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________________ बुद्धि के आदमी रहे होंगे। तुम सुनकर समझ गये। महावीर को इसलिए मैं किसी मान्यता को कैसे पकडूं? मैं कैसे कहूं कि क्या बारह वर्ष लगे, कठोर तपश्चर्या के, गहन संघर्ष के, रत्ती-रत्ती ठीक है? मुझे कुछ भी पता नहीं है। अपने को छांटा और काटा और जलाया, निखारा, जब तो ऐसा जो अज्ञान में खड़ा हो जाता है शांत चित्त से, जबर्दस्ती अंतरज्योति पूरी शुद्ध हो गयी तब उन्हें यह समझ पैदा हुई। ज्ञान को नहीं पकड़ लेता, छिपाता नहीं ज्ञान के आवरण में अपने तुम्हारा धुएं से भरा हुआ मन, ईंधन गीला, लपट कहीं दिखायी | को, ज्ञान के वस्त्रों में अपने को ढांकता नहीं, जो अपने अज्ञान नहीं पड़ती, बस धुआं ही धुआं फैलता मालूम होता है-इसमें ये को स्वीकार कर लेता है-वही व्यक्ति ज्ञान की तरफ पहला शब्द तुम्हें याद हो सकते हैं। बहुत से पंडितों को याद हैं। इन कदम उठाता है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। ज्ञान की तरफ शब्दों को तुम तोते की तरह कंठस्थ कर ले सकते हो। उस पहला कदम अपने अज्ञान के साथ ईमानदारी से खड़े हो जाना याददाश्त को तुम प्रज्ञा मत समझ लेना। है। हम में से बहुत कम लोग ही ईमानदारी से खड़े होते हैं अज्ञान तो दो बातें स्मरण रखना : समझ में न आयें तो इनकार मत के साथ। अज्ञान को स्वीकार करने में अहंकार को चोट लगती करना; और समझ में आ जायें तो भी वहीं मत रुक जाना। इन है। अहंकार चाहता है दावा करना कि मैं जानता हूं। तो हम दोनों के बीच में मार्ग है। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने शास्त्र से, परंपरा से, अन्यों से, शिक्षकों से, गुरुओं से, कहीं न योग्य है। इतना ज्यादा भी समझ में न आ जाये कि पा लिया। कहीं से इकट्ठा कर लेते हैं ज्ञान।। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने योग्य है। प्यास जग जाये तुम्हारा ज्ञान सभी कुछ नय-पक्ष है। वह तुमने इकट्ठा किया है, और यात्रा शुरू हो जाये। तो किसी दिन अनुभव भी घटेगा। तुम जाना नहीं है। पक्षपात से भरे हो तुम। हर चीज के संबंध में भी उड़ोगे उन आकाश की ऊंचाइयों में। तुम्हें भी पंख लगेंगे! तुमने कुछ तय कर लिया है। तुम तय करके बैठे हो। तुम तय 'जो सब नय-पक्षों से रहित है, वही समयसार है। उसी को करके बैठे हो, इसलिए तुम्हारी आंख खाली नहीं है: पक्ष से सम्यक दर्शन और सम्यकज्ञान की संज्ञा दी है।' आंख दबी है। पक्ष की कंकड़ी तुम्हारी आंख में पड़ी है। तो सम्मदंसणणाणं, ऐसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। कंकड़ी जब आंख में पड़ी हो तो फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता। सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।। महावीर कहते हैं, आंख खाली चाहिए, निर्मल चाहिए! आंख 'सव्वणयपक्खरहिदो'-जिसका मन सभी पक्षों से रहित है, ऐसी चाहिए कि सिर्फ देखती हो और आंख में कछ न पड़ा हो। जो सब नय-पक्षों से शून्य है, वही समयसार है। समयसार का क्योंकि अगर आंख में कुछ भी पड़ा हो तो जो तुम देखोगे वह अर्थ होता है : वही आत्मा की सार स्थिति है। वही अस्तित्व का विकृत हो जायेगा। निचोड़ है। वहीं तुम हो, वहीं तुम्हारी आत्मा है जहां न कोई सोचो...अगर तम जैन हो, पढ़ो गीता-तम्हें समझ में आ नय है, न कोई पक्ष है। इसे समझें। जायेगा। तुम गीता पढ़ ही न पाओगे, तुम्हें रस ही न आयेगा। साधारणतः तो हम नय-पक्षों से भरे हैं। कोई हिंदू है, कोई घड़ी-घड़ी तुम्हारा जैन धर्म बीच में खड़ा हो जायेगा। तुम्हें ऐसा मुसलमान है, कोई ईसाई है। जब तक तुम हिंदू हो, जैन हो, लगेगा, ये कृष्ण तो अर्जुन को भ्रष्ट करने लगे। ऐसा तुम कहो ईसाई हो, तब तक तुम्हें समयसार का पता न चलेगा। आत्मा का या न कहो, तुम्हारे भीतर यह पक्ष खड़ा रहेगा। आज तक किसी रस तुम्हें उपलब्ध न होगा। क्योंकि आत्मा न हिंदू, न मुसलमान, जैन ने गीता पर कोई वक्तव्य नहीं दिया, कोई महत्वपूर्ण बात न जैन है। | नहीं कही। गीता को किनारे हटा दिया है। जब तक तुम कहते हो, 'मेरी ऐसी मान्यता है, तब तक तुम हिंदु से कहो कि महावीर के वचन सुने, पढ़े? पढ़ भी ले तो सत्य को न जान सकोगे, क्योंकि सभी मान्यताएं सत्य को जानने मुर्दा भाव से पढ़ जायेगा। क्योंकि भीतर तो वह जानता ही है कि में बाधा बन जाती हैं। मान्यता का अर्थ है कि बिना जाने तुम सब गलत है। हिंदू से कहो कुरान को पढ़े, तो भीतर तो वह जानते हो। तो जिसने बिना जाने जान लिया है, वह जान कैसे मानता ही है कि क्या रखा है! कहां वेद, कहां उपनिषद ! क्या सकेगा फिर? मान्यता-शून्य होने का अर्थ है : मुझे पता नहीं; रखा है कुरान में? वही कुरान के माननेवाले की स्थिति है। वही AMAVACAR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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