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________________ जिन सूत्र भागः लेकिन इतने लोग! इतने लोग तो भूल में नहीं हो सकते! वगैरह लगाकर ऊपर की बर्थ पर लेटने ही जा रहा था कि कुछ दूसरे को कनवर्ट करने की चेष्टा में अपने ही अविश्वासों को, याद आ गयी तो उसने नीचे की सीट पर लेटे आदमी से पूछा, संदेहों को शांत करने की चेष्टा छिपी है। इसलिए लोग चिल्लाते | भाई साहब! आप कहां जा रहे हैं? तो उस आदमी ने कहा, हैं कि बस यही मार्ग। कलकत्ते जा रहा हूं। मुल्ला बोला, हद्द हो गयी! हम तो बंबई जा महावीर के मार्ग पर बहुत लोग नहीं गये, क्योंकि महावीर ने रहे हैं। विज्ञान का चमत्कार तो देखो कि एक सीट कलकत्ता जा कहा सभी मार्ग सही हैं। रही है, एक सीट बंबई जा रही है! जैन अब हिम्मत नहीं करते यह कहने की कि सभी मार्ग सही अब गंगा और नर्मदा का अगर मिलन हो जाये तो बड़ी हैं। वह हिम्मत छोड़ दी उन्होंने। अब तो वे कहते हैं यही मार्ग | मुश्किल हो गयी। दोनों सागर की तरफ जा रही हैं और दोनों सही है। और कभी-कभी कैसी विडंबना हो जाती है! सागर में ही जा रही हैं। सब जाना सागर की तरफ है। मैं एक जैन मुनि से बात कर रहा था। तो मैंने उनसे कहा कि मैं तो तुमसे कहता हूं, जो संसार की तरफ जा रहा है वह भी जैन धर्म तो स्यादवाद को मानता है। जैन धर्म तो कहता है, और जरा लंबे रास्ते से परमात्मा की ही तरफ जा रहा है। क्योंकि सब भी सही हैं। जैन धर्म का तो यह कहना है, 'यही सही है', यह जाना उसकी तरफ है-देर-अबेर! मैं तो तुमसे कहता हूं, दृष्टि गलत है। 'यह भी सही है', यह दृष्टि सही है। वह भी जिसने वेश्या के द्वार पर दस्तक दी है, उसने भी अनजाने मंदिर सही है, यह भी सही है। यह ही सही है, ऐसे आग्रह में तो दूसरे के द्वार पर ही दस्तक दी है-थोड़ी दूर से दस्तक दी है। लेकिन सब गलत हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि निश्चित, स्यादवाद का वेश्या के पास भी वह मंदिर को ही खोजने गया है, क्योंकि प्रेम यही अर्थ है। फिर थोड़ी बात चलती रही। इधर-उधर की मैंने खोजने गया है। मिले न मिले, दूसरी बात। लेकिन आकांक्षा तो उनसे बात की, फिर थोड़े भूल गये वे तो मैंने उनसे कहा कि | उसी की है। खुद भी परिचित न हो, यह भी हो सकता है। गलत स्यादवाद के विपरीत अगर कोई हो, उसके लिए क्या दिशा में टटोलता हो, यह भी हो सकता है। लेकिन भीतर जो कहियेगा? वह भी सही है? 'कभी नहीं,' उन्होंने कहा, 'ऐसा खोज चल रही है, वह तो उसी की चल रही है। सभी सागर की कैसे हो सकता है? स्यादवाद के जो विपरीत है वह कभी सही | तरफ जा रहे हैं। और सभी पहुंच जाते हैं, क्योंकि सागर ने सब नहीं हो सकता।' दिशाओं से घेरा है। सागर की कोई दिशा नहीं है। ऐसे परमात्मा स्यादवाद का मूल आधार ही यही है कि जो मेरे विपरीत है वह की कोई दिशा नहीं है। भी सही हो सकता है। महावीर का आकाश बड़ा विराट है। वे तो ध्यान रखना, भजन से भी लोग पहुंचते हैं, भाव से भी कहते हैं, इतना बड़ा विराट आकाश है तो इतनी छोटी-छोटी | पहुंचते हैं। पर भाव की नाव अलग है। उसकी चाल अलग है। पगडंडियों पर तुम चिल्लाते हो, यही सही है? तुम पगडंडी के उसकी पतवार अलग है। उसका रंग-ढंग अलग है। वह बड़ी नाप को आकाश का नाप बना देते हो? तुम पहुंचने के संकीर्ण सजी-संवरी है। मार्ग को मंजिल बना देते हो? मंजिल बहुत बड़ी है। सब तरह | महावीर की नाव बड़ी भिन्न है। जरा भी सजी-संवरी नहीं है। के मार्ग वहां समाविष्ट हो जाते हैं। वहां भाव को कोई जगह नहीं है। वहां शुद्ध विचार और ध्यान ऐसा समझो कि गंगा बह रही है, नर्मदा भी बह रही है। गंगा | है। वहां भूलना नहीं है, स्मरण रखना है। भाव में भूलना है, बह रही है पूरब की तरफ, नर्मदा बह रही है पश्चिम की तरफ। स्मरण नहीं रखना है। भाव में आत्मविस्मति करनी है। और अगर दोनों का रास्ते में मिलना हो जाये तो बड़ी मुश्किल हो | महावीर के मार्ग पर आत्मस्मृति जगानी है। बड़े विपरीत हैं। एक जाये। क्योंकि गंगा कहे, मैं सागर की तरफ जाती हूं, तू पागल पूरब जा रहा है, एक पश्चिम जा रहा है-एक नर्मदा, एक कहां जा रही है उलटी; और नर्मदा भी कहे, मैं भी सागर की गंगा-लेकिन दोनों सागर में पहुंच जाते हैं! और सागर में तरफ जाती हूं, तुम्हें कुछ अड़चन हो गयी है... पहुंचकर दोनों सागर हो जाते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सवार हुआ। वह अपना बिस्तर भजन विधायक जीवन-दृष्टि है; दर्शन नकारात्मक 566 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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