SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'अहो ! माया की गांठ कितनी सुदृढ़ होती है !' सब लोग जानते हुए मालूम पड़ते हैं। सब लोग सोचते हुए मालूम पड़ते हैं। यहां बुद्धिहीन खोजना तो बहुत मुश्किल है, सभी बुद्धिमान हैं। फिर भी जब माया पकड़ती है तो सभी उसकी पकड़ में आ जाते हैं, गांठ बड़ी सुदृढ़ मालूम होती है। और गांठ कहीं इतने गहरे है ! तुम जहां हो अभी वहां से कहीं ज्यादा गहरी तुम्हारी गांठ है। जब तुम गांठ से ज्यादा गहरे हो जाओगे तभी गांठ खुल जाएगी। इसलिए असली सवाल भीतर यात्रा का है। अपनी गहराई से गहराई खोजनी है। तुम जिस चीज के ज्यादा गहरे उतर गये, उससे ही मुक्त हो गये। अहो ! संसार दुख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं।' ! शांति की तुमने कहीं कोई तैयारी होते देखी ? कोई शांति की कहीं तैयारी नहीं होती। शांति की लोग सिर्फ बात करते हैं, शांति चाहिए ! युद्ध की तैयारी करते हैं। ध्यान रखना, जिसकी तैयारी करते हैं वही चाहते हैं। अगर शांति चाहते होते तो कुछ शांति पर 'जन्म दुख है, बुढ़ापा दुख है, रोग दुख है, मृत्यु दुख है। भी खर्च करते, शांति की सेनाएं खड़ी करते, लोगों को शांति प्रशिक्षण देते। लेकिन वैसा तो कहीं कुछ नहीं होता । सब प्रशिक्षण युद्ध का है। सब प्रशिक्षण लड़ने, मरने मारने का है। और कौन कितना कुशल है मारने में, उसकी दौड़ है। अमरीका है, रूस है, चीन है— नीचे तो अणु-बम के ढेर लगाये चले जाते हैं, ऊपर से शांति - कांफ्रेंस करते चले जाते हैं। वह जो शांति-कांफ्रेंस है, वह उस ढेर को छुपाने की तरकीब है; वह तंबू है शांति का, जिसके अंदर बम छिप जाएंगे और पता भी न चलेगा। आदमी ऐसा धोखेबाज है ! और ऐसा राज्यों के संबंध में ही नहीं है, सभी के संबंध में यही है। तुमने कभी खयाल किया, तुम जो कहते हो उससे तुम्हारा जीवन बिलकुल विपरीत है! और अगर ऐसा ही चलते जाना है तो कृपा करो, कहना बंद करो। क्योंकि कहने से क्या सार है ? क्यों उतनी शक्ति व्यय करते हो? व्यर्थ कबूतर मत उड़ाओ । उतना पैसा और बम बनाने में लगा दो! कम से कम सफाई तो हो, सचाई तो हो, सीधी-सीधी बात तो हो । 'जन्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा या मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ की संति जंतवो ।।' आश्चर्य है, महावीर कहते हैं, सब दुख है, फिर भी लोग पकड़े हैं। दुख ही दुख है, फिर भी लोग छोड़ते नहीं । मूर्च्छा बड़ी गहरी होगी। इसलिए कहते हैं, आश्चर्य है। लोग अपने ही पैरों से कारागृह में चले आ हैं, आश्चर्य! लोग अपने ही हाथों से | अपनी जंजीरें ढाल रहे हैं, आश्चर्य ! और लोग रोते भी हैं, | चिल्लाते भी हैं कि मुक्त होना है, कि आनंदित होना है। और जो करते हैं, वह बिलकुल विपरीत है। जो करते हैं उससे बंधन निर्मित होता है। तो लोग जो कहते हैं, उस पर मत ध्यान देना; लोग जो करते हैं, उस पर ध्यान देना । लोग क्या कहते हैं, यह तो छोड़ ही | देना। अकसर तो ऐसा है, लोग उलटा ही कहते हैं। उसका भी कारण समझ लेना चाहिए। लोग उलटा कहते हैं, क्योंकि उस तरह से वे अपने को संतोष बंधाए रखते हैं। अपने हाथों से तो वे | बनाते जाते हैं कारागृह और अपनी वाणी से गीत गाते रहते हैं स्वतंत्रता का । यह स्वतंत्रता कारागृह के मिटाने के काम नहीं | आती। यह स्वतंत्रता की बातचीत कारागृह को बनाने में सुविधापूर्ण है। कारागृह भी बनता जाता है, स्वतंत्रता की बात भी चलती चली जाती है। तुम देखते हो, दुनिया में सब तरफ ऐसा होता है ! राजनीतिज्ञ शांति की बात करते हैं, युद्ध की तैयारी करते हैं। सारे राजनीतिज्ञ | कबूतर उड़ाते हैं शांति के - शांति - कपोत ! और हर राज्य अपनी Jain Education International बोध गहन बोध-मुक्ति है संपत्ति का साठ, सत्तर, अस्सी प्रतिशत युद्ध की तैयारी पर खर्च करता है। कबूतर भी उड़ाये चले जाते हैं, अणु-बम भी बनाये चले जाते हैं। किसको सच मानें? यह जो शांति की चर्चा है, यह युद्ध को करने में सहायता देती है। यह विपरीत नहीं है। अगर यह विपरीत होती और ये कबूतर सच्चे होते, तो कोई कारण न था, लोग क्यों युद्ध के लिए तैयारियां करें। अब तक जितने युद्ध हुए दुनिया में, थोड़े नहीं हुए, कोई तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध हुए हैं। जितने युद्ध हुए वे सभी युद्ध इसीलिए हुए कि दुनिया में शांति होनी चाहिए। इससे तो बेहतर है, शांति की बकवास बंद करो। अगर शांति के लिए पांच हजार युद्ध करने पड़े तीन हजार सालों में तो छोड़ो यह शांति काम की नहीं है, यह तो बड़ी खतरनाक है, बड़ी महंगी है। सारी दुनिया के राज्य अपने युद्ध के इंतजाम का नाम – देखा, 'सुरक्षा मंत्रालय', 'डिफेंस' कहते हैं ! सब अटैक करते हैं और सब डिफेंस कहते हैं । सब आक्रामक हैं, लेकिन किसी For Private & Personal Use Only 55 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy