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________________ 186 जिन सूत्र भाग: 1 मालूम होती है तो अकेलेपन का पता चला है। अगर दूसरा बिलकुल ही खो गया है, तुम्हें दूसरे की याद भी नहीं आती तो अकेलेपन का पता कैसे चलेगा? अकेलापन तब परम हो जाता है, पूर्ण हो जाता है। उसको महावीर ने 'कैवल्य' कहा है । वह अकेलेपन की परिपूर्णता है। तुम इतने अकेले हो कि अकेलेपन का भी पता नहीं चलता। पता चलाने को तो दूसरे की थोड़ी-सी मौजूदगी चाहिए - छाया सही, स्मृति सही। अपने घर की तुम्हें दीवाल बनानी होती है, तो पड़ोसी चाहिए; पड़ोसी के बिना कहां तुम सीमा रेखा खींचोगे? पड़ोसी न भी प्रवेश कर सके तुम्हारी भूमि में तो भी पड़ोसी के बिना तुम अपनी भूमि किस भूमि को कहोगे? तो जहां तक अकेलेपन का पता चले वहां तक अकेलापन शुद्ध नहीं हुआ - दूसरा मौजूद है; किसी अंधेरे कोने में खड़ा है; दूर सही पर मौजूद है। उसकी भनक पड़ेगी, उसकी छाया होगी; प्रतिध्वनि होगी। इसे समझना। आत्मवान तुम तभी हो सकोगे, जब दूसरे की छाया की भी जरूरत तुम्हारी परिभाषा के लिए न रह जाए। तभी तुम आत्मा हो जब तुम दूसरे से मुक्त हो। अगर तुम्हें अपनी आत्मा की अनुभूति के लिए भी दूसरे का सहारा लेना पड़ता है तो वह अनुभूति भी निर्भर हो गई, वह अनुभूति भी सांसारिक हो गई। इसलिए आत्मा की गहनतम स्थिति में 'मैं' का भी पता न चलेगा, क्योंकि 'मैं' के लिए तो 'तू' का होना जरूरी है । 'तू' के बिना 'मैं' का क्या अर्थ ? कैसे कहोगे 'मैं ?' जब भी कहोगे 'मैं', 'तू' आ जाएगा; 'तू' पीछे के दरवाजे से प्रवेश कर जाएगा। इसलिए आत्मा का अर्थ अहंकार मत समझना, अस्मिता मत समझना । आत्मा तो तभी परिपूर्ण होती है जब 'मैं' का भी भाव विलीन हो जाता है। न कोई 'मैं' बचता, क्योंकि बच ही नहीं सकता - 'तू' ही नहीं बचा। कोई पर नहीं बचता, तभी तुम शुद्ध होते हो; इतने अकेले होते हो कि तुम्हीं पूरा आकाश – असीम होते हो । — महावीर परम स्वार्थी हैं । सभी धर्म अपनी पराकाष्ठा में स्वार्थी होते हैं; क्योंकि धर्म का बुनियादी आधार व्यक्ति है, समाज नहीं। यहीं तो राजनीति और Jain Education International धर्म का फर्क है । यहीं तो मार्क्स और महावीर का फर्क है। दूसरा महत्वपूर्ण है, तो समाज । मैं अकेला भर महत्वपूर्ण हूं, तो व्यक्ति । इससे तुम यह मत समझ लेना कि महावीर समाज विरोधी हैं। महावीर समाज से मुक्त हैं, विरोधी नहीं। और तुम इससे यह भी मत समझ लेना कि मार्क्स समाज का पक्षपाती है। समाज में है, लेकिन समाज का पक्षपाती नहीं है। यह जरा जटिल है । विरोधाभास मालूम होगा। इसे फिर से मैं दोहरा दूं । महावीर अपने स्वार्थ को इतनी गहनता से साधते हैं कि उनके स्वार्थ में सबका स्वार्थ सध ही जाता है; उसको अलग से साधने कि जरूरत नहीं रह जाती। जहां महावीर विचरण करते हैं, वहां भी सुख की किरणें छिटकने लगती हैं। जहां वे मौजूद होते हैं, वहां भी आनंद की लहरें बिखरने लगती हैं। जो आनंदित है, वह आनंद की लहरें अपने चारों तरफ पैदा करता है। जो दुखी है, वह दुख की लहरें पैदा करता है। तुम दुखी हो, तो तुम लाख चाहो कि दूसरे को सुख दे दूं, दोगे कहां से ? लाओगे कहां से? अपने लिए न जुटा पाए, दूसरे को कहां दोगे? दूसरे को तो देने की संभावना तभी है, जब इतना हो तुम्हारे पास कि तुम्हारी समझ में न आता हो कि क्या करें; जब इतना हो तुम्हारे पास, बाढ़ की तरह कि कूल-किनारों को तोड़कर बहा जाता हो; तुम इतने भरे हो आनंद से कि न लुटाओगे तो करोगे क्या ? बादल जब भर जाता है जल से, तो बरसता है। फूल जब भर जाता है गंध से, तो गंध को लुटाता है। दीया जब रोशनी से जगमगाता है, भरा होता है, तो रोशनी लुटाता है। करोगे क्या ? जो व्यक्ति आनंद को उपलब्ध हुआ, वह एक आनंदित समाज का आधार बनता है - लेकिन चेष्टा से नहीं— अनायास । सहज ही । सोचकर नहीं, विचारकर नहीं। वह कोई समाजवादी थोड़े ही होता है। ऐसा घटता है। जब भीतर के केंद्र पर अहर्निश वर्षा होती है, तो बाढ़ आती है। अमृत बरसता है तो बाढ़ आती है। फिर बाढ़ आती है तो लुटना भी शुरू हो जाता है। दूसरे को सुखी करने की चेष्टा में लगा है, उस पर जरा गौर करना । तुमने भी दूसरे को सुखी करने की चेष्टा की है— कर पाए ? कर इतना ही पाए कि उसे और दुखी कर दिया। पति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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