SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AAREERIAL प्यास ही प्रार्थना है न छीना जा सकता है। उसका इतना ही अर्थ है : व्यर्थ से शून्य हो जाओ, ताकि सार्थक बादल घिरते हैं आकाश में, इससे कुछ आकाश नष्ट नहीं हो का आविर्भाव होने लगे। बाहर से शून्य हो जाओ, ताकि भीतर जाता। क्षणभर को दिखाई नहीं पड़ता। खो जाता है। ओझल हो की धुन बजने लगे। बाजार में खड़े हो। भीतर तो धुन बजती ही जाता है। पर मिटता थोड़े ही है! फिर बादल चले जाते हैं, वर्षा रहती है, सुनाई नहीं पड़ती; बाजार का शोरगुल भारी है। भीतर समाप्त हुई, बादल विदा हो गए—आकाश अपनी जगह खड़ा आओ! थोड़े आंख-कान बंद करो! छोड़ो बाजार को! भूलो है। ऐसी ही वासनाएं आती हैं तम्हारे अंतर-आकाश में, क्षणभर | बाजार को! तो भीतर की धुन सुनाई पड़ने लगे, अनाहत का नाद को घिरती हैं, शोरगुल मचता है, गड़गड़ाहट होती है, बिजलियां सुनाई पड़ने लगे। चमकती हैं—क्रोध है, लोभ है, मोह है, माया है-हजार तरह अहर्निश बज रही है वह वीणा। क्षणभर को भी उस के बादल घिरते हैं, गड़गड़ाहट होती है, वासना बरसती है। फिर कलकल-नाद में बाधा नहीं पड़ती। पर बड़ा सूक्ष्म है नाद! जब जिस दिन भी बोध सम्हलेगा-गए बादल! इससे तुम खराब तुम सुनने में सजग होओगे, जब तुम्हारा श्रवण सधेगा, जब थोड़े ही हो गए। तुम्हारा कुंआरापन कुछ ऐसा है कि खराब हो ही तुम्हारे कान भीतर की तरफ मुड़ेंगे और जब तुम धीरे-धीरे बारीक नहीं सकता। बादल सदा आएगा-जाएगा, आकाश तो कुंआरा को, बारीकतम को पकड़ने में कुशल हो जाओगे-तब, तब बना रहता है। आकाश व्यभिचारित थोड़े ही होता है। रेखा भी | तुम्हें उस वीणा का नाद सुनाई पड़ेगा, जिसको योगी अनाहत तो नहीं छुट जाती बादल की। छाया भी तो नहीं छट जाती बादल कहते हैं। की। पद-चिह्न खोजकर भी तो न खोज पाओगे। कोई हस्ताक्षर और सब नाद तो आहत हैं, दो चीजों की टक्कर से पैदा होते तो बादल कर नहीं जाता कि यहां मैं आया था। कोई हैं। मैं ताली बजाऊं तो दो हाथ टकराते हैं। एक हाथ से तो ताली नाम-ठिकाना भी नहीं छूट जाता। ऐसे ही तो तुम्हारी देह खो बजती नहीं। लेकिन एक नाद है तुम्हारे भीतर, जो अहर्निश चल जाती है। रहा है। वह आहत-नाद नहीं है। वह दो हाथ की ताली नहीं है, कितनी देहें इस पृथ्वी पर रही हैं तुमसे पहले! तुम कुछ नये एक हाथ की ताली है। वह किन्हीं दो चीजों की टकराहट से पैदा हो? वैज्ञानिक कहते हैं, जहां तुम बैठे हो वहां कम से कम दस नहीं हुआ, अन्यथा किसी न किसी दिन बंद हो जाएगा। जब दो लाशें गड़ी हैं। जितनी जगह तुम बैठने के लिए लेते हो, वहां कम चीजें न टकराएंगी तो बंद हो जाएगा। वह तुम्हरा स्वभाव है। से कम दस आदमी मर चुके, गड़ चुके, खो चके। वहीं तुम भी ओंकार! प्रणव! वह तुम्हारा स्वभाव है। खो जाओगे। यह तो आदमियों की बात हुई। अब जानवरों का यह तुमने कभी सोचा? हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, भारत में ये हिसाब करो, कीड़े-मकोड़ों का हिसाब करो, मक्खी-मच्छरों का तीन महाधर्म पैदा हुए। तीनों के विचारों में बड़ा भेद है, हिसाब करो, वृक्ष-पौधों का हिसाब करो, तो तुम जहां बैठे हो जमीन-आसमान का भेद है। तीनों की सैद्धांतिक धारणाएं भिन्न वहां अनंत जीवन हुए और खो गए। वहीं तुम भी खो जाओगे।। हैं। तीनों के ढांचे अलग हैं, मार्ग अलग हैं, पथ अलग हैं। कोई खोते ही चले जा रहे हो। प्रतिक्षण खिसकते जा रहे हो गड्ढे में। समर्पण का मार्ग है, कोई संकल्प का। कोई संघर्ष का मार्ग है, मौत पास आती चली जाती है। एक-एक क्षण जीवन रिक्त होता कोई शरणागति का कोई पूजा-प्रार्थना, भक्ति का, कोई चला जाता है। बूंद-बूंद कर के घड़ा खाली हो जाएगा। लेकिन ध्यान-समाधि का। लेकिन एक बात इन तीनों धर्मों ने स्वीकार फिर भी तुम हो-जो कभी खाली नहीं होगा। की है-वह है ओंकार। वह है ओऽम् का नाद। उसे इनकार जो संसार से मिला है, संसार वापिस ले लेता है। लेकिन कुछ करने का उपाय नहीं। क्योंकि जब भी कोई भीतर गया है, तो उस कसी से भी नहीं मिला-जो बस तुम्हारा नाद को सुना है। जब भी कोई भीतर गया है तो ऐसा कभी हुआ है! वही तुम्हारी संपदा है। वही तुम्हारी आत्मा है। ही नहीं, कोई अपवाद नहीं कि वह नाद न सुना हो। वह जब कहते हैं, शून्य हो जाओ तो उसका कुल इतना ही अर्थ है: जीवन-नाद है, ब्रह्म-नाद है। बादलों से शून्य हो जाओ, ताकि आकाश से पूर्ण हो जाओ। तो जब हम कहते हैं, शून्य हो जाओ, तो अर्थ इतना ही है कि 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy