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________________ सत्र हुआ समझा लेता है कि चेष्टा पूरी न हो सकी। कि कर सकते थे। अगर वह भाव रहा तो समर्पण न हो पायेगा। एक हाथी खड़ा था। और हाथी के पास, पैरों के पास, सुबह ऐसा ही दिखता हैकी धूप थी। सूरज निकला था। सर्दी के दिन थे। एक चूहा बैठा क्या शै है मुहब्बत भी कुहसार को ढाए है था, वह भी धूप ले रहा था। ऐसे साधारणतः हाथियों को चूहे | तिरतों को डुबोये है, डूबों को तिराए है। दिखायी नहीं पड़ते, लेकिन खाली खड़ा था हाथी, कुछ काम भी | तुमने देखा, कभी कोई मर जाता है तो नदी पर तैर जाता है! न था, इधर-उधर देख रहा था, सुबह की धूप ले रहा था-चूहा जिंदा डूब गया था, मरकर तैर जाता है। मुर्दे को कोई तरकीब दिखाई पड़ा। उसने कहा, 'अरे! आश्चर्य! इतना छोटा प्राणी, | पता है जो जिंदे को पता नहीं थी। अगर जिंदा भी मुर्दे की भांति हो कभी देखा नहीं।' चूहे ने कहा, 'आप गलत न समझें। मैं जरा जाता तो नदी ने तैरा दिया होता, तो नदी डुबाती न। अगर जिंदा कुछ दिनों से बीमार हूं।' ने भी स्वीकार कर लिया होता कि चलो राजी हैं, डुबाओ; तो छोटा कौन है। थोड़े दिनों से बीमार हूं। जरा तबियत नासाज | नदी डुबाती न। जो राजी है उसे कौन डुबाता है! वह जो डूबना है, इसलिए छोटा दिखाई पड़ रहा हूं। नहीं चाहता, जो प्रतिरोध करता है, संघर्ष करता है, नदी उसी को तुमने भी नहीं समझा लिया है हजारों बार अपने को? डुबा देती है। तुम लड़ो मत! समझाना छोड़ो! उस समझाने में ही, उस तर्क में ही, तुम्हारा | मगर यह न लड़ने की घटना तभी घटेगी जब तुम्हारे लड़ने की अहंकार शेष रह जाता है। जिस दिन तुम अपनी हार को स्वभाव वृत्ति पूरी तरह पराजित हो जाये; रत्ती मात्र भी आशा शेष न रहे। समझ लोगे कि मेरे किये होगा क्या...नहीं कि मैं आज कमजोर तुम गहन निराशा में गिरो। वहीं से सुबह है समर्पण की। हूं, कल बलशाली हो जाऊंगा। नहीं कि मुझे ठीक विधि का पता संकल्प जहां हारता है, वहां समर्पण है। जीत गये तो जीत गये; नहीं है, कल पता चल जायेगा। नहीं कि आज भाग्य ने साथ न न जीते तो भी हारे नहीं, क्योंकि फिर हार में से जीत निकल आती दिया, कल देगा। कोई हर्ज नहीं, एक बार हारे तो सदा थोड़े ही है। इसलिए धर्म के मार्ग पर जानेवाला कभी, कभी भी हारता तो हारेंगे। कभी तो भाग्य बरसेगा! कभी तो किस्मत साथ होगी! है ही नहीं; जीतता है तो जीतता है, हारता है तो जीतता है। कभी तो परमात्मा भी दया करेगा! किये जाओ! | परमात्मा की तरफ जानेवाला हर हालत में पहुंचता है। क्योंकि नहीं, अहंकार नपुंसक है स्वभाव से। उसके किये कुछ होता सभी रास्ते उसकी तरफ जाते हैं। ही नहीं। | जिन मित्र ने पूछा है, उनकी अड़चन यह है कि संकल्प का पूरा तो मैं तुमसे कहंगा कि तुम संकल्प कर ही लो; जितना तुमसे | प्रयोग नहीं किया, और उस कमी को समर्पण से पूरा करना लो। हारो पूरी तरह। हार में विजय छुपी है। चाहते हैं। संकल्प पूरा नहीं हुआ, तो समर्पण कैसे पूरा होगा? संकल्प की हार में समर्पण उठता है। जीत गये तो ठीक। अगर | तुम्हारा अहंकार पूरी तरह धूल में गिर जाना चाहिए। संकल्प से जीत गये तो ठीक; कोई जरूरत न रही। कुछ लोग यही तो अंजामे-जुस्तजू है जीत गये हैं। इक्के-दुक्के जीते हैं। रास्ता बड़ा कठोर है, बड़ा कि ठोकरें खाकर बुतकदों की दुर्गम है! लेकिन कुछ लोग जीते हैं। तो अपनी पूरी कोशिश कर जबीने-रुसवा को रखकर अपनी लो। अगर जीत गये, अगर संकल्प से पा लिया तो पा ही हरम की चौखट पे सो गया हूं लिया। अगर न जीते, तो भी पूरी कोशिश कर लेने के बाद हार जो काफिला इस तरफ से गुजरे, समग्र होगी। तो पूरी तरह हार जाना। तो अनेकों ने हारकर पाया वो एक ठोकर मुझे लगा दे, है। और जीतकर पाने से हारकर पाने का मजा ज्यादा है। 'जमील' मैं बीच रास्ते में । यह प्रेम कुछ बात ऐसी है कि यहां हार, जीत है। तो हारने से इसी भरोसे पे सो गया हूं। घबड़ाना मत। मगर एक बार तुम्हें अपनी पूरी ताकत दांव पर यही तो अंजामे-जुस्तजू है—यही तो खोज का नतीजा है कि लगा लेनी चाहिए। कहीं मन में यह लुका-छिपा भाव न रह जाये| ठोकरें खाकर बुतकदों की—कि बहुत पूजागहों की, मंदिरों की, 254 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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