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________________ जिन सूत्र भागः1 HRRHEATRNET लग जाये, चाहो तो तुम जन्मों-जन्मों तक छलांग का विचार क्योंकि ऐसे ही तो बहत प्रतीक्षा की उसने। और वह सदा डरा करते रहो। होता है कि कहीं छूट न जाये, आया हुआ कहीं खो न जाये। जो गणित से जीते हैं उनके लिए ज्ञान का रास्ता है। जो प्रेम से जिसने, इतने श्रम से आया है, इतनी लंबी यात्रा करके आया है, जीते हैं उनके लिए भक्ति का रास्ता है। तब कहीं पानी के दर्शन हुए, वह तो एकदम झुक जाता है और 'नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी पीने में लग जाता है। लेकिन भक्त को तो बिना कुछ किए चंचल है मति मोरी!' मिलता है। वह कोई लंबी यात्रा करके आया नहीं है। 'उसके' उस चंचल मति को उसके चरणों में रख दो! कहना, ले | प्रसाद से मिलता है। 'उसकी' अनुकंपा से मिलता है। उसने सम्हाल! फिर अगर वह कहे कि नहीं, तुम्ही सम्हालो मेरे लिए, | कुछ अर्जित किया, ऐसा नहीं है। उसने किसी योग्यता के बल तो जैसे रामकृष्ण ने उस आदमी से कहा था कि जा मेरे लिए गंगा पर पाया, ऐसा नहीं। उसने तो अपनी अपात्रता को जाहिर में फेंक आ, तो तुम सम्हालना जब तक उसने तुम्हें दी है। वह करके, उसके ही हाथ में सब छोड़कर पाया है। तो वह चाहे तो अमानत है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। वह कहता है, थोड़ी मान-मनौवल कर सकता है। रुक सकता है। वह कहता सम्हाल मेरे लिए। अमानत है, तो तुमने सम्हाल ली है; जब है, 'आने दो, थोड़ा और जल को बढ़ने दो। इतना आ गया है तो मांगेगा तब वापस लौटा देंगे। ओंठ तक भी आ ही जायेगा। तब पी लेंगे। अंजुलि भी क्यों बांधे? और जिसने इतनी कृपा की है कि जल को ले आया है दूसरा प्रश्नः दो दिन पहले संध्या के दर्शन में आपने एक | इतने करीब, वह इतनी और भी करेगा।' युवती से कहा था, श्रद्धा करो। और मैंने भी आपकी बात पर उल्फत का जब मजा है कि वह भी हों बेकरार श्रद्धा की कि जहां उत्कट प्यास होगी वहां पानी को आना ही दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई। पड़ेगा। अब पानी तो आ गया है, लेकिन क्या मैं तुरंत अंजलि | और भक्त को तो जैसे-जैसे भक्ति में गहराई आती है, भर के पीना शुरू करूं या पानी मुंह तक आ जाये, इसकी धैर्य | वैसे-वैसे यह बात दिखाई पड़ने लगती है कि मैं ही उसे नहीं से प्रतीक्षा करूं? खोज रहा है, वह भी मुझे खोज रहा है। सचाई भी यही है। प्यासा ही जलस्रोत को नहीं खोज रहा है, जलस्रोत भी प्रतीक्षा तुम्हारी जैसी मर्जी! कर रहा है कि आओ। क्योंकि जब प्यासा जलस्रोत पर तृप्त साधना के जगत में हर जगह भक्त और साधक का फर्क है। होता है, तब जलस्रोत भी तप्त होता है। प्यासे की ही प्यास नहीं साधक तत्क्षण अंजलि भरकर पी लेगा। भक्त थोड़ी बुझती, जलस्रोत की भी जन्मों-जन्मों की प्यास बुझती है। मान-मनौवल चाहता है। वह कहता है, भगवान कहे, जलस्रोत का सुख यही है कि किसी की प्यास बुझे। 'पीयो!' थपथपाए कि 'चलो पीयो भी! माना कि बहुत देर तुम ही खोज रहे हो परमात्मा को, अगर ऐसा ही होता और उसे प्यासे रहे, अब तो पी लो।' तो वह रूठकर खड़ा हो जाता है। कोई प्रयोजन नहीं है तुमसे, तो खोज पूरी भी होती, इसकी झुकाया तूने, झुके हम, बराबरी न रही। संभावना नहीं है। क्योंकि अगर उसको रस ही न हो खोजे जाने यह बंदगी हुई ऐ दोस्त! आशिकी न रही। में, तो तुम कैसे खोज पाते? तुम खोज पाते हो, क्योंकि वह भी वह बड़े मान-मनौवल लेता है। वह कहता है, 'झुकें? क्यों चाहता है तुम खोज लो। वह ऐसी जगह खड़ा होता है कि तुमसे झुकें?' और वह यह इसीलिए कह पाता है, 'क्यों झुकें', मिलन हो जाये। वह ऐसे तुम्हारे पास ही आकर खड़ा हो जाता है क्योंकि वह झुका तो है ही। | कि तुम जरा ही खोजबीन करो कि मिलना हो जाये। सब उसने छोड़ा है तो यह हक अर्जित किया है कि वह थोड़ा तुमने बच्चों को देखा है न, छिया-छी खेलते, बस वही खेल रूठने-मनाने का खेल खेल सकता है। है। वे कोई ज्यादा दूर नहीं चले जाते कि फिर तुम खोज ही न साधक के सामने जब पानी आता है तो वह तत्क्षण पी लेता है, पाओ। वहीं कमरे में बिस्तर के पीछे छिपे हैं, कि पलंग के नीचे 650 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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