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________________ s जिन सूत्र भागा । MER HD H की थी, उसके मित्रों की थी—पर द्रौपदी सहयोगी न थी। चीर तो तुम्हारी चीख-पुकार सूने आकाश में खो जायेगी। लेकिन बढ़ता चला गया। वे उघाड़ते गये, चीर बढ़ता चला गया, द्रौपदी नहीं, पुकार सुनी गई है। प्रार्थना कभी न कभी उस हृदय तक ढकती चली गई। पहुंच जाती है। अगर न पहुंचती हो तो कारण यह नहीं है कि वह यह कहानी बड़ी बहमल्य है, बड़ी प्रतीकात्मक है। लेकिन सुनने को उत्सुक नहीं है, कारण कुछ और होंगे। या तो तुम द्रौपदी जब किसी को प्रेम करती होगी, तब तो नग्न हो जाती गलत दिशा में चिल्ला रहे हो; या तुम पूरे मन से बुला ही नहीं रहे होगी। तब तो भीतर गहन में यह आकांक्षा होती होगी, कोई हो; या बुलाने के साथ-साथ तुम भीतर डरे भी हो कि कहीं सुन उघाड़ ले, किसी के सामने सब खोल दूं, कुछ भी छिपाया हुआ ही न लेना! न रह जाये! मैंने सना है, एक आदमी लौटता था लकडियां अपने सिर पर अगर परमात्मा तुम से बच रहा है तो एक बात पक्की है-इस लेकर। थक गया है, बूढ़ा हो गया है सत्तर साल का। लकड़ी दौड़ में तुम जीत न पाओगे-वह बचना चाह रहा है और तुम | काटते-काटते जिंदगी बड़ी ऊब हो गई है। जैसा कि अनेक बार खोज रहे हो। वही जीतेगा। उसके पास विराट ऊर्जा है, बड़ी लोग कहते हैं, ऐसा ही उसने कहा। मुहावरा था, कुछ मतलब न शक्ति है; तुम्हारे पास है क्या? अगर वह परम सत्य ही तुमसे था। ऐसे ही कहा कि हे भगवान! अब कब तक और जिंदगी बचना चाह रहा है तो फिर तुम जीत नहीं सकते, तुम्हारी हार | घसिटवानी है? मौत को मुझे ही क्यों नहीं भेजता? जवानों को निश्चित है। लेकिन आदमी जीते हैं। महावीर जीते, बुद्ध जीते, आ जाती है, मुझे क्यों लटकाये हुए है? अब तो भेज! अब तो कृष्ण, क्राइस्ट जीते। आदमी जीते हैं। एक बात साफ है कि वह मैं मरने को राजी हूं कि यह जीवन बहुत हो गया! यह सुबह से भी उघड़ने के लिए राजी है। वह बूंघट मारकर बैठा हो, मगर रोज लकड़ी काटना, यह दिनभर लकड़ी इकट्ठी करना, सांझ चाहता है कि तुम चूंघट उठाओ। बड़ी भीतर आकांक्षा है कि तुम | बेचकर किसी तरह रोटी पेट के लिए जुटानी, रात सो जाना, फिर पास आओ, खोजो। सुबह यही! आखिर सार क्या है? अब तो भेज दे मौत को! । इसलिए मैं कहता हूं कि पानी भी तुम्हारे द्वारा पीये जाने को ऐसा होता नहीं अकसर कि इतनी जल्दी मौत आ जाये, पर उस प्यासा है। तुम्हीं जल को नहीं खोज रहे हो, जल भी तुम्हें खोज दिन आ गई। मौत को सामने देखकर लकड़हारा घबड़ा गया। रहा है। अपने गट्ठर को नीचे रखकर सुस्ता रहा था झाड़ के नीचे, मौत ने गर न होतीं कैदे-रस्मो-राह की मजबूरियां | कहा, 'मैं आ गई। बोलो, क्या काम है?' शमा खुद उड़कर पहुंचती अपने परवानों के पास। उसने कहा, 'कुछ और नहीं है, यहां कोई दिखाई न पड़ता था, - अगर जीवन के नियम न होते, व्यवस्था के सूत्र न गट्ठर उठवाकर मेरे सिर पर रखना है। इतनी कृपा करो, इस होते...। गर न होतीं कैदे-रस्मो-राह की मजबूरियां! हजार गठरी को मेरे सिर पर वापस रख दो। बहुत धन्यवाद! और नियम हैं, व्यवस्था है। और कम से कम व्यवस्था जिसने बनाई आगे बुलाऊं भी तो ऐसा कष्ट मत करना!' है, वह तो पालेगा ही। तुम बुलाते भी हो तो तुम्हारा बुलावा पूरा है? हार्दिक है? गर न होतीं कैदे-रस्मो-राह की मजबूरियां तुम्हारा रोआ-रोआं उसमें सम्मिलित है कि एक पर्त इनकार किये शमा खुद उड़कर पहुंचती अपने परवानों के पास। चली जा रही है? एक पर्त कहती है, अभी कोई प्रार्थना के दिन -परमात्मा खुद तुम्हारे पास आ जाता। शायद आता भी है, हैं, अभी तो तुम जवान हो। ये तो बुढ़ापे की बातें हैं। बुढ़ापे की तुम पहचान नहीं पाते। क्योंकि जब तक तुम उस खोज पर न भी कहां, लोग जब मरने लगते हैं तभी! जब जीभ लड़खड़ा निकलो, तुम न पहचान पाओगे। यह खोज दोनों तरफ से हो, जाती है, जब खुद बोलते भी नहीं बनता, तब किराए के यह आग दोनों तरफ से लगी हो, तो ही परिणाम हो सकता है। पंडित-पुरोहित कान में राम-राम जप देते हैं! जिंदा रहते-रहते अगर भक्त अकेला भगवान, भगवान, भगवान चिल्लाता रहे; | तो आदमी और हजार वासनाओं में उलझा रहता है, परमात्मा की भगवान बहरा हो, या सुनने को राजी न हो, या बचना चाहता हो, वासना निर्मित कहां होती है? 12581 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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