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________________ ध्यो, सतत जाग्रत रहो . थोड़े मन की शांति जानी, तो वह लेने को राजी न होगा। दो तुम्हारा स्वरूप है, उसकी झलक कभी-कभी मिल ही जाती है। लोकों की भी संपत्ति मिलती हो..। कितने ही आकाश में बादल घिरे, आकाश कभी न कभी दो लज्जते-दर्द के ऐवज दौलते-दो जहां न लूं।। बादलों के बीच से दिखाई पड़ ही जाता है। यह जो सत्य की खोज में पीड़ा उठानी पड़ती है, इस पीड़ा के तो खयाल रखना, तुम भी कभी-कभी जागते हो; हालांकि बदले भी अगर दुनिया की सारी संपत्ति मिलती हो, दोनों दुनिया तुम उसका कोई हिसाब नहीं रखते, क्योंकि तुम प्रत्यभिज्ञा नहीं की मिलती हो, तो भी न लूं। | कर पाते कि यह क्या है। तुम उसे कुछ और-और नाम दे देते दिल का सकन और है, दौलते-दो जहां है और। वह दिल की हो। कभी ऐसा होता है कि अचानक खड़े हो तुम, सुबह का शांति कुछ बात और है। वह कुछ संपदा और है। एक बार सूरज ऊगा, पक्षियों ने गीत गाया-और एक बड़ी गहरी शांति जिसके मन में उसकी भनक पड़ गई, फिर सब फीका हो जाता और सुकून तुम्हें मिला! तुम सोचते हो शायद सुबह के सौंदर्य के है। मेधावी पुरुष लोभ के कारण धर्म नहीं करता। कोई स्वर्ग | कारण, सूरज के कारण, पक्षियों के गीत के कारण। नहीं। पाने के लिए धर्म नहीं करता, न भय के कारण, नर्क से बचने के यद्यपि पक्षियों के गीत, सुबह के सूरज और खुले आकाश ने | लिए धर्म नहीं करता। मेधावी पुरुष तो पाता है कि वातावरण दिया, उस वातावरण में क्षणभर को तुम अवाक रह जितना-जितना जागरण आता है, उतना-उतना आनंद आता है। गये, क्षणभर को विचारधारा बंद हो गई, क्षणभर को बादल जागरण में ही छिपा है आनंद। आनंद जागरण का फल नहीं है; यहां-वहां न हिले, बीच में से थोड़ा-सा आकाश, भीतर का आनंद जागरण का स्वभाव है। ऐसा नहीं है कि पहले जागरण | आकाश दिखाई पड़ गया। मिलता है, फिर आनंद मिलता है—जागरण में ही मिल जाता | कभी किसी के प्रेम में मन शांत हो गया। कभी संगीत सुनते है। इधर तुम जागते चले जाते हो, उधर आनंद की नई-नई समय। कोई कुशल वीणा-वादक वीणा बजाता हो और उसके पुलक, नई-नई किरण, नया-नया नृत्य भीतर होने लगता है। तार बाहर कंपते रहे और भीतर, तुम्हारे भीतर भी कुछ कंपा; इस अहद में कमयाबिए-इन्सां है कुछ ऐसी वीणा बंद हुई, तुम्हारे भीतर भी कुछ क्षणभर को बंद हो गया। लाखों में बामुश्किल कोई इन्सां नज़र आया। एक गहन शांति तुम्हें अनुभव हुई। लाखों लोग हैं, आदमी कहां! लाखों आदमियों में कभी। लेकिन तुम सोचोगे, शायद यह वीणा-वादक की कुशलता के एक-आध आदमी नजर आता है। क्योंकि आदमी का जो कारण है। यद्यपि उसने निमित्त का काम किया, लेकिन वस्तुतः बुनियादी लक्षण है, जागरण, वह दिखाई नहीं पड़ता। पशु हैं, घटना तुम्हारे भीतर घटी। उन्हें भी भूख लगती है तो खोजते हैं; कामवासना जगती है तो | ऐसे जीवन में तुम्हें कई बार क्षण मिलते हैं; लेकिन तुम उनके कामवासना की तृप्ति करते हैं। पशुओं को भी लोभ दे दो तो | कारण गलत समझ लेते हो। राजी हो जाते हैं, भय दे दो तो राजी हो जाते हैं। कुत्ते को | जब भी तुम्हें शांति मिलती है तो भीतर कुछ प्रकाश पैदा होता मारो-पीटो तो जैसा करतब करना हो, कर देगा। लोभ दो, रोटी है, उसके कारण ही मिलती है। एक बार यह समझ में आ जाये के टुकड़े डालो, तो तुम्हारे पीछे जी-हजूरी करता फिरेगा। अगर तो फिर तुम बाहर के कारणों को नहीं जुटाते; फिर तुम भीतर की मनुष्य भी ऐसे ही लोभ और भय के बीच ही आंदोलित हो रहा ही जागृति को सम्हालने में लग जाते हो। है, तो फिर मनुष्य और पशु में भेद क्या है? ऐ काश हो यह जज्बए-तामीर मुस्तकिल मनुष्यता उसी दिन प्रारंभ होती है जिस दिन तुम्हारी वृत्तियों से चौंके तो हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां से हम। पीछे एक जागरण का स्वर, एक जागरण का स्रोत पैदा होता है। काश! निर्माण का यह अवसर थोड़ा स्थायी हो जाये। गहरी जागते ही तुम मनुष्य बनते हो, उसके पहले नहीं। और ऐसा भी नींद से चौंके तो हैं, लेकिन फिर कहीं हम नींद में न खो जायें। नहीं है कि कभी-कभी तुम न जागते होओ। ऐसा भी नहीं है कि ऐसा रोज होता है। तुम्हारी नींद भी टूटती है, लेकिन फिर तुम जागने के क्षण कभी-कभी अचानक न आ जाते हों। क्योंकि जो | नींद में खो जाते हो। 335 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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