे तो सारे संसार में भी दिखायी पड़ने लगेगा । प्रेमी चाहता क्या है ? प्रेमी चाहता है कि प्रेमी में लीन हो जाये। भक्त चाहता क्या है ? – कि भगवान में डूब जाये तू है मुहीते- बेकरां मैं हूं जरा-सी आबे-जू ! या मुझे हमकिनार कर, या मुझे बे-किनार कर ! तू है मुहीते - बेकरां - तू है बड़ा सागर! मैं हूं जरा-सी Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो आबे-जू-मैं हूं एक छोटा-सा झरना। या मझे हमकिनार अगर दुख को सौभाग्य समझ लिया तो सब घट गया। क्योंकि कर—या तो मुझे अपने साथ ले ले...या मुझे बेकिनार वहीं तो मनुष्य की उलझन है : दुख का अस्वीकार; सुख का कर-या मुझे मेरे किनारों से मुक्त कर दे। | स्वीकार। जब दुख का भी स्वीकार हो गया तो दुख दुख न रहा। लेकिन दोनों ही बातों का एक ही अर्थ होता है। या तो तू मुझे ऐसा समझो कि जिस दुख को हम स्वीकार कर लेते हैं वह सुख अपने साथ ले ले, सागर बना ले, और या फिर मुझे बेकिनारा हो जाता है। स्वीकार करते ही सुख हो जाता है। दुख का होना कर दे। मेरे किनारे मझ से छीन ले। या तो मझे डुबा ले या मेरे हमारे अस्वीकार में है। स्वीकार होते ही दुख का गुणधर्म बदल किनारे मुझसे छीन ले! लेकिन दोनों हालत में वह जो छोटा-सा | जाता है। झरना है, सागर हो जायेगा। मुझे खयाल में है। जिन-जिनसे भी प्रेम किया है, उनसे मैं तड़फ क्या है? पीड़ा क्या है? पीड़ा प्रेमी के मिलने से थोड़े धीरे-धीरे अपने को दूर हटाऊंगा ही। प्रेम तो शुरुआत है। वहीं ही पूरी होती है-पीड़ा प्रेमी में खो जाने से पूरी होती है। यही तो रुक नहीं जाना है। दूर हटूंगा तो प्रेम भक्ति में बदल सकता है। भक्त और प्रेमी का फर्क है। अगर होगा तो भक्ति में बदल जायेगा। अगर नहीं होगा तो अगर तुम्हारे जीवन में मेरे प्रति प्रेम है और प्रेम अगर भक्ति में नाराजगी में बदल जायेगा। तो कुछ हैं जो मेरे पास से नाराज न रूपांतरित हुआ, तो यह प्रेम भी बंधन बन जायेगा। फर्क होकर हट जाते हैं। 'सोहन' उनमें से नहीं है; हटनेवाली नहीं समझ लो। प्रेमी चाहता है, जिससे प्रेम किया वह मिल जाये। है। लाख हटाने की चेष्टा करूं, वह हटनेवाली नहीं है। तो फिर भक्त चाहता है, जिससे प्रेम किया उसमें हम खो जायें। प्रेमी | उसकी हार भी जीत में बदल जायेगी। प्रेम-पात्र को पास लाना चाहता है। भक्त प्रेम-पात्र के पास गुलशन में सबा को जुस्तजू तेरी है जाना चाहता है। बड़ा फर्क है। प्रेमी चाहता है, जिससे प्रेम बुलबुल की जबां पे गुफ्तगू तेरी है किया उस पर कब्जा हो जाये। भक्त चाहता है, जिसे प्रेम किया हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का उसका मुझ पर कब्जा हो जाये। जिस फूल को सूंघता हूं, बू तेरी है। ध्यान रखना, प्रेमी तो हारेगा; क्योंकि यह कब्जा संभव नहीं तो जो प्रेम मेरे प्रति है, उसे और फैलाओ! उसे इतना फैलाओ है। भक्त जीतेगा; क्योंकि भक्त कब्जा करना ही नहीं चाहता, कि उस प्रेम के लिए कोई पता ठिकाना न रह जाये। मुझसे सिर्फ कब्जा देना चाहता है। सीखो। लेकिन मुझ पर रुको मत। मुझसे चलो, लेकिन मुझ पर त है महीते-बेकरां, मैं हं जरा-सी आबे-ज ठहरो मत। या मुझे हमकिनार कर, या मुझे बेकिनार कर। जैनों का शब्द तीर्थंकर बड़ा बहमल्य है। तीर्थंकर का अर्थ यह जो दुख 'सोहन' को प्रतीत हो रहा है, गहरा उसे प्रतीत हो होता है: घाट बनानेवाला। घाट बना दिया, घाट बैठने के लिए रहा है, इस दुख को सुख में बदला जा सकता है। इस पीड़ा से नहीं है; दूर जाने के लिए है, दूसरे घाट जाने के लिए है। बड़े फूल खिल सकते हैं। लेकिन थोड़ी समझ में क्रांति लानी तो मैं अगर तुम्हारा घाट बन जाऊं और फिर तुम वहीं रुक जरूरी है। | जाओ और वहीं खील ठोंक दो, और वहीं नाव को अटका लो, हासिले-जीस्त मसर्रत को समझनेवाले तो यह तो काम का न हुआ। मैं तुम्हें मेरे किनारे पर कील एक नफस गम भी की दमभर तो खदा याद रहे। ठोंककर रुकने न दूंगा। तुम लाख ठोंको, मैं उखाड़ता रहूंगा। थोड़ा-सा दुख भी चाहिए, दमभर तो खुदा याद रहे! अगर | एक न एक दिन तुम्हें दूसरे किनारे की तरफ जाने की तैयारी करनी सुख ही सुख हो तो याद भूल जाती है। इसीलिए तो लोग सुख में होगी। उस यात्रा के लिए तैयार रहो। निश्चित ही दूसरी तरफ याद नहीं करते, दुख में याद करते हैं। और जिसने यह सार जाने में यह किनारा दूर होता हुआ मालूम होगा। लेकिन समझ लिया कि दुख में याद गहन होती है, वह फिर दुख से न घबड़ाओ मत, मैं दूसरे पर मिल जाऊंगा-बहुत बड़ा होकर! छूटना चाहेगा; वह तो दुख को भी सौभाग्य समझेगा। और पूछा है, 'आप कब आएंगे?' 573 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 1. दूसरे किनारे पर! अब इस किनारे पर नहीं। और दूसरे किनारे पर जिस रूप में आऊंगा, वह रूप शायद एकदम से पहचान में भी न आयेगा। दूसरे किनारे पर जिस ढंग से आऊंगा शायद वह ढंग एकदम से समझ में भी न आयेगा। गुलशन में सबा को जुस्तजू तेरी है बुलबुल की जबां पे गुफ्तगू तेरी है हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का जिस फूल को सूंघता हूं, बू तेरी है। वह पहचान तो विराट की पहचान होगी। उसे अभी से पहचानने लगो। थोड़े दिन यह देह होगी, फिर यह देह भी जायेगी; तब मैं तुमसे और भी दूर हो जाऊंगा। ऐसे धीरे-धीरे एक-एक कदम तुमसे दूर होता जाऊंगा। थोड़ी देर बाद यह देह भी खो जायेगी। फिर तुम मुझे किसी तरफ न देख सकोगे। सब तरफ देख पाओगे तो ही देख सकोगे। उसकी तैयारी करवा रहा हूं। उसका धीरे-धीरे तुम्हें अभ्यास करवा रहा हूं। ये क्षण बहुमूल्य हैं। इन क्षणों में मिले हुए सुख में तो सुखी होओ ही, इन क्षणों में मिले दुख में भी सुखी होओ। और बुद्धि की मत सुनो! हृदय की सुनो! आऊंगा जरूर, लेकिन दूसरे किनारे पर। आना सुनिश्चित है, लेकिन तुम इस किनारे पर मत रुके रह जाना; अन्यथा मैं उस किनारे प्रतीक्षा करूं और तुम इसी किनारे बने रहो! इस किनारे से तो मेरे भी जाने के दिन करीब आयेंगे। इसके पहले कि मैं इस किनारे से विदा होऊ, तुम अपनी खूटी उखाड़ लेना, तुम अपनी नाव को चला देना। दूसरा किनारा दूर है और दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन जिस नदी का एक किनारा है उसका दूसरा भी है ही, दिखाई पड़े न दिखाई पड़े। कहीं एक किनारे की कोई नदी हुई है? तो प्रेम का एक रूप जाना, एक किनारा जाना—दूसरा भी है। वही भक्ति है। मनुष्य को प्रेम किया, शुभ है। लेकिन वहां रुक मत जाना। वह प्रेम धीरे-धीरे उठे लपट की तरह और परमात्मा के प्रेम में रूपांतरित हो। मेरा प्रेम तुम्हें मुक्त करे, तुम्हें मोक्ष दे, तो ही मेरा प्रेम है; बांध ले, अटका दे, तो फिर मेरा प्रेम नहीं। प्रेम सदा ही मोक्ष का द्वार है! आज इतना ही। 574 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Perse www.jaine Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सत्ताईसवां प्रवचन साधु का सेवन ः आत्मसेवन For Private & P al Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EPERIE - सूत्र सम्मदंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।।६६।।. दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।' ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।।६७ ।। णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा। ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।।६८।। अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति।।६९।। आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरिते य। आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे।।७।। HAR Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عل माच्छादित गौरीशंकर के शिखर करीब आने लगे। महावीर क्रमशः ऊंचाइयों और ऊंचाइयों पर उड़ रहे हैं! समझना क्रमशः कठिन होता जायेगा। क्योंकि जिन ऊंचाइयों की हमें आदत नहीं है, उन ऊंचाइयों को समझना तो दूर उन ऊंचाइयों पर श्वास लेना भी कठिन हो जाता है। और जिन ऊंचाइयों का हमें कोई अनुभव नहीं, उनके संबंध में शब्द भला हमें सुनायी पड़ जायें, अर्थ का विस्फोट नहीं होता है। गुजर जाते हैं शब्द हमारे पास से। अगर बहुत बार सुने हुए हैं तो ऐसी भ्रांति भी होती है कि समझ में आ गये। इसे स्मरण रखना कि महावीर जो कह रहे हैं, वह अगर समझ में न आये तो स्वाभाविक है; समझ में आ जाये तो संदेह करना, क्योंकि वही अस्वाभाविक है। अनुभव से ही समझ में आयेगा । उसके पहले ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि अनुभव के लिए एक प्यास प्रज्वलित हो जाये, कि अनुभव की आकांक्षा पैदा हो, कि काश, ऐसी ऊंचाइयों पर हम भी उड़ सकते! जिन दूर की बातों को महावीर पास ला रहे हैं, काश हमारे भी जीवन की संपदा उन्हीं स्वर्ण-रत्नों से बन सकती ! प्यास उठ आये, बस इतना काफी है।... तो समझ में न आये, तो धैर्य रखना। घबड़ाना मत ! और ऐसा मत सोच लेना कि हमारी समझ में आएगा ही नहीं। और ऐसा तो भूलकर भी मत सोच लेना कि यह बात समझने योग्य ही नहीं है। क्योंकि हमारा मन इस तरह के बहुत उपाय करता है। अहंकारी मन हो तो वह कह देता है, इन बातों में कुछ सार नहीं। इस तरह हम अपने अहंकार को सुरक्षित कर लेते है। इस तरह ऊंचाई पास आती थी तो हम उससे दूर हट जाते हैं। क्योंकि ऊंचाई के पास हमें अपनी नीचाई मालूम पड़ने लगती है ! ऊंचाइयों से दूर मत हटना। उन्हें बुलाना ! उनकी खोज करना ! तुम्हें जितने शिखर मिल जायें, उतना ही शुभ है। क्योंकि जितने तुम्हें शिखर मिलें, उतने ही अहंकार के विसर्जन की संभावना बढ़ेगी, उतना ही तुम छोड़ पाओगे यह 'मैं' का खयाल । इसीलिए तो तीर्थंकरों, प्रबुद्ध पुरुषों को हमने बहुत स्वागत से कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी मौजूदगी हमें हीन करती मालूम पड़ने लगी। उनके सामने हम खड़े हुए तो छोटे मालूम होने लगे। उनके पास हम आये, तो हम जैसे जमीन पर चींटियां रेंगती हों, ऐसे रेंगते हुए मालूम होने लगे। तो दो ही उपाय थे—या तो हम भी उनके साथ उड़ना सीखें और या हम उन्हें इनकार ही कर दें कि यह सब कल्पना जाल है; कि ये दूर की बातें सब काव्य-शास्त्र हैं; कि ये बातें कहीं हैं नहीं; ये सब बातें हैं। या हम यह कहकर हट जायें कि ये बातें हमारी समझ में नहीं पड़तीं, तो जो समझ में ही नहीं पड़ती हैं उन बातों को मानकर हम चलें कैसे ? वहां भी भूल हो जायेगी। ध्यान रखना जो तुम्हारे समझ में नहीं पड़ता वह इसलिए समझ में नहीं पड़ता कि उसका कोई अनुभव नहीं हुआ है। अनुभव के बिना समझ कैसे होगी ? अनुभव के बिना कोई अंडरस्टैंडिंग, कोई प्रज्ञा का प्रादुर्भाव नहीं होता। तो तुम यह मत कहना कि जब समझ में ही नहीं आता तो हम चलें कैसे ? क्योंकि चलोगे, तो ही समझ में आयेगा । यह तो तुमने अगर 579 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HI LALIS GREH Crimalini ऐसा मान लिया तो अपने जीवन में एक ऐसे पत्थर को रख लिया के हटते ही सारी समझ हट जायेगी। तो समझ उनकी शब्दों का कि उसको पार करना फिर असंभव हो जायेगा। ही जोड़ है। कोई प्रेम को जानता नहीं; प्रेम करता है तब जानता है। और न और एक ज्ञानी की समझ है; तुम उससे सब शब्द छीन लो तो ही कोई परमात्मा को जानता है, जब तक उतरता नहीं उस गहराई भी उसकी समझ न छीन सकोगे। क्योंकि उसकी समझ अनुभव में। और न ही कोई आत्मा को जानता है, जब तक डूबता नहीं की है, शब्दों की नहीं। अगर शब्दों का उसने उपयोग भी किया अपने आत्यंतिक केंद्र पर। है तो अपनी समझ को तुम तक पहुंचाने के लिए किया है। शब्दों तो समझ नहीं है, इसको पत्थर की तरह उपयोग मत कर के उपयोग से उसने समझ को पाया नहीं है। वह बौद्धिक नहीं लेना। समझ आयेगी ही अनुभव से। इसलिए समझ से भी | है-अस्तित्वगत है, एक्जीसटेंशियल है। उसने जाना है. जीया ज्यादा जरूरी है साहस। इसे मैं फिर से दोहराऊंः अध्यात्म के है। तो तुम उसके सारे शब्द छीन लो, तब भी तुम उसकी समझ मार्ग पर समझ से भी ज्यादा जरूरी है साहस। क्योंकि साहस हो न छीन पाओगे। उसकी समझ शब्दों से बहुत गहरी है। उसने तो आदमी अनुभव में उतरता है; अनुभव में उतरे तो समझ आती मौन में समझ पायी है। उसने तो खुद ही शब्द छोड़ दिये थे, तब है। इसलिए जिनको तुम समझदार कहते हो वह वंचित ही रह | समझ आयी है। जाते हैं। क्योंकि समझदार यह कहेगा, यह अपनी समझ में नहीं तो इसे खयाल रखना। और एक खतरा है कि कुछ लोग ऐसे आती। जो समझ में नहीं आती, चलूं कैसे? पता नहीं कोई भी हैं जो इन वचनों को समझ लेंगे, समझते मालूम पड़ेंगे; भटकाव न हो जाये। पता नहीं जो हाथ में है, कहीं वह भी न खो | क्योंकि ये वचन कोई बहुत दुरूह नहीं हैं। इनकी दुरूहता अगर जाये! ये बड़ी दूर की बातें, आकाश की बातें, कहीं मेरी पृथ्वी कहीं है तो अनुभव में है, वचनों में नहीं है। वचन तो बड़े को उजाड़ न दें! एक छोटा घर बनाया है-वासना का, तृष्णा सीधे-साफ हैं। महावीर ने एक भी जटिल विचार का उपयोग का-एक छोटा संसार रचाया है। ये कहीं परमात्मा और आत्मा | नहीं किया-कोई ज्ञानी पुरुष कभी नहीं किया है। जटिल के खयाल, यह दिव्य प्यास, कहीं मेरी सारी घर-गृहस्थी को विचारों का उपयोग तो वे लोग करते हैं जिनके पास कुछ भी नहीं डांवाडोल न कर दे। है; और केवल बड़े-बड़े शब्दों की छाया में अपने अंधकार को तो समझदार आदमी कहता है, जब समझ में आयेगी तब छिपा लेना चाहते हैं। करेंगे। साहसी कहता है, समझ में नहीं आती तो करेंगे और दार्शनिक बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग करते हैं; बड़े-बड़े लंबे देखेंगे और समझेंगे। | वचनों का उपयोग करते हैं। तुम उनके वचनों के बीहड़ में ही खो साहस! वस्तुतः दुस्साहस चाहिए! इसलिए तो महावीर को जाओगे। तुम्हें यह पक्का हो ही न पायेगा कि वे क्या कहना हमने महावीर नाम दिया। उन्होंने बड़ा दुस्साहस किया। वह चाहते थे। उनके पास कहने को कुछ था भी नहीं। लेकिन जो समझ के लिए न रुके। वह अनुभव में उतर गये।...जुआरी की नहीं था उनके पास कहने को, उसको उन्होंने इस ढंग से फैलाया हिम्मत! सब दांव पर लगा दिया। फिर समझ भी आयी। कि शब्द-जाल ऐसा बड़ा हो गया कि तुम समझ ही न पाये। न क्योंकि समझ अनुभव की छाया की तरह आती है। समझने के कारण कई बार तुम्हें लगता है, बड़ी गहरी बात है। तो दुनिया में दो तरह की समझ है। एक तो समझदारों की, महावीर जैसे पुरुष सुलझाने को हैं, उलझाने को नहीं। उनके जिनको तुम समझदार कहते हो-उनकी समझ अनुभव से नहीं वचन सीधे-साफ हैं; दो टूक हैं; गणित की तरह स्पष्ट हैं। दो आती; उनकी समझ सिर्फ बौद्धिक है, सिर्फ बुद्धि की है। वह और दो चार-बस ऐसे ही उनके वचन हैं। शब्दों को समझ लेते हैं; शब्दों का संयोजन समझ लेते हैं; शब्दों | तो खतरा यह भी है कि तुम्हें वचन सुनकर ऐसा लगे कि अरे, का व्याकरण समझ लेते हैं; शब्दों का अर्थ भी बिठा लेते समझ गये। वहां मत रुक जाना। वह समझ कुछ काम न हैं लेकिन बस सब खेल शब्दों का होता है! आयेगी। अगर तुम महावीर के वचनों को सुनकर समझ गये तो शब्दों को हटा लो तो उनके पीछे कोई समझ बचेगी नहीं; शब्द फिर महावीर ने बारह वर्ष मौन और ध्यान साधा, तो बहुत कम 15801 Jail Education International Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि के आदमी रहे होंगे। तुम सुनकर समझ गये। महावीर को इसलिए मैं किसी मान्यता को कैसे पकडूं? मैं कैसे कहूं कि क्या बारह वर्ष लगे, कठोर तपश्चर्या के, गहन संघर्ष के, रत्ती-रत्ती ठीक है? मुझे कुछ भी पता नहीं है। अपने को छांटा और काटा और जलाया, निखारा, जब तो ऐसा जो अज्ञान में खड़ा हो जाता है शांत चित्त से, जबर्दस्ती अंतरज्योति पूरी शुद्ध हो गयी तब उन्हें यह समझ पैदा हुई। ज्ञान को नहीं पकड़ लेता, छिपाता नहीं ज्ञान के आवरण में अपने तुम्हारा धुएं से भरा हुआ मन, ईंधन गीला, लपट कहीं दिखायी | को, ज्ञान के वस्त्रों में अपने को ढांकता नहीं, जो अपने अज्ञान नहीं पड़ती, बस धुआं ही धुआं फैलता मालूम होता है-इसमें ये को स्वीकार कर लेता है-वही व्यक्ति ज्ञान की तरफ पहला शब्द तुम्हें याद हो सकते हैं। बहुत से पंडितों को याद हैं। इन कदम उठाता है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। ज्ञान की तरफ शब्दों को तुम तोते की तरह कंठस्थ कर ले सकते हो। उस पहला कदम अपने अज्ञान के साथ ईमानदारी से खड़े हो जाना याददाश्त को तुम प्रज्ञा मत समझ लेना। है। हम में से बहुत कम लोग ही ईमानदारी से खड़े होते हैं अज्ञान तो दो बातें स्मरण रखना : समझ में न आयें तो इनकार मत के साथ। अज्ञान को स्वीकार करने में अहंकार को चोट लगती करना; और समझ में आ जायें तो भी वहीं मत रुक जाना। इन है। अहंकार चाहता है दावा करना कि मैं जानता हूं। तो हम दोनों के बीच में मार्ग है। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने शास्त्र से, परंपरा से, अन्यों से, शिक्षकों से, गुरुओं से, कहीं न योग्य है। इतना ज्यादा भी समझ में न आ जाये कि पा लिया। कहीं से इकट्ठा कर लेते हैं ज्ञान।। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने योग्य है। प्यास जग जाये तुम्हारा ज्ञान सभी कुछ नय-पक्ष है। वह तुमने इकट्ठा किया है, और यात्रा शुरू हो जाये। तो किसी दिन अनुभव भी घटेगा। तुम जाना नहीं है। पक्षपात से भरे हो तुम। हर चीज के संबंध में भी उड़ोगे उन आकाश की ऊंचाइयों में। तुम्हें भी पंख लगेंगे! तुमने कुछ तय कर लिया है। तुम तय करके बैठे हो। तुम तय 'जो सब नय-पक्षों से रहित है, वही समयसार है। उसी को करके बैठे हो, इसलिए तुम्हारी आंख खाली नहीं है: पक्ष से सम्यक दर्शन और सम्यकज्ञान की संज्ञा दी है।' आंख दबी है। पक्ष की कंकड़ी तुम्हारी आंख में पड़ी है। तो सम्मदंसणणाणं, ऐसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। कंकड़ी जब आंख में पड़ी हो तो फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता। सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।। महावीर कहते हैं, आंख खाली चाहिए, निर्मल चाहिए! आंख 'सव्वणयपक्खरहिदो'-जिसका मन सभी पक्षों से रहित है, ऐसी चाहिए कि सिर्फ देखती हो और आंख में कछ न पड़ा हो। जो सब नय-पक्षों से शून्य है, वही समयसार है। समयसार का क्योंकि अगर आंख में कुछ भी पड़ा हो तो जो तुम देखोगे वह अर्थ होता है : वही आत्मा की सार स्थिति है। वही अस्तित्व का विकृत हो जायेगा। निचोड़ है। वहीं तुम हो, वहीं तुम्हारी आत्मा है जहां न कोई सोचो...अगर तम जैन हो, पढ़ो गीता-तम्हें समझ में आ नय है, न कोई पक्ष है। इसे समझें। जायेगा। तुम गीता पढ़ ही न पाओगे, तुम्हें रस ही न आयेगा। साधारणतः तो हम नय-पक्षों से भरे हैं। कोई हिंदू है, कोई घड़ी-घड़ी तुम्हारा जैन धर्म बीच में खड़ा हो जायेगा। तुम्हें ऐसा मुसलमान है, कोई ईसाई है। जब तक तुम हिंदू हो, जैन हो, लगेगा, ये कृष्ण तो अर्जुन को भ्रष्ट करने लगे। ऐसा तुम कहो ईसाई हो, तब तक तुम्हें समयसार का पता न चलेगा। आत्मा का या न कहो, तुम्हारे भीतर यह पक्ष खड़ा रहेगा। आज तक किसी रस तुम्हें उपलब्ध न होगा। क्योंकि आत्मा न हिंदू, न मुसलमान, जैन ने गीता पर कोई वक्तव्य नहीं दिया, कोई महत्वपूर्ण बात न जैन है। | नहीं कही। गीता को किनारे हटा दिया है। जब तक तुम कहते हो, 'मेरी ऐसी मान्यता है, तब तक तुम हिंदु से कहो कि महावीर के वचन सुने, पढ़े? पढ़ भी ले तो सत्य को न जान सकोगे, क्योंकि सभी मान्यताएं सत्य को जानने मुर्दा भाव से पढ़ जायेगा। क्योंकि भीतर तो वह जानता ही है कि में बाधा बन जाती हैं। मान्यता का अर्थ है कि बिना जाने तुम सब गलत है। हिंदू से कहो कुरान को पढ़े, तो भीतर तो वह जानते हो। तो जिसने बिना जाने जान लिया है, वह जान कैसे मानता ही है कि क्या रखा है! कहां वेद, कहां उपनिषद ! क्या सकेगा फिर? मान्यता-शून्य होने का अर्थ है : मुझे पता नहीं; रखा है कुरान में? वही कुरान के माननेवाले की स्थिति है। वही AMAVACAR Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 बाइबिल को माननेवाले की स्थिति है। बाइबिल को माननेवाला तुम चुन लेते हो; जो विपक्ष में पड़ता है, वह तुम छोड़ देते हो।। जब वेद पढ़ता है तो उसे लगता है, बस गांव के ग्रामीण गडरियों सत्य को जानने का यह ढंग न हुआ। यह तो असत्य में जीने के गीत हैं, इससे ज्यादा नहीं। जब वेद को माननेवाला | का ढंग हुआ। तो महावीर कहते हैं: आर्यसमाजी पंडित बाइबिल को पढ़ता है तो उसमें से कुछ भी सम्मदंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेस! सार नहीं पाता; उसमें से सब कचरा-कूड़ा इकट्ठा कर लेता है। । सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।। अगर तुम्हें इस दृष्टि की, पक्षपात से भरी दृष्टि की, जो सब नय-पक्षों से रहित है; जिसकी कोई धारणा नहीं, ठीक-ठीक उपमा चाहिए हो तो दयानंद का ग्रंथ 'सत्यार्थ मान्यता नहीं; जिसका कोई विश्वास-अविश्वास नहीं; जो नग्न प्रकाश' पढ़ना चाहिए। वह पक्षपात से भरी आंख का, उससे चित्त है; जो दिगंबर है; जिसके ऊपर कोई आवरण नहीं; ज्वलंत प्रमाण कहीं खोजना मुश्किल है। तो सभी में भूलें आकाश ही जिसका आवरण है; विराट ही जिसका आवरण है; निकाल ली हैं उन्होंने-और बेहूदी भूलें, जो कि निकालनेवाले इससे कम को जिसने स्वीकार नहीं किया है-ऐसा नग्न चित्त, के मन में छिपी हैं, जो कहीं भी नहीं हैं। लेकिन निकालनेवाला शांत मन, निष्पक्ष व्यक्ति-वही समयसार है। वह जान लेगा पहले से मानकर बैठा है। आत्मा का सारभूत, आत्मा का सत्य, उसे अस्तित्व की पहचान जो तुम मानकर बैठ जाते हो वह तुम खोज भी लोगे। अगर मिलेगी। वह अस्तित्व के मंदिर में प्रवेश पा सकेगा। पात्रता, तुम्हीं मानकर बैठे हो तो फिर मुश्किल है। तुमने जानने के पहले पक्षपात रहित हो जाना है। अगर धारणा तय कर रखी है, तो तुम सत्य को कभी भी न जान | ___ महावीर के पास लोग आते, प्रश्न पूछते, तो महावीर कहते, पाओगे; तुम सत्य को कभी मौका न दोगे कि तुम्हारे सामने प्रगट 'तुम कुछ पहले से ही मानते तो नहीं हो? अगर मानते हो तो हो जाये। बात व्यर्थ, फिर संवाद न हो सकेगा।' । मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने एक मित्र दर्जी से कपड़े बनवाये। जब कोई मानकर ही चलता है तो विवाद हो सकता है, संवाद जब वह कपड़े पहनने गया, उठाने गया, दर्जी ने उसे पहनाकर नहीं हो सकता। जब कुछ मानकर कोई भी नहीं चलता; जब बताया। उसे कपड़े जंचे नहीं; कुछ बेहूदे थे; कुछ अटपटे थे। कोई तैयार है सत्य के साथ जहां ले जाये; जब कोई इतना कछ शरीर पर बैठते भी न थे। लेकिन दर्जी प्रशंसा मारे जा रहा हिम्मतवर है कि सत्य जो दिखाएगा उसे स्वीकार था। वह गणगान किए जा रहा था। वह कह रहा था, 'देखो तो करूंगा तभी, महावीर कहते हैं, संवाद हो सकता है। तब जरा दाहिने आईने में! तुम्हारे मित्र भी तुम्हें पहचान न पायेंगे। महावीर कहते हैं, ज्यादा कुछ कहने को भी नहीं है। क्योंकि सत्य तुम्हारी पत्नी भी शायद ही तुमको पहचान पाए। इतने सुंदर को कहा तो नहीं जा सकता। मैं कुछ इशारे कर देता हूं, तुम मालूम हो रहे हो...! जरा तुम बाहर तो जाओ, जरा सड़क पर इनका पालन कर लो। इन इशारों के पालन करने से धीरे-धीरे चक्कर लगाकर आओ!' तुम्हें भी वही अनभव होने लगेगा जो मझे हो रहा है। जिस द्वार मुल्ला बाहर गया-संकोच से भरा हुआ; क्योंकि बड़ा से खड़े होकर मैं देख रहा हूं जीवन को, तुम भी देख सकोगे मेरे अटपटा-सा लग रहा था उसे उन कपड़ों में। जल्दी ही भीतर आ करीब आ जाओ। लेकिन अगर तुम मानते हो कि तुम्हें द्वार मिल गया। जब वह भीतर आया तो दर्जी, जो उसका पुराना मित्र, | ही गया है, तो फिर तुम मेरे करीब न आओगे और व्यर्थ बोला, 'आइये राजकपूर साहब! बहुत दिनों बाद आये!' खींचा-तानी होगी। अब दर्जी मानकर ही बैठा है कि गजब के कपड़े उसने सी दुनिया में जहां भी जितनी बातचीत हो रही है, तुम अगर गौर दिये! जो तुम मानकर बैठे हो, तुम उसे सिद्ध करने की चेष्टा में करोगे तो बातचीत तो कहीं मुश्किल से होती है। संवाद कहां लग जाते हो, जाने-अनजाने। तुम सब तरह से प्रमाण जुटाते है? विवाद है। चाहे प्रगट हो, चाहे अप्रगट हो। जब भी दो हो। विपरीत प्रमाणों को तुम देखते ही नहीं। तुम्हारी आंखें व्यक्ति बात करते हैं तो खुलते कहां हैं? अपनी-अपनी चेष्टा में चुनाव करने लगती हैं। जो पक्ष में पड़ता है तुम्हारे पक्ष के, वह रत रहते हैं। 582 Jal Education International Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा HTRA साधु का सेवन आत्मसेवन महावीर ने कोई शास्त्रार्थ नहीं किया; किसी से कोई विवाद | कि महावीर जो कहते हैं, वह सही ही कहते हैं; इसीलिए महावीर नहीं किया। महावीर शंकराचार्य की तरह मुल्क में नहीं घूमे से दूर हो गया है। विवाद करते। महावीर की पकड़ बड़ी गहरी है। महावीर कहते | महावीर के साथ तो केवल वही खड़ा हो सकता है जो निष्पक्ष हैं, विवाद से क्या होगा? अगर कोई पहले से मानकर बैठा है है-इतना निष्पक्ष कि यह भी नहीं कहता कि महावीर ठीक हैं। तो उसे मनाया नहीं जा सकता। और अगर जबर्दस्ती उसे चुप इतना ही कहता है कि मुझे पता नहीं; मैं खोजने को तैयार हूं। करा दिया जाये, तर्क से हो सकता है, तो भी उसका हृदय थोड़े सूरज की कहीं से भी किरण आये, मैं पीछे जाने को तैयार हूं। मैं ही राजी होता है। कभी-कभी ऐसा हुआ है कि तर्क में तुम किसी अनंत की यात्रा के लिए तैयार हूं। से हार गये हो, तो भी दिल में तो तुम घाव लिए रहे हो हो कि और बिना मान्यता के यात्रा पर निकलना बड़ा दूभर है। ठीक है, देखेंगे; आज जरा मुश्किल हो गयी, हम तर्क ठीक न क्योंकि तुम कहते हो कि जब कोई मान्यता ही नहीं है, तो हम खोज पाये! चुप कर दिये गये हो तुम, लेकिन तुम्हारा हृदय यात्रा पर कैसे निकलें! वैज्ञानिक तक प्रयोग करने के पहले रूपांतरित तो नहीं हुआ। जबर्दस्ती तुम्हारी जबान रोक दी गयी हाईपोथिसिस निर्मित करता है। हाईपोथिसिस का मतलब है, है। यह हो सकता है, कोई तुमसे ज्यादा कुशल हो तर्क में। पक्ष तय करता है। तय करता है कि यह हो सकता है कम से तो तर्क में जो जीत जाता है, जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य कम। फिर यात्रा पर निकलता है। हो। और तर्क में जो हार जाता है जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य महावीर का विज्ञान वैज्ञानिक के विज्ञान से भी ज्यादा गहरा है। न हो। यह भी हो सकता है, जिसके पास सत्य है उसके पास महावीर कहते हैं, उतना पक्षपात भी खतरनाक है। क्योंकि उसी सत्य को सिद्ध करने का तर्क न हो। यह भी हो सकता है, पक्षपात के कारण तुम वह देख लोगे जो नहीं था। और यह बात जिसके पास सत्य को सिद्ध करने के तर्क हैं उसके पास कोई अब वैज्ञानिकों को भी समझ में आने लगी।। सत्य न हो। और जो कोई तर्क के द्वारा तुम्हें पराजित कर देता है। पोल्यानी ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी हैः पर्सनल वह केवल इतना ही सिद्ध कर रहा है कि वह तुमसे ज्यादा कुशल नालेज। तीन सौ वर्ष की वैज्ञानिक खोज के बाद वैज्ञानिकों को है, तुमसे ज्यादा अनुभवी है; इतना। उससे कुछ सिद्ध नहीं भी यह सिद्ध हो गया है कि हमारा जो ज्ञान है वह इम्पर्सनल नहीं होता। और यह भी हो सकता है कि वह तुम्हारे पीछे चलने लगे, है, अवैयक्तिक नहीं है; वह भी वैयक्तिक है। क्योंकि जो हार जाये तो तुम्हारे पीछे चले, तुम्हें मान ले। कल कुछ और वैज्ञानिक खोज करने जाता है, उसकी धारणा वह जो खोज करता मानता था, आज तुम्हें मान ले-लेकिन मान्यता तो मान्यता है। है उस पर आरोपित हो जाती है, उसको रंग देती है। इसलिए हम कल मानता था, ईश्वर नहीं है; आज तुमने तर्क दे-देकर सिद्ध जो भी जानते हैं, वह वस्तुतः ऐसा है, कहना मुश्किल है। कर दिया और उसने मान लिया कि ईश्वर है। कल एक मान्यता | खोजनेवाला उस पर हावी हो जाता है। से भरा था, आज दूसरी मान्यता से भर गया है-विपरीत तो पहले तो हम सोचते थे...अभी एक बीस वर्ष पहले तक मान्यता से; लेकिन मान्यता तो दोनों ही मान्यताएं हैं। ज्ञान का वैज्ञानिक यही सोचते थे कि विज्ञान निष्पक्ष है। अगर कोई जन्म न हुआ। आदमी किसी स्त्री के संबंध में कहता है, बड़ी सुंदर और तुम्हें महावीर कहते हैं, एक पक्ष को दसरे में नहीं बदलना है-पक्ष संदर नहीं लगती, तो तुम कहते हो, पसंद-पसंद की बात है। को गिरा देना है; तुम्हें निष्पक्ष होना है। इसलिए जैन भी महावीर इसमें कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। के अनुयायी नहीं हैं। क्योंकि जैन होने में ही खराबी हो गयी। तुम कहते हो, 'चाहत की बात है। अपने रुझान की बात है। महावीर जैन न थे। महावीर के पास जैन होने का उपाय नहीं है। तुम्हें सुंदर मालूम पड़ती है, मुझे सुंदर नहीं मालूम पड़ती।' क्योंकि महावीर की मौलिक दृष्टि यही है कि सभी पक्ष भ्रष्ट कर झगड़ा खड़ा नहीं होता। क्योंकि जो आदमी कहता है, यह स्त्री देते हैं। अब जैन तो पहले से मानकर बैठ गया है कि महावीर सुंदर है, वह इतना ही कह रहा है कि मुझे सुंदर मालूम पड़ती है। ठीक हैं। इसीलिए वंचित हो गया है। पहले से मानकर बैठ गया यह पर्सनल, वैयक्तिक बात है; इसमें झगड़ा नहीं है। एक 583 SE Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदमी को एक तरह की सिगरेट पसंद पड़ती है, दूसरे आदमी तुम्हारा मन सक्रिय रूप से भाग न ले ज्ञान की खोज में, निष्क्रिय को दूसरी तरह की पड़ती है। एक आदमी को एक तरह का रहे; एक्टिव न हो, पैसिव रहे। स्त्रैण हो तुम्हारा चित्त! सिर्फ जो साबुन पसंद है, दूसरे को दूसरी तरह का पसंद है। एक आदमी | हो रहा है उसको स्वीकार करे; लेकिन कैसा होना चाहिए, कैसा को एक तरह का फूल लुभाता है, दूसरे को दूसरी तरह का होता, ऐसी कोई धारणा प्रक्षेपण न करे। इसे खयाल में लेना। लुभाता है। कोई कहता है सुबह बड़ी सुंदर है, कोई कहता है मुझे | जगत में खोज के दो उपाय हैं-एक निष्क्रिय, एक सक्रिय। जंचती नहीं तो कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता; विवाद का कोई सक्रिय में तुम चेष्टा करते हो कुछ खोजने की; निष्क्रिय में तुम कारण नहीं, यह व्यक्तिगत रुझान है। लेकिन अगर कोई आदमी केवल निष्पक्ष भाव से खड़े होते हो। सक्रिय चेष्टा विचार बन कहे, यह स्त्री सुंदर है, यह वैज्ञानिक सत्य है, तो फिर झगड़ा जाती है; निष्क्रिय चेष्टा ध्यान बन जाती है। जब तुम सक्रिय खड़ा होगा। वैज्ञानिक सत्य कहने का अर्थ यह हुआ कि यह होकर खोज में लग जाते हो तो तुम विचारों से भर जाते हो; सभी के लिए सुंदर है। तो फिर अड़चन आयेगी। क्योंकि विचार मन के सक्रिय होने का अंग हैं। मन जब सक्रिय अब तक वैज्ञानिक मानते थे कि उनका सत्य वैज्ञानिक है और होता है तो विचार से भर जाता है। मन जब निष्क्रिय होता है तो बाकी जो वक्तव्य हैं वे कवियों के हैं। लेकिन पोल्यानी की कोरा रह जाता है। आकाश में बादल हों तो सक्रिय; आकाश में किताब ने और पोल्यानी की खोजों ने जीवनभर यह सिद्ध करने | कोई बादल न हो तो निष्क्रिय, कोई क्रिया नहीं हो रही। की कोशिश की कि विज्ञान भी वैयक्तिक है। आइंस्टीन जो कह महावीर कहते हैं, मन की सारी क्रिया शून्य हो जाये, रहा है, वह आइंस्टीन कह रहा है। न्यूनट जो कह रहा है, वह | नय-पक्षरहित हो जाये-सव्वणयपक्खरहिदो-तो जो शेष रह न्यूटन कह रहा है। यद्यपि आइंस्टीन जो कह रहा है वह इतने | जाता है उस निष्क्रिय चित्त की दशा में जिसको लाओत्स ने प्रबल तर्क से कह रहा है कि अभी हम उसका विरोध न कर वू-वेइ कहा है-ऐसी निष्क्रियता, दर्पण जैसी निष्क्रियता; जैसे पायेंगे जब तक कि प्रबलतर आइंस्टीन न आ जाये। और यह दर्पण 'जो है' उसको झलका देता है। अगर दर्पण कुछ जोड़ता तीन सौ साल में निरंतर हुआ। न्यूटन ने जो कहा वह आइंस्टीन है, घटाता है, तो सक्रिय हो गया; जैसा है वैसा का वैसा, तैसे ने गलत कर दिया। ऐसी-ऐसी चीजें जिनके बाबत हम सोचते थे का तैसा झलका देता है। उस स्थिति को महावीर कहते हैं, बिलकुल सही हैं, वह भी सही न रहीं। ज्यामति जैसा शास्त्र भी उपलब्ध हो जाओ तो वही समयसार है। वही अध्यात्म का सही न रहा। इकलेट ने जो सिद्ध किया था, वह गलत हो गया। निचोड़ है। वहीं से तुम्हें अनुभव का जगत शुरू होगा। उसी को दूसरे लोगों ने उससे विपरीत मान्यताएं सिद्ध कर दीं। गणित सम्यक दर्शन और उसी को सम्यक ज्ञान की संज्ञा दी है। जैसा विषय भी अब वैज्ञानिक नहीं रहा। क्योंकि गणित की महावीर कहते हैं, और सब तो शब्द हैं, मगर असली बात वही सामान्य मान्यताओं के विपरीत भी मान्यताएं लोगों ने सिद्ध कर है। सम्यक ज्ञान कहो, सम्यक दर्शन कहो या कुछ और कहना दी और नये गणित विकसित हो गये। तो अब तो दिखायी पड़ता हो-ध्यान, समाधि, निर्विकल्प दशा जो भी कहना हो कहो। है कि सारा ज्ञान व्यक्तिगत है, रुझान है। वह आदमी के ऊपर लेकिन एक बात तय है कि वह निष्क्रिय दशा है। जिसमें तुम निर्भर है। कुछ भी हिस्सा नहीं बंटाते; तुम सिर्फ खड़े रह जाते हो। इसे महावीर कहते हैं, जो परम सत्य को मानने चला है, मान्यता तो थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। यह मेरे कहने भर से साफ न हो दूर, हाइपोथिसिस, परिकल्पना भी ठीक नहीं, नय भी ठीक जायेगा-इसका थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। कभी इसकी नहीं। नय का अर्थ होता है : बड़ी सूक्ष्म-सी रेखा दृष्टि की; कोई झलक मिलेगी। नाच उठोगे तुम, जब इसकी पहली झलक दृष्टिकोण; कोई हाइपोथिसिस। वह भी ठीक नहीं। उसे खाली मिलेगो। तुम भरोसा न कर पाओगे कि अरे, मैं अब तक यह जाना चाहिए-कोरा। तुम्हारे मन के कागज पर कुछ भी न क्या करता रहा! तुम्हारा सारा जीवन तब एक नयी रूप-रेखा से लिखा हो, अन्यथा जो लिखा है उसका प्रक्षेपण हो जायेगा। भर जायेगा। थोड़ा अभ्यास करो। तुम्हारा मन का कागज बिलकुल कोरा हो। इसका अर्थ हुआ, शांत बैठकर वृक्ष को देखते हो तो देखते ही रहो। सक्रिय मत Wat ducation International Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनो। इतना भी मत कहो कि यह पीपल का वृक्ष है। यह भी मत न रहा। तुम खयाल रखना, दूध ही अशुद्ध नहीं होता, पानी भी कहो कि यह गुलाब की झाड़ी है। यह भी मत कहो कि गुलाब अशुद्ध हो गया। तुम दूध को कहते हो अशुद्ध हो गया, पानी को कितने सुंदर हैं। यह भी मत कहो कि अहा, कितने प्यारे फूल नहीं कहते; क्योंकि पानी तो मुफ्त मिलता है, इसलिए कोई चिंता खिले हैं! ऐसा मन में कुछ भी मत कहो। क्योंकि ये सब नहीं है, कोई आर्थिक सवाल नहीं उठता। तुम कहते हो, दूध नय-पक्ष हैं; ये सब तुम्हारी मान्यताएं हैं। अशुद्ध हो गया। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना, पानी भी गुलाब का फूल तो बस गुलाब का फूल है-न सुंदर, न अशुद्ध हो गया है। अगर किसी क्षण शुद्ध पानी की जरूरत हो, असुंदर। सुबह तो बस सुबह है। सब वक्तव्य तुम्हारे हैं; सुबह । तब तुम समझोगे कि अरे, यह तो पानी भी अशुद्ध हो गया, दूध तो अवक्तव्य है। उसके बाबत तो कोई वक्तव्य नहीं हो सकता। मिला दिया! मिलावट अशुद्धि है। अनिर्वचनीय है। सब वचन तुम्हारे हैं। तुम अपने को हटा लो। तो जब तुम अस्तित्व में मिलावट करते हो, जब तुम कुछ तुम कुछ कहो ही मत। तुम सक्रिय बनो ही मत। तुम सिर्फ सुबह डालते हो, उंडेलते हो, जब तुम दूध में पानी डाल देते हो, तब को देखते रह जाओ। ऊगता है सूरज, ऊगने दो। वृक्षों में हवा सब अशुद्ध हो जाता है—तुम भी, अस्तित्व भी। जब तुम खड़े सरसराती है, सरसराने दो। तुम शब्द न दो। तुम शब्द को मत रह जाते हो-तटस्थ, साक्षी; यहां अस्तित्व, यहां तुम; दो बनाओ। तुम शब्द से रिक्त और शून्य देखते रहो, देखते रहो। दर्पण एक-दूसरे के सामने, बिना कुछ डाले हुए—तब दो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे-धीरे अभ्यास घना होगा। कभी ऐसा क्षण शुद्धियों का साक्षात्कार होता है। आ जायेगा, एक क्षण को भी, कि तुम सिर्फ देखते रहे और इस साक्षात्कार की अवस्था को महावीर कहते हैं समयसार। तुम्हारे भीतर डालने को कुछ भी न था। तुमने कुछ भी न डाला | और जब तक यह न हो जाये तब तक तुम्हारी जिंदगी नाममात्र को अस्तित्व में, तुम सिर्फ खड़े देखते रहे, दर्शक, द्रष्टा-मात्र, जिंदगी है, अशुद्ध है, कुनकुनी जिंदगी है। इसमें ज्वाला न जिसको महावीर कहते हैं ज्ञायक-मात्र—सिर्फ देखते रहे! उस होगी। इसमें प्रकाश...यह ज्योतिर्मय न होगी। इसमें आनंद के घड़ी में एक झरोखा खुलता है। पहली दफा अस्तित्व तुम्हारे फूल न लगेंगे, न प्रसाद होगा। सामने अपने रूप को प्रगट करता है। पहली बार तुम उसे देखते जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना हो, जो है। क्योंकि पहली बार तुम कुछ जोड़ते नहीं, मिलाते उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना। नहीं, तुम कुछ डालते नहीं। तुम भी शुद्ध होते हो उस घड़ी में नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम और अस्तित्व भी शुद्ध होता है। दो शुद्धियां एक-दूसरे का | सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। यह खिलकर साक्षात्कार करती हैं। इसे महावीर कहते हैं समयसार। | जल ही नहीं पाता, यह खुल के प्रज्वलित नहीं हो पाता। यह तुमने कभी खयाल किया। दूधवाला दूध में पानी मिला लाता | इसकी ज्योति ज्योति ही नहीं बन पाती-बुझी-बुझी, है; तुम कहते हो अशुद्ध कर दिया। तुमने इस पर कभी विचार बुझी-बुझी, टिमटिमाती! किया कि उसने शुद्ध पानी मिलाया हो तो? अशुद्ध क्यों कह रहे | जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना हो? वह कहेगा कि हमने तो दोहरा शुद्ध कर दिया-शुद्ध पानी उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना शुद्ध दूध, दोनों को मिलाया; अशुद्धि तो कुछ मिलायी नहीं है। नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम पानी भी शुद्ध था, प्राशुक था। दूध भी शुद्ध था। अशुद्धि कैसे सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। क्योंकि हमने कह रहे हो, किस कारण कह रहे हो? फिर भी तुम कहोगे, दूध जिंदगी को मौका ही नहीं दिया। हमने जिंदगी पर इतनी शर्ते लगा अशुद्ध है। दी हैं। हमने जिंदगी पर इतने अवरोध खड़े कर दिये हैं, हमने अशुद्धि का कारण यह नहीं कि तुमने अशुद्धि मिलायी। दो | जिंदगी की ज्योति के आसपास इतने पक्ष-विपक्ष, धारणाएं, शुद्धियां भी मिला दो तो अशुद्धि का परिणाम आता है। अशुद्ध | मान्यताएं, विचार, ऐसा घेरा बांध दिया है, किला खड़ा कर दिया कहने का इतना ही अर्थ है कि दूध अब दूध न रहा और पानी पानी है, ईंट पर ईंट रख दी है विचारों और पक्षों की, कि जिंदगी की MM 585 | Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 लपट उठे कैसे, प्रगट कैसे हो? एक मेहमान के पीछे दूसरा चला आता है। रिश्तेदारों के जिसे तुम अभी टिमटिमाता हुआ दीया जानते हो, वही महावीर | रिश्तेदार! में प्रज्वलित सूर्य होकर जला है। वही जीवन! वही कबीर ने मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक दफा एक आदमी कहा है कि एक सूरज, एक सूरज कहने से न हो सकेगा; जिस आया पास के गांव से और एक बतख दे गया। कहा कि गांव के दिन मैं जागा, हजार-हजार सूरज मेरे भीतर एक साथ जल उठे। तुम्हारे मित्र ने भेजी है। मुल्ला बड़ा खुश हुआ। उसने उस प्रकाशमयी दशा के लिए कोई उपमा खोजना मुश्किल है। बतख...उसने कहा कि रुको, शोरबा तो पीते जाना। उसने हजार-हजार सूरज भी कम पड़ते हैं, क्योंकि सूरज तो एक न एक शोरबा बनवाया, मित्र को पिलाया और कहा कि कभी भी आओ दिन चुक जाएंगे। सभी सूरज चुक जाते हैं। यह हमारा सूरज तो जरूर आना। कोई दो-तीन दिन बाद एक दूसरा आदमी भी, वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार सालों में ठंडा हो जायेगा। आया। मुल्ला ने पूछा, आप कौन हो? उसने कहा, कि जो इसका ईंधन चुकता जा रहा है। आखिर कब तक जलता बतख लाया था उसका मैं मित्र हूं। कोई बात नहीं, मित्र के मित्र रहेगा? सब ईंधन की सीमा है। कितना ही बड़ा हो, करोड़ों हो तो भी मित्र हो। उसको भी उसने भोजन करवाया, साल जले तो भी एक सीमा आती है और चुक जायेगा। सांझ खिलवाया-पिलवाया। यह तो सिलसिला अंतहीन होने लगा। दीया जलाया, सुबह बुझ जायेगा; फिर रात कितनी ही लंबी होः फिर दो-तीन दिन बाद एक आदमी आ गया। उसने कहा, मित्र लेकिन भीतर का दीया कुछ ऐसा है कि वह ज्योति शाश्वत है। के मित्र का मित्र। ऐसे यह संख्या बढ़ने लगी। तो मुल्ला बहुत हजारों सूरज जलते हैं और बुझ जाते हैं और उस भीतर की घबड़ा गया। दो-तीन महीने में तो मुल्ला बहुत घबड़ा गया कि ज्योति का कभी बुझना नहीं होता। इसलिए हजार सूरज का यह तो एक बतख क्या भेजी, यह तो सारा गांव आये जा रहा है! प्रतिमान भी छोटा है। लेकिन छोड़ो सूरज की तो बात दूर, हम तो उसने कहा, कुछ करना पड़ेगा। फिर एक आदमी आ गया अपने भीतर के दीये को टिमटिमाता दीया भी नहीं कह सकते। दो-चार दिन बाद। अब तो बहुत संख्या आगे हो गयी ज्योति मालूम ही नहीं पड़ती। | थी-मित्र के मित्र, मित्र के मित्र। काफी लंबी शृंखला हो गयी अनेक लोग सुनकर सुकरात की बात, कि महावीर की बात, थी। उसने कहा, अब कुछ बताने की जरूरत नहीं, ठीक है। कि बुद्ध की, कि कृष्ण की बात भीतर जाने की चेष्टा करते हैं। उसने पत्नी से कहा, सिर्फ गर्म पानी बना दे, कुछ और बनाना क्योंकि ये सभी लोग कहते हैं, जानो अपने को! आंख बंद करके मत। गर्म पानी लेकर उसको पीने को दिया। कहा, बतख का भीतर जाने की कोशिश करते हैं, जल्दी से बाहर लौट आते हैं; शोरबा है। उसने चखा, उसने कहा, यह तो सिर्फ गर्म पानी क्योंकि अंधेरा ही अंधेरा मालूम पड़ता है। और ये सब तो कहते मालूम होता है; इसमें बतख तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। उसने हैं, बड़ा ज्योतिर्मय लोक है! कहा कि खाक दिखाई पड़ेगी, यह शोरबे के शोरबा का शोरबा नहीं, अभी तुम भीतर न जा सकोगे। अभी तो तुमने बाहर को का शोरबा...सिर्फ पानी बचा है अब! भी शुद्ध आंख से नहीं देखा। अभी तो तुमने क ख ग भी नहीं विचार से और विचार निकल आते हैं। पहला विचार ही व्यर्थ पढ़ा जीवन के सत्य का। था, दूसरा और भी व्यर्थ होता है। तीसरा और भी व्यर्थ होता है। इसलिए महावीर का पहला सूत्र कहता है: जो सब नय-पक्षों | अंत में तुम्हारे पास विचारों की भीड़ लग जाती है, जिनमें से रहित वही समयसार है। और अगर ऐसा न किया तो एक पक्ष | सार्थकता कुछ भी नहीं होती। में से दूसरा पक्ष निकलता जाता है। जैसे एक वृक्ष में अनेक | मिलते गये हैं मोड़ नए हर मुकाम पर शाखाएं निकलती हैं। फिर एक शाखा में अनेक उपशाखाएं बढ़ती गई है दूरी-ए-मंज़िल जगह-जगह। निकलती हैं ऐसा तुमने अगर एक पक्ष बनाया तो जल्दी ही तुम | और एक-एक मोड़ नए मोड़ ले आता है और तुम बढ़ते जाते पाओगे, तुम बहुत पक्षों से घिर गये। एक मेहमान को घर हो, और मंजिल दूर होती जाती है। और जितने तुम चलते जाते लाओगे, जल्दी ही पाओगे मेहमानों की भीड़ लग गई; क्योंकि | हो विचारों में उतने ही तुम अपने से दूर होते जाते हो, क्योंकि वही 5861 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NARENER साधका सवनः आत्मस मंजिल है। नहीं अभी। यह तो वह जो डाक्टर ने कहा था, भेड़ गिनो...कहां अगर उस स्वयं को पाना हो तो लौटो उलटे, चलो गंगोत्री की का नासमझ आदमी। भेड़ें गिनी, ऊन काटा, कपड़े बनाये, तरफ! छोड़ो एक-एक विचार को। और जब तुम आखिरी बाजार में बेचने खड़े हो गये...खरीददार नहीं है। और इतना विचार पर आओगे, तब तुम्हें पता चलेगा : यह मेरा पक्षपात था, सब बना लिया है कि बरबाद हो जायेंगे। जिससे सारी यात्रा शुरू हुई। उस पक्षपात को भी गिरा दो। विचार एक के बाद एक चलते चले जाते हैं—या तो अतीत के तुम्हारे भीतर उठेगा। उस निर्विचार में ही समयसार है। होते हैं या भविष्य के होते हैं। तो या तो स्मृति पैदा करते हैं वे और जब तक वैसी शुद्ध दर्पण की दशा न आ जाये, तब तक और स्मृति के घावों को उघाड़ते हैं, या फिर कल्पना पैदा करते हैं तुम जिंदगी को तो जानोगे ही नहीं, न अपने को जानोगे। क्योंकि और कल्पना से वासना को उकसाते हैं। तो या तो तुम अपने तुम चूकते ही रहोगे। जिंदगी है प्रतिपल अभी और यहां-और घावों को कुरेदते रहते हो, जो कि बड़ी व्यर्थ प्रक्रिया है और उससे मिलने नहीं देता, क्योंकि विचार सदा कहीं खतरनाक भी; क्योंकि उनसे घाव हरे बने रहते हैं। और है-या तो भविष्य में या अतीत में। या तो अतीत की लौट-लौटकर, किसी ने गाली दी थी, तुम सोचने लगते हो; स्मृतियों से जुड़ा है विचार, जो कल हो चुका, परसों बीत लौट-लौटकर क्रोधित होने लगते हो। चुका-उसका सब संग्रह। उसकी तुम उधेड़-बुन में लगे रहते कभी तुमने खयाल किया! अगर तुम विचार करने बैठ जाओ हो। और या भविष्य...। और ठीक से स्मृति को जगाओ तो जब तुम्हें किसी ने गाली दी थी मुल्ला नसरुद्दीन को नींद न आती थी। एक डाक्टर ने कहा कि और अपमान किया था, तो उसकी स्मृति ही न आएगी; तुम तू ऐसा कर भेड़ें गिन; भेड़ें गिनने से बड़ा लाभ होता है, अचानक पाओगे, फिर तुम्हारे रग-रेशे में क्रोध आ गया, तुम्हारे गिनते-गिनते नींद आ जाती है। गिनते गए; एक, दो, तीन, रोएं-रोएं में फिर क्रोध दौड़ गया! तुम फिर कुछ करने को उतारू हजार, दस हजार, लाख, जहां तक...बस चलते गए, चलते हो गये! फिर घाव हरा हो गया। गए। एक ऐसी घड़ी आयेगी कि थककर तू नींद में गिर जाएगा। या तो तुम घाव कुरेदते हो और या तुम भविष्य में कामना को मुल्ला ने कहा, ठीक। उसने भेड़ें गिननी शुरू की। वह कई | उकसाते हो। लाख पर पहुंच गया। उसने कहा, ऐसे तो बढ़ते गये तो ये तो दोनों खतरनाक हैं। क्योंकि सभी कामनाएं आज नहीं कल करोड़ों अरबों हो जायेंगी। फिर करेंगे क्या इनका? तो उसने विषाद में रूपांतरित हो जाएंगी। सभी कामनाएं आज नहीं कल सोचा, अब बेहतर है कि अब इनका ऊन निकालना शुरू करें, घाव बन जायेंगी। जो अभी भविष्य है, कल अतीत हो जायेगा। बजाय इसके कि गिनते ही जाने से। उसने ऊन निकालना शुरू अगर कोई विचार न हो चित्त में तो तुम यहां होते हो-अभी। किया। अब वह लाखों भेड़ों का ऊन, गांठों पर गांठें लग गयीं। न कोई अतीत, न कोई भविष्य-य उसने सोचा, ऐसे अगर ऊन इकट्ठा करते गए तो कहां, रखेंगे समग्रता से घेर लेता है। कहां? गोदाम मिलते कहां आजकल? रखने की जगह कहां गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन है? वर्षा सिर पर आ रही है। यह तो मुश्किल है। इसके कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद कोट-कपड़े बनवाना शुरू कर दो। तो कंबल, कोट, -बगीचे में जाने से सार क्या? कपड़े...लेकिन इतना ढेर हो गया कि वह एकदम घबड़ाया कि गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन, बाजार की हालत तो वैसे ही खराब है, खरीददार तो मिलता नहीं, -बहुत बार गए हैं, अनेक बार गए हैं! मारे गये! तो वह आधी रात में चिल्लाया : बचाओ, बचाओ! कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद तो उसकी पत्नी घबड़ाकर उठी। उसने कहा, हुआ क्या? उसने -या तो वसंत के पहले जाते हैं या वसंत जब बीत जाता है। कहा, हुआ क्या...मर गये, लुट गये! पत्नी ने कहा, क्या, हुआ तब जाते हैं। हर हालत में पतझड़ हाथ लगता है। क्या? कोई सपना देखा, उसने कहा, सपना क्या, नींद तो आयी | तो अस्तित्व का जो बगीचा है वह तो अभी और यहां है। .. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H जिन सूत्र भागः1 Main वर्तमान उसका ढंग है। तुम जाते हो-या तो जब बीत चुकी अस्तित्व का। बहार या अभी जब आयी नहीं; या तो अतीत के ढंग से या सेवन...'सेवन' बड़ा प्यारा शब्द है! इसका भोग करता है। भविष्य के ढंग से। | जैन मुनि 'भोग' शब्द को लाने में अड़चन अनुभव किए निर्विचार में जो खड़ा है वह वर्तमान से जुड़ता है। उसका होंगे। 'सेवन करता है' उनको लगा होगा, इसे 'करना चाहिए' सीधा-सीधा संबंध हो जाता है। वह आमने-सामने खड़ा होता में बदलो। है। यह प्रतीति, यह साक्षात्कार, महावीर कहते हैं, समयसार। यह हमारे सारे शास्त्रों के साथ होता है। जहां 'है' की सूचना _ 'साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन करना है वहां 'होना चाहिए', हम अनुवाद करते हैं। जहां केवल 'है' चाहिए। निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना की सूचना है—जैसे कि आग जलाती है, यह तो ठीक है; चाहिए। ये तीनों आत्मरूप ही हैं। अतः निश्चय से आत्मा का लेकिन आग को जलाना चाहिए, तब अड़चन हो गयी। कोई सेवन ही उचित है।' ऐसा अनुवाद न करेगा कि आग को जलाना चाहिए, क्योंकि दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। आग इस तरह की बकवास को मानती ही नहीं। वह तो जलाती ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।। है। 'चाहिए'-वासना, कामना आ गयी; भविष्य आ गया। इस वचन के जो भी अनुवाद किए गए हैं, उनमें थोड़ा-सा फर्क 'चाहिए' का अर्थ ही हुआ कि कल हो सकेगा, आज नहीं हो मालूम होता है। और फर्क बहुमूल्य है। जिन्होंने अनुवाद किये सकता। ‘चाहिए' का मतलब ही यह हुआ कि जो है नहीं; हैं—जैन साधु, मुनि अनुवाद करते हैं। अनुवाद में उनका कोशिश करके लाना होगा। तो कोशिश में तो समय लगेगा। व्यक्तिगत पक्षपात उतर जाता है। जैसे दसणाणचरित्ताणिः दिन लग सकते हैं, वर्ष लग सकते हैं, जन्म लग सकते हैं। कौन दर्शन, ज्ञान और चरित्र; सेविदव्वाणि साहुणा णिच्वं : इनका | जाने कितना समय लगेगा तब हो पायेगा! नित्य सेवन, यही साधु का लक्षण है। लेकिन अनुवाद क्या लेकिन साधारणतः दूसरे सुननेवाले भी इस अनुवाद से राजी किया जाता है : साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन होते हैं, क्योंकि उनको भी सुविधा मिल जाती है। वे भी कहते हैं, करना चाहिए। चाहिए कहीं मूल सूत्र में नहीं है। मूल सूत्र में तो 'चाहिए' ठीक है। कल पर स्थगित करने का उपाय है। तो सिर्फ व्याख्या है कि साधु कौन। साधु का कर्तव्य नहीं गिनाया कल कर लेंगे। साधुता कल, असाधुता आज! | है, साधु की परिभाषा है। साधु कौन? जो नित्य दर्शन, ज्ञान तुमने देखा, अगर दान देना हो तो तुम कहते हो देंगे; क्रोध और चरित्र का सेवन करता है-पालन भी नहीं। मूल शब्द है : करना हो तो तुम नहीं कहते, करेंगे। तुम कहते हो, करते हैं सेविदव्वाणि-जो सेवन करता है; पालन नहीं; जो भोजन अभी! क्रोध होता है। और करुणा? करनी चाहिए! यह बड़े करता है; जो उपभोग करता है; जो भोगता है। साधु है वह जो मजे की बात है। अगर दान देना है, तो तुम कहते हो, करेंगे! दर्शन, ज्ञान और चरित्र का नित्य भोग करता है। __ एक मित्र संन्यास लेने आये थे, वे कहने लगे, सोचता हूँ! अब बात साफ हो सकती है। पहले तो नित्य, प्रतिपल, बहुत दिन से सोच रहा हूं। अभी भी विचार कर रहा हूं, अभी भी वर्तमान में न तो बीते कल में न आनेवाले कल में-अभी और पक्का नहीं कर पाता। यहां भोग करता है। असाधु या तो अतीत में भोगता है या मैंने उनसे पूछा, क्रोध के संबंध में सोचते हो कि बिना ही सोचे भविष्य में। पक्का कर लेते हो? वे कहने लगे कि क्रोध के संबंध में तो गये हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन हालत उलटी है : सोचते हैं कि न करें और होता है। और संन्यास कभी बहार से पहले कभी बहार के बाद। के संबंध में हालत यह है कि सोचते हैं कि लें, और नहीं होता। -वह असाधु। साधु वह जो अभी और यहीं के द्वार से हमने शुभ को, श्रेष्ठ को, सत्य को, शिवम् को टालने के उपाय अस्तित्व में प्रवेश करता है; जो 'अब' के द्वार से अस्तित्व में | किए हैं। तो इसलिए इन अनुवादों पर कोई एतराज भी नहीं प्रवेश करता है; जो यहां और ठीक अभी साक्षात्कार करता है करता। यह सिर्फ सूचक हैं। 5881 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवनः आत्मसेवन महावीर कह रहे हैं: नहीं। भेजने की कोई जरूरत नहीं। भेजेंगे सात दिन बाद। सात दसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। दिन बाद तू आना, फिर इसको पढ़ लेना। अगर तू सात दिन बाद वही है साधु, वही है साहु, जो नित्य सेवन कर रहा है दर्शन, कहे कि भेजना है तो भेज देंगे। उस आदमी ने कहा, ठीक है। ज्ञान, चरित्र का। जो कल पर नहीं छोड़ रहा है; जो अभी और कोई हर्जा नहीं। वह सात दिन बाद आया, उसने पत्र देखा। उसे यहीं जी रहा है; जिसने भविष्य के साथ नाते तोड़ लिए। भविष्य भरोसा ही न आया कि मैं और ऐसा पत्र लिख सकता हूं। के साथ जिसका नाता है, वही गृहस्थ। क्योंकि गृहस्थ का अर्थ सात दिन में आग सब ठंडी हो गयी, अंगारे बुझ गये। दी गयी है: वासना, कामना; कल भोगेंगे। और गृहस्थ की भूल यही है | गालियां उतनी महत्वपूर्ण न मालूम पड़ीं। उत्तर व्यर्थ मालूम कि कल आएगी मौत, तुम भोग न पाओगे। तुम कल पर टालते पड़े। वह आदमी तो पागल मालूम ही पड़ा। अपना पत्र देखा तो जाओगे, एक दिन मौत आ जायेगी। तुम्हारा सब टाला हुआ, उसने कहा, यह मेरा भी दिमाग खराब है। इसको जवाब नहीं टाला हुआ रह जायेगा। देना, मेरे दिमाग के लिए कुछ उपाय बताओ, इस तरह की बातें महावीर इतना ही कह रहे हैं कि शुभ को टालना मत, स्थगित मेरे मन में उठती हैं। अच्छा ही हुआ, उस आदमी ने कहा कि मत करना; जब शुभ का भाव उठे, तत्क्षण भोग लेना। उसने यह पत्र लिखा। उसके पत्र के बहाने मुझे मेरी आत्मा के अशुभ को टालना; क्योंकि टल जाये तो अच्छा। अशुभ को दर्शन तो हो गये थोड़े कि यह सब मेरे भीतर भरा पड़ा है। कल पर छोड़ना! | मैं तुमसे कहता हूं अगर क्रोध को तुम कल पर टाल दो तो उसी मेरे देखे ऐसा है कि अगर तुम अशुभ को कल पर छोड़ो तो तरह टल जायेगा, जैसे करुणा अभी तक टलती आयी है।। उसी तरह अशुभ न हो पायेगा जैसे अभी शुभ नहीं हो पा रहा है। अशुभ को अगर तुम कहो, करेंगे भविष्य में, तो अशुभ भी कल पर छोड़ा, होता ही नहीं। तुम जरा करके देखो! कोई तुम्हें | उसी तरह विदा हो जायेगा तुम्हारे जीवन से जैसे शुभ विदा हो गाली दे, तुम कहो कि चौबीस घंटे बाद क्रोध करेंगे। अगर तुम | गया है। कर लो चौबीस घंटे बाद क्रोध तो चमत्कार है। हो नहीं सकता। महावीर कहते हैं, साधु वह है जो दर्शन, ज्ञान और चरित्र का चौबीस घंटे! चौबीस क्षण तो रुको, क्रोध असंभव हो जायेगा। । अभी पालन कर रहा है, अभी सेवन कर रहा है। और 'पालन' अब्राहम लिंकन के जीवन में उल्लेख है, एक आदमी, मित्र से 'सेवन' शब्द ज्यादा बेहतर है, क्योंकि पालन में ऐसा लगता उनका, बड़ा क्रोधित आया। किसी ने उसको पत्र लिखा था और है कि कुछ चेष्टा करके आयोजन करके अपने को बांध रहा है; बड़ी ऊलजलूल बातें लिखी थीं। लिंकन ने कहा, 'बैठो इसी कोई अनुशासन। 'सेवन' में ऐसा लगता है: कुछ अनुभव में वक्त जवाब दो। और दिल खोलकर जवाब दो! डरने की आ रहा है, उसको भोजन बना रहा है; उसको अपने रक्त, जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा मित्र भी हूं, तुम्हारा वकील भी हूं। मांस-मज्जा में मिला रहा है। यह हद्द हो गयी! लिखो दिल खोलकर! जो भी गालियां तुम्हें । 'निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए। ये लिखनी हैं, लिख डालो पूरा।' वह आदमी भी थोड़ा चौंका! तीनों आत्मरूप ही हैं।' ऐसा उसने सोचा ही न था कि लिंकन यह कहेंगे। पर वह बैठ ये अलग-अलग नहीं हैं। यह जैनों की त्रिवेणी है या त्रिमूर्ति। गया लिखने। दिल तो भरा था। दिल खोलकर उसने गालियां क्योंकि ईश्वर का तो कोई भाव जैनों के पास नहीं है। सम्यक दीं। लिंकन उसे उकसाता था, उकसावा देते रहे कि तू डर मत, ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चारित्र्य-ये उनके शिव, ब्रह्मा, लिख, सब लिख डाल! सब मवाद निकाल दे! कागज पर विष्णु हैं। यह उनकी त्रिमूर्ति है। यह उनकी ट्रिनिटी है। और ये कागज, उसने गालियां और ऊलजलूल बातों के सब उत्तर दे। तीनों आत्मा के ही तीन रूप हैं। ये तुम्हारे होने की शुद्धता में डाले। और जब वह पूरा लिखकर उसने हलकी सांस ली, प्रगट होते हैं। ये आत्मा ही हैं। लिंकन ने कहा, ला अब यह पत्र मुझे दे दे। उसने कहा, पता तो ___ 'अतः निश्चय से आत्मा का सेवन ही उचित है।' लिख देने दो। तो उसने कहा, पता लिखने की कोई जरूरत | यह बड़ा अदभुत वचन है। अपना ही भोजन उचित है। अपना Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 1 RERE A ही भोग उचित है। अपने को ही पीयो, अपने को ही भोगो। कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से हम साधारणतः जीवन में दूसरे को भोगने का आयोजन करते । मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती। हैं। 'पर' का हम सेवन करना चाहते हैं। लेकिन दिल है कि वह गरीब का गरीब, दीन का दीन, भिखारी महावीर कहते हैं, 'पर' का सेवन करते-करते तो तुम संसार का भिखारी, खंडहर का खंडहर, वहां कभी महल बन नहीं में भटक गये हो। अब तुम अपना ही सेवन करो। तुम अकेले पाता-बनेगा भी नहीं। क्योंकि बाहर की तुम सारी दुनियाएं अपने एकांत को ही भोगो। तुम अपने स्वभाव में डूबो। तुम्हारे | लूटकर ले आओ, तो भी कुछ न होगा, जब तक कि भीतर की भीतर जो छिपा है, इसके साथ नाचो, इसी को संगी-साथी दुनिया न लूटो। और भीतर की दुनिया कुछ ऐसी है-ऐसी बनाओ! भीतर होने दो रास! अनंत कि भोगो और भोग के नये द्वार खुलते चले जाते हैं; रस तुमने अपने साथ संबंध ही नहीं जोड़े। तुम अपने से कभी लो, और नई रसधार बहती है। रसधार बड़ी होती जाती है, बड़ी आलिंगन नहीं किए। तुमने अपने को कभी चूमा नहीं, अपना | होती जाती है। और कतरा एक दिन दरिया बन जाता है। बूंद कभी भोजन नहीं किया। अपना सेवन करो। एक दिन सागर हो जाती है। सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया तुम जब तक प्रगट न हो जाओगे अपनी परिपूर्ण महिमा में, तब खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ। | तक दुखी रहोगे, घाव रहेगा। गीत गाना ही पड़ेगा। वह हमारी और जब तक बूंद सागर न हो जाये, तब तक मिट्टी है। और | नियति है। अभिव्यंजित होना ही होगा, गूंजना ही होगा-एक जब तक हृदय में छिपा हुआ गीत प्रगट न हो जाये, तब तक वह परम संगीत से! एक दिव्य विभा से मंडित होना ही होगा! हृदय का घाव है। अपनी महिमा को छिपाओ मत, भोगो! सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया हिंदू शास्त्रों में बड़े प्रसिद्ध वचन हैं : खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ। आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः। हमारे जीवन में जो इतनी पीड़ा है, यह पीड़ा सिर्फ इसीलिए है सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृति। कि हमारे भीतर जो पड़ा है, छिपा है, वह प्रगट नहीं हो पाया। जो स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः। गीत दबा पड़ा है हमारे प्राणों में, वह गाया नहीं गया। जो नाच आहार शुद्धि से सत्व शुद्धि; सत्व शुद्धि से स्मृति का लाभ; हम छिपाये चल रहे हैं, वह नाचा नहीं गया। जो भोग हमारा | और स्मृति-लाभ से ग्रंथियों का खुलना; और समस्त उलझनों स्वभाव है, वह भोगा नहीं गया। हमने अपने को अभिव्यंजना का अंत, समाप्ति, विप्रमोक्ष।। नहीं दी है। हमारा सितार ऐसा ही पड़ा है, उस पर हमने साधारणतः लोग यही अर्थ करते हैं, आहार शुद्धि से सत्व अंगुलियां नहीं नचायीं। वह सितार ऐसे ही धूल जमा पड़ा है। शुद्धि। यही अर्थ करते हैं : शुद्ध आहार। ब्राह्मण के हाथ का उससे विराट संगीत पैदा हो सकता था, उस तरफ हमने कोई | बनाया हुआ आहार। इसका गहरा अर्थ खयाल में नहीं आता : ध्यान ही न दिया। हमारी नजरें दूसरे को तलाशती रहीं। हम | शुद्ध का आहार! परम शुद्ध का आहार! सत्व का आहार! वह दूसरे के संगीत में डूबने को आतुर रहे-और अपना घर भूल जो तुम्हारे भीतर छिपा है, उसका आहार! गये, अपना संगीत भूल गये। हमने और सब भोगा और हाथ | महावीर वर्षों तक उपवास किए, महीनों उपवास किए, दिनों सदा खाली पाए, और हमने उसे न भोगा जो हमारा था और जिसे उपवास किए! लेकिन उन्होंने अपने इस उपवास को उपवास भोगने से जीवन भर जाता। कहा, निराहार न कहा; अनशन न कहा, उपवास कहा। कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से उपवास का अर्थ है: अपने पास होते जाना; अपने निकट होते मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती। जाना। जो उपनिषद का अर्थ है, वही उपवास का अर्थ है। अपने कितनी बार नहीं तुमने दोनों दुनियाओं को लूटकर अपने हृदय । पास, अपने पास, और पास होते चले जाना! निराहार न कहा को भर देने की चेष्टा की है! अपने उपवास को, क्योंकि वह गलत जोर होता। भोजन नहीं 5901 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया, यह तो गौण बात है। अपना भोजन किया, यह महत्वपूर्ण बात है। आत्म-आहार किया। और आत्म-आहार से ऐसे भर गये कि भोजन कि जरूरत न रही। वह गौण बात है । तो तुमने कभी खयाल किया ! प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख नहीं लगेगी। कभी-कभी तुम चकित होओगे... एक महिला ने मुझे कहा... मैं यह बात कर रहा था। उसने सुनी, वह मुझसे मिलने आयी। उसने कहा कि एक बात आपसे कहनी है, मेरे | जीवन में अटकी रही है सदा से । उसकी सास की मृत्यु हुई सांझ | के वक्त । जैनों की 'अंथऊ' का समय। सूरज ढल गया, फिर भोजन तो हो नहीं सकता। सास मर गई बेवक्त । सासों के ढंग...! अब वह कोई ढंग का वक्त भी चुन सकती थी । दोपहर में मरती, रात मरती ठीक; अंथऊ के वक्त मर ! भोजन तो हो नहीं सका; पड़ा रह गया । और ऐसा भी नहीं कि इस बहू का अपनी सास से कुछ विरोध रहा हो - बड़ा लगाव था। तो उस समय तो कुछ खयाल नहीं आया, लेकिन जैसे रात बढ़ने लगी, उसकी भूख बढ़ने लगी। इधर रो भी रही । सास ने उसे अपनी बेटी की तरह रखा था, बहुत गौरव से रखा था। वह मर गयी तो दुख स्वाभाविक था । रो रही है, दुखी हो रही है। लेकिन पेट में भूख लग रही है ! और आधी रात भूख इतनी ज्यादा बढ़ गयी कि वह महिला चकित हुई। भूख इतनी बढ़ गयी कि उसे जाकर चोरी से अपने चौके में कुछ भोजन करना पड़ा। उसकी ग्लानि उसके मन में रह गयी। और यह जो महिला, जिसने मुझे यह कहा, वह आठ-आठ दस-दस दिन के उपवास कर लेती है; इसलिए उसे भी बड़ा चक्कर मालूम हुआ कि 'यह हुआ क्या ! मैं आठ-आठ दस-दस दिन उपवास कर लेती हूं और कभी भूख ने मुझे ऐसा नहीं सताया कि उपवास तोड़ना पड़ा हो ! और यह सास का मरना और इतना मेरा लगाव ! तो एक अपराध-भाव उसके मन में अटका रह गया। किसी को भी उसने कहा नहीं - अपने पति कभी नहीं कहा, क्योंकि वह भी दुखी होंगे यह बात सोचकर कि मेरी मां मर गयी और तूने रात चोरी से भोजन किया। उसने मुझे कहा और कहा कि आप किसी को कहना मत ! मुझे यह उलझन रह गयी है। मैं उससे कहा कि इससे विपरीत भी तुझे कभी हुआ ? कभी आनंद के क्षण में, भूख न लगी हो ? उसने कहा, 'हां, यह भी साधु का सेवन: आत्मसेवन मुझे हुआ | आप भी जब मेरे घर में आते हो तो मैं भोजन नहीं कर पाती। मैं इतनी प्रसन्न हो जाती हूं कि वर्ष में आप दो दिन के लिए आते हो, कि दो दिन मैं भोजन नहीं कर पाती; बस ऐसे ही चाय इत्यादि से काम चल जाता भूख ही नहीं लगती, ऐसा कुछ भरापन मालूम होता है।' जब भी तुम आनंदित होओगे, तुम हैरान हो जाओगे कि पेट भरा है! तुम इतने भरे हो, इतने भीतर भरे हो कि पेट का खालीपन पता न चलेगा। प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख न लगेगी। दुख के क्षणों में भूख लगेगी। दुख में तुम एकदम खाली हो जाओगे। दुख में न केवल पेट खाली हो जायेगा, आत्मा भी खाली हो जायेगी। इसलिए अकसर जिसने तुम्हारे जीवन को बहुत गहराई से भरा था, अगर वह मर जायेगा तो तुम्हें तत्क्षण भूख लगेगी। बेचैनी होगी तुम्हें यह सोचकर कि यह कोई वक्त है भूख लगने का । क्योंकि भोजन को तो हम उत्सव मानते हैं। दुख में तो कोई भोजन करता नहीं । पास-पड़ोस के लोगों को भोजन बनाकर लाना पड़ता है खिलाने अगर कोई मर जाये किसी के घर में; क्योंकि वह अपना चूल्हा जलाये तो वह भी तो अशुभ मालूम पड़ता है। यह कोई वक्त है! किसी का पति जल गया हो और वह चूल्हा जलाकर भोजन बना रही ! चूल्हा नहीं जलता दिनों तक । लेकिन जब कोई निकटतम तुम्हारा मर जायेगा, तो न केवल तुम्हारा शरीर खाली हो गया, उसने तुम्हारी आत्मा के भी एक हिस्से को घेरा था, वह भी खाली हो गया। और खालीपन ऐसा मालूम होगा कि लगेगा कुछ भोजन कर लो। कल ही एक संन्यासी ने मुझे कहा, कि विपस्सना का दस दिन प्रयोग करने के बाद, दसवें दिन, आखिरी दिन, उसे ऐसा लगा कि शरीर से आत्मा अलग हो गयी है। कोई आधी रात के वक्त, वह घबड़ा गया! यह अनुभव इतना प्रगाढ़ था और इतना साफ था कि मैं आत्मा से अलग हूं, कि उसे लगा कि अब मौत होने के करीब है । और जो पहली बात उसे याद आयी वह यह कि कुछ खाओ, जल्दी कुछ खाओ। जो कुछ भी उसे मिल सका आधी रात... होटल में रहता है... आधी रात जो कुछ भी मिल सकता है जगाकर, कुछ भी, उसने जल्दी अपना पेट भर लिया। उसने कल मुझे कहा कि यह मैंने कुछ गलत तो नहीं किया है? क्योंकि करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि कुछ भूल हो गयी। क्योंकि वह 591 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POSE - S S Hoyi जिन सूत्र भाग : 1 PRENE अनुभव तत्क्षण खो गया। लेकिन उस क्षण में मुझे इतने जोर की -और आत्मा के शुद्ध आहार से जब भीतर का सत्व शुद्ध भूख लगी, जैसी मुझे कभी लगी न थी। होता है तो स्मृति ध्रुव हो जाती है। शरीर आत्मा से अलग होता हुआ मालमू पड़े, एक खालीपन | स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः। मालूम होगा। और भरने का हम एक ही उपाय जानते हैं-पेट -और स्मृति से, स्मृति के लाभ से सारी ग्रंथियां खल जाती को भर लो; और हमें कोई उपाय नहीं मालूम। अगर इस क्षण में हैं—जिसको महावीर कहते हैं निग्रंथ दशा-सब गांठें खुल यह युवक अपने को प्रेम से भर लेता या आनंद से भर लेता तो जाती हैं। और जो शेष रह जाता है-वही मोक्ष, वही समाधान, यह अनुभव और ऊंचे शिखर पर पहुंच जाता। इसने शरीर से समाधि, विप्रमोक्ष ! फिर कुछ और करने को शेष नहीं रह जाता। भर लिया। इसने इस क्षण में शरीर का सेवन कर लिया। भोजन 'जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ मतलब शरीर। भोजन-जो शरीर बन जायेगा; अभी भोजन नहीं करता है, और न कुछ छोड़ता है उसी को निश्चय-नय से है, कल शरीर बन जायेगा। भोजन यानी बीज रूप से शरीर। मोक्ष-मार्ग कहा है।' इसने शरीर से भर लिया। यह क्षण था जब इसे आत्मा से भरना णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो ह जो अप्पा। था। नाच उठता! गीत गाता! आंदोलित हो उठता आनंद से! ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो ति।। प्रेम को जगाता ! आत्मा से भरता! आत्मा का सेवन करता! तो बड़ी अदभुत बात महावीर कह रहे हैं! जो आत्मा इन तीनों से यह घड़ी बड़ी गहरी हो जाती। यह अनुभव चिरस्थायी हो समाहित हो जाता है—सम्यक ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य से जाता। चूक हो गयी। समाहित! समाहित का अर्थ है, जिसके लिए ये ऊपर से थोपे महावीर कहते हैं, 'आत्मा से ही आत्मा का सेवन उचित है।' गये नियम नहीं.-जो इन्हें पचा गया; जो इसको इस भांति पी आत्मा से आत्मा का भोजन, आत्मा से आत्मा का भोग ही गया, इस भांति कि मांस-मज्जा बन गयी, समाहित हो गया! उचित है। अब ऐसा नहीं कि वह चेष्टा करता है चारित्र्य की, कि मैं ठीक आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः। करूं और गैर-ठीक न करूं। ऐसा भी नहीं कि वह चेष्टा करता -आहार के शुद्ध होने से सत्व शुद्ध हो जाता है। है ज्ञान को पकड़ने की, दर्शन को पकड़ने की। नहीं, ये सब यह आहार की शुद्धि को तुम ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया समाहित हो गए। आहार मत समझना। इसे तो तुम समझना ब्रह्म के द्वारा बनाया तुमने भोजन किया...तो भोजन की दो घटनाएं घट सकती हैं। गया आहार—वह जो तुम्हारे भीतर की अंतत्मिा है, जिस पर तुमने भोजन किया-या तो भोजन समाहित हो जायेगा और या ब्रह्म के हस्ताक्षर हैं। अपच हो जायेगी। अपच होगी तो भोजन बिना पचा शरीर के सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। बाहर फेंक देना होगा। वमन से निकले, मल-मूत्र से -और जिसने उस आत्मा का आहार कर लिया उसकी स्मृति निकले लेकिन अगर अपच हुआ तो उसे शरीर से बाहर फेंक ध्रुव हो जाती है। उसका बोध थिर हो जाता है। यही तो मैंने उस देना होगा वैसा का वैसा। उसमें जो छिपा हुआ सत्व है, तुम्हारा संन्यासी को कहा कि उस क्षण में आत्मा का आहार कर लिया हिस्सा न बन पाएगा। समाहित का अर्थ है : पच जाये। तो जो होता, तो स्मृति ध्रुव हो जाती। कूड़ा-कचरा है वह बाहर निकल जायेगा; जो सार-सार है वह स्मृति का अर्थ यहां याददाश्त नहीं है। यहां स्मृति का अर्थ है तुम्हारे खून में, लहू में बहने लगेगा। वह तुम्हारे हृदय में परमात्मा का स्मरण, या आत्मा का स्मरण। धड़केगा, तुम्हारी आंखों से देखेगा, तुम्हारे मस्तिष्क से सोचेगा। जिसको महावीर सम्यक दर्शन कह रहे हैं; वह थिर हो जाता वह तुम्हारे भीतर का हिस्सा हो जायेगा। है, उसकी लकीर खिंच जाती अमिट। फिर भूले न भूलती। फिर | एक बार जो अन्न पच गया, फिर तुम्हें उसकी चिंता नहीं करनी मिटाये न मिटती। होती कि अब वह क्या कर रहा है; खून ठीक चल रहा है कि सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। नहीं; मस्तिष्क सोच रहा है या नहीं; हड्डी, मांस-मज्जा बन रही Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है या नहीं । तुम तो गले के नीचे उतार लेते हो भोजन को, फिर बात खतम हो गयी। अगर न पचे तो अड़चन होती है। पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित नहीं हुआ। ज्ञानी है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित हो गया। पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसको अपच हो जाता है। भर लेता है ज्ञान को, लेकिन वह ज्ञान कहीं उसके जीवन की धारा का अंग नहीं होता; वह धारा में कंकड़-पत्थर की तरह पड़ा रहता है, धारा के साथ बहता नहीं। समाहित का अर्थ है : जिसे तुम भूल जाओ, फिर भी तुम्हारे साथ हो; जिसकी तुम्हें चेष्टा न करनी पड़े, सहज तुम्हारे साथ हो । सहज - स्फूर्त यानी समाहित। कामवासना समाहित होकर ब्रह्मचर्य बन जाती है। क्रोध समाहित होकर करुणा बन जाता है। राग समाहित होकर प्रेम बन जाता है। हिंसा समाहित होकर अहिंसा बन जाती है। पचा लो! बेजार मत हो जाना! छोड़ने के उपद्रव मत पड़ जाना ! ‘जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ क्योंकि जो-जो तुम छोड़ दोगे, उस उसका रूपांतरण असंभव हो भी नहीं करता...' जायेगा। अगर क्रोध छोड़ दिया तो यह तो हो सकता है तुम अक्रोधी हो जाओ, लेकिन करुणावान न हो सकोगे। अगर कामवासना छोड़ दी, तो यह तो हो सकता है कि तुम काम-रहित हो जाओ, लेकिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध न हो सकेगा। यह काम-रहितता वैसे ही होगी जैसे हम सांड को बैल बना देते हैं, ग्रंथि काट देते हैं, यंत्र को नष्ट कर देते हैं। अन्य कुछ की कोई जरूरत नहीं, ये तीन काफी हैं। इन तीन में सब हो जाता है। और न कुछ छोड़ता है। यह जैन मुनियों को बड़ी तकलीफ होगी सोचकरः न कुछ करता न कुछ छोड़ता क्योंकि छोड़ना भी कृत्य है । छोड़ने में भी कर्ता आ जाता है और अहंकार आ जाता है। न तो पकड़ता और न छोड़ता, चुपचाप साक्षी भाव से जीता है। 'उसी को निश्चय - नय से मोक्ष मार्ग कहा है।' hi तो देर में हूं, कहूं काबे में कहां-कहां लिए फिरता है शौक उस दर का । वह उसके दरवाजे को कभी मंदिर में खोजेगा, कभी मस्जिद में खोजेगा, कभी यहां कभी वहां; और एक दरवाजा जहां कि वह छिपा है - स्वयं का - अनखुला रह जायेगा । और तुम ऐसा मत सोचना कि यह जो मैं दृष्टांत दे रहा हूं, बड़े दूर का है। यह दूर का नहीं है। साधुओं ने यह सब किया है। रूस में साधुओं की एक जमात थी जो जननेंद्रिय काट लेती थी। वही है मुक्ति का मार्ग । जो छोड़ने-पकड़ने में पड़ा वह अड़चन में पड़ेगा। वह यहां से काट देने से, एक अर्थ में तो हल हो जाता था। जब जननेंद्रिय ही वहां डोलेगा । न रही तो कोई उपाय न रहा। लेकिन ब्रह्मचर्य इस तरह उपलब्ध नहीं होता । ब्रह्मचर्य उपलब्ध तो तब होता है जब यह जीवंत ऊर्जा काम की समाहित होती है; जब तुम इसे बाहर नहीं फेंकते, भीतर पचा जाते हो; जब तुम इसे उछालते नहीं फिरते; जब यह ऊर्जा तुम्हारे भीतर ऊर्ध्वगमन बन जाती है। क्रोध को काट देने कसम खा लेने से कि क्रोध न करूंगा, यह हो सकता है तुम दबा लो, दबाते जाओ, ऐसी घड़ी आ जाये कि किसी को भी पता न चले कि तुममें क्रोध है; लेकिन तुम्हें तो चलता ही रहेगा पता ! तुम तो उसी के ऊपर बैठे हो। तुम तो ज्वालामुखी पर बैठे हो जो कभी भी फूट सकता है। नहीं, करुणा पैदा न हो पायेगी। क्योंकि करुणा तो उसी ऊर्जा से निर्मित होती है जिससे क्रोध निर्मित होता है। ऊर्जा का दमन नहीं - ऊर्जा का रूपांतरण ! चमक सूरज में क्या रहेगी अगर बेजार हो अपनी किरण से? और जो व्यक्ति छोड़ने- पकड़ने में लग जायेगा, वह बेजार हो जायेगा । छोड़ने का मतलब है निंदा करनी होगी अपने कुछ अंगों की; शरीर की निंदा करनी होगी धन की निंदा करनी होगी; कामवासना की निंदा करनी होगी, सबकी निंदा करनी होगी। चमक सूरज में क्या रहेगी साधु का सेवन: आत्मसेवन अगर बेजार हो अपनी किरण से ? और ये अपनी ही किरणें हैं। अगर इनसे हम बेजार हो गये, और इनकी निंदा करने लगे और छोड़ने के चक्कर में पड़े गये, तो हम तोड़ते जायेंगे अपने को। लेकिन जीवन का अहोभाग्य इस दिशा से नहीं आता। जीवन का अहोभाग्य तो तब आता है जब जो भी हमें मिला है उसे हम रूपांतरित करने में कुशल हो जायें, समाहित करने में कुशल हो जायें । 593 www.jainelibrary forg Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ indi जिन सूत्र भागः1 AMROHIBIRM 'इस दृष्टि से आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि होता | हो। सिर में दर्द है तो चेतना सिर के कारण डांवाडोल हो जाती है। पैर में कांटा लगा है तो कांटे के कारण चेतना डांवाडोल हो तो महावीर कह रहे हैं. फिर व्याख्या क्या होगी सम्यक दष्टि जाती है। जब तम बिलकल डांवाडोल नहीं होते न सिर की? जिसको गीता में स्थितिप्रज्ञ कहते हैं, उसी को महावीर बुलाता, न पैर बुलाता, न पेट बुलाता-जब शरीर को तुम सम्यक दृष्टि कहते हैं। स्थितिप्रज्ञ-जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो बिलकुल भूले रहते हो, ऐसा जैसा विदेह, है ही नहीं-तब तुम गयी; सम्यक दृष्टि-जिसका दर्शन स्थिर हो गया है। एक ही 'स्वस्थ।' यही तो आत्म-स्थिति की दशा है; जब तुम इतने बात है। | अपने में लीन हो कि कोई गाली दे तो तुम बाहर नहीं आते। तुम 'आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि है। जो आत्मा को वहीं अपने भीतर से सुन लेते हो, कोई परिणाम नहीं होता। यथार्थ रूप से जानता है वही सम्यक ज्ञान है और उसमें स्थिर तुम्हारी दशा में कोई भेद नहीं पड़ता। तुम वही रहते हो जैसा रहना ही सम्यक चारित्र्य है।' गाली देने के पहले थे; वैसे ही गाली देने के बाद रहते हो। गाली बड़ी अदभुत बात....! महावीर चरित्र यह नहीं कह रहे हैं जो दी या न दी, बराबर। तुम पर कोई रेखा नहीं खिंचती, कोई तुम करते हो-उसमें चरित्र नहीं है। तुम जो हो...! साधारणतः खरोंच नहीं लगती। किसी ने सम्मान किया, तुम फूल नहीं हम सोचते हैं चरित्र का अर्थ है, जो हम करते हैं। अगर हमने जाते। तुम्हारे अहंकार का गुब्बारा बड़ा नहीं होने लगता। तुम क्रोध नहीं किया तो हम चरित्रवान हैं। अगर क्रोध किया तो हम वैसे ही रहते हो जैसे थे, कोई अंतर नहीं पड़ता। चरित्रहीन हैं। अगर हमने कामवासना का संबंध बनाया तो हम रवींद्रनाथ को जब नोबल प्राइज मिली और वे वापिस कलकत्ता चरित्रहीन हैं। अगर कोई कामवासना का संबंध न बनाया तो हम लौटे, तो कलकत्ते में बड़ा संकट था। अनेक लोगों को बड़ी चोट चरित्रवान हैं। लगी थी कि रवींद्रनाथ को नोबल प्राइज मिल गयी। तो बंगाली महावीर राजी न होंगे। महावीर कहेंगे, क्रोध किया या नहीं, बड़े नाराज भी थे। एक संपादक अखबार का जूतों की माला यह सवाल नहीं-क्रोध है या नहीं? यह हो सकता है क्रोध लेकर पहुंच गया स्वागत करने के लिए। तो सोचा था उसने कि किसी से भी न किया हो और क्रोध भीतर हो। तो भी वह कहते रवींद्रनाथ खिन्न होंगे, नाराज होंगे, लेकिन रवींद्रनाथ के 'कवि' हैं, तुम सम्यक चारित्र्य को उपलब्ध न हुए। | में कुछ 'ऋषि' का अंग था। इसलिए उनकी गीताजंलि में 'उसमें स्थित रहना ही सम्यक चारित्र्य है।' आत्मा में स्थित उपनिषदों की झलक है। कुछ उड़ानें उन्होंने उस आकाश में भी रहना ही...! अपने में ऐसे खड़े हो जाना कि वहां से डांवाडोल भरी थीं जहां ऋषि ही प्रवेश करते हैं। वे सिर्फ सामान्य कवि नहीं न किए जा सको। वहां से तुम्हें कोई बाहर न ले जा सके-क्रोध थे। उस आदमी को जूतों की माला लिए देखकर वे उसके पास या काम, कोई भी स्थिति 'अप्पो अप्पम्मि रओ'-अपने में ही गये, क्योंकि वह भीड़ में पीछे खड़ा था। थोड़ा संकोच भी लग रमो! अपने में ही रम जाओ। अप्पा अप्पम्मि रओ। रमो अपने रहा था। दूसरे फूलमाला लाए थे, वह जूतों की माला लाया था। में! आपे में! कहीं और न जाओ! कहीं और न भटको! उसको संकोच में देखकर उनको थोड़ा अच्छा भी न लगा। वे सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। फलों की माला छोड़कर उसके पास गये, और कहा कि अब ले -और यही है सम्यक दृष्टि हो जाने का मार्ग! ही आये हो तो पहना दो। वह आदमी और लज्जा से भर गया। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति। वह जूते की माला पटककर भाग खड़ा हुआ। तो रवींद्रनाथ ने यही है जानना, यही है देखना, यही है दर्शन, यही है चारित्र्य! | उसमें से एक जोड़ी चुन ली अपने पहनने के लायक, पैर के अप्पा अप्पम्मि रओ! अपने में रम जाओ।' लायक जो जोड़ी थी वह पहन ली और वे चल पड़े घर की तरफ। हमारे पास जो शब्द है 'स्वास्थ्य', वह यही अर्थ रखता है। उन्होंने कहा कि ठीक किया, मेरे जूते रास्ते में खो भी गए थे। यह अप्पा अप्पम्मि रओ! स्वास्थ्य का अर्थ है: स्वयं में स्थित हो आदमी भी वक्त पर ले आया! और जूते की दुकान पर जाने की जाना। जब तुम बीमार होते हो तो तुम स्वयं में डांवाडोल हो जाते झंझट से बचा दिया! और माला लाया तो काफी जूते लाया था, 594 ' Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध का सेवनः आत्मसेवन तो दो उनके नाप के मिल भी गये। 'आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन है। आत्मा ही जब तुम्हें बाहर का सम्मान और असम्मान कुछ अंतर न लाता चारित्र्य है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और हो, तुम्हारी मुस्कुराहट न तो जरा फीकी पड़ती हो, न जरा गहरी योग है। अर्थात ये सब आत्मरूप ही है।' होती हो, तुम वैसे ही रह जाते हो जैसे तुम हो-स्वभाव में | आया हु महं नाणे स्थिर! अप्पा अप्पम्मि रओ! तो तुम स्वस्थ! तो तुम आत्मज्ञान | 'ज्ञान, आत्मा ही मेरा ज्ञान है।' को उपलब्ध! तो यही है सम्यक दृष्टि हो जाना। और यही आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरित्ते य। सम्यक चारित्र्य है-इसमें स्थिर होना ही! 'और दर्शन और चरित्र भी मेरी आत्मा...।' तो चारित्र्य का अर्थ दूसरे से संबंध नहीं है। अगर चारित्र्य का | आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे। अर्थ दूसरे से ही संबंध है तो हिमालय की किसी एकांत गुफा में और आत्मा ही प्रत्याख्यान। और आत्मा ही व्रत-नियम, बैठे हुए तुम चारित्र्यवान न हो सकोगे। आत्मा ही संयम और योग अर्थात ये सब आत्मरूप ही हैं।' इसलिए ये दो शब्द एक जैसे हैं-चरित्र और चारित्र्य। इनका महावीर के लिए आत्मा शब्द परम है। और जिसने उसमें फर्क समझ लेना। चरित्र का अर्थ है : जिसका संबंध दूसरे से थिरता पाली, सब पा लिया। है। और चारित्र्य का अर्थ है : स्वयं में स्थित। तुमने गाली दी तो अगर तुमने त्याग किया दूसरों को दिखाने के लिए तो वह मैंने क्रोध किया—यह चरित्र। तुमने प्रशंसा की तो मैंने धन्यवाद चरित्र हो गया, चारित्र्य नहीं। अगर तुमने त्याग किया भीतर के दिया-यह चरित्र। तुमने गाली दी कि प्रशंसा की, मैंने कुछ भी परम आनंद से, तो चारित्र्य। अगर तुम्हारा ज्ञान दूसरों से आया न किया, मैं वैसा ही रहा जैसा था—यह चारित्र्य। है तो वह ज्ञान नहीं। अगर तुम्हारा ज्ञान भीतर से आविर्भूत हुआ तो अगर तुम हिमालय की गुफा में बैठ जाओ तो चरित्र तो है तो ज्ञान। जो गीत तुमने दूसरों की नकल पर गुनगुनाया है, वह समाप्त हो जायेगा, क्योंकि चरित्र तो दूसरे के बिना हो ही नहीं | गीत नहीं। जो गीत सद्यःस्नात, अभी ताजा नहाया हुआ तुम्हारी बारित्र्य...चारित्र्य प्रगट होगा। एकांत में भी अंतरात्मा से उठा है, अलौकिक, अद्वितीय, नितन्तन, यद्यपि प्रगट होगा, जैसा एकांत में फूल खिलता है! कोई नहीं निकलता सनातन-वही गीत! वही गीत वेद बन जाता है। वही गीत पास से तो भी उसकी गंध हवाओं में फैलती है। रात सब सो गये ऋचाएं। वही गीत उपनिषद बन जाते हैं। होते हैं, तब भी तारा आकाश में चमकता रहता है। वह चारित्र्य महावीर का सारा जोर एक बात पर है कि तुम किसी तरह है। उसका दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं। अपने घर लौट आओ। आपे में आ जाओ! अपने में आ तुम बैठे हो अपने कमरे में, अकेले, और कोई आया, दरवाजे जाओ! दूसरे में बहुत भटक लिए-दूसरे में होना ही संसार है। पर दस्तक दी-तुम तत्क्षण बदल जाते हो, कोट-टाई ठीक तो जो तुमने दूसरे के लिए किया, दूसरे को सोचकर किया, दूसरे करके बैठ जाते हो। यह चरित्र! | की आशा-अपेक्षा में किया—वह सब संसार है। दूसरे से तुम स्नानगृह में स्नान कर रहे हो। आईने के सामने मुंह भी आशा-अपेक्षा छोड़ो! दूसरे से दृष्टि हटाओ। तुम वहीं लीन हो बना-बिचका रहे हो। तत्क्षण तुम्हें खयाल होता है कि बच्चा जाओ जो तुम हो। यही संयम, यही योग! | तुम्हारा ताली के छेद में से देख रहा है। तुम समझ जाते हो कि इश्क भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में यह बाप के लिए योग्य नहीं कि मुंह बिचकाए, बनाए, कि या तो खुद आशकार हो, या मुझे आशकार कर। नाचे-कूदे, स्नानागृह में। यह चरित्र! यह दूसरे के देखते ही दो ही उपाय हैं। या तो हम परमात्मा से कहें या तो खद बदल जाता है। आशकार हो-या तो खुद को प्रगट कर; या मुझे आशकार जिसका दूसरे से कोई संबंध नहीं, जिसका तुमसे ही बस संबंध । कर-या मुझे प्रगट कर। है-वह है चारित्र्य। महावीर ने दूसरा ही रास्ता चुना है। वे कहते हैं, अपने को ही अप्पा अप्पम्मि रओ। प्रगट करना है। प्रार्थना की उन्होंने गुंजाइश नहीं छोड़ी। उन्होंने 595 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 इतना भी दूसरे पर भरोसा नहीं रखा है। परमात्मा भी दसरा हो जरूरत नहीं। दोनों के बीच में है स्थितिः भूली-भूली सी याद जायेगा, 'पर' हो जायेगा। तो परमात्मा भी संसार ही हो । है। भली-भली सी याद, धंधली-धंधली सी याद! सर जायेगा। उतना भी दूसरे पर निर्भर नहीं रखना है। क्योंकि दूसरे निकला है. भर-दपहरी नहीं है, अंधेरी रात भी नहीं है-सुबह पर निर्भरता तम्हें कभी भी मोक्ष, कभी भी परम स्वतंत्रता में न ले का हलका-हलका सा आलोक! सूरज ऊगने-उगने को है। जा सकेगी। कहासा छाया है। हाथ को हाथ नहीं सूझता, फिर भी सूझ तेरी दुआ से कजा तो बदल नहीं सकती बिलकुल नहीं खो गयी है। वह जो थोड़ी-सी सूझ बची है, जो मगर है इसमें ये मुमकिन कि तू बदल जाये। थोड़ी-सी याद बची है, उसी को ही निखारो, प्रगाढ़ करो। उसी यह बात बड़ी ठीक है। जब तुम प्रार्थना करते हो तो प्रार्थना से के सहारे भीतर की यात्रा होगी। उसी को निखारने और प्रगाढ़ने कोई तुम्हारी मौत नहीं रुक जायेगी, न प्रार्थना से कुछ और का नाम ध्यान है, विवेक है। बदलेगा। लेकिन यही होता है कि प्रार्थना करने में तुम बदल थोड़ा जागते चलो! जो थोड़ा-सा आसरा दिखायी पड़ रहा है, जाते हो। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम्हारी प्रार्थना से और उसको पकड़ो, और उस दिशा में थोड़े बढ़ते चलो। थोड़ा साहस कुछ भी नहीं बदलता, लेकिन प्रार्थना करनेवाला बदल जाता है। करो। वह भूली-भूली सी याद गहन होने लगेगी। भूल छंटती तो महावीर ने इस सार को बहुत गहराई से पकड़ा। उन्होंने | जायेगी, याद सघन होने लगेगी। कहा कि, तो फिर प्रार्थना की जरूरत क्या? जब बदलना ही और जिस दिन भी कोई अपने घर लौट आ स्वयं को है, तो फिर परोक्ष क्यों? फिर प्रत्यक्ष क्यों नहीं? जब घटना घटती है। इतने दुख, इतनी पीड़ाएं, इतनी शिकायत, इतने असली सवाल मेरे भीतर ही घटना है, जब असली में भगवान शिकवे, सब समाप्त हो जाते हैं। इतनी मांगें, इतनी वांछनाएं, भक्त के भीतर ही प्रगट होना है, तो फिर बाहर की तलाश बंद। इतनी आकांक्षाएं, इतनी तष्णाएं, सब अचानक पूरी हो जाती हैं। फिर बाहर क्यों टटोलं किसी पैरों को? फिर अपने घर लौट सब न मिलने की बातें थीं जब आकर मिल गए आऊं। फिर अपने में ही लीन हो जाऊं। सारे शिकवे मिट गए, सारा गिला जाता रहा। अप्पा अप्पम्मि रओ! तब पता चलता है कि वह सब जो मांगें थीं, अनंत-अनंत, वह और यह जो तुम्हारे भीतर की आत्मा की बात महावीर कर रहे | एक ही मांग के खंड थीं। अपने से मिलने की असली मांग थी। हैं, यह तुम भूल भला गए हो, लेकिन बिलकुल भूल भी नहीं गए उसको नहीं पहचान पा रहे थे, तो वही मांग अनंत खंडों में बंट हो। थोड़ी पर्ते जम गई हैं धूल की, लेकिन पर्त के नीचे तुम्हारे गई थी। वह जो पद को चाहा था, वह अपने ही भीतर आत्मपद प्राण अभी भी जीवंत हैं। जलधार अभी भी ताजी है। को चाहा था। वह जो धन को चाहा था, वह अपने ही भीतर उस ऊपर-ऊपर काई छा गई है। तुम इसे भूल भी नहीं गए हो, शाश्वत धन को चाहा था, जो मेरा स्वभाव है। वह जो यश और क्योंकि कोई कैसे अपने को भूल जा सकता है? भूलने जैसी प्रतिष्ठा चाही थी, उस यश और प्रतिष्ठा में अपनी ही महिमा की हालत है, लेकिन बिलकुल नहीं भूल गये हो। उसी में संभावना तलाश थी-गलत रास्ते पर गलत दिशा में। है। उसी में किरण है संभावना की। जरा-सा सहारा पकड़ लो महावीर का सारा योग आत्म-स्थिति है। कृष्ण ने कहा है गीता तो तुम अपने को याद कर पाओगे। में समत्वं योग उच्चते! एक मुद्दत से तेरी याद भी आयीन हमें समत्व को उपलब्ध हो जाना योग है। महावीर भी कहते हैं, और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं। सम्यक दृष्टि, समत्व। सम्यकत्व-समता को उपलब्ध हो सदियां बीत गयी हों, मुद्दत बीत गयी है और तुमने अपनी याद | जाना! डांवाडोल न रहे चित्त, सम हो जाये। यहां-वहां न जाये, भी न की हो! लेकिन भूल गये हो, ऐसा भी नहीं है। इस बात को थिर हो जाये। थिरता सधे! ज्योति ऐसी हो जाये जैसे किसी घर ठीक से समझना। अगर बिलकुल भूल गये हो, तब तो याद का में हवा के झोंके न आते हों, और ज्योति अकंप जलती हो, कंपती कोई उपाय नहीं। और अगर बिलकुल याद है तो याद की कोई | न हो। समत्वं योग उच्चते। यही दशा योग की दशा है। और पत! 596/ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर कहते हैं, यही दशा — आया हु महं नाणे- यही दशा ज्ञान । आया में दंसणे चरित्ते य । और यही दर्शन और यही चरित्र ! आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे। 'और यही प्रत्याख्यान, व्रत, नियम, अनुशासन। और यही संयम और योग!' महावीर ने जैसी महिमा का गुणगान आत्मा का किया है, किसी ने भी नहीं किया। महावीर ने सारे परमात्मा को आत्मा में उंडेल | दिया है। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी है और किसी ने भी नहीं दी। महावीर ने मनुष्य को सर्वोत्तम, सबसे ऊपर रखा है। और यह जो दुर्लभ क्षण तुम्हें मिला है मनुष्य होने का, इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसे ऐसे भूले- भूले ही मत गंवा देना। इसे दूसरों के द्वार खटखटाते खटखटाते ही मत गंवा देना । बहुत मुश्किल से मिलता है यह क्षण और बहुत जल्दी खो जाता है। बड़ा दुर्लभ है यह फूल; सुबह खिलता है, सांझ मुर्झा जाता है। फिर हो सकता है सदियों सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़े। इसलिए मनुष्य होना महिमा ही नहीं है, बड़ा उत्तरदायित्व है। अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ा कृत्य पूरा करना चाहा है। साथ दो सहयोग दो ! ! अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ी घटना को घटाने का आयोजन किया है। साथ दो ! सहयोग दो! और जब तक तुम खिल न पाओगे, नियति तुम्हारी पूरी न होगी। तो समस्त ज्ञानी पुरुष कहते हैं तुम वापिस भेज दिये जाओगे। यह जीवन और मरण का चक्र चलता रहेगा। इससे केवल वे ही बाहर निकल पाते हैं जो इस जीवन और मरण के चक्र में चलते हुए भी अपने भीतर के सारे विचारों के चक्र को रोक देते हैं; जो इस जीवन-मरण के चक्र में रहते हुए भी, साक्षी हो जाते हैं और एक गहन अर्थ में बाहर हो जाते हैं। साक्षी होकर जो बाहर हो गया संसार के, उसको फिर दुबारा लौटने की कोई जरूरत न रहेगी। और जो दुबारा नहीं लौटता, उसने ही अपनी नियति को पूरा किया। उसके भीतर ही बीज फूल को उपलब्ध हुए । इस अवस्था को महावीर कहते हैं: परमात्म-अवस्था । तुम परमात्मा होने को हो । इससे कम पर राजी मत होना । साधु का सेवन: आत्मसेवन इससे जो कम पर राजी हुआ वह नासमझ है। तुम कंकड़-पत्थरों से राजी मत हो जाना। हीरों की अनंत राशियां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं। आज इतना ही। 597 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sems Bro Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां प्रवचन जीवन का ऋतः भाव, प्रेम, भक्ति Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक प्रश्न-सार HE आप कहते हैं कि पुण्य भी बांधता है और पाप भी बांधता है। तो तीर्थंकरों को उनका करुणाजन्य कर्म क्यों नहीं बांधता? SINIK पहली बार मैं किसी के प्रेम में पड़ा हूं, लेकिन मेरा अहंकार मुझे पूरी तरह प्रेम में डूबने नहीं देता। मेरा हृदय तो नारद के साथ है, लेकिन बुद्धि महावीर के साथ। उलझन है, खींचातानी है। कृपया मार्गनिर्देश दें! MARA कृपाकर कीर्तन-ध्यान के बारे में कुछ समझाएं! onी ७. तीन CO . www.ainelibrary.org Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला प्रश्न: आप कहते हैं कि पुण्य भी बांधता है रहे जैसा इस भिखमंगे को देखने के पहले थे। राह पर तुम और पाप भी बांधता है। तो तीर्थंकरों को उनका निकले, कोई न था, अकेले थे, फिर एक भिखमंगा दिखायी करुणाजन्य कर्म क्यों नहीं बांधता? | पड़ा, दया उठी, भाव का निर्माण हुआ—फिर भाव से कृत्य आया। तुम्हारी दशा बदली। तीर्थंकर की दशा नहीं बदलती; पहली बात तीर्थंकर जो करते हैं वह कर्म नहीं है, कृत्य नहीं है। इसलिए करुणाजन्य नहीं है कृत्य, करुणापूर्ण जरूर है। जब क्योंकि कर्ता का कोई भाव नहीं है। तीर्थंकर जो करते हैं वह भिखारी नहीं है मार्ग पर, तब भी तीर्थकर करुणा से भरे हैं। तुम करते नहीं होता है। जैसे तुम श्वास ले रहे हो, श्वास लेना नहीं भरे हो। तुम्हें करुणा से भरने के लिए किसी का दुखी होना कृत्य नहीं है। जैसे श्वास सहज चल रही है, और जब न चलेगी | जरूरी है। तो तुम कुछ भी न कर पाओगे-जब तक चलेगी, चलेगी; जब इसे ठीक से समझना। अगर दुनिया से दुखी लोग विदा हो रुकेगी तो रुक जायेगी। तुम्हारे हाथ के भीतर नहीं है। तुम्हारा जायेंगे तो तुम्हारी दया भी समाप्त हो जायेगी। किस पर दया कृत्य नहीं है। अहंकार-नियंत्रित नहीं है। करोगे? किसको दान दोगे? तुम्हारी दान और दया के लिए तीर्थंकर का कृत्य, कृत्य नहीं-श्वास जैसी सहज दशा है। किन्हीं का दुखी रहना जरूरी है। तुम्हारी दान, दया के लिए दुख होता है, किया नहीं जाता। करनेवाला कोई भी बचा नहीं है। आवश्यक है। कोई न होगा कोढ़ी, कोई न होगा करुणाजन्य है, ऐसा कहना भी गलत है। करुणापूर्ण है, लेकिन | बीमार-किसके पैर दबाओगे? तुम्हारी दया एकदम मर करुणाजन्य नहीं। करुणाजन्य तो तब होता है जब तुम्हें दया आए। जायेगी, कुम्हला जायेगी। उसके लिए बाहर से कोई प्रेरणा और तुम कुछ करो। करुणापूर्ण तब होता है जब तुम करुणा से चाहिए। तो तुम्हारी दया भी बाहर से पैदा हुआ परिणाम है। पूर्ण हो गए हो-और उससे कुछ बहता है। तीर्थंकर करुणापूर्ण हैं-नहीं कि किसी पर करुणा करते हैं; इन दोनों में फर्क है। करुणा से भरे हैं, जैसे दीये से प्रकाश झरता है: कोई निकल जाये जब तुम्हें राह चलते किसी भिखमंगे पर दया आती है तो तुम्हारे तो उस पर पड़ता है, कोई न निकले तो भी जलता रहता है; भीतर कुछ हलन-चलन हो गया; तुम्हारी ज्योति कंप गयी; किसी के निकलने से नहीं जलता और किसी के चले जाने से बझ तुम्हारी प्रज्ञा थिर न रही। दूसरे के दुख से कंप गयी। पहले दूसरे नहीं जाता; किसी पर निर्भर नहीं है। आत्म भाव की दशा है। के सुख से कंपती थी। किसी ने बहुत बड़ा मकान बना लिया तो तो तीर्थंकर की करुणा तुम्हारे दुख के कारण नहीं है। तुम सुखी ईर्ष्या जगी थी; अब किसी के मकान में आग लग गयी, तो दया । हो तो भी तीर्थंकर की करुणा तुम पर उतनी ही है जितने तुम दुखी उठी। लेकिन हर हाल तुम कंपे, तुम थिर न रहे; तुम वैसे ही न हो। तुमसे कुछ प्रयोजन नहीं है। तुम नहीं हो तो भी तीर्थंकर की 1608 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 जिन सूत्र भाग: 1 करुणा उतनी ही है, जब कि तुम हो। तुम्हारा होना न होना कुछ फर्क नहीं लाता। तीर्थंकर की करुणा तुम्हारे और तीर्थंकर के बीच संबंध नहीं है— तीर्थंकर की दशा है; उसकी अवस्था है; उसका आनंदभाव है। वह तुम पर इसलिए करुणा नहीं कर रहा है कि तुम दुखी हो। उससे तुम्हारी तरफ करुणा बहती है क्योंकि वह आनंदित है। इस भेद को बहुत ठीक से समझ लेना । तुम्हारी जरूरत है, इसलिए नहीं देता है वह; उसके पास जरूरत से ज्यादा है, इसलिए देता है। जीसस के जीवन में कहानी है, जो उन्होंने बहुत बार कही। एक बगीचे के मालिक ने सुबह - सुबह मजदूर बुलाए । अंगूरों का बगीचा था और जल्दी ही फसल को काट लेना था। मौसम बदला जाता था। सुबह जो मजदूर आये उन्होंने दोपहर तक काम किया। मालिक आया, उसने देखा । उसने कहा, इतने मजदूरों से शाम तक काम निपटेगा नहीं। तो भेजा अपने मुनीम को कि और मजदूर ले आओ। तो भर दुपहरी कुछ और मजदूर लाए गये। फिर आया मालिक। सांझ ढलने को थी । उसने कहा, इनसे भी काम न हो पायेगा; कुछ और बुला लाओ । तो सूरज ढलते-ढलते काम बंद होते-होते कुछ मजदूर आए। और जब रात्रि में उसने पैसे बांटे तो सबको बराबर दे दिये- जो सुबह आये थे उनको भी, जो दोपहर आये थे उनको भी, जो सांझ आये थे उनको भी । जिन्होंने दिनभर काम किया उनको भी, और जिन्होंने कुछ भी काम न किया था उनको भी। तो जो सुबह आये थे वे निश्चित नाराज हो गये । और उन्होंने कहा, 'यह अन्याय है। हम सुबह से आये हैं, दिनभर पसीना बहाया है। हमें भी उतना, और इन्हें भी उतना जो अभी-अभी आये और जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, जिन्हें करने का मौका ही न मिला, क्योंकि सूरज ढल गया ?' तो उस मालिक ने कहा, तुम्हें कम तो नहीं दिया है? उन्होंने कहा, 'नहीं, कम नहीं दिया है। जितनी मजदूरी मिलती, उससे ज्यादा ही दिया है। लेकिन अन्याय हो रहा है। इन्होंने तो कुछ भी नहीं किया।' तो उस मालिक ने कहा कि तुम अपनी फिक्र करो । | तुम्हें जितना मिलना था उससे ज्यादा मिल गया, तुम प्रसन्न नहीं हो। तुम इनसे तुलना मत करो। इन्हें मैं काम के कारण नहीं | देता; मेरे पास बहुत है, इसलिए देता हूं। मैं सबको बराबर दे रहा हूं। मेरे पास जरूरत से ज्यादा है। तुम्हारे काम के कारण इसलिए | महावीर तुम्हें देते हैं तुम्हारे दुख के कारण नहीं मिला है उन्हें, खूब मिला है ! और उसको न बांटें तो वह बोझिल हो जाता है। उसे बांटना जरूरी है। अगर तुम न भी होओगे तो भी बांटेंगे। अगर तुम सुखी होओगे तो भी बांटेंगे । तो तुम्हारे दुख से तुम तीर्थंकर की करुणा को मत जोड़ना । तुमसे उसका कोई संबंध नहीं है। तीर्थंकर की करुणा का संबंध उसके अंतर - आनंद से है, सच्चिदानंद से है। वह अपनी आत्मा में रमा है और उसने इतना पा लिया है। और जो पाया है वह कुछ ऐसा है कि बांटो तो बढ़ता है, न बांटो तो घट जाता है। इसलिए तुम पर करुणा करके तीर्थंकर कुछ कर रहे हैं, ऐसा नहीं । आनंद -भाव में बांटते हैं- बांटने से बढ़ता है । जितना बांटते हैं, उलीचते हैं, उतना बढ़ता चला जाता है; उतने नये स्रोत खुलते चले जाते हैं। तो जब रोज-रोज नया-नया आनंद बरस रहा हो, बासे को कौन रखेगा ! तुम सांझ भोजन कर लेते हो, फिर बांट देते हो। लेकिन गरीब बासी रोटी को भी रख लेता है : कल काम पड़ेगी। नहीं; मेरे पास है, इसलिए; मैं बोझ से दबा जीसस की कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है । तुम बांटने से डरते हो, क्योंकि कल का पक्का नहीं है। और आज का अगर बांट दिया तो कल मिलेगा या नहीं ! लेकिन तीर्थंकर उस दशा में हैं जहां प्रतिपल अनंत बरस रहा है। तो जो इस क्षण बरसा है, उसे बांट ही देना है; क्योंकि दूसरे क्षण के लिए जगह खाली करनी है। अगर न बांटा तो बासा पड़ा रह जायेगा और बासे के कारण नये के आने में बाधा पड़ेगी । और अगर बासा बहुत इकट्ठा हो गया, उसकी राशियां लग गयीं तो नये के जन्म की कोई संभावना न रह जायेगी। तो न तो तीर्थंकर का कृत्य कृत्य है, और न करुणाजन्य है – करुणापूर्ण है । इसलिए कोई बंध नहीं—न पाप का न पुण्य का। तीर्थंकर से बहुत कुछ होता है, लेकिन तीर्थंकर कुछ करता नहीं ।... सहजस्फूर्त; जैसे पक्षी गीत गाते हैं ! मिर्जा गालिब से कोई पूछा कि लोग आपकी कविताओं की बड़ी प्रशंसा करते हैं, लेकिन मेरी तो कुछ समझ में नहीं आतीं। और जो प्रशंसा करते हैं, मुझे शक है कि उनकी भी समझ में आती हैं! क्योंकि जब भी मैंने उनसे पूछा तो वे समझा न पाये, आप कुछ कहें। