SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म की मल भित्तिः अभय जो जाननेवाला है, वही आत्मा है; जो जाना जा रहा है वह तो अभी सोये हो। जागो! लेकिन फिर वह कहते हैं कि जागना भी आत्मा नहीं है। उस आत्मा का स्वभाव नहीं है। क्योंकि जब सोना उस आत्मा हम अपने शरीर को जानते हैं। पैर में चोट लग गई, दर्द हुआ, | का स्वभाव नहीं है तो जागना कैसे उस आत्मा का स्वभाव तो महावीर कहते हैं, चूंकि तुम जानते हो कि पैर में दर्द हुआ, होगा? जागना-सोना दोनों ही आत्मा के बाहर हैं। तो एक दिन इसलिए एक बात तो निश्चित हो गई कि तुम यह दर्द नहीं, तुम ऐसा अनुभव आना शुरू होता है कि तुम जागने और सोने के भी यह पैर नहीं। क्योंकि जाननेवाला हमेशा पार है; अतिक्रमण कर पार हो। तुम तो वह हो जो जानता है कि जागे अब, अब सोये। जाता है; ट्रांसेंडेंटल है। भूख लगी तो महावीर कहते हैं, एक सुबह जागकर तुम्हें पता चलता है कि अरे, जाग गये। तो तुम बात पक्की हो गई : तुम्हें पता चला भूख लगी; एक बात पक्की जागने से एक नहीं हो सकते। तुम्हें जागने का भी पता चलता है : हो गई कि तुम भूख नहीं हो। तुम तो वह हो जिसे पता चला, जाग गये! रातभर सोये रहे तो सुबह तुम कहते हो बड़ी गहरी जिसे प्रतीति हुई, जिसे अहसास हुआ कि भूख लगी, कि शरीर नींद आई! उसका भी तुम्हें पता है। नींद का भी पता है। कभी भूखा है कि रोटी की जरूरत है, कि प्यास लगी, पानी की जरूरत नींद ठीक नहीं आती तो सुबह कहते हो, बड़े व्याघात पड़े, है; कि गर्मी हो रही है कि पसीने की धारें बही जा रही हैं, कोई उच्छंखल थी रात, बड़े दुखस्वप्न चले, ऊबड़-खाबड़ रहा शीतल स्थान खोजू, कोई छाया खोजूं।। सब। शांति न मिली, चैन न मिला, थका-हारा उठा हूं, रात नींद जो भी तुम जानते हो, जानने के कारण ही वह 'पर' हो गया। ठीक से न आई! तो रात तुम नींद को भी जानते हो, सुबह उठकर ज्ञान प्रत्येक वस्तु को 'पर' बना देता है। ज्ञान-मात्र 'पर' का तुम जागने को भी जानते हो। तो निश्चित ही न तुम जागरण हो, है। तो आत्मज्ञान तो हो नहीं सकता। इस अर्थ में नहीं हो न तुम निद्रा हो। तुम तो जागने और निद्रा के पार सकता, जिस अर्थ में हम और चीजों का ज्ञान करते हैं। ज्ञायक-स्वरूप, ज्ञाता-स्वरूप आत्मा हो। आत्मा ज्ञायक है, ज्ञेय नहीं। सदा जाननेवाला है। इसलिए 'जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त।' जिन्हें आत्मा को खोजना है, उन्हें अपने भीतर निरंतर उस जगह लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से सोये हुए को हम कहते हैं, जागो पहुंचना चाहिए, जहां सिर्फ जाननेवाला ही शेष रह जाये और | अगर आत्मा को जानना हो। जब वह जाग जायेगा तो उससे जानने को कुछ न बचे। उसे महावीर 'समाधि' कहते हैं-जहां कहेंगे, अब जागने से भी जागो! संसारी को कहते हैं, संन्यास ले शुद्ध जानना रह जाये और जानने के लिए कोई जगह न हो; दीया लो! फिर संन्यासी को कहते हैं कि अब संन्यास भी छोड़ो! यह जलता हो, लेकिन प्रकाश उसका किसी पर पड़ता न हो। दीया | तो ऐसा ही है जैसे एक कांटा पैर में लगा, दूसरे कांटे से खींचकर जलता है अभी, दीवाल पर प्रकाश पड़ता है। तो दीया तो ज्ञाता उसे बाहर निकाल लिया; फिर दोनों ही कांटे फेंक देते हैं। हुआ, दीवाल ज्ञेय हो गई और दोनों के बीच जो संबंध जुड़ रहा है | बीमारी थी, औषधि ले ली; फिर बीमारी चली गई तो औषधि की वह ज्ञान हो गया। ऐसी कल्पना करो कि दीया शून्य में जलता | बोतल को कचरे-घर में फेंक देते हैं। तो जागरण की जो इतनी हो, कि दीये की ज्योति किसी पर न पड़ती हो-ऐसी चित्त की चेष्टा है, वह भी औषधि से ज्यादा नहीं है। बीमारी है, नींद में दशा का नाम, महावीर कहते हैं, समाधि है। जहां शुद्ध-बुद्ध, | पड़े हैं, सोये हैं-यह हमारी अवस्था है। इसे जगाने के लिए मात्र ज्ञायक-स्वरूप शेष रह गया; कोई जाननेवाली चीज औषधि है ध्यान, जागरण, विवेक। लेकिन जब जाग गये तब तो व्याघात उत्पन्न नहीं करती; कोई जाननेवाली चीज अशुद्धि उत्पन्न | यह भी पता चलता है कि हम तो जागने के भी पार हैं। यह सोना नहीं करती-अबाध-अनवरुद्ध चैतन्य का प्रवाह है; शुद्ध और जागना, यह भी शरीर और मन में ही हो रहा है। चैतन्य-मात्र है! इसलिए तो कृष्ण गीता में कहते हैं: या निशा सर्वभूतानां, 'आत्मा ज्ञायक है।' और ज्ञायक! 'जो ज्ञायक है वह न तस्यां जागर्ति संयमी! अप्रमत्त होता है न प्रमत्त।' | जब सारे लोग सोये हैं, तब भी संयमी जागता है। इसका क्या यह भी बड़ी विचार की बात है। क्योंकि महावीर कहते हैं, तुम अर्थ हुआ? क्या संयमी सोता नहीं? संयमी सोता है, लेकिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy