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________________ 400 जिन सूत्र भाग: 1 खुलता है । समस्त इच्छाओं के त्याग में मोक्ष की इच्छा भी सम्मिलित है। इसे थोड़ा समझना । वह जो मोक्षवादी है, वह कहता है, मोक्ष की भी इच्छा छोड़ देनी है, तब मोक्ष मिलेगा। परमात्मा की भी इच्छा छोड़ देनी है, तभी । इच्छा मात्र बाधा है। भक्तों से पूछो ! भक्त कहते हैं, अगर मोक्ष छोड़ना पड़े, हम तैयार हैं; लेकिन तुम्हारी अभीप्सा बनी रहे। प्रभु को पाने की अकुलाहट बनी रहे ! बैकुंठ पर लात मारने को तैयार हैं। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे विरह में जो मजा आ रहा है, वह खो जाये ! भक्त, परमात्मा के विरह को बचा लेना चाहता है। उसके मिलन की तो बात दूर, उसका विरह भी बड़ा प्यारा है। ज्ञानी, |परमात्मा की आकांक्षा भी छोड़ देना चाहता है । विरह की तो बात दूर, उसके मिलन की भी आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि आकांक्षा मात्र उसे मोक्ष में बाधा मालूम होती है। ये अलग-अलग भाषाएं हैं। तलाश में तो तलब जुस्तजू-सी होती है दबा-दबी ही सही आरजू-सी होती है। कितना ही दबाओ, कितना ही सम्हालो, संस्कारित करो, लेकिन आकांक्षा तो रहती है, आरजू तो रहती है। इसलिए तो महावीर के मार्ग पर प्रार्थना शब्द गलत है। ध्यान! प्रार्थना की कोई जगह नहीं है। प्रार्थना में तो आरजू-सी रहती है। दबा-दबी ही सही आरजू-सी होती है न आरजू न तलब है -न पाने की इच्छा है, न पाने की कोई याचना है। न जुस्तजू न तलाश -न खोज है, न खोज में कोई पागलपन है। फिर है क्या ? भक्त बोलता है, परमात्मा की प्यास के कारण खोजने निकले हैं। ज्ञानी बोलता है, भीतर एक घाव है, पीड़ा है—उसको मिटाना है। जरा-सी एक जराहत — एक घाव है भीतर । Jain Education International जरा-सी एक खराश - और उस घाव में पीड़ा है। इस बात को समझने की कोशिश करो। भक्त की पीड़ा भी प्यास है। वह कहता है, प्रभु पीड़ा दो । प्यासा करो, जलाओ ! ज्ञानी के लिए परमात्मा नहीं है, न कोई प्यास है, न कोई और बात है। सिर्फ अज्ञान की एक पीड़ा है; यह पीड़ा प्यास नहीं है, यह दुख है। यह कांटे की तरह चुभ रही है। इसे निकालकर फेंकना है। ये दोनों भाषाएं अलग हैं। और जब तक तुम्हें ठीक सम्यक भाषा न मिल जाये, जिससे तुम्हारे हृदय का तालमेल बैठे, तब तक ऐसी अड़चन होगी। मेरी बातें सिर पर से निकलती हुई मालूम होंगी। कोई-कोई बात जो तुम्हारे संस्कार से मेल खा जायेगी, वो समझ में आयेगी । लेकिन समझ में आने से क्या होगा? अगर तुम्हारे हृदय से मेल न खायेगी तो समझ में आ जायेगी, किसी काम में न आयेगी। और जो बात तुम्हारे हृदय से मेल खाती थी, वह तुम्हारे सिर पर से निकल जायेगी; क्योंकि संस्कार उसे भीतर प्रविष्ट न होने देगा। जो बात तुम समझ लोगे, वह तुम्हारे काम की न होगी। और जो तुम्हारे काम की थी, वह तुम्हारा मन तुम्हें समझने न देगा। 'गुणा' की तकलीफ, भावुक स्त्रैण हृदय की तकलीफ है। जैन मार्ग पुरुष का मार्ग है। और जब मैं कहता हूं, पुरुष का, तो मेरा मतलब यह नहीं कि स्त्रियां उस मार्ग से नहीं जा सकतीं। स्त्रियां भी जा सकती हैं, लेकिन पुरुष - धर्मा; जिनकी वृत्ति पुरुष वृत्ति हो । कृष्ण का मार्ग स्त्रैण मार्ग है। इसका यह मतलब नहीं कि पुरुष नहीं जा सकते; जा सकते हैं - लेकिन वे ही पुरुष, जिनकी भावदशा स्त्रैण हो । गोप भी जा सकते हैं; लेकिन गोप ऊपर-ऊपर से होंगे, भीतर से गोपी का ही भाव होगा। इसलिए कृष्ण का भक्त तो अपने को मानने लगता है, वह स्त्री है; उसकी, कृष्ण की गोपी है। वह अपने पुरुष-भाव को छोड़ देता है । जैन साध्वी अपने सारे स्त्रैण भाव को धीरे-धीरे काटकर गिरा देती है, पुरुषवत हो जाती है। सारा राग, सारा रस, सब समाप्त कर देना है। मरुस्थल की तरह हो जाना है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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