SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्नी को सुखी करने की चेष्टा कर रहा है। पत्नी से पूछो। पत्नी पति को सुखी करने की चेष्टा कर रही है। पति से पूछो । मां-बाप बेटे-बच्चों को सुखी करने की चेष्टा कर रहे हैं। बच्चों से पूछो। तुम चकित होओगे ! राजनेता समाज को सुखी करने की कोशिश कर रहे हैं। समाज से पूछो। राजनेताओं से मत पूछो। लोगों से पूछो। कौन किसको सुखी कर पा रहा है ? सभी सभी को सुखी कर रहे हैं और संसार में सिवाय दुख के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता ! सभी, सभी को आनंद देने की चेष्टा में संलग्न हैं; मिलता है जो, उस पर तो खयाल करो! तुम्हारी अभिलाषा से थोड़े ही आनंद बंटेगा — होगा तो बंटेगा । और होने की यात्रा तो निजी है - आत्मा की है। तुम वही दे सकोगे जो तुम हो जाओगे। इसके पहले कि तुम दो हो जाओ। क्योंकि हम अपने को ही बांट सकते हैं, और तो कुछ बांटने को नहीं है। और अपने को भी हम तभी बांट सकते हैं, जब अनंत हो जाएं, नहीं तो कंजूसी होगी, डर लगेगा कि बांटा तो कुछ कमी हो जाएगी, छोटे हो जाएंगे। तो जब तक तुम इतने आत्मवान न हो जाओ कि तुम्हारी आत्मा का कोई किनारा न हो, तुम तटहीन सागर न हो जाओ, तब तक तुम बांट न सकोगे, तब तक कृपणता जारी रहेगी । तो यह विरोधाभास खयाल रखना। दूसरों की चिंता करते ही नहीं, क्योंकि चिंता करना ही भूल गए हैं जो दूसरे को सुख देना ही नहीं चाहते, न देने का विचार करते हैं, क्योंकि एक सत्य उनकी समझ में आ गया है कि अपने | पास जो नहीं है वह हम दे न सकेंगे; जो अपने ही सुख को जन्माने की सतत साधना में लगे हैं, क्योंकि उन्हें पता चल गया है, जो अपने भीतर होगा, बढ़ेगा, बहेगा भी, बिखरेगा भी, | फैलेगा भी, बंटेगा भी, वह अपने से हो जाता है, उसका कोई हिसाब नहीं रखना होता – ऐसे सभी व्यक्तियों ने परम स्वार्थ की बात कही है। मजहब यानी मतलब। धर्म यानी स्वार्थ । लेकिन स्वार्थ इतना महिमापूर्ण है कि परार्थ उसमें अपने-आप सध जाता है। इसलिए तुम एक अनूठी बात देखोगे, महावीर के धर्म में सेवा का कोई स्थान नहीं है। और अगर जैनियों के पास सेवा शब्द भी है, तो उसका अर्थ उनका बड़ा अनूठा है। जब वे जैन मुनि के Jain Education International अनुकरण नहीं आत्म-अनुसंधान दर्शन को जाते हैं तो वे कहते हैं, सेवा को जा रहे हैं। यह सेवा का बड़ा अनूठा अर्थ है । जिसको तुम्हारी सेवा की कोई भी जरूरत नहीं है, उसकी सेवा को जा रहे हैं। कोढ़ी को जरूरत है, बीमार को जरूरत है, दुखी को जरूरत है। इसलिए ईसाइयत का दावा ठीक मालूम पड़ता है कि पूरब में पैदा हुए सभी धर्म स्वार्थी हैं; इनमें सेवा की कोई जगह नहीं है। न अस्पताल खोलने की उत्सुकता है, न स्कूल चलाने की उत्सुकता है। लोग आंखें बंद करके ध्यान कर रहे हैं - यह कैसा धर्म है ! ईसाइयत की बात में सचाई है। पर बात बुनियादी रूप से भ्रांत है। ईसाइयत धर्म न बन पायी, राजनीति रही, समाजशास्त्र रहा । सेवा तो ईसाइयत ने की, लेकिन जो सेवा करने गए उनके पास कुछ देने को न था । बांटने को तो गए, बड़ी शुभ-शुभ आकांक्षा थी । लेकिन कहते हैं, नर्क का रास्ता शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है । गए तो सेवा करने, गर्दनें काट दीं। ईसाइयत ने तलवारें उठा लीं। ईसाइयत ने जितने लोग मारे, किसी ने नहीं मारे। जीसस ने तो कहा था, कोई चांटा मारे तो दूसरा गाल कर देना; लेकिन सेवा की धुन ऐसी चढ़ी कि अगर दूसरा सेवा करवाने को राजी न हो तो खतम करो उसे, सेवा करके ही रहेंगे। सेवा सीढ़ी बन गई स्वर्ग चढ़ने की। दूसरे से प्रयोजन न रहा। कभी-कभी मुझे डर लगता है। कभी ऐसी दुनिया होगी, न कोढ़ी होगा, न अंधा होगा, फिर ईसाइयत क्या करेगी ? धर्म खतम ! नहीं, खतम न होगा। वे अंधे को पैदा करेंगे, कोढ़ी को पैदा करेंगे – सेवा तो करनी ही पड़ेगी, नहीं तो मोक्ष कैसे जाएंगे ! स्वर्ग कैसे जाएंगे ! महावीर, बुद्ध, कृष्ण, किसी के धर्म में सेवा की कोई जगह नहीं है। कारण ? क्या इनके हृदय में प्रेम पैदा न हुआ ? क्या इनके भाव करुणा के न थे ? थे। लेकिन उन्होंने एक बड़ा गहरा सत्य जाना था कि तुम दूसरे को सुख देने की चेष्टा से सुख नहीं दे सकते – दुख ही दोगे । ईसाइयत युद्ध लायी, दुख लायी। कौन सुखी हुआ ! कपड़े दिए होंगे लोगों को, दवा भी दी होगी; लेकिन आत्माएं खंडित कर डालीं। रोटी के सहारे, दवा के सहारे, लोगों के प्राण तोड़ डाले, उनके जीवन की दिशा भटका दी । महावीर का धर्म कहता है : तुम हो जाओ परिपूर्ण! तुम खिलो दीये की भांति ! तुम बिखरो ! फिर तुम्हारे जीवन में होता रहेगा For Private & Personal Use Only 187 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy