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________________ जिन सूत्र भागः महावीर जा चुके ! अब तुम कहां जा रहे हो? अब वह सत्पुरुष करने में निमित्त बना लेना, लेकिन जब नदी पार हो जाए, तो गुरु न रहा! को पकड़कर मत रुक जाना। महावीर कहते हैं, क्षणभर का भी तो वह वहीं रोने लगा। वहीं छाती पीटकर चिल्लाने लगा। प्रमाद मत कर, और इसमें क्षणभर की देर मत कर, आलस्य मत भरी आंखों से, टपकते आंसुओं से, उसने उन लोगों से पूछा कि कर-क्योंकि समय बीता जाता है, फिर लौटकर न आएगा! 'एक बात मुझे पूछनी है कि यह कैसा हुआ? यह उन्होंने कैसा और जो महावीर के जीते-जी न हो सका, वह महावीर की मृत्यु अन्याय किया? जीवनभर मैं उनके साथ रहा। तो आज तो कम | के कारण हो गया। गौतम को वह चोट भारी पड़ी। किनारा से कम मुझे बाहर न भेजते, दूर न भेजते! यह उन्होंने कौन-सा उसने नहीं छोड़ा, किनारा खुद ही जा चुका था अब। अब बदला लिया! एक ही बात पूछनी है मुझे मरते समय मुझे याद पकड़ने को कुछ था भी नहीं। जो जीवनभर महावीर के साथ किया था? मरने के पहले मेरे लिये कोई इशारा छोड़ा? क्योंकि रहकर बोध न हुआ, वह महावीर के मरने के एक दिन मैं तो अभी भी अंधेरे में भटक रहा हूं। मेरा क्या होगा? दीया | बाद...गौतम समाधि को उपलब्ध हो गया। उसने जान लियाः बुझ गया-अब मेरा क्या होगा?' तो उन लोगों ने...यह सूत्र संसार ही असार नहीं है, यहां सदगुरु के चरण भी छूट जाते हैं! महावीर ने गौतम के लिए कहा है, इसलिए गौतम का नाम इस यहां संपत्ति ही नहीं छूटती, सदगुरु भी छुट जाता है। यहां सभी सूत्र में आता है...उन लोगों ने गौतम को कहा, महावीर ने तुझे कुछ असार है। यहां अपने में ही लौट आने में सार है। याद किया था। वे यह सूत्र तेरे लिये छोड़ गए हैं : 'तू महासागर | ऐसा समझ कर...और तो सब छोड़ ही चुका था, यह महावीर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुंचकर क्यों खड़ा के प्रति लगाव था, यह भी छूट गया और यह लगाव बिलकुल है? उसे पार करने में शीघ्रता कर! हे गौतम, क्षणभर का भी मानवीय है, समझ में आता है। महावीर जैसा प्यारा पुरुष हो तो प्रमाद मत कर!' किसे लगाव न हो! गौतम की अड़चन समझ में आती है। तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ। महावीर ही कठोर मालूम होते हैं। गौतम का भाव तो ठीक ही है; अभितर पार गमित्तए, समय गोयम् ! मा पमायए।। समझ में पड़ता है। इतना प्यारा पुरुष कभी-कभी होता है। और 'हे गौतम! तू पूरा भवसागर पार कर गया, सारा संसार छोड़ ऐसे प्यारे पुरुष के पास पकड़ लेने का मन किसके मन में न दिया, सब तरफ से राग की जड़ें उखाड़ लीं-और अब तू होगा! और एकबारगी ऐसा भी होता है कि छोड़ो मोक्ष, छोड़ो किनारे को पकड़कर क्यों रुका है?' | बैकुंठ-यही चरण काफी है। ऐसा ही गौतम को हुआ होगा। किनारा यानी महावीर। ऐसा समझो कि तुम उस दूर के किनारे सब संसार छोड़ने की हिम्मत की थी, लेकिन ये चरण न छोड़ को पाने के लिए सारी नदी पार करते हो, निश्चित ही उस किनारे सका। लेकिन फिर ये चरण एक दिन छूट गए। जो भी बाहर है, जाने के लिए ही नदी पार करते हो। फिर इस नदी के सारे कष्ट | वह छूट ही जाएगा। उठाते हो-तूफान, झंझावात, धार के उपद्रव, मृत्यु का डर, डूब इसलिए महावीर कहते हैं : आत्मा में ही रमण करो। सब तरफ जाने का भय-यह सबको तुम पार कर जाते हो। फिर उस दूसरे से अपने में ही लौट आओ! अपने में ही लीन हो जाओ। उस किनारे को पकड़कर रुक जाते हो। रुके हो नदी में ही। किनारे आत्मलीनता को ही महावीर ने मोक्ष कहा है। को पकड़कर रुके हो! तुम कहते हो, इसी किनारे के लिए तो यह जो निमंत्रण गौतम के लिए है, यही निमंत्रण तम्हारे लिए सारी नदी पार की, वह किनारा छोड़ा, नदी छोड़ी, इतना संघर्ष भी है। झेला-अब इस किनारे को न छोड़ेंगे! पोत अगणित इन तरंगों ने तो महावीर कहते हैं, यह तो कुछ लाभ न हुआ। रुके तुम अब डुबाए, मानता मैं भी नदी में हो। अब इस किनारे को भी छोड़ो, बाहर निकलो! | पार भी पहुंचे बहुत से अब पार हो गए, नदी छूट गई, किनारे को भी छोड़ो! बात यह भी जानता मैं तो गुरु का उपयोग दूर के किनारे की तरह है। नदी को पार किंतु होता सत्य यदि यह 678 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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