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________________ जिन सूत्र भाग : 1 Maasik हजार-हजार जगह जाएगा। बोलता हूं, बोलने में तुम्हारा मन कुछ संपदा होती है अनुभव की, तो आवाज अपने-आप उस उलझ गया, सुनने में लग गया; पर यह तो ऊपर-ऊपर की बात | अंदाज को पा लेती है जो दिल में घर कर जाता है। नहीं कि है, भीतर कुछ और हो रहा है। इधर तुम उलझे कि उधर मैंने इसका कोई अभ्यास है; नहीं कि इसकी कोई वक्तृत्व शैली है; तुम्हारे हृदय को टटोला। एक हाथ से तुम्हें खिलौना देता हूं, नहीं कि इसका कोई विधि-विधान है-नहीं, कुछ भी नहीं है। दूसरे हाथ से तुम्हारे हृदय को टटोल रहा हूं। जब तुम पाते हो सत्य को, तो सत्य का पाना ही इतना विराट है कभी-कभी...तुम्हारी आदतें पुरानी हैं, मजबूत हैं। आदतें ऐसी कि तुम्हारे हर शब्द में उसकी धुन, हर शब्द में उसका रस, हर हो गई हैं जड़ कि तुम खिलौने में उलझे भी रहते हो और फिर भी | शब्द में उसका संगीत और सुवास फैलने लगती है। हृदय को बांधे रहते हो, बंद रखते हो। कभी-कभी खुल जाता दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं है। उस घड़ी, मैं तम्हारे भीतर पहंच जाता है। उस घड़ी, मेरा हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं! और तुम्हारा होना मिट जाता है। उस घड़ी हम एक ही वातावरण आ जाती है। पहले उसे ले आओ जिसे प्रगट करना है। फिर के हिस्से हो जाते हैं। एक सागर की तरंगें! इसलिए स्वाभाविक प्रगट करने की आवाज अपने से आ जाती है। यही तो कवि और है कि उस क्षण कुछ हो जाए, जो किताब से न हो सकेगा। ऋषि में फर्क है। कवि आवाज की फिक्र करता है। कवि फिक्र फिर, जब तुम मेरे पास हो तो बोलना तो मेरे पास होने का एक | करता है वाहन की। ऋषि फिक्र करता है वाहक की। ऋषि फिक्र अंश मात्र है। पास होना बड़ी घटना है। सान्निध्य बड़ी घटना करता है विषय-वस्तु की। जब बोलने को कुछ हो तो बोलना है। निकट होना...तो मेरी तरंगें और तुम्हारी तरंगें एक आ जाता है। ऐसे बोलना आ जाए तो जरूरी नहीं है कि बोलने रासलीला में लीन होती हैं। तुम मेरे आसपास नाचते हो, मैं को कुछ हो। बोलना तो सभी को आता है। बोलने मात्र से पता तुम्हारे आसपास नाचता हूँ। कुछ घटता है, जो खाली आंखों से नहीं चलता कि कुछ बोलने को तुम्हारे पास है। बोलते तो तुम नहीं देखा जा सकता। कुछ घटता है, चर्म-चक्षु उसे नहीं देख चौबीस घंटे हो-बिना कुछ हुए। कुछ भी नहीं देने को, फिर भी पाते! कुछ अदृश्य में घटता है! बोले जाते हो। उसी को तो हम बड़बड़ कहते हैं, बकबक कहते तुम दृश्य ही तो नहीं हो। मैं जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा हूं, उसी | हैं। बड़बड़ का इतना ही अर्थ है कि कुछ है नहीं बोलने को, पर तो सीमित नहीं हूं। तुम्हें अपने अदृश्य का पता नहीं है, मुझे लेकिन बोले चले जाते हो; क्या करें, चप होने की आदत नहीं मेरे अदृश्य का पता है। इसलिए मैं तुम्हारे अदृश्य को भी है! क्या करें, चुप होना भारी पड़ता है, बोले चले जाते हैं! पुकारता हूँ। तुम्हारा अदृश्य भी बाहर आ जाता है। एक नृत्य | लेकिन फिर एक और बोलना भी है, जब तुम्हारे पास कछ देने शुरू होता है। उस नृत्य में ही तुम्हारे हृदय में कुछ फूल खिलते को होता है। वाणी वाहन बनती है। वाणी घोड़ा बनती है। हैं, कमल खिलते हैं। __ तो जो शब्द मैं तुम्हारे पास पहुंचा रहा हूं, वे तो घोड़ों की भांति यह सवाल बोलने का ही नहीं है। और यह जो मैं बोल रहा हूं, हैं; उन पर बैठा सवार भी कभी-कभी तुम्हें दिखायी पड़ जाता ये कोरे शब्द नहीं हैं: ये किसी गहन अनुभव में डूबकर आए हैं; है। वही तम्हारे हृदय को पकड़ लेता है। वही तम्हें मंथन में डबा ये किसी गहन अनुभव से सिक्त हैं, किसी गहन अनुभव में पगे देता है। हैं। यह कोई शब्दों का काव्य नहीं है, जीवन का काव्य है। कवि किताब से यह न हो सकेगा; लेकिन किताब से भी हो सकता कहते हैं: है, अगर तुम धीरे-धीरे मुझे सुनने में समर्थ हो जाओ। इसलिए दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं | मैंने कहा है लोगों को कि मैं जैसा बोलता हं वैसी ही किताबें रहें. हो असर जिसमें वह आवाज कहां से लाऊं! उनमें जरा भी फर्क न किया जाए। उनको बदला न जाए; क्योंकि ऋषि यह कहते नहीं। आवाज सहज आती है, जो दिल में घर लिखने का ढंग और होता है, बोलने को ढंग और होता है। बोला कर जाती है। हुआ शब्द अलग बात है, लिखा हुआ शब्द अलग बात है। तो दिल में घर करने के अंदाज कहां से लाऊं! जब तुम्हारे पास मैंने कहा है कि जैसा मैं बोलता हूं, वैसा ही लिखे में हो; ताकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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