SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हला प्रश्नः न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चलो, उन्हीं आकांक्षाओं को प्रभु के मार्ग पर सफल कर लेंगे! चला गया! चाहता था योग से शक्ति, यहां | तो फिर तुम्हें असफलता हाथ लगेगी। और भी गहन असफलता समझने को मिली शांति। चाहता था धर्म से | हाथ लगेगी! जैसे संसार के मार्ग पर लगी, उससे भी ज्यादा! प्रभुता, यहां समझने को मिली शून्यता। कुछ निर्णय नहीं कर | तुम उजड़े-उजड़े हो जाओगे! लेकिन कारण धर्म का पथ नहीं पाता हूं। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। यह यात्रा न मालूम कहां है; कारण तुम्हारी गलत आकांक्षा है। । पुराना विश्वास बिखर चुका है, नये का जन्म | जब कोई चाहता है शक्ति मिल जाये, तो किसके खिलाफ नहीं हो रहा। अब न पीछे जा सकता हूं और न आगे ही बढ़ चाहता है? क्योंकि शक्ति तो सदा किसी के खिलाफ होती है। पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन दें! शक्ति का अर्थ ही हिंसा है। शक्ति हम चाहते ही इसीलिए हैं कि किसी दूसरे से बलशाली धर्म की खोज में निकलनेवाले लोग अकसर किसी और चीज हो जायें, कि किसी दूसरे की छाती पर बैठ जायें, कि किसी दूसरे की खोज में निकलते हैं-उस खोज को धर्म का नाम दे देते हैं। को दबा लें, कि किसी दूसरे को छोटा कर दें। शक्ति का अर्थ ही शक्ति की खोज धर्म की खोज नहीं है। शक्ति की खोज तो महत्वाकांक्षा है। वह अहंकार का ज्वर है। अहंकार की ही खोज है। शक्तिशाली होने की आकांक्षा धर्म तो शांति की खोज है। शांति का अर्थ है : शक्ति की खोज धर्म-विरोधी है। | व्यर्थ है, इस बात का बोध; और शक्ति की खोज से मैं सदा लेकिन अधिक लोग धर्म की यात्रा पर किन्हीं गलत कारणों से बीमार रहूंगा, स्वस्थ न हो पाऊंगा। निकलते हैं; जो संसार में नहीं मिल सका, उसी को खोजने शांति की खोज बिलकुल विपरीत है। शांति की खोज का अर्थ परमात्मा में जाते हैं। | है: मैं इस 'मैं' को भी गिराता है, जिसमें शक्ति की आकांक्षा जो संसार में नहीं मिल सका, उसे खोजने परमात्मा में मत पैदा होती है; मैं इस बीज को दग्ध करता हूं। इसने मुझे जाना। क्योंकि जो संसार में ही नहीं है, वह परमात्मा में तो हो ही तड़फाया, जन्मों-जन्मों तक भटकाया। नहीं सकता। जिसे तुम संसार में न पा सके, उसे तो समझ लेना बुद्ध ने, जब उन्हें परम ज्ञान हुआ तो आकाश की तरफ आंखें कि पाने का कोई उपाय ही नहीं है। उठाकर कहा, 'हे गृहकारक! हे तृष्णा के गृहकारक! अब तुझे लेकिन स्वाभाविक है। संसार में हम जीये हैं अब तक | मेरे लिए और कोई घर न बनाना पड़ेगा। बहुत तूने घर बनाए मेरे जन्मों-जन्मों तक। वही एक भाषा परिचित है-पद की, धन लिए, लेकिन अब मैं आखिरी जाल से मुक्त हो गया हूं। अब की, प्रभुता की, शक्ति की। संसार असफल हुआ तो सोचते हैं और मेरे लिए जन्म न होंगे।' 557 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy