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________________ INE जिन सत्र भागः 1 MIRRIERRELI धर्म के जगत में तो जो प्रयोग करता है, केवल वही देख पाता है। लेकिन वेद का अभी जन्म नहीं हआ। क्योंकि वेद का जन्म तो कह सकता है, गीत गुनगुना सकता है, उस आनंद की खबर ला तुम्हारे ही ध्यान की प्रक्रिया में होगा। सकता है, नाच सकता है, या मौन खड़ा हो जाता है। या उसके तो शब्द ये सब बहुमूल्य हैं, महा गहन अर्थ से भरे हैं; लेकिन जीवन की प्रभा को तुम पहचानो, उसके पास आओ, उसकी | तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते ये खाली कारतूसें रह जायेंगे। तुम पलक को छओ, उसके पास शांति को अनुभव करो, उसके इन्हें अगर फिर से जीवंत करना चाहो तो बड़े साहस, अदम्य आनंद की थोड़ी किरणें तुम पर भी पड़ने दो-तो शायद तुम्हें साहस से और जोखिम उठाने की हिम्मत से ही यह हो सकेगा। एक बात भर खयाल में आ जाये कि जो मेरे जीवन में अब तक समझने की हम कोशिश करें। हुआ है उससे शांति नहीं मिली, यह आदमी शांत है; जो मेरे __ आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण। जीवन में हुआ है उससे भय नहीं मिटा, इस आदमी का भय मिट झाइज्जइ परमप्पा, उवइटुं जिणवरिंदेहि।।। गया है; जो मेरे जीवन में हुआ है उससे अभी तक मृत्यु पर मेरी 'जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया कोई विजय नहीं हुई, इस आदमी की मृत्यु पर विजय हो गई है; से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा जो मैंने जीवन में जाना है उससे चिंताएं बढ़ी हैं, इस आदमी की | का ध्यान करो।' तिरोहित हो गई हैं; शायद इसे कुछ मिला है जो मैं चूक रहा हूं। 'मन, वचन, काया से...' थोड़ा चलूं, हिम्मत करूं। थोड़ा मैं भी खोजूं; अपनी सीमा, | महावीर की साधना-प्रक्रिया में ये तीन बाधाएं हैं—मन, अपने घेरे के बाहर उठू।। वचन, काया। अपनी सीमा और घेरे के बाहर उठना ही संन्यास है। काया तो हमें दिखाई पड़ती है। काया के पीछे छिपी हुई विचारों संसार तुम्हारी सीमा है। वहां सब तुम्हारा जाना-माना, की पर्ते हैं, सघन पर्ते हैं-उनका नाम वचन। तुम चाहे बोलो या परिचित है। संन्यास इस सीमा के जरा बाहर सिर उठाना है। न बोलो, तो भीतर तो बोलते ही रहते हो। चुप भी जो आदमी ये सूत्र वर्णन के सूत्र हैं। एक-एक शब्द बहुमूल्य है-और बैठा है, वह भी भीतर बोल रहा है। वचन जारी है। साथ ही साथ अर्थहीन भी। __तो शरीर की एक पर्त है-स्थूल; उसके भीतर छिपी हुई सूक्ष्म जब मैं कहता हूं अर्थहीन, तो मेरा अर्थ है कि अर्थ तो तभी पैदा पर्त है विचार की, संस्कार की, धारणाओं की-वह घूम रही है। होगा जब तुम अनुभव करोगे। शब्द बड़े प्यारे हैं, बड़े अनूठे हैं! वह चौबीस घंटे तुम्हें घेरे हुए है। रात सपने में भी चल रही है। महावीर ने जब इनको कहा है तो सार्थक हैं, इसीलिए कहा है। मैं उठो, बैठो, चलो, कुछ भी करो, भीतर विचार की एक परिधि जब तुमसे कह रहा हूं तो सार्थक हैं, इसीलिए कह रहा हूं। अपना घेरा बांधे रखती है। लेकिन मेरे कहने से ही अर्थ तुम्हारी पकड़ में न आयेगा। अर्थ तो उस विचार से भी गहरा मन है। अगर आधुनिक मनोविज्ञान तुम्हें अपने अनुभव से डालना होगा। शब्द तुम्हें दे दूंगा, जैसे की भाषा में कहें तो जिसको आधुनिक मनोविज्ञान 'कांशस शब्द की प्यालियां तुम्हें दे दीं; लेकिन जो मदिरा तुम्हें ढालनी है मांइड' कहता है, उसी को महावीर वचन कहते हैं। और वह तो तुम्हें भीतर ढालनी पड़े और इन प्यालियों में भरनी पड़े। जिसको आधुनिक मनोविज्ञान 'अनकांशस मांइड' कहता है, ये शब्द कोरे हैं; इनमें तुम प्राण डालोगे तो ये जीवंत हो उठेगे। | उसको महावीर मन कहते हैं। इन शब्दों को ही तुम अर्थ मत समझ लेना, जैसा कि पंडितों ने | मन का जो हिस्सा तुम्हारी चेतना में प्रविष्ट हो गया है वह है समझ रखा है। तो फिर शब्द को ही लोग दोहराये चले जाते हैं। वचन। मन का जो हिस्सा विचार बन गया है और मन का जो फिर वे आत्मा का वर्णन सीख लेते हैं, कंठस्थ कर लेते हिस्सा अभी विचार नहीं बना है, विचार बनने की प्रक्रिया में हैं तोतों की तरह। फिर उसी को दोहराते-दोहराते भूल ही जाते है-वह है मन। हैं कि हमने अभी जाना नहीं; यह तो हमने सुना था; यह तो मन है बीज की भांति; विचार अंकुरित हो गये बीज हैं। और श्रवण था; यह तो श्रुति थी। ज्यादा से ज्यादा स्मृति बन गई, ये तीनों संयुक्त हैं। जो तुम्हारे मन में है, वह आज नहीं कल 370 Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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