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जिन सत्र भाग
जिनके कारण तुम्हें अड़चन होगी। उस अड़चन को झेलने के | है।' उस अंधे ने कहा, 'मालिक! अब और क्या प्रमाण | लिए तैयार होना तप है। तुम्हारे भीतर ऐसी बहुत-सी सचाइयां चाहिए! मारवाड़ी से भीख मांग रहा हूं, इससे बड़ा प्रमाण अंधे हैं; जिनके कारण बहुत-से काम तुम जो अभी कर रहे हो, कल होने का और क्या होगा?' न कर पाओगे। वह जो न करने की अवस्था है, वही संयम है। भिखमंगा भी सोच-समझकर पकड़ता है। भिखमंगा भी
समझो! अब तक तुम दान दे रहे थे। लेकिन सच्चा आदमी | जानता है, दान तो कोई देना नहीं चाहता। लेकिन लोग इतने सोचेगा : 'दान का भाव उठा है या नहीं?' दान के लिए ही तो ईमानदार भी नहीं हैं कि कह दें कि हम दान नहीं देना चाहते। सभी दान नहीं देते, और दूसरे कारणों से देते हैं। राह पर लोग दिखाना चाहते हैं कि हम हैं तो दानी। उसी का भिखमंगा भिखमंगा पकड़ लेता है, इज्जत दांव पर लगा देता है। भिखमंगा शोषण कर रहा है। तुम भी लज्जा से भर जाते हो कि अब कैसे भी अकेले में तुमसे भीख नहीं मांगता, क्योंकि अकेले में जानता निकलें! चलो, छुटकारा पाने के लिए देते हो। लेकिन अगर तुम है कि तुम धुतकारोगे। बीच बाजार में पकड़ लेता है। वहां ईमानदार हुए तो तुम कहोगे कि बाबा, मेरे मन में देने की कोई इज्जत सवाल है : 'लोग क्या कहेंगे, दो पैसे भी न देते बने! इच्छा नहीं है। चाहे बाजार में सारी इज्जत प्रतिष्ठा पर लग जाए, लोग हंसेंगे।' वहां तुम दो पैसा देकर दानी बन जाना चाहते हो। चाहे कल दुकान बंद क्यों न हो जाए, चाहे लोग तुम्हें कृपण क्योंकि उस दो पैसे में इज्जत मिल रही है, वह इज्जत तुम दुकान | समझें, बेईमान समझें, धोखेबाज समझें, धन का आग्रही | पर काम में ले आओगे। दो पैसे से तुम दो रुपये निकालोगे। समझें-लेकिन तुम कहोगे कि क्या करूं, मेरे मन में देने का जिसने आज तुम्हें दानी की तरह देख लिया है, कल वही ग्राहक कोई स्वर नहीं है। की तरह दुकान पर होगा, तो तुम जो भी दाम बताओगे, मान | तप पैदा होगा। संयम भी पैदा होगा। क्योंकि बहत-से काम लेगा-आदमी दानी है! बाजार में अगर भिखमंगे ने पकड़ | तुम कर रहे हो इसलिए, क्योंकि करने चाहिए। अगर सब खरीद लिया तो तुम्हें देना ही पड़ता है।
| रहे हैं कोई सामान, नया फर्नीचर, नई कार, तो तुम भी खरीद रहे एक मारवाड़ी को एक भिखमंगे ने पकड़ लिया बाजार में। हो—बिना इसकी फिक्र किए कि तुम्हें जरूरत है। तुमने कभी तख्ती लगाए था भिखमंगा कि मैं अंधा हूं। और उसने कहा, सोचा कि तुम जो चीजें खरीद लाते हो, उनकी जरूरत थी? 'सेठ कुछ मिल जाए! बड़े दिन से सिनेमा नहीं गया हूं।' लेकिन अगर पड़ोसी खरीद लाए थे तो तुम भी खरीद लाते हो। मारवाड़ी तो तैयार ही था कि कैसे छूटे! उसने देखा, तुमने कभी सोचा है कि तुम जो कर रहे हो, जो दिखावा कर रहे 'सिनेमा-और तख्ती लगाए हो कि मैं अंधा हूं! सिनेमा जाकर हो, उसकी कोई जरूरत है? लेकिन और दिखावा कर रहे हैं तो करोगे क्या? धोखा देने की कोशिश कर रहे हो?' उस अंधे ने | तुम कैसे रह सकते हो! अगर व्यक्ति सचाई से अपने भीतर कहा, 'दाता! गाने ही सुन लूंगा! अब देने से न बचो।' देखने लगे, तो पाएगा: अचानक बहुत-से काम तो बंद हो गए, 'भीड़ लग गई थी। सेठ ने देखा, बचने का उपाय नहीं है, तो क्योंकि निष्प्रयोजन थे; दूसरे कर रहे थे, दूसरों के दिखावे के पांच पैसे का सिक्का निकालकर उसको देने लगा। अंधे ने कहा लिए तुम भी कर रहे थे। कि सेठ, बैंक में जमा करवा देना। मेरा मार्केट तो मत बिगाड़ लड़की की शादी करनी है, लोग हजारों रुपये लुटाते बाबा! पांच पैसे?
हैं-उनके पास नहीं हैं, कर्ज लेकर लुटाते हैं। क्यों? और भिखमंगा भी बाजार में है। उसका भी मार्केट है। सेठ भी दूसरों ने, दुश्मनों ने, पड़ोसियों ने पड़ोसी यानी बाजार में है; उसका भी मार्केट है। न दे तो उसका मार्केट दुश्मन-उन्होंने अपनी लड़की की शादी में इतना लगाया...। बिगड़ता है। ये लोग देख रहे हैं चारों तरफ, वे कहेंगे, अरे अब तुम्हारी इज्जत दांव पर लगी है। तुम्हारे अहंकार का सवाल कृपण! अरे कंजूस!
है। तुम्हें भी लगाना होगा। तुम्हें लड़की से कोई मतलब नहीं है। उस सेठ ने कहा कि 'तू पहचाना कैसे कि पांच पैसे का सिक्का न तुमने जो दिया है, वह प्रेम से दिया है। न तुमने लड़की को है, अगर तू अंधा है? अभी मैंने दिया भी नहीं, हाथ में ही लिया दिया है। तुमने अहंकार को दिया है। तुम अपने झंडे को ऊंचा
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