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________________ - जिन सूत्र भागः1 शाहा हारे के साथ कौन होता है! ऊगते सूरज के सभी साथी हैं, डूबते अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में सूरज का कौन साथी है! कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए। लेकिन भीड़ का राज क्या है? तुम भीड़ से इतने आंदोलित -उड़ान की ऐसी चाह, उड़ान की कम से कम ऐसी क्यों होते हो? सारे दुनिया के धर्म अपनी भीड़ को बढ़ाने के | अभीप्सा, कि आकाश से भी पार हो जायें! लिए इतने पागल क्यों रहते हैं? क्योंकि भीड़ है तो और भीड़ को __ यह शरीर तो मिट्टी से बना है। इससे तो पार होना ही है। ये आकर्षित करने का उपाय है। जितनी बड़ी भीड़ है उतनी भीड़ को वचन, ये शब्द ये भी मिट्टी के ही सूक्ष्म अणु-परमाणु हैं, इनसे आकर्षित करने का उपाय है। हिंदू अगर बीस करोड़ हैं, भी मुक्त होना है। यह मन, यह तो मन इस शरीर और वाणी का मुसलमान अगर साठ करोड़ हैं या ईसाई अगर एक अरब हैं, तो ही कोषागार है, संचित परमाणु हैं-इससे भी मुक्त होना है। स्वभावतः यह भीड़ सारे जगत के मन को आंदोलित करती है। वहीं अंतआकाश शुरू होता है। और आकाश से भी आगे यह भीड़ परमाणु फेंकती है। निकल जायें, वहीं परमात्मा है-जहां यह भी पता नहीं रहता कि ध्यान रखना, भीड़ से सावधान रहना। क्योंकि जब तुम भीड़ | मैं आत्मा हूं, जहां सिर्फ आत्मा ही रह जाती है, मैं बिलकल गिर से प्रभावित होते हो, तब तुम अपने ही मन से प्रभावित हो रहे | जाता है...। हो-और तुम्हारा मन तुम्हें तरंगित कर रहा है। __ अब इसे थोड़ा समझना। हम कहते हैं, मेरा शरीर, मेरा मन, शरीर, वचन, मन–तीनों से पार साक्षी-भाव में ठहरना है। मेरे विचार-'मेरा'। पहले 'मेरा' को गिराना है। फिर हम और जो साक्षी-भाव में ठहरता है, वही परमात्मा का अनुभव कर कहेंगे, 'मैं', आत्मा। फिर 'मैं' को गिराना है। जब 'मेरा' पाता है। गिरता है तो आत्मा प्रगट होती है। जब 'मैं' भी गिरता है तो इलाही! वह नज़र दे आशियां तक हो, कफस जिसको परमात्मा प्रगट होता है। न ऐसी कम निगाही, जो कफस को आशियां समझे।। __'आत्मा; मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित, हे प्रभु! ऐसी आंख दे कि घर भी जेलखाना मालूम पड़े। ऐसी निर्द्वद्व-अकेला, निर्मम ममत्वरहित, निष्कल-शरीर ओछी आंख मत दे देना कि जेलखाना भी घर मालूम पड़ने लगे। रहित, निरालंब–परद्रव्यआलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, अभी तो जेलखाना घर मालूम पड़ता है। अभी तो तुम अपने मोह-रहित तथा निर्भय है।' शरीर को अपना जीवन समझे हो। यह तुम्हारा कारागृह है। वर्णन, यह कोई परिभाषा नहीं है। यह कोई व्याख्या नहीं है। अभी तो तुम अपनी भाषा की कुशलता को अपनी सामर्थ्य समझे ऐसा महावीर का अनुभव है। वे इसे कह देते हैं बड़े सूक्ष्म में। हो। यह तुम्हारी गुलामी है। अभी तो तुमने मन को अपना बल | 'मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित...।' समझा है। जहां न मन रह गया, न वचन रह गया, न काया रह गई। जहां मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, मन की शक्ति कैसे बढ़े, शरीर बहुत दूर छुट गया, विचार की तरंगें बहुत दूर छुट गईं। यह बताएं! मन की शक्ति बढ़ानी है कि मन से मुक्त होना है ? | जहां मन भी बहुत पीछे छूट गया। जहां इन सबसे तुम पार चले वे कहते हैं, संकल्प थोड़ा कम है। विल पावर चाहिए! | आये। जहां इन सबसे भीतर चले गये। जहां तुमने अंतरगृह में विल पावर, संकल्प की शक्ति तो मन को ही बढ़ायेगी। प्रवेश किया। मंदिर की दीवालें दूर छूट गईं। जिसमें तुम मन से दूर होकर जो मिलता है वह आत्मबल है। मन से जो आवास बनाये हुए हो, वह सब दूर छूट गया। अब तुम वहां आ मिलता है वह कोई बल नहीं है; वह तो तुम्हारी निर्बलता है। वह | गये, जहां अंतर्तम है, जहां अंतर्तम का शून्य-गह है, शून्याकाश तो धोखा है। है। तो निर्दूद्व। उस घड़ी में दो नहीं बचते, एक बचता है। अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में उपनिषदों में कथा है: एक जिज्ञासु ने याज्ञवल्क्य से पूछा, कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए। 'कितने देवता हैं?' याज्ञवल्क्य ने कहा, 'शास्त्र कहते हैं आकाश से भी आगे जाना है! तैंतीस हजार।' उस जिज्ञासु ने कहा, 'यह थोड़ा बहुत ज्यादा हो 3781 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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