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________________ 376 जिन सूत्र भाग: 1 'मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।' बाहर जाने के मार्ग हैं। शरीर बाहर से जोड़ता है । स्वभावतः शरीर बाहर से आया है, मां से मिला, पिता से मिला। तुम इसे लेकर नहीं आये। यह बाहर के द्वारा दिया गया है, बाहर की भेट है। यह तुम्हारी मां का है, तुम्हारे पिता का है। उनका भी है, कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उनके पास भी जो शरीर था वह उनके माता-पिता का था। उनका भी था, यह भी कहना ठीक नहीं। इसलिए अगर इसकी पूरी गहराई में जाओगे तो शरीर प्रकृति का है; बाहर से आया है; मिट्टी का है; जल का है; वायु का है; आकाश का है; पंच महाभूतों का है; तुम्हारा नहीं है । जो बाहर से आया है वह बाहर की गुलामी में है। स्वभावतः तुम्हारे भीतर भी जो जल है वह बाहर के जल के ही नियमों का पालन करता है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करता। कैसे करेगा ? तुमसे | उसका कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे भीतर जो मिट्टी है, वह मिट्टी के नियमों का पालन करती है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करती। उस पर गुरुत्वाकर्षण का काम होता है । तुम्हारे भीतर जहां से जो आया है, उसी नियम का पालन करता है। वायु वायु का पालन करती है। अग्नि अग्नि का पालन करती है। इसे तुम खयाल रखना । इसलिए अगर तुमको चांद, पूर्णिमा के चांद को देखकर बड़ी उमंग उठती है, तो तुमने कभी सोचा न होगा, क्यों उठती है ! यह वैसे ही उठती है उमंग, जैसे सागर में उमंग उठती है। क्योंकि सागर चांद से प्रभावित होता है, आंदोलित होता है, ज्वार उठता है, नाचने लगता है। बड़ी लहरें, उत्तंग लहरें उठती हैं, सागर पगला जाता है इसलिए चांद की रात में ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो थोड़ा पगला न जाता हो। जो बहुत संवेदनशील हैं, बहुत ज्यादा पगला जाते हैं। इसलिए पागलों के लिए अंग्रेजी शब्द है : लूनाटिक | लूनाटिक का मतलब होता है चांदमारा; चांद ने मारा इसे | हिंदी में भी चांदमारा पागल के लिए उपयोग करते हैं । आदमी के शरीर के भीतर कोई अस्सी प्रतिशत जल है, थोड़ा नहीं है। और यह जल ठीक वैसा ही जल है जैसा सागर का । उतने ही लवण इस शरीर के जल में भी हैं। हिंदू कहते हैं कि Jain Education International पहला अवतार मछली का । वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य का पहला अवतरण मछली में । और मछली के भीतर जो जल का ढंग है, वही आदमी के शरीर के भीतर भी है। अभी भी है। इसलिए जब सागर उत्तंगित हो जाता है, तरंगित हो जाता है, तो तुम भी तरंगित हो जाते हो। चांद को देखकर कौन मोहित नहीं हो जाता ! लेकिन यह तुम नहीं हो जो मोहित हो रहे हो; यह तुम्हारे भीतर का जल है, अस्सी प्रतिशत, जिसमें तरंग उठी है बड़ी सूक्ष्म । अगर इसे तुम समझोगे तो चांद हो कि अमावस हो, सब बराबर हो गये। फिर कोई फर्क न रहा। तुम जब एक स्त्री को देखकर आंदोलित हो जाते हो, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हो, कोई वासना का ज्वार तुम्हें घेर लेता है, तो तुम यह मत सोचना कि तुम प्रभावित हो गये हो; ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए स्त्री- हारमोन, ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए पुरुष - हारमोन, यह तुम्हारे शरीर की केमिस्ट्री है, रसायन है जो प्रभावित हो रही है। क्योंकि तुम्हारा आधा शरीर स्त्री का है, आधा पुरुष का है। सभी अर्धनारीश्वर हैं। आधा मां से मिला है, आधा पिता से मिला है। तो जब भी तुम किसी स्त्री को देखकर प्रभावित होते हो, तो तुम यह मत सोचना कि मैं प्रभावित हुआ। वहां तुम भ्रांति कर रहे हो। वहां शरीर के साथ तुमने तादात्म्य कर लिया। ये तो तुम्हारे शरीर के भीतर के द्रव्य हैं जो आंदोलित हुए; क्योंकि ये उसी नियम को मानकर चलते हैं जो पदार्थों का नियम है। यह कर्षण, यह आकर्षण, यह चुंबक पौदगलिक है, शारीरिक है । यह पदार्थगत है। यह होना भी चाहिए पदार्थगत । इसलिए जैसे-जैसे व्यक्ति अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे-वैसे दूसरों के शरीर उसको कम प्रभावित करते हैं। जिस दिन व्यक्ति को यह पूरा अनुभव होने लगता है कि मैं शरीर हूं ही नहीं, उसी दिन स्त्री-पुरुष के शरीर के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं। फिर कौन पास से निकल जाता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । तुम्हारे भीतर कोई तरंग नहीं उठती। फिर पूर्णिमा की रात हो कि अमावस की रात, सब बराबर हो जाता है। शरीर में तरगें उठती रहेंगी, इससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम दूर खड़े द्रष्टा हो जाते हो। मन भी मन के ही नियमों को मानकर चलता है, तुम्हारे नियम मानकर नहीं चलता। इसलिए तुमने कई दफे देखा होगा कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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