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________________ जिन सूत्र भागः1 इतना भी दूसरे पर भरोसा नहीं रखा है। परमात्मा भी दसरा हो जरूरत नहीं। दोनों के बीच में है स्थितिः भूली-भूली सी याद जायेगा, 'पर' हो जायेगा। तो परमात्मा भी संसार ही हो । है। भली-भली सी याद, धंधली-धंधली सी याद! सर जायेगा। उतना भी दूसरे पर निर्भर नहीं रखना है। क्योंकि दूसरे निकला है. भर-दपहरी नहीं है, अंधेरी रात भी नहीं है-सुबह पर निर्भरता तम्हें कभी भी मोक्ष, कभी भी परम स्वतंत्रता में न ले का हलका-हलका सा आलोक! सूरज ऊगने-उगने को है। जा सकेगी। कहासा छाया है। हाथ को हाथ नहीं सूझता, फिर भी सूझ तेरी दुआ से कजा तो बदल नहीं सकती बिलकुल नहीं खो गयी है। वह जो थोड़ी-सी सूझ बची है, जो मगर है इसमें ये मुमकिन कि तू बदल जाये। थोड़ी-सी याद बची है, उसी को ही निखारो, प्रगाढ़ करो। उसी यह बात बड़ी ठीक है। जब तुम प्रार्थना करते हो तो प्रार्थना से के सहारे भीतर की यात्रा होगी। उसी को निखारने और प्रगाढ़ने कोई तुम्हारी मौत नहीं रुक जायेगी, न प्रार्थना से कुछ और का नाम ध्यान है, विवेक है। बदलेगा। लेकिन यही होता है कि प्रार्थना करने में तुम बदल थोड़ा जागते चलो! जो थोड़ा-सा आसरा दिखायी पड़ रहा है, जाते हो। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम्हारी प्रार्थना से और उसको पकड़ो, और उस दिशा में थोड़े बढ़ते चलो। थोड़ा साहस कुछ भी नहीं बदलता, लेकिन प्रार्थना करनेवाला बदल जाता है। करो। वह भूली-भूली सी याद गहन होने लगेगी। भूल छंटती तो महावीर ने इस सार को बहुत गहराई से पकड़ा। उन्होंने | जायेगी, याद सघन होने लगेगी। कहा कि, तो फिर प्रार्थना की जरूरत क्या? जब बदलना ही और जिस दिन भी कोई अपने घर लौट आ स्वयं को है, तो फिर परोक्ष क्यों? फिर प्रत्यक्ष क्यों नहीं? जब घटना घटती है। इतने दुख, इतनी पीड़ाएं, इतनी शिकायत, इतने असली सवाल मेरे भीतर ही घटना है, जब असली में भगवान शिकवे, सब समाप्त हो जाते हैं। इतनी मांगें, इतनी वांछनाएं, भक्त के भीतर ही प्रगट होना है, तो फिर बाहर की तलाश बंद। इतनी आकांक्षाएं, इतनी तष्णाएं, सब अचानक पूरी हो जाती हैं। फिर बाहर क्यों टटोलं किसी पैरों को? फिर अपने घर लौट सब न मिलने की बातें थीं जब आकर मिल गए आऊं। फिर अपने में ही लीन हो जाऊं। सारे शिकवे मिट गए, सारा गिला जाता रहा। अप्पा अप्पम्मि रओ! तब पता चलता है कि वह सब जो मांगें थीं, अनंत-अनंत, वह और यह जो तुम्हारे भीतर की आत्मा की बात महावीर कर रहे | एक ही मांग के खंड थीं। अपने से मिलने की असली मांग थी। हैं, यह तुम भूल भला गए हो, लेकिन बिलकुल भूल भी नहीं गए उसको नहीं पहचान पा रहे थे, तो वही मांग अनंत खंडों में बंट हो। थोड़ी पर्ते जम गई हैं धूल की, लेकिन पर्त के नीचे तुम्हारे गई थी। वह जो पद को चाहा था, वह अपने ही भीतर आत्मपद प्राण अभी भी जीवंत हैं। जलधार अभी भी ताजी है। को चाहा था। वह जो धन को चाहा था, वह अपने ही भीतर उस ऊपर-ऊपर काई छा गई है। तुम इसे भूल भी नहीं गए हो, शाश्वत धन को चाहा था, जो मेरा स्वभाव है। वह जो यश और क्योंकि कोई कैसे अपने को भूल जा सकता है? भूलने जैसी प्रतिष्ठा चाही थी, उस यश और प्रतिष्ठा में अपनी ही महिमा की हालत है, लेकिन बिलकुल नहीं भूल गये हो। उसी में संभावना तलाश थी-गलत रास्ते पर गलत दिशा में। है। उसी में किरण है संभावना की। जरा-सा सहारा पकड़ लो महावीर का सारा योग आत्म-स्थिति है। कृष्ण ने कहा है गीता तो तुम अपने को याद कर पाओगे। में समत्वं योग उच्चते! एक मुद्दत से तेरी याद भी आयीन हमें समत्व को उपलब्ध हो जाना योग है। महावीर भी कहते हैं, और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं। सम्यक दृष्टि, समत्व। सम्यकत्व-समता को उपलब्ध हो सदियां बीत गयी हों, मुद्दत बीत गयी है और तुमने अपनी याद | जाना! डांवाडोल न रहे चित्त, सम हो जाये। यहां-वहां न जाये, भी न की हो! लेकिन भूल गये हो, ऐसा भी नहीं है। इस बात को थिर हो जाये। थिरता सधे! ज्योति ऐसी हो जाये जैसे किसी घर ठीक से समझना। अगर बिलकुल भूल गये हो, तब तो याद का में हवा के झोंके न आते हों, और ज्योति अकंप जलती हो, कंपती कोई उपाय नहीं। और अगर बिलकुल याद है तो याद की कोई | न हो। समत्वं योग उच्चते। यही दशा योग की दशा है। और पत! 596/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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