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________________ D NAREENAMMARHI जिंदगी नाम है रवानी का में छोड़ देता है एक दिन, न नाव, न कोई कूल, न कोई किनारा! जाएंगे। लोग बीच फिल्म में झगड़ा-फसाद करने को खड़े हो उस घड़ी में ही परम आलंबन मिलता है। उस घड़ी में ही प्रभु का जाएंगे, कि न मार-काट, न कोई हत्या, न कोई सनसनीखेज हाथ तुम्हारी तरफ आता है। उसका अर्थ यह हुआ...जब तुमने बात—यह मामला क्या है? सब अपने सहारे छोड़ दिए, उसका अर्थ यह हुआ कि अब तुम्हें ऐसा हुआ है। सेमुअल बेकेट ने एक फिल्म बनाई। अनूठा भरोसा आया, अब तुम्हें श्रद्धा हुई। इसके पहले तुम्हारी श्रद्धा आदमी था। छोटी-छोटी किताबें उसने लिखी हैं, बड़ी-बड़ी अपनी चीजों पर थी। धन पर थी, पद पर थी, मत पर थी, भीड़ गहन-गंभीर! उसने एक फिल्म भी बनाई। उस फिल्म में कुछ पर थी, राज पर थी। तुम्हारी कोई श्रद्धा और थी। लेकिन जिस भी नहीं है। एक आदमी घर लौटता है-कई वर्षों के बाद। घर दिन तुमने अपनी और सारी श्रद्धाएं छोड़ दी, उसी दिन उस भी खंडहर जैसा हो गया है। पत्नी कहां गई, पता नहीं। बच्चे परमशून्य में, उस श्रद्धा का जन्म होता है जिसको धर्म कहें। उस कहां गए, पता नहीं। उसका आना, घर में उसका प्रवेश, अतीत दिन परमात्मा के सिवाय तुम्हारा कोई सहारा न रहा। उस दिन को खोजती उसकी आंखें! द्वार पर, दीवार पर, चित्र पर, केलेंडर उसी घड़ी में, वह महाक्रांति घटती है। उसी घड़ी में तुम उठा लिए पर, फर्नीचर पर-सारा अतीत उसका छाया है। वह खोया है, जाते हो। उसी घड़ी में तुम्हारे भीतर जो कूड़ा-कर्कट है, जल स्तब्ध खड़ा है। वह एक-एक चीज को उठाकर देखने लगता जाता है; जो सोना है निखर जाता है। है। एक शब्द नहीं बोला जाता, सिर्फ उसकी श्वास बढ़ने लगती इसलिए भीड़ में मेरी उत्सुकता नहीं है। धर्म मेरे लिए है। वह घबड़ा गया है। यह सारा अतीत है उसका। और सब अभिजात्य है, अरिस्टोक्रेटिक है। भीड़ का उससे कुछ सूत्र खो गए हैं। कहां है बेटा, कहां पत्नी-कुछ भी पता नहीं लेना-देना नहीं है। कभी-कभी कोई आदमी इतने अभिजात्य को है। यह भी कुछ कहा नहीं जाता; यह भी देखनेवाले को समझना उपलब्ध होता है, ऐसी अंतर्तम की अरिस्टोक्रेसी को...। | है। अभी तक एक शब्द बोला ही नहीं गया है सिर्फ उसकी तुम समझो इसे। कोई कवि है। जितना श्रेष्ठतर कवि होगा, बढ़ती हुई सांस की आवाज है। वह एक-एक चीज को उठाता उतने ही कम लोग उसे सुनने जाएंगे। क्योंकि ज्यादा लोग सुनने है, आंख से आंसू बहने लगते हैं। सिसकियां आ जाती हैं। तभी आ सकते हैं जब वह निकृष्ट हो, जब वह नीचा हो; जब | उसके रोने की आवाज और गहन अंधकार हो जाता है। फिल्म वह उन्हीं की भाषा में बोल रहा हो जिस भाषा में लोग समझ खतम हो जाती है। सकते हैं; जब वह उन्हीं मनोवेगों को छेड़ रहा हो जिनको लोग जहां चली, वहीं झगड़े हो गए। वहीं लोगों ने कुर्सियां तोड़ समझ सकते हैं; जब वह कामवासना के गीत गा रहा हो। जहां डाली, पर्दे तोड़ डाले। लोगों ने कहा, 'यह धोखा है। यह कोई लोग हैं, जब उसकी कविता भी वहीं हो, तभी लोग उसे समझ फिल्म है?' पाएंगे; तभी लोग आंदोलित होंगे। बड़ा सूक्ष्म चित्रण है। कुछ ऐसे भावों को उसकी आंखों से उपन्यास वही बिकेगा जो अत्यंत सस्ता से सस्ता हो; दाम में प्रगट किया है जो शब्दों में नहीं कहे जा सकते। उसके उठने में, ही नहीं, जिसकी आत्मा ही सस्ती हो, जिसमें कुछ भी न हो बैठने में, उसकी श्वास की बढ़ती हुई आवाज में, उसकी आंखों विशेष। गीत वही गुनगुनाया जायेगा जो जितना क्षुद्र, निम्न हो, से टपकते हुए टप-टप आंसुओं में, फिर अंधेरे में खो गई उसकी जितने नीचे तल पर पुकार हो। संगीत भी वही सुना जाएगा सिसकियों में-आदमी की पूरी जिंदगी है। यही तो जिंदगी है। जिसमें आदमी की क्षुद्र वासनाओं की संतुष्टि हो। फिल्म भी एक दिन तुम भी तो यही पाओगे कि जहां सब बसाया था वहां वही चलेगी। फिल्म भी वही चलेगी जो लोगों की कामवासना सिर्फ खंडहर है। बेटे भी खो गए, पत्नी भी खो गई, पति भी खो को थिरकाती हो। हिंसा हो, कामवासना हो, हत्या हो, तो फिल्म गये-सब खो गये। अकेला रह जाता है आदमी। सांस की चलेगी, तो लोग खिचे हुए चले जाएंगे। अब किसी फिल्म में आवाज बढ़ती जाती है और टूट जाती है। अंधेरा! मौत! समाधि का दर्शन हो, कौन जाएगा? बुद्ध बैठे रहें, बैठे रहें वृक्ष सिसकियां! हाथ खाली के खाली! और है क्या जिंदगी में? के तले, समाधि के फल खिलें-कौन जाएगा? लोग ऊब सारी जिंदगी को उसमें रख दिया हैलेकिन कहीं भी फिल्म चल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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