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________________ बैठे-बैठे जरा ऐसे सोचो, कौन किसका है! तुम बाजार में बैठे-बैठे जरा ऐसा सोचो, सब सन्नाटा है। बाजार में भी समता आ जाती है। घर में भी समता आ जाती है । सब काम-धाम करते हुए भी भीतर तुम थिर होने लगते हो। भीतर बुद्धि स्थिर होने लगती है। भीतर की ज्योति डगमगाना छोड़ने लगती है। श्रावक का अर्थ है : जिसने सत्य को सुना, सुनते ही जाग गया। बुद्ध कहते थे, घोड़े कई तरह के होते हैं। एक घोड़ा होता है जब तक उसको मारो-पीटो न, तब तक चले न । एक घोड़ा होता है कि मारने पीटने की धमकी दो, गाली-गलौज दो, उतने से ही चल जाता है, मारने-पीटने की जरूरत नहीं पड़ती। एक घोड़ा समता का अर्थ है : अकंप चैतन्य का हो जाना । 'और उससे उसकी काम-गुणों में होनेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो होता है, गाली-गलौज की भी जरूरत नहीं पड़ती; हाथ में कोड़ा जाती है।' हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो 'असद' आलम तमाम हल्कए-दामे खयाल है। हो, इतना घोड़ा देख लेता है, बस काफी है। और बुद्ध कहते हैं, एक ऐसा भी घोड़ा होता है कि कोड़े की छाया भी काफी होती है। श्रावक का अर्थ है : जिसे कोड़े की छाया भी काफी है। चीजों के चक्कर में बहुत मत पड़ जाना। लेकिन चीजें उलझाती नहीं हैं। कल्पना ही उलझाती है। तुम यहां मुझे सुन रहे हो। सुनने से तुम्हारे लिए पहला तीर्थ खुलता है। अगर तुम ठीक से सुन लो, हृदयपूर्वक सुन लो, निमज्जित हो जाओ सुनने में, तो करने को कुछ बचता नहीं, आलम तमाम हल्कए-दामे खयाल है। यह जो सारा चारों तरफ फैलाव दिखाई पड़ रहा है, यह तुम्हें सुनने में ही गांठें खुल जाती हैं; सुनकर ही बात साफ हो जाती है, गांठ खुल जाती है। कुछ अंधेरा था, छंट जाता है। कुछ उलझन थी, गिर जाती है। द्वार खुल गया, नाव तैयार है : तुम इसी तीर्थ से पार हो सकते हो ! नहीं फांसता- तुम्हारी कल्पना का जाल फांस लेता है। 'भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त हो जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुखों की परंपरा से लिप्त नहीं होता है । ' महावीर संसार छोड़ने को नहीं कह रहे हैं। यह सूत्र प्रमाण है। कहते कमलिनी के पत्र जैसे हो जाओ! भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खो परंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं । । जैसे पोखर में, तालाब में, खिला हुआ कमलिनी का फूल ! उसके पत्ते जल में ही होते हैं, जल की बूंदें भी उन पर पड़ी होती हैं, लेकिन जल स्पर्श भी नहीं कर पाता - ऐसी ही चैतन्य की एक दशा है, विराग की एक दशा है। ठीक संसार में खड़े हुए भी, ठीक गृहस्थी में रुके हुए भी, कुछ छू नहीं पाता । महावीर ने चार तीर्थ कहे हैं : श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी । किसी अनजानी दुर्घटना के कारण साधु-साध्वी महत्वपूर्ण हो गये। लेकिन महावीर का पहला जोर श्रावक-श्राविका पर है। श्रावक का अर्थ है : ऐसी सम्यक स्थिति का व्यक्ति जो सुनकर ही सत्य को उपलब्ध हो जाता है; सुनने मात्र से ही जो जाग जाता है । साधु का अर्थ है : सुनना मात्र जिसे काफी नहीं; सुनने के बाद जो साधना भी करेगा, प्रयत्न की भी जरूरत रहेगी – तब मुक्त हो पाता है। श्रावक की गरिमा बड़ी महिमापूर्ण है। परम औषधि : साक्षी-भाव Jain Education International कुछ हैं जो सुनने से ही पार न हो सकेंगे; उन्हें कोड़े की छाया काफी न होगी, उनके लिए कोड़े काफी होंगे, कोड़े मारने पड़ेंगे। साधु का अर्थ है जो सुनने से न पार हो सका, सत्य की समझ काफी न हुई, सत्य के लिए प्रयास भी करना पड़ा। वस्तुतः श्रावक की महिमा साधु से ज्यादा है। लेकिन साधुओं को यह बरदाश्त न हुआ। साधुओं के अहंकार को यह भला न लगा । तो कोई जैन साधु जैन श्रावक को नमस्कार नहीं करता। साधु और श्रावक को कैसे नमस्कार कर सकता है! साधु ऊपर है, श्रावक नीचे है! साधु को, श्रावक को नमस्कार करनी चाहिए ! हां, यह बात जरूर है कि श्रावक कहां हैं? पर दूसरी बात भी तो है, साधु कहां हैं? सुनकर पहुंचनेवाले बहुत मुश्किल हैं, कोड़े की छाया से चलनेवाले बहुत मुश्किल हैं। कोड़ों से भी अपने को मार-पीट करके कहां कौन चल पाता है ! उनकी भी आदत हो जाती है। ' भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त हो जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुखों की परंपरा से लिप्त नहीं होता है।' For Private & Personal Use Only 109 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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