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________________ जिन सूत्र भागः1 सत्यमय होता है। उस शाश्वत की जो सदा से है और सदा रहेगा। और उस सत्य कोई बाहर की बात नहीं तुम्हारे स्वभाव की बात है। शाश्वत की वर्षा होते ही क्षणभंगुर से छुटकारा हो जाता है। सतां ही सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते। क्षणभंगुर को छोड़ना नहीं पड़ता। पानी के बबूलों को कोई और वे सदा उस भीतर के सत्य में रमते हैं। छोड़ता है? बोध आया-छूट गये! अज्ञान में पकड़ता है, ज्ञान वही महावीर कह रहे हैं तन्मय होकर, स्वभाव में स्थित, में छूट जाता है। अज्ञान में हम संसार को पकड़ते हैं, ज्ञान में हम परकीय भावों का क्षय करता हूँ। स्वयं को पकड़ लेते हैं। और जिसने स्वयं को पा लिया, उसने इसे थोड़ा प्रयोग में लाना शुरू करो। उठते-बैठते एक धागा सब पा लिया। और जिसने स्वयं को खोया, वह कुछ भी पा ले, भीतर सम्हालते रहो, जीवन के सारे मनके इसी धागे में पिरो लो। तो भी उसका पा लिया हुआ कुछ सिद्ध न होगा। एक न एक दिन उठो तो याद रखो कि मैं जाननेवाला हं, उठनेवाला नहीं। उठ तो वह रोयेगा। उसकी आंखें आंसुओं से भरी होंगी। शरीर रहा है। उठ तो मन रहा है। मैं सिर्फ जाननेवाला हूं। चलो आज वे मेरे गान कहां हैं? रास्ते पर, तो जानते रहो: चल तो शरीर रहा है, चल तो मन रहा टूट गई मरकत की प्याली है; मैं तो सिर्फ जान रहा हूं। जान रहा हूं कि शरीर चल रहा, मन लुप्त हुई मदिरा की लाली चल रहा। भोजन करो तो स्मरण रखो कि भोजन तो शरीर में पड़ | मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले रहा है, कि शरीर तृप्त हो रहा है, कि मन तृप्त हो रहा है; लेकिन अब सामान कहां हैं? मैं तो जाननेवाला हूं। अब वे मेरे गान कहां हैं? इस जाननेवाले के सूत्र को तुम जीवन के सारे मनकों में पिरो जगती के नीरव मरुथल पर दो। धीरे-धीरे यह तुम्हें स्वाभाविक होता जायेगा। तुम कुछ भी । हंसता था मैं जिनके बल पर करोगे, भीतर एक अहर्निश नाद बजता रहेगा : 'मैं ज्ञाता हूं।' चिर वसंत-सेवित सपनों के उस ज्ञाता में ही तुम एक हो जाओगें। उस ज्ञाता को जानते ही तुम मेरे वे उद्यान कहां हैं? संसार के पार हो जाओगे। अब वे मेरे गान कहां हैं? महावीर कहते हैं, जैसे कमल के पत्ते जल में रहते भी जल को | इसके पहले कि आंखें आंसुओं से भर जायें और हृदय केवल छूते नहीं, ऐसे ही फिर जो साक्षी-भाव को उपलब्ध हुआ, जल में राख का एक ढेर रह जाये, जागो! इसके पहले कि जीवन हाथ से रहते हुए भी जल को छूता नहीं। तुम फिर कहीं भी हो, तुम बह जाये, छिटक जाये, उठो! अवसर को मत खोओ! संसार के बाहर हो। संसार के भीतर भी तुम बाहर हो। फिर तुम जीवन अल्प है। उसे व्यर्थ में मत गंवा दो। मंदिर तुम्हारे भीतर भीड़ में खड़े भी अकेले हो। अभी तो तुम अकेले भी खड़े भीड़ में है। अगर समय का तुम ठीक उपयोग करना सीख जाओ, ही होते हो। | सामायिक सीख जाओ-मंदिर में प्रवेश हो जाये। और ये जो वचन हैं महावीर के, ये किसी दार्शनिक के वक्तव्य समय को संसार में लगाना और समय को संसार से मुक्त कर | नहीं हैं। ये किसी तत्वचिंतक की धारणाएं नहीं हैं। ये तो एक लेना-बस दो आयाम हैं। महासाधक के अनुभव हैं। इन्हें तुम अनुभव बनाओ, तो ही समय को संसार से मुक्त करो। समय को संसार की व्यस्तता इनका राज खुलेगा। इन्हें तुम प्रयोग बनाओ और इनके लिए तुम | से मुक्त करो! सामायिक फलित होगी! अपने में प्रवेश होगा! प्रयोगशाला बनो, तो ही ये सूत्र सत्य हो सकेंगे। आत्मधन मिलेगा! आत्मगीत बजेगा! आत्मा का नर्तन! तन्मय सतां हि सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते। होकर तुम डूबोगे! रमो इन सत्यों में। इन सत्यों को तुम्हारा स्वभाव बनने दो। तब तुम्हारे जीवन में उसकी वर्षा हो जायेगी आज इतना ही। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो। 428 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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