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________________ 334 जिन सूत्र भाग: 1 करना; जैसा कि जैन मुनियों ने समझ लिया है। अकर्म का अर्थ यह नहीं है कि तुम बस बैठ गये। क्योंकि तुम्हारे बैठने से भी क्या होगा ? एक संन्यासी मुझे मिलने आये । काश्मीर में एक शिविर मैंने लिया था। उसके पहले ही वे मुझसे मिलने आये थे, तो मैंने उनसे कहा कि अच्छा हो काश्मीर आ जायें। उन्होंने कहा, यह जरा मुश्किल है। चलो, मैंने कहा, जाने दो। बंबई में जहां मैं था, जहां वे मिलने आये थे, मैंने कहा, कल सुबह फलां-फलां जगह, कुछ मित्र ध्यान करने को इकट्ठे हो रहे हैं, वहां आ जाओ। उसने कहा, यह भी बड़ा मुश्किल है। मैंने कहा, मुश्किल क्या है? मैं समझू । तो उन्होंने कहा, मुश्किल यह है— उनके साथ एक सज्जन और थे कि मैं पैसा खुद नहीं रखता; पैसे को छूने का मैंने त्याग कर दिया है। तो टैक्सी में बैठना पड़े, तो पैसे की तो जरूरत पड़ेगी। ट्रेन में बैठना पड़े तो पैसे की जरूरत पड़ेगी । तो ये सज्जन को साथ रखना पड़ता है। जहां इनको सुविधा हो, वहीं मैं आ सकता हूं। और कल इनको सुविधा नहीं है। तो मैंने कहा, यह भी बड़ा मजा हुआ। पैसा तुम इनकी जेब में रखे हुए हो...। यह तो उलझाव और बढ़ गया। तुम समझ रहे हो, तुम पैसा नहीं छूते । तुम सोच रहे हो, तुम पैसे से मुक्त हो गये। तुम पैसे से मुक्त नहीं हुए, इस आदमी से और बंध गये। इससे तो पैसा ही ठीक था, अपने ही खीसे में रख लेते, अपने ही हाथ से निकाल लेते। इसके हाथ से निकलवाया। काम तो तुम्हारा ही होना है। बिना पैसे के भी नहीं होता, यह भी तुम्हें पता है । तो यह किसको धोखा दे रहे हो तुम ? यह तुम्हारे हाथ में ऐसी कौन-सी खराबी है या तुम्हारे हाथ ऐसा कौन-सा गुण है, जिसके कारण अपने हाथ को बचा रहे हो, इसका हाथ डलवा रहे हो? तुम अगर पाप कर रहे हो तो कम से कम अकेले ही कर रहे थे; अब तुम इससे भी करवा रहे हो। तुम पर दोहरा जुर्म होगा। तुम फंसोगे बुरी तरह । तुम यह मत सोचो कि तुम त्यागी हो । अब जैन मुनि है। बैठ गया है दूर सिकुड़कर। वह कहता है, हम कुछ नहीं करते। लेकिन कोई उसके लिए रोटी कमायेगा । कोई उसके लिए वस्त्र कमायेगा । जो बड़े जैन मुनि हैं, उनको लोग बुलाने में गांव में डरते हैं; क्योंकि उनका गांव में आने का मतलब है: सारे श्रावकों की Jain Education International मुसीबत। भारी खर्च का मामला है। तो बड़े मुनियों को छोटे गांव तो बुला ही नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि उतना खर्च कौन उठायेगा ? अब यह थोड़ा सोचना! अगर तुम खाली बैठ गये तो तुम्हारी जरूरतें कोई और पूरी करेगा। लेकिन जब तक जरूरतें हैं—और तब तक जरूरतें है जब तक जीवन है— तो कर्म तो जारी रहेगा। यह कर्म दूसरे के कंधे पर रख देने से, यह दूसरे के कंधे पर रखकर गोली चलाने से तुम बचोगे न। इसमें तुम पर दोहरा पाप लग रहा है। तुम जो कर रहे हो वह तो कर ही रहे हो और इस आदमी के कंधे पर रख रहे हो। इस आदमी को भी तुम साधन बना रहे हो। यह भी गलत है। जो करना है जरूरी, वह करना। फिर साक्षी भाव रखना । शरीर की जरूरत पूरी कर देनी है। जरूरत से ज्यादा की आकांक्षा नहीं करनी है। मूल जरूरत पर रुक जाना है। और जो भी हो रहा है, उसके प्रति साक्षी भाव रखना है। 'धीर पुरुष अकर्म के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं। मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा संतोषी होकर पाप नहीं करते।' मेधावी ! महावीर उन्हीं को मेधावी कहते हैं, इंटेलीजेंट, जो साक्षी होने में समर्थ हैं । और मेधा मेधा नहीं। जिसको तुम मेधावी कहते हो, वह तुम जैसा ही है - मूच्छित । हो सकता है, किसी दिशा में कुशल है। कोई तकनीक उसने सीख लिया है। तुम कहते हो, कोई चित्रकार है बड़ा मेधावी; क्योंकि तुम जैसा चित्र बनाते हो, उससे बहुत अच्छा चित्र बनाता है। लेकिन जीवन का चित्र तो तुम जैसा बना रहे हो, वैसा ही वह भी बना रहा है। तुम कहते हो, कोई कवि है, बड़ा मेधावी । क्योंकि जो तुम नहीं कह सकते, जो तुम नहीं गा सकते, वह गा देता है। ठीक है। लेकिन जीवन का अंतिम चित्र तो तुम्हारे जैसा ही वह बना रहा है। उसमें कोई फर्क नहीं है। क्रोध तुम्हें है, उसे है । लोभ तुम्हें है, उसे है। मत्सर तुम्हें घेरता है, उसे घेरता है। महावीर कहते हैं, जिसने जीवन के चित्र को और जीवन के गीत को सम्हाल लिया, जिसने वहां बुद्धिमत्ता का उपयोग कर लिया, वही मेधावी है; बाकी सब मेधा तो कहने की मेधा है। लज्जते-दर्द के ऐवज दौलते-दो जहां न लूं दिल का सकून और है, दौलते-दो जहां है और 7 सारे संसार की संपत्ति भी मिलती हो उस आदमी को जिसने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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