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________________ साध का सेवनः आत्मसेवन तो दो उनके नाप के मिल भी गये। 'आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन है। आत्मा ही जब तुम्हें बाहर का सम्मान और असम्मान कुछ अंतर न लाता चारित्र्य है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और हो, तुम्हारी मुस्कुराहट न तो जरा फीकी पड़ती हो, न जरा गहरी योग है। अर्थात ये सब आत्मरूप ही है।' होती हो, तुम वैसे ही रह जाते हो जैसे तुम हो-स्वभाव में | आया हु महं नाणे स्थिर! अप्पा अप्पम्मि रओ! तो तुम स्वस्थ! तो तुम आत्मज्ञान | 'ज्ञान, आत्मा ही मेरा ज्ञान है।' को उपलब्ध! तो यही है सम्यक दृष्टि हो जाना। और यही आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरित्ते य। सम्यक चारित्र्य है-इसमें स्थिर होना ही! 'और दर्शन और चरित्र भी मेरी आत्मा...।' तो चारित्र्य का अर्थ दूसरे से संबंध नहीं है। अगर चारित्र्य का | आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे। अर्थ दूसरे से ही संबंध है तो हिमालय की किसी एकांत गुफा में और आत्मा ही प्रत्याख्यान। और आत्मा ही व्रत-नियम, बैठे हुए तुम चारित्र्यवान न हो सकोगे। आत्मा ही संयम और योग अर्थात ये सब आत्मरूप ही हैं।' इसलिए ये दो शब्द एक जैसे हैं-चरित्र और चारित्र्य। इनका महावीर के लिए आत्मा शब्द परम है। और जिसने उसमें फर्क समझ लेना। चरित्र का अर्थ है : जिसका संबंध दूसरे से थिरता पाली, सब पा लिया। है। और चारित्र्य का अर्थ है : स्वयं में स्थित। तुमने गाली दी तो अगर तुमने त्याग किया दूसरों को दिखाने के लिए तो वह मैंने क्रोध किया—यह चरित्र। तुमने प्रशंसा की तो मैंने धन्यवाद चरित्र हो गया, चारित्र्य नहीं। अगर तुमने त्याग किया भीतर के दिया-यह चरित्र। तुमने गाली दी कि प्रशंसा की, मैंने कुछ भी परम आनंद से, तो चारित्र्य। अगर तुम्हारा ज्ञान दूसरों से आया न किया, मैं वैसा ही रहा जैसा था—यह चारित्र्य। है तो वह ज्ञान नहीं। अगर तुम्हारा ज्ञान भीतर से आविर्भूत हुआ तो अगर तुम हिमालय की गुफा में बैठ जाओ तो चरित्र तो है तो ज्ञान। जो गीत तुमने दूसरों की नकल पर गुनगुनाया है, वह समाप्त हो जायेगा, क्योंकि चरित्र तो दूसरे के बिना हो ही नहीं | गीत नहीं। जो गीत सद्यःस्नात, अभी ताजा नहाया हुआ तुम्हारी बारित्र्य...चारित्र्य प्रगट होगा। एकांत में भी अंतरात्मा से उठा है, अलौकिक, अद्वितीय, नितन्तन, यद्यपि प्रगट होगा, जैसा एकांत में फूल खिलता है! कोई नहीं निकलता सनातन-वही गीत! वही गीत वेद बन जाता है। वही गीत पास से तो भी उसकी गंध हवाओं में फैलती है। रात सब सो गये ऋचाएं। वही गीत उपनिषद बन जाते हैं। होते हैं, तब भी तारा आकाश में चमकता रहता है। वह चारित्र्य महावीर का सारा जोर एक बात पर है कि तुम किसी तरह है। उसका दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं। अपने घर लौट आओ। आपे में आ जाओ! अपने में आ तुम बैठे हो अपने कमरे में, अकेले, और कोई आया, दरवाजे जाओ! दूसरे में बहुत भटक लिए-दूसरे में होना ही संसार है। पर दस्तक दी-तुम तत्क्षण बदल जाते हो, कोट-टाई ठीक तो जो तुमने दूसरे के लिए किया, दूसरे को सोचकर किया, दूसरे करके बैठ जाते हो। यह चरित्र! | की आशा-अपेक्षा में किया—वह सब संसार है। दूसरे से तुम स्नानगृह में स्नान कर रहे हो। आईने के सामने मुंह भी आशा-अपेक्षा छोड़ो! दूसरे से दृष्टि हटाओ। तुम वहीं लीन हो बना-बिचका रहे हो। तत्क्षण तुम्हें खयाल होता है कि बच्चा जाओ जो तुम हो। यही संयम, यही योग! | तुम्हारा ताली के छेद में से देख रहा है। तुम समझ जाते हो कि इश्क भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में यह बाप के लिए योग्य नहीं कि मुंह बिचकाए, बनाए, कि या तो खुद आशकार हो, या मुझे आशकार कर। नाचे-कूदे, स्नानागृह में। यह चरित्र! यह दूसरे के देखते ही दो ही उपाय हैं। या तो हम परमात्मा से कहें या तो खद बदल जाता है। आशकार हो-या तो खुद को प्रगट कर; या मुझे आशकार जिसका दूसरे से कोई संबंध नहीं, जिसका तुमसे ही बस संबंध । कर-या मुझे प्रगट कर। है-वह है चारित्र्य। महावीर ने दूसरा ही रास्ता चुना है। वे कहते हैं, अपने को ही अप्पा अप्पम्मि रओ। प्रगट करना है। प्रार्थना की उन्होंने गुंजाइश नहीं छोड़ी। उन्होंने 595 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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