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________________ आते हैं। इसलिए शास्त्र कहते हैं, बड़ा दुर्गम है मार्ग । पहुंच-पहुंचकर छूट जाता है। हाथ में आते-आते मंजिल हजारों कोस के फासले पर हो जाती है। तीसरा प्रश्न: आप महावीर की अहिंसा पर बोलते हैं तो प्रेम जोड़ देते हैं; बुद्ध के शून्य पर बोलते हैं तो प्रेम जोड़ देते हैं। आप कुछ भी बोलते हैं तो प्रेम उसमें अनिवार्यतः जोड़ देते हैं । क्या हम संन्यासियों में प्रेम का अत्यंत अभाव देखकर ही आप प्रेम का पुनः पुनः स्मरण कराते हैं। कृपाकर कहें। जोड़ता नहीं, उघाड़ता हूं। अहिंसा नाम की मंजूषा में प्रेम का धन छिपा है । खोलता हूं मंजूषा को । तुमसे कहता हूं, इसके भीतर तो देखो ! यह मंजूषा बाहर से भी बड़ी सुंदर है! बड़ी नक्काशी है इस पर! बड़े कारीगरों ने मेहनत की है! लेकिन मंजूषा कितनी ही सुंदर हो, मंजूषा है; भीतर तो देखो ! अहिंसा तो शब्द है; सार तो प्रेम है ! और अगर सार मर जाये तो फिर अहिंसा पर तुम कितनी ही नक्काशी करते रहो, फिर मंजूषा को तुम ढोते रहो सदियों सदियों तक—उससे जीवन, उससे अमृत, उससे आनंद का आविर्भाव न होगा। फिर अहिंसा तार्किकों के हाथ में पड़ जायेगी। फिर वे शब्द की ही बाल की खाल निकालते रहेंगे। महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया प्रेम के लिए। मैं कहता हूं कि अहिंसा को हटाओ और भीतर झांककर देखो। खोलो इस मंजूषा को ! जोड़ता नहीं हूं, उघाड़ता हूं। अहिंसा हो ही कैसे सकती है बिना प्रेम के ? दूसरे को दुख न दो—यह हो ही कैसे सकता है जब तक कि दूसरे के प्रति प्रेम का आविर्भाव न हुआ हो ? और अगर तुमने इसे नियम और औपचारिक व्यवस्था की तरह मान लिया कि दूसरे को दुख नहीं देना है, क्योंकि दूसरे को दुख देने से नर्क मिलता है - प्रेम के कारण नहीं, भय के कारण दूसरे को दुख नहीं देना है - तो तुम्हारी अहिंसा में बहुत अहिंसा न होगी। तुम्हारी अहिंसा में भी हिंसा प्रगट होगी। तुम्हारी अहिंसा में फिर प्रेम के फूल न खिलेंगे। तुम्हारी अहिंसा निर्जीव होगी। Jain Education International पलकन पग पोंछं आज पिया के प्राण तो खो ही गये हैं, लाश रह गई है। हां, लाश को भी ठीक रासायनिक द्रव्य लगाकर रखो तो सुंदर मालूम हो सकती है। लेकिन लाश लाश है। सुंदरतम व्यक्ति की भी लाश लाश है। प्राण ही खो गये ! प्राण तो विधायक तत्व है। प्रेम विधायक तत्व है। प्रेम का अर्थ है : कुछ तुम्हारे भीतर है। अहिंसा का तो कुल इतना ही अर्थ है कि दूसरे के साथ बुरा मत तुम अगर किसी व्यक्ति की बीमारियां भर अलग करना चाहते हो और उसके जीवन में स्वास्थ्य की आकांक्षा नहीं करते तो तुम उसे स्वास्थ्य न दे पाओगे और बीमारियां भी अलग न कर पाओगे। क्योंकि बीमारी का अलग होना और उसके भीतर स्वास्थ्य का जन्म होना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दूसरे को दुख न दूं, यह गौण बात है। दूसरे को मेरे जीवन से सुख मिले—यह मूल बात है। प्रेम का इतना ही अर्थ है कि तुम दूसरे की प्रसन्नता में प्रसन्न होने लगे। क्या है प्रेम का अर्थ ? तुम कहते हो, मुझे अपनी पत्नी से प्रेम है या बेटे से प्रेम है या मित्र से प्रेम है - क्या मतलब है? इतना ही मतलब है कि जब तुम्हारा बेटा प्रसन्न होता है, तब तुम प्रसन्न होते हो। जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगती है, तो प्रेम । और जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें अप्रसन्न करने लगती है, तो घृणा । जब दूसरे की अप्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने ऐसा हुआ है, जैनों की अहिंसा निर्जीव हो गई है। उसमें से लगती है तो क्रोध, घृणा, वैमनस्य, शत्रुता, हिंसा और जब 1 करना । और यह मैं तुमसे कहना चाहता हूं: जब तक तुम दूसरे के साथ भला करने में न लग जाओ, तुम बुरा करने से न बच सकोगे। तुम कुछ तो करोगे। जीवन कृत्य है, कर्म है। अगर मैं तुम्हारे रास्ते पर फूल न बिछाऊंगा तो मैं कांटे बिछाऊंगा। और ऐसा आदमी तुम न पाओगे जो कहे कि मैं सिर्फ कांटे नहीं बिछाता तुम्हारे रास्ते पर फूल से मुझे क्या लेना-देना । तुम पाओगे कि यह आदमी या तो इतना सिकुड़ जायेगा, जैसे जैन सिकुड़ गये हैं कि फिर यह डरने लगेगा जीवन में उतरने से; क्योंकि उतरा कि कुछ कृत्य हुआ, कृत्य हुआ तो या तो कांटे बिछाओ या फूल बिछाओ। और इसकी सारी शिक्षण की व्यवस्था यह हो गईः कांटे मत बिछाना । फूल बिछाने की तो इसने हिम्मत खो दी। फूल बिछाने का तो खयाल ही छोड़ दिया। कांटे नहीं बिछाना है ! For Private & Personal Use Only 443 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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