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प्रश्न-सार
कोई आठ वर्षों से आपको सुनती-पढ़ती हूं; लेकिन सिर्फ आप ही हैं सामने।...रोना ही रोना! यह क्या है?
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शास्त्रीय परंपरा में संन्यासी काम-भोग से विमुख
और प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता है; लेकिन आपके संन्यास में विरक्ति पर जोर क्यों नहीं?...
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क्या भक्ति-मार्ग में बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है अथवा नहीं?
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यदि इस पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।
ऐसा क्यों हुआ, कृपया समझाएं!
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