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धर्म: निजी और वैयक्तिक
| महावीर से कुछ लेना है, न नारद से कुछ लेना है—देखना है कि जिसने पूछा है, मैं जानता हूं, रोना उसके लिए मार्ग है। भूल
अपनी मौज कहां, हम कहां बहे जाते हैं सरलता से, जहां कोई जाओ महावीर को। गुण गाओ प्रभु के। नाचो मस्ती में! बेहोशी उपाय नहीं करना पड़ता, जहां हम छोड़ देते हैं और धारा ले में डूबो! और कुछ भी बचा न रखो। जरा भी कृपणता मत करना चलती है। अगर संकल्प तुम्हारी वृत्ति हो तो रोकना; तो हृदय क्योंकि परमात्मा तुम्हें पूरा का पूरा चाहता है। को तोड़ना और बुद्धि को जगाना; तो हृदय को पोंछ देना वहां त्याग है तो सर्वस्व का है। वहां कुछ-कुछ देने से, बिलकुल कि राग का शेष भी न रहे, न आंसू हों, न हंसी हो। | अंश-अंश देने से काम न चलेगा। वहां कुछ और देने से काम न
तुमने देखा महावीर की प्रतिमा पर? थिर है। मध्य में है। न चलेगा, जब तक तुम स्वयं को ही न दे डालो-अशेष भाव से, | हंसती है न रोती है। मूर्तिवत। मूर्ति ही मूर्तिवत नहीं है, महावीर | बिना पीछे कुछ बचाये
त थे। वे ठीक बीच में खड़े थे होश को सम्हालकर। रोओ! रोना शुभ है। अगर सरलता से आता है तो बड़ा शुभ वह भी मार्ग है। जिनको संकल्प में रस हो, उस मार्ग पर जायें। है। अगर न आता हो तो नाहक कोशिश मत करना। मिर्ची उससे भी लोग पहुंचे हैं।
इत्यादि पीसकर आंखों में मत आंजना। लेकिन अगर तुम्हें संकल्प में अड़चन पड़ती हो तो घबड़ाना | वैसे भी लोग हैं। कोई जबर्दस्ती संकल्प की चेष्टा करने लगता मत, संकल्प ने कोई ठेका नहीं लिया। तुम जिस ढंग से हो, है, कोई जबर्दस्ती समर्पण की चेष्टा करने लगता है। जहां भी परमात्मा तुम्हें उस ढंग से भी स्वीकार करता है। इसलिए तो हिंदू तुम्हें लगे जबर्दस्ती करनी पड़ रही है, वहीं सचेत हो जाना कि कहते हैं, उसके हाथ अनेक हैं-सहस्रबाहु। एक ही हाथ होता | अपना मार्ग न रहा। जहां तुम्हें लगेः अरे खिलने लगे, सरलता तो बड़ी मुश्किल हो जाती; किसी एक को उठा लेता, बाकियों से पंखुड़ियां खिलने लगीं, मस्ती आने लगी, चित्त प्रसन्न और का क्या होता। दो हाथ होते, दो को उठा लेता। उसके उतने ही प्रफुल्लित होने लगा-तब तुम जानना कि ठीक-ठीक रास्ते पर हाथ हैं जितने तुम हो। एक-एक के लिए एक-एक हाथ है। हो। तुम्हारा अंतर-यंत्र प्रतिपल तुम्हें बता रहा है, कसौटी दे रहा | उसने तुम्हारे लिए जगह रखी है। तुम्हारा हाथ तुम्हारे लिए मौजूद है। जो भोजन तुम्हें रास आता है, उसे खाकर प्रसन्नता होती है। है। तुम जरा अपने को पहचानो। और इस भूल में कभी मत | जो भोजन तुम्हें रास नहीं आता, उसे खाने के बाद अप्रसन्नता पड़ना कि तुम दूसरे के मार्ग से पहुंच सकोगे। अगर तुमने होती है। जो बात तुम्हें रास आ जाये वही तुम्हारा धर्म है। विपरीत मार्ग चुन लिया जो तुम्हारी सहज वृत्ति के अनुकूल न धर्म की परिभाषा महावीर ने की है : बत्थु सहाओ धम्म। वस्तु
आता था, तो तुम उलझन में पड़ोगे, तुम झंझट में उलझोगे। तुम का स्वभाव धर्म है। बड़ी प्यारी परिभाषा है। स्वभाव धर्म है। | अपने ऊपर व्यर्थ के अवसाद और संताप इकट्ठे कर लोगे। तुम तुम धर्म की फिक्र छोड़ो, स्वभाव की फिक्र कर लो। धर्म
अपने को व्यर्थ की प्रवंचनाओं में, धोखों में, आत्म-वंचनाओं में पीछे-पीछे चला आयेगा। बहत नासमझ धर्म उलझा लोगे। तुम पाखंड में पड़ जाओगे। विमुक्ति तो बहुत दूर | और स्वभाव को पीछे घसीटते हैं। महावीर ने यह नहीं कहा कि रहा, तुम विाक्षप्त होने लगोगे। जो अपने से अनुकूल न गया, - धर्म स्वभाव है; महावीर ने कहा, स्वभाव धर्म है। बड़ा फर्क है वह विक्षिप्त होने लगता है। स्वयं के अनुकूल होना साधक की दोनों में। स्वभाव-जो अनुकूल आ जाये, जो प्रीतिकर लगे, पहली समझ है।
जो प्रेयस है, जिसके पास आते ही तुम नाचने लगते हो, जिसके तो जो तुम्हें लगता हो, अनुकूल है; जो तुम्हें भाता हो, रुचता | पास होते ही गंध तुम्हें घेर लेती है-तुम्हारी ही सुगंध! हो; जो तुम्हारी रुझान में बैठ जाता हो-बस वही। न महावीर और पहले से ही ऐसे चलोगे, अपने स्वभाव के अनुकूल तो से कुछ लेना है, न नारद से कुछ लेना है-असली सवाल तो तुम्हें प्रयास न करना पड़ेगा। तुम्हें अपने घर लौटना है।
झेन फकीर कहते हैं, अप्रयास से जो सध जाये वही सत्य है; अपनी राह पहचानना। और अपनी राह पहचानने का उत्तमतम | प्रयास से जो सधे, चेष्टा से जो सधे, उसमें कहीं कुछ गड़बड़ उपाय है : अपने थोड़े झुकाव को समझना।
है। कली को फूल बनने में कोई अड़चन आती है? कली को
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