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________________ 200 जिन सूत्र भाग: 1 लगता है अपना है, प्यारा है; कोई लगता है पराया है, दुश्मन है। कोई लगता है आज अपना नहीं, तो कल अपना हो जाए, ऐसी आकांक्षा जगती है। कोई दूर है तो आकांक्षा होती है, पास आ जाए, गले लग जाए। और कोई पास भी खड़ा हो तो होता है, दूर हटे, विकर्षण पैदा होता है। तुम सारे संसार को राग-द्वेष में बांटते चलते हो। जाने-अनजाने । इसे जरा होश से देखना, 'संन्यास तो', उसने कहा, 'मजाक में भी ले लिया जाए तो तो तुम पाओगे प्रतिपलः अजनबी आदमी रास्ते पर आता है, तत्क्षण तुम निर्णय कर लेते हो भीतर, राग या द्वेष का; मित्र कि चाहत के योग्य कि नहीं; प्यारा लगता है कि दुश्मन; भला लगता है, पास आने योग्य कि दूर जाने योग्य। झलक भी मिली आदमी की राह पर और चाहे तुम्हें पता भी न चलता हो, तुमने भीतर निर्णय कर लिया - बड़ा सूक्ष्म राग का या द्वेष का । यह निर्णय ही तुम्हें संसार से बांधे रखता है। शत्रु एक कार गुजरी, गुजरते से ही एक झलक आंख पर पड़ी, तुमने तय कर लिया ऐसी कार खरीदनी है कि नहीं खरीदनी है। लुभा गई मन को कि नहीं लुभा गई। कोई स्त्री पास से गुजरी। कोई बड़ा मकान दिखाई पड़ा। सुंदर वस्त्र टंगे दिखाई पड़े, वस्त्र के भंडार में। राग-द्वेष पूरे वक्त, तुम निर्णय करते चलते हो । यह राग-द्वेष की सतत चलती प्रक्रिया ही तुम्हारे चाक को चलाए रखती है। तुम मंडल में फंसे रहते हो। फिर क्या उपाय है ? एक तीसरा सूत्र है । बुद्ध ने उसे उपेक्षा कहा है। वह बिलकुल ठीक शब्द है। महावीर इसको विवेक कहते हैं, बिलकुल ठीक शब्द है । वे कहते हैं, न राग न द्वेष, उपेक्षा का भाव । न कोई मेरा है, न कोई पराया है। न कोई अपना है, न कोई दूसरा है। न कोई सुख देता है, न कोई दुख देता है। चौबीस घंटे भी एक दफा तुम उपेक्षा का प्रयोग करके देखो, चौबीस घंटे में कुछ हर्जा न हो जाएगा। चौबीस घंटे एक धारा भीतर बनाकर देखो कि कुछ भी सामने आएगा, तुम उपेक्षा का भाव रखोगे, न इस तरफ न उस तरफ, न पक्ष न विपक्ष, न शत्रु न मित्र - तुम बांटोगे न, देखते रहोगे खाली नजरों से। चौबीस घंटे में ही तुम पाओगे : एक अपूर्व शांति ! क्योंकि वह जो सतत क्रिया चाक को चला रही थी, वह चौबीस घंटे के लिए भी रुक गई तो चाक ठहर जाता है। ऐसा ही समझो कि तुम साइकल चलाते हो, तो पैडल मारते ही रहते हो। दोनों तरफ पैडल लगे हैं। दोनों पैडल एक-दूसरे के सुनने गए थे, क्या तुम संन्यास तत्क्षण ले सकते हो ?' वह युवक उठकर खड़ा हो गया। पत्नी ने कहा, 'कहां जाते हो ? यह तो बातचीत ही थी।' मगर वह तो दरवाजा खोलकर बाहर हो गया। पत्नी ने कहा, 'नग्न हो, कहां जाते हो ?' उसने कहा, 'खतम हो गई बात । लेना है – ले लिया ।' पत्नी ने कहा, 'अंदर आओ! यह मजाक की बात थी । ' - बात खतम।' वह नग्न ही महावीर के पास पहुंचा। सारे गांव की भीड़ लग गई। महावीर से उसने कहा कि ऐसा- ऐसा हुआ। उस क्षण में मुझे लगा कि ठीक यह मैं क्या कह रहा हूं। दूसरे के लिए कह रहा हूं कि सोचे न, सोच तो मैं भी रहा था। मगर तत्क्षण मुझे बोध हुआ कि अगर लेना है तो ले लूं। कौन रोक रहा है ? कौन रोक सकता है ? जब मरते वक्त तुम्हें कोई न रोक सकेगा, तो संन्यास के वक्त कोई तुम्हें कैसे रोक सकता है? जो उतरना चाहता है, उतर जाता है । लेकिन हम बड़े बेईमान हैं। हम हजार बहाने करते हैं। हमारी बेईमानी यह है कि हम यह भी नहीं मान सकते कि हम संन्यास नहीं लेना चाहते, कि वैराग्य नहीं चाहते। हम यह भी दिखावा करना चाहते हैं कि चाहते हैं, लेकिन क्या करें किंतु-परंतु बहुत हैं। ! 'पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो भाव हैं। जो भिक्षु इनका निषेध करता है, वह मंडल संसार में नहीं रुकता, मुक्त हो जाता है। ' रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे । भिक्खू भई निच्च, से न अच्छइ मंडले ।। बस दो बातें हैं- राग और द्वेष, इन दो के सहारे चक्र चलता है। राग, कि कुछ मेरा है। राग, कि कोई अपना है। राग, कि किसी से सुख मिलता है। इसे सम्हालूं, बचाऊं, सुरक्षा करूं। द्वेष, कि कोई पराया है । द्वेष, कि कोई शत्रु है । द्वेष, कि किसी के कारण दुख मिलता है । द्वेष, कि इसे नष्ट करूं, मिटाऊं, समाप्त करूं। बाहर देखनेवाली नजर हर चीज को राग और द्वेष में बदलती है। तुमने कभी खयाल किया। राह से तुम गुजरते हो, किसी की तरफ राग से देखते हो, किसी कि तरफ द्वेष से देखते हो। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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