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________________ 210 जिन सूत्र भाग: 1 खून, हड्डी, मांस का हिस्सा है। धर्म जब घटता है तो नितांत वैयक्तिक है। राजनीति सामूहिक है। जहां धर्म समूह बनता है, वहां राजनीति हो जाती है । मेरी राजनीति में कोई उत्सुकता नहीं । मेरी उत्सुकता व्यक्तियों में है, समूहों में नहीं । यहां भी तुम बैठे हो, तो मैं एक-एक से बात कर रहा हूं, समूह से नहीं। मेरी नजर तुम पर है – एक - एक पर। तुम्हारी भीड़ से मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। 1 एक मित्र ने पूछा है कि ‘सत्य साईंबाबा की सभा में हजारों लोग होते हैं। पांडूरंग महाराज की सभा में हजारों लोग होते हैं। डोंगरे जी महाराज की सभा में हजारों लोग होते हैं। आपकी सभा में थोड़े-से लोग क्यों होते हैं ?' मैं आश्चर्यचकित होता हूं कि इतने भी क्यों हैं ! इतने भी होने | नहीं चाहिए हिसाब से । जो मैं कह रहा हूं वह इतनों को भी पट जाता है, यह भी आश्चर्य की बात है । और ऐसा नहीं है कि भीड़ मेरे पास नहीं थी। भीड़ मेरे पास भी थी। मैंने सारे रास्ते उसके लिए बंद कर दिए। वे हजारों लोग मेरे पास भी थे। लेकिन मैंने पाया, वह हजारों लोगों का मनोरंजन होगा। उनके जीवन में कोई क्रांति की आकांक्षा न थी । जलसा था, तमाशा था । क्रांति की आकांक्षा भीड़ में नहीं है। भीड़ को मैंने छोड़ा। अब तो हर तरह मैंने उपाय किए हैं कि भीड़ का आदमी पहुंच ही न पाए। सब तरह के द्वार-दरवाजे बिठा दिए कि भीड़ को आने ही न दिया । वे ही थोड़े-से लोग जो सच में रूपांतरित होना चाहते हैं, मेरे पास तक पहुंच पाएं। अन्यों में मेरा रस नहीं है। भीड़ को इकट्ठा कर लेने से सस्ता कोई काम दुनिया में और है ? भीड़ की मूढ़ता को समझो। जहां भीड़ है वहां एक बात पक्की हो जाती है कि कुछ गलत चल रहा होगा। ठीक के साथ तो भीड़ हो ही नहीं पाती। इतने लोग कहां कि जहां ठीक चलता हो वहां भीड़ हो जाए? इतने आदमी कहां ? नाममात्र के आदमी हैं। रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। एक-दूसरे को गाली-गुफ्ता कर रहे हों तो भीड़ इकट्ठी हो जाती | है | हजार जरूरी काम छोड़कर वहां खड़े हो जाते हैं। इस भीड़ को इकट्ठा करके भी क्या होगा ? लेकिन राजनीतिज्ञ इसी भीड़ में उत्सुक हैं। और जिन्हें तुम धर्मगुरु कहते हो, वे भी इसी भीड़ में उत्सुक हैं; क्योंकि भीड़ में बल है । जितनी बड़ी भीड़ तुम्हारे पास इकट्ठी होती है, उतने तुम बलशाली हो जाते हो । लेकिन बलशाली होने की आकांक्षा तो अहंकार की ही यात्रा है। ain Education International निर्बल के बल राम । मैं तो तुम्हें सिखाता हूं: निर्बल हो जाओ। कोई ताकत तुम्हारे पास न हो, न पद की, न धन की, न की। कोई सहारा तुम्हारे पास न हो, तुम बिलकुल बे-सहारे हो जाओ । जब तुम बिलकुल बे-सहारे हो तब तुम्हें परमात्मा का सहारा मिलता है। जब तक तुम्हारा अपना कोई सहारा है, परमात्मा को सहारा देने की जरूरत भी नहीं है। सुना है मैंने, कृष्ण भोजन को बैठे हैं बैकुंठ में। अचानक बीच थाली से उठ पड़े। भागे द्वार की तरफ। रुकमणि ने कहा, 'कहां जाते हैं ?' लेकिन इतनी जल्दी में थे, जैसे घर में आग लग गई हो, कि उत्तर भी न दिया; लेकिन फिर द्वार पर रुक गए, वापिस लौट आए। कुछ उदास मालूम पड़े। रुकमणि ने पूछा, 'क्या हुआ ? कुछ समझ में न पड़ा। अचानक भागे। कौर भी जो हाथ में लिया था, पूरा न लिया, उसे भी छोड़ दिया। मैंने पूछा तो जवाब न दिया। फिर लौट क्यों आए ?' इसलिए इतने तुम हो यहां, यह चमत्कार है। तुम गणित के नहीं देता ! पत्थर भी नहीं उठाता । वीणा भी बजे जा रही है। वह सब नियमों को तोड़कर यहां हो। गीत भी गुनगुनाए जा रहा है, खून भी बहा जा रहा है। जिसने इतना मुझ पर छोड़ा, मैं बैठकर भोजन करूं ? तो भागा ।' रुकमणि ने कहा, 'ठीक! यह समझ में आता है। यह गणित साफ है । फिर लौट क्यों आए ?' कृष्ण ने कहा, 'जाने की जरूरत न रही। जब तक मैं द्वार तक पहुंचा, उसने एकतारा तो फेंक दिया है, पत्थर उठा लिया। अब वह खुद ही उत्तर दे रहा है; अब मुझे कुछ उत्तर देने की जरूरत न रही।' धार्मिक व्यक्ति अपने को असहाय करता जाता है। असहाय हो जाने में ही उसकी पूजा, उसकी प्रार्थना है। वह धीरे-धीरे अपने सब सहारे तोड़ता जाता है। वह अपने को एक ऐसे सागर कृष्ण ने कहा, 'मेरा एक प्यारा एक राजधानी से गुजर रहा है। मेरा एक फकीर एकतारा बजाता, गीत गाता। लोग उस पर पत्थर फेंक रहे हैं। लहूलुहान, खून उसके माथे से बह रहा है। लेकिन उसका गीत बंद नहीं होता। वह कृष्ण और कृष्ण: की धुन लगाए जाता है। जाना जरूरी हो गया। इतना असहाय, उत्तर भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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