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________________ अध्यात्म प्रक्रिया हे जागरण की क्योंकि तुम भी तो खिलो! अगर देने से ही लोग खिलते हैं तो | मोतियों का हार मुझे पहनाकर वे अति प्रसन्न हो लिया। वह तुम भी तो खिलो! कोई छोटी-मोटी चीज। चीजों के मूल्यों का बार-बार मुझे धन्यवाद देने लगा कि मैं डरा हुआ था कि कहीं कोई सवाल नहीं है। कोई तुमसे इतना ही कह दे कि वह जो आप भी मना न कर दें। मैंने कहा, मैं किसी भी तरफ से कंजूस पत्थर पड़ा है, मेरे लिए उठाकर ला दो, और तुम्हें धन्यवाद दे दे, नहीं हूं। जो मेरे पास है, तुम्हें देता हूँ; जो तुम्हारे पास है, लेने को तो भी तुम भर जाओगे। क्योंकि जब भी तुम कुछ दे पाते हो, हमेशा तैयार हूं। यह बात तो जरा गलत है और अहंकार की है तभी तुम्हारी आत्मा भरती है और खिलती है। कि मैं सिर्फ दंगा, लंगा नहीं। मैं और लं। मैं और इतना छोटा हो तो मैं तुम्हारी एक भ्रांति को स्पष्ट कर देना चाहता हूं। प्रेम जाऊं कि तुमसे लूं! क्षुद्र सांसारिक पुरुषों से कुछ लूं! सिर्फ देना ही देना नहीं है। नहीं तो वह तो अहंकार हो जायेगा, मैंने कहा, तुम फिक्र छोड़ो; क्योंकि मेरे लिए कोई क्षद्र नहीं वह प्रेम नहीं होगा। प्रेम तो लेने-देने की छूट है। प्रेम तो देता भी है। परमात्मा ही दोनों तरफ बैठा है। अगर तुम्हें कुछ लगा है कि खूब है, लेता भी खूब है। प्रेम न तो इस तरफ कंजूस है, न उस मुझसे तुम्हें मिला है और तुम बेचैनी अनुभव करते हो बिना कुछ तरफ कंजूस है। प्रेम अकड़ा हुआ नहीं है। प्रेम विनम्र है। वह दिए-और ठीक है बेचैनी, अनुभव होनी चाहिए; जिसके कभी हाथ नीचे भी कर लेता है। वह कभी हाथ ऊपर भी कर देता भीतर भी धड़कता हुआ दिल है, अनुभव होगी तो तुम ले है। प्रेम लेने और देने को खेल मानता है। इस आवागमन में आना, तुम्हारे पास जो हो ले आना। मैं न तो भोगी ऊर्जा के आने-जाने में, जीवन ताजा रहता है। और खेल बड़ा हूं। मैं कृपण हूं ही नहीं। भोगी भी कृपण है, त्यागी भी कृपण महिमावान है, क्योंकि दोनों इस लेने-देने में निखरते हैं; दोनों है। एक ने भोग को पकड़ा है, एक ने त्याग को पकड़ा है। मैं बड़े होते हैं; दोनों खिलते हैं, विकसित होते हैं। सिर्फ जीवंत हूं। आओ, जाओ। तुमने मेरे लिए हृदय खोला है, सुनो! इसे गुनो! तुम त्यागियों जैसे अहंकारी मत बना जाना, | तो मेरा हृदय भी तुम्हारे लिए खुला है। और मैं तुम्हारे आंसू जो कहते हैं, हमने सब त्याग किया। ये लोभी हैं-शीर्षासन समझ सकता हूं। तुम कुछ और बड़ा लाना चाहते थे; तुम जानते करते हुए-जो कहते हैं, हम कुछ न लेंगे। | हो, कंकड़-पत्थर लाये हो। लेकिन क्या करो, तुम्हारी मजबूरी एक बड़ा अदभुत आदमी है बंबई में: रमणीक जौहरी। वह है! जो तुम्हारे पास था वही तुम लाये हो। लाने के भाव का मूल्य मेरे पास आया। वह एक मोतियों का हार बना लाया था। है; क्या तुम ले आये हो, यह थोड़े ही सवाल है! उसकी आंखों में आंसू थे। उसने मुझे हार पहनाया। उसने कहा खयाल रखना, मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि प्रेम का अर्थ कि आप मना मत करना। पर मैंने कहा, तुम रो क्यों रहे हो? होता है। बस दो। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, प्रेम का अर्थ होता वह कहने लगे, मैं खुशी से रो रहा हूं। मैंने कहा, 'तुम मुझे पूरी है: तुम भी बड़े होओ, दूसरे को भी बड़ा होने दो; तुम भी फैलो बात कहो।' दूसरे को भी फैलने दो। दो भी, लो भी। और तुम्हारे बीच वे जैन हैं, तेरापंथी जैन हैं। तो उसने कहा, मैं आचार्य तुलसी लेने-देने में एक संतुलन हो। ये दोनों पंख तुम्हें उड़ायें खुले का भक्त हूं। उसी घर में, उसी परंपरा में पैदा हुआ। उनको मैं | आकाश में। कुछ देना चाहता हूं, लेकिन वे तो कुछ ले नहीं सकते। इसलिए और जल्दी करो। लेन-देन कर लो। क्योंकि बाजार जल्दी ही मेरा कोई संबंध ही नहीं बन पाता। संबंध तो तब बनता है जब उठ जायेगा। दुकानें बंद होने का वक्त भी आ गया। सांझ होने दोनों तरफ से कुछ आदान-प्रदान हो। वे मुझसे कुछ ले ही नहीं लगी। लोग अपने-अपने पसारे इकट्ठा करने में लगे हैं। ऐसा न सकते; क्योंकि वे कहते हैं, वे त्यागी हैं। इसलिए आपसे मैंने हो कि पीछे तुम पछताओ-जब जा चुके बाजार, न कोई लेने प्रार्थना की। मैं किसी को, जो मुझसे बड़ा हो, कुछ देना चाहता को हो, न कोई देने को हो। हूं। क्योंकि उस देने में मैं भी बड़ा हो जाऊंगा, मैं भी कुछ शराबे-जीस्त अभी सेर हो के पी भी नहीं खिलूंगा। आप मना मत करना! कि सुन रहा हूं सदाए शिकस्त सागर की उस दिन जो आंसू उसकी आंखों से बहे, वे बड़े बहुमूल्य थे। | -अभी जीवन की मदिरा को तम पी भी तो नहीं पाये; लेकिन 241 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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