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________________ indi जिन सूत्र भागः1 AMROHIBIRM 'इस दृष्टि से आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि होता | हो। सिर में दर्द है तो चेतना सिर के कारण डांवाडोल हो जाती है। पैर में कांटा लगा है तो कांटे के कारण चेतना डांवाडोल हो तो महावीर कह रहे हैं. फिर व्याख्या क्या होगी सम्यक दष्टि जाती है। जब तम बिलकल डांवाडोल नहीं होते न सिर की? जिसको गीता में स्थितिप्रज्ञ कहते हैं, उसी को महावीर बुलाता, न पैर बुलाता, न पेट बुलाता-जब शरीर को तुम सम्यक दृष्टि कहते हैं। स्थितिप्रज्ञ-जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो बिलकुल भूले रहते हो, ऐसा जैसा विदेह, है ही नहीं-तब तुम गयी; सम्यक दृष्टि-जिसका दर्शन स्थिर हो गया है। एक ही 'स्वस्थ।' यही तो आत्म-स्थिति की दशा है; जब तुम इतने बात है। | अपने में लीन हो कि कोई गाली दे तो तुम बाहर नहीं आते। तुम 'आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि है। जो आत्मा को वहीं अपने भीतर से सुन लेते हो, कोई परिणाम नहीं होता। यथार्थ रूप से जानता है वही सम्यक ज्ञान है और उसमें स्थिर तुम्हारी दशा में कोई भेद नहीं पड़ता। तुम वही रहते हो जैसा रहना ही सम्यक चारित्र्य है।' गाली देने के पहले थे; वैसे ही गाली देने के बाद रहते हो। गाली बड़ी अदभुत बात....! महावीर चरित्र यह नहीं कह रहे हैं जो दी या न दी, बराबर। तुम पर कोई रेखा नहीं खिंचती, कोई तुम करते हो-उसमें चरित्र नहीं है। तुम जो हो...! साधारणतः खरोंच नहीं लगती। किसी ने सम्मान किया, तुम फूल नहीं हम सोचते हैं चरित्र का अर्थ है, जो हम करते हैं। अगर हमने जाते। तुम्हारे अहंकार का गुब्बारा बड़ा नहीं होने लगता। तुम क्रोध नहीं किया तो हम चरित्रवान हैं। अगर क्रोध किया तो हम वैसे ही रहते हो जैसे थे, कोई अंतर नहीं पड़ता। चरित्रहीन हैं। अगर हमने कामवासना का संबंध बनाया तो हम रवींद्रनाथ को जब नोबल प्राइज मिली और वे वापिस कलकत्ता चरित्रहीन हैं। अगर कोई कामवासना का संबंध न बनाया तो हम लौटे, तो कलकत्ते में बड़ा संकट था। अनेक लोगों को बड़ी चोट चरित्रवान हैं। लगी थी कि रवींद्रनाथ को नोबल प्राइज मिल गयी। तो बंगाली महावीर राजी न होंगे। महावीर कहेंगे, क्रोध किया या नहीं, बड़े नाराज भी थे। एक संपादक अखबार का जूतों की माला यह सवाल नहीं-क्रोध है या नहीं? यह हो सकता है क्रोध लेकर पहुंच गया स्वागत करने के लिए। तो सोचा था उसने कि किसी से भी न किया हो और क्रोध भीतर हो। तो भी वह कहते रवींद्रनाथ खिन्न होंगे, नाराज होंगे, लेकिन रवींद्रनाथ के 'कवि' हैं, तुम सम्यक चारित्र्य को उपलब्ध न हुए। | में कुछ 'ऋषि' का अंग था। इसलिए उनकी गीताजंलि में 'उसमें स्थित रहना ही सम्यक चारित्र्य है।' आत्मा में स्थित उपनिषदों की झलक है। कुछ उड़ानें उन्होंने उस आकाश में भी रहना ही...! अपने में ऐसे खड़े हो जाना कि वहां से डांवाडोल भरी थीं जहां ऋषि ही प्रवेश करते हैं। वे सिर्फ सामान्य कवि नहीं न किए जा सको। वहां से तुम्हें कोई बाहर न ले जा सके-क्रोध थे। उस आदमी को जूतों की माला लिए देखकर वे उसके पास या काम, कोई भी स्थिति 'अप्पो अप्पम्मि रओ'-अपने में ही गये, क्योंकि वह भीड़ में पीछे खड़ा था। थोड़ा संकोच भी लग रमो! अपने में ही रम जाओ। अप्पा अप्पम्मि रओ। रमो अपने रहा था। दूसरे फूलमाला लाए थे, वह जूतों की माला लाया था। में! आपे में! कहीं और न जाओ! कहीं और न भटको! उसको संकोच में देखकर उनको थोड़ा अच्छा भी न लगा। वे सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। फलों की माला छोड़कर उसके पास गये, और कहा कि अब ले -और यही है सम्यक दृष्टि हो जाने का मार्ग! ही आये हो तो पहना दो। वह आदमी और लज्जा से भर गया। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति। वह जूते की माला पटककर भाग खड़ा हुआ। तो रवींद्रनाथ ने यही है जानना, यही है देखना, यही है दर्शन, यही है चारित्र्य! | उसमें से एक जोड़ी चुन ली अपने पहनने के लायक, पैर के अप्पा अप्पम्मि रओ! अपने में रम जाओ।' लायक जो जोड़ी थी वह पहन ली और वे चल पड़े घर की तरफ। हमारे पास जो शब्द है 'स्वास्थ्य', वह यही अर्थ रखता है। उन्होंने कहा कि ठीक किया, मेरे जूते रास्ते में खो भी गए थे। यह अप्पा अप्पम्मि रओ! स्वास्थ्य का अर्थ है: स्वयं में स्थित हो आदमी भी वक्त पर ले आया! और जूते की दुकान पर जाने की जाना। जब तुम बीमार होते हो तो तुम स्वयं में डांवाडोल हो जाते झंझट से बचा दिया! और माला लाया तो काफी जूते लाया था, 594 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org'
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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