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________________ जिन सूत्र भागः1 तरकीब है। वृक्ष अपने को पुनः पुनः जन्माना चाहता है। कई छोटा मिलते ही इतना छोटा हो जायेगा कि तुम्हारी वासना उसमें तरकीबें करता है वृक्ष। फूल उगाता है सुंदर, तितलियों को समा न सकेगी। फिर तुम कहोगे, 'और...।' फिर तुम लुभाने के लिए। क्योंकि तितलियों के पैरों में लगकर, बीज के कहोगे, 'और...।' बीज की तरह जो प्रवेश हुआ था, वह छोटे-छोटे कण-पराग, नर पौधे तक पहुंच जायेंगे, नारी पौधे जल्दी ही वृक्ष की तरह पनपने लगेगा। और बीज की तरह जिसे तक पहुंच जायेंगे। मिलन हो जायेगा नर और मादा का। तो फूल मिटाना अति सुगम था, फिर वृक्ष को काटना मुश्किल हो जो है विज्ञापन है वृक्ष का; बुलावा है तितली को, कि आओ। जायेगा; क्योंकि इस वृक्ष की शाखायें तुम्हारी आत्मा में फैल तितली से प्रयोजन नहीं है, तितली के पैरों में पराग लग जाये तो | जायेंगी। फिर इस वृक्ष को उखाड़ने में तुम्हें लगेगा, तुम्हारे प्राण नर मादा को खोज ले, मादा नर को खोज ले, तो बीज-निर्माण उखड़े। तुम जराजीर्ण होने लगोगे। हो, तो संतति आगे बढ़े। ___ कभी खयाल किया, जो आदमी जिंदगी भर क्रोध करता रहा सेमर के फूल देखे! बीज के पास रुई को पैदा करते हैं। है, वह कितना सोचता है क्रोध छोड़ दे! कौन नहीं सोचता! क्योंकि सेमर बड़ा वृक्ष है। अगर बीज नीचे ही गिरें तो वृक्ष की क्योंकि क्रोध जलाता है, व्यर्थ की आग में गिराता है, जहर से छाया के कारण बड़े न हो पायेंगे। वृक्ष बड़ी होशियारी कर रहा | भरता है, जीवन से सारा सुख-चैन खो जाता है। कौन नही है। वह साथ में रुई पैदा कर रहा है। तुम्हारे तकियों के लिए चाहता। लेकिन क्रोधी क्रोध छोड़ नहीं पाता। लाख सोचता है, नहीं, अपने बीज को हवा की यात्रा पर भेजने को, ताकि बीज दूर | | छोड़ दे; छोड़ नहीं पाता। क्योंकि अब उसे समझ में ही नहीं चला जाये, नीचे न गिरे। ठीक वृक्ष के नीचे गिर जायेगा तो मर आता कि जड़ें उखाड़े कहां से! अब तो उसे ऐसा भी डर लगने जायेगा। इतने बड़े वृक्ष की छाया में कैसे पनपेगा, कैसे बड़ा | लगता है कि मैंने सदा ही क्रोध ही तो किया है, क्रोध ही तो मेरा होगा? धूप न मिलेगी। पानी न मिलेगा। क्योंकि बड़ा वृक्ष सब होना है। अगर क्रोध ही गया तो मैं कहां बचूंगा, मैं क्या बचूंगा। पी जायेगा। पूरी भूमि को निचोड़ लेगा। ये छोटे-छोटे बीज तो | उसको अपनी प्रतिमा ही खोती मालम पड़ती है। क्रोध के बिना मर जायेंगे। इन बेटे-बेटियों के लिए वह थोड़ी-सी रुई पैदा वह अत्यंत दीन मालूम पड़ेगा। क्रोध ही उसका बल था। क्रोध करता है। वे रुई के बहाने हवा पर तिर जाते हैं, हवा के झोंके में में ही उसकी महिमा थी। क्रोध में ही वह दूसरों की छाती पर चढ़ दूर निकल जाते हैं। कहीं दूर जाकर जमीन खोज लेंगे। फिर वहां गया था। क्रोध में ही उसने किसी को पराजित किया था। क्रोध वे भी बड़े होकर खड़े हो जायेंगे। | में ही बाजार में प्रतियोगिता की थी, प्रतिस्पर्धा की थी। क्रोध में काम, क्रोध, लोभ, मोह भी बीज की तरह तम्हारे मन की भूमि ही उसने बड़ा मकान बना लिया था। क्रोध की ही तरंगों पर में आते हैं। इसलिए महावीर का सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। वे यह चढ़कर उसने जीवन को जाना है। आज अचानक क्रोध छोड़ देने कहते हैं, छोटे मानकर मत सोच लेना कि क्या, क्या बिगड़ता की बात उठती है; उठती है, उसी के मन में उठती है, कोई न कहे है। जरा-सा बच्चे पर क्रोध कर लिया, क्या हर्ज। अपना ही तो भी उठती है क्योंकि क्रोध दुख देता है। लेकिन, क्रोध बच्चा है। उसके ही सुधार के लिए क्रोध कर रहे हैं। और फिर उसकी प्रतिमा में इतना प्रविष्ट हो गया है रग-रेशे में, जड़ें फैल क्रोध जरा-सा है। एक चांटा भी मार दिया तो क्या, अपना ही तो गई हैं छोटे-छोटे स्नायुओं में, तंतु-जाल हो गया है! है! ऐसे छोटे-छोटे बहाने खोजकर क्रोध प्रवेश करता है, माया कभी किसी बड़े वृक्ष को पृथ्वी से उखाड़कर देखा! कितने प्रवेश करती है, मोह प्रवेश करता है, लोभ प्रवेश करता है। दूर-दूर तक जड़ें फैल जाती हैं। दूसरे वृक्षों की जड़ों को भी अपने आदमी कहता है, कोई ज्यादा तो मैं मांग नहीं रहा, थोड़ा-सा ही में अटका लेती हैं। तुम्हारे मकान की भूमि में चली जाती हैं। मांग रहा हूं। इस संसार में तो इतनी-इतनी वासनाओं भरे लोग मकान की नींव में प्रवेश कर जाती हैं। मकान की ईंटों को जकड़ हैं; मैं तो कुछ मांगता नहीं। परमात्मा, एक छोटा-सा मकान | लेती हैं। | मांगता हूं, छोटी-सी घर-गृहस्थी हो, सुख-शांति हो!... बैंकाक के पास बुद्ध की एक प्रतिमा है, बड़ी मूल्यवान प्रतिमा छोटा मिल जायेगा तब तुम बड़ा मांगना शुरू करोगे। क्योंकि है! एक वृक्ष उस प्रतिमा में समाकर बैठ गया है। प्रतिमा 232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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