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________________ WEEK मोक्ष का द्वार : सम्यक दष्टि AUTA कि हम आंखों को नहीं मानते और हम मानते हैं कि आंखें सब अब न करेंगे। कहते हो कि क्रोध जलाता है। कहते हो कि क्रोध झूठ हैं। तो इसको इस झूठ का खयाल छोड़ना पड़ेगा। इसको जहर है, लेकिन ये शब्द उधार हैं। ये सब शास्त्र से सुने हैं। ये यह खयाल छोड़ना पड़ेगा कि यह आंखवाला है। और जो उसमें किन्हीं जाननेवालों ने कहे होंगे, लेकिन यह तुमने जाना नहीं है। बहुत उत्साही थे, उन्होंने कहा कि इसकी आंख का आपरेशन कर क्योंकि तुम जान लो तो जैसे आग में कोई जल जाये, तो दुबारा दें। यह जहां बताता है, आंखें हैं, उनको निकालकर अलग कर हाथ नहीं डालता-ऐसे ही तुम दुबारा क्रोध न करते। लेकिन दें; ठीक हम जैसा हो जायेगा। तुम दुबारा फिर क्रोध करते हो। बड़ी मुश्किल में पड़ गया वह आंखवाला आदमी। युवती से वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम मुझको प्रेम भी था तो आधा मन वहां खिंचा। फिर आंखें खो देना और आप जाना उधर और आप ही हैरा होना। आंखों के साथ सारा रंग, सूरज के सारे खेल, चांद-तारों की पूरी अजीब चक्कर है! लेकिन अगर समझो तो एक सूत्र है जिससे दुनिया-यह दांव बड़ा था। एक रात वह भाग खड़ा हुआ। सारी बात साफ हो जाती है: तुम कान से जीये हो अब तक, दूसरे दिन सुबह वह उसकी आंख की शल्यक्रिया करनेवाले थे। आंख से नहीं जीये। 'कानों सुनी सो झूठ सब।' कान से सत्य वह वहां से भाग निकला क्योंकि यह बड़ी कीमत हो जायेगी। मिलता ही नहीं-आंख से मिलता है। इसलिए तो हमने सत्य प्रेम तो फिर भी हो सकता है। आंख फिर कहां से लाऊंगा? और की खोज को दर्शन कहा है। वह आंख की र एक बार अंधा हो गया तो सदा के लिए अंधा हो गया। और इस जिन्होंने खोज लिया है उनको हमने द्रष्टा कहा है: आंख मिल सृष्टि को जिसने एक बार आंख से देख लिया, फिर बिना आंख गयी! अगर कान से मिलता होता सत्य तो हम दर्शन न कहते, के बहुत फीकी हो जायेगी; फिर जीने जैसी न रह जायेगी। श्रवण कहते। अगर कान से मिलता होता सत्य तो जो पा लेते वस्तुतः सचाई तो यह थी कि उस स्त्री के प्रेम में भी वह आंखों के उनको हम श्रोता कहते, द्रष्टा न कहते। सत्य का कुछ संबंध कारण पड़ा था। वह उसका रूप, उसका रंग, उसके नक्श उसे साक्षात्कार से है। कान को तो धोखे दिये जा सकते हैं, आंख को भा गये थे। तो जिन आंखों के कारण वह स्त्री को खोज पाया धोखे नहीं दिये जा सकते। और जिस आंख की हम बात कर रहे था, उन्हीं आंखों को गंवा दे, यह उसकी समझ में न आया। वह हैं वह इन बाहर की आंखों की ही बात नहीं, भीतर की आंख की भाग खड़ा हुआ। बात है। वहां एक जागरूकता का पुंज चाहिए-ऐसा सघनीभूत महावीर जैसे व्यक्ति अंधों की बस्ती में पड़ जाते हैं। लेकिन कि उस सघनीभूत जागरूकता से तुम्हें दिखायी पड़ने लगे। वह आंखों की शल्यक्रिया करवाने को वे राजी न होंगे। तुम्हारे भीतर की रोशनी बन जाये! इसलिए महावीर कहते हैं, 'चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि तो नत्थि जागरतो भयम्!-बुद्ध ने धम्मपद में कहा है, जागे हुए सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त को भय नहीं। सब भय सोये हुए को है। नहीं कर पाते।' ऋग्वेद में एक बड़ा बहुमूल्य सूत्र है : भूत्यै जागरणम्। अभूत्यै जरा अपनी तरफ गौर करो, कैसी तुम्हारी हालत है! स्वप्नम्। जागने से उन्नति; सोने से, स्वप्न से अवनति! वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम मुझको जिसको महावीर सम्यक दृष्टि कहते हैं उसका अर्थ है : जागा आप जाना उधर और आप ही हैरां होना। हुआ, देखता हुआ, आंखवाला। तुम जीवन को देखने में लगो। -हाय रे आकांक्षाओं का चक्कर कि अपने-आप उधर जाता शास्त्रों के पढ़ने से यह न होगा; तुम जीवन के शास्त्र को देखने हूं और अपने-आप भ्रमों को खड़ा कर लेता हूं! अपने-आप में लगो। जीवन में जो भी है उसके संबंध में धारणाएं मत जाता हूं उधर और अपने-आप भटकता हं! बनाओ; पहचान बनाओ। क्रोध है तो क्रोध को देखो। घृणा है और हर बार तय कर लेते हो तुम कि अब न करेंगे यह भूल, तो घृणा को देखो। प्रेम है तो प्रेम को देखो। मोह है तो मोह को लेकिन वह तय किया काम नहीं आता। क्योंकि दृष्टि तो पास देखो। लोभ है तो लोभ को देखो। जल्दबाजी में मत पड़ो। नहीं। भूल, भूल दिखायी कहां पड़ती है? कहते हो कि क्रोध । चरित्र की चेष्टा करनेवाला बड़ा जल्दबाज है। वह लोभ को 633 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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