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भली आकांक्षा जाहिर की थी। गालिब ने बड़ा अजीब-सा उत्तर दिया। आकाश की तरफ देखा और कहा, 'खुदा बड़ा है। कविता से खुदा का क्या लेना-देना?' कहा, खुदा बड़ा है उस आदमी ने भी कहा, 'यह तो निश्चित ही है कि खुदा बड़ा है। लेकिन इससे मेरे प्रश्न का क्या संबंध है?' उन्होंने कहा, 'थोड़ा ठहरो । खुदा बड़ा है, यह तुम मानते हो ?' उसने कहा, 'निश्चित मानता हूं।' 'लेकिन खुदा को समझते हो ?' वह आदमी बेचैन हुआ । उसने कहा कि आप इतने उदास क्यों हो गये ? आपकी आंखें गीली क्यों हो आयीं ? मैंने कुछ गलत पूछा? मैंने आपको कोई चोट पहुंचायी ? बुद्ध ने कहा कि नहीं, यह सोचकर ही मुझे दया आती है कि तुम दे का सोच रहे हो, लेकिन तुम्हारे पास है नहीं । तुम कहते हो, 'सारी मनुष्यता की सेवा करनी है मुझे, कैसे यह जीवन समझ में तो कुछ भी नहीं आता। तो गालिब ने कहा, 'ऐसी ही अर्पित कर दूं !' लेकिन जीवन कहां है? तुम्हें मैं देखता हूं तो मेरी कविताएं हैं। मैं ही कहां समझता हूं!' खाली हाथ हो तुम ! राख ही राख है भीतर, जीवन कहां है? तुम दोगे क्या ? देने के पहले होना चाहिए। चूंकि हमारे पास नहीं है, इसलिए हम जोड़ते हैं। जोड़कर सोचते हैं कि हो जायेगा ।. जिनके पास है वे बांटते हैं। क्योंकि बांटकर उनको लगता है कि बढ़ता है। समझ छोटे की होती है, विराट की नहीं। हमारी छोटी समझ है – कंजूस की, कृपण की समझ है। तो हम कृत्य की भाषा जानते हैं केवल; सहज की भाषा हमें पता नहीं। हम तो कर-करके मुश्किल से कर पाते हैं, तो हम यह कैसे मानें कि कुछ अपने-आप होता है। हम तो कर-करके भी नहीं कर पाते हैं और हार जाते हैं, विफल हो जाते हैं। जोड़-जोड़कर नहीं जुटा पाते तो हम यह कैसे मानें कि कोई लुटा-लुटाकर, और अपनी संपदा को बढ़ा लेता होगा ? हम तो तिजोड़ियां बांध-बांधकर आखिर में पाते हैं राख हाथ में रह गयी। जोड़-जोड़ के भी कुछ नहीं जुड़ता हो, जिसने एक ही गणित जाना हो, वह यह कैसे मानेगा कि बांटने से बढ़ सकता है, पागल हुए हो ? होश की बातें करो, वह कहेगा। यहां हार गए जीत-जीतकर, तुम कहते हो हार कर जीत हो जाती है ! लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, ऐसा है। जोड़-जोड़कर नहीं जुड़ता, इससे सिद्ध होता है कि विपरीत शायद सही हो। क्योंकि जोड़-जोड़कर तो कोई कभी नहीं जोड़ पाया। तो एक बात तो तय हो गयी कि जोड़ने से नहीं जुड़ता है। अब तुम जरा दूसरा प्रयोग करके देख लो कि बांटने से बढ़ता है। लेकिन बांटोगे तो तभी जब होगा । तीर्थंकर का अर्थ है : जो है; जिसके पास है। बुद्ध के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि ऐसा मन होता है कि 'मनुष्यता कि सेवा में सब कुछ लगा दूं। आपका आशीर्वाद चाहिए !' कहते हैं, बुद्ध की आंखें गीली हो गयीं, उनमें आंसू झलक आए। और बुद्ध ने उस आदमी की तरफ ऐसी करुणा से देखा कि वह आदमी भी विचलित हुआ । बुद्ध के शिष्य भी थोड़े घबड़ाए कि उसने कुछ ऐसी बात तो कही नहीं, जीवन का ऋत: भाव, प्रेम, भक्ति किसी बगीचे के माली से पूछो, वृक्षों की कांट-छांट करता रहता है तो वृक्ष घने होते जाते हैं। कलम करता है तो वृक्ष सघन होते हैं, बढ़ते हैं। एक पत्ता काटो तो चार पत्ते निकल आते हैं। एक शाखा काटो तो दो शाखाएं पैदा हो जाती हैं। माली से पूछो जीवन का राज ! ! ऐसे ही तुम्हारे अंतर्जीवन का वृक्ष भी है। उसे बांटो तो कलम होती है। उसे सम्हालकर रख लो, डर के कारण छिपाकर रख लो, सब तरफ से ढांककर रख लो - मर जाता है पौधा जीवन का। ऐसे ही तो जीवन के पौधे कुम्हला गये हैं। छोड़ो खुली हवा में ले जाने दो सुगंध को हवाओं को छोड़ो खुले आकाश में! खेलने दो मेघों को होने दो मेघ-मल्हार ! नाचने दो तूफानों और आंधियों को वृक्ष के आसपास ! बढ़ने दो वृक्ष को ! खुलने दो, फैलने ! यह बढ़ेगा, खूब बढ़ेगा! ऊपर भी, भीतर भी । ऊंचाइयों में भी बढ़ेगा और गहराइयों में भी बढ़ेगा। जितना वृक्ष ऊपर जाता है उतनी ही जड़ें नीचे गहरी चली जाती हैं। लेकिन हमने अभी कृपण काही गणित जाना है। हमने धनी का गणित जाना ही नहीं ! इसलिए जब हम तीर्थंकरों के संबंध में भी पूछते हैं तो हम अपने ही हिसाब से पूछते हैं। हम कहते हैं कि जब पुण्य भी बांध लेता, तो तीर्थंकर के करुणापूर्ण कृत्य उन्हें नहीं बांधते ? तीर्थंकर का अर्थ ही है कि जो पाप और पुण्य के पार हो गया। तीर्थंकर का अर्थ ही है जो कृत्य के पार हो गया और सहज में प्रवेश कर गया। 605 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 जिन सूत्र भाग: 1 इस शब्द 'सहज' को खूब खूब मंथन करना, चिंतन करना, ध्यान करना। यह शब्द बड़ा बहुमूल्य है । इस शब्द का अगर तुम्हें अर्थ-विस्फोट हो जाये तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो | जायेगी । 'सहज' का अर्थ है जो तुम्हारे बिना किये अपने से होता है । बहुत कुछ है जो सहज हो रहा है। उस पर भी तुम अपने को आरोपित किये हो। तुम कहते हो, 'मैं'। किसी से प्रेम हो जाता है, तुम कहते हो, 'मैं प्रेम करता हूं।' होता है। तत्क्षण तुम बदल देते हो भाषा । तुम कहते हो, करता हूं! किसी ने कभी प्रेम किया ? सुना कभी तुमने कि किसी ने प्रेम किया ? कोई प्रेम कर सकता है ? अगर मैं तुम्हें आज्ञा दूं कि करो प्रेम, तुम कर पाओगे ? तुम कहोगे, यह भी कोई आज्ञा की बात है ? यह कोई मेरे किये से होगा ? होगा तो होगा। नहीं होगा तो नहीं होगा। होता है, तो होता है। नहीं होता है, तो नहीं होता है। जब हो जाता तब रुका नहीं जा सकता; और जब नहीं होता है तब किया नहीं जा सकता । लेकिन फिर भी तुम प्रेम पर भी थोप देते हो अहंकार को। तुम कहते हो, मैंने किया प्रेम । तुम कहते हो, मैं तो प्रेम कर रहा हूं और तुम नहीं कर रहे हो। और हम यही सिखाते भी हैं। छोटे-छोटे बच्चों को भी मां कहती है, मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारी मां हूं। क्या पागलपन की बात हो रही है? कौन कर पाया | प्रेम ? बच्चे की तो छोड़ दो, बड़े नहीं कर पाये। बड़े-बड़े कुशल नहीं कर पाये । प्रेम को करोगे कैसे? कोई तुम्हारे हाथ की बात है ? प्रेम कोई कृत्य तो नहीं। लेकिन अगर बच्चे को तुमने जोर दिया कि करो मुझे प्रेम, मैं तुम्हारी मां हूं, तो बच्चे को तुम एक ऐसी असमंजस में, ऐसे संकट में, ऐसी विडंबना में डाल रहे हो जिसका तुम्हें कुछ पता नहीं कि तुम क्या कह रहे हो। छोटा-सा बच्चा तड़फेगा; सोचेगा; कैसे करो प्रेम ! लेकिन करना ही पड़ेगा; क्योंकि मां पर सब निर्भर है। दूध निर्भर है, जीवन निर्भर है। मां के सहारे ही बच सकता है बच्चा । बाप कहेगा, 'मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारा बाप हूं। मैंने तुम्हें जन्म दिया !' अब जन्म देने से कोई प्रेम का लेना-देना है ? लेकिन बच्चा चेष्टा करेगा कि ठीक है; जब सब कहते हैं, बड़े-बूढ़े कहते हैं तो करना ही होगा। तो झूठा मुस्कुराएगा, झूठे पैर छुएगा, झूठी प्रसन्नता जाहिर करेगा। शुरू हुआ पाखंड ! फिर जीवनभर ऐसे ही झूठ में जीयेगा। फिर मर जायेगा और प्रेम की सहज उदभावना से परिचित न हो पायेगा। क्योंकि पहले से ही प्रेम के मार्ग पर झूठ खड़ा हो गया। न, मां इतना ही कर सकती है कि अगर उसे बच्चे के प्रति प्रेम है तो करे प्रेम । अगर उस प्रेम के संघात में, अगर उस प्रेम के संसर्ग में बच्चे की सहजता भी प्रफुल्लित हो उठेगी तो हो उठेगी - सौभाग्य ! न हो तो मजबूरी है । हो जाये तो सौभाग्य; न हो तो कुछ किया नहीं जा सकता, असहाय अवस्था है। ह जाये तो धन्यभाग । परमात्मा को धन्यवाद दिया जा सकता है। न हो तो शिकायत करने का कोई उपाय नहीं है। स्वीकार कर लेना होगा, यही भाग्य है। लेकिन इतना ही किया जा सकता है कि मां बच्चे को अगर प्रेम करती है तो करे । अगर उसके भीतर प्रेम का आविर्भाव हुआ है तो उलीचे, लुटाए, बरसाए। इस बरसा में ही बच्चे की वीणा भी बजेगी - बजनी ही चाहिए। इस प्रेम के परिवेश में बच्चे का सोया हुआ प्राण जाग्रत होगा। बच्चे के बीज - प्रेम के—अंकुरित होंगे। यह प्रेम सब तरफ से बरसता हुआ उसके भीतर भी प्रेम की हुंकार को उठाएगा। यह प्रेम का आह्वान उसके भीतर भी चैतन्य को जगाएगा। वह भी प्रेम से भरेगा, लेकिन तब प्रेम का सहज अनुभव होगा। एक दिन अचानक पायेगा वह मां को प्रेम करता है । करता है— भाषा की बात; पायेगा कि मां से प्रेम है । और तब उसके जीवन में एक बात निश्चित हो जायेगी कि भूलकर भी प्रेम को कृत्य न बनाएगा। शिक्षक कहते हैं, सम्मान करो, श्रद्धा करो। श्रद्धा कहीं कोई करता है ? होती है। मैं विश्वविद्यालय में बहुत दिन तक था। शिक्षकों की एक ही परेशानी कि श्रद्धा खो गयी, कि विद्यार्थी आदर नहीं करते। मैंने बार-बार शिक्षकों के सम्मेलन में कहा कि यह बात ही तुम गलत तरफ से उठाते हो । श्रद्धा कोई कर सकता है? और जो की गयी श्रद्धा थी वह झूठी थी, इसलिए उखड़ गई है। यह सदी थोड़ी सचाई की तरफ ज्यादा झुकी सदी है। आज का युवक अतीत के युवक से सचाई की तरफ ज्यादा झुका हुआ युवक है। एक मां अपनी बेटी को कह रही थी कि जब तक मेरा विवाह नहीं हुआ तब तक मैंने किसी पुरुष का स्पर्श भी नहीं किया था। क्या तू भी बड़े होकर अपने बच्चों से यही कह सकेगी ? Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का ऋतः भाव, प्रेम, भक्ति उस युवती ने कहा, कह तो सफेंगी, मगर इतनी अकड़ से नहीं | निश्चेष्ट हो जाता है, सारी चेष्टा छोड़ देता है, जीवन के ऊपर जितनी अकड़ से तुम कह रही हो। क्योंकि मैं जानती हूं, यह झूठ आरोपण करने का कोई प्रयास नहीं करता। जीवन जहां ले जाये है। तो कह तो सकूँगी अगर कहना ही पड़ेगा तो कह सकूगी, उसकी सहजता के साथ जो बहने को तत्पर है, वही तीर्थंकर है। लेकिन इतनी अकड़ से नहीं जितनी अकड़ से तुम कह रही हो। तो न तो तीर्थंकर को पाप लगता, न पुण्य लगता। तीर्थंकर को थोड़ी सचाई की तरफ झुका हुआ युग है। तो जो झूठ कर्म-बंध नहीं होता। जहां-जहां था वहां से टूट गया है। लेकिन इस संदर्भ में एक बात खयाल ले लेनी चाहिए, जैन तो शिक्षकों से मैंने बहुत बार कहा कि तुम जब भी यह सवाल शास्त्र बड़ी बहुमूल्य बात कहते हैं। वे कहते हैं, तीर्थंकर को तो उठाते हो कि विद्यार्थियों का आदर खो गया है, तब तुम्हें असल | कर्म-बंध नहीं होता, लेकिन आदमी तीर्थंकर कर्म-बंध के कारण में दूसरा सवाल उठाना चाहिए-बुनियादी सवाल-कि तुम होता है। सभी लोग तीर्थंकर नहीं होते। सभी परम ज्ञान को कहीं ऐसा तो नहीं कि गुरु नहीं रहे हो? क्योंकि गुरु हो तो आदर | उपलब्ध व्यक्ति भी तीर्थंकर नहीं होते। 'केवल ज्ञान' को तो होता ही है—होना ही चाहिए; जैसे वर्षा हो तो वृक्ष हरे हो जायें। करोड़ों लोग उपलब्ध होते हैं, लेकिन तीर्थंकर तो कभी कोई अब वृक्ष अगर सूखने लगे और बादल शिकायत करें कि यह | एकाध होता है। तो फिर इतने लोग जो परम-ज्ञान को उपलब्ध वृक्षों को क्या हो रहा है, वर्षा आ गयी है और वृक्ष हरे नहीं हो होते हैं और परम सत्य में खो जाते हैं, सभी तीर्थंकर क्यों नहीं रहे! तो हम यही कहेंगे कि तुम बरसे कहां? तुम बरसते तो वृक्षों होते? तो कारण तो होना चाहिए। का हरा हो जाना बिलकुल सहज था। यह अपने से होता है। महावीर जब ज्ञान को उपलब्ध हुए तो और भी बहुत लोग ज्ञान गुरु, गुरु नहीं है। आकांक्षा कर रहा है गुरु को जैसा सम्मान | को उपलब्ध थे, लेकिन सभी तीर्थंकर न थे। जैन चौबीस की मिलना चाहिए वैसा सम्मान मिलने की। वह नहीं मिलता। नहीं संख्या मानते हैं : एक प्रलय और सृष्टि के बीच में चौबीस मिलता, पीड़ा खड़ी होती है। वह जबर्दस्ती थोपने की कोशिश तीर्थंकर। करोड़ों लोग, करोड़ों आत्माएं 'केवल ज्ञान' को करता है। जबर्दस्ती जो उस आदर को करने लगता है वह भी उपलब्ध होंगी, लेकिन चौबीस ही तीर्थंकर? मामला क्या है? विकृत हो जाता है। तब उसके जीवन में सहज श्रद्धा का उपाय न सभी ज्ञानी क्यों तीर्थंकर नहीं हैं? रहा। इसे खयाल में लेना। तो इस फर्क को खयाल में लेना। वे कहते हैं तीर्थंकर का जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है-सत्यम, शिवम, सुंदरम-जो कर्म-बंध होता है। तीर्थंकर बनने के पहले जिस व्यक्ति ने खूब भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, वह सभी होता है, किया नहीं | करुणा का अभ्यास किया है; तीर्थंकर बनने के पहले जिस जाता। जो किया जाता है वह क्षुद्र है। दुकान चलायी जाती है। व्यक्ति ने सब भांति अहिंसा का अभ्यास किया है; तीर्थंकर मकान बनाए जाते हैं। प्रेम नहीं किया जाता। श्रद्धा नहीं बनायी बनने के पहले जिसने सब भांति अपने चरित्र को इस तरह से जाती। झूठ गढ़े जाते हैं, सत्य नहीं गढ़ा जाता। सत्य का तो नियोजित किया है कि उससे किसी को दुख न हो, किसी को सिर्फ आविष्कार होता है। सत्य तो है; झूठ बनाने पड़ते हैं। | पीड़ा न पहुंचे; जिसने एक गहन अनुशासन अपने जीवन में तो अगर कर्ता बनना हो तो झूठ बनाना, क्योंकि कर्ता होने का निर्मित किया है...जिसने ऐसा अनुशासन निर्मित नहीं किया वह एक ही उपाय है। भी ज्ञान को उपलब्ध हो जायेगा; लेकिन जब वह ज्ञान को और अगर अकर्ता बनना हो तो सत्य की खोज करना। | उपलब्ध होगा तो तत्क्षण विराट में खो जायेगा। उसे इस जमीन तीर्थंकर यानी अकर्ता; जो अब कुछ अपनी तरफ से नहीं पर पकड़ रखने के लिए कोई भी उपाय नहीं है। लेकिन जिसने करता है; जो होता है उसे होने देता है, उसे रोकता भी नहीं; जो खूब गहनता से सेवा, दया, करुणा, अहिंसा का अभ्यास किया आता है उसे आने देता है-अगर जीवन है तो जीवन, अगर है जन्मों-जन्मों तक...वह करुणा, सेवा, और दया सहज नहीं मौत है तो मौत; सुख है तो सुख, दुख है तो दुख; जवानी है तो है, चेष्टित है...तो जिसने चेष्टित दया और करुणा का अभ्यास जवानी, बुढ़ापा है तो बुढ़ापा-जो अपनी तरफ से बिलकुल | किया है, उसको तीर्थंकर का कर्म-बंध होता है। 60 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 जिन सत्र भाग: 1 अदभुत हैं! वे कहते हैं, यह भी कर्म-बंध है । है तो यह भी। कितना ही पुण्य हो, लेकिन है तो यह भी बांधनेवाला है । करुणा से बंधे हो – तो बड़ी सोने की जंजीर है, हीरे-जवाहरातों से जड़ी जंजीर है, लेकिन बंधे हो! तो आखिरी जन्म में ऐसा व्यक्ति जब ज्ञान को उपलब्ध होता है तो अपने ज्ञान को लेकर चुपचाप उड़ नहीं जाता आकाश में; रुकता है जमीन पर । उसके पास जंजीरें हैं कुछ। जीवन की सांसारिक जंजीरें तो सब उसने तोड़ दी हैं, लेकिन करुणा की जंजीरें हैं उसके पास उनके आधार पर वह थोड़ी देर पृथ्वी पर टिकता है। उन क्षणों में वह बट पाता है, दे पाता है जो उसे मिला है। तुम्हारी अगर अहिंसा भी होगी तो असहज होगी, चेष्टित होगी। तुम अगर दया भी करोगे तो प्रयास करोगे तो ही दया करोगे। तुम अगर करुणा करोगे तो अपने को बहुत ज्यादा खींचोगे तो ही कर पाओगे। अगर तुमने अपने को ज्यादा न खींचा तो तुम करुणा न कर पाओगे। हां, क्रोध कर पाओगे सहज । क्रोध तुममें सहज होता है, करुणा असहज। अगर तीर्थंकर को क्रोध करना हो तो असहज होगा, करुणा सहज । तो तीर्थंकर तो कोई कर्म-बंध के कारण होता है। लेकिन सिक्का उलटा हो गया। सारे गणित के नियम विपरीत हो गये। तीर्थंकर का कोई कर्म-बंध नहीं होता। अगर तीर्थंकर को क्रोध करना पड़े... कभी-कभी तीर्थंकर क्रोध करते हैं। जैन तीर्थंकरों के जीवन में तो उल्लेख नहीं, क्योंकि जैन उल्लेख नहीं कर सकते। वे सोच ही नहीं सकते कि तीर्थंकर और क्रोध कर सकता है! बात भी ठीक है। तीर्थंकर से क्रोध सहज नहीं होता, इसलिए उसका उल्लेख करना उचित नहीं है। लेकिन और परंपराएं हैं। वहां भी तीर्थंकर होते हैं। जैसे जीसस के जीवन में उल्लेख है कि वे चर्च में, मंदिर में गये - यहूदियों का जो सबसे प्राचीन मंदिर था जेरुसलम का—और वहां उन्होंने देखा कि ब्याजखोर मंदिर के भीतर दुकानें लगाकर बैठ गये हैं। तो उन्होंने कोड़ा उठा लिया और वे आग-बबूला हो गये और उनकी आंखों से आग बरसने लगी। और अकेले आदमी ने सैकड़ों ब्याजखोरों को मंदिर के बाहर उठाकर फेंक दिया। वह इतने घबड़ा गए। इतना जाज्वल्यमान रूप था उनका ! ईसाइयों को बड़ी कठिनाई रही है यह समझाने में कि ईसा इतने क्रोधित कैसे हो गये ! करुणा का मसीहा इतना क्रोधित कैसे हो गया ! लेकिन अगर तीर्थंकर चाहे तो चेष्टा से क्रोध कर सकता है। लेकिन वह क्रोध भी होगा किसी करुणा की ही सेवा में। इस कीमिया को समझना । यह करुणा ही थी जीसस की कि यह परमात्मा का मंदिर विकृत न हो जाये; यहां की प्रार्थना बाजारू न हो जाये; यह पूजागृह बाजार की गंदगी से न भर जाये। यह करुणा ही थी । इस करुणा के कारण ही वे क्रोधित हो गए । लेकिन यह क्रोध चेष्टित था, अभिनय था; जैसे कोई अभिनेता क्रोधित हो जाता है। जैसे राम रामलीला में अभिनय करते हुए तीर्थंकर का अर्थ है जिसने जाना ही नहीं, जो जनाने में कुशल है | तीर्थंकर का अर्थ है जो स्वयं नहीं हो गया केवल, बल्कि दूसरों को भी उस दिशा में इशारे करने में कुशल है; जिसने अपनी ही आंखें नहीं खोल लीं, बल्कि दूसरों की आंखों की भी चिकित्सा करने में जो कुशल है; जो अपनी आंखों के सहारे, अपनी दृष्टि के सहारे तुम्हें भी दर्शन करा देता है। तो ज्ञानी तो केवल ज्ञानी है—उसने पा लिया और गया। तीर्थंकर ऐसा ज्ञानी है जो रुकता है थोड़ी देर । उसकी नाव इसके पहले कि छूटे अनंत के तट की ओर, इस किनारे पर वह थोड़ी देर रुकता है । और इस किनारे पर जो लोग अभी हैं और जिन्हें दूसरे किनारे का कोई पता भी नहीं, जिन्होंने स्वप्न में भी दूसरे किनारे को नहीं देखा, जिनकी कल्पना में भी दूसरे किनारे की छाया नहीं पड़ी है - ऐसे लोगों को भी दूसरे किनारे की अभीप्सा से भर देता है। इसके पहले कि खुद की नाव छोड़े और न मालूम कितने लोगों को तैयार कर देता है कि वे भी उत्सुक हो जायें, आतुर हो जायें, प्यासे हो जायें । तीर्थंकर का अर्थ है: जान लिया और जनाया भी। सिर्फ जानकर ही जो चला गया, वह अकेला चला जाता है। उसके पीछे कोई परंपरा नहीं बनती जानेवालों की। जो सिर्फ जानकर चला गया, उसके पीछे कोई धर्म निर्मित नहीं होता; वह चुपचाप तिरोहित हो जाता है। उसकी कोई रेखा नहीं छूट जाती । लेकिन दूसरों को जाने की अथक चेष्टा करता है, वह अथक चेष्टा उसके पिछले जन्मों में साधे गये अभ्यास का परिणाम है। लेकिन वह भी कर्म - बंध है। पर इस जन्म में, तीर्थंकर की दशा में, कोई कर्म-बंध नहीं होता । अब तो सब सहज होता है । इसको खयाल रखना । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जीवन का ऋत् : भाव, प्रेम, भक्ति रोते हैं कि मेरी सीता कहां है; वृक्षों से पूछते हैं कि मेरी सीता कहां इसलिए तो दायां हाथ अगर सक्रिय होता है तो बायां निष्क्रिय गई—वह सिर्फ पूछना है, अभिनय है; भीतर कुछ भी नहीं है। होता है। जिसका बायां सक्रिय होता है उसका दायां निष्क्रिय भीतर तो उनकी सीता उनके घर है। अभिनेता हैं। राम तो वे हैं | होता है। क्योंकि दोनों हिस्सों में एक हिस्सा पुरुष का और एक भी नहीं। अभिनय है। हिस्सा स्त्री का है। आधा हिस्सा निष्क्रिय है, आधा हिस्सा जीसस की क्रोध की अवस्था भी करुणा की सेवा में किया गया सक्रिय है। और तुम्हारा आधा चेहरा अलग होता है और आधा अभिनय है। चेहर अलग होता है। गरजिएफ तो बहुत कुशल था क्रोध करने में। ऐसी घटनाएं हैं। तुमने कभी खयाल नहीं किया। तुम अपना चित्र उतरवाना जो बड़ी अनूठी हैं। कि गुरजिएफ धीरे-धीरे इतना कुशल हो गया और एक ही हिस्से के आधे-आधे चित्रों को जोड़ देना और तुम अभिनय में कि वह आधे चेहरे से क्रोध कर सकता था और आधे पाओगे कि तुम्हारा चेहरा बड़ा नया ढंग ले लेता है। बाएं चेहरे से करुणा। और कई दफा उसने लोगों को चकित कर दिया और के दो हिस्सों को जोड़ देना और दाएं चेहरे के दो हिस्सों को जोड़ दुविधा में डाल दिया। दो आदमी मिलने आये-एक बाएं बैठा | देना और तुम पाओगे: तुम दो आदमी मालूम पड़ने लगे और ये है, एक दाएं-तो वह आधे चेहरे से तो इस तरह देखता रहा जैसे दोनों आदमी तुमसे बिलकुल अलग मालूम पड़ते हैं। तुम्हारी कि हत्या कर देगा और आधे चेहरे से इस तरह देखता रहा कि एक आंख अलग है, दुसरी आंख अलग है। क्योंकि आधा फूल बरसते रहे। एक तरफ की आंख बड़ा प्रेम बरसाती रही शरीर बाएं मस्तिष्क से संचालित होता है, आधा दाएं मस्तिष्क से और दूसरी तरफ की आंख आग बरसाती रही। जब वे दोनों | संचालित होता है। लेकिन चूंकि तुम बहुत ज्यादा जुड़े हो शरीर आदमी मिलकर बाहर गए तो दोनों ने अलग-अलग वर्णन किया से, उससे दूर नहीं हो कि उपयोग कर सको। लेकिन गुरजिएफ गुरजिएफ का, कि यह तो आदमी बहुत दुष्ट और हत्यारा मालूम कर सकता है। महावीर कर सकते हैं। किया न हो, हो सकता होता है; यह तो ऐसा खतरनाक आदमी है कि अगर एकांत में है। लेकिन कर सकते हैं। जाये तो गर्दन दबा दे। दसरे ने कहा. तम कहते क्या हो? | महावीर क्रोध कर सकते हैं, लेकिन वह चेष्टा होगी और तुम पागल हो गए हो? जरा उसकी आंख तो देखते! कैसा । अभिनय होगा। और तुम भी करुणा कर सकते हो, लेकिन वह प्रेम! यह आदमी चींटी भी मार सकेगा? चेष्टा होगी और अभिनय होगा। क्रोध तुम्हारे लिए सहज है। ऐसा बहुत बार बहुत लोगों को हुआ। कुशलता इतनी गहरी हो कुछ करना नहीं पड़ता, अपने से होता है। किसी ने गाली दी, सकती है! बस हो गया। तुम्हें कुछ करना थोड़े ही पड़ता है। किसी ने गाली अगर तुमने शरीर से अपने को बिलकुल अलग कर लिया है। दी, बटन दबा दी–हो गया। करुणा करनी हो तो बड़ा तो शरीर का तुम यंत्रवत उपयोग कर सकते हो। तुम एक हाथ सोच-विचार करना पड़ता है, शास्त्र पढ़ने पड़ते हैं, सदगुरुओं हिलाते हो, दूसरा रोके रखते हो। इसी तरह एक आंख क्रोध कर के पास जाना पड़ता है, सत्संग करना पड़ता है, वचन, प्रतिज्ञा सकती है, एक प्रेम कर सकती है। चेहरे का एक हिस्सा कुछ | लेनी पड़ती है; और फिर-फिर छूटकर क्रोध हो जाता है। जरा कह सकता है, दूसरा कुछ कह सकता है। और इसके पीछे | भूल हुई कि क्रोध हुआ। बहुत होश रखो तो थोड़ी-बहुत करुणा वैज्ञानिक कारण है। क्योंकि तुम्हारे पास दो मस्तिष्क हैं, एक को तुम सम्हाल सकते हो। मस्तिष्क नहीं है। बायां मस्तिष्क अलग है, दायां मस्तिष्क इससे ठीक विपरीत दशा तीर्थंकर की है। करुणा सहज है, अलग है। दोनों की प्रक्रिया अलग है। और यह भी हो जाता है करनी नहीं पड़ती। तीर्थकर सोया भी रहे तो भी करुणा होती है। कभी कि अगर दोनों के बीच का छोटा-सा सेतु है, वह टूट जाये, तुमने कभी खयाल किया कि तुम सोते-सोते भी क्रोधित रहते तो एक आदमी में दो आदमी पैदा हो जाते हैं, स्प्लिट पर्सनैलिटी हो, बड़बड़ाते हो क्रोध में, मरने-मारने की धमकी देते हो! कभी हो जाती है। अपनी पत्नी को कहना कि जब तुम सोये हो, तुम्हारे चेहरे का तुम्हारा शरीर दो हिस्सों में बंटा है, इसे खयाल में रखना। | जरा अध्ययन करे। या तुम अपनी पत्नी के चेहरे का अध्ययन 609 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग : 1 करना सोते हुए। शायद इसीलिए लोग अकेले में सोना पसंद | हर समस्या में छिपा हुआ समाधान है और हर उलझन में छिपी करते हैं, भीड़-भाड़ में सोना पसंद नहीं करते, हर कहीं सो जाना | हुई सुलझन है और हर प्रश्न अपने उत्तर को लिए हुए है। जरा पसंद नहीं करते; क्योंकि सोने की अवस्था में चित्त से वही प्रगट खोज की जरूरत है। होने लगता है जो तुम्हारे लिए सहज स्वाभाविक है। नियंत्रण तुम ऐसा कोई प्रश्न नहीं खोज सकते जिसका उत्तर न करनेवाला तो रह नहीं जाता, वह तो सो गया; नियंता तो सो | हो...देर-अबेर लगे। तुम ऐसी कोई उलझन नहीं बना सकते गया, कर्ता तो सो गया। जिसका सुलझाव न हो। तुम न करना चाहो सुलझाव तो बात तो अगर तुम क्रोधी आदमी हो तो तुम्हारा रात में चेहरा अलग। तब उलझन की समस्या नहीं है तुम्हारी समस्या है; बिलकुल क्रोध से भरा हुआ होगा। अगर तुम कामुक आदमी हो | तुम करना ही नहीं चाहते। अगर तुम करना चाहो तो कोई बाधा तो रात तुम्हारा चेहरा काम से भरा होगा; तुम्हारे चेहरे पर काम | नहीं है। रिसता होगा। तुम जैसे हो, रात का चेहरा तुम्हारा, तुम्हारे बाबत अब यह उलझन खड़ी की हुई है। ज्यादा असली खबर देगा। दिन में तो तुम थोड़ा झूठ कर लेते हो, 'पहली बार किसी के प्रेम में पड़ा हूं, लेकिन मेरा अहंकार मुझे रात में तुम न कर पाओगे। प्रेम में पूरी तरह डूबने नहीं देता।' इसलिए तथाकथित साधु-संन्यासी सोने तक से डरते हैं। अगर यह समझ में आ रहा है तो चन लो। या तो अहंकार को के सोए कि उन्होंने जो-जो साधा है दिन चन लो, तब प्रेम पागलपन है। तब छोड़ो बकवास। नारद का में, उस सब पर कब्जा गया। दिनभर तो साधा ब्रह्मचर्य, लेकिन | दिमाग फिर गया होगा! और अगर प्रेम को चुनना है, तो फिर रात कामवासना का स्वप्न मन को पकड़ लेता है। अब क्या करें, अहंकार को गिराओ। दो नावों पर सवार मत हो जाओ, अन्यथा स्वप्न में कैसे साधे! स्वप्न में तो होश ही नहीं है, साधना कैसे हो उलझन होगी। और दोनों नावें बड़ी अलग-अलग हैं। महावीर पायेगा? ऐसी चित्त की दशा है। और नारद दोनों के कंधों पर हाथ मत रख लेना, अन्यथा तुम साधारणतः जब तक हम मूर्छित हैं, बेहोश हैं, तब तक हमसे त्रिशंकु हो जाओगे। तब तुम बड़ी उलझन में पड़ोगे। लेकिन गलत तो सहज होता है और सही चेष्टा से होता है। उलझन के लिए न तो महावीर जिम्मेवार होंगे और न नारद जब चित्त की दशा जागरूक होती है, प्रबुद्ध होती है, संबो धि | जिम्मेवार होंगे जिम्मेवार तुम होओगे जिसने दोनों के कंधों पर को उपलब्ध होती है, तो जो ठीक है वह सहज होता है; जो गलत | हाथ रख लिये। किसने तुमसे कहा था? । है, अगर वह करना पड़े किसी कारण से तो वह अभिनय से | नारद से पूछते तो नारद तो कहते हैं, महावीर गलत हैं। ज्यादा नहीं होता। महावीर से पूछो तो महावीर कहते हैं, नारद गलत हैं। इसलिए जुम्मा उन पर न डाल सकोगे तुम। तुम उलझन अगर पैदा करना दूसरा प्रश्न : पहली बार मैं किसी के प्रेम में पड़ा हं, लेकिन चाहो तो फिर बात अलग। मेरा अहंकार मुझे प्रेम में पूरी तरह डूबने नहीं देता। मेरा हृदय __ अब एक आदमी अगर दो नावों पर सवार हो और पूछे कि मैं तो नारद के साथ है, लेकिन बुद्धि महावीर के साथ। भीतर से | क्या करूं, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, साफ है बातः एक तो प्रेम करना चाहता हूं लेकिन बाहर कुछ और ही प्रकाशित नाव पर सवार हो जाओ। निश्चित ही एक नाव पर सवार होने होता है। फलस्वरूप बड़ी खींचातानी चलती है। क्या कोई के लिए दूसरी नाव छोड़नी पड़ेगी। इसलिए दोनों के लाभ मन में आशा है इस उलझन से बाहर हो जाने की? मत रखना। जिंदगी चुनाव है—प्रतिपल चुनाव और निर्णय है। और जब जहां-जहां उलझन है वहां-वहां सुलझन का उपाय है। उलझन भी तुम एक बात चुनते हो तो कुछ छोड़ना पड़ता है। सच तो यह होती ही नहीं, अगर सुलझने की आशा न हो। उलझन खड़ी ही है एक बात चुनने के लिए हजार बातें छोड़नी पड़ती हैं। वहां होती है जहां सुलझने का द्वार पास ही है। तुम यहां आए मुझे सुनने, इस घंटे के हजार उपयोग हो सकते बना। 610 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का ऋत् : भाव, प्रेम, भक्ति थे। तुम दुकान पर बैठ सकते थे, कुछ रुपया कमा लेते। तुम | बड़ा क्रांतिकारी निर्णय है। और निर्णय बहुत साफ-साफ लेना सिनेमा जा सकते थे, कोई फिल्म देख लेते। तुम शराब-घर में | चाहिए, क्योंकि निर्णय पर, इसी निर्णय पर सारे जीवन का ढांचा जा सकते थे, शराब पी लेते। गपशप कर लेते, अखबार पढ़ निर्भर करेगा। तुम कहां पहुंचोगे, यह इस पर निर्भर करेगा कि लेते, रेडियो सुन लेते। हजार उपयोग हो सकते थे इसके, वह तुमने पहला कदम किस दिशा में उठाया था। अगर पहला कदम तुमने छोड़े और यह उपयोग चुना कि मुझे सुनते हो। यह बड़ा गलत उठा तो तुम लाख दौड़ो, लाख श्रम करो, तुम ठीक जगह चुनाव है। अब तुम अगर चाहो कि वे लाभ भी जो तुमने छोड़ न पहुंच पाओगे। तुम्हारी दौड़, तुम्हारी आपाधापी, अगर गलत दिये, मुझे सुनने से मिल जायें, तो तुम गलत चाह कर रहे हो। कदम पर खड़ी है तो बुनियाद गलत है, यह भवन गिरेगा। गलत चाह से अड़चन आती है। पूछा है, 'पहली बार किसी के प्रेम में पड़ा हूं।' इसलिए अब अगर तुम्हें अहंकार में रस आ रहा हो तो छोड़ो प्रेम की स्वाभाविक भी है। पहली बार जब कोई किसी के प्रेम में पड़ता है बात। फिर पूरे अहंकारी बन जाओ। फिर राजनीति तुम्हारा धर्म तो अहंकार बाधा डालता है। क्योंकि अब तक तुम अहंकार के होगी। फिर दौड़ो अहंकार, पद...दिल्ली की यात्रा करो! फिर प्रेम में रहे। अब तक तुमने सिर्फ अहंकार को ही प्रेम किया है। तुम यहां बैठे क्या कर रहे हो? फिर यह समय गंवाया हुआ आज पहली दफा अहंकार के विपरीत कोई नये प्रेम का उदभव सिद्ध होगा। फिर तुम एक न एक दिन मुझ पर बहुत नाराज हो हुआ-जहां अहंकार को समर्पित करना होगा, जहां 'मैं' को जाओगे। यह समय तो दिल्ली की यात्रा में लगाना था। बस मिटाना होगा। तो स्वभावतः, जिस 'मैं' को अब तक सींचा, तुम्हारा एक ही मंत्र होना चाहिए : दिल्ली चलो! जिस 'मैं' को अब तक सम्हाला, वह अगर बाधा डाले तो कुछ अगर अहंकार को ही भरना है, तो साफ-साफ भरो; फिर आश्चर्य नहीं। लेकिन तुमने जिसे सींचा है, तुम ही अगर पानी इधर-उधर बेईमानी मत करो! निश्चित ही, ध्यान रखना, | बंद कर दोगे, वह अपने से कुम्हला भी जायेगा, सूख भी अहंकार को भरने के थोड़े से सुख हैं। दुख भी बहुत हैं। सुख तो जायेगा। अब तुम्हारे सामने है निर्णय। अब तक तो तुमने भ्रामक हैं, भासमान हैं, दुख बड़े यथार्थ हैं। तो सोच लेना, ठीक | अहंकार को ही सींचा था, अब प्रेम का भी अंकुर उठा है। अब से देख लेना, दुख-सुख दोनों का दर्शन कर लेना। प्रेम के सुख तुम सोच लोः अहंकार क्या दे सकता है और प्रेम क्या दे सकता तो बड़े सच्चे हैं, दुख केवल भासमान हैं। इसलिए बुद्धिमानों ने है? अहंकार देने के बहुत-से आश्वासन देगा, लेकिन देता प्रेम चुना; बुद्धिहीनों ने अहंकार चुना। बुद्धिमानों ने धर्म चुना; - कभी कुछ नहीं बस कोरे आश्वासन ! यही तो सब सिकंदरों, बुद्धिहीनों ने राजनीति चुनी। बुद्धिमानों ने अंतर्जगत चुना; | नेपोलियनों की कथा है। प्रेम आश्वासन नहीं देता—देने की तो बुद्धिहीनों ने बाहर का जगत चुना। बाहर के जगत का धन | बात ही नहीं उठाता। प्रेम तो कहता है, सब खोना पड़ेगा। दिखाई पड़ता है—है नहीं; सिर्फ मान्यता है। भीतर का धन लेकिन खोनेवालों की कथा ही तो सारे भक्तों की कथा है, सारे दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन है। अदृश्य है-और दृश्य केवल धार्मिकों की कथा है, सारे ध्यानियों की कथा है। दिखाई पड़ता है। | प्रेम कहता है, खोओगे तो मिलेगा। और अहंकार कहता है, । तो तुम्हारे ऊपर निर्भर है। उलझन चन लोगे तो तम कहीं के भी पाओगे तो मिलेगा। अहंकार का गणित बद्धि की समझ में आ न रहोगे-घर के न घाट के! तुम धोबी के गधे हो जाता है। स्वाभाविक है, पाओगे तो मिलेगा। और प्रेम कहता ।...या तो घाट या घर। अगर अहंकार चुनना है तो | है, खोओगे तो मिलेगा। तो गणित कुछ अटपटा है, बेबूझ है, घाट। अगर प्रेम चुनना है तो घर। | बुद्धि में आता नहीं। प्रेम चुनने का अर्थ है कि जीवन अपने-आप में मूल्यवान है। अहंकार और बुद्धि के बीच तो एक तरह का समझौता है, एक और जीवन का चरम अर्थ जीवन की प्रफुल्लता में है—धन में षड्यंत्र है। बुद्धि अहंकार की पक्षपाती है, अहंकार बुद्धि का नहीं, गीत में है; पद में नहीं, प्रसन्नता में है; वस्तुओं में नहीं, पक्षपाती है। तो अगर तुमने सिर से ही पूछा तो तुम अहंकार के व्यक्तियों के अंतर्संबंधों में है। और बाहर नहीं भीतर है। यह ही रास्ते पर भटकते-भटकते खो जाओगे; जैसे कोई सरिता 61 www.jainelibrary.co Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612 जिन सूत्र भाग: 1 मरुस्थल में भटकते-भटकते खो जाये और उसे सागर न मिले। हृदय से पूछो ! हृदय और प्रेम का समझौता है । और हृदय कह रहा है...। 'लेकिन मेरा अहंकार मुझे प्रेम में पूरी तरह डूबने नहीं देता । मेरा हृदय नारद के साथ है और मेरी बुद्धि महावीर के साथ।' तो तुम चुन ! अगर तुम्हें लगता है कि हृदय गलत कह रहा बुद्धि के साथ कुछ दिन चल लो, दौड़ लो। सौ में से कभी कोई एकाध पहुंच पाता है। कोई महावीर ! बहुत दुर्गम है। क्योंकि व्यर्थ की उलझन अस्मिता की खड़ी हो जाती है। कोई परमात्मा नहीं, जहां सिर झुकाया जा सके, तो बिना किसी परमात्मा के सामने सिर झुकाना आ जाना बहुत दुर्लभ है । महावीर को घटा; बिना किसी परमात्मा के सिर झुका दिया; बिना किसी वेदी के आहुति चढ़ा दी। कोई नहीं है परमात्मा, इस कारण साधारणतः तो 'मैं' मजबूत होगा। तो इसकी बहुत कम संभावना है कि तुम महावीर हो सको; इसकी संभावना ज्यादा है कि तुम नीत्से हो जाओ। नीत्से | का भी तर्क वही है । वह कहता है, कोई परमात्मा नहीं। लेकिन जैसे ही उसने कहा कोई परमात्मा नहीं, उसने तत्क्षण कहा जब परमात्मा नहीं है तो अब मनुष्य स्वतंत्र है कुछ भी करने को । फल क्या हुआ? फल हुआ नीत्से का पागल हो जाना। वह अहंकार मजबूत होता चला गया। कहीं कोई वेदी न मिली जहां चढ़ा देता । वेदी को इनकार कर दिया । इनकार करने का कारण ही यही बताया कि 'अगर परमात्मा है तो मैं नीचा हो गया और मैं नीचे कैसे हो सकता हूं! मेरे से ऊपर कोई भी नहीं हो सकता।' इसलिए परमात्मा को इनकार किया । नीत्से पागल हुआ । सौ में निन्यानबे मौके ये हैं कि तुम पागल हो जाओगे । महावीर बड़े कुशल व्यक्ति हैं। चुना तो ठीक वही मार्ग जो नीत्से का है; लेकिन परमात्मा नहीं है, इससे यह निष्कर्ष न लिया कि मनुष्य अब स्वच्छंद है। इससे उलटा ही निष्कर्ष लिया। महावीर ने कहा, 'चूंकि परमात्मा नहीं है, इसलिए अब कोई स्वच्छंदता न चलेगी; सारा उत्तरदायित्व मेरा है ।' समझे फर्क ? नीत्से ने कहा, कोई परमात्मा नहीं, तो अब करो जो करना है। महावीर ने कहा, अब तो कुछ करने का उपाय ही न रहा; अब तो जो भी किया, जिम्मेवारी मेरी है। परमात्मा होता तो कुछ रास्ता भी निकाल लेते- कुछ भी करने का, तीर्थ स्नान कर आते, मंदिर में पूजा कर देते, प्रार्थना करके समझा-बुझा लेते; पाप हो जाता, पश्चात्ताप कर लेते — और फिर वह करुणावान है, रहीम है, रहमान है; वह क्षमा कर ही देता; उसने तो बड़े-बड़े पापियों को क्षमा कर दिया। कहते हैं, एक पापी ने मरते वक्त भूल से अपने लड़के को बुलाया : नारायण, नारायण ! लड़के का नाम नारायण था और ऊपर के नारायण ने समझा कि मुझे पुकार रहा है। क्षमा कर दिया। स्वर्ग में उठा लिया। बैकुंठ में वास कर रहा है वह पापी अब तो जो इतनी सरलता से फुसला लिया जाता है; रिश्वत भी जिसकी इतनी सस्ती है; बुलाया भी नहीं था जिसे, किसी और को ही बुलाया था, लेकिन नाममात्र का संयोग मिल गया, 'नारायण', और जो भूल में पड़ गया; जो ऐसा खुशामद - लोलुप है - ऐसा परमात्मा हो तो फिर कुछ भी करने की छूट है। अगर महावीर से पूछो तो महावीर यह कहेंगे, अगर परमात्मा है तो फिर मनुष्य स्वच्छंद है। फिर जो भी करना हो करो; क्योंकि आखिर में तो वह है, उसके चरण पर गिड़गिड़ा लेना, रो लेना, माफी मांग लेना । और वह करुणावान है, वह क्षमा कर देगा। तो जो निष्कर्ष नीत्से ने लिया, वही निष्कर्ष महावीर ने लिया - लेकिन बिलकुल उलटी तरफ से । अगर परमात्मा है तो आदमी स्वच्छंद हो जायेगा। तो महावीर ने कहा, परमात्मा तो कोई भी नहीं है; इसलिए प्रार्थना का उपाय नहीं है। अपने को बनाना है, निर्मित करना है, छांटना है, काटना है, निखारना है, सब अपना ही है। खुद की जिम्मेवारी चरम है। यह उत्तरदायित्व आखिरी है। इसको तुम किसी और पर न टाल सकोगे। इसलिए तुम आखिर में यह न कह सकोगे कि मैं क्या करूं, हो गया । भोगना पड़ेगा। स्वच्छंदता का कोई उपाय नहीं । तो महावीर ने तो परमात्मा के न होने से उत्तरदायित्व लिया । नीत्से ने परमात्मा के न होने से स्वच्छंदता ली। महावीर तो विमुक्त हो गये, नीत्से विक्षिप्त हो गया। दोनों के तर्क का प्रारंभ बिलकुल एक जैसा था, लेकिन अंत बड़ा भिन्न हुआ। कहां महावीर परम सुगंध को उपलब्ध हुए और कहां नीत्से पागलखाने में सड़ा और मरा! Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का ऋतः भाव, प्रेम, भक्ति सोच लेना! महावीर का रास्ता बहुत थोड़े लोगों के लिए है। उलटकर मरते हुए लोग नहीं देखे जाते, थोड़ी चोट-वगैरह लग उनके लिए है, जिनके लिए स्वतंत्रता स्वच्छंदता न बनेगी। उनके जाती हो...साधारणतः बैलगाड़ी उलट जाये तो इतना खतरा नहीं लिए है, जिनके लिए परमात्मा का अभाव अहंकार न बनेगा; जो है, क्योंकि गति ही कोई बड़ी न थी; पृथ्वी से फासला ज्यादा दूर कहेंगे, 'जब परमात्मा ही नहीं तो मेरे होने का क्या? परमात्मा का न था। तक नहीं है तो मैं क्या हो सकता हूं?' नारद का रास्ता बहुत पृथ्वी के करीब है। प्रेम का रास्ता पृथ्वी परमात्मा का अर्थ है सारे अस्तित्व का 'मैं'; सारे अस्तित्व के बहुत करीब है। और तुम्हारा जो सामान्य जीवन है उससे का केंद्र। जब सारा अस्तित्व केंद्रहीन है और 'मैं' रहित है, तो बहुत फासला नहीं है। तुम अपने सामान्य जीवन में जीते हुए भी मैं एक छोटा-सा व्यक्ति, एक छोटी-सी लहर, एक जरा-सी नारद को सुगमता से साध सकते हो। तरंग!...जब सागर का ही कोई 'मैं' नहीं है तो मेरा मैं क्या हो खतरा क्या है? खतरा एक ही है और वह यह है कि प्रेम कहीं सकता है ? बात खतम हो गयी! वासना ही न बन जाए। प्रेम भक्ति बने, यह तो नारद का मार्ग तो महावीर ने तो परमात्मा को इनकार करने में ही अपने भीतर है। और प्रेम कहीं वासना ही रह जाये, यह खतरा है।। 'मैं' की संभावना को इनकार कर दिया। इसलिए तुम यह मत जैसे महावीर के पीछे चलनेवाले जैन मुनि अहंकार की पाषाण सोचना कि महावीर और नारद वस्तुतः विपरीत हैं। अंततः तो प्रतिमाएं बन गए, वैसे ही नारद के पीछे चलने वाले भक्त केवल सार एक ही निकलता है। महावीर ने परमात्मा को अस्वीकार | भोग-शृंगार में खो गये। खतरा तो है ही। खतरा तो सभी रास्तों करके 'मैं' को अस्वीकार कर दिया। नारद ने परमात्मा को | पर है। चलनेवाले को खतरा तो है ही। इसलिए सम्हलकर तो स्वीकार करके 'मैं उसके चरणों में चढ़ा दिया। हर हाल नारद चलना होगा। फिर भी खतरे की मात्राएं भिन्न-भिन्न हैं। और महावीर दोनों 'मैं' से मुक्त हो गये। अगर नारद के मार्ग पर तुम भटके भी तो तुम वहां से नीचे न तो तुम चाहे कुछ भी निर्णय लो-तुम चाहे प्रेम के पक्ष में गिरोगे जहां तुम हो। क्योंकि वासना में तो तुम हो ही। अगर निर्णय लो, चाहे अहंकार के पक्ष में निर्णय लो-लेकिन एक | नारद के मार्ग से तुम गिरे भी तो बैलगाड़ी से गिरे; जमीन से बात ध्यान रखना, अहंकार तो मरेगा ही। उससे तुम बच न ज्यादा दूर न थे। वासना में तुम हो ही। इतना ही धोखा दे सकते सकोगे। उसे अगर बचा लिया तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे, | हो कि अब तुम अपनी वासना को प्रेम कहने लगो और प्रेम को पागल हो जाओगे। उसी कारण तो सारी पृथ्वी करीब-करीब भक्ति कहने लगो। बस नामों के धोखे दे सकते हो। कुछ ज्यादा पागल जैसी है। खतरा न होगा। लेकिन महावीर के मार्ग से अगर तुम गिरे तो अगर मेरी सुनो तो मैं कहूंगा: हृदय की सुनो! प्रेम की सुनो! पागलपन है, विक्षिप्ता है और भयंकर अहंकार के खड़े हो जाने ज्यादा सुरक्षित मार्ग है। महावीर का मार्ग बहुत खाई-खड्ड से | का डर है। गुजरता है। डर है कि तुम कहीं गिर न जाओ! नारद का मार्ग जैन मुनि को देखते हो। उससे ज्यादा गहन अहंकारी व्यक्ति बहुत सुरक्षित है। तुम्हारी कमजोरी को भी सम्हाल लेगा। तुम्हें | खोजना मुश्किल है। सहारा देगा। महावीर का मार्ग बहुत अकेला है, अत्यंत एकांत जैन मुनि श्रावक को हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर का है। दूर, बहुत दूभर है! जाओ तो सोच समझकर जाना, कि | सकता। कठिन है, असंभव है। मुनि और श्रावक को नमस्कार नीत्से का खतरा तुम्हारे पीछे लगा रहेगा। करे! आशीर्वाद दे सकता है, नमस्कार नहीं कर सकता। नारद के मार्ग पर नीत्से का खतरा नहीं है। ऐसा नहीं कि वहां लेकिन मैं पूछता हूं, जब नमस्कार ही नहीं कर सकते तो कोई खतरा ही नहीं है। खतरा तो हर चलने में होता है, हर यात्रा आशीर्वाद देने की झंझट भी क्या कर रहे हो? जब कुछ करना में होता है। जो घर बैठे रहते हैं उन्हीं को खतरा नहीं है। हवाई | ही है तो नमस्कार बेहतर था, आशीर्वाद देने की बजाय। और जहाज से चलो तो खतरा है। बैलगाड़ी से चलो तो वह भी जिसका नमस्कार सूख गया है उसके आशीर्वाद में कोई बहुत कभी-कभी उलट जाती है। लेकिन ऐसा है कि बैलगाड़ी से | बल नहीं हो सकता। अहंकार से आया हुआ आशीर्वाद क्या 613 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 जिन सूत्र भाग: 1 फल लायेगा ? वह तो झुके हुए हृदय से निकले तो ही लाभ होता है। वह तो लदे हुए वृक्ष की तरह है। जैसे वृक्ष झुक जाता है, जब फलों से लद जाता है। ऐसा जब कोई प्रेम से लदा हो और झुका हो, तभी उससे मीठे फलों के आशीर्वाद उपलब्ध होते हैं।... अकड़े खड़े हैं! एक डाल नहीं झुकी। फल तो हैं ही नहीं। आशीर्वाद कहां से होगा ? लेकिन जैन मुनि अकड़कर खड़ा हो जाता है: तपश्चर्या है! कोई समर्पण किसी के प्रति नहीं है। सिर्फ संकल्प है 1 तो सिर्फ संकल्प की शक्ति का खतरा यह है कि तुम्हारा अहंकार विक्षिप्त न हो जाये। फिर चुनाव तुम्हारा । इतना निश्चित है कि उस मार्ग से भी लोग पहुंचे हैं। लेकिन अगर मेरी सुनो तो हृदय की सुनना ! और जब तुम हृदय की सुनोगे तो बुद्धि को तकलीफ होगी। क्योंकि हृदय को चुनने का अर्थ है: बुद्धि का प्रभुत्व गया; तर्क की तुम्हारे ऊपर जो मालकियत है, वह टूटी ! न जाने आज मैं क्या बात कहनेवाला हूं जुबान खुश्क है, आवाज रुकती जाती है। जैसे-जैसे प्रेम की बात कहने के करीब आओगे, वैसे ही पाओगे : जबान खुश्क हो गयी, आवाज रुकती जाती है, क्योंकि बुद्धि काम नहीं करती। न जाने आज मैं क्या बात कहनेवाला हूं जुबान खुश्क है, आवाज रुकती जाती है। बहुत संघर्ष करेगी। लेकिन चुनाव तो करना ही होगा। और प्रेम का मार्ग सुगम है, छोटा है— करीब से करीब है । क्योंकि प्रेम सुगम है, सहज है। प्रेम को लेकर ही तुम पैदा हुए हो, ध्यान को इतनी आसानी से नहीं कहा जा सकता कि तुम लेकर पैदा हुए हो। ध्यान तो तुम बड़ी चेष्टा करोगे तो शायद दीया जले। लेकिन प्रेम की तड़फ तो तुम्हारे भीतर है ही; तुम्हारी श्वास- श्वास में भरी है! तुम्हारे रोएं रोएं में भरी है। कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम के लिए प्यासा न हो ! कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम देने को आतुर न हो ! न दे पाओ, कुछ अड़चन आती हो; न | मिल पाये, कुछ बाधा पड़ जाती हो — और बात। लेकिन कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम के लिए आतुर न हो ! प्रेम स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। वह जीवन के ऋत का हिस्सा है। ध्यान बड़ी चेष्टा, बड़े परिमार्जन, बड़ी मर्यादा, बड़े अनुशासन से उपलब्ध होता है। तो जो नैसर्गिक है उसे तुम जल्दी काम में ला सकते हो। तू न देनामे को इतना तूल गालिब मुख्तसर लिख दे कि हसरत सेज हूं, अर्जे - सितमहाए-जुदाई का। - प्राणप्यारे को पत्र लिखते समय, पत्र को बहुत विस्तृत न बना, गालिब ! बस इतना लिख दे, इतना काफी है-संक्षेप में कि श्री चरणों में विरह की पीड़ा निवेदन करने की लालसा से लसित ! काफी है ! 'न दे नामे को इतना तूल' - चिट्ठी को बहुत लंबी मत कर। 'गालिब, मुख्तसर लिख दे !' बस संक्षेप में इतना लिख दे 'कि हसरत सेज हूं अर्जे - सितमहाए-जुदाई का ।' कि विरह की पीड़ा बहुत हो गयी, अब श्री चरणों में यह निवेदन रखता हूं कि अब मिलने की बड़ी गहरी अभीप्सा है। बस काफी है। प्रेम की चिट्ठी छोटी होती है। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ! अगर प्रेम ने पुकारा हो तो इस आवाज को ऐसे ही मत लौट जाने देना। अगर प्रेम ने पुकारा हो तो सुनना, दो गाम उसके पीछे चलना ! क्योंकि प्रेम के रास्ते से दो गाम चलकर भी आदमी परमात्मा तक पहुंच जाता है। हृदय की तरफ सरकोगे तो बुद्धि मरने लगेगी। इसलिए बुद्धि भाती है, उनको वही मार्ग चुनना चाहिए। संकल्प का रास्ता बहुत लंबा, बहुत बीहड़, बहुत अकेले का । हां, कुछ को वैसी चुनौती ही भाती है। जिनको वैसी चुनौती लेकिन प्रश्नकर्ता के प्रश्न से मुझे ऐसा लगता है कि उसे बुद्धि का मार्ग जमेगा नहीं, संकल्प का मार्ग जमेगा नहीं। क्योंकि जिन्हें संकल्प का मार्ग जमता है, उन्हें प्रेम की पुकार ही सुनायी नहीं पड़ती। वह दस्तक प्रेम देता रहे, उनके कान बहरे होते हैं। प्रेम में उन्हें सिर्फ पाप दिखायी पड़ता है। तो संकल्प के मार्गवाला व्यक्ति तो यह पूछेगा ही नहीं। यह तो उसी ने पूछा है जिसका मार्ग प्रेम है; लेकिन बुद्धि की अड़चन में पड़ गया है। चाह तो गहरी यही है कि प्रेम में उतर जाये, लेकिन अहंकार उतरने नहीं देता, झुकने नहीं देता। तो इस अहंकार को तोड़ो ! इस अहंकार से अपने को अलग करो। पूछनेवाला शिकार तो हो ही गया है। तीर तो लग ही गया है। दिल को हम सर्दे-वफा समझे थे, क्या मालूम था Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का ऋत: भाव प्रेम, भक्ति यानी, यह पहले ही नज़रे-इम्तिहां हो जायेगा। भी भारी होने लगती है। तो कंधे पर अगर तुम बोझ डाले हए हो, -समझे थे कि दिल बहुत प्रेम-प्रवीण है, पता न था कि छोड़ना पड़ेगा, छोड़ते जाना पड़ेगा। पहली नजर में ही मर मिटेगा! अंतिम शिखर सत्य का ः बस तुम बचते हो तुम्हारी शुद्धता प्रेम का तीर तो लगा है, अब तुम बुद्धि की सुन-सुनकर कहीं | में। कोई 'मैं' का भाव नहीं होता। महावीर उसे आत्मा कहते इस घाव को छिपा मत लेना! यह घाव सौभाग्य है। हां, जिनका हैं। नारद उसे परमात्मा कहते हैं। मार्ग संकल्प का है, उन्हें यह घाव लगता ही नहीं। उनके आसपास से तीर निकल जाते हैं, उनको चुभते नहीं। इसलिए तीसरा प्रश्न : कृपा कर कीर्तन-ध्यान के बारे में कुछ उनके सामने सवाल नहीं उठता। सवाल ही उसके सामने उठता समझाएं। है, जिसको प्रेम की आवाज सुनायी पड़ती है। अगर प्रेम की आवाज सुनायी पड़ी है तो चलो, हिम्मत करो! अहंकार में | कीर्तन समझने की बात नहीं करने की बात है। कीर्तन शब्द बचाने जैसा कुछ भी नहीं है। में ही छिपा है राज-करने की बात ! करो तो जानोगे। समझ से और इतना मैं कहता हूं कि संकल्प के मार्ग पर भी आखिर में कीर्तन का कोई लेना-देना नहीं। वस्तुतः तो समझ को रख दोगे तो अहंकार छोड़ना ही पड़ेगा। प्रेम के मार्ग पर प्रथम ही छोड़ना | एक किनारे तभी कीर्तन कर सकोगे। तो समझ-समझकर अगर पड़ता है, संकल्प के मार्ग पर अंत में छोड़ना पड़ता है। प्रेम के कीर्तन किया तो होगा ही नहीं। समझकर किया तो चूक ही मार्ग और संकल्प के मार्ग में इतना ही भेद है। प्रेम के मार्ग पर जो जाओगे। अगर बुद्धिमानी के द्वारा किया, वहीं गलती हो पहला कदम है, वह संकल्प के मार्ग पर अंतिम कदम है। पहले जायेगी। समझने की फिक्र छोड़ो। अगर सच में ही समझना तो संकल्प के मार्ग का साधक अपने को निखारता है, तेज से | चाहते हो तो करो, समझ पीछे से आयेगी। डूबो! भरता है, उज्जवल करता है, चरित्र को निर्मित करता है, शील कीर्तन-ध्यान तल्लीनता का नाम है। कीर्तन-ध्यान अहोभाव को बांधता है, मर्यादा बनाता है; सब तरह से अनुशासित होकर की अभिव्यक्ति है। धन्यभाव की! यह अहोभाव कि मैं हूँ! यह शील और चरित्र का स्तंभ बनता है। लेकिन इस सबके भीतर | अहोभाव कि परमात्मा ने मुझे सजा! यह अहोभाव कि थोड़ी देर एक सूक्ष्म अहंकार बनता जाता है: 'मैं हूं तपस्वी! मैं हूं आंखें खुली, रोशनी देखी, फूल देखे, पक्षियों के गीत सुने, संयमी! मैं हूं योगी!' यह 'मैं' भरता जाता है। फिर आखिरी सूरज, चांद-तारों का नृत्य देखा! घड़ी आती है, तब उसे पता चलता है कि अब सब तो छूट गया, ये थोड़े क्षण, ये थोड़े लम्हे, जो जीने के मिले, ये न मिलते तो यह 'मैं' बचा। वह सब तो गिर गया जो गलत था, लेकिन उस किससे शिकायत करते? ये मिले-अकारण मिले! मांगे न सब गलत को गिराने में एक चीज भीतर निर्मित होती चली थे, बिना मांगे मिले! किसी ने दिये। यह किसी का प्रसाद-इस गयी-अब इसको गिराना है। प्रसाद के प्रति जो धन्यवाद है, वही कीर्तन है। तो संकल्प के मार्ग पर अंततः, अंतिम, अहंकार को छोड़ना तुमने चाहा तो न था कि तुम हो जाओ। तुम चाहते भी कैसे, पड़ता है। भक्ति के मार्ग पर अहंकार पहले ही कदम में छोड़ना जब तुम थे ही न? चाहने के लिए हो जाना तो पहले जरूरी है। पड़ता है। इसलिए मैं कहता हूं जिसे छोड़ना ही है उसे इतनी देर तुमने चाहा तो न था कि तुम देख सको। क्योंकि देखा ही न भी क्या ढोना। जिसे छोड़ना ही पड़ेगा, आखिरी शिखर पर होता, तो देखने की चाह कैसे पैदा होती; तुमने चाहा तो न था कि पहुंचने के पहले...। सुन सको यह गीत, यह संगीत जो जीवन का है, यह कभी तम हिमालय गये, कभी शिखर चढ़े?...तो जैसे-जैसे कलरव-नाद जो अस्तित्व का है-यह सब मिला है, यह शिखर की ऊंचाई बढ़ने लगती है वैसे-वैसे सामान छोड़ना पड़ता | वरदान है। यह तुम्हारे बिना मांगे मिला है। यह भीख नहीं है, है। आखिरी शिखर पर तो कोई नग्न होकर ही पहुंचता है, सब यह प्रसाद है! छोड़कर ही पहुंचता है। वस्त्र भी भारी हो जाते हैं। अपनी श्वास भीख और प्रसाद के फर्क को समझ लेना। तुमने मांगा और 615 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भ nema Saama मिले तो भीख। तुमने न मांगा, न तुमने चाहा और और क्या चाहिए? मिला—तो प्रसाद ! यह प्रभु-प्रसाद है। यह परम अस्तित्व का कीर्तन तो उन्माद है! बुद्धिमान तो हंसेंगे। इसलिए दुनिया से प्रसाद है तुम्हारे लिए। लहर-लहर को उसने ऐसा बनाया कि वह कीर्तन खोता चला गया है। दुनिया बहुत बुद्धिमान होती चली स्तत्व को भोग सके! एक-एक कण को जीवंत किया, गयी है। उसी बुद्धिमानी में बुद्ध हो गयी है। कीर्तन खोता चला ताकि एक-एक कण को पूरे होने का स्वाद आ सके! इसके लिए गया है। नाच गुम हो गया है। धन्यवाद दोगे या नहीं? इतने कृपण मत बनो! धन्यवाद दो!| लोग अगर नाचते भी हैं अब तो बहुत निम्न तल पर नाचते हैं। कैसे धन्यवाद दोगे इसे? | वह कामोत्तेजना का नृत्य होता है। अब प्रभु-उन्माद का नृत्य आदमी कितना असहाय है! नाच सकता है, गीत गुनगुना | कहीं भी नहीं होता। अब ऊर्जा ने उन ऊंचाइयों को छूना बंद कर सकता है! और क्या कर सकेगा? हमारे बस में और क्या है? दिया है। अब यहां तूफान भी उठते हैं, आंधियां भी आती हैं, तो कीर्तन का इतना ही अर्थ है, जो हम कर सकते हैं; चढ़ाने को भी जमीन का दामन नहीं छूटता। आकाश में नहीं उठ पाते! कुछ ज्यादा नहीं है! बस जो कुछ है, यह अहोभाव है। इसको ही पक्षी उड़ते भी हैं, तो ऐसा घर के चारों तरफ चक्कर लगाकर फिर हम उस समग्र के प्रति समर्पित करते हैं। | वहीं बैठे जाते हैं। दूर-दूर कि खो जाए पृथ्वी, दूर कि खो जाये तो कीर्तन तो एक तरह का उन्माद है। पागलपन नीड़-इतने दूर आकाश में नहीं जाते। नहीं-उन्माद। भाषाकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ है कीर्तन बड़ी दूर यात्रा है। यह परमात्मा के साथ नाचना है। जीवन के कोश में अर्थ अलग-अलग है। पागलपन है: जब जैसे तुम कभी किसी स्त्री के साथ नाचे, जिसे तुमने प्रेम किया, तुम्हारी जीवन की अवस्था खंड-खंड हो जाये, टुकड़े-टुकड़े में तो नृत्य में एक प्रसाद आ जाता है, एक गुणधर्म आ जाता है। टूट जाये; तुम एक न रह जाओ, अनेक हो जाओ। और उन्माद किसी के साथ तुम नाचो, सिर्फ नाचने के लिए, औपचारिक, तो है: जब तुम्हारे सारे खंड इकट्ठे हो जायें, तुम एक हो जाओ; उस नाच तो हो जायेगा, क्रिया पूरी हो जायेगी; लेकिन भीतर प्राणों में एक में होकर तुम नाच उठो, मस्त हो उठो! कोई रस न बहेगा। फिर किसी के साथ नाचो, जिससे तुम्हें प्रेम उन्माद, सामान्य चित्त से ऊपर जाने की अवस्था है। | है, तो कामोत्तेजना का, वासना का रस बहेगा! पागलपन, सामान्य चित्त से नीचे गिर जाने की अवस्था है। दोनों कीर्तन है परमात्मा के साथ नाचना, उस परम प्यारे के साथ में एक बात समान है कि दोनों सामान्य चित्त के बाहर हैं। नाचना! तो जैसे साधारण कामोत्तेजना का नृत्य काम-केंद्र के इसलिए परमहंस पागल मालूम होते हैं। इसलिए परमात्मा के आसपास भटकता है, वैसे कीर्तन सहस्रार के आसपास। तुम्हारे दीवाने भी विक्षिप्त जैसे मालूम होते हैं। एक बात समान है कि जीवन की आखिरी ऊंचाई पर, नृत्य के फूल खिलते हैं, दोनों जिसको तुम सामान्य बुद्धिमानी कहते हो उसके बाहर हो हजार-हजार कमल खिलते हैं। गए। पागल नीचे गिरकर बाहर हो गया, मस्त ऊपर उठकर | ऐ मुब्तिला-ए-जीस्त! ठहर खुदकुशी न कर बाहर हो गया। लेकिन दोनों को एक मत समझ लेना। दोनों में तेरा इलाज जहर नहीं है, शराब है। जमीन-आसमान जैसा अंतर है। कीर्तन। भक्त तो कहता है कि जीवन से घबड़ाकर आत्महत्या न जाने क्यों जमाना हंस रहा है मेरी हालत पर करने की तरफ मत जाओ, पागल हुए हो? जनं में जैसा होना चाहिए वैसा गिरेबां है।। ऐ मुन्तिला-ए-जीस्त! ठहर खुदकुशी न कर! भक्त कहता है: क्यों हंस रहे हैं लोग? ये तो उन्माद में जैसा -ऐ जीवन से उत्तप्त हुए, आत्मघात मत कर! भाग मत होना चाहिए, वैसे ही तो वस्त्र हैं. वैसा ही परिधान है। तो पागल जीवन से! तेरा इलाज जहर नहीं, शराब है। मृत्यु तेरा इलाज को जैसा होना चाहिए, वैसा ही तो मैं हूं। लोग हंस क्यों रहे हैं। नहीं है। जीवन की रसधार को पी लेना! परमात्मा की मधुशाला न जाने क्यों जमाना हंस रहा है मेरी हालत पर में प्रविष्ट हो जाना ही मंदिर में प्रवेश हो जाना है। जुनूं में जैसा होना चाहिए वैसा गिरेबां है। तर दामनी पर शैख हमारी न जाइए 616 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का ऋत: भाव, प्रेम, भक्ति दामन निचोड़ दें तो फरिश्ते वजू करें। खाली तो जगह करो। तुम सिंहासन तो रिक्त करो। परमात्मा तो कीर्तन करनेवाला तो दीवाना है, पागल है, नर्तक है, गायक प्रतिपल उत्सुक है तुम्हारे भीतर आ जाने को। तुम तो जरा बाहर है, वादक है। और इतनी तीव्रता से नर्तन करता है, इतनी गहनता | हो जाओ! से कि अपने को भूल जाता है, खो देता है, खुद बचता ही नहीं। कीर्तन का इतना ही अर्थ है: अपने से बाहर हो जाना; अपने पश्चिम का एक बहुत बड़ा नर्तक हुआ : निजिन्सकी। उसके घर को खाली छोड़ देना कि तू आ, अब भीतर कोई भी नहीं है; संबंध में वैज्ञानिक बड़े चकित थे। उसके नृत्य जैसा नृत्य फिर अब पूरी जगह तेरे लिए खाली है, तेरे लिए सुरक्षित है! कभी देखा नहीं गया-न उसके पहले, न उसके बाद। वैज्ञानिक रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना, हसरत हैरान थे कि जब वह नृत्य करते-करते छलांग लगाता था तो ऐसा इक तेरी याद के होने से है क्या-क्या दिल में। लगता था कि पृथ्वी पर वापस लौटते समय बड़ा धीमे-धीमे रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना, हसरत वापस आता है; जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम उस पर काम नहीं इक तेरी याद के होने से है क्या-क्या दिल में। करता। और भी नर्तक छलांग लगाते हैं, लेकिन तत्क्षण पृथ्वी भक्त कहता है, भगवान की याद के साथ ही क्या-क्या नहीं नाते हैं। वह भी छलांग लगाता था, लेकिन | होने लगता! आनंद, अहोभाव, आशा-निराशा, सुख-दुख, ऐसे लौटता था जैसे कोई पक्षी का पंख डगमगाता-डगमगाता, अभीप्सा, प्यास-तृप्ति! आहिस्ता-आहिस्ता, हवा पर तिरता-तिरता जमीन की तरफ रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना, हसरत आता है। उसके बहुत अध्ययन किये गये। उससे पूछा भी गया -बस जरा तेरी एक याद आ जाती है तो हजार-हजार चीजें कि चमत्कार कहां है? यह जादू कैसे पैदा होता है? तेरे आसपास चली आती हैं। तो वह कहता है, मुझे पता नहीं। जब 'मैं' अपने को | तो कीर्तन की बहुत भंगिमाएं हैं। कभी भक्त विरह में नाचता जाता हूं, तभी यह छलांग घटती है। जब 'मैं' है; तब उसकी कीर्तन में बड़ी उदास भंगिमा होती है। आंसू बहते नहीं होता-तभी। जब तक मैं होता हूं, अगर मैं चेष्टा से ही हैं। पीड़ा और विरह होती है। कभी भक्त आनंदोल्लास में छलांग लगाऊं, तो परिणाम में कुछ हाथ नहीं आता। लेकिन नाचता है; तब उसकी बड़ी प्रसन्न भंगिमा होती है, वसंत होता नाचते-नाचते एक ऐसी घड़ी आती है कि नाच रह जाता है, नर्तक है, सब तरफ फूल होते हैं! तब उसकी मस्ती देखें! तब उसके नहीं रह जाता। उस क्षण अगर यह छलांग लगती है तो मैं खुद ही चारों तरफ आनंद की किरणें नाचती हैं। कभी प्यास में नाचता चकित होता हूं। मैं बिलकुल हलका, निर्भार हो जाता हूं; जैसे है; कभी तृप्ति में नाचता है। जमीन की कशिश का अहंकार का बड़ा बल हो। है भी। जमीन भक्त की बड़ी ऋतुएं हैं और कीर्तन की बड़ी भाव-भंगिमाएं तुम्हारे अहंकार को ही खींच रही है। जिस दिन तुम्हारा अहंकार | हैं। कीर्तन बड़ी समृद्ध घटना है। जीवन की सभी गहराइयां गया, आकाश खुला है। फिर तुम्हारे लिए जमीन की कोई पकड़ उसमें समाविष्ट हैं, और सभी ऊंचाईयां भी। पहले तो भक्त नहीं है। छिपाता है अपने प्रेम को भीतर। प्रेम का वह अनिवार्य अंग है नृत्य में, गीत में, कीर्तन में, भजन में, डूबा हुआ भक्त ज्ञानियों कि हम उसे किसी को बताना नहीं चाहते। वह कोई तमाशा थोड़े से कहता है: तर दामनी पर शैख हमारी न जाइए-हमारे भीगे ही है! वह कुछ ऐसी बात थोड़े ही है जो दिखलाते फिरें। उसकी दामन पर मत जाइए। दामन निचोड़ दें तो फरिश्ते वजू करें। कोई प्रदर्शनी तो नहीं, कोई नुमाइश तो नहीं! उसे छिपाता है, उसे यह शराब इस जगत की शराब नहीं—यह बेहोशी किसी और हीरे की तरह गांठ में बांधकर रखता है। कबीर कहते हैं : हीरा जगत की बेहोशी है। यह अपने भीतर किसी और जगत को पायो गांठ गठियायो। उसे बिलकुल गांठ में बांध लेता है, किसी निमंत्रण है। भक्त जब कीर्तन में परिपूर्ण लवलीन होता है तब को पता भी नहीं चले, कानों-कान खबर न हो। जीसस ने कहा भक्त नहीं रहता, भगवान ही होता है। तब वह केवल शून्य हो है, 'बाएं हाथ में हो तो दाएं हाथ को पता न चले।' सूफी फकीर गया होता है। और उस शून्य में उतर आती है परम मूर्छा। तुम कहते हैं, 'रात, आधी रात उठकर कर लेना प्रार्थना; तुम्हारी 617 www.jainelibrar org Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1 HER पत्नी को भी पता न चले।' होकर नाचने लगता है और गीत गुनगुनाने लगता है। फिर भक्त पहले तो बड़ा निजी है; लेकिन ज्यादा देर निजी नहीं रहता। तो सिर्फ बांस की पोंगरी है। फिर उसे जो गीत गाना हो गा ले, जब भरने लगता है पात्र तो पात्र ऊपर से बहने लगता है: फिर जो गनगनाना हो गनगना ले। भक्त सिर्फ राह देता है। छिपाए नहीं छिपता, फिर प्रगट होने लगता है। जब प्रगट होने उपकरण-मात्र हो जाता है। की घड़ी आती है, तब भजन कीर्तन बनता है। भक्ति जब तक चलो भाव से! भाव जब सघन होगा तो भजन। और जब भीतर-भीतर, भीतर-भीतर रसधार बहती है तो भजन, जप; भजन फूट पड़ेगा हजार-हजार फूलों में और सुगंध बिखर फिर जब बहने लगती है बाहर, अवश होकर, तुम चाहो तो भी जायेगी लोक-लोकांतर में, तब कीर्तन! रोक नहीं पाते, इतनी ऊर्जा का जन्म होता है कि चारों तरफ फैलने कीर्तन, भक्ति की परम दशा है। लगती है ऊर्जा अपने-आप, तब कीर्तन! कीर्तन भजन की अभिव्यक्ति है। कीर्तन भजन की आज इतना ही। अभिव्यंजना है। तुम भी मजाज इन्सां हो आखिर लाख छुपाओ इश्क अपना ये भेद मगर खुल जायेगा, ये राज मगर इफ्शां होगा। -छिप न सकेगा यह भेद। यह राज मगर इफ्शां होगा। यह पता चल ही जायेगा। प्रेम को कौन कब छिपा पाया! तो प्रेम जब तुम्हारे बिना दिखाए दिखायी पड़ने लगता है, तुम्हारे रग-रोएं में झलकने लगता है, प्रेम की आभा तुम्हें घेर लेती है, तुम्हारी आंखों के पास, तुम्हारे चेहरे के पास एक प्रेम का आभामंडल निर्मित हो जाता है कि कोई चाहे तो छ ले, कि कोई चाहे तो थोड़ा-सा आभामंडल अपनी मुट्ठी में बांध ले, कि कोई चाहे तो तुम्हारे आभामंडल को पी ले-जब आभामंडल इतना वास्तविक हो जाता है तब कीर्तन प्रगट होता है! तो जल्दी मत करना। कीर्तन तो भजन की आखिरी अवस्था है। पहले भजना। भीतर-भीतर-भीतर डुबाना, ताकि जड़ें फैल जायें। फिर एक दिन तुम भी चौंककर दखोगे: तुम भी मजाज इन्सां हो आखिर लाख छिपाओ इश्क अपना ये भेद मगर खुल जायेगा ये राज मगर इफ्शां होगा। तब उन्माद की आखिरी घड़ी आती है। तब तुम्हारे अंतर की कोयल कूक उठती है। तब तुम्हारे अंतर का मोर नाच उठता है! तब फिर चिंता नहीं रह जाती। तब कीर्तन! कीर्तन का अर्थ है: जब भक्ति प्रगट होकर बहने लगी। चैतन्य नाचते हुए, गांव-गांव ढोलक बजाते हुए! मीरा नाचती हुई गांव-गांव। फिर लोक-लाज की चिंता नहीं! फिर सब उपचार छूट जाते हैं। फिर सब उपाधियां गिर जाती हैं। निरुपाधिक! उपचार-मुक्त! भक्त उसके हाथ में कठपुतली 618 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern al www.jaine Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां प्रवचन मोक्ष का द्वारः सम्यक दृष्टि For Privale & Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसणभट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं। सिझंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिझंति।।७१।। सम्मत्तस्स य लंभो, तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो। सम्मदंसणलंभो, वरं खु तेलोक्कलंभादो।।७२।। किं बहणा भणिएणं, जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं ।।७३।। जह सलिलेण ण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पई, कसायविसएहिं सप्पुरिसो।।७४।। उवभोगमिंदियेहिं, दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।।७५।। संवेतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई।।७६।। न कामभोगा समयं उवेति, न यावि भोगा विगई उवेति। जे तप्पओसी य परिग्गही य, से तेसु मोहा विगई विगई उवेई।।७७।। ENT wwwjainelibrar og Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न-दर्शन की चिंतन-धारा के ठीक मध्य के सूत्रों पर | को उपलब्ध न हो सकेगा। । हम आ गये हैं। धार यहां बहुत गहरी है। सिझंति चरियभट्ठा-यह बड़ा अनूठा सूत्र है! महावीर ऊपर-ऊपर से समझेंगे तो चूकेंगे। डुबकी गहरी कहते हैं, चरित्र-विहीन दृष्टिवाला व्यक्ति भी सिद्धि प्राप्त कर लगानी होगी-साहस के साथ और अत्यंत धीरज के सकता है। सिझंति चरियभट्ठा। वह भी पहुंच जायेगा जिसके साथ-तो ही ये सूत्र समझ में आ सकेंगे। पास कोई चरित्र नहीं; सिर्फ दृष्टि हो। और ये उन सूत्रों में से हैं, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं; और दंसणभट्ठा ण सिझंति। लेकिन जिसके पास दर्शन नहीं है, उनमें से भी, जिनका जैनों ने सर्वाधिक गलत अर्थ किया है। वह लाख उपाय करे तो भी न पहुंच पायेगा। चरित्र से ऊपर उनको करना पड़ा गलत अर्थ; क्योंकि अगर इन सूत्रों का ठीक दर्शन के लिए इससे ज्यादा बहुमूल्य सूत्र नहीं हो सकता। अर्थ करें तो जैन जो कर रहे हैं, न कर पाएंगे। एक-एक शब्द को गौर से समझें। अगर ये सूत्र ठीक हैं तो जैन गलत हो जाते हैं और अगर जैनों 'दर्शन से जो भ्रष्ट है, वही भ्रष्ट है।' जिसके पास आंख को अपने को ठीक बनाए रखना है, बताए रखना है, तो इन सूत्रों नहीं, वही भटका है। तुम चरित्र को कितना ही सुधार लो, तुम की गलत व्याख्या करनी जरूरी है। वह जैसे हम सूत्रों में प्रवेश चरित्र को कितना ही अनुशासित, परिमार्जित कर लो; लेकिन करेंगे, स्पष्ट होने लगेगा। अगर यह चरित्र तुम्हारी ही दृष्टि से निष्पन्न नहीं हुआ है, उधार सभी अनुयायियों ने अपने गुरुओं के साथ अनाचार किया है; है, तो इससे मोक्ष न हो सकेगा। तुम सत्य बोलो; क्योंकि शास्त्र कभी-कभी तो सीधा बलात्कार! क्योंकि अगर गुरु पूरा ठीक है कहते हैं, 'सत्य बोलो; सत्यं वद!' इसलिए सत्य बोलते हो। तो अनुयायी को गलत होने का उपाय नहीं छूटता। गुरु के विदा लेकिन प्राणों में असत्य संगृहीत होता है। ऐसा हो सकता है कि होते ही अनुयायी उसके वचनों में जोड़ता है, घटाता है, अर्थ को | तुम जीवन को इस तरह से बांध लो कि असत्य कभी जबान के बदलता है, नये अर्थ बिठाता है, नये रंग डालता है। तब वे काम बाहर न आये। कठिन है, असंभव तो नहीं। जबान आखिर के योग्य हो जाते हैं। तब फिर उनका खतरा समाप्त हो जाता है। जबान है; काबू में रखी जा सकती है। और इतना तो कर ही उनके प्राण ही निकल जाते हैं; निष्प्राण सूत्र रह जाते हैं। सकते हो, अगर काबू में न रहती हो तो चुप हो जाओ, जबान पहला सूत्रः काट ही दे सकते हो। इसलिए बहुत लोग मौन हो जाते हैं। दसणभट्ठा भट्ठा-जो दर्शन से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है। लेकिन मौन से असत्य थोड़े ही मिट जायेगा...! अब असत्य दसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं-और दर्शन से जो भ्रष्ट है, बोलते तो नहीं, लेकिन असत्य अगर बोलने से ही जुड़ा होता तो उसकी कभी निर्वाण की उपलब्धि संभव नहीं है। वह कभी मोक्ष एक बात थी; असत्य तो तुम्हारे प्राणों में बैठा है। न बोलोगे तो 1623 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः1 दूसरों तक न पहंचेगा, लेकिन तुम तो उससे मुक्त न हो जाओगे। संत तो चौबीस घंटे विश्राम में है। विश्राम ही उसकी बोलने से तो अभिव्यक्त होता था, पैदा थोड़े ही होता था! बोलने जीवन-शैली है। लेकिन जिसे तुम संत कहते हो और जिसे से तो केवल प्रगट होता था, जन्मता थोड़े ही था! असत्य तो महावीर के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा सज्जन कहना चाहिए, वह भीतर बैठा है। बोलने से दूसरे को भी खबर मिल जाती थी। भी शिष्टाचारवश...। यह जो तथाकथित संत है यह एक क्षण तो जो व्यक्ति चरित्र को साध लेगा शास्त्र के अनुसार, बिना को भी विश्राम में नहीं है; हो नहीं सकता, क्योंकि यह डरा हुआ स्वयं की दृष्टि के, दूसरों के और उसके बीच के संबंध तो ठीक है। जब भी अपने को ढीला छोड़ेगा, शिथिल करेगा, तो जो दबा हो जायेंगे, वह व्यक्ति नैतिक हो जायेगा लेकिन महावीर रखा है वह गांठ खुलेगी। कहते हैं-धार्मिक नहीं। मोक्ष उसके लिए नहीं है। परम आनंद | तुमने कभी देखा, एक झूठ तुम बोल दो तो फिर तुम शिथिल का द्वार उसके लिए न खुलेगा। वह अच्छा नागरिक हो जायेगा। नहीं हो पाते! क्योंकि तुम शिथिल हुए तो कहीं झूठ निकल न सज्जन हो जायेगा, लेकिन संत नहीं। जाये! तुम कहीं गपशप में, बातचीत करने में भूल गए और कह सज्जन का अर्थ है, जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं दिया किसी से, तो झूठ बोलनेवाला आदमी ज्यादा नहीं बोलता, पहुंचता। लेकिन स्वयं तो सज्जन अपना आत्मघात करता रहता सोच-सोचकर बोलता है। और जो बहुत झूठ बोलता है, वह तो है। जहर किसी पर नहीं फेंकता, लेकिन खुद ही पीता चला जाता चौबीस घंटे सचेष्ट रहता है। है। तो खुद ही के रोएं-रोएं में, रग-रग में, श्वास-श्वास में जिसको तुम सज्जन कहते हो उसने जीवन का सबसे बड़ा झूठ जहर फैल जाता है। तो जिनको तुम सच्चरित्र कहते हो, कभी बोला है—जो उसके भीतर नहीं है वह उसने बाहर करके उनकी अंतरात्मा में भी झांककर देखना; तुम उन्हें दुश्चरित्रों से दिखला दिया है। वह सबसे बड़ी असत्य घटना है। आत्मा में भी ज्यादा जहर से भरा हुआ पाओगे। पाओगे ही, क्योंकि नहीं है वह, आचरण में बतला दिया है। इस बड़े झूठ का दुश्चरित्र तो थोड़ा-बहुत बाहर भी फेंक लेता है; वह तो भीतर ही परिणाम यह होता है कि तुम्हारा सज्जन तो विश्राम ले ही नहीं इकट्ठा किए चले जाते हैं। दुश्चरित्र का तो थोड़ा रेचन भी हो सकता। वह चौबीस घंटे संगीनधारी की तरह अपनी ही छाती पर जाता है, उनका तो कोई रेचन भी नहीं होता। दुश्चरित्र तो ऐसा है पहरा देता है। यह कोई संत की अवस्था न हुई। यह कोई मुक्ति कि श्वास लेता है; जीवनदायी आक्सीजन को पी लेता है, न हुई। यह तो बुरी तरह बंध जाना हुआ। जीवन-विरोधी कार्बन डाय-आक्साइड को बाहर फेंक देता है। महावीर कहते हैं : दसणभट्ठा भट्ठा। भटका वही, जिसके पास लेकिन तुम जिसे सज्जन कहते हो, वह ऐसा है कि कार्बन | आंख नहीं। डाय-आक्साइड को भीतर इकट्ठा किए जाता है फेफड़ों में, बाहर सारा जोर दृष्टि पर है, आंख पर है। नहीं फेंकता। उसके खुद के फेफड़े सड़ने लगते हैं। सज्जन एक तथाकथित चरित्रवान व्यक्ति ऐसा है जैसे कोई अंधा व्यक्ति तरह के आत्मिक कैंसर की दशा में होता है। एक ही रास्ते पर बार-बार आ-जाकर धीरे-धीरे इतना अभ्यस्त इसलिए एक बहुत बड़ा चमत्कार मनोवैज्ञानिकों को अनुभव में हो जाये कि आंख की तो जरूरत ही नहीं होती; लेकिन वह बिना आया है कि गहनतम अपराधियों की आंखों में भी कभी-कभी लकड़ी टेके, बिना किसी का सहारा खोजे, बिना टटोले, बिना बच्चों जैसा निर्दोष भाव होता है। लेकिन तम्हारे तथाकथित संतों पछे, निरंतर उसी रास्ते पर आने-जाने के का की आंखों में नहीं होता। उनकी आंखों में बड़ी जटिलता, बड़ा की वजह से ऐसा चलने लगता है जैसा आंखवाले को चलना गणित, बड़ा हिसाब...! और वे चौबीस घंटे अपने को पकड़े चाहिए। उसे चलते देखकर राह पर शायद तुम भी चमत्कृत हो हुए हैं। क्षणभर को ढीला छोड़ा, तो वह जो बांध रखा है जन्मभर जाओगे। शायद तुम्हें भी शक होगा कि कहीं आंख इस आदमी का जहर वह बिखर सकता है। को मिल तो नहीं गयी। क्योंकि वह ठीक वैसा ही चल रहा है संत क्षणभर को विश्राम नहीं करता। संत के लिए कहते | जैसे आंखवाले चल रहे हैं। लेकिन गहरा फर्क है। यह चलना हैं—कोई छुट्टी नहीं।...तथाकथित संत के लिए! वास्तविक | केवल अभ्यासवश है। यह निरंतर इसी रास्ते पर आने-जाने से 1624 . Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदत हो गयी है। उसे रास्ते का एक-एक पत्थर परिचित है। उसे रास्ते का एक-एक मोड़ परिचित है। वह रास्ते पर चल लेता है, लेकिन चल लेने से कुछ आंख थोड़े ही खुल जाती है। आंख खुलने से चलना हो सकता था; इसने धोखा दे लिया। | जिसको तुम चरित्रवान कहते हो, वह ऐसा ही आदमी है जिसको अभी दिखायी तो नहीं पड़ा, लेकिन सुनकर औरों को, कान का भरोसा करके, अभ्यास कर लिया है। तो लोग अहिंसा का अभ्यास कर रहे हैं। अहिंसा का कोई अभ्यास हो ही नहीं सकता । अहिंसा की तो आंख होती है। प्रेम की एक दृष्टि होती है। प्रेम का एक भाव होता है। प्रेम तो एक नया जन्म है। तुम्हारा हृदय और ही ढंग से देखना शुरू करता है, तब अहिंसा फलित होती है। तब अहिंसा बड़ी जीवंत होती है। तब उस अहिंसा में पुलक होती है, प्रसन्नता होती है। लेकिन तुम दूसरों को सुनकर, लोभ के कारण कि परलोक को सम्हालना है, चरित्र को बना ले सकते हो, अहिंसक हो सकते हो, फूंक-फूंककर पैर रख सकते हो।... . चींटी भी न मरे, लेकिन तुम मर जाओ! तुम सब बचा सकते हो, लेकिन अपने को न बचा सकोगे। और असली बात तो वही थी। दंसणभट्ठा भट्ठा । जिसके पास आंख नहीं है, वही भटका हुआ है : सम्यक दर्शन से जो भ्रष्ट, वही भ्रष्ट । महावीर का वचन बहुत साफ है। दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । और जो दर्शन से भ्रष्ट है, उसका कोई निर्वाण नहीं, उसका कोई मोक्ष नहीं। यहां तक भी जैन को कठिनाई न होगी। आगे जो सूत्र है - सिज्झति चरियभट्ठा, चरित्र - भ्रष्ट भी अगर आंखवाला है तो पहुंच जाता है - यहां अड़चन होगी। तो जैन जब अनुवाद करते हैं, जैन मुनि जब अनुवाद करते हैं, तो वे क्या करते हैं अनुवाद में? वे इस सीधे-साधे वचन का जहां दो शब्द हैं केवल - सिज्झति चरियभट्ठा - जो नहीं भी जानते प्राकृत वे भी कह सकते हैं - सिज्झति चरियभट्ठा - वे भी सिद्धि को पहुंच जाते हैं जो चरित्र - भ्रष्ट हैं। जैन अनुवाद में क्या करते हैं? वे कहते हैं, 'चरित्र - विहीन सम्यक दृष्टि तो चारित्र्य धारण करके सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं।' चारित्र्य धारण करके? इस तरह महावीर को विकृत करने में सुविधा हो जाती है। जैनों को तकलीफ है कि अगर यह बात मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि सही है कि चरित्र - भ्रष्ट व्यक्ति भी, सिर्फ आंख के होने के कारण सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है तो हमारे सारे चरित्र का, जो हमने आयोजन किया है, उसका क्या होगा? तो उसमें दो छोटे-से शब्द जोड़ दिए, कोष्ठक में रख दिए : 'चरित्र - विहीन सम्यक दृष्टि तो (चारित्र्य धारण करके) सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।' यह महावीर ने कहीं कहा नहीं। महावीर का वचन सिर्फ सीधा-साफ है। उन्हें कहना होता तो वे खुद ही कह देते; ये कोष्ठक वे भी लगा सकते थे। सिज्झति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झति । लेकिन दर्शन - भ्रष्ट नहीं सिद्ध होता; चरित्र - भ्रष्ट तो सिद्ध हो सकता है। अब यहां बहुत से सवाल सोचने जैसे हैं। पहली बात : चरित्र - विहीन सम्यक दृष्टि ! इसका अर्थ हुआ, महावीर यह स्वीकार करते हैं कि चरित्र - विहीन भी सम्यक दृष्टि हो सकता है। इसका यह अर्थ हुआ कि चारित्र्य का होना या न होना मौलिक नहीं है । चारित्र्य का होना न होना छाया की भांति है। छाया बन भी सकती है, न भी बने। क्योंकि छाया तुम पर निर्भर नहीं होती। तुम सोचते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारा पीछा करती है - इस भूल में मत पड़ना । छाया तुम पर निर्भर नहीं होती, अन्य कारणों पर निर्भर होती है। छाया तुम्हारी नहीं है, जैसा तुम सोचते हो; सूरज पर निर्भर है। छाया में खड़े हो जाओगे तो छाया खो जायेगी। सूरज सिर पर आ जायेगा, छाया छोटी हो जायेगी। सूरज पीछे होगा, छाया आगे पड़ेगी। सूरज आगे होगा, छाया पीछे पड़ेगी। तुमने सदा यही सोचा है कि छाया मेरी... और गलत सोचा है । छाया से तुम्हारा क्या लेना-देना? अगर सूरज न होगा तो कोई छाया न होगी । छाया तुम पर निर्भर नहीं है, अन्य कारणों पर निर्भर है। अगर तुम्हारे चारों तरफ कई प्रकाश लगा दिये जायें तो कई छायाएं एक साथ बनने लगेंगी। यहां तुम बैठे हो, अगर कोई प्रकाश नहीं तो छाया न बनेगी। चारित्र्य मौलिक नहीं है, और और कारणों पर निर्भर होता है; छाया की भांति है। लेकिन दर्शन मौलिक है । दृष्टि मौलिक है। वह तुम्हारी है। वह किसी सूरज पर निर्भर नहीं है। अंधेरे में भी जब सूरज नहीं होता तब भी तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे पास है। उसी दृष्टि के कारण तो तुम कहते हो, बड़ा घना अंधेरा है! अंधेरा भी तो दिखायी पड़ता है! 625 www.jainelibrary org. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFERH जिन सूत्र भाग: 1मिमी अंधे को अंधेरा भी दिखायी नहीं पड़ता, याद रखना! आमतौर और लगाना चाहिए था—'किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि से लोग सोचते हैं कि अंधा तो बेचारा अंधेरे में ही जीता होगा। प्राप्त नहीं कर सकते हैं'–उसमें भी एक कोष्ठक लगा दो। इस भूल में मत पड़ना। किसी अंधे ने कभी अंधेरा नहीं देखा। 'किंतु सम्यक दर्शन से रहित भी तो (सम्यक दर्शन को प्राप्त जिसने प्रकाश ही नहीं देखा वह अंधेरा देखेगा कैसे? अंधा करके) सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।' तब तो महावीर के अर्थ के अंधेरे में नहीं होता। अंधे को तो पता ही नहीं है कि अंधेरा जैसी सारे प्राण खो गये। फिर कहने की जरूरत क्या है? कोई चीज होती है। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। चरित्र-विहीन चरित्र पाकर सिद्धि पा लेते हैं, तो दर्शन-विहीन प्रकाश के लिए भी आंख, अंधेरे के लिए भी आंख...। दर्शन पाकर सिद्धि पा लेंगे। कहने की जरूरत क्या है? दृष्टि मौलिक है; किसी पर निर्भर नहीं-तुम्हारी है। और कहने का प्रयोजन साफ है। महावीर भेद करना चाहते हैं कि महावीर का यह बड़ा जोर है कि जो तुम्हारा है वही सत्य है; जो दर्शन को उपलब्ध व्यक्ति तो चरित्र के बिना भी मुक्ति को पा तुम्हारा नहीं उधार है, वह असत्य है। लेते हैं। लेकिन जो दर्शन को उपलब्ध नहीं है वह चरित्र पाकर चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। तो भी मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो सकते। महावीर यह कह रहे हैं कि चरित्र कोई मौलिक बात नहीं है, गौण यह इतना सीधा गणित की तरह, दो और दो चार जैसा साफ है। हो तो ठीक, न हो तो भी यह संभव है कि व्यक्ति मुक्ति को है। लेकिन बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं! उपलब्ध हो जाये। लेकिन दर्शन-विहीन कभी मुक्ति को महावीर को तो दर्शन उपलब्ध हुआ। तो जिसको आत्मा मिल उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि वह मौलिक है। गयी वह छाया की फिक्र छोड़ देता है। जिसको आत्मा नहीं अब दृष्टि की इतनी महिमा और चरित्र को ऐसा कचरे में डाल मिली वह छाया की ही चिंता करता है। उसे छाया ही आत्मा देना, महावीर करेंगे—ऐसा जैन सोच ही नहीं सकते। क्योंकि जैसी मालूम पड़ती है। जिसने अपने को देख लिया, फिर वह ढाई हजार साल तक धीरे-धीरे महावीर के वचन तो कम मूल्य के दर्पण में अपनी छवि देखने के लिए थोड़े ही बहुत आतुर होता हो गये हैं; वे जो कोष्ठक लगे हैं, ज्यादा मूल्य के हो गए हैं। वह | है! जिसने अपनी आत्मा देख ली, वह दर्पण में अपनी छवि जो उनकी व्याख्याएं की गयी हैं, वे ज्यादा मूल्य की हो गयी हैं। देखने के लिए कोई चिंता नहीं करता। और अगर दर्पण खो जाये अब जैन मुनि डरे होंगे कि यह तो खतरनाक वचन है। यह तो तो वह पागल नहीं हो उठता कि अब मैं क्या करूं, अब अपने अग्नि जैसा है, जला देगा! इसमें कहीं लोग भटक न जायें। चेहरे को कैसे देखेंगा! जिसने आत्मा देख ली, वह चेहरे को कहीं लोग यह न सोचने लगें कि चरित्र का कोई मूल्य नहीं है! देखने की फिक्र छोड़ देता है। क्योंकि अगर चरित्र का कोई मूल्य नहीं तो जैन मुनि का कोई चारित्र्य तो छाया है। चारित्र्य तो दर्पण में देखा गया प्रतिबिंब मूल्य नहीं है; क्योंकि वह चरित्र के ही मूल्य पर उसका सारा है। चारित्र्य तो अपने और दूसरों के बीच संबंधों से जो दर्पण व्यवसाय है। तो यह कोष्ठक लगा देना जरूरी है। निर्मित होते हैं, उनमें देखी गयी छवि है। वह आत्मा का सीधा यह महावीर के साथ बेईमानी है। यह महावीर के साथ अनुभव नहीं है। बलात्कार है। तुम झूठ बोले-एक तरह का चरित्र निर्मित हुआ। तुम सच 'चारित्र्य धारण करके सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं'-अगर बोले-दूसरे तरह का चरित्र निर्मित हुआ। लेकिन तुम किसी से ऐसा ही था तो कहने की जरूरत क्या है? जैसा जैन मुनि मानते बोले, झुठ या सच-दूसरे की जरूरत पड़ी! अकेले में तुम कैसे हैं, अगर ऐसा ही है, अगर उनका वचन ही महावीर का सच बोलोगे, कैसे झूठ बोलोगे? एकांत में बैठे पहाड़ पर तुम ठीक-ठीक अनवाद है—'चारित्र्य-विहीन सम्यक दृष्टि तो ( कैसे ईमानदार होओगे और कैसे बेईमान होओगे? कोई उपाय न चारित्र्य धारण करके) सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। अगर यही रह जायेगा। दूसरा चाहिए। महावीर को कहना हो तो कहने की जरूरत क्या है? और अगर और जिस चीज के होने में दूसरे की जरूरत पड़ती है उससे यही कहना होता तो फिर दूसरे वचन में भी उन्हें एक कोष्ठक मोक्ष न हो सकेगा; क्योंकि मोक्ष का कुल अर्थ इतना ही है: Jan Edication International Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरा अपने में हो जाना। यह तो पर निर्भर हुआ । महावीर कहते हैं, धिक्कार है परवशता पर! यह तो परवशता ही हुई। यह तो... दर्पण के बिना कोई उपाय न चलेगा। यह तो... अगर मुझे संत होना है तो लोगों के बीच होना चाहिए। और मजे की बात है, जरा खयाल करना ! अगर तुम्हें बड़ा संत होना हो तो लोगों को असंत होना चाहिए, तभी तुम बड़े संत हो सकोगे ! अगर सभी लोग संत हों, तुम्हारा संतत्व खो जायेगा । थोड़ी देर सोचो, कोई ऐसी दुनिया हो जहां सभी राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम हों, तो दशरथ के बेटे राम को कौन पूछेगा ? यह तो पूछ इसलिए चलती है कि ये मर्यादा पुरुषोत्तम अकेले हैं। तो इनकी मर्यादा तुम्हारी अमर्यादा पर निर्भर है। साधु का साधु होना तुम्हारे असाधु होने पर निर्भर है। अगर बहुत गहरे में देखो तो साधु मिट जायेगा, जिस दिन जगत साधु हो जायेगा । तो साधु का निहित स्वार्थ यही है कि जगत साधु न हो जाये, जगत असाधु रहे । नेता तभी तक नेता है जब तक और लोगों को नेता होने का खयाल पैदा नहीं हुआ है। जब तक अनुयायी अनुयायी होने को राजी है, तब तक नेता, नेता है। जिस दिन अनुयायियों ने भी घोषणा कर दी कि हम भी नेता हो गए, उस दिन नेता खो जायेगा। अमीर तभी तक अमीर है, जब तक गरीब है। और | तुम्हारे पास बड़ा महल तभी तक हो सकता है जब तक और लोगों के पास छोटे झोपड़े हैं । तो जैसे बड़ा महलवाला आदमी न चाहेगा कि सभी के पास बड़े महल हो जायें...। यह तो साफ समझ में आता है, अर्थशास्त्र का सीधा नियम है, कि अमीर का मजा उसकी अमीरी में तभी तक है जब तक और लोग गरीब हैं। तुम्हारे पास एक शानदार कार है, तो उसका मजा तभी तक है जब तक दूसरे लोगों पर, राह चलते लोगों पर बरसात में तुम कीचड़ उछालते हुए कार से निकल जाते हो। अगर सभी के पास वैसी गाड़ियां हैं, बात खतम हो गयी ! तुम्हारा सारा मजा इस कार में चला जायेगा। इस कार का मजा कार में न था; दूसरों के पास कार नहीं है, उसमें था । जीवन का जाल बड़ा जटिल है! मेरे एक मित्र हैं कलकत्ते में। मैं उनके घर में कभी-कभी रुकता था । वे बिलकुल पागल थे अपने मकान के लिए। उन्होंने शानदार मकान बनाया था । कलकत्ते में उसकी कोई तुलना न मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि थी। उन्होंने पूरे कलकत्ते को मात कर दिया था। चौबीस घंटे वे मकान के ही खयाल से भरे रहते थे... तो जब भी मैं उनके घर जाता तो मकान, मकान... यह दिखाते, वह दिखाते ! नया स्विमिंग पूल बना डाला । क्या-क्या उन्होंने कर डाला है, वह दिखाते। एक बार जब मैं गया तो उन्होंने मकान की कोई बात न की । और मैं तो पहले से ही तैयार होकर आया था कि वह मकान की बात सुननी पड़ेगी। वे कुछ बोले ही नहीं मकान पर और कुछ बड़े उदास दिखे, उत्साह भी कुछ ढीला मालूम पड़ा, कुछ सुस्त से मालूम पड़े। सांझ होते-होते मैंने पूछा, 'मामला क्या है ? मकान का क्या हुआ ?' उन्होंने कहा, 'वह बात ही मत उठाओ!' मैंने कहा, 'कुछ तो बात होगी। तुम उदास भी हो। वह सदा की प्रफुल्लता, मकान की चर्चा, कुछ नया किया, कुछ नया बनाया - वह सब हुआ क्या?' वे मुझे हाथ पकड़कर बाहर लाए पड़ोस में, कहा कि वह देखो! एक आदमी ने उनसे बड़ा मकान बना लिया ! वे बोले, जब तक इसको मात न कर दूं, तब तक अब क्या बात करना ! मन बड़ा दुखी रहने लगा। अभी सुविधा भी नहीं है कि इतना ऊंचा उठा लूं। मात हो गया हूं! मैंने कहा कि तुम्हारा मकान वैसा का वैसा है। इस पर किसी ने छुआ भी नहीं है। कुछ घटा नहीं, कुछ बिगड़ा नहीं; सब सुंदर है। लेकिन पास के आकाश में एक नया मकान खड़ा हो गया ! किसी ने तुम्हारी लकीर के पास बड़ी लकीर खींच दी - तुम्हारी लकीर को छुआ भी नहीं है, तुम अचानक छोटे हो गये ! तो मैंने उनसे कहा, अब तुम यह तो सोचो, तो यह मजा तुम जो अपने मकान में ले रहे थे, अपने मकान का मजा न था; वह जो झोपड़े पास में थे, उनका मजा था। तो तुम्हारी अमीरी किसी के गरीब होने में निर्भर है। और वही बात तुम्हारे साधु के संबंध में भी सच है । अगर दुनिया से असाधु खो जाये तो तुम्हारा साधु... फिर कौन उसे मंदिरों में विराजमान करेगा? कौन उसके सामने पूजा के थाल सजायेगा ? कौन अर्चना के दीप उतारेगा ? वह खो जायेगा । इसलिए साधु कहता तो यही है तुमसे कि सब साधु बनो; लेकिन उसकी अंतर्तम की प्रार्थना यही होती है कि हे प्रभु, इन सबको साधु मत बना देना! उसकी हालत, जिसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं 'पेराडाक्सिकल इंटेशन', विरोधाभासी आकांक्षा की है। जैसे चिकित्सक के पास तुम जाते हो... तुमने कभी खयाल 627 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जिन सूत्र भाग: HTTER किया? अगर तुम्हारी जेबें भरी हों तो बीमारी के ठीक होने में रहें।' उसने कहा, 'जरूर प्रार्थना करेंगे, क्यों न प्रार्थना करेंगे। ज्यादा देर लगती है। इस अर्थ में गरीब आदमी सौभाग्यशाली रोज यही प्रार्थना करेंगे कि तुम्हारा धंधा...लेकिन यह तो बताओ है। अगर तुम बहुत अमीर हो और एक दफे बीमार पड़ गए, तो तुम्हारा धंधा क्या है?' उसने कहा, अब यह मत पूछो, अन्यथा पड़ गए, अब तुम ठीक न हो सकोगे। क्योंकि चिकित्सक की तुम प्रार्थना न कर पाओगे। मैं मरघट पर लकड़ियां बेचता हूं। विरोधाभासी आकांक्षा है। वह तुम्हारी बीमारी पर जीता है और लोग मरते रहें, लकड़ियां बिकती रहें, तो मैं आता रहूं। मेरा धंधा तुम्हें स्वस्थ करने का आयोजन कर रहा है। उसका सारा जीवन चले...। तुम बीमार रहो, इस पर निर्भर है। और उसकी सारी चेष्टा इस अब कुछ हैं जो मरघट पर लकड़ियां बेचते हैं, उनका धंधा ही पर निर्भर है कि तुम ठीक हो जाओ। यह विरोधाभासी बात है। यही है कि लोग मरें। मैंने सुना है, एक डाक्टर का बेटा कालेज से वापिस लौटा एक गांव में एक नया-नया इंस्पेक्टर आया। वह दिनभर बैठा डाक्टर होकर। तो बाप बहुत दिन का थका था और विश्राम न रहा। कपड़े-लते सजाकर, बैल्ट इत्यादि, जूते इत्यादि बांधकर लिया था, तो उसने कहा, 'मैं सात दिन के लिए छुट्टी पर चला दिनभर बैठा रहा। बार-बार चौंककर देखे; लेकिन कोई घटना जाऊं, पहाड़ चला जाऊं। अब तू घर आ गया है, तू सम्हाल ही न घटी दिनभर। न कोई चोरी हुई न कोई डाका पड़ा, न कहीं ले।' सात दिन बाद जब बाप लौटा तो बेटे ने उसे बड़ी खुशी से कोई हत्या हुई, न किसी ने आत्महत्या की, न कोई दंगा-फसाद दरवाजे पर कहा कि पिताजी, जिस सेठानी को आप बीस साल हुआ, न कोई हिंदू-मुसलमान मरे, कुछ भी न हुआ। वह जरा में ठीक न कर पाए उसे मैंने पांच दिन में ठीक कर दिया! बाप ने उदास होने लगा। सांझ होने लगी तो उसका चेहरा एकदम फीका सिर ठोक लिया और उसने कहा, 'नासमझ ! उसी की वजह से पड़ने लगा। तू कालेज में पढ़ सका और उसी पर आशा थी कि और बच्चे भी उसके मुंशी ने कहा, 'आप घबड़ाओ मत! मुझे मनुष्य के पढ़ लेंगे। उसे ठीक करना ही नहीं था। यह तूने क्या किया? स्वभाव पर पूरा भरोसा है। ठहरो, कुछ न कुछ होकर रहेगा। तूने सारा खेल खराब कर दिया।' अभी रात पड़ी है। तुम इतने उदास क्यों हुए जा रहे हो?' चिकित्सक दिखाता है तुम्हें ठीक करने की चेष्टा। शायद खुद ___ अब वह जो चोर को पकड़ने पर जीता है, वह पकड़ता चोर को भी मानता है कि तुम्हें ठीक करना चाहता है। शायद खुद के है, लेकिन प्रतीक्षा करता है कहीं चोरी हो। वह जो न्यायाधीश है. चेतन में कहीं कोई बात भी नहीं है; तुम्हें ठीक ही करने का वह सजा देता है हत्यारों को, लेकिन उसका सारा होना उन्हीं के आयोजन करता है। लेकिन अंतस-चेतन में, गहरे अनकांशस होने पर निर्भर है। उन्हीं की साझेदारी में वह न्यायाधीश है। में...अगर उसके हम अंतस-चेतन को खोल सकें तो कहीं तो जीवन के इस व्यंग्य को समझना। यह बात छिपी होगी कि लोग बीमार रहें, बीमार रहें तो ही तो वह साधु तुमसे कहे चला जाता है कि क्या तुम असाधु बने हो, जी सकता है। | बनो साधु! बनना भर मत, अन्यथा वह नाराज हो जाएगा। एक एक रात एक मधुशाला में बड़ा उत्सव रहा। एक आदमी साधु दूसरे साधु से प्रसन्न थोड़े ही है! एक साधु दूसरे साधु से पहली दफे अपने मित्रों को लेकर आया था और उसने खूब रुपये बड़ा अप्रसन्न है। तुम असाधु हो, इससे वह खुश है। उसकी उछाले, खूब पीया-पिलवाया। मधुशाला का मालिक भी चकित साधुता, उसका ऊंचा सिंहासन तुम्हारी छाती पर लगा है। अगर हो गया! ऐसा दिलदार उसने कभी देखा न था! और जब आधी वास्तविक रूप से किसी दिन दुनिया धार्मिक हो जायेगी तो न रात वे जाने लगे, हजारों रुपये लुटाकर, तो उसने अपनी पत्नी से असाधु रह जाएंगे, न साधु रह जाएंगे। कहा कि ऐसे ग्राहक रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में हम साधु का सारा बल इसमें है कि उनके पास चरित्र है और तुम्हारे मालामाल हो जायेंगे। चलते-चलते उसने अपने इस ग्राहक को पास नहीं है। उसने कुछ करके दिखा दिया है जो तुम नहीं कर कहा कि कभी-कभी आया करें। उस ग्राहक ने कहा, 'प्रार्थना पाए; भला वह करना बिलकुल मूढ़तापूर्ण है। भला वह इस करो हमारे लिए कि हमारा धंधा ठीक चलता रहे तो हम आते तरह का मूढ़तापूर्ण हो कि एक आदमी रास्ते पर शीर्षासन Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P R मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि INTERNET लगाकर खड़ा हो जाता है। अब इसमें कुछ गुण नहीं है, लेकिन है कि ये किस तरह के लोग हैं जो इस तरह का काम करते हैं। भीड़ लग जायेगी। लोग पैसे भी चढ़ाने लगेंगे। क्योंकि तुम और एक बड़ी हैरानी का नतीजा आया और वह यह कि ये उसी शीर्षासन लगाकर घंटों नहीं खड़े रह सकते। बस इतना काफी तरह के लोग हैं जिस तरह के लोगों को ये पकडते हैं। ये है। कोई आदमी छत्तीस घंटे साइकिल पर चढ़ा हुआ चक्कर साधु-चरित्र लोग नहीं हैं। गाता रहता है। उसको भी पैसे मिल जाते हैं, उसके भी जो आदमी, दो आदमी लड़ रहे हैं इनके बीच में कद पड़ता है, अखबार में फोटो छप जाते हैं। कुछ अर्थ नहीं है। छत्तीस घंटे या यह क्रोधी आदमी है, यह खुद भी हत्या कर सकता है। वही छत्तीस जन्म भी साइकिल पर चढ़े रहो-क्या सार है? लेकिन हत्या की जो वृत्ति है, वही इसे बीच में कुदा देती है। यह कोई जो दूसरे नहीं कर सकते, वह किसी ने कर दिया-बस काफी साधुता के कारण बीच में नहीं कूदता। यह कोई दया के कारण है, उसका सम्मान होना शुरू हो जाता है। नहीं कूदता। और एक बड़े मजे की बात समझ में आयी है और तुम्हारे साधुओं के सम्मान में तुमने देखा! वह यह, कि इसको इससे मतलब नहीं होता कि वह जो आदमी किसी ने तीन महीने का उपवास किया-बस तुम सम्मान से पिट रहा है उसको बचाये; इसको मतलब होता है, जो पीट रहा भर गए। यह तीन महीने साइकिल पर सवार रहने से ज्यादा भिन्न है उसको पीटे। इसकी जो एम्फेसिस है, इसका जो जोर है, वह बात नहीं है। या किसी ने अपने शरीर को सुखाकर हड्डियां कर इस पर नहीं रहता कि जो पिट रहा है उसको बचाए। उसके प्रति लिया-तुम प्रभावित हो गये! या किसी ने अपने बाल-बच्चों तो इसके मन में भी यह है कि यह तो गया-गुजरा आदमी है, यह को, घर-गृहस्थी को, सबको छोड़कर, उजाड़कर जंगल में खड़ा कोई मतलब का आदमी है! यह तो जो पीट रहा है उसके पीट के हो गया-बस तुम चले पूजा के फूल लेकर! यह तुम नहीं कर दिखा दे, उस चेष्टा में रहता है। पाते हो, तो तुम सोचते हो, तुम कमजोर हो और इस आदमी ने एक आदमी ने कार का धक्का मारा एक स्त्री को शिकागो में। कर लिया! | वह बूढ़ी औरत गिर पड़ी। और दूसरा आदमी जो मोटर साइकल अभी अमरीका में अपराधियों और अपराधियों से जूझ पर चढ़ने के लिए तैयार ही था, उसने उस कार का पीछा किया। जानेवाले लोगों के संबंध में मनोवैज्ञानिक अध्ययन चलता है। कोई दस मील की दौड़-धूप के बाद उसने उस आदमी को पकड़ बड़े हैरानी के नतीजे हाथ में आये हैं। अकसर तुमने देखा होगा लिया। और पकड़ने के लिए उसको गोली चलानी पड़ी और कि कोई आदमी डूब रहा है या किसी घर में आग लग गयी है दूसरे आदमी के कार के टायर छेद डालने पड़े गोली से, तब वह कोई बच्चा अंदर छूट गया है, तो हजारों की भीड़ लगी रहती है, पकड़ पाया। इस बीच वह महिला मर गयी। उससे जब पूछा हजारों लोग खड़े रहते हैं; कोई एकाध ही होता है जो उछलकर गया कि जब यह महिला गिरी तो तेरे सामने दो विकल्प थे कि या और मकान में दौड़ जाता है, आग का खतरा है, खुद की जान तो तू इस महिला को उठाकर अस्पताल में पहुंचाता तो शायद यह खतरे में डालता है, बच्चे को निकाल लाता है। अखबारों में बच जाती; लेकिन तूने उसकी तो फिकर ही न की, तू जान खबर छपेगी, सत्कार होगा, स्वागत होगा! लोग कहेंगे, बहुत जोखिम में लगाकर इस आदमी के पीछे पड़ गया और इस बहादुर है! बहुत गजब का आदमी है। साधु-चरित्र है ! दयावान आदमी को तूने पकड़ा दिया। है! करुणावान है। ऐसे बहुत-से अध्ययन किए गए और पाया गया कि जब दो कोई नदी में डूब रहा है, कोई बचा लेता है। या रास्ते पर किसी आदमी लड़ रहे हों तो जो आदमी कूद पड़ता है उसको पिटनेवाले आदमी ने किसी दूसरे पर हमला किया; अनेक लोग गुजर जाते से कोई सहानुभूति नहीं होती; उसको पीटनेवाले से ईर्ष्या होती हैं, लेकिन एक आदमी बीच में कूद पड़ता है और हमलावर को है। वह उसे कुछ करके दिखा देना चाहता है। वह यह कह रहा पकड़ लेता है या पुलिस को पकड़ा देता है या हमलावर को काबू है कि मेरे रहते कौन किसको पीट रहा है! वह जो आदमी आग में कर लेता है या हत्यारे को पकड़ लेता है-अपनी जान जलते मकान में कूद पड़ता है, उसको शायद आग में पड़े हुए जोखिम में डालकर। तो अमरीका में एक अध्ययन किया जा रहा बच्चे से कुछ लेना-देना नहीं होता; लेकिन यह उसके अहंकार www.jainelibrarong Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 11 के लिए बर्दाश्त के बाहर है कि कोई और कूद जाये। और कई लोग वही के वही हैं। लोग वैसे के वैसे हैं। महावीर को बार ऐसा हुआ है कि दो आदमी एक साथ कूद गये और जो बच्चे मारा-पीटा, गांवों से निकाल दिया, गांवों में ठहरने न दिया, वर्षों को बचाकर ले आया और दूसरा खाली हाथ लौटा, तो उसकी | उनको जंगलों में बिताने पड़े। नग्नता बड़ी बेचैन करनेवाली बात निराशा देखो! बच्चे के बचने से कोई प्रयोजन नहीं है-कौन थी। जब कोई आदमी समाज में नग्न खड़ा हो जाता है तो सभी बचा लाया! किसने अपने अहंकार को तृप्त कर लिया! आदमी कपड़े पहननेवाले लोगों को कष्ट होता है। क्योंकि वह आदमी बड़ा उलझा हुआ है! नग्न होकर किसी गहरे अर्थ में तुमको भी नग्न कर देता है। जब तो जैन साधु, जो व्याख्या कर रहे हैं, उस व्याख्या में महावीर एक आदमी नग्न खड़ा हो जाता है तो तुमने जो-जो छिपा रखा है से प्रयोजन नहीं है। उस व्याख्या में स्वयं को और स्वयं के पूरे वस्त्रों में वह सब उसने उघाड़ दिया है। तुम भी उसी जैसे हो, व्यवसाय को बचा लेने की आकांक्षा है। थोड़े-बहुत विस्तार के फर्क होंगे। कोई ज्यादा फर्क तो है नहीं। ये कोष्ठक बहुत खतरनाक हैं। महावीर का वचन सीधा है: वही सब तुम भी हो, जो वह आदमी है। उसे नंगा देखकर तुम सिझंति चरियभट्ठा। चरित्र-विहीन सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। भी नग्न हो जाते हो; तुम्हारे वस्त्रों का उसने सारा अर्थ गंवा सिद्धि का कोई संबंध चरित्र-भ्रष्ट होने या चरित्रवान होने से नहीं दिया। तुम अपने को छिपाकर चल रहे थे। अगर तुम अपने को है। सिद्धि का संबंध दर्शन की शुद्धि से है; दृष्टि की सुघड़ता से खुद ही कहीं नग्न पा लो तो पहचान न सकोगे बिना कपड़ों के। है; दृष्टि की निर्मलता से है। दो छोटे बच्चे एक नग्न क्लब के पास से गुजरते थे और अब महावीर का यह वचन यह भी कहता है कि चरित्रहीन भी दीवाल में से पानी निकलने के छेद में से उन्होंने अंदर देखा। सम्यक दृष्टि हो सकता है, और चरित्रवान भी दृष्टि-विहीन हो | छोटे बच्चे, स्कूल से लौटते हुए! जब एक देख चुका तो दूसरा सकता है। जो खड़ा था और देखने की प्रतीक्षा कर रहा था कि तुम हटो तो मैं शुभ होगा अगर तुम चरित्रवान और दृष्टिवान दोनों होओ। देखू, उसने पूछा, 'कौन है अंदर?' उसने कहा, 'कहना यह तो अच्छा ही होगा। यह तो सोने में सुगंध हो जायेगी कि मुश्किल है। सब बिना वस्त्र के हैं।' उसने पहले ने पूछा, तुम्हारे पास दृष्टि भी है और आचरण भी। 'स्त्रियां हैं कि पुरुष?' उसने कहा, 'अब कैसे बताऊं? कोई और अकसर तो दृष्टि होती है तो आचरण होता ही है; आ ही वस्त्र पहने ही हुए नहीं है।' जाता है; लाना नहीं पड़ता। हमारा तो स्त्री-पुरुष का भेद भी करीब-करीब वस्त्र में है। लेकिन फिर महावीर ऐसा क्यों कहते हैं कि चरित्र-विहीन छोटे बच्चों को तो स्त्री-पुरुष में यही भेद दिखाई पड़ता है कि सम्यक दृष्टि भी पहुंच सकता है? वे यह कह रहे हैं कि बहुत अलग-अलग पकड़े पहने हुए हैं। गरीब-अमीर का भेद भी बार ऐसा होता है कि जो तुम्हारा चरित्र है, वह दूसरों को चरित्र न वस्त्रों में है। तुम जरा देखो! एक मजिस्ट्रेट को और चोर को मालूम पड़े; क्योंकि दूसरों की धारणाएं अनिवार्य रूप से, दर्शन दोनों को नग्न खड़ा कर दो-फिर कौन मजिस्ट्रेट है, कौन चोर से जो चरित्र पैदा होता है, उससे मेल खाएं न खाएं। इसे है? मुश्किल हो जायेगी। वह तो सारा भेद वस्त्रों का है। समझना। जिसके पास दृष्टि है, वह दीवाल से क्यों निकलने की इसलिए पुराने दिनों से मजिस्ट्रेट को खास ढंग से विग पहनाया कोशिश करेगा? वह तो दरवाजे से निकलेगा ही। लेकिन यह जाता है। वह न केवल वस्त्रों से काम चलता है, वह सिर पर हो सकता है कि उसे जो दरवाजा मालूम होता है वह तुम्हें दरवाजा बालों का एक विग भी लगा ले, ताकि आदमीयत बिलकुल खो न मालूम होता हो, देखनेवालों को न मालूम होता हो। जाये, कुछ पता न चले। वकील काले चोगे में खड़े हो जाते हैं। महावीर जब नग्न खड़े हो गये, तो अनेकों को लगा, यह तो विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समारोह होते हैं और बड़े-बूढ़े भी बात अनैतिक है, यह तो चरित्रहीनता है। तुम यह मत सोचना बचकानी हरकतें करते हैं; चोगे पहन लेते हैं, उनमें खड़े हो जाते कि आज जब रास्ते पर कोई आदमी नग्न खड़ा हो जाता है तो तुम हैं। लेकिन वही भेद है, नहीं तो उपकुलपति कुलपति कौन; सोचते हो चरित्रहीनता है; उस दिन भी यही लोगों ने सोचा था। चांसलर, वाइसचांसलर कौन? मुश्किल हो जायेगा पहचान . Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना । इसलिए हम कपड़ों पर बड़ी जिद्द करते हैं। अगर कोई आदमी रास्ते पर पुलिसवाले के कपड़े पहनकर निकल पड़े तो फौरन पकड़ लेंगे उसको कि यह तुम क्या कर रहे हो, क्योंकि इससे फर्क कम हो जाता है। तुमने कभी पुलिसवाले को वर्दी के बिना देखा ? लज्जत ही खो जाती है, शान ही चली जाती है! वही आदमी जब अपनी वर्दी में खड़ा होता है, तब देखो। तब एक शान आ जाती है ! 'कर्नल राज' वहां बैठे हुए हैं, सिर छिपाए हुए हैं। उनको संन्यासी के वेश में देखो और जब वह मेजर, कर्नल के वेश में होते हैं, तब देखो! तब बात ही और बदल जाती है ! आदमी चलता और ढंग से है जब कपड़े कर्नल के होते हैं। उसके पैरों की आवाज, उसके जूतों की चरमराहट, उसके कपड़ों की शिकन, सब बदल जाती है। आदमी का थोड़ा हमें हिसाब है, हमें हिसाब तो कपड़ों के हैं। कहते हैं गालिब को बहादुरशाह ने निमंत्रित किया था भोजन के लिए ! वह गरीब आदमी था, अपने साधारण कपड़ों को पहने चला गया। मित्रों ने कहा भी कि इन कपड़ों में तुम्हें कोई दरबार में प्रवेश न करने देगा। पर उसने कहा कि निमंत्रण मुझे मिला है कि कपड़ों को ?... जिद्दी ! नहीं माना गया। जब द्वारपाल को जाकर उसने कहा कि मुझे भीतर जाने दो, तो द्वारपाल ने धक्का | देकर उसे हटा दिया। उसने कहा कि "भिखमंगों के लिए राजमहल में निमंत्रण !... दिमाग खराब गया है?' उसको तो भरोसा ही नहीं आया कि यह दुर्व्यवहार...! उसने खीसे से निमंत्रण-पत्र निकालकर दिखाया तो उसने झपट्टा मारकर वह भी छुड़ा लिया। उसने कहा, 'किसी का चुराया होगा ! किसका उठा लिया ?" वह बेचारा गालिब घबड़ाया, घर वापिस लौट आया। मित्रों ने कहा, 'हमने पहले कहा था, हम जानते थे। हम कपड़े ले आये हैं।' तो उन्होंने अचकन वगैरह पहना दी। ठीक-ठाक कपड़े | पहना दिए, जूते नये पहना दिए । और जब यह आदमी वापस गया तो वही द्वारपाल झुककर नमस्कार किया कि आइये! तुम हंसना मत द्वारपाल पर, तुम भी होते तो यही करते। फिर जब | भोजन के लिए बैठे तो बहादुरशाह ने ... तो गालिब का बड़ा सम्मान था उसके मन में। वह भी कवि था, बहादुरशाह भी कवि था। और गालिब की कविता का तो क्या कहना ! वैसे उस्ताद तो मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि बहुत कम हुए हैं! तो उसने तो अपने पास ही बिठाया। और जब गालिब भोजन करने लगा तो उसने पहले उठायी मिठाई, अपने कोट को कहा कि ले खा, टोपी को लगाया कि ले खा! तो बहादुरशाह को कुछ लगा कि कवि पागल होते हैं, यह तो ठीक है; लेकिन इतने होते हैं, यह नहीं सोचा था । उसने कहा, 'क्षमा करें! आप यह क्या कर रहे हैं? यह कौन-सी शैली है भोजन करने की ?' गालिब ने कहा, 'मैं तो पहले भी आया था। मैं तो लौटा दिया गया, मैं फिर आया ही नहीं। ये तो अब वस्त्र आए हैं। यह भोजन इन्हीं के लिए है। इन्हीं को प्रवेश मिला है, मुझे तो प्रवेश नहीं मिला। मैं तो बाहर से ही लौट गया हूं। वह तो पहरेदार ने धक्का दे दिया। तो जिनकी वजह से मैं भी पीछे-पीछे चला आया हूं, क्योंकि मजबूरी थी, मेरे बिना ये वस्त्र कैसे आते, ये मेरे बिना आते ही नहीं और इनके बिना मैं नहीं आ सकता था, तो जिनके कारण आ गया हूं छाया की तरह, उनको तो पहले भोजन करा दूं।' महावीर जब नग्न खड़े हो गए तो उन्होंने तुम सबको नग्न कर दिया; उन्होंने सबके वस्त्र उघाड़ दिए। बड़ी अनैतिकता मालूम पड़ी लोगों को यह आदमी तो खतरनाक है ! इसको कौन चरित्रवान कहेगा ? यह कैसी मर्यादा ? यह तो मर्यादा छोड़ना है, यह तो स्वच्छंदता है। इसलिए महावीर कहते हैं कि सम्यक दृष्टि तो अनिवार्यरूपेण आचरणवाला होता है, लेकिन उसका आचरण समाज की तथाकथित धारणा से मेल खाए न खाए। इसलिए वे कहते हैं, कि अगर न भी मेल खाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता । सिज्झति चरियभट्ठा। वह जिसको लोग सोचते हैं चरित्र - भ्रष्ट, वह भी केवल दर्शन के सहारे मुक्त हो जाता है, सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है। किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए जो पाना है, जो खोजना है, वह दृष्टि है, वह देखने का ढंग है; वह साफ-सुथरी आंख है; वह निर्मल भाव - दशा है। आंख पर कोई विचार न रह जाये। आंख पर कोई धारणा न रह जाये। आंख पर कोई पक्षपात न रह जाये। आंख ऐसी निर्मल हो, पारदर्शी हो कि जो है, जैसा है, वैसा दिखाई पड़ने लगे- बस पर्याप्त है। उसके पीछे ज्ञान अपने से आ जाता है, चारित्र्य अपने से आ जाता है। लेकिन यह चारित्र्य जरूरी नहीं है 631 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Radस THARURE जिन सूत्र भाग: 1EEEELATERALI कि समाज की सम्मत मान्यताओं के अनुकूल हो। यह तुम्हारी बदल लेना, लेकिन तुम धार्मिक व्यक्ति को नहीं बदल सकते। दृष्टि के अनुकूल होगा। लेकिन जिसके पास दृष्टि है वह चिंता धार्मिक व्यक्ति के साथ तुम संसर्ग में आए तो या तो तुम बदलोगे भी नहीं करता कि उसके चरित्र को आदर मिलता है या नहीं। या तुम दुश्मन हो जाओगे, लेकिन धार्मिक व्यक्ति नहीं जिसके पास दृष्टि है वह तुम्हारे मत का कोई विचार नहीं रखता बदलता। कोई उपाय नहीं। इसलिए नहीं कि धार्मिक व्यक्ति कि तुम क्या सोचते हो। तुम्हारे सोचने पर, तुम्हारी धारणाओं जिद्दी होता है; इसलिए नहीं कि हठाग्रही होता है बल्कि पर, तुम्हारी प्रशंसा और निंदा पर उसके चरित्र के आधार नहीं | इसलिए कि उसकी दृष्टि उसे जहां दरवाजा दिखाती है वहीं जाता होते। उसके चरित्र के आधार अपनी अंतर्दृष्टि पर होते हैं। अगर है। तुम जहां दरवाजा बताते हो वहां उसे दीवाल दिखाई पड़ती वह अकेला भी है और सारा संसार भी उससे भिन्न सोचता है तो है। वह अंधों की बात नहीं मानता तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। भी वह मस्त है। इसमें जिद्द क्या है? अगर अंधों की एक भीड़ हो और 'अर्श' सुनता नहीं किसी की बात आंखवाला आदमी हो और अंधों की भीड़ कहे, तम गलत चल हाल में अपने मस्त है शायद। रहे हो...। -वह अपनी मस्ती में होता है। वह उन्मत्त होता है अपने मैंने सुना है, एच. जी. वेल्स की एक कहानी है कि मैक्सिको आनंद में। में एक छोटी-सी घाटी है जहां सभी अंधे हैं। क्योंकि वहां के 'अर्श' सुनता नहीं किसी की बात पानी में और भूमि में कुछ ऐसे तत्व हैं कि बच्चे पैदा होते हैं और हाल में अपने मस्त है शायद। पैदा होते से ही महीने दो महीने के भीतर उनकी आंखों की ज्योति तो महावीर कोई चिंता नहीं करते कि तुम किसे आचरण कहते चली जाती है। एक आदमी, आंखवाला, उस घाटी में पहुंच हो। महावीर को जो आचरण दिखाई पड़ता है, वह घटता है। गया। वह तो चकित हुआ। वह तो विश्वास न कर सका कि और ऐसे बलशाली पुरुष ही, आचरण के नये मापदंड, नये | कोई सैकड़ों आदमी अंधे हैं, एक भी आंखवाला नहीं। उसे बड़ा प्रतिमान दे जाते हैं। ऐसे बलशाली पुरुष ही, ऐसे महावीर ही उनसे प्रेम हो गया। वह उनके बीच रहने भी लगा। वह एक आचरण की नयी-नयी सझें, नये-नये आकाश खोल जाते हैं। युवती के प्रेम में पड़ गया। अब तक तो बात ठीक थी कि वह तो नग्नता को भी आचरण दे दिया। नग्नता महावीर के साथ अजनबी था और उलटी-सीधी बातें करता था—ऐसा अंधे जुड़कर निर्दोष हो गयी। लोग वस्त्रों में भी इतने सुंदर नहीं हैं, सोचते थे-आंख की, रंग की, रोशनी की, इंद्रधनुषों की, फूलों जितने महावीर अपनी नग्नता में सुंदर थे। लोग वस्त्रों में छिपकर की, हरियालों की... ! और जब भी अंधे उससे पूछते तो कुछ भी, वस्त्रों में ढंके हुए भी इतने सुगंधपूर्ण नहीं हैं, जितने महावीर समझा तो नहीं पाता। अंधे पूछते कि दिखाओ, 'हरियाली कैसी अपनी नग्नता में थे। महावीर की नग्नता शुद्ध निर्दोष बालपन हो है? समझाओ, हरियाली कैसी है?' तो क्या समझाता! गयी, छोटे बच्चे की नग्नता हो गयी। | 'समझाओ इंद्रधनुष, किसकी बात कर रहे हो तुम, कहां है? महावीर इस जगत में नग्नता के निर्दोष होने के पहले प्रमाण हैं, | हम छूकर देखना चाहते हैं!' वृक्षों को छू भी लेते तो हरियाली तुम्हारे साथ तो वस्त्र भी गंदे हो जाते हैं; महावीर के साथ तो तो छूने से हाथ में समझ में नहीं आती। तो वे हंसते। वे कहते, नग्नता भी पवित्र हो गयी। ऐसे वीर पुरुष ही जीवन को नये कोई पागल आ गया है। स्वभावतः भीड़ उनकी थी। प्रतिमान, नयी गतियां, नये आयाम, नये क्षितिज, नये आकाश | लोकतांत्रिक दृष्टि से वही सही थे। संख्या उनकी थी। यह देते हैं। इसलिए धार्मिक व्यक्ति अनिवार्यरूपेण विद्रोही होता | अकेला था, वे सब थे। अब तक तो कोई बात न थी, लेकिन है-होगा ही। क्योंकि तुम्हारी पिटी-पिटायी, सड़ी-सड़ायी | जब वह एक लड़की के प्रेम में पड़ गया तो जरा उस वादी के लोग धारणाएं हैं। तुम रखो अपने पास! वह तुम्हारी धारणाओं के हैरान हुए। उन्होंने कहा, अब जरा मुश्किल है। अगर यह अनुकूल अपने को ढांचे में नहीं ढालता। वह तो अपनी दृष्टि के आदमी विवाह करना चाहता है तो इसे हमारे जीवन के अनुकूल जीता है। अगर तुम्हारी मर्जी हो तो अपनी धारणाओं को रीति-नियम स्वीकार करने होंगे। और पहला रीति-नियम यह है Main Education International Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WEEK मोक्ष का द्वार : सम्यक दष्टि AUTA कि हम आंखों को नहीं मानते और हम मानते हैं कि आंखें सब अब न करेंगे। कहते हो कि क्रोध जलाता है। कहते हो कि क्रोध झूठ हैं। तो इसको इस झूठ का खयाल छोड़ना पड़ेगा। इसको जहर है, लेकिन ये शब्द उधार हैं। ये सब शास्त्र से सुने हैं। ये यह खयाल छोड़ना पड़ेगा कि यह आंखवाला है। और जो उसमें किन्हीं जाननेवालों ने कहे होंगे, लेकिन यह तुमने जाना नहीं है। बहुत उत्साही थे, उन्होंने कहा कि इसकी आंख का आपरेशन कर क्योंकि तुम जान लो तो जैसे आग में कोई जल जाये, तो दुबारा दें। यह जहां बताता है, आंखें हैं, उनको निकालकर अलग कर हाथ नहीं डालता-ऐसे ही तुम दुबारा क्रोध न करते। लेकिन दें; ठीक हम जैसा हो जायेगा। तुम दुबारा फिर क्रोध करते हो। बड़ी मुश्किल में पड़ गया वह आंखवाला आदमी। युवती से वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम मुझको प्रेम भी था तो आधा मन वहां खिंचा। फिर आंखें खो देना और आप जाना उधर और आप ही हैरा होना। आंखों के साथ सारा रंग, सूरज के सारे खेल, चांद-तारों की पूरी अजीब चक्कर है! लेकिन अगर समझो तो एक सूत्र है जिससे दुनिया-यह दांव बड़ा था। एक रात वह भाग खड़ा हुआ। सारी बात साफ हो जाती है: तुम कान से जीये हो अब तक, दूसरे दिन सुबह वह उसकी आंख की शल्यक्रिया करनेवाले थे। आंख से नहीं जीये। 'कानों सुनी सो झूठ सब।' कान से सत्य वह वहां से भाग निकला क्योंकि यह बड़ी कीमत हो जायेगी। मिलता ही नहीं-आंख से मिलता है। इसलिए तो हमने सत्य प्रेम तो फिर भी हो सकता है। आंख फिर कहां से लाऊंगा? और की खोज को दर्शन कहा है। वह आंख की र एक बार अंधा हो गया तो सदा के लिए अंधा हो गया। और इस जिन्होंने खोज लिया है उनको हमने द्रष्टा कहा है: आंख मिल सृष्टि को जिसने एक बार आंख से देख लिया, फिर बिना आंख गयी! अगर कान से मिलता होता सत्य तो हम दर्शन न कहते, के बहुत फीकी हो जायेगी; फिर जीने जैसी न रह जायेगी। श्रवण कहते। अगर कान से मिलता होता सत्य तो जो पा लेते वस्तुतः सचाई तो यह थी कि उस स्त्री के प्रेम में भी वह आंखों के उनको हम श्रोता कहते, द्रष्टा न कहते। सत्य का कुछ संबंध कारण पड़ा था। वह उसका रूप, उसका रंग, उसके नक्श उसे साक्षात्कार से है। कान को तो धोखे दिये जा सकते हैं, आंख को भा गये थे। तो जिन आंखों के कारण वह स्त्री को खोज पाया धोखे नहीं दिये जा सकते। और जिस आंख की हम बात कर रहे था, उन्हीं आंखों को गंवा दे, यह उसकी समझ में न आया। वह हैं वह इन बाहर की आंखों की ही बात नहीं, भीतर की आंख की भाग खड़ा हुआ। बात है। वहां एक जागरूकता का पुंज चाहिए-ऐसा सघनीभूत महावीर जैसे व्यक्ति अंधों की बस्ती में पड़ जाते हैं। लेकिन कि उस सघनीभूत जागरूकता से तुम्हें दिखायी पड़ने लगे। वह आंखों की शल्यक्रिया करवाने को वे राजी न होंगे। तुम्हारे भीतर की रोशनी बन जाये! इसलिए महावीर कहते हैं, 'चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि तो नत्थि जागरतो भयम्!-बुद्ध ने धम्मपद में कहा है, जागे हुए सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त को भय नहीं। सब भय सोये हुए को है। नहीं कर पाते।' ऋग्वेद में एक बड़ा बहुमूल्य सूत्र है : भूत्यै जागरणम्। अभूत्यै जरा अपनी तरफ गौर करो, कैसी तुम्हारी हालत है! स्वप्नम्। जागने से उन्नति; सोने से, स्वप्न से अवनति! वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम मुझको जिसको महावीर सम्यक दृष्टि कहते हैं उसका अर्थ है : जागा आप जाना उधर और आप ही हैरां होना। हुआ, देखता हुआ, आंखवाला। तुम जीवन को देखने में लगो। -हाय रे आकांक्षाओं का चक्कर कि अपने-आप उधर जाता शास्त्रों के पढ़ने से यह न होगा; तुम जीवन के शास्त्र को देखने हूं और अपने-आप भ्रमों को खड़ा कर लेता हूं! अपने-आप में लगो। जीवन में जो भी है उसके संबंध में धारणाएं मत जाता हूं उधर और अपने-आप भटकता हं! बनाओ; पहचान बनाओ। क्रोध है तो क्रोध को देखो। घृणा है और हर बार तय कर लेते हो तुम कि अब न करेंगे यह भूल, तो घृणा को देखो। प्रेम है तो प्रेम को देखो। मोह है तो मोह को लेकिन वह तय किया काम नहीं आता। क्योंकि दृष्टि तो पास देखो। लोभ है तो लोभ को देखो। जल्दबाजी में मत पड़ो। नहीं। भूल, भूल दिखायी कहां पड़ती है? कहते हो कि क्रोध । चरित्र की चेष्टा करनेवाला बड़ा जल्दबाज है। वह लोभ को 633 www.jainelibrary org Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 जिन सूत्र भाग : 1 देखता ही नहीं और अलोभ को साधने लगता है। यही फर्क है। वह क्रोध को देखता ही नहीं, अक्रोध की आकांक्षा में संलग्न हो जाता है। कामवासना में आंख नहीं डालता, और ब्रह्मचर्य के नियम ले लेता है। यही महावीर कह रहे हैं। ऐसा चरित्र पहुंचाएगा न । उधार से कभी कोई गया नहीं । धर्म चाहिए नगद ! एक मुअम्मा है समझने का न समझाने का जिंदगी काहे को है एक ख्वाब है दीवाने का। जिसे अभी हम जिंदगी कह रहे हैं, सोयी-सोयी, एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है। जिस दिन तुम जागोगे उस दिन तुम पाओगे, अब तक तुमने जिसे जीवन जाना था वह केवल एक स्वप्न था; और स्वप्न भी कोई बहुत मधुर नहीं । दुख स्वप्न, नाइट- मेयर । कोई धन के सपने देख रहा है, कोई पद के सपने देख रहा है। चरित्र का अनुयायी कहता है, छोड़ो धन की दौड़, छोड़ो पद की दौड़ ! और दृष्टि का अनुयायी कहता है, देखो पद की दौड़ को, देखो धन की दौड़ को ! इस फर्क को खयाल में ले लेना। दृष्टिवाला कहता है, भागो मत! भागकर कहां जाओगे ? अगर भीतर नींद है तो साथ चली जायेगी। अगर भीतर स्वप्न है तो साथ चला जायेगा। भागो मत! जागो ! देखो जहां हो, जो है । जीवन का जो भी तथ्य है, मधुर कि कड़वा, सुस्वादु कि विषाक्त — चखो, पहचान बनाओ! उसी पहचान से धीरे-धीरे ज्ञान निसृत होता है। उसी से धीरे-धीरे बूंद-बूंद ज्ञान की टपकती | है । तुम्हारा मधु - पात्र एक दिन भर जाएगा। और तब तुम्हारे जीवन में आचरण होगा। लेकिन वह आचरण जरूरी नहीं कि जैनों की मान्यता के अनुसार हो कि हिंदुओं की मान्यता के 'अनुसार हो कि बौद्धों की मान्यता के अनुसार हो । वह आचरण तुम्हारे स्वभाव के अनुसार होगा। यह भी खयाल में ले लेना। प्रत्येक जाग्रत पुरुष का आचरण अद्वितीय होता है। तो तुम राम को कृष्ण से मत तौलना। अगर कृष्ण से राम को तौलोगे तो दो में एक ही ठीक रह जायेगा, दोनों ठीक नहीं हो सकते। और तुम बुद्ध को महावीर से तौलना। और न तुम मुहम्मद को जीसस तौलना। और न तुम जरथुस्त्र को लाओत्से से तौलना । तुम तौलना ही मत । क्योंकि प्रत्येक जाग्रत व्यक्ति का आचरण उसके अपने जागरण का परिणाम होता है। वह निजी है, अद्वितीय है, अनूठा है । | न वैसा कभी हुआ है, वैसा न कभी होगा। सोए हुए लोगों का आचरण पंक्तिबद्ध होता है, दूसरों जैसा होता है; अनुकरण पर निर्भर होता है। दो महावीर नहीं हुए, न दो बुद्ध हुए, न दो कृष्ण हुए, न हो सकते हैं। इस अद्वितीयता को खूब गहरे में बिठा लेना । तब तुम्हें भय न रहेगा । तब तुम्हारी दृष्टि जागेगी तो तुम्हारा आचरण तुम जैसा होगा। और परमात्मा अगर कहीं होगा और तुमसे पूछेगा तो वह यह न पूछेगा कि तुम महावीर जैसे क्यों न हुए; वह तुमसे पूछेगा, तुम तुम जैसे क्यों न हुए? तुमने अपने स्वभाव को खिलाया क्यों न? तुम जो होने को पैदा हुए थे, विकसित क्यों न हुए? तुमने अपने बीज को फूलों तक क्यों न पहुंचाया ? इसकी फिक्र छोड़ देना कि तुम किसी से तालमेल खा रहे हो कि नहीं; क्योंकि सत्य अनूठा है। किसी गहरे अर्थ में तालमेल खाता भी है और किसी गहरे अर्थ में बिलकुल भिन्न होता है। अगर बहुत गहराई में कृष्ण के उतरोगे, अंतस्तल में, तो ठीक महावीर को पा लोगे। लेकिन बाहर - बाहर से देखोगे तो महावीर कहां, कृष्ण कहां, बड़े अलग-अलग हैं! तुम भी अलग ही होनेवाले हो । और संप्रदाय व्यक्ति को धर्म व्यक्ति को व्यक्ति बनाता भीड़ बना देते हैं। भीड़ से बचना ! धर्म निजी और वैयक्तिक खोज है। दूसरा सूत्र : 'एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य का लाभ हो तो त्रैलोक्य के लाभ से सम्यक दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है।' एक तरफ मिलती हो दृष्टि और दूसरी तरफ मिलते हों तीनों लोक के खजाने और सारी संपदा और साम्राज्य, तो भी महावीर कहते हैं, तीनों लोक के साम्राज्य और संपदा से दृष्टि का लाभ श्रेष्ठ है। क्योंकि अंधे के हाथ में साम्राज्य हो तो भी वह भिखारी रहेगा । और आंखवाले के पास भिक्षा का पात्र भी हो तो साम्राज्य बन जाता है। आंख का सारा खेल है। इसीलिए तो यह अनूठी घटना घटी कि महावीर भिखारी की तरह राह पर खड़े हो गये। लेकिन इनसे बड़े सम्राट कभी किसी ने देखे ? कि राजमहल छोड़ दिया, राह के भिखारी हो गये, कुछ भी उनके पास न रहा; लेकिन फिर भी जितना इस आदमी के पास था किसके पास कब रहा! जीवन को बड़ी से बड़ी संपदा मिलती है। दृष्टि से और कोई संपदा उसके मुकाबले बड़ी नहीं । बुद्ध Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि सम्मत्तस्य य लंभो, तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो। अपना शरीर खो जाये तो दूसरों के शरीर दिखायी नहीं पड़ते। सम्मदंसणलंभो, वरं खु तेलोक्कलंभादो।। उसे अभी तो खयाल में नहीं आया था कि अपना शरीर खो मत चुनना तीन लोक की संपदा को, लोभ को, लाभ को! | गया। क्योंकि यह शरीर खो भी जाता है तो सूक्ष्म शरीर तो खोता दृष्टि मिलती हो तो सब उसके लिए गंवा देने जैसा है। सब नहीं; वह बिलकुल इस जैसा ही है-इससे ज्यादा सुंदर, इससे गंवाकर दृष्टि मिलती हो तो बचा लेना। और सब बचाकर दृष्टि ज्यादा कमनीय, इससे ज्यादा सूक्ष्म पर ठीक इसकी प्रतिलिपि! खोती हो तो यह महंगा सौदा मत कर लेना। अंधे, आंखहीन तो सचाई तो यह होगी कि यह शरीर उसकी प्रतिलिपि है। तो उसे सिर्फ भटकते हैं; पहुंचते नहीं। फिर गरीब हों कि अमीर, सफल अभी यह तो पता ही न चला था कि मेरा शरीर खो गया; लेकिन हों कि असफल, सुखी हों कि दुखी, कुछ अंतर नहीं पड़ता; मौत जब उसने लंदन में जाकर देखा; तो सारे घर खाली पड़े हैं। सबको मटियामेट कर देती है, और सब को मिला जाती है। मकानों से रोशनी निकल रही है, खिड़कियों से रोशनी निकल पथ मिलकर सभी एक होंगे रही है, लेकिन घर सन्नाटा है, कहीं कोई नहीं। वह थेम्स नदी के तम घिरे यम के नगर में। पुल पर खड़ी हो गयी जाकर। उसे भरोसा ही न हुआ कि जहां वह जो अंधा आदमी है, वह कुछ भी करे, मौत सबको एक ही हजारों लोग निकलते रहते हैं, वहां कोई भी नहीं निकल रहा है। जगह पहुंचा देगी। हजारों लोग अब भी निकल रहे हैं। लेकिन देह अपनी खो गयी पथ मिलकर सभी एक होंगे तो दूसरी देह से संबंध नहीं जुड़ता। लेकिन तभी अचानक उसे तम घिरे यम के नगर में। दिखायी पड़ा, उसका पति भी पुल से निकल रहा है। जब पति सिर्फ दृष्टिवाला बच जाता है। मौत सिर्फ अंधों को पकड़ निकला तो उसे दिखायी पड़ा। क्योंकि पति से एक लगाव था, पाती है। जिसके पास दृष्टि है, उसे मौत नहीं देख पाती। और एक घनीभूत वासना थी, प्रेम था। उस प्रेम के कारण एक सूत्र जिनके पास दृष्टि नहीं है, उन्हें सिर्फ मौत ही दिखायी पड़ती है | जुड़ा था। उस प्रेम के कारण वह पति के शरीर से ही नहीं जुड़ी और मौत को वे दिखायी पड़ते हैं। हमारी दृष्टि पर सब निर्भर थी, पति के सूक्ष्म शरीर से भी थोड़े संबंध हुए थे। उस सूक्ष्म करता है। शरीर से संबंध के कारण उसे पति थोड़ा-सा दिखायी पड़ा, पहले तुमने कभी इस पर खयाल किया, विचार किया, ध्यान किया धुंधला-धुंधला, फिर रेखा उभरी, फिर साफ हुआ। लेकिन जब कि बहुत-बहुत अर्थों में बहुत-सी चीजें अदृश्य होती हैं? जैसे | उसे पति दिखायी पड़ा तो चकित हुई कि जैसे ही उसे पति समझो, एक चींटी यहां से गुजर रही हो, बहुत-सी चींटियां गुजर दिखायी पड़ा, और लोग भी दिखायी पड़ने लगे। क्योंकि जब रही होगी। मैं यहां बोल रहा हूं, लेकिन चीटी के लिए जो में बोल एक शरीर दिख गया तो दूसरे शरीर भी दिखाई पड़ने लगे। रहा हूं, वह बिलकुल सुनायी न पड़ेगा। वह चींटी की सीमा के तत्क्षण पूरा लंदन भरा था-एक क्षण में-लंदन खाली न था! बाहर है। यहां वृक्ष खड़े हैं: जो मैं कह रहा हूं, वह जैसे कहा ही हजारों लोग आ-जा रहे थे, मकान भरे थे! नहीं गया।...वे मौजूद हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी का आयाम | यह कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर लगी, जिसने भी लिखी हो, बड़ी अलग है। सूझ से लिखी है। कहानी तो कल्पित है, लेकिन सूझ गहरी है। मैं एक कहानी पढ़ता था। एक हवाई जहाज जल गया बीच हमें वही दिखायी पड़ता है जहां हम हैं। अभी हमें शरीर आकाश में और एक युवती मर गई। वह युवती लंदन जा रही दिखायी पड़ते हैं। इसलिए मौत से हमारा संबंध होने ही वाला थी। तो मरते वक्त उसे बस एक ही खयाल था कि अरे, लंदन न है। मौत हमें दिखायी पड़ेगी क्योंकि शरीर की मौत होती है। पहुंच पायी! वह पति की प्रतीक्षा कर रही थी। पति आतुर होकर | इसलिए हम मौत से भयभीत हैं। जैसे ही दृष्टि जगती है और हमें प्रतीक्षा कर रहा होगा। बस एक ही धुन थी, उस धुन के कारण दिखायी पड़ता है, हम शरीर नहीं हैं-मौत के हम बाहर हो उसकी प्रेतात्मा सीधी लंदन पहंच गयी। लेकिन वह चकित हई : गये। फिर मौत भी हमको नहीं देख सकती। वह भी हमको तभी लंदन बिलकुल खाली था। लोग कहां खो गये। क्योंकि जब तक देख सकती है जब तक हम शरीर हैं और शरीर में हैं, और 635 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1HILE माने हुए हैं कि हम शरीर ही हैं। जब तक हम शरीर के ठोसपन तो महावीर क्यों कर कहेंगे, भाग जाओ संसार से। हां, किसी से जुड़े हैं, तभी तक हम मौत की सीमा में हैं। जैसे ही हम शरीर को स्वभाव के अनुकूल बैठता हो संसार से अलग हट जाना तो के ठोसपन से मुक्त हुए, हम मौत के बाहर हुए। वह भागना नहीं है। जब किसी के घर में आग लगती है और इस जिंदगी में इन तीनों लोकों में जो भी मिल जाता है, वह कोई आदमी भागकर बाहर आता है तो तुम उसको भगोड़ा तो बाहर-बाहर है। वह हमारा कभी नहीं हो पाता। जो बाहर है वह नहीं कहते! तुम यह तो नहीं कहते, एस्केपिस्ट हो, पलायनवादी बाहर ही रह जाता है; उसे तुम भीतर ले जाओगे बैसे? तुम हो! अगर वह घर में ही बैठा रहे और जल जाये तो तुम उसको संपत्ति का ढेर लगा लोगे, ढेर बाहर लगेगा, भीतर कैसे | मूढ़ जरूर कहोगे, लेकिन बाहर निकल आए तो भगोड़ा तो न लगाओगे? भीतर ज्यादा से ज्यादा हिसाब रख सकते हो, कहोगे! किसी व्यक्ति को अगर संसार का जीवन तालमेल न संपत्ति के आंकड़े रख सकते हो; वह भी बहुत भीतर नहीं, वह खाता हो, उसके भीतर के संगीत में न बैठता हो, उसकी भी मन में होंगे; वह भी चैतन्य में न पहुंच पाएंगे। चैतन्य तक तो लयबद्धता खंडित होती हो, तो वह हट जाये। लेकिन वह आंकड़े भी नहीं पहुंचेंगे, संपत्ति तो बाहर रहेगी, गणित मन तक | भगोड़ा नहीं है। भगोड़ा तो वह है जो यह सोचता है कि संसार से पहुंच जायेगा। संपत्ति मन तक भी नहीं पहुंचेगी, गणित भी न हट जाने के कारण मुझे मोक्ष मिलेगा। जो संसार से हट जाने को पहंच पायेगा चैतन्य तक। तुम्हारी चेतना तो पार ही रहेगी। तो मोक्ष पाने का साधन बनाता है, वह भगोड़ा है। मोक्ष का कोई जब तक भीतर की कोई संपदा न मिल जाये तब तक कोई संपदा संबंध संसार से भाग जाने से नहीं है। काम की नहीं है। महावीर कहते हैं, 'जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से जल से 'अधिक क्या कहें? अतीतकाल में जो श्रेष्ठजन सिद्ध हुए लिप्त नहीं होता वैसे ही सत्पुरुष, सम्यकत्व के प्रभाव से कषाय और जो आगे सिद्ध होंगे, वह इस एक सम्यक्त्व का ही परिणाम और विषयों से लिप्त नहीं होते।' वह अगर कषायों और विषयों है। इसी एक सम्यकत्व का महात्म्य है।' के बीच भी खड़े रहें, जैसे कमलिनी का पत्र सरोवर में पड़ा रहता किं बहुणा भणिएणं-क्या कहें ज्यादा अब? जे सिद्धा है, तो भी लिप्त नहीं होते। एक दफा दिखायी पड़ना शुरू हो णरवरा गए काले-वह जो बीते समय में हुए हैं सिद्ध... । जैनों जाये, बस वह दृष्टि ही अलिप्तता बन जाती है। से कुछ लेना-देना नहीं है इसका। ये वचन शुद्ध उन सबके लिए दुनिया की महफिलों से उकता गया हूं या रब हैं जो सिद्ध हए हैं। इसमें वेदों के ऋषि और उपनिषदों के कवि __ क्या लुत्फ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो। सभी सम्मिलित हैं। एक दफा वासना बुझ जाये, एक बार वासना की जगह दृष्टि | किं बहुणा भणिएणं, जे सिद्धा णरवरा गए काले। जो-जो बीते | का दीया जल जाये... समय में, बीते काल में...बेशर्त महावीर कह रहे हैं, कोई शर्त दुनिया से कुछ लगाव न उक्बा की आरजू है नहीं लगायी है। नहीं तो कहते, कि जैन सिद्ध जो हुए हैं अतीत | तंग आ गये हैं इस दिले बे-मुद्दआ से हम। में। जो अभी जागे हैं...! जैन से क्या लेना-देना जागने का? और फिर न तो इस दुनिया का कोई लगाव रह जाता और न जो जाग गये, वे सभी जिन हैं। उस दुनिया की कोई आकांक्षा रह जाती है। जिनके मन में उस सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं। दुनिया की कोई आकांक्षा रह गयी है—वह दुनिया इसी दुनिया -वे इसी सम्यकत्व के महात्म्य से उपलब्ध हए हैं। वे इसी का विस्तार है-वह दुनिया से अभी उकताए नहीं। जो सोच रहे दृष्टि के, इसी जागरण से, इसी ध्यान, इसी समाधि से उपलब्ध हैं, स्वर्ग में मजे करेंगे; जो सोच रहे हैं स्वर्ग में नचाएंगे अप्सराओं को; जो सोच रहे हैं, स्वर्ग में शराब के झरने बह रहे 'जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता | हैं, डुबकी लेंगे-वे इस दुनिया से उकताए नहीं हैं। समझ उन्हें वैसे ही सत्पुरुष सम्यकत्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से आयी नहीं; जागरण हुआ नहीं। लिप्त नहीं होते।' 'सम्यक दृष्टि मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा चेतन तथा 636 Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेतन तत्वों का जो भी उपयोग करता है, जो भी उपभोग करता स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता । ' है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है।' महावीर कहते हैं, सभी उपभोग बांधता नहीं; क्योंकि ध्यान भी करोगे तो भोजन करना होगा। तो ध्यान के लिए भी शरीर जरूरी होगा । वेश्या के घर जाना है तो भी शरीर से ही चलकर जाओगे और मंदिर जाना है तो भी शरीर से ही चलकर जाओगे। किसी | की हत्या करनी हो तो भी ऊर्जा चाहिए, भोजन से मिलेगी; और किसी की सेवा करनी हो तो भी ऊर्जा चाहिए, भोजन से ही मिलेगी। भोजन छोड़ देने का सवाल नहीं है; भोजन का सम्यक उपयोग कर लेने का सवाल है। श्रीमद्भागवत में एक वचन है: स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः ! संत पुरुष तीर्थों को पवित्र करते हैं । तीर्थों के कारण कोई पवित्र नहीं होता; संत पुरुषों के कारण तीर्थ बन जाते हैं। जहां संत पुरुष बैठता है वहीं तीर्थ बन जाता है। जहां तीर्थंकर चलते हैं। वहीं तीर्थ बन जाते हैं। तो महावीर कहते हैं, 'सम्यक दृष्टि मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है।' वह इसीलिए जीता है। ताकि जीवन के पार जा सके। वह इसीलिए भोजन करता है ताकि भगवत्ता को पा सके। वह इसीलिए जल पीता है, ताकि शरीर तृप्त हो, शांत हो, तो अंतर्गमन हो सके। उसकी दृष्टि हर घड़ी उस भीतर के सत्य पर लगी रहती है। वह उसी के लिए सारे जीवन को उपकरण बना लेता है। गंगा की खोज मत करो। तुम गंगा कभी न पहुंच पाओगे । तुम दृष्टिको, सम्यकत्व को उपलब्ध हो जाओ - गंगा तुम्हारी खोज करती चली जाएगी। नदी, नाला कोई भी तुम्हारे पास से गुजर जायेगा, गंगा जैसा पवित्र हो जायेगा । वास्तविक मूल्य, आत्यंतिक मूल्य तुम्हारे चैतन्य का है। 'कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता।' यह वचन सुनना ! यह गीता में कहा गया होता तो अड़चन न होती; यह महावीर ने कहा है । इसको बहुत गौर से, होश से सुनना । 'कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई न सेवन करते हुए भी विषयों का सेवन करता है। जैसे कोई पुरुष विवाह आदि कार्यों में लगा रहने पर भी उस कार्य का मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि यह गीता में तो बिलकुल ठीक था। तो कृष्ण की दृष्टि में साफ था। लेकिन जैनों ने महावीर की दृष्टि को ऐसा लीपा-पोता है कि महावीर के ही वचन पराये मालूम पड़ते हैं। महावीर यह कह रहे हैं कि कोई तो ऐसे हैं, जागे होने के कारण, सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करते; भोजन करते हुए भी उपवासे हैं; ठेठ संसार में खड़े हुए भी संसार के बाहर हैं। और कोई ऐसे भी हैं कि न सेवन करते हुए भी सेवन करते हैं। उपवास किए हैं, लेकिन भोजन की कल्पना, भोजन की वासना...! ब्रह्मचर्य का व्रत लिए हैं, लेकिन कामवासना की लहरें...! हिमालय पर बैठ गये हैं जाकर, लेकिन संसार की पुकार उन्हें अभी भी सुनायी पड़ती है। तो असली सवाल बाहर से भाग जाने का नहीं है-भीतर से जाग जाने का है। फिर तुम भोग कर भी त्यागी हो सकते हो। और अगर वैसा न हुआ तो तुम त्याग कर लोगे और भोगी ही रहोगे । गो मैं रहा रहने-सितमहा-ए-रोजगार लेकिन तेरे खयाल से गाफिल नहीं रहा। रहा दुनिया की भीड़ में, रहा बाजार में, रहा उलझा संसार में...। गो मैं रहा रहने-सितमहा-ए-रोजगार - काम-धंधों में उलझा हुआ; 'लेकिन तेरे खयाल से गाफिल नहीं रहा!' बस इतना ही कह सको तो काफी है। स्मरण बना रहा, सुरति सधी रही, ध्यान का धागा हाथ में रहा – फिर रहो तुम बाजार में, तुम कमलिनी के पत्र की भांति सरोवर में पानी के बीच रहते हुए भी पानी से अस्पर्शित रहोगे। महावीर कहते हैं, जैसे कोई आदमी विवाह इत्यादि का आयोजन करता है... मुनीम, मालिक नहीं, तो बड़ी दौड़-धूप करता है, इंतजाम करता है: बैंडबाजे लाओ, भोजन-पत्तल सजाओ; लेकिन चूंकि वह मालिक नहीं है, इसलिए परेशान नहीं है। रात घर जाकर सो जाता है मजे से । कोई याद भी नहीं आती । काम था, कर दिया। कर्ता तो वह नहीं है। लेकिन मालिक चाहे दौड़-धूप भी न कर रहा हो, सिंहासन पर बैठा हो, लेकिन रात सो न पायेगा। उसकी लड़की का विवाह हो रहा है। बड़ी चिंताएं पकड़ेंगी। चिंताएं विवाह के कारण नहीं पकड़तीं, 637 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः । जिन सूत्र भाग: 11 चिंताएं पकड़ती हैं-मेरी लड़की! जहां 'मेरा' है, ममत्व है, पैसे से ऐसा क्या डर? पैसे में ऐसा क्या बल? और अगर पैसे वहीं संसार है। जहां 'मेरा' नहीं, ममत्व नहीं, वहीं संसार खो में इतना बल है कि संतों को आंख बंद करनी पड़ती है तो फिर गया। तो फिर तुम कर्ता-भाव से मुक्त होकर जो भी करो उसका बेचारे ये संसारी अगर पैसे के बल से दबे हैं तो क्या आश्चर्य! कोई बंध नहीं है। | किसी की आंख एकदम फैल के दोगुनी हो जाती है और किसी __'इसी तरह काम-भोग न समभाव उपस्थित करते हैं और न की बंद हो जाती है! विकृति...।' ___ मैं एक सज्जन को जानता था। उनको अगर दूसरे का भी नोट ये वचन तुम सोचना—जैसे किसी महातांत्रिक ने कहे हों! हाथ में लग जाये तो वह उसको ऐसा पुचकार के छूते थे, वैसा 'इसी तरह काम-भोग न समभाव उपस्थित करते हैं और न | कलाकार मैंने नहीं देखा फिर दुबारा। बहुत लोग देखे।...मगर विकृति या विषमता। जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, | दूसरे के नोट को भी पुचकार के छूते थे। सम्मान तो होना ही वह उनमें विकृति को प्राप्त होता है।' चाहिए था। उसको उलट-पलटकर देखते, उसको ऐसे छूते जैसे न रखना द्वेष, न रखना ममत्व। जो हो, चुपचाप अपने बोध | प्रेयसी हो! को सम्हाले, होने देना। जो हो स्थिति, स्मरण न खोये, । ___ एक तरफ ये हैं कि पैसे को देखते से उनकी जीभ से एकदम आत्मस्मरण न खोये। बस, इतना काफी है। लार टपकने लगेगी और दूसरी तरफ लोग हैं कि आंख बंद कर तो महावीर बड़ी हिम्मत का वचन कह रहे हैं। वे कह रहे हैं लेंगे। लेकिन फर्क क्या हुआ? पैसे ने दोनों पर प्रभाव रखा। काम-भोग भी न तो बांधते हैं, न उन्हें छोड़ने से कोई छूटता है। पैसे ने दोनों से कुछ करवा लिया। न तो काम-भोग से कोई बंधन निर्मित होता है और न काम-भोग महावीर कह रहे हैं कि पैसे में ऐसा कुछ भी नहीं है—न तो से कोई मुक्ति निर्मित होती है। हां, काम-भोग के प्रति द्वेष और लार टपकाने योग्य कुछ है और न आंख बंद करने योग्य कुछ ममत्व का भाव, उससे ही रज्जु निर्मित होती है जो बांधती है। तो है। जिस दिन न ममत्व, न द्वेष, दोनों नहीं रह जाते, न राग न तुम कोई ममत्व का भाव मत रखना और द्वेष मत्त रखना। विराग—उसी दिन वीतरागता उपलब्ध होती है। अब जिनको तुम संसारी कहते हो, जिनको तुम श्रावक कहते ___ 'वीतराग' महावीर का बड़ा बहुमूल्य शब्द है। न राग न हो, इनका ममत्व है काम-भोग में। तुम अपने संन्यासी को। विराग, न पकड़ना न छोड़ना, कोई चुनाव नहीं, न इस तरफ न पूछो, उसका क्या है? उसका द्वेष है। उस तरफ, न घृणा न मोह! अपने में थिर हो जाना, अपने में रम अगर तुम्हें कोई नग्न तस्वीरों वाली किताब मिल जाये तो तुम | जाना, कि बाहर से कोई भी घटना घटे, तुम्हारे भीतर पक्ष-विपक्ष छिपाकर उसे देख लोगे, या गीता का कवर चढ़ा दोगे ऊपर से | में कोई भी विचार न उठे, भाव न उठे-ऐसी वीतराग दशा ही और देख लोगे। बच न सकोगे। लेकिन उसी किताब को अगर | मोक्ष का द्वार है। महावीर इस दृष्टि को सर्वाधिक मूल्यवान तुम अपने मुनि महाराज के पास जाकर खोल दो, वह छलांग कहते हैं। लगाकर खड़े हो जायेंगे, जैसे तुम सांप-बिच्छू की पिटारी ले तूफान से उलझ गए लेकर खुदा का नाम आये। वह तुम पर चीखने-चिल्लाने लगेंगे कि यह तमने क्या आखिर निजात पा ही गये नाखुदा से हम किया! भ्रष्ट कर दिया! -मांझी से छुटकारा पा लिया खुदा का नाम लेकर! लेकिन तुम्हारा ममत्व है, उनका द्वेष है। महावीर कहते हैं, दोनों ही महावीर ने खुदा से भी छुटकारा पा लिया है। नाखुदा से तो खतरनाक हैं। कोई भी भाव बांध लेगा, फिर चाहे पक्ष का हो छुटकारा पा ही लिया। किसी के पीछे तो वह चलते ही नहीं, चाहे विपक्ष का हो। तुम संसार में निर्लिप्त, ऐसे जीना कि जैसे कोई मांझी नहीं है। लेकिन खुदा से, परमात्मा से भी छुटकारा पा तुम्हारा कोई भाव नहीं है। जो हो रहा है, ठीक है। न तुम पकड़ने लिया। उन्होंने तो सीधा धर्म का विज्ञान निरूपित किया कि दृष्टि को उत्सुक हो, न तुम छोड़ने को उत्सुक हो। | की शुद्धि ही तुम्हारी मार्गद्रष्टा है; वही सदगुरु है। विनोबा के पास कोई पैसे ले जाये तो वे आंख बंद कर लेते हैं। दृष्टि थिर हो जाये, अनुद्वेग सम्हल जाये, कोई उद्वेग न उठे। 6381 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि घृणा का, प्रशंसा का, सफलता-विफलता का, भोग और त्याग का कोई उद्वेग न उठे, तो तुम निर्वाण के करीब आने लगे। _ 'अनुद्वेगः श्रीयोमूलं!' हिंदू शास्त्र कहते हैं, अनुद्वेग ही श्रेय का मूल है, निःश्रेयस का मूल है। यह अनुद्वेग दशा ही तुम्हें जल में कमलवत बना देगी। और धन्यभागी हैं वे जो सबके बीच रहकर और सबसे अछूते रह जाते हैं! आज इतना ही। www.jainelibrarorg Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9310 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education-International तीसवां प्रवचन प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- सार नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी चंचल है मति मोरी ! आपने कहा कि जहां उत्कट प्यास होगी वहां पानी को आना ही पड़ेगा । अब पानी तो आ गया है; लेकिन क्या मैं तुरंत अंजुलि भरकर पीना शुरू करूं, या पानी मुंह तक आ जाए, इसकी प्रतीक्षा करूं? आपके प्रति इतना प्रेम रहते हुए भी आपको सुनते वक्त कभी-कभी अकुलाहट और क्रोध क्यों उठने लगता है ? Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान ने तुम्हें स्वीकार किया ही हुआ है। उसके स्वीकार के बिना तुम हो ही न सकते थे। बुरे भले, जैसे हो, तुम उसके चरणों में अपने को डाल दो। तुम उससे ही कह दो कि हमारे किए कुछ न होगा। कर-करके ही तो हम भटके। किया तो बहुत, कुछ भी न हुआ। अब तेरी मर्जी! तो भक्ति और ज्ञान के फासले को समझ लेना । यह प्रश्न साधक का तो सम्यक है, लेकिन शब्दावली भक्त की है। 'नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी चंचल है मति मोरी !' ज्ञान के मार्ग पर चंचलता बड़ी बाधा है। क्योंकि ध्यान उपजाना होगा। और ध्यान तो तभी उपजेगा जब मन की सारी कल्पनाएं, सारे विचार, सारी तरंगें सो जायें। ध्यान तो मन की अचंचल दशा का नाम है। तो ज्ञान के मार्ग पर चंचल मन शत्रु मालूम होता है। उससे संघर्ष करना होगा। लेकिन भक्ति के मार्ग पर चंचल मन से कोई विरोध नहीं है। जो लहरें मन की संसार के लिए उठती हैं उन्हीं लहरों को परमात्मा के लिए उठाना है । लहरें बनी रहें - बस परमात्मा के लिए उठने लगें ! तरंगें उठती रहें, विचार हों, भावनाएं हों, कोई अड़चन नहीं है - लेकिन उन सभी भावनाओं और तरंगों और विचारों में परमात्मा का रूप समा जाये। चंचल मन भी उसके चरणों में समर्पित हो जाये यह शब्दावली तो भक्त की है। और यह प्रश्न साधक का है, भक्त का नहीं। इसे तुम स्पष्ट अलग-अलग कर लोगे तो सुलझाव हो जायेगा। अगर तुम साधक होने के मार्ग पर हो तो भक्ति का कोई सवाल नहीं है। 'नरहरि' का कोई सवाल नहीं है। तब तो तुम हो और तुम्हें अपने प्राणों को अपनी ही ऊर्जा से शुद्ध करना है। तब तुम अकेले हो; कोई संग-साथ नहीं है। लेकिन, अगर तुम भक्ति के मार्ग पर हो तो 'नरहरि' तुम्हें घेरे खड़ा है; तुम्हारी श्वास- श्वास में छिपा है । तुम जब चंचल होते हो तब वही तुम्हारे भीतर चंचल हो रहा है। ये लहरें भी उसी की हैं, यह सागर भी उसी का है। | प हला प्रश्न : नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी, चंचल है मति मोरी! भक्ति के मार्ग पर मन की चंचलता बाधा नहीं है। भक्ति के मार्ग पर मन की चंचलता साधन बन जाती है । वही भक्ति और ज्ञान का भेद है। इसलिए भक्ति बड़ी सहज है, और ज्ञान असहज है । भक्ति तुम्हारे स्वभाव का उपयोग करती है। ज्ञान, तुम जैसे हो, उसे इनकार करता है; और तुम जैसे होने चाहिए, उसके आदर्श को निरूपित करता है। भक्ति कहती है, तुम जैसे हो, ऐसे ही भगवान को स्वीकार हो। तुम भर भगवान को स्वीकार कर लो, यह सागर और लहर में फासला क्यों करते हो? लहर हो सकती है सागर के बिना ? सागर हो सकता है लहर के बिना ? सागर होगा लहर के बिना तो मुर्दा होगा। उसमें प्राण ही न होंगे। उसमें जीवन का कोई लक्षण न होगा। और लहरें हो सकती हैं सागर के बिना ? असंभव । न तो लहरें हो सकती हैं सागर के 645 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S S जिन सूत्र भागः1 m F Story गी तो किसी चित्र में चित्रित होंगी, वास्तविक न एक पात्र नाराज होकर ईश्वर से कहता है: यह अपनी टिकिट त होंगी, कागजी होंगी। और सागर नहीं हो सकता लहरों के वापिस ले ले। यह जीवन हमें नहीं चाहिए! सम्हाल अपने बिना; अगर होगा तो मुर्दा होगा। उसमें कोई जीवन न होगा। जीवन को! जीवन को जो त्यागकर जा रहा है, वह यही कह रहा जीवन होगा तो हवाएं भी उठेगी और जीवन होगा तो तरंगें भी है कि ये फूल हमें न भाये, ये फूल हमें शूल सिद्ध हुए। यह तूने उठेगी। और जितना विराट सागर होगा उतने विराट तूफानों को जो वर्षा की थी, यह अमृत की नहीं थी, जहर की थी। और यह झेलने की झमता होगी। ये लहरें भी उसी की हैं। यह मन भी तूने हमें जीवन दिया था, यह देने योग्य न था। तूने किसे धोखा उसी का! हम भी उसी के! यह तन भी उसी का! देना चाहा? भक्त की भाषा अलग है। इस प्रश्न में उलझन है। यह प्रश्न त्यागी यह कह रहा है कि हम छोड़ते हैं तेरे जीवन को; हमें साफ नहीं है। और जिसने भी ये दो पंक्तियां रची होंगी, उसके आवागमन से छुटकारा चाहिए। त्यागी प्रकृति के विपरीत चलता मन में भी साफ नहीं थी बात कि वह क्या कह रहा है। उसके मन है। वह नदी की धार के विपरीत लड़ता है। वह गंगोत्री की तरफ में खिचड़ी रही। प्रश्न तो साधक का था, और भाषा भक्त की बहता है; भक्त गंगासागर की तरफ। भक्त कहता है, जहां ले थी। ऐसी उलझन में जो भी पड़ेगा वह बड़े संकट में पड़ जाता जाये गंगा! हम भी उसी के, गंगा भी उसी की, हवाएं भी उसी है-आत्मसंकट में। उसका मन दो खंडों में बंट जाता है। वह की। तो जहां भी पहुंचा देगा वहीं मंजिल होगी! और हम कौन हैं टिकिट तो लेता है कलकत्ता जाने की और ट्रेन में बैठ जाता है मंजिल को तय करें। तो अगर मन में तरंगें उठती हैं तो उन्हीं बंबई की। तो वह सोचता है, टिकिट भी मेरे पास है; और वह तरंगों में वह प्रभु के नाम को गुनगुनाता है। सोचता है टिकिट-चैकर मुझे परेशान क्यों कर रहा है! टिकिट इसलिए भक्त तुम्हें गुनगुनाता मिलेगा। ज्ञानी तुम्हें मौन उसके पास है, लेकिन उसे किसी और दिशा में जाना था। जहां मिलेगा। ज्ञानी बाहर से ही मौन नहीं है, भीतर से भी चुप है। वह जा रहा है, वहां की टिकिट उसके पास नहीं है। शब्द उठा कि संसार उठा। वह संसार से ही नहीं डर गया, शब्द ऋग्वेद में एक परम वचन है : 'ऋतस्य यथा प्रेत'; जो से भी डर गया है। भक्त तुम्हें बाहर भी गुनगुनाता मिलेगा, प्राकृतिक है, वही प्रिय है। जो स्वाभाविक है, वही शुभ है। भीतर भी गुनगुनाता मिलेगा। लहरें उसे स्वीकार हैं। वह लहरों स्वभाव के अनुसार जीवन व्यतीत करो। ऋतस्य यथा प्रेत! यही को बदलने की कीमिया जानता है। उसने लहरें भी परमात्मा के लाओत्सु का आधार है : ताओ। पूरे ताओ को इस ऋग्वेद के चरणों में समर्पित कर दी हैं। वह इससे भयभीत नहीं होता। एक छोटे-से सूत्र में रखा जा सकता है : ऋतस्य यथा प्रेत। प्रकृति और उसके बीच कोई विरोध नहीं है। इनकार की भाषा जो प्राकृतिक, वही प्रिय। तुम श्रेय और प्रेय को तोड़ो मत। जो उसे नहीं आती। वस्तुतः भक्त के लिए इनकार की भाषा में ही प्रीतिकर लग रहा है वही श्रेयस्कर है। प्रीतिकर लगना श्रेयस्कर नास्तिकता छिपी है। की खबर है। कहीं पास ही श्रेय भी छुपा होगा। तुम श्रेय के द्वार। इसलिए ऐसा तो हुआ कि अनेक ज्ञानी नास्तिक हुए; लेकिन को खोज लो। एक भी भक्त नास्तिक नहीं हुआ। यह तुम थोड़ा सोचना। इसलिए वेदों का जो ऋषि है, वह कोई भगोड़ा नहीं है। उसने बुद्ध नास्तिक हैं। परमज्ञान को उपलब्ध हो गए, लेकिन जीवन का निषेध नहीं किया है। जीवन का परम स्वीकार है। नास्तिकता इससे नहीं छूटी है। महावीर नास्तिक हैं। परमज्ञान परमात्मा ने जो दिया है, वह प्रसाद है। वह उसकी भेंट है। | को उपलब्ध हुए, लेकिन परमात्मा की कोई जगह नहीं। क्योंकि उसका अस्वीकार कैसे हो? उसका त्याग कैसे हो? जब पूजा की ही जगह न हो तो परमात्मा की कैसे जगह हो सकती त्याग का तो अर्थ ही होगा कि तेरी भेंट हम...राजी नहीं होते है? जब प्रार्थना की ही जगह न हो तो परमात्मा की कैसे जगह हो तेरी भेंट से! तेरी भेट, भेंट के योग्य नहीं! तूने जीवन दिया, यह सकती है? ले वापिस! तो एक अनूठी घटना घटी कि बुद्ध और महावीर जैसे दोस्तोवस्की के बड़े प्रसिद्ध उपन्यास 'ब्रदर्स करमाझोव' में परमज्ञानी नास्तिक हैं। जब पश्चिम को पहली दफा पता चला 6461 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति बुद्ध और महावीर का तो पश्चिम में तो ईसाई शास्त्री समझ ही न हजार-हजार आयाम दिये। उसने तुम्हें प्रेम दिया, राग-रंग सका यह, कि धार्मिक और नास्तिक, यह हो कैसे सकता है! | दिए। स्वीकार करो! और स्वीकार करते ही तुम पाओगे कि दंश क्योंकि पश्चिम में इस्लाम, यहूदी, ईसाई, तीनों ही भक्ति के चला गया। कांटा नहीं चुभता फिर। भक्त तो कहता है : संप्रदाय हैं। वो ज्ञान के संप्रदाय, उनमें कोई भी नहीं है। तो पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिखे पर, नाहक उन्होंने एक ही तरह का ढंग जाना था-भक्त का। यह उनके आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था? लिए असंभव था कि भगवान के बिना भक्त हो कैसे सकता है! भक्त तो भगवान से कहता है कि फरिश्तों ने जो हमारे संबंध में तो प्रथम-रूप जो किताबें लिखी गयीं जैन धर्म और बौद्ध धर्म खबर दी हैं, उनका भरोसा मत करना। हमारे पाप-पुण्यों का जो पर, पश्चिम के लेखकों ने लिखीं, उन्होंने लिखाः ये नीतिशास्त्र लेखा-जोखा तुम्हारे फरिश्तों ने बताया है उसका भरोसा मत की व्यवस्थाएं हैं, धर्म नहीं हैं। मारल कोड्स! क्योंकि धर्म तो करना। 'आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था?' अगर ईश्वर के बिना होगा कैसे? लेकिन धर्म ईश्वर के बिना हो पूछना हो तो आदमियों से पूछना, क्योंकि आदमी ही समझ सकता है। वस्तुतः साधक का धर्म ईश्वर के बिना ही होगा। पाएंगे कि तुमने हमें ऐसा बनाया था। फरिश्तों को क्या पता कि भगवान, भक्त के हृदय का आविर्भाव है। वह पूजा का ही तुमने कितना प्रेम भर दिया था हमारे रग-रेशे में? फरिश्तों को सघन रूप है। वह प्रार्थना ही पर्त दर पर्त जमती जाती है, तब क्या पता कि कितना नाच और कितनी तरंगें तुमने दी थीं? नहीं, परमात्मा बनती है। वह लहरें, तरंगें अस्वीकार नहीं की गयीं, इनकी बात पर भरोसा मत करना। अगर हमने भूल-चूक की हो तभी सागर मिलता है। ज्ञानी तो धीरे-धीरे लहरों को अस्वीकार तो तुमने करवायी थी। और अगर गवाह चाहिए हो तो आदमियों करके सागर को भी छोड़कर मरुस्थल में विराजमान हो जाता है। से पूछना, क्योंकि वे हमें समझ सकेंगे। क्योंकि जैसे वे हैं वैसे ऋतस्य यथा प्रेत! हम हैं। तो घबड़ाओ मत! उसने तरंगें दी हैं, उसी को समर्पित कर दो। पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिखे पर, नाहक और उसी की बात उसे लौटा देने में लगता क्या है? आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था? सामवेद में भी एक वचन है : देवस्य पश्य काव्यम्! यह जो अगर कोई चश्मदीद आदमी हमारा गवाह हो तो ही बात का दिखायी पड़ रहा है, यह परमात्मा का प्रगट काव्य है। छिपा है भरोसा करना। वही पीछे। यह जो गुनगुनाहट दिखायी पड़ती है प्रकृति के नाम ईसाइयत कहती है कि जीसस होंगे तुम्हारे गवाह। जीसस से, इसके पीछे उसी का कंठ छिपा है। चाहे कोयल की कुहू कुहू बाइबिल में जगह-जगह दो वचनों का उपयोग करते हैं। में और चाहे कौवों की शिकायत में वही छिपा है। कांव-कांव कभी-कभी वे कहते हैं, मैं हूं ईश्वर-पुत्र! लेकिन इससे भी हो कि कुहू कुहू, अंधेरी रात हो कि प्रकाश से भरा हुआ दिवस ज्यादा बार वे कहते हैं, मैं हूं मनुष्य का पुत्र! सन आफ मैन! हो, और जन्म हो कि मृत्यु हो-सब तरफ उसी के हाथ हैं। यह बड़ा जोर है उनका इस बात पर कि मैं आदमी का बेटा हूं; जैसे काव्य उसका है। ईश्वर का बेटा होना नंबर दो है। और जीसस कहते हैं कि मैं देवस्य पश्य काव्यम्! यह जो दिखाई पड़ रहा है संसार, यह | तुम्हारा गवाह हूं। यह थोड़े सोचने जैसी बात है। उसी का प्रगट काव्य है। जैसे कवि तो छिपा है और हमें केवल इस्लाम मुहम्मद को ईश्वर का अवतार नहीं मानता न तीर्थंकर कविता हाथ लग रही है। | मानता है-इतना ही मानता है, ईश्वर का भेजा हुआ दूत; तुम्हारे भीतर भी जो तरंगें उठा रहा है वह वही है। तुम भी उसी । लेकिन आदमी। यह बात महत्वपूर्ण है। यह महत्वपूर्ण इसलिए की तरंग हो। तुममें उठी तरंगें भी उसी की तरंगें हैं। है कि आदमी ही आदमी का गवाह हो सकेगा। अगर राम तुम्हारे तो यदि भक्त का तुम्हारे पास मन हो तो चिंता मत करो। उसने लिए गवाही देंगे तो गड़बड़ हो जायेगी, क्योंकि वे अपने मापदंड तरंगें उठाने योग्य तुम्हें समझा, इसके लिए धन्यवाद दो। उसने से सोचेंगे। उनके मापदंड बड़े कठोर हैं, अति कठोर हैं, तुम्हें जीवन दिया। उसने तुम्हें रस दिया। उसने तुम्हें होने के | अमानवीय हैं, असंभव हैं। कोई धोबी कह देता है अपनी पत्नी 647 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1. को कि 'मैं कोई रामचंद्र नहीं है कि सालों सीता रावण के घर रही स्वभाव है। अगर उसकी याद भी आती है तो भी थिर नहीं हो और फिर भी उसे स्वीकार कर लिया। एक रात भी अगर तू घर पाती। किसी क्षण बड़े जोर से आती है, रोएं-रोएं को कंपा जाती नहीं रही, मैं स्वीकार करनेवाला नहीं हूं।' यह खबर काफी हो है। और कभी भूल जाता है तो दिनों निकल जाते हैं और याद जाती है राम को सीता को त्याग देने के लिए।...मर्यादा! | नहीं आती। जब तुम्हें याद आती है, तब तुम चौंकते हो, रोते हो अब ऐसा व्यक्ति अगर तुम्हारे बाबत गवाही देगा तो तुम कि अरे, इतने दिन भूला रहा। मुश्किल में पड़ोगे। इसकी गवाही का मापदंड बड़ा ऊंचा होगा, लेकिन मनुष्य की यह नैसर्गिक स्थिति है। श्वास भीतर जाती अमानवीय होगा। तुम तो इसके सामने हर हालत में पापी सिद्ध है, फिर बाहर जाती है। तुम भीतर ही श्वास को रखना चाहोगे, हो जाओगे। मर जाओगे। भीतर जो आयी है वह बाहर जायेगी। बाहर जो इसलिए इस्लाम कहता है, मुहम्मद कोई ईश्वर के अवतार नहीं गयी है वह फिर भीतर आयेगी। ऐसा प्रतिपल श्वास का हैं। वे आदमी जैसे आदमी हैं। और आदमी की जो मुसीबतें हैं, | आंदोलन चलेगा। सभी स्थितियों में विरोध रहेगा। दिन काम उसकी मुसीबतें हैं। और आदमी की जो आंतरिक पीड़ाएं हैं! करोगे, रात सो जाओगे। एक क्षण तय करोगे, दूसरे क्षण उनकी आंतरिक पीड़ाएं हैं। और आदमी के मन के जो भाव हैं, निश्चय टूट जायेगा। ऐसे ही श्वास आती-जाती रहेगी। ऐसी वेग हैं, वह उनके भाव, वेग हैं। उनकी गवाही का अर्थ है। ही लहरों पर नौका डोलती रहेगी। भक्त तो कहता है, तुमने जैसा बनाया वैसा मैं हूं। मैंने स्वयं अब दो उपाय हैं। एक तो ज्ञानी का उपाय है, जो कि बड़ा दुर्गम को तो बनाया नहीं है। यह मन भी तुमने दिया है। मुझे तो सिर्फ है; क्योंकि स्वयं से चेष्टा करनी पड़ेगी। अपने छोटे-छोटे हाथों मिला है। इसका कर्ता मैं नहीं हूं। इसलिए तुम जानो, तुम्हारी से इस पूरे सागर को शांत करना पड़ेगा। इसलिए महावीर को जिम्मेवारी है। अगर हमने महावीर कहा तो ऐसे ही नहीं कहा। बड़ी घनघोर अगर भक्त को भगवान का स्मरण भी भूल जाता है तो भी वह | तपश्चर्या थी! दुर्धर्ष! जन्मों-जन्मों की तपश्चर्या थी, तब कहीं बहुत चिंता नहीं करता। वह कहता है, तुम्हीं भुला रहे हो। जाकर वह क्षण आया सौभाग्य का कि लहरें शांत हुईं। यह बड़ी तू है तो तेरी फिक्र क्या, लड़ाई थी। हां, जिन्हें लड़ने का शौक है वे इस रास्ते पर जा तू नहीं, तो तेरा जिक्र क्या? सकते हैं। यह रास्ता भी पहुंचा देता है। भक्त ने तो प्राकृतिक अगर तू है तो हमने तेरी फिक्र न भी की तो भी तू है! और अगर रास्ते को चुना है।। त नहीं है तो तेरा जिक्र भी करते रहे तो क्या सार? और अगर तुम नैसर्गिक और स्वाभाविक ढंग से, बिना बहत तू है तो तेरी फिक्र क्या, जद्दोजहद के, बिना व्यर्थ का संघर्ष किए पहुंच जाना चाहते हो तो तू नहीं, तो तेरा जिक्र क्या? भक्त का ही रास्ता है। उसी पर छोड़ दो। जो ज्ञानी जन्मों-जन्मों और निश्चित ही आदमी कमजोर है, असहाय है! क्षणभर में कर पाता है, भक्त क्षण में कर लेता है। और जो क्षण में हो भाव से भर जाता है; क्षणभर बाद भाव का तूफान उतर जाता है, | सकता है उसको जन्मों-जन्मों में करने की जिद्द, जिद्द ही है। जो ज्वार उतर जाता है, सब भूल जाता है। क्षण में हो सकता हो, उसे जन्मों-जन्मों तक करके क्या करना देखो मंदिर में आदमी को पूजा करते-कैसी पवित्रता है? इकट्ठा ही छोड़ सकते हो...। झलकती है उसके चेहरे से! नमाज पढ़ते देखो किसी रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। वह हजार सोने की को-कैसा निर्दोष भाव आंखों में उतर आता है! चेहरे पर कोई अशर्फियां लाया। उसने उनके चरणों में रख दी और कहा कि अद्वितीय आभा आ जाती है। फिर इसी आदमी को बाजार में यह मुझे आपको देना है। रामकृष्ण ने कहा कि ठीक है, अब तू देखो, किसी से लड़ते-झगड़ते, दुकान चलाते, तो तुम भरोसा ही ले आया है तो लौटाऊंगा तो तुझे बुरा लगेगा, ले लिया। ये मेरी न कर सकोगे कि वही आदमी है! मन है प्रतिपल बदला जाता ः हो गयीं। अब तू इतना काम कर दे मेरी तरफ से इनको ले अभी कुछ, अभी कुछ। मन तरंगायित है। चंचल होना मन का जाकर गंगा में डाल आ। यह मेरी हो गयीं। अब तू इतना काम 648 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति - और कर दे मेरे लिए कि इनको जाकर गंगा में डाल आ। दिमाग-दिल टटोलता वह आदमी गया तो, लेकिन लौटा नहीं, बड़ी देर होने लगी। कहां मनुष्य है कि जो तो रामकृष्ण ने कहा कि जाओ, देखो वह क्या कर रहा है। वह | उम्मीद छोड़कर जीया वहां एक-एक अशर्फी को बजा-बजाकर, खनका-खनकाकर इसीलिए अड़ा रहा फेंक रहा था पानी में। भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। चमत्कार हो रहा कि तुम मुझे पुकार लो था कि यह आदमी भी क्या कर रहा है! और वह एक-एक को इसीलिए खड़ा रहा बजाता, परखता, देखता, फेंकता। तो देर लग रही थी। गिनती कि तुम मुझे पुकार लो! रखता-तीन सौ तीन, तीन सौ चार-ऐसा धीरे-धीरे जा रहा पुकार कर दुलार लो था! तो रामकृष्ण ने कहा, उससे जाकर कहो कि नासमझ, जब दुलार कर सुधार लो! इकट्ठी करनी हों तो एक-एक अशर्फी को जांच-जांचकर, । भक्त कहता है, तुम्ही...! पुकारकर दुलार लो, दुलारकर परख-परखकर गिनती कर-करके, खाते में लिख-लिखकर सुधार लो! तुम्ही...! करना पड़ता है। जब पूरी फेंकनी हैं नदी में तो हजार हुईं कि नौ भक्त की बड़ी अनूठी भाव-दशा है। भक्त को कुछ भी करना सौ निन्यानबे हईं कि एक हजार एक हुईं! जब फेंकना है तो नहीं है, सिर्फ कर्तापन का भाव छोड़ना है। ज्ञानी को बहुत कुछ इकट्ठा फेंका जा सकता है; गिन-गिनकर वहां क्या कर रहा है? करना है-लंबी यात्रा है। और मजा यह है कि ज्ञानी कर-करके भक्त कहता है, जब डालना ही है उसके चरणों में तो भी अंत में यही कर पाता है कि कर्तापन का भाव छोड़ पाता है। गिन-गिनकर क्या डालना, इकट्ठा ही डाल देंगे! और यह भी | वह उसकी अंतिम सीढ़ी है। भक्त की वही प्रथम सीढ़ी है। अहंकार क्यों करना कि पुण्य ही उसके चरणों में डालेंगे! | इसलिए मैं बार-बार कहता हूं, ज्ञानी क्रमशः चलता है, भक्त यह भक्त की महिमा है। वह कहता है, पाप भी उसी के चरणों | छलांग लगाता है। ज्ञानी सीढ़ी से उतरता है; भक्त छलांग में डाल देंगे। यह भी अहंकार हम क्यों रखें कि हम पण्य ही तेरे | लगाता है। चरणों में चढ़ाएंगे, पाप न चढ़ाएंगे? इसमें भी बड़ी सूक्ष्म इसलिए महावीर के वचनों में तुम्हें एक क्रमबद्धता मिलेगी, अस्मिता है छिपी हुई, कि मैं और पाप तेरे चरणों में चढ़ाऊं! एक वैज्ञानिक शृंखला मिलेगी। एक कदम दूसरे कदम से जुड़ा नहीं, पहले पुण्य का निर्माण करूंगा, फिर चढ़ाऊंगा। मैं, और हुआ है। एक-एक कदम ब्योरेवार, साफ-साफ! सब गलत तेरे चरणों में आऊं-नहीं। आऊंगा-सर्व सुंदर होकर, इंगित-इशारे हैं। पूरा नक्शा है। जगह-जगह मील के पत्थर हैं। सर्वांग सुंदर होकर, महिमा से आवृत्त होकर-तब तेरे चरणों में कितने आ गये, कितना आगे जाने को है-सब लिखा है। रखंगा! इसमें भी बड़ी अस्मिता है। भक्त कहता है, अब जैसा महावीर ने चौदह गुणस्थान कहे हैं और पूरी यात्रा को चौदह भी हं, दीन-हीन, बुरा-भला, सुंदर-असुंदर, स्वीकार कर लो! खंडों में बांट दिया है। एक-एक खंड का स्पष्ट मील का पत्थर इसीलिए खड़ा रहा है। तुम पक्की तरह जान सकते हो कि तुम कहां हो, कितने चल कि तुम मुझे पुकार लो गये हो और कितना चलने को बाकी है। चौदहवें गणस्थान के जमीन है न बोलती बाद ही यात्रा पूरी होती है। नआसमान बोलता भक्त के पास कोई गुणस्थान नहीं है। भक्त के पास कोई जहान देखकर मुझे नक्शा ही नहीं है। भक्त के पास कोई क्रमबद्ध सीढ़ियां नहीं हैं। नहीं जबान खोलता भक्त को कुछ पता भी नहीं कि वह कहां है। वह इतना ही भर नहीं जगह कहीं जहां जानता है कि जहां भी हूं, उसी का हूं; जैसा भी हूं, उसी का हूं। न अजनबी गिना गया बस इतना सूत्र उसके हृदय में सघन होता चला जाता है। कहां-कहां न फिर चुका और यह निर्भर करता है तुम पर, चाहो तो एक क्षण में छलांग 649 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 HRRHEATRNET लग जाये, चाहो तो तुम जन्मों-जन्मों तक छलांग का विचार क्योंकि ऐसे ही तो बहत प्रतीक्षा की उसने। और वह सदा डरा करते रहो। होता है कि कहीं छूट न जाये, आया हुआ कहीं खो न जाये। जो गणित से जीते हैं उनके लिए ज्ञान का रास्ता है। जो प्रेम से जिसने, इतने श्रम से आया है, इतनी लंबी यात्रा करके आया है, जीते हैं उनके लिए भक्ति का रास्ता है। तब कहीं पानी के दर्शन हुए, वह तो एकदम झुक जाता है और 'नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी पीने में लग जाता है। लेकिन भक्त को तो बिना कुछ किए चंचल है मति मोरी!' मिलता है। वह कोई लंबी यात्रा करके आया नहीं है। 'उसके' उस चंचल मति को उसके चरणों में रख दो! कहना, ले | प्रसाद से मिलता है। 'उसकी' अनुकंपा से मिलता है। उसने सम्हाल! फिर अगर वह कहे कि नहीं, तुम्ही सम्हालो मेरे लिए, | कुछ अर्जित किया, ऐसा नहीं है। उसने किसी योग्यता के बल तो जैसे रामकृष्ण ने उस आदमी से कहा था कि जा मेरे लिए गंगा पर पाया, ऐसा नहीं। उसने तो अपनी अपात्रता को जाहिर में फेंक आ, तो तुम सम्हालना जब तक उसने तुम्हें दी है। वह करके, उसके ही हाथ में सब छोड़कर पाया है। तो वह चाहे तो अमानत है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। वह कहता है, थोड़ी मान-मनौवल कर सकता है। रुक सकता है। वह कहता सम्हाल मेरे लिए। अमानत है, तो तुमने सम्हाल ली है; जब है, 'आने दो, थोड़ा और जल को बढ़ने दो। इतना आ गया है तो मांगेगा तब वापस लौटा देंगे। ओंठ तक भी आ ही जायेगा। तब पी लेंगे। अंजुलि भी क्यों बांधे? और जिसने इतनी कृपा की है कि जल को ले आया है दूसरा प्रश्नः दो दिन पहले संध्या के दर्शन में आपने एक | इतने करीब, वह इतनी और भी करेगा।' युवती से कहा था, श्रद्धा करो। और मैंने भी आपकी बात पर उल्फत का जब मजा है कि वह भी हों बेकरार श्रद्धा की कि जहां उत्कट प्यास होगी वहां पानी को आना ही दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई। पड़ेगा। अब पानी तो आ गया है, लेकिन क्या मैं तुरंत अंजलि | और भक्त को तो जैसे-जैसे भक्ति में गहराई आती है, भर के पीना शुरू करूं या पानी मुंह तक आ जाये, इसकी धैर्य | वैसे-वैसे यह बात दिखाई पड़ने लगती है कि मैं ही उसे नहीं से प्रतीक्षा करूं? खोज रहा है, वह भी मुझे खोज रहा है। सचाई भी यही है। प्यासा ही जलस्रोत को नहीं खोज रहा है, जलस्रोत भी प्रतीक्षा तुम्हारी जैसी मर्जी! कर रहा है कि आओ। क्योंकि जब प्यासा जलस्रोत पर तृप्त साधना के जगत में हर जगह भक्त और साधक का फर्क है। होता है, तब जलस्रोत भी तप्त होता है। प्यासे की ही प्यास नहीं साधक तत्क्षण अंजलि भरकर पी लेगा। भक्त थोड़ी बुझती, जलस्रोत की भी जन्मों-जन्मों की प्यास बुझती है। मान-मनौवल चाहता है। वह कहता है, भगवान कहे, जलस्रोत का सुख यही है कि किसी की प्यास बुझे। 'पीयो!' थपथपाए कि 'चलो पीयो भी! माना कि बहुत देर तुम ही खोज रहे हो परमात्मा को, अगर ऐसा ही होता और उसे प्यासे रहे, अब तो पी लो।' तो वह रूठकर खड़ा हो जाता है। कोई प्रयोजन नहीं है तुमसे, तो खोज पूरी भी होती, इसकी झुकाया तूने, झुके हम, बराबरी न रही। संभावना नहीं है। क्योंकि अगर उसको रस ही न हो खोजे जाने यह बंदगी हुई ऐ दोस्त! आशिकी न रही। में, तो तुम कैसे खोज पाते? तुम खोज पाते हो, क्योंकि वह भी वह बड़े मान-मनौवल लेता है। वह कहता है, 'झुकें? क्यों चाहता है तुम खोज लो। वह ऐसी जगह खड़ा होता है कि तुमसे झुकें?' और वह यह इसीलिए कह पाता है, 'क्यों झुकें', मिलन हो जाये। वह ऐसे तुम्हारे पास ही आकर खड़ा हो जाता है क्योंकि वह झुका तो है ही। | कि तुम जरा ही खोजबीन करो कि मिलना हो जाये। सब उसने छोड़ा है तो यह हक अर्जित किया है कि वह थोड़ा तुमने बच्चों को देखा है न, छिया-छी खेलते, बस वही खेल रूठने-मनाने का खेल खेल सकता है। है। वे कोई ज्यादा दूर नहीं चले जाते कि फिर तुम खोज ही न साधक के सामने जब पानी आता है तो वह तत्क्षण पी लेता है, पाओ। वहीं कमरे में बिस्तर के पीछे छिपे हैं, कि पलंग के नीचे 650 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KHEcond प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति M चले गए हैं। तमको भी पता है. उनको भी पता है। लौटता, तुम जल्दी ही थक जाते हो। तुम उदास हो जाते हो। तुम जिसको पता है वह भी दो-चार चक्कर लगाकर बिस्तर के अपने रास्ते पर लग जाते हो। तुम सोचते हो, यह द्वार अपने नीचे आ जाता है कि अरे! और इस तरह चमत्कृत होता है कि लिए नहीं। तुम अगर मित्रता बांट रहे हो और दूसरी तरफ से जैसे कुछ पता न था। हालांकि वह आंख बंद किये खड़ा था, मित्रता के लिए कोई प्रतिसंवेदन नहीं होता, कोई संवाद नहीं लेकिन उसने थोड़ी-सी आंख खोलकर देख लिया था कि कहां । उठता, दूसरे हृदय से कुछ खबर नहीं आती कि तुम्हारी मित्रता जा रहे हो! सबको पता है।। स्वीकार की गयी, अस्वीकार की गयी; चाही गई थी, नहीं चाही इसलिए हिंदू इस जगत को लीला कहते हैं।...छिया-छी है। | गई थी; दूसरा प्रसन्न हुआ कि नहीं प्रसन्न हुआ; दूसरा अगर परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। तुम्हीं अकेले नहीं हो खोज तटस्थ ही खड़ा रहे उपेक्षा से-तो जल्दी ही मित्रता सूख जाती में। यह तुम्हारा हाथ ही उसके हाथ की तरफ नहीं बढ़ा है, उसका है। सींचना तभी संभव हो पाता है जब दोनों तरफ से बह चले; हाथ भी तुम्हारे हाथ की तरफ बढ़ा है। शायद तुमने हाथ बढ़ाया, आये भी जाये भी; लौटे। और जब तुम किसी को प्रेम देते हो उससे पहले ही उसने हाथ बढ़ा दिया है। तुम्हें जब से बनाया, और प्रेम वापस लौटता है तो हजार गुना होकर लौटता है। फिर तब से ही हाथ बढ़ाए खड़ा है। तुमने बड़ी देर कर दी है। तुम देते हो, फिर हजार गुना होकर लौटता है। दो प्रेमी एक-दूसरे उल्फत का जब मजा है कि वह भी हों बेकरार को देकर इतना पा लेते हैं जितना उन्होंने दिया कभी भी नहीं था; दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई। क्योंकि दोनों की तरफ हजार गुना होकर लौटने लगता है। -आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है। प्यासा वह भी है कि दो प्रेमियों का जोड़ केवल जोड़ नहीं होता, गुणनफल होता है। तुम आओ। | जो अंतिम हिसाब है उसमें ऐसा नहीं होता कि तीन + तीन = वैज्ञानिक कहते हैं, सूरज निकलता है, फूल खिलते हैं। अब छह। उसमें ऐसा होता है : तीन x तीन से = नौ। गुणनफल की तक ऐसा ही समझा जाता रहा है कि यह एकतरफा लेन-देन है : | तरह चलती है, बढ़ती जाती है संख्या। बड़ा होता चला जाता सूरज निकला, फूल खिले। सूरज तो बहुत कुछ देता है फूलों है। दोनों प्रेमी छोटे हो जाते हैं और दोनों के आसपास को। सूरज के बिना तो फूल खिल न सकेंगे। कवियों को सदा आने-जानेवाला प्रेम बहुत बड़ा हो जाता है। दोनों प्रेमी दो तट इस बात पर संदेह रहा है और अब कुछ वैज्ञानिकों को भी संदेह की भांति हो जाते हैं और प्रेम की गंगा बड़ी होने लगती है। होना शुरू हुआ है। और वह संदेह यह है कि एकतरफा तो जगत | लेकिन यह तभी संभव है जब लौटता भी हो। में कुछ भी नहीं हो सकता। यहां तो सब लेन-देन संतुलित है। मेरी भी दृष्टि यही है कि फूल भी लौटाते हैं। और जिस दिन यहां तो दोनों तराजू समान होने चाहिए। अन्यथा अव्यवस्था हो पृथ्वी पर एक भी फूल न होगा, उस दिन सूरज ऊगना न जायेगी। सूरज देता रहे, फूल लेते रहें; सूरज देता रहे, फूल लेते चाहेगा। ऊगने का कोई अर्थ न रह जायेगा। किसके लिए? रहें-तो एक दिन सूरज का दिवाला निकल जायेगा। और फूलों। मैं यहां बोल रहा हूं। तुम अगर समझते हो तो ही बोल सकता के पेट इतने बड़े हो जाएंगे कि वे अपने को सम्हाल न पाएंगे। हूं। तुम्हारी आंख से, तुम्हारे भाव से, तुम्हारी मुद्रा से अगर नहीं, फूल भी कुछ दे रहे होंगे। और सुबह जब सूरज निकलता समझ को लौटते हुए देखता हूं तो ही बोल सकता हूं। अन्यथा है तो फल ही नहीं खिलते, सुरज भी फलों को खिला देखकर फिर दीवालों से बोलने में और तुमसे बोलने में कोई फर्क न रह खिलता होगा। जायेगा। फिर दीवालों से ही बोल ले सकता हूं। तुम दीवाल नहीं यह अब तक तो कविता रही है। लेकिन अभी इधर दस वर्षों में हो। इसलिए धीरे-धीरे मैंने भीड़ में बोलना बंद कर दिया, | वैज्ञानिकों को इस पर संदेह आने लगा है और शक होने लगा है क्योंकि मैंने पाया कि वहां बड़ी दीवाल खड़ी है। भीड़ तो खड़ी कि यह कविता कहीं सच ही न हो। क्योंकि सब तरफ जीवन में होती है, लेकिन दीवाल की तरह खड़ी होती है। वहां लेन-देन बराबर है। तुम जिसे प्रेम देते हो, तत्क्षण उससे प्रेम संवेदनशील चित्त नहीं हैं। तो मैं बोलता हूं, लेकिन लौटता कुछ पाते हो। अगर तुम ही प्रेम दे रहे हो और दूसरी तरफ से प्रेम नहीं भी नहीं। और अगर लौटता न हो, कम से कम समझ न लौटती 651 www.jainelibray.org Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERE जिन सूत्र भाग: ARATRE हो, आंखों की झलक न लौटती हो, जरा-सी रोशनी है, तुम्हारी परमात्मा मुझे नहीं खोज रहा है। परमात्मा का साधक को कोई आंख में कौंध जाती है, अगर वह न लौटती हो, तो बोलना व्यर्थ बड़ा सवाल ही नहीं है। साधक सत्य खोजता है। सत्य का अर्थ हो जाता है। होता है : तटस्थ। भक्त भगवान खोजता है। भगवान का अर्थ मैं कहता हूं, सूरज नहीं ऊगेगा, जिस दिन फूल नहीं खिलेंगे। होता है : व्यक्ति, प्रेम से लबालब! सत्य रूखा शब्द है। सत्य यह तो हम जानते हैं कि फूल नहीं खिलेंगे अगर सूरज नहीं में तर्क की भनक है, गणित का स्वाद है। सत्य शब्द में कोई ऊगेगा। दूसरी बात भी इतनी ही सुनिश्चित है। फूलों की तरफ रसधार नहीं है, मरुस्थल जैसा है। अब तुम लगाओ सत्य को से किसी ने अभी बहुत गवाही नहीं दी। फूलों की तरफ से खोज छाती से, तुमको पता चलेगा! तो तुम तो लगा रहे हो, लेकिन नहीं हुई। फूल छोटे-छोटे हैं, सूरज बड़ा है। सत्य बिलकुल हाथ नहीं फैला रहा। जैसे तुम किसी खंभे को लेकिन आदमी के जगत में उलटी हालत है। आदमी छोटा है छाती से लगा रहे हो, ऐसा सत्य छाती से लगेगा। और कहता है, हम परमात्मा को खोजते हैं। और परमात्मा बड़ा 'भगवान!' भक्त यही कह रहा है कि अस्तित्व तुम्हारे प्रति है, सूरज की भांति। परमात्मा तुम्हें खोज रहा है। तुम छोटे-छोटे तटस्थ नहीं है। इतना ही अर्थ है भगवान शब्द का। भगवान से फूल हो। वह तुम्हारी तलाश कर रहा है। उसकी किरणें तुम्हें कोई मतलब नहीं है कि कोई बैठा है आकाश में व्यक्ति की आकर घेर लेना चाहती हैं, तुम्हारे साथ हवाओं में नाचना चाहती तरह। यह शब्द तो सूचक है। यह तो इतना कह रहा है कि हैं। इसे अगर स्मरण रखा तो कोई डर नहीं है, थोड़ी देर रुक अस्तित्व तुम्हारे प्रति उदासीन नहीं है। अस्तित्व तुम्हारे प्रति प्रेम जाना। जो छाती तक आ गया है पानी, वह ओंठों तक भी आ से लबालब है, भरा हुआ है। यह सत्य नहीं है, बल्कि प्रेम है। जायेगा। वह तुम्हें डुबा लेना चाहता है अपने में। वह डूबकर इसलिए जब जीसस ने कहा कि परमात्मा प्रेम है तो उनका यही बड़ा मस्त होगा। वह डुबाकर बड़ा मस्त होगा। वह तुम्हें अपने अर्थ था। कह सकते थे, परमात्मा सत्य है। गांधी ने कहा ही है: में आत्मसात कर लेना चाहता है। तुम उसी की ऊर्जा हो-दूर द्रुथ इज गाड; सत्य परमात्मा है। लेकिन सत्य बड़ा रूखा-सूखा भटक गयी। वह तुम्हें पाकर वैसा ही प्रसन्न होगा जैसे कोई शब्द है; जैसे किसी तर्क का, गणित का, हिसाब का शब्द है। प्रेयसी, उसका पति खोया हुआ वापिस लौट आए; या कोई मां, इसमें भगवान का रस नहीं। सत्य को परमात्मा कहने का अर्थ है उसका बेटा खोया हुआ वापिस लौट आए; या कोई बाप। कि परमात्मा नहीं है, सत्य है। फिर सत्य को खोजना पड़ेगा। यह आनंद एकतरफा होनेवाला नहीं है। इस जगत में सत्य तुम्हें नहीं खोजेगा। सत्य को क्या पड़ी है ? सत्य में तो कोई एकतरफा कुछ भी नहीं है। इसे तुम जीवन का बुनियादी सत्य प्राण भी नहीं हो सकते। जब सत्य में प्राण होते हैं और भीतर समझो। यहां जहां भी एक तरफ तुम कुछ देखो, समझना कि ज्योति का दीया जलता है, तब वह परमात्मा हो जाता है, तब वह दूसरी तरफ भी कुछ हो रहा है। यहां ताली एक हाथ से नहीं | सत्य नहीं रह जाता। इसलिए जीसस ज्यादा सही हैं, जब वे बजती। कहते हैं परमात्मा प्रेम है या प्रेम परमात्मा है। तो भक्त अकेला ही ताली न बजा पाएगा। और भक्त अकेला तो अगर तुमने भक्त की तरह से छलांग लगायी है तो कोई भजन न कर पायेगा। और भक्त अकेला कीर्तन न कर पायेगा। फिक्र नहीं, रुके रहना, ठहरे रहना-वह बढ़ेगा। तुम जितनी अगर पाए न कि भजन में वह भी सम्मिलित है, कहीं पीछे खड़ा जिद्द करोगे उतनी तीव्रता से बढ़ेगा। तुम्हारी जिद्द भी तुम्हारे वह भी गुनगुना रहा है, और कीर्तन में अगर पाए न कि वह भी भरोसे की अभिव्यक्ति होगी। तुम्हारी जल्दबाजी अधैर्य की, नाच रहा है-कितनी देर भक्त अकेला चल पाएगा? ईंधन | तुम्हारी प्रतीक्षा तुम्हारे धैर्य की! जल्दी ही चुक जायेगा। वही है जो ईंधन को डाले चला जाता है। खुद्दारियां यह मेरे तजस्सुस की देखना इसलिए अगर साधक हो और बड़ी मेहनत से पहुंचे हो जलस्रोत मंजिल पर आकर अपना पता पूछता हूं मैं। पर, तो अंजुलि भरकर पीना ही पड़ेगा; तुम देर तक प्रतीक्षा नहीं भक्त कहता है, देखो मेरी तलाश का स्वाभिमान कि मंजिल कर सकते। क्योंकि साधक मानता है, मैं ही खोज रहा है; पर आ गया हूं और मंजिल पर आकर अपना पता पूछता 22CSE Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति हूं।...छिया-छी! साधक कई बार चूक जाता है पहंच-पहंचकर; क्योंकि साधक भक्त कभी-कभी बड़े स्वाभिमान से भी बात करता है। भक्त | का पहुंचना मन की एक खास दशा पर निर्भर करता है। वह दशा ही कर सकता है स्वाभिमान से बात, क्योंकि जिसका कोई बड़ी संकीर्ण है और बड़ी कठिन है। उसे क्षणभर भी बांधकर अहंकार नहीं वही स्वाभिमान से बात कर सकता है। रखना बहुत मुश्किल है। महावीर ने कहा है, अड़तालीस सैकिंड महाराष्ट्र में प्यारी कथा है विठोबा के मंदिर की, कि एक भक्त । तुम ध्यान में रह जाओ तो सत्य की उपलब्धि हो जायेगी। अपनी मां की सेवा कर रहा है और कृष्ण उसे दर्शन देने आए हैं। अड़तालीस सैकिंड! अड़तालीस सैकिंड भी मन को ध्यान की उन्होंने द्वार पर दस्तक दी है। तो उसने कहा, अभी गड़बड़ न अवस्था में रखना कठिन है।। करो, अभी मैं मां के पैर दाबता हूं। लेकिन कृष्ण ने कहा, सुनो लेकिन भक्त तो चौबीस घंटे भी भगवान के भाव में रह सकता भी मैं कौन हूं। जिसके लिए तुमने सदा प्रार्थना की और सदा है। वह भूलता भी है तो भी उसी को भूलता है; याद भी करता है पुकारा, वही कृष्ण हूँ। इतनी मुश्किल और इतनी प्रार्थनाओं के तो भी उसी की याद करता है लेकिन उससे कभी नहीं छूटता। बाद आया हूं।' तो उसके पास एक ईंट पड़ी थी, उसने ईंट उसका भूलना भी उसी का भूलना है ! अगर पीठ भी करता है तो सरका दी, लेकिन उस तरफ देखा नहीं, और कहा, 'इस पर | उसी की तरफ करता है और मुंह भी करता है तो उसी की तरफ बैठो, विश्राम करो, जब तक मैं मां के पैर दाब लूं।' वह रातभर करता है। भक्त की बड़ी अनूठी स्थिति है! पैर दाबता रहा और कृष्ण उस ईंट पर खड़े-खड़े थक गये और तो तुम पर निर्भर है, पूछनेवाले पर निर्भर है। अगर बामुश्किल मर्ति हो गये होंगे। तो विठोबा की मर्ति है वह ईंट पर खड़ी है। खोज पाए हो तो जब पहुंच जाओ पास तो देर मत कर देना, मगर गजब का भक्त रहा होगा-गजब का भरोसा रहा होगा! एकदम पी लेना ! कौन जाने, कहीं पास आया हुआ स्रोत फिर न खद्दारियां यह मेरे तजस्सस की देखना! खो जाये। हां, अगर भक्त हो तो थोड़ा मजा और खेल का ले -यह स्वाभिमान मेरी खोज का! सकते हो। और पहुंचकर खेल का जो मजा है वह और ही है! मंजिल पर आकर अपना पता पूछता हूँ मैं। पहले तो हम तड़फते हैं, डरे हुए रहते हैं, परेशान रहते हैं, बेचैन कृष्ण को भी खड़ा रखा। कृष्ण को भी ईंट पर खड़ा कर दिया। रहते हैं! भक्त का भरोसा इतना है, भक्त की श्रद्धा इतनी है कि जल्दी क्या इसलिए तुमने अकसर देखा, मंजिल पर जब लोग पहुंच जाते है! बेचैनी क्या है! भक्त को भगवान मिला ही हआ है। हैं तो सामने ही बैठ जाते हैं विश्राम के लिए। वैसे चलते रहे. बड़े भगवान लौट जायेगा, यह तो सवाल ही नहीं उठता। लौट भी मीलों चलकर आए होंगे, लेकिन ठीक जब द्वार पर आ जाते हैं जायेगा तो जायेगा कहां! | तो सोचते हैं ठीक, सीढ़ियों पर बैठ जाते हैं विश्राम करने के इसलिए अगर भक्त की दशा हो और खेल थोड़ी देर और लिए। अब कुछ देर नहीं, लेकिन अब पहुंच ही गए तो अब चलाना हो, तो जलस्रोत सामने फूट पड़े, तुम्हें छाती तक डुबा जल्दी भी क्या है! ले, तो भी खड़े रहना, कोई हर्जा नहीं। आएगा! वह भी आ रहा है. तम्हें खोज रहा है। वह ओंठों तक भी आयेगा। लेकिन अगर तीसरा प्रश्न: आपके प्रति इतना प्रेम रहते हए भी आपको बहुत चेष्टा से आए हो तो इतना धैर्य मत करना। क्योंकि जो सुनते वक्त कभी-कभी अकुलाहट और क्रोध क्यों उठने चेष्टा से मिलता है वह क्षण में खो भी सकता है। मन की किसी लगता है? भाव-दशा में जलस्रोत दिखाई पड़ता है; भाव-दशा बदल जाये, खो जायेगा। अगर मन की तरंगों पर कब्जा पाकर, प्रेम है-इसीलिए। ध्यानस्थ होकर, उसके जलस्रोत की झलक मिली हो तो जल्दी | तुम्हारा प्रेम क्रोध से मुक्त तो अभी नहीं हो सकता। तुम्हारे प्रेम पी लेना, क्योंकि तरंगों का क्या पता, विचार फिर आ जायें, फिर में तो क्रोध अभी होगा ही। तुम्हारी दोस्ती में तुम्हारी दुश्मनी भी चूक जाओ! अभी होगी। क्योंकि तुम बंटे-बंटे हो। अभी तुम एकरस नहीं। . Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTTARAME जिन सूत्र भागः T HERI अभी तो तुम जिससे प्रेम करते हो, उसी को क्रोध भी करते हो। दूसरों का ध्यान आकर्षित कर लें। कोई राजनेता बनना चाहता अभी तो तुम जिस पर श्रद्धा करते हो, उसी पर अश्रद्धा भी करते है-वह कुछ भी नहीं है, आकांक्षा इतनी है कि हजारों लोगों का हो। अभी तो तुम विरोधाभासी हो। अभी तो तुम्हारा चित्त एक ध्यान मेरी तरफ हो। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री...तो करोड़ों लोगों द्वंद्व की अवस्था में है-जहां विपरीत से छुटकारा नहीं हुआ; का ध्यान मेरी तरफ हो। जहां विपरीत मौजूद है। तो अगर तुम मुझे प्रेम नहीं करते तो तुमने देखा कि राजनेता जब तक पद पर होते हैं तब तक स्वस्थ जरूर कोई नाराजगी न होगी। रहते हैं; जैसे ही पद से उतरे कि बीमार पड़ जाते हैं। राजनेता तुमने देखा, अगर किसी को दुश्मन बनाना हो तो पहले दोस्त जब तक सफल होता रहता है तब तक बिलकुल स्वस्थ रहता है; बनाना जरूरी है। तुम बिना दोस्त बनाए किसी को दुश्मन बना असफल हुआ कि मरा, फिर नहीं जी सकता। क्या हो जाता है? सकते हो? कैसे बनाओगे? कोई उपाय नहीं। दोस्ती दुश्मनी में जब तक ध्यान मिलता है तब तक भोजन। ध्यान ऊर्जा है। तुम बदल सकती है, दुश्मनी दोस्ती में बदल सकती है; लेकिन सीधी जब भी किसी की तरफ देखते हो गौर से, तब तुम उसे ऊर्जा दे दुश्मनी बनाने का कोई उपाय नहीं। हम नाराज उन्हीं पर होते हैं रहे हो। तुम्हारी आंखों से जीवन-स्रोत बहता है। जिनसे हमारा लगाव है। अपनों से हम नाराज होते हैं, परायों से | इसलिए जिन लोगों को ठीक-ठीक रास्ते से ध्यान नहीं मिल तो हम नाराज नहीं होते। | पाता वे उलटे उपाय भी करते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तो मुझसे अगर तुम्हारा लगाव है तो बहुत बार नाराजगी भी | राजनेताओं में और अपराधियों में कोई फर्क नहीं है। फर्क इतना होगी। उससे कुछ घबड़ाने की जरूरत नहीं-वह प्रेम की छाया ही है कि राजनेता समाज-सम्मत उपाय से ध्यान आकर्षित करता है। उससे कुछ चिंतित भी मत हो जाना। क्योंकि उससे अगर है; अपराधी, समाज-असम्मत उपाय से। हत्या कर देता है तुम चिंतित हुए तो खतरा है। खतरा यह है कि तुम अगर उस पर | किसी की, अखबार में फोटो तो छप जाता है, चर्चा तो हो जाती बहुत ज्यादा ध्यान देने लगे चिंतित होकर, तो कहीं वही तुम्हारे है। लोग कहते हैं, बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा! तुम ध्यान से मजबूत न होने लगे। स्वीकार कर लेना कि ठीक है, प्रेम | भला सोचते होओ कि अपराधी को कैसा कठिन नहीं मालूम है तो कभी-कभी नाराजगी भी हो जाती है। लेकिन उस पर पड़ता होगा जब जंजीरें डालकर पुलिस के आदमी उसे जेलखाने ज्यादा ध्यान मत देना। ध्यान देने से; जिस पर भी हम ध्यान दें की तरफ ले जाते हैं। तुम गलती में हो, तुम जरा फिर से गौर से वही बढ़ने लगता है। ध्यान भोजन है। देखना! जब किसी आदमी को जंजीर बांधकर पुलिसवाले ले इसीलिए तो हम बहुत रस लेते हैं। अगर कोई तुम्हारे प्रति जाते हैं तो तुम उसकी अकड़ देखना-वह किस शान से चलता ध्यान न दे तो तुम कुम्हालने लगते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, | है। बाजार में वह प्रतिष्ठित है, वह खास आदमी है! बाकी बच्चे को अगर मां का ध्यान न मिले तो बच्चा, भोजन सब तरह किसी के हाथ में तो जंजीरें नहीं और बाकी की तरफ तो से मिले, चिकित्सा मिले, सुविधा-सुख मिले, तो भी कुम्हला चार-पांच पुलिसवाले आसपास नहीं चल रहे हैं, उसी के पास जाता है। ध्यान मिलना चाहिए। ध्यान पाने के लिए बच्चा चल रहे हैं! जैसे राष्ट्रपति के आगे-पीछे पुलिसवाले, ऐसा तड़फता है, रोता है, चीखता है। तुमने देखा, बच्चे को कह दो, अपराधी के आगे पीछे भी पुलिसवाले। जैसे राजनेता को भीड़ 'घर में मेहमान आ रहे हैं, शोरगुल मत करना'! वैसे वह शांति | देखती है, वैसे अपराधी को भी देखती है। से बैठा था, खेल रहा था अपने खिलौनों से, मेहमान के आते ही मैंने सुना है, एक राजनेता मरा तो उसकी प्रेतात्मा अपनी अर्थी वह शोरगुल मचाएगा। क्योंकि इतने लोग घर में मौजूद हैं, के साथ गयी। एक दूसरी प्रेतात्मा, एक पुराने भूतपूर्व राजनेता, इनका ध्यान आकर्षित करने का मौका वह नहीं चूक सकता। वे भी वहां मौजूद थे मरघट पर। तो उस नये राजनेता की प्रेतात्मा और वह एक ही रास्ता जानता है ध्यान आकर्षित करने का कि ने उनसे कहा कि अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ कुछ उपद्रव खड़ा कर दे। | इकट्ठी होगी, मैं कभी का मर गया होता। इतनी भीड़ इकट्ठी हुई, ध्यान भोजन है। इसीलिए तो लोग इतने आतुर होते हैं कि जिंदगी में कभी नहीं हुई थी! अगर मुझे पहले पता होता तो मैं Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी का मर गया होता ! भीड़ को इकट्ठा करने का बड़ा शौक है, बड़ा रस है । उसके पीछे मनोवैज्ञानिक सत्य है। अगर कोई भी उपाय न मिले तो आदमी उलटे-सीधे उपाय करता है। एक आदमी ने अमरीका में इस सदी के प्रारंभ में अपने को प्रसिद्ध करने के लिए आधे बाल काट लिए, आधी दाढ़ी-मूंछ काट ली। न्यूयार्क की सड़कों पर वह तीन दिन घूमता रहा। जहां गया वहीं लोगों ने चौंककर देखा कि क्या हुआ ! सब अखबारों में उसका नाम छपा। तीन दिन में वह आदमी हर आदमी की जबान पर था। और जब उससे पूछा गया कि यह तुमने किसलिए किया है, तो उसने कहा कि इसमें क्या कुछ बताने की बात है! मैं मरा जा रहा था, कोई मुझे जानता ही नहीं ! हम आए और चले ! किसी की नजर भी न पड़ी! यह भी कोई जिंदगी हुई? और मुझमें कोई गुणवत्ता तो है नहीं; मैं कोई बड़ा कवि नहीं हूं, कोई बड़ा चित्रकार नहीं हूं कि लोग मुझे देखेंगे तो मैंने कहा, कुछ तो करूं! यह मुझे सूझ गया। मगर अब चित्रकार मेरा चित्र उतारने को आ रहे हैं और कवि मेरे संबंध में कविताएं लिख रहे हैं। खयाल रखना, जिस पर भी तुमने ध्यान दिया वह मजबूत होता चला जाता है। आधुनिक विज्ञान ने जो बड़ी से बड़ी खोजें की हैं उनमें एक खोज बड़ी चमत्कारी है-और वह यह कि जब वैज्ञानिक निरीक्षण करता है परमाणुओं का, अणुओं का, गहरी खुर्दबीन से, तो एक बहुत अनूठी बात पता चली कि जब वह उनका निरीक्षण करता है तब उनका व्यवहार बदल जाता है। परमाणुओं का निरीक्षण करने से व्यवहार बदल जाता है ! यह तो हद्द हो गयी। इसका तो यह अर्थ हुआ कि जब तुम गौर से कुर्सी को देखते हो तो कुर्सी वही नहीं रह जाती, जब वह कोई नहीं देख रहा था, जैसी तब थी। यह आदमी के संबंध में तो समझ में आता है कि रास्ते पर तुम चले जा रहे हो, कोई भी नहीं है, तो तुम एक ढंग के आदमी होते हो। फिर रास्ते पर कोई निकल आया, दो आदमी निकल आए, तो तुम बदल जाते हो, तुम थोड़े सम्हलकर चलने लगते हो। और अगर दो स्त्रियां निकल आएं और अगर सुंदर हुईं, तब तो तुम बिलकुल ही बदल जाते हो। तब तो तुम एकदम झाड़ देते हो अपने को; सब तरह से सुंदर होकर, टाई-वाई ठीक करके चल पड़ते हो ! चेहरे पर रौनक आ प्रेम हे आत्यंतिक मुक्ति जाती है, पैर में गति आ जाती है ! तुमने देखा, दस आदमी बैठकर बात कर रहे हों और एक स्त्री वहां आ जाये, बात का पूरा का पूरा रूप बदल जायेगा - तत्क्षण ! अब वह दसों के बीच एक होड़ शुरू हो गयी कि इस स्त्री का ध्यान कौन आकर्षित करे ! स्त्री यानी मां ! उसी से आंख का पहला संबंध है। उसी से पहला ध्यान मिला था। उसी की आंख से पहली जीवन की ज्योति पायी थी। जैसे ही स्त्री को देखा कि तत्क्षण वही ध्यान की ज्योति पाने की आकांक्षा जगती है। और दसों में प्रतिस्पर्धा हो जायेगी कि कौन इस स्त्री को आकर्षित कर लेता है । जो आकर्षित कर लेगा वह जीत गया, वह नेता हो गया, बाकी नौ हार गये । वैज्ञानिक कहते हैं कि वस्तुएं तक वही नहीं रह जातीं निरीक्षण करने के साथ, जैसी वह पहले थीं। उनमें भी रूपांतरण हो जाता है। यह तो हद्द हो गयी। परमाणु को देखने के साथ ही व्यवहार बदल जाता है- -इससे एक बात सिद्ध होती है कि परमाणु भी आत्मवान हैं। वहां भी चैतन्य है। चैतन्य के अतिरिक्त तो ऐसा नहीं हो सकता। तो तुम जब वृक्ष को गौर से देखते हो तो तुम यह मत सोचना कि वृक्ष वही रहा - बदल गया। इस पर बहुत प्रयोग हो रहे हैं। अगर तुम एक वृक्ष को चुन लो बगीचे में और रोज उसके पास जाकर उसको ध्यान दो, और ठीक उसके ही मुकाबले वैसा ही दूसरा वृक्ष हो उसको ध्यान मत दो, पानी दो, खाद दो, सब बराबर, सिर्फ ध्यान मत दो और एक वृक्ष को चुनकर तुम उसे रोज ध्यान दो, दुलराओ, पुचकारो, प्यार करो, उससे थोड़ी बात करो, थोड़ी गुफ्तगू अपनी कहो, थोड़ी उसकी सुनो- तुम अचानक हैरान होओगे, जिस वृक्ष को ध्यान दिया वह दुगनी गति से बढ़ता है। इसके अब तो वैज्ञानिक प्रमाण हैं । उसमें जल्दी फूल आ जाते हैं । और फूल उसके बड़े होंगे। खाद और पानी में कोई फर्क नहीं है। दोनों वृक्ष एक साथ रोपे गए थे, एक ऊंचाई के थे; लेकिन जल्दी ही, जिसको ध्यान दिया गया था वह बढ़ जायेगा, जिसको ध्यान नहीं दिया गया, उपेक्षित, दुर्बल, दीन रह जायेगा। यही सत्य भीतर के संबंध में भी है। उन्हीं बातों को ध्यान दो जिन्हें तुम बढ़ाना चाहते हो। मुझसे तुम्हें प्रेम है, प्रेम को ही ध्यान 655 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAR HINTERE जिन स्त्र भाग 1 PARA E I दो। हां, बीच-बीच में छाया पड़ती है क्रोध की, ध्यान मत देना। मैंने कहा, मैंने कुछ बिगाड़ा नहीं है, कोई दुश्मनी नहीं की है। क्योंकि जिसको तुम ध्यान दोगे वह बढ़ेगा। प्रेम को ही ध्यान एक तथ्य का तुम्हारे सामने उदघाटन हुआ। यह परमात्मा जो देना! ध्यान देते-देते तुम पाओगे, क्रोध कम होने लगा। एक | तुम सोच रहे हो कि तुम्हें दिखायी पड़ता है, अभी दिखायी नहीं दिन ऐसी घड़ी आयेगी कि क्रोध की सारी ऊर्जा ध्यान में पड़ा है। तुमने सिर्फ अपनी आंख में धुंध खड़ी कर ली है। तीस निमज्जित होकर प्रेम बन जायेगी। तब क्रोध की छाया भी न साल की मेहनत अगर तीन दिन में खो जाये, तो बचाने योग्य ही बनेगी। तब प्रेम शुद्ध होगा। और जहां प्रेम शुद्ध है वहीं प्रार्थना न थी। तीस साल में अगर वह घड़ी न आयी कि तुम्हारे बिना का जन्म हो जाता है। याद किए परमात्मा याद रहे तो कब आयेगी? तो कहीं कछ भल 'आपके प्रति इतना प्रेम रहते हुए भी, आपको सुनते वक्त हो रही है। तुम्हारी याददाश्त में कहीं कोई भूल-चूक है। तुम्हारी कभी-कभी अकुलाहट और क्रोध क्यों उठने लगता है?' प्रक्रिया भ्रांत है। और भी कारण हैं। मैं जो कह रहा हूं, वह सभी से तुम्हें | तो स्वाभाविक है कि वह मुझ पर नाराज हुआ। वह नाराज ना मिले, ऐसा जरूरी नहीं है। उसमें बहत है जिससे तम्हें होकर चला गया। फिर कोई पंद्रह दिन बाद वापस लौटा। उसने सांत्वना न मिलेगी। उसमें बहुत है जिससे तुम्हारी धारणाएं कहा, क्षमा करना। शायद आप जो कहते हैं, ठीक है; यद्यपि मैं टूटेंगी। उसमें बहुत है जिनके कारण तुम्हारे बंधे हुए विचार नाराज हुआ, क्योंकि मेरी सांत्वना छीन ली, मेरी सुरक्षा छीन उखड़ेंगे। उसमें बहुत है जिनसे तुम्हारी अब तक की की गयी ली। मैं सोचता था, एक सत्य मिल गया है और वह सत्य छीन व्यवस्था में विघ्न-बाधा पड़ेगी। तो अकुलाहट भी होगी। लिया! यद्यपि अब मैं समझता हूं कि आपने छीना कुछ भी नहीं। अगर तुम एक रास्ते पर चल रहे थे और सोच रहे थे कि सब मेरी मुट्ठी खाली थी। मैंने खोलकर न देखी थी। मैंने मान रखा ठीक है और मुझसे मिलना हो गया, और मैंने कहा कि कुछ भी था। अब मैं पूछने आया हूं कि क्या करूं। ठीक नहीं है इसमें—तो अकुलाहट स्वाभाविक है। तो ऐसा बहुत बार होगा कि सुनते-सुनते तुम्हें अकुलाहट एक सूफी मेरे पास लाया गया। तीस साल से निरंतर होगी। क्योंकि तुम अपनी सारी मान्यताओं को घर नहीं छोड़कर स्मरण-स्मरण परमात्मा का कर रहा है, जिक्र कर रहा है। और आ गये हो। तुम उन्हें साथ ले आये हो। जब मैं कुछ बोल रहा हूं ऐसी घड़ी आ गयी थी कि उसे अब सब जगह परमात्मा दिखायी तो तुम्हारी मान्यताओं से सतत संघर्ष चल रहा है। एक शब्द पड़ता है-वृक्षों में, पहाड़ों में, पत्थरों में। तो मैंने उससे कहा तुम्हारे भीतर जाता है तो तुम्हारे हजार शब्दों की भीड़ उसे भीतर कि तीन दिन मेरे पास रहो और तीन दिन के लिए यह स्मरण बंद | घुसने नहीं देती। बेचैनी खड़ी होगी, अकुलाहट खड़ी होगी और कर दो। उसने कहा, क्यों? मैंने कहा, तीस साल हो गए, अब क्रोध भी उठेगा। लेकिन इसे समझने की कोशिश करना। , इसका भी तो पता लगाना जरूरी है कि यह कहीं स्मरण ही तो अकुलाहट तभी खड़ी होती है जब मेरे शब्द तुम्हें कुछ दृष्टि देते नहीं है! यह कहीं आत्म-सम्मोहन तो नहीं है। क्योंकि बार-बार हैं और वह दृष्टि तुम्हारी धारणाओं के विपरीत पड़ती है। तो दोहरा-दोहरा-दोहराकर कहीं ऐसा तो नहीं तुमने खयाल पैदा कर जल्दी मत करना। सुनना, समझना। वह अकुलाहट तुम्हारे मन लिया है! तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, सिर्फ भ्रांति हो रही है। की तरकीब है धुआं खड़ा करने की, ताकि तुम समझ ही न उसने कहा, यह बात तो ठीक है। वह थोड़ा डरा भी। लेकिन | पाओ। उस अकुलाहट में तुम चूक जाओगे। उस वक्त शांत फिर भी उसने कहा, मैं कोशिश करूंगा। तीन दिन वह मेरे पास रहकर सुन लेना। मन से कहना, घबड़ा मत, घर चलकर विचार था। उसने परमात्मा का स्मरण छोड़ दिया, नमाज न पढ़ी। | कर लेंगे; पहले समझ लेने दे। तुझे तो हम समझते हैं, वर्षों तेरे तीसरे दिन सुबह वह मुझ पर बहुत नाराज हो गया। उसने कहा, साथ रहे हैं; इस बात को भी समझ लेने दे। फिर दोनों पर यह तो सब खराब कर दिया। तीस साल की मेरी साधना पर ठीक-ठीक तौलकर विचार कर लेंगे, तराजू में रख लेंगे, पानी फेर दिया। यह तुमने कैसी दुश्मनी की? मैंने तुम्हारा क्या हिसाब-किताब लगा लेंगे। फिर जो ठीक होगा उसे मान लेंगे। बिगाड़ा था? अगर तुमने ठीक से सुना तो फिर कोई अड़चन नहीं है। सत्य alo Blucation International Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति की एक खूबी है। तुम उसे ठीक से सुन लो, फिर तुम उससे मेरे बिना खाली-खाली लगता है। वह भी नाराजगी का कारण बचकर भाग न सकोगे। उससे बचने का एक ही उपाय है कि तुम | है। वे मुझे न सुनें ज्यादा दिन तक तो बेचैनी होती है। तो जिस ठीक से सुनो ही न; सुनते वक्त ही तुम गड़बड़ कर दो तो ठीक आदमी पर हमें निर्भर हो जाना पड़ता है, उस पर नाराजगी होने है। अगर सुन लिया तो फिर असत्य उसके सामने टिक न लगती है कि यह तो बात बुरी हुई। यह तो एक तरह की परतंत्रता सकेगा। अगर तुम्हारी धारणा ठीक होगी तो बचेगी; अगर ठीक हो गयी। अगर वह दो-चार महीने मेरे पास न आएं तो मन न होगी तो गिर जायेगी। दोनों हालत में शुभ है। बड़ा-बड़ा वीरान हो जाता है; दौड़ होने लगती है आने की; फिर मेरी बातें सुन-सुनकर तुम्हारे जीवन में रूपांतरण होंगे। वे हजार काम छोड़कर आने का मन होने लगता है। यह नशा ऐसा रूपांतरण समाज को स्वीकृत होंगे, ऐसा नहीं है। समाज को है। इसकी तलफ भी होगी। तो जैसी नाराजगी आनी शुरू होगी धार्मिक व्यक्ति कभी स्वीकृत नहीं रहा, क्योंकि समाज अभी तक कि यह क्या मामला हुआ, यह तो हम जैसे किसी के वश में हो धार्मिक नहीं है। समाज को सांप्रदायिक व्यक्ति स्वीकृत हैं, गए, जैसे कोई हमें खींचने लगा, कोई धागे बंध गए, जैसे प्रेम ने क्योंकि समाज सांप्रदायिक है। हिंदू स्वीकृत है, मुसलमान कुछ जंजीरें बना लीं! तो भी नाराजगी आती है। स्वीकृत है, ईसाई स्वीकृत है; धार्मिक व्यक्ति किसी को स्वीकृत तेरे बगैर किसी चीज की कमी तो नहीं नहीं है। मैं न तुम्हें हिंदू बना रहा, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। मेरी तेरे बगैर तबियत उदास रहती है। चेष्टा अनूठी है। मैं तुम्हें सिर्फ धार्मिक बनाना चाहता हूं: सब हो तुम्हारे पास लेकिन अगर तुमने अपने हृदय में मुझे विशेषण-शून्य। | थोड़ी-सी जगह दी तो मेरे बिना थोड़ी तबियत उदास रहने तो तुम जब लौटकर जाओगे, अगर मेरी बात तुम्हारे मन में लगेगी। तो जो तुम्हें उदास कर रहा है, उससे तुम नाराज न गूंज गई, तुम्हारे हृदय को छू गई, तुम्हारे प्राणों का तार बज गया, होओगे तो क्या करोगे? यद्यपि यह उदासी संक्रमण काल की तो तुम कुछ अन्यथा होने लगोगे। रूपांतरण शुरू होगा। तुम है। जल्दी ही यह उदासी भी चली जाएगी। और जल्दी ही ऐसी जहां हो, वहां अड़चन आएगी। तुम मुझ पर क्रोधित भी | घड़ी भी आ जायेगी कि यहां भाग-भागकर आने की जरूरत न होओगे। रहेगी। तुम जहां होओगे वहीं मैं चला आऊंगा। वह घड़ी आने मुझको तो होश नहीं तुझको खबर हो शायद के पहले यह उदासी की घड़ी गुजरेगी। लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया। वीरां है मयकदा खुम-ओ-सागर उदास हैं तो तुम मुझ पर नाराज होओगे। कहोगे कि इस आदमी न तुम क्या गए कि रूठ गये दिन बहार के। बर्बाद किया। भले-चंगे थे। अपना काम-धाम करते थे। यह तो अगर मेरे साथ तुमने अपनी बहार का संबंध जोड़ा-जो सब गड़बड़ हो गया। ये गेरुए वस्त्र, यह माला-लोग कहते कि जुड़ ही जाएगा; अगर तुम्हारा नाच मेरे साथ पैदा हुआ, तो हैं, पागल हो गये! लोग कहते हैं, सम्मोहित हो गये! अड़चन संबंध जुड़ ही जायेगा; अगर तुम यहां आकर खुश हुए, प्रसन होगी दफ्तर में, दुकान में। मैं जानकर ही अड़चन खड़ी कर रहा हुए, आनंदित हुए, उत्साह जगा, उत्सव हुआ तो घर लौटकर हूं; क्योंकि उसी अड़चन के माध्यम से तुम बदलोगे, अन्यथा । | तुम उदास हो जाओगे। तो मन यहां की तरफ भागा-भागा तुम बदल न सकोगे। रहेगा। करोगे कछ, याद यहां की बनी रहेगी। पत्नी, बच्चे पराए सुविधा से कोई बदलता नहीं--चुनौती से बदलता है। चुनौती । मालूम होने लगेंगे। अपना ही घर धर्मशाला मालूम होने कष्टपूर्ण होती है। प्रथम चरण में बड़ी पीड़ा होती है। लेकिन लगेगा। तो नाराजगी बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन यह पीड़ा के बाद ही नया जन्म है। | संक्रमण की बात है। थोड़े और गहरे उतरोगे तो धीरे-धीरे तुम्हें तो तुम्हारी नाराजगी, तुम्हारा क्रोध एकदम अकारण है, ऐसा पहली दफा पत्नी-बच्चे अपने मालूम होंगे। भी नहीं है। फिर जो मेरे प्रेम में पड़ गए हैं, काफी गहरे, जिनको मैं तुम्हें तोड़ने को नहीं हूं, किसी से भी तोड़ने को नहीं हूं। वही समाज की भी चिंता नहीं है अब, उनको भी अड़चन है। उनको मेरी निष्ठा है। तुम्हें मैं किसी से भी तोड़ने की चेष्टा नहीं कर रहा Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 11 हूं। तुम्हें जोड़ने की ही चेष्टा है। लेकिन इसके पहले कि असली जोड़ घटे, नकली जोड़ टूटेंगे। इसके पहले कि तुम अपने बच्चों को सच में प्रेम कर पाओ, वह जो झूठा प्रेम है—जो तुमने अब तक समझा है प्रेम है—वह जायेगा। वह जायेगा तो तुम बेचैन होओगे। तुम्हारे हाथ खाली लगने लगेंगे। तुम्हारा हृदय रिक्त होता हुआ मालूम पड़ेगा। लेकिन भरने की वह पहली शर्त है। तुम्हें पहले सूना करूंगा, खाली करूंगा, ताकि तुम भरे जा सको। तुम्हें काटना भी पड़ेगा, छैनी उठाकर तुम्हारे कई टुकड़े अलग भी करने पड़ेंगे-तभी तुम्हारी प्रतिमा निखर सकती है। तो अकारण नहीं है, स्वाभाविक है। अगर समझ लिया तो बेचैन न होओगे। ये बेचैनी की घड़ियां बीत जायेंगी। प्रेम कभी भी किसी को दुखी नहीं किया है। और प्रेम कभी किसी के लिए बंधन नहीं बना है। अगर मालूम पड़ता हो तो इतना ही समझना कि नया-नया है। यह स्वाद अभी जबान पर बैठा नहीं; एक दफा बैठ जायेगा तो तुम पाओगे, प्रेम ही स्वतंत्रता है। प्रेम मुक्ति है। प्रेम से बड़ी कोई मुक्ति नहीं। आज इतना ही। 658 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inter www.jaine Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवां प्रवचन सम्यक दर्शन के आठ अंग For Private Personal Use Only : Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ah दा सूत्र । HEATRE निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ।।७८।। जत्थेव पासे कई दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेण। तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्नओ खिप्पमिवक्खलीणं।।७९।। तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम् ! मा पमायए।।८०।। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हला सूत्रः 'सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं: अत्यंत अपरिचित की खोज में चला है। निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, अकसर लोग सत्य की खोज नहीं करते, शास्त्र को पकड़कर उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना।' | बैठ जाते हैं। क्योंकि शास्त्र में कहीं जाना नहीं-शब्द का खेल एक-एक अंग को बहुत ध्यान से समझना जरूरी है। है; बुद्धि की खुजलाहट है। तोते की तरह रट लेंगे, याद कर लेंगे 'निःशंका...' और सोच लेंगे, पहुंच गये। जैसे कोई हिमालय के नक्शे को सम्यक दर्शन का पहला अंग, पहला चरण : अभय। मन में लेकर बैठ जाये, छाती से लगाकर रखे और सोचे कि पहुंच गये; कोई शंका न हो, कोई भय न हो। लेकिन हिलेरी को या तेनसिंग को जब गौरीशंकर चढ़ना होता है साहस! क्योंकि जो साहसी हैं वे ही केवल सत्य की खोज पर | तो यह छाती पर नक्शे लगाने जैसा नहीं है, यह जीवन को दांव जा सकेंगे। सत्य की खोज में, समझ से भी ज्यादा मूल्य साहस पर लगाना है। साहस चाहिये। मृत्यु भी घट सकती है। जो है का है। साहस का अर्थ होता है। जहां कभी न गये हों, जिसे वह भी खो सकता है। और उसका तो कोई पता नहीं जो मिलने कभी न जाना हो, अपरिचित, अनजान, अज्ञेय-उसमें प्रवेश। को है। सत्य है अपरिचित। उसे अब तक जाना नहीं। जो जाना-माना तो जिसके पास जुआरी जैसा दिल है कि जो है उसे दांव पर है, उससे भय मिट जाता है; उससे हम परिचित हो जाते हैं। | लगा दे, उसके लिये जो नहीं है, वही केवल सत्य की खोज में जिस रास्ते पर बहुत बार आये-गये, उस रास्ते पर फिर डर नहीं सफल हो पाता है। दुकानदार सफल नहीं हो पाते। लगता। पहली बार, नये रास्ते पर, भय प्रतीत होता है : पता हिसाबी-किताबी सफल नहीं हो पाते। इसलिये महावीर सम्यक नहीं, रास्ता कहां ले जाये, और पता नहीं रास्ते पर क्या घटे! | दर्शन का पहला सूत्र कहते हैं : निःशंका। मन में जरा भी भय न और सत्य का रास्ता तो तुम कभी चले नहीं। जिस रास्ते पर तुम हो, तो ही जा सकोगे। अभय का, वीरों का मार्ग है-कायरों का चले हो, वह है संसार का रास्ता। साहस के अभाव के कारण ही नहीं, भगोड़ों का नहीं। हम बार-बार संसार के रास्ते पर ही परिभ्रमण करते रहते हैं। अब यहां तो उलटी हालत घटी है। जैन धर्म को स्वीकार मनस्विद कहते हैं कि आदमी अपरिचित सुख से भी डरता है; करनेवाले, जरा भी साहसी नहीं हैं। साहस से उनका कोई संबंध परिचित दुख को भी पकड़े रखता है, कम से कम परिचित तो है! नहीं रहा है और उन्होंने अपनी कायरता को अच्छे-अच्छे शब्दों कम से कम जाना-माना, अपना तो है! इतने दिनों का नाता तो | में ढांक लिया है...अहिंसा! अकसर मुझे ऐसा दिखाई पड़ा कि है! अपरिचित सुख से भी भय लगता है, कि पता नहीं क्या हो, जो आदमी डरता है कि कोई उसकी हिंसा न कर दे, वह अहिंसक क्या घटे! और जो व्यक्ति सत्य की खोज में चला है, वह तो हो जाता है। इस भय से कि कहीं दूसरा मेरी हानि न कर दे, वह 668 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 जिन सूत्र भाग: 1 कहता है हानि किसी को पहुंचाना ही नहीं। वह स्वयं भी हानि नहीं पहुंचाता, क्योंकि हानि पहुंचाने में हानि उठाने का खतरा भी जुड़ा है। वह किसी को मारता भी नहीं है, क्योंकि मारने जाने में अपने मारे जाने की भी संभावना खुलती है। वह अहिंसा की बात करता है। यहां खयाल रखना, अहिंसा वीरों का वेश है— उनका नहीं जो अभी डर रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं, घबड़ा रहे हैं। उनकी अहिंसा किसी काम की नहीं है। वह तो केवल लफ्फाजी है। वह तो ऊपर से थोप लिया आवरण है । वह तो अपने को छिपा लेना है, सुरक्षा है। महावीर कहते हैं, निःशंका पहला चरण है। और जो संसार से ही घबड़ा गये हैं, वह सत्य की यात्रा पर क्या खाक निकल सकेंगे ! जहां डरने जैसा कुछ भी न था, क्योंकि जहां खोने जैसा ही कुछ न था, वहां जो डर गये, वे सत्य की यात्रा पर कैसे निकल सकेंगे? इस भेद को खयाल में लो। सत्य की खोज के नाम पर तुम कहीं संसार से डरकर तो नहीं बैठ गये हो । जैन मुनियों को मैं देखता हूं तो ऐसा ही प्रतीत होता है। अधिक मौकों पर वे सत्य की खोज में नहीं गये, सिर्फ संसार की खोज से रुक गये हैं। संसार की खोज से रुक जाना अनिवार्य रूप से सत्य की खोज नहीं है। हां, सत्य का खोजी संसार की खोज से मुक्त हो जाता है, यह जरूर सही है । लेकिन संसार की खोज छोड़ देनेवाला सत्य की खोज पर निकल जाता है, यह आवश्यक नहीं है। । ऐसा समझो, एक आदमी गौरीशंकर चढ़ने जाता है— गौरीशंकर चढ़ने जायेगा तो पूना छूटेगा। लेकिन पूना छोड़कर कोई बैठ जाये, इससे गौरीशंकर नहीं पहुंच जायेगा पूना छोड़कर बैठने के हजार उपाय हैं : पूना की ठीक सीमा पर बाहर बैठा रहे; जहां पूना का कारपोरेशन का क्षेत्र शुरू होता है, बस उसकी सीमा पर बैठा रहे। लेकिन इससे कोई गौरीशंकर पर नहीं पहुंच जायेगा। हां, गौरीशंकर की यात्रा पर जो गया है वह पूना से जरूर मुक्त हो जायेगा; उसे पूना छोड़ना ही पड़ेगा। महावीर ने संसार छोड़ा, सत्य की यात्रा पर गये, इसलिये । बड़े साहस का कदम उठाया। लेकिन जैन मुनि !... वह संसार से डरकर बैठ गया है। संसार से जो डर गया वह सत्य में तो जायेगा ही कैसे ? परिचित से जो डर रहा है वह अपरिचित में तो जायेगा कैसे ? दिखाई पड़नेवाले से जो डर रहा है वह अदृश्य की यात्रा पर तो कैसे कदम उठायेगा ? जहां भीड़ है, संगी-साथी हैं, परिवार है, मित्र हैं, उस रास्ते पर, राजपथ पर चलने से डर रहा है, तो बीहड़ वनों में और पगडंडियों पर उतरेगा ? सत्य की खोज पर तो जाना पड़ता है अकेले। वहां तो कोई साथी न होगा, कोई संगी न होगा। वहां तो शास्त्र भी छोड़ देने होंगे, शब्द भी छोड़ देने होंगे। वहां तो समाज से जो लिया है वह सब छोड़कर जाना होगा। भाषा भी छोड़ देनी होगी। इसलिये महावीर ने अपने संन्यासी को मुनि कहा था, कि वह भाषा का त्याग कर दे। क्योंकि भाषा तो समाज की ही देन है। गौर से देखें तो भाषा ही समाज है । जब तुम बोलते हो तभी समाज बनता है; जब तुम नहीं बोलते तो समाज नहीं बनता। तुम अगर चुप खड़े हो तो तुम अकेले हो; बोले, कि जुड़े। थोड़ी देर को सोचो! एक गांव तय कर ले कि अब वाणी का त्याग करते हैं, पूरा गांव चुप हो जाये, तो उस गांव में अकेले अकेले लोग रह जायेंगे। उस गांव में समाज न रहेगा, क्योंकि सेतु गिर जायेंगे। दो आदमियों के बीच जो सेतु हैं वे तो शब्द हैं। अगर सारा गांव तय कर ले कि अब हम चुप होंगे तो गांव मिट जायेगा; व्यक्ति रह जायेंगे, समूह न रह जाएगा। समूह तो जीता है भाषा पर । महावीर ने कहा कि तुम भाषा भी छोड़ोगे तो ही जा सकोगे सत्य तक। हां, जब सत्य को जान लो, तब चाहे भाषा का उपयोग करके लोगों को समझा देना। लेकिन जानते समय छोड़कर जाना होगा, मौन होना होगा, शून्य होना होगा। और जो भी तुम्हारे पास है उस सबको उसके लिए दांव पर लगा देना होगा, जिसको न तुम जानते, न कोई आश्वासन है जिसका कि पक्का है, मिलेगा। क्योंकि कोई दूसरा तुम्हें आश्वासन नहीं दे सकता। अगर मुझे कुछ मिला तो मैं लाख सिर पटकूं तो भी तुम्हें समझा नहीं सकता कि तुम्हें भी मिलेगा। कोई उपाय नहीं है। सत्य की अनुभूति आंतरिक है। वस्तुतः नहीं है सत्य, कि तुम्हें दिखा दूं हाथ में रखकर, कि यह रहा सत्य, ताकि तुम्हें भरोसा आ जाये। तुम छूकर तो न देख सकोगे, आंख से न देख सकोगे, कान से सुना न जा सकेगा। भरोसा करना होगा। उसी भरोसे को महावीर कहते हैं : निःशंका, ट्रस्ट । एक गहन श्रद्धा की जरूरत होगी एक ऐसी श्रद्धा की, जिसमें जरा भी संदेह न हो, क्योंकि Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन के आठ अंग जरा भी संदेह हुआ तो संदेह पैर को पीछे खींच लेता है। संदेह बात ही नहीं है, मेरे पास कुछ है नहीं...। पैर को आगे बढ़ने ही नहीं देता। अगर तुम्हें जरा भी डर रहा और मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर एक भिखारी आया। पता, पता नहीं होगा ऐसा, न होगा ऐसा-अगर ऐसी तुम तो मुल्ला ने उसे देखते ही से कहा कि मालूम होता है गांव में आशंका में घिरे रहे, तो कदम उठेगा नहीं। नये-नये आये हो। इसलिए पहला कदम महावीर कहते हैं : निःशंका। लेकिन हम उस भिखारी ने कहा, आप कैसे पहचान गए? बिलकल ठीक तो बड़ी आशंका से भरे हैं। और हमारी आशंकाएं बड़ी अदभुत कहते हैं। मैं अभी स्टेशन से ही उतरकर चला आ रहा हूं। मगर हैं। हमारी आशंकाएं ऐसी हैं कि जैसे कोई नंगा कहे कि मैं नहाऊं | आप पहचाने कैसे? आप कोई ज्योतिषी हो? कैसे, क्योंकि नहा लूंगा तो फिर कपड़े कहां निचोडूंगा, कपड़े। उसने कहा कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं, लेकिन गांव के भिखारी कहां सुखाऊंगा! नंगा है, कपड़े हैं नहीं; लेकिन स्नान नहीं जानते हैं कि यहां कुछ मिलेगा नहीं। करता इस डर से कि कहीं कपड़े भीग न जायें। भिखारी है, डरता भिखारी को भी देने योग्य हमारे पास क्या है! हमारे पास है ही है कि कहीं चोर-लुटेरे न मिल जाएं। पास कुछ भी नहीं। लुटेरे | कहां कुछ! लेकिन हम मानकर बैठे हैं, मान्यता है, और मान्यता मिल भी जाएंगे तो उन्हीं को लुटना पड़ेगा, कुछ देकर जाना में हम काफी रस लेते हैं। मान्यता के ढक्कन को उघाड़कर भी पड़ेगा। लेकिन, भिखारी भी डरता है कि कहीं चोर-लुटेरे न | भीतर के खाली बर्तन को नहीं देखते। डर लगता है कि कहीं मिल जाएं। हमारी दशा ऐसी ही है। हमारे पास कुछ भी नहीं| ऐसा न हो कि खाली ही हो! मुट्ठी हम बांधकर रखते हैं, खोलते और आशंका बहुत है कि कहीं खो न जाये। | नहीं, क्योंकि कहीं दिखाई न पड़ जाये कि खाली है। हम अपने कभी तुमने सोचा, क्या है तुम्हारे पास जो खो जायेगा? हाथ को समझाये रखते हैं कि है, बहुत है। हम गुनगुनाते रहते हैं कि तुम्हारे खाली हैं, हृदय तुम्हारा रिक्त है, संपत्ति के नाम पर कुछ बहुत है। और फिर आशंका पैदा होती है कि कहीं छिन न जाये। ठीकरे इकट्ठे कर रखे हैं जो मौत तुमसे छीन ही लेगी। तुम लाख | महावीर जब तुमसे कहते हैं, आशंका नहीं चाहिये, निःशंका उपाय करो तो भी अंततः मौत से तुम हारोगे। कितने ही बचो, की स्थिति चाहिये, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निःशंका को इधर बचो उधर बचो, इधर छिपो उधर छिपो, एक न एक दिन | आरोपित करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि तुम अपनी आशंका मौत तुम्हारी गर्दन पकड़ ही लेगी। को जरा गौर से खोलकर, आंखों के सामने बिछाकर तो देख अंततः मौत जीतेगी, तुम न जीत पाओगे—इतनी बात निश्चित लोः वहां कोई कारण है? कोई भी कारण नहीं है! जिस दिन है। बीच में कितनी देर तुम धोखा दे लेते हो, मौत को इससे क्या तुम्हें ऐसी दृष्टि उपलब्ध होगी कि डरने का कोई भी कारण नहीं फर्क पड़ता है? अंततोगत्वा मौत तुम्हारी गर्दन पकड़ लेगी और है, खोने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि है ही नहीं, उसी क्षण तुम्हारे तुम्हारे ठीकरों को उगलवा लेगी। जिसे तुमने इनकमटैक्स जीवन में एक नई ऊर्जा का आविर्भाव होगा। उस नई ऊर्जा को आफिस से बचा लिया होगा, उसको तुम मौत से न बचा | कहोः श्रद्धा, भरोसा, ट्रस्ट। उस नई ऊर्जा को कहो : निःशंका। सकोगे। जिसको तुमने चोरों से, डाकुओं से बचा लिया होगा, | तब तुम असंदिग्ध भाव से बिना पीछे लौटकर देखे, सत्य की उसको तम मौत से न बचा सकोगे। | खोज में निकल जाओगे। वह भाव तुम्हें, यह अनुभव कि मेरे यहां, पहली तो बात ः तम्हारे पास कुछ है नहीं, और जो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, ना-कुछ ही दांव पर लगाना है, मिला तो पास है वह सब मौत छीन लेगी। तो गवाने का डर क्या है? भय | ठीक न मिला तो कुछ खोता नहीं तो फिर दांव पर लगाने में क्या है? लेकिन तुम बड़े भयभीत होते हो।। तुम झिझकोगे नहीं। तुम सभी दांव पर लगा दोगे। महावीर कहते हैं, ठीक से अपनी स्थिति को समझो तो | मैंने सुना है, एक आदमी अमरीका की एक कार बेचनेवाली आशंका का कोई कारण ही नहीं है। आशंका के लिए जरा भी दुकान में गया। वह जिस कार को खरीदना चाहता था, उसका कोई आधार नहीं है। आशंका कल्पित है और जब आशंका गिर मिलना मुश्किल था। दुकानदार ने कहा, 'कम से कम साल भर जाये, और तुम देख लो खुली आंख से कि आशंका की तो कोई रुकना पड़ेगा। लंबा क्यू है। और कोई उपाय नहीं अभी देने 668 Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भागः1 का।' वह आदमी बड़ा नाराज हो गया। उसने कहा कि उसमें कोई आकांक्षा मत रखना। क्योंकि आकांक्षा ही संसार है। सालभर! गुस्से में उसने अपने खीसे से नोटों के बंडल निकाले अगर सत्य की खोज पर भी आकांक्षा लेकर गये, तो तुम अपने और जो कचरा फेंकने की टोकरी थी, उसमें डालकर दरवाजे के को धोखा दे रहे हो, तुम संसार में ही दौड़ रहे हो। तुम्हें भ्रांति हो बाहर हो गया। दुकानदार भी चकित हो गया। और बहुत धनी | गई है कि तम सत्य की खोज पर जा रहे हो। सत्य की खोज पर लोग देखे थे, मगर यह आदमी अदभुत है। हजारों डालर, ऐसे | वही जाता है जिसकी आकांक्षा गिर गई। कचरे में डालकर चला गया। उसने जल्दी से नोट निकलवाये, आकांक्षा को हम समझें। फिर नकारात्मक शब्द है: गिनती करवाई; दुगने थे, जितने कि कार के दाम हो सकते थे। निष्कांक्षा। आकांक्षा क्या है? जैसे हम हैं उससे हम राजी नहीं उसने फौरन अपने आदमियों को कहा कि जाकर कार उसके घर हैं। एक बड़ी गहरी बेचैनी है-कुछ होने की, कुछ पाने की, पहुंचा दो। कार घर पहुंचा दी। दूसरे दिन वह हैरान हुआ। भागा कहीं और होने की, कहीं और जाने की। जहां हम हैं वहां हुआ उस आदमी के घर गया और कहा, 'महानुभाव! वह सब अतृप्ति! जैसे हम हैं वहां अतृप्ति! जो हम हैं उससे अतृप्ति! नोट नकली हैं।' उस आदमी ने कहा, नकली न होते तो हम कुछ और होना था, कहीं और होना था। किसी और मकान में, कचराघर में फेंकते? . किसी और गांव में। किसी और पति के पास, किसी और पत्नी एक बार तुम्हें दिखाई पड़ जाये कि नोट नकली हैं, तो कचराघर के पास! कोई और बेटे होते! कोई और देह होती! कोई और में फेंकना भी आसान है। अड़चन कहां है? वस्तुतः ढोना तिजोड़ी होती! लेकिन कुछ और! 'कुछ और' की दौड़ मुश्किल हो जायेगा। उस बोझ को तुम किसलिये ढोओगे! उस आकांक्षा है। बोझ को किस कारण ढोओगे! तुम थोड़ा सोचो। कहीं भी तुम होते, क्या इससे आकांक्षा की महावीर तुमसे श्रद्धा जन्माने को नहीं कहते। यही महावीर का दौड़ रुक जाती? तुम सोचते हो, जिस महल में तुम्हें होना और अन्य शिक्षकों का भेद है। महावीर कहते हैं, तुम अपनी चाहिए था, उसमें कोई है, उससे तो पूछो! वह कहीं और होने की आशंका को ठीक से पहचान लो, वह गिर जाएगी। जो शेष रह दौड़ में लगा है। तुम जिस पद पर नहीं हो और सोचते हो, होना जायेगा, वही श्रद्धा है। इसलिये महावीर श्रद्धा शब्द का उपयोग चाहिए थे, उस पद पर भी कोई है। उससे तो पूछो! वह कहीं नहीं करते। एक-एक शब्द खयाल करना। यहां महावीर श्रद्धा और जाने की तैयारी में लगा है। जिस गांव तुम पहुंचना चाहते कह सकते थे, लेकिन नहीं कहा; साहस कह सकते थे, नहीं हो, वहां भी कोई रहता है। उससे तो पूछो! वह बिस्तर-बोरिया कहा। नकारात्मक शब्द उपयोग किया ः निःशंका। कोई बांधे बैठा है कि कब ट्रेन मिल जाये कि वह कहीं और चल पड़े। विधायक शब्द उपयोग न किया, क्योंकि विधायक की कोई यहूदियों में एक कहानी है। एक यहूदी धर्मगुरु ने—गरीब जरूरत नहीं है। सिर्फ आशंका की समझ आ जाए कि व्यर्थ है, आदमी था—एक रात सपना देखा। सपना देखा कि देश की कोरी है, अकारण है-जैसे ही आशंका गिर जाती है तो जो राजधानी में जो पुल है नदी के ऊपर, उसके एक किनारे बिजली शंकारहित चित्त की दशा है वही श्रद्धा है, वही साहस है, वही के ठीक खंभे के नीचे बड़ा धन गड़ा है। उसने धन भी अभय है। तुम्हारे भीतर एक अनूठी ऊर्जा का जन्म होगा। वह देखा-हीरे-जवाहरात चमकते हुए! सुबह उठा, सोचा सपना दबी पड़ी है। तुम्हारी चट्टान ने, आशंका की चट्टान ने उस झरने है। लेकिन दूसरी रात सपना फिर आया, ठीक वैसा का वैसा। को फूटने से रोका है। हटा दो चट्टानः झरना अपने से फूट दूसरे दिन सुबह जागकर वह एकदम यह न कह सका कि सपना पड़ेगा। झरना तो है ही! झरना तुमने खोया नहीं है। है, क्योंकि सपने इस तरह नहीं दुहरते। फिर भी उसने सोचा कि इसलिए महावीर नहीं कहते कि झरने को खोजो। महावीर नहीं क्या भरोसा, कहां जाना! लेकिन तीसरी रात सपना फिर आया, कहते कि श्रद्धा को आरोपित करो। महावीर कहते हैं, सिर्फ तब रुकना मुश्किल हो गया। उसने कहा, कोई राजधानी इतनी आशंका को उघाड़ो। दूर भी नहीं है, जाकर देख तो आऊं मामला क्या है! वह कभी दूसरा चरण है : निष्कांक्षा। जो भी तुम करो सत्य की खोज में, राजधानी गया भी न था। जब वह गया तो चकित हुआ। ठीक 666 Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा पुल उसने सपने में देखा था वैसा ही पुल राजधानी का है। तब तो उत्साह बढ़ा। तेजी से चलने लगा। दूसरी तरफ पहुंचा। ठीक बिजली का खंभा वहीं है जहां सपने में देखा था। ठीक वैसा ही बिजली का बल्ब लगा है-तब तो भरोसा और बढ़ा। लेकिन एक मुसीबत थी। सपने में उसने यह न देखा था कि एक पुलिसवाला वहां पहरा देता है। तो वह राह देखने लगा कि पुलिसवाला जाये तो मैं खोदकर देखूं । लेकिन पुलिसवाला तभी जाता जब दूसरा आ जाता, ड्यूटी बदलती। वह दो-तीन दिन ऐसे चक्कर मारता रहा। पुलिसवाले ने भी बार-बार इस आदमी | को वहां चक्कर मारते देखा। उसे बुलाया पास और कहा कि सुनो, क्या मामला है? आत्महत्या करनी है पुल से कूदकर ? क्योंकि इसीलिये वहां वह खड़ा रहता था कि कोई आत्महत्या न कर ले। मामला क्या है ? खजाना था ! हसीद फकीर इस कहानी में बड़ा रस लेते हैं। क्योंकि यह कहानी जीवन की कहानी है। तुम सोच रहे हो, कहीं और खजाना गड़ा है, किसी राजधानी में, किसी पुल के पास। वहां जो खड़ा है वह सोच रहा है कि तुम्हारे घर खजाना गड़ा है। तुमने कभी देखा ! कभी- कभी राह से चलते भिखमंगे को देखकर भी धनपति के मन में भी ईर्ष्या आ जाती है। कभी-कभी सम्राटों के मन में ईर्ष्या आ जाती है। क्योंकि जिस मस्ती से भिखारी चल सकते हैं उस मस्ती से सम्राट तो नहीं चल सकते। बोझ भारी है, चिंता बहुत है। रात सो भी नहीं सकते। कौन सम्राट सो सकता है भिखारी की तरह ! राह के किनारे की तो बात दूर, सुंदरतम सुविधा से सुविधापूर्ण कक्षों में भी, आरामदायक बिस्तरों पर भी नींद नहीं आती। चिंताएं इतनी हैं, मन ऊहापोह में लगा रहता है। और भिखारी राह के किनारे, अखबार को बिछाकर ही सो जाता है और घुर्राटे लेने लगता है। कभी-कभी सम्राटों के मन में भी ईर्ष्या उठती है कि ऐसा स्वास्थ्य, ऐसी निश्चितता, ऐसी शांति, ऐसे विश्राम की दशा काश, हमारी भी होती! भिखमंगा भी रोज महल के पास से निकलता है, सोचता है, काश, हमारे पास ऐसा महल होता ! उस यहूदी धर्मगुरु ने कहा, अब आपसे छिपाना क्या है; एक सपने के चक्कर में पड़ गया हूं। वह पुलिसवाला हंसा और उसने कहा, ठहरो! इसके पहले कि तुम अपना सपना कहो, मैं भी तुम्हें कह दूं। तीन दिन से मैं भी एक सपना देख रहा हूं। मैं एक सपना देख रहा हूं कि फलां-फलां गांव में...। जो उसने नाम लिया तो वह धर्मगुरु बड़ा हैरान हुआ, वह तो उसी के गांव का नाम है ! फलां-फलां गांव में फलां-फलां नाम का एक धर्मगुरु है । आकांक्षा का अर्थ है: तुम जहां हो वहां राजी नहीं। जो जहां है वहां राजी नहीं। कहीं और दिखाई पड़ता है जीवन का स्वप्न पूरा उसने कहा, अरे ठहरो! यह मेरा नाम है और मेरे गांव का तुम होता। वहां जो है, उसका भी जीवन का स्वप्न पूरा नहीं हो रहा पता ले रहे हो ! मैं ही हूं वह धर्मगुरु । | है। यहां भिखमंगे तो पराजित हैं ही, यहां सिकंदर भी पराजित हैं। यहां भिखमंगे तो खाली हाथ हैं ही, यहां सिकंदर भी खाली हाथ हैं। जिस दिन तुम्हें आकांक्षा की यह व्यर्थता दिखाई पड़ जाती है, उसी दिन निष्कांक्षा पैदा होती है, निष्काम भाव पैदा होता है। वह पुलिसवाला बहुत हंसा। उसने कहा कि मैं तीन दिन से एक सपना देखता हूं कि जहां धर्मगुरु सोता है उसके बिस्तर के नीचे एक खजाना गड़ा है। मैं तो एक दिन तो सोचा सपना है, दूसरे दिन कैसे सोचूं कि सपना है ! हीरे-जवाहरात सब साफ दिखाई पड़ते हैं। और आज तीसरी रात फिर सपना देखा है। और तुमसे इसलिए कह रहा हूं कि तुम्हारा चेहरा उस सपने में मुझे दिखाई पड़ता है। यह माजरा क्या है? तुम तीन दिन से यहां चक्कर भी लगा रहे हो। सम्यक दर्शन के आठ अंग सत्य के जगत में तुम आकांक्षा से नहीं जा सकोगे। क्योंकि सभी आकांक्षा संसार में लौटा लाती है। तो महावीर कहते हैं, अगर तुम स्वर्ग की आकांक्षा से सत्य की खोज करो, चूक जाओगे। क्योंकि स्वर्ग की खोज फिर संसार की ही खोज है। परिमार्जित, सुधरे हुए संस्कार – संसार का ही संस्करण है वह । यहीं जो सुख नहीं मिल पाये हैं, उनका ही बढ़ा-चढ़ा रूप है, फैला विस्तार है। जो शराब यहां नहीं पी, वहां बहिश्त में उसके उस धर्मगुरु ने कहा कि अब कुछ माजरा नहीं है। मैं कुछ और ही सपना देखा हूं। लेकिन अब मैं कुछ कहूंगा नहीं, अब मैं जाता हूं गांव अपने वापस । वह भागा आया। उसने अपनी खाट के नीचे खोदा, पाया, झरने बहाये हैं-वह तुम्हारी ही कल्पना है। जो स्त्रियां यहां 667 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 668 जिन सूत्र भाग: 1 उपलब्ध नहीं हो सकीं, वहां अप्सराओं की तरह बैठी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं ! इतना ही नहीं, अगर तुम किसी वृक्ष के नीचे ध्यान वगैरह करो, तो उर्वशी और मेनका आकर तुमको परेशान करेंगी। तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं बिलकुल कि तुम कब करो तपश्चर्या कि वे आयें। यह वासना, अतृप्त वासना ही, नये-नये विक्षेप कर रही है। यह अतृप्त वासना का ही विस्तार है। तो महावीर कहते हैं, किसी भी तरह के लाभ की आकांक्षा—वह स्वर्ग का ही लाभ क्यों न हो— संसार में लौटा लायेगी, सम्यक दृष्टि पैदा न होगी। निष्कांक्षा ! कैसे निष्कांक्षा पैदा हो ? आकांक्षा को समझने से; आकांक्षा की व्यर्थता को देख लेने से। जैसे कोई आदमी रेत से तेल निचोड़ रहा और न निचुड़ता हो और परेशान हो रहा हो और कोई उसे बता दे कि 'पागल, रेत में तेल होता ही नहीं; इसलिए तू लाख उपाय कर, तेरे उपायों का सवाल नहीं तेल निकलेगा नहीं; तू लाख सिर मार, तेरा सिर टूटेगा, गिरेगा, रेत से तेल निकलेगा नहीं ।' अकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि आकांक्षा स्वप्नों की जननी है। आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा, वह सपनों में खो गया; उसने अपने सपनों का संसार बना लिया। लेकिन सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है; उससे तेल निकल नहीं सकता। तेल वहां है नहीं । ध्यान रखना, महावीर की प्रक्रिया का यह अनिवार्य हिस्सा है कि वह जो है उसे देखने को कहते हैं। आकांक्षा है तो आकांक्षा को देखो, पहचानो, परखो, चारों तरफ से अवलोकन, निरीक्षण करो, विश्लेषण करो । खोज करो कि इससे तुम जो चाह रहे हो वह हो भी सकता है? अगर नहीं हो सकता तो आकांक्षा गिर जायेगी। जो शेष रह जायेगी, चित्त की दशा, निष्कांक्षा, वही दूसरा चरण है सम्यक दृष्टि का । तीसरा — निर्विचिकित्सा । जुगुप्सा का अभाव। अपने दोषों तथा दूसरों के गुणों को छिपाने का नाम है जुगुप्सा । प्रत्येक व्यक्ति उलझा है जुगुप्सा में। हम अपने दोष छिपाते हैं और दूसरों के गुण छिपाते हैं। अगर तुमसे कोई कहे फलां आदमी देखा, कितनी प्यारी बांसुरी बजाता है, तुम फौरन कहते हो : वह क्या बांसुरी बजायेगा ! चोर, लुच्चा, लंपट! अब चोर, लुच्चा, लंपट से बांसुरी बजाने का कोई भी संबंध नहीं है । कोई चोर है, इससे बांसुरी बजाने में बाधा नहीं पड़ती। लेकिन तुम तत्क्षण दबा देते हो कि वह चोर है, वह क्या बांसुरी बजायेगा ! और तुम अपने दोषों को छिपाये चले जाते हो। तुम अगर क्रोध भी करते हो तो जिस पर क्रोध करते हो उसी के हित के लिये करते हो, सुधार के लिये, एक तरह की सेवा समझो। अगर तुम बच्चे को पीटते भी हो, तो उसी के भविष्य के लिये। हालांकि कभी पीटने से, किसी का भविष्य बना नहीं, बिगड़ा भला मां अगर बेटे को पीटती है, तो सोचती है, क्योंकि वह कपड़े खराब कर आया, धूल-धवांस में खेला, या गलत बच्चों के साथ खेला। लेकिन अगर भीतर खोज करे तो पायेगी कि वह क्रोध से उबल रही थी। पति से कुछ झंझट हो गई थी। पति पर न फेंक पाई क्रोध को, बच्चे की प्रतीक्षा करती रही। क्योंकि यह बच्चा कल भी उन्हीं बच्चों के साथ खेला था और कल भी यह धूल-धवांस से भरा लौटा था। बच्चे हैं- लौटेंगे ही। बच्चे बूढ़े नहीं हैं । और समय के पहले उन्हें बूढ़ा बनाने की चेष्टा बड़ी खतरनाक है । उनके लिये अभी कपड़ों का कोई मूल्य नहीं है—और शुभ है कि कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जिस दिन कपड़ों का मूल्य हो जाता है उसी दिन अपने भीतर के सब मूल्य खो जाते हैं । अभी भीतर का आनंद पर्याप्त है, कपड़े गंदे भी हो जाते हैं तो चिंता नहीं; लेकिन भीतर का खेल शुद्ध रहता है, स्वच्छ रहता है। अभी भीतर की मौज इतनी बड़ी है कि थोड़ी धूल पड़ जाये तो बर्दाश्त कर लेती है। अभी बच्चे में प्रदर्शन का भाव नहीं जगा है और अभी थोथी वस्तुओं का मूल्य निर्मित नहीं हुआ है। अभी असली का मूल्य है। खेल का आनंद, रस मूल्यवान है। कपड़े इत्यादि अभी निर्मूल्य हैं। अभी इनका कोई, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन कल भी वह ऐसा ही आया था, तब मां ने कुछ भी न कहा था। लेकिन आज टूट पड़ती है, पीटने लगती है। पूछो तो कहेगी, सुधार के लिये ! लेकिन अगर गौर से निरीक्षण करे तो पायेगी कि पति पर नाराजगी थी। पति पर निकाल न सकी-पति परमात्मा है ! ऐसा पतियों ने ही समझाया हुआ है, तो उन पर नाराजगी निकाली भी नहीं जा सकती। वहां द्वार दरवाजा बंद है। तो जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है, ऐसा ही क्रोध भी अपने से कमजोर की तरफ बहता है। बच्चे से ज्यादा कमजोर और तुम Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GILSHREENE सम्यक दर्शन के आठ अग क्या पाओगे? बच्चे से ज्यादा कोमल और तुम क्या पाओगे? तुम आत्म-रूपांतरण को पा सकोगे, अन्यथा नहीं। क्योंकि जो पति अगर नाराज हो जाता है दफ्तर में मालिक से, तो घर पत्नी आदमी अपनी भूलें छिपाता है और दूसरों के गुण दबाता है, वह पर निकाल लेता है। पत्नी नाराज हो जाती है, बच्चे पर निकाल आदमी कभी गुणवान न हो सकेगा। दूसरे के गुण को देखना, लेती है। बच्चे को तुमने देखा। जाकर अपने कमरे में बैठकर या पहचानना, स्वीकार करना; क्योंकि दूसरे में देखकर ही तो तुममें तो किताब फाड़ डालेगा, या अपनी गुड़िया की टांगें तोड़ देगा, भी उसके जन्म का सूत्रपात होगा। किसी के मधुर कंठ को क्योंकि अब और कहां निकाले! | सुनकर ही तो तुम्हें भी खयाल उठेगा कि मेरा कंठ भी मधुर हो सारा संसार वहां खतम हो जाता है। सकता है। किसी कोयल की कह-कुह सुनकर तो तुम्हारे भीतर हम अपने दोषों को भी बड़ी सुंदर व्याख्या देते हैं। हम दूसरों भी रस का संचार होगा। के गुणों को भी स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार करते हैं। और | लेकिन तुमने कहा, 'यह क्या कुहू कुहू है? यह सब शोरगुल हम अपने दोषों को भी बचाते हैं। | है! यह सब उत्पात है! यह कोई संगीत है?' अगर तुमने मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा उससे पूछ रहा था। एक आदमी कुहू-कुहू को इनकार किया तो तुमने अपने भीतर भी कुहू-कुहू मसलमान था, हिंद हो गया था। उसके बेटे ने पछा कि पिताजी, की संभावना को इनकार कर दिया। इसको हम क्या कहें? उसने कहा, 'क्या कहना, गद्दारी है! जो तो दूसरे में जब कोई महिमा दिखाई पड़े तो सम्मान और आदमी मुसलमान से हिंदू हो गया, यह गद्दारी है।' पर उसके समादर से, अहोभाव से, उसे स्वीकार करना। उस स्वीकृति में, बेटे ने कहा कि कुछ ही दिन पहले, एक आदमी हिंदू से तुम्हारे भीतर भी महिमा के जन्म का पहला बीजारोपण होगा। मुसलमान हुआ था, तब आपने यह न कहा? उसने कहा कि और अपने भीतर जब कोई दोष दिखाई पड़े तो उसे छिपाना मत, वह धर्म-रूपांतरण था। उस आदमी को बुद्धि आई थी, क्योंकि छिपाने से दोष मिटते नहीं, छिप जाते हैं, और सदबुद्धि का आविर्भाव हुआ था। भीतर-भीतर बढ़ते रहते हैं। जिसे तुमने छिपाया वह बढ़ेगा। तो जब हिंदू मुसलमान बने, तो मुसलमान कहता है, अपना दोष हो तो उसे प्रगट कर देना; उसे स्वीकार कर लेना। सदबुद्धि और जब मुसलमान हिंदू बन जाये तो गद्दार! यही तुमने कभी खयाल किया, दोष स्वीकार करते से ही तुम्हारे हिंदू के लिए मूल्य है। भीतर क्रांति घटित हो जाती है! उस दोष का तुम्हारे ऊपर कब्जा मैं एक जैन संत को जानता था। वे हिंदू थे और जैन हो गये। छूट जाता है। तो जैन उनसे बड़े प्रसन्न थे, हिंदू बड़े नाराज थे। हिंदू उनकी बात ईसाइयों में कन्फैशन का बड़ा मूल्य है। उसी कन्फैशन की भी न करते। लेकिन जैन उन्हें बड़ा सम्मान देते, उतना सम्मान तरफ महावीर का इशारा है। कन्फैशन का अर्थ होता है: अपनी देते, जितना कि उन्होंने कभी जैन संतों को भी नहीं दिया था। बड़ी से बड़ी भूल को भी स्वीकार कर लेना। स्वीकार करते ही क्योंकि इस आदमी का हिंदू से जैन हो जाना, इस बात का सबूत तुम हलके हो जाते हो। प्रगट करते ही तुम निर्विकार हो जाते हो। था कि जैन धर्म सही है। तब तो कोई हिंदू जैन होता है, नहीं तो छिपाया, दबाया, तो जो आज छिपाया है उसे कल भी छिपाना क्यों होगा! तो जैनों से भी ज्यादा आदृत जैनों में वे थे; लेकिन पड़ेगा। और मजा यह है कि जिसे तुम छिपाओगे, दूसरे उघाड़ने हिंदुओं में उनका बड़ा अनादर था क्योंकि यह गद्दार था। इसने की कोशिश करेंगे। क्योंकि जो तुम उनके साथ कर रहे हो, वही हिंदू धर्म की अवमानना की। वे तुम्हारे साथ कर रहे हैं। तुम उनके गुणों को दाब रहे हो, उनके तुम इसे जरा गौर करना। हमारे जीवन में दोहरे मूल्य होते हैं। दुर्गुणों को उघाड़ रहे हो-वे तुम्हारे गुणों को दाब रहे हैं, तुम्हारे अपनी भल को भी हम सोने से ढंक लेते हैं: दसरे के सौंदर्य को दर्गणों को उघाड़ रहे हैं। तो तम जो छिपाओगे, उसे लोग भी हम मिट्टी से पोत देते हैं। इसको महावीर कहते हैं जुगुप्सा। उघाड़ेंगे। और अगर तुमने छिपाया और न छिपा पाये और लोगों जुगुप्सा के अभाव का नाम है : निर्विचिकित्सा। ने उघाड़ा तो भी दुख होगा, पीड़ा होगी, नाराजगी होगी, क्रोध यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है। इसे अगर खयाल में रखा तो ही होगा। इससे अंधेरा बढ़ेगा, प्रकाश घटेगा। जो हो गई हो भूल, सापाकासा। www.jainelibrar og Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1,SHREE उसे स्वीकार कर लेना। करवा रहे हो; क्योंकि हमारे यहां सदा से होता चला आया है! चौथा चरण है: अमूढ़दृष्टि। यह बहुत क्रांतिकारी चरण है। । और सत्यनारायण की कथा में सत्य जैसा कुछ भी नहीं है। मगर महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रांत हो रही है कथा! क्योंकि न करवायें, तो तुम अकेले पड़ जाते हो, दृष्टियां हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं, लोकमूढ़ता। अनेक भीड़ से टूटते हो। लोग अनेक कामों में लगे रहते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि समाज और भीड के साथ हम जड़े रहते हैं—भय के कारण। अकेले ऐसा करता है क्योंकि और लोग ऐसा करते हैं। उसको महावीर होने में डर लगता है। मंदिर तुम चले जाते हो-पिताजी भी जाते कहते हैं: लोकमूढ़ता। क्योंकि सभी लोग ऐसा करते हैं, थे; पिताजी के पिताजी भी जाते थे। उनसे भी अगर पूछा जाता, इसलिए हम भी करेंगे!...सत्य का कोई हिसाब नहीं है-भीड़ वे कहते, 'हम क्या करें, हमारे पिताजी जाते थे, उनके पिताजी का हिसाब है। तो यह तो भेड़चाल हुई। जाते थे।' ऐसे पंक्तिबद्ध मूढ़ता चलती रहती है। एक स्कूल में एक शिक्षक ने पूछा एक छोटे बच्चे से कि तुम्हारे हिम्मत होनी चाहिए साधक में, कि वह इस पंक्ति के बाहर घर भेड़ें हैं, तो अगर तुमने अपने आंगन में दस भेड़ें बंद कर रखी निकल आये। अगर उसे ठीक लगे तो बराबर करे, लेकिन ठीक हैं और उनमें से एक छलांग लगाकर बाहर निकल जाये, तो लगना चाहिए स्वयं की बुद्धि को। यह उधार नहीं होना चाहिए। कितनी पीछे बचेंगी? उस बच्चे ने कहा : एक भी नहीं। उस और अगर ठीक न लगे, तो चाहे लाख कीमत चुकानी पड़े तो भी शिक्षक ने कहा, 'तुम्हें कुछ गणित का हिसाब है? मैं कह रहा हूं करना नहीं चाहिए, हट जाना चाहिए। दस अंदर हैं, और एक छलांग लगाकर निकल जाये तो कितनी तुम झुक जाते हो पत्थर की मूर्ति के सामने जाकर, क्योंकि और बचेंगी?' उसने कहा, 'गणित की तुम समझो, भेड़ों को मैं सब भी कहते हैं कि भगवान की मूर्ति है। और तुम कभी भी नहीं अच्छी तरह जानता हूं। एक निकल गई तो सब निकल गईं। सोचते कि भगवान की मूर्ति है! भगवान की कोई मूर्ति हो सकती गणित का मुझे भला पता न हो, लेकिन भेड़ों का मुझे पता है।' है? क्योंकि समस्त ज्ञानी कहते हैं, वह अमूर्त, निराकार, भेड़चाल! भीड़ के पीछे चले चलना! यह भरोसा रखकर कि निर्गुण, अनंत, असीम-उसकी मूर्ति हो सकती है? हां, अगर जहां सब जा रहे हैं ठीक ही जा रहे होंगे। और मजा यह है कि | तुम्हें लगता हो, तुम्हारी अंतरप्रज्ञा कहती हो, हां, हो सकती है, बाकी सबका भी यही भरोसा है। वह जो तुम्हारे पड़ोस में चल तुम्हारे भाव में लगता हो कि हां, है—तो झुकना। फिर चाहे रहा है, तुम्हारी वजह से चल रहा है। कि तुम जा रहे हो तो ठीक | सारा संसार कहे कि नहीं है तो फिक्र मत करना। तो महावीर यह ही जा रहे होओगे; और तुम जा रहे हो उसकी वजह से कि वह | नहीं कह रहे हैं, वे तुम्हें कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दे रहे हैं कि तुम जा रहा है तो ठीक ही जा रहा होगा। इसको महावीर कहते हैं: | क्या करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि जो भी तुम करो वह तुम्हारी लोकमूढ़ता। अंतःप्रज्ञा की साक्षी से किया गया हो, बस। वे यह नहीं कह रहे और सत्य की तरफ केवल वही जा सकता है जो भेड़चाल से हैं कि तुम मस्जिद जाओ कि मंदिर जाओ कि गुरुद्वारा कि चर्च। ऊपर उठे; जो धीरे-धीरे अपने को जगाए और देखने की चेष्टा इससे कोई प्रयोजन नहीं है। जो तुम्हारी अंतःप्रज्ञा कहे, जो करे कि जो मैं कर रहा हूं, वह करना भी था या सिर्फ इसलिए कर | तुम्हारा बोध कहे, वही तुम करना; उससे अन्यथा मत करना, रहा हूं कि और लोग कर रहे हैं! अन्यथा वह लोकमूढ़ता होगी। अकसर तुम कहते पाये जाते हो कि हमारे घर में तो यह सदा से दूसरी मूढ़ता को उन्होंने कहा—देवमूढ़ता, कि लोग देवताओं चला आया है। हमारे पिता भी करते थे, उनके पिता भी करते थे, की पूजा करते हैं। कोई इंद्र की पूजा कर रहा है कि इंद्र पानी इसलिए हम भी कर रहे हैं। तुमने कभी यह भी पूछा कि इसके गिरायेगा; कि कोई कालीमाता की पूजा कर रहा है कि बीमारी दूर करने का कोई प्रयोजन है, कोई लाभ है? इसके करने से जीवन | हो जायेगी। लोग देवताओं की पूजा कर रहे हैं। में कुछ संपदा, शांति, आनंद का अवतरण होता है? नहीं, | महावीर कहते हैं, देवता भी तो तुम्हारे ही जैसे हैं! यही तुम्हारे पिताजी भी सत्यनारायण की कथा करवाते थे, तुम भी वासनायें, यही जाल, यही जंजाल उनका भी है। यही [ 670 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन कआठअग ARRANKARISM धन-लोलुपता, यही पद-लोलुपता, यही राजनीति उनकी भी है। होंगे कि इस चरित्र के रहते हुए, इनको देवता कहे जाने का कारण तो अपने ही जैसों की पूजा करके, तुम कहां पहुंच जाओगे? जो | क्या है! दिव्यता तो कहीं भी मालूम नहीं पड़ती। उन्हें नहीं मिला है वह तुम्हें कैसे दे सकेंगे? ___ इंद्र के संबंध में कितनी कथायें हैं कि जब भी कोई तेजस्वी महावीर कहते हैं कि देवता का अर्थ है: होंगे स्वर्ग में, सुख में व्यक्ति, कोई तपस्वी, चैतन्य की ऊंचाइयों पर पहुंचने लगता है, होंगे, तुमसे ज्यादा सुख में होंगे; लेकिन अभी आकांक्षा से मुक्त सहस्रार के करीब उसकी ऊर्जा आती है, कि इंद्र का देवासन नहीं हुए। डोलने लगता है। महावीर और बुद्ध ने मनुष्य की गरिमा को देवता के ऊपर क्यों? क्योंकि उसे डर लगता है कि कोई प्रतिद्वंद्वी पैदा हुआ। उठाया। महावीर और बुद्ध ने देवताओं को आदमी के पीछे छोड़ प्रतिद्वंद्वी! यह तो कोई राजनीतिज्ञ की स्थिति हो गई, कि कोई दिया। महावीर और बुद्ध ने कहा कि जो निर्विकार हो गया है, जो राष्ट्रपति है, कोई प्रधानमंत्री है, और दूसरा चेष्टा करने लगा, निष्कांक्षा से भर गया है, जो निष्काम हो गया है, देवता भी उसके और लोक में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी तो घबड़ाहट पैदा हो पैर छुएं, देवता भी उसके चरणों में झुकें। हिंदू बहुत नाराज हुए, | जाती है कि यह आदमी कुर्सी छीनने आ रहा है! क्योंकि जैन कथायें हैं, बौद्ध कथायें हैं-ब्रह्मा, विष्णु, महेश को यह इंद्र देवता कैसा, जिसको अपने आसन के छिन जाने की भी बुद्ध और महावीर के चरणों में झुका देती हैं। बुद्ध को जब इतनी चिंता और घबड़ाहट है; और फिर उ ज्ञान हुआ, तो खुद ब्रह्मा आकर चरण छुआ। हिंदुओं को बड़ा बचाने के लिये सब तरह के उपाय करता है-सही, गलत; भेज कष्ट हो जाता है कि यह क्या बात हुई : 'ब्रह्मा से पैर छआ रहे देता है मेनका को कि भ्रष्ट करो विश्वामित्र को! यह तो ऐसे ही हो। ब्रह्मा तो जगत का स्रष्टा है। उसने तो बनाया। और ब्रह्मा हुआ जैसे राजनेता के पास किसी वेश्या को भेज दिया, और फिर से पैर छुआ रहे हो।' चित्र निकलवा लिये और अखबारों में छाप दिये तो लोक में लेकिन जैनों और बौद्धों का कारण है। प्रतिष्ठा खतम हो गई। यह तो कोई सम्यक उपाय भी न हुआ। वे कहते हैं, ब्रह्मा का जीवन तो उठाकर देखो। कथा है, कि यह तो शद्ध राजनीति भी न हई। यह तो राजनीति का भी बड़ा उसने पृथ्वी को बनाया, और वह पृथ्वी पर मोहित हो गया, गर्हित रूप हुआ। यह तो तरकीब बड़े वासनातुर चित्त की हो कामातुर हो गया। कामांध होकर पृथ्वी के पीछे भागने लगा। सकती है। पिता, बेटी के प्रति कामांध हो गया! बेटी घबड़ा गई कि इस तो महावीर कहते हैं, पहली मूढ़ता—लोकमूढ़ता; दूसरी पिता से कैसे बचे! तो वह अनेक-अनेक रूपों में छिपने लगी। मूढ़ता-देवमूढ़ता।। वह गाय बन गई, तो ब्रह्मा सांड बन गया। और इस तरह सारी | देवताओं से सावधान! सृष्टि हुई। दिव्यत्व की पूजा करो-देवताओं की नहीं। और दिव्यत्व जैन और बौद्ध कहते हैं कि ये तो देवता भी कामातुर हैं! तो तुम कभी-कभी घटता है-उन मनीषियों में, जिनके भीतर चैतन्य हिंदू देवताओं की कथायें पढ़ो। किसी ऋषि की पत्नी सुंदर है, तो सब तरह से शुद्ध और निर्विकार हुआ। ध्यान की आखिरी कोई देवता लोलुप हो जाता है, काम-लोलुप हो जाता है, तो ऊंचाई-समाधि-समाधि की पूजा करो! इसलिए जैनों ने षड्यंत्र करके स्त्री के साथ कामभोग कर लेता है। महावीर की पूजा की, ऋषभ की पूजा की, नेमि की पूजा की; महावीर और बुद्ध कहते हैं कि यह तो देवमूढ़ता हुई। अगर तीर्थंकरों की पूजा की, देवताओं की पूजा नहीं की। मनुष्यों की पूजना है तो उनको पूजो, जिनके जीवन से सारी आकांक्षा चली पूजा की, जो परमशुद्ध हो गए! बौद्धों ने बुद्ध की पूजा की, बुद्ध गई है। अगर पूजना है, तो उनको पूजो, जिनके जीवन से सारे को भगवान कहा; लेकिन देवताओं को नहीं पूजा। यह बड़ी मल-दोष समाप्त हो गए हैं। क्रांतिकारी घटना थी। यह बड़ी गहरी दृष्टि थी। इस दृष्टि से बड़े इन देवताओं का चरित्र तो देखो, महावीर कहते हैं। हम गौर से रूपांतर हुए। धर्म का नया रूप प्रगट हुआ। कभी देवताओं का चरित्र देखते नहीं, अन्यथा हम बड़े चकित और तीसरी मूढ़ता, महावीर कहते हैं-गुरुमूढ़ता। लोग हर 671 Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग 1 किसी को गुरु बना लेते हैं। जैसे बिना गुरु बनाए रहना ठीक नहीं आकर ढाई सौ डालर जमा करवा गया। तो मैं खुद भी चमत्कृत मालूम पड़ता—गुरु तो होना ही चाहिए! तो किसी को भी गुरु हुआ। यह मैंने सोचा न था। दूसरे दिन देखा कि एक दूसरा बना लेते हैं। किसी से भी कान फुकवा लिए! यह भी नहीं आदमी आया और वह भी कोई सौ डालर जमा करवा गया। सोचते कि जिससे कान फंकवा रहे हैं उसके पास कान फंकने फिर तो मेरी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि मेरे पास जो पच्चीस डालर योग्य भी कुछ है। थे वे भी मैंने जमा कर दिये। बैंक चल पड़ा। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम पहले गुरु बना चुके तुम अगर थोड़ी देर किसी पत्थर पर, सिंदर पोतकर बैठ हैं, तो आपका ध्यान करने से कोई अड़चन तो न होगी? मैंने | जाओ, तो शाम होते-होते तुम खुद ही पूजा करोगे। क्योंकि तुम कहा, 'अगर तुम्हें पहले गुरु मिल चुका है तो यहां आने की कोई | देखोगे कि इतने लोग पूजा कर रहे हैं, सभी गलत थोड़े ही हो जरूरत नहीं। वे कहते हैं, 'मिला कहां!' वह तो गांव में जो सकते हैं। माना कि तुम्हीं ने रंग पोता था, लेकिन जरूर कुछ बात ब्राह्मण था, उसी को बना लिया था। होगी, कुछ राज होगा। शायद तुमने ठीक पत्थर पर रंग पोत अभी उसको खुद ही कुछ नहीं मिला। तो तुम सोचते तो थोड़ा | दिया है। अनजाने सही। तुमने परमात्मा की किसी प्रतिमा पर कि जिसे तुम गुरु बनाने जा रहे हो, वह कम से कम तुमसे एक रंग डाल दिया, इतने लोग पूज रहे हैं! कदम तो आगे हो! लेकिन गुरु होना चाहिए!...बिना गुरु के यह मूढ़ता छूटनी चाहिए। कैसे रहें! तो किसी को भी गुरु बना लेते हो! जो मिल गया वही ...तो महावीर कहते हैं अमूढ़दृष्टि पैदा होती है। गुरु हो गया। पिता के गुरु थे तो वही तुम्हारे गुरु हो गये, पति के अमूढदृष्टि चौथा चरण है सम्यक दर्शन का। गुरु थे तो वही पत्नी के गुरु हो गये। बिना इस बात का विचार पांचवां चरण है: उपगृहन। किए कि यह बड़ी महिमापूर्ण बात है, यह जीवन की बड़ी चरम उपगूहन का अर्थ है : अपने गुणों और दूसरों के दोषों को प्रगट खोज है-गुरु को खोज लेना! न करना। यह जुगुप्सा के ठीक विपरीत है। अपने गण प्रगट न गुरु को खोज लेने का अर्थ, एक ऐसे हृदय को खोज लेना है करना और दूसरे के दोष प्रगट न करना। हम तो करते हैं उलटा जिसके साथ तुम धड़क सको और उस लंबी अनंत की यात्रा पर हीः अपने गुण प्रगट करते हैं, जो नहीं हैं वे भी प्रगट कर देते हैं; जा सको। और दूसरे के दोष प्रगट करते हैं, जो नहीं है वे भी प्रगट कर देते तो महावीर कहते हैं, ये तीन मूढ़ताएं हैं और इन मूढ़ताओं के | हैं, जो हैं उनकी तो बात ही छोड़ दो।। कारण व्यक्ति सत्य की तरफ नहीं जा पाता। या तो भीड़ को महावीर कहते हैं, जिसको सत्य की खोज पर जाना है, उसे ये मानता है, या देवी-देवताओं को पूजता रहता है। कितने सारे संयम, ये अनुशासन, ये मर्यादाएं, अपने जीवन में उभारनी देवी-देवता हैं! हर जगह मंदिर खड़े हैं। हर कहीं भी झाड़ के पड़ेंगी। अपने गुणों को मत कहना, दूसरों के दोषों को मत नीचे रख दो एक पत्थर और पोत दो लाल रंग उस पर, थोड़ी देर कहना। तुम्हारा क्या प्रयोजन है? दूसरे का दोष है-दूसरा में तुम पाओगे, कोई आकर पूजा कर रहा है! तुम करके देखो! जाने। और तुम जान भी कैसे सकते हो, क्योंकि तुम दूसरे के तुम सिर्फ बैठे रहो दूर छिपे हुए, देखते रहो। तुमने ही पत्थर रख स्थान पर खड़े नहीं हो सकते। दूसरे की परिस्थिति का तुम्हें पता दिया है और सिंदूर पोत दिया है; थोड़ी देर में कोई न कोई आकर नहीं है। दूसरे ने किस परिस्थिति में ऐसा दोष किया, इसका तुम्हें पूजा करेगा। बड़ी मूढ़ता है। कुछ पता नहीं है। अगर वैसी ही ठीक परिस्थिति तम्हारे जीवन में मैंने सुना है, जिस आदमी ने अमरीका में पहला बैंक खोला, | भी होती तो शायद तुम भी न बच सकते। उससे बाद में जब पूछा गया, कि तुमने यह बैंक खोला कैसे? | कोई भूखा है, और किसी ने चोरी कर ली; किसी की मां मर उसने कहा कि कोई काम-धाम न था मेरे पास, कुछ और न सूझा | रही है और दवा नहीं है, और किसी ने किसी का जेब काट मेरे लिए तो मैंने एक तख्ती लटका दी अपने घर के सामने, | लिया-तुम भी उसकी परिस्थिति में अपने को रखकर देखो, तो 'बैंक' उस पर लिख दिया। थोड़ी देर में देखा कि एक आदमी शायद तुम भी यही कर लेते। 672 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन के आठ अंग लेकिन हम परिस्थिति से तोड़ लेते हैं तथ्यों को अलग। हम | भी चुराकर नहीं लाते हैं कि कोई अपराध कहा जा सके। किसी कहते हैं, यह आदमी चोर है! और हम परिस्थितियों की बात ही के घर बैठे हैं, पैंसिल दिख गई, वह खीसे में सरका ली। किसी भूल जाते हैं। यह किन परिस्थितियों में चोर था? के यहां भोजन करने गये हैं, चम्मच ही डाल लिया। पत्नी मनोवैज्ञानिक पश्चिम में बहुत अध्ययन कर रहे हैं अपराध के परेशान कि यह आज नहीं कल, यह झंझट...। और उसने ऊपर। और उनके जो नतीजे हैं वे बहुत घबड़ानेवाले हैं। मुझसे कहा कि आपसे उनका लगाव है; शायद...। आनेवाली सदी में, अगर उनके नतीजे स्वीकार किये गये तो तो मैं उनसे धीरे-धीरे बात किया। मैंने उनकी बड़ी प्रशंसा की, अदालतों को विदा हो जाना पड़ेगा। अदालतों के ज्यादा दिन क्योंकि मैं समझा कि उनको कोई कमी तो है नहीं। धनपति घर से नहीं हैं—दिन लद गये! क्योंकि अदालतें बुनियादी गलती पर हैं, अच्छी नौकरी पर हैं। पत्नी भी नौकरी पर है, खुद भी नौकरी खड़ी हैं। मजिस्ट्रेट इस तरह से बैठकर निर्णय करता है जैसे कि पर हैं। सब कुछ है। तो कोई चम्मच चुराने क चोर होना कोई सारी परिस्थितियों से टूटा हुआ अलग तथ्य है। तो कारण नहीं है। तो जरूर कुछ मन में कारण होगा। तो मैंने उन्हीं परिस्थितियों में यह मजिस्ट्रेट भी चोरी करता। कभी उनकी चोरी का विरोध नहीं किया। इस ढंग से उनको मनस्विद कहते हैं कि अपराध की जितनी समझ बढ़ती जा रही | फुसलाया कि उनको लगे कि शायद मैं भी उसी रोग का बीमार है, उससे पता चलता है कि लोग मजबूरी में अपराध करते हैं। हूं। उनको मैंने इसी तरह बात की कि जैसे मैं भी चम्मचें उठा दो तरह के अपराधी हैं। एक तो अपराधी हैं जो इस तरह | लाता हूं। तो उन्होंने कहा, 'अरे! यह तो अच्छा हुआ; आपसे मजबूर हो जाते हैं, इस तरह मजबूर किये जाते हैं, सारी समाज दिल खोल सकते हैं। आपको मैं दिखाऊंगा, घर चलिए।' की परिस्थिति उन्हें ऐसी जगह ले आती है, जहां अपराध किये | उन्होंने एक अलमारी में, जितनी चीजें चुराई थीं वे सब सजा रखी बिना वे जी नहीं सकते। जहां अपराध करना ही उनके बचने का थीं। उस पर चिटें भी लगा रखी थीं कि किसके घर से कब एकमात्र उपाय रह जाता है। अगर अपराध न करना हो तो मरने | लाए। और उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से दिखाईं। के सिवा उनके पास कोई सुविधा नहीं है। और मजा यह है कि उनका इलाज करना पड़ा। वे मानसिक रूप से रोगी थे। चोरी इस समाज में मरना भी अपराध है। यहां आत्महत्या करना भी | के माध्यम से, वे यह सिद्ध कर रहे थे कि वे दूसरों से ज्यादा अपराध है। अगर करते पकड़े गये तो सजा पाओगे। यहां जीना कुशल हैं। दूसरे उनकी चोरी नहीं पकड़ पाते, वे कर जाते हैं। तो मुश्किल है ही, यहां मरना भी मुश्किल है। यहां जीने भी नहीं। यह चोरी में चोरी कारण नहीं थी-अपनी कुशलता, अपनी देते ठीक से, यहां मरने की भी आज्ञा नहीं है। होशियारी, सिद्ध करने की चेष्टा थी। तो ऐसी परिस्थिति में कुछ लोग हैं, जो अपराध करते हैं। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इस तरह का बीमार चिकित्सा चाहता कुछ दूसरा एक वर्ग है जो किसी मानसिक रोग के कारण अपराध | है। उसको मनोचिकित्सा चाहिए। और जिसने परिस्थितिगत करता है। उसकी परिस्थिति नहीं थी अपराध करने की। जैसे रूप से चोरी की हो, उसकी परिस्थिति में रूपांतरण चाहिए। क्लिप्टोमैनिया है। कुछ लोग हैं जिनको चोरी का रोग होता है। | अपराध समाप्त हो जाते हैं। या तो कोई परिस्थिति के कारण चोर अपराध नहीं। उनको चोरी करने में मजा आता है। उनको कोई है तो परिस्थिति बदलनी चाहिए; और या कोई मानसिक रोग के कमी नहीं है। वे लखपति हो सकते हैं, और ऐसी चीजों की चोरी | कारण चोर है, तो मानसिक रोग का इलाज होना चाहिए। कर सकते हैं जिनका कोई मूल्य भी नहीं है; जैसे कि माचिस की | जेलखाने खाली हो जाते हैं। जेलखाने में बस दो तरह के लोग डिबिया उन्होंने खीसे में रख ली। कोई कारण नहीं है, क्योंकि | पड़े हुए हैं। उनके पास खूब है। और माचिस की डिबिया का कोई मूल्य नहीं महावीर कहते हैं, दूसरे के दोष को बताना ही मत। तुम्हें क्या है। लेकिन उनको कुछ मानसिक रोग है। | पता, किस मजबूरी में, किस कठिनाई में उसने किया हो? और __ मैं एक प्रोफेसर को जानता हूं। उनको इस तरह का रोग था। तुम्हें क्या पता उसके जन्मों-जन्मों की जीवन-कथा का? लंबी उनकी पत्नी ने मुझे कहा कि आप कुछ करिये। वे कोई ऐसी चीज | यात्रा है। उस लंबी यात्रा में कहां उसने किसी दोष को अर्जित कर 67 Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page जिन सूत्र भाग : 1 ement Bere Sood S S लिया हो, अनजाने सीख लिया हो। मांग लेना। वहीं हाथ जोड़ लेना। कहना, माफ करना, क्षमा और फिर तुम कौन हो निर्णायक? करना, भूल हो गई। वापस लौट आना। फिर स्थिर हो जाना। जीसस ने भी यही बात कही है। कहा है कि निर्णायक मत स्थिरीकरण बहुत उपयोगी सूत्र है। और जिनको जीवन को बनना, 'जज ई नाट!' दूसरे के न्यायाधीश मत बनना। दूसरा साधना है, उनके लिए निरंतर उसका उपयोग करना होगा, स्वयं जिम्मेवार है अपने कृत्यों के लिए; अपने कृत्यों का फल क्योंकि भूलें तो होंगी ही। फिर भूलों को लेकर मत बैठ जाना स्वयं पा लेगा। तुम बीच में निंदा, तुम बीच में विरोध और और उनमें बहुत रस मत लेने लगना, कि भूल हो गई, अपराध व्याख्या मत करना। और ध्यान रखना, जैसे दूसरे के गुणों को का भाव, और गिल्ट...। क्योंकि वह भी गलत है। वह भी देखना जरूरी, दुर्गणों को देखना जरूरी नहीं-अपने दर्गणों को नाहक अपने घाव को कुरेद-कुरेदकर खराब करना है। हो गई देखना जरूरी है, अपने गुणों को देखना जरूरी नहीं है। क्योंकि भूल, याद आ गई, वापस लौट जाए। जो व्यक्ति अपने गुणों को बहुत देखने लगता है, वह फूलने तुम ध्यान करने बैठते हो, थिरता टूट जाती है : किसी विचार लगात है गुब्बारे जैसा। उसका अहंकार मजबूत होने लगता है। के पीछे चल पड़े। कभी-कभी ऐसे विचार, जिनसे तुम्हें जाने का तो अपने गुब्बारे को, अहंकार के गुब्बारे को दोषों को कोई संबंध न था—तुम ध्यान करने बैठे, एक कुत्ता भौंकने देख-देखकर फोड़ते रहना, ताकि अहंकार बड़ा न हो। और लगा; अब कुत्ते के भौंकने से तुम्हारा कोई लेना-देना न था, अपने गुणों की कोई चर्चा मत करना। क्योंकि अगर वे हैं तो लेकिन कुत्ते के भौंकने से तुमको अपने मित्र के कुत्ते की याद आ उनकी सुगंध अपने से पहुंच जाएगी। अगर वे नहीं हैं तो चर्चा गई। मित्र के कुत्ते की याद आई तो मित्र की याद आ गई। मित्र करने से कुछ सार नहीं। के साथ कभी दो साल पहले कोई सुंदर दिन बिताया था पहाड़ों __'उपगृहन' के बाद छठवां है : स्थिरीकरण। महावीर कहते हैं | पर, वह याद आ गया-चल पड़े! कि जीवन की, सत्य की इस यात्रा में बहुत बार चूकें होंगी; बहुत जब याद आ जाये कि अरे! तब तत्क्षण स्थिर हो जाना। फिर बार पांव यहां-वहां पड़ जायेंगे; बहुत बार तुम भटक जाओगे। वापस लौट आना। फिर इसको लेकर परेशान मत होना, कि यह तो उसके कारण व्यर्थ परेशान मत होना और अपराध भाव भी | मैंने क्या कर लिया, क्योंकि वह परेशानी भी फिर ध्यान में न मत लाना। यह स्वाभाविक है। जब भी तुम्हें स्मरण आ जाए, | लगने देगी। तो जैसे ही याद आ जाए, स्मरण हो, चुपचाप अपने फिर अपने को मार्ग पर आरूढ़ कर लेना। उसका नाम है: | को स्थिर कर लेना। नहीं तो लोग क्या करते हैं-पहले गलती स्थिरीकरण। फिर अपने को स्थिर कर लेना। करते हैं, फिर गलती के संबंध में पश्चात्ताप करते हैं, फिर रोते हैं, जैसे तुमने तय किया, क्रोध न करेंगे; समझ आई कि क्रोध न अपराध अनुभव करते हैं तो गलती से भी ज्यादा गलती हो करेंगे; देखा, बार-बार क्रोध करके कि सिवाय दुख के कुछ भी | गई। गलती तो एक जगह होकर पूरी हो गई फिर उसका न हआ देखा क्रोध करके कि अपने लिये भी नर्क बना, दूसरे के | सिलसिला चल पड़ा। अब उसका पश्चात्ताप करो। अब लिये भी नर्क बना–तय किया, अब क्रोध नहीं करेंगे। ऐसी | रोओ। अब कहो कि भूल हो गई, डिग गया अपने पथ से, पापी समझपूर्वक एक स्थिति बनी क्रोध न करने की। लेकिन फिर भी | हो गया। चूकें होंगी। किसी आवेश के क्षण में पुनः क्रोध हो जाएगा। लंबी | महावीर कहते हैं, इस सब में पड़ने की इतनी ऊर्जा खराब मत आदत है। जन्मों-जन्मों के संस्कार हैं; इतनी जल्दी नहीं छूट | करना। आया स्मरण, कि भूल के रास्ते पर चले गये थे, तत्क्षण जाते। फिर-फिर पकड़ लिये जाओगे। तो जब याद आ जाए, चुपचाप वापस लौट आना। ऐसा बार-बार स्थिरीकरण जैसे ही याद आ जाए, अगर क्रोध के मध्य में याद आ जाए, तो | होते-होते, होते-होते, जिसको कृष्ण ने स्थिति भी कहा है, पुनः अपने को अक्रोध में स्थिर कर लेना। अगर गाली आधी | स्थितिप्रज्ञ कहा है-वह स्थिति घटेगी। कभी ऐसी घड़ी आ निकल गई थी, तो बस आधी को पूरा भी मत करना। यह भी मत | जाती है कि फिर कोई भूल नहीं होती। तुम्हारी थिरता शाश्वत हो कहना कि अब पूरी तो कर दूं। बीच से ही रोक लेना। वहीं क्षमा | जाती है। तुम्हारी लौ अकंप हो जाती है। 674 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां : वात्सल्य । इसे समझना । भक्ति के संप्रदाय, प्रार्थना को मूल्य देते हैं। तो तीन शब्द समझ लेना, तो ही वात्सल्य समझ में आयेगा: प्रार्थना, प्रेम, वात्सल्य। प्रार्थना होती है, जो अपने से बड़ा है— परमात्मा, उसके प्रति । प्रार्थना में एक मांग होती है। प्रार्थना शब्द में ही मां छिपी है। इसलिए मांगनेवाले को हम प्रार्थी कहते हैं। मांगा उससे जा सकता है जिसके पास हमसे ज्यादा हो, अनंत हो। तो प्रार्थना सिर्फ भगवान से की जा सकती है। लेकिन महावीर की व्यवस्था में भगवान की कोई जगह नहीं है- प्रार्थना की कोई जगह नहीं । प्रेम में हम लेते हैं, देते हैं, क्योंकि दोनों समान हैं। जिसको तुम प्रेम करते हो, तुम देते भी हो; लेकिन देते तुम इसीलिए हो कि मिले। जो तुम्हें प्रेम करता है, वह भी देता है; लेकिन देता इसीलिए है कि मिले, वापिस हो। तो प्रेम में लेन-देन है। परमात्मा की तरफ से इकतरफा है; सिर्फ मिलता है; देने को हमारे पास कुछ भी नहीं है। प्रेमी लेते-देते हैं। वात्सल्य ठीक प्रार्थना का उलटा है। वात्सल्य का अर्थ है : तुम दो। इसलिए हम कहते हैं, मां का वात्सल्य होता है बेटे की तरफ | बेटा क्या दे सकता है? छोटा-सा बेटा है, अभी पैदा हुआ, चल भी नहीं सकता, बोल भी नहीं सकता, कुछ लाया भी नहीं, बिलकुल नंग-धड़ंग चला आया है। हाथ खाली है। वह देगा क्या? इसलिए समान तल तो है नहीं मां का और बेटे का । और मांग भी नहीं सकता, क्योंकि मांगने के लिए भी अभी उसके सम्यक दर्शन के आठ अंग पास बुद्धि नहीं है। तो मां का वात्सल्य है। मां उसे जो प्रेम करती है वह सिर्फ देने-देने का है। मां देती है, वह लौटा भी नहीं सकता। उसको अभी होश ही नहीं लौटाने का फिर दूसरा शब्द है : प्रेम । प्रेम होता है सम अवस्था, सम स्थितिवाले लोगों में – एक स्त्री में, एक पुरुष में; दो मित्रों में, मां में, बेटे में भाई-भाई में ऐसा समस्थिति ! परमात्मा ऊपर है, प्रार्थी नीचे है। लेकिन प्रेमी साथ-साथ खड़े हैं। परमात्मा से सिर्फ मांगा जा सकता है, उसको दिया तो क्या जा सकता है! देने को हमारे पास कुछ भी नहीं है। उसके सामने हम निपट भिखारी हैं, समग्ररूपेण भिखारी । देंगे क्या ? देने को कुछ भी नहीं है । अपने को भी दें तो भी वह देना नहीं है, क्योंकि हम भी उसी के हैं तो देना क्या है? उससे हम सिर्फ मांग सकते हैं, सिर्फ मांग सकते हैं। उसके सामने हम सिर्फ भिखारी हो सकते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि परमात्मा के कारण सारा संसार भिखारी हो जाता है। | अब तुम्हारे पास कुछ है, तुम उसे बांटते हो—और जब तुम बांटते हो, तब तुम पाते हो और आने लगा ! अनंत ऊर्जा उठने लगी ! तुम्हारे सब जलस्रोत खुल जाते हैं । तुम्हारे झरने सब फूट पड़ते हैं। जितना तुम्हारे कुएं से पानी उलीचा जाता है, तुम पाते हो उतना ही नया पानी आ रहा है। सागर तुममें अपने को उडेलने लगता है। वात्सल्य का अर्थ है : तुम दो जैसे मां देती है। तो महावीर कहते हैं, प्रार्थना नहीं, प्रेम नहीं - वात्सल्य । तुम तो लुटाओ, जो तुम्हारे पास है दिये चले जाओ। इसकी फिक्र ही मत करो कि किसको दिया। बस इसकी फिक्र करो कि दिया। तो जो तुम्हारे पास हो, वह तुम देते चले जाओ। कुछ तुम्हारे पा बाहर का देने का न हो तो भीतर का दो। वस्तुएं न हों तो अपना प्राण बांटो, अपना अस्तित्व बांटो, पर दो और देते रहो ! तो जैसे भक्ति के रास्ते पर प्रार्थना सूत्र है, ठीक उससे विपरीत, ध्यान के रास्ते पर वात्सल्य सूत्र है । भक्ति के रास्ते पर तुम भिखारी होकर भगवान के मंदिर पर जाते हो : ध्यान के रास्ते पर तुम सम्राट होकर, तुम बांटते हुए जाते हो, तुम देते हुए जाते हो ! तुम मांगते नहीं। क्योंकि मांग में तो आकांक्षा है - वह तो पहले ही चरण में समाप्त हो गई। तो लुटाओ ! दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम । कबीर ने कहा है: उलीचो ! महावीर का वात्सल्य वही है जिसको कबीर कहते हैं : उलीचना । और प्रभावना ! और आठवां चरण है सम्यक दर्शन का : प्रभावना । यह महावीर का अपना शब्द है। इसके लिए कहीं तुम्हें पर्याय न मिलेगा। प्रभावना का अर्थ होता है: इस भांति जीयो कि तुम्हारे जीने से धर्म की प्रभावना हो। इस ढंग से उठो-बैठो कि तुम्हारे उठने-बैठने से धर्म झरे । और जिनके जीवन में धर्म की कोई रोशनी नहीं है, उनको भी प्यास पैदा हो। तुम्हारा चलना, तुम्हारा व्यवहार, तुम्हारे जीवन की शैली - सभी प्रभावना बन जाए। प्रभावना-धर्म की, सत्य की। तुम एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व बन जाओ कि जिनके भी पास 675 Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः । ज्योति नहीं है, उनको भी ज्योति होनी चाहिए। और यह ऐसा मत समझ लेना कि सिद्ध हो गये। क्योंकि इस अनंत की जीवन-अंधेरे का भी क्या कोई जीवन है, ऐसा भाव उठे! तम खोज के मार्ग पर बहुत ऐसे पड़ाव आते हैं जहां यह भ्रम पैदा जहां से गुजर जाओ, वही लोगों के हृदय में एक लहर दौड़ होता है कि हो गये सिद्ध। सिद्ध होने का भ्रम बड़ा आसान है, जाए। और लोगों का जीवन सत्य की तरफ उन्मुख हो। क्योंकि अहंकार को बड़ा भाता है, कि हो गये सिद्ध, पहुंच गये! महावीर कहते हैं, इस सत्य की खोज का आठवां अंग है: तुम ध्यान रखना कि ऐसा भाव जब भी तुम्हें आएगा कि पहुंच प्रभावना। क्योंकि तुम जब सत्य को खोजने चले हो, तो अकेले गए, तभी तुम तत्क्षण पाओगे कि कुछ विकृति घटी, कुछ नहीं। उसमें भी कंजूसी मत कर बैठना। नहीं तो वह भी स्वार्थ दुष्प्रयोग हुआ, कहीं कोई भूल हई।। हो जायेगा। तो जिसकी खोज पर तुम चले हो और जो तुम्हें | तो स्मरण रखना कि भूल होती रहेंगी अंतिम क्षण तक। मिलने लगा है, उसकी खोज पर औरों को भी लगा देना। लेकिन निर्वाण के आखिरी क्षण तक भूल होती रहेंगी। समाधि के परम खयाल रखना, महावीर बड़े अनूठे शब्दों का उपयोग करते हैं। फूल के खिलने तक भूल होती रहेंगी। वे यह नहीं कहते, तुम लोगों को उपदेश देना। वे यह नहीं कहते, भल मनुष्य का स्वभाव है। और भलों का जन्मों-जन्मों का तुम लोगों को आदेश देना। वे कहते हैं, प्रभावना! इतिहास है। इसलिए जहां भी कहीं ऐसा लगे, कि दष्प्रयोग में तम्हारे होने के ढंग से ही उनको उपदेश मिल जाए। तुम्हारे होने प्रवृत्ति दिखाई दे, उसे तत्काल मन, वचन और काया से (सम्यक के ढंग से उनको आदेश मिल जाए। तुम्हारा होने का ढंग ही दृष्टि) धीरपुरुष समेट ले; जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा | उनको पकड़ ले और एक नये नृत्य में डबा दे और एक, एक नई शीघ्र ही सीधे रास्ते पर आ जाता है। मस्ती से भर दे! तुम्हारा होना ही, तुम्हार अस्तित्व मात्र, तुम्हारा तो अपनी लगाम को कभी भी छोड़ मत देना। जब तक घोड़ा उनके पास से गुजर जाना: एक नए जगत का प्रवेश हो जाए है, तब तक लगाम को हाथ में रखना। घोड़ा यानी मन। जब उनके जीवन में! तुम्हारा उनके पास आ जाना, तुम्हारा सत्संग, तक मन है, तब तक लगाम मत छोड़ देना। मन पर भरोसा मत तुम्हारी मौजूदगी, उन्हें रूपांतरित कर दे! उनकी आंखें उस तरफ कर लेना। क्योंकि बहुत बार घोड़ा बिलकुल ठीक-ठीक चल उठ जायें जहां कभी न उठी थीं। लेकिन इसके लिए वे जो शब्द रहा है, घंटों तक ठीक-ठीक चल रहा है और तुम्हारा मन होता उपयोग करते हैं, वह बड़ा अनूठा है : प्रभावना! तुम उन्हें है, अब लगाम की क्या जरूरत है, रख दो ताक पर; अब तो प्रभावित भी करने की चेष्टा मत करना। तुम्हारा होना प्रभावना सब ठीक चल रहा है, अब होश की क्या जरूरत है, अब निरंतर बने! वे प्रभावित हों: तुमसे नहीं—धर्म से; तुमसे नहीं सत्य स्मरण की क्या जरूरत है, घोड़ा तो ठीक अपने-आप ही चल से; जो तुममें घटा है---उससे; वह जो पारलौकिक तुममें उतरा रहा है! ऐसा भरोसा मत करना। लगाम के रखते ही तत्क्षण है-उससे। घोड़ा अपने स्वभाव के अनुकूल बरतने लगेगा। लगाम तो हाथ ये आठ अंग स्मरण हों तो सम्यक दर्शन निर्मित होता है। में रखनी पड़ेगी जब तक घोड़ा है। जब तक मन न मर जाए, जब यह पहला सूत्र है: तक कि मन से परिपूर्ण मुक्ति न हो जाए, जब तक तुम्हारे भीतर निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। विचारों की तरंगें उठती हैं-तब तक लगाम का खयाल रखना। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ।। और जैसे ही तुम्हें लगे कि कहीं घोड़ा गलत रास्ते पर जाने लगा, ये आठ बातें सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं। मार्ग से च्युत हुआ, दुष्प्रयोग में लगा, कहीं कोई प्रवृत्ति उठने दूसरा सूत्र : 'जब कभी अपने में दुष्प्रयोग की प्रवृत्ति दिखाई दे लगी, फिर आंख गलत पर पड़ी, फिर कान ने गलत को सुना, तो उसे तत्काल मन, वचन, काया से धीर (सम्यक दृष्टि) समेट फिर हाथ गलत की तरफ बढ़े, फिर विचार में गलत की छाया ले; जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा शीघ्र ही सीधे रास्ते पर पड़ी तत्क्षण मन, वचन, काया से धीरपुरुष अपने को फिर आ जाता है।' ऐसे समेट ले...मन, वचन, काया से शरीर को तत्क्षण हटा और महावीर इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि तुम कभी ले वहां से। 676 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STRIPURANDARPAN सम्यक दर्शन के आठ अग शरीर को हटाने का अर्थ समझना। जब भी तुम्हारे मन में कोई गया—वह राग था महावीर के प्रति। वह राग था महावीर के तरंग उठती है, तत्क्षण शरीर में भी समानांतर तरंग उठती है। चरणों का। उतने ही राग ने रोक लिया। एक प्रेम लग गया अगर तुम्हारे मन में कामवासना उठी, तो तत्क्षण शरीर महावीर से। महावीर के बिना उसे तकलीफ होने लगी। दिन को कामवासना के लिये तत्पर होने लगता है, तरंग उठती है। और भी कहीं जाता तो बस महावीर की ही याद आती रहती। महावीर जब भी तुम्हारे मन में कोई तरंग उठती है, और शरीर में तरंग ने उसे कई बार कहा कि तूने सब छोड़ दिया, अब मुझे क्यों पकड़ उठती है, तो तुम्हारे भीतर भाषा और वचन निर्मित होता है। रूप लिया है? क्योंकि असली सवाल छोड़ने का नहीं-असली बनता है विकार का। प्रतिमायें उठती हैं। स्वप्न निर्मित होता है। सवाल तो पकड़ ही छोड़ देने का है। वचन से अर्थ है : विचार; मन की कल्पना का जाल। और | तुमने कुछ पकड़ा, किसी ने कुछ और पकड़ा, किसी ने कुछ मन, शरीर, वचन, तीनों में एक साथ लहर आती है। तीनों को और पकड़ा-लेकिन पकड़ तो जारी रहती है। किसी ने धन एक साथ खींच लेना! किसी एक को खींच लेने से काम न पकड़ा, किसी ने धर्म पकड़ा। किसी ने पत्नी पकड़ी, किसी ने चलेगा। तुम, हो सकता है शरीर को खींचकर दरवाजा बंद | गुरु पकड़ा–लेकिन पकड़ तो जारी रहती है। करके बैठ जाओ, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। बहुत-से जैन मुनि और महावीर बड़े कठोर हैं इस दृष्टि से। क्योंकि उनका पूरा शरीर को खींचकर बैठ गए हैं, लेकिन मन और वचन में तरंगें राग से ही विरोध है। वह पूरा रास्ता ही वीतराग का है। तो यह उठती रहती हैं। शरीर को खींच लेना बहुत आसान है। शरीर को गौतम सब छोड़ आया। पत्नी होगी, बच्चे होंगे, घर-द्वार होगा, खींच लेने में बहुत कठिनाई नहीं है। शरीर बहुत स्थूल है। उससे मित्र-परिजन होंगे, धन-संपत्ति होगी, पद-प्रतिष्ठा होगी-सब भी गहरा वचन है। विचार में भी तरंग न उठे। | छोड़ आया। यह बड़ा पंडित था, ब्राह्मण था। इसने सब शास्त्र लेकिन बहुत-से लोग विचार को भी खींचकर बैठ जाते हैं। वेद, उपनिषद, सब छोड़ दिये। लेकिन उस सबको छोड़कर फिर भी मन में तरंग उठती है। मन यानी अचेतन। तो दिनभर महावीर के चरणों को पकड़कर बैठ गया। यह अब महावीर का याद नहीं आते, लेकिन रात सपने में याद आ जाते हैं। दिनभर दीवाना बन गया। तो महावीर उससे बार-बार कहते रहे कि तू तुम सम्हाले रहते हो। कोई विचार नहीं उठने देते। लेकिन स्वप्न | मुझे भी छोड़। यह बात ही सुनकर उसको कष्ट होता। यह बात में विचार आ जाते हैं। तो भी, दुष्प्रवृत्ति हो गई। तो भी, तुम ही कल्पना के बाहर थी : महावीर को छोड़ो! वह सब छोड़ने को च्युत हुए। इन सबसे धीरपुरुष अपने को खींचता रहता है। तैयार था महावीर के लिए। सब छोड़ा ही महावीर के लिए था। _ 'तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट | अब यह तो बात जरा ज्यादा हो गई कि महावीर को भी छोड़ो। पहंचकर क्यों खड़ा है? उसे पार करने में शीघ्रता कर हे गौतम, तो फिर सब छोड़ा ही किसलिए था! वह महावीर के लिए ही क्षणभर का भी प्रमाद मतकर!' छोड़ा था। वह मुक्त न हो सका। यह तीसरा सूत्र है आज के लिए। यह महावीर ने अपने | महावीर ने जिस दिन देह छोड़ी, उसे सुबह ही दूसरे गांव में महानिर्वाण के क्षणभर पहले कहा था। यह अपने पट्ट शिष्य उपदेश के लिए भेजा। शायद जानकर ही भेजा हो। क्योंकि वह गौतम के लिये कहा था। पास रहेगा तो बहुत दुखी होगा। यह मृत्यु उसके सामने, कहीं गौतम महावीर का प्रथम गणधर है—उनका सबसे ज्यादा उसे विक्षिप्त न कर दे। उसका लगाव बहुत था। फिर पीछे से निकट का शिष्य। लेकिन विडंबना भाग्य की, कि वह आया था खबर मिलेगी तो बात आई-गई हो जाएगी। फिर धीरे-धीरे सबसे पहले, लेकिन मुक्ति का स्वाद न ले सका। वह महावीर सम्हल जाएगा। आघात मृत्यु का सीधे, महावीर को अपने के पास वर्षों रहा, फिर भी उस परम दशा को न पहुंच सका, सामने ही, मरा हुआ देखना, देह से छूट जाना देखना-शायद जिसको हम कैवल्य कहें, समाधि कहें। मन मिट न सका। और उसके प्राणों को तोड़ दे, शायद वह सह न पाये! तो उसे दूसरे उसने कुछ छोड़ा हो करने में, ऐसा भी नहीं है। उसने सब किया । गांव भेज दिया। जब वह सांझ को लौट रहा था दूसरे गांव से तो जो महावीर ने कहा। लेकिन एक छोटा-सा राग पैदा हो राहगीरों ने रास्ते में उससे कहा कि गौतम, तुम्हें कुछ पता है, www.jainelibran.org Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः महावीर जा चुके ! अब तुम कहां जा रहे हो? अब वह सत्पुरुष करने में निमित्त बना लेना, लेकिन जब नदी पार हो जाए, तो गुरु न रहा! को पकड़कर मत रुक जाना। महावीर कहते हैं, क्षणभर का भी तो वह वहीं रोने लगा। वहीं छाती पीटकर चिल्लाने लगा। प्रमाद मत कर, और इसमें क्षणभर की देर मत कर, आलस्य मत भरी आंखों से, टपकते आंसुओं से, उसने उन लोगों से पूछा कि कर-क्योंकि समय बीता जाता है, फिर लौटकर न आएगा! 'एक बात मुझे पूछनी है कि यह कैसा हुआ? यह उन्होंने कैसा और जो महावीर के जीते-जी न हो सका, वह महावीर की मृत्यु अन्याय किया? जीवनभर मैं उनके साथ रहा। तो आज तो कम | के कारण हो गया। गौतम को वह चोट भारी पड़ी। किनारा से कम मुझे बाहर न भेजते, दूर न भेजते! यह उन्होंने कौन-सा उसने नहीं छोड़ा, किनारा खुद ही जा चुका था अब। अब बदला लिया! एक ही बात पूछनी है मुझे मरते समय मुझे याद पकड़ने को कुछ था भी नहीं। जो जीवनभर महावीर के साथ किया था? मरने के पहले मेरे लिये कोई इशारा छोड़ा? क्योंकि रहकर बोध न हुआ, वह महावीर के मरने के एक दिन मैं तो अभी भी अंधेरे में भटक रहा हूं। मेरा क्या होगा? दीया | बाद...गौतम समाधि को उपलब्ध हो गया। उसने जान लियाः बुझ गया-अब मेरा क्या होगा?' तो उन लोगों ने...यह सूत्र संसार ही असार नहीं है, यहां सदगुरु के चरण भी छूट जाते हैं! महावीर ने गौतम के लिए कहा है, इसलिए गौतम का नाम इस यहां संपत्ति ही नहीं छूटती, सदगुरु भी छुट जाता है। यहां सभी सूत्र में आता है...उन लोगों ने गौतम को कहा, महावीर ने तुझे कुछ असार है। यहां अपने में ही लौट आने में सार है। याद किया था। वे यह सूत्र तेरे लिये छोड़ गए हैं : 'तू महासागर | ऐसा समझ कर...और तो सब छोड़ ही चुका था, यह महावीर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुंचकर क्यों खड़ा के प्रति लगाव था, यह भी छूट गया और यह लगाव बिलकुल है? उसे पार करने में शीघ्रता कर! हे गौतम, क्षणभर का भी मानवीय है, समझ में आता है। महावीर जैसा प्यारा पुरुष हो तो प्रमाद मत कर!' किसे लगाव न हो! गौतम की अड़चन समझ में आती है। तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ। महावीर ही कठोर मालूम होते हैं। गौतम का भाव तो ठीक ही है; अभितर पार गमित्तए, समय गोयम् ! मा पमायए।। समझ में पड़ता है। इतना प्यारा पुरुष कभी-कभी होता है। और 'हे गौतम! तू पूरा भवसागर पार कर गया, सारा संसार छोड़ ऐसे प्यारे पुरुष के पास पकड़ लेने का मन किसके मन में न दिया, सब तरफ से राग की जड़ें उखाड़ लीं-और अब तू होगा! और एकबारगी ऐसा भी होता है कि छोड़ो मोक्ष, छोड़ो किनारे को पकड़कर क्यों रुका है?' | बैकुंठ-यही चरण काफी है। ऐसा ही गौतम को हुआ होगा। किनारा यानी महावीर। ऐसा समझो कि तुम उस दूर के किनारे सब संसार छोड़ने की हिम्मत की थी, लेकिन ये चरण न छोड़ को पाने के लिए सारी नदी पार करते हो, निश्चित ही उस किनारे सका। लेकिन फिर ये चरण एक दिन छूट गए। जो भी बाहर है, जाने के लिए ही नदी पार करते हो। फिर इस नदी के सारे कष्ट | वह छूट ही जाएगा। उठाते हो-तूफान, झंझावात, धार के उपद्रव, मृत्यु का डर, डूब इसलिए महावीर कहते हैं : आत्मा में ही रमण करो। सब तरफ जाने का भय-यह सबको तुम पार कर जाते हो। फिर उस दूसरे से अपने में ही लौट आओ! अपने में ही लीन हो जाओ। उस किनारे को पकड़कर रुक जाते हो। रुके हो नदी में ही। किनारे आत्मलीनता को ही महावीर ने मोक्ष कहा है। को पकड़कर रुके हो! तुम कहते हो, इसी किनारे के लिए तो यह जो निमंत्रण गौतम के लिए है, यही निमंत्रण तम्हारे लिए सारी नदी पार की, वह किनारा छोड़ा, नदी छोड़ी, इतना संघर्ष भी है। झेला-अब इस किनारे को न छोड़ेंगे! पोत अगणित इन तरंगों ने तो महावीर कहते हैं, यह तो कुछ लाभ न हुआ। रुके तुम अब डुबाए, मानता मैं भी नदी में हो। अब इस किनारे को भी छोड़ो, बाहर निकलो! | पार भी पहुंचे बहुत से अब पार हो गए, नदी छूट गई, किनारे को भी छोड़ो! बात यह भी जानता मैं तो गुरु का उपयोग दूर के किनारे की तरह है। नदी को पार किंतु होता सत्य यदि यह 678 Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक दर्शन के आठ अंग भी, सभी जलयान डूबे हैं। बहुत-से खो भी गये हैं। अनंत खो गए हैं। पार जाने की प्रतिज्ञा कहते हैं, हजार बुलाए जाते तो सौ पहुंचते हैं। सौ जो पहुंचते आज बरबस ठानता मैं हैं, उनमें से दस चलते हैं। और दस चलते हैं, एक कहीं डूबता मैं, किंतु उतराता सिद्धावस्था को उपलब्ध हो पाता है। सदा व्यक्तित्व मेरा किंतु होता सत्य यदि यह हों युवक डूबे भले ही भी, सभी जलयान डूबे है कभी डूबा न यौवन पार जाने की प्रतिज्ञा तीर पर कैसे रुकू मैं आज बरबस ठानता मैं आज लहरों में निमंत्रण! लेकिन, अगर यह भी सत्य होता कि जो भी गया, सभी डूब महावीर दूर अनंत के सागर की लहरों का निमंत्रण हैं। और गए, तो भीनिमंत्रण ही नहीं, उस दूर के सागर तक पहुंचने का एक-एक पार जाने की प्रतिज्ञा, कदम भी स्पष्ट कर गए हैं। महावीर ने अध्यात्म के विज्ञान में आज बरबस ठानता मैं कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ा, खाली जगह नहीं है। मक्शा पूरा है। -क्योंकि यहां इस किनारे कुछ भी तो नहीं है। यहां बचे भी, एक-एक इंच भूमि को ठीक से माप गए हैं और जगह-जगह तो भी तो कुछ बचने जैसा नहीं है। और सागर में अगर डूबे भी मील के पत्थर खड़े कर गए हैं। तो डूबकर भी कुछ मिलता है। ये आठ सूत्र सम्यक दर्शन के सध जाएं तो सब सध गया। ये डूबता मैं किंतु उतराता | आठ सध जाएं तो समाधि सध गई, क्योंकि इन आठ के सधते ही सदा व्यक्तित्व मेरा। सारी समस्याएं तिरोहित हो जाती हैं। जो शेष रह जाता है, वही | तुम तो डूब जाओगे, लेकिन आत्मा उतराएगी। तुम तो डूबोगे समाधान है। | तभी आत्मा उतराएगी। तुम तो आत्मा में पत्थर की तरह हो। महावीर के निमंत्रण को अनुभव करो! उनकी पुकार को सुनो! तुम्हारी वजह से आत्मा तैर नहीं पाती, तिर नहीं पाती। ऐसे खाली नाममात्र को जैन होकर बैठे रहने से कुछ भी न होगा। हों युवक डूबे भले ही ऐसी नपुंसक स्थिति से कुछ लाभ नहीं। उठो! अपने का है कभी डूबा न यौवन जगाओ! बहुत बड़ी संभावना तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। खतरा तीर पर कैसे रुकू मैं है। इसलिए महावीर कहते हैं : अभय, साहस चाहिए! आज लहरों में निमंत्रण। खतरा यही है: सुनो इस निमंत्रण को! करो हिम्मत! चलो थोड़े कदम पोत अगणित इन तरंगों ने महावीर के साथ। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे कि जीवन डुबाए, मानता मैं की रसधार बहने लगेगी। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे, -बड़ा है, विराट है सागर! और न मालम कितने पोत इब | संपदा करीब आने लगगी। आने लगी शीतल हवाएं-शांति चुके हैं! | की, मुक्ति की! फिर तुम रुक न पाओगे। फिर तुम्हें कोई भी पोत अगणित इन तरंगों ने रोक न सकेगा। थोड़ा लेकिन स्वाद जरूरी है। दो कदम चलो, डुबाए, मानता मैं स्वाद मिल जाए; फिर तुम अपने स्वाद के बल ही चल पड़ोगे। पार भी पहुंचे बहुत से लाओत्सु ने कहा है, एक कदम तुम उठा लो, फिर फिक्र नहीं। बात यह भी जानता मैं। बस एक कदम तुम न उठाओ तो बड़ी फिक्र है। पहला कदम तुम लेकिन कुछ हैं जो पार भी पहुंच गए हैं। कोई महावीर, कोई | उठा लो तो बस, दूसरा तुम उठाओगे ही। क्योंकि पहले को बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई मुहम्मद पार भी पहुंच गये उठाने में ही ऐसा रस बरस जाता है, फिर कौन पागल होगा जो Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जिन सूत्र भागः1 २४..20.20-Sports दूसरा कदम न उठाए! और एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा भी अंततः पूरी हो जाती है! दो कदम तो कोई एकसाथ चल भी नहीं सकता। एक कदम! छोटा कदम! जितनी तुम्हारी सामर्थ्य में आता हो, इतना बड़ा कदम! लेकिन उठाओ! बैठे-बैठे बहुत जन्म खोए-और मत खोओ! धम्मपद में बुद्ध ने कहा है: 'उत्तिट्टे!' उठो! 'न पमज्जेय्य!' उठो! प्रमाद मत करो! सोये मत रहो! आलसी मत रहो! जो उठता है, वही पाता है। जो सोया रहता, वह सभी कुछ खो देता है। आज इतना ही। 680 Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो एक परिचय बुद्धत्व की प्रवाहमान धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं, वे पश्चात भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी और सन 1957 में अतीत की किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी नहीं हैं। सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में प्रथम ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और उनके साथ ही (गोल्डमेडलिस्ट) रहकर एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। इसके समय दो सुस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है : ओशो पूर्व तथा | पश्चात वे जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक ओशो पश्चात। पद पर कार्य करने लगे। विद्यार्थियों के बीच वे 'आचार्य रजनीश' ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत के नाम से अतिशय लोकप्रिय थे। का, एक नये युग का सूत्रपात हुआ है, जिसकी आधारशिला विश्वविद्यालय के अपने नौ सालों के अध्यापन-काल के अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति | दौरान वे पूरे भारत में भ्रमण भी करते रहे। प्रायः ही 60-70 में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, सर्वथा हजार की संख्या में उपस्थित होनेवाले श्रोताओं में वे अनूठे संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं। आध्यात्मिक जन-जागरण की लहर फैला रहे थे। उनकी वाणी मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसंबर 1931 को | में और उनकी उपस्थिति में वह जादू था, वह सुगंध थी जो किसी जन्मे ओशो का बचपन का नाम रजनीश था। उन्होंने जीवन के पार के लोक से आती है। प्रारंभिक काल में ही एक निर्भीक स्वतंत्र आत्मा का परिचय सन 1966 में ओशो ने विश्वविद्यालय के प्राध्यापक पद दिया। खतरों से खेलना उन्हें प्रीतिकर था। 100 फीट ऊंचे पुल से त्यागपत्र दे दिया ताकि वे ध्यान की कला को और एक नये द कर बरसात में उफनती नदी को तैर कर पार करना उनके मनुष्य-ज़ोरबा दि बुद्धा-के अपने जीवनदर्शन को अधिक से लिए साधारण खेल था। युवा ओशो ने अपनी अलौकिक | अधिक लोगों तक पहुंचा सकें। 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक ऐसा बुद्धि तथा दृढ़ता से पंडित-पुरोहितों, मुल्ला-पादरियों, | मनुष्य है जो भौतिक जीवन का पूरा आनंद मनाना जानता है; जो संत-महात्माओं-जो स्वानुभव के बिना ही भीड़ के अगुवा बने मौन होकर ध्यान में उतरने में भी सक्षम है-ऐसा मनुष्य जो बैठे थे-की मूढ़ताओं और पाखंडों का पर्दाफाश किया। भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह से समृद्ध है। 21 मार्च 1953 को इक्कीस वर्ष की आयु में ओशो संबोधि सन 1970 में वे बंबई में रहने के लिए आ गये। अब को उपलब्ध हुए। संबोधि के संबंध में वे कहते हैं : 'अब मैं पश्चिम से सत्य के खोजी भी जो भौतिक समद्धि से ऊब चके किसी भी प्रकार की खोज में नहीं हूं। अस्तित्व ने अपने समस्त थे और जीवन के किन्हीं और गहरे रहस्यों को जानने और द्वार मेरे लिए खोल दिये हैं।' उन दिनों वे जबलपुर के एक समझने के लिए उत्सुक थे, उन तक पहुंचने लगे। ओशो ने उन्हें कालेज में दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी थे। बुद्धत्व घटित होने के बताया कि अगला कदम ध्यान है। ध्यान ही जीवन में सार्थकता Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के फूलों के खिलने में सहयोगी सिद्ध होगा। शिष्यों ने ओरेगॅन के मध्य भाग में 64,000 एकड़ जगह खरीदी इसी वर्ष सितंबर में, मनाली (हिमालय) में आयोजित | जहां उन्होंने ओशो को रहने के लिए आमंत्रित किया। धीरे-धीरे अपने एक शिविर में ओशो ने नव-संन्यास में दीक्षा देना प्रारंभ यह जगह एक फूलते-फलते शहर में परिवर्तित होती गई। वहां ।। इसी समय के आसपास वे आचार्य रजनीश से भगवान लगभग 5000 प्रेमी मित्र मिल-जुलकर अपने सद्गुरु के श्री रजनीश के रूप में जाने जाने लगे। सान्निध्य में आनंद और उत्सव के वातावरण में एक अनूठे नगर ____ सन 1974 में वे अपने बहुत से संन्यासियों के साथ पूना के सृजन को यथार्थ रूप दे रहे थे। आ गये जहां 'श्री रजनीश आश्रम' की स्थापना हुई। पूना आने जैसे अचानक एक दिन ओशो मौन हो गये थे वैसे ही पर उनके प्रभाव का घेरा विश्वव्यापी होने लगा। अचानक अक्टूबर 1984 में उन्होंने पुनः प्रवचन देना प्रारंभ कर श्री रजनीश आश्रम, पूना में प्रतिदिन अपने प्रवचनों में दिया। ओशो ने मानव-चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर मध्य सितंबर 1985 में ओशो की सचिव के रजनीशपुरम किया। कष्ण, शिव, महावीर, बद्ध, शांडिल्य, नारद, जीसस छोड़कर चले जाने के बाद उसके अपराधों की खबरें ओशो तक के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक पहुंचीं। उसके अपराधपूर्ण कृत्यों के संबंध में बताने के लिए एक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, मलूकदास, रैदास, विश्व पत्रकार सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें ओशो ने स्वयं दरियादास, मीरा आदि पर उनके हजारों प्रवचन उपलब्ध हैं। प्रशासन-अधिकारियों से अपनी सचिव को गिरफ्तार करने को जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से कहा। लेकिन अधिकारियों की खोजबीन का उद्देश्य कम्यून को अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी जैसी | नष्ट करना था, न कि सचिव के अपराधपूर्ण कृत्यों का पता अनेक साधना-पद्धतियों के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार लगाना। प्रारंभ से ही कम्यून के इस प्रयोग को नष्ट करने के लिए प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, अमरीका की संघीय, राज्य और स्थानीय सरकारें हर संभव दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट, | प्रयास कर रही थीं। यह उनके लिए एक अच्छा मौका था। पर्यावरण, संभावित परमाणु युद्ध का विश्व-संकट जैसे अनेक | अक्तूबर 1985 में अमरीकी सरकार ने ओशो पर विषयों पर भी उनकी क्रांतिकारी जीवनदृष्टि उपलब्ध है। आप्रवास-नियमों के उल्लंघन के 35 मनगढंत आरोप लगाए। शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए उनके ये प्रवचन छह बिना किसी गिरफ्तारी-वारंट के ओशो को बंदकों की नोक पर सौ पचास से भी अधिक पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं हिरासत में ले लिया गया। और तीस से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुके हैं। वे कहते 12 दिनों तक उनकी जमानत स्वीकार नहीं की गयी और हैं, “मेरा संदेश कोई सिद्धांत, कोई चिंतन नहीं है। मेरा संदेश उनके हाथ-पैर में हथकड़ी व बेड़ियां डालकर उन्हें एक जेल से | तो रूपांतरण की एक कीमिया, एक विज्ञान है।" दूसरी जेल ले जाया जाता रहा। जगह-जगह घुमाते हुए उन्हें वे दिन में केवल दो बार बाहर आते रहे-प्रातः प्रवचन देने पोर्टलैंड (ओरेगॅन) ले जाया गया। सामान्यतः जो यात्रा पांच के लिए और संध्या समय सत्य की यात्रा पर निकले हुए साधकों घंटे की है, वह आठ दिन में पूरी की गयी। जेल में उनके शरीर को मार्गदर्शन एवं नये प्रेमियों को संन्यास-दीक्षा देने के लिए। के साथ बहुत दुर्व्यवहार किया गया और यहीं संघीय सरकार के वर्ष 1979 में कट्टरपंथी हिंदू समुदाय के एक सदस्य द्वारा अधिकारियों ने उन्हें 'थेलियम' नामक धीमे असरवाला जहर उनकी हत्या का प्रयास भी उनके एक प्रवचन के दौरान किया दिया। गया। | 14 नवंबर 1985 को अमरीका छोड़ कर ओशो भारत अचानक शारीरिक रूप से बीमार हो जाने से 1981 की लौट आये। यहां की तत्कालीन सरकार ने उन्हें विश्व से वसंत ऋतु में वे मौन में चले गये। चिकित्सकों के परामर्श पर अलग-थलग कर देने का पूरा प्रयास किया। उनकी देखभाल उसी वर्ष उन्हें जून में अमरीका ले जाया गया। उनके अमरीकी करनेवाले उनके गैर-भारतीय शिष्यों के वीसा रद्द कर दिये गये, Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें मिलने के लिए आनेवाले पत्रकारों और उनके शिष्यों को भीतर से क्षीण होता चला गया, जिसके बावजूद वे ओशो कम्यून वीसा देने से इनकार किया गया। तब ओशो नेपाल चले गये। इंटरनेशनल, पूना के गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम में 10 अप्रैल लेकिन उन्हें नेपाल में भी अधिक समय तक रुकने की अनुमति | 1989 तक प्रतिदिन संध्या दस हजार शिष्यों, खोजियों और नहीं दी गयी। प्रेमियों की सभा में प्रवचन देते रहे और उन्हें ध्यान में डुबाते रहे। फरवरी 1986 में वे विश्व-भ्रमण के लिए निकले जिसकी 17 सितंबर 1989 से गौतम दि बद्धा आडिटोरियम में शुरुआत उन्होंने ग्रीस से की। लेकिन अमरीका के दबाव के केवल आधे घंटे के लिए आकर ओशो मौन दर्शन-सत्संग के अंतर्गत 21 देशों ने या तो उन्हें देश से निष्कासित किया या फिर संगीत और मौन में सबको डुबाते रहे। यह बैठक “ओशो व्हाइट देश में प्रवेश की अनुमति ही नहीं दी। इन तथाकथित स्वतंत्र रोब ब्रदरहुड" कहलाती है। ओशो 16 जनवरी 1990 तक लोकतांत्रिक देशों में ग्रीस, इटली, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, ग्रेट प्रतिदिन संध्या सात बजे व्हाइट रोब ब्रदरहुड की सभा में ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, हालैंड, कनाडा, जमाइका और स्पेन उपस्थित होते रहे। प्रमुख थे। 17 जनवरी को वे सभा में केवल नमस्कार करके वापस ओशो जुलाई 1986 में बम्बई और जनवरी 1987 में पूना चले गए। 18 जनवरी को व्हाइट रोब ब्रदरहुड की सांध्य-सभा में अपने आश्रम लौटे, जो अब ओशो कम्यून इंटरनेशनल के में उनके निजी चिकित्सक स्वामी अमृतो ने सूचना दी कि ओशो नाम से जाना जाता है। यहां वे पुनः अपनी क्रांतिकारी शैली में के शरीर में इतना दर्द है कि वे हमारे बीच नहीं आ सकते, लेकिन अपने प्रवचनों के आग्नेय बाणों से पंडित-पुरोहितों और वे अपने कमरे में ही सात बजे से हमारे साथ ध्यान में बैठेंगे। राजनेताओं के पाखंडों व मानवता के प्रति उनके षड्यंत्रों का | दूसरे दिन 19 जनवरी 1990 की संध्या-सभा में घोषणा की गई पर्दाफाश करने लगे। कि ओशो अपनी देह छोड़कर पांच बजे अपराह्न को महाप्रयाण इसी बीच भारत सहित सारी दुनिया के बुद्धिजीवी वर्ग व कर गए हैं। ओशो की इच्छा के अनुरूप उसी संध्या उनका शरीर समाचार माध्यमों ने ओशो के प्रति गैर-पक्षपातपूर्ण व विधायक गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम में दस मिनट के लिए ला कर रखा चिंतन का रुख अपनाया। छोटे-बड़े सभी प्रकार के समाचारपत्रों गया। दस हजार शिष्यों और प्रेमियों ने उनकी आखिरी विदाई का व पत्रिकाओं में अक्सर उनके अमृत-वचन अथवा उनके उत्सव संगीत-नृत्य, भावातिरेक और मौन में मनाया। फिर संबंध में लेख व समाचार प्रकाशित होने लगे। देश के उनका शरीर दाहक्रिया के लिए ले जाया गया। अधिकांश प्रतिष्ठित संगीतज्ञ, नर्तक, साहित्यकार, कवि व 21 जनवरी 1990 की पूर्वाह्न में उनके अस्थि-फूल का शायर ओशो कम्यून इंटरनेशनल में अक्सर आने लगे। मनुष्य कलश महोत्सवपूर्वक कम्यून में ला कर च्यांग्त्सू हॉल में निर्मित की चिर-आकांक्षित ऊटोपिया का सपना साकार देखकर उन्हें | एक संगमरमर की समाधि में स्थापित किया गया। अपनी ही आंखों पर विश्वास न होता। ओशो की समाधि पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है: 26 दिसंबर 1988 को ओशो ने अपने नाम के आगे से 'भगवान' संबोधन हटा दिया। 27 फरवरी 1989 को ओशो कम्यून इंटरनेशनल के बुद्ध सभागार में प्रवचन के दौरान उनके OSHO 10,000 शिष्यों व प्रेमियों ने एकमत से अपने प्यारे सद्गुरु को Never Born 'ओशो' नाम से पुकारने का निर्णय लिया। Never Died __अक्तूबर 1985 में अमरीका की रीगन सरकार द्वारा ओशो Only Visited this को थेलियम नामक धीमा असर करने वाला जहर दिये जाने के Planet Earth between कारण एवं उनके शरीर को प्राणघातक रेडिएशन से गुजारे जाने Dec 11 1931-Jan 19 1990 के कारण उनका शरीर तब से निरंतर अस्वस्थ रहने लगा था और Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिंदी साहित्य जिन-सूत्र (दो भागों में) महावीर या महाविनाश महावीर : मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र) लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) कबीर कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया मगन भया रसि लागा चूंघट के पट खोल न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) मीरा पद धुंघरू बांध झुक आई बदरिया सावन की अष्टावक्र महागीता (छह भागों में) महावीर महावीर-वाणी (दो भागों में) महावीर-वाणी (पुस्तिका) पलटू अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा ( दो भागों में) जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर सोवै दिन रैन मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा अन्य रहस्यदर्शी भक्ति-सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढमते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम ( नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई ) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास ) संतो, मगन भया मन मेरा ( रज्जब ) कहै वाजिद पुकार ( वाजिद ) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख ) सहज-योग (सरहपा -तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी ) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चुगैं (लाल ) गुरु- परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप ( रैदास) झरत दसहूं दिस मोती (गुलाल ) जरथुस्त्र : नाचता-गाता मसीहा ( जरथुस्त्र ) प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये जो बोलैं तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव यूं था यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल बोध-कथा मिट्टी के दीये ध्यान, साधना, योग ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति रजनीश ध्यान योग हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् नेति-नेति मैं कहता आंखन देखी पतंजलि योग-सूत्र (दो भागों में) लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय बहुतेरे हैं घाट कोंपलें फिर फूट आईं फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी चेति सके तो चेति क्या सोवै तू बावरी एक एक कदम चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो मूलभूत मानवीय अधिकार नया मनुष्य : भविष्य की एकमात्र आशा सत्यम् शिवम् सुंदरम् रसो वै सः सच्चिदानंद पंडित-पुरोहित और राजनेता : मानव आत्मा के शोषक ॐ मणि पद्मे हुम् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः हरि ॐ तत्सत् एक महान चुनौतीः मनुष्य का स्वर्णिम भविष्य मैं धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं साधना-शिविर साधना-पथ ध्यान-सूत्र जीवन ही है प्रभु माटी कहै कुम्हार सूं मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की ) साधना-सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज तंत्र संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (पांच भागों में) ओशो के संबंध में भगवान श्री रजनीशः ईसा मसीह के पश्चात सर्वाधिक विद्रोही व्यक्ति पत्र-संकलन क्रांति-बीज पथ के प्रदीप Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशोटाइमस... विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र एक वर्ष में 24 अंक ) ཐ། 4ཛདག हिंदी व अंग्रेजी में संयुक्त रूप से प्रति तीन माह में प्रकाशित होने वाली रंगीन पत्रिका संपर्क सूत्रः ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि. 50, कोरेगांव पार्क, पूना-411001 फोनः 660963 ओशो एवं ओशो-साहित्य की समस्त जानकारी हेतु संपर्क सूत्रः ओशो कम्यून इंटरनेशनल, 17 कोरेगांव पार्क, पूना 411001 Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर तुम्हें वहां ले जाना चाहते है, जहां न कोई विचार रह जाता, न कोई भाव रह जाता, न कोई चाह रह जाती, न कोई परमात्मा रह जाता-जही बस तुम एकांत, अकेले, अपनी परिपूर्ण शुद्धता में बच रहते हो। निर्धूम जलती है तुम्हारी चेतना! महावीर ने जैसी महिमा का गुणगान आत्मा का किया है, किसी ने भी नहीं किया। महावीर ने सारे परमात्मा को आत्मा में उंडेल दिया है। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी है, और किसी ने भी नहीं दी। महावीर ने मनुष्य को सर्वोत्तम, सबसे ऊपर रखा है। और यह जो दुर्लभ क्षण तुम्हें मिला है। मनुष्य होने का इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसे ऐसे भूले-भूले ही मत गंवा देना। इसे दूसरों के द्वार खटखटाते-खटखटाते ही मत गंवा देना। बहुत मुश्किल से मिलता है यह क्षण और बहुत जल्दी खो जाता है। बड़ा दुर्लभ है यह फूल; सुबह खिलता है, सांझ मुरझा जाता है। फिर हो सकता है सदियों-सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़े। इसलिए मनुष्य होना महिमा ही नहीं है, बड़ा उत्तरदायित्व है। अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ा कृत्य पूरा करना चाहा है। साथ दो! सहयोग दो! अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहत बड़ी घटना को घटाने का आयोजन किया है। साथ दो! सहयोग दो! और जब तक तुम खिल न पाओगे, नियति तुम्हारी पूरी न होगी। ओशो For Private & Persona Use Only www.jalinen las Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के व्यक्तित्व की विशेषताओं में एक विशेषता यह भी है कि उन्हें जो सत्य की अनुभूति हुई है, उसकी अभिव्यक्ति को जीवन के समस्त तलों पर प्रगट करने की कोशिश की है। मनुष्य तक कुछ बात कहनी हो, कठिन तो बहुत है, लेकिन फिर भी बहुत कठिन नहीं है। लेकिन महावीर ने एक चेष्टा की जो अनूठी है और नई है। और वह चेष्टा यह है कि पौधे, पशु-पक्षी, देवी-देवता, सब तक: जीवन के जितने तल हैं सब तक, उन्हें जो मिला है, उसकी खबर पहुंच जाए। ओशो A RES) I LOOK ,