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________________ जिन सत्र भाग: 1 भाव से मुक्त होते ही-राग और द्वेष के भाव से मुक्त होते ही; चुनाव से मुक्त होते ही; संकल्प-विकल्प से मुक्त होते ही यह सत्य पहचानकर कि सारा खेल मेरे भीतर है, अपने को सिकोड़ लेता है; जैसे कछुआ अपने को सिकोड़ लेता है! दूर जा पहुंचा गुबारे-कारवां मेरी मुश्ते-खाक तनहा रह गयी, सब तमन्नाएं हमारी मर चुकी एक मरने की तमन्ना रह गयी। अपने को सिकोड़ता जाता है। जीवन-जीवेषणा से अपने को हटा लेता है। अब जीने की कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। जीता है, क्योंकि जब तक पुराने कर्मों का जाल है, हिसाब-किताब है, चुकतारा है, निपटाता है। नया जाल खड़ा नहीं करता; पुराना लेन-देन तो चुकाना ही पड़ेगा। जीता है, लेकिन अब जीने पर जोर नहीं है। अब उसने एक राज सीखा है-और वह यह : परम मृत्यु! कैसे पूरी तरह मर जाये, ताकि दुबारा पैदा न होना पड़े! और जिसके भीतर ऐसी भाव-दशा आ जाती है, उसकी सुबह ज्यादा दूर नहीं है। हो चली सुबह फसाना है करीबे-तकमील घुल चली शमा बस अब है उसे ठंडा होना। जिसके भीतर जीवेषणा ठंडी हो गई, वह खोने लगा। हो चली सुबह फसाना है करीबे-तकमील कहानी पूरी होने के करीब आ गई, सुबह होने लगी। घुल चली शमा-दीया बुझने लगा; बस अब है उसे ठंडा होना। वह ठंडक, वह शीतलता जो जीवेषणा के बुखार के बुझ जाने पर पायी जाती है, उसी का नाम मोक्ष है। दुख पर ध्यान करना! दुख को सब तरफ से पहचानना, निदान करना। दुख दिख जाये तो औषधि पानी बड़ी कठिन नहीं है। दुख दिख जाये तो छूटने की परम आकांक्षा पैदा होती है, अभीप्सा पैदा होती है। साक्षी-भाव औषधि है। दुख है निदान-साक्षी-भाव औषधि है-मोक्ष स्वास्थ्य है। आज इतना ही। 1100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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