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________________ veer वासना ढपोरशंख है तुमने कहानी सुनी है पुरानी? एक चोर भागा। उसके पीछे अहिंसा है। लेकिन महावीर एक-एक शब्द को बहुत सोचकर लोग लगे थे। उसे कोई भागने का, बचने का उपाय नहीं दिखाई बोले हैं, तुम्हारी तरफ देखकर बोले हैं। क्योंकि प्रेम के साथ पड़ा। वह एक नदी के किनारे पहुंचा। वहां कुछ राख का ढेर | तुम्हारा पुराना एसोसिएशन है, पुराना संबंध है। तुमने प्रेम से पड़ा था। उसने जल्दी से कपड़े उतारकर तो फेंके नदी में, नग्न हो अब तक जो मतलब समझे हैं वे राग के हैं, काम के हैं। तुम्हारे गया, डुबकी मारी, राख ऊपर से डाल ली और झाड़ के नीचे लिए प्रेम का एक ही मतलब होता है: वासना। तुमने प्रेम का आंख बंदकर के बैठ गया। पद्मासन लगा लिया। पकड़नेवाले दूसरा गहनतम अर्थ नहीं जाना। आ गये, कोई वहां दिखाई नहीं पड़ता-एक साधु महाराज। प्रेम का वास्तविक अर्थ होता है। इतने स्वस्थ हो जाना कि तुम उन्होंने सबने पैर छुए। चोर ने कहा, 'अरे हद्द हो गई! मैं झूठा न किसी को दुख पहुंचाना चाहते हो, न स्वयं को दुख पहुंचाना साधु हूं और मेरे लोग पैर छू रहे हैं।' लेकिन एक झटका लगा चाहते हो। तुम अपने को भी प्रेम करते हो, दूसरे को भी प्रेम कि काश! मैं सच्चा होता तो क्या न हो जाता! लेकिन उस करते हो। और यह प्रेम अब कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी दशा है। झटके में क्रांति हो गई। लोग तो चले गए पैर छूकर, लेकिन वह कोई न भी हो तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम फैलता रहता है। जैसे सदा के लिए साधु हो गया। उसने कहा, जब झूठे तक को, जब अकेले में खिले विजन में फूल, तो भी तो सुगंध बिखरती रहती झूठी साधुता तक को ऐसा सम्मान मिल गया, जब झूठे में ऐसा है। दीया जले अकेले अंधकार में, अमावस की रात में, तो भी रस, तो सच्चे की तो कहना क्या! तो प्रकाश फैलता रहता है। दीया यह थोड़े ही सोचता है कि कोई स्मरण के साधन हैं। गैरिक वस्त्र है तुम्हारा, किसी को मारने यहां है ही नहीं, तो फायदा क्या! फूल यह थोड़े ही सोचता है, के लिए हाथ उठने लगेगा तो अपना गैरिक वस्त्र भी दिखाई पड़ इस रास्ते से कोई गजरता ही नहीं, कोई नासापट आएंगे ही नहीं जायेगा। बस उतना ही काफी होगा। हाथ को नीचे छोड़ देना। यहां, तो किसके लिए गंध बिखेरूं! छोड़ो, क्या सार है। ऐसे ही शराब का प्याला हाथ में उठा लो, पास लाने लगो, तो गैरिक | प्रेम को जो उपलब्ध है, वह यह थोड़े ही सोचता है कि कोई लेगा वस्त्र दिखाई पड़ जायेगा। फिर हाथ को वहीं वापिस लौटा देना। तब दं, या किसी खास को दूं। प्रेम उसका स्वभाव है। धीरे-धीरे तुम पाओगे, एक नए बोध की दशा तुम्हारे भीतर सघन | लेकिन महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। उस शब्द होने लगी, जो पुरानी आदतों को काट देगी। के कारण उन्होंने पुरानी एक भ्रांति से बचाना चाहा आदमी को, "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल ताकि लोग उनके ही प्रेम को न समझ लें कि महावीर उन्हीं के प्रेम कुछ भी नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।' का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन एक दूसरी भ्रांति शुरू हो गयी। इसलिए महावीर ने अहिंसा को परम धर्म कहा है। आकाश से आदमी इतना उलझा हुआ है कि तुम उसे बचा नहीं सकते। तब विशाल, मेरुओं से भी ऊंचा! अहिंसा शब्द के साथ एक नयी भ्रांति शुरू हो गयी। 'अहिंसा' शब्द सोचने जैसा है। महावीर ने प्रेम शब्द का अब जैन मुनि हैं, उनके जीवन में प्रेम दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उपयोग नहीं किया, यद्यपि ज्यादा उचित होता कि वे प्रेम शब्द का उनने अहिंसा का ठीक-ठीक मतलब ले लिया, हिंसा नहीं उपयोग करते। लेकिन उन्होंने किया नहीं। उनके न करने के पीछे करनी; तो नकारात्मक, विधायक कुछ भी नहीं, पाजिटिव कुछ कारण हैं। क्योंकि प्रेम शब्द से तुम कुछ समझे बैठे हो जो कि भी नहीं। चींटी नहीं मारनी, मगर चींटी के प्रति कोई प्रेम नहीं है। बिलकुल गलत है। उसी शब्द का उपयोग करने से कहीं ऐसा न चींटी नहीं मारनी, क्योंकि मारने से नर्क जाना पड़ता है। यह तो हो, महावीर को डर रहा, कि तुम अपना ही प्रेम समझ लो कि लोभ ही हुआ। किसी को नहीं मारना, किसी को गाली नहीं देना, तुम्हारे ही प्रेम की बात हो रही है। तो महावीर को एक क्योंकि गाली देने से मोक्ष खोता है। यह तो लोभ ही हुआ, प्रेम नकारात्मक शब्द उपयोग करना पड़ा: अहिंसा; हिंसा नहीं। नहीं। इस फर्क को समझना। लेकिन महावीर का मतलब प्रेम से है। सूफी जिसको 'इश्क' तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा का महावीर का कहते हैं, जीसस ने जिसको प्रेम कहा है—वही महावीर की अर्थ है : प्रेम। तुम्हारा प्रेम नहीं; क्योंकि एक और प्रेम है। 291 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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