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________________ जिन सूत्र भागः1 SITE Samji दूसरे की प्रफुल्लता तुम्हें छूने लगती है और प्रसन्न करने लगती | इसे तुम कभी भूलना मत। मैं कोई उनकी व्याख्या नहीं कर रहा है, तो प्रेम। | हूं। उनके शब्द प्यारे हैं, पुनरुज्जीवित करने जैसे हैं। उन पर धूल अहिंसा का मेरे लिए अर्थ है कि तुम्हें सबकी प्रसन्नता प्रसन्न | जम गई बहुत, उनकी धूल झाड़ देने जैसी है। लेकिन जो मैं तुमसे करने लगे। तो तुम्हारे ऊपर कितनी विराट वर्षा न हो जायेगी! कह रहा हूं, महावीर तो उसमें बहाना हैं; कह तो मैं तुमसे वही धर्म-मेघ-समाधि ! तुम्हारे ऊपर धर्म के मेघ बरस उठेंगे। सब रहा हूं जो मैं कह सकता हूं। तरफ से किसी की भी प्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगे! एक वृक्ष ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है कि अहिंसा का मूल प्राण प्रेम है। में फूल खिले और तुम प्रसन्न हो जाओ! सुबह सूरज ऊगे और ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है कि जब व्यक्ति निर्वाण को उपलब्ध तुम प्रसन्न हो जाओ! एक बच्चा मुस्कुराये और तुम प्रसन्न हो | होता है, सब भांति अहंकार-शून्य हो जाता है, तब जो शेष रह जाओ! यहां कहीं भी मुस्कुराहट हो और तुम्हारे भीतर भी आनंद | जाता है, वही प्रेम का विराट आकाश है। लेकिन यह मेरी दृष्टि प्रविष्ट हो जाये! तो सारा जगत तुम्हें प्रसन्न करने लगेगा। ऐसी है। और अगर मुझे चुनना हो महावीर में और अपने में, तो मैं प्रसन्न दशा का नाम ही संन्यास है। अपने को चुनता हूं, महावीर को नहीं चुनता। और मैं तुमसे भी और, अगर हर एक की प्रसन्नता तुम्हें दुखी करती है, जैसा कि यही कहता हूं, तुम्हें अगर चुनना हो मुझमें और अपने में तो संसार में होता है-उसी दुख का नाम संसार है। तुम किसी को अपने को चुनना, मेरी चिंता मत करना। क्योंकि आत्यंतिक हंसते नहीं देख सकते। हंसते देखते ही ईर्ष्या पैदा होती है। तुम चुनाव तो स्वयं का है। किसी का बड़ा मकान बनते नहीं देख सकते। बड़ा मकान बनते प्रेम, मेरे लिए धर्म का सार है। और मेरे देखे धर्म नष्ट हुआ, ही तुम्हारे भीतर अप्रसन्नता पैदा होती है—स्पर्धा, प्रतियोगिता, सड़ गया...जहां-जहां से प्रेम अलग हो गया धर्म से, वहीं-वहीं हिंसा, ईर्ष्या ! तुम अगर दूसरे की हंसी में हंसते भी हो तो थोथी धर्म लाश हो गया। हंसी हंसते हो, ऊपर-ऊपर हंसते हो, लोकचार, उपचार। तुम भी थोड़ा सोचो, तुम्हारे जीवन में जब प्रेम न रह जाये, तो सामाजिक शिष्टाचार है। | तुम जिंदा लाश होओगे! जब तक प्रेम है तभी तक धड़कन है। 'अहिंसा' शब्द ने बड़ा खतरा किया है। वह नकारात्मक है। | चाहे उस प्रेम का कोई भी रूप हो, चाहे वह कामवासना हो और मैं उसके भीतर छिपे हुए अकारात्मक विधायक प्रेम को उघाड़ना चाहे प्रभु-वासना हो; चाहे धन का हो, चाहे धर्म का हो; चाहे चाहता हूं। जोड़ता नहीं हूं, उघाड़ रहा हूं। देह का हो, चाहे आत्मा का हो; क्षुद्र से क्षुद्र प्रेम हो या विराट से बुद्ध ने जिसे शून्य कहा है, निर्वाण कहा है; कहा है कि तुम विराट प्रेम हो लेकिन प्रेम के बिना तम एकदम खाली हो मिट जाओ; जब तुम मिट जाते हो तो तुम्हारे भीतर जो बचता है, | जाओगे। अचानक तुम पाओगे तुम जी रहे हो, लेकिन जीवन वही प्रेम है। जितना अहंकार होगा उतना ही प्रेम कम होगा। जब बचा नहीं। निकल गया! पक्षी उड़ चुका है, पिंजड़ा पड़ा रह कोई अहंकार नहीं रह जाता तो प्रेम ही प्रेम, प्रेम का सागर है! गया है। . और, इसे भी स्मरण रखना कि जब मैं बुद्ध पर बोलता हूं तो | निराले हैं अंदाज दुनिया से अपने अपने पर ही बोलूंगा। बुद्ध तो खूटी हो सकते हैं ज्यादा से | कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं ज्यादा। महावीर पर बोलता हूं तो महावीर खूटी हो सकते हैं। कोई कैद समझे मगर हम तो ए दिल टांगूंगा तो मैं अपने को ही, और कोई उपाय नहीं है। और कोई मुहब्बत को आजादगी जानते हैं। उपाय हो भी नहीं सकता। तो जब मैं महावीर पर बोल रहा हूं तो निराले हैं अदांज दुनिया से अपने तुम यह मत समझ लेना कि मैं सिर्फ महावीर पर बोल रहा हूं। मैं कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं। कोई यंत्र नहीं हूं। मेरी अपनी दृष्टि है। तो महावीर के शब्द हाथ दूसरे के पीछे जो अंधा होकर चल रहा है वह आत्मघात कर में लूंगा, लेकिन रंग तो मेरा ही उन पर पड़ेगा। उनके शास्त्र को रहा है। उलटूंगा-पलटूंगा, लेकिन अर्थ तो मेरा होगा। कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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