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जिन सूत्र भाग: 1
है, वहां पहुंच गये। सभी जगह पहुंच जाते हैं। इस तरह के लोग क्यों भटकते रहते हैं, यह भी बड़े आश्चर्य की बात है! अपने घर ही रहें! अपनी नाक बचानी है, अपने घर ही रहो; यहां-वहां जाने में कहीं कट ही जाये ! कोई रौ आ जाये, कोई सनक चढ़ जाये, किसी भावावेश में कटवा बैठो, फिर पछताओगे !
रामकृष्ण की बैठक में कोई पहुंच गये ज्ञानी । पंडित थे, जानकार थे शास्त्रों के। रामकृष्ण कह रहे थे कि ओंकार के नाद से बड़ी उपलब्धि होती है। ज्ञानी को अड़चन पड़ी। उसने कहा, ठहरें ! .. क्योंकि ज्ञानी जानता है कि रामकृष्ण गैर पढ़े-लिखे हैं, शास्त्र का तो कुछ पता नहीं है, हांक रहे हैं; संस्कृत तो आती नहीं, कुछ भी कहे चल जा रहे हैं ! वह अपना ज्ञान दिखाना चाहता था। उसने कहा कि शब्दों में क्या रखा है ! ओंकार तो केवल एक शब्द है, इसमें रखा क्या है ? इससे कैसे आत्मज्ञान हो जायेगा ?
तो पते की ही कह रहा था, लेकिन खुद आदमी पते का नहीं था । रामकृष्ण ने उसकी तरफ देखा, चुप बैठे रहे। वह और जोर-जोर से शास्त्रों के उल्लेख करने लगा और उद्धरण देने लगा। कोई आधा घंटा बीत गया, तब रामकृष्ण एकदम से | चिल्लाये : 'चुप, उल्लू के पट्ठे ! बिलकुल चुप ! अगर एक शब्द बोला आगे तो ठीक नहीं होगा।'
'उल्लू के पट्ठे' तो मैं कह रहा हूं, रामकृष्ण ने ज्यादा वजनी गाली दी । तो रामकृष्ण कोई छोटी-मोटी बकवास नहीं मानते थे; वे जब गाली देते थे तो बिलकुल नगद ! वह आदमी घबड़ा गया, तमतमा गया एकदम ! क्रोध भर गया आंख में जोश आ गया। सांझ थी ठंडी, शीत के दिन थे, पसीना-पसीना हो गया। पर हिम्मत भी न पड़ी, क्योंकि अब रामकृष्ण ने इतने जोर से कहा है, और अगर कुछ गड़बड़ की तो मारपीट हो जायेगी; वहां सब रामकृष्ण के भक्त थे। फिर, रामकृष्ण फिर अपना समझाने लगे कि ओंकार...। कोई पांच-सात मिनट बाद उस आदमी की तरफ देखा और कहा, महानुभाव! माफ करना। वह तो मैंने सिर्फ इसलिए कहा था कि देखें शब्द का असर होता है कि नहीं! तुम तो बिलकुल तमतमा... । 'उल्लू के पट्ठे' का इतना असर, तो जरा सोचो तो ओंकार का ! पसीना-पसीना हुए जा रहे हो, मरने-मारने पर उतारू हो । वह तो यह कहो कि लोग मौजूद हैं, नहीं तो तुम मेरी गर्दन पर सवार हो जाते। हाथ-पैर तुम्हारे कंप
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रहे हैं। जरा-सा शब्द 'उल्लू के पट्ठे' मंत्र का काम कर गया। जरा सोचो तो ! शास्त्र काम न आये। इतना तो याद रखते कि 'शब्दों में क्या रखा है !'
वस्त्रों में क्या रखा है, पूछते हो ? माला में क्या रखा है, पूछते हो ? उल्लू के पट्ठे ! थोड़ा सोचना, थोड़ा विचार करना ! आदमी जैसा है, छोटी-छोटी बातों से जीता है। क्षुद्र-क्षुद्र बातों से बनकर, मिलकर तुम्हारा व्यक्तित्व बना है। वह जिसने गैरिक वस्त्र स्वीकार किये हैं, वह भी जानता है, तुमसे ज्यादा भलीभांति जानता है कि वस्त्रों से कुछ भी होनेवाला नहीं है; लेकिन उसने एक कदम उठाया है; होने की दिशा में थोड़ी हिम्मत की है; पागल होने की हिम्मत की है। मेरे साथ चलने की हिम्मत पागल होने की हिम्मत है। क्योंकि मेरे साथ चलने का मतलब है समाज में अड़चन होगी, परिवार में अड़चन होगी। अगर पति हो तो पत्नी झंझट देगी। अगर पत्नी हो तो पति झंझट देगा | अगर बाप हो तो बच्चे झंझट देंगे ।
संन्यासी मेरे पास आकर कहते हैं कि बेटे कहते हैं, 'पिता जी ! आप घर में ही पहनो ये वस्त्र तो ठीक है, क्योंकि स्कूल में दूसरे बच्चे हम पर हंसते हैं कि तुम्हारे पिताजी को क्या हो गया ! भले-चंगे थे, यह क्या इनको धुन सवार हुई !' पलियां मेरे पास आती हैं। कहती हैं कि जरा समाज में जीना है, कम से कम इतना तो कर दो कि विवाह इत्यादि के अवसर पर पतिदेव गेरुआ पहनकर न पहुंचें, नहीं तो दूल्हा तो एक तरफ रह जाता है, ये दूल्हा मालूम पड़ते हैं। और स्त्रियां देखकर हंसती हैं कि इनको क्या हो गया !
कोई मेरे साथ खड़े होकर तुम्हें कुछ राहत थोड़े ही मिल जायेगी! अड़चन में डालूंगा। यह तो अड़चन में डालने की शुरुआत है। जैसे-जैसे पाऊंगा कि तुम्हारी अंगुली हाथ में आ गई, पहुंचा पकडूंगा। यह तो शुरुआत है। आगे-आगे देखिए होता है क्या !
तीसरा प्रश्न : भीतर विचारों की ऐसी भीड़ है कि भगवान का भी... भगवान जैसा गुरु पाकर भी इस जन्म में पहुंचने की आशा नहीं बंधती । बिना कारण आंसू बहाता हूं, रोता हूं, चीखता-चिल्लाता हूं, फिर भी मौका आने पर न अहंकार से बच पाता हूं और न भीतर की बड़बड़ाहट से । प्रभु श्री, यदि
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