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________________ प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति - और कर दे मेरे लिए कि इनको जाकर गंगा में डाल आ। दिमाग-दिल टटोलता वह आदमी गया तो, लेकिन लौटा नहीं, बड़ी देर होने लगी। कहां मनुष्य है कि जो तो रामकृष्ण ने कहा कि जाओ, देखो वह क्या कर रहा है। वह | उम्मीद छोड़कर जीया वहां एक-एक अशर्फी को बजा-बजाकर, खनका-खनकाकर इसीलिए अड़ा रहा फेंक रहा था पानी में। भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। चमत्कार हो रहा कि तुम मुझे पुकार लो था कि यह आदमी भी क्या कर रहा है! और वह एक-एक को इसीलिए खड़ा रहा बजाता, परखता, देखता, फेंकता। तो देर लग रही थी। गिनती कि तुम मुझे पुकार लो! रखता-तीन सौ तीन, तीन सौ चार-ऐसा धीरे-धीरे जा रहा पुकार कर दुलार लो था! तो रामकृष्ण ने कहा, उससे जाकर कहो कि नासमझ, जब दुलार कर सुधार लो! इकट्ठी करनी हों तो एक-एक अशर्फी को जांच-जांचकर, । भक्त कहता है, तुम्ही...! पुकारकर दुलार लो, दुलारकर परख-परखकर गिनती कर-करके, खाते में लिख-लिखकर सुधार लो! तुम्ही...! करना पड़ता है। जब पूरी फेंकनी हैं नदी में तो हजार हुईं कि नौ भक्त की बड़ी अनूठी भाव-दशा है। भक्त को कुछ भी करना सौ निन्यानबे हईं कि एक हजार एक हुईं! जब फेंकना है तो नहीं है, सिर्फ कर्तापन का भाव छोड़ना है। ज्ञानी को बहुत कुछ इकट्ठा फेंका जा सकता है; गिन-गिनकर वहां क्या कर रहा है? करना है-लंबी यात्रा है। और मजा यह है कि ज्ञानी कर-करके भक्त कहता है, जब डालना ही है उसके चरणों में तो भी अंत में यही कर पाता है कि कर्तापन का भाव छोड़ पाता है। गिन-गिनकर क्या डालना, इकट्ठा ही डाल देंगे! और यह भी | वह उसकी अंतिम सीढ़ी है। भक्त की वही प्रथम सीढ़ी है। अहंकार क्यों करना कि पुण्य ही उसके चरणों में डालेंगे! | इसलिए मैं बार-बार कहता हूं, ज्ञानी क्रमशः चलता है, भक्त यह भक्त की महिमा है। वह कहता है, पाप भी उसी के चरणों | छलांग लगाता है। ज्ञानी सीढ़ी से उतरता है; भक्त छलांग में डाल देंगे। यह भी अहंकार हम क्यों रखें कि हम पण्य ही तेरे | लगाता है। चरणों में चढ़ाएंगे, पाप न चढ़ाएंगे? इसमें भी बड़ी सूक्ष्म इसलिए महावीर के वचनों में तुम्हें एक क्रमबद्धता मिलेगी, अस्मिता है छिपी हुई, कि मैं और पाप तेरे चरणों में चढ़ाऊं! एक वैज्ञानिक शृंखला मिलेगी। एक कदम दूसरे कदम से जुड़ा नहीं, पहले पुण्य का निर्माण करूंगा, फिर चढ़ाऊंगा। मैं, और हुआ है। एक-एक कदम ब्योरेवार, साफ-साफ! सब गलत तेरे चरणों में आऊं-नहीं। आऊंगा-सर्व सुंदर होकर, इंगित-इशारे हैं। पूरा नक्शा है। जगह-जगह मील के पत्थर हैं। सर्वांग सुंदर होकर, महिमा से आवृत्त होकर-तब तेरे चरणों में कितने आ गये, कितना आगे जाने को है-सब लिखा है। रखंगा! इसमें भी बड़ी अस्मिता है। भक्त कहता है, अब जैसा महावीर ने चौदह गुणस्थान कहे हैं और पूरी यात्रा को चौदह भी हं, दीन-हीन, बुरा-भला, सुंदर-असुंदर, स्वीकार कर लो! खंडों में बांट दिया है। एक-एक खंड का स्पष्ट मील का पत्थर इसीलिए खड़ा रहा है। तुम पक्की तरह जान सकते हो कि तुम कहां हो, कितने चल कि तुम मुझे पुकार लो गये हो और कितना चलने को बाकी है। चौदहवें गणस्थान के जमीन है न बोलती बाद ही यात्रा पूरी होती है। नआसमान बोलता भक्त के पास कोई गुणस्थान नहीं है। भक्त के पास कोई जहान देखकर मुझे नक्शा ही नहीं है। भक्त के पास कोई क्रमबद्ध सीढ़ियां नहीं हैं। नहीं जबान खोलता भक्त को कुछ पता भी नहीं कि वह कहां है। वह इतना ही भर नहीं जगह कहीं जहां जानता है कि जहां भी हूं, उसी का हूं; जैसा भी हूं, उसी का हूं। न अजनबी गिना गया बस इतना सूत्र उसके हृदय में सघन होता चला जाता है। कहां-कहां न फिर चुका और यह निर्भर करता है तुम पर, चाहो तो एक क्षण में छलांग 649 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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