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________________ 614 जिन सूत्र भाग: 1 फल लायेगा ? वह तो झुके हुए हृदय से निकले तो ही लाभ होता है। वह तो लदे हुए वृक्ष की तरह है। जैसे वृक्ष झुक जाता है, जब फलों से लद जाता है। ऐसा जब कोई प्रेम से लदा हो और झुका हो, तभी उससे मीठे फलों के आशीर्वाद उपलब्ध होते हैं।... अकड़े खड़े हैं! एक डाल नहीं झुकी। फल तो हैं ही नहीं। आशीर्वाद कहां से होगा ? लेकिन जैन मुनि अकड़कर खड़ा हो जाता है: तपश्चर्या है! कोई समर्पण किसी के प्रति नहीं है। सिर्फ संकल्प है 1 तो सिर्फ संकल्प की शक्ति का खतरा यह है कि तुम्हारा अहंकार विक्षिप्त न हो जाये। फिर चुनाव तुम्हारा । इतना निश्चित है कि उस मार्ग से भी लोग पहुंचे हैं। लेकिन अगर मेरी सुनो तो हृदय की सुनना ! और जब तुम हृदय की सुनोगे तो बुद्धि को तकलीफ होगी। क्योंकि हृदय को चुनने का अर्थ है: बुद्धि का प्रभुत्व गया; तर्क की तुम्हारे ऊपर जो मालकियत है, वह टूटी ! न जाने आज मैं क्या बात कहनेवाला हूं जुबान खुश्क है, आवाज रुकती जाती है। जैसे-जैसे प्रेम की बात कहने के करीब आओगे, वैसे ही पाओगे : जबान खुश्क हो गयी, आवाज रुकती जाती है, क्योंकि बुद्धि काम नहीं करती। न जाने आज मैं क्या बात कहनेवाला हूं जुबान खुश्क है, आवाज रुकती जाती है। बहुत संघर्ष करेगी। लेकिन चुनाव तो करना ही होगा। और प्रेम का मार्ग सुगम है, छोटा है— करीब से करीब है । क्योंकि प्रेम सुगम है, सहज है। प्रेम को लेकर ही तुम पैदा हुए हो, ध्यान को इतनी आसानी से नहीं कहा जा सकता कि तुम लेकर पैदा हुए हो। ध्यान तो तुम बड़ी चेष्टा करोगे तो शायद दीया जले। लेकिन प्रेम की तड़फ तो तुम्हारे भीतर है ही; तुम्हारी श्वास- श्वास में भरी है! तुम्हारे रोएं रोएं में भरी है। कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम के लिए प्यासा न हो ! कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम देने को आतुर न हो ! न दे पाओ, कुछ अड़चन आती हो; न | मिल पाये, कुछ बाधा पड़ जाती हो — और बात। लेकिन कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम के लिए आतुर न हो ! प्रेम स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। वह जीवन के ऋत का हिस्सा है। ध्यान बड़ी चेष्टा, बड़े परिमार्जन, बड़ी मर्यादा, बड़े अनुशासन से उपलब्ध होता है। तो जो नैसर्गिक है उसे तुम जल्दी काम में ला सकते हो। Jain Education International तू न देनामे को इतना तूल गालिब मुख्तसर लिख दे कि हसरत सेज हूं, अर्जे - सितमहाए-जुदाई का। - प्राणप्यारे को पत्र लिखते समय, पत्र को बहुत विस्तृत न बना, गालिब ! बस इतना लिख दे, इतना काफी है-संक्षेप में कि श्री चरणों में विरह की पीड़ा निवेदन करने की लालसा से लसित ! काफी है ! 'न दे नामे को इतना तूल' - चिट्ठी को बहुत लंबी मत कर। 'गालिब, मुख्तसर लिख दे !' बस संक्षेप में इतना लिख दे 'कि हसरत सेज हूं अर्जे - सितमहाए-जुदाई का ।' कि विरह की पीड़ा बहुत हो गयी, अब श्री चरणों में यह निवेदन रखता हूं कि अब मिलने की बड़ी गहरी अभीप्सा है। बस काफी है। प्रेम की चिट्ठी छोटी होती है। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ! अगर प्रेम ने पुकारा हो तो इस आवाज को ऐसे ही मत लौट जाने देना। अगर प्रेम ने पुकारा हो तो सुनना, दो गाम उसके पीछे चलना ! क्योंकि प्रेम के रास्ते से दो गाम चलकर भी आदमी परमात्मा तक पहुंच जाता है। हृदय की तरफ सरकोगे तो बुद्धि मरने लगेगी। इसलिए बुद्धि भाती है, उनको वही मार्ग चुनना चाहिए। संकल्प का रास्ता बहुत लंबा, बहुत बीहड़, बहुत अकेले का । हां, कुछ को वैसी चुनौती ही भाती है। जिनको वैसी चुनौती लेकिन प्रश्नकर्ता के प्रश्न से मुझे ऐसा लगता है कि उसे बुद्धि का मार्ग जमेगा नहीं, संकल्प का मार्ग जमेगा नहीं। क्योंकि जिन्हें संकल्प का मार्ग जमता है, उन्हें प्रेम की पुकार ही सुनायी नहीं पड़ती। वह दस्तक प्रेम देता रहे, उनके कान बहरे होते हैं। प्रेम में उन्हें सिर्फ पाप दिखायी पड़ता है। तो संकल्प के मार्गवाला व्यक्ति तो यह पूछेगा ही नहीं। यह तो उसी ने पूछा है जिसका मार्ग प्रेम है; लेकिन बुद्धि की अड़चन में पड़ गया है। चाह तो गहरी यही है कि प्रेम में उतर जाये, लेकिन अहंकार उतरने नहीं देता, झुकने नहीं देता। तो इस अहंकार को तोड़ो ! इस अहंकार से अपने को अलग करो। पूछनेवाला शिकार तो हो ही गया है। तीर तो लग ही गया है। दिल को हम सर्दे-वफा समझे थे, क्या मालूम था For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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