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________________ प रमात्मा को अस्वीकार करनेवाले और लोग भी हुए हैं; लेकिन जैसी कुशलता से महावीर ने अस्वीकार किया, वैसा किसी ने भी नहीं किया। कुशलता से मेरा अर्थ है, परमात्मा को अस्वीकार भी किया और फिर भी परमात्मा को बचा लिया। इनकार भी किया, परमात्मा को खोने भी न दिया । मूर्ति-भंजक बहुत हुए हैं; लेकिन मूर्ति तोड़ने में ही परमात्मा भी टूट गया। महावीर ने मूर्ति तोड़ी, लेकिन उस अमूर्त को पूरा-पूरा बचा लिया। यही उनकी कुशलता है। परमात्मा जब मूर्ति बन जाता है तो थोथा हो जाता है। परमात्मा जब तक अमूर्त अनुभव हो, तभी तक बहुमूल्य है। जैसे ही आकार दिया, वैसे ही परमात्मा से दूर होने लगे; क्योंकि परमात्मा निराकार है। जैसे ही पत्थर में परमात्मा को देखना शुरू किया, वैसे ही आंखें अंधी होनी शुरू हो जाती हैं। इस्लाम ने भी मूर्तियां तोड़ीं। महावीर ने भी मूर्तियां तोड़ीं। लेकिन महावीर ने बड़ी कुशलता से तोड़ीं। महावीर ने बड़ी अहिंसा से तोड़ीं, बड़े प्रेम से तोड़ीं। जरा-सा फासला है, लेकिन बड़ा भेद है। इस्लाम ने बड़े क्रोध से तोड़ दीं, बड़ी हिंसा से तोड़ दीं। हिंसा और क्रोध में, तोड़ने के आग्रह में, एक बात साफ हो गई। जब हम आग्रह से कोई चीज तोड़ते हैं तो उसका अर्थ है, कहीं अचेतन में हमारा लगाव है। तोड़ने योग्य मानते हैं, इतना श्रम उठाते हैं तोड़ने के लिए, तो जरूर हमें लगता है कि मूर्ति में कोई मूल्य है। महावीर ने इस तरह न तोड़ा। तोड़ा भी, मूर्ति बिखेर भी दी, चोट भी न हुई, आवाज भी न हुई, और भीतर जो छिपा था, अमूर्त, उसे बचा भी लिया। Jain Education International कारवां लग चुका है रस्ते पर फिर कोई रहनुमा न आ जाए बुत-ओ-बुतखाना तोड़ने वाले इसी जद में खुदा न आ जाए देखो-देखो इन आंसुओं पे 'जमील' तुहमते - इल्तिजा न आ जाए। बुत-ओ-बुतखाना तोड़ने वाले इसी जद में खुदा न आ जाए। मूर्तियों और मंदिर से छुटकारा उपयोगी है। लेकिन ध्यान रखना, इसी जद में कहीं खुदा न आ जाए! कहीं ऐसा न हो कि मंदिर और मूर्ति तोड़ने में खुदा भी टूट जाए ! उसे तो बचाना है, जो मंदिर में छिपा है। उसे तो बचाना है जो मूर्ति में छिपा है। महावीर ने बड़ी कुशलता से बचाया है। इसे समझने की कोशिश करें। 'जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अतः आत्म- हितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव हिंसा का परित्याग किया है। जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है।' यही तो उपनिषद कहते हैं। यही तो वेद कहते हैं। लेकिन उपनिषद और वेद परमात्मा के नाम से कहते हैं; महावीर ने आत्मा के नाम से कहा। बड़ा फर्क है। जैसे ही परमात्मा का विचार होता है, ऐसा लगता है ईश्वर कोई और, कहीं और। दूरी पैदा हो जाती है। महावीर ने आत्मा के नाम से वही कहा । आत्मा से दूरी पैदा नहीं होती। वह तुम्हारा स्वरूप है। वह For Private & Personal Use Only 275 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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