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________________ जिन सुत्र भागः हो सकता। शब्द बड़े छोटे हैं। तो शभ है कि शब्द भूल जायें दूर होता है। किनारे के पास कहीं तफान होते हैं। लेकिन प्रेम के और मैं याद रहूं। अशुभ होगा कि शब्द याद रहें और मैं भूल | नियम उलटे हैं। इस संसार के जो नियम हैं, प्रेम के नियम उससे जाऊं। बहुतों को यही होता है : शब्द याद रह जाते हैं, मैं भूल | बिलकुल उलटे हैं। यहां अगर नदी पार करनी हो तो डूबना मत। जाता हूं। कुछ मिला उन्हें, लेकिन जहां बहुत मिल सकता था, प्रेम की दुनिया में अगर नदी पार करनी हो तो डूबने का अवसर वहां अपने ही हाथ वे क्षुद्र को इकट्ठा करके आ गये। जहां हीरे | आ जाये तो चूकना मत। मिल सकते थे वहां से कंकड़-पत्थर बीन लाये। डूबा जो कोई आह, किनारे पै आ गया! अच्छा है! भूल ही जाओ। जो सुना है उसे याद रखने की डूबते ही किनारा मिल जाता है। डूबना ही किनारा है और जरूरत नहीं है। | कोई किनारा नहीं। इबना ही मंजिल है: और कोई मंजिल नहीं। अगर मुझ से मिलन हुआ है, अगर क्षणभर को भी मुझे देखा | क्योंकि डूबे कि तुम मिटे। तुम मिटे कि वही रह गया, जो है, जो है, मुझमें झांका है, तो क्या मैं कहता हूं, इसकी क्या फिक्र! सदा से है। तुम जरा ऊपर-ऊपर की धूल-धवांस हो, उस पर चाहें तो तुमको चाहें, देखें तो तुमको देखें छा गया जो सनातन है, शाश्वत है। डूबे कि धूल-धवांस बह ख्वाहिश दिलों की तुम हो, आंखों की आरजू तुम। गई; बचा वही जो सदा था—तुम्हारे होने के पहले था, तुम्हारे जिसे दर्शन हुआ, जिसे दिखाई पड़ने लगा, वह कानों की फिक्र होने के बाद होगा। बचा वही जो शाश्वत है, कालातीत है। छोड देता है। जब आंखें भरने लगीं तो कान की कौन फिक्र | डूबा जो कोई आह, किनारे पे आ गया! करता है! तुगयाने बहरे इश्क है साहिल के आसपास। सनने पर तो हम तब भरोसा करते हैं जब हम अंधे होते हैं और ये जो तफान हैं, प्रेम की आंधियां हैं, ये किनारे के बहत देखने का उपाय नहीं होता। सुनने को तो हम तब पकड़ते हैं, आसपास हैं, इनसे घबड़ाना मत। और जब आंधी तुम्हारे द्वार मजबूरी में, क्योंकि देख नहीं पाते, अंधेरे में टटोलते हैं। कान से पर दस्तक दे तो निकल आना, डूबने को राजी हो जाना, आंधी से ही जीना पड़ता है अंधे को। पर जिसके पास आंख है वह आंख लड़ना मत। से जीता है। फिर कौन फिक्र करता है कान की! 'सब भूल जाता है, सिर्फ आप ही सामने होते हैं।' आंख से ही जीयो! तो तुम डूबोगे। कान से जो जीते हैं, वे डूब तो वही हो रहा है जो होना चाहिए। नहीं पाते। ज्यादा से ज्यादा इतना हो सकता है कि मुझे सुनते | 'और अब तो रोना ही रोना रहता है। घर आपके चित्र के समय तुम पर थोड़ी-सी बूंदें बरस जायें, पर वे तुम्हें डुबा न सामने रोती हूं, यहां प्रवचन में रोती हूं। यह क्या है?' पायेंगी; घर जाते-जाते धूप में उड़ जायेंगी। लेकिन तुम अगर प्रश्न मत उठाओ, रोओ। प्रश्न उठाया कि रोना बंद हुआ। मुझ में डूबो, मुझे अगर देख पाओ...। इसलिए हमने इस देश क्योंकि प्रश्न जहां से आता है वहां से रोना नहीं आता। प्रश्न में तत्व-चिंतन की धारा को दर्शन कहा है-श्रवण नहीं, दर्शन आता है बुद्धि से, रोना आता है हृदय से। प्रश्न उठाया कि बुद्धि कहा है। कुछ बात देखने की है। कुछ आंख से जुड़ने की बात ने हृदय के बीच में बाधा दी। प्रश्न उठाया कि बुद्धि ने कहा, यह है। मेरी बात सुनकर तुम मुझ तक आ जाओ, काफी है इतना; | क्या हो रहा है? प्रश्न उठाया कि बुद्धि ने अड़चन शुरू की, कि फिर मुझे देखो, फिर सुनने में ही मत उलझे रह जाओ। बुद्धि ने पहरा बांधा, कि बुद्धि ने कहा, 'बंद करो यह पागलपन, डूबा जो कोई आह, किनारे पै आ गया यह दीवानगी! सम्हलो, होशियार बनो।' तुगयाने बहरे इश्क है साहिल के आसपास। । अब यहीं तुम्हें खयाल रखना है। अगर महावीर के मार्ग पर जो कोई डूबा वह किनारा पा गया। क्योंकि कुछ ऐसा मामला | चलते हो तो सम्हलो, होशियार बनो। वहां होश आखिरी गण है कि इश्क का जो तूफान है, प्रेम का जो तूफान है, वह ठीक है। अगर नारद के मार्ग पर चलते हो, मीरा के और चैतन्य के, किनारे के पास है। साधारण तूफान तो किनारे से दूर होते | तो वहां बेहोशी ही मार्ग है। वहां होशियार मत बनना। वहां हैं-बहुत दूर होते हैं। जितना बड़ा तूफान हो उतना ही किनारे से | होशियार बने कि गंवाया। और अपनी-अपनी चुन लेना राह। न 1721 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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