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________________ जिन सूत्र भाग : 1 उठाकर पीऊं। अब तो थोड़ा नाचो! जरूरत नहीं, एक तारीख को सौ डालर तले ही जाया कर। तो ध्यान रखना, प्रसाद जब क्षणभर को भी मिलता हो, कणभर | वह नियम से सौ डालर एक तारीख को ले आता था। ऐसा वर्षों को भी मिलता हो-तुम नाचना! तुम्हारे नाचने से प्रसाद चला। एक दिन एक तारीख को...वह एक तारीख को एक दिन बढ़ेगा। उत्सव में ही बढ़ता है। तुम्हारी प्रसन्नता में ही बढ़ता है। भी नहीं चूकता था...वह आकर एक तारीख को खड़ा हुआ तुम्हारे अनुग्रह के भाव में बढ़ता है। सिकुड़ मत जाना। सोचने | दफ्तर में और मैनेजर ने कहा कि भई सुनो, अब से पचास मत लगना कि कैसे मिला, कहां से मिला, क्यों मिला, मैंने क्या डालर! उसने कहा, 'क्या ? पचास डालर? क्या मतलब?' किया था, अब मैं क्या करूं कि और ज्यादा मिले। इसमें तो खो उसने कहा कि ऐसा है कि मालिक की लड़की की शादी हो रही जाएगा; जो मिला है वह भी खो जाएगा; जो द्वार खुला था | है, पैसे की उन्हें खुद ही तंगी है। धंधा भी घाटे में जा रहा है। क्षणभर को वह भी बंद हो जाएगा-तुम्हारे सोच-विचार में! | थोड़ी मुसीबत में हैं। इसलिए पचास! उसने कहा, 'हद्द हो सोच-विचार से तो पर्दे पड़ जाते हैं। नाचना! गाना! गई! मेरे रुपयों पर लड़की की शादी की जा रही है? और घाटा गुनगुनाना! जो मिला है, उस पर बलिहारी जाना। कहना : जमीं तुम्हें लगे, भोगू मैं ? समझा क्या है ? बुलाओ मालिक को!' पर जाम को रख दे, जरा ठहर साकी! परमात्मा से भी कहना, मन की वृत्ति है कि अगर तुम्हें मिलता चला जाए तो तुम सोचते 'जल्दी मत कर, रख! जरा मैं नाच तो लूँ! मैं इस पे हो लूं हो, तुम्हारी पात्रता है। जो तुम्हें मुफ्त मिलता है, तुम धीरे-धीरे तसद्दुक तो फिर उठाके पिऊं। पहले बलिहारी जाऊं, पहले सोचने लगते हो, यह भी मेरी पात्रता है। तुम न केवल यह नाचूं, पहले थोड़ा उत्सव मना लूं, तेरा स्वागत कर लूं! अकारण | सोचने लगते हो बल्कि तुम प्रतीक्षा करते हो कि मिलना ही मिला है! बिना मेरे कुछ किए मिला है। तो ऐसे ही उठाकर पी चाहिए। अगर न मिले तो शिकायत शुरू हो जाती है। लेना तो अशोभन होगा। शोभा न होगी। ऐसे ही उठाकर पी | सोचो! कहां धन्यवाद और कहां शिकायत! कहां आभार और लेना असंस्कृत होगा। थोड़ा नाचकर, गुनगुनाकर, थोड़ी गहन कहां शिकवे। लेकिन मन की यह आदत है। और इस आदत के कृतज्ञता में डूबकर! कारण बहुत-से लोग परमात्मा के द्वार से लौट जाते हैं। सत्य आ 'मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या समर्पण से!' | ही रहा था, करीब आ ही रहा था कि उनकी अकड़ आने लगी। भाड़ में जाने दो! मालूम करने की फिक्र ही मत करो। मिल अकड़ आई कि अरे, जब आ रहा है तो निश्चित ही हमने अर्जित गया! कैसे मिलती है कोई चीज, यह तो तब सोचना चाहिए जब किया होगा! जब आ रहा है तो कोई कारण होगा! कुछ हममें न मिली हो। तब आदमी साधन खोजता है। तब कहता है, कहां होगी खूबी, तभी आ रहा है! से जाऊ! चलो मंजिल ही तुम्हें खोजती आ गई, अब तुम फिक्र सदा याद रखना, तुम जब भी पात्रता के बोध से भर जाओगे, छोड़ो; कहीं ऐसा न हो कि तुम उधेड़-बुन में पड़ जाओ, और तभी अपात्र हो जाओगे। जब तक अपात्र होने का तुम्हें स्मरण मंजिल हट जाए! क्योंकि जो आ गई है अपने से तुम्हारे पास, रहेगा, तुम्हारी पात्रता बढ़ती रहेगी। इस विरोधाभास को महामंत्र अपने से हट भी जा सकती है। की तरह स्मरण रखना। '...पर मिला और मिल रहा है-और अकारण!' और, जिन्होंने भी उसको पीया है, उनमें से कोई भी नहीं बता सदा ही अकारण मिलता है। अकारण का बोध बनाए रखना! सका कि क्यों और क्या! पीने के पहले की सब बातें हैं। पीने के क्योंकि मन की वृत्ति है कि वह सोचने लगता है जल्दी कि जो पहले के लिए सब रास्ते और साधन हैं। पी लेने के बाद तो फिर मिल रहा है वह कारण से मिल रहा है। राज है, फिर तो रहस्य है। अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति हुआः मार्गन। वह क्या हमने छलकते हुए पैमाने में देखा एक भिखारी को हर महीने सौ डालर देता था। भिखारी पर प्रसन्न ये राज है मैखाने का इफ्शां न करेंगे। था। कुछ भिखारी की आवाज में बड़ी जान थी। जब भिखारी क्या देखा है लोगों ने परमात्मा में छलकते हुए? उसे कहा नहीं गीत गाता तो...। तो उसने कहा कि अब तुझे बार-बार आने की | जा सकता। 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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