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________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का दूसरा प्रश्न भी इससे संबंधित है। 'गुणा' ने पूछा है : कारागृह पत्थर की ईंटों के ही नहीं होते, शब्दों की ईंटों के भी बहुत समय से मैं आपके पास हूं और मैं बहुत अज्ञानी और होते हैं और ज्यादा मजबूत होते हैं। बचपन से जो सुना है, निर्बद्धि हं, यह आप भलीभांति जानते हैं। आपकी कही अनेक बचपन से जो समझा है, जिसके संस्कार पड़े हैं, वह तुम्हारे चारों बातें मेरे सिर पर से गुजर जाती हैं। आप परमात्मा से बिछुड़न तरफ दीवाल बन जाती है। फिर बाद में उस दीवाल के बाहर की जिस पीड़ा की बात करते हैं, वह पीड़ा मुझे कभी हुई नहीं। निकलने में बड़ी घबड़ाहट होने लगती है। ऐसा लगता है, यह परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं। फिर मैं क्यों यहां हूं | तो अधर्म हो जायेगा। इससे बाहर गये तो अधर्म हो जायेगा। और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं? इसके भीतर रहने में ही धर्म है। और भीतर रहने में प्राण अकुलाते हैं। 'गुणा' की भी तकलीफ वही है जो मैंने अभी तुमसे कही। महावीर का ढंग बड़ा भिन्न है। वह जैन घर में पैदा हुई है। इसलिए परमात्मा शब्द सार्थक नहीं मुझे तलाश रही है है; प्यास शब्द भी सार्थक नहीं है। जैन घर की भाषा में परमात्मा नहीं, तलाश नहीं और प्रार्थना के लिए कोई स्थान नहीं है। संस्कार जैन के हैं, प्राण तलाश में तो तलब जैन के नहीं हैं। ऊपर से सारी धारा बौद्धिकता से तो जैन की है, | जुस्तजू-सी होती है और भीतर के प्राण तो एक अत्यंत भावुक स्त्री के हैं। दबा-दबी ही सही कृष्ण से रंग बैठ सकता था। कृष्ण के साथ नाच हो सकता आरजू-सी होती है था। महावीर के साथ नाच बैठता नहीं। नाचो तो उपद्रव मालूम न आरजू न तलब है होगा महावीर के साथ। वहां नाच की कोई संगति नहीं है। वहां न जुस्तजू न तलाश गीत. वाद्य की कोई संगति नहीं है। यही कठिनाई है। जरा-सी एक जराहत इसलिए जब मैं कहता हूं, परमात्मा की प्यास, तो जैन सुन जरा-सी एक खराश। लेता है; लेकिन उसके भीतर कुछ होता नहीं। उसके सारे मुझे तलाश रही है संस्कारों की पर्ते-कैसा परमात्मा! कैसी प्यास! मुझसे थोड़ा | नहीं, तलाश नहीं। लगाव है तो सुन लेता है, बर्दाश्त कर लेता है। लेकिन ऐसे | खोज की भाषा ही ठीक नहीं है; क्योंकि खोज का अर्थ ही होता उसकी पर्तों के भीतर बात नहीं उतरती। है, बाहर खोजना। खोज का अर्थ ही होता है कि कहीं परमात्मा ठीक वैसा ही जब मैं कहता हं-अशरण-भावना, संकल्प. छिपा है और खोजना है स्वयं अपने पैरों पर खड़े हो जाना—जब मैं महावीर की बात मुझे तलाश रही है करता हूं तो हिंदू सुन लेता है, मुझसे लगाव है। लेकिन वह नहीं, तलाश नहींसोचता है, कहीं न कहीं यह तो बड़ी अहंकार की ही बात हो रही तलाश में तो तलब... है। अपने पैर पर खड़े होना—इसमें कुछ समर्पण तो है नहीं। और फिर तलाश में तो इच्छा पैदा हो जाती है, वासना आ सब परमात्मा पर छोड़ना है, और इसमें कोई समर्पण की बात जाती है। परमात्मा को खोजने की भी तो वासना है, आकांक्षा है, नहीं है। मेल नहीं बैठता। अभीप्सा है। वही कठिनाई ‘गुणा' की है। गुणा के पास एक भावुक हृदय तलाश में तो तलब है, जो नाच सकता है, गा सकता है, गुनगुना सकता है। उसको | जुस्तजू-सी होती है। जरूरत थी किसी और भाषा की। जैन भाषा उसके काम की नहीं और फिर इच्छा जल्दी ही आकुल इच्छा बन जाती है, तीव्र हो है। जैन भाषा में फंसी है। उस भाषा के बाहर आने की हिम्मत जाती है, फिर जलाने लगती है। भी नहीं है। महावीर के मार्ग पर तो समस्त इच्छाओं के त्याग से रास्ता 399 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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