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________________ जिन सत्र भागः । बहुत-सा तो ऐसा है जो ले जाने योग्य नहीं है। हड़बड़ाहट पैदा होती थी। ऐस्कीमों की जीवन-व्यवस्था में एक प्रक्रिया है, बड़ी बहुमूल्य तुम साइकिल चलाते हो, लेकिन शायद ही तुम किसी है! काश, सारी दुनिया में कभी हो जाये तो बड़े काम की हो! साइकिल चलानेवाले को ठीक चलाते देखो, क्योंकि अगर ठीक ऐस्कीमों, जैसे यहां वर्ष में दीवाली आती है, ऐसा उनका एक कोई चला रहा हो तो पैर के पंजे पर जोर देना काफी है। पूरे शरीर दिन आता है— उत्सव का दिन। उस दिन उनके पास जो भी हो, को तनाव देने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन साइकिल क्या जो व्यर्थ होता है, वह बांट देते हैं। इसका बड़ा परिणाम होता | चला रहे हैं, पूरा शरीर तना हुआ है। फिर थक जाते हैं। फिर है। घर खाली, शुद्ध, साफ हो जाते हैं। और इसका दूसरा | ऊब जाते हैं। परिणाम यह होता है कि जब सालभर बाद व्यर्थ को बांट ही देना | जिंदगी में जरा गौर करो! जो काम जितने से हो सकता हो है तो वे व्यर्थ को इकट्ठा भी नहीं करते; क्योंकि वह फिजूल है, उतना तो जरूरी है; उससे रत्तीभर भी ज्यादा डालना मूर्छा के वह सालभर बाद बंट जाना है। उसके लिए दौड़-धूप कौन करे! | कारण हो रहा होगा। वह साइकिल सवार जानता ही नहीं कि तो एस्कीमों का घर अत्यंत जरूरत, अत्यंत आवश्यक पर क्या कर रहा है। उसे याद ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जो निर्भर है। और तुम ऐस्कीमों को जितना संतोषी पाओगे, किसी काम रत्तीभर से हो सकता था, जो सई से हो सकता था, वहां को न पाओगे। पर मौत के दिन तो सभी कुछ छूट जाना है; तलवार लिए बैठे हो। खुद को लहूलुहान कर लिया है, दूसरों थोड़ा भी न ले जा सकोगे। अगर थोड़ा मौत का स्मरण बना रहे को लहूलुहान कर रहे हो। और सुई तो सी देती कपड़े को, तो तुम व्यर्थ की दौड़-धूप छोड़ दोगे।। तलवार और फाड़ देती है। जो काम सुई से होता है वह तलवार तुम अपने सौ कर्मों को जरा गौर से देखना; उसमें से नब्बे तो से हो नहीं सकता। चुपचाप गिराये जा सकते हैं, जिनके लिए कोई कारण नहीं है। सम्यक जीवन चाहिए! दो छोटे बच्चे बात कर रहे थे। एक बच्चा कह रहा था कि मेरी महावीर कहते हैं, 'प्रमाद को कर्म, अप्रमाद को अकर्म कहा मा अदभुत है! वह किसी भी विषय पर घंटों बोल सकती है। है। प्रमाद के होने से मनुष्य अज्ञानी होता है। और प्रमाद के न दूसरा बोला, यह कुछ भी नहीं है। मेरी मां बिना विषय के घंटों | होने से मनुष्य ज्ञानी हो जाता है।' सम्हालो थोड़ा। जीवन की क्या, दिनों बोल सकती है। विषय के घंटों क्या, विषय की कोई | गंध को व्यर्थ गंवाए दे रहे हो। जरूरत ही नहीं है। कहीं की रहेगी न आवारा हो कर __ तुम जरा खयाल रखना, तुम जितना बोल रहे हो, उसमें से | यह खुशबू जो फूलों ने कांटों पे तौली। कितना जरूरी था, कितना तुम छोड़ सकते थे। तुम जो कर रहे | बड़ी मुश्किल से खुशबू आती है। बड़ी मुश्किल से! बड़ी हो, उसमें से कितना जरूरी था, कितना छोड़ा जा सकता था! जद्दोजहद से! जरा देखो तो बीज से लेकर फूल तक की यात्रा, धीरे-धीरे अपने जीवन को व्यवस्था दो! होश लाओ! जहां कितनी कठिन है ! करीब-करीब असंभव है। चलकर पहुंचा जा सकता है, वहां दौड़कर क्यों पहुंच रहे हो? कितनी अड़चनें हैं। कितने अवरोध हैं। पहले तो बीज टूटे न मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तो मैंने देखा कि परीक्षा में टूटे; टूट जाये तो ठीक भूमि मिले न मिले; ठीक भूमि भी मिल से हैं, लेकिन पूरा शरीर खिंचा है। तो मैं | जाये तो कोई पानी दे न दे, कोई पानी भी दे, सूरज की रोशनी पड़े उनसे कहता कि जब तुम हाथ से लिख रहे हो तो दो अंगुलियों पर न पड़े; कोई बच्चा उखाड़ दे पौधे को; कोई जानवर खा जाये या जोर पड़े, यह तो समझ में आता है; लेकिन यह पूरा शरीर अंगूठे कोई कुत्ता अपना पेशाब-घर बना ले! करोगे क्या? हजार से लेकर सिर तक तुम तने हुए क्यों हो? किन्हीं-किन्हीं बाधाएं हैं! तब कहीं वृक्ष खड़ा हो पाता। तब कहीं फूल आते। विद्यार्थियों को बात समझ में आई और वे शरीर को शिथिल कांटों पर तौल-तौलकर गंध पैदा करनी पड़ती है। छोड़कर लिखे। और बाद में उन्होंने मुझे कहा, यह आश्चर्य की कहीं की रहेगी न आवारा हो कर बात है! हम नाहक शक्ति खो रहे थे और उसकी वजह से यह खुशबू जो फूलों ने कांटों पे तौली। 332 Main Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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