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जिन सूत्र भाग: 1
से लोभ जीत लिया जाता है। जो तुम्हारे पास हो, उसमें आनंदित, उसमें मग्न होना। संतोष का अर्थ है: इतना मिला है, थोड़ा धन्यवाद तो दो! इतना मिला है, अनुग्रह तो मानो ! आंखें हैं कि तुम रोशनी देख सके, कि सूरज में खिले फूल देख सके, कि वृक्षों की यह हरियाली देख सके ! जरा सोचो तो, अंधे भी हैं दुनिया में, जिन्हें रंग नहीं दिखाई पड़े ! और जिन्होंने रंग न जाना, उन्होंने क्या खाक दुनिया जानी! जिन्हें रूप न दिखाई पड़ा, जिन्हें चेहरा और आंखों में जो परमात्मा प्रगट होता है उसकी कोई झलक न मिली...! तुम्हारे पास कान हैं, तुम गहनतम संगीत को सुनने में समर्थ हो, पक्षियों का नाद, नदी की कलकल, सागर में उठे तूफानों की दहाड़, बादलों की गड़गड़ाहट ! जरा सोचो तो कि जिनके पास कान नहीं हैं, उनका जीवन कैसा खाली-खाली, सूना-सूना होगा ! जहां कोई ध्वनि नहीं गूंजी, कैसा मरुस्थल जैसा होगा ! कितना तुम्हें मिला है! इन पांचों इंद्रियों से कितनी वर्षा तुम पर हुई है ! इस भीतर के बोध से कितने आनंद के द्वार खुले हैं, खुलते रहे हैं! एक बंद हुआ है तो दूसरा खुला है ! लेकिन नहीं, लोभी कहता है, इसमें क्या धरा है ? तिजोड़ी! धन! जो मिला है उसकी तो फिक्र नहीं करता; जो नहीं मिला है उसकी दौड़ में, आपाधापी में नष्ट होता है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक – जिनकी नजर उसको ही देखती है, जो नहीं मिला है। वे लोभी हैं। दूसरे - जिनकी नजर वही देखती है, जो मिला है। वे संतोषी हैं। और संतोषी को बहुत मिलता है। क्योंकि मिलने पर उसकी नजर होती है, तो और मिलता है। और लोभी को कुछ भी नहीं मिलता, क्योंकि न मिलने पर उसकी नजर होती है । न मिलना ही बढ़ता जाता है। लोभ से और लोभ बढ़ता है। संतोष से और संतोष बढ़ता है। जो थोड़ा संतोष में डूबेगा वह पायेगा
तब एक परम तृप्ति, एक अहर्निश शांति की वर्षा होने लगती है ! तब तुम पहली दफा पाते हो : जीवन क्या है ! और कितने अहोभागी हैं कि हम हैं ! तब होना मात्र ही इतनी बड़ी संपदा है कि और कुछ चाहने की बात ही नादानी है।
'जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।' अध्यात्म यानी जागरण की प्रक्रिया; आत्मवान होने का शास्त्र। जैसे कछुआ सिकोड़ लेता है अपनी इंद्रियों को; जहां-जहां पाता है भय है, जहां-जहां पाता है चिंता है, वहीं भीतर सिकुड़ जाता है, अपनी गहरी सुरक्षा में डूब जाता है - ऐसे ही जहां-जहां तुम्हें लगे भय है, दुख है, पीड़ा है, असंतोष है,
महावीर कहते हैं, संतोष से लोभ को जीत लो। जरा देखो जो अभाव है, चिंता है, संताप है, वहां-वहां से अपने चैतन्य को मिला है। उस पर नजर लाओ जो मिला है। हटा लेना। और अंतरात्मा की गहनता में सब है जो तुम पाना चाहते हो ।
यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब का तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर।
होश को सम्हालो ! यहां भरोसा मत करो। यहां बड़े धोखे भरे पड़े हैं। यहां अब तक तुम जिन चीजों में डोले हो, सभी में धोखा है। यहां जिंदगी की तो बात छोड़ो, मौत भी धोखा दे जाती है। क्योंकि मौत भी कहां मौत सिद्ध होती है, फिर पैदा हो जाते हो! यकीन रख कि यहां हर यकीन में है फरेब
काफिले या मिट गए या बढ़ गए
अब गुबारे-राह भी उठता नहीं।
वे जो वासनाओं के, असंतोष के, अतृप्तियों के, लोभ के, कामनाओं के काफिले थे— काफिले या मिट गए या बढ़ गए- या तो मिट गये, या कहीं और हट गये ।
अब गुबारे-राह भी उठता नहीं।
- अब तो रास्ते पर गुबार भी नहीं है। काफिलों के बीत जाने के बाद जो थोड़ी गुबार उठती रहती है, वह भी नहीं है।
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ध्यान रखना, भोग जब बीत जाता है तो त्याग की गुबार रह जाती है। भोग का काफिला तो निकल जाता है, तब त्याग की धूल रह जाती है। लेकिन परम शांति तभी मिलती है, जब भोग भी गया, त्याग भी गया। काफिले या मिट गए या बढ़ गए अब गुबारे - राह भी उठता नहीं ।
का तो क्या है, फना का भी ऐतबार न कर। यह सब फरेब है नजरे - इम्तियाज का दुनिया में वरना कोई भी अच्छा-बुरा नहीं।
न यहां कुछ अच्छा है, न बुरा है। अच्छा तुमने समझा कुछ — मोह पैदा हुआ, राग पैदा हुआ। बुरा समझा कुछ --- द्वेष पैदा हुआ, विराग पैदा हुआ। यहां न कुछ अच्छा है, न बुरा है।
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