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________________ जिन सूत्र भागः । तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है। का ही खेल है। जो है वह तो सदा वर्तमान है। जिस दिन तुम्हारे लोभ की दौड़ में तम कछ गंवा रहे हो, मिलता तो | मन में कोई लोभ न होगा, उसी दिन तम पाओगे, भविष्य भी खो कुछ भी नहीं। एक बात तय है कि मिलता कुछ भी नहीं। लेकिन | गया। लोभ भविष्य है। भय अतीत है। भय के कारण तुम गंवा तुम बहुत कुछ रहे हो। कमा तो कुछ भी नहीं पाते, गंवाते अतीत को पकड़े रहते हो। क्योंकि कुछ तो सहारा चाहिए, नहीं बहुत हो। अपने को गंवा रहे हो। धन के ठीकरे इकट्ठे करोगे, तो गिर पड़ेंगे अखंड खड्ड में। पकड़े रहते हो कि मैं कौन आत्मा को बेचते जाओगे टुकड़ा-टुकड़ा करके; क्योंकि बिना | हूं-जाति, कुल, धर्म, परिवार, वंश, प्रतिष्ठा, पद, उपाधि, अपने को बेचे यह धन इकट्ठा न होगा। बिना अपने को बेचे तुम जो-जो किया उस सबका सार संग्रह-तुम पकड़े रहते हो। लोभ की दौड़ में न लग पाओगे। हर कदम, लोभ की दिशा में अतीत को पकड़े रहते हो, क्योंकि वही लगता है कि उसी को उठाया गया, आत्मघात है। यह जिस दिन जीवन का दीया बुझने पकड़कर लटके रहें, अन्यथा शून्य है विराट। अगर कोई सहारा लगेगा उस दिन पछताओगे, उस दिन रोओगे; लेकिन तब बहुत | न रहा पीछे, शून्य में गिर जाएंगे। देर हो चुकी होगी। अतीत को पकड़े हो-भय के कारण। और भविष्य को तूफाने-दो-गम में न गुल हो सकी मगर जिलाए रखते हो, जगाए रखते हो-लोभ के कारण। लोभ शम-ए-हयात सांस के झोंके से बझ गई। और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए लोभी कभी बड़े-बड़े तूफान और दुख और दर्द भी जिसे नहीं बुझा पाते, भय से मुक्त नहीं हो सकता और भयभीत कभी लोभ से मुक्त वह जिंदगी बस जरा से सांस के झोंके से बुझ जाती है। नहीं हो सकता। तूफाने-दर्दो-गम में न गुल हो सकी मगर तुमने देखा! जितना तुम्हारे पास धन इकट्ठा होता जाता है, शम-ए-हयात सांस के झोंके से बुझ गई। उतना ही भय भी बढ़ता जाता है। यह बड़ा अजीब मामला है। पर जिस दिन वह जीवन की शमा, वह जीवन की ज्योति सांस लोग धन इकट्ठा करते हैं ताकि भय न रहे जीवन में; लेकिन के जरा-से झोंके में बुझने लगेगी, उस दिन पछताओगे, छाती | जैसे-जैसे धन इकट्ठा होता है, वैसे-वैसे भय बढ़ता है, घटता पीटोगे, रोओगे। मेरे देखे मरते वक्त आदमी का जो रुदन है, नहीं। अब और एक नया भय लगता है कि कोई धन न छीन ले। मरते वक्त आदमी की जो पीड़ा है, वह मृत्यु के कारण नहीं | अब एक नया भय लगता है कि कहीं जो मिला है वह खो न है—वह व्यर्थ गए जीवन के कारण है। सारा जीवन असार | जाए! मिला कुछ भी नहीं है; लेकिन खो न जाए, यह भय गया, हाथ यह मौत आई अब। क्या-क्या चाहा था! | तुम्हारे जीवन को घेर लेता है। तब तुम और ज्यादा दौड़ में लगते कैसी-कैसी चाहत न की थी! कैसे-कैसे इंद्रधनुष फैलाए थे हो कि और कमाओ, और इकट्ठा करो। इसलिए तो देने में डरते वासनाओं के! वह तो कुछ भी हाथ न आया। हाथ यह मौत हो कि कहीं दे दिया तो फिर भय में खड़े हो जाओगे। इकट्ठा होता आई है। जिसको कभी न चाहा था वह हाथ आई। जिसको कभी जाता है, कृपणता बढ़ती चली जाती है। जितना धनी, उतना न मांगा था वह मिली। जिसकी कभी आरजू न की थी, मिन्नत न | ज्यादा कृपण हो जाता है। गरीब तो शायद कुछ दे भी दे, क्योंकि की थी, प्रार्थना न की थी, जिसके लिए परमात्मा के द्वार पर कभी वह कहता है, दे भी दिया, तो क्या हर्ज है, वैसे ही कुछ नहीं है; दस्तक न दी थी, वह मिली। और जो-जो चाहा था वह तो मिला | होता तो बचाते, जब है ही नहीं तो बचाना क्या! अमीर तो कुछ ही नहीं। उसको पाने की कोशिश में जो जीवन मिला था वह भी भी नहीं दे पाता। एक-एक पैसे का हिसाब रखता है। अब गंवा दिया। डरता है कि एक भी पैसा खिसका तो कम हुआ। अब यह बड़े इसलिए धार्मिक व्यक्ति कल का भरोसा नहीं करता। वह कल मजे की बात है, मिला कुछ भी नहीं है। लेकिन कम होने का डर पर नहीं टालता। कल पर टालना ही लोभ है। लोभ का अर्थ है: | पकड़ता है। कोई छीन न ले! धन की आकांक्षा भय से होती कल मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति कहता है, अभी जिएंगे, यहीं है-धन पाकर भय और दुगना हो जाता है। जिएंगे। कल होता कहां? भविष्य है कहां? भविष्य तुम्हारे मन तुमने भय के कदम देखे! लोभ के पीछे-पीछे ही चलते हैं। 1500 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